‘नोटा’ के प्रचार में लखनऊ के कारोबारी

अगर आपको अपने चुनाव क्षेत्र का कोई प्रत्याशी पसंद नहीं है, तो आप ‘नोटा’ का बटन दबा सकते हैं. चुनाव सुधार के तहत वोटर को यह अधिकार मिल गया है. यह बात अलग है कि वोटर के इस अधिकार का कोई प्रचार नहीं कर रहा है. राजनीतिक दल और चुनाव लड़ रहे प्रत्याशी तो इसका प्रचार कर ही नहीं सकते. चुनाव आयोग भी इसका व्यापक ढंग से प्रचार नहीं कर रहा है. यही कारण है कि जिन लोगों को चुनाव से कोई लाभ नहीं दिख रहा वह वोट डालने घर से नहीं निकल रहे. चुनाव आयोग द्वारा वोट डालने के प्रचार में लाखों करोडों खर्च करने के बाद भी शतप्रतिशत मतदान दूर की कौडी है. चुनाव सुधारों के लिये काम कर रहे लोकतांत्रिक मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष प्रताप चन्द्रा कहते हैं ‘चुनाव आयोग को नोटा का प्रचार करना चाहिये. जिससे राजनीतिक दलों से नाराज लोग वोट देने के अपने विकल्प को जान सके.’

चुनाव आयोग भले ही नोटा का प्रचार न कर रहा हो, पर लखनऊ में कुछ कारोबारी ‘नोटा’ के प्रचार के लिये पूरे शहर में होर्डिंग लगा रहे हैं. यह कारोबारी ज्यादातर लखनऊ के अमीनाबाद बाजार के रहने वाले हैं. कारोबारियों को शिकायत है कि चुनाव के समय सभी दल इस बात के लिये तैयार हो जाते हैं कि चुनाव के बाद अमीनाबाद बाजार में सुधार करेंगे. चुनाव जीतने के बाद कोई इस दिशा में काम नहीं करता है. इससे परेशान कारोबारी अब चुनाव में ‘नोटा’ का प्रचार कर रहे हैं. यह लोग अपने स्तर से भी प्रचार कर रहे हैं और होर्डिंग लगाकर पूरे शहर को भी जागरुक कर रहे हैं.

चुनाव का बहिष्कार पहले भी बहुत सारे चुनाव क्षेत्रों में होता रहा है. ज्यादातर ग्रामीण इलाकों में इस तरह के कदम लोग गुस्से में आकर उठाते रहे हैं. कई जगहों में वोट मांगने वालों को वापस जाने को कहा जाता है. बैनर पोस्टर लगाने से खबरे छप जाती हैं तो प्रशासन कुछ इस क्षेत्र का ख्याल रख लेता है. प्रदेश की राजधानी के अंदर पहली बार इस तरह का प्रचार ‘नोटा’ को लेकर किया जा रहा है. चुनाव आयोग के मुताबिक अगर किसी क्षेत्र में 50 फीसदी वोटर ‘नोटा’ का बटन दबा देंगे तो इलाके का चुनाव रद्द हो जायेगा.

प्रताप चन्द्रा कहते हैं ‘अगर जनता को लोकतंत्र और चुनाव प्रक्रिया से जोडे रखना है तो कई सुधार करने की जरूरत है. नोटबंदी का असर चुनाव पर नहीं दिख रहा है. सभी दल पहले की ही तरह जोरशोर से खर्च कर रहे हैं. इससे यह बात साफ हो गई कि नोटबंदी की पाबंदी केवल जनता के लिये थी, राजनीतिक दलों पर इसका असर नहीं पडा. आज भी चुनाव जीतना गरीब आदमी के बस की बात नहीं है. चुनाव में हर कोई बराबरी से तभी चुनाव लड़ पायेगा जब वोट डालने के लिये ईवीएम मशीन पर केवल प्रत्याशी का नाम दर्ज हो. किसी पार्टी का चुनाव चिन्ह न हो. निर्दलीय को एक सप्ताह पहले सिंबल दिया जाता है और पार्टी के प्रत्याशी के पास पहले से चुनाव चिन्ह होता है. ऐसे में चुनाव मैदान में मुकाबला बराबरी का नहीं होता. यही कारण है कि प्रत्याशी काम न करके दलों से किसी भी तरह टिकट हासिल करने के प्रयास में रहता है.’

विधानसभा चुनाव में भी नरेंद्र मोदी नाम

उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में भाजपा के चुनाव प्रचार देखकर ऐसा लगता है जैसे यह लोकसभा के चुनाव हों. भाजपा पूरी तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर वोट मांग रही है. खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस तरह से अपने भाषण दे रहे हैं जैसे वह खुद मुख्यमंत्री पद के दावेदार हों. भाजपा के स्टार प्रचारकों के नामों वाली सूची में वैसे तो बहुत सारे नाम हैं पर सबसे अहम नाम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह का है. इनके प्रभाव के सामने उत्तर प्रदेश के भाजपा नेता फकत तमाशाई नजर आ रहे हैं. विधानसभा चुनावों में राष्ट्रीय स्तर के नेताओं के बढ़ते महत्व ने प्रदेश स्तर के नेताओं को हाशिये पर ढकेल दिया है.

खुद प्रधानमंत्री मोदी भी अपने बयानों से यही जाहिर कर रहे हैं कि विधानसभा चुनावों के बाद उत्तर प्रदेश के विकास की जिम्मेदारी उनकी अपनी है. राजधानी लखनऊ से लगे बाराबंकी जिले में चुनाव प्रचार करते प्रधानमंत्री मोदी ने कहा ‘मैं उत्तर प्रदेश का गोद लिया बेटा हूं. यह गोद लिया बेटा मां बाप को छोड़ेगा नहीं. जो खुद का बेटा नहीं कर पाया वह गोद लिया बेटा कर दिखायेगा.’ प्रधानमंत्री के बयान से साफ है कि उत्तर प्रदेश में जो भी नेता मुख्यमंत्री बनेगा वह नाम का होगा. असल राज नरेन्द्र मोदी ही करेंगे.

विरोधी नेता प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी के बयान को अपने अंदाज में पेश कर रहे हैं. बसपा नेता मायावती कहती हैं ‘गोद लिया बेटा बताना मोदी का नाटक है. लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश ने सबसे अधिक सीटें भाजपा को दी थी. लोकसभा चुनावों के बाद उत्तर प्रदेश को क्या मिला? मोदी ने लोकसभा चुनाव में किया अपना कौन सा वादा निभाया? यह उत्तर प्रदेश की जनता देख रही है. लोकसभा चुनाव की ही तरह मोदी विधानसभा चुनाव में भी वादा कर रहे हैं. प्रदेश के लोग अब इस झांसे में आने वाले नहीं है.’

सपा नेता और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने मोदी के बयानों का जवाब देते कहा कि मोदी जी केवल अचछा बोलते हैं. अच्छे दिन लाने का वादा करके लोकसभा में वोट हासिल किया और फिर अच्छे दिन के नाम पर लोगों को लाइन में लगाने का काम किया. विधानसभा चुनाव में लोकसभा वाला झांसा नहीं चलेगा. यह चालू पार्टी के लोग हैं झूठ बोल कर वोट लेने में महिर हैं. अब इनकी पोल खुल चुकी है.

राजनीतिक समीक्षक योगेश श्रीवास्तव कहते हैं ‘विधानसभा चुनाव में इसके पहले किसी प्रधानमंत्री ने इतना अधिक व्यापक प्रचार नहीं किया है. इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि भाजपा ने विधानसभा चुनावों में किसी नेता को अपना चुनावी चेहरा नहीं बनाया. अब विधानसभा चुनावों की सबसे बड़ी जिम्मेदारी मोदी-शाह की जोड़ी पर है. उत्तर प्रदेश का न होने के बाद भी दोनों ही नेता उत्तर प्रदेश की बोली में भाषण कर जनता का दिल जीतने की कोशिश में रहते हैं. कांग्रेस-सपा गठबंधन पर ही उनका सबसे बड़ा हमला हो रहा है. बसपा पर भाजपा के यह नेता सीधे हमले से बच रहे है. इससे यह लगता है कि चुनाव के बाद के लिये भाजपा बसपा के साथ तालमेल का रास्ता खुला रखना चाहती है. बसपा इस बात से बचना चाहती है इसीलिये प्रधानमंत्री के बयान की पहली आलोचना मायावती की तरफ से आती है. बसपा को यह डर है कि भाजपा के साथ पुराने रिश्तो के चलते मुसलिम मतदाता बसपा से दूरी न बना ले.’

राज्यों में चुनाव और नरेंद्र मोदी की परीक्षा

उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोआ और मणिपुर की विधानसभाओं के चुनावों में प्रधानमंत्री व भारतीय जनता पार्टी के नेता नरेंद्र मोदी की परीक्षा होनी है. क्या वे गोआ व पंजाब में अपनी सरकारें बचाए रख पाते हैं और उत्तराखंड व उत्तर प्रदेश में 2014 का वोट प्रतिशत स्थिर रख पाते हैं? ये चुनाव देश को चाहे न नई दिशा दें, न कोई बदलाव कराएं, 11 मार्च तक सुर्खियों में बने जरूर रहेंगे.

चुनावों से लोकतंत्र मजबूत होता है, यह कहना अब मुश्किल होता जा रहा है. पिछले कुछ चुनावों से साफ दिख रहा है कि नेताओं के भाषणों से न विकास बढ़ता है, न समस्याएं दूर होती हैं. जो दल जाति के नाम पर वोट हासिल करते हैं वे उन वोटरों तक के लिए भी अगले 4-5 साल कुछ नहीं कर पाते. उन का सारा समय अफसरों को इधर से उधर करने और आपसी जूतमपैजार में बीत जाता है.

नरेंद्र मोदी ने 14 मई, 2014 से पहले चुनावप्रचार के दौरान बड़े सब्जबाग दिखाए थे पर 2016 के अंत में हिटलरी और स्टालिनी युग की याद दिलाते हुए उन्होंने एक मूर्खतापूर्ण, तुगलकी फैसले से लोगों को कतारों में खड़ा कर दिया. आज भी जनता का लाखोंकरोड़ रुपया बैंकों के खातों में बंद है जिस पर सरकार विषैले सांप की तरह कुंडली मारे बैठी है और कहती है कि पहले हिसाब लाओ, फिर अपना पैसा ले जाओ, पहले उस का मनमाना लगाया टैक्स भरो, फिर अपना पैसा मांगो.

ऐसा नहीं कि सिर्फ अमीर आदमी इस कष्ट को भोग रहे हैं, इन 5 राज्यों की जनता भी वही कष्ट भोग रही है और वह सरकार के आगे असहाय है, कुछ कर नहीं सकती. डा. भीमराव अंबेडकर ने अपनी पुस्तक ‘एनीहिलेशन औफ कास्ट’ में सही कहा था कि हिंदू लोग नाटे और बौने हैं और उन में स्टेमिना है ही नहीं. उन के अनुसार, इस देश की 90 प्रतिशत जनसंख्या सेना के लिए बेकार है. ऐसा देश वोट के सहारे भी अपने हितों की नहीं सोच सकता क्योंकि उसे तो दूसरों के झूठे वादों पर जीने की आदत पड़ गई है.

इन 5 राज्यों के चुनावों में जो होने वाला है, दिख रहा है. भारतीय जनता पार्टी तो कोई वादा ही नहीं कर रही है. वह तो 10 पाकिस्तानियों को मार डालने और नोटबंदी पर मैडल मांग रही है. उसे मैडल मिल भी सकता है क्योंकि ‘पांय लागूं महाराज’ कहने वाले वोटरों की कमी नहीं. यह पांय लागूं संस्कृति अब बहुजन समाज पार्टी में भी है, समाजवादी पार्टी में भी और आम आदमी पार्टी में भी. जहां कम है, वहां कहा जाता है कि अनुशासन नहीं.

पांय लागूं संस्कृति की देन वाला वोटर अपने हितों के लिए ही मतदान करेगा, इस की आशा नहीं है. वह तो हां में हां मिलाएगा और जो उसे सब से ज्यादा आशीर्वाद देगा, उसे वोट देगा.

इन राज्य चुनावों में परीक्षा तो मतदाताओं की होनी है कि वे लोकतंत्र के हकदारों को चुनते हैं या नहीं. क्या वे राज्यों में निरंकुश, आपस में लड़ती, जिद्दी, दिशाहीन सरकारों को चुन कर नाचेंगे, गुलालअबीर बिखेरेंगे? ये चुनाव देश के इतिहास पर एक और काला धब्बा होंगे. इस तरह के परिणामों का असर तुरंत पता नहीं चलता क्योंकि जब पूरी दीवार पीक के धब्बों से भरी हो तो एक और दाग कहां दिखता है.

 

गा लो मुसकरा लो…बसंत का मौसम आया

बसंत का मौसम रंगीन फूलों और खिली धूप का होता है और जब शरीर पर बसंती रंग चढ़ता है तो फिर वही आभा खिलती है जो प्रकृति में खिलती है. बसंती बदन पर हजारों कवियों ने वैसा ही लिखा है जैसा बसंती प्रकृति पर लिखा है. दोनों ही खुशनुमा होते हैं. नई आभा देते हैं, एक खुशबू देते हैं और भविष्य के लिए चमचमाहट का रास्ता बनाते हैं.

ये दिन बारबार नहीं आते. हर किशोर के बसंती साल दोचार ही होते हैं. फिर जिम्मेदारियों और स्पर्धा का काल शुरू हो जाता है. इन दिनों में अपनी खुशबू फैलाएं और रंगों को बिखेरें. यह हर किशोर का ध्येय होना चाहिए.

यह खुशबू बहुत कीमती होती है. इसी का इंतजार पूरे वर्ष रहता है. जब चारों ओर एक सुखद माहौल छाया रहता है. इसी तरह की खुशबू हर व्यक्ति के जीवन में केवल एक बार किशोरावस्था के आसपास आती है और कोई उसे छोड़े तो उस की गलतफहमी दूर करनी चाहिए.

बहुत बसंती किशोर कलपने लगते हैं कि उन के पास यह नहीं है, वह नहीं है. कोई अपने शरीर से परेशान रहता है, कोई कपड़ों से, कोई गैजेट्स से तो कोई जेबखर्च से, पर अगर इन को दिल पर हावी न होने दें तो यह कीमती समय सालों तक याद रह सकता है. इन दिनों की दोस्ती निश्छल होती है और बारबार जीवन में महक लाती है. इन दिनों का सुखद काम आप के भविष्य को बनाता है. इन दिनों का ज्ञान भविष्य का रास्ता बनाता है. जैसे इन दिनों पौधे अपने फूलों के बीज चारों ओर बिखरते हैं वैसे ही इन दिनों का काम चारों ओर याद रहता है.

जीवन को सजानेसंवारने के लिए बहुतकुछ करना पड़ता है. इस के लिए कड़ी मेहनत की जरूरत होती है. जैसे माली बसंत की तैयारी पहले से करते हैं वैसे ही हर किशोर को इन सालों को महकता और फलताफूलता देखने के लिए पहले से ही तैयारी करनी चाहिए और किशोरावस्था में भी इस का यत्न करना चाहिए. इन सालों में कैरियर बनाने के प्लान तैयार करें, खूब ज्ञान एकत्रित करें, हर समय चौकन्ने रह कर हर तथ्य के पीछे जाएं. आगे आने वाले सालों की तैयारी करें.

इन दिनों हरेक को मित्र बनाएं. मातापिता, दादादादी, चाचाचाची, पड़ोसियों को अपना बनाएं. मुंह छिपा कर न बैठें, पढ़ाई के साथ जीवनभर की लाइनें खींचें, जिन के आधार पर जीवनभर खुशनुमा यादें रहें. प्रकृति का बसंत माह 2 माह का होता है, जीवन का बसंत 3-4 वर्ष का होता है पर दोनों का असर एकजैसा है.

ये साल गाने, गुनगुनाने, दुनिया देखने, जोखिम लेने के हैं. इन्हें हाथ से फिसलने न दें. इन्हें संभाल कर इस्तेमाल करें, क्योंकि फिर न लौटेंगे ये दिन.

भारत में लोकतंत्र का राजतंत्रीकरण करते नेता

अगले महीने होने वाले विधानसभा चुनावों में एक बात साफ हो रही है कि राजनीति अब पुश्तैनी पेशा बन गया है. जो भी एक बार राजनीति में सफल हो जाए वह अपने बच्चों को अन्य व्यवसायों में भेजने के बजाय राजनीति में भेजना पसंद करता है. गांधी व सिंधिया परिवार, मुलायम सिंह यादव, एम करुणानिधि, लालू प्रसाद यादव, प्रकाश सिंह बादल, देवीलाल, हेमवतीनंदन बहुगुणा, बाल ठाकरे आदि के उदाहरण भरे पड़े हैं. विदेशों में भी ऐसा ही कुछ होता है और क्यूबा, उत्तर कोरिया, सिंगापुर इस के उदाहरण हैं. यह लोकतंत्र का असल में राजतंत्रीकरण करना है.

नेताओं के बच्चों को बहुत जल्दी समझ आ जाता है कि राजनीति में भले ही उतारचढ़ाव हों, पर कैरियर सुरक्षित रहता है, नेता हार कर भी नेता बना रहता है. कैरियर यदि खराब होता है तो किसी कांड में फंसने से होता है, पर कैट हैज नाइन लाइव्स की तरह राजनीति नेताओं के बच्चों को मरने नहीं देती और छोटेमोटे पद, ट्रस्टों की दादागीरी, बैंकों की चैयरमैनशिप मिलती ही रहती है.

राहुल गांधी और अखिलेश यादव ने हाथ मिला कर अपने पुरखों के दुश्मन से इंदिरासोनिया गांधी व मुलायम सिंह यादव की लड़ाई को भुला कर इस बार चुनावों में साथ कैरियर बनाने की कोशिश की है. कांग्रेस की अब खासीयत है कि वह जिस पार्टी के साथ छोटी पार्टनर बनती है, वह जीत जाती है चाहे कांग्रेस खुद अकेले न जीत पाए.

राजनीति कैरियर के रूप में बुरा क्षेत्र नहीं है. इसे सत्तालोलुपता  कहना गलत होगा. यह तो एक तरह से सेवा है, जिस की कीमत मिलती है.

सरकार चलाना किसी भी तरह से मुफ्त में नहीं हो सकता. कोई भी बिना पैसे लिए जनता के लिए काम नहीं करेगा. जनता के लिए अगर समाजसेवी संस्था चलाओ तो भी संचालक से चपरासी तक को वेतन तो देना ही होगा.

ऐसे ही हर नेता को अच्छाखासा पैसा चाहिए ताकि आफत के दिनों में उसे याचक बन कर दरदर न भटकना पड़े. जो युवा राजनीति को खराब समझते हैं, उन्हें सबक सीखना चाहिए कि रोहित वेमुला और कन्हैया जैसों की भी जरूरत है तो अखिलेश यादव व स्टालिन की भी.

यह नहीं भूलना चाहिए कि यह कैरियर एक एमबीए पास के कैरियर से भी मुश्किल है. इस में बुद्धि और शारीरिक बल दोनों चाहिए. सैकड़ों लोगों से मिलना, उन के नाम याद रखना, समस्याओं की जड़ों में जाना झगड़ेफसाद या खर्च, वाकपटु होना, भाषण देने की कला आना सब जरूरी है और जो यह नहीं कर सकता वह पीछे रह जाता है. यह कैरियर नेता पुत्रों के लिए तो अच्छा है ही, अन्य लोगों के लिए भी बुरा नहीं. सही नेता ही समाज को नई दिशा देते हैं. कभी सरकार को मनमानी करने से रोकते हैं तो कभी सरकार चलाते हैं.

भारतीय सेना के जवानों को मिले सही माहौल

देश सेवा और सुरक्षा में लगे एक सैनिक के फेसबुक पर आए वीडियो, जिस में उस ने अपने खानेपीने और रहनसहन की पोल खोल डाली है, से हड़कंप मच गया है. अभी कुछ दिन पहले सैनिकों का नाम ले कर देशसेवा की दुहाई देने वाली सरकार को सांप सूंघ गया है कि वह अपने उन जवानों के साथ कैसा व्यवहार करती है, जिन के नाम पर वह नोटबंदी की कतारों में खड़े लोगों को दुत्कार रही थी.

देश की सेना के साथ दुर्व्यवहार की शिकायतें अकसर आती रहती हैं और बहुत जवान खुद को गोली मार कर आत्महत्या कर लेते हैं, क्योंकि उन के अफसर उन्हें सही सुविधाएं नहीं देते. जब भी भरती होती है, भरती केंद्रों पर हजारों की भीड़ उमड़ जाती है, क्योंकि सेना की नौकरी आज भी सुरक्षित व कमाऊ मानी जाती है. सेना में अनुशासन और कड़ी मेहनत होती है पर जवान उसे सहने को तैयार हैं पर इस का मतलब यह नहीं कि उन के साथ मनमाना व्यवहार किया जाए.

हमारे यहां युवाओं को खासतौर पर गांवों के युवाओं को हर जगह हांका जाता है. उसी का नतीजा है कि या वे आधीअधूरी पढ़ाई कर पाते हैं या फिर बेकाबू और उद्दंड बन जाते हैं. सेना में जाने पर भी उन में वह सोच और बैलेंस नहीं पैदा होता जो युवाओं में होना चाहिए. उन के जोश और कुछ करने की इच्छा को दफन कर दिया जाता है.

सेना में सारा खेल युवाओं का होता है. उन्हीं के बल पर सेनाएं चौकन्नी रहती हैं. उबाऊ दिन और डरावनी रातों में यदि गुस्सा रहे तो सैनिकों का मानसिक बैलेंस बिगड़ ही जाएगा. उन्हें सुविधाएं न दो पर जीने का साधन तो देना ही होगा. हमारे यहां का निकम्मापन सेना में भी घुसा पड़ा है जो इस बीएसएफ के जवान ने फेसबुक पर  पोस्ट किया गया है. ऐसी नौबत आना ही गलत है और चाहे सेना हो, सरकारी या प्राइवेट नौकरियां हों, जवानों को सही माहौल मिले यह जरूरी है.

देश की तरक्की के लिए जरूरी है कि युवावर्ग शांत रहे और अपनी शक्ति गुस्सा प्रकट करने में नहीं, क्रिएटिविटी दिखाने में लगाए. यदि लोग युवाओं को अनुशासन के नाम पर दबाएंगे तो देश में कुछ नया नहीं होगा, कुछ प्रगति नहीं होगी.

दायित्व और देशभक्ति को इस तरह समझिए

यह विडंबना है कि हमारे देश में सीमाओं पर लड़ने वाली सेना टैंकों, राइफलों, लड़ाकू हवाईजहाज और अपने ही रहने के कैंटों, जो देशभर में फैले हैं, में अतिक्रमण की शिकार हैं. सुप्रीम कोर्ट ने हाल में एक फैसले में यह तो कह दिया कि गैरकानूनी रूप से रह रहे बाशिंदों को कैंट वार्डों के चुनावों में वोट देने का हक नहीं है पर उस ने उन्हें हटाने का कोई आदेश नहीं दिया.

सेना के पास लगभग 17 लाख एकड़ जमीन देश के 62 कैंटों में है और करीब 15 लाख एकड़ कैंटों से बाहर है पर इस पर कितनों ने, कब से कब्जा कर रखा है, इस का कोई हिसाब सेना के पास नहीं है.

यह ठीक है कि देश में सेना की जमीन पर अतिक्रमण करने वाले दुश्मन तो नहीं हैं पर फिर भी गैरकानूनी काम तो कर रहे हैं और वह भी सेना की नाक के नीचे. जो लोग सैनिकों की दुहाई देते हुए देशभक्ति के पैरोकार बने रहते हैं उन्हें क्या इस भयंकर अपराध का अंदाजा नहीं है?

27 सितंबर, 2016 को दिए गए निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने कहा भी कि अधिकारियों को तुरंत इन अवैध कब्जाइयों को हटाना चाहिए पर ऐसा हो नहीं पाएगा.

अभिव्यक्ति पर पहरा और भगवा सरकार

राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भगवा सरकार को अपरोक्ष रूप से चेताया है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में अंगरेजी में कहे जाने वाले शब्द  ‘डाउट, डिसएग्री और डिस्प्यूट’ भी शामिल हैं. भगवा ब्रिगेड कुछ दिनों से इस बात को सिद्ध करने में लगी है कि किसी को भी धर्म, धर्मग्रंथों, धर्म के विचारों, धर्म से जुड़े देवीदेवताओं के बारे कोई संदेह, भिन्न मत प्रकट करने और विरोध करने का हक नहीं है. देशभर में छोटेछोटे गुट, हिंदू धर्म की सनातन परंपरा की रक्षा के नाम पर, विचारों की अभिव्यक्ति पर तरहतरह से आक्रमण करते रहते हैं.

यह कोई नई बात नहीं है. हर सरकार व संस्था चाहती है कि उस की सत्ता पर कोई रोकटोक न लगे, कोई उस की पोल न खोले. धर्मों ने तो सदियों तक मुंह बंद कर ही सत्तासुख भोगा था और ईशनिंदा को मृत्युदंड के लायक बना दिया. राजाओं, जमींदारों, सेठों ने भी अपने खिलाफ आवाज उठाने वाले को दंड दिया.

अभी हाल में नोटबंदी पर रिजर्व बैंक औफ इंडिया ने स्पष्ट कर दिया कि इस के कारण बताना जनहित में न होगा. गनीमत यही है कि सरकार ने नोटबंदी के विरोध को पुराने नोटों को रखने की तरह अपराध नहीं माना है.

जो है, जैसा है, वैसा मान लो की परंपरा ने ही मानव समाज को ज्यादा उन्नति करने से रोका है. जबजब समाज में खुली सोच की छूट मिली है, उन्नति हुई है. ग्रीस और रोमन साम्राज्य बने ही इसलिए थे कि उन्होंने असहमति को स्वीकारा था. मार्टिन लूथर द्वारा पोप का भंडाफोड़ करने की आजादी हासिल कर पाने के कारण यूरोप में वैचारिक क्रांति हुई जिस के कारण भरपूर विकास हुआ. भारत में विचारों की स्वतंत्रता रही पर वह जातिगत व्यवस्था के दायरे में रही और उसे तोड़ने में यह स्वतंत्रता कभी भी सफल नहीं हुई और इसीलिए पर्याप्त प्राकृतिक साधनों के बावजूद भारत बिखरा व पिछड़ा रहा.

आज देश के नागरिकों के पास संवैधानिक अधिकार हैं पर देशवासी उन्हें मानने को तैयार नहीं. अधिकांश लोग अपनी खरीखरी बात कहने से नहीं,

बल्कि सही विचार सुनने व पढ़ने से भी कतराते हैं. प्रणब मुखर्जी ने विचारों की अभिव्यक्ति में जिस डाउट यानी संदेह की बात की है वह तो यहां न के बराबर है. आप विष्णु, राम, कृष्ण, मोहम्मद, ईसा के चरित्र के बारे में कुछ कहने का प्रयास तो करें. आप को, बिना सत्य परखे, अपराधी घोषित कर दिया जाएगा.

आप सरकारी, धार्मिक, सामाजिक मान्यताओं से असहमति प्रकट नहीं कर सकते. अगर करते हैं तो आप को तुरंत अलगथलग कर दिया जाएगा. आप योग और आयुर्वेद को नाटक कह कर देखिए, कौओं के झुंड सिर पर मंडराने लगेंगे.

आप सरकार, धार्मिक संस्थाओं, बैंकों, बड़ी कंपनियों से कोई विवाद नहीं कर सकते. वे बड़ेबड़े वकील लगा कर वर्षों तक आप को उलझाए रख, थका डालेंगे. हमारी सरकारें, समाज, धर्मसंस्थाएं, बैंक, कंपनियां, पार्टियां चाटुकारों को पसंद करती हैं. जो जय बोले, वही जीतता है.

समाजवादी पार्टी में अहंकार सर्वोपरि

उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के पारिवारिक विवाद में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव अपने पिता मुलायम सिंह यादव से जीतें या नहीं, पर यह पक्का है कि समाजवादी पार्टी अंदर से खोखली हो गई है. एक व्यक्ति या परिवार पर चलने वाली राजनीतिक पार्टियों के साथ ऐसा होना स्वाभाविक ही है. जब व्यक्ति कमजोर हो या परिवार में विवाद हो तो मामला नीतियों का नहीं, अहं व स्वार्थों का शुरू हो जाता है.

राजनीति आजकल एक व्यवसाय की तरह है, यह अपनेआप में पूर्ण सत्य है. उस का सेवा से बहुत कम लेनादेना है. यह संभव है कि जब नेता राजनीति में कूदा था तो उस के मन में जनसेवा का कोई भाव रहा हो और वह जनता को बेहतर जीवन देने की सोच रहा हो पर शीघ्र ही उसे समझ आ जाती है कि जनसेवा के लिए न केवल सरकार, समाज, धर्म, व्यापार, कौर्पाेरेटों से लड़ना होता है, अपने साथियों से भी लड़ना होता है.

आपसी संघर्ष आमतौर पर ज्यादा गंभीर व हानिकारक होते हैं. सत्ताधारी चाहे जितनी कोशिश कर लें, वे जनता की समस्याओं को पूरी तरह नकार नहीं सकते और उन के लिए खड़े व्यक्ति को पूरी तरह हमेशा के लिए दबा भी नहीं सकते. पर जब यही संघर्ष अपने साथियों या परिवार से हो तो संकट ज्यादा गंभीर होता है खासतौर पर जब मतभेद नीतियों को न ले कर मात्र अहं या किस की चलेगी को ले कर हो.

समाजवादी पार्टी का वर्तमान संकट परिवार में किस की चलेगी को ले कर है और यह पारिवारिक सासबहू, जेठजेठानियों जैसा है कि रसोई किस के इशारे पर चलेगी और घर की रोजमर्रा रस्मों या फैसलों पर किस की मुहर लगेगी. अखिलेश यादव व मुलायम सिंह यादव या दूसरे भाईचाचा सत्ता की चाशनी के लिए लड़ रहे हैं, किसी नीति विशेष के लिए नहीं.

समाजवादी नेता हमेशा से पिछड़ों के विकास का नारा लगाते रहे हैं. उन्हें यह तो स्पष्ट हो गया था कि सदियों से उन्हें शूद्र कहा गया, उन्हें जम कर लूटा गया है, उन्हें गुलाम सा बना कर रखा गया है और उन्हें अशिक्षित बनाए रख कर उन से खेती का व मजदूरी का काम करा के राज्य, शासक, सेठ मौज करते रहे हैं.

समाजवादियों ने कम्यूनिस्टों से अलग बराबरी का सपना देखा था पर यह सपना राममनोहर लोहिया और कर्पूरी ठाकुर के साथ समाप्त हो गया. उस के बाद पिछड़े, जो स्वयं को शूद्र भी नहीं कहलाना चाहते, मंडल आयोग की सिफारिशों से पहले और बाद में भी सत्ता पर सवार हो कर राज करने लगे. लेकिन वे इस दौरान समाजवाद को भूल गए और उत्तर प्रदेश व बिहार, जहां वे ज्यादा चमके, में परिवारों के चुंगल में फंस गए.

अखिलेश बनाम मुलायम विवाद में कौन सही या गलत का नहीं, कौन पार्टी चलाएगा, का मामला है. मुलायम सिंह ने 2012 में अखिलेश के नन्हें हाथों में उत्तर प्रदेश की सरकार सौंप दी ताकि वे खुद केंद्र में सरकार बनाने का सपना पूरा कर सकें. पर जब केंद्र में भारतीय जनता पार्टी ने उन सपनों को चकनाचूर कर दिया तो वे उत्तर प्रदेश में अखिलेश को कमजोर करने में लग गए. मौजूदा विवाद का असली यही कारण है.

यह विवाद समाजवादी पार्टी का चाहे विघटन न कर पाए पर समाजवादी सोच व समाजवादी उद्देश्य को दफन अवश्य कर देगा. देश की प्रगति के लिए जरूरी है कि देश की आबादी का 50-60 प्रतिशत पिछड़ा वर्ग तेजी से उन्नति करे. इस के लिए उसे सही मार्गदर्शन की जरूरत है क्योंकि धर्मजनित सामाजिक नियम उसे कमजोर और दबा कर रखते हैं. ये पिछड़े मजदूर, किसान और माय (मुसलिम-यादव) लठैत न बने रहें, यह आवश्यक है पर अखिलेश और मुलायम परिवार में एकदूसरे पर वार करते हैं तो ऐसे में ये चमकीले उद्देश्य कहीं नहीं दिख रहे. समाजवादी पार्टी

के सहारे पिछड़ों को जो थोड़ाबहुत आत्मसम्मान मिला था वह भी इस विवाद के चलते गंगायमुनागोमती में बह चला है.

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