मंथर हत्या

लेखिका- कादंबरी मेहरा    

मैं अनीता जोशी, माताजी की नर्स हूं.

माताजी जब बड़े भैया के यहां से वापस आई थीं, एकदम चुस्त- दुरुस्त थीं. खूब हंसहंस कर बाबूजी को बता रही थीं कि क्या खाया, क्या पिया, किस ने पकाया.

बड़े भैया जब भी कनाडा से भारत आते मां को अपने फ्लैट पर ले जाते और अमृतसर से अपनी छोटी बहन मंजू को भी बुला लेते. कई सालों से यह सिलसिला चल रहा है. महीना भर के लिए मेरी भी मौज हो जाती. मैं भी उधर ही रहती. माताजी पिछले 4 सालों से मेरे ऊपर पूरी तरह निर्भर थीं. 90 साल की उम्र ठहरी, शरीर के सभी जरूरी काम बिस्तर पर ही निबटाने पड़ते थे.

वैसे देखा जाए तो सुरेश और उन की पत्नी संतोष को सेवा करनी चाहिए. मांबाप के घर में जो रह रहे हैं. कभी काम नहीं जमाया. एक तरह से बाबूजी का ही सब हथिया कर बैठ गए हैं. संतोष बीबीजी भी एकदम रूखी हैं. पता नहीं कैसे संस्कार पाए हैं. औरत होते हुए भी इन का दिल कभी अपनी सास के प्रति नहीं पसीजता. बस, अपने पति और बच्चों से मतलब या पति की गांठ से.

इधर कई महीनों से माताजी रात को आवाज लगाती थीं तो सुरेश का परिवार सुनीअनसुनी कर देता था. एक दिन बाबूजी ने सुरेश के बच्चों को फटकारा तो वह कहने लगे कि ऊपर तक आवाज सुनाई नहीं देती. आवाज लगाना फुजूल हुआ तो माताजी ने कटोरी पर चम्मच बजा कर घंटी बना ली. इस पर संतोष बीबीजी ने यह कह कर कटोरी की जगह प्लास्टिक की डब्बी रखवा दी कि कटोरी बजाबजा कर बुढि़या ने सिर में दर्द कर दिया.

मैं ड्यूटी पर आई तो माताजी ने कहा कि अनीता, तू ने मुझे रात को खाना क्यों नहीं दिया. मैं बोली कि खाना तो मैं बना कर जाती हूं और आशीष आप को दोनों समय खाना खिलाता है. मैं ने ऊपर जा कर छोटी बहू संतोष से पूछा तो वह बोलीं, ‘‘अरे, इस बुढि़या का तो दिमाग चल गया है. खाऊखाऊ हमेशा लगाए रखती है. खाना दिया था यह भूल गई.’’

अगले दिन बाबूजी से पूछा तो वह कहने लगे कि डाक्टर ने खाने के लिए मना किया है. रात का खाना खिलाने से इन का पेट खराब हो जाएगा. ताकत की दवाइयां दे गया है. आशीष खिला देता है.

मैं ने माताजी से पूछा, ‘‘डाक्टर आप को देखने आया था लेकिन आप ने तो नहीं बताया.’’

माताजी हैरान हो कर बोलीं, ‘‘कौन सा डाक्टर? अरे, मैं तो डा. चावला को दिखाती थी पर उन को मरे हुए तो 2 साल हो गए. दूसरे किसी डाक्टर को ये इसलिए नहीं दिखाते कि मुझ पर इन को पैसा खर्च करना पड़ेगा.’’

मैं ने फिर पूछा, ‘‘ताकत की गोलियां कहां हैं मांजी, दूध के संग उन्हें मेरे सामने ही ले लो.’’

वह बोलीं, ‘‘कौन सी गोलियां? मरने को बैठी हूं… झूठ क्यों बोलूंगी? 3 दिन से रात का खाना बंद कर दिया है मेरा. जा, पूछ, क्यों किया ऐसा.’’

मैं ने तरस खा कर जल्दी से एक अंडा आधा उबाला और डबल रोटी का एक स्लाइस ले कर अपने घर जाने से पहले उन्हें खिला दिया.

अगले दिन मेरी आफत आ गई. सुरेश बाबू ने मुझे डांटा और कहा कि जो वह कहेंगे वही मुझे करना पड़ेगा. रात को उन्हें पाखाना कौन कराएगा.

मैं ने दबी जबान से दलील दी कि भूख तो जिंदा इनसान को लगती ही है, तो चिल्ला पड़े, ‘‘तू मुझे सिखाएगी?’’

मैं भी मकानजायदाद वाली हूं. घर से कमजोर नहीं हूं. मेरा बड़ा बेटा डाक्टरी पढ़ रहा है. छोटा दर्जी की दुकान करता है. उसी की कमाई से फीस भरती हूं. दोनों मुझे यहां कभी न आने देते. मगर माताजी मेरे बिना रोने लगती हैं. मैं हूं भी कदकाठी से तगड़ी. माताजी 80 किलो की तो जरूर होंगी. उन्हें उठानाबैठाना आसान काम तो नहीं और मैं कर भी लेती हूं.

एक बार कनाडा से माताजी जिमर फ्रेम ले आई थीं जो वजन में हलका और मजबूत था. माताजी उसे पकड़ कर चल लेती थीं. अंदरबाहर भी हो आती थीं. पर तभी छोटी बहू के पिताजी को लकवा मार गया. अत: उन्होंने जिमर फ्रेम अपने पिताजी को भिजवा दिया.

बड़े भैया जब अगली बार आए तो अपनी मां को एक पहिएदार कुरसी दिला गए. मैं उसी पर बैठा कर उन को नहलानेधुलाने बाथरूम में ले जाती थी. मगर 2 साल पहले जब आशीष ने कंप्यूटर खरीदा तो संतोष बीबीजी ने उस की पुरानी मेज माताजी के कमरे में रखवा दी जिस से व्हील चेयर के लिए रास्ता ही नहीं बचा.

बड़े भैया कनाडा से आते तो अपनी मां के लिए जरूरत का सब सामान ले आते. भाभीजी सफाईपसंद हैं, एकदम कंचन सा सास को रखतीं. भाभीजी अपने हाथ से माताजी की पसंद का खाना बना कर खिलातीं. बाबूजी बड़े भैया के घर नहीं जाते थे. सुरेश ने कुछ ऐसा काम कर रखा था कि बाप बेटे से जुदा हो गया. बाबूजी के मन में अपने बड़े बेटे के प्रति कैसा भाव था यह तब देखने को मिला जब भैया माताजी से मिलने आए तो बाबूजी परदे के पीछे चले गए. इस के बाद ही बड़े भैया ने अलग मकान लिया और मां को बुलवा कर उन की सारी इच्छाओं को पूरा करते थे. तब मेरी भी खूब मौज रहती. वह मुझे 24 घंटे माताजी के पास रखते और उतने दिनों के पैसों के साथ इनाम भी देते.

फिर जब उन के कनाडा जाने का समय आता तो वह माताजी को वापस यहां छोड़ जाते और वह फिर उसी गंदी कोठरी में कैद हो जातीं. भाभीजी की लाई हुई सब चीजें एकएक कर गायब हो जातीं. मैं ने एक बार इस बात की बाबूजी से शिकायत की तो उलटा मुझ पर ही दोष लगा दिया गया. मैं ने जवाब दे दिया कि कल से नहीं आऊंगी, दूसरा इंतजाम कर लो. मगर माताजी ने मेरे नाम की जो रट लगाई कि उन का चेहरा देख कर मुझे अपना फैसला बदलना पड़ा.

खाना तो रोज बनता है इस घर में. बाबूजी को खातिर से खिलाते हैं मगर मांजी के लिए 2 रोटी नहीं हैं. यह वही मां है जिस ने किसी को कभी भूखा नहीं सोने दिया. देवर, ननद, सासससुर, बच्चे सब संग ही तो रहते थे. आज उसी का सब से लाड़ला बेटा उसे 2 रोटी और 1 कटोरी सब्जी न दे? क्या कोई दुश्मनी थी?

माताजी की सहेली भी मैं ही थी. एक दिन उन से पूछा तो कहने लगीं कि बाबूजी की ये खातिरवातिर कुछ नहीं करते. सब नीयत के खोटे हैं. बाबूजी के बैंक खाते में करोड़ों रुपए हैं इसलिए उन्हें मस्का लगाते हैं. मैं ठहरी औरत जात. 2-4 गहने थे उन्हें बेटी के नेगजोग में दे बैठी. इन पर बोझ नहीं डाला कभी. अब मैं खाली हाथ खर्चे ही तो करवा रही हूं. रोज दवाइयां, डाक्टर. ऊपर से मुझे दोष लगाते हैं कि तू मेरे गहने परायों को दे आई.

आज सुरेश अपनी बीवी को 5 हजार रुपया महीना जेबखर्च देता है. मेरा आदमी इसे देख कर भी नहीं सीखता. पहले तो ऐसा रिवाज नहीं था. औरतों को कौन जेबखर्च देता था.

माताजी की बाबूजी से नहीं बनती. कैसे बने? शराबी का अपना दिमाग तो होता नहीं. सुरेश के हाथ कठपुतली बन कर रह गए हैं. 10वीं में बेटा फेल हुआ तो उसे अपने साथ दुकानदारी में लगा लिया और पीना भी सिखा दिया. अब उसी नालायक से यारी निभा रहे हैं. माताजी कहती थीं कि देखना अनीता, जिस दिन मेरी आंखें बंद हो जाएंगी यह बाप की रोटीपानी भी बंद कर देगा. बाप को बोतल पकड़ा कर निचोड़ रहा है, ताकि जल्दी मरे.

माताजी कोसतीं कि इतनी बड़ी कोठी कौडि़यों के मोल बेच दी और इस दड़बे जैसे घर में आ बैठा, जहां न हवा है न रोशनी. मेरे कमरे में तो सूरज के ढलने या उगने का पता ही नहीं चलता. ऊपर से संतोष ने सारे घर का कबाड़ यहीं फेंक रखा है.

माताजी रोज अपनी कोठी को याद करती थीं. सुबह चिडि़यों को दाना डालती थीं. सूरज को निकलते देखतीं, पौधों को सींचतीं. ग्वाला गाय ले कर आता तो दूध सामने बैठ कर कढ़वातीं. लोकाट और आम के पेड़ थे, लाल फूलों वाली बेल थीं.

बड़े भैया के बच्चे सामने चबूतरे पर खेलते थे. बड़े भैया अच्छा कमाते थे. सारे घर का खर्च उठाते थे. सारा परिवार एक छत के नीचे रहता था और यह सुरेश की बहू डोली से उतरने के 4 दिन बाद से  ही गुर्राने लगी. अपने घर की कहानी सुनातेसुनाते माताजी रो पड़तीं.

इस बार बड़े भैया जब आए तब जाने क्यों बाबूजी खुद ही उन से बोलने लगे. भाभीजी ने पांव छुए तो फल उठा कर उन के आंचल में डाले. पास बैठ कर घंटों अच्छे दिनों की यादें सुनाने लगे. जब वह लोग माताजी को अपने फ्लैट पर ले गए तो मैं ने देखा कि उस रोज बाबूजी पार्क की बेंच पर अकेले बैठे रो रहे थे.

मैं रुक गई और पूछा, ‘‘क्या बात हो गई?’’ तो कहने लगे कि अनीता, आज तो मैं लुट गया. मेरा एक डिविडेंड आना था. सुरेश फार्म पर साइन करवाने कागज लाया था. मगर मैं ने कुछ अधिक ही पी रखी थी. उस ने बीच में सादे स्टांप पेपर पर साइन करवा लिए. नशा उतरने के बाद अपनी गलती पर पछता रहा हूं. अरे, यह सुरेश किसी का सगा नहीं है. पहले बड़े भाई के संग काम करता था तो उसे बरबाद किया. वह तो बेचारा मेहनत करने परदेस चला गया. मुझ से कहता था, भाई ने रकम दबा ली है और भाग निकला है. मैं भी उसे ही अब तक खुदगर्ज समझता रहा मगर बेईमान यह निकला.

मैं ने कहा, ‘‘अभी भी क्या बिगड़ा है. सबकुछ तो आप के पास है. बड़े को उस का हक दो और आप भी कनाडा देखो.’’

वह हताश हो कर बोले, ‘‘अनीता, कल तक सब था, आज लुट गया हूं. क्या मुंह दिखाऊंगा उसे. मुझे लगता है कि मैं ने इस बार बड़े से बात कर ली तो छोटे ने जलन में मुझे बरबाद कर दिया.’’

मन में आया कह दूं कि आप को तो रुपए की बोरी समझ कर संभाल रखा है. मांजी पर कुछ नहीं है इसलिए उन्हें बड़े भाई के पास बेरोकटोक जाने देता है. मगर मैं क्यों इतनी बड़ी बात जबान पर लाती.

होली की छुट्टियों में मैं गांव गई थी. जाते समय जमादारिन से कह गई थी कि माताजी को देख लेगी. 4 दिन बाद गांव से लौटी तो देखा माताजी बेहोश पड़ी थीं. बड़े भैया 1 माह की दवाइयां, खाने का दिन, समय आदि लिख कर दे गए थे. उसी डा. चावला को टैक्सी भेज कर बुलवाया था जिसे इन लोगों ने मरा बता दिया था. माताजी देख कर हैरान रह गई थीं. डाक्टर साहब ने हंस कर कहा था, ‘‘उठिए, मांजी, स्वर्ग से आप को देखने के लिए आया हूं.’’

बाबूजी ने मुझे बताया कि जब से तू गांव गई सुरेश ने एक भी दवाई नहीं दी. कहने लगा कि आशीष और विशेष की परीक्षाएं हैं, उस के पास दवा देने का दिन भर समय नहीं और मुझे तो ठीक से कुछ दिखता नहीं.

माताजी ब्लड प्रेशर की दवा पिछले 55 साल से खाती आ रही हैं. मुझे बाबूजी से मालूम हुआ कि दवा बंद कर देने से उन का दिल घबराया और सिर में दर्द होने लगा तो सुरेश ने आधी गोली नींद की दे दी थी. उस के बाद ही इन की हालत खराब हुई है.

मैं ने माताजी की यह हालत देखी तो झटपट बड़े भैया को फोन लगाया. सुनते ही वह दौड़े आए. बड़ी भाभी ने हिलाडुला कर किसी तरह उठाया और पानी पिलाया. माताजी ने आंखें खोलीं. थोड़ा मुसकराईं और आशीर्वाद दिया, ‘‘सुखी रहो…सदा सुहागिन बनी रहो.’’

बस, यही उन के आखिरी बोल थे. अगले 7 दिन वह जिंदा तो रहीं पर न खाना मांगा न उठ कर बैठ पाईं. डाक्टर ने कहा, सांस लेने में तकलीफ है. चम्मच से पानी बराबर देते रहिए.

मैं बैठी रही पर उन्होंने आंखें नहीं खोलीं. ज्यादा हालत बिगड़ी तो डाक्टर ने कहा कि इन्हें अस्पताल में भरती करवाना पड़ेगा.

सुरेश झट से बोला, ‘‘देख लो, बाबूजी. क्या फायदा ले जाने का, पैसे ही बरबाद होंगे.’’

तभी बड़ी भाभी ने अंगरेजी में बाबूजी को डांटा कि आप इन के पति हैं. यह घड़ी सोचने की नहीं बल्कि अपनी बीवी को उस के आखिरी समय में अच्छे से अच्छे इलाज मुहैया कराने की है, अभी इसी वक्त उठिए, आप को कोई कुछ करने से नहीं रोकेगा.

2 दिन बाद माताजी चल बसीं. उन का शव घर लाया गया. महल्ले की औरतें घर आईं तो संतोष बीबीजी ऊपर से उतरीं और दुपट्टा आंखों पर रख कर रोने का दिखावा करने लगीं.

अंदर मांजी को नहलानेधुलाने का काम मैं ने और बड़ी भाभी ने किया. बड़े भैया ने ही उन के दाहसंस्कार पर सारा खर्च किया.

कल माताजी का चौथा था. कालोनी की नागरिक सभा की ओर से सारा इंतजाम मुफ्त में किया गया. पंडाल लगा, दरी बिछाई गई. रस्म के मुताबिक सुरेश को सिर्फ चायबिस्कुट खिलाने थे.

सुबह 11 बजे मैं घर पहुंची तो देखा, बाबूजी उसी पलंग पर लेटे हुए थे जिस पर माताजी लेटा करती थीं. मैं ने उन्हें उठाया, कहा कि पलंग की चादरें भी नहीं बदलवाईं अभी किसी ने.

यह सुनते ही सुरेश चिल्लाए, ‘‘तेरा अब यहां कोई काम नहीं, निकल जा. होली की छुट्टी लेनी जरूरी थी. मार डाला न मेरी मां को. अब 4 दिन की नागा काट कर हिसाब कर ले और दफा हो.’’

‘‘माताजी को किस ने मारा, यह इस परिवार के लोगों को अच्छी तरह पता है. मुझे नहीं चाहिए तुम्हारा हिसाब.’’

मैं चिल्ला पड़ी थी. मेरा रोना निकल गया पर मैं रुकी नहीं. लंबेलंबे डग भर कर लौट पड़ी.

बाबूजी मेरे पीछेपीछे आए. मेरे कंधे पर हाथ रखा. उन की आंखों में आंसू थे, भर्राए गले से बोले, ‘‘अब मेरी बारी है, अनीता.’’

मिनी की न्यू ईयर पार्टी

अगले कुछ दिनों में कुछ होने वाला था. मैं चारों पैरों पर खड़ा हो कर ताकने की कोशिश कर रहा था. घर की चौकीदारी तो मेरा ही काम है न. हर जने की आवाज पहचानता हूं. मिनी की सारी सहेलियों को जानता हूं. मालिकमालकिन का दुलारा हूं और मिनी तो कई बार कह देती है कि मैं तीसरा बेटा हूं उन का. उन की बातें चाहे समझ न आएं पर चेहरा तो पढ़ ही सकता हूं न.

‘‘मिनी, घर पर दोस्तों का जमघट न लगा लेना. अंजलि या रिया को बुलाना हो तो सोने के लिए बुला लेना और किसी को नहीं.’’

‘‘ओह मम्मी, मैं छोटी बच्ची थोड़े ही हूं. औफिस जाने लगी हूं. सचमुच इतनी हिदायतें देने की जरूरत है क्या?’’

शेखर ने फौरन मिनी को हमेशा की तरह पुचकारा, ‘‘माया, मिनी बड़ी हो गई है, यह जानती है कैसे रहना है. न्यू ईयर का समय है, बच्चे भी तो ऐंजौय करेंगे. जब हम दोनों बाहर जा रहे हैं तो यह भी घर में अकेली क्यों रहे… दोस्त आ भी जाएंगे तो बुरा क्या है?’’

ये भी पढ़ें- अगला मुरगा

‘‘मेरे सामने इस के फ्रैंड्स आते ही हैं, मुझे कोई दिक्कत नहीं पर मेरे पीछे से आने में मुझे चिंता रहती है, साफ बात है. राहुल भी दोस्तों के साथ गोवा चला गया वरना परेशानी की कोई बात ही न होती.’’

मिनी ने अब लाड़ से माया के गले में हाथ डाल दिया, ‘‘ओके मम्मी. आप आराम से जाओ… जमघट नहीं लगेगा. खुश?’’

माया ने भी मिनी का गाल चूम लिया. मैं वहीं खड़ा यह रोचक दृश्य देख रहा था. शेखर ने मेरे सिर पर हाथ फेरा तो मैं भी पूंछ हिलाता हुआ उन से लिपट गया.

शेखर और माया हर साल तो न्यू ईयर पर मुंबई में घर पर ही रहते थे पर इस बार माया को न्यू ईयर पर कुछ दोस्तों के साथ गोवा जाना था.

राहुल भी औफिस से छुट्टी ले कर गोवा जा चुका है. उसे वैसे भी कोई ज्यादा रोकताटोकता नहीं है. अब यह मिनी… शैतान लड़की… हर साल न्यू ईयर पार्टी अंजलि के घर होती है. वहीं सब बच्चे इकट्ठा होते हैं. मिनी की एक बात मुझे पसंद है. उसे बाहर से अच्छा अपने घर पर दोस्तों के साथ समय बिताना पसंद है. उस में भी माया मना कर रही है. गलत बात है. बस, न्यू ईयर पर मिनी अंजलि के घर न चली जाए वरना मैं अकेला रह जाऊंगा. वैसे आज तक अकेला नहीं रहा.

शेखर और माया चले गए. मिनी ने मुझे गोद में बैठा लिया. लिपट गई मुझ से. कैसे जान लेती है न मेरे मन की बात. बोली, ‘‘डौंट वरी बडी, तू अकेला नहीं रहेगा. मैं कहीं नहीं जाऊंगी. घर पर पार्टी करेंगे.’’

मैं मन ही मन हंसा. बडी नाम रखा था मिनी ने मेरा. अपना नाम पसंद है मुझे. मिनी सोफे पर पसर गई. मैं भी वहीं फर्श पर लेट गया. उस ने फोन स्पीकर पर रखा और चहकी, ‘‘अंजलि, गुड न्यूज. न्यू ईयर पार्टी इस बार मेरे घर पर.’’

‘‘अरे वाह, अंकलआंटी गए?’’

‘‘हां. बोल, किसेकिसे बुलाना है?’’

‘‘वही अपना पूरा ग्रुप.’’

‘‘ठीक है, डिनर और्डर करेंगे, मूवी देखेंगे… सब शाम को आ जाओ. तुम ही सब से बात कर लो.’’

मेरे कान खड़े हुए मूवी. ओह, यह मिनी की बच्ची फिर ‘ओम शांति ओम’ लगाएगी. इतनी बड़ी फैन जो है शाहरूख की. इस का मूड अच्छा हो तो यही मूवी देखती है. चलो ठीक है. शेखर और माया के हर साल के टीवी के न्यू ईयर के प्रोग्राम से तो अच्छा ही कटेगा मेरा समय.

उन दोनों की टीवी की पसंद के प्रोग्राम से परेशान हो चुका हूं. जब से शेखर रिटायर हुए हैं पूरा दिन दोनों ‘सावधान इंडिया’ या ‘क्राइम पैट्रोल’ देखते हैं. उस के बाद दोनों बातें भी वैसी ही करने लगे हैं. देखा था न, अभी जाते हुए मिनी को कैसे समझा रहे थे कि जमाना खराब है, कोई किसी का नहीं, दोस्त ही दुश्मन होते हैं, किसी पर भी विश्वास नहीं करना वगैरावगैरा.

वह तो अच्छा है मिनी एक कान से सुन कर दूसरे से निकाल रही थी. यह क्राइम पैट्रोल का ज्ञान है, मिनी जानती है वरना तो पार्टी हो ही न पाती. इस के दोस्त तो बहुत अच्छे हैं. जब भी आते हैं कैसा यंग माहौल हो जाता है. वाह, आज की रात धमाल रहेगा… मजा आएगा. अभी सो लेना चाहिए.

जैसे ही आंख लगी, मिनी संजय के साथ मेन्यू डिस्कस करने लगी, शेखर और माया घर पर नहीं होते तो मिनी का फोन स्पीकर पर रहता है, इसलिए मैं सब आराम से सुनता हूं. राहुल भी स्पीकर पर रखता है. उस की भी सब बातें मुझे पता हैं. गोवा दोस्तों के साथ नहीं गया है गर्लफ्रैंड प्रीति के साथ गया है और यह सिर्फ मैं जानता हूं. बडी सब जानता है.

मिनी जोरशोर से पार्टी की तैयारी में लग गई है. न… न… कामवाम में नहीं, बस सोफे पर लेट कर फोन करने में. मिनी का बस चले तो पार्टी भी सोफे पर लेट कर निबटा लें. लेट कर फोन पर वीडियो, शो देखना या कोई किताब पढ़ना उस का शौक है पर बहुत मस्ती है उस में… मूड अच्छा हो तो मुझे बैठने ही नहीं देगी… इतना खेलेगी… क्या खेलती है? बताऊं? बुद्धू बनाती है मुझे.

ये भी पढ़ें- दरगाह का खादिम

इसी सोफे पर लेटीलेटी बारबार बौल फेंकती रहती है और

‘बडी जाओ, बौल लाओ… शाबाश’ कहती रहती है. कभी इधर फेंकेंगी, कभी उधर… कभी डाइनिंग टेबल के नीचे तो कभी सोफे के नीचे… पागल बनाती है पर मजा भी आता है. मुंबई के इन फ्लैट्स में यही खेल सकते हैं.

मिनी खाने का और्डर दे रही है. मेरे कान खड़े हो गए. यहां घर में सब वैजिटेरियन हैं, राहुल कभीकभी मेरे लिए कुछ नौनवैज पैक करवा लाता है. किसी को पता नहीं है कि वह बाहर नौनवैज खाने लगा है. बस, मुझे पता है. मुझे स्मैल आ जाती है कि जनाब बाहर नौनवैज उड़ा कर आए हैं. हां, तो जिस दिन राहुल मेरे लिए नौनवैज पैक करवा कर लाता है, अपनी पार्टी हो जाती है. वैसे माया के हाथ की सादी दाल और रोटी में भी स्वाद है पर रोजरोज… चेंज मुझे भी चाहिए.

मिनी फाइनल कर रही है… पिज्जा, चिकन बिरयानी, वेज बिरयानी, कोल्ड ड्रिंक्स, आइसक्रीम… मुझे खास इंट्रैस्ट नहीं आया. खैर, चिकन बिरयानी चलेगी. दालरोटी से तो बैटर ही रहेगी.

मिनी मेरे ऊपर गिरती हुए लिपट गई. हो गई इस की मस्ती शुरू. ‘‘बडी, पार्टी है. मजा आएगा… तेरे लिए चिकन बिरयानी, ठीक है?’’

मैं ने पूंछ हिला दी. हंसा, मिनी का हाथ चाट लिया.

‘‘चल, अब लंच करते हैं, फिर सोएंगे, शाम को फिर फ्रैश रहेंगे.’’

मिनी हम दोनों का खाना ले आई. दाल में भिगो कर रोटी के टुकड़े मेरे बरतन में मुझे दिए, खुद भी अपनी प्लेट ले कर बैठ गई. मिनी कुछ चीजों में सीधी है… जो भी माया बनाती है, चुपचाप खा लेती है. राहुल को खिला कर देखो दाल और रोटी, देखते ही कहता है कि क्या मैं बीमार हूं मां? उस समय मुझे जोर से हंसी आती है.

खाना खा कर हम दोनों सोने चले गए. बहुत सालों बाद दिन में 2 घंटे जम कर सोया, यह नींद रोज मेरे नसीब में कहां. ‘सावधान इंडिया’ और ‘क्राइम पैट्रोल’ की आवाजें सुनी हैं कभी? हर कोने में छिप कर लेट कर देख लिया… सो नहीं पाता.

शाम को मिनी मुझे बाहर घुमाने ले गई. सोसायटी की आंटियां मिनी से पूछ रही हैं कि और मिनी,

न्यू ईयर पार्टी कहां है? और शैतान मिनी कितना भोला मुंह बना कर कह रही है, ‘‘पार्टी नहीं है आंटी, घर पर ही हूं.’’

ये माया की सहेलियां हैं न… ये आंटियां नहीं, रिपोर्टर होती हैं. मिनी नहाधो कर तैयार हो रही है. दोस्तों के फोन आते रहे. सब खुश हैं… पार्टी के लिए एक घर खाली मिल गया है. 8 बजे सब आ गए. संजय, अंजलि, रोमा, टोनी, मयंक, रिया, नेहा, आरती… सब अच्छे लगते हैं मुझे.

टोनी ने पहला काम जमीन पर ही बैठ कर मुझ से खेलने का किया, ‘‘हैलो बडी, मिस यू यार.’’

यही कहता है वह हमेशा. मैं ने भी कहा, ‘‘मिस यू टू, तुम सब जल्दी आया करो… पर बोल नहीं पाता तो मेरी बात तो मुंह में ही रह जाती है न. सब मुझे ‘हैलो बडी’ कह कर प्यार कर रहे थे.’’

सैल्फी की शौकीन आरती ने सब से पहले मेरे साथ कई फोटो लिए, मैं ने भी

अच्छे पोज दिए, मुझे तो आदत हो गई है. राहुल व मिनी के सारे दोस्त मेरे साथ सैल्फी लेते हैं. तब मुझे स्टार जैसा फील होता है.

9 बजे तक खाने की डिलिवरी हो गई, रोमा ने कहा, ‘‘सुनो, खाना गरम है. पहले खा लें?’’

मिनी की चिंता सब से अलग होती है. बोली, ‘‘रातभर पार्टी करेंगे. दोबारा भूख लग आई तो?’’

संजय ने कहा, ‘‘न्यू ईयर का टाइम है, फिर मंगवा लेंगे.’’ खाने के पैकेट खुल गए. मेरे बरतन में सब से पहले मिनी ने चिकन बिरयानी परोसी. थैंक्यू मिनी, कहते हुए मैं टूट पड़ा. बहुत बढि़या सारी खत्म कर दी. सब बच्चे ड्राइंगरूम में खा

रहे थे.

मयंक ने पूछा, ‘‘बडी पिज्जा चाहिए?’’

मैं वहां से हट गया. बिरयानी के बाद पिज्जा कौन खाएगा. मुंह का स्वाद अच्छा था.

मिनी सब को समझा रही थी, ‘‘सुनो, सब लोग प्लीज 1-1 चीज कूड़ेदान में डालना…’’ सब अपनेअपने बरतन धोपोंछ कर रखना. मम्मी को बताना नहीं है कि हम ने पार्टी की है. उन के सामने पार्टी हो तो उन्हें ठीक लगता है. उन के पीछे से पार्टी हो तो उन्हें चिंता हो जाती है कि पता नहीं क्याक्या होता होगा.

ये भी पढ़ें- घुट-घुट कर क्यों जीना

रिया ने कहा, ‘‘डौंट वरी, हम सब संभाल लेंगे.’’ 10 बजे तक धीरेधीरे खाते हुए सब ने मजेदार गप्पें मारीं. कितनी अलग है इन की दुनिया. हलकीफुलकी मजेदार बातें… मूवीज की, नए गानों की… अपनेअपने औफिस की मजेदार बातें. मुझे यह साफ समझ आया कि संजय रिया का बौयफ्रैंड है, टोनी आरती का. बस, बाकी सब में अच्छी मजबूत दोस्ती है. सब ने मिल कर 1-1 चीज समेट दी.

मिनी ने कहा, ‘‘सुबह 8 बजे तक सब चले जाना वरना 9 बजे लता आंटी काम के लिए आएंगी… वे मम्मी को सब बता देंगी.’’

‘‘हांहां, डौंट वरी. आज पार्टी के लिए घर मिल गया, इतना बहुत है. न्यू ईयर पर होटलों की वेटिंग बहुत लंबी रहती है. अब आराम से खाना तो खाया… अब टाइमपास करेंगे.’’

मिनी बोली, ‘‘चलो, मूवी देखें कोई.’’

मेरे कान खड़े हो गए. कोई मूवी क्या? यह पक्का ‘ओम शांति ओम’ लगाएगी, इस का अच्छा मूड हो और यह यह मूवी न देखे… डायलौग रट गए हैं मुझे. सब अपनीअपनी पसंद बताने लगे, मैं आराम से बैठ गया, जानता हूं किसी की नहीं चलेगी. मिनी शाहरूख के अलावा किसी की मूवी नहीं देखेगी. 20 मिनट बाद तय हुआ कि ‘ओम शांति ओम’ देखी जाएगी.

देखा? वही हुआ जो मुझे सुबह से पता था. शैतान मिनी. हमेशा कैसे भोली सूरत बना कर अपनी बात मनवा लेती है… प्यारी है, दोस्त

प्यार करते हैं उसे. मूवी का नाम सुनते ही मैं मालिक और मालकिन के बैड के नीचे घुस

कर यह सोच कर लेट गया. शायद वहां आवाज कम आए.

टोनी आवाज देने लगा, ‘‘बडी आओ, मूवी देखें… कहां हो यार?’’

मैं ने कहा, ‘‘रहने दो भाई, तुम ही देख लो, तुम ने शायद एक बार ही देखी होगी… मुझे बख्शो. मैं मिनी के साथ ही रहता हूं.’’

मयंक भी आवाज दे रहा है, ‘‘कम,

बडी कम.’’

‘‘ओह, जाना पड़ेगा. कोई बुलाता है तो जाना ही पड़ता है. मैं ड्राइंगरूम में बच्चों के पास जा कर खड़ा हो गया. मयंक ने मुझे अपने से लिपटा लिया, ‘‘आओ, बडी, मूवी देखेंगे.’’

मैं ने कहा, ‘‘मुझे एक भी सीन नहीं देखना इस मूवी का. मुझे पूरी मूवी रट गई है, अब तो मिनी के अच्छे मूड से डर लगने लगा है. मुझे माफ करो.’’

अजी कहां, मिनी ने मेरे पास फर्श पर ही अपना तकिया रख लिया. लेट गई. बोली, ‘‘आ जा बडी, तेरे बिना मूवी देखने में मुझे मजा नहीं आता.’’

अब तो कहीं छिप कर बैठ नहीं सकता न. मूवी शुरू हो गई. मैं आंखें बंद किए लेटा तो था पर कानों में डायलौग तो पड़ने ही थे. अगर शाहरूख खान की मूवी के डायलौग का इम्तिहान हो तो मैं ही फर्स्ट आऊंगा और मिनी को श्रेय दूंगा. 12 बजने में 2 मिनट पर टीवी बंद कर दिया गया. फिर हैप्पी न्यू ईयर के शोर से ड्राइंगरूम गूंज उठा. सब एक दूसरे के गले मिल रहे थे. मुझे भी सब ने हैप्पी न्यू ईयर कहा. बच्चों में मैनर्स हैं.

रोमा चिल्लाते हुए बोली, ‘‘अब थोड़ा डांस हो जाए.’’

मुझे पता है रोमा को डांस का शौक है. एक दिन बता रही थी कि उस ने डांस क्लास जौइन की है. मैं तो बहुत किनारे जा कर बैठ गया. डांस तो देखना था. मुझे इन बच्चों का डांस देखने में मजा आता है. ड्राइंगरूम का फर्नीचर एक तरफ कर जगह बना ली गई. मुझे पता था मिनी कौन सा म्यूजिक लगाएगी, यही तो सुनती है आजकल. बादशाह के गाने…

वैसे उसे और कर्णप्रिय मधुर गाने भी पसंद हैं पर फिर वही बात, उस का मूड अच्छा हो तो आप शाहरूख की मूवीज और बादशाह के गानों से बच ही नहीं सकते. बच्चे बढि़या डांस कर रहे हैं. यह टोनी… थोड़ा मोटा है पर डांस अच्छा कर लेता है. सब रोमा के स्टैप कौपी कर रहे हैं. वह सीखती है न, सब को नएनए स्टैप बता रही है हमारी मिनी. उसे किसी के डांस से मतलब नहीं. उस का अपना ही डांस होता है. कोई उसे तो कौपी कर ही नहीं सकता. कुछ भी करती है, अच्छा करती है.

अब डांस शुरू हो गया तो जल्दी नहीं रुकेगा. बीचबीच में कोल्ड ड्रिंक पी जाती, फिर शुरू हो जाते. 3 बजे तक डांस किया सब ने. बहुत मजा आया. वैसे तो मिनी माया के बताए

घर के 2 काम करने में थक जाती है, पर इस समय देखो, अच्छा है… बच्चे मेरे सामने हैं. अच्छी पार्टी है. नहीं तो हर बार न्यू ईयर पर टीवी के बोरिंग प्रोग्राम.

डांस के बाद जिसे जो जगह समझ आई, वहीं सो गया. मिनी के बैड पर 3

लड़कियां… बाकी नीचे चादर बिछा कर सो गईं. शेखर व माया के बैडरूम में लड़के सो गए. सब इंतजाम देख मैं भी ड्राइंगरूम में फर्श पर बिछे अपने बैड पर सो गया. टोनी सोफे पर ही लेटा था, उस के खर्राटों से मेरी नींद खुलती रही. सब को पता था टोनी खर्राटे लेता है, इसलिए उसे सोफे पर सुलाया गया था, पर मैं तो फंस गया न.

मिनी के 7 बजे के अलार्म से भगदड़ सी मची. मिनटों में पूरा घर जैसे था वैसे व्यवस्थित कर दिया गया. एक बार फिर एकदूसरे को हैप्पी न्यू ईयर कहते हुए सब अपनेअपने घर चले गए. मिनी मुझे बाहर घुमा लाई. फिर लताबाई आ गई. मिनी ने लताबाई को भी न्यू ईयर विश किया. लता बाई ने पूछा, ‘‘मिनी, घर पर ही थी? कहीं गई नहीं? फ्रैंड्स लोग आए क्या?’’

ये भी पढ़ें- पहला-पहला प्यार भाग-2

‘‘नहीं, आंटी.’’

‘‘पार्टी नहीं की?’’

‘‘नहीं आंटी,’’ मिनी ने मुझे आंख मारते हुए ताली दी तो मैं ने भी आंख मारते हुए अपना पंजा उठा दिया.

‘‘ओह बडी, आई लव यू,’’ मिनी मुझ से लिपट गई, ‘‘लव यू टू, मिनी.’’

मिनी ने मेरे कान में पूछा, ‘‘बडी, मजा आया न पार्टी में?’’

‘‘हां, बहुत,’’ मैं ने जोरजोर से अपनी पूंछ हिला दी. युवा कहकहों से गूंजते घर में, हंसतेखेलते, डांस देखते मेरे नए साल की शुरुआत काफी अच्छी थी.

अधिकार : क्या रिश्ते में अधिकार की भावना जरूरी है – भाग 1

प्रेम में त्याग होता है स्वार्थ नहीं. जो यह कहता है कि अगर तुम मेरे नहीं हो सके तो किसी दूसरे के भी नहीं हो सकते…यहां प्यार नहीं स्वार्थ बोल रहा है…सच तो यह है कि प्रेम में जहां अधिकार की भावना आती है वहीं इनसान स्वार्थी होने लगता है और जहां स्वार्थ होगा वहां प्रेम समाप्त हो जाएगा. उपरोक्त पंक्तियां पढ़तेपढ़ते विनय ने आंखें मूंद लीं…

एकएक शब्द सत्य है इन पंक्तियों का. क्या उस के साथ भी ऐसा ही कुछ घटित नहीं हो रहा. अतीत का एकएक पल उस की स्मृतियों में विचरने लगा. विनय जब छोटा था तभी उस के पापा गुजर गए. उसे और उस की छोटी बहन संजना को उस की मां सपना ने बड़ी कठिनाई से पाला था.

ये भी पढ़ें- हथेली पर आत्मसम्मान

वह कैसे भूल सकता है वे दिन जब मां बड़ी कठिनाइयों से दो वक्त की रोटी जुटा पाती थीं. अपने जीवनकाल में पिता ने घर के सामान के लिए इतना कर्ज ले लिया था कि पी.एफ. में से कुछ बचा ही नहीं था. पेंशन भी ज्यादा नहीं थी. मां को आज से ज्यादा कल की चिंता थी. उस की और संजना की उच्चशिक्षा के साथसाथ उन्हें संजना के विवाह के लिए भी रकम जमा करनी थी. उन का मानना था कि दहेज का लेनदेन अभी भी समाज में विद्यमान है. कुछ रकम होगी तो दहेजलोभियों को संतुष्ट किया जा सकेगा अन्यथा बेटी के हाथ पीले करना आसान नहीं है.

बड़े प्रयत्न के बाद उन्हें एक स्कूल में अध्यापिका की नौकरी मिली पर वेतन इतना था कि घर का खर्च ही चल पाता था. फायदा बस इतना हुआ कि अध्यापिका की संतान होने के कारण उन को आसानी से स्कूल में दाखिला मिल गया. मां ने उन की देखभाल में कोई कमी नहीं होने दी. आवश्यकता का सभी सामान उन्हें उपलब्ध कराने की उन्होंने कोशिश की. इस के लिए ट्यूशन भी पढ़ाए. उन दोनों ने भी मां के विश्वास को भंग नहीं होने दिया. उन की खुशी की कोई सीमा नहीं रही जब मैट्रिक में उन्होंने राज्य में प्रथम स्थान प्राप्त किया. स्कूल की तरफ से स्कौलरशिप तो मिली ही, उस को पहचान भी मिली. यही 12वीं में हुआ. उसे आई.आई.टी. में दाखिला तो नहीं मिल पाया पर निट में मिल गया.

ये भी पढ़ें- रुपहली चमक

संजना ने भी अपने भाई विनय का अनुसरण किया. उस ने भी बायो- टैक्नोलौजी को अपना कैरियर बनाया. बच्चों को अपनेअपने सपने पूरे करते देख मां को सुकून तो मिला पर मन ही मन उन्हें यह डर भी सताने लगा कि कहीं बच्चे अपनी चुनी डगर पर इतने मस्त न हो जाएं कि उन की अनदेखी करने लगें. अब वे उन के प्रति ज्यादा ही चिंतित रहने लगीं. मां स्कूल, कालेज की हर बात तो पूछती हीं, उन के मित्रों के बारे में भी हर संभव जानकारी लेने का प्रयास करतीं. विनय और संजना ने कभी उन की इस बात का बुरा नहीं माना क्योंकि उन्हें लगता था कि मां का अतिशय प्रेम ही उन से यह करवा रहा है. भला मां को उन की चिंता नहीं होगी तो किसे होगी. मां की खुशी की सीमा न रही जब इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी होते ही उस की एक मल्टीनैशनल कंपनी में नौकरी लग गई. संजना का कोर्स भी पूरा होने वाला था. मां ने उस के विवाह की बात चलानी प्रारंभ कर दी…संजना रिसर्च करना चाहती थी. उस ने अपना पक्ष रखा तो मां ने यह कह कर अनसुना कर दिया कि मुझे प्रयास करने दो, यह कोई आवश्यक नहीं कि तुरंत अच्छा रिश्ता मिल ही जाए.

संयोग से एक अच्छा घरपरिवार मिल गया. संजना के मना करने के बावजूद मां ने अपने अधिकार का प्रयोग कर उस पर विवाह के लिए दबाव बनाया. विनय ने संजना का साथ देना चाहा तो मां ने उस से कहा कि मुझे अपनी एक जिम्मेदारी पूरी कर लेने दो, मैं कुछ गलत नहीं कर रही हूं. तुम स्वयं जा कर लड़के से मिल लो, अगर कुछ कमी लगे तो बता देना मैं अपना निर्णय बदल दूंगी और जहां तक संजना की पढ़ाई का प्रश्न है वह विवाह के बाद भी कर सकती है. विनय तब समीर से मिला था. उस में उसे कोई भी कमी नजर नहीं आई, आकर्षक व्यक्तित्व होने के साथ वह अच्छे खातेपीते घर से है, कमा-खा भी अच्छा रहा है.

ये भी पढ़ें- मां और मोबाइल

इंजीनियरिंग कालेज में लैक्चरर है. मां ने जैसे दिन देखे थे, जैसा जीवन जिया था उस के अनुसार उसे उन का सोचना गलत भी नहीं लगा. वे एक मां हैं, हर मां की इच्छा होती है कि उन के बच्चे जीवन में जल्दी स्थायित्व प्राप्त कर लें. आखिर वह संजना को मनाने में कामयाब हो गया. संजना और समीर का विवाह धूमधाम से हो गया. संजना के विवाह के उत्तरदायित्व से मुक्त हो कर मां कुछ दिनों की छुट्टी ले कर विनय के पास आईं. एक दिन बातोंबातों में उस ने अपने मन की बात उन के सामने रखते हुए कहा, ‘मां अब आप की सारी जिम्मेदारियां समाप्त हो गई हैं. अब नौकरी करने की क्या आवश्यकता है, अब यहीं रहो.’

बेटे के मुख से यह बात सुन कर मां भावविभोर हो गईं. आखिर इस से अधिक एक मां को और क्या चाहिए. उन्होंने त्यागपत्र भेज दिया. कुछ दिन वे उस घर को किराए पर उठा कर तथा वहां से कुछ आवश्यक सामान ले कर आ गईं. उस ने भी आज्ञाकारी पुत्र की तरह मां का कर्ज उतारने में कोई कसर नहीं छोड़ी. घर के खर्च के पूरे पैसे मां को ला कर देता, हर जगह अपने साथ ले कर जाता. उन की हर इच्छा पूरी करने का हरसंभव प्रयत्न करता. धीरेधीरे पुत्र की जिंदगी में उन का दखल बढ़ता गया. वे उस से एकएक पैसे का हिसाब लेने लगीं, अगर वह कभी मित्रों के साथ रेस्तरां में चला जाता तो मां कहतीं, ‘बेटा फुजूलखर्ची उचित नहीं है, आज की बचत कल काम आएगी.’

ये भी पढ़ें- मैं नहीं जानती

अधिकार : क्या रिश्ते में अधिकार की भावना जरूरी है

Short Story : हथेली पर आत्मसम्मान

‘‘सो म, तुम्हारी यह मित्र इतना मीठा क्यों बोलती है?’’

श्याम के प्रश्न पर मेरे हाथ गाड़ी के स्टीयरिंग पर तनिक सख्त से हो गए. श्याम बहुत कम बात करता है लेकिन जब भी बात करता है उस का भाव और उस का अर्थ इतना गहरा होता है कि मैं नकार नहीं पाता और कभी नकारना चाहूं भी तो जानता हूं कि देरसवेर श्याम के शब्दों का गहरा अर्थ मेरी समझ में आ ही जाएगा.

‘‘जरूरत से ज्यादा मीठा बोलने वाला इनसान मुझे मीठी छुरी जैसा लगता है, जो अंदर से हमारी जड़ें काटता है और सामने चाशनी बरसाता है,’’ श्याम ने अपनी बात पूरी की.

‘‘ऐसा क्यों लगा तुम्हें? मीठा बोलना अच्छी आदत है. बचपन से हमें सिखाया जाता है सदा मीठा बोलो.’’

‘‘मीठा बोलना सिखाया जाता है न, झूठ बोलना तो नहीं सिखाया जाता. यह लड़की तो मुझे सिर से ले कर पैर तक झूठ बोलती लगी. हर भाव को प्रदर्शन करने में मनुष्य एक सीमा रेखा खींचता है. जरूरत जितनी मिठास ही मीठी लगती है. जरूरत से ज्यादा मीठा किस लिए? तुम से कोई मतलब नहीं है क्या उसे? कुछ न कुछ स्वार्थ जरूर होगा वरना आज के जमाने में कोई इतना मीठा बोलता ही नहीं. किसी के पास किसी के बारे में सोचने तक का समय नहीं और वह तुम्हें अपने घर बुला कर खाना खिलाना चाहती है. कौनकौन हैं उस के घर में?’’

‘‘उस के मांबाप हैं, 1 छोटी बहन है, बस. पिता रिटायर हो चुके हैं. पिछले साल ही कोलकाता से तबादला हुआ है. साथसाथ काम करते हैं हम. अच्छी लड़की है शोभना. मीठा बोलना उस का ऐब कैसे हो गया, श्याम?’’

श्याम ने ‘छोड़ो भी’ कुछ इस तरह कहा जिस के बाद मैं कुछ कहूं भी तो उस का कोई अर्थ ही नहीं रहा. घर पहुंच कर भी वह अनमना सा चिढ़ा सा रहा, मानो कहीं का गुस्सा कहीं निकाल रहा हो.

ये भी पढ़ें- Short Story : अंतिम निर्णय

‘‘लगता है, कहीं का गुस्सा तुम कहीं निकाल रहे हो? क्या हो गया है तुम्हें? इतनी जल्दी किसी के बारे में राय बना लेना क्या इतना जरूरी है…थोड़ा तो समय दो उसे.’’

‘‘वह क्या लगती है मेरी जो मैं उसे समय दूं और फिर मैं होता कौन हूं उस के बारे में राय बनाने वाला. अरे, भाई, कोई जो चाहे सो करे…तुम्हारी मित्र है इसलिए समझा दिया. जरा आंख और कान खोल कर रखना. कहीं बेवकूफ मत बनते रहना मेरी तरह. आजकल दोस्ती और किसी की निष्ठा को डिस्पोजेबल सामान की तरह इस्तेमाल कर के डस्टबिन में फेंक देने वालों का जमाना है.’’

‘‘सभी लोग एक जैसे नहीं होते हैं, श्याम.’’

‘‘तुम से ज्यादा तजरबा है मुझे दुनिया का. 10 साल हो गए हैं मुझे धक्के खाते हुए. तुम तो अभीअभी घर छोड़ कर आए हो न इसलिए नहीं जानते, घर की छत्रछाया सिर्फ घर %A

Serial Story : मेरी मां का नया प्रेमी

Serial Story : मेरी मां का नया प्रेमी – भाग 2

कुछकुछ आभास श्वेता को उन की डायरी से ही हुआ था. एक बार उन की डायरी में कुछ कविताओं के अंश नोट किए हुए मिले थे.

‘तुम चले जाओगे पर थोड़ा सा यहां भी रह जाओगे, जैसे रह जाती है पहली बारिश के बाद हवा में धरती की सोंधी सी गंध.’

एक पृष्ठ पर लिखी ये पंक्तियां पढ़ कर तो श्वेता भौचक ही रह गई थी…सब कुछ बीत जाने के बाद भी बचा रह गया है प्रेम, प्रेम करने की भूख, केलि के बाद शैया में पड़ गई सलवटों सा… सबकुछ नष्ट हो जाने के बाद भी बचा रहेगा प्रेम, …दीपशिखा ही नहीं, उस की तो पूरी देह ही बन गई है दीपक, प्रेम में जलती हुई अविराम…

मम्मी अचानक ही आ गई थीं और डायरी पढ़ते देख एक क्षण को सिटपिटा गई थीं. बात को टालने और स्थिति को बिगड़ने से बचाने के लिए श्वेता खिसियायी सी हंस दी थी, ‘‘यह कवि आप को बहुत पसंद आने लगे हैं क्या, मम्मी?’’

‘‘नहीं, तुम गलत समझ रही हो,’’ मम्मी ने व्यर्थ हंसने का प्रयत्न किया था, ‘‘एक छात्रा को शोध करा रही हूं नए कवियों पर…उन में इस कवि की कविताएं भी हैं. उन की कुछ अच्छी पंक्तियां नोट कर ली हैं डायरी में. कभी कहीं भाषण देने या क्लास में पढ़ाने में काम आती हैं ऐसी उजली और दो टूक बात कहने वाली पंक्तियां.’’ फिर मां ने स्वयं एक पृष्ठ खोल कर दिखा दिया था, ‘‘यह देखो, एक और कवि की पंक्तियां भी नोट की हैं मैं ने…’’ वह बोली थीं.

ये भी पढ़ें- Short Story : जब मैं छोटा था

उस पृष्ठ को वह एक सांस में पढ़ गई थी, ‘‘धीरेधीरे जाना प्यार की बहुत सी भाषाएं होती हैं दुनिया में, देश में और विदेश में भी लेकिन कितनी विचित्र बात है प्यार की भाषा सब जगह एक ही है और यह भी जाना कि वर्जनाओं की भी भाषा एक ही होती है…प्यार की भाषा में शब्द नहीं होते सिर्फ अक्षर होते हैं और होती हैं कुछ अस्फुट ध्वनियां और उन्हीं को जोड़ कर बनती है प्यार की भाषा…’’

मां के उत्तर से वह न सहमत हुई थी, न संतुष्ट पर वह व्यर्थ उन से और इस मसले पर उलझना नहीं चाहती थी. शायद यह सोच कर चुप लगा गई थी कि मां भी आखिर हैं तो एक स्त्री ही और स्त्री में प्रेम पाने की भूख और आकांक्षा अगर आजीवन बनी रह जाए तो इस में आश्चर्य क्या है?

पिता के साथ मां ने एक लंबा वैवाहिक जीवन जिया था. उस दुर्घटना में वह अचानक मां को अकेला छोड़ कर चले गए थे. शरीर की कामनाएंइच्छाएं तो अतृप्त रह ही गई होंगी…55-56 साल की उम्र थी तब मम्मी की. इस उम्र में शरीर पूरी तरह मुरझाता नहीं है. फिर पिता महीने 2 महीने में ही घर आ पाते थे. पूरा जीवन तो मां ने एक अतृप्ति के साथ बियाबान रेगिस्तान में प्यासी हिरणी की तरह मृगतृष्णा में काटा होगा…आगे और आगे जल की तलाश में भटकी होंगी…और वह जल उन्हें मिला होगा अमन अंकल में या हो सकता है मिल रहा हो प्रभु अंकल में.

एक शहर के महाविद्यालय में किसी व्याख्यान माला में भाषण देने गई थीं मम्मी. उन के परिचय में जब वहां बताया गया कि साहित्य में उन का दखल एक डायरी लेखिका के रूप में भी है तो उन के भाषण के बाद एक सज्जन उन से मिलने उन के निकट आ गए, ‘‘आप ही

डा. कुमुदजी हैं जिन की डायरियों के कई अंश…’’ मम्मी उठ कर खड़ी हो गई थीं, ‘‘आप का परिचय?’’

‘‘यहां निकट ही एक नेशनल पार्क है… मैं उस में एक छोटामोटा अधिकारी हूं.’’ इसी बीच महाविद्यालय के एक प्राध्यापकजी टपक पड़े थे, ‘‘हां, कुमुदजी यह छोटे नहीं मोटे अधिकारी हैं. वन्य जीवों पर इन्होंने अनेक शोध कार्य किए हैं. हमारे जंतु विज्ञान विभाग में यह व्याख्यान देने आते रहते हैं. यह विद्यार्थियों को जानवरों से संबंधित बड़ी रोचक जानकारियां देते हैं. अगर आप के पास समय हो तो आप इन का नेशनल पार्क अवश्य देखने जाएं… आप को वहां कई नए अनुभव होंगे.’’

ये भी पढ़ें – ईर्ष्या : क्या था उस लिफाफे में

श्वेता को मां ने बताया था, ‘‘यह महाशय ही प्रभुनाथ हैं.’’

मां की डायरी में बाद में श्वेता ने पढ़ा था.

‘किसीकिसी आदमी का साथ कितना अपनत्व भरा होता है और उस के साथ कैसे एक औरत अपने को भीतर बाहर से भरीभरी अनुभव करती है. क्या सचमुच आदमी की उपस्थिति जीवन में इतनी जरूरी होती है? क्या इसी जरूरीपन के कारण ही औरत आदमी को आजीवन दुखों, परेशानियों के बावजूद सहती नहीं रहती?’

खालीपन और अकेलेपन, भीतर के रीतेपन को भरने के लिए जीवन में क्या सचमुच किसी पुरुष का होना नितांत आवश्यक नहीं है…कहीं कोई आदमी आप के जीवन में होता है तो आप को लगता रहता है कि कहीं कोई है जिसे आप की जरूरत है, जो आप की प्रतीक्षा करता है, जो आप को प्यार करता है…चाहता है, तन से भी, मन से भी और शायद आत्मा से भी…

प्रभुनाथ के साथ पूरे 7 दिन तक नेशनल पार्क के भीतर जंगल के बीच में बने आरामदेय शानदार हट में रही… तरहतरह के जंगली जंतु तो प्रभुनाथ ने अपनी जीप में बैठा कर दिखाए ही, थारू जनजाति के गांवों में भी ले गए और उन के बारे में अनेक रोचक और विचित्र जानकारियां दीं, जिन से अब तक मैं परिचित नहीं थी.

‘दुनिया में कितना कुछ है जिसे हम नहीं जानते. दुनिया तो बहुत बड़ी है, हम अपने देश को ही ठीक से नहीं जानते. इस से पहले हम ने कभी सपने में भी कल्पना नहीं की थी कि यह नेशनल पार्क…यह मनोरम जंगल, जंगल में जानवरों, पेड़पौधों की एक भरीपूरी विचित्र और अद्भुत आनंद देने वाली एक दुनिया भी होती है, जिसे हर आदमी को जीवन में जरूर देखना और समझना चाहिए.’

प्रभुनाथ ने चपरासी को मोटर- साइकिल से भेज कर भोजन वहीं उसी आलीशान हट में मंगा लिया था. साथ बैठ कर खाया. खाने के बाद प्रभुनाथ उठे और बोले, ‘‘तो ठीक है मैडम…आप यहां रातभर आराम करें. हम अपने क्वार्टर में जा कर रहेंगे.’’

‘‘नहीं. मैं अकेली हरगिज इस जंगल में नहीं रहूंगी,’’ मैं हड़बड़ा गई थी, ‘‘रात हो आई है और जानवरों की कैसी डरावनीभयावह आवाजें रहरह कर आ रही हैं. कहीं कोई आदमखोर यहां आ गया और उस ने इस हट के दरवाजे को तोड़ कर मुझ पर हमला कर दिया तो?’’

‘‘क्या आप को इस हट का कोई दरवाजा टूटा या कमजोर नजर आता है? हर तरह से इसे सुरक्षित बनाया गया है. इस में देश और प्रदेश के मंत्री, सचिव और आला अफसर, उन के परिवार आ कर रहते हैं. मैडम, आप चिंता न करें. बस रात को कोई जानवर या आदमी दरवाजे को धक्का दे, पंजों से खरोंचे तो आप दरवाजा न खोलें. यहां आप को पीने के लिए पानी बाथरूम में मिलेगा. चाय-कौफी बनाना चाहेंगी तो उस के लिए गैसस्टोव और सारी जरूरी क्राकरी व सामग्री किचन में मिलेगी. बिस्तर आरामदेय है. हां, रात में सर्दी जरूर लगेगी तो उस के लिए 2 कंबल रखे हुए हैं.’’

ये भी पढ़ें- Short Story : मान अभिमान

‘‘वह सब ठीक है प्रभु…पर मैं यहां अकेली नहीं रहूंगी या तो आप साथ रहें या फिर हमें भी अपने क्वार्टर की तरफ के किसी क्वार्टर में रखें.’’

‘‘नहीं मैडम,’’ वह मुसकराए, ‘‘आप डायरी लेखिका हैं. हिंदी की अच्छी वक्ता और प्रवक्ता हैं. हम चाहते हैं कि आप यहां के वातावरण को अपने भीतर तक अनुभव करें. देखें कि कैसा लगता है. बिलकुल नया सुख, नया थ्रिल, नया अनुभव होगा…और वह नया थ्रिल आप अकेले ही महसूस कर पाएंगी…किसी के साथ होने पर नहीं.

‘‘आप देखेंगी, जीवन जब खतरों से घिरा होता है…तो कैसाकैसा अनुभव होता है…जान बचे, इस के लिए ऐसेऐसे देवता आप को मनाने पड़ते हैं जिन की याद भी शायद आप को अब तक कभी न आई हो…बहुत से लेखक इस अनुभव के लिए ही यहां इस हट में आ कर रहना पसंद करते हैं.’’

Serial Story : मेरी मां का नया प्रेमी – भाग 3

‘‘वह तो सब ठीक है…पर आप को मैं यहां से जाने नहीं दूंगी.’’ फिर कुछ सोच कर पूछ बैठीं, ‘‘बाहर गेट के क्वार्टरों में आप की प्रतीक्षा पत्नीबच्चे भी तो कर रहे होंगे? अगर ऐसा है तो आप जाएं पर हमें भी वहीं किसी क्वार्टर में रखें.’’

गंभीर बने रहे काफी देर तक प्रभुनाथ. फिर एक लंबी सांस छोड़ते हुए बोले, ‘‘अपने बारे में किसी को मैं कम ही बताता हूं. यहां बाईं तरफ जो छोटा कक्ष है उस में एक अलमारी में जहां वन्य जीवजंतुओं से संबंधित पुस्तकें हैं वहीं मेरे द्वारा लिखी गई और शोध के रूप में तैयार पुस्तक भी है. अकसर यहां मंत्री लोग और अफसर अपनी किसी न किसी महिला मित्र को ले कर आते हैं और 2-3 दिन तक उस का जम कर देह सुख लेते हैं. उन के लिए हम लोग यहां हर सुविधा जुटा कर रखते हैं. क्या करें, नौकरी करनी है तो यह सब भी इंतजाम करने पड़ते हैं…’’

झेंप गईं डा. कुमुद, ‘‘खैर, वह सब छोडि़ए. आप अपने परिवार के बारे में बताइए.’’

‘‘एक बार हम पिकनिक मनाने यहां इसी हट पर अपने परिवार के साथ आए हुए थे. अधिक रात होने पर पता नहीं पत्नी को क्या महसूस हुआ कि बोली, ‘यहां से चलिए, बाहर के क्वार्टरों में ही रहेंगे. यहां न जाने क्यों आज अजीब सा भय लग रहा है.’ हम जीप में बैठ कर वापस बाहर की तरफ चल दिए. पत्नी, लड़की और लड़का. हमारे 2 ही बच्चे थे. अभी कुछ ही दूर चले होंगे कि खतरे का आभास हो गया. एक शेर बेतहाशा घबराया हुआ भागता हमारे सामने से गुजरा. पीछे कुछ बदमाश, जिन्हें हम लोग पोचर्स कहते हैं. जंगली जानवरों का चोरीछिपे शिकार करने वाले उन पोचरों से हमारा सामना हो गया.’’

‘‘निहत्थे नहीं थे हम. एक बंदूक साथ थी और साहसी तो मैं शुरू से रहा हूं इसीलिए यह नौकरी कर रहा हूं. बदमाशों को ललकारा कि अगर किसी जानवर को तुम लोगों ने गोली मारी तो हम आप को गोली मार देंगे. जीप को चारों ओर घुमा कर हम ने उस की रोशनी में बदमाशों की पोजीशन जाननी चाही कि तभी उन्होंने हम पर अपने आधुनिक हथियारों से हमला बोल दिया. हम संभल तक नहीं पाए… पत्नी और बेटी की मौत गोली लगने से हो गई. लड़का बच गया क्योंकि वह जीप के नीचे घुस गया था.

ये भी पढ़ें- कल तुम बिजी आज हम बिजी : भाग 2

‘‘मैं उन्हें ललकारता हुआ अपनी बंदूक से फायर करने लगा. गोलियों की आवाज ने गार्डों को सावधान कर दिया और वे बड़ीबड़ी टार्चों और दूसरी गाडि़यों को ले कर तेजी से इधर की तरफ हल्ला बोलते आए तो बदमाश नदी में उतर कर अंधेरे का लाभ उठा कर भाग गए.’’

‘‘फिर दूसरी शादी नहीं की,’’ उन्होंने पूछा.

‘‘लड़के को हमारी ससुराल वालों ने इस खतरे से दूर अपने पास रख कर पाला…साली से मेरी शादी उन लोगों ने तय की पर एकांत में साली ने मुझ से कहा कि वह किसी और को चाहती है और उसी से शादी भी करना चाहती है. मैं बीच में न आऊं तो ही अच्छा है. मैं ने शादी से इनकार कर दिया…’’

ये  भी पढ़ें- Short Story – खरीदारी : अपमान का कड़वा घूंट

‘‘लड़का कहां है आजकल?’’

डा. कुमुद ने पूछा.

‘‘बस्तर के जंगलों में अफसर है. उस की शादी कर दी है. अपनी पत्नी के साथ वहीं रहता है.’’

‘‘मैं ने तो सुना है कि बस्तर में अफसर अपनी पत्नी को ले कर नहीं जाते. एक तो नक्सलियों का खतरा, दूसरे आदिवासियों की तीरंदाजी का डर… तीसरे वहां आदमी को बहुत कम पैसों में औरत रात भर के लिए मिल जाती है.’’ इतना कह कर डा. कुमुद मुसकरा दीं.

‘‘जेब में पैसा हो तो औरत सब जगह उपलब्ध है…यहां भी और कहीं भी… इसलिए मैं ने शादी नहीं की. जरूरत पड़ने पर कहीं भी चला जाता हूं.’’ प्रभु मुसकराए.

‘‘हां, पुरुष होने के ये फायदे तो हैं ही कि आप लोग बेखटके, बिना किसी शर्म के, बिना लोकलाज की परवा किए, कहीं भी देहसुख के लिए जा सकते हैं…पैसों की कमी होती नहीं है आप जैसे बड़े अफसरों को…अच्छी से अच्छी देह आप प्राप्त कर सकते हैं. मुश्किल तो हम संकोचशील औरतों की है. हमें अगर देह- सुख की जरूरत पड़े तो हम बेशर्मी लाद कर कहां जाएं? किस से कहें?’’

‘‘वक्त बहुत बदल गया है कुमुदजी…अब औरतें भी कम नहीं हैं. वह बशीर बद्र का शेर है न… ‘जी तो बहुत चाहता है कि सच बोलें पर क्या करें हौसला नहीं होता, रात का इंतजार कौन करे आजकल दिन में क्या नहीं होता.’’’

मुसकराती रहीं कुमुद देर तक, ‘‘बड़े दिलचस्प इनसान हैं आप भी, प्रभुनाथजी.’’

ये भी पढ़ें- Short Story- ईर्ष्या : क्या था उस लिफाफे में

श्वेता डायरी के अगले पृष्ठ को पढ़ कर अपने धड़कते दिल को मुश्किल से काबू में कर पाई थी…

मां ने लिख रखा था… ‘7 दिन रही उस नेशनल पार्क में और जो देहसुख उन 7 दिनों में प्राप्त किया शायद अगले 7 जन्मों में प्राप्त न हो सके. आदमी का सुख वास्तव में अवर्णनीय, अव्याख्य और अव्यक्त होता है…इस सुख को सिर्फ देह ही महसूस कर सकती है…उम्र और पदप्रतिष्ठा से बहुत दूर और बहुत अलग…’.

Serial Story : मेरी मां का नया प्रेमी – भाग 1

श्वेता ने मां को फोन लगाया तो फोन पर किसी पुरुष की आवाज सुन कर वह चौंक गई…कौन हो सकता है? एक क्षण को उस के दिमाग में सवाल कौंधा. अमन अंकल तो होने से रहे. मां ने ही एक दिन बताया था, ‘तुम्हारे अमन अंकल को बे्रन स्ट्रोक हुआ था. अचानक ब्लडप्रेशर बहुत बढ़ गया था. आधे धड़ को लकवा मार गया. उन के लड़के आए थे, अपने साथ उन्हें हैदराबाद लिवा ले गए.’

‘‘हैलो…बोलिए, किस से बात करनी है आप को?’’ सहसा वह अपनी चेतना में वापस लौटी. संयत आवाज में पूछा, ‘‘आप…आप कौन? मां से बात करनी है. मैं उन की बेटी श्वेता बोल रही हूं.’’ स्थिति स्पष्ट कर दी.

‘‘पास के जनरल स्टोर तक गई हैं. कुछ जरूरी सामान लाना होगा. रोका था मैं ने…कहा भी कि लिख कर हमें दे दो, ले आएंगे. पर वह कोई स्पेशल डिश बनाना चाहती हैं शाम को. तुम्हें तो पता होगा, पास में ही सब्जी की दुकान है. वहां वह अपनी स्पेशल डिश के लिए कुछ सब्जियां लेने गई हैं…पर यह सब मैं तुम से बेकार कह रहा हूं. तुम मुझे जानती नहीं होगी. इस बीच कभी आई नहीं तुम जो मुझे देखतीं और हमारा परिचय होता… बस, इतना जान लो…मेरा नाम प्रभुनाथ है और तुम्हारी मां मुझे प्रभु कहती हैं. तुम चाहो तो प्रभु अंकल कह सकती हो.’’

ये कहानी भी पढ़ें : मान अभिमान

‘‘प्रभु अंकल…जब मां आ जाएं, बता दीजिएगा…श्वेता का फोन था.’’ और इतना कह कर उस ने फोन काट दिया. न स्वयं कुछ और कहा, न उन्हें कहने का अवसर दिया.

श्वेता की बेचैनी उस फोन के बाद बहुत बढ़ गई. कौन हो सकते हैं यह महाशय? क्या अमन अंकल की तरह मां ने किसी नए…आगे सोचने से खुद हिचक गई श्वेता. कैसे सोचे? मां आखिर मां होती है. उन के बारे में हमेशा, हर बार, हर पुरुष को ले कर हर ऐसीवैसी बात कैसे सोची जा सकती है?

फिर भी यह सवाल तो है ही कि प्रभुनाथ अंकल कौन हैं? कैसे होंगे? कितनी उम्र होगी? मां से कब, कहां, कैसे, किन हालात में मिले होंगे और उन का संबंध मां से इतना गहरा कैसे बन गया कि मां अपना पूरा घर उन के भरोसे छोड़ कर पास के जनरल स्टोर तक चली गईं… सामान और स्पेशल डिश के लिए सब्जियां लेने…

इस का मतलब हुआ प्रभु अंकल मां के लिए कोई स्पेशल व्यक्ति हैं…लेकिन यह नाम पहले तो कभी मां से सुना नहीं. अचानक कहां से प्रकट हो गए यह अंकल? और इन का मां से क्या संबंध होगा…जिन के लिए मां स्पेशल डिश बनाती हैं…कह रहे थे कि जब वह आते हैं तो मां जरूर कोई न कोई स्पेशल डिश बनाती हैं…इस का मतलब हुआ यह महाशय वहां नहीं, कहीं और रहते हैं और कभीकभार ही मां के पास आते हैं.

अड़ोसपड़ोस के लोग अगर देखते होंगे तो मां के बारे में क्या सोचते होंगे? कसबाई शहर में इस तरह की बातें पड़ोसियों से कहां छिपती हैं? मां ने क्या कह कर उन का परिचय पड़ोसियों को दिया होगा? और उस परिचय पर क्या सब ने यकीन कर लिया होगा?

स्थिति पर श्वेता जितना सोचती जाती, उतने ही सवालों के घेरे में उलझती जाती. पिछली बार जब वह मां से मिलने गई थी तो उन की लिखनेपढ़ने की मेज पर एक नई डायरी रखी देखी थी. मां को डायरी लिखने का शौक है और महिला होने के नाते उन की वह डायरी अकसर पत्रपत्रिकाओं में छपती भी रहती है, अखबारों के साहित्य संस्करणों से ले कर साहित्यिक पत्रिकाओं तक में उन के अंश छपते हैं. चर्चा भी होती है. शहर में सब इसलिए भी उन्हें जानते हैं कि वहां के महाविद्यालय में हिंदी की प्रवक्ता थीं. लंबी नौकरी के बाद वहीं से रिटायर हुईं. मकान पिता ही बना गए थे. अवकाश प्राप्त जिंदगी आराम से वहीं गुजार रही हैं. भाई विदेश में है. श्वेता के पास आ कर वह रहना नहीं चाहतीं. बेटीदामाद के पास आ कर रहना उन्हें अपनी स्वतंत्रता में बाधक ही नहीं लगता बल्कि अनुचित भी लगता है.

इंतजार करती रही श्वेता कि मां अपनी तरफ से फोन करेंगी पर उन का फोन नहीं आया. मां की डायरी में एक अंगरेजी कवि का वाक्य शुरू में ही लिखा हुआ पढ़ा था ‘इन यू ऐट एव्री मोमेंट, लाइफ इज अबाउट टू हैपन.’ यानी आप के भीतर हर क्षण, जीवन का कुछ न कुछ घटता ही है…जीवन घटनाविहीन नहीं होता.

महाविद्यालय में पढ़ते समय भी श्वेता अपनी सहेलियों से मां की प्रशंसा सुनती थी. बहुत अच्छा बोलती हैं. उन की स्मृति गजब की है. ढेरों कविताओं के उदाहरण वह पढ़ाते समय देती चली जाती हैं. भाषा पर जबरदस्त अधिकार है. कालिज में शायद ही कोई उन जैसे शब्दों का चयन अपने व्याख्यान में करता है. पुरुष अध्यापक प्रशंसा में कह जाते हैं कि प्रो. कुमुदजी पता नहीं कहां से इतना वक्त निकाल लेती हैं यह सब पढ़नेलिखने का?

पढ़ें ये कहानी : नायाब नुसखे रिश्वतबाजी के

कुछ मुंहफट जड़ देते कि पति रेलवे में स्टेशन मास्टर हैं. अकसर इस स्टेशन से उस स्टेशन पर फेंके जाते रहते हैं. बाहर रहते हैं और महीने में दोचार दिन के लिए ही आते हैं. इसलिए पति को ले कर उन्हें कोई व्यस्तता नहीं है. रहे बच्चे तो वे अब बड़े हो गए हैं. बेटा आई.आई.टी. में पढ़ने बाहर चला गया है. कल को वहां से निकलेगा तो विदेश के दरवाजे उसे खुले मिलेंगे. लड़की पढ़ रही है. योग्य वर मिलते ही उस की शादी कर देंगी. फुरसत ही फुरसत है उन्हें…पढ़ेंगीलिखेंगी नहीं तो क्या करेंगी?

श्वेता एम.ए. के बाद शोधकार्य करना चाहती थी पर पिता को अपने एक मित्र का उपयुक्त लड़का जंच गया. रिश्ता तय कर दिया और श्वेता की शादी कर दी. बी.एड. उस ने शादी के बाद किया और पति की कोशिशों से उसे दिल्ली में एक अच्छे पब्लिक स्कूल में नौकरी मिल गई. पति एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में उच्च पद पर थे. व्यस्तता के बावजूद श्वेता अपने संबंध और कार्य से खुश थी. छुट्टियों में जबतब मां के पास हो आती, कभी अकेली, कभी बच्चों के साथ, तो कभी पति भी साथ होते.

आई.आई.टी. के तुरंत बाद भाई अमेरिका चला गया था. इधर मंदी के चलते अमेरिका से भारत आना उस के लिए अब संभव न था. कहता है अगर नौकरी से महीने भर बाहर रहा तो कंपनी समझ लेगी कि बिना इस आदमी के काम चल सकता है तो क्यों व्यर्थ में एक आदमी की तनख्वाह दी जाए. वैसे भी अमेरिका में जौब की बहुत मारामारी चल रही है.

फिर भी भाई को पिता की एक हादसे में हुई मृत्यु के बाद आना पड़ा था और बहुत जल्दी क्रियाकर्म कर के वापस चला गया था. पिता उस दिन अपने नियुक्ति वाले स्टेशन से घर आ रहे थे लेकिन टे्रन को एक छोटे स्टेशन पर भीड़ ने आंदोलन के चलते रोक लिया था. टे्रन पर पत्थर फेंके गए तो कुछ दंगाइयों ने टे्रन में आग लगा दी. जिस डब्बे में पिताजी थे उस डब्बे को लोगों ने आग लगा दी थी. सवारियां उतर कर भागीं तो उन पर दंगाइयों ने ईंटपत्थर बरसाए.

पत्थर का एक बड़ा टुकड़ा पिता के सिर में आ कर लगा तो वह वहीं गिर पड़े. साथ चल रहे अमन अंकल ने उन्हें उठाया. सिर से खून बहुत तेजी से बह रहा था. लोगों ने उन्हें ले कर अस्पताल तक नहीं जाने दिया. रास्ता रोके रहे. हाथपांव जोड़ कर अमन अंकल ने किसी तरह पिताजी को कहीं सुरक्षित जगह ले जाने का प्रयास किया पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी और उन की मृत्यु हो गई थी.

भाई ने पिता के फंड, पेंशन आदि की सारी जिम्मेदारी अमन अंकल को ही सौंप दी थी, ‘‘अंकल आप ही निबटाइए ये सरकारी झमेले. आप तो जानते हैं, इन कामों को निबटाने में महीनों लगेंगे, अगर मैं यहां रुक कर यह सब करता रहा तो मेरी नौकरी चली जाएगी.’’

‘‘तुम चिंता न करो. अपनी नौकरी पर जाओ. यहां मैं सब संभाल लूंगा. इसी रेलवे विभाग में हूं. जानता हूं. ऊपर से नीचे तक लेटलतीफी का राज कायम है.’’

अमन अंकल ने ही फिर सब संभाला था. बाद में उन का ट्रांसफर वहीं हो गया तो काम को निबटाने में और अधिक सुविधा रही. तब से अमन अंकल का हमारे परिवार से संबंध जुड़ा. वह अरसे तक जारी रहा. उन का एक ही लड़का था जो आई.टी. इंजीनियर था. पहले बंगलौर में नौकरी पर लगा था. बाद में ऊंचे वेतन पर हैदराबाद चला गया.

अमन अंकल की पत्नी की मृत्यु कैंसर से हो गई थी. नौकरी शेष थी तो अमन अंकल वहीं रह कर नौकरी निभाते रहे. इस बीच उन का हमारे परिवार में आनाजाना जारी रहा. मां की उन्होंने बहुत देखरेख की. पिता की मृत्यु का सदमा वह उन्हीं के कारण सह सकीं. यह उन का हमारे परिवार पर उपकार ही रहा. बाकी मां से उन के क्या और कैसे संबंध रहे, वह अधिक नहीं जानती.

कल तुम बिजी आज हम बिजी : भाग 2

यहां मुकेश को कंपनी की तरफ से बड़ा सा बंगला और साथ ही गाड़ी भी मिली थी. शालिनी के अरमानों को जैसे पंख लग गए थे. यहां उसे पूरी आजादी थी, जैसे चाहे रहो. मुश्किल हुई तो बस, बंटी के कारण, सुबह अफिस जाते समय मुकेश उसे पालना घर में छोड़ देते थे पर लौटते समय बहुत देर हो जाती, शालिनी और मुकेश दोनों में से एक भी समय पर उसे लेने नहीं पहुंच पाते. मुकेश देर तक आफिस में रहते तो उन से कुछ उम्मीद करना बेकार था.

शालिनी को हमेशा पालनाघर के इंचार्ज की शिकायत सुननी पड़ती. उस दिन भी जब वह आफिस से लौटी तो शाम गहराने लगी थी. सारे बच्चे जा चुके थे. सिर्फ बंटी इंचार्ज के कमरे के बाहर सीढि़यों पर घुटने पर सिर टिकाए उदास सा बैठा था. उसे देख कर बंटी धीरे से मुसकराया और उठ कर खड़ा हो गया. इंचार्ज ने बाहर आ कर कहा, ‘मैडम, आप हमेशा लेट आती हैं, सारे बच्चे चले जाते हैं. यह अकेला रह जाता है तो रोता रहता है. एक दिन की बात हो तो ठीक है पर रोजरोज तो यह नहीं चल सकता.’

शालिनी इंचार्ज की बात सुन कर समझ गई कि वह देर तक रुकने के पैसे चाहता है. उस ने इंचार्ज को अतिरिक्त पैसे दे कर बंटी के देर तक रुकने का इंतजाम कर लिया. और कोई चारा भी तो नहीं था. घर के काम के लिए नौकर भी कंपनी से ही मिला था. जिंदगी मजे से गुजर रही थी. उस में भूचाल तभी आता जब बंटी बीमार होता या पालनाघर बंद होता.  ऐसे में दोनों एकदूसरे को छुट्टी लेने को कहते.

ये भी पढ़ें- Short Story : बदलाव

गरमी के दिन थे. स्कूल बंद हो गए तब भी बंटी नियम से पालनाघर जाता. एक दिन शाम को शालिनी, बंटी को ले कर लौटी तो उसी समय लखनऊ से मुकेश के पापा का फोन आया था. उन्होंने बताया, ‘दिनेश की शादी तय हो गई है और इसी महीने की 30 तारीख को शादी है. मेरी इच्छा है कि तुम लोग समय से पहले आ कर अपनी जिम्मेदारी संभाल लो. घर की अंतिम शादी है, बहुत मेहमान आएंगे,’ पापा बहुत उत्साह से बता रहे थे.

शालिनी सोचने लगी, इस समय आफिस में ढेरों काम हैं, कैसे जाना होगा. तभी पापा ने टोका, ‘तुम सुन रही हो न,’ तो वह चौंकी, ‘हां, पापा, हम लोग समय से पहले आ जाएंगे.’

उस समय तो शालिनी ने कह दिया पर वे गए ऐन वक्त पर ही, जब शादी की सारी तैयारियां हो चुकी थीं. मेहमानों से घर भरा था. धूमधाम से विवाह संपन्न हुआ. इस बार मां छांट कर अपनी पसंद की बहू लाई थीं. आते ही छोटी बहू ने घर की जिम्मेदारी संभाल ली.

फिर 2 वर्षों तक मुकेश व शालिनी का लखनऊ जाना ही नहीं हुआ. एक दिन दिनेश का फोन आया कि पापा की तबीयत बहुत खराब है. आप लोग तुरंत आ जाओ. वे पहुंचे तब तक उन का देहांत हो चुका था. मां बेहद दुखी थीं. शालिनी को वापस लौटने की तैयारी करते समय कुछ ध्यान आया. बात उस ने मुकेश से कही, ‘पापा के जाने के बाद मां बहुत अकेलापन अनुभव कर रही हैं. क्यों न हम उन्हें कुछ दिनों के लिए अपने साथ ले चलें?’

ये भी पढ़ें- आज का इंसान ऐसा क्यों : जिंदगी का है फलसफा

मुकेश बोले, ‘मैं भी यही सोच रहा था. बंटी के कारण उन का मन भी लग जाएगा.’ इस के बाद शालिनी मूल उद्देश्य  पर आ गई और बोली, ‘हमें बंटी को पालनाघर में नहीं छोड़ना पडे़गा. वैसे भी अब तो बंटी का स्कूल में दाखिला हो जाएगा तो आधा दिन वह वहीं रहेगा और बाकी समय मां संभाल लेंगी.’

शालिनी की बात मुकेश को ठीक लगी पर मां पता नहीं इस के लिए तैयार होंगी या नहीं. मुकेश ने दुविधा जताई तो वह तपाक से बोली, ‘नहीं, मां कभी मना नहीं करेंगी. पोते का मोह उन्हें मना करने से रोकेगा.’

मां से पूछा तो वह आसानी से तैयार हो गईं. नन्हे बंटी का लगाव उन्हें खींच कर अपने साथ ले गया.

चंडीगढ़ में उन के बंगले के सामने बहुत बड़ा लौन था. सैकड़ों प्रकार के पेड़पौधे लौन की खूबसूरती बढ़ा रहे थे. मां बंटी को ढेरों कहानियां सुनातीं, उस के साथ लूडो खेलतीं, कई किताबें दोनों साथसाथ पढ़ते. बंटी और दादी  ने बाहर बाग में बहुत से पौधे साथसाथ लगाए. बंटी अपनी दादी से बहुत सवाल करता था. उसे पता था कि उन के जवाब सिर्फ दादी मां ही दे सकती हैं, वह उन से ही पूछपूछ कर अपनी जिज्ञासा शांत करता वरना मम्मीपापा के पास तो उस के लिए छुट्टी वाले दिन भी वक्त नहीं था.

ये भी पढ़ें- साथ वाली सीट

उस दिन रविवार था. दादी मां सुबह ही नहा कर रसोई में चली गईं. रविवार के दिन मां बंटी के लिए अपने हाथ से हलवा बनातीं और बंटी को खिलाती थीं. उन्होंने अभी कटोरी में हलवा निकाल कर रखा ही था कि बंटी के जोर से चीखने की आवाज आई. भाग कर  दादी मां बाहर गईं तो देखा बरामदे में खड़ा बंटी अपने गाल को सहला रहा है और बड़ी कातर नजरों से दादी की ओर देख रहा था. तभी वहां मुकेश आ गए, ‘क्या शालिनी, बच्चे के साथ तुम भी बच्ची बन जाती हो. यह सब काम तुम बंटी के जाने के बाद भी तो कर सकती थीं.’

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें