आयरन लेडी संजुक्ता पराशर

असम में आईपीएस संजुक्ता पराशर को आयरन लेडी के नाम से जाना जाता है. जिस तरह वह हाथों में एके 47 ले कर जंगलों में कौंबिंग करती थीं, वह भी खूंखार उग्रवादियों के इलाकों में, उस से उन्हें महिला सशक्तिकरण की जीतीजागती मिसाल माना जाना चाहिए. इस आयरन लेडी ने…

15महीने में 16 एनकाउंटर करना कोई छोटी बात नहीं होती. लेकिन कानून की रक्षा के लिए सिर पर

कफन बांध कर निकलने वालों के लिए यह कोई बड़ी बात नहीं. ये वे लोग होते हैं, जो फर्ज और देश के लिए सिर पर कफन बांध कर निकलते हैं और इस के लिए मर भी सकते हैं. असम की आयरन लेडी के नाम से मशहूर संजुक्ता पराशर उन्हीं में से हैं.

सन 2008-09 में टे्रनिंग के बाद संजुक्ता पराशर की तैनाती असम के माकुम में असिस्टैंट कमांडेंट के रूप में हुई थी. उन की पोस्टिंग के कुछ ही दिन हुए थे कि उदालगिरी बोडो और बांग्लादेशियों के बीच जातीय हिंसा हुई तो संजुक्ता पराशर को उस जातीय हिंसा को रोकने के लिए भेजा गया.

इस औपरेशन को उन्होंने खुद लीड किया और केवल 15 महीने में 16 आतंकवादियों को मार गिराया. साथ ही 64 को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया. एके 47 रायफल हाथ में ले कर जंगलों में वह न सिर्फ कौंबिंग करती थीं, बल्कि सब से आगे चलती थीं.

संजुक्ता नईनई पुलिस अधिकारी थीं, पर अपनी हिम्मत से उन्होंने उस जातीय हिंसा को तो समाप्त किया ही, उन्होंने अपनी टीम के साथ कुछ ऐसा किया कि उग्रवादी उन के नाम से कांपने लगे.

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देश की आंतरिक सुरक्षा का मामला हो या फिर सीमा पर दुश्मनों से डट कर मुकाबले की बात हो, हमेशा हमारे जेहन में रौबदार पुरुष जवानों के ही चेहरे उभरते हैं. लेकिन अब यह मिथक टूटने लगा है. देश की बेटियां अब पुलिस से ले कर सेना तक में अपना लोहा मनवा रही हैं.

असम की इस प्रथम लेडी आईपीएस ने बहुत कम समय में अपनी बहादुरी से मीडिया में ही नहीं, आम आदमी के दिल तक में अपनी जगह बना ली है.

असम की आयरन लेडी के नाम से मशहूर आईपीएस अधिकारी संजुक्ता पराशर ने देश के पूर्वी राज्य असम में पिछले कई सालों तक बोडो उग्रवादियों के खिलाफ मोर्चा ही नहीं संभाला, बल्कि उन्होंने जिस तरह जंगलोें में ढूंढढूंढ कर आतंकवादियों को गिरफ्तार किया, इस से इस पुलिस अफसर ने बहादुरी की एक नई मिसाल पेश की है.

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41 वर्षीया आईपीएस संजुक्ता पराशर असम की ही रहने वाली हैं. उन के पिता दुलालचंद बरुआ असम में सिंचाई विभाग में इंजीनियर थे और मां मीरा देवी स्वास्थ्य विभाग में नौकरी करती थीं.

बचपन से ही संजुक्ता को खेलकूद का शौक था. उन्हें तैराकी बहुत अच्छी आती है. इस के लिए उन्हें स्कूल में कई पुरस्कार भी मिले. मां ने उन की इन खूबियों को निखारा. वह हमेशा संजुक्ता को समझाती थीं कि वह किसी से कम नहीं है.

मां ने उन्हें एक बेटे की तरह ही मौके दिए. उन्होंने ही संजुक्ता को हिम्मत और सम्मान के साथ जीना सिखाया. उसी का नतीजा है कि आज वह सिर उठा कर चल रही हैं.

असम के गुवाहाटी के होली चाइल्ड स्कूल से 12वीं तक की पढ़ाई पूरी करने के बाद संजुक्ता आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली आ गईं, जहां उन्हें अलगअलग राज्यों से आए छात्रों से मिलने का मौका मिला. यहां उन के लिए बहुत कुछ नया था.

दिल्ली में उन्होंने दिल्ली यूनिवर्सिटी के इंद्रप्रस्थ कालेज से राजनीति विज्ञान से ग्रैजुएशन किया. नंबर कम होने से इंद्रप्रस्थ कालेज में उन का दाखिला ही नहीं हो रहा था, लेकिन फिर हुआ तो आगे चल कर उसी लड़की ने यूपीएससी की परीक्षा में 85वीं रैंक हासिल की.

इंद्रप्रस्थ कालेज से ग्रैजुएशन करने के बाद उन्होंने जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) से इंटरनैशनल रिलेशन में मास्टर डिग्री ली और यूएस फौरेन पौलिसी में एमफिल और पीएचडी की. पीएचडी करने के बाद वह सन 2004 में आब्जर्वर रिसर्च में काम करने लगीं.

बचपन से ही वह आईपीएस बन कर देश और जनता की सेवा करना चाहती थीं, इसलिए आब्जर्वर रिसर्च में काम करने के साथसाथ वह संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) की तैयारी भी कर रही थीं. वह रोजाना करीब 5 से 6 घंटे पढ़ाई करती थीं. उन की मेहनत रंग लाई और सन 2006 में उन्होंने यूपीएससी की परीक्षा पास कर ली.

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अच्छी रैंक की वजह से उन्हें अपनी इच्छा से कैडर चुनने की छूट दी गई. संजुक्ता पराशर जब असम में अपनी स्कूली पढ़ाई कर रही थीं, तभी से वह अपने राज्य में हो रही आतंकवादी घटनाओें और भ्रष्टाचारियों की गतिविधियों से दुखी थीं. इसलिए उन्होंने अच्छी रैंक लाने के बावजूद आईएएस बन कर आराम की नौकरी करने के बजाय आईपीएस बन कर असम में काम करने का निर्णय लिया.

इस के लिए उन्होंने असम मेघालय कैडर चुना. क्योंकि आईपीएस बन कर वह कुछ अच्छा करना चाहती थीं. पुलिस अफसर बन कर उन्होंने किया भी यही.

एक महिला होने के नाते असम के अशांत इलाके में काम करना आसान नहीं था, पर संजुक्ता ने दिलेरी के साथ इसे स्वीकार किया. 2008 में ही उन्होंने असम-मेघालय कैडर के आईएएस अधिकारी पुरु गुप्ता से शादी की. इस समय उन के 2 बेटे हैं, जिन की देखभाल उन की मां करती हैं.

व्यस्तता की वजह से वह 2 महीने मेें एक बार ही अपने परिवार से मिल पाती हैं. पुलिस अधिकारी होने के साथसाथ वह मां भी हैं, पर काम की वजह से उन्हें परिवार से दूर रहना पड़ता है.

उदालगिरी में जातीय हिंसा पर काबू पाने के बाद उन की पोस्टिंग आतंकवादग्रस्त इलाके में ही कर दी गई.

वहां संजुक्ता उग्रवादियों के पीछे हाथ धो कर पड़ गईं. उन्हें जोरहट जिले का एसपी बनाया गया तो हाथ में एके-47 ले कर असम के जंगलों में सीआरपीएफ के जवानों को लीड करती थीं.

संजुक्ता पराशर ने अपनी टीम पर हमला करने वाले उग्रवादियों की धरपकड़ तो की ही, साथ ही उन उग्रवादियों को भी पकड़ा, जो जंगल को अपने छिपने के लिए इस्तेमाल करते थे. इस तरह की जगहों पर औपरेशन को लीड करना बहुत मुश्किल होता है. यह बहुत ही दुर्गम इलाका है, जहां मौसम में तो नमी रहती है, कब बारिश होने लगे, कहा नहीं जा सकता. साथ ही नदी, झील और जंगली जानवरों का भी खतरा रहता है.

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नदी और झील पार कर दूसरे छोर तक पहुंचना बहुत कठिन काम होता है. इस के अलावा स्थानीय निवासी भी उग्रवादियों को पुलिस की गतिविधियों की सूचना देते रहते हैं.

2011 से 2014 तक जोरहट की एसपी रहते हुए संजुक्ता पराशर ने औपरेशन को खुद ही लीड करते हुए सन 2013 में 172 तो 2014 में 175 आतंकवादियों को गिरफ्तार कर सलाखों के पीछे पहुंचाया. इस के बाद सन 2015-16 में सोनितपुर की एसपी रहते हुए उन्होंने अपने 15 महीने के औपरेशन में 16 आतंकवादियों को मार गिराया तो 64 को गिरफ्तार किया. जबकि सोनितपुर के जंगलोें में आतंकवादियों को खोज निकालना बहुत जोखिम का काम था.

पर उन्होंने इस चुनौती को स्वीकार किया और उग्रवादियों के बीच अपने नाम का लोहा मनवा कर ही रहीं. उन्होंने तमाम उग्रवादियों को गिरफ्तार तो किया ही, इन आतंकियों के पास से उन्होंने भारी मात्रा में गोला, बारूद भी बरामद किया. मणिपुर के चंदेल में 18 सीआरपीएफ के जवानों के शहीद होने के बाद संजुक्ता पराशर को उन की टीम के साथ उस इलाके में पैट्रोलिंग के लिए भेजा गया. इस का नतीजा यह निकला कि इस बहादुर आईपीएस की टीम ने मई, 2016 में मलदांग में नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट औफ बोडोलैंड शाक विजिट के 4 आतंकवादियों को गिरफ्तार किया.

इस की वजह यह थी कि जिस जगह पर अन्य पुलिस अधिकारी जाने से डरते थे, संजुक्ता पराशर वहां बेखौफ हो कर औपरेशन चलाती थीं. यही वजह थी कि उन का नाम सुन कर उग्रवादी कांपने लगे थे, उन्हें जान से मारने की धमकी देने लगे थे. बाजारों में भी उन के खिलाफ पैंफ्लेट चिपकाए गए, पर उग्रवादियों की इन धमकियों से न कभी वह डरीं और न कभी इस की परवाह की.

वह अपने आतंकवाद विरोधी अभियान में उसी तरह लगी रहीं. आतंकवादियों के लिए वह बुरे सपने की तरह थीं.

महिला होने के बावजूद संजुक्ता पराशर का नाम सुन कर बड़े से बड़े दहशतगर्दों की दहशत दम तोड़ देती थी. क्योंकि वह बड़ा से बड़ा जोखिम भरा काम करने से जरा भी नहीं घबराती थीं. इस की वजह यह है कि संजुक्ता के लिए महिला होना किसी तरह की कमजोरी नहीं है.

अपनी इसी बहादुरी की वजह से संजुक्ता पराशर आज लड़कियों की रोल मौडल बन गई हैं. सन 2017 में उन की पोस्टिंग नैशनल इनवैस्टिगेशन एजेंसी (एनआईए) में एसी के रूप में 4 साल के लिए कर दी गई. तब से वह एनआईए में ही काम कर रही हैं.अपने काम से हमेशा संतुष्ट रहने वाली संजुक्ता पराशर को एक बात का अफसोस है कि जब वह सोनितपुर की एसपी थीं, तब वह एक बिजनेसमैन को नहीं बचा पाईं थीं. इसे वह अपने जीवन का सब से मुश्किल केस भी मानती हैं.

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दरअसल, एक गैंग ने उस बिजनेसमैन को हनीट्रैप में फांस कर अपहरण कर लिया था. अपहरण में उसी का गनमैन और एक कालगर्ल शामिल थी. फिरौती के लिए जिस नंबर से फोन किए जा रहे थे, वह सिम फरजी नामपते पर लिया गया था. इसलिए पुलिस को अपहर्ताओं तक पहुंचने में काफी समय लग गया और पुलिस जब तक उन तक पहुंचती, तब तक अपहर्ताओं ने बिजनेसमैन की हत्या कर दी थी.

साल 2017 में संजुक्ता पराशर को भोपाल और उज्जैन पैसेंजर ट्रेन में हुए 7 धमाकों की जांच के लिए नैशनल इनवैस्टीगेशन एजेंसी में बतौर टीम हैड नियुक्त किया गया था. तब से वह एनआईए में तैनात हैं.

संजुक्ता को महिला सशक्तिकरण के लिए दिल्ली महिला आयोग ने अवार्ड भी दिया था.

दिल्ली का सुपरकॉप संजीव यादव

संजीव यादव दिल्ली पुलिस के वह सुपरकौप हैं, जिन के नाम से बड़ेबड़े बदमाश थरथर कांपते हैं. स्पैशल सेल के डीसीपी संजीव अब तक 75 बदमाशों को मौत के घाट उतार चुके हैं. फिल्म बटला हाउस में जौन अब्राहम ने उन्हीं का किरदार निभाया था. संजीव का अपराधों के विरूद्ध अभियान…

एसीपी संजीव यादव को जामिया नगर स्थित बटला हाउस की बिल्डिंग एल 18 के मकान नंबर 108 तक पहुंचने में 20 मिनट का समय लगा था. लेकिन उस से पहले ही उन की टीम के बहादुर इंसपेक्टर मोहनचंद्र शर्मा और

हैडकांस्टेबल आतंकवादियों की गोलियों से जख्मी हो चुके थे. जिन्हें स्पैशल सेल की टीम के लोग अस्पताल ले गए थे.

संजीव यादव को बटला हाउस पहुंचने से पहले जब मोहनचंद्र शर्मा की आतंकवादियों से हुई मुठभेड़ और उन के घायल होने की सूचना मिली थी तो उन्होंने अपने डीसीपी आलोक वर्मा तथा जौइंट कमिश्नर करनैल सिंह को भी इस की सूचना दे दी थी.

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इसी बीच उन्होंने अपनी गाड़ी के पीछे चल रहे स्टाफ को संदेश दे दिया कि बुलेटप्रूफ जैकेट पहन लें और हथियारों से लैस हो मुठभेड़ के लिए तैयार रहें.

तैयारी पूरी थी, बटला हाउस में आतंकवादियों के छिपे होने वाले मकान पर पहुंच कर उन्होंने अपने स्टाफ के साथ धावा बोल दिया, जहां भीतर से हुई फायरिंग के कारण इंसपेक्टर मोहनचंद्र शर्मा घायल हुए थे.

बुलेटप्रूफ  जैकेट पहने एसीपी संजीव यादव ने जान जोखिम में डाल कर मकान नंबर 108 में जब प्रवेश किया तो उन की टीम पर अंदर छिपे आतंकवादियों ने ताबड़तोड़ फायरिंग की, लेकिन किस्मत अच्छी थी कि गोली किसी को लगी नहीं. जवाब में संजीव यादव की टीम ने भी क्र्रौस फायरिंग की. गोलीबारी का यह सिलसिला करीब 7-8 मिनट तक चला और जब सब कुछ शांत हो गया तो पुलिस टीम ने मकान की तलाशी ली.

अंदर जा कर देखा तो कमरे में सामने 2 लाशें पड़ी थीं और कुछ हथियार व गोलियों के खाली कारतूस भी थे. बाथरूम में घायल हालत में एक युवक मिला, जिस ने अपना नाम नाम सैफ बताया. साथ ही उस ने लाशों की पहचान आतिफ अमीन और साजिद के रूप में की. उस ने यह भी बताया कि वे सब आतंकी संगठन हिजबुल मुजाहिदीन के लिए काम करते हैं.

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19 सिंतबर, 2008 की सुबह जामिया नगर के बटला हाउस में हुए इस एकाउंटर से ठीक एक हफ्ते पहले यानी 13 सितंबर, 2008 को दिल्ली में 5 अलगअलग जगहों पर हुए सीरियल बम ब्लास्ट में 30 लोगों की मौत हुई थी. उसी ब्लास्ट की जांच और धरपकड़ करते हुए स्पैशल सेल को ब्लास्ट में शामिल कुछ संदिग्ध लोगों के इस मकान में छिपे होने की जानकारी मिली थी.

स्पैशल सेल के इंसपेक्टर मोहनचंद्र शर्मा इसी सूचना को वैरीफाई करने के लिए बटला हाउस की एल 18 नंबर बिल्डिंग के मकान नंबर 108 में अपनी टीम के साथ पहुंचे थे. लेकिन बिना स्वचालित हथियार और बुलेटप्रूफ जैकेट पहने सर्च के लिए गई टीम को पता नहीं था कि मकान के भीतर खूंखार आतंकवादी घातक हथियारों के साथ मौजूद हैं. पुलिस के मकान में घुसते ही दहशतगर्दों ने पुलिस पर ताबड़तोड़ गालियां चला दीं, जिस में मोहनचंद्र शर्मा व हवलदार बलवंत घायल हो गए.

आतंकवादियों की गोलियां लगने के कुछ घंटों के बाद ही इंसपेक्टर मोहन चंद शर्मा की मौत हो गई थी. बाद में एसीपी संजीव यादव मौके पर पहुंचे और उन्होंने मोर्चा संभाला. मकान के भीतर छिपे आतंकियों से लोहा लिया और इस एनकाउंटर में 2 आतंकवादी मारे गए. सैफ नाम के एक आतंकवादी को घर में ही पकड़ लिया गया था. बाद में एक आतंकवादी जीशान को पुलिस ने उसी शाम पकड़ लिया.

एसीपी संजीव यादव ने जिस बहादुरी के साथ बटला हाउस एनकाउंटर को लीड किया था, ताबड़तोड़ छापेमारी कर इस वारदात में शामिल अपराधियों की धरपकड़ की थी और विवादों का सामना करते हुए जिस मानसिक प्रताड़ना को सहा था, उसी बहुचर्चित एनकाउंटर पर कुछ सालों बाद डायरेक्टर निखिल आडवानी ने ‘बटला हाउस’ के नाम से फिल्म बनाई थी. फिल्म में अभिनेता जौन अब्राहम ने तत्कालीन एसीपी संजीव यादव का किरदार निभाया था.

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इस फिल्म में संजीव यादव का किरदार निभाने से पहले अभिनेता जौन अब्राहम ने जब असल जिंदगी के डीसीपी (बाद में) संजीव कुमार यादव से मुलाकात की तो वह यह जान कर दंग रह गए थे कि करीब 75 मुठभेड़ों में अपराधियों से 2-2 हाथ करने वाले संजीव यादव ने बाटला हाउस मुठभेड़ के विवाद के बीच मानसिक प्रताड़ना के एक बुरे दर्दनाक दौर का सामना किया था. संजीव यादव यहां तक हतोत्साहित हो गए थे कि मन में आत्महत्या करने तक का ख्याल आया था. क्योंकि बाटला हाउस एनकांउटर के बाद उन्हें स्पैशल सेल से हटा दिया गया था.

बाटला हाउस फिल्म में एक सीन है, जिस में जौन अपनी पिस्तौल को नष्ट कर के अपनी पत्नी को दे देते हैं. क्योंकि वह डर गए थे कि वह उस पिस्तौल से खुद को भी गोली मार सकते थे. उन्होंने पिस्तौल के सभी हिस्सों को घर के अलगअलग हिस्सों में रखवा दिया था.

अभिनेता जौन अब्राहम ने संजीव यादव से मिलने के बाद महसूस किया था कि एक कठोर मिजाज सुपर कौप असल जिंदगी में बेहद शर्मीला और शांत स्वभाव का इंसान भी हो सकता है.

संजीव यादव दिल्ली पुलिस के उन जांबाज अफसरों में से एक हैं, जिन का नाम सुन कर बदमाश दिल्ली के आसपास फटकने से भी कन्नी काटते हैं. दिल्ली पुलिस की स्पैशल सेल में कार्यरत डीसीपी संजीव यादव देश के इकलौते ऐसे पुलिस अफसर हैं, जिन को उन के काम के लिए 9 गैलेंट्री अवार्ड यानी राष्ट्रपति वीरता पदक मिल चुके हैं.

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दिल्ली पुलिस में सुपर कौप के नाम से पहचान बना चुके डीसीपी संजीव यादव दिल्ली पुलिस की शान और ऐसी धरोहर हैं, जिन की मौजूदगी पूरे शहर को महफूज रहने का भरोसा देती है.

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कुख्यात अपराधी हो या आतंक फैलाने वाले दहशतगर्द, इस सुपर कौप की नजर में एक बार जो चढ़ गया समझो उस का काम तमाम हो गया. पुलिस विभाग में काम करते हुए जांबाजी से अपराधियों के हौसले पस्त करने की सीख उन्हें विरासत में मिली है.

संजीव यादव पिछले काफी सालों से स्पैशल सेल में पहले एसीपी रहे. इस के बाद अब बतौर डीसीपी तैनात हैं. स्पैशल सेल के साथ उन्होंने लंबे वक्त तक क्राइम ब्रांच में भी काम किया. संजीव यादव जहां भी रहे, आतंक फैलाने से ले कर अपराध करने वालों के बीच खौफ पैदा करते रहे हैं.

यूपी के बलिया के रहने वाले संजीव यादव एक रसूखदार परिवार में पैदा हुए थे. पिता नंदजी यादव उत्तर प्रदेश पुलिस में थे और एसपी पद से रिटायर होने के बाद जिला पंचायत अध्यक्ष चुने गए थे.

संजीव कुमार यादव के सब से बड़े भाई विनोद यादव डिप्टी एसपी से रिटायर होने के बाद फिलहाल गोरखपुर में रह रहे हैं और एक निजी बैंक में डिप्टी मैनेजर हैं. विनोद यादव से छोटे प्रमोद कुमार यादव सबरजिस्ट्रार हैं, जबकि उन से छोटे राजीव डिप्टी डायरेक्टर (रोजगार) व अजय कुमार यादव सेना में कर्नल हैं.

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दिल्ली पुलिस में आने से पहले संजीव यादव मध्य प्रदेश पुलिस में डीएसपी रह चुके हैं. 1998 में दिल्ली पुलिस में बतौर दानिप्स संजीव यादव एसीपी सेलेक्ट हुए तो उन्होंने मध्य प्रदेश पुलिस की नौकरी छोड़ दी.

पुलिस विभाग में काम करते हुए अपराध और अपराधियों का खात्मा करने का जज्बा सुपर कौप संजीव यादव को इसी पारिवारिक विरासत से मिला है. दिल्ली पुलिस में 1998 में एसीपी के रूप में भरती होने के बाद संजीव यादव की सब से पहली नियुक्ति मध्य जिले के औपरेशन सेल में हुई थी.

बटला हाउस एनकांउटर के बाद उठे विवाद के कारण उन्हें क्राइम ब्रांच में भेज दिया गया था. यहां भी उन्होंने अपराधियों के खिलाफ अपना अभियान लगातार जारी रखा.

लेकिन दिल्ली में 2010 में हुए आतंकी हमले के बाद देश की सुरक्षा और जेहादियों के खिलाफ बेहतरीन नेटवर्क के कारण संजीव यादव को फिर से स्पैशल सेल में बुला कर स्पैशल सेल में डीसीपी बना दिया गया. इस के बाद उन्हें आईपीएस कैडर मिला.

स्पैशल सेल में संजीव यादव ने अब तक 42 केस अपने हाथ में लिए हैं, जिस में से 32 का फैसला आ चुका है और अदालत से आरोपियों को सजा मिली है. इन में 2004, 2008, 2010 और 2012 के आतंकी हमले वाले केस भी शामिल हैं.

संजीव यादव आतंकवादियों से ले कर कुख्यात अपराधियों के निशाने पर हैं, इसीलिए खुफिया विभाग की सलाह पर सरकार ने उन्हें जेड कैटेगरी का सुरक्षा कवच दिया हुआ है. आतंकवादियों के खिलाफ औपरेशन हो या किसी खतरनाक गैंगस्टर के खिलाफ अभियान, संजीव कभी अपनी जान की परवाह नहीं करते और औपरेशन को खुद ही लीड करते हैं, रणनीति बनाते हैं और टीम का मनोबल बढ़ाते हुए साथ ले कर चलते है.

दिल्ली  में एक गैंगस्टर के लिए चलाया गया उन का औपरेशन उन के कैरियर का सब से बड़ा एनकाउंटर औपरेशन था.

जून, 2018 का वाकया है. संजीव यादव उन दिनों दिल्ली पुलिस की स्पैशल सेल में नार्दर्न रेंज के डीसीपी की कमान संभाल रहे थे. एक दिन उन्हें अपने एक खबरी से सूचना मिली की कुख्यात इनामी बदमाश राजेश भारती और उस के गैंग के कुछ लोग छतरपुर के चानन होला इलाके में एक फार्महाउस में आने वाले हैं.

संजीव ने अपने मातहत तेजतर्रार पुलिस अफसरों की 5 टीमें गठित की और उन्हें उस इलाके में हर रास्ते पर इस तरह से तैनात कर दिया कि जब राजेश भारती को घेरा जाए तो वह भागने में कामयाब न हो सके.

सादे कपड़ों में टीमों को बाइक और गाडि़यों में बैठा कर ऐसे लगाया गया, जिस से बदमाश अपनी गाडि़यों से पुलिस की गाडि़यों में टक्कर मार कर भी भागे तो वे पकड़े जाएं. उन की टीमों ने छतरपुर इलाके में अपना पूरा जाल बिछा दिया था.

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उस के बाद शुरू हुआ राजेश भारती के आने का इंतजार. 31 घंटे तक बिना पलक झपकाए संजीव यादव अपनी टीम के साथ टकटकी लगाए राजेश भारती के आने का रास्ता देखते रहे. जिस फार्महाउस पर नजर रखी जा रही थी, वह एक प्रौपर्टी डीलर का था.

चूंकि खबर एकदम पुख्ता थी कि राजेश भारती वहां जरूर आएगा, इसलिए पूरा दिन इंतजार करने के बाद संजीव यादव अपनी टीमों के साथ मुस्तैदी से वहीं डटे रहे. सब ने बिस्कुट, नमकीन के साथ पानी पी कर रात गुजारी, लेकिन वहां से हटे नहीं.

किसी तरह सुबह हुई तो खबरी से एक बार फिर फोन पर संपर्क साधा गया. उस ने बताया कि आज राजेश भारती हर हाल में  वहां पहुंचेगा. संजीव की सभी टीमें इस सूचना पर अलर्ट हो गईं.

दोपहर होतेहोते शिकार के आने का इंतजार खत्म हो गया. फार्महाउस के बाहर एक एसयूवी आ कर रुकी, जिस की पिछली सीट पर राजेश भारती बैठा था. एसयूवी को उमेश उर्फ डौन ड्राइव कर रहा था. एसयूवी के साथ सफेद रंग की एक दूसरी कार भी थी जिस में 4 लोग सवार थे.

गाडि़यों के फार्महाउस के बाहर पहुंचते ही पहले से घेराबंदी कर चुकी पुलिस की टीमों ने चारों तरफ से दोनों गाडि़यों की ओर आगे बढ़ना शुरू कर दिया. थोड़ा नजदीक पहुंचते ही संजीव यादव ने कोर्डलैस लाउडस्पीकर से बदमाशों को सरेंडर करने की चेतावनी दी. लेकिन उन्होंने सरेंडर करने के बजाय भागने का फैसला किया और अपनी गाडि़यां तेज गति से दौड़ा दीं.

संजीव यादव इस तरह के बदमाशों से पहले भी कई बार लोहा ले चुके थे, इसलिए जानते थे कि ऐसा हो सकता है. इसीलिए उन्होंने बदमाशों को दबोचने के लिए 3 स्तरीय घेराबंदी की थी. पहला घेरा तोड़ कर भागे बदमाशों को पीछे से घेरने के साथ आधा किलोमीटर की दूरी पर घेराबंदी कर के खड़ी टीम ने घेर लिया.

बदमाशों की दोनों गाडियां करीब एकडेढ़ किलोमीटर तक पुलिस को छकाती रहीं. लेकिन त्रिस्तरीय घेराबंदी इतनी पुख्ता थी कि बदमाश 2 मिनट बाद ही चौतरफा इस तरह घिर गए कि उन के सामने 2 ही रास्ते थे कि या तो सरेंडर कर दें या मुकाबला करें.

लेकिन खुद को फंसा देख बदमाशों ने सरेंडर करने की जगह पुलिस पर फायरिंग शुरू कर दी. बदमाशों की फायरिंग के जवाब में संजीव का इशारा मिलते ही उन की टीम ने भी फायरिंग शुरू कर दी. पुलिस की टीम स्वचालित हथियारों से लैस थी.

पूरा इलाका ताबड़तोड़ गोलियों की तड़तड़ाहट से गूंज उठा. मुश्किल से 3 मिनट लगे 31 घंटे से चले आ रहे औपरेशन को खत्म होने में. बदमाशों की ओर से करीब 50 और पुलिस की तरफ से 100 राउंड फायरिंग हुई. एनकाउंटर में राजेश कंडेला उर्फ भारती, संजीत विद्रोही, गुड़गांव निवासी उमेश उर्फ डौन तथा दिल्ली के घेवरा का वीरेश राणा उर्फ विक्कू वहीं पर ढेर हो गए.

संजीव यादव की टीम के 8 जवान भी गोली लगने से घायल हुए थे. जिन 4 बदमाशों को गोली लगी थी, उन की मौके पर ही मौत हो चुकी थी. इस के बावजूद उन्हें भी अस्पताल भेजा गया. दरअसल अपराधी राजेश भारती ने दिल्ली के एक बिजनैसमैन को फोन कर के 50 लाख रुपए की रंगदारी मांगी थी. इसी की शिकायत मिलने के बाद संजीव यादव ने राजेश भारती और उस के गुर्गों की कुंडली खंगाल कर उन के पीछे अपने खबरियों की टीम लगाई थी.

गांव में घरेलू रंजिश के कारण अपराध की डगर पर चलते हुए राजेश भारती के खिलाफ अपराध के 15 संगीन मामले दर्ज थे. भारती की गिरफ्तारी पर दिल्ली पुलिस की तरफ से एक लाख का ईनाम भी घोषित किया गया था. राजेश भारती दिल्ली के उन टौप टेन अपराधियों में से एक था, जो रंगदारी से ले कर तमाम तरह के गुनाहों को अंजाम दे रहे थे. लेकिन संजीव यादव की नजर में चढ़ते ही उस के गुनाहों के साथ जिदंगी का भी खात्मा हो गया.

संगठित अपराध व आतंकवादियों के खिलाफ सब से दमदार मुहिम चलाने वाली दिल्ली पुलिस की 2 यूनिटों स्पैशल सेल तथा क्राइम ब्रांच में रहते हुए संजीव यादव अब तक 75 एनकांउटरों को अंजाम दे चुके हैं. उन्होंने कई पाकिस्तानी और कश्मीरी आतंकवादियों को मुठभेड़ में धराशायी किया तो बहुतों को गिरफ्तार किया.

कई नामचीन गैंगस्टर उन की गोली का शिकार बने तो कई ईनामी बदमाशों को उन्होंने हथकड़ी पहनाई. उन्होंने ही दिल्ली के सब से बड़े गैंगस्टर 5 लाख के ईनामी कुख्यात सोनू दरियापुर को 2017 में मुठभेड़ के बाद गिरफ्तार किया था. ड्रग्स सिंडीकेट चलाने वालों के खिलाफ तो डीसीपी संजीव यादव ने मानों मुहिम ही छेड़ी हुई है. उन के नेतृत्व में 4 दरजन से अधिक देशीविदेशी नशे के तसकर और कई सौ करोड़ की ड्रग्स पकड़ी जा चुकी है.

संजीव यादव की जांबाजी से सिर्फ दिल्ली की जनता ही महफूज नहीं है. उन्होंने पश्चिमी उत्तर प्रदेश व पूर्वांचल के साथ बिहार के भी कई दुर्दांत अपराधियों का खात्मा कर के इन राज्यों की पुलिस व जनता को राहत दिलाई है.

24 अक्तूबर, 2013 की रात को वसंत कुंज में होटल ग्रैंड के पास हुई एक मुठभेड़ में सुरेंद्र मलिक उर्फ नीटू दाबोदिया और उस के साथी आलोक गुप्ता और दीपक गुप्ता मारे गए थे. इस गिरोह ने अपना पीछा कर रही दिल्ली पुलिस के एक एसीपी मनीष चंद्रा की स्कौर्पियो को अपनी कार से टक्कर मार दी थी और अपनी गाडि़यों से उतर कर अलगअलग दिशा में भागते हुए पुलिस पर जबरदस्त तरीके से गोलियां दागी थीं.

डीसीपी संजीव यादव की अगुवाई में इन बदमाशों का पीछा कर उन की टीम के इंसपेक्टर ललित मोहन नेगी, हृदय भूषण और रमेश चंदर लांबा व सबइंसपेक्टर सुखबीर सिंह ने अपनी जान पर खेलते हुए सभी बदमाशों को बसंतकुंज के होटल ग्रैंड के पास एनकाउंटर में धराशायी किया था. यह 13 अक्तूबर, 2013 की रात की बात है. इस मुठभेड़ में सुरेंद्र मलिक उर्फ नीटू दाबोदिया, आलोक गुप्ता और इन का साथी दीपक गुप्ता मारे गए थे. दिल्ली शहर में बदमाशों के खिलाफ इस बहादुरी के लिए संजीव यादव समेत इन सभी चारों पुलिस वालों को राष्ट्रपति का पुलिस मैडल मिला था.

इसीलिए पुलिस विभाग में संजीव यादव को दिल्ली का सुपर कौप कहा जाता है. वैसे तो संजीव यादव अपनी पिस्तौल से सिर्फ बदमाशों पर ही निशाना लगाते हैं. लेकिन उन का एक शौक ऐसा है, जिस के बारे में शायद लोगों का ज्यादा जानकारी न हो.

संजीव यादव अचूक निशानेबाज हैं. उन्होंने साल 2018 में 45वीं दिल्ली स्टेट शूटिंग चैंपियनशिप में एक गोल्ड व 2 ब्रोंज मैडल जीते थे. साथ ही 10 मीटर एयर पिस्टल और 25 मीटर सेंटर फायर पिस्टल में 2 ब्रोंज मेडल अपने नाम किए. खास बात ये है कि जिस उम्र में शूटर शूटिंग से रिटायरमेंट ले लेते हैं, डीसीपी संजीव यादव ने उस उम्र में शूटिंग शुरू की और अपनी मेहनत से पुलिस की व्यस्त जिंदगी से वक्त निकाल कर यह कारनामा कर दिखाया.

शूटिंग की कई प्रतियोगिताओं में मैडल जीतने के बाद उन का चयन भारत की राष्ट्रीय शूटिंग टीम में साउथ एशियन गेम्स 2019 के लिए हुआ और वे भारत की तरफ से शूटिंग में हिस्सा लेने के लिए नेपाल गए.

संजीव यादव की तमाम उपलब्धियों में उन की पत्नी शोभना यादव की भी अहम भूमिका है जो उन्हें सदैव प्रेरित करती हैं. शोभना यादव उत्तर प्रदेश के प्रयागराज जिले की हैं. पत्रकारिता के प्रति उन का रुझान कालेज के दिनों में हुआ था, लिहाजा पत्रकारिता की पढ़ाई के बाद सब से पहले उन्होंने आईटीवी नाम के एक लोकल न्यूज चैनल में काम किया. कुछ महीनों बाद उन्हें पहला ब्रेक इंडिया टीवी में मिला. यहीं से उन को प्रसिद्धि मिली. उन्होंने इस चैनल के साथ काफी दिनों तक काम किया.

बटला हाउस एनकाउंटर के समय वह लाइव रिपोर्टिंग कर रही थीं, यह जानते हुए भी कि उन का पति ही एनकाउंटर को लीड कर रहा है. दर्शकों को उन्होंने इस बात का अहसास तक नहीं होने दिया. उस वक्त वह कितनी टेंशन में रही होंगी, इस का अंदाजा लगाया जा सकता था. संजीव कुमार यादव और उन की पत्नी शोभना यादव एक बेटे व एक बेटी के मातापिता हैं.

रिंकू शर्मा हत्याकांड: धर्मजीवी होने से बचिए

पूरी दुनिया में सब से बड़ी बहस इस बात को ले कर होती रही है कि धर्म का मतलब क्या है और यह हमारी तरक्की में कितना जरूरी है? वैसे तो धर्म का साधारण सा मतलब है गुण. जैसे सूरज का धर्म है हमेशा जलते रहना, क्योंकि जिस दिन उस की आग शांत हो जाएगी, उस का वजूद ही नहीं रहेगा. वैसे ही धरती का गुण है सूरज के चारों ओर चक्कर काटना. धरती थमी और खेल खत्म.

इसी तरह किसी इनसान का धर्म है इनसानियत. चूंकि धरती पर फिलहाल वह सब से ज्यादा दिमाग वाला प्राणी माना जाता है और अपने अच्छेबुरे के साथसाथ दूसरे प्राणियों की भलाईबुराई को समझने की ताकत रखता है, इसलिए उस से उम्मीद की जाती है कि वह धरती पर इस तरह बैलेंस बनाए कि तरक्की के साथसाथ आबोहवा के साथ कोई खिलवाड़ न हो.

यह धर्म का स्वीकार रूप है. लेकिन इनसान ने खासकर तथाकथित धर्मगुरुओं अपने मतलब को साधने के लिए और आम लोगों में ‘अनदेखे ईश्वरीय भय’ के चलते धर्म को उन की जाति, समाज, रीतिरिवाजों से जोड़ कर इतना विकृत कर दिया है कि दुनिया में इसी धार्मिक दबदबे के लिए सब से ज्यादा खूनखराबा हुआ है. अब तो दुनियाभर की सरकारें भी इन धर्मगुरुओं की दासी जैसी बन गई हैं.

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भारत में जब से मोदी सरकार बनी है, तब से यहां ‘हिंदू देश’ के नाम पर यह भरम फैलाया जा रहा है कि अगर आज हिंदू नहीं जागे तो कट्टर मुसलिम कल को उन्हें खदेड़ कर देश पर कब्जा कर लेंगे.

इसी के चलते अब लोग कर्मजीवी, दयाजीवी, परोपकारजीवी बनने के बजाय हिंदूजीवी, मुसलिमजीवी, मंदिरजीवी, मसजिदजीवी यहां तक कि नफरतजीवी बन रहे हैं. दुख की बात है कि इस धार्मिक उन्माद में देश का भविष्य कहे जाने वाले नौजवान भी थोक के भाव में भागीदार बन रहे हैं.

हालिया रिंकू शर्मा हत्याकांड से इस बात की गहराई को समझते हैं. दिल्ली के मंगोलपुरी इलाके में 11 फरवरी, 2021 को 25 साल के रिंकू शर्मा की कुछ लोगों ने हत्या कर दी थी, जिस के बाद वहां तनाव का माहौल बन गया. वजह, रिंकू शर्मा एक हिंदू धार्मिक दल का कार्यकर्ता था और उस की हत्या में जिन 5 लड़कों को पुलिस ने पकड़ा वे मुसलिम समुदाय से थे. हालांकि वे सब एकदूसरे को पहले से जानते थे, पर एक झगड़े के बाद यह कांड हो गया.

इस के बाद धर्मजीवियों की ऐंट्री हुई. विश्व हिंदू परिषद के नेताओं ने दावा किया कि रिंकू शर्मा की इसलिए चाकू मार कर हत्या कर दी गई, क्योंकि वह अयोध्या में बन राम मंदिर के लिए चंदा इकट्ठा कर रहा था, जबकि डिप्टी पुलिस कमिश्नर, आउटर दिल्ली ने बताया कि इस मामले की जांच में अब तक पता चला है कि हत्या एक कारोबारी विवाद के चलते हुई थी.

नफरती बयानबाजी

रिंकू शर्मा के साथ जो हुआ वह एक जघन्य अपराध है और कुसूरवारों को कड़ी से कड़ी सजा दी जानी चाहिए, पर इस पूरे मामले में जिस तरह धार्मिक उन्माद को भड़काने की कोशिश की गई, वह चिंता की बात है.

इसी का नतीजा था कि इस हत्याकांड के अगले दिन आरोपी लड़कों के घर पर तोड़फोड़ की गई, पथराव हुआ. हालांकि, इलाके का बिगड़ता माहौल देख कर आरोपियों के परिवार वाले पहले ही घर छोड़ कर जा चुके थे.

इतना ही नहीं, भारतीय जनता पार्टी की भोपाल से सांसद साध्वी प्रज्ञा और दिल्ली भाजपा के नेता कपिल मिश्रा ने रिंकू शर्मा के परिवार वालों से मुलाकात की. साध्वी प्रज्ञा ने कहा कि घर में घुस कर वारदात को अंजाम देने से साफ हो जाता है कि हमलावरों के हौसले कितने बुलंद थे.

भाजपाई कपिल मिश्रा ने कहा कि इस मामले की जांच आतंकी हमले के तौर पर होनी चाहिए, क्योंकि घर में घुस कर मारा गया है. अपराधियों को तो फांसी होनी चाहिए. उन लोगों को भी सजा मिलनी चाहिए जिन्होंने अपराधियों के दिमाग में इतना जहर भरा है कि जो राम मंदिर के नाम पर चंदा मांगे उस की घर में घुस कर हत्या कर दो.

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भारतीय जनता पार्टी और तमाम हिंदू दलों की बात तो छोड़िए, खुद को धर्मनिरपेक्ष कहने वाली आम आदमी पार्टी, जिस की सरकार दिल्ली में है, के प्रवक्ता राघव चड्ढा ने कहा कि दिल्ली में रिंकू शर्मा के मांभाई कह रहे हैं कि ‘जय श्रीराम’ का नारा लगाने पर रिंकू शर्मा की हत्या की गई. इस की जांच होनी चाहिए. इस से यह नजर आ रहा है कि क्या ‘जय श्री राम’ का नारा लगाने वाले अब सुरक्षित नहीं हैं? क्या दिल्ली और भारत में ‘जय श्रीराम’ का नारा नहीं लगा सकते? क्या उन की हत्या की जाएगी?

सवाल उठता है कि देश को धार्मिक नारों की जरूरत ही क्यों है? सार्वजनिक जगह पर ‘जय श्री राम’ या ‘अल्लाह हू अकबर’ या फिर दूसरे धर्मों के नारे लगाने से किस का भला होगा? एक परिवार ने अपना 25 साल का जवान लड़का खोया है. अब उस के कितने ही करोड़ का चंदा जमा कर लो, दुख तो कम नहीं होगा. इसी तरह जिन 5 लड़कों को पुलिस ने पकड़ा है, वे भी जेल में कोई शानदार जिंदगी नहीं जिएंगे और उन का परिवार बाहर कोर्टकचहरी के चक्कर काटेगा.

हासिल क्या

इस सब से किसे और क्या हासिल होगा? अगर इस हत्याकांड को धार्मिक रंग न दिया जाता तो यह एक आम अपराध बन कर रह जाता, जो धर्म के ठेकेदारों को रास नहीं आता. यह पहला मामला नहीं, बल्कि पहले भी ऐसे हत्याकांडों को धार्मिक रंग दिया गया है, जिस से माहौल को टैंशन से भरा बना दिया जा सके, फिर अपने फायदे की रोटियां इस की आंच में सेंकी जा सकें.

पर आज की जरूरतें क्या हैं? क्या मंदिर, मसजिद और उन पर पलने वाले परजीवियों की ताकत बढ़ाने से देशदुनिया का भला होगा? बिलकुल नहीं, क्योंकि जिस देश ने धर्म की कट्टरता को अपनी जनता पर थोपा है, वे आज की तारीख में खंडहरजीवी बने हुए हैं. हमें रिंकू शर्मा जैसे नौजवानों को देश की तरक्की के कामों में आगे देखना है न कि किसी धार्मिक स्थल को बनाने के लिए परची काटने का मोहरा बना कर उन का भविष्य ही अंधकार में डाल दिया जाए. यह बात हर धर्म के लोगों पर लागू होती है.

याद रखिए, सियासत करने वालों ने अपने फायदे के लिए धर्म को हमेशा मजबूत ढाल बनाया है, ताकि उन की दालरोटी चलती रहे. अब हमें दिमाग लगाना है कि हमारा धर्म क्या है? सूरज की तरह जलते रह कर इस कायनात को बचाए रखना या फिर समय से पहले बुझ कर दुनिया को अंधेरे में धकेलना? धर्मजीवी तो यही चाहते हैं कि आम लोगों के दिलोदिमाग पर यह अंधेरा छाया रहे, ताकि उन के घरों में उजाला रहे.

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जिंदगी की दास्तान: थर्ड जेंडर की एक किताब

किन्नर… थर्ड जेंडर.. भी हमारे आपकी तरह संवेदनशील है. वह भी भाव प्रवण है और कहानी कविता लेख लिख सकता है. यह सच बड़े ही शिद्दत के साथ आप “जिंदगी की दास्तां” में महसूस कर सकते हैं.

किन्नर की  जिंदगी  किताब की शक्ल में प्रकाशित होकर आ गई है. और उसमें साहित्य की विधा में अपने भाव उकेर गए हैं.  थर्ड जेंडर की सच्ची दास्तानं आप इस किताब में पढ़ सकते हैं .

दरअसल, छत्तीसगढ़ में किन्नरों ने ‘जिंदगी की दास्तान’ नाम से देश की पहली किताब प्रकाशित होकर आई  है. इस महत्वपूर्ण किताब में थर्ड जेंडर समुदाय के सदस्यों की गद्य और पद्य और संस्मरण संकलित हैं. सबसे महत्वपूर्ण तथ्य है कि इसकी रचना छत्तीसगढ़ समेत पूरे भारत के तृतीय लिंग समुदाय ने की है.

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आत्मा अभिव्यक्ति और पीड़ा

“जिंदगी की दास्तान” किताब की संपादक किन्नर विद्या राजपूत के मुताबिक – जिंदगी की दास्तान किताब में आप हमारे समुदाय की आत्म-अभिव्यक्ति, संवेदना, पीड़ा, आशा, आकांक्षा और अनगिनत संभावना और ना जाने कितने ही ऐसे सहज और जटिल भावों से  रूबरू होंगे. किताब में संकलित रचनाएं पढ़कर चेतन और अचेतन मन में कहीं ना कहीं यहां भाव हिलोरे लेने लगेगा कि थर्ड जेंडर समुदाय भाव शून्य नहीं है. विचार शून्य नहीं है, हममें भी लेखन क्षमता है. किताब में आप पढ़ सकते हैं हमारा बचपन और जिंदगी की कटीले रास्तों पर चलने का दर्द .

हम भी समाज के अभिन्न अंग है और अपनी भूमिका इमानदारी से निभाने का प्रयास करते हैं. लेकिन जब देखते हैं कि वैचारिक यात्रा के लिए गली से लेकर सड़क तक सब बंद है, तो मन मसोस कर रह जाते है दुख होता है. संपादक विद्या राजपूत के अनुसार हमारे समुदाय की यह रचनाएं समाज के समक्ष उनके अंतर द्वंद को उद्घाटित करेंगी और लघुतम ही सही  सहृदयता का भाव पुष्पित करेगी.

 किताब:कोरोना काल में हुई तैयार

थर्ड जेंडर, किन्नर और लेखन यह दोनों ही बातें एकदम विपरीत जान पड़ती है. समाज में यह भावना घर कर गई है कि किन्नर सिर्फ जीविकोपार्जन के लिए नाचता गाता है और समाज की खुशी में शामिल होकर अपनी भूमिका निभाता है.

मगर धीरे-धीरे ही सही इस सोच में तब्दीली आ रही है देश के कानून निर्माताओं ने भी थर्ड जेंडर के दर्द को महसूस किया है और उन्हें सम्मान देना प्रारंभ किया है. थर्ड जेंडर राधा के मुताबिक छत्तीसगढ़ सरकार से बिहार सरकार की तर्ज पर अपेक्षा है कि सरकारी नौकरियों में भी हमें आरक्षण दें.

वहीं किताब की संपादक विद्या राजपूत के मुताबिक यह किताब दरअसल देश भर के लेखकीय हमारे समुदाय के कलमकारों का एक सुंगधित पौधे के समान है जिसमें कोरोना काल  के समय का दर्द और जीवन की त्रासदी अंकित है.

“जिंदगी की दास्तान” किताब का प्रकाशन विकास प्रकाशन, उत्तर प्रदेश द्वारा किया गया है जोकि विभिन्न प्लेटफार्म पर उपलब्ध है.

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कौन है विद्या राजपूत!

“जिंदगी की दास्तान” पुस्तक की संपादक विद्या राजपूत छत्तीसगढ़ सरकार ट्रांसजेंडर वेलफेयर बोर्ड की सदस्य  हैं और  मितवा समिति की अध्यक्ष भी. आप पेशे से एक ब्यूटीशियन है.

विद्या राजपूत के मुताबिक  बचपन बहुत मुश्किल रहा, शुरू में  लोग चिढ़ाते थे, मैं लड़कियों के साथ खेलती थी, कक्षा चार-पांच तक ठीक चला लेकिन कक्षा छह-सात में पहुंचते ही लोगों की जुबान बदली और मैं लोगों के कटाक्ष से डरने लगी. आगे  स्कूल न जाने के बहाने बनाने लगी. मगर मेरी शिक्षा जारी रही मैं ने एम ए तक शिक्षा प्राप्त की है.  मुझे अक्सर घुटन महसूस होती थी, मेरे मन में सवाल उठते कि मैं हूँ क्या? मेरा शरीर लड़कों का है और भावनाएं लड़कियों की ऐसा क्यों? मेरी मां और भाइयों को लगता था कि यदि मैं लड़कियों के साथ न रहूं, उनके साथ न खेलूं तो शायद सुधर जाऊं. मेरे भाई  मुझे लड़कियों के साथ देख लेते तो पीटते  थे मगर मैंने अपना आत्मविश्वास नहीं खोया और निरंतर नए रास्ते तलाशते हुए आगे बढ़ने का प्रयास कर रही हूं.

सुपरकॉप मेरिन जोसेफ, देश से विदेश तक

लेखक- पुष्कर 

जघन्य अपराध कर के सऊदी अरब भागे सुनील भद्रन को स्वदेश लाना आसान नहीं था, लेकिन मेरिन जोसेफ ने जब यह ठान लिया तो फिर कर के भी दिखाया. एक महिला पुलिस अधिकारी की यह बड़ी उपलब्धि थी, जिसकी सब जगह चर्चा हुई.

जून 2019 में जब मेरिन जोसेफ की नियुक्ति बतौर डिस्ट्रिक्ट पुलिस सुपरिंटेंडेंट केरल के जिला कोल्लम में हुई तो वह महिलाओं और बच्चों के प्रति होने वाले अपराधों को लेकर सब से ज्यादा चिंतित थीं. ऐसे अपराधों का ग्राफ काफी बढ़ा हुआ था. मेरिन को लगा कि वहां ऐसे अपराधों को मामूली समझ कर दरकिनार कर दिया जाता होगा. पुराने केसों पर ठीक से काररवाई नहीं की गई होगी, मुलजिम पकड़े नहीं गए होंगे. इसीलिए उन्होंने ऐसे केसों की पुरानी फाइलें मंगवाईं.

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मेरिन ने जब उन केस फाइलों की स्टडी की तो उन में एक फाइल सुनील भद्रन की भी थी. केस के अनुसार सुनील भद्रन सऊदी अरब के रियाद की एक कंस्ट्रक्शन कंपनी में टाइल्स लगाने का काम करता था. वह 2017 में छुट्टी ले कर केरल आया और अपने एक दोस्त के घर ठहरा.

दोस्त ने उस का परिचय अपनी बहन के परिवार से कराया. सुनील की नजर दोस्त की 13 साल की भांजी पर पड़ी तो उस की नीयत खराब हो गई. उस ने दोस्त की बहन के परिवार से संबंध बढ़ाने शुरू कर दिए.

सुनील ने अपने टारगेट को बहकाफुसला कर नजदीकियां बढ़ाईं. उसे खानेपीने, पहनने की चीजें ला कर देना शुरू किया. बहकाने के लिए रियाद के किस्से सुनाने लगा.

महाराष्ट्र की पहली लेडी सुपरकौप मर्दानी आईपीएस

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रियाद ले जाने के सपने दिखाने लगा. जब लड़की बहकावे में आ गई तो वह आए दिन उस के साथ बलात्कार करने लगा. यह सिलसिला शायद आगे भी चलता रहता, लेकिन बच्ची ने इसे बुरा काम समझ कर घर वालों से शिकायत कर दी. यह खबर सुन कर सुनील भद्रन फरार हो गया.

पुलिस ने बच्ची के मामा से पूछताछ की, उसे जलील किया. खोजबीन में पता चला कि सुनील रियाद भाग गया है. पुलिस सिर पीट कर रह गई. इस बीच लड़की के मामा ने शर्म के मारे आत्महत्या कर ली.

बदनामी के डर से 13 वर्षीय नाबालिग पीडि़ता को उस के घर वाले घर में रखने को तैयार नहीं थे. मजबूरी में पुलिस ने उसे कोझीकोड के सरकारी महिला मंदिर रेस्क्यू होम भेज दिया. बाद में उस नाबालिग ने भी आत्महत्या कर ली.

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बात उच्चाधिकारियों तक पहुंची तो उन्होंने 2018 में इंटरपोल को सूचना भेज कर मदद मांगी. लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला. केस की जांच और रेपिस्ट की गिरफ्तारी लटकी रही. इस चक्कर में 2 परिवार बरबाद हो गए थे. जबकि केस की जांच रूकी पड़ी थी.

केस फाइल पढ़ कर मेरिन जोसेफ को बहुत दुख हुआ. महिला और बच्चों के प्रति अपराधों को ले कर मेरिन काफी संवेदनशील थीं. उन्होंने कई केस सुलझाए भी थे.

उन्होंने मन ही मन ठान लिया कि चाहे जो भी हो, सुनील भद्रन को सऊदी अरब से ला कर सजा दिलाएंगी. लेकिन समस्या यह थी कि मेरिन को यह जानकारी नहीं थी कि इस के लिए क्याक्या करना होता है.

उन्होंने जानकारी हासिल की तो पता चला कि 2010 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और सऊदी अरब के किंग अब्दुल्लाह के बीच प्रत्यर्पण संधि पर समझौता हुआ था. यानी प्रत्यर्पण संधि के हिसाब से सुनील को भारत लाया जा सकता था.

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मेरिन जोसेफ ने इस बारे में उच्चाधिकारियों से बात की तो उन्होंने कहा कि इस मामले में इंटरपोल ही मदद कर सकता है. नोटिस भी भेजा गया पर कोई जवाब नहीं आया. ‘मैं उसे इंडिया ला कर रहूंगी’.

मेरिन ने कहा तो कई लोगों ने उन का मजाक उड़ाया. लेकिन मेरिन ने हिम्मत नहीं हारी. पुलिस हैडक्वार्टर से ले कर गृह मंत्रालय तक जो भी हो सकता था, उन्होंने किया. अपने स्तर पर तो वह प्रयासरत थी ही.

दरअसल बला की खूबसूरत और 25 साल की नाजुक सी लड़की मेरिन के बारे में लोग यह नहीं जानते थे कि वह अंदर से वह कितनी मजबूत और दृढ़निश्चयी हैं. क्योंकि मेरिन को देख कर कोई भी उन्हें मौडल या फिल्मों की हीरोइन तो समझ सकता था, लेकिन यह किसी के लिए भी अनुमान लगाना मुश्किल था कि वह आईपीएस अफसर हैं.

आईपीएस बनने की कहानी

20 अप्रैल, 1990 को केरल के एर्नाकुलम, तिरुवनंतपुरम में जन्मी मेरिन पैदा भले ही केरल में हुई थीं, लेकिन उन की परवरिश दिल्ली में हुई. उन के पिता अब्राहम जोसेफ कृषि मंत्रालय में प्रिंसिपल एडवाइजर थे और मां मीना जोेसेफ एक मिशनरी स्कूल इकनौमिक्स की टीचर थीं.

मेरिन जोसेफ ने कौन्वेंट जीसस ऐंड मेरी स्कूल से पढ़ाई की थी, जिस के बाद उन्होंने दिल्ली यूनिवर्सिटी के सेंट स्टीफंस कालेज से बीए औनर्स की डिग्री ली. पढ़ाई के दौरान ही मेरिन की दोस्ती साइकोलौजी की पढ़ाई कर रहे क्रिस अब्राहम से हुई जो बाद में प्यार में बदल गई. दोनों ने तय किया कि शादी करेंगे लेकिन सैटल होने के बाद.

ग्रैजुएशन करने के बाद मेरिन ने मुखर्जीनगर, दिल्ली के एक प्राइवेट कोचिंग सेंटर से यूपीएससी की कोचिंग की. फिर 2012 में संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा दी. उन का पहला ही प्रयास सफल रहा. उन की 188वीं रैंक आई.

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मेरिन को 4 औप्शन दिए गए, आईपीएस, आईएफएस, आईआरएस और पीसीएस. मेरिन ने आईपीएस को चुना. उन्हें केरल कैडर मिला. इस के बाद उन्हें ट्रेनिंग के लिए हैदराबाद की सरदार वल्लभभाई पटेल नैशनल पुलिस अकादमी भेजा गया, जहां अगले 11 महीने तक उन्होंने लंबी ऊंची जंप, तैराकी, घुड़सवारी और हथियार चलाने की ट्रेनिंग ली, जिस में भागदौड़ भी शामिल थी.

इस ट्रेनिंग के बाद उन्होंने गृहराज्य पुलिस में 6 माह का पुलिस का आंतरिक कामकाज सीखा. फिर गृह मंत्रालय ने उन्हें एडिशनल सुपरिंटेंडेंट के पद पर नियुक्त कर दिया था. इस बीच 2 फरवरी, 2015 को मेरिन जोसेफ ने अपने कालेज टाइम के प्रेमी क्रिस अब्राहम से शादी कर ली थी. वह साइकियाट्रिस्ट बन चुके थे.

बहरहाल, जून 2019 में मेरिन जोसेफ ने सुनील को भारत लाने के लिए भरपूर प्रयास किया तो उन की मेहनत रंग लाई. सऊदी अरब की इंटरपोल शाखा और रियाद प्रशासन ने उन्हें सऊदी अरब आने की अनुमति दे दी. यह मेरिन जोसेफ की पहली जीत थी. 17 जुलाई, 2019 को मेरिन अपनी टीम के साथ सऊदी अरब के लिए रवाना हो गईं. वहां स्थानीय प्रशासन और इंटरपोल टीम की मदद से सुनील भद्रन उन की पकड़ में आ गया.

20 जुलाई, 2019 को मेरिन जोसेफ अपनी टीम और रेपिस्ट सुनील भद्रन को साथ ले कर एयरपोर्ट के बाहर निकलीं तो लोगों ने उन का भव्य स्वागत किया. कानूनी औपचारिकताओं के बाद सुनील को अदालत में पेश किया गया, जहां से उसे जेल भेज दिया गया.

इस के बाद मेरिन जोसेफ मीडिया में छा गईं. उन की खूब वाहवाही हुई. क्योंकि 2010 में हुई संधि के 9 साल बाद किसी अपराधी को पहली बार भारत लाया गया था, वह भी एक महिला आईपीएस द्वारा, उस के अपने प्रयासों से.

दरअसल, मेरिन जोसेफ चाहती थीं कि पुलिस विभाग यह न समझे कि कोई महिला अधिकारी यह या कोई बड़ा काम नहीं कर सकती. हालांकि इस के पहले उन्होंने कई बड़े काम किए थे, कई केस सुलझाए थे. दुर्गम जगहों पर ड्यूटी की थी. फिलहाल मेरिन जोसेफ केरल पुलिस हेडक्वार्टर तिरुवनंतपुरम में बतौर पुलिस सुपरिंटेंडेंट (हेडक्वार्टर) तैनात हैं.

महाराष्ट्र की पहली लेडी सुपरकौप मर्दानी आईपीएस

मामला 26 साल पुराना जरूर है. लेकिन आज भी इस घिनौने अपराध को जानसुन कर रूह कांप जाती है. जलगांव का सैक्स स्कैंडल उस दौर का सब से बड़ा सैक्स स्कैंडल था, जिस ने राजनीति में भूचाल ला दिया था. और महिला आईपीएस अधिकारी मीरा बोरवंकर के नाम का डंका बज गया था.

1994 के उस दौर में महाराष्ट्र स्टेट सीआईडी के हैड अरविंद ईनामदार थे. मीरा बोरवंकर सीआईडी में क्राइम ब्रांच की इंचार्ज थीं. उन दिनों क्राइम ब्रांच का काम  संगठित अपराध और गैंगस्टरों को खत्म करना था. मीरा बोरवंकर तब तक महाराष्ट्र के कई जिलों में चर्चित पुलिस अधीक्षक रह चुकी थीं. उन्होंने कई कुख्यात अपराधियों की नाक में नकेल डाली थी.

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आकर्षक और सौम्य व्यक्तित्व की मीरा इसलिए भी चर्चाओं में थीं, क्योंकि वह महाराष्ट्र की पहली और उन दिनों की एकलौती महिला आईपीएस अफसर थीं. आमतौर पर तब महिलाओं की छवि घर परिवार का पालनपोषण करने और घर की रसोई संभालने वाली नारी के रूप में होती थी. लेकिन मीरा ने आईपीएस बनने के बाद अपराधियों की कमर तोड़ कर इस छवि को बदलने का काम किया था.

दरअसल, सीआईडी को लगातार शिकायत मिल रही थी कि जलगांव में प्रभावशाली लोगों का एक ऐसा गिरोह सक्रिय है जो स्कूली लड़कियों व कामकाजी महिलाओं को अपने जाल में फंसा कर उन का शारीरिक शोषण करता है.

इसी दौरान लड़कियों की वीडियो भी तैयार कर ली जाती है, जिस से लड़कियों को ब्लैकमेल कर के उन्हें बड़ेबड़े कारोबारियों, नौकरशाहों और राजनेताओं के बिस्तर की शोभा बनने को मजबूर किया जा सके.

लेकिन बदनामी के डर से कोई भी पीडि़त लड़की न तो पुलिस के सामने आ रही थी और न ही सीआईडी को किसी तरह का सबूत मिल रहा था.

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अरविंद ईनामदार ने अपनी टीम के एसपी स्तर के 2 अफसरों दीपक जोग और मीरा बोरवंकर को इस सैक्स  स्कैंडल के आरोपियों को पकड़ने का जिम्मा सौंपा.

दीपक जोग को इस मामले में बहुत ज्यादा सफलता नहीं मिल सकी. लेकिन मीरा ने महिला होने के नाते इस अपराध को बेहद गंभीरता से लिया और खुद इस केस की छानबीन में जुट गईं.

मीरा ने एक तेजतर्रार टीम का गठन किया और शहर में जिस्मफरोशी का धंधा करने वाले लोगों के बीच में टीम के लोगों की घुसपैठ करवा दी. अपराध ऐसा था जिस में न तो कोई शिकायत करने वाला था, न ही किसी अपराधी का चेहरा सामने था.

लेकिन मीरा ने हार नहीं मानी. उन्होंने अपनी टीम के लोगों को उस वक्त तक इस प्रयास में लगे रहने के लिए कहा, जब तक असल अपराधियों के चेहरे सामने नहीं आ जाते.

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इसी प्रयास के दौरान उन की टीम ने एक लड़की को पेश किया जो देह व्यापार की दलदल में फंस चुकी थी. जब लड़की को मीरा के सामने लाया गया तो उन्होंने बड़े प्यार और चतुराई से उन लोगों के नाम उगलवा लिए जिन के कारण वह देह व्यापार के धंधे में आई थी.

नाम, पते सब हासिल हो गए थे. लेकिन लड़की के बयान के अलावा कोई ऐसा सबूत नहीं था कि उन प्रभावशाली लोगों पर हाथ डाल कर उन्हें कानून के कटघरे में खड़ा किया जा सके. मीरा ने सीआईडी के मुखिया अरविंद ईनामदार से मशविरा किया तो उन्होंने सलाह दी कि पहले ठोस सबूत इकट्ठा करो फिर उन लोगों पर हाथ डालना.

इस के बाद मीरा ने छद्मवेश में महिला पुलिसकर्मियों को उस गिरोह के भीतर शामिल करा दिया. धीरेधीरे गिरोह के खिलाफ सबूत एकत्र होने लगे. जल्दी ही गिरोह के चंगुल में फंसी लड़कियों की लंबी फेहरिस्त तैयार हो गई. उन तमाम प्रभावशाली लोगों के चेहरे भी सामने आ गए जो सैक्स रैकेट के इस बड़े सिंडीकेट में शामिल थे.

फिर शुरू हुआ इन की धरपकड़ के बाद सफेदपोशों के चेहरों को बेनकाब करने का अभियान. मीरा बोरवंकर ने जैसे ही बड़ेबड़े कारोबारियों, सरकारी अफसरों, राजनीति से जुडे़ लोगों के साथ जरायम की दुनिया से जुड़े लोगों पर हाथ डालना शुरू किया तो पूरे देश में हड़कंप मच गया.

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मीरा पर लोगों को छोड़ने की सिफारिशों का दबाव बढ़ने लगा. और तो और अपने खुद के विभाग के बड़े अफसरों ने भी मीरा पर धमकी भरा दबाव बना कर कहा कि इतने प्रभावशाली लोगों पर हाथ डाल कर वह अपने लिए दुश्मन पैदा कर रही हैं. वे सब तो अपने प्रभाव से छूट जाएंगे, लेकिन इस की कीमत उन्हें चुकानी पड़ सकती है.

लेकिन मीरा किरण बेदी को अपना आदर्श मान कर पुलिस महकमे में आई थीं, जिन्होंने देश की लौह महिला कही जाने वाली प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कारवां में शामिल गाड़ी तक का चालान कर दिया था.

मीरा ने कोई दबाव नहीं माना. क्योंकि जलगांव में यह धंधा कई दशकों से चला आ रहा था. खास बात यह कि गिरोह के लोग 10 से 12 साल तक की लड़कियों का यौनशोषण कर रहे थे. शिकार महिलाओं की संख्या भी 300 के लगभग थी.

ब्लैकमेलिंग के डर से लड़कियां उन की शिकायत भी नहीं करती थीं. इस गिरोह ने स्कूल और कालेज की लड़कियों को देह व्यापार के व्यवसाय में ढकेला था. जानेमाने राजनीतिज्ञ, बिजनैसमैन और अपराधियों द्वारा महिलाओं से बलात्कार किया जाता था. साथ ही ये लोग उन की फिल्म बना कर उन्हें ब्लैकमेल किया करते थे.

मीरा ने अपने अधिकारियों को विश्वास में ले कर जलगांव में सैक्स रैकेट चलाने वाले करीब 2 दरजन से अधिक लोगों को गिरफ्तार कर उन्हें मीडिया के सामने बेनकाब किया. इन में कई बड़े व्यापारी, सरकारी अफसर, बड़े नेता और जुर्म की दुनिया से जुड़े बड़ेबड़े लोग शामिल थे.

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इस गिरोह का खुलासा होने के बाद पूरे देश में हंगामा हो गया. मीरा बोरवंकर अचानक इस ताकतवर गिरोह का भंडाफोड़ करने के बाद मीडिया की सुर्खियों में छा गईं. देश के लोग खासतौर से महिलाओं के लिए वह ऐसी सुपरकौप बन गईं जिन्हें कोई भी मुश्किल नहीं डिगा पाई थी.

जलगांव सैक्स स्कैंडल को हुए 26 साल से अधिक का समय बीत चुका है. मीरा बोरवंकर भी अब पुलिस महकमे से सेवानिवृत्त हो चुकी हैं, लेकिन आज भी वह देश में पुलिस विभाग की लेडी सुपरकौप के नाम से मशहूर हैं और रहेंगी.

सब से बड़ी बात यह थी कि जिस समय उन्होंने देश के इस बहुचर्चित केस का खुलासा किया था उस समय वह गर्भवती थीं. इस स्कैंडल का खुलासा करने में मीरा ने अहम रोल निभाया था. वह देश भर की मीडिया की सुर्खियों में छाई रहीं.

कई लोगों ने साल 2014 में आई रानी मुखर्जी अभिनीत फिल्म ‘मर्दानी’ देखी होगी. लोगों को शायद यह बात पता नहीं होगी यह फिल्म मीरा बोरवंकर के जीवन से ही प्रेरित थी.

देश की बागडोर असल मायने में उन ईमानदार अफसरों के हाथों में ही होती है जो पूरी निष्ठा के साथ अपना फर्ज निभाते हुए कानूनव्यवस्था चाकचौबंद रखते हैं. जिस तरह भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी नौकरशाही से लोगों का विश्वास उठता जा रहा है. ऐसे में मीरा जैसे कुछ अफसर ऐसा काम कर जाते हैं, जो लोगों के लिए मिसाल बन जाता है.

महाराष्ट्र में ‘लेडी सुपरकौप’ के नाम से मशहूर आईपीएस अफसर मीरा बोरवंकर की कहानी पुलिस विभाग में कुछ ऐसी ही मिसाल पेश करती है.

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पिता से मिली बहादुरी की सीख

मीरा बोरवंकर के पिता ओ.पी. चड्ढा बौर्डर सिक्योरिटी फोर्स में थे. उन का जन्म और पढ़ाई पंजाब के फाजिल्का जिले में हुआ. उन्होंने अपनी पढ़ाई डीसी मौडल स्कूल फाजिल्का में की थी. मीरा के पिता ओ.पी. चड्ढा की पोस्टिंग फाजिल्का में ही थी. इसी दरमियान मीरा ने मैट्रिक तक शिक्षा फाजिल्का में पाई.

इस के बाद 1971 में उन के पिता का तबादला हुआ तो उन्होंने अपनी आगे की पढ़ाई जालंधर से की. लायलपुर खालसा कालेज से उन्होंने अंगरेजी साहित्य में एमए किया. वह बहुमुखी प्रतिभा की छात्रा थीं. वह नीति विश्लेषण कानून प्रवर्तन में मिनेसोटा, अमेरिका के विश्वविद्यालय में अध्ययन के लिए गईं.

1971-72 के दौरान जब मीरा कालेज में थीं, तब किरण बेदी आईपीएस बन चुकी थीं और देश भर में उन के कारनामों का डंका बज रहा था.

मीरा पढ़ाई के साथ स्पोर्ट्स, म्यूजिक और दूसरी गतिविधियों में भी अव्वल थीं. यही कारण था कि एक दिन उन की एक शिक्षिका ने उन से कहा कि मीरा तुम किरण बेदी की इतनी बड़ी फैन हो, उन की तारीफ करती नहीं थकतीं. तुम्हारे भीतर भी आईपीएस बनने के सारे गुण हैं. तुम यूपीएससी की तैयारी क्यों नहीं करतीं.

बस मीरा के भीतर टीचर की यह बात घर कर गई. उन्होंने आईपीएस बनने की ठान ली और पुलिस की सेवा में जाने का मन बना लिया. मीरा ने यूपीएससी की तैयारियां शुरू कर दीं. पहली बार में ही मीरा ने यूपीएससी की परीक्षा पास कर ली.

मीरा ने फिर से यूपीएससी की परीक्षा दी और सफल रहीं, लेकिन इस बार उन्होंने आईपीएस को चुना. ट्रेनिंग के समय वह अकेली महिला थीं. यह उन के लिए कठिन था, क्योंकि उन्हें ट्रेनिंग में कोई रियायत नहीं मिलती थी.

उन की पोस्टिंग बहुत जगहों पर हुई परंतु पुरुषों को एक लेडी औफिसर के नीचे काम करना अच्छा नहीं लगता था. पुलिस सेवा में महिलाओं की उपस्थिति केवल एक या दो प्रतिशत होने के बावजूद मीरा अपने समकक्ष पुरुष अधिकारियों से कहीं ज्यादा सक्रिय और अलग तरह से काम करती थीं. उन के नेतृत्व में 300 औफिसर्स काम करते थे.

लेकिन मीरा ने कभी अपने मातहत पुरुष अधिकारियों के अहं को ठेस नहीं लगने दी, न ही उन्हें कभी छोटा होने का अहसास कराया. यही कारण रहा कि मीरा को अपने पूरे पुलिस कार्यकाल में पुरुष साथी अफसरों का भरपूर सहयोग मिला.

मीरा 1981 बैच में आईपीएस चुनी गई थीं. उन की शादी रिटायर्ड आईएएस अधिकारी अभय बोरवंकर से हुई थी. अभय रिटायर होने के बाद फिलहाल अपना बिजनैस संभाल

रहे हैं, जिस में मीरा भी उन का हाथ बंटाती हैं.

मीरा बोरवंकर महाराष्ट्र पुलिस के इतिहास में पहली महिला अधिकारी रही हैं, जो मुंबई क्राइम ब्रांच की कमिश्नर बनी थीं.

1987-1991 तक मीरा डिप्टी कमिश्नर औफ पुलिस के रूप में सेवा देती रहीं. वे औरंगाबाद में डिस्ट्रिक्ट सुपरिंटेंडेंट औफ पुलिस के स्वतंत्र प्रभार में रहीं और सतारा के चार्ज में 1996-1999 तक रहीं. 1993-1995 तक उन्होंने स्टेट क्राइम ब्रांच की भी बागडोर संभाली.

मीरा मुंबई में सीबीआई की आर्थिक अपराध शाखा और नई दिल्ली की एंटी करप्शन ब्रांच में डीआईजी के रूप में भी तैनात रहीं. 2013 में वह पुणे की पुलिस कमिश्नर बनीं.

इस दौरान वह जहां भी रहीं, उन्होंने अंडरवर्ल्ड के खिलाफ जोरदार मुहिम चला कर उस की कमर तोड़ दी.  मुंबई में नियुक्तिके दौरान माफिया राज को खत्म करने में उन का अहम रोल रहा. उन्होंने दाऊद इब्राहिम कासकर और छोटा राजन गैंग के कई सदस्यों को सलाखों के पीछे भेजा. उन्होंने उन दिनों के बहुचर्चित तेलगी घोटाले में कई आरोपियों को गिरफ्तार किया था.

जांबाज अफसर थीं मीरा

मीरा ने नौकरी के शुरुआती समय में ही अपने तेवरों से साफ कर दिया था कि वह हर हाल में गुंडा राज का खात्मा कर के रहेंगी. अपनी बेहतरीन सेवाओं और जांबाजी के लिए वह लेडी सुपरकौप के नाम से मशहूर हो गई थीं. ईमानदारी, बेहतरीन सेवा और कर्तव्यनिष्ठा के लिए उन्हें 1997 में राष्ट्रपति पुरस्कार तथा वर्ष 2001-02 में पुलिस कैरियर पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया.

इस के अलावा उन्हें 2016 में पूर्ण विश्वविद्यालय का जीवन साधना गौरव पुरस्कार, 2014 में  फिक्की एफएलओ और गोल्डन महाराष्ट का वुमन अचीवर अवार्ड, 2008 में मिनेसोटा विश्वविद्यालय से यूएसए का अंतरराष्टीय नेतृत्व पुरस्कार, 2006 में बौंबे मैनेजमेंट एसोसिएशन द्वारा मैनेजमेंट वुमन अचीवर अवार्ड से सम्मानित किया था.

2004 में उन्हें उत्कृष्ट पुलिस सेवा के लिए यशवंतराव चह्वाण मुक्त विश्वविद्यालय, नासिक से रुक्मणी पुरस्कार से नवाजा गया. 2002 में उन्हें लोकसत्ता दुर्गा जीवन पुरस्कार दिया गया था. आज वह देश की अनेक युवतियों के लिए प्रेरणा का एक स्रोत हैं.

मीरा ने सतारा में एक ऐसे डकैती केस को सुलझाया था, जिस की उन दिनों देशभर में चर्चा हुई थी. मीरा ने इस केस का इतनी चतुराई से खुलासा किया था कि पूरा पुलिस विभाग उन के दिमाग का लोहा मान गया था. पुलिस डिपार्टमेंट में उन की छवि एक ईमानदार और बहादुर अफसर की थी.

अक्तूबर, 2017 में मीरा बोरवंकर 36 साल की पुलिस सेवा के बाद महानिदेशक एनसीआरबी और ब्यूरो औफ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट के पद से रिटायर हुई थीं. लेकिन इस से पहले महाराष्ट्र के एडीजीपी जेल के पद पर रहते हुए उन्होंने मुंबई में हुए 26/11 हमलों के दोषी अजमल आमिर कसाब और 1993 मुंबई अटैक के दोषी याकूब मेमन को सफलतापूर्वक फांसी दिलवाई थी.

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वह उन 5 अधिकारियों में शामिल थीं, जो मेमन की फांसी के समय जेल परिसर में मौजूद थे. मीरा की देखरेख में ही उसे फांसी दी गई थी. कसाब के मामले का जिक्र करते हुए मीरा ने बताया था कि तब इस बात का पूरा खयाल रखा गया था कि फांसी की जानकारी किसी तरह मीडिया तक न पहुंचने पाए. मीडिया की नजरों से बचने के लिए वह अपने गनर की बाइक पर बैठ कर मुंह और यूनिफार्म को छिपा कर यरवदा जेल पहुंची थीं.

भले ही मीरा पुलिस की वर्दी से दूर हो गई हों, लेकिन महाराष्ट्र के पुलिस महकमे में आज भी उन की बहादुरी और कारनामों के चर्चे जीवंत हैं.

मजबूत इरादों वाली श्रेष्ठा सिंह

लेखक- पुष्कर

यूपी के बुलंदशहर में आयरन लेडी के नाम से मशहूर श्रेष्ठा सिंह का लक्ष्य एकदम स्पष्ट था और उसे पाने के लिए उन्होंने बहुत मेहनत भी की थी. जिस की चमक उन के व्यक्तित्व में बखूबी झलकती थी. इसीलिए प्रशिक्षण के बाद जब उन की पहली पोस्टिग स्याना में बतौर सीओ हुई तो उन का कानून का पालन करने का लक्ष्य इरादों की मजबूती बन गया.

23 जून, 2017 को स्याना में चेकिंग के दौरान भाजपा, नेता प्रमोद लोधी को पुलिस ने बिना हेलमेट और बिना कागजात की बाइक चलाते हुए रोक लिया. जब चालान करने की बात आई तो नेता जी श्रेष्ठा सिंह से उलझ बैठे.

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प्रमोद लोधी जिला पंचायत सदस्या प्रवेश के पति थे और स्वयं भी नेता थे. लेकिन श्रेष्ठा सिंह ने उन की किसी भी धमकी की परवाह नहीं की. उन्होंने सरकारी काम में बाधा डालने के आरोप में एफआईआर दर्ज कराई जिस के बाद प्रमोद लोधी को गिरफ्तार कर लिया गया.

उन्हें कोर्ट में पेशी के लिए ले जाया गया तो वहां बड़ी संख्या में भाजपा समर्थक पहुंच कर नारेबाजी करने लगे. तब श्रेष्ठा सिंह ने हंगामा कर रहे नेताओं और समर्थकों से कहा कि वे लोग मुख्यमंत्री जी के पास जाएं और उन से लिखवा कर लाएं कि पुलिस को चेकिंग का कोई अधिकार नहीं है. वो गाडि़यों की चेकिंग न करें.

इस मामले के 8 दिन बाद ही श्रेष्ठा ठाकुर का तबादला स्याना से बहराइच (नेपाल बौर्डर से सटे) कर दिया गया था. जिस की जानकारी उन्होंने अपने एएस ठाकुर नाम के फेसबुक अकाउंट पर देते हुए लिखा,‘मैं खुश हूं. मैं इसे अपने अच्छे कामों के पुरस्कार के रूप से स्वीकार कर रही हूं.’

आगे की लाइन में उन्होंने अपना लक्ष्य भी स्पष्ट करते हुए लिखा, ‘जहां भी जाएगा, रोशनी लुटाएगा. किसी चराग का अपना मकां नहीं होता.’

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कानपुर में पलीबढ़ी श्रेष्ठा ने कानून की अहमियत शिक्षा प्राप्ति के दौरान ही समझ ली थी. जब उन के साथ 2 बार छेड़छाड़ की घटना हुई थी. पुलिस ने मदद के नाम पर औपचारिकता भर निभा दी थी.

तभी श्रेष्ठा ठाकुर ने अपना लक्ष्य तय कर लिया था, एक पुलिस अधिकारी बनने का और अधिकारी बनने के बाद उन्होंने जता दिया कि कानून की धाराएं आम से ले कर खास व्यक्ति तक के लिए एक जैसी हैं. जो उन में भेदभाव करता है, कानून का वह रक्षक अपनी वर्दी के साथ इंसाफ नहीं करता.

एनकाउंटर स्पेशलिस्ट: 86 शिकार बने दया नायक के

गरीबी से भी नीचे की रेखा से उठ कर देश का टौप 10 एनकाउंटर स्पैशलिस्ट बन जाना मामूली बात नहीं थी, लेकिन दया नायक बने. जब वह एक के बाद एक एनकाउंटर कर रहे थे, मुंबई चैन की…

आम आदमी और पुलिस में एक फर्क यह है कि किसी पर गोली चलाने के लिए एक की मजबूरी होती है, दूसरे की खुन्नस या लालच. गोली चला कर एक बहादुर बन जाता है, दूसरा हत्यारा. ऐसे हत्यारों से निपटने के लिए पुलिस होती है. और अगर पुलिस वाला दया नायक जैसा हो तो कहने की क्या?

मुंबई की पुलिस दया नायक, जिन पर नाना पाटेकर अभिनीत फिल्म ‘अब तक छप्पन’ बनी थी और पसंद भी की गई थी. वह व्यक्ति हैं जिन्होंने मुंबई के अंडरवर्ल्ड को हिला दिया था. उन्होंने 86 एनकाउंटर किए.
मारे गए सभी ऐसे दुर्दांत अपराधी और अंडरवर्ल्ड के लोग थे, जिन्होंने मुंबई की नींद हराम कर रखी थी. फिल्म निर्माताओं, अभिनेताओं और बड़े बिजनैसमैन से दाऊद और छोटा शकील के नाम पर रंगदारी वसूलने वाले और न देने पर उन्हें मौत के घाट उतार देने वाले. ऐसे में इंसपेक्टर दया नायक उन की मौत बन कर मैदान में उतरे.

लेकिन आगे बढ़ने से पहले बता दें, दया नायक यूं ही इतने बड़े एनकाउंटर स्पैशलिस्ट नहीं बन गए थे. वह बेहद गरीबी से उबर कर आए थे. कर्नाटक के उडुपी जिले के एनहोले गांव निवासी बड्डा और राधा की इस तीसरी संतान ने गरीबी को बहुत करीब से देखा और जिया.

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इसी के चलते उन्होंने 11 वर्ष की उम्र में घर छोड़ दिया और मुंबई आ गए. कितनी ही रातें रेलवे स्टेशनों पर सो कर गुजारीं. जैतैसे काम भी मिला तो ढाबे पर, वह भी वेटर का. थोड़े पैसे अलग से मिल जाएं, इस के लिए दया ने लोगों के घरों की टोंटियां तक ठीक करने का काम किया.

फिर एक कैंटीन में नौकरी मिल गई. काम आता था, मन में ईमानदारी और काम की लगन थी सो बाद में वर्सोवा के एक होटल में 600 रुपए पर नौकरी मिल गई. टिप मिला कर 7 साढ़े सौ रुपए हो जाते थे, जिस में से दया आधा पैसा मां को भेज दिया करते थे क्योंकि तब तक पिता का निधन हो चुका था.

पैसों की तंगी की वजह से पढ़ाई बचपन में ही छूट गई थी. पैसे मिलने लगे तो दया ने एक बार फिर पढ़ने का मन बनाया. होटल में काम करतेकरते उन्होंने पढ़ाई शुरू कर दी. होटल मालिक सहृदय था. दया की मेहनत और लगन देख कर उस ने उन का दाखिला गोरेगांव के एक नाइट स्कूल में करा दिया. इसी तरह अपनी मेहनत के बल पर दया ने एसएससी पास की. वह पुलिस में जाना चाहते थे, इसलिए उसी की परीक्षा की तैयारी की. इस के लिए उन्होंने बतौर लाइब्रेरियन दादर की एक लाइब्रेरी में नौकरी भी की.

उन की मेहनत रंग लाई और 1995 में वे मुंबई में सबइंसपेक्टर बन गए. जुहू पुलिस स्टेशन के डिटेक्शन विभाग में उन्हें जौइनिंग मिली. यहीं दया का सामना अंडरवर्ल्ड डौन छोटा राजन के गुर्गों से हुआ. इस मुकाबले में छोटा राजन के गुर्गों को मौत का मुंह देखना पड़ा.

यहीं से दया नायक की किस्मत पलटी. उन के हौसले को देखते हुए पूर्व पुलिस उपायुक्त चौधरी सतपाल सिंह (अब बीजेपी सांसद) ने उन्हें क्राइम इंटेलीजेंस यूनिट में शामिल करवा दिया.

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उस वक्त मुंबई के धुरंधर एनकाउंटर स्पैशलिस्ट प्रदीप शर्मा की देखरेख में उन्होंने सीआईयू जौइन कर लिया. दया नायक ने 1996 में प्रदीप शर्मा के साथ मिल कर अंडरवर्ल्ड डौन बबलू शर्मा के 2 गुर्गों को ढेर कर दिया. दया के एनकाउंटर स्पेशलिस्ट बनने की शुरुआत यहीं से हुई. उसी दौरान दया ने एलटीटीई के 3 सदस्यों को सरेआम मुठभेड़ में गोलियों से छलनी किया. ये तीनों गैंगस्टर अमर नाइक के लिए काम करते थे.

इस के बाद दया नायक ने सदिक कालिया, श्रीकांत मामा, रफीक डिब्बेवाला, परवेज सिद्दकी, विनोद भटकर और सुभाष समेत अंडरवर्ल्ड के दर्जनों गुंडों को मौत के घाट उतारा.
दया ने अपने गांव में एक शानदार स्कूल बनवाया जिस के उद््घाटन पर उन्होंने अमिताभ बच्चन जैसी कई जानीमानी हस्तियों को बुलवाया था.

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इस से उन पर अपने रसूख का गलत इस्तेमाल करने का आरोप लगा. उन पर आय से अधिक संपत्ति का मामला भी दर्ज हुआ, जिस में वह निर्दोष साबित हुए. 2010 में सुप्रीम कोर्ट ने उन पर लगे सभी आरोप निरस्त कर दिए. 2012 में उन्हें फिर मुंबई पुलिस में शामिल कर लिया गया.

जौइनिंग के बाद दया नायक की पोस्ंटिंग नागपुर में की गई. पर वे वहां नहीं गए क्योंकि अंडरवर्ल्ड से उन के परिवार को खतरा था. इसी वजह से उन्हें 2015 में फिर निलंबित कर दिया गया.

2016 में दया नायक की पुलिस में फिर वापसी हुई और 2018 में उन्हें मुंबई के अंबोला पुलिस स्टेशन का इंस्पेक्टर बनाया गया. 2019 में दया नायक को एटीएस में ट्रांसफर कर दिया गया. फिलहाल दया नायक के खाते में 86 एनकाउंटर हैं. द्य

कभी हिम्मत नहीं हारी: डी रूपा

डी.रूपा वह चर्चित नाम है जिसे रूपा दिवाकर मौदगिल के नाम से भी जाना जाता है. देश की यह चर्चित
आईपीएस अफसर किसी परिचय की मोहताज नहीं, इन के चर्चे मीडिया में सुर्खियां बनते रहते हैं. बेबाक, निडर और साहसी आईपीएस डी. रूपा का सर्विस रिकौर्ड बड़ा शानदार रहा है, हालांकि इस के लिए उन को अभी तक 20 साल के कैरियर में 43 बार ट्रांसफर का दर्द झेलना पड़ा. लेकिन वह इसे अपनी नौकरी का हिस्सा मानती रहीं, कभी कोई शिकायत नहीं की.

वह जिस राज्य में रहीं, वहां का मुख्यमंत्री कभी चैन से नहीं सो पाया. क्योंकि डी. रूपा अपने काम के तरीकों से कब और कहां के भ्रष्टाचार का खुलासा कर दें या कोई ऐसी काररवाई कर दें कि राज्य में भूचाल आ जाए और वह मीडिया में छा जाए, कोई नहीं जान सकता.

डी. रूपा कभी गलत होते नहीं देख सकतीं, सच को सब के सामने लाने के लिए वह बिलकुल भी नहीं डरती, सामने वाला कितना भी ताकतवर और रसूख वाला हो, वह इस की बिलकुल परवाह नहीं करती.
देश की बागडोर असल मायनों में अफसरों के हाथ में होती है, यदि नौकरशाही दुरुस्त हो तो कानूनव्यवस्था चाकचौबंद रहती है. डी. रूपा जैसे ही अफसर हैं जो देश सेवा का जुनून लिए नौकरशाही की साख बचाए हुए हैं. अफसर चुपचाप शांति से अपनी सर्विस लाइफ जीते रहते हैं. विरले ही अफसर होते हैं जो सिस्टम और भ्रष्ट राजनेताओं के खिलाफ आवाज उठाते हैं. डी. रूपा ऐसे ही अफसरों में से एक हैं. उन की दिलेरी के किस्से आज मिसाल के तौर पर पेश किए जा रहे हैं.

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सिस्टम से भी टकरा जाने वाली कर्नाटक कैडर की आईपीएस डी. रूपा पहली महिला आईपीएस अफसर तो थी ही, साथ ही राज्य के गृह सचिव पद को संभालने वाली भी पहली महिला थीं. डी. रूपा कर्नाटक के पश्चिमी घाट की तलहटी में बसे दावणगेरे कस्बे में पैदा हुई थीं, तब यह जिला नहीं हुआ करता था. तब यह एक छोटा सा कस्बा हुआ करता था.

रूपा के पिता जे.एच. दिवाकर सरकारी टेलीकौम कंपनी बीएसएनएल में इंजीनियर थे. मां हेमावती पोस्ट औफिस में डाक अधीक्षक की पोस्ट पर थीं.

रूपा की एक छोटी बहन थी रोहिणी दिवाकर. रोहिणी 2008 बैच की आईआरएस अधिकारी हैं और संयुक्त आयकर आयुक्त के पद पर तैनात हैं.

डी. रूपा जब तीसरी कक्षा में थीं, तब क्लास टीचर ने बच्चों से कहा कि वे बडे़ हो कर क्या बनना चाहते हैं. आज मत बताओ, घर जाओ, अपने मातापिता से बात करो, फिर कल आ कर बताना.

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बनना चाहती थीं आईपीएस

डी. रूपा घर पहुंचीं. मां हेमावती से बात की कि उन को बड़े हो कर क्या बनना है तो उन की मां ने कहा कि डाक्टर बनो. रूपा को यह कुछ नहीं भाया तब उन्होंने पिता से बात की. उन्होंने कहा कि आईएएस या आईपीएस अफसर बनना.

पिता ने रूपा को इस बारे में भी बताया कि आईएएस बनने से डीसी सा डीएम बन जाते हैं और आईपीएस बनने से एसपी बन जाते हैं. यह लीडरशिप रोल रूपा को इतना भाया कि रूपा ने अगले दिन कक्षा में जा कर अपनी क्लास टीचर को अपने आईपीएस बनने की इच्छा बता दी.

रूपा ही अकेली ऐसी छात्रा थी, जिस ने पुलिस अधिकारी बनने की बात कही थी. यह सुन कर अध्यापिका ने सभी बच्चों को ताली बजाने को कहा. रूपा का जवाब सुन कर सभी खुश हुए. तब रूपा को लगा था कि इस में कुछ विशेषता है, बड़े हो कर आईएएस या आईपीएस बनना है.

इसी दौरान रूपा ने एनसीसी जौइन कर ली. गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में कैंप होता है. जब रूपा नौंवीं कक्षा में थी तब उस ने गणतंत्र दिवस पर अपने राज्य का प्रतिनिधित्व करने के लिए इस कैंप में भाग लिया था. यह मौका उन्हें तब मिला था, जब उन्होंने वहां तक पहुंचने के लिए 4-5 पड़ाव पार किए थे.

उस समय गणतंत्र दिवस के मौके पर देश की चर्चित महिला अफसर किरन बेदी आई थीं, उन्होंने वहां युवाओं को प्रेरित करने के लिए जो भाषण दिया, उस से रूपा काफी प्रेरित हुईं. उस समय प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए एक पत्रिका आती थी ‘कंप्टीशन सक्सेस रिव्यू’. यह पत्रिका किसी ने रूपा को पढ़ने के लिए दी.

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उस पत्रिका में यूपीएससी में टौप किए लोगों के इंटरव्यू और सौल्व्ड पेपर्स आते थे. उस पत्रिका को पढ़ कर रूपा ने जाना कि कैसे उसे इस क्षेत्र में कैरियर बनाना है. उस समय कर्नाटक में इंजीनियरिंग और मैडिकल कालेजों की भरमार थी.

इंजीनियर और डाक्टर बनने की हवा चल रही थी. कोई पुलिस सेवा में जाने की सोचता तक नहीं था. इस संबंध में अधिक जानकारी भी नहीं मिल पाती थी.

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इस के बावजूद रूपा ने पुलिस सेवा को अपना कैरियर बनाने की ठानी. उन्होंने साइकोलौजी और सोशियोलौजी में यूपीएससी पास करने की ठान ली. उन की जलती हुई महत्त्वाकांक्षा में ईंधन का काम किया टीवी धारावाहिक ‘उड़ान’ ने, जोकि देश की दूसरी महिला पुलिस अधिकारी कंचन चौधरी के जीवन से पे्ररित था. दूरदर्शन पर प्रसारित इस धारावाहिक में पुलिस अधिकारी को एक दोस्त और जनता के रक्षक के रूप में दिखाया गया था. दूरदर्शन देख देख कर ही रूपा ने हिंदी बोलना सीखा.
रूपा ने 10वीं में स्टेट लेवल पर 23वीं रैंक हासिल की. रूपा ने आर्ट से आगे बढ़ने का फैसला किया. उन्होंने कर्नाटक के कुवेंपु विश्वविद्यालय से प्रथम रैंक में स्वर्ण पदक हासिल करने के साथ बीए की पढ़ाई पूरी की. इस के बाद बेंगलुरु विश्वविद्यालय से मनोविज्ञान से एमए किया. इस में उन की तीसरी रैंक थी.

एमए करने के बाद रूपा ने नेट (हृश्वञ्ज) की परीक्षा पास की. उन्होंने जेआरएफ निकाला और साथ ही आईपीएस की तैयारी करती रहीं. उन्होंने यूपीएससी की परीक्षा में 43वीं रैंक हासिल की.
इस शानदार रैंक पर वह चाहतीं तो आईएएस चुन सकती थीं लेकिन उन्होंने आईपीएस को चुना. हैदराबाद में सरदार वल्लभभाई पटेल राष्ट्रीय पुलिस अकादमी से प्रशिक्षण लिया, जहां उन को अपने बैच में 5वां स्थान मिला. उन्हें कर्नाटक कैडर आवंटित किया गया.

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डी. रूपा शार्पशूटर थीं. ट्रेनिंग के दौरान उन्होंने कई पदक भी जीते. इस के अलावा वह भरतनाट्यम की कुशल डांसर थीं. रूपा ने भारतीय शास्त्रीय संगीत की भी शिक्षा ली थी. कन्नड़ फिल्म बेलाताड़ा भीमन्ना के लिए एक गीत भी अपनी आवाज में गाया था. इस फिल्म ने रविचंद्रन ने मुख्य भूमिका निभाई थी. रूपा तेज दिमाग के साथ खूबसूरती भी थीं. ब्यूटी विद ब्रेन के कारण रूपा ने 2 बार ‘मिस दावणगेरे’ का खिताब जीता था.

2000 बैच की आईपीएस अफसर रूपा ने 2002 में उडुपी से सहायक एसपी के रूप में अपना कैरियर शुरू किया. 2003 में रूपा ने 1998 बैच के आईएएस अधिकारी मौनिश मौदगिल से विवाह किया. पंजाब के रहने वाले मौनिश ने आईआईटी बौंबे से अपनी बीटेक इलैक्ट्रिकल इंजीनियरिंग पूरी की.

मौनिश ने यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा पास की और ओडिशा कैडर में आईएएस अफसर बने.
रूपा और मौनिश दोनों पहली बार मसूरी में फाउंडेशन ट्रेनिंग में मिले और शादी करने का फैसला किया. उन को एक बेटी अनघा और एक बेटा रौशिल है.

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पहली नियुक्ति बनी चुनौती

रूपा की एसपी के रूप में सब से पहली पोस्टिंग 2004 में कर्नाटक के धारवाड़ जिले में हुई. पोस्टिंग हुए एक महीने का समय ही बीता था कि उन को एक बड़ी जिम्मेदारी सौंपी गई, वह जिम्मेदारी थी मध्य प्रदेश की तत्कालीन मुख्यमंत्री उमा भारती को गिरफ्तार करने की. मामला कर्नाटक के हुबली से जुड़ा था, जहां 15 अगस्त, 1994 को ईदगाह पर तिरंगा फहराने के मामले में उमा भारती के खिलाफ वारंट जारी हुआ था. आरोप था कि उन की इस पहल से सांप्रदायिक सौहार्द खतरे में पड़ा था.

10 साल पुराने इस मामले में कोर्ट ने उमा भारती के खिलाफ गैरजमानती वारंट जारी किया था. इस वारंट को तामील कराने के लिए डी. रूपा धारवाड़ से निकलीं. लेकिन जब तक वह पहुंचती, उमा भारती ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था.

उमा भारती को गिरफ्तार कर के उन को कोर्ट मे पेश किया गया. इसी प्रकरण से पहली बार डी. रूपा चर्चा में आई थीं. रूपा धारवाड़ के बाद गडग, बीदर और यादगीर जिले में भी एसपी पद पर तैनात रहीं. 2008 में गडग में बतौर एसपी तैनाती के दौरान उन्होंने एक पूर्व मंत्री यावगल को गिरफ्तार किया था.

उन्होंने अपने ही अधीनस्थ डीएसपी मासूति को अपने और पूर्वमंत्री के बीच सौदा कराने की कोशिश के लिए निलंबित कर दिया था. कुछ महीनों के भीतर ही रूपा को स्थानांतरित कर दिया गया. इस मामले को 5 सालों तक खींचा गया. इस के लिए विशेषाधिकार हनन प्रस्ताव लाया गया लेकिन रूपा कानूनी तौर पर सही थीं, इसलिए उन पर कोई काररवाई नहीं हुई.

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गुलबर्गा से अलग कर के बनाया गया था नया जिला यादगीर. नया जिला होने से कोई सशस्त्र बल नहीं था, ला ऐंड और्डर बनाए रखने की बड़ी मुश्किलें थीं. उस पर किसी तरह काम कर के रूपा ने जिले में पूर्णतया शांति बनाए रखी. एसपी के पद पर होते हुए भी वहां उन के रहने के लिए कोई आवास नहीं था.
किराए पर भी कोई आवास नहीं मिला. यादगीर में ही रूपा के पति मौनिश को अतिरिक्त चार्ज मिला हुआ था. उन्हें एक आवास आवंटित किया गया था. रूपा पति को मिले आवास में ही जा कर रहने लगीं.
वहां रूपा को कुछ कष्ट सहने पड़े. पास में ही एक गांव में स्कूल था. उस स्कूल से रूपा की बेटी अनिघा ने अपनी प्रारंभिक पढ़ाई शुरू की. वहां बच्चों को स्कूल में जमीन पर बैठ कर पढ़ना होता था.

कुछ लोग यह सोचते हैं कि आईपीएस की जिंदगी बड़ी सुखद होती है, आलीशन घर होते हैं, एसी चैंबर होते हैं, पैसा होता है, नौकरचाकर होते हैं, मगर चुनौतियां कुछ इस तरह की भी हो सकती हैं, जो रूपा के सामने आईं.

यादगीर के बाद 2013 में रूपा बेंगलुरु में डिप्टी कमिश्नर औफ पुलिस (सिटी आर्म्ड रिजर्व) के पद पर तैनात हुईं. वहां रूपा ने देखा कुछ राजनेता, विधायक और सांसद अनाधिकृत रूप से अतिरिक्त गनमैन रखे हुए थे. यह देख कर रूपा ने एक लिस्ट बनाई और 82 राजनेताआें से 290 गनमैन वापस ले लिए.
तत्कालीन मुख्यमंत्री बी.एस. येदियुरप्पा के पास कानवाय के लिए विभाग के 8 नए एसयूवी वाहन थे, किसी ने वापस नहीं लिए. वह रूपा ने वापस ले लिए. इस काररवाई के बाद रूपा का ट्रांसफर कर दिया गया.

नौकरशाही पर लगाम लगाने और उन को सबक सिखाने के लिए राजनेता ट्रांसफर को हथियार की तरह इस्तेमाल करते हैं. यही वजह है कि नौकरशाही ट्रांसफर के डर से और कंफर्ट जोन में रहने के लिए शांत रहती है. लेकिन रूपा शांत रहने वाले अफसरों में से नहीं थीं. कुछ भी गलत होते देख कर वह चुप नहीं बैठती थीं.

डी. रूपा को लगातार 2 साल 2016 और 2017 में राष्ट्रपति पदक से सम्मानित किया गया. जुलाई 2017 में रूपा को डीआईजी जेल के पद पर तैनात किया गया. रूपा का पहला जेल निरीक्षण एक घंटे का था. उन्होंने जेल में कैदियों से बात की तो वह उन को अंदर से रुला गई. कैदियों की कहानियों, जेल में बिताए वर्ष, उन की आंखों के पछतावे ने रूपा को रुला दिया. कुछ कैदी तो 12 साल की जेल की सजा काटने के बाद भी पैरोल पर नहीं गए थे.

जेलों का देखा हाल

डीआईजी रूपा ने सब से पहले जरूरतमंद कैदियों को मुफ्त कानूनी सहायता दी और बेकरी का प्रशिक्षण भी दिलाया. तुमकुरू जेल में भी उन्होंने 21 महिला कैदियों के लिए बेकरी प्रशिक्षण इकाई खोली.
10 जुलाई, 2017 को डीआईजी डी. रूपा ने परप्पना अग्रहारा जेल का दौरा किया. उसी जेल में एआईडीएमके की अध्यक्ष जयललिता की सहयोगी वी.के. शशिकला भी बंद थी. शशिकला को कर्नाटक उच्च न्यायालय ने आय से अधिक संपत्ति के मामले में दोषी ठहराए जाने के बाद जेल में बंद किया गया था. शशिकला उस समय मजबूत सीएम कैंडिडेट थी और पावर में थी.

शशिकला को जेल में वीआईपी सुविधा मिल रही थी. शशिकला को उन की बैरक से अटैच एक किचन दिया गया था, जिस में उन के लिए विशेष तौर पर खास खाना बनाया जाता था. डी. रूपा ने शासन को भेजी गई अपनी रिपोर्ट में जेल प्रशासन पर आरोप लगाया कि इन सुविधाओं के लिए शशिकला द्वारा उन को 2 करोड़ रुपए दिए गए थे.

इस के अलावा उन्होंने और भी अवैध गतिविधियां होते देखीं. उन के मुताबिक 25 कैदियों का ड्रग टेस्ट कराया तो उन में से 18 का टेस्ट पौजिटिव आया. फेक स्टांप पेपर केस में दोषी पाए गए अब्दुल करीम तेलगी, जिस को भर्ती के वक्त व्हीलचेयर चलाने के लिए एक व्यक्ति दिया गया था, वह असल में 4 लोगों से मालिश करवा रहा था.

डी. रूपा ने डीजीपी (जेल) के. सत्यनारायण राव पर अपने काम में बाधा डालने का भी आरोप लगाया. आरोपों के बदले पुलिस महकमे की ओर से रूपा को शो कौज नोटिस भेजा गया.

साथ ही रूपा पर 20 करोड़ रुपए का मानहानि का मुकदमा दायर किया गया. 17 जुलाई, 2017 को रूपा का स्थानांतरण डीआईजी जेल से आईजी (ट्रैफिक रोड ऐंड सेफ्टी) पद पर कर दिया गया.

डी. रूपा इजरायल के विदेश मंत्रालय द्वारा दोनों देशों के बीच संबंधों को बढ़ावा देने के लिए ‘डिस्कवर इजरायल प्रतिनिधिमंडल’ का हिस्सा बनने के लिए चुनी गईं.

2020 में डी. रूपा कर्नाटक की प्रथम महिला गृह सचिव (कारागार, अपराध और सहायक सेवाएं) बनीं. रूपा सोशल मीडिया पर काफी ऐक्टिव रहती हैं खासतौर पर माइक्रो ब्लौगिंग साइट ट्विटर पर. वह रोज के रोज अपने से जुड़ी हर बात को ट्विटर पर शेयर करती हैं.

14 नवंबर, 2020 को ट््विटर पर उन्होंने ट्वीट किया, ‘कुछ लोग पटाखों पर प्रतिबंध लगाने पर आपत्ति क्यों जताते हैं.’ इस ट्वीट के बाद ‘ट्रूइंडोलौजी’ नाम के यूजर से उन की बहस हो गई. डी. रूपा का मत था कि पटाखे दीवाली से जुडे़ रीतिरिवाजों का हिस्सा नहीं रहे और 15वीं शताब्दी में आतिशबाजी का जन्म हुआ. इसलिए इस बैन को सकारात्मक रूप से लेना चाहिए. हालांकि ट्विटर पर सनातन धर्म से जुड़े सही तथ्यों को रखने का दावा करने वाले ट्विटर यूजर ट्रूइंडोलौजी ने इस का विरोध किया. इस यूजर ने शास्त्रों का उदाहरण देते हुए यह साबित करने की कोशिश की कि कई हजार सालों से आतिशबाजी दीवाली पर्व का हिस्सा रही है.

दोनों के बीच बहस इस हद तक पहुंच गई कि ट्विटर ने ट्रूइंडोलौजी एकाउंट को सस्पेंड कर दिया. आरोप लगा कि डी. रूपा ने अपनी पावर का गलत इस्तेमाल कर के विरोधी यूजर का एकाउंट सस्पेंड कराया है, जबकि ऐसा नहीं था. यूजर के एकाउंट को वापस लाने के लिए हैशटैग चलने लगा. इस बहस में फिल्म एक्ट्रैस कंगना रनौत ने भी डी. रूपा को काफी कुछ कहा.

619 करोड़ रुपए के ‘बेंगलुरु सेफ सिटी प्रोजेक्ट’ के तहत पूरे बेंगलुरु शहर में सीसीटीवी कैमरे लगने थे, जिन के टेंडर निकाले गए थे. इसी टेंडर प्रक्रिया में गृह सचिव रूपा ने अतिरिक्त पुलिस आयुक्त (प्रशासन) हेमंत निंबालकर पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए थे. डी. रूपा को टेंडर प्रक्रिया में गंभीर अनियमितताएं मिली थीं.

भिड़ गईं सीनियर से

इस पर हेमंत निंबालकर ने 7 दिसंबर, 2020 को प्रमुख सचिव को भेजी गई रिपोर्ट में कहा कि किसी ने खुद को गृह सचिव बता कर इस योजना के बारे में गोपनीय सूचना हासिल करने की कोशिश की थी. इस पर रूपा ने बतौर गृह सचिव कहा, ‘मैं शिकायत करती हूं कि किसी अन्य व्यक्ति की ओर से अपने आप को गृह सचिव के रूप में पेश करने की बात झूठी और व्यक्तिगत दुर्भावना से प्रेरित है.’

प्रोजेक्ट को ले कर 2 वरिष्ठ अधिकारियों के बीच में ठन गई तो कर्नाटक सरकार ने बेंगलुरु के पुलिस कमिश्नर कमल पंत को इस प्रक्रिया में अवैध दखल की जांच करने का आदेश दिया. दोनों के बीच बढ़े विवाद के बाद सरकार ने दोनों का तबादला कर दिया.

31 दिसंबर, 2020 को डी. रूपा को गृह सचिव के पद से हटा कर कर्नाटक राज्य हस्तशिल्प विकास निगम के प्रबंध निदेशक के पद पर भेज दिया गया. एक जनवरी, 2021 को उन्होंने अपना पदभार ग्रहण कर लिया.

यह थी देश की महिला आईपीएस अफसर डी. रूपा की कहानी, जो आज के युवाओं को प्रेरणा देने वाली है कि किस तरह एक छोटी सी जगह से निकल कर अपनी मेहनत और लगन के बल पर अपने सपने को पूरा किया जाता है, हकीकत में अपने सपने को कैसे जिया जाता है.

परिस्थितियां कैसी भी हों, इंसान को साहस से काम लेना चाहिए, उन का डट कर मुकाबला करना चाहिए. डी. रूपा पूरे कैरियर में बड़ी ईमानदारी से अपने कार्यों को करती आईं, कभी अपने तबादलों से नहीं डरीं. बल्कि इन तबादलों को अपनी नौकरी का एक हिस्सा मानती रहीं.

20 साल के कैरियर में दोगुने से ज्यादा तबादले हुए लेकिन उन के माथे पर कभी शिकन नहीं आई. आज हमारे देश को ऐसे ही कर्तव्यनिष्ठ और ईमानदार पुलिस अधिकारियों की जरूरत है जो अपने सेवा भाव से देश और समाज का भला कर सकें.

पेड़ से अमृत धारा गिरने का अंधविश्वास

आज 21वीं शताब्दी में भी अंधविश्वास किस तरह पैर पसारता चला जा रहा है. इसका एक ज्वलंत उदाहरण छत्तीसगढ़ के जिला कवर्धा के ग्राम धमकी में आप देख सकते हैं. जहां एक अर्जुन के पेड़ से जब पानी का स्रोत फूट पड़ा तो लोग पूजा अर्चना करने लगे और निकल रहे पानी को अमृत धारा मानकर पी रहे हैं.

ग्राम धमकी में अजीबो-गरीब मामला सामने आया है. कौहा अर्जुन वृक्ष का नाम सुनकर भले ही मुंह कड़वाहट से भर जाता हो, लेकिन यहां एक कौहा पेड़ लोगों को अंधविश्वास के युग में ले आया है क्योंकि आम लोग इस पानी को तमाम मर्जो की दवा मान रहे हैं.

स्थानीय लोग मासूमियत के साथ कह रहे हैं कि यह पानी पीने से स्वास्थ्य गत फायदा मिलेगा.दर असल, पानी का स्वाद नारियल पानी जैसा और रंग हल्का मटमैला है. और जन चर्चा में आने के कारण यह अफवाह फैल गई है कि यह लाभ ही लाभ देगा. मगर यह भोले-भाले लोग नहीं जानते कि पेड़ से पानी की धार फूटना एक सामान्य घटना है.

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कवर्धा विकासखंड अंतर्गत ग्राम धमकी में एक पुराने कौहा पेड़ से पानी की धार निकल रही है, जिसे कुछ ग्रामीण दैवीय चमत्कार मान कर ग्रहण कर रहे हैं. भले ही मेडिकल विज्ञान में रोगों को दूर करने के नित नए प्रयोग किए जा रहे हो आधुनिक चिकित्सा से इलाज किया जा रहा हो, लेकिन शिक्षा और जागरूकता के आज के समय में लोग जड़ी-बूटियों के साथ रोगों को दूर करने का दावा करते हैं.

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दरअसल, अशिक्षा और अपवाह बाजी के कारण अनेक झूठ हमारे समाज में अपना गहराई स्थान बना चुके हैं. जिसकी वजह से ऐसी घटनाओं का प्रचार होने लगता है.

ग्रामीण अंचल में एक कहावत है कि अगर दवा विश्वास के साथ ली जाए तो हर बीमारी ठीक हो जाती है. यही कारण है कि इन दिनों ग्राम धमकी पहुंच मुख्य मार्ग किनारे स्थित कौहा पेड़ से पानी की धार निकलने से ग्रामीणों में अंधविश्वास उछाल मार रहा है. ग्रामीण जन इसे एक “दैवीय चमत्कार” मानकर बोतलों में भर कर घर ले जा रहे हैं और उस पानी को पीकर अपने आप को रोग मुक्त होने का भ्रम पाल रहे हैं.

शुरू हो गया पूजा पाठ और अंधविश्वास

पेड़ से निकल रहे पानी को लोग चमत्कार मान रहे हैं. जबकि यह एक सामान्य घटना है,. इसके पूर्व भी अनेक जगहों पर पेड़ से पानी निकलने की घटना हुई है जिसे वैज्ञानिक और चिकित्सा शास्त्री विश्लेषण करके यह बता चुके हैं कि यह एक बहुत साधारण बात है.

मगर अंधविश्वास के मारे बड़ी मात्रा में निकल रहे इस सफेद द्रव्य को चखकर इसका स्वाद मीठा होना बता रहे हैं और यह मानते हैं कि इससे अनेक बीमारियां दूर हो जाती है. हमारे संवाददाता ने एक वन अधिकारी से बात की तो उन्होंने बताया वनस्पति विज्ञान की यह सामान्य घटना है जंगल में जब पानी नहीं मिलता तो कई बार जानकार वन अधिकारी, कर्मचारी पेड़ से पानी निकालकर प्यास बुझाते हैं.

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मगर लोग इस पदार्थ को लेकर तरह-तरह के कयास लगा रहे हैं, लेकिन ज्यादातर लोग इसे चमत्कार मान “पूजा-अर्चना” कर रहे हैं. वहीं इस पानी को बोतल में भर कर अपने घर भी ले जा रहे हैं. यहां यह भी महत्वपूर्ण जानकारी आपको बता दें कि पेड़ से पानी निकलने की बात जैसे-जैसे ही आस-पास के गांव में फैली,यहां लोग जुटने लगे और पानी बोतल में भरकर घर ले जाने का सिलसिला लगातार चल रहा है. कुछ लोग इस पेड़ की अगरबत्ती जला कर पूजा अर्चना भी कर रहे हैं यहां यह भी महत्वपूर्ण तथ्य है कि अभी तक शासन प्रशासन की ओर से लोगों को जागरूक करने का कोई प्रयास नहीं किया गया है. जो यह बताता है कि हमारा शासन प्रशासन किस तरह लोगों को अंधविश्वास में डूबने उतरने के लिए छोड़कर कुंभकरण जैसी निंद्रा में है.

दरकार है अंधविश्वास भगाने की

वस्तुतः ऐसी घटनाएं हमारे देश में आमतौर पर घटित होती रहती हैं. और अशिक्षा, अंधविश्वास के कारण लोग इस के फेर में पड़कर अपना समय बर्बाद करते हैं और स्वास्थ्य भी.

छत्तीसगढ़ के सुप्रसिद्ध चिकित्सक और अंधविश्वास के खिलाफ लंबे समय से जागरूकता प्रसारित करने वाले डॉ .दिनेश मिश्र के मुताबिक बरसात और ठंड के मौसम में पेड़ों से इस प्रकार पानी निकलना एक सामान्य सी प्रक्रिया है ,यह कोई चमत्कार नहीं है .पेड़ों में जमीन से पानी ऊपर खींचने के लिए एक विशिष्ट उत्तक होता हैं ,जिन्हें जाइलम कहते हैं जाइलम का काम ही अपनी कोशिकाओं के माध्यम से जमीन से पानी खींच कर उस पानी को अपनी नलिकाओं से पूरे पेड़ के विभिन्न अंगों में पहुंचाना है इसके लिए विशिष्ट रचनाएं होती है जिससे पानी ऊपर चढ़कर पेड़ के सभी भागों अंग तक पहुंचता है,जल की आपूर्ति करता है बरसात और ठंड के मौसम में जब जमीन में पानी की मात्रा अच्छी ,व भूजल का दबाव अधिक रहता है.

उन्होंने जानकारी दी है कि वायुमण्डल में आर्द्रता होती है, तब पेड़ की जड़ों से जो पानी खींचा जाता है वह पेड़ के किसी भी हिस्से से जो कमजोर हो, अथवा तने में मौजूद छिद्रों से से पानी के रूप में निकलता है और यह कई बार एक पतली सी धारा से लेकर अधिक मोटे प्रवाह के रूप में भी कई स्थानों से भी निकलते हुए देखा गया है ,कभी-कभी यह जल स्वच्छ भी रहता है और कभी-कभी पेड़ के भीतरी अंगों उसमे उपस्थित जीवद्रव्य, कुछ बैक्टेरिया, और मेटाबोलिज्म के कारण उत्पन्न गैसों व अशुद्धियों से रंग में कुछ परिवर्तन हो सकता है. जो मटमैला, तो कभी दूधिया दिखाई पड़ता है है .

जॉन लिंडले की पुस्तक फ़्लोरा इंडिका में इस प्रकार से जल,व दूधिया स्त्राव का वर्णन है.वही डॉ रेड्डी की किताब वानिकी में इस प्रकार के स्त्राव का वर्णन आता है यह तने के वात रन्ध्र (स्टोमेटा) से निकलता है और कभी कभी तने के जख्मी हिस्से से भी स्त्रावित होता है.

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