गंदगी भरे माहौल में साफ-सफाई का रखें ख्याल

फिल्में मनोरंजन का अच्छा जरीया होती हैं. हालांकि फिल्म बनाने वाले कभी यह नहीं मानते हैं कि उन की फिल्मों को देख कर लोग अपनी जिंदगी बनाते हैं या बिगाड़ते हैं, पर चूंकि फिल्मी कहानियों में कोई न कोई सीख छिपी रहती है, लिहाजा उन का दर्शकों पर कुछ न कुछ असर तो पड़ता ही है.

एक फिल्म आई थी ‘ट्रैफिक सिगनल’. उस में एक छोटे बच्चे का किरदार था, जो चौराहे पर भीख मांगता है. वह बच्चा रंग से काला होता है और उस के मन में यह बात गांठ बांध चुकी होती है कि गोरा करने की क्रीम से वह भी निखर जाएगा. ऐसा होता तो नहीं है, पर यह बात जरूर साबित हो जाती है कि गंदगी भरे माहौल में रहने का यह मतलब नहीं है कि आप हमेशा बिना नहाए, मैलेकुचैले कपड़ों में पैर भिड़ाते इधर से उधर घूमो और अपनी फूटी किस्मत को रोओ.

जब से शहर बने हैं, तब से उन के आसपास गंदी बस्तियों का जमावड़ा लगना शुरू हुआ है. पहले लोग गांवकसबों में ही रहते थे. गांवदेहात में कच्चे घर, खेतखलिहान, तालाबकुएं, ज्यादा से ज्यादा अनाज मंडी तक किसान और उस के परिवार की पहुंच थी, लिहाजा ऐसा मान लाया जाता था कि मोटा खाओ और सादा जियो.

इस सादा जिंदगी में नहानेधोने, कपड़े पहनने पर इतना जोर नहीं रहता था. ज्यादातर देहाती आबादी को कहें तो उठनेबैठने का भी शऊर नहीं था, तभी तो अगर कोई किसान नए कपड़े पहन कर, नहाधो कर घर से बाहर निकलता था तो दूसरे लोग मजाक में पूछ लेते थे कि जनेत (बरात) में जा रहा है क्या?

ये भी पढ़ें- सरकारी अस्पताल: गरीबों की उम्मीद की कब्रगाह

हां, तब भी एक तबका ऐसा था जो बनसंवर कर रहता था, फिर चाहे उस समाज की औरत हो फिर मर्द. वह तबका था बनियों का. ‘लाला’ समाज हमेशा से अपने बनावसिंगार और खानपान के प्रति सजग रहा है. तभी तो उन्हें सेठ और सेठानी का तमगा दिया गया.

बहुत से पढ़ेलिखे किसान भी खुद को अलग दिखाने के लिए बनठन कर रहते थे. सारा दिन खेत में मिट्टी में मिट्टी हुए, फिर घर वापस आए, नहाएधोए और पहन कर धोतीकुरता अपनी बैठक में मजमा लगा लिया. मुझे अपने बचपन की याद है कि ऐसे लोगों का पूरा गांव में रुतबा होता था. उन की बात सुनी जाती थी और उस पर अमल भी होता था. कई बार तो वे सरपंच से भी ज्यादा अहमियत रखते थे.

लेकिन आज भी बहुत से लोग अपनी पूरी जिंदगी इस बात को कोसते रह जाते हैं कि हाय इस गरीबी, गुरबत, फटेहाली में कैसे बनसंवर कर रहें? रहते तो कच्ची बस्ती में हैं या गांव की बदहाली में, तो फिर कैसे टिपटौप रहें? ये सब तो पैसे वालों के चोंचले हैं.

पर ऐसा बिलकुल नहीं है. इस बहानेबाजी की जड़ में किसी की गरीबी नहीं, बल्कि उस की काहिली और आलसपन होता है वरना खुद को साफसुथरा रखना कोई रौकेट साइंस नहीं है.

अगर शहरों में गंदी बस्तियों की बात की जाए तो वहां तो गांवदेहात से भी बदतर हालात होते हैं. अगर साधारण शब्दों मे परिभाषित किया जाए वे सब रिहायशी इलाके गंदी बस्तियां कहलाते है, जहां सेहतमंद जिंदगी की रिहायशी सुविधाएं मुहैया नही होतीं.

पर क्या वहां रहने वाले ऐसे उलट हालात में क्या साफसुथरे नहीं रह सकते हैं? बिलकुल रह सकते हैं और रहते भी हैं. यह बस उन की सोच पर निर्भर करता है. अमीर घरों में काम करने वाली औरतें जिन्हें ‘कामवाली’ ही कहा जाता है, वे खुद जितनी साफसुथरी रहती हैं, उन्हें उतना ही ज्यादा काम मिलने की उम्मीद रहती है.

यही कामवालियां अपने घर की धुरी होती हैं. जो खुद सजासंवरा होगा वह अपने परिवार को भी ऐसा ही देखना चाहेगा. सुबह नहानेधोने में ज्यादा पैसा खर्च नहीं होता है और जरूरी नहीं है कि आप के पास नए या ज्यादा जोड़ी कपड़े हों, बल्कि अच्छे से धुले हुए कपड़े भी सलीके से पहने जाएं तो भी शख्सीयत एकदम बदल जाती है और इन सब पर रोजाना खर्चा नहीं करना पड़ता है, बस अपनी चीजों और खुद को ढंग से रखना होता है.

ये भी पढ़ें- निष्पक्ष पत्रकारों पर सरकारी दमन के खिलाफ

सुबह टूथपेस्ट, टूथब्रश (अगर ये नहीं हैं तो नीम या बबूल की दातून), साबुन, तेल जैसी सामग्री नहानेधोने के काम आती है, जो ज्यादा महंगी नहीं होती. बाकी कपड़ों पर अपनी हैसियत से पैसा लगाया जाता है. महिलाओं के लिए लालीबिंदी भी ज्यादा पैसा खर्च नहीं कराती है. मर्दों को तो इतना भी नहीं करना पड़ता है.

फरीदाबाद की सैक्टर 31 मार्किट में जयलक्ष्मी किराना स्टोर के नितिन ने बताया, “साफसुथरा रहना एक आदत होती है और जो इस से बचता है, वह चाहे अमीर हो या गरीब, कहीं भी कामयाब नहीं हो सकता है. गंदे आदमी को कोई पसंद नहीं करता है.

“इस के लिए ज्यादा खर्च भी नहीं होता है. किसी कंपनी का टूथब्रश 20 रुपए (लोकल तो और भी सस्ता हो सकता है) तक का आ जाता है. टूथपेस्ट भी 10 रुपए से शुरू हो जाती है. नहाने और कपड़े धोने का साबुन भी 10 रुपए से शुरू हो जाता है. ये चीजें रोजरोज नहीं खरीदनी पड़ती हैं.”

याद रखिए कि जब किसी परिवार के बड़े अपनी साफसफाई पर ध्यान देते हैं तो बच्चे भी उन की देखादेखी अच्छी आदतें डाल ही लेते हैं, बस खुद पर आलस न हावी होने दें या गंदी बस्ती या गांवदेहात में रहने का रोना न रोएं.

ये भी पढ़ें- महिलाओं पर जोरजुल्म: जड़ में धार्मिक पाखंड

कोरोना: साधु संत, ओझाओं के चक्कर में!

कोरोना कोविड 19 का भयावह रूप आज देश देख रहा है. आज वैज्ञानिक भी इस संक्रमण के सामने असहाय हैं‌ और एक गाइडलाइन जारी कर दी गई है. ऐसे में देश में कुछ साधु, संत, ओझा, गुनिया ज्ञान बघार रहे हैं. और एक तरह से कानून को चैलेंज करते हुए बकायदा सोशल मीडिया में वीडियो वायरल करके अपनी बात प्रसारित कर रहे हैं.

जिससे यह सिद्ध हो जाता है कि आज भी हमारे देश में किस तरह साधु संत और ओझाओं की तूती बोल रही है. होना यह चाहिए कि ऐसे लोगों पर शासन प्रशासन तत्काल लगाम लगाए, ताकि कोई भी कुछ मनगढ़ंत ज्ञान बघार करके लोगों की जान का दुश्मन न बन सके.

आज हालात इतने गम्भीर हो रहे हैं कि यह साधु संत झूठे ही कोरोना से बचाव के दावे करके, एक तरह से लोगों की जान सांसत में डालने का काम कर रहे हैं.

ये भी पढ़ें- कोरोना से जंग में जीते हम: कभी न सोचें, हाय यह क्या हो गया!

छत्तीसगढ़ में इन दिनों एक अनाम तिलकधारी साधु का वीडियो वायरल है, जो बड़े ही धीरे गंभीर वाणी में नींबू के दो चार रस के प्रयोग की सलाह दे रहा है, यह वीडियो बड़ी तेजी से गांव गांव पहुंच रहा है. लोग इस गेरुआ वस्त्र धारी के बताए हुए बातों में विश्वास भी कर रहे हैं जो कि सौ फीसदी झूठ के अलावा कुछ भी नहीं है.

वायरल वीडियो में कथित साधु! कि दावा है – ‘एक नींबू लो और उसके रस की दो-तीन बूंदें अपनी नाक में डालें…. इसे डालने के महज 5 सेकेंड के बाद आप देखेंगे कि आपका नाक, कान, गला और हृदय का सारा हिस्सा शुद्ध हो जाएगा.’
वीडियो में गेरूए कपड़ा पहने साधु कह रहा है- ‘आपका गला जाम है, नाक जाम है, गले में दर्द है या फिर इनफेक्शन की वजह से बुखार है, ये नुस्खा सारी चीजें दूर कर देगा. आप इसका प्रयोग जरूर कीजिए, मैंने आज तक इस घरेलू नुस्खे का उपयोग करना वालों को मरते हुए नहीं देखा है. यह नुस्खा नाक, कान, गला और हृदय के लिए रामबाण है. बाकी आपको जो करना है कीजिए लेकिन एक बार इसे जरूर आजमाइए.

यह साधु इतने भोलेपन से अपनी बात कह रहा है कि लोग सहज ही इसे मान सकते हैं. क्योंकि सोशल मीडिया में प्रसारित ऐसे लोगों के झूठे वायरल वीडियो की कोई काट सरकार के पास नहीं है और न ही प्रशासन कोई सख्त कार्रवाई कर पाता है.

ये भी पढ़ें- कोरोना: फौजी की तरह ड्युटी पर लगे “रोबोट” की मौत!

झूठ फैलाने का माध्यम बना सोशल मीडिया….!

जैसा कि हम जानते हैं सोशल मीडिया आज लोगों तक बात पहुंचाने का एक सशक्त माध्यम मंच बन चुका है.

मगर जैसा की कहावत है किसी भी चीज की अच्छाई और बुराई दोनों होती है सोशल मीडिया की भी यही सच्चाई है इसका प्रयोग कई जगह नकारात्मक ढंग से भी किया जाता है. प्रणाम स्वरूप झूठ बड़ी तेजी से फैलता है और यह लोगों के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है. ऐसे में नींबू की चार बूंद से कोरोना के इलाज का दवा यह बता जाता है कि किस तरह सोशल मीडिया का दुरुपयोग किया जा रहा है. इसलिए जहां सरकार को इसके लिए कुछ कठोर नियम बनाने चाहिए वहीं लोगों में भी यह समझ होनी चाहिए कि सोशल मीडिया में प्रसारित हर बात का तथ्य सही नहीं होता उसे हम अपने नीर क्षीर बुद्धि से समझे कि यह हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक तो नहीं है. दरअसल कई संदर्भ आ चुके हैं जब सोशल मीडिया में प्रसारित नुस्खों के कारण लोगों की जान पर बन आई.

एक्शन और जागृति जरूरी

सोशल मीडिया में कुछ भी अपने अधकचरे ज्ञान से परोस देना समझदारी नहीं है. वस्तुत: लोगों का हित सोचते सोचते लोग बुरा कर बैठते हैं. इसकी प्रमुख वजह है हमारे देश ने बहुतायत लोग अशिक्षित हैं और अफवाह बाजी में सिद्धहस्त हैं. ऐसे लोग अपने आप को परम ज्ञानी समझते हैं. और साथ ही कुछ लोग अपने प्रचार प्रसार के लिए और इसे एक धंधा बनाने के लिए भी झूठे अध कचरे ज्ञान को प्रसारित करने की चेष्टा करते है. देश में बहुसंख्यक लोग आज भी गांव में रहते हैं, वही शहरों में भी साधु संत के चोले में आकर के कुछ भी कहने वाले लोगों के लिए बड़ी श्रद्धा और अंधविश्वास है, परिणाम स्वरूप इसका नुकसान भी लोग उठाते हैं.ऐसे में यही कहा जा सकता है कि सोशल मीडिया में आ रहे किसी जानकारी को आंख बंद करके कभी भी स्वीकार ना करें. इसके लिए वैज्ञानिक सच्चाई को जानने समझने और मानने में ही आपका भला है.

ये भी पढ़ें- पाखंड की गिरफ्त में पुलिस

कोरोना की दूसरी दस्तक, गरीब लोगों में बड़ी दहशत

वह फोटो ब्राजील के एक कब्रिस्तान की थी. उस फोटो के नीचे जो लिखा था, वह और भी डराने वाला था, जो इस तरह था कि ‘ब्राजील में कोरोना का नया स्वरूप तबाही मचाए हुए है. यहां के साओ पाउलो शहर में इतनी जानें जा चुकी हैं कि उन शवों को दफनाने के लिए जगह कम पड़ गई है. ऐसे में पुरानी कब्रों को खोद कर कंकाल निकाले जा रहे हैं और नए शव दफनाने के लिए जगह बनाई जा रही है. पिछले हफ्ते ब्राजील में 60 हजार से ज्यादा मौतें हुई हैं.’

दुनियाभर में कोरोना महामारी की दूसरी लहर आ चुकी है. भारत भी इस से अछूता नहीं है. दिल्ली को ही देख लें. वहां मार्च महीने के बाद कोरोना के मामले इस तरह तेजी से बढ़े कि वहां रात का कर्फ्यू तक लगाना पड़ा.

ऐसा नहीं है कि वहां कोरोना की टैस्टिंग नहीं की जा रही है, बल्कि वहां तो रिकौर्ड एक लाख से ज्यादा लोगों की कोरोना जांच की गई, कोरोना का टीका भी लगाया जा रहा है, पर इस से हालात काबू में आते नहीं दिखे.

पूरे देश की बात करें, तो पिछले  6 महीने के टौप पर कोरोना का आतंक रहा और बहुत से शहर तो दोबारा लौक होने लगे. महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के कई जिलों में बंदिशें लगाई गईं.

आम तो क्या खास लोग भी इस भयंकर बीमारी की चपेट में आ गए, जिन में रौबर्ट वाड्रा, सचिन तेंदुलकर, अक्षय कुमार और बड़ेबड़े अस्पतालों के डाक्टर तक शामिल थे.

गरीबों में खलबली

पिछले साल के लौकडाउन में लोगों को पता ही नहीं था कि यह बीमारी कितनी गंभीर है, इसलिए वे इस हद तक घबरा गए थे कि आननफानन अपनेअपने मूल इलाकों की तरफ बोरियाबिस्तर समेट कर जैसे हुआ निकल पड़े. तब उन पर मुसीबतें आई थीं, तो बहुत से लोगों ने उन की मदद भी की थी.

रोजगार छोड़ कर वे किसी तरह कंगाली में जिए, जो काम मिला उसे किया और अपने दिन गुजारे. कोरोना थोड़ा सुस्त हुआ तो फिर बड़े शहरों की तरफ रुख किया, पर उन का इस बार का पलायन और भी भयावह होगा. मुंबई और दिल्ली जैसे बड़े शहरों में तो इस का असर दिखने लगा है.

इन में से ज्यादातर कुशल और अर्धकुशल मजदूर हैं, जो मुख्य तौर पर उत्तर प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, राजस्थान, कर्नाटक, गुजरात, तेलंगाना और ओडिशा जैसे राज्यों से संबंध रखते हैं.

मुंबई की धारावी कच्ची बस्ती में पहले भी कोरोना बम फूटा था. वहां के कामगार घर वापसी को मजबूर हुए थे, जिन में से तकरीबन 80 फीसदी मजदूर अक्तूबर, 2020 तक वापस आ गए थे, मगर अब उन में से आधे से ज्यादा लोग फिर से अपने गांव लौटने की तैयारी कर रहे हैं या जा चुके हैं.

दिल्ली के रेलवे स्टेशनों और बसअड्डों पर भी मजदूर तबके की यह अफरातफरी दिखाई दे रही है. पर कुछ गरीब ऐसे भी हैं, जो दिल्ली और उस के आसपास के शहरों में रह कर अपना  और अपने परिवार का पेट पाल रहे हैं और न चाहते हुए भी यह जगह नहीं छोड़ सकते हैं.

हरियाणा के फरीदाबाद के राजू नगर की एक झुग्गी में राजेश रहता है. झुग्गी अपनी है, पर रोजगार का कोई ठिकाना नहीं. परिवार उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ में रहता है और राजेश यहां चाय का ठेला लगाता है. इस से पहले वह किसी ट्रैक्टर कंपनी में हैल्पर था और 9,000 रुपए हर महीने पगार पाता था. इतने में गुजारा नहीं था और कंपनी में हाड़तोड़ मेहनत करनी पड़ती थी.

राजेश हिम्मत हार गया और नौकरी छोड़ दी. फिर इसी साल के जनवरी महीने में चाय का ठेला लगा लिया, पर उस के बाद क्या हुआ, यह उसी की जबानी सुनिए.

तकरीबन 50 साल के राजेश ने बताया, ‘‘नौकरी छोड़ कर सोचा कि चाय के ठेले से ठीकठाक कमाई हो जाएगी, पर मेरी सोच गलत थी. यहां गरीब को और ज्यादा दबाया जाता है. लोग मेरे ठेले पर चाय पीने आते हैं, बीड़ीसिगरेट, खाने का दूसरा छोटामोटा सामान लेते हैं, पर ज्यादातर उधार. ऐसा नहीं है कि वे नकद सामान नहीं ले सकते हैं, पर ऐसा करते नहीं हैं.

‘‘आप यकीन नहीं मानोगे कि पिछले ढाई महीने में मैं ने सिर्फ 8,000 रुपए की कमाई की है. इस से अच्छी तो ट्रैक्टर कंपनी की नौकरी ही थी. अब जब फिर से कोरोना बीमारी ज्यादा फैलने की खबरें आ रही हैं, तो इस से गरीब की और ज्यादा कमर टूट जाएगी.’’

इसी तरह दिल्ली के आया नगर में रहने वाले राहुल निगम का दर्द कुछ यों छलका, ‘‘मैं गुरुग्राम में बिरयानी का स्टाल लगा कर अपने परिवार का पेट पाल रहा था, पर लगातार कम होती आमदनी से मेरी हिम्मत जवाब दे रही थी. अब मैं ने कड़ा फैसला लेते हुए अपना धंधा समेट दिया है और  हमेशा के लिए वापस इंदौर जा रहा हूं.

ये भी पढ़ें- जबरन यौन संबंध बनाना पति का विशेषाधिकार नहीं

‘‘पिछले साल अचानक हुए लौकडाउन ने मेरा सारा कामधंधा चौपट कर दिया था. बाद में जो थोड़ाबहुत  पैसा बचा हुआ था, वह भी खत्म हो गया. अब अगर दोबारा काम शुरू करने की भी सोचूं तो कोरोना महामारी के गंभीर हालात के चलते दोबारा लौकडाउन लग जाने का डर सता रहा है, इसीलिए यहां से जाना ही ठीक लग  रहा है.’’

दिल्ली के आया नगर में ही रहने वाली बसंती लोगों के घरों में काम करती है. वह मूल रूप से उत्तराखंड की है और दिल्ली में रोजीरोटी के लिए आई है. वह अपने ड्राइवर पति और 2 बच्चों के साथ दिल्ली में रहती है.

बसंती ने अपना दर्द बताया, ‘‘पिछले लौकडाउन में पति और मेरा दोनों का काम छूट गया था. वे 6 महीने हम ने बहुत मुश्किल से गुजारे थे. हम पूरी तरह सरकार और मददगारों पर आश्रित थे. जब धीरेधीरे सब खुलने लगा, तब बड़ी मुश्किल से किसी घर में काम मिला. पति को तो अभी कुछ दिन पहले ही नौकरी मिली है.

‘‘गांव में सास बीमार रहती हैं. हमें वहां भी पैसे भेजने होते हैं. अगर फिर से लौकडाउन लग गया तो क्या होगा, यह सोच कर ही डर लगने लगता है. हम इस के लिए बिलकुल तैयार नहीं हैं.’’

महरौली जिले के भाजपा महिला मोरचा में मंत्री और मालती फाउंडेशन की सहसंस्थापक मधु गुप्ता ने कोरोना के बढ़ते मामलों पर चिंता जताते हुए कहा, ‘‘दोबारा लगे नाइट कर्फ्यू से लोगों में खलबली सी मची हुई है. गरीब ही नहीं, बल्कि मिडिल क्लास भी बड़ा चिंतित है. समाज में हर कोई एकदूसरे से जुड़ा हुआ है. अगर मजदूर तबका या गरीब लोग यों शहर छोड़ कर अपने गांव जाएंगे तो सबकुछ ठप हो जाएगा.

‘‘अगर ऐसा हुआ तो पूरा देश फिर आर्थिक मंदी की तरफ चला जाएगा. पिछला लौकडाउन तो किसी तरह झेल गए थे, पर अब तो हिम्मत ही टूट जाएगी. सरकार को सबकुछ ध्यान में रख कर कोई भी फैसला लेना होगा. आम आदमी की सोचनी होगी.’’

चुनौतियां हैं बड़ी

कोरोना को झेलते हुए एक साल से ऊपर का समय हो गया है. टीका जरूर आ गया है, पर वह भी बीमारी दूर भगाने का पक्का इलाज नहीं है.

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, वीरवार, 15 अप्रैल तक देश में  तकरीबन 10 करोड़ डोज दिए जा चुके थे, पर जिस तरह से कोरोना के केस बढ़ने लगे हैं, अभी भी यह कोशिश नाकाफी लग रही है.

यह दूसरी लहर तब तेजी से लौटी है, जब लगने लगा था कि अब कोरोना पर काबू पाना ज्यादा मुश्किल नहीं होगा और लोगों को रोजगार पाने में आसानी होगी. लेकिन बड़ेबड़े शहरों में लगे रात के कर्फ्यू ने लोगों खासकर उस गरीब कामगार तबके की सांसें अटका दी हैं, जो रोज कुआं खोद कर पानी पीता है. वह दोबारा शहर छोड़ कर अपने गांव जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाएगा और जो लोग चले भी जाएंगे, उन्हें फिर भुखमरी का सामना करना पड़ेगा. इस बार कोई सोनू सूद उन की मदद करेगा, इस शक है. हां, ऐसे लोगों को लूटने वालों की लार जरूर टपकने लगेगी.

अमेरिका की एक संस्था की बात मानें, तो पिछले एक साल में कोरोना महामारी के चलते भारत में रोजाना  725 रुपए से 1,450 रुपए की कमाई करने वाले 3.20 करोड़ लोग मध्यम आय वर्ग से निम्न आय वर्ग में चले गए हैं. इतना ही नहीं, रोज तकरीबन 150 या उस से कम रुपए कमाने वाले निम्न आय वर्ग का आंकड़ा बढ़ कर 7.5 करोड़ तक पहुंच गया है.

कोरोना महामारी दोबारा बड़ी गंभीर समस्या के रूप में उभरी है. इस का असर देश की माली हालत पर पड़ेगा. लोगों में निराशा, हताशा और असुरक्षा की भावना जागेगी, खुद के प्रति भी और सरकार के प्रति भी.

कोरोना: फौजी की तरह ड्युटी पर लगे “रोबोट” की मौत!

शिक्षक ज्ञान की ज्योति फैलाता है, उसका समाज में सबसे अहम महत्व होना चाहिए मगर, चाहे मध्यप्रदेश हो या छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश हो या बिहार लगभग देश भर की तस्वीर यह है कि  प्रदेश सरकारों की हठधर्मिता के कारण “कोरोना ड्यूटी” करते हुए जाने कितने शिक्षक मौत का ग्रास बन रहे हैं, जिसकी तदाद दिन प्रतिदिन बढ़ती चली जा रही है. आज भयावह समय में शिक्षक मानो एक सैनिक की तरह अपना फर्ज निभाते हुए कोरोनावायरस योद्धा बने हुए हैं. मगर सरकार अपनी भूमिका से मुंह छुपा रही है और शिक्षक कोरोना संक्रमण के कारण मर रहे हैं.

वस्तुत: सरकार के लिए शिक्षक महज एक “रोबोट” बना दिया  गया है. चाहे चुनाव हो, जनगणना हो या कोई भी सरकारी काम काज  या फिर आज का “कोरोना संक्रमण काल”, हर जगह   शिक्षक को तैनात किया जा रहा है और शिक्षक वर्ग की भलमनसाहत देखिए ! शिक्षक बिना ना नुकुर  किए सरकार के हर एक आदेश का पालन कर रहा है.

ये भी  पढ़ें- जबरन यौन संबंध बनाना पति का विशेषाधिकार नहीं

लाख टके का सवाल सरकार से यह है कि क्या शिक्षक इंसान नहीं है क्या कोई वह यंत्र है रोबोट है कि उस पर कोरोना वायरस कोविड-19 का संक्रमण नहीं होगा? जब वह बिना सुरक्षा कवच के, दवाइयों के, सैनिटाइजर के गली गली ड्यूटी करेगा और घर आएगा तो क्या वह और उसका परिवार सुरक्षित रहेगा?

आज कोरोना संक्रमण के इस भयावह समय में शिक्षक शासन के आदेशानुसार, घर में लाक डाउन रहने की जगह अपना फर्ज निभा रहा है और पुलिस, चिकित्सक, नर्सिंग स्टाफ की भांति कोरोना संक्रमण से अपनी जान गंवा रहा है.

शिक्षक राजेश चटर्जी ने हमारे संवाददाता से बातचीत में बताया कि छत्तीसगढ़ सामान्य प्रशासन विभाग में प्रस्तुत किये आँकड़ो के अनुसार कोरोना के करण कुल मौत का कुल आंकड़ा 689 हो गया है जिसमें से अकेले शिक्षा विभाग में अब तक 370 शिक्षकों  ने जान गँवाई है. जो चिंता का सबब बना हुआ है. शिक्षकों का निर्धारित काम पाठशाला स्कूलों में बच्चों को शिक्षा देना है मगर सरकार की हठधर्मिता देखिए स्वास्थ्य विभाग की प्राथमिक जानकारी से भी अनजान है उसे कोरोना काल में गली-गली घूमने पर मजबूर किया गया है. शिक्षक की सुरक्षा और भविष्य की चिंता किसी को नहीं है.

सुरक्षा उपायों में लापरवाही

दरअसल,  छत्तीसगढ़ सरकार ने शिक्षकों की ,कोरना के इस समय में ड्यूटी चेक पोस्ट, वैक्सीनेशन, रेल्वे स्टेशन, क्वारेंटाइन सेंटर्स व टेस्टिंग जैसे संवेदनशील काम में लगा रही है और  ड्यूटी में लगने से शिक्षक लगातार संक्रमितों की चपेट में आ रहे है. और बीमार हो रहे है. बीमार शिक्षक को शासन से मदद भी नहीं मिल रही और वो खुद के खर्चे से अपना इलाज करवाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है. और कोरोना महामारी के रोकथाम में शिक्षकोंको डयुटी पर  लगाना बदस्तूर जारी है. गौरतलब है कि कोरोना संक्रमण से बचाव के लिए कोई सुरक्षात्मक उपाय किये बिना ही,जिला प्रशासन ने शिक्षकों की मनमाने डयूटी,कोरोना महामारी के रोकथाम एवं नियंत्रण में लगा दिया. विभाग के जिला एवं ब्लॉक के अधिकारी कोरोना संबंधित डयूटी से इंकार करने वाले शिक्षकों को,वेतन रोकने की धमकी दे कर मजबूर कर रहे हैं. परिणाम स्वरूप शिक्षकों की जान जा रही है, उनका परिवार बेसहारा हो रहा है और विभाग के उच्च अधिकारी आंखें मूंदे हुए हैं.

ये भी पढ़ें- पाखंड की गिरफ्त में पुलिस

सच्चाई यह है कि कोरोना संक्रमित हो रहे शिक्षकों के त्वरित इलाज का कोई प्रबंध सरकार नहीं कर रही है. संक्रमित शिक्षक त्वरित इलाज के अभाव में दम तोड़ रहे हैं.विभाग रोज नए फरमान जारी कर रहा है. जिससे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि, शासन प्रशासन को निरीह शिक्षकों की जान की परवाह नहीं है.

छत्तीसगढ़ राज्य के 29 जिलों में शिक्षक कोरोना कार्य जैसे ग़ैर-शिक्षाकीय कार्य में शहीद हुए हैं.  समाज में ज्ञान का प्रकाश फैलाने  वाले शिक्षक,खुद अंधेरे में खो गया हैं रिपोर्ट लिखे जाने तलक  चार सौ के लगभग शिक्षकों की मौत हो गई है. आखिर शिक्षकों को मुँह में धकेलने का दोषी कौन है ?

यह कि शिक्षा विभाग में तृतीय श्रेणी के पदों में सहायक शिक्षक के पद रिक्त हैं ऐसे में राज्य सरकार  दिवंगत शिक्षक के परिवार के एक सदस्य को तत्काल अनुकंपा नियुक्ति देनी चाहिए.कोरोना महामारी के दृष्टिगत,दिवंगत शिक्षकों के परिवार के एक सदस्य  को सांत्वना स्वरूप अनुकंपा नियुक्ति मानवीय आधार पर शीघ्र दी जानी चाहिए.

पाखंड की गिरफ्त में पुलिस

उत्तर प्रदेश के मेरठ के नौचंदी पुलिस थाने के एसएचओ ने पौराणिक न्याय करने के लिए एक नई जुगत निकाली है. वे हर शिकायतकर्ता को खुद अशुद्ध मानते हैं और उसे गंगाजल से धोते हैं. गनीमत है कि गंगाजल का असर इतना ज्यादा माना जाता है कि कुछ बूंदों से ही पाप धुल सकते हैं, इसलिए उन की छिड़की बूंदों पर शिकायतकर्ता सिर झुका लेता है. जो समाचार छपा है उस में कहीं लिखा नहीं है कि गंगाजल के प्रतापकी वजह से वहां नौचंदी में अपराध कम हो गए हैं या अपराधी खुद ब खुद जेल में आ कर बंद हो गए हैं. वहां यह भी नहीं लिखा कि उस थाने में रिश्वतखोरी बंद हो गई है. पर यह पक्का है कि हरिद्वार की हर की पौड़ी पर जजमानों और पंडों को झगड़ते देखा जा सकता है और पंडों के बीच जजमान पकड़ने के लिए छीनाझपटी देखी जा सकती है तो इस थाने में गंगाजल के छींटों से कोई फर्क नहीं पड़ता होगा.

यह अफसोस की बात है कि कूढ़मगज पूजापाठी लोग राज के हर पायदान पर आ बैठे और आज जम कर पाखंड का बाजार जम रहा है. इस के सब से बड़े शिकार गरीब हैं जो समझ नहीं पा रहे कि क्या सच है और क्या बेईमानी. उन्हें बातों के सहारे हजारों साल गुलाम रखा गया है, पर पिछले 100-150 सालों में जो नई लहर आई थी, बराबरी की सोच की, वह बड़ी सफाई से तरहतरह के बांध बना कर कंट्रोल में की जा रही है.

ये भी पढ़ें- नजदीकी रिश्तों में प्यार को परवान न चढ़ने दें

गरीबों को कांवड़ ढोने पर लगा दिया गया है. गरीबों के लिए उन के अपनी गली के किनारे पेड़ के नीचे बने पत्थर के देवता का मंदिर बना दिया गया है जहां वे ऊंचे सवर्णों की तरह पूजापाठ कर अपना कल्याण चाह सकते हैं.  उन की जो भी थोड़ीबहुत कमाई बढ़ी थी, उसे गंगाजल बहा कर ले जाने  लगा है.

इन गरीबों को बहका कर सत्ता पर तो कब्जा किया गया ही है, इन गरीबों को जाति, गोत्र, धर्म, गुरु के हिस्सों में बांट दिया गया है और हरेक को दूसरे का दुश्मन बना डाला गया है. रामायण के राम और रावण न कोई देशीविदेशी थे, न हिंदू और विधर्मी. फिर भी राम को ले कर सारे देश में होहल्ला किया जा सकता है और लाखोंकरोड़ों को बहकाया ही नहीं बहलाया भी जा सकता है. महाभारत के कृष्ण ने गीता का पाठ उस अर्जुन को दिया था जो अपने दादा, चचेरे भाइयों, गुरुओं, मामा, दोस्तों के साथ लड़ने को मना कर रहा था. कृष्ण ने बड़ी तरकीब से अर्जुन को मारपीट के लिए मना लिया और 17 दिन बाद सब खात्मा करा दिया, दुर्योधन को भी, अर्जुन का भी.

ये भी पढ़ें- समुद्र का खारा होना, धरती के लिए अभिशाप नहीं वरदान है!

गंगाजल छिड़कना इसी तरह के लाखों कामों में से एक है. यह रावण की हत्या या गीता के पाठ की तरह है जो शिकायतकर्ता को कहता है कि तुम्हारी गति तो पहले से ही तय है. पुलिस स्टेशन में तो सिर्फ हवनपूजन सा बेकार का काम होगा, न अपराधी पकड़ा जाएगा, न हक दिलवाया जाएगा. रामायण, महाभारत, पौराणिक कहानियों की तरह असली पौबारह तो उस नौचंदी के थाने में भी वशिष्ठों, विश्वामित्रों और दुर्वासाओं की होगी. भक्त तो पापी है, पापी रहेगा.

समुद्र का खारा होना, धरती के लिए अभिशाप नहीं वरदान है!

कभी आपने सोचा कि अगर समुद्र का पानी खारा नहीं होता तो क्या होता? जी हां, यह मजाक नहीं है, अगर समुद्र का पानी खारा न होता तो शायद धरती में इंसान का अस्तित्व ही न होता. समुद्र का खारापन मानव के लिए अभिशाप नहीं बल्कि किसी वरदान से कम नहीं है. इसमें कोई दो राय नहीं कि अगर समुद्र का जलस्तर बढ़ जाता है और उसका पानी सूखी जमीन पर फैल जाता है, तो जहां जहां ये पानी फैलता है, वह जमीन रेगिस्तान बन जाती है.  लेकिन खारे पानी के इस ज्ञात नुकसान के मुकाबले हमें फायदे बहुत ज्यादा हैं. समुद्र का खारापन इंसान के लिए बहुत महत्वपूर्ण व उपयोगी है. गौरतलब है कि समुद्र के पानी के खारा होने का मुख्य कारण, ठोस सोडियम क्लोराइड है. हालांकि समुद्र के खारे पानी में पोटेशियम और मैग्नीशियम के क्लोराइड व विभिन्न रासायनिक तत्व भी करीब करीब हर जगह पाए जाते हैं.

जैसा कि हम जानते हैं कि गर्म हवाएं हल्की होती हैं और ठंडी हवाएं भारी. इस कारण ठंडी के मुकाबले गर्म हवा का घनत्व कम होता है. जब समुद्र की सतह में किसी जगह गर्म होकर हवा ऊपर उठती है, तो उस स्थान विशेष की लवणता में यानी उसमें मौजूद नमक में और आसपास की दूसरी जगहों की लवणता में फर्क आ जाता है. इस कारण वाष्प के जरिये समुद्र से उठे जल को गति मिलती है. यह पानी उस दिशा में आगे बढ़ता है, जहां की हवा ठंडी होती है. इसे यूं समझिये कि बंगाल की खाड़ी से उठी ऐसी ही गर्म हवाएं अपने साथ संघनित बादल लेकर इसी वजह से उत्तर भारत की तरफ चल पड़ती हैं क्योंकि यहां की हवाएं ठंडी होती हैं. इसे ही हम ‘मानसून का आगमन कहते हैं.’ मतलब यह कि समुद्र के खारेपन के कारण ही मानसून बनता है, बारिश होती है और बारिश है तो जीवन है.

ये भी पढ़ें- कोरोना अवसाद और हमारी समझदारी

क्योंकि इसी बारिश से, जो कि खारे पानी का नतीजा है-मौसम हैं, कुदरत है, कुदरत में रंगों की विविधता है,और इसी के चलते पृथ्वी में जलवायु की विविधता है. जैसा कि हम जानते हैं कि ठंडा जल, गर्म जल की तुलना में अधिक घनत्व वाला होता है. इस कारण गर्म जल की धाराएं ठंडे क्षेत्रों की ओर बहती है और ठंडा जल उष्ण और कम उष्ण प्रदेशों की तरफ बहता है यानी समुद्री धाराओं के बहाव का  मुख्य कारण भी समुद्र के पानी का खारा होना ही है. कल्पना करिये पूरे समुद्र में मीठा पानी होता तो क्या होता? समुद्र में जल धाराएं न होतीं. इसका नतीजा यह होता कि ठंडे प्रदेश बहुत ठंडे रहते और गर्म प्रदेश बहुत अधिक गर्म. क्या तब पृथ्वी पर जीवन इतना ही सहज होता? एक और बात जान लीजिये धरती की असीम जैव विविधता का सबसे बड़ा कारण समुद्र के पानी का खारा होना है.

यह तो हुई समुद्र के खारे पानी की बात. अब जरा एक क्षण को सोचिये की समुद्र ही न होते तो क्या होता? क्या समुद्रों के बिना धरती में जीवन संभव है? इस प्रश्न के उत्तर की तलाश में गहरे तक जाएं तो खुद ब खुद पता चल जाएगा कि धरती के 70 प्रतिशत भू-भाग पर फैली 97 प्रतिशत विशाल समुद्री जलराशि का हमारे जीवन में कितना महत्व है. महासागरों में 10 लाख से अधिक विविध जीव प्रजातियों का बसेरा है. समुद्र की यही जैव समृद्धता ही धरती में जीवन का आधार है. यदि धरती में समुद्र के रूप में पानी की इतनी विशाल जलराशि न होती, तो दुनिया दहकता अंगारा बन जाती और जीवन नष्ट हो जाता. दरअसल यह समुद्र की अपार जलराशि ही है, जो सूर्य से आने वाली ऊष्मा का एक बड़ा हिस्सा अपने भीतर जज्ब कर लेती है. समुद्र के अन्दर मौजूद ज्वालामुखी इस जज्ब की हुई ऊष्मा का ही एक रूप हैं, जिनसे अब जापान बिजली बनाने लगा है. इस तरह ज्वालामुखी अब विनाश के कारण नहीं बल्कि स्वच्छ भू-तापीय ऊर्जा के विशालतम भंडार बनने जा रहे हैं.

ये भी पढ़ें- कोरोना के दौर में बिहार में एक बार फिर शुरू हुआ चमकी

भविष्य में हम भी इनसे बिजली बनायेंगे. समुद्र के भीतर मौजूद विशाल ईधन भंडारों के बारे में हम जानते ही हैं. समुद्र न हों तो सूर्य से आने वाली ऊष्मा के कारण पृथ्वी का वायुमंडल बेहद गर्म हो जाय. महासागरों में मौजूद विविध जैविकी में कार्बन को अवशोषित करने की अपार क्षमता होती है. इस क्षमता के कारण ही पर्यावरण को तापमान को संतुलित रखने की सबसे सक्षम प्राकृतिक प्रणाली माना जाता है. तमाम तरह के ईंधन जलाकर हम जीवन के लिए जिन घातक गैसों का प्रतिशत वायुमंडल में बढ़ाते हैं, समुद्र उसे घटाते हैं. इस तरह देखा जाए तो समुद्र से बड़ा और महत्वपूर्ण प्रदूषण नियंत्रक इस दुनिया में कोई दूसरा नहीं है. यदि आज पृथ्वी पर जीवन है, तो इसमें समुद्र की बहुत बड़ी भूमिका है.

ये भी पढ़ें- जब डॉक्टर करता है, गर्भपात का अपराध!

कोरोना अवसाद और हमारी समझदारी

छत्तीसगढ़ सहित संपूर्ण देश में कोराना कोविड-19 से हालात बदतर होते दिखाई दे रहे हैं. छत्तीसगढ़ के भिलाई में एक कोरोना मरीज ने अवसाद में  आकर के आत्महत्या कर ली. इसी तरह एक युवती ने भी आर्थिक हालातों को देखते हुए  कोरोनावायरस पाज़िटिव होने के बाद आत्महत्या कर ली.

कोरोना के भयावह  हालात  की खबरें टीवी, सोशल मीडिया पर गैरजिम्मेदाराना रवैये के साथ  दिखाई जा रही है. जबकि इस सशक्त माध्यम का उपयोग लोगों को साहस बंधाने और जागरूक करने के लिए किया जा सकता है.

दरअसल, आत्महत्या की जो घटनाएं सामने आ रही है, उसका कारण है लोग अवसाद ग्रस्त हो ऐसे कदम उठा रहे हैं. जो समाज के लिए चिंता का सबब  है.

ये भी पढ़ें- कोरोना के दौर में बिहार में एक बार फिर शुरू हुआ चमकी बुखार का कहर

इस समय में हमें किस तरह अवसाद से बचना हैऔर बचाना है और लोगों को अवसाद से निकालना है….  इस गंभीर मसले पर, इस रिपोर्ट में हम चर्चा कर रहे हैं.

कोरोना काल के इस संक्रमण कारी समय में देखा जा रहा है कि समस्या निरंतर गंभीर होती जा रही है. लॉकडाउन को ही लीजिए, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि जिस तरह की पाबंदियां कोरोना- 2 के इस समय काल में लगाई गई हैं वैसी पिछली दफा नहीं थी. चिकित्सालय और सरकारी व्यवस्था भी धीरे धीरे तार तार होते दिखाई दे रहे हैं.

ऐसी परिस्थितियों में जब आज अमानवीयता का दौर है. हर एक जागरूक व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने आसपास सकारात्मक उर्जा का संचार करें और लोगों के लिए सहायक बन कर उदाहरण बन जाए.

यह घटना एक सबक है

छत्तीसगढ़ के इस्पात नगरी कहे जाने वाले भिलाई के एक अस्पताल में भर्ती कोरोना के एक मरीज ने अस्पताल की खिड़की से छलांग लगाकर आत्महत्या कर ली.

घटना भिलाई स्थित जामुल थाना क्षेत्र के अंतर्गत एक अस्पताल में घटित हुई. 14 अप्रैल 2021की बीती रात   अस्पताल के  कोविड मरीज ने “बीमारी” से तंग आकर आत्मघाती कदम उठा लिया. घटना की सूचना मिलते ही पुलिस मौके पर पहुंची और मामले की विवेचना कर रही है  जामुल पुलिस ने हमारे संवाददाता को बताया कि आत्महत्या करने वाला  शख्स जामुल के एक अस्पताल में 11 अप्रैल से भर्ती था.उसकी कोरोना रिपोर्ट पॉजिटिव आई थी और इलाज चल रहा था. मृतक का नाम ईश्वर विश्वकर्मा है और वह धमधा नगर का रहने वाला है. उसने  अपने वार्ड की खिड़की से छलांग लगाकर आत्महत्या कर ली. पुलिस ने बताया कि अस्पताल प्रबंधन से घटना की सूचना मिली. इसके बाद अस्पताल पहुंचकर मर्ग कायम कर स्वास्थ्य कर्मियों और डॉक्टर से पूछताछ जारी है.

जैसा कि हम जानते हैं ऐसे गंभीर आत्मघात  के मामलों में भी पुलिस की अपनी एक सीमा है. पुलिस औपचारिकता निभाते हुए मामले  की फाइल को आगे  बंद कर देगी. मगर विवेक शील समाज में यह प्रश्न तो उठना ही चाहिए कि आखिर ईश्वर विश्वकर्मा ने आत्महत्या क्यों की क्या ऐसे कारण थे जो उसे आत्म घाट का कदम उठाना पड़ा और ऐसा क्या हो आगामी समय में कोई कोरोना पेशेंट आत्महत्या न करें. समाज और सरकार दोनों की ही जिम्मेदारी है कि हम संवेदनशील हो और अपने आसपास सकारात्मक कार्य अवश्य करें, हो सकता है आप के इस कदम से किसी को संबल मिले और जीने का हौसला भी.

ये भी पढ़ें- जब डॉक्टर करता है, गर्भपात का अपराध!

मीडिया की ताकत को दिशा !

कोरोना कोविड19 के इस समय काल में देश का राष्ट्रीय और स्थानीय मीडिया चाहे वह इलेक्ट्रॉनिक हो अथवा प्रिंट मीडिया ऐसा प्रतीत होता है कि अपने दायित्व से पीछे हट गया है. अथवा वह भूल चुका है कि उसकी ताकत आखिर कहां है.

जिस तरह आज राष्ट्रीय और स्थानीय मीडिया में इस समय खबरें दिखाई जा रहे हैं… और हर पल बार-बार भयावह रूप में दिखाई जा रही है. जिसके कारण लोगों में एक भय का वातावरण निर्मित होता चला जा रहा है. मीडिया का यह परम कर्तव्य है कि खराब से खराब समय में भी अच्छाई को सामने लाते हुए उसे विस्तार से दिखाएं ताकि लोगों में जनचेतना जागता का वातावरण बने. हिंदी और तेलुगु कि कवि डॉक्टर टी. महादेव राव के मुताबिक पूर्व में मीडिया का ऐसा रुख नहीं था, आज मीडिया जिस तरह अपनी ताकत को भूल कर रास्ते से भटक गई है वह समाज के लिए गंभीर चिंता का विषय है. आज मीडिया को चाहिए कि वह लोगों में यह जागरूकता पैदा करें कि हम किस तरह इस महामारी से बच सकते हैं, इसकी जगह लोगों को मौत के आंकड़े और श्मशान घाट के भयावह हालत दिखाकर अखिर मीडिया कैसी भूमिका निभा रहा है.

चिकित्सक डॉक्टर जी आर पंजवानी के मुताबिक महामारी के इस समय में हम जितना हो सके बेहतर से बेहतर काम करें और लोगों को सकारात्मक ऊर्जा से भर दें यही हमारा प्रथम दायित्व होना चाहिए.

ये भी पढ़ें- फसल बर्बाद करते आवारा जानवर

Lockdown Returns: आखिर पिछले बुरे अनुभव से सरकार कुछ सीख क्यों नहीं रहीं?

भले अभी साल 2020 जैसी स्थितियां न पैदा हुई हों, सड़कों, बस अड्डों, रेलवे स्टेशनों में भले अभी पिछले साल जैसी अफरा तफरी न दिख रही हो. लेकिन प्रवासी मजदूरों को न सिर्फ लाॅकडाउन की दोबारा से लगने की शंका ने परेशान कर रखा है बल्कि मुंबई और दिल्ली से देश के दूसरे हिस्सों की तरफ जाने वाली ट्रेनों में देखें तो तमाम कोविड प्रोटोकाॅल को तोड़ते हुए लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी है. पिछले एक हफ्ते के अंदर गुड़गांव, दिल्ली, गाजियाबाद से ही करीब 20 हजार से ज्यादा मजदूर फिर से लाॅकडाउन लग जाने की आशंका के चलते अपने गांवों की तरफ कूच कर गये हैं. मुंबई, पुणे, लुधियाना और भोपाल से भी बड़े पैमाने पर मजदूरों का फिर से पलायन शुरु हो गया है. माना जा रहा है कि अभी तक यानी 1 अप्रैल से 10 अप्रैल 2021 के बीच मंुबई से बाहर करीब 3200 लोग गये हैं, जो कोरोना के पहले से सामान्य दिनों से कम, लेकिन कोरोना के बाद के दिनों से करीब 20 फीसदी ज्यादा है. इससे साफ पता चल रहा है कि मुंबई से पलायन शुरु हो गया है. सूरत, बड़ौदा और अहमदाबाद में आशंकाएं इससे कहीं ज्यादा गहरी हैं.

सवाल है जब पिछले साल का बेहद हृदयविदारक अनुभव सरकार के पास है तो फिर उस रोशनी में कोई सबक क्यों सीख रही? इस बार भी वैसी ही स्थितियां क्यों बनायी जा रही हैं? क्यों आगे आकर प्रधानमंत्री स्पष्टता के साथ यह नहीं कह रहे कि लाॅकडाउन नहीं लगेगा, चाहे प्रतिबंध और कितने ही कड़े क्यों न करने पड़ंे? लोगों को लगता है कि अब लाॅकडाउन लगना मुश्किल है, लेकिन जब महाराष्ट्र और दिल्ली के खुद मुख्यमंत्री कह रहे हों कि स्थितियां बिगड़ी तो इसके अलावा और कोई चारा नहीं हैं, तो फिर लोगों में दहशत क्यों न पैदा हो? जिस तरह पिछले साल लाॅकडाउन में प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा हुई थी, उसको देखते हुए क्यों न प्रवासी मजदूर डरें ?

पिछले साल इन दिनों लाखों की तादाद में प्रवासी मजदूर तपती धूप व गर्मी में भूखे-प्यासे पैदल ही अपने गांवों की तरफ भागे जा रहे थे, इनके हृदयविदारक पलायन की ये तस्वीरें अभी भी जहन से निकली नहीं हैं. पिछले साल मजदूरों ने लाॅकडाउन में क्या क्या नहीं झेला. ट्रेन की पटरियों में ही थककर सो जाने की निराशा से लेकर गाजर मूली की तरह कट जाने की हृदयविदारक हादसों का वह हिस्सा बनीं. हालांकि लग रहा था जिस तरह उन्होंने यह सब भुगता है, शायद कई सालों तक वापस शहर न आएं, लेकिन मजदूरों के पास इस तरह की सुविधा नहीं होती. यही वजह है कि दिसम्बर 2020 व जनवरी 2021 में शहरों में एक बार फिर से प्रवासी मजदूर लौटने लगे या इसके लिए विवश हो गये. लेकिन इतना जल्दी उन्हें अपना फैसला गलत लगने लगा है. एक बार फिर से वे पलायन के लिए विवश हो रहे हैं.

ये भी पढ़ें- फसल बर्बाद करते आवारा जानवर

प्रवासी मजदूरों के इस पलायन को हर हाल में रोकना होगा. अगर हम ऐसा नहीं कर पाये किसी भी वजह से तो चकनाचूर अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना सालों के लिए मुश्किल हो जायेगा. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) के अनुसार लगातार छह सप्ताह से कोविड-19 संक्रमण व मौतों में ग्लोबल वृद्धि हो रही है, पिछले 11 दिनों में पहले के मुकाबले 11 से 12 फीसदी मौतों में इजाफा हुआ है. नये कोरोना वायरस के नये स्ट्रेन से विश्व का कोई क्षेत्र नहीं बचा, जो इसकी चपेट में न आ गया हो. पहली लहर में जो कई देश इससे आंशिक रूप से बचे हुए थे, अब वहां भी इसका प्रकोप जबरदस्त रूप से बढ़ गया है, मसलन थाईलैंड और न्यूजीलैंड. भारत में भी केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के डाटा के अनुसार संक्रमण के एक्टिव केस लगभग 13 लाख हो गये हैं और कुछ दिनों से तो रोजाना ही संक्रमण के एक लाख से अधिक नये मामले सामने आ रहे हैं.

जिन देशों में टीकाकरण ने कुछ गति पकड़ी है, उनमें भी संक्रमण, अस्पतालों में भर्ती होने और मौतों का ग्राफ निरंतर ऊपर जा रहा है, इसलिए उन देशों में स्थितियां और चिंताजनक हैं जिनमें टीकाकरण अभी दूर का स्वप्न है. कोविड-19 संक्रमितों से अस्पताल इतने भर गये हैं कि अन्य रोगियों को जगह नहीं मिल पा रही है. साथ ही हिंदुस्तान में कई प्रांतों दुर्भाग्य से जो कि गैर भाजपा शासित हैं, वैक्सीन किल्लत झेल रहे हैं. हालांकि सरकार इस बात को मानने को तैयार नहीं. लेकिन महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उधव ठाकरे तक सार्वजनिक रूप से कह चुके हैं कि उनके यहां महज दो दिन के लिए वैक्सीन बची है और नया कोटा 15 के बाद जारी होगा.

हालांकि सरकार ने इस बीच न सिर्फ कोरोना वैक्सीनों के फिलहाल निर्यात पर रोक लगा दी है बल्कि कई ऐसी दूसरी सहायक दवाईयों पर भी निर्यात पर प्रतिबंध लग रहा है, जिनके बारे में समझा जाता है कि वे कोरोना से इलाज में सहायक हैं. हालांकि भारत में टीकाकरण शुरुआत के पहले 85 दिनों में 10 करोड़ लोगों को कोविड-19 के टीके लगाये गये हैं. लेकिन अभी भी 80 फीसदी भारतीयों को टीके की जद में लाने के लिए अगले साल जुलाई, अगस्त तक यह कवायद बिना रोक टोक के जारी रखनी पड़ेगी. हालांकि हमारे यहां कोरोना वैक्सीनों को लेकर चिंता की बात यह भी है कि टीकाकरण के बाद भी लोग न केवल संक्रमित हुए हैं बल्कि मर भी रहे हैं.

31 मार्च को नेशनल एईएफआई (एडवर्स इवेंट फोलोइंग इम्यूनाइजेश्न) कमेटी के समक्ष दिए गये प्रेजेंटेशन में कहा गया है कि उस समय तक टीकाकरण के बाद 180 मौतें हुईं, जिनमें से तीन-चैथाई मौतें शॉट लेने के तीन दिन के भीतर हुईं. बहरहाल, इस बढ़ती लहर को रोकने के लिए तीन टी (टेस्ट, ट्रैक, ट्रीट), सावधानी (मास्क, देह से दूरी व नियमित हाथ धोने) और टीकाकरण के अतिरिक्त जो तरीके अपनाये जा रहे हैं, उनमें धारा 144 (सार्वजनिक स्थलों पर चार या उससे अधिक व्यक्तियों का एकत्र न होना), नाईट कर्फ्यू सप्ताहांत पर लॉकडाउन, विवाह व मय्यतों में निर्धारित संख्या में लोगों की उपस्थिति, स्कूल व कॉलेजों को बंद करना आदि शामिल हैं. लेकिन खुद केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डा. हर्षवर्धन का बयान है कि नाईट कफर््यू से कोरोनावायरस नियंत्रित नहीं होता है, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसे ‘कोरोना कफर््यू’ का नाम दे रहे हैं ताकि लोग कोरोना से डरें व लापरवाह होना बंद करें (यह खैर अलग बहस है कि यही बात चुनावी रैलियों व रोड शो पर लागू नहीं है).

ये भी पढ़ें- नाबालिग लड़कियों का प्यार!

महाराष्ट्र के स्वास्थ्य मंत्री राजेश टोपे का कहना है कि राज्य का स्वास्थ्य इन्फ्रास्ट्रक्चर बेहतर करने के लिए दो या तीन सप्ताह का ‘पूर्ण लॉकडाउन’ बहुत आवश्यक है. जबकि डब्लूएचओ की प्रवक्ता डा. मार्गरेट हैरिस का कहना है कि कोविड-19 के नये वैरिएंटस और देशों व लोगों के लॉकडाउन से जल्द निकल आने की वजह से संक्रमण दर में वृद्धि हो रही है. दरअसल, नाईट कफर््यू व लॉकडाउन का भय ही प्रवासी मजदूरों को फिर से पलायन करने के लिए मजबूर कर रहा है. नया कोरोनावायरस महामारी को बेहतर स्वास्थ्य इन्फ्रास्ट्रक्चर और मंत्रियों से लेकर आम नागरिक तक कोविड प्रोटोकॉल्स का पालन करने से ही नियंत्रित किया जा सकता है.

लेकिन सरकारें लोगों के मूवमेंट पर पाबंदी लगाकर इसे रोकना चाहती हैं, जोकि संभव नहीं है जैसा कि पिछले साल के असफल अनुभव से जाहिर है. अतार्किक पाबंदियों से कोविड तो नियंत्रित होता नहीं है, उल्टे गंभीर आर्थिक संकट उत्पन्न हो जाते हैं, खासकर गरीब व मध्यवर्ग के लिए. लॉकडाउन के पाखंड तो प्रवासी मजदूरों के लिए जुल्म हैं, क्रूर हैं. कार्यस्थलों के बंद हो जाने से गरीब प्रवासी मजदूरों का शहरों में रहना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य हो जाता है, खासकर इसलिए कि उनकी आय के स्रोत बंद हो जाते हैं और जिन ढाबों पर वह भोजन करते हैं उनके बंद होने से वह दाल-रोटी के लिए भी तरसने लगते हैं.

ये भी पढ़ें- मौत के बाद, सबसे बड़ा अंधविश्वास!

फसल बर्बाद करते आवारा जानवर

प्रेमचंद की कहानी ‘पूस की रात’ का मेन किरदार हलकू नीलगायों द्वारा खेत को चर कर बरबाद कर देने के चलते खेतीकिसानी का काम छोड़ कर मजदूर बन जाने का फैसला ले लेता है. यही हालात एक बार फिर किसानों के सामने आ चुके हैं. दलहनी व तिलहनी फसलों की कौन कहे, अब तो गेहूं और धान के खेतों की भी बाड़बंदी करानी पड़ रही है.

अगर किसी किसान को एक एकड़ खेत की बाड़बंदी करानी पड़ती है, तो इस पर कम से कम 40,000 रुपए से ले कर 50,000 रुपए की लागत आ रही है.

राजस्थान के अकेले टोंक जिले में  80 फीसदी से ज्यादा ऐसे खेतों की बाड़बंदी की गई है, जिन में कोई फसल बोई गई है. इस से आम किसानों पर आई इस नई महामुसीबत का आप अंदाजा लगा सकते हैं, जो पिछले 8-10 सालों से किसानों पर आई हुई है.

जंगल महकमे के एक सर्वे के मुताबिक, अकेले टोंक जिले में 5,000 से ज्यादा नीलगाय हैं. इन्होंने तकरीबन 450 गांवों में किसानों को परेशान कर रखा है. इन में से भी 100 गांव ऐसे हैं, जहां नीलगाय हर साल सब से ज्यादा नुकसान करती हैं.

हर साल नीलगायों से रबी व खरीफ सीजन में सालाना 15 करोड़ रुपए के नुकसान का अंदाजा है. ये 6,000 हैक्टेयर इलाके में फसल प्रभावित करती हैं. हालांकि सालाना नुकसान और प्रभावित क्षेत्र को ले कर विभाग की ओर से कभी पूरी तरह से सर्वे नहीं हुआ है. किसान फसल को बचाने के लिए खेतों की तार की बाड़ और परदे लगाने पर ही लाखों रुपए खर्च कर रहे हैं, इस के बावजूद राहत नहीं मिल रही है.

माहिर रामराय चौधरी बताते हैं कि एक नीलगाय की औसत उम्र 7 साल होती है. अपनी तेज रफ्तार और कई फुट लंबी छलांग लगाने वाली नीलगाय आसानी से काबू में नहीं आती है. वहीं गांव वालों ने बताया कि खेतों में तारबंदी में करंट छोड़ने के बाद भी यह पशु अपनी पूंछ को तार पर फेर कर खतरा भांपने में सक्षम हैं.

ये भी पढ़ें- कोरोना: तंत्र मंत्र और हवन का ढोंग

गांव तामडि़या में कई किसानों ने गेहूं, सौंफ, जीरा, सरसों व दूसरी फसल वाले खेतों में नीलगाय से बचाव के लिए चारों ओर सफेद रंग की पट्टी लगा रखी है. इस के बावजूद फसल का बचाव नहीं हो पाता है. किसानों को रातभर जागना पड़ता है.

किसान रामप्रसाद ने 2 बीघा खेत के चारों ओर तारबंदी कराई है. 6 फुट ऊंचाई तक की जालियां लगाई गई हैं. इस के बावजूद नीलगाय खेतों में घुस ही जाती हैं. तार लगे होने के बाद भी रामप्रसाद को रात में भी रखवाली करनी पड़ती है.

गौरतलब है कि कुछ साल पहले नीलगाय से फसल खराब होती थी तो कीमत लगा कर मुआवजा देने का नियम था. पर कुछ सालों में कोई रकम नहीं मिली है.

मंदसौर के रेवासदेवड़ा, सीतामऊ के ऐरा, मल्हारगढ़ के बूड़ा, टकराव, चिल्लौद पिपलिया, खड़पाल्या, गरोठ के बर्डियापूना, बर्डियाराठौर, बुगलिया, भालोट, साबाखेड़ा समेत कई गांवों के लोग नीलगाय से बहुत ज्यादा परेशान हैं.

गौभक्ति की देन

यह समस्या काफी हद तक वर्तमान शासकों की गौभक्ति की देन है, जिस के चलते गोवंश की खरीदफरोख्त पर सरकारी आदेश द्वारा रोक लगा दी गई है. पहले किसान परिवारों को अनुपयोगी हो गए गौवंश की बिक्री से कुछ आमदनी हो जाती थी, पर यह न हो पाने के चलते उसे अब अपने ही पशुओं के लिए चारापानी का इंतजाम करना भारी पड़ रहा है.

इस की एक वजह यह भी है कि गेहूं व धान की कटाई कंबाइन मशीनों से होने के चलते गेहूं व धान के फसल अवशेषों का ज्यादातर भाग बरबाद हो जाता है और जो बचता भी है, उसे किसान या तो जला देते हैं या फिर उसे रोटावेटर चलवा कर मिट्टी में मिलवा देते हैं. इस से जहां गेहूं व धान की फसल से खाद्यान्न का उत्पादन बढ़ा है, वहीं दूसरी ओर पशुओं के चारे की समस्या ने विकराल रूप ले लिया है.

खेती के पूरी तरह से यंत्र आधारित हो जाने के चलते भी गौवंश अनुपयोगी हो गए हैं. पहले खेती की जुताई, बोआई, सिंचाई से ले कर मड़ाई व खाद्यान्न के परिवहन तक में बैलों का इस्तेमाल होता था. किसान परिवारों में गाय द्वारा बछड़े को जन्म दिए जाने को फायदेमंद माना जाता था, पर अब मामला पूरी तरह से उलट चुका है.

किसान परिवारों की गाय अगर बछिया को जन्म देती है, तब तो किसान दूध के लालच में उस का पालनपोषण करता है. अगर गाय बछड़े को जन्म देती है, तो जब तक गाय दूध देती है तब तक तो किसान उसे घर में रखते हैं, पर जैसे ही गाय दूध देना बंद करती है, तो वे बछड़ों को खुला छोड़ देते हैं.

ऐसे ही बछड़े आगे चल कर आवारा पशुओं के ?ांड में शामिल हो कर किसानों की खेती को चरते हैं और फसल को तहसनहस कर रहे होते हैं.

किसान रामदेव गूजर बताते हैं, ‘‘मैं एक किसान हूं और खेती करता हूं. तकरीबन 15-20 साल पहले तक खेती मु?ो और मेरे परिवार को खिलाती थी, मगर आज खेती मु?ो और मेरे परिवार को खा रही है. मैं और मेरा परिवार खेती और पशुपालन के चलते कर्ज और फिर कर्ज के तले दबता जा रहा है, क्योंकि सरकार की नीतियां अब किसानों के खिलाफ बनती जा रही हैं.’’

ये भी पढ़ें- नाबालिग लड़कियों का प्यार!

नीलगाय की प्रजाति

यह शोध का विषय है कि जिन नीलगायों की बातें हम अपनी पुरानी पीढ़ी से सुनते आए हैं और जिन के बारे में कथाकार प्रेमचंद की कहानियों में पढ़ा है, वे नीलगाय (वनरोज) इतनी बड़ी संख्या में कहां से आ गई हैं? इन की आबादी इस कदर बढ़ गई है कि इन से खेती की हिफाजत कर पाना बेहद मुश्किल काम बन चुका है. बिना सरकारी इजाजत के इन्हें मारना भी जुर्म है. इस के लिए 4 पन्ने का एक लंबा शासनादेश जारी है.

यह जानवर वनरोज हिरन या बकरी की प्रजाति का है, जो आजकल खेती को खूब बरबाद कर रहा है. गांवदेहात की भाषा में इसे नीलगाय या जंगली गाय कहा जाता है.

पिछले तकरीबन 20 सालों से इन की तादाद बहुत ज्यादा बढ़ गई है. इन से खेती को बचाना मुश्किल हो गया है. दरअसल, यह जानवर ?ांड में रहता है और रात में अचानक धावा बोल कर फसलों को चरने के साथ ही उसे बरबाद कर देता है. दलहनी फसलों जैसे अरहर, उड़द, मूंग, व मटर वगैरह.

ये भी पढ़ें- मौत के बाद, सबसे बड़ा अंधविश्वास!

सरकारी भाषा में इसे वनरोज कहा जाता है और इसे मारने के लिए एसडीएम से इजाजत लेने पड़ती है. मारने के बाद ग्राम प्रधान व कम से कम

5 लोगों के सामने इसे जमीन में गड्ढा खोद कर दफनाए जाने की व्यवस्था शासनादेश में दी गई है.

कोरोना: तंत्र मंत्र और हवन का ढोंग

सच तो यह है कि भारत भूमि की हवा कुछ ऐसी है कि यहां हर चीज में ढोंग शुरू हो जाता है. कोरोना कोविड 19 की दूसरी लहर के साथ राजधानी रायपुर में  हो रहा तंत्र मंत्र पूजन हवन यह बताता है कि जब राजधानी का यह हालो- हवाल है तो गांव कस्बे में कैसे अशिक्षा और अंधविश्वास की चपेट में लोगों को ठगा जा रहा है.

कोरोना कोविड-19 की हवा क्या चली अंधविश्वास की लहर दौड़ पड़ी है. जो बताती है कि किस तरह हमारे यहां आज भी अनपढ़ तो अनपढ़ पढ़े लिखे लोग भी तंत्र मंत्र हवन, पूजा के फंदे में फंसे हुए हैं.

दरअसल, अंधविश्वास के इस मनोविज्ञान को हम बहुत समझदारी और होशियारी से ही जान समझ सकते हैं. अन्यथा इनका संजाल कुछ ऐसा है कि कोई बच नहीं सकता.

ये भी पढ़ें- नाबालिग लड़कियों का प्यार!

यही कारण है कि जब कोरोना कोविड-19 की दूसरी लहर उठी है तो मानो हवन पूजा तंत्र मंत्र करने वालों की दुकानदारी अपने सबाब पर  है. क्योंकि हमारे यहां शिक्षित वर्ग  भी अंधविश्वास के फेर में फंस  रूपए पैसे खूब लूटाता है. इसी का लाभ उठाते हुए गेरुआ वस्त्र धारी और काले वस्त्र धारी तंत्र और मंत्र की झूठी कहानियां गढ़ कर लोगों के जेब खाली कर रहे हैं.

विगत दिनों छत्तीसगढ़ के रायपुर में संपूर्ण विश्व से कोरोना महामारी का नाश करने के लिए एक बड़े धार्मिक संगठन परिवार के सदस्यों ने  अपने-अपने घर में यज्ञ करके आहुति दी.महामृत्युजंय मंत्र और सूर्य मंत्र के उच्चारण से आहुति देकर सभी जाति, धर्म, पंथ के लोगों के लिए प्रार्थना की. पीले कपड़े पहनने वाला यह धार्मिक परिवार कहता है कि विश्वव्यापी हवन, यज्ञ अभियान के तहत छत्तीसगढ़ के 30 हजार से अधिक परिवारों में हवन का आयोजन किया गया. अंधविश्वास यह की इसके परिणाम स्वरूप कोरोना कोविड-19 काबू में आ जाएगा. कुल मिलाकर  कोरोना काबू में आए या ना आए मगर धार्मिक दुकान चलाने वालों का धंधा आज भी बड़ा चोखा चल रहा है.

मंत्र तंत्र का चोखा धंधा

केंद्र सरकार, राज्य सरकार और प्रशासनिक अमला कोरोना संक्रमण से लड़ने की बहुतेरी कोशिशें कर रही हैं. फिर भी  दोबारा कोरोना वायरस बड़ी तेजी से फैल रहा है. इसलिए अब धार्मिक गतिविधियां की भी मानो बाढ़ आ गई है . पंडे पुजारी कहते है कि  हमारे मंत्र हवन से प्रदेशवासियों को कोरोना से राहत मिलेगी.

ये भी पढ़ें-  मौत के बाद, सबसे बड़ा अंधविश्वास!

स्वामी राघेश्वरा नंद के मुताबिक कोरोना के लिए हम लगातार हवन कर रहे है. पुराणों के अनुसार भी किसी गंभीर बीमारी में जाप करना लाभदायक  है. इसलिए हमने तय किया कि जाप किया जाए. जाप में महामृत्युंजय मंत्र, मूल रामायण का पाठ, बगलामुखी का मंत्र और नवग्रहों के मंत्र का जाप किया जा रहा है.

उन्होंने बताया कि भगवान शिव के मंत्रों का उच्चारण कर हवन किया जाता है. 9 पंडितों ने मिलकर प्रतिदिन 11 हजार जाप करने का लक्ष्य रखा है. इस जप का समापन रामनवमी के दिन किया जाएगा. इससे पहले भी रायपुर में कोरोना भगाने के लिए हवन और पूजा अर्चना किया जा चुका है.

छत्तीसगढ़ में यह रिपोर्ट लिखते वक्त कोरोना के 5 हजार 250 नए कोरोना पॉजिटिव मरीज़ सामने आए हैं. इस संक्रमण से 32 लोगों की मौत हुई है. हालांकि 2 हजार 918 मरीज़ स्वस्थ होने के बाद डिस्चार्ज किए गए हैं. रायपुर में 1 हजार 213 कोरोना मरीज मिले थे और 14 लोगों की जान गई है.  दरअसल,कुछ लोगों  को अपने धंधे से मतलब है और यह धंधा ऐसा है जो पुरातन काल से चला रहा है और हमारे यहां वोटों की राजनीति के कारण कोई इन पर अंकुश लगाने वाला भी नहीं है. ऐसे में आज जबकि सारी दुनिया कोरोना से त्रस्त है कथित  साधु संत को मौका मिल गया है जमकर रुपए बनाने का.

ये भी पढ़ें- Holi Special: रिश्तों में रंग घोले होली की ठिठोली

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें