अधिकार : क्या रिश्ते में अधिकार की भावना जरूरी है – भाग 1

प्रेम में त्याग होता है स्वार्थ नहीं. जो यह कहता है कि अगर तुम मेरे नहीं हो सके तो किसी दूसरे के भी नहीं हो सकते…यहां प्यार नहीं स्वार्थ बोल रहा है…सच तो यह है कि प्रेम में जहां अधिकार की भावना आती है वहीं इनसान स्वार्थी होने लगता है और जहां स्वार्थ होगा वहां प्रेम समाप्त हो जाएगा. उपरोक्त पंक्तियां पढ़तेपढ़ते विनय ने आंखें मूंद लीं…

एकएक शब्द सत्य है इन पंक्तियों का. क्या उस के साथ भी ऐसा ही कुछ घटित नहीं हो रहा. अतीत का एकएक पल उस की स्मृतियों में विचरने लगा. विनय जब छोटा था तभी उस के पापा गुजर गए. उसे और उस की छोटी बहन संजना को उस की मां सपना ने बड़ी कठिनाई से पाला था.

ये भी पढ़ें- हथेली पर आत्मसम्मान

वह कैसे भूल सकता है वे दिन जब मां बड़ी कठिनाइयों से दो वक्त की रोटी जुटा पाती थीं. अपने जीवनकाल में पिता ने घर के सामान के लिए इतना कर्ज ले लिया था कि पी.एफ. में से कुछ बचा ही नहीं था. पेंशन भी ज्यादा नहीं थी. मां को आज से ज्यादा कल की चिंता थी. उस की और संजना की उच्चशिक्षा के साथसाथ उन्हें संजना के विवाह के लिए भी रकम जमा करनी थी. उन का मानना था कि दहेज का लेनदेन अभी भी समाज में विद्यमान है. कुछ रकम होगी तो दहेजलोभियों को संतुष्ट किया जा सकेगा अन्यथा बेटी के हाथ पीले करना आसान नहीं है.

बड़े प्रयत्न के बाद उन्हें एक स्कूल में अध्यापिका की नौकरी मिली पर वेतन इतना था कि घर का खर्च ही चल पाता था. फायदा बस इतना हुआ कि अध्यापिका की संतान होने के कारण उन को आसानी से स्कूल में दाखिला मिल गया. मां ने उन की देखभाल में कोई कमी नहीं होने दी. आवश्यकता का सभी सामान उन्हें उपलब्ध कराने की उन्होंने कोशिश की. इस के लिए ट्यूशन भी पढ़ाए. उन दोनों ने भी मां के विश्वास को भंग नहीं होने दिया. उन की खुशी की कोई सीमा नहीं रही जब मैट्रिक में उन्होंने राज्य में प्रथम स्थान प्राप्त किया. स्कूल की तरफ से स्कौलरशिप तो मिली ही, उस को पहचान भी मिली. यही 12वीं में हुआ. उसे आई.आई.टी. में दाखिला तो नहीं मिल पाया पर निट में मिल गया.

ये भी पढ़ें- रुपहली चमक

संजना ने भी अपने भाई विनय का अनुसरण किया. उस ने भी बायो- टैक्नोलौजी को अपना कैरियर बनाया. बच्चों को अपनेअपने सपने पूरे करते देख मां को सुकून तो मिला पर मन ही मन उन्हें यह डर भी सताने लगा कि कहीं बच्चे अपनी चुनी डगर पर इतने मस्त न हो जाएं कि उन की अनदेखी करने लगें. अब वे उन के प्रति ज्यादा ही चिंतित रहने लगीं. मां स्कूल, कालेज की हर बात तो पूछती हीं, उन के मित्रों के बारे में भी हर संभव जानकारी लेने का प्रयास करतीं. विनय और संजना ने कभी उन की इस बात का बुरा नहीं माना क्योंकि उन्हें लगता था कि मां का अतिशय प्रेम ही उन से यह करवा रहा है. भला मां को उन की चिंता नहीं होगी तो किसे होगी. मां की खुशी की सीमा न रही जब इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी होते ही उस की एक मल्टीनैशनल कंपनी में नौकरी लग गई. संजना का कोर्स भी पूरा होने वाला था. मां ने उस के विवाह की बात चलानी प्रारंभ कर दी…संजना रिसर्च करना चाहती थी. उस ने अपना पक्ष रखा तो मां ने यह कह कर अनसुना कर दिया कि मुझे प्रयास करने दो, यह कोई आवश्यक नहीं कि तुरंत अच्छा रिश्ता मिल ही जाए.

संयोग से एक अच्छा घरपरिवार मिल गया. संजना के मना करने के बावजूद मां ने अपने अधिकार का प्रयोग कर उस पर विवाह के लिए दबाव बनाया. विनय ने संजना का साथ देना चाहा तो मां ने उस से कहा कि मुझे अपनी एक जिम्मेदारी पूरी कर लेने दो, मैं कुछ गलत नहीं कर रही हूं. तुम स्वयं जा कर लड़के से मिल लो, अगर कुछ कमी लगे तो बता देना मैं अपना निर्णय बदल दूंगी और जहां तक संजना की पढ़ाई का प्रश्न है वह विवाह के बाद भी कर सकती है. विनय तब समीर से मिला था. उस में उसे कोई भी कमी नजर नहीं आई, आकर्षक व्यक्तित्व होने के साथ वह अच्छे खातेपीते घर से है, कमा-खा भी अच्छा रहा है.

ये भी पढ़ें- मां और मोबाइल

इंजीनियरिंग कालेज में लैक्चरर है. मां ने जैसे दिन देखे थे, जैसा जीवन जिया था उस के अनुसार उसे उन का सोचना गलत भी नहीं लगा. वे एक मां हैं, हर मां की इच्छा होती है कि उन के बच्चे जीवन में जल्दी स्थायित्व प्राप्त कर लें. आखिर वह संजना को मनाने में कामयाब हो गया. संजना और समीर का विवाह धूमधाम से हो गया. संजना के विवाह के उत्तरदायित्व से मुक्त हो कर मां कुछ दिनों की छुट्टी ले कर विनय के पास आईं. एक दिन बातोंबातों में उस ने अपने मन की बात उन के सामने रखते हुए कहा, ‘मां अब आप की सारी जिम्मेदारियां समाप्त हो गई हैं. अब नौकरी करने की क्या आवश्यकता है, अब यहीं रहो.’

बेटे के मुख से यह बात सुन कर मां भावविभोर हो गईं. आखिर इस से अधिक एक मां को और क्या चाहिए. उन्होंने त्यागपत्र भेज दिया. कुछ दिन वे उस घर को किराए पर उठा कर तथा वहां से कुछ आवश्यक सामान ले कर आ गईं. उस ने भी आज्ञाकारी पुत्र की तरह मां का कर्ज उतारने में कोई कसर नहीं छोड़ी. घर के खर्च के पूरे पैसे मां को ला कर देता, हर जगह अपने साथ ले कर जाता. उन की हर इच्छा पूरी करने का हरसंभव प्रयत्न करता. धीरेधीरे पुत्र की जिंदगी में उन का दखल बढ़ता गया. वे उस से एकएक पैसे का हिसाब लेने लगीं, अगर वह कभी मित्रों के साथ रेस्तरां में चला जाता तो मां कहतीं, ‘बेटा फुजूलखर्ची उचित नहीं है, आज की बचत कल काम आएगी.’

ये भी पढ़ें- मैं नहीं जानती

अधिकार : क्या रिश्ते में अधिकार की भावना जरूरी है

Short Story : हथेली पर आत्मसम्मान

‘‘सो म, तुम्हारी यह मित्र इतना मीठा क्यों बोलती है?’’

श्याम के प्रश्न पर मेरे हाथ गाड़ी के स्टीयरिंग पर तनिक सख्त से हो गए. श्याम बहुत कम बात करता है लेकिन जब भी बात करता है उस का भाव और उस का अर्थ इतना गहरा होता है कि मैं नकार नहीं पाता और कभी नकारना चाहूं भी तो जानता हूं कि देरसवेर श्याम के शब्दों का गहरा अर्थ मेरी समझ में आ ही जाएगा.

‘‘जरूरत से ज्यादा मीठा बोलने वाला इनसान मुझे मीठी छुरी जैसा लगता है, जो अंदर से हमारी जड़ें काटता है और सामने चाशनी बरसाता है,’’ श्याम ने अपनी बात पूरी की.

‘‘ऐसा क्यों लगा तुम्हें? मीठा बोलना अच्छी आदत है. बचपन से हमें सिखाया जाता है सदा मीठा बोलो.’’

‘‘मीठा बोलना सिखाया जाता है न, झूठ बोलना तो नहीं सिखाया जाता. यह लड़की तो मुझे सिर से ले कर पैर तक झूठ बोलती लगी. हर भाव को प्रदर्शन करने में मनुष्य एक सीमा रेखा खींचता है. जरूरत जितनी मिठास ही मीठी लगती है. जरूरत से ज्यादा मीठा किस लिए? तुम से कोई मतलब नहीं है क्या उसे? कुछ न कुछ स्वार्थ जरूर होगा वरना आज के जमाने में कोई इतना मीठा बोलता ही नहीं. किसी के पास किसी के बारे में सोचने तक का समय नहीं और वह तुम्हें अपने घर बुला कर खाना खिलाना चाहती है. कौनकौन हैं उस के घर में?’’

‘‘उस के मांबाप हैं, 1 छोटी बहन है, बस. पिता रिटायर हो चुके हैं. पिछले साल ही कोलकाता से तबादला हुआ है. साथसाथ काम करते हैं हम. अच्छी लड़की है शोभना. मीठा बोलना उस का ऐब कैसे हो गया, श्याम?’’

श्याम ने ‘छोड़ो भी’ कुछ इस तरह कहा जिस के बाद मैं कुछ कहूं भी तो उस का कोई अर्थ ही नहीं रहा. घर पहुंच कर भी वह अनमना सा चिढ़ा सा रहा, मानो कहीं का गुस्सा कहीं निकाल रहा हो.

ये भी पढ़ें- Short Story : अंतिम निर्णय

‘‘लगता है, कहीं का गुस्सा तुम कहीं निकाल रहे हो? क्या हो गया है तुम्हें? इतनी जल्दी किसी के बारे में राय बना लेना क्या इतना जरूरी है…थोड़ा तो समय दो उसे.’’

‘‘वह क्या लगती है मेरी जो मैं उसे समय दूं और फिर मैं होता कौन हूं उस के बारे में राय बनाने वाला. अरे, भाई, कोई जो चाहे सो करे…तुम्हारी मित्र है इसलिए समझा दिया. जरा आंख और कान खोल कर रखना. कहीं बेवकूफ मत बनते रहना मेरी तरह. आजकल दोस्ती और किसी की निष्ठा को डिस्पोजेबल सामान की तरह इस्तेमाल कर के डस्टबिन में फेंक देने वालों का जमाना है.’’

‘‘सभी लोग एक जैसे नहीं होते हैं, श्याम.’’

‘‘तुम से ज्यादा तजरबा है मुझे दुनिया का. 10 साल हो गए हैं मुझे धक्के खाते हुए. तुम तो अभीअभी घर छोड़ कर आए हो न इसलिए नहीं जानते, घर की छत्रछाया सिर्फ घर %A

Serial Story : मेरी मां का नया प्रेमी

Serial Story : मेरी मां का नया प्रेमी – भाग 2

कुछकुछ आभास श्वेता को उन की डायरी से ही हुआ था. एक बार उन की डायरी में कुछ कविताओं के अंश नोट किए हुए मिले थे.

‘तुम चले जाओगे पर थोड़ा सा यहां भी रह जाओगे, जैसे रह जाती है पहली बारिश के बाद हवा में धरती की सोंधी सी गंध.’

एक पृष्ठ पर लिखी ये पंक्तियां पढ़ कर तो श्वेता भौचक ही रह गई थी…सब कुछ बीत जाने के बाद भी बचा रह गया है प्रेम, प्रेम करने की भूख, केलि के बाद शैया में पड़ गई सलवटों सा… सबकुछ नष्ट हो जाने के बाद भी बचा रहेगा प्रेम, …दीपशिखा ही नहीं, उस की तो पूरी देह ही बन गई है दीपक, प्रेम में जलती हुई अविराम…

मम्मी अचानक ही आ गई थीं और डायरी पढ़ते देख एक क्षण को सिटपिटा गई थीं. बात को टालने और स्थिति को बिगड़ने से बचाने के लिए श्वेता खिसियायी सी हंस दी थी, ‘‘यह कवि आप को बहुत पसंद आने लगे हैं क्या, मम्मी?’’

‘‘नहीं, तुम गलत समझ रही हो,’’ मम्मी ने व्यर्थ हंसने का प्रयत्न किया था, ‘‘एक छात्रा को शोध करा रही हूं नए कवियों पर…उन में इस कवि की कविताएं भी हैं. उन की कुछ अच्छी पंक्तियां नोट कर ली हैं डायरी में. कभी कहीं भाषण देने या क्लास में पढ़ाने में काम आती हैं ऐसी उजली और दो टूक बात कहने वाली पंक्तियां.’’ फिर मां ने स्वयं एक पृष्ठ खोल कर दिखा दिया था, ‘‘यह देखो, एक और कवि की पंक्तियां भी नोट की हैं मैं ने…’’ वह बोली थीं.

ये भी पढ़ें- Short Story : जब मैं छोटा था

उस पृष्ठ को वह एक सांस में पढ़ गई थी, ‘‘धीरेधीरे जाना प्यार की बहुत सी भाषाएं होती हैं दुनिया में, देश में और विदेश में भी लेकिन कितनी विचित्र बात है प्यार की भाषा सब जगह एक ही है और यह भी जाना कि वर्जनाओं की भी भाषा एक ही होती है…प्यार की भाषा में शब्द नहीं होते सिर्फ अक्षर होते हैं और होती हैं कुछ अस्फुट ध्वनियां और उन्हीं को जोड़ कर बनती है प्यार की भाषा…’’

मां के उत्तर से वह न सहमत हुई थी, न संतुष्ट पर वह व्यर्थ उन से और इस मसले पर उलझना नहीं चाहती थी. शायद यह सोच कर चुप लगा गई थी कि मां भी आखिर हैं तो एक स्त्री ही और स्त्री में प्रेम पाने की भूख और आकांक्षा अगर आजीवन बनी रह जाए तो इस में आश्चर्य क्या है?

पिता के साथ मां ने एक लंबा वैवाहिक जीवन जिया था. उस दुर्घटना में वह अचानक मां को अकेला छोड़ कर चले गए थे. शरीर की कामनाएंइच्छाएं तो अतृप्त रह ही गई होंगी…55-56 साल की उम्र थी तब मम्मी की. इस उम्र में शरीर पूरी तरह मुरझाता नहीं है. फिर पिता महीने 2 महीने में ही घर आ पाते थे. पूरा जीवन तो मां ने एक अतृप्ति के साथ बियाबान रेगिस्तान में प्यासी हिरणी की तरह मृगतृष्णा में काटा होगा…आगे और आगे जल की तलाश में भटकी होंगी…और वह जल उन्हें मिला होगा अमन अंकल में या हो सकता है मिल रहा हो प्रभु अंकल में.

एक शहर के महाविद्यालय में किसी व्याख्यान माला में भाषण देने गई थीं मम्मी. उन के परिचय में जब वहां बताया गया कि साहित्य में उन का दखल एक डायरी लेखिका के रूप में भी है तो उन के भाषण के बाद एक सज्जन उन से मिलने उन के निकट आ गए, ‘‘आप ही

डा. कुमुदजी हैं जिन की डायरियों के कई अंश…’’ मम्मी उठ कर खड़ी हो गई थीं, ‘‘आप का परिचय?’’

‘‘यहां निकट ही एक नेशनल पार्क है… मैं उस में एक छोटामोटा अधिकारी हूं.’’ इसी बीच महाविद्यालय के एक प्राध्यापकजी टपक पड़े थे, ‘‘हां, कुमुदजी यह छोटे नहीं मोटे अधिकारी हैं. वन्य जीवों पर इन्होंने अनेक शोध कार्य किए हैं. हमारे जंतु विज्ञान विभाग में यह व्याख्यान देने आते रहते हैं. यह विद्यार्थियों को जानवरों से संबंधित बड़ी रोचक जानकारियां देते हैं. अगर आप के पास समय हो तो आप इन का नेशनल पार्क अवश्य देखने जाएं… आप को वहां कई नए अनुभव होंगे.’’

ये भी पढ़ें – ईर्ष्या : क्या था उस लिफाफे में

श्वेता को मां ने बताया था, ‘‘यह महाशय ही प्रभुनाथ हैं.’’

मां की डायरी में बाद में श्वेता ने पढ़ा था.

‘किसीकिसी आदमी का साथ कितना अपनत्व भरा होता है और उस के साथ कैसे एक औरत अपने को भीतर बाहर से भरीभरी अनुभव करती है. क्या सचमुच आदमी की उपस्थिति जीवन में इतनी जरूरी होती है? क्या इसी जरूरीपन के कारण ही औरत आदमी को आजीवन दुखों, परेशानियों के बावजूद सहती नहीं रहती?’

खालीपन और अकेलेपन, भीतर के रीतेपन को भरने के लिए जीवन में क्या सचमुच किसी पुरुष का होना नितांत आवश्यक नहीं है…कहीं कोई आदमी आप के जीवन में होता है तो आप को लगता रहता है कि कहीं कोई है जिसे आप की जरूरत है, जो आप की प्रतीक्षा करता है, जो आप को प्यार करता है…चाहता है, तन से भी, मन से भी और शायद आत्मा से भी…

प्रभुनाथ के साथ पूरे 7 दिन तक नेशनल पार्क के भीतर जंगल के बीच में बने आरामदेय शानदार हट में रही… तरहतरह के जंगली जंतु तो प्रभुनाथ ने अपनी जीप में बैठा कर दिखाए ही, थारू जनजाति के गांवों में भी ले गए और उन के बारे में अनेक रोचक और विचित्र जानकारियां दीं, जिन से अब तक मैं परिचित नहीं थी.

‘दुनिया में कितना कुछ है जिसे हम नहीं जानते. दुनिया तो बहुत बड़ी है, हम अपने देश को ही ठीक से नहीं जानते. इस से पहले हम ने कभी सपने में भी कल्पना नहीं की थी कि यह नेशनल पार्क…यह मनोरम जंगल, जंगल में जानवरों, पेड़पौधों की एक भरीपूरी विचित्र और अद्भुत आनंद देने वाली एक दुनिया भी होती है, जिसे हर आदमी को जीवन में जरूर देखना और समझना चाहिए.’

प्रभुनाथ ने चपरासी को मोटर- साइकिल से भेज कर भोजन वहीं उसी आलीशान हट में मंगा लिया था. साथ बैठ कर खाया. खाने के बाद प्रभुनाथ उठे और बोले, ‘‘तो ठीक है मैडम…आप यहां रातभर आराम करें. हम अपने क्वार्टर में जा कर रहेंगे.’’

‘‘नहीं. मैं अकेली हरगिज इस जंगल में नहीं रहूंगी,’’ मैं हड़बड़ा गई थी, ‘‘रात हो आई है और जानवरों की कैसी डरावनीभयावह आवाजें रहरह कर आ रही हैं. कहीं कोई आदमखोर यहां आ गया और उस ने इस हट के दरवाजे को तोड़ कर मुझ पर हमला कर दिया तो?’’

‘‘क्या आप को इस हट का कोई दरवाजा टूटा या कमजोर नजर आता है? हर तरह से इसे सुरक्षित बनाया गया है. इस में देश और प्रदेश के मंत्री, सचिव और आला अफसर, उन के परिवार आ कर रहते हैं. मैडम, आप चिंता न करें. बस रात को कोई जानवर या आदमी दरवाजे को धक्का दे, पंजों से खरोंचे तो आप दरवाजा न खोलें. यहां आप को पीने के लिए पानी बाथरूम में मिलेगा. चाय-कौफी बनाना चाहेंगी तो उस के लिए गैसस्टोव और सारी जरूरी क्राकरी व सामग्री किचन में मिलेगी. बिस्तर आरामदेय है. हां, रात में सर्दी जरूर लगेगी तो उस के लिए 2 कंबल रखे हुए हैं.’’

ये भी पढ़ें- Short Story : मान अभिमान

‘‘वह सब ठीक है प्रभु…पर मैं यहां अकेली नहीं रहूंगी या तो आप साथ रहें या फिर हमें भी अपने क्वार्टर की तरफ के किसी क्वार्टर में रखें.’’

‘‘नहीं मैडम,’’ वह मुसकराए, ‘‘आप डायरी लेखिका हैं. हिंदी की अच्छी वक्ता और प्रवक्ता हैं. हम चाहते हैं कि आप यहां के वातावरण को अपने भीतर तक अनुभव करें. देखें कि कैसा लगता है. बिलकुल नया सुख, नया थ्रिल, नया अनुभव होगा…और वह नया थ्रिल आप अकेले ही महसूस कर पाएंगी…किसी के साथ होने पर नहीं.

‘‘आप देखेंगी, जीवन जब खतरों से घिरा होता है…तो कैसाकैसा अनुभव होता है…जान बचे, इस के लिए ऐसेऐसे देवता आप को मनाने पड़ते हैं जिन की याद भी शायद आप को अब तक कभी न आई हो…बहुत से लेखक इस अनुभव के लिए ही यहां इस हट में आ कर रहना पसंद करते हैं.’’

Serial Story : मेरी मां का नया प्रेमी – भाग 3

‘‘वह तो सब ठीक है…पर आप को मैं यहां से जाने नहीं दूंगी.’’ फिर कुछ सोच कर पूछ बैठीं, ‘‘बाहर गेट के क्वार्टरों में आप की प्रतीक्षा पत्नीबच्चे भी तो कर रहे होंगे? अगर ऐसा है तो आप जाएं पर हमें भी वहीं किसी क्वार्टर में रखें.’’

गंभीर बने रहे काफी देर तक प्रभुनाथ. फिर एक लंबी सांस छोड़ते हुए बोले, ‘‘अपने बारे में किसी को मैं कम ही बताता हूं. यहां बाईं तरफ जो छोटा कक्ष है उस में एक अलमारी में जहां वन्य जीवजंतुओं से संबंधित पुस्तकें हैं वहीं मेरे द्वारा लिखी गई और शोध के रूप में तैयार पुस्तक भी है. अकसर यहां मंत्री लोग और अफसर अपनी किसी न किसी महिला मित्र को ले कर आते हैं और 2-3 दिन तक उस का जम कर देह सुख लेते हैं. उन के लिए हम लोग यहां हर सुविधा जुटा कर रखते हैं. क्या करें, नौकरी करनी है तो यह सब भी इंतजाम करने पड़ते हैं…’’

झेंप गईं डा. कुमुद, ‘‘खैर, वह सब छोडि़ए. आप अपने परिवार के बारे में बताइए.’’

‘‘एक बार हम पिकनिक मनाने यहां इसी हट पर अपने परिवार के साथ आए हुए थे. अधिक रात होने पर पता नहीं पत्नी को क्या महसूस हुआ कि बोली, ‘यहां से चलिए, बाहर के क्वार्टरों में ही रहेंगे. यहां न जाने क्यों आज अजीब सा भय लग रहा है.’ हम जीप में बैठ कर वापस बाहर की तरफ चल दिए. पत्नी, लड़की और लड़का. हमारे 2 ही बच्चे थे. अभी कुछ ही दूर चले होंगे कि खतरे का आभास हो गया. एक शेर बेतहाशा घबराया हुआ भागता हमारे सामने से गुजरा. पीछे कुछ बदमाश, जिन्हें हम लोग पोचर्स कहते हैं. जंगली जानवरों का चोरीछिपे शिकार करने वाले उन पोचरों से हमारा सामना हो गया.’’

‘‘निहत्थे नहीं थे हम. एक बंदूक साथ थी और साहसी तो मैं शुरू से रहा हूं इसीलिए यह नौकरी कर रहा हूं. बदमाशों को ललकारा कि अगर किसी जानवर को तुम लोगों ने गोली मारी तो हम आप को गोली मार देंगे. जीप को चारों ओर घुमा कर हम ने उस की रोशनी में बदमाशों की पोजीशन जाननी चाही कि तभी उन्होंने हम पर अपने आधुनिक हथियारों से हमला बोल दिया. हम संभल तक नहीं पाए… पत्नी और बेटी की मौत गोली लगने से हो गई. लड़का बच गया क्योंकि वह जीप के नीचे घुस गया था.

ये भी पढ़ें- कल तुम बिजी आज हम बिजी : भाग 2

‘‘मैं उन्हें ललकारता हुआ अपनी बंदूक से फायर करने लगा. गोलियों की आवाज ने गार्डों को सावधान कर दिया और वे बड़ीबड़ी टार्चों और दूसरी गाडि़यों को ले कर तेजी से इधर की तरफ हल्ला बोलते आए तो बदमाश नदी में उतर कर अंधेरे का लाभ उठा कर भाग गए.’’

‘‘फिर दूसरी शादी नहीं की,’’ उन्होंने पूछा.

‘‘लड़के को हमारी ससुराल वालों ने इस खतरे से दूर अपने पास रख कर पाला…साली से मेरी शादी उन लोगों ने तय की पर एकांत में साली ने मुझ से कहा कि वह किसी और को चाहती है और उसी से शादी भी करना चाहती है. मैं बीच में न आऊं तो ही अच्छा है. मैं ने शादी से इनकार कर दिया…’’

ये  भी पढ़ें- Short Story – खरीदारी : अपमान का कड़वा घूंट

‘‘लड़का कहां है आजकल?’’

डा. कुमुद ने पूछा.

‘‘बस्तर के जंगलों में अफसर है. उस की शादी कर दी है. अपनी पत्नी के साथ वहीं रहता है.’’

‘‘मैं ने तो सुना है कि बस्तर में अफसर अपनी पत्नी को ले कर नहीं जाते. एक तो नक्सलियों का खतरा, दूसरे आदिवासियों की तीरंदाजी का डर… तीसरे वहां आदमी को बहुत कम पैसों में औरत रात भर के लिए मिल जाती है.’’ इतना कह कर डा. कुमुद मुसकरा दीं.

‘‘जेब में पैसा हो तो औरत सब जगह उपलब्ध है…यहां भी और कहीं भी… इसलिए मैं ने शादी नहीं की. जरूरत पड़ने पर कहीं भी चला जाता हूं.’’ प्रभु मुसकराए.

‘‘हां, पुरुष होने के ये फायदे तो हैं ही कि आप लोग बेखटके, बिना किसी शर्म के, बिना लोकलाज की परवा किए, कहीं भी देहसुख के लिए जा सकते हैं…पैसों की कमी होती नहीं है आप जैसे बड़े अफसरों को…अच्छी से अच्छी देह आप प्राप्त कर सकते हैं. मुश्किल तो हम संकोचशील औरतों की है. हमें अगर देह- सुख की जरूरत पड़े तो हम बेशर्मी लाद कर कहां जाएं? किस से कहें?’’

‘‘वक्त बहुत बदल गया है कुमुदजी…अब औरतें भी कम नहीं हैं. वह बशीर बद्र का शेर है न… ‘जी तो बहुत चाहता है कि सच बोलें पर क्या करें हौसला नहीं होता, रात का इंतजार कौन करे आजकल दिन में क्या नहीं होता.’’’

मुसकराती रहीं कुमुद देर तक, ‘‘बड़े दिलचस्प इनसान हैं आप भी, प्रभुनाथजी.’’

ये भी पढ़ें- Short Story- ईर्ष्या : क्या था उस लिफाफे में

श्वेता डायरी के अगले पृष्ठ को पढ़ कर अपने धड़कते दिल को मुश्किल से काबू में कर पाई थी…

मां ने लिख रखा था… ‘7 दिन रही उस नेशनल पार्क में और जो देहसुख उन 7 दिनों में प्राप्त किया शायद अगले 7 जन्मों में प्राप्त न हो सके. आदमी का सुख वास्तव में अवर्णनीय, अव्याख्य और अव्यक्त होता है…इस सुख को सिर्फ देह ही महसूस कर सकती है…उम्र और पदप्रतिष्ठा से बहुत दूर और बहुत अलग…’.

Serial Story : मेरी मां का नया प्रेमी – भाग 1

श्वेता ने मां को फोन लगाया तो फोन पर किसी पुरुष की आवाज सुन कर वह चौंक गई…कौन हो सकता है? एक क्षण को उस के दिमाग में सवाल कौंधा. अमन अंकल तो होने से रहे. मां ने ही एक दिन बताया था, ‘तुम्हारे अमन अंकल को बे्रन स्ट्रोक हुआ था. अचानक ब्लडप्रेशर बहुत बढ़ गया था. आधे धड़ को लकवा मार गया. उन के लड़के आए थे, अपने साथ उन्हें हैदराबाद लिवा ले गए.’

‘‘हैलो…बोलिए, किस से बात करनी है आप को?’’ सहसा वह अपनी चेतना में वापस लौटी. संयत आवाज में पूछा, ‘‘आप…आप कौन? मां से बात करनी है. मैं उन की बेटी श्वेता बोल रही हूं.’’ स्थिति स्पष्ट कर दी.

‘‘पास के जनरल स्टोर तक गई हैं. कुछ जरूरी सामान लाना होगा. रोका था मैं ने…कहा भी कि लिख कर हमें दे दो, ले आएंगे. पर वह कोई स्पेशल डिश बनाना चाहती हैं शाम को. तुम्हें तो पता होगा, पास में ही सब्जी की दुकान है. वहां वह अपनी स्पेशल डिश के लिए कुछ सब्जियां लेने गई हैं…पर यह सब मैं तुम से बेकार कह रहा हूं. तुम मुझे जानती नहीं होगी. इस बीच कभी आई नहीं तुम जो मुझे देखतीं और हमारा परिचय होता… बस, इतना जान लो…मेरा नाम प्रभुनाथ है और तुम्हारी मां मुझे प्रभु कहती हैं. तुम चाहो तो प्रभु अंकल कह सकती हो.’’

ये कहानी भी पढ़ें : मान अभिमान

‘‘प्रभु अंकल…जब मां आ जाएं, बता दीजिएगा…श्वेता का फोन था.’’ और इतना कह कर उस ने फोन काट दिया. न स्वयं कुछ और कहा, न उन्हें कहने का अवसर दिया.

श्वेता की बेचैनी उस फोन के बाद बहुत बढ़ गई. कौन हो सकते हैं यह महाशय? क्या अमन अंकल की तरह मां ने किसी नए…आगे सोचने से खुद हिचक गई श्वेता. कैसे सोचे? मां आखिर मां होती है. उन के बारे में हमेशा, हर बार, हर पुरुष को ले कर हर ऐसीवैसी बात कैसे सोची जा सकती है?

फिर भी यह सवाल तो है ही कि प्रभुनाथ अंकल कौन हैं? कैसे होंगे? कितनी उम्र होगी? मां से कब, कहां, कैसे, किन हालात में मिले होंगे और उन का संबंध मां से इतना गहरा कैसे बन गया कि मां अपना पूरा घर उन के भरोसे छोड़ कर पास के जनरल स्टोर तक चली गईं… सामान और स्पेशल डिश के लिए सब्जियां लेने…

इस का मतलब हुआ प्रभु अंकल मां के लिए कोई स्पेशल व्यक्ति हैं…लेकिन यह नाम पहले तो कभी मां से सुना नहीं. अचानक कहां से प्रकट हो गए यह अंकल? और इन का मां से क्या संबंध होगा…जिन के लिए मां स्पेशल डिश बनाती हैं…कह रहे थे कि जब वह आते हैं तो मां जरूर कोई न कोई स्पेशल डिश बनाती हैं…इस का मतलब हुआ यह महाशय वहां नहीं, कहीं और रहते हैं और कभीकभार ही मां के पास आते हैं.

अड़ोसपड़ोस के लोग अगर देखते होंगे तो मां के बारे में क्या सोचते होंगे? कसबाई शहर में इस तरह की बातें पड़ोसियों से कहां छिपती हैं? मां ने क्या कह कर उन का परिचय पड़ोसियों को दिया होगा? और उस परिचय पर क्या सब ने यकीन कर लिया होगा?

स्थिति पर श्वेता जितना सोचती जाती, उतने ही सवालों के घेरे में उलझती जाती. पिछली बार जब वह मां से मिलने गई थी तो उन की लिखनेपढ़ने की मेज पर एक नई डायरी रखी देखी थी. मां को डायरी लिखने का शौक है और महिला होने के नाते उन की वह डायरी अकसर पत्रपत्रिकाओं में छपती भी रहती है, अखबारों के साहित्य संस्करणों से ले कर साहित्यिक पत्रिकाओं तक में उन के अंश छपते हैं. चर्चा भी होती है. शहर में सब इसलिए भी उन्हें जानते हैं कि वहां के महाविद्यालय में हिंदी की प्रवक्ता थीं. लंबी नौकरी के बाद वहीं से रिटायर हुईं. मकान पिता ही बना गए थे. अवकाश प्राप्त जिंदगी आराम से वहीं गुजार रही हैं. भाई विदेश में है. श्वेता के पास आ कर वह रहना नहीं चाहतीं. बेटीदामाद के पास आ कर रहना उन्हें अपनी स्वतंत्रता में बाधक ही नहीं लगता बल्कि अनुचित भी लगता है.

इंतजार करती रही श्वेता कि मां अपनी तरफ से फोन करेंगी पर उन का फोन नहीं आया. मां की डायरी में एक अंगरेजी कवि का वाक्य शुरू में ही लिखा हुआ पढ़ा था ‘इन यू ऐट एव्री मोमेंट, लाइफ इज अबाउट टू हैपन.’ यानी आप के भीतर हर क्षण, जीवन का कुछ न कुछ घटता ही है…जीवन घटनाविहीन नहीं होता.

महाविद्यालय में पढ़ते समय भी श्वेता अपनी सहेलियों से मां की प्रशंसा सुनती थी. बहुत अच्छा बोलती हैं. उन की स्मृति गजब की है. ढेरों कविताओं के उदाहरण वह पढ़ाते समय देती चली जाती हैं. भाषा पर जबरदस्त अधिकार है. कालिज में शायद ही कोई उन जैसे शब्दों का चयन अपने व्याख्यान में करता है. पुरुष अध्यापक प्रशंसा में कह जाते हैं कि प्रो. कुमुदजी पता नहीं कहां से इतना वक्त निकाल लेती हैं यह सब पढ़नेलिखने का?

पढ़ें ये कहानी : नायाब नुसखे रिश्वतबाजी के

कुछ मुंहफट जड़ देते कि पति रेलवे में स्टेशन मास्टर हैं. अकसर इस स्टेशन से उस स्टेशन पर फेंके जाते रहते हैं. बाहर रहते हैं और महीने में दोचार दिन के लिए ही आते हैं. इसलिए पति को ले कर उन्हें कोई व्यस्तता नहीं है. रहे बच्चे तो वे अब बड़े हो गए हैं. बेटा आई.आई.टी. में पढ़ने बाहर चला गया है. कल को वहां से निकलेगा तो विदेश के दरवाजे उसे खुले मिलेंगे. लड़की पढ़ रही है. योग्य वर मिलते ही उस की शादी कर देंगी. फुरसत ही फुरसत है उन्हें…पढ़ेंगीलिखेंगी नहीं तो क्या करेंगी?

श्वेता एम.ए. के बाद शोधकार्य करना चाहती थी पर पिता को अपने एक मित्र का उपयुक्त लड़का जंच गया. रिश्ता तय कर दिया और श्वेता की शादी कर दी. बी.एड. उस ने शादी के बाद किया और पति की कोशिशों से उसे दिल्ली में एक अच्छे पब्लिक स्कूल में नौकरी मिल गई. पति एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में उच्च पद पर थे. व्यस्तता के बावजूद श्वेता अपने संबंध और कार्य से खुश थी. छुट्टियों में जबतब मां के पास हो आती, कभी अकेली, कभी बच्चों के साथ, तो कभी पति भी साथ होते.

आई.आई.टी. के तुरंत बाद भाई अमेरिका चला गया था. इधर मंदी के चलते अमेरिका से भारत आना उस के लिए अब संभव न था. कहता है अगर नौकरी से महीने भर बाहर रहा तो कंपनी समझ लेगी कि बिना इस आदमी के काम चल सकता है तो क्यों व्यर्थ में एक आदमी की तनख्वाह दी जाए. वैसे भी अमेरिका में जौब की बहुत मारामारी चल रही है.

फिर भी भाई को पिता की एक हादसे में हुई मृत्यु के बाद आना पड़ा था और बहुत जल्दी क्रियाकर्म कर के वापस चला गया था. पिता उस दिन अपने नियुक्ति वाले स्टेशन से घर आ रहे थे लेकिन टे्रन को एक छोटे स्टेशन पर भीड़ ने आंदोलन के चलते रोक लिया था. टे्रन पर पत्थर फेंके गए तो कुछ दंगाइयों ने टे्रन में आग लगा दी. जिस डब्बे में पिताजी थे उस डब्बे को लोगों ने आग लगा दी थी. सवारियां उतर कर भागीं तो उन पर दंगाइयों ने ईंटपत्थर बरसाए.

पत्थर का एक बड़ा टुकड़ा पिता के सिर में आ कर लगा तो वह वहीं गिर पड़े. साथ चल रहे अमन अंकल ने उन्हें उठाया. सिर से खून बहुत तेजी से बह रहा था. लोगों ने उन्हें ले कर अस्पताल तक नहीं जाने दिया. रास्ता रोके रहे. हाथपांव जोड़ कर अमन अंकल ने किसी तरह पिताजी को कहीं सुरक्षित जगह ले जाने का प्रयास किया पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी और उन की मृत्यु हो गई थी.

भाई ने पिता के फंड, पेंशन आदि की सारी जिम्मेदारी अमन अंकल को ही सौंप दी थी, ‘‘अंकल आप ही निबटाइए ये सरकारी झमेले. आप तो जानते हैं, इन कामों को निबटाने में महीनों लगेंगे, अगर मैं यहां रुक कर यह सब करता रहा तो मेरी नौकरी चली जाएगी.’’

‘‘तुम चिंता न करो. अपनी नौकरी पर जाओ. यहां मैं सब संभाल लूंगा. इसी रेलवे विभाग में हूं. जानता हूं. ऊपर से नीचे तक लेटलतीफी का राज कायम है.’’

अमन अंकल ने ही फिर सब संभाला था. बाद में उन का ट्रांसफर वहीं हो गया तो काम को निबटाने में और अधिक सुविधा रही. तब से अमन अंकल का हमारे परिवार से संबंध जुड़ा. वह अरसे तक जारी रहा. उन का एक ही लड़का था जो आई.टी. इंजीनियर था. पहले बंगलौर में नौकरी पर लगा था. बाद में ऊंचे वेतन पर हैदराबाद चला गया.

अमन अंकल की पत्नी की मृत्यु कैंसर से हो गई थी. नौकरी शेष थी तो अमन अंकल वहीं रह कर नौकरी निभाते रहे. इस बीच उन का हमारे परिवार में आनाजाना जारी रहा. मां की उन्होंने बहुत देखरेख की. पिता की मृत्यु का सदमा वह उन्हीं के कारण सह सकीं. यह उन का हमारे परिवार पर उपकार ही रहा. बाकी मां से उन के क्या और कैसे संबंध रहे, वह अधिक नहीं जानती.

कल तुम बिजी आज हम बिजी : भाग 2

यहां मुकेश को कंपनी की तरफ से बड़ा सा बंगला और साथ ही गाड़ी भी मिली थी. शालिनी के अरमानों को जैसे पंख लग गए थे. यहां उसे पूरी आजादी थी, जैसे चाहे रहो. मुश्किल हुई तो बस, बंटी के कारण, सुबह अफिस जाते समय मुकेश उसे पालना घर में छोड़ देते थे पर लौटते समय बहुत देर हो जाती, शालिनी और मुकेश दोनों में से एक भी समय पर उसे लेने नहीं पहुंच पाते. मुकेश देर तक आफिस में रहते तो उन से कुछ उम्मीद करना बेकार था.

शालिनी को हमेशा पालनाघर के इंचार्ज की शिकायत सुननी पड़ती. उस दिन भी जब वह आफिस से लौटी तो शाम गहराने लगी थी. सारे बच्चे जा चुके थे. सिर्फ बंटी इंचार्ज के कमरे के बाहर सीढि़यों पर घुटने पर सिर टिकाए उदास सा बैठा था. उसे देख कर बंटी धीरे से मुसकराया और उठ कर खड़ा हो गया. इंचार्ज ने बाहर आ कर कहा, ‘मैडम, आप हमेशा लेट आती हैं, सारे बच्चे चले जाते हैं. यह अकेला रह जाता है तो रोता रहता है. एक दिन की बात हो तो ठीक है पर रोजरोज तो यह नहीं चल सकता.’

शालिनी इंचार्ज की बात सुन कर समझ गई कि वह देर तक रुकने के पैसे चाहता है. उस ने इंचार्ज को अतिरिक्त पैसे दे कर बंटी के देर तक रुकने का इंतजाम कर लिया. और कोई चारा भी तो नहीं था. घर के काम के लिए नौकर भी कंपनी से ही मिला था. जिंदगी मजे से गुजर रही थी. उस में भूचाल तभी आता जब बंटी बीमार होता या पालनाघर बंद होता.  ऐसे में दोनों एकदूसरे को छुट्टी लेने को कहते.

ये भी पढ़ें- Short Story : बदलाव

गरमी के दिन थे. स्कूल बंद हो गए तब भी बंटी नियम से पालनाघर जाता. एक दिन शाम को शालिनी, बंटी को ले कर लौटी तो उसी समय लखनऊ से मुकेश के पापा का फोन आया था. उन्होंने बताया, ‘दिनेश की शादी तय हो गई है और इसी महीने की 30 तारीख को शादी है. मेरी इच्छा है कि तुम लोग समय से पहले आ कर अपनी जिम्मेदारी संभाल लो. घर की अंतिम शादी है, बहुत मेहमान आएंगे,’ पापा बहुत उत्साह से बता रहे थे.

शालिनी सोचने लगी, इस समय आफिस में ढेरों काम हैं, कैसे जाना होगा. तभी पापा ने टोका, ‘तुम सुन रही हो न,’ तो वह चौंकी, ‘हां, पापा, हम लोग समय से पहले आ जाएंगे.’

उस समय तो शालिनी ने कह दिया पर वे गए ऐन वक्त पर ही, जब शादी की सारी तैयारियां हो चुकी थीं. मेहमानों से घर भरा था. धूमधाम से विवाह संपन्न हुआ. इस बार मां छांट कर अपनी पसंद की बहू लाई थीं. आते ही छोटी बहू ने घर की जिम्मेदारी संभाल ली.

फिर 2 वर्षों तक मुकेश व शालिनी का लखनऊ जाना ही नहीं हुआ. एक दिन दिनेश का फोन आया कि पापा की तबीयत बहुत खराब है. आप लोग तुरंत आ जाओ. वे पहुंचे तब तक उन का देहांत हो चुका था. मां बेहद दुखी थीं. शालिनी को वापस लौटने की तैयारी करते समय कुछ ध्यान आया. बात उस ने मुकेश से कही, ‘पापा के जाने के बाद मां बहुत अकेलापन अनुभव कर रही हैं. क्यों न हम उन्हें कुछ दिनों के लिए अपने साथ ले चलें?’

ये भी पढ़ें- आज का इंसान ऐसा क्यों : जिंदगी का है फलसफा

मुकेश बोले, ‘मैं भी यही सोच रहा था. बंटी के कारण उन का मन भी लग जाएगा.’ इस के बाद शालिनी मूल उद्देश्य  पर आ गई और बोली, ‘हमें बंटी को पालनाघर में नहीं छोड़ना पडे़गा. वैसे भी अब तो बंटी का स्कूल में दाखिला हो जाएगा तो आधा दिन वह वहीं रहेगा और बाकी समय मां संभाल लेंगी.’

शालिनी की बात मुकेश को ठीक लगी पर मां पता नहीं इस के लिए तैयार होंगी या नहीं. मुकेश ने दुविधा जताई तो वह तपाक से बोली, ‘नहीं, मां कभी मना नहीं करेंगी. पोते का मोह उन्हें मना करने से रोकेगा.’

मां से पूछा तो वह आसानी से तैयार हो गईं. नन्हे बंटी का लगाव उन्हें खींच कर अपने साथ ले गया.

चंडीगढ़ में उन के बंगले के सामने बहुत बड़ा लौन था. सैकड़ों प्रकार के पेड़पौधे लौन की खूबसूरती बढ़ा रहे थे. मां बंटी को ढेरों कहानियां सुनातीं, उस के साथ लूडो खेलतीं, कई किताबें दोनों साथसाथ पढ़ते. बंटी और दादी  ने बाहर बाग में बहुत से पौधे साथसाथ लगाए. बंटी अपनी दादी से बहुत सवाल करता था. उसे पता था कि उन के जवाब सिर्फ दादी मां ही दे सकती हैं, वह उन से ही पूछपूछ कर अपनी जिज्ञासा शांत करता वरना मम्मीपापा के पास तो उस के लिए छुट्टी वाले दिन भी वक्त नहीं था.

ये भी पढ़ें- साथ वाली सीट

उस दिन रविवार था. दादी मां सुबह ही नहा कर रसोई में चली गईं. रविवार के दिन मां बंटी के लिए अपने हाथ से हलवा बनातीं और बंटी को खिलाती थीं. उन्होंने अभी कटोरी में हलवा निकाल कर रखा ही था कि बंटी के जोर से चीखने की आवाज आई. भाग कर  दादी मां बाहर गईं तो देखा बरामदे में खड़ा बंटी अपने गाल को सहला रहा है और बड़ी कातर नजरों से दादी की ओर देख रहा था. तभी वहां मुकेश आ गए, ‘क्या शालिनी, बच्चे के साथ तुम भी बच्ची बन जाती हो. यह सब काम तुम बंटी के जाने के बाद भी तो कर सकती थीं.’

कल तुम बिजी आज हम बिजी : भाग 3

‘बंटी के जाने के बाद, बंटी कहां जा रहा है?’ दादी मां ने आश्चर्य से पूछा. ‘बंटी को हम बोर्डिंग में भेज रहे हैं. कुछ दिनों से हम देख रहे हैं कि वह बिगड़ता जा रहा है. वहां रहेगा तो ठीक रहेगा,’ कहते हुए मुकेश ने उसे गोद में उठा लिया.

दादी मां ने विरोध जताते हुए कहा, ‘अभी तो बंटी बहुत छोटा है. इस समय तो उसे मां की गोद और पिता के साए की जरूरत है.’

‘मां, अब  वह समय गया जब सारी जिंदगी बच्चों को मांबाप के साए की जरूरत होती थी. आजकल बच्चों को अपने रास्ते खुद तलाश करने पड़ते हैं, तभी वे जीवन में आगे बढ़ते हैं. बंटी को गोद से उतारते हुए मुकेश ने कहा, ‘आज हमारा बेटा अपने पापा के साथ बाजार जाएगा और ढेर सारे खिलौने खरीदेगा.’

जाने वाले दिन सुबह बंटी दादी से विदा लेने आया था. वह कुछ उदास सा था, यह देख कर दादी का दिल भर आया. वह पोते को ले कर बाहर आ गईं. हरि गाड़ी निकाल चुका था. शालिनी बंटी का सामान रखवा रही थी. मुकेश बोले, ‘मां, हम बंटी को छोड़ कर रात तक वापस आ जाएंगे, तुम अपना ध्यान रखना. मैं ने हरि से कह दिया है कि वह तुम्हारे पास रहेगा.’

दादी मां ने कुछ जवाब नहीं दिया. उन की निगाहें तो बंटी पर लगी थीं, जो जाते वक्त उन से सट कर खड़ा हो गया था. पलकों से आंसू छलकने को थे. उन्होंने बंटी का हाथ पकड़ कर उसे गाड़ी में बैठा दिया. बंटी ने दादी की ओर देख कर नन्ही हथेली से अपने आंसू पोंछे और दादी ने अपने आंसू अपनी पलकों में समेट लिए और कुछ पलों के लिए मुंह फेर लिया.

गाड़ी चल पड़ी. शालिनी और बंटी हाथ हिला रहे थे. जब तक वे आंखों से ओझल नहीं हो गए, दादी मां देखती रहीं.

बंटी के जाने के बाद उस घर में फिर उन का मन नहीं लगा. शालिनी एवं मुकेश के आने पर उन्होंने अपना फैसला सुना दिया कि अब वह यहां नहीं रहेंगी. रुकने की कोई वजह ही नहीं थी. जिस के लिए वह आई थीं वही नहीं था, तो किस के लिए रुकतीं. उन के जाने का इंतजाम हो गया और वह चली गईं. शालिनी ने भी राहत की सांस ली.

ये भी पढ़ें- एस्कॉर्ट और साधु

शालिनी के आफिस की मीटिंग सिंगापुर में थी. कंपनी की तरफ से कुछ लोगों का चुनाव किया गया. जिन्हें भेजा जाना था उन में शालिनी का भी नाम था. उस दिन वह बेहद खुश थी. यह बात वह मुकेश को बताना चाहती थी पर मुलाकात ही नहीं हो रही थी. मुकेश भी आजकल बेहद व्यस्त थे. रात में कब आते पता ही नहीं चलता. सुबह जब वह उठते तो शालिनी जा चुकी होती. एक सप्ताह ऐसे ही निकल गया. उस दिन रविवार था. दोनों एकसाथ सो कर उठे. चाय पीते वक्त शालिनी बोली, ‘मुकेश, हमारे आफिस से एक टूर सिंगापुर जा रहा है. उस में मेरा भी नाम है.’

मुकेश को अच्छा नहीं लगा. वह बोले, ‘शालिनी, तुम शायद भूल गई हो. बंटी के पेपर खत्म होने वाले हैं और हमें उसे लेने जाना है.’

‘बंटी को तुम ले आना. वह हरि के साथ रह लेगा. मैं इतना अच्छा मौका नहीं छोड़ सकती. अगर कंपनी को फायदा होता है तो समझो मेरा प्रमोशन पक्का है,’ कह कर वह उठ खड़ी हुई.

मुकेश अकेले ही गए और बंटी को ले आए पर बंटी के आने के पहले शालिनी जा चुकी थी. बंटी हरि के साथ अपना वक्त बिताता. उस दौरान मुकेश भी बहुत व्यस्त थे.

शाम को बहुत तेज बारिश हो रही थी. बंटी बरामदे में बौल खेल रहा था. हरि घर पर नहीं था. बारबार वह बौल में जोर से किक मारता, बौल बाहर जाती तो वह उठाने दौड़ पड़ता. जब तक हरि आया तब तक बंटी पूरा भीग चुका था. हरि को लगा कहीं बंटी बीमार न हो जाए तो फौरन ही उस के कपड़े बदलवा दिए. तब भी बंटी को जुकाम हो गया था. मुकेश जब आफिस से लौटै तो वह सो चुका था. दूसरे दिन बंटी को होस्टल जाना था. हरि ने उस की सारी तैयारी कर दी. वैसे भी हर बार यह काम उस के जिम्मे ही रहता था.

मुकेश बंटी को भेज कर लौटे तो काफी रात हो गई थी. वह बहुत थक गए क्योंकि बारिश के कारण रास्ता खराब हो गया था. दूसरे दिन आफिस जाने के समय उन के मोबाइल पर रिंग आई, ‘बंटी को कल से तेज बुखार है,’ बंटी के होस्टल से मैनेजर मि. राय का फोन था.

‘मैनेजर साहब, आप जानते हैं कि मैं कल रात को उसे छोड़ कर वापस आया हूं. इतनी जल्दी मैं दोबारा कैसे आ सकता हूं?’

‘जैसा आप ठीक समझें मि. मलहोत्रा, आप को सूचित करना हमारा फर्ज था. वैसे मैं ने डाक्टर को दिखा दिया है, उन्होंने दवा दे दी है. उसे वायरल फीवर है, 2-4 दिन में ठीक हो जाएगा.’

मुकेश के बिना पूछे ही बता कर फोन काट दिया. वायरल फीवर होने की बात सुन उन्हें राहत मिल गई थी. इस में 2-3 दिन में आराम हो जाता है. आफिस जाने के पहले होस्टल के मैनेजर के नाम एक चेक भेज दिया.

जैसेजैसे बंटी बड़ा होता गया उस का घर आना धीरेधीरे कम होता गया था. इस बार आया तो मोबाइल का टूथ इयर पीस पूरे समय कान में लगाए रहता या कंप्यूटर के आगे बैठा घंटों चैटिंग करता रहता. मुकेश और शालिनी के होने न होने का उसे कोई फर्क नहीं पड़ता. अपने में ही मस्त रहता. जब जितने पैसे की जरूरत होती अपने मम्मीपापा को बता देता. उसे पैसे मिल जाते.

ये भी पढ़ें- स्वदेश के परदेसी : कहां दफन हुई अलाना की इंसानियत

स्कूल की पढ़ाई खत्म होते ही उच्च शिक्षा के लिए बंटी ने आस्ट्रेलिया जाने का फैसला किया. 4 साल बाद वह वहीं नौकरी भी करने लगा. मुकेश शालिनी का बहुत मन था कि नौकरी ज्वाइन करने से पहले एक बार वह इंडिया आ जाता पर वह नहीं आया. हां, यह जरूर कहता था कि मैं आप लोगों को यहां बुलाना चाहता हूं. कुछ दिन यहां रहना, बहुत मजा आएगा.

अपने ही अतीत के बारे में सोचतेसोचते मुकेश कब सो गए उन्हें पता ही नहीं चला. शाम गहराने लगी ?आसमान में कालेकाले बादल छाने से मौसम कुछ अच्छा था, सो शालिनी ने बाहर बरामदे में नौकर से चेयर लगवा ली थी. फिर पुराने अलबम उठा कर ले आई और खोलखोल कर मुकेश को दिखाने लगी. नौकरी में थे तो कभी इतनी फुरसत ही नहीं मिली कि बैठ कर फोटो देखते.

अपने विवाह की तसवीरें, नन्हे बंटी की तस्वीरें देखतेदेखते बहुत देर हो गई तो दोनों भीतर आ गए. नौकर ने पूछा, ‘साहब, खाना लगा दूं?’ तो मुकेश बोले, ‘बंटी का फोन आने वाला है. उस से बात करने के बाद हम खाना खाएंगे.’ इस के बाद तो देर तक दोनों बंटी के फोन का इंतजार करते रहे पर फोन नहीं आया. तभी शालिनी को याद आया कि हो सकता है कि बेटे ने मेल किया हो. बहुत दिन से चैक नहीं किया. मेल बाक्स में गई तो देखा बंटी का छोटा सा नोट था.’

‘‘हाय मौम, डैड, आई एम वेरी बिजी, सो आई एम नाट कमिंग, आई एम सेंडिंग यू द चेक.’’

बंटी का लैटर पढ़ कर शालिनी सन्न खड़ी रह गई थी. लगा, इतने दिनों से वह एक भ्रम में जी रही थी. भ्रम में जीवन जिया जा सकता है पर उस के टूटने का आघात झेलना कितना मुश्किल होता है यह आज महसूस हुआ.

ये भी पढ़ें- स्वदेश के परदेसी : भाग 4

डाक्टर का सख्त निर्देश था कि ऐसी कोई भी बात नहीं होनी चाहिए जिस से मुकेश को सदमा पहुंचे. यह सोच कर फीकी सी हंसी उस के चेहरे पर आ गई. यही तो माडर्न युग की त्रासदी है. पहले संयुक्त परिवार होते थे, कई बच्चे होते थे. उन में से 1-2 पढ़ने या कमाने बाहर निकल भी गए तो घर खाली नहीं होता था. अकेलापन छू भी नहीं पाता था, पर एकल परिवार संस्कृति की वजह से आज जीवन संध्या व्यतीत करने वाले प्राय: हर परिवार के दरवाजे पर अकेलापन देखने को मिलता है.

कल तुम बिजी आज हम बिजी : भाग 1

चारों ओर पानी और गहन अंधकार फैला है. तभी पानी का तेज रेला आया और शालिनी का हाथ उन के हाथ से छूट गया. घबराहट से वह पसीनेपसीने हो गए. चीखने की कोशिश की पर आवाज जैसे गले में फंस गई थी, ऐसा महसूस कर के अपने सीने में उन्होंने तेज दबाव महसूस किया, फिर असहनीय दर्द, साथ ही नींद खुल गई. वह बुरी तरह से तड़फने लगे, बहुत भयंकर स्वप्न देखा था.

उन की हरकत से बगल में सोई शालिनी की नींद खुल गई. देखा तो सीने पर हाथ रखे मुकेश कराह रहे हैं. अपने पारिवारिक डाक्टर को शालिनी ने फोन लगाया. उस समय डाक्टर नर्सिंग होम में थे. वह बोले, ‘‘मुकेश को फौरन यहां ले आओ.’’

शालिनी ने बरामदे में सोए हरि को जोर से पुकारा. मालकिन की घबराई हुई आवाज सुन कर वह भागाभागा आया.

‘‘हरि, तुम जल्दी से गाड़ी निकालो, मैं साहब को ले कर आती हूं,’’ कह कर शालिनी मुकेश को उठाने की कोशिश में लगी. समय की गंभीरता समझ हरि जैसे आया था उन्हीं पैरों से वापस लौट कर चला गया और गाड़ी निकालने लगा.

डा. खन्ना ने मुकेश को आई.सी.यू. में एडमिट कर लिया. पूरे स्टाफ में हलचल मच गई. तत्काल सारी चिकित्सा सुविधाएं मिल गईं. पास खड़ी शालिनी का घबराहट के कारण बुरा हाल था, काफी देर बाद स्थिति काबू में आई. मुकेश खतरे से बाहर हैं, यह जान कर शालिनी ने राहत की सांस ली. 4 दिन अस्पताल में रहने के बाद डिस्चार्ज के समय डाक्टर ने शालिनी को समझाते हुए कहा, ‘‘मुकेश को माइनर अटैक आया था. दूसरा झटका जानलेवा सिद्ध हो सकता है इसलिए भविष्य में बहुत सावधानी रखने की जरूरत है.’’

घर आ कर भी मुकेश आंखें बंद किए शांत बैठे रहे. शालिनी ने गौर से उन की ओर देखा. इन 4 दिनों में वह कितने झटक गए हैं, जैसे महीनों से बीमार रहे हों. डाक्टर की सलाह के मुताबिक चलना बेहद जरूरी है.

नहा कर शालिनी सीधे रसोई में आ कर नाश्ता तैयार करने लगी. बहुत दिनों के बाद आज वह रसोई में आई थी. हरि को आवाज दी और उस की मदद से नाश्ता तैयार करने लगी. कई वर्षों से हरि इस घर में था और घर के सारे काम वही संभालता था. उस की मदद के बिना घर का एक पत्ता भी नहीं हिलता था. शालिनी और मुकेश प्राय: हर काम के लिए उस पर आश्रित थे.

ये भी पढ़ें- अलविदा काकुल : कैसा था चाहत का परिणाम

नाश्ता ले कर शालिनी मुकेश के पास आ गई. पलंग के सिरहाने तकिए का सहारा ले कर वह आंखें बंद कर बैठे थे. शालिनी ने मेज पर नाश्ता रखा तो आहट से उन्होंने अपनी आंखें खोलीं और बोले, ‘‘शालिनी, आज मेरा बंटी से बात करने का बहुत मन कर रहा है.’’

‘‘मुकेश, मैं कई बार कोशिश कर चुकी पर फोन लगता ही नहीं है. वैसे मुझे लगता है कि वह खुद ही फोन करेगा. मैं ने उसे आने को कहा है. हो सकता है आने की सोच रहा हो,’’ दलिया में चीनी डालते हुए शालिनी ने कहा तो बंटी के आने की कल्पना से ही दोनों खुश हो गए.

बंटी को आस्ट्रेलिया में रहते 4 साल हो गए हैं. जब से वह गया उस का आना ही नहीं हुआ, पहले पढ़ाई के कारण और उस के बाद नौकरी के कारण. मुकेश की तबीयत के बारे में तो उसी दिन शालिनी ने अस्पताल ले जाते वक्त बता दिया था. दोनों को उम्मीद थी कि अब आए बिना कैसे रहेगा.

नैपकिन मुकेश की गोद में डाल कर शालिनी ने दलिया का कटोरा हाथ में पकड़ाया तो उन्होंने बच्चे की तरह बुरा सा मुंह बनाया. शालिनी बोली, ‘‘दवाइयों के कारण तुम्हारे मुंह का स्वाद बिगड़ गया है पर दवाइयां खानी हैं तो नाश्ता करना पडे़गा,’’ और इसी के साथ चम्मच से उन्हें खुद खिलाने लगी.

मुकेश नाश्ता कर दवा ले कर सो गए तो शालिनी उन के पास बैठेबैठे अतीत की गलियों में खो गई. उसे लगा कि मुकेश की इस हालत के लिए बहुत कुछ दोष खुद उस का ही था.

उसे किचन में जाना बिलकुल पसंद नहीं था. बहुत मजबूरी होती तभी वह किचन में कदम रखती. कभी मुकेश किसी खास खाने की फरमाइश करते तो वह कहती, ‘हम जैसे लोगों की सुविधा के लिए ही तो बडे़ होटल खुल रहे हैं, जिन के पास समय की कमी है, होटल में आर्डर दो और खाना हाजिर.’ इस से एक तो पसंद का खाना मिल जाता, दूसरे, किचन में सामान नहीं फैलता. ड्राइंगरूम में बैठ कर खाना खा लो, उस के बाद कचरा सीधे डस्टबिन में.

मुकेश एक अंतर्राष्ट्रीय कंपनी से रिटायर  हुए थे. अपनी मेहनत से वह कंपनी में बडे़ ओहदे तक पहुंचे थे. आज उन के पास वह सबकुछ था जिस की कामना कर उन्होंने नौकरी शुरू की थी. अच्छा बैंक बैलेंस, बडे़ शहर में खुद का बड़ा सा बंगला, कदम से कदम मिला कर चलने वाली पत्नी, विदेश में नौकरी कर रहा बेटा…सबकुछ तो था, पर पता नहीं क्यों इतना सब होते हुए भी उन की जिंदगी में एक सूनापन अपनी जगह बनाता जा रहा है.

नौकरी में थे तो व्यस्तता की वजह से सामाजिक संबंध बनाने की न कभी जरूरत महसूस हुई और न कभी समय मिला. कभीकभी मन में विचार आते, इस से अच्छी जिंदगी तो पिताजी की थी. जब तक वह जिंदा रहे लोगों की महफिलें घर में सजी रहीं.

मुकेश के पिता निखिलेशजी बहुत बडे़ सामाजिक कार्यकर्त्ता और जनप्रतिनिधि थे. खानदानी दौलत के साथसाथ ईमानदारी की दौलत भी उन्हें विरासत में मिली थी. समाज में मानसम्मान भी बहुत था. मां लता सरल सहज स्वभाव की विदुषी महिला थीं. छोटा भाई दिनेश कालिज की पढ़ाई के साथसाथ पिता के नक्शेकदम पर चल कर राजनीति की दुनिया में प्रवेश कर चुका था.

मुकेश राजनीति की दुनिया से सैकड़ों कदम दूर रह कर इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के बाद उसी क्षेत्र में अपना कैरियर बनाने में लगे थे. परिवार से दूर रह कर उन की शिक्षा हुई थी. फिर दिल्ली में ही एक अंतर्राष्ट्रीय कंपनी में नौकरी शुरू कर अपने कैरियर की ऊंचाई पाने के लिए जीजान से जुट गए.

ये भी पढ़ें- अपने लोग : आनंद ने आखिर क्या सोचा था

विवाह की उम्र हुई तो मातापिता ने विवाह के लिए जोर डालना शुरू कर दिया. मुकेश का सोचना था कि अगर मैं ने परिवार वालों की इच्छा से शादी की तो जिंदगी की वे ऊंचाइयां हासिल नहीं कर सकूंगा, जिन की चाहत है. निखिलजी और लता ये बात जानते थे इसलिए उसे अपनी पसंद की लड़की से शादी करने की छूट मिल गई.

मुकेश ने अपने दोस्त विनोद से इस मामले में राय ली तो सब से पहले उस ने सवाल किया कि क्या तुम ने कोई लड़की पसंद की है? मुकेश ने भोलेपन से नहीं में जवाब दिया तो वह खिलखिला कर हंस पड़ा और बोला, ‘लगता है यह काम भी मुझे ही करना पडे़गा.’

दूसरे दिन विनोद ने मुकेश को अपने आफिस बुलाया. लंच में वह वहां पहुंच गया. पहुंचते ही विनोद ने उस का परिचय अपने नजदीक खड़ी शालिनी से कराया. गोरीछरहरी काया की स्वामिनी शालिनी पहली नजर में  मुकेश को भा गई. उसे लगा, जिस लड़की की उसे वर्षों से तलाश थी वह यही है. विनोद उस के परिवार वालों को अच्छी तरह से जानता था. उस ने मध्यस्थता का काम कर दोनों परिवारों को मिला कर विवाह तय करवा दिया.

विवाह के पहले शालिनी की मां के मन में मुकेश के परिवार को ले कर एक दुविधा थी कि जहां पूरा परिवार परंपरावादी है वहां आधुनिक सुखसुविधाओं में पली उन की बेटी शालिनी निभा पाएगी या नहीं, पर मुकेश से मिल कर उन की सारी शंकाएं मिट गईं. मुकेश पढ़ाई के सिलसिले से प्राय: घर से बाहर ही रहे थे. महत्त्वाकांक्षी विचारों वाले खूबसूरत व्यक्तित्व के धनी मुकेश ने उन्हें बहुत प्रभावित किया. उन्हें वह हर दृष्टि से शालिनी के अनुरूप लगे. धूमधाम से विवाह संपन्न हो गया. घर में पहली शादी होने की वजह से बहुत मेहमान जमा हुए थे. अखिलेशजी ने सभी को विशेष आग्रह कर के बुलाया था. कितने दिनों के बाद घर में खुशी का मौका आया तो सभी बेहद खुश थे.

दूर के रिश्तेदारों की विदाई होने के बाद अब केवल खास मेहमान बचे थे. विवाह के 5वें दिन सुबहसुबह लता नाश्ते की व्यवस्था करने किचन में गईं तो देख कर आश्चर्य में पड़ गईं. उन्होंने देखा कि नहाधो कर तैयार नई बहू गैस के पास खड़ी थी. नवेली दुलहन इस समय यहां क्या कर रही है और कपडे़ भी इस तरह के पहने हैं जैसे कहीं जा रही हो. उन्होंने पूछा, ‘तुम यहां क्या कर रही हो, बहू? अभी तो तुम्हारा रसोई प्रवेश का दस्तूर भी नहीं हुआ. रामू से कह देतीं, वह नाश्ता तैयार कर देता.’

‘मैं आज आफिस जा रही हूं,’ शालिनी की आवाज में कुछ रुखाई थी.

‘पर आज से ही, अभी तो घर मेें मेहमान हैं, वे सब क्या कहेंगे,’ लता ने समझाने का प्रयास किया.

‘मैं घर में बोर हो जाती हूं, मांजी, फिर आफिस में जरूरी मीटिंग भी है, इसलिए मेरा जाना जरूरी है,’ कहते हुए अपना सैंडविच और काफी का मग उठा कर शालिनी वहां से चली गई.

अखिलेशजी को पता चला तो उन्हें अच्छा नहीं लगा. उस समय तो वह चुप रहे पर शाम को उन्होंने शालिनी को अपने पास बुलाया और प्यार से समझाया तो वह बोली, ‘पापा, मैं ने मुकेश के साथ शादी इस शर्त पर की थी कि बाद में नौकरी नहीं छोडूंगी.’

‘मैं नौकरी करने के लिए मना नहीं कर रहा हूं पर इस घर के कुछ नियमकानून हैं और उन का पालन करना सभी सदस्यों के लिए जरूरी है,’ उन्होंने कुछ कठोरता से कहा तो शालिनी वहां से चली गई.

ये भी पढ़ें- तुम टूट न जाना: वाणी और प्रेम की कहानी

चंद दिनों में ही उन लोगों को पता चल गया था कि बहू अपनी मनमर्जी से चलने वाली आजाद  खयालों की लड़की है. किसी भी तरह की रोकटोक उसे पसंद नहीं है और यहां का माहौल उसे रास नहीं आएगा. जल्दी ही शालिनी के पैर भारी हो गए तो वह और भी परेशान हो गई. वह कुछ दिन के लिए मायके आ गई. अपनी गर्भावस्था के ज्यादातर दिन उस ने वहीं गुजारे. डिलीवरी होने के बाद बच्चे को ले कर शालिनी ससुराल आई तो पहला पोता होने की वजह से कई दिन तक खुशियां मनाई गईं.

उन्हीं दिनों मुकेश का ट्रांसफर चंडीगढ़ हो गया तो शालिनी की खुशी का ठिकाना न रहा. उस ने अपना ट्रांसफर भी चंडीगढ़ करवा लिया और पति के साथ आ गई. दादादादी की पोता खिलाने की साध अधूरी ही रह गई…पर क्या करते.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें