उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोआ और मणिपुर की विधानसभाओं के चुनावों में प्रधानमंत्री व भारतीय जनता पार्टी के नेता नरेंद्र मोदी की परीक्षा होनी है. क्या वे गोआ व पंजाब में अपनी सरकारें बचाए रख पाते हैं और उत्तराखंड व उत्तर प्रदेश में 2014 का वोट प्रतिशत स्थिर रख पाते हैं? ये चुनाव देश को चाहे न नई दिशा दें, न कोई बदलाव कराएं, 11 मार्च तक सुर्खियों में बने जरूर रहेंगे.

चुनावों से लोकतंत्र मजबूत होता है, यह कहना अब मुश्किल होता जा रहा है. पिछले कुछ चुनावों से साफ दिख रहा है कि नेताओं के भाषणों से न विकास बढ़ता है, न समस्याएं दूर होती हैं. जो दल जाति के नाम पर वोट हासिल करते हैं वे उन वोटरों तक के लिए भी अगले 4-5 साल कुछ नहीं कर पाते. उन का सारा समय अफसरों को इधर से उधर करने और आपसी जूतमपैजार में बीत जाता है.

नरेंद्र मोदी ने 14 मई, 2014 से पहले चुनावप्रचार के दौरान बड़े सब्जबाग दिखाए थे पर 2016 के अंत में हिटलरी और स्टालिनी युग की याद दिलाते हुए उन्होंने एक मूर्खतापूर्ण, तुगलकी फैसले से लोगों को कतारों में खड़ा कर दिया. आज भी जनता का लाखोंकरोड़ रुपया बैंकों के खातों में बंद है जिस पर सरकार विषैले सांप की तरह कुंडली मारे बैठी है और कहती है कि पहले हिसाब लाओ, फिर अपना पैसा ले जाओ, पहले उस का मनमाना लगाया टैक्स भरो, फिर अपना पैसा मांगो.

ऐसा नहीं कि सिर्फ अमीर आदमी इस कष्ट को भोग रहे हैं, इन 5 राज्यों की जनता भी वही कष्ट भोग रही है और वह सरकार के आगे असहाय है, कुछ कर नहीं सकती. डा. भीमराव अंबेडकर ने अपनी पुस्तक ‘एनीहिलेशन औफ कास्ट’ में सही कहा था कि हिंदू लोग नाटे और बौने हैं और उन में स्टेमिना है ही नहीं. उन के अनुसार, इस देश की 90 प्रतिशत जनसंख्या सेना के लिए बेकार है. ऐसा देश वोट के सहारे भी अपने हितों की नहीं सोच सकता क्योंकि उसे तो दूसरों के झूठे वादों पर जीने की आदत पड़ गई है.

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