चुनाव प्रबंधन और वाक पटुता में भारी भाजपा

चुनाव में जीत के लिये प्रबंधन और वाक पटुता का सबसे अहम रोल हो गया है. अब यह पार्टी संगठन और कार्यकर्ताओं के बस की बात नहीं रह गई है. इसके लिये प्रोफेशनल टीम बेहतर काम करती है. यह टीम पूरी तरह से अपने काम पर फोकस करती है. जिससे पार्टी हर जगह सबसे आगे दिखती है. प्रोफेशनल टीम के चुनाव प्रबंधन और नेताओं की वाकपटुता के मामले में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में भाजपा अपने विरोधी बसपा और सपा-कांग्रेस गठबंधन पर हावी है.

मीडिया के साथ बेहतर तालमेल सबसे अधिक भाजपा की टीम कर रही है. बसपा में सारा तालमेल पार्टी प्रमुख मायावती के आसपास घूमता है. कांग्रेस में काफी अच्छी तरह से तालमेल रखा जाता है. कांग्रेस की परेशानी यह है कि हाईकमान के आदेश नीचे के कार्यकर्ताओं को सीधे नहीं मिल रहे जिससे ग्राउंड पर काम करने वाले को ऊपर की नीतियों का पता ही नहीं होता है.

उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की सरकार होने के कारण समाजवादी पार्टी से यह उम्मीद थी कि वहां पर चुनाव प्रबंधन बेहतर होगा. खासकर मीडिया को हर जानकारी समय पर सटीक तरह से मिल सकती है. सपा में मीडिया की भीड़ तो बड़े स्तर पर दिखती है पर बिना किसी भेदभाव के सटीक जानकारी नहीं मिलती. पार्टी प्रवक्ताओं का बड़ा फोकस केवल अखिलेश यादव के करीब रहता है. जिसकी वजह से भाजपा के हमलों का सही जवाब वहां तैयार नहीं किया जाता. आज के दौर में मीडिया का मतलब केवल अखबार या टीवी चैनल नहीं रह गये हैं. वेब मीडिया सबसे बडे हथियार के रूप में काम कर रही है. वेब मीडिया को लेकर सपा और बसपा में कोई नीति नहीं है. जबकि भाजपा में यह बडी प्रमुखता के साथ देखा जा रहा है.

यह सच है कि जमीनी जनाधार और वोटबैंक के स्तर पर बात करे तो उत्तर प्रदेश में जो प्रभाव मायावती का है या अखिलेश यादव का है वह भाजपा और कांग्रेस दोनो का नहीं है. दोनो ही दलों में प्रदेश स्तर पर एक भी ऐसा नेता नहीं है जो मायावती और अखिलेश यादव की लोकप्रियता का मुकाबला कर सके. सबसे बड़ा वोटबैंक भी इन दोनो दलों के पास ही है. इसके बाद भी यह लड़ाई में पीछे दिखते हैं. इसका यही कारण है कि वाक पटुता और चुनाव प्रबंधन में अखिलेश और मायावती दोनो ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह से बहुत पीछे हैं. अखिलेश और मायावती दोनो के ही पास बोल पाने की वह कला नहीं है जो नरेंद्र मोदी के पास है.

अखिलेश और मायावती कोई अकुशल नेता नहीं हैं. दोनों की जमीनी पकड़ है. चुनाव में पैसा दोनों दल भी खर्च कर रहे हैं. अंतर केवल यह है कि भाजपा से चुनाव प्रबंधन और वाकपटुता के मामलें में दोनों ही दल पिछड़ रहे हैं. जिस प्रभावी ढंग से भाजपा अपनी बात को रख रही है चुटीले संवादों से सुनने वालों को प्रभावित कर रही है उस तरह से मायावती और अखिलेश नहीं कर पा रहे हैं. इंटरनेट से लेकर प्रचार के सभी साधनों में सबसे आगे भाजपा है. अब सपा बसपा अगर यह समझ रहे हैं कि उनके कार्यकर्ता गांव में रहते हैं उनको इंटरनेट देखने, अखबार और पत्रिकायें पढ़ने से कोई मतलब नहीं तो वह गलत सोच रहे हैं.

लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की हार का सबसे प्रमुख कारण यही था कि वहां चुनाव प्रबंधन और वाकपटुता का अभाव था. यही हालत उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में सपा-बसपा के सामने है. 2 फेस के विधानसभा चुनाव होने के बाद अभी 5 फेस के चुनाव बाकी हैं. अगर इस स्तर पर भी सपा-बसपा कुछ बदलाव कर सके तो बेहतर है. चुनावी बाजी को जीतने के लिये चुनाव प्रबंधन और वाक पटुता का होना भी जरूरी है. केवल कुशल नेता होने भर से चुनाव नहीं जीते जा सकते.

तेज प्रताप से हलकान लालू प्रसाद यादव

अपनी उलजलूल हरकतों और बयानों से अकसर अपनी सरकार और पार्टी के लिए मुश्किलें खड़ी करने वाले बिहार के स्वास्थ्य मंत्री तेज प्रताप यादव अब खुद मुश्किलों में घिर गए हैं. सुप्रीम कोर्ट ने राजद सुप्रीमो लालू यादव के दुलारे तेज प्रताप यादव के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने का निर्देश दिया है. पिछले दिनों जेल में बंद राजद के बाहुबली नेता शहाबुद्दीन के शार्प शूटर और सिवान के पत्रकार राजदेव की हत्या के मुख्य आरोपी मोहम्मद कैफ के साथ तेज प्रताप की तस्वीरें अखबारों में छपी थी. उसी आधार पर राजदेव की बीबी आशा रंजन ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी. याचिका में कहा गया है कि राजदेव की हत्या के आरोपी को शहाबुद्दीन और तेज प्रताप ने पनाह दिया हुआ है. गौरतलब है कि 13 मई 2016 को सिवान में राजदेव की हत्या कर दी गई थी.

तेज प्रताप कभी कृष्ण का रूप धर कर बांसुरी बजाते नजर आते हैं तो कभी हलवाई की दुकान में जलेबी छानने लगते हैं. कभी कुम्हार की चाक पर हाथ साफ कर मिट्टी के बर्तन बनाने लगते हैं. इस साल एक जनवरी के मौके पर उन्होंने अपने सिर पर पगड़ी बांधी और उसमें मोर का पंख जड़ डाला. उसके बाद गायों के साथ बांसुरी बजाने लगे. काफी देर तक भाव विभोर होकर बांसुरी बजाते रहे और उसके बाद खुद को कृष्ण का वंशज बताया. पिछले एक फरवरी को सरस्वती पूजा के मौके पर वह हलवाई के साथ चूल्हे के पास जा बैठे और लगे जलेबियां छानने. जलेबी छानने के बाद उन्होंने स्कूली बच्चों को जलेबियां खिलाई और खुद भी उसका लुत्फ उठाया. पिछले 6 फरवरी को पटना पुस्तक मेले में घूमने पहुंचे तो कुम्हार का चाक देख कर वहीं बैठ गए और चाक को घूमा कर मिट्टी के बर्तन बनाने लगे.

हमेशा सुर्खियों में रहने वाले तेज प्रताप ने पिछले दिनों गो हत्या पर रोक लगाने की मांग कर अपनी पार्टी के लिए ही मुसीबत खड़ी कर दी थी. वृंदावन पहुंच कर उन्होंने केंद्र के मोदी सरकार से अपील कर डाला कि नोटबंदी की तरह से गायों की हत्या पर भी रोक लगाई जाए. उन्होंने यह भी कहा कि बिहार में शराब को बंद कर दिया गया है, अब गो हत्या को भी बंद किया जाएगा. उनकी इस बयानबाजी से उनके पिता लालू यादव और ‘चाचा’ नीतीश कुमार सकते में आ गए. गौरतलब है कि लालू और नीतीश का बड़ा मुस्लिम वोट बैंक है और तेज प्रताप ने गाय को मारने पर रोक लगा का मुसलमानों को नाराज कर डाला.

पिछले दिनों भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी ने चुटकी लेते हुए कहा था कि लालू यादव ने अपने बेटों को राजनीति में सेटेल कर दिया है और अब उनकी शादी कर देनी चाहिए. मोदी के इस मजाक पर तेज प्रताप तैश में आ गए और कह डाला कि मोदी अपने बेटे का विवाह क्यों नहीं करते हैं? क्या वह नपुंसक है? उनके इस बात पर बिहार की सियासत गरमा गई तो लालू और नीतीश को उस पर पानी डालने के लिए आगे आना पड़ा. पार्टी की बैठकों या किसी सभा में वह बात-बेबात फोटोग्राफरों से उलझ पड़ते हैं. पार्टी की एक बैठक में वह किसी फोटोग्राफर का कैमरा लेकर फोटो खींचने लगे. उनका फोटो खींचता फोटो किसी फोटोग्राफर ने खींच लिया तो इस पर वह बिदक गए और फोटोग्राफर को धमकाने लगे. कैमरा छीन कर तोड़ने की धमकी दे डाली. उनकी इस हरकत पर पत्रकारों और फोटोग्राफरों ने राजद के कार्यक्रमों के बहिष्कार का ऐलान कर डाला. आखिर लालू ने बीच में कूद कर मामले को शांत कराया.

अकसर अपने ललाट पर चंदन-टीका लगा कर घूमने वाले 28 साल के तेज प्रताप राजद की टिकट और महुआ विधान सभा सीट से पहली बार 2015 में विधायक बने थे. बिहार में महागठबंधन की सरकार में उन्हें स्वास्थ्य मंत्री बनाया गया था. राजद के सूत्रों की मानें तो वह अपने छोटे भाई तेजस्वी को उप मुख्यमंत्री बनाए जाने से खासे नाराज हैं. इस बात को लेकर वह अपने पिता लालू यादव से भी नाराज रहते हैं. अकसर वह मंदिरों के चक्कर लाने लगे हैं. कई बार देर रात को उठ कर भी किसी मंदिर की ओर निकल पड़ते हैं.

शिवराज सिंह चौहान तम्बू बाकी सब बम्बू

आप लोग किसी मुगालते में न रहें, सरकार तो अकेले शिवराज के दम पर चल रही है, शिवराज तम्बू हैं ,विधायकों और कार्यकर्ताओं को बम्बू बनना होगा, तभी सरकार ठीक से चल सकती है. संगठन के पास सबकी परफ़ार्मेंस रिपोर्ट है, उसी के आधार पर टिकिट दिये जाएंगे, ये उद्गार मध्य प्रदेश भाजपा अध्यक्ष नन्दकुमार सिंह चौहान ने पचमढ़ी में सम्पन्न विधायक  प्रशिक्षण वर्ग में व्यक्त किए, तो कई बातें एक साथ उजागर हुईं. इनमे से पहली जो आखिरी भी है यह है कि हाल फिलहाल मध्य प्रदेश भाजपा में शिवराजसिंह पहले और आखिरी विकल्प हैं, इसलिए किसी और को मुंगेरीलाल सरीखे सपने देखने की जहमत नहीं उठानी चाहिए. दूसरा संदेशा यह दिया गया कि ये बातें महज बकवास और कोरी अफवाहें हैं कि आरएसएस और शिवराज के बीच कोई अनबन है. तीसरी अहम बात यह थी कि इसके बाद भी जिसे  सपने आना बंद न हों, तो उसकी नींद रिपोर्ट कार्ड नाम के चिट्ठे के जरिये उड़ा दी जाएगी, अब जिसे जो करना हो कर ले.

विधायकों के लिए यह प्रशिक्षण वर्ग चेतावनी और मुख्यमंत्री के लिए वरदान साबित हुआ, जिसमे हमेशा की तरह हीरो शिवराजसिंह चौहान ही रहे. लाख टके के इस सवाल का जबाब किसी के पास नहीं कि आखिर क्यों भाजपा प्रदेश अध्यक्ष को शिवराज की सर्वमान्यता का नवीनीकरण कराना पड़ा, वह भी धोंस धपट बाले लहजे में. दरअसल में एमपी में सब कुछ ठीक ठाक नहीं है. बहुत कुछ होने के बाद भी कुछ होता नहीं दिख रहा है, जिससे जनता त्रस्त हो चली है. सिवा शिवराज के किसी के पास कोई अधिकार नहीं है, नौकरशाही हावी हो रही है और सूबे की कानून व्यवस्था चरमराने लगी है. अगला साल चुनावी है लिहाजा भाजपा ने अपने इस गढ़ को बनाए रखने कसरत अभी से शुरू कर दी है और यह ऐलान भी कर दिया है कि भाजपाई जिम के ट्रेनर शिवराज ही रहेंगे.

इधर परेशानी वे राजनैतिक विश्लेषक खड़ी कर रहे हैं जो दबी जुबान में यह मशवरा देने लगे हैं कि अगर भाजपा को प्रदेश अपने हाथ में रखना है तो सीएम बदल देना चाहिए, क्योंकि लोग शिवराज से ठीक वैसे ही ऊब चले हैं जैसे साल 2003 में दिग्विजयसिंह से ऊब गए थे. इतिहास तो नहीं पर हालात अपने आप को दोहरा रहे हैं, मसलन कर्मचारी सातवां वेतन आयोग लागू न होने से खफा हैं, उन्हे मालूम है कि सरकार यह घोषणा चुनाव के पहले कर देगी, पर यह हक वक्त पाए दे दे तो उसमें निष्ठा बनाए रखी जा सकती है. किसानों की परेशानियां जस की तस हैं और दलित वर्ग भाजपा से छिटकने लगा है और काम उतने हुये नहीं हैं जितने कि गिनाए जाते हैं.

यह ठीक है कि कांग्रेस की हालत पतली है पर लोकतन्त्र में कुछ भी हो सकता है. अरविंद केजरीवाल ने सूबे पर नजरें गड़ा दी हैं और अगर कमलनाथ या ज्योतिरादित्य सिंधिया में से किसी एक ने प्रदेश  कांग्रेस की कमान संभाल ली, तो बदलाव की मानसिकता में आ रहा वोटर उनसे चेटिंग शुरू न कर दे. लेकिन भाजपा शिवराज के बारे में कुछ सुनने तैयार नहीं तो कुछ विधायकों और कई कार्यकर्ताओं को भी महसूस होने लगा है कि पार्टी में आंतरिक लोकतन्त्र नाम की व्यवस्था खत्म हो चली है. अगर शिवराज की ही पालकी ढोने मजबूर किया जा रहा है, तो दूसरे दर्जे के नेताओं से मौका छीनना इसे क्यों न कहा जाये. चुनाव के वक्त जिन कार्यकर्ताओं की तारीफ में कसीदे गढ़े जाते हैं, आज उसके कहने पर राशन कार्ड भी नहीं बन रहा, तो प्रचार के वक्त वोटर को क्या मुंह दिखाएंगे.

पचमढ़ी में कुछ विधायकों ने मंत्रियों की शिकायत की तो उन पर ध्यान नहीं दिया गया उलटे नसीहत विधायकों को ही दे दी गई. ऐसे में इसी तम्बू के नीचे बम्बू बनकर खड़े रहने की मजबूरी बड़ी उठा पटक की भी वजह बन सकती है. एक पूर्व भाजपा विधायक की मानें तो पार्टी अति आत्म विश्वास का शिकार हो चली है. पचमढ़ी में किसी को मुंह खोलने की इजाजत नहीं थी, पर  कान खुले रखने सभी को निर्देश थे. हमने सुना पर हमारी कौन सुनेगा, वे अध्यक्ष महोदय जो सीएम की चाटुकारिता करते रहे, ताकि अध्यक्ष बने रहें, तो बेहतर होगा कि अध्यक्ष भी शिवराज को ही बना दिया जाये. इस नेता के मुताबिक जब बुरा वक्त आता है तो अच्छे अच्छे  तम्बू उखड़ जाते हैं. शिवराज का जरूरत से ज्यादा गुणगान और महिमामंडन यूं ही होता रहा तो उनसे चिढ़ने वालों की तादाद और बढ़ेगी, इसलिए वक्त रहते पार्टी को संभल जाना चाहिए .

‘नोटा’ के प्रचार में लखनऊ के कारोबारी

अगर आपको अपने चुनाव क्षेत्र का कोई प्रत्याशी पसंद नहीं है, तो आप ‘नोटा’ का बटन दबा सकते हैं. चुनाव सुधार के तहत वोटर को यह अधिकार मिल गया है. यह बात अलग है कि वोटर के इस अधिकार का कोई प्रचार नहीं कर रहा है. राजनीतिक दल और चुनाव लड़ रहे प्रत्याशी तो इसका प्रचार कर ही नहीं सकते. चुनाव आयोग भी इसका व्यापक ढंग से प्रचार नहीं कर रहा है. यही कारण है कि जिन लोगों को चुनाव से कोई लाभ नहीं दिख रहा वह वोट डालने घर से नहीं निकल रहे. चुनाव आयोग द्वारा वोट डालने के प्रचार में लाखों करोडों खर्च करने के बाद भी शतप्रतिशत मतदान दूर की कौडी है. चुनाव सुधारों के लिये काम कर रहे लोकतांत्रिक मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष प्रताप चन्द्रा कहते हैं ‘चुनाव आयोग को नोटा का प्रचार करना चाहिये. जिससे राजनीतिक दलों से नाराज लोग वोट देने के अपने विकल्प को जान सके.’

चुनाव आयोग भले ही नोटा का प्रचार न कर रहा हो, पर लखनऊ में कुछ कारोबारी ‘नोटा’ के प्रचार के लिये पूरे शहर में होर्डिंग लगा रहे हैं. यह कारोबारी ज्यादातर लखनऊ के अमीनाबाद बाजार के रहने वाले हैं. कारोबारियों को शिकायत है कि चुनाव के समय सभी दल इस बात के लिये तैयार हो जाते हैं कि चुनाव के बाद अमीनाबाद बाजार में सुधार करेंगे. चुनाव जीतने के बाद कोई इस दिशा में काम नहीं करता है. इससे परेशान कारोबारी अब चुनाव में ‘नोटा’ का प्रचार कर रहे हैं. यह लोग अपने स्तर से भी प्रचार कर रहे हैं और होर्डिंग लगाकर पूरे शहर को भी जागरुक कर रहे हैं.

चुनाव का बहिष्कार पहले भी बहुत सारे चुनाव क्षेत्रों में होता रहा है. ज्यादातर ग्रामीण इलाकों में इस तरह के कदम लोग गुस्से में आकर उठाते रहे हैं. कई जगहों में वोट मांगने वालों को वापस जाने को कहा जाता है. बैनर पोस्टर लगाने से खबरे छप जाती हैं तो प्रशासन कुछ इस क्षेत्र का ख्याल रख लेता है. प्रदेश की राजधानी के अंदर पहली बार इस तरह का प्रचार ‘नोटा’ को लेकर किया जा रहा है. चुनाव आयोग के मुताबिक अगर किसी क्षेत्र में 50 फीसदी वोटर ‘नोटा’ का बटन दबा देंगे तो इलाके का चुनाव रद्द हो जायेगा.

प्रताप चन्द्रा कहते हैं ‘अगर जनता को लोकतंत्र और चुनाव प्रक्रिया से जोडे रखना है तो कई सुधार करने की जरूरत है. नोटबंदी का असर चुनाव पर नहीं दिख रहा है. सभी दल पहले की ही तरह जोरशोर से खर्च कर रहे हैं. इससे यह बात साफ हो गई कि नोटबंदी की पाबंदी केवल जनता के लिये थी, राजनीतिक दलों पर इसका असर नहीं पडा. आज भी चुनाव जीतना गरीब आदमी के बस की बात नहीं है. चुनाव में हर कोई बराबरी से तभी चुनाव लड़ पायेगा जब वोट डालने के लिये ईवीएम मशीन पर केवल प्रत्याशी का नाम दर्ज हो. किसी पार्टी का चुनाव चिन्ह न हो. निर्दलीय को एक सप्ताह पहले सिंबल दिया जाता है और पार्टी के प्रत्याशी के पास पहले से चुनाव चिन्ह होता है. ऐसे में चुनाव मैदान में मुकाबला बराबरी का नहीं होता. यही कारण है कि प्रत्याशी काम न करके दलों से किसी भी तरह टिकट हासिल करने के प्रयास में रहता है.’

विधानसभा चुनाव में भी नरेंद्र मोदी नाम

उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में भाजपा के चुनाव प्रचार देखकर ऐसा लगता है जैसे यह लोकसभा के चुनाव हों. भाजपा पूरी तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर वोट मांग रही है. खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस तरह से अपने भाषण दे रहे हैं जैसे वह खुद मुख्यमंत्री पद के दावेदार हों. भाजपा के स्टार प्रचारकों के नामों वाली सूची में वैसे तो बहुत सारे नाम हैं पर सबसे अहम नाम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह का है. इनके प्रभाव के सामने उत्तर प्रदेश के भाजपा नेता फकत तमाशाई नजर आ रहे हैं. विधानसभा चुनावों में राष्ट्रीय स्तर के नेताओं के बढ़ते महत्व ने प्रदेश स्तर के नेताओं को हाशिये पर ढकेल दिया है.

खुद प्रधानमंत्री मोदी भी अपने बयानों से यही जाहिर कर रहे हैं कि विधानसभा चुनावों के बाद उत्तर प्रदेश के विकास की जिम्मेदारी उनकी अपनी है. राजधानी लखनऊ से लगे बाराबंकी जिले में चुनाव प्रचार करते प्रधानमंत्री मोदी ने कहा ‘मैं उत्तर प्रदेश का गोद लिया बेटा हूं. यह गोद लिया बेटा मां बाप को छोड़ेगा नहीं. जो खुद का बेटा नहीं कर पाया वह गोद लिया बेटा कर दिखायेगा.’ प्रधानमंत्री के बयान से साफ है कि उत्तर प्रदेश में जो भी नेता मुख्यमंत्री बनेगा वह नाम का होगा. असल राज नरेन्द्र मोदी ही करेंगे.

विरोधी नेता प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी के बयान को अपने अंदाज में पेश कर रहे हैं. बसपा नेता मायावती कहती हैं ‘गोद लिया बेटा बताना मोदी का नाटक है. लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश ने सबसे अधिक सीटें भाजपा को दी थी. लोकसभा चुनावों के बाद उत्तर प्रदेश को क्या मिला? मोदी ने लोकसभा चुनाव में किया अपना कौन सा वादा निभाया? यह उत्तर प्रदेश की जनता देख रही है. लोकसभा चुनाव की ही तरह मोदी विधानसभा चुनाव में भी वादा कर रहे हैं. प्रदेश के लोग अब इस झांसे में आने वाले नहीं है.’

सपा नेता और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने मोदी के बयानों का जवाब देते कहा कि मोदी जी केवल अचछा बोलते हैं. अच्छे दिन लाने का वादा करके लोकसभा में वोट हासिल किया और फिर अच्छे दिन के नाम पर लोगों को लाइन में लगाने का काम किया. विधानसभा चुनाव में लोकसभा वाला झांसा नहीं चलेगा. यह चालू पार्टी के लोग हैं झूठ बोल कर वोट लेने में महिर हैं. अब इनकी पोल खुल चुकी है.

राजनीतिक समीक्षक योगेश श्रीवास्तव कहते हैं ‘विधानसभा चुनाव में इसके पहले किसी प्रधानमंत्री ने इतना अधिक व्यापक प्रचार नहीं किया है. इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि भाजपा ने विधानसभा चुनावों में किसी नेता को अपना चुनावी चेहरा नहीं बनाया. अब विधानसभा चुनावों की सबसे बड़ी जिम्मेदारी मोदी-शाह की जोड़ी पर है. उत्तर प्रदेश का न होने के बाद भी दोनों ही नेता उत्तर प्रदेश की बोली में भाषण कर जनता का दिल जीतने की कोशिश में रहते हैं. कांग्रेस-सपा गठबंधन पर ही उनका सबसे बड़ा हमला हो रहा है. बसपा पर भाजपा के यह नेता सीधे हमले से बच रहे है. इससे यह लगता है कि चुनाव के बाद के लिये भाजपा बसपा के साथ तालमेल का रास्ता खुला रखना चाहती है. बसपा इस बात से बचना चाहती है इसीलिये प्रधानमंत्री के बयान की पहली आलोचना मायावती की तरफ से आती है. बसपा को यह डर है कि भाजपा के साथ पुराने रिश्तो के चलते मुसलिम मतदाता बसपा से दूरी न बना ले.’

राज्यों में चुनाव और नरेंद्र मोदी की परीक्षा

उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोआ और मणिपुर की विधानसभाओं के चुनावों में प्रधानमंत्री व भारतीय जनता पार्टी के नेता नरेंद्र मोदी की परीक्षा होनी है. क्या वे गोआ व पंजाब में अपनी सरकारें बचाए रख पाते हैं और उत्तराखंड व उत्तर प्रदेश में 2014 का वोट प्रतिशत स्थिर रख पाते हैं? ये चुनाव देश को चाहे न नई दिशा दें, न कोई बदलाव कराएं, 11 मार्च तक सुर्खियों में बने जरूर रहेंगे.

चुनावों से लोकतंत्र मजबूत होता है, यह कहना अब मुश्किल होता जा रहा है. पिछले कुछ चुनावों से साफ दिख रहा है कि नेताओं के भाषणों से न विकास बढ़ता है, न समस्याएं दूर होती हैं. जो दल जाति के नाम पर वोट हासिल करते हैं वे उन वोटरों तक के लिए भी अगले 4-5 साल कुछ नहीं कर पाते. उन का सारा समय अफसरों को इधर से उधर करने और आपसी जूतमपैजार में बीत जाता है.

नरेंद्र मोदी ने 14 मई, 2014 से पहले चुनावप्रचार के दौरान बड़े सब्जबाग दिखाए थे पर 2016 के अंत में हिटलरी और स्टालिनी युग की याद दिलाते हुए उन्होंने एक मूर्खतापूर्ण, तुगलकी फैसले से लोगों को कतारों में खड़ा कर दिया. आज भी जनता का लाखोंकरोड़ रुपया बैंकों के खातों में बंद है जिस पर सरकार विषैले सांप की तरह कुंडली मारे बैठी है और कहती है कि पहले हिसाब लाओ, फिर अपना पैसा ले जाओ, पहले उस का मनमाना लगाया टैक्स भरो, फिर अपना पैसा मांगो.

ऐसा नहीं कि सिर्फ अमीर आदमी इस कष्ट को भोग रहे हैं, इन 5 राज्यों की जनता भी वही कष्ट भोग रही है और वह सरकार के आगे असहाय है, कुछ कर नहीं सकती. डा. भीमराव अंबेडकर ने अपनी पुस्तक ‘एनीहिलेशन औफ कास्ट’ में सही कहा था कि हिंदू लोग नाटे और बौने हैं और उन में स्टेमिना है ही नहीं. उन के अनुसार, इस देश की 90 प्रतिशत जनसंख्या सेना के लिए बेकार है. ऐसा देश वोट के सहारे भी अपने हितों की नहीं सोच सकता क्योंकि उसे तो दूसरों के झूठे वादों पर जीने की आदत पड़ गई है.

इन 5 राज्यों के चुनावों में जो होने वाला है, दिख रहा है. भारतीय जनता पार्टी तो कोई वादा ही नहीं कर रही है. वह तो 10 पाकिस्तानियों को मार डालने और नोटबंदी पर मैडल मांग रही है. उसे मैडल मिल भी सकता है क्योंकि ‘पांय लागूं महाराज’ कहने वाले वोटरों की कमी नहीं. यह पांय लागूं संस्कृति अब बहुजन समाज पार्टी में भी है, समाजवादी पार्टी में भी और आम आदमी पार्टी में भी. जहां कम है, वहां कहा जाता है कि अनुशासन नहीं.

पांय लागूं संस्कृति की देन वाला वोटर अपने हितों के लिए ही मतदान करेगा, इस की आशा नहीं है. वह तो हां में हां मिलाएगा और जो उसे सब से ज्यादा आशीर्वाद देगा, उसे वोट देगा.

इन राज्य चुनावों में परीक्षा तो मतदाताओं की होनी है कि वे लोकतंत्र के हकदारों को चुनते हैं या नहीं. क्या वे राज्यों में निरंकुश, आपस में लड़ती, जिद्दी, दिशाहीन सरकारों को चुन कर नाचेंगे, गुलालअबीर बिखेरेंगे? ये चुनाव देश के इतिहास पर एक और काला धब्बा होंगे. इस तरह के परिणामों का असर तुरंत पता नहीं चलता क्योंकि जब पूरी दीवार पीक के धब्बों से भरी हो तो एक और दाग कहां दिखता है.

 

गा लो मुसकरा लो…बसंत का मौसम आया

बसंत का मौसम रंगीन फूलों और खिली धूप का होता है और जब शरीर पर बसंती रंग चढ़ता है तो फिर वही आभा खिलती है जो प्रकृति में खिलती है. बसंती बदन पर हजारों कवियों ने वैसा ही लिखा है जैसा बसंती प्रकृति पर लिखा है. दोनों ही खुशनुमा होते हैं. नई आभा देते हैं, एक खुशबू देते हैं और भविष्य के लिए चमचमाहट का रास्ता बनाते हैं.

ये दिन बारबार नहीं आते. हर किशोर के बसंती साल दोचार ही होते हैं. फिर जिम्मेदारियों और स्पर्धा का काल शुरू हो जाता है. इन दिनों में अपनी खुशबू फैलाएं और रंगों को बिखेरें. यह हर किशोर का ध्येय होना चाहिए.

यह खुशबू बहुत कीमती होती है. इसी का इंतजार पूरे वर्ष रहता है. जब चारों ओर एक सुखद माहौल छाया रहता है. इसी तरह की खुशबू हर व्यक्ति के जीवन में केवल एक बार किशोरावस्था के आसपास आती है और कोई उसे छोड़े तो उस की गलतफहमी दूर करनी चाहिए.

बहुत बसंती किशोर कलपने लगते हैं कि उन के पास यह नहीं है, वह नहीं है. कोई अपने शरीर से परेशान रहता है, कोई कपड़ों से, कोई गैजेट्स से तो कोई जेबखर्च से, पर अगर इन को दिल पर हावी न होने दें तो यह कीमती समय सालों तक याद रह सकता है. इन दिनों की दोस्ती निश्छल होती है और बारबार जीवन में महक लाती है. इन दिनों का सुखद काम आप के भविष्य को बनाता है. इन दिनों का ज्ञान भविष्य का रास्ता बनाता है. जैसे इन दिनों पौधे अपने फूलों के बीज चारों ओर बिखरते हैं वैसे ही इन दिनों का काम चारों ओर याद रहता है.

जीवन को सजानेसंवारने के लिए बहुतकुछ करना पड़ता है. इस के लिए कड़ी मेहनत की जरूरत होती है. जैसे माली बसंत की तैयारी पहले से करते हैं वैसे ही हर किशोर को इन सालों को महकता और फलताफूलता देखने के लिए पहले से ही तैयारी करनी चाहिए और किशोरावस्था में भी इस का यत्न करना चाहिए. इन सालों में कैरियर बनाने के प्लान तैयार करें, खूब ज्ञान एकत्रित करें, हर समय चौकन्ने रह कर हर तथ्य के पीछे जाएं. आगे आने वाले सालों की तैयारी करें.

इन दिनों हरेक को मित्र बनाएं. मातापिता, दादादादी, चाचाचाची, पड़ोसियों को अपना बनाएं. मुंह छिपा कर न बैठें, पढ़ाई के साथ जीवनभर की लाइनें खींचें, जिन के आधार पर जीवनभर खुशनुमा यादें रहें. प्रकृति का बसंत माह 2 माह का होता है, जीवन का बसंत 3-4 वर्ष का होता है पर दोनों का असर एकजैसा है.

ये साल गाने, गुनगुनाने, दुनिया देखने, जोखिम लेने के हैं. इन्हें हाथ से फिसलने न दें. इन्हें संभाल कर इस्तेमाल करें, क्योंकि फिर न लौटेंगे ये दिन.

भारत में लोकतंत्र का राजतंत्रीकरण करते नेता

अगले महीने होने वाले विधानसभा चुनावों में एक बात साफ हो रही है कि राजनीति अब पुश्तैनी पेशा बन गया है. जो भी एक बार राजनीति में सफल हो जाए वह अपने बच्चों को अन्य व्यवसायों में भेजने के बजाय राजनीति में भेजना पसंद करता है. गांधी व सिंधिया परिवार, मुलायम सिंह यादव, एम करुणानिधि, लालू प्रसाद यादव, प्रकाश सिंह बादल, देवीलाल, हेमवतीनंदन बहुगुणा, बाल ठाकरे आदि के उदाहरण भरे पड़े हैं. विदेशों में भी ऐसा ही कुछ होता है और क्यूबा, उत्तर कोरिया, सिंगापुर इस के उदाहरण हैं. यह लोकतंत्र का असल में राजतंत्रीकरण करना है.

नेताओं के बच्चों को बहुत जल्दी समझ आ जाता है कि राजनीति में भले ही उतारचढ़ाव हों, पर कैरियर सुरक्षित रहता है, नेता हार कर भी नेता बना रहता है. कैरियर यदि खराब होता है तो किसी कांड में फंसने से होता है, पर कैट हैज नाइन लाइव्स की तरह राजनीति नेताओं के बच्चों को मरने नहीं देती और छोटेमोटे पद, ट्रस्टों की दादागीरी, बैंकों की चैयरमैनशिप मिलती ही रहती है.

राहुल गांधी और अखिलेश यादव ने हाथ मिला कर अपने पुरखों के दुश्मन से इंदिरासोनिया गांधी व मुलायम सिंह यादव की लड़ाई को भुला कर इस बार चुनावों में साथ कैरियर बनाने की कोशिश की है. कांग्रेस की अब खासीयत है कि वह जिस पार्टी के साथ छोटी पार्टनर बनती है, वह जीत जाती है चाहे कांग्रेस खुद अकेले न जीत पाए.

राजनीति कैरियर के रूप में बुरा क्षेत्र नहीं है. इसे सत्तालोलुपता  कहना गलत होगा. यह तो एक तरह से सेवा है, जिस की कीमत मिलती है.

सरकार चलाना किसी भी तरह से मुफ्त में नहीं हो सकता. कोई भी बिना पैसे लिए जनता के लिए काम नहीं करेगा. जनता के लिए अगर समाजसेवी संस्था चलाओ तो भी संचालक से चपरासी तक को वेतन तो देना ही होगा.

ऐसे ही हर नेता को अच्छाखासा पैसा चाहिए ताकि आफत के दिनों में उसे याचक बन कर दरदर न भटकना पड़े. जो युवा राजनीति को खराब समझते हैं, उन्हें सबक सीखना चाहिए कि रोहित वेमुला और कन्हैया जैसों की भी जरूरत है तो अखिलेश यादव व स्टालिन की भी.

यह नहीं भूलना चाहिए कि यह कैरियर एक एमबीए पास के कैरियर से भी मुश्किल है. इस में बुद्धि और शारीरिक बल दोनों चाहिए. सैकड़ों लोगों से मिलना, उन के नाम याद रखना, समस्याओं की जड़ों में जाना झगड़ेफसाद या खर्च, वाकपटु होना, भाषण देने की कला आना सब जरूरी है और जो यह नहीं कर सकता वह पीछे रह जाता है. यह कैरियर नेता पुत्रों के लिए तो अच्छा है ही, अन्य लोगों के लिए भी बुरा नहीं. सही नेता ही समाज को नई दिशा देते हैं. कभी सरकार को मनमानी करने से रोकते हैं तो कभी सरकार चलाते हैं.

भारतीय सेना के जवानों को मिले सही माहौल

देश सेवा और सुरक्षा में लगे एक सैनिक के फेसबुक पर आए वीडियो, जिस में उस ने अपने खानेपीने और रहनसहन की पोल खोल डाली है, से हड़कंप मच गया है. अभी कुछ दिन पहले सैनिकों का नाम ले कर देशसेवा की दुहाई देने वाली सरकार को सांप सूंघ गया है कि वह अपने उन जवानों के साथ कैसा व्यवहार करती है, जिन के नाम पर वह नोटबंदी की कतारों में खड़े लोगों को दुत्कार रही थी.

देश की सेना के साथ दुर्व्यवहार की शिकायतें अकसर आती रहती हैं और बहुत जवान खुद को गोली मार कर आत्महत्या कर लेते हैं, क्योंकि उन के अफसर उन्हें सही सुविधाएं नहीं देते. जब भी भरती होती है, भरती केंद्रों पर हजारों की भीड़ उमड़ जाती है, क्योंकि सेना की नौकरी आज भी सुरक्षित व कमाऊ मानी जाती है. सेना में अनुशासन और कड़ी मेहनत होती है पर जवान उसे सहने को तैयार हैं पर इस का मतलब यह नहीं कि उन के साथ मनमाना व्यवहार किया जाए.

हमारे यहां युवाओं को खासतौर पर गांवों के युवाओं को हर जगह हांका जाता है. उसी का नतीजा है कि या वे आधीअधूरी पढ़ाई कर पाते हैं या फिर बेकाबू और उद्दंड बन जाते हैं. सेना में जाने पर भी उन में वह सोच और बैलेंस नहीं पैदा होता जो युवाओं में होना चाहिए. उन के जोश और कुछ करने की इच्छा को दफन कर दिया जाता है.

सेना में सारा खेल युवाओं का होता है. उन्हीं के बल पर सेनाएं चौकन्नी रहती हैं. उबाऊ दिन और डरावनी रातों में यदि गुस्सा रहे तो सैनिकों का मानसिक बैलेंस बिगड़ ही जाएगा. उन्हें सुविधाएं न दो पर जीने का साधन तो देना ही होगा. हमारे यहां का निकम्मापन सेना में भी घुसा पड़ा है जो इस बीएसएफ के जवान ने फेसबुक पर  पोस्ट किया गया है. ऐसी नौबत आना ही गलत है और चाहे सेना हो, सरकारी या प्राइवेट नौकरियां हों, जवानों को सही माहौल मिले यह जरूरी है.

देश की तरक्की के लिए जरूरी है कि युवावर्ग शांत रहे और अपनी शक्ति गुस्सा प्रकट करने में नहीं, क्रिएटिविटी दिखाने में लगाए. यदि लोग युवाओं को अनुशासन के नाम पर दबाएंगे तो देश में कुछ नया नहीं होगा, कुछ प्रगति नहीं होगी.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें