महाभोज

लेखक-  संजय अइया

सुबह उठते ही गरमागरम चाय का अभी पहला घूंट ही गटका था कि अंदर काफरमान कानों के रास्ते अंदर उतर गया, ‘‘आज नाश्ता तभी बनेगा जब बाजार से सब्जी आ जाएगी.’’

हुआ यह था कि पिछले एक सप्ताह से दफ्तर के कामों में इतना उलझा रहा कि लौटते समय बाजार बंद हो जाता था और सब्जी का थैला बैग में पड़ा रह जाता. इन दिनों में पत्नी ने छोले व राजमा के साथ बेसन का कई तरह से इस्तेमाल कर एक तो अपनी पाक कला ज्ञान का भरपूर परिचय कराया, दूसरे, सब्जी की कमी को पूरा कर हमारी इज्जत ढकी थी.

पत्नी के आदेश को सिरमाथे मान कर मैं शार्टकट के रास्ते तेज कदमों से सब्जी बाजार की ओर जा रहा था. अभी थोड़ी दूर ही पहुंचा था कि नाक में तेज बदबू ने प्रवेश किया. मैं ने अपनी उल्लू जैसी आंखों को मटका कर चारों ओर देखा पर कुछ दिखलाई नहीं दिया. अभी वहां से कुछ कदम ही आगे बढ़ा था कि फिर जोरदार बदबू का झोंका आया. अब की बार मैं ने कुत्ते जैसी नाक से मजबूरी में बदबू को सूंघा और उस जगह पर नजर डाली जहां से वातावरण प्रदूषित हो रहा था. देखा, एक मरा हुआ ढोर नगरनिगम के कचरे के डब्बे में पड़ा था और कौए उस को नोंचनोंच कर खा रहे थे.

नाक पर रूमाल रखा और स्कूली दिनों को याद कर 100 मीटर की फर्राटा दौड़ लगा दी. सामने से तिवारीजी आते दिखाई दिए और मुझे इस तरह इतना फर्राटे से भागते देखा तो रोक कर पूछने लगे, ‘‘क्यों भाई, सब ठीकठाक तो है?’’

मैं ने अपनी सांसों को नियंत्रित किया और तिवारीजी के चेहरे को देखा तो वह किसी हौरर फिल्म के डे्रकुला जैसे लग रहे थे. बढ़ी हुई दाढ़ी, बिखरे हुए बाल, नंगे पांव, गंदे से कपड़े. ‘‘बात क्या है, तिवारीजी, आप ठीकठाक तो हैं न?’’

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‘‘क्यों, मुझे क्या हुआ?’’

‘‘अरे भाई, ये बढ़ी हुई दाढ़ी, नंगे पांव, बिखरे हुए बेतरतीब केश, और ये बढ़े हुए नाखून…आखिर माजरा क्या है?’’

तिवारीजी ने मुझे खा जाने वाली नजरों से घूरा और बोले, ‘‘तुम्हें नहीं मालूम?’’

‘‘मुझे कुछ नहीं मालूम.’’

‘‘यार, तुम कैसे हिंदू हो?’’

‘‘क्या मतलब? आप की दाढ़ीनाखून बढ़ने से मेरे हिंदू होने का क्या संबंध है?’’ मैं ने प्रश्न किया.

‘‘यार, हिंदू होने के नाते तुम्हें इतना तो पता होना ही चाहिए कि इन दिनों पितृपक्ष (श्राद्ध) के दिन चल रहे हैं और इन दिनों में न तो कोई शुभ काम किया जाता है और न ही दाढ़ीनाखून कटवाते हैं.’’

‘‘लेकिन तिवारीजी, हिंदू धर्म में इस तरह का कोई नियम है, ऐसा कुछ मैं ने आज तक किसी भी हिंदू धार्मिक पुस्तक में नहीं पढ़ा.’’

‘‘यार, वेदपुराणों में लिखा है, ऐसा हमें हमारे बापदादा ने बताया था.’’

‘‘आप ने पढ़ा है?’’ मैं ने नास्तिकों की तरह पूछा.

‘‘इस में पढ़ना क्या है? बुजुर्गों ने कहा है सो है, यही तो हमारी हिंदू संस्कृति, धर्म और सभ्यता है.’’

‘‘जहां पर प्रश्न करने की, शक करने की कोई गुंजाइश नहीं होती,’’ मैं ने कहा.

‘‘चुप रहो यार, ऐसा कर के पुरखों की आत्मा को शांति मिलती है.’’

‘‘क्या तुम्हारे पूर्वज तुम्हें ऐसा गंदा देख कर खुश हो रहे होंगे,’’ मैं ने उन का मजाक बनाते हुए कहा, ‘‘अजीब तुम्हारे पुरखे हैं.’’

‘‘लगता है, तुम पर किसी अधर्मी की छाया पड़ गई है.’’

‘‘बिलकुल नहीं मित्र, जो धर्म में है ही नहीं उसे प्रचारित करने वालों के खिलाफ मैं बोल रहा हूं. इसी कारण आज हिंदू धर्म मजाक बन गया है,’’ मैं ने एक संक्षिप्त सा भाषण ही दे डाला.

‘‘देखो यार, तुम्हारे भाषण देने से मुझ पर कोई अंतर नहीं पड़ेगा क्योंकि मैं भगवाधारी कट्टर पार्टी से हूं और पार्टी का आदेश सिरमाथे पर,’’ तिवारीजी बोले, ‘‘पुरखे ऐसा करने से खुश होते हैं तो मैं ने ऐसा कर दिया. मैं तो वही करूंगा जो पार्टी के लोग चाहते हैं. फिर मुझे अपनी जाति से बाहर तो कोई नहीं करेगा,’’ ऐसा कह कर तिवारीजी हीही कर के हंस पड़े.

मैं ने तिवारीजी से कहा, ‘‘गजब का स्टेमना है आप का.’’

प्रशंसा सुन कर वह खुश हो गए और कहने लगे, ‘‘क्या बताएं यार, अकेले मैं ने नहीं मेरे पूरे परिवार ने आज अभी तक भोजन ग्रहण नहीं किया है.’’

‘‘क्यों? क्या मिला नहीं?’’

‘‘कैसी बातें करते हो तुम, सातों पकवान बना कर रख छोड़े हैं लेकिन खा नहीं सकते.’’

‘‘क्यों, क्या बात हो गई?’’

‘‘यार, सुबह से हम पूर्वजों को यानी कि कौओं को खाने का निमंत्रण दे रहे हैं लेकिन अभी तक वह नहीं पहुंचे. लगता है यह प्रजाति भी लुप्त हो रही है,’’ कह कर उन्होंने अपनी काली गरदन के पास उंगली रगड़ कर मैल की गोली बनाई और क्रिकेटर की तरह निशाना साध कर फेंक दी और उदास हो गए.

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उन की उदासी मुझ से देखी नहीं गई. पूरे परिवार को भूख से परेशान होने की बात सुन कर मेरा मन द्रवित हो उठा. मैं ने कहा, ‘‘यार, तिवारीजी, मैं कुछ कहूं?’’

मरी हुई आवाज उन के मुंह से निकली, ‘‘बोलो.’’

‘‘मुझे नहीं लगता कि कौए तुम्हारे यहां लंच लेने आएंगे.’’

‘‘क्यों?’’ हैरत से मेरी ओर देखते हुए उन्होंने पूछा.

‘‘यार, जिन्हें तुम न्योता दे रहे हो वे सब तो महाभोज करने में लगे हैं.’’

‘‘कौए, महाभोज, क्या मतलब?’’ तिवारीजी ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘यार, अभी जिस रास्ते से मैं भागता हुआ  आ रहा था उस पर एक मरे हुए जानवर को कौए खा रहे थे, तुम ही कहो, आज के दिन इतनी अच्छी नानवेज डिश छोड़ कर वह घासफूस खाने तुम्हारे घर की छत पर क्यों आएंगे?’’

‘‘इस का अर्थ तो यह हुआ कि आज मेरा पूरा परिवार भूखा ही रहेगा.’’

‘‘शायद,’’ मैं ने भी गंभीरता से कहा.

‘‘फिर क्या उपाय हो सकता है?’’ तिवारीजी ने किसी क्लाइंट की तरह मुझ से सलाह मांगी.

‘‘एक उपाय है.’’

‘‘कहो दोस्त, जल्दी कहो, पूरे परिवार को जोरों से भूख लगी है.’’

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मैं ने पहले तो अपने दाएंबाएं देखा ताकि मौका मिले तो भाग सकूं. फिर कहा, ‘‘यार, एक भोजन की थाली परोस कर उस मरे हुए जानवर के पास रख आओ. हो सकता है टेस्ट चेंज करने के लिए कौए कुछ खा लें.’’

‘‘आइडिया तो बहुत बढि़या है,’’ कह कर तिवारीजी ने मुझे अपने गले से चिपटा लिया और अपने घर की ओर तेज कदमों से चल दिए ताकि जल्दी से थाली परोस कर मरे ढोर के पास रख सकें, जहां उन के पुरखे उसे ग्रहण कर सकें.    द्य

कल हमेशा रहेगा- अंतिम भाग

लेखिका- सुजाता वाई ओवरसियर

मम्मीपापा के दबाव में आ कर वेदश्री ने डा. साकेत से शादी करने का फैसला ले लिया. वह इस बात से दुखी थी कि अभि को यह बात कैसे समझाएगी. लेकिन बहते हुए आंसुओं को रोक कर उस ने एक निर्णय ले ही लिया कि वह अभि से मिलने आखिरी बार जरूर जाएगी.

वेदश्री की बातें सुनने के बाद अभि तय नहीं कर पा रहा था कि वह किस तरह अपनी प्रतिक्रिया दर्शाए. वह श्री को दिल से चाहता था और अपनी जिंदगी उस के साथ हंसीखुशी बिताने का मनसूबा बना रहा था. उस का सपना आज हकीकत के कठोर धरातल से टकरा कर चकनाचूर हो गया था और वह कुछ भी करने में असमर्थ था.

उस ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उस की अपनी गरीबी और लाचारी उस की जिंदगी से इस कदर खिलवाड़ करेगी. यदि वह अमीर होता तो क्या मानव के इलाज के लिए अपनी तरफ से योगदान नहीं देता? श्री उस के लिए सबकुछ थी तो उस के परिवार का हर सदस्य भी तो उस का सबकुछ था.

अब समय मुट्ठी से रेत की तरह सरक गया था. समय पर अब उस का कोई नियंत्रण नहीं रहा था. अब तो वह सिर्फ श्री और साकेत के सफल सहजीवन के लिए दुआ ही कर सकता था.

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अपना हृदय कड़ा कर और आवाज में संतुलन बना कर अभिजीत बोला, ‘‘श्री, मैं तुम्हारी मजबूरी समझ सकता हूं पर तुम से तो मैं यही कहूंगा कि हमें समझदार प्रेमियों की तरह हंसीखुशी एकदूसरे से अलग होना चाहिए. प्यार कोई ऐसी शै तो है नहीं कि दूरियां पैदा होने पर दम तोड़ दे. प्यार किया है तो उसे निभाने के लिए शादी करना कतई जरूरी नहीं. प्लीज, तुम मेरी चिंता न करना. मैं अपनेआप को संभाल लूंगा पर तुम वचन दो कि आज के बाद मुझे भुला कर सिर्फ साकेत के लिए ही जिओगी.’’

आंखों में आंसू लिए भारी मन से दोनों ने एकदूसरे से विदा ली.

‘‘श्री, आज का दिन यहां खत्म हुआ तो क्या हुआ? याद रखना, कल फिर आएगा और हमेशा आता रहेगा… और हर आने वाला कल तुम्हारी जिंदगी को और कामयाब बनाए, यही मेरी दुआ है.’’

मंगलसूत्र पहनाते समय साकेत की उंगलियों ने ज्यों ही वेदश्री की गरदन को छुआ, उस के सारे शरीर में सिहरन सी भर गई. सप्तपदी की घोषणा के साथसाथ शहनाई का उभरता संगीत हवा में घुल कर वातावरण को और भी मंगलमय बनाता गया. एकएक फेरे की समाप्ति के साथ उसे लगता गया कि वह अपने अभिजीत से एकएक कदम दूर होती जा रही है. आज से अभि उस से इस एक जन्म के लिए ही नहीं, बल्कि आने वाले सात जन्मों के लिए दूर हो गया है. अब उस का आज और कल साकेत के साथ हमेशा के लिए जुड़ गया है.

फेरों के खत्म होते ही मंडप में मौजूद लोगों ने अपनेअपने हाथों के सारे फूल एक ही साथ नवदंपती पर निछावर कर दिए. तब वेदश्री ने अपने दिल में उमड़ते हुए भावनाओं के तूफान को एक दृढ़ निश्चय से दबा दिया और सप्तपदी के एकएक शब्द को, उस से गर्भित हर अर्थ हर सीख को अपने पल्लू में बांध लिया. उस ने मन ही मन संकल्प किया कि वह अपने विवाहित जीवन को आदर्श बनाने का हरसंभव प्रयास करेगी क्योंकि वह इस सच को जानती थी कि औरत की सार्थकता कार्येषु दासी, कर्मेषु मंत्री, भोज्येशु माता और शयनेशु रंभा के 4 सूत्रों के साथ जुड़े हर कर्तव्यबोध में समाई हुई है.

सुहाग सेज पर सिकुड़ी बैठी वेदश्री के पास बैठ कर साकेत ने कोमलता से उस का चेहरा ऊपर की ओर इस तरह उठाया कि साकेत का चेहरा उस की आंखों के बिलकुल सामने था. वह धड़कते हृदय से अपने पति को देखती रही, लेकिन उसे साकेत के चेहरे पर अभि का चेहरा क्यों नजर आ रहा है? उसे लगा जैसे अभि कह रहा हो, ‘श्री, आखिर दिखा दिया न अपना स्त्रीचरित्र. धोखेबाज, मैं तुम्हें कभी क्षमा नहीं करूंगा.’ और घबराहट के मारे वेदश्री ने अपनी पलकें भींच कर बंद कर लीं.

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‘‘क्या हुआ, श्री. तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न?’’ साकेत उस की हालत देख कर घबरा गया.

‘‘नहींनहीं…बिलकुल ठीक हूं…आप चिंता न करें…पहली बार आज आप ने मुझे इस तरह छुआ न इसलिए पलकें स्वत: शरमा कर झुक गईं,’’ कह कर वह अपनी घबराहट पर काबू पाने का निरर्थक प्रयास करने लगी.

मन में एक निश्चय के साथ श्री ने अपनी आंखें खोल दीं और चेहरा उठा कर साकेत को देखने लगी.

‘‘अब मैं ठीक हूं, साकेत. पर आप से कुछ कहना चाहती हूं…प्लीज, मुझे एक मौका दीजिए. मैं अपने मन और दिल पर एक बोझ महसूस कर रही हूं, जो आप को हकीकत से वाकिफ कराने के बाद ही हलका हो सकता है.’’

‘‘किस बोझ की बात कर रही हो तुम? देखो, तुम अपनेआप को संभालो, और जो कुछ भी कहना चाहती हो, खुल कर कहो. आज से हम नया जीवन शुरू करने जा रहे हैं और ऐसे में यदि तुम किसी भी बात को मन में रख कर दुखी होती रहोगी तो मुझे अच्छा नहीं लगेगा.’’

‘‘साकेत, मैं ने आप से अपनी जिंदगी से जुड़ा एक गहरा राज छिपा कर रखा है और यह छल नहीं तो और क्या है?’’ फिर वह अभिजीत और अपने रिश्ते से जुड़ी हर बात साकेत को बताती चली गई.

‘‘साकेत, मैं आप को वचन देती हूं कि मैं अपनी ओर से आप को शिकायत का कोई भी मौका नहीं दूंगी,’’ अपनी बात खत्म करने के बाद भी वह रो रही थी.

‘‘गलत बात है श्री, आज का यह विशेष अवसर और उस का हर पल, हमारी जिंदगी में पहली और आखिरी बार आया है. क्या इन अद्भुत पलों का स्वागत आंसुओं से करोगी?’’ साकेत ने प्यार से उस का चेहरा अपने हाथों में ले लिया.

‘‘रही बात तुम्हारे और अभिजीत के प्रेम की तो वह तुम्हारा अतीत था और अतीत की धूल को उड़ा कर अपने वर्तमान को मैला करने में मैं विश्वास नहीं रखता…भूल जाओ सबकुछ…’’

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वह रात उन की जिंदगी में अपने साथ ढेर सारा प्यार और खुशियां लिए आई. साकेत ने उसे इतना प्यार दिया कि उस का सारा डर, घबराहट, कमजोर पड़ता हुआ आत्मविश्वास…उस प्यार की बाढ़ में तिनकातिनका बन कर बह गया.

वसंत पंचमी का शुभ मुहूर्त वेदश्री के जीवन में एक कभी न खत्म होने वाली वसंत को साथ ले आया जिस ने उस के जीवन को भी फूलों की तरह रंगीन बना दिया क्योंकि साकेत एक अच्छे पति होने के साथ ही एक आदर्श जीवनसाथी भी साबित हुए.

पहले दिन से ही श्री ने अपनी कर्तव्यनिष्ठा द्वारा घर के सभी सदस्यों को अपना बना लिया. समय के पंखों पर सवार दिन महीनों में और महीने सालों में तबदील होते गए. 5 साल यों गुजर गए मानो 5 दिन हुए हों. इन 5 सालों में वेदश्री ने जुड़वां बेटियां ऋचा एवं तान्या तथा उस के बाद रोहन को जन्म दिया. ऋचा व तान्या 4 वर्ष की हो चली थीं और रोहन अभी 3 महीने का ही था. साकेत का प्यार, 3 बच्चों का स्नेह और परिवार के प्रति कर्तव्यनिष्ठा, यही उस के जीवन की सार्थकता के प्रतीक थे.

साकेत की दादी दुर्गा मां सुबह जल्दी उठ जातीं. उन के स्नान से ले कर पूजाघर में जाने तक सभी तैयारियों में श्री का सुबह का वक्त कब निकल जाता, पता ही नहीं चलता. उस के बाद मांबाबूजी, साकेत तथा भैयाभाभी बारीबारी उठ कर तैयार होते. फिर अनिकेत और आस्था की बारी आती. सभी के नहाधो कर अपनेअपने कामों में लग जाने के बाद श्री अपना भी काम पूरा कर के दुर्गा मां की सेवा में लग जाती.

अनिकेत एवं आस्था तो भाभी के दीवाने थे. हर पल उस के आगेपीछे घूमते रहते. उन की हर जरूरत का खयाल रखने में श्री को बेहद सुख मिलता. श्री एवं अनिकेत दोनों की उम्र में बहुत फर्क नहीं था. अनिकेत ने एम.बी.ए. की डिगरी प्राप्त की थी. अब वह अपने पिता एवं बड़े भाई के व्यवसाय में हाथ बंटाने लगा था लेकिन अपनी हर छोटीबड़ी जरूरतों के लिए श्री पर ही निर्भर रहता. वह उस से मजाक में कहती भी थी, ‘अनिकेत भैया, अब आप की भाभी में आप की देखभाल करने की शक्ति नहीं रही. जल्दी ही हाथ बंटाने वाली ले आइए वरना मैं अपने हाथ ऊपर कर लूंगी.’

आस्था का कहना था कि ‘जिस घर में इतनी प्यारी भाभी बसती हों उस घर को छोड़ कर मैं तो कभी नहीं जाने वाली,’ फिर भाभी के गले में बांहें डाल कर झूल जाती.

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वेदश्री के खुशहाल परिवार को एक ही ग्रहण वर्षों से खाए जा रहा था कि विश्वा भाभी की गोद अब तक खाली थी. वैसे भैयाभाभी दोनों शारीरिक रूप से पूर्णतया स्वस्थ थे पर भाभी के गर्भाशय में एक गांठ थी जो बारबार की शल्यक्रिया के बाद भी पनपती रहती थी. भाभी को गर्भ जरूर ठहरता, पर गर्भ के पनपने के साथ ही साथ वह गांठ भी पनपने लगती जिस की वजह से गर्भपात हो जाता था.

बारबार ऐसा होने से भाभी के स्वास्थ्य पर गहरा असर पड़ता जा रहा था. इसी बात का गम उन्हें मन ही मन खाए जा रहा था. श्री हमेशा भाभी से कहती, ‘भाभी, मैं आप से उम्र में बहुत छोटी हूं और उम्र एवं रिश्ते के लिहाज से बड़ी भाभी, मां समान होती हैं. आप मुझे अपनी देवरानी समझें या बेटी, हर लिहाज से मैं आप को यही कहूंगी कि आप इस बात को कभी मन पर न लें कि आप की अपनी कोई संतान नहीं है मैं अपने तीनों बच्चे आप की गोद में डालने को तैयार हूं. आप को मुझ पर भरोसा न हो तो मैं कानूनी तौर पर यह कदम उठाने को तैयार हूं. बच्चे मेरे पास रहें या आप के पास, रहेंगे तो इसी वंश से जुडे़ हुए न.’’

सुन कर भाभी की आंखों में तैरने वाला पानी उसे भीतर तक विचलित कर देता. मांबाबूजी श्री के इन्हीं गुणों पर मोहित थे. उन्हें खुशी थी कि घरपरिवार में शांति एवं खुशी का माहौल बनाए रखने में छोटीबहू का योगदान सब से ज्यादा था. बड़ी बहू भी उस की आत्मीयता में सराबोर हो कर अपना गम भुलाती जा रही थी. तीनों बच्चों को वह बेहद प्यार करती. श्री घर के कार्य संभालती और भाभी बच्चों को. घर की चिंताओं से मुक्त पुरुष वर्ग व्यापार के कार्यों में दिनरोज विकास की ओर बढ़ता जा रहा था.

‘‘श्री,’’ विश्वा भाभी ने उसे आवाज दी.

‘‘जी, भाभी,’’ ऋचा के बाल संवारते हुए श्री बोली और फिर हाथ में कंघी लिए ही वह ड्राइंगरूम में आ गई, जहां विश्वा भाभी, मांजी एवं दादीमां बैठी थीं.

‘‘आज हमें एक खास जगह, किसी खास काम के लिए जाना है. तुम तैयार हो न?’’ भाभी ने पूछा.

‘‘जी, आप कहें तो अभी चलने को तैयार हूं लेकिन हमें जाना कहां होगा?’’

‘‘जाना कहां है यह भी पता चल जाएगा पर पहले तुम यह तसवीर देखो,’’ यह कहते हुए भाभी ने एक तसवीर उस की ओर बढ़ा दी. तसवीर में कैद युवक को देखते ही वह चौंक उठी. अरे, यह तो सार्थक है, अभि का दूसरा भांजा…प्रदीप का छोटा भाई.

‘‘हमारी लाडली बिटिया की पसंद है….हमारे घर का होने वाला दामाद,’’ भाभी ने खुशी से खुलासा किया.

‘‘सच?’’ उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था. फिर तो जरूर अभि से भी मिलने का मौका मिलेगा.

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घर के सभी लोगों ने आस्था की पसंद पर अपनी सहमति की मोहर लगा दी. सार्थक एक साधारण परिवार से जरूर था लेकिन एक बहुत ही सलीकेदार, सुंदर, पढ़ालिखा और साहसी लड़का है. अनिकेत के साथ ही एम.बी.ए. कर के अब बहुराष्ट्रीय कंपनी में उच्च पद पर कार्यरत है.

उन की सगाई के मौके पर एक विशाल पार्टी का आयोजन होटल में किया गया. साकेत व वेदश्री मुख्यद्वार पर खड़े हो कर सभी आने वाले मेहमानों का स्वागत कर रहे थे. जब सार्थक के साथ अभि, उस की बहन और बहनोई ने हाल में प्रवेश किया तो श्री व साकेत ने बड़ी गर्मजोशी से उन का स्वागत किया.

अभि ने वर्षों बाद श्री को देखा तो बस, अपलक देखता ही रह गया. एक बड़े घराने की बहू जैसी शान उस के अंगअंग से फूट रही थी. साकेत के साथ उस की जोड़ी इतनी सुंदर लग रही थी कि अभि यह सोचने पर मजबूर हो गया कि उस ने वर्षों पहले जो फैसला श्री की खुशी के लिए लिया था, वह उस की जिंदगी का सर्वोत्तम फैसला था.

अभि ने अपनी पत्नी भव्यता से श्री का परिचय करवाया. भव्यता से मिल कर श्री बेहद खुश हुई. वह खुश थी कि अभि की जिंदगी की रिक्तता को भरने के लिए भव्यता जैसी सुंदर और शालीन लड़की ने अपना हाथ आगे बढ़ाया था. उन की भी एक 2 साल की प्यारी सी बेटी शर्वरी थी.

श्री ने बारीबारी से सार्थक के मम्मीपापा तथा अभि की मां के पैर छुए और उन का स्वागत किया. वे सभी इस बात से बेहद खुश थे कि उन का रिश्ता श्री के परिवार में होने जा रहा है. अभि की मम्मी बेहद खुश थीं, उन्होंने श्री को गले लगा लिया.

साकेत को अपनी ओर देखते हुए पा कर श्री ने कहा, ‘‘साकेत, आप अभिजीत हैं. सार्थक के मामा.’’

‘‘अभिजीत साहब, आप से दोबारा मिल कर मुझे बेहद प्रसन्नता हुई है,’’ कह कर साकेत ने बेहद गर्मजोशी से हाथ मिलाया.

‘‘दोबारा से आप का क्या तात्पर्य है, साकेत’’ श्री पूछे बिना न रह सकी.

‘‘श्री, तुम शायद नहीं जानती कि हमारा मानव इन्हीं की बदौलत दोनों आंखों से इस संसार को देखने योग्य बना है.’’

‘‘अभि, तुम ने मुझ से यह राज क्यों छिपाए रखा?’’ यह कहतेकहते श्री की आंखें छलक आईं. वह अपनेआप को कोसने लगी कि क्यों इतनी छोटी सी बात उस के दिमाग में नहीं आई….मानव की आंखें और प्रदीप की आंखों में कितना साम्य था? उन की आंखों का रंग सामान्य व्यक्ति की आंखों के रंग से कितना अलग था. तभी तो मानव की सर्जरी में इतना अरसा लग गया था. क्या प्रदीप की आंख न मिली होती तो उस का भाई…इस के आगे वह सोच ही नहीं पाई.

‘‘श्री, आज के इस खुशी के माहौल में आंसू बहा कर अपना मन छोटा न करो. यह कोई इतनी बड़ी बात तो थी नहीं. हमें खुशी इस बात की है कि मानव की आंखों में हमें प्रदीप की छवि नजर आती है…वह आज भी जिंदा है, हमारी नजरों के सामने है…उसे हम देख सकते हैं, छू सकते हैं, वरना प्रदीप तो हम सब के लिए एक एहसास ही बन कर रह गया होता.’’

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श्री ने मानव को गले लगा लिया. उस की भूरी आंखों में उसे सच में ही प्रदीप की परछाईं नजर आई. उस ने प्यार से भाई की दोनों आखोंं पर चुंबनों की झड़ी सी लगा दी, जैसे प्रदीप को धन्यवाद दे रही हो.

साकेत, अभि की ओर मुखातिब हुआ, ‘‘अभिजीत साहब, हम आप से तहेदिल से माफी मांगना चाहते हैं, उस खूबसूरत गुनाह के लिए जो हम से अनजाने में हुआ,’’ उस ने सचमुच ही अभि के सामने हाथ जोड़ दिए.

‘‘किस बात की माफी, साकेतजी?’’ अभि कुछ समझ नहीं पाया.

‘‘हम ने आप की चाहत को आप से हमेशाहमेशा के लिए जो छीन लिया…यकीन मानिए, यदि मैं पहले से जानता तो आप दोनों के सच्चे प्यार के बीच कभी न आता.’’

आप अपना मन छोटा न करें, साकेतजी. आप हम दोनों के प्यार के बीच आज भी नहीं हैं. मैं आज भी वेदश्री से उतना ही प्यार करता हूं जितना किसी जमाने में किया करता था. सिर्फ हमारे प्यार का स्वरूप ही बदला है.

‘‘वह कैसे?’’ साकेत ने हंसते हुए पूछा. उस के दिल का बोझ कुछ हलका हुआ.

‘‘देखिए, पहले हम दोनों प्रेमी बन कर मिले, फिर मित्र बन कर जुदा हुए और आज समधी बन कर फिर मिले हैं…यह हमारे प्रेम के अलगअलग स्वरूप हैं और हर स्वरूप में हमारा प्यार आज भी हमारे बीच मौजूद है.’’

‘‘श्री, याद है, मैं ने तुम से कहा था, कल फिर आएगा और हमेशा आता रहेगा?’’

श्री ने सहमति में अपना सिर हिलाया. वह कुछ भी बोलने की स्थिति में कहां थी.

सार्थक एवं आस्था ने जब एकदूसरे की उंगली में सगाई की अंगूठी पहनाई तो दोनों की आंखों में एक विशेष चमक लहरा रही थी, जैसे कह रही हों…

‘आज हम ने अपने प्यार की डोर से 2 परिवारों को एक कभी न टूटने वाले रिश्ते में हमेशा के लिए बांध दिया है…कल हमेशा आता रहेगा और इस रिश्ते को और भी मजबूत बनाता रहेगा, क्योंकि कल हमेशा रहेगा और उस के साथ ही साथ सब के दिलों में, एकदूसरे के प्रति प्यार भी.

उस रात अचानक

लेखिका- नीता दानी

पूर्व कथा

सुखसुविधा के हर साजोसामान के साथ प्रशांत और गुंजन खुशहाल जिंदगी जी रहे थे. इच्छा थी तो उन्हें एक संतान की. अचानक एक रात घर से बाहर टहलने के दौरान गुंजन का अपहरण हो जाता है. अपहरणकर्ता फिरौती में भारी रकम की मांग करते हैं. उधर, एक दिन अनजान महिला बंधी गुंजन की रस्सी खोल उसे अपहरणकर्ताओं के चंगुल से छुटकारा दिला देती है. रात बीतने का एक प्रहर अभी शेष है कि घंटी टनटनाती है. परेशान प्रशांत डरडर कर दरवाजा खोलता है, गुंजन को देख आश्चर्यमिश्रित हर्ष से उस का चेहरा खिल जाता है और डरीसहमी गुंजन पति के चौड़े सीने से लग रोतीबिसूरती बोलती है,

‘‘प्रशांत, अपहरणकर्ताओं ने मेरे खूबसूरत कंगन और कानों के कीमती टौप्स निकाल लिए…’’  गुंजन की सकुशल वापसी से सासससुर खुश थे. सास को बहू के गहनों की चिंता सता रही थी जबकि गुंजन को गहनों से अधिक अपनी घरवापसी प्रिय लग रही थी. वहीं, प्रशांत का बदलाबदला व्यवहार उसे बेचैन कर रहा था. वह गुंजन से कुछ खिंचाखिंचा रह रहा था. अपहरणकर्ताओं को फिरौती पहुंचाए बिना ही गुंजन का घर वापस आ जाना उसे अस्वाभाविक लग रहा था. ‘सिर्फ जेवर ले कर ही अपहरणकर्ता खुश हो गए…क्या गुंजन उन के पास सहीसलामत रही होगी?’

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गुंजन के प्रति प्रशांत के प्यार की गरमाहट समाप्त होती जा रही थी. प्रशांत द्वारा उपेक्षित गुंजन दुखी और निराश रहने लगती है. इसी बीच, एक दिन आफिस में काम के दौरान गुंजन को उबकाई का एहसास हुआ और वह उलटी के लिए टायलेट की ओर भागी. अस्वस्थ महसूस करने पर वह आफिस से छुट्टी ले कर सीधे डाक्टर के पास गई. लेडी डाक्टर ने उसे गर्भवती होने की खुशखबरी दी. खुशी से दीवानी गुंजन यह खुशखबरी प्रशांत को सुनाने को आतुर हो जाती है. ‘अब प्रशांत का व्यवहार अच्छा हो जाएगा. यह जान कर कि वह पिता बनने वाला है, खुश होगा,’ मन ही मन ऐसा सोचती गुंजन घर पहुंचती है…अब आगे…

गतांक से आगे…

गुंजन की आशा के विपरीत प्रशांत पिता बनने की बात जान कर स्तब्ध रह गया. उस के विचित्र हावभाव उस के भीतर छिपी बेचैनी को बयान कर रहे थे.‘‘तुम तो कहती थीं कि उन बदमाशों ने तुम्हारे साथ कोई बदतमीजी नहीं की… तो फिर…’’ कह कर उस ने गुंजन का हाथ जोर से झटक दिया था और फिर अंटशंट बकना शुरू कर दिया था. प्रशांत ने गुंजन से और अधिक दूरी बना ली थी. वह पति के समीप जाने को होती तो प्रशांत गुंजन पर कठोर नजर फेंक कर उस के समीप से हट जाता. और एक दिन प्रशांत के मन में छिपी बेचैनी उस के अधरों तक आ ही गई जब उस ने कड़े लहजे में कहा,  ‘उन डकैतों का बच्चा यहां इस घर में नहीं पलेगा.’

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गुंजन यह सुन कर अवाक् रह गई थी. पत्नी से दूरी बनाता प्रशांत इन दिनों किसी अन्य स्त्री के समीप जा रहा था. गुंजन दिल पर पत्थर रख चुपचाप बरदाश्त कर रही थी.

प्रशांत के मन में चल रही उथलपुथल का वाणी से खुलासा आज हो गया था. वह गुंजन के साथ संबंध तोड़ देना चाहता था. प्रशांत की इच्छा को अपनी नियति मान गुंजन छटपटा कर रह गई थी और आखिर में उसे मायके लौट आना पड़ा था.

समय गुजरता गया और वह एक स्वस्थ व सुंदर शिशु की मां बन गई. पुत्र को आंचल में समेट फूली नहीं समाई थी. किंतु प्रशांत की अनुपस्थिति एक टीस बन कर उसे तड़पा गई थी.

इस के कुछ माह बाद ही प्रशांत ने गुंजन को तलाक दे दिया और फिर दोनों नदी की 2 धाराओं की तरह अपनीअपनी राह बह चले.

रात्रि को प्राय: गुंजन को प्रशांत की यादें सतातीं और वह उस के साथ के लिए तड़प उठती तो कभी मन में प्रतिहिंसा की ज्वाला भड़क उठती.

समय सरकता जा रहा था. गुंजन अपनी नौकरी और पुत्र की परवरिश में व्यस्त थी. नौकरी में उस की लगन और काम के प्रति निष्ठा से उसे तरक्की मिलती जा रही थी.

पुत्र अभिराम भी दिन पर दिन बड़ा हो रहा था और उस के नैननक्श और चेहरा हूबहू अपने पिता प्रशांत पर जा रहे थे.

बेटे का चेहरा देख गुंजन के मन में उम्मीद का दीया जल उठता कि काश, प्रशांत एक बार अपने बेटे को देख लेता तो उस का संदेह पल भर में ही दूर हो जाता.

किंतु प्रशांत से संपर्क टूटे तो अरसा बीत चुका था.

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मेधावी अभिराम स्कूलकालेज और विश्वविद्यालय की हर परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास करता इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष में आ गया था. उच्च श्रेणी के इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ाई करता अभिराम स्कालर था.

उस के कालेज में छात्रों की प्लेसमेंट के लिए विभिन्न बहुराष्ट्रीय कंपनियां आनी शुरू हो गई थीं. कंपनियों के रिकू्रट आफिसर, मानव संसाधन अधिकारी और प्रबंध निदेशक की टीम सभी छात्रों की लिखित परीक्षा और साक्षात्कार लेने के लिए छात्रों के चयन में जुटने शुरू हो गए थे.

अभिराम भी किसी उच्च स्तरीय कंपनी में नौकरी पाने के लिए परीक्षा की तैयारी में व्यस्त था. रात में सोने से पहले उस ने अपनी मां गुंजन से कहा था, ‘‘मम्मी, कल सुबह मुझे कालेज 7 बजे से पहले पहुंचना है और रात को भी देर हो जाएगी घर वापस आने में…पता नहीं कब तक इंटरव्यू चलते रहें.’’

अगले दिन अभिराम लिखित परीक्षा देने में व्यस्त हो गया और एक के बाद एक चरण पार करता हुआ वह अब साक्षात्कार के लिए अपना नाम पुकारे जाने की प्रतीक्षा में था.

अपना नंबर आया जान कर अभिराम ने आत्मविश्वास के साथ कमरे में प्रवेश किया. इंटरव्यू लेने के लिए 6 सदस्यों की टीम भीतर मौजूद थी.

सभी की दृष्टि अभिराम के चेहरे पर जमी थी. अभिराम को अपलक निहारते और ‘प्रबंध निदेशक’ के चेहरे की समानता को देख टीम के दूसरे सदस्य चकित थे.

अभिराम कुछ असहज हो उठा. उस के माथे पर पसीने की बूंदें चमक उठी थीं.

‘‘तुम्हारा नाम अभिराम प्रशांत दीक्षित है…क्या तुम्हारे 2 नाम हैं?’’ एच.आर. अधिकारी उस के बायोडाटा को देख बोला.

‘‘सर, मेरा नाम अभिराम और पिता का नाम प्रशांत दीक्षित है.’’

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रिकू्रट अफसर एकदूसरे को हैरानी से देख रहे थे. मानो कह रहे हों कि चेहरे के साथसाथ नाम में भी समानता है. हमारे एम.डी. का नाम भी प्रशांत दीक्षित है.

‘‘क्या करते हैं तुम्हारे पिता?’’ प्रबंध निदेशक ने अभिराम की फाइल को सरसरी नजर से देखते हुए पूछा.

‘‘सर, अपने पिता के बारे में मैं अधिक नहीं जानता,’’ इतना कह कर अभिराम सकपका गया फिर संभल कर बोला, ‘‘सर, मेरे मातापिता वर्षों पहले एकदूसरे से अलग हो गए थे. मैं अपने पिता के बारे में कुछ नहीं जानता क्योंकि होश संभालने के बाद उन्हें कभी देखा ही नहीं.’’

‘‘तुम्हारी मां?’’ एम.डी. दीक्षित के सवाल में जिज्ञासा थी. किंतु व्यक्तिगत प्रश्न पूछने पर एच.आर. अधिकारी और रिकू्रट अफसर ने शिष्टतापूर्ण आपत्ति जताई, ‘‘सर, व्यक्तिगत प्रश्न का नौकरी से क्या लेनादेना. छात्र की योग्यता से संबंधित प्रश्न पूछने ही बेहतर होंगे,’’ एम.डी. के कान में फुसफुसाते एच.आर. ने कहा.

‘‘मुझे कुछ नहीं पूछना. आप लोग जो चाहें पूछ लें.’’

प्रबंध निदेशक ने टीम से आग्रह किया और स्वयं उठ कर रेस्ट रूम में चले गए.

अभिराम ने सभी प्रश्नों का शालीनता से जवाब दिया और धन्यवाद तथा अभिवादन करता बाहर आ गया था.

टीम के सभी सदस्य प्रबंध निदेशक से सवाल कर रहे थे, ‘‘सर, यह लड़का क्या आप की रिश्तेदारी में है? इस की शक्लसूरत और उपनाम आप से मेल खाते हैं.’’

‘‘हमें तो यों आभास हो रहा था कि आप का युवा संस्करण ही हमारे समक्ष बैठा था,’’ मानव संसाधन अधिकारी ने मुसकराते हुए कहा.

सहायक टीम की बातें सुन प्रबंध निदेशक दीक्षित के तेजस्वी चेहरे का ओज बुझ गया था, लेकिन अभिराम का चयन एक प्रथम श्रेणी की बहुराष्ट्रीय कंपनी में हो गया था और अपने मित्रों के साथ वह खुशी के उन पलों का आनंद ले रहा था.

मम्मी को पहले खबर दे दूं. यह सोच कर अभिराम ने तुरंत फोन कर मां को अपने चयन की सूचना दी.

‘‘मम्मी, हम सब दोस्त सेलीबे्रट कर रहे हैं. आप खाना खा लेना,’’ उस का स्वर अचानक थम गया क्योंकि सामने एम.डी. दीक्षित खड़े थे.

वह अपलक अपनी प्रतिमूर्ति को देख रहे थे. मन में कई सारे सवाल उठ रहे थे पर उन में इतनी शक्ति नहीं थी कि वे अभिराम से कुछ पूछते, अत: बिना कुछ कहे वे अपने रूम की ओर बढ़ गए. पूरे दिन की थकावट के बाद भी नींद उन की आंखों से कोसों दूर थी. रात भर करवटें बदलते रहे.

अगले दिन सुबह अभिराम के घर जाने के लिए निकल पड़े थे. घर का पता अभिराम की बायोडाटा फाइल से नोट कर लिया था.

रास्ते भर विचारों में लीन रहे. उन की 2 बेटियां हैं लेकिन पुत्र की इच्छा उन्हें बेचैन किए रखती है. अभिराम को देख कर उन की इच्छा और अधिक बलवती हो उठी है.

अभिराम के घर पहुंच कर प्रशांत दीक्षित ने दरवाजे पर लगी घंटी को कांपते हाथों से बजा दिया था पर यह करते समय उन के कदम लड़खड़ा गए थे. दरवाजा गुंजन ने खोला था. दोनों एकदूसरे को अपलक देखते रह गए थे. प्रशांत के अधर कांपे किंतु बोल नहीं फूट सके.

गुंजन की आंखों में आश्चर्यमिश्रित हर्ष के भाव थे. शायद अपनी वर्षों की अभिलाषा के पूरे होने के मौके की यह खुशी थी.

कब से गुंजन को प्रशांत के पदचापों की प्रतीक्षा थी. कब से उस की राह देखती यही सोचती आई थी कि एक बार प्रशांत से अवश्य उस का सामना हो जाए.

बिना किसी भूमिका के उस के अधरों पर प्रश्न आ गया, ‘‘आज यहां की याद कैसे आ गई?’’

गुंजन के स्वर में छिपे व्यंग्य को समझ प्रशांत सकपका गया था.

‘‘कल मैं अपने बेटे से मिला. अभिराम को देख कर मेरा सिर गर्व से ऊंचा हो गया. कितना होनहार है मेरा बेटा,’’ प्रशांत भावावेश में बोल रहा था.

‘‘आप का पुत्र? आज वह आप का पुत्र कैसे हो गया?’’ गुंजन का स्वर ऊंचा हो गया था.

अतीत में जिस पुरुष को कसमें खाखा कर मैं विश्वास दिलाती रह गई थी अपने गर्भ में पल रहे शिशु के पिता होने का और वह निर्दयी विश्वास नहीं कर सका था. संदेह के कीड़े ने उस का विवेक हर लिया था. वह आज कैसे उसे अपना बेटा कह सकता है.

गुंजन के मन में तभी से पति के प्रति कहीं न कहीं प्रतिहिंसा की ज्वाला धधक रही थी और आज प्रशांत के मुख से पुत्रमोह की बातें सुन, गुंजन के तनबदन में आग लग गई थी.

‘‘अभिराम, सिर्फ और सिर्फ मेरा पुत्र है, मैं ही उस की मां हूं और मैं ही पिता भी हूं.’’

आज वह प्रशांत के सामने भावनाओं में बह कर दुर्बल हरगिज नहीं बनना चाहती थी. आज वह अपने मन की भड़ास निकाल लेना चाहती थी.

‘‘आप बहुत पहले ही अपने संदेह और बेबुनियाद शक के कारण अपनी पत्नी और अजन्मे शिशु को त्याग चुके हैं. अब वह सिर्फ मेरा पुत्र है.

‘‘बेहतर होगा अब आप यहां से चले जाएं और हमें हमारे हाल पर छोड़ दें. अब अभिराम बड़ा हो गया है. आप की सचाई जान कर उसे बहुत दुख होगा. आप का अपना एक परिवार है, उसे संभालिए.’’

‘‘मुझे माफ कर दो, गुंजन,’’ प्रशांत के स्वर में पश्चात्ताप और निराशा स्पष्ट थी.

‘‘मैं कौन होती हूं क्षमा करने वाली,’’ धीमे स्वर में बोली गुंजन अचानक उग्र हो उठी, ‘‘अगर आप के बेटे की शक्लसूरत आप पर न होती तो क्या वह आप का बेटा न होता. जरूरी नहीं कि बच्चों की शक्लसूरत हूबहू मातापिता से मिलने लगे. तो क्या ऐसी स्थिति में उन के जन्म पर संदेह करना होगा?

‘‘कुदरत ने मेरी सचाई को सही साबित करने के लिए ही शायद मेरे बेटे के चेहरे को हूबहू उस के पिता से मिला दिया है. किंतु प्रशांत दीक्षित, तलाक के बाद अब हमारे रास्ते अलग हैं. आप जा सकते हैं.’’

प्रशांत निढाल सा लड़खड़ाते कदमों को जबरदस्ती खींचता घर से बाहर आ गया था.

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प्रशांत के विदा होते ही गुंजन की आंखों से आंसू बह निकले थे. जिस पति को देखने, मिलने के लिए वह वर्षों से बेचैन थी वही आज उस के सामने खड़ा गिड़गिड़ा रहा था. किंतु आज उस के प्रति गुंजन की भावनाएं वर्षों पहले वाली नहीं थीं.

गुंजन के भीतर धधकती वर्षों की प्रतिहिंसा की ज्वाला धीरेधीरे शांत हो चली थी. शायद उसे अपनी बेगुनाही का सुबूत मिल गया था.

मां और मोबाइल

‘‘मेरा मोबाइल कहां है? कितनी बार कहा है कि मेरी चीजें इधरउधर मत किया करो पर तुम सुनती कहां हो,’’ आफिस जाने की हड़बड़ी में मानस अपनी पत्नी रोमा पर बरस पड़े थे.

‘‘आप की और आप के बेटे राहुल के कार्यालय और स्कूल जाने की तैयारी में सुबह से मैं चकरघिन्नी की तरह नाच रही हूं, मेरे पास कहां समय है किसी को फोन करने का जो मैं आप का मोबाइल लूंगी,’’ रोमा खीझपूर्ण स्वर में बोली थी.

‘‘तो कहां गया मोबाइल? पता नहीं यह घर है या भूलभुलैया. कभी कोई सामान यथास्थान नहीं मिलता.’’

‘‘क्यों शोर मचा रहे हो, पापा? मोबाइल तो दादी मां के पास है. मैं ने उन्हें मोबाइल के साथ छत पर जाते देखा था,’’ राहुल ने मानो बड़े राज की बात बताई थी.

‘‘तो जा, ले कर आ…नहीं तो हम दोनों को दफ्तर व स्कूल पहुंचने में देर हो जाएगी…’’

पर मानस का वाक्य पूरा हो पाता उस से पहले ही राहुल की दादी यानी वैदेहीजी सीढि़यों से नीचे आती हुई नजर आई थीं.

‘‘अरे, तनु, मेरे ऐसे भाग्य कहां. हर घर में तो श्रवण कुमार जन्म लेता नहीं,’’ वे अपने ही वार्त्तालाप में डूबी हुई थीं.

‘‘मां, मुझे देर हो रही है,’’ मानस अधीर स्वर में बोले थे.

‘‘पता है, इसीलिए नीचे आ रही हूं. तान्या से बात करनी है तो कर ले.’’

‘‘मैं बाद में बात कर लूंगा. अभी तो मुझे मेरा मोबाइल दे दो.’’

‘‘मुझे तो जब भी किसी को फोन करना होता है तो तुम जल्दी में रहते हो. कितनी बार कहा है कि मुझे भी एक मोबाइल ला दो, पर मेरी सुनता ही कौन है. एक वह श्रवण कुमार था जिस ने मातापिता को कंधे पर बिठा कर सारे तीर्थों की सैर कराई थी और एक मेरा बेटा है,’’ वैदेहीजी देर तक रोंआसे स्वर में प्रलाप करती रही थीं पर मानस मोबाइल ले कर कब का जा चुका था.

‘‘मोबाइल को ले कर क्यों दुखी होती हैं मांजी. लैंडलाइन फोन तो घर में है न. मेरा मोबाइल भी है घर में. मैं भी तो उसी पर बातें करती हूं,’’ रोमा ने मांजी को समझाना चाहा था.

‘‘तुम कुछ भी करो बहू, पर मैं इस तरह मन मार कर नहीं रह सकती. मैं किसी पर आश्रित नहीं हूं. पैंशन मिलती है मुझे,’’ वैदेही ने अपना क्रोध रोमा पर उतारा था पर कुछ ही देर में सब भूल कर घर को सजासंवार कर रोमा को स्नानगृह में गया देख कर उन्होंने पुन: अपनी बेटी तान्या का नंबर मिलाया था.

‘‘हैलो…तान्या, मैं ने तुम से जैसा करने को कहा था तुम ने किया या नहीं?’’ वे छूटते ही बोली थीं.

‘‘वैदेही बहन, मैं आप की बेटी तान्या नहीं उस की सास अलका बोल रही हूं.’’

‘‘ओह, अच्छा,’’ वे एकाएक हड़बड़ा गई थीं.

‘‘तान्या कहां है?’’ किसी प्रकार उन के मुख से निकला था.

‘‘नहा रही है. कोई संदेश हो तो दे दीजिए. मैं उसे बता दूंगी.’’

‘‘कोई खास बात नहीं है, मैं कुछ देर बाद दोबारा फोन कर लूंगी,’’ वैदेही ने हड़बड़ा कर फोन रख दिया था. पर दूसरी ओर से आती खनकदार हंसी ने उन्हें सहमा दिया था.

‘कहीं छोकरी ने बता तो नहीं दिया सबकुछ? तान्या दुनियादारी में बिलकुल कच्ची है. ऊपर से यह फोन. स्थिर फोन में यही तो बुराई है. घरपरिवार को तो क्या सारे महल्ले को पता चल जाता है कि कहां कैसी खिचड़ी पक रही है. मोबाइल फोन की बात ही कुछ और है…किसी भी कोने में बैठ कर बातें कर लो.’ उन की विचारधारा अविरल जलधारा की भांति बह रही थी कि अचानक फोन की घंटी बज उठी थी.

‘‘हैलो मां, मैं तान्या. मां ने बताया कि जब मैं स्नानघर में थी तो आप का फोन आया था. कोई खास बात थी क्या?’’

‘‘खास बात तो कितने दिनों से कर रही हूं पर तुम्हें समझ में आए तब न. अरे, जरा अक्ल से काम लो और निकाल बाहर करो बुढि़या को. जब देखो तब तुम्हारे यहां पड़ी रहती है. कब तक उस की गुलामी करती रहोगी?’’

‘‘धीरे बोलो मां, कहीं मांजी ने सुन लिया तो बुरा मानेंगी.’’

‘‘फोन पर हम दोनों के बीच हुई बात को कैसे सुनेगी वह?’’

‘‘छोड़ो यह सब, शनिवाररविवार को आप से मिलने आऊंगी तब विस्तार से बात करेंगे. जो जैसा चल रहा है चलने दो. क्यों अपना खून जलाती हो.’’

‘‘मैं तो तेरे भले के लिए ही कहती हूं पर तुम लोगों को बुरा लगता है तो आगे से नहीं कहूंगी,’’ वैदेही रोंआसे स्वर में बोली थीं.

‘‘मां, क्यों मन छोटा करती हो. हम सब आप का बड़ा सम्मान करते हैं. यथाशक्ति आप की सलाह मानने का प्रयत्न करते हैं पर यदि आप की सलाह हमारा अहित करे तो परेशानी हो जाती है.’’

‘‘लो और सुनो, अब तुम्हें मेरी बातों से परेशानी भी होने लगी. ठीक है, आज से कुछ नहीं कहूंगी,’’ वैदेही ने क्रोध में फोन पटक दिया था और मुंह फुला कर बैठ गई थीं.

‘‘क्या हुआ, मांजी, सब ठीक तो है?’’ उन्हें दुखी देख कर रोमा ने प्रश्न किया.

‘‘क्यों? तुम्हें कैसे लगा कि सब ठीक नहीं है?’’ वैदेही ने प्रश्न के उत्तर में प्रश्न ही पूछ लिया.

‘‘आप का मूड देख कर.’’

‘‘मैं सब समझती हूं. छिप कर मेरी बातें सुनते हो तुम लोग. इसीलिए तो मोबाइल लेना चाहती हूं मैं.’’

‘‘मैं ने आज तक कभी किसी का फोन वार्त्तालाप नहीं सुना. आप को दुखी देख कर पूछ लिया था. आगे से ध्यान रखूंगी,’’ रोमा तीखे स्वर में बोली और अपने काम में व्यस्त हो गई.

वैदेही बेचैनी से तान्या के आने की प्रतीक्षा करती रही कि कब तान्या आए और कब वे उस से बात कर के अपना मन हलका करें पर जब सांझ ढलने लगी और तान्या नहीं आई तो उन का धीरज जवाब देने लगा. मानस सुबह से अपने मोबाइल से इस तरह चिपका था कि उन्हें तान्या से बात करने का अवसर ही नहीं मिल रहा था.

‘‘मुझे अपनी सहेली नीता के यहां जाना है, मांजी. मैं सुबह से तान्या दीदी की प्रतीक्षा में बैठी हूं पर लगता है कि आज वे नहीं आएंगी. आप कहें तो मैं थोड़ी देर के लिए नीता के घर हो आऊं. उस का बेटा बीमार है,’’ रोमा ने आ कर वैदेही से अनुनय की तो वे मना न कर सकीं.

रोमा को घर से निकले 10 मिनट भी नहीं बीते होंगे कि तान्या ने कौलबेल बजाई.

‘‘लो, अब समय मिला है तुम्हें मां से मिलने आने का? सुबह से दरवाजे पर टकटकी लगाए बैठी हूं. आंखें भी पथरा गईं.’’

‘‘इस में टकटकी लगा कर बैठने की क्या बात थी, मां?’’ मानस बोल पड़ा, ‘‘आप मुझ से कहतीं मैं तान्या दीदी से फोन कर के पूछ लेता कि वे कब तक आएंगी.’’

‘‘लो और सुनो, सुबह से पता नहीं किसकिस से बात कर रहा है तेरा भाई. सारे काम फोन कान से चिपकाए हुए कर रहा है. बस, सामने बैठी मां से बात करने का समय नहीं है इस के पास.’’

‘‘क्या कह रही हो मां. मैं तो सदासर्वदा आप की सेवा में मौजूद रहता हूं. फिर राहुल है, रोमा है जितनी इच्छा हो उतनी बात करो,’’ मानस हंसा.

‘‘2 बेटों, 2 बेटियों का भरापूरा परिवार है मेरा पर मेरी सुध लेने वाला कोई नहीं है. यहां आए 2 सप्ताह हो गए मुझे, तान्या को आज आने का समय मिला है.’’

‘‘मेरा बस चले तो दिनरात आप के पास बैठी रहूं. पर आजकल बैंक में काम बहुत बढ़ गया है. मार्च का महीना है न. ऊपर से घर मेहमानों से भरा पड़ा है. 3-4 नौकरों के होने पर भी अपने किए बिना कुछ नहीं होता,’’ तान्या ने सफाई दी थी.

‘‘इसीलिए कहती हूं अपने सासससुर से पीछा छुड़ाओ. सारे संबंधी उन से ही मिलने तो आते हैं.’’

‘‘क्या कह रही हो मां, कहीं मांजी ने सुन लिया तो गजब हो जाएगा. बहुत बुरा मानेंगी.’’

‘‘पता नहीं तुम्हें कैसे शीशे में उतार लिया है उन्होंने. और 2 बेटे भी तो हैं, वहां क्यों नहीं जा कर रहतीं?’’

‘‘जौय और जोषिता को मांजी ने बचपन से पाल कर बड़ा किया है. अब तो स्थिति यह है कि बच्चे उन के बिना रह ही नहीं पाते. दोचार दिन के लिए भी कहीं जाती हैं तो बच्चे बीमार पड़ जाते हैं.’’

‘‘तुम्हें और तुम्हारे बच्चों को कठपुतली बना कर रखा है उन्होंने. जैसा चाहते हैं वैसा नचाते हैं दोनों. सारा वेतन रखवा लेते हैं. दुनिया भर का काम करवाते हैं. यह दिन देखने के लिए ही इतना पढ़ायालिखाया था तुम्हें?’’

‘‘किसी ने जबरदस्ती मेरा वेतन कभी नहीं छीना है मां. उन के हाथ में वेतन रखने से वे लोग भी प्रसन्न हो जाते हैं और मेरे सासससुर भी वह पैसा अपनी जेब में नहीं रख लेते बल्कि उन्हें हमारे पर ही खर्च कर देते हैं. जो बचता है उसे निवेश कर देते हैं. ’’

‘‘पर अपना पैसा उन के हाथ में दे कर उन की दया पर जीवित रहना कहां की समझदारी है?’’

‘‘मां, आप क्यों तान्या दीदी के घर के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करती हैं,’’ इतनी देर से चुप बैठा मानस बोला था.

‘‘अरे, वाह, अपनी बेटी के हितों की रक्षा मैं नहीं करूंगी तो कौन करेगा. पर मेरी बेटी तो समझ कर भी अनजान बनी हुई है.’’

‘‘मां, मैं आप के सुझावों का बहुत आदर करती हूं पर साथ ही घर की सुखशांति का विचार भी करना पड़ता है.’’

‘‘वही तो मैं कह रहा हूं. अपनी समस्याएं क्या कम हैं, जो आप तान्या दीदी की समस्याएं सुलझाने लगीं? और मां, आप ने तो दीदी के आते ही अपने सुझावों की बमबारी शुरू कर दी. न चाय, न पानी…कुछ तो सोचा होता,’’ मानस ने मां को याद दिलाया.

‘‘रोमा अभी तक लौटी नहीं जबकि उसे पता था कि तान्या आने वाली है. फोन करो कि जल्दी से घर आ जाए.’’

‘‘फोन करने की जरूरत नहीं है. वह स्वयं ही आ जाएगी. उस की मां आई हुई हैं, उन से मिलने गई है.’’

‘‘मां आई हुई हैं? मुझ से तो कह कर गई है कि नीता का बेटा बीमार है. उसे देखने जा रही है.’’

‘‘उसे भी देखने गई है. कई दिनों से सोच रही थी पर जा नहीं पा रही थी. नीता के घर के पास रोमा के दूर के रिश्ते के मामाजी रहते हैं. वे बीमार हैं और रोमा की मम्मी उन्हें देखने आई हुई हैं.’’

‘‘ठीक है, सब समझ में आ गया. मां से मिलने जा रही हूं यह भी तो कह कर जा सकती थी, झूठ बोल कर जाने की क्या आवश्यकता थी. रोमा अपना फोन तो ले कर गई है?’’

‘‘हां, ले गई है.’’

‘‘ला, अपना फोन दे तो मैं उस से बात करूंगी.’’

‘‘क्या बात करेंगी आप? वह अपनेआप आ जाएगी,’’ मानस ने तर्क दिया.

‘‘फोन कर दूंगी तो जल्दी आ जाएगी. तान्या आई है तो खाना खा कर ही जाएगी न…’’

‘‘आप चिंता न करें मां, मैं खाना नहीं खाऊंगी. आप को जो खाना है मैं बना देती हूं,’’ तान्या ने उन्हें बीच में ही टोक दिया.

‘‘फोन तो दे मानस, रोमा से बात करनी है,’’ वैदेही जिद पर अड़ी थीं.

‘‘एक शर्त पर मोबाइल दूंगा कि आप रोमा से कुछ नहीं कहेंगी. बेचारी कभीकभार घर से बाहर निकलती है. दिनभर घर के काम में जुटी रहती है.’’

‘‘ठीक है, रोमा को कुछ नहीं कहूंगी, उस की मां से बात करूंगी. कहूंगी आ कर मिल जाएं. बहुत लंबे समय से मिले नहीं हम दोनों.’’

मां को फोन थमा कर मानस और तान्या रसोईघर में जा घुसे थे.

‘‘हैलो रोमा, तुम नीता के बीमार बेटे से मिलने की बात कह कर गई थीं. सौदामिनी बहन के आने की बात तो साफ गोल कर गईं तुम,’’ वैदेही बोलीं.

‘‘नहीं मांजी, ऐसा कुछ नहीं था. मुझे लगा, आप नाराज होंगी,’’ रोमा सकपका गई.

‘‘लो भला, मांबेटी के मिलने से भला मैं क्यों नाराज होने लगी? सौदामिनी बहन को फोन दो जरा. उन से बात किए हुए तो महीनों बीत गए,’’ वैदेहीजी का अप्रत्याशित रूप से मीठा स्वर सुन कर रोमा का धैर्य जवाब देने लगा था. उस ने तुरंत फोन अपनी मां सौदामिनी को थमा दिया था.

‘‘नमस्ते, सौदामिनी बहन. आप तो हमें भूल ही गईं,’’ उन्होंने उलाहना दिया.

‘‘आप को भला कैसे भूल सकती हूं दीदी, पर दुनिया भर के पचड़ों से समय ही नहीं मिलता.’’

‘‘तो यहां तक आ कर क्या हम से मिले बिना चली जाओगी? मेरा तो सब से मिलने को मन तरसता रहता है. इसीलिए बच्चों से कहती हूं एक मोबाइल ला दो, कम से कम सब से बात कर के मन हलका कर लूंगी.’’

रसोईघर में भोजन का प्रबंध करते मानस और तान्या हंस पड़े थे, ‘‘मां फिर मोबाइल पुराण ले कर बैठ गईं, लगता है उन्हें मोबाइल ला कर देना ही पड़ेगा.’’

‘‘मैं ने भी कई बार सोचा पर डरती हूं अपना मोबाइल मिलते ही वे हम भाईबहनों का तो क्या, अपने खानेपीने का होश भी खो बैठेंगी.’’

‘‘मुझे दूसरा ही डर है. फोन पर ऊलजलूल बात कर के कहीं कोई नया बखेड़ा न खड़ा कर दें.’’

‘‘जो भी करें, उन की मर्जी है. पर लगता है कि अपने अकेलेपन से जूझने का इन्होंने नया ढंग ढूंढ़ निकाला है.’’

‘‘चलो, तान्या दीदी, आज ही मां के लिए मोबाइल खरीद लाते हैं. इन का इस तरह फोन के लिए बारबार आग्रह करना अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘चाय तैयार है. चाय पी कर चलते हैं, भोजन लौट कर करेंगे,’’ तान्या ने स्वीकृति दी थी.

‘‘मैं रोमा और जीजाजी दोनों को फोन कर के सूचित कर देता हूं कि हम कुछ समय के लिए बाहर जा रहे हैं.’’

‘‘कहां जा रहे हो तुम दोनों?’’ वैदेही ने अपना दूरभाष वार्त्तालाप समाप्त करते हुए पूछा.

‘‘हम दोनों नहीं, हम तीनों. चाय पियो और तैयार हो जाओ, आवश्यक कार्य है,’’ मानस ने उन का कौतूहल शांत करने का प्रयत्न किया.

वे उन्हें मोबाइल की दुकान पर ले गए तो उन की प्रसन्नता की सीमा न रही. मानो कोई मुंह में लड्डू ठूंस दे और उस का स्वाद पूछे.

वैदेहीजी के चेहरे पर ऐसे भाव थे जैसे लंबे समय से अपने मनपसंद खिलौने के लिए मचलते बच्चे को उस का मनपसंद खिलौना मिल गया हो.

उन्होंने अपनी पसंद का अच्छा सा मोबाइल खरीदा जिस से अच्छे छायाचित्र खींचे जा सकते थे. घर के पते आदि का सुबूत देने के बाद उन के फोन का नंबर मिला तो उन का चेहरा खिल उठा.

‘‘आप को अपना फोन प्रयोग में लाने के लिए 24 घंटे तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी,’’ सेल्समैन ने बताया तो वे बिफर उठीं.

‘‘यह कौन सी दुकान पर ले आए हो तुम लोग मुझे? इन्हें तो फोन चालू करने में ही 24 घंटे लगते हैं.’’

‘‘कोई बात नहीं है, मां जहां आप ने इतने दिनों तक प्रतीक्षा की है एक दिन और सही,’’ तान्या ने समझाना चाहा.

‘‘तुम नहीं समझोगी. मेरे लिए तो एक क्षण भी एक युग की भांति हो गया है,’’ उन्होंने उत्तर दिया.

घर पहुंचते ही फोन को डब्बे से निकाल कर उस के ऊपर मोमबत्ती जलाई गई. फिर बुला कर सब में मिठाई बांटी, मानो मोबाइल का जन्म उन्हीं के हाथों हुआ था और उस के चालू होने की प्रतीक्षा की जाने लगी.

यह कार्यक्रम चल ही रहा था कि रोमा, सौदामिनी और अपने मामा आलोक बाबू के साथ आ पहुंची.

वैदेही का नया फोन आना ही सब से बड़ा समाचार था. उन्होंने डब्बे से निकाल कर सब को अपना नया मोबाइल फोन दिखाया.

‘‘कितना सुंदर फोन है,’’ राहुल तो देखते ही पुलक उठा.

‘‘दादी मां, मुझे भी दिया करोगी न अपना मोबाइल?’’

‘‘कभीकभी, वह भी मेरी अनुमति ले कर. छोटे बच्चों पर नजर रखनी पड़ती है न सौदामिनी बहन.’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं,’’ सौदामिनी ने सिर हिला दिया था.

‘‘सच कहूं, तो आज कलेजा ठंडा हो गया. यों तो राहुल को छोड़ कर सब के पास अपनेअपने मोबाइल हैं. पर अपनी चीज अपनी ही होती है. आयु हो गई है तो क्या हुआ, मैं ने तो साफ कह दिया कि मुझे तो अपना मोबाइल फोन चाहिए ही. मैं क्या किसी पर आश्रित हूं? मुझे पैंशन मिलती है,’’ वे देर तक सौदामिनी से फोन के बारे में बातें करती रही थीं.

कुछ देर बाद सौदामिनी और आलोक बाबू ने जाने की अनुमति मांगी थी.

‘‘आप ने फोन किया तो लगा कि यहां तक आ कर आप से मिले बिना जाना ठीक नहीं होगा,’’ सौदामिनी बोलीं.

‘‘यही तो लाभ है मोबाइल फोन का. अपनों को अपनों से जोड़े रखता है,’’ वैदेही ने उत्तर दिया.

‘‘चिंता मत करना. अब मेरे पास अपना फोन है. मैं हालचाल लेती रहूंगी.’’

‘‘मैं भी आप को फोन करती रहूंगी. आप का नंबर ले लिया है मैं ने,’’ सौदामिनी ने आश्वासन दिया था.

हाथ में अपना मोबाइल फोन आते ही वैदेही का तो मानो कायाकल्प ही हो गया. उन का मोबाइल अब केवल वार्त्तालाप का साधन नहीं है. उन के परिचितों, संबंधियों और दोस्तों के जवान बेटेबेटियों का सारा विवरण उन के मोबाइल में कैद है. वे चलताफिरता मैरिज ब्यूरो बन गई हैं. पहचान का दायरा इतना विस्तृत हो गया है कि किसी का भी कच्चा चिट्ठा निकलवाना हो तो लोग उन की ही शरण में आते हैं.

‘‘इस बुढ़ापे में भी अपने पांवों पर खड़ी हूं मैं. साथ में पैंशन भी मिलती है,’’ वे शान से कहती हैं. और एक राज की बात. उन के पास अब एक नहीं 5 मोबाइल फोन हैं जो पहले दूरभाष पर उन के लंबे वार्त्तालाप का उपहास करते थे अब उसी गुण के कारण उन का सम्मान करने लगे हैं.

राशनकार्ड की महिमा

रसोई गैस का सिलेंडर लेने के लिए राशनकार्ड जरूरी हो गया था. चूंकि जिंदा रहने के लिए भोजन अतिआवश्यक है, सो राजगोपालजी राशनकार्ड दफ्तर के चक्कर लगाने लगे. दफ्तर वालों ने आवेदन की औपचारिकता में उन्हें बुरी तरह उलझा दिया था. वे बिचौलियों के इर्दगिर्द घूमे, फिर भी काम न बना तो उन्होंने राशनकार्ड को ही अपने जीने का मकसद बना लिया और इसी धुन में लगे रहे.

‘‘साहब, सिलेंडर खाली हो गया है,’’ रसोईघर से रामकिशन के शब्द किसी फोन की घंटी की तरह मुझे चौंका गए.

हम ने एजेंसी को फोन खड़खड़ाया, ‘‘गैस सिलेंडर बुक करवाना है.’’

‘‘नंबर?’’ किसी मैडम की आवाज थी.

‘‘9242,’’ मैं ने भी ऐसे बोला जैसे फोन में नंबर पहले से ही फीड हो.

‘‘राजगोपालजी?’’

‘‘जी हां, देवीजी.’’

‘‘आप को अपना राशनकार्ड दिखाना होगा,’’ मधुर आवाज में मैडम बोलीं.

‘‘क…क्या?’’ हम हकलाए, ‘‘राशनकार्ड?’’

‘‘जी हां.’’

‘‘किस खुशी में?’’

‘‘बस, हमारी खुशी है. इसी खुशी में.’’

हम घबरा गए. यह तो नहले पे दहला मार रही है, ‘‘लेकिन वह तो मैं ने कभी बनवाया ही नहीं?’’

अब की बारी उन की थी, ‘‘क्या कहा?’’

‘‘हां. कभी बनवाया ही नहीं तो लाने का सवाल ही नहीं उठता.’’

‘‘कमाल है,’’ मैडमजी बोलीं, ‘‘अच्छा, ऐसा कीजिए, अपनी सिलेंडर बुक ले कर हमारी एजेंसी के दफ्तर में आ जाइए. पता जानते हैं न कि एजेंसी कहां है? बहुचरजी के पास.’’

‘‘जी हां, उस जगह को आबाद कर चुका हूं.’’

हम जब सिलेंडर बुक ले कर वहां पहुंचे तो मैडमजी ने हमेें घूरा और बोलीं, ‘‘आप ही राजगोपालजी हैं.’’

हम ने हां में गरदन हिलाई तो एक मोटा रजिस्टर हमारे सामने कर दिया गया.

‘‘इस में आप अपनी सिलेंडर बुक का नंबर लिखिए फिर यह भी लिखिए कि अगली बार राशनकार्ड दिखाऊंगा और यहां हस्ताक्षर कर दीजिए. इस बार हम आप का सिलेंडर बुक कर देते हैं लेकिन अगली बार राशनकार्ड दिखाना पड़ेगा.’’

‘‘लेकिन क्यों? यह सिलेंडर बुक देखिए. 1988 से मैं आप से सिलेंडर लेता आ रहा हूं तो अब की यह राशनकार्ड की आफत कैसे आ गई?’’

‘‘सर, ऊपर से आदेश आया है कि बिना राशनकार्ड देखे किसी को सिलेंडर न दिया जाए.’’

‘‘लेकिन मेरी समझ से तो राशन- कार्ड केवल गरीबों की मदद के लिए होता है ताकि उन्हें सरकारी रियायत से सस्ते खाद्य पदार्थ जैसे चावल, गेहूं, तेल, चीनी आदि मिल जाएं. मैं इस श्रेणी में नहीं आता. यहां बड़ौदा में कभी राशनकार्ड का उल्लेख नहीं हुआ. पासपोर्ट है, बिजली, टेलीफोन, हाउस टैक्स के बिल हैं, पैनकार्ड व ड्राइविंग लाइसेंस हैं. इन सब से ही हमारा काम चल जाता है.’’

‘‘अरे साहब, कई लोगों ने कईकई जाली कनेक्शन ले रखे हैं इसलिए सरकार को यह कदम उठाना पड़ा. कोई गैरकानूनी ढंग से तिपहिए में गैस लगा रहा है तो कोई मोटर में. कोई कईकई सिलेंडरों की ब्लैक कर रहा है.’’

‘‘अच्छा? तो हम बेचारे सीधेसादे पुरुष लोग पकड़ गए? कमाल है.’’

वे हंस पड़ीं.

‘‘यह तो बताइए कि यह कम्बख्त कार्ड बनता कहां है?’’

‘‘कुबेर भवन में.’’

‘‘ठीक,’’ कह कर हम ने स्कूटर दौड़ाया. बहू कुबेर भवन में ही 8वीं मंजिल पर काम करती है, यह सोच कर मन में तसल्ली मिली.

वैसे हमें अजनबियों से पूछताछ करने में कोई झिझक नहीं होती. अधिक से अधिक ‘न’ या ‘नहीं मालूम’ यही तो कोई कहेगा. झांपड़ तो नहीं मारेगा. और इसी बहाने कई बार नए मित्र भी बन जाते हैं.

जानकारी के बाद हम राशन कार्ड आफिस पहुंच गए. क्लर्क से आवेदनपत्र (फार्म) मांगा, मिल गया. फिर पूछा, ‘‘भैया, क्याक्या भरना है और क्याक्या प्रमाणपत्र इस के साथ देने हैं?’’

‘‘बिजली का बिल, पुराना राशन- कार्ड और उस में क्याक्या बदलना है, पता या प्राणियों की संख्या,’’ भैया एक सांस में बोल गया.

हम घबरा गए, ‘‘लेकिन मैं ने तो कभी राशनकार्ड बनवाया ही नहीं.’’

‘‘क्यों, कहां से आए हो?’’

‘‘बरेली, यू.पी. से.’’

‘‘तो वहां का राशनकार्ड लाओ,’’ भैया ने फरमाया.

‘‘अरे, वहां भी कभी बनवाया नहीं और वह तो बहुत पुरानी बात हो गई. बड़ौदा में 22 साल से रह रहा हूं. तो अब मैं बड़ौदा का ही रहने वाला हो गया.’’

उस ने हमें ऐसे घूरा जैसे हम कोई अजायबघर के जीव हों. फिर बोला, ‘‘तो फिर साहब से मिलो,’’ और दाईं तरफ इशारा किया.

हमारी भृकुटि तन गईं, ‘‘वहां तो कोई है ही नहीं?’’

‘‘साहब हर सोमवार को आते हैं और 11 से 2 बजे तक, तभी मिलो. आज गुरुवार है,’’ और हमें दरवाजा नापने का इशारा किया.

सोमवार को सवा 11 बजे पहुंचे तो देखा छोटे से दरवाजे के सामने करीब 60 लोग लाइन लगाए खड़े हैं. हम भी उन के पीछे खड़े हो गए. कुछ देर गिनती करते रहे और पाया कि एक प्राणी हर 4 मिनट में अंदर जाता है यानी हमारा नंबर 4 घंटे बाद आएगा. दिल टूट गया, कुछ तिकड़म लगाना पड़ेगा.

वहां से बाहर आए और मित्र सागरभाई को अपनी दुखभरी कहानी सुनाई. वे फोन पर बोले, ‘‘काटजू साहब, चिंता की कोई बात नहीं, सब पैसे बनाने के धंधे हैं. आप अपने कागज मुझे दे दीजिए. मैं अपने एक एजेंट मित्र से काम करवा दूंगा. 3 साल पहले मैं ने अपना भी राशनकार्ड ऐसे ही बनवाया था.’’

हम बड़े खुश हुए कि चलो, बला टली. मन ही मन कहा कि सागरभाई, दोस्त हो तो आप जैसा. जा कर उन्हें सब कागजों की एकएक प्रतिलिपि दे दी.

एक बात और, ‘एक हथियार काम न करे तो दूसरा तो काम करे,’ यह सोच कर अपने एक और मित्र गोबिंदभाई से भी संपर्क किया. उन्होंने तो अपने एक पुराने मामलतदार मित्र से मुलाकात भी करवा दी.

पटेल साहब बोले, ‘‘आप को कब तक राशनकार्र्ड चाहिए?’’

‘‘यही 8-10 दिन में.’’

वे बेफिक्री से बोले, ‘‘ठीक है, अपने सब कागजात दे दीजिएगा.’’

वापस लौटते समय गोबिंदभाई ने समझाया कि पटेल साहब को कुछ दक्षिणा भी देनी पड़ेगी और दक्षिणा समय पर निर्भर रहेगी, कम समय माने अधिक दक्षिणा. हम समझ गए, सिर हिला दिया.

2 दिन बाद हम ने फोन किया, ‘‘सागरभाई, मामला तय हो गया?’’

फोन पर रोनी आवाज सुनाई दी, ‘‘नहीं साहब, उस ने कहा है कि अब यह काम बहुत मुश्किल हो गया है. वह नहीं बनवा सकता. राशन विभाग के भाईलोग बहुत सख्त हो गए हैं, उस को घास भी नहीं डालते.’’

मन ही मन हम ने सागरभाई और उन के एजेंट को गाली देते हुए फोन रख दिया. यह दांव तो खाली गया.

अब हम पहुंचे पटेल साहब के यहां. उन की बहू घंटी सुनने पर बाहर निकली.

‘‘साहब हैं?’’ हम ने पूछा.

‘‘नहीं.’’

‘‘अरे, कहां गए?’’

‘‘भारगाम.’’

‘‘कब आएंगे?’’

‘‘5 दिन बाद.’’

हम ने फिर माथा पकड़ लिया. लगता है यह सोमवार भी गया. दर्देदिल लिए हुए गोबिंदभाई को मामला-ए-राशन कार्ड की रिपोर्ट दी. उन्होंने दिलासा दिया, ‘‘कोई बात नहीं काटजू साहब, 5 दिन बाद पटेल साहब आप का काम जरूर करवा देंगे.’’

हम ने घर की राह ली.

मंगलवार को फिर पटेल साहब के दर्शन हेतु निकल पड़े. अब की किस्मत से साहब घर पर ही थे.

‘‘साहब, मेरे राशनकार्ड का काम?’’

पटेल साहब ने दुखभरी मुद्रा बनाई, ‘‘काटजू साहब, 2-3 महीने लग जाएंगे. डिपार्टमेंट में कुछ अंदरूनी जांच चल रही है. मेरी समझ से आप खुद ही कार्ड के लिए जाएं तो ठीक होगा.’’

हम ने मन ही मन अपनेआप को कोसा और पटेल साहब को भी. बड़ा तीसमार खां बना फिरता था. कहता था, ‘कितने दिनों में कार्ड चाहिए?’ मेरे 2 सोमवारों का खून कर दिया. सोचा भीम और अर्जुन तो फेल हो गए, अब शेर की मांद में खुद ही जाना पड़ेगा और कोई चारा बचा ही नहीं था. चलो, इस को भी आजमा लिया जाए.

खैर, सोमवार को पौने 11 बजे राशनकार्ड के दफ्तर पहुंचे तो देखा लंबी लाइन लगी हुई है, जबकि दरवाजा बंद है, हम भी लाइन में लग गए. बुढ़ापे में समय की कोई तकलीफ नहीं और करना भी क्या है? हां, स्टैमिना अवश्य चाहिए, कहीं खड़ेखड़े दिल धड़कना न बंद कर दे.

गिनती की तो सामने 55 जवान व बूढ़े खड़े थे. अगर हरेक पर 3-3 मिनट लगता है तो ढाई या 3 घंटे लगेंगे. खैर, देखते हैं क्या होता है?

झोले से यह सोच कर किताब निकाली कि चलो, 2-3 अध्याय ही पढ़ लिए जाएं. वैसे भी हमारी आदत है कि जहां किसी काम के लिए बैठना या खड़े रहना पड़ेगा वहां हम कोई किताब जरूर ले जाते हैं, टाइम पास के लिए. अभी 3 पन्ने पढ़े ही थे कि दफ्तर खुला. आधे घंटे में 5 प्राणी अंदर घुसे. हम गम में डूब गए, अब क्या होगा? सामने वाले पुरुष ज्ञानी व दयालु निकले. पूछा तो उन्होंने सवाल किया, ‘‘आप को क्या करवाना है?’’

‘‘नया राशनकार्ड बनवाना है.’’

‘‘सौगंधपत्र बनवा लिया है?’’

‘‘यह क्या बला है.’’

वे हंसे (हमारे दुख पर), ‘‘अरे, ऐफिडेविट. इस के बिना कुछ नहीं होगा. आप इसे बनवा लीजिए.’’

‘‘बगल वाली इमारत में इस का दफ्तर है. वहां आवेदनपत्र भी मिल जाएगा और स्टैंपपेपर भी.’’

हम उस ओर भागे.

रास्ते में एक और सज्जन से पूछा, ‘‘सौगंधपत्र यहां कहां पर बनता है?’’

वे भी ज्ञानी व मार्गदर्शक निकले. बोले, ‘‘यहीं बनता था, किंतु गांधी- जयंती के बाद से अब नर्मदा भवन में बनता है.’’

वडोदरा शहर की खासीयत है कि सभी सरकारी आफिस, दोचार किलोमीटर के भीतर ही मिल जाते हैं. उन्हें धन्यवाद दे कर हम नर्मदा भवन भागे.

नर्मदा भवन में 3 देवियों ने हमारी बहुत सहायता की. एक सज्जन ने फार्म तो दे दिया किंतु कुबेर भवन जाने की सलाह दी. हम अब तक काफी अनुभव प्राप्त कर चुके थे. कुछ शंका हुई और पास खड़े चौकीदार की तरफ देखा. वह भी अनुभवप्राप्त प्राणी था उस ने अपने पास बुलाया फिर अंदर इशारा किया, ‘‘उस महिला से मिलो.’’

उस युवती ने फार्म भरवाया फिर बिजली बिल, पासपोर्ट की कापी इत्यादि नत्थी की और अंदर दाईं तरफ की मेज पर जाने को कहा.

वहां एक मुहर लगाई गई, रजिस्टर में कुछ लिखा गया और 11 नंबर का सिक्का दिया और कहा, ‘‘उस 11 नंबर के काउंटर पर जाइए, वहां आप का सब काम हो जाएगा.’’

11 नंबर काउंटर की कुमारी मुसकराई तो बड़ी भोली लगी. वह थी तो दुबलीपतली पर बहुत खूबसूरत थी. बोली, ‘‘कहिए?’’

‘‘पहले अपना नाम बताइए.’’

वह खिले चेहरे से बोली, ‘‘निकी.’’

‘‘आगे?’’

‘‘पाटिल.’’

‘‘कुछ खातीपीती नहीं हो क्या? देखो, हाथ की हड्डी भी उभरी हुई दिख रही है और उम्र तो 17 की होगी.’’

मुसकरा कर बोली, ‘‘अंकल, खाती बहुत हूं किंतु वजन नहीं बढ़ता, और 22 वर्ष की हूं.’’

‘‘पढ़ाई कितनी की, बी.कौम या 12वीं?’’

‘‘नहीं, कंप्यूटर साइंस में डिप्लोमा किया है.’’

‘‘और शादी?’’

उस ने सिर हिला दिया.

हम ने सोचा कि इसे अपने बेटे के लिए गांठ लें तो बहुत भाग्यवान समझेंगे.

अपने काम के बीच में बोल पड़ी, ‘‘क्या सोच रहे हैं, अंकल?’’

लगता है, हमारे मन के विचारों को उस ने पढ़ लिया था. सो बोला, ‘‘सोच रहा था कि तुम्हारी व मेरे बेटे की जोड़ी कैसी रहेगी? वह भी अविवाहित है. वैसे तुम मेरा काम पूरा करो नहीं तो बातों ही बातों में पूरा दिन बीत जाएगा.’’

उस ने कनखियों से हमें घूरा, आंखों से आश्चर्य जाहिर किया. सोचा होगा कि कैसे अंकल से पाला पड़ा है, काम के साथ रिश्ता भी ले आए. फिर कहा, ‘‘20 रुपए दीजिए, अंकल. यहां हस्ताक्षर कीजिए और सीधे खड़े रहिए. मुझे आप की फोटो खींचनी है, सौगंधपत्र पर जाएगी.’’

फोटो खींचने के बाद निकी ने भरा फार्म हमें थमाते हुए उप मामलतदार की तख्ती की तरफ इशारा किया कि वहां यह दे दीजिए. वे रजिस्टर में इसे दर्ज व हस्ताक्षर कर आप को दे देंगी.

उस को धन्यवाद दे हम आगे बढ़े.

कुछ ही देर में नर्मदा भवन का सारा काम समाप्त हुआ. सौगंधपत्र हमारे हाथ में था.

घड़ी में देखा तो साढ़े 12 बज चुके थे. सोचा, शायद आज ही काम बन जाए और हम कुबेर भवन जा पहुंचे.

देखा, भीड़ तो कम थी. करीब 20 प्राणी. हम भी उन्हीं में लग गए, 21वें. सामने एक जवान था. परिचय किया, ‘‘आप का नाम?’’

‘‘हितेनभाई.’’

हम ने कहा, ‘‘यार, जरा आगे जा कर पता लगा लो कि भीड़ कितनी रफ्तार से चल रही है और नए राशनकार्ड के लिए कुछ और झमेला यानी कुछ और कागजात तो नहीं चाहिए. मैं कतार में तुम्हारी जगह सुरक्षित रखता हूं.’’

हितेन मान गया और आगे दरियाफ्त कर के बदहवास हालत में वापस लौटा. बोला, ‘‘नया राशनकार्ड यहां नहीं भुतड़ी कचहरी में बनता है. यहां केवल पुराने कार्डों के नाम या बदले पते ठीक किए जाते हैं.’’

‘‘अच्छा, यह भूत की कचहरी है कहां?’’

‘‘मुझे नहीं मालूम.’’

हमारा यह वार्त्तालाप एक और सज्जन सुन रहे थे. बीच में आ गए, ‘‘मैं जानता हूं और मुझे भी वहीं जाना है. जुबली बाग यहां से करीब डेढ़ किलोमीटर दूर है.’’

हितेनभाई के पास मोटरसाइकिल थी, हमारे पास स्कूटर तो हम ने उस सज्जन से कहा, ‘‘चलिए, आप को ले चलते हैं. रास्ता बता दीजिएगा.’’

भुतड़ी कचहरी में केवल 4 लोग कतार में थे. हमारा नंबर आने पर अधिकारी बदतमीजी से बोला, ‘‘यह क्या है? आवेदनपत्र कहां है, ऐफिडेविट व मतदाता पहचानपत्र कहां है?’’

‘‘यह रहा आवेदनपत्र और यह ऐफिडेविट है. मतदाता पहचानपत्र खो गया.’’

‘‘उस के बिना कुछ नहीं होगा. वह लाओ. कहां से आए हो?’’

‘‘वैसे तो बरेली, यू.पी. का रहने वाला हूं लेकिन वडोदरा में 22 साल से रह रहा हूं. अभी तक राशनकार्ड की कभी कोई जरूरत नहीं पड़ी. इसलिए बनवाया नहीं था.’’

‘‘तो अब कौन सी जरूरत आन पड़ी है?’’

‘‘गैस सिलेंडर वाला राशनकार्ड दिखाने को कह रहा है.’’

उस ने हमारे सारे कागज वापस करते हुए कहा, ‘‘जाओ, मेरा समय बरबाद न करो. बाहर दाईं तरफ दरवाजे पर एक आदमी बैठा है. वह आप को सब समझा देगा कि क्याक्या लाना है.’’

हम निराश हो बाहर निकले. देखा हितेन भी मुंह लटकाए खड़ा था. उस को भी अधिकारी ने झिड़क दिया था. बाहर के आदमी से पूछा तो वह ज्ञानी निकला. हमारे कागजात देखे और सुझाव दिया.

‘‘यहां कुछ नहीं होगा. आप कुबेर भवन के नीचे कमरा नं. 23 में जाइए. वहीं सब काम होगा.’’

‘‘लेकिन वहां से तो हम आए हैं. और यहां उस अंदर के बाबू ने यह सब और मांग लिया. कहां से लाएंगे?’’

‘‘आप उन की परवा न कीजिए. जैसा मैं कहता हूं वैसा कीजिए.’’

वहां से हट कर हम उबल पड़े. ‘‘सच, हम भारतवासियों को एकदूसरे को तड़पाने व तड़पते देख खूब आनंद आता है. कभी कहते हैं यह लाओ, कभी कहते हैं वह लाओ.’’

हमारे समाज में पुरुषों को रोना वर्जित है, स्त्री होते तो दहाड़ मारमार कर रो लेते. गम में डूबे हुए जब कुबेर भवन पहुंचे तो देखा कमरा नंबर 23 बंद हो चुका था.

8वीं मंजिल पर बहू से जा कर मिले तो उस ने कहा, ‘‘पापा, अपने कागज मुझे दीजिए. मैं अपनी एक मित्र से पूछताछ करवाऊंगी. वह नीचे की पहली मंजिल पर काम करती है और ऐसे मामलों को निबटाती भी है.’’

हम बोले, ‘‘ठीक है, बेटी. कोशिश करो. 400-500 तक खर्च करने को मैं तैयार हूं.’’

2 दिन बाद बहू का फोन आया, ‘‘मैं अपनी दोस्त के साथ राशन अधिकारी से मिली थी. बड़ा बदतमीज आदमी है. पहले तो एकदम मना कर दिया. फिर जब मैं ने कहा कि मैं भी राज्य सरकार में काम करती हूं तब माना. उस का रेट 500 रुपए है. आप अगले सोमवार को आइएगा.’’

हम ने बहू को धन्यवाद दिया. विक्रम और बेताल की कहानी में विक्रम की तरह सोमवार को हम फिर दफ्तर पहुंचे. बहू को फोन मिलाया तो वह नीचे उतर कर आई और लाइन में हमें खड़े देख संतुष्ट हुई. बोली, ‘‘मेरी दोस्त की किसी करीबी रिश्तेदार की 2 दिन पहले मौत हो गई है. वह कई दिन नहीं आ पाएगी. अच्छा किया आप लाइन में लग गए.’’

कतार में करीब 25 लोग लगे थे. 40 मिनट में अपना नंबर आ गया. साहब के पास कागज का पुलिंदा रख चुपचाप खड़े हो गए. सब पन्नों पर उन्होंने एक निगाह डाली फिर कुछ कहे बिना हस्ताक्षर कर हमें बाहर की तरफ इशारा कर दिया.

बाहर गए. पावती पाने वालों की कतार लगी थी, यानी कागज व रुपए जमा कर रसीद लेना. इस कतार मेें हम घंटे भर तक धीरेधीरे सरकते रहे फिर आफिस के अंदर दाखिल हुए. 20 रुपए दिए, रसीद मिली और आदेश मिला कि 5 नवंबर को शाम 4 से 6 बजे के बीच कार्ड लेने आ जाना.

रसीद को पर्स में संभाल कर रखा (खरा सोना जो हो गया था) ऊपर भागे बहू को धन्यवाद देने. देखें, अब 5 नवंबर को क्याक्या गुल खिलते हैं.

5 नवंबर को राशनकार्ड मिल गया, आप को आश्चर्य हुआ न? हमें भी हो रहा है, आज तक.

 राज गोपाल काटजू  

मुलाकात का एक घंटा

. पेश है स्वार्थियों की खबर लेता संजय अय्या का व्यंग्य.

एक ही साथ वे दोनों मेरे कमरे में दाखिल हुए. अस्पताल के अपने कमरे में बिस्तर पर लेटा हुआ मैं उस घड़ी को मन ही मन कोस रहा था, जब मेरी मोटर बाइक के सामने अचानक गाय के आ जाने से यह दुर्घटना घटी. अचानक ब्रेक लगाने की कोशिश करते हुए मेरी बाइक फिसल गई और बाएं पैर की हड्डी टूटने के कारण मुझे यहां अस्पताल में भरती होना पड़ा.

‘‘कहिए, अब कैसे हैं?’’ उन में से एक ने मुझ से रुटीन प्रश्न किया.

‘‘अस्पताल में बिस्तर पर लेटा व्यक्ति भला कैसा हो सकता है? समय काटना है तो यहां पड़ा हूं. मैं तो बस यहां से निकलने की प्रतीक्षा कर रहा हूं,’’ मैं ने दर्दभरी हंसी से उन का स्वागत करते हुए कहा.

‘‘आप को भी थोड़ी सावधानी रखनी चाहिए थी. अब देखिए, हो गई न परेशानी. नगरनिगम तो अपनी जिम्मेदारी निभाता नहीं है, आवारा जानवरों को यों ही सड़कों पर दुर्घटना करने के लिए खुला छोड़ देता है. लेकिन हम तो थोड़ी सी सावधानी रख कर खुद को इन मुसीबतों से बचा सकते हैं,’’ दूसरे ने अपनी जिम्मेदारी निभाई.

‘‘अब किसे दोष दें? फिर अनहोनी को भला टाल भी कौन सकता है,’’ पहले ने तुरंत जड़ दिया.

लेकिन मेरी बात सुनने की उन दोनों में से किसी के पास भी फुर्सत नहीं थी. अब तक शायद वे अपनी जिम्मेदारी पूरी कर चुके थे और अब शायद उन के पास मेरे लिए वक्त नहीं था. वे आपस में बतियाने लगे थे.

‘‘और सुनाइए गुप्ताजी, बहुत दिनों में आप से मुलाकात हो रही है. यार, कहां गायब रहते हो? बिजनेस में से थोड़ा समय हम लोगों के लिए भी निकाल लिया करो. पर्सनली नहीं मिल सकते तो कम से कम फोन से तो बात कर ही सकते हो,’’ पहले ने दूसरे से कहा.

‘‘वर्माजी, फोन तो आप भी कर सकते हैं पर जहां तक मुझे याद है, पिछली बार शायद मैं ने ही आप को फोन किया था,’’ पहले की इस बात पर दूसरा भला क्यों चुप रहता.

‘‘हांहां, याद आया, आप को शायद इनकम टैक्स डिपार्टमेंट में कुछ काम था. कह तो दिया था मैं ने सिंह को देख लेने के लिए. फिर क्या आप का काम हो गया था?’’ पहले ने अपनी याददाश्त पर जोर देते हुए कहा.

‘‘हां, वह काम तो खैर हो गया था. उस के बाद यही बात बताने के लिए मैं ने आप को फोन भी किया था, पर आप शायद उस वक्त बाथरूम में थे,’’ गुप्ता ने सफाई दी.

‘‘लैंडलाइन पर किया होगा. बाद में वाइफ शायद बताना भूल गई होंगी. वही तो मैं सोच रहा था कि उस के बाद से आप का कोई फोन ही नहीं आया. पता नहीं आप के काम का क्या हुआ? अब यदि आज यहां नहीं मिलते तो मैं आप को फोन लगाने ही वाला था,’’ पहले ने दरियादिली दिखाते हुए कहा.

‘‘और सुनाइए, घर में सब कैसे हैं? भाभीजी, बच्चे? कभी समय निकाल कर आइए न हमारे यहां. वाइफ भी कह रही थीं कि बहुत दिन हुए भाभीजी से मुलाकात नहीं हुई,’’ अब की बार दूसरे ने पहले को आमंत्रित कर के अपना कर्ज उतारा, वह शायद उस से अपनी घनिष्ठता बढ़ाने को उत्सुक था.

‘‘सब मजे में हैं. सब अपनीअपनी जिंदगी जी रहे हैं. बेटा इंजीनियरिंग के लिए इंदौर चला गया. बिटिया को अपनी पढ़ाई से ही फुर्सत नहीं है. अब बच गए हम दोनों. तो सच बताऊं गुप्ताजी, आजकल काम इतना बढ़ गया है कि समझ ही नहीं आता कि किस तरह समय निकालें. फिर भी हम लोग शीघ्र ही आप के घर आएंगे. इसी बहाने फैमिली गैदरिंग भी हो जाएगी,’’ पहले ने दूसरे के घर आने पर स्वीकृति दे कर मानो उस पर अपना एहसान जताया.

‘‘जरूर, जरूर, हम इंतजार करेंगे आप के आने का, मेरे परिवार को भी अच्छा लगेगा वरना तो अब ऐसा लगने लगा है कि लाइफ में काम के अलावा कुछ बाकी ही नहीं बचा है,’’ दूसरे ने पहले के कथन का समर्थन किया.

मैं चुपचाप उन की बातें सुन रहा था.

‘‘और सुनाइए, तिवारी मिलता है क्या? सुना है इन दिनों उस ने भी बहुत तरक्की कर  ली है,’’ पहले ने दूसरे से जानकारी लेनी चाही.

‘‘सुना तो मैं ने भी है लेकिन बहुत दिन हुए, कोई मुलाकात नहीं हुई. फोन पर अवश्य बातें होती हैं. हां, अभी पिछले दिनों स्टेशन पर जोशी मिला था. मैं अपनी यू.एस. वाली कजिन को छोड़ने के लिए वहां गया हुआ था. वह भी उसी ट्रेन से इंदौर जा रहा था. किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में मैनेजर बता रहा था. इन दिनों उस ने अपने वजन को कुछ ज्यादा ही बढ़ा लिया है,’’ दूसरे ने भी अपनी तरफ से बातचीत का सूत्र आगे बढ़ाया.

‘‘आजकल तो मल्टीनेशनल्स का ही जमाना है,’’ पहले ने अपनी ओर से जोड़ते हुए कहा.

‘‘पैकेज भी तो अच्छा दे रही हैं ये बहुराष्ट्रीय कंपनियां,’’ दूसरे ने अपनी राय व्यक्त की.

‘‘बहुराष्ट्रीय कंपनियां पैसे तो देती हैं लेकिन काम भी खूब डट कर लेती हैं. आदमी चकरघिन्नी बन कर रह जाता है. उन में काम करने वाला आदमी मशीन बन कर रह जाता है. उस की अपनी तो जैसे कोई लाइफ ही नहीं रह जाती. एकएक सेकंड कंपनी के नाम समर्पित हो जाता है. सारे समय, चाहे वह परिवार के साथ आउटिंग पर हो या किसी सोशल फंक्शन में, कंपनी और टार्गेट उस के दिमाग में घूमते रहते हैं.’’

जाने कितनी देर तक वे कितनी और कितने लोगों की बातें करते रहे. अभी वे जाने और कितनी देर बातें करते तभी अचानक मुझे उन में से एक की आवाज सुनाई दी.

‘‘अरे, साढ़े 4 हो गए.’’

‘‘इस का मतलब हमें यहां आए 1 घंटे से अधिक का समय हो रहा है,’’ यह दूसरे की आवाज थी.

‘‘अब हमें चलना चाहिए,’’ पहले ने निर्णयात्मक स्वर में कहा.

‘‘आप ठीक कह रहे हैं, घर में वाइफ इंतजार कर रही होंगी,’’ दूसरे ने सहमति जताते हुए कहा.

आम सहमति होने के बाद दोनों एक साथ उठे, मुझ से विदा मांगी और दरवाजे की ओर बढ़ गए. मैं ने भी राहत की सांस ली.

अब मेरे कमरे में पूरी तरह सन्नाटा छाया हुआ था. मुझे ऐसा लगा जैसे अब कमरे में उस पोस्टर की कतई आवश्यकता नहीं है जिस के नीचे लिखा था, ‘‘कृपया शांति बनाए रखें.’’

एक और बात, वे एक घंटे बैठे, लेकिन मुझे कतई नहीं लगा कि वे मेरा हालचाल पूछने आए हों. लेकिन दूसरों के साथ दर्द बांटने में जरूर माहिर थे. जातेजाते दर्द बढ़ाते गए. उन की फालतू की बातें सोचसोच कर मैं अब उन के हिस्से का दर्द भी झेल रहा था.

फ्लौपी

कलकत्ता के लिए प्रस्थान करने में केवल 2 दिन शेष रह गए थे. जाती बार सुदर्शन हिदायत दे गए थे कि सांझ तक अपना पूरा काम निबटा लूं. सारे फर्नीचर को ठिकाने से व्यवस्थित कर दूं. बारबार के तबादलों ने दुखी कर रखा था. कितने परिश्रम और चाव से एक अरसे बाद घर बन कर पूरा हुआ था. अब सब छोड़छाड़ कर कलकत्ता चलो. अचानक घंटी ने ध्यान अपनी ओर खींच लिया. भाग कर किवाड़ खोला तो बबल को सामने खड़ा मुसकराता पाया. उस के हाथ में खूबसूरत सा काला और सफेद पिल्ला था.

‘‘कहां से लाए? बड़ा प्यारा है,’’ मैं ने उस के नन्हे मुख को हाथ में ले कर पुचकारा.

‘‘मां, यह बी ब्लाक वाली चाचीजी का है. पूरे साढ़े 700 रुपए का है,’’ उस ने उत्साह से भर कर उस के कीमती होने का  बखान किया.

‘‘हां, बहुत प्यारा है,’’ मैं ने पिल्ले को हाथ में ले कर कहा.

‘‘गोद में ले लो. देखो, कैसे रेशम जैसे बाल हैं इस के,’’ उस ने पिल्ले के चमकते हुए बालों को हाथ से सहलाया.

गोद में ले कर मैं ने उसे 3-4 बिस्कुट खिलाए तो वह गपागप चट कर गया और जब उस की आंखें डब्बे में बंद शेष बिस्कुटों की तरफ भी लोलुपता से निहारने लगीं तो मैं ने उसे डांट दिया, ‘‘बस, चलो भागो यहां से. बहुत हो गया लाड़प्यार.’’

फिर मैं ने बबल से कहा, ‘‘बबल, देखो अब ज्यादा समय नष्ट मत करो. इस पिल्ले को इस के घर छोड़ आओ और वापस आ कर अपना सामान बांधो. विकी से भी कहना कि जल्दी घर लौटे. अपने- अपने कमरों का जिम्मा तुम्हारा है, मैं कुछ नहीं करूंगी.’’

‘‘चलो भई, मां तुम्हारे साथ खेलने नहीं देंगी,’’ उस ने पिल्ले का मुख चूम लिया और बी ब्लाक की तरफ भाग गया.

आधे घंटे बाद जब वह पुन: लौटा तो विकी उस के साथ था. दोनों अपने- अपने कमरों में जा कर सामान समेटने लगे परंतु बीचबीच में कुछ खुसुरफुसुर की आवाजों से मैं शंकित हो उठी. मैं ने आवाज दे कर पूछा, ‘‘क्या बात है. आज तो दोनों भाइयों में बड़े प्रेम से बातचीत हो रही है.’’

जब भी मेरे दोनों बेटे आपस में घुलमिल कर एक हो जाते हैं तो मुझे भ्रम होता है कि जरूर मेरे खिलाफ कोई षड्यंत्र रचा जा रहा है. जैसे वे घर में देवरानी और जेठानी हों और मैं उन की कठोर सास. एक बार हंस कर मेरे पति ने पूछा भी था, ‘‘तुम इन्हें देवरानीजेठानी क्यों कहती हो?’’

‘‘इसलिए कि वैसे तो दोनों में पटती नहीं, परंतु जब भी मेरे खिलाफ होते हैं तो आपस में मिल कर एक हो जाते हैं. आप ने देखा होगा, अकसर देवरानीजेठानी के रिश्तों में ऐसा ही होता है,’’ मेरी इस बात पर घर में सब बहुत हंसे थे.

‘‘मेरी प्यारीप्यारी मां,’’ पीठ के पीछे से आ कर बबल ने मुझे आलिंगनबद्ध कर लिया.

‘‘जरूर कोई बात है, तभी मस्का लगा रहे हो?’’

‘‘फ्लौपी है न सुंदर.’’

‘‘कौन फ्लौपी?’’

‘‘वही पिल्ला, जिसे मैं घर लाया था.’’

‘‘उस का नाम फ्लौपी है, बड़ा अजीब सा नाम है,’’ मैं ने व्यंग्य से मुंह बिचकाया.

‘‘वह गिरता बहुत है न, इसलिए चाचीजी ने उस का नाम फ्लौपी रख दिया है.’’

‘‘हमारे पामेरियन माशा के साथ उस की कोई तुलना नहीं. जैसी शक्ल वैसी ही अक्ल पाई थी उस ने. कितनी मेहनत की थी मैं ने उस पर. हमारे दिल्ली आने से पहले ही बेचारा मर गया,’’ मैं ने एक ठंडी आह भरी, ‘‘कोई भी घर आता तो कैसे 2 पांवों पर खड़ा हो कर हाथ जोड़ कर नमस्ते करता. मैं उसे कभी भूल नहीं सकती.’’

‘‘वैसे तो मां अपना ब्ंिलकर भी किसी से कम न था, जिसे आप की एक सहेली ने भेंट किया था,’’ उस ने बात आगे बढ़ाई.

‘‘पर उस के बाल बड़े लंबे थे. बेचारा ठीक से देख भी नहीं सकता था. हर समय अपनी आंखें ही झपकता रहता था. तभी तो पिताजी ने उस का नाम ब्ंिलकर रख छोड़ा था.’’

बबल की बातें सुन कर मैं कुछ देर के लिए खो सी गई और एक ठंडी आह भर कर बोली, ‘‘1 साल बाद ब्ंिलकर चोरी हो गया और माशा को किसी ने मार डाला.’’

‘‘कई लोग बड़े निर्दयी होते हैं,’’ बबल ने मेरी दुखती रग पकड़ी.

‘‘तुम्हें याद है, जिस दिन मैं एक पत्रिका के लिए साक्षात्कार कर के लौटी तो कितनी देर तक मेरे हाथपांव चाटता रहा. जहां भी जा कर लेटती वहीं भाग आता. मैं सुबह से गायब रही, शायद इसलिए उदास हो गया था. उस रात हम किसी के घर आमंत्रित थे. चुपके से कमरे से बाहर निकल गया और लगा कार के पीछे भागने. मैं कार से उतर कर पुन: उसे घर छोड़ आई. पर वह था बड़ा बदमाश. हमारे जाते ही गेट से निकल कर फिर कहीं मटरगश्ती करने निकल पड़ा.’’

‘‘मां, उस रात आप ने बड़ी गलती की. वह आप के साथ कार में जाना चाहता था. आप उसे साथ ले जातीं तो वह बच जाता.’’

‘‘बच्चे, अगर उसे बचना होता तो उसे एक जगह टिक कर बंधे रहने की समझ अपनेआप आ जाती. उस का सब से बड़ा दोष था कि वह एक जगह बंध कर नहीं रहना चाहता था. जब भी बांधने का नाम लो, आगे से गुर्राना शुरू कर देता. उस रात भी तो उस ने ऐसा ही किया था.’’

‘‘मां, आप मेरी बात मानो, वह किसी की कार के नीचे आ कर नहीं मरा. उस के शरीर पर एक भी जख्म नहीं था. ऐसे लगता था जैसे सो रहा हो. जरूर उस निकम्मे नौकर ने ही उसे मार डाला था. माशा उसे पसंद नहीं करता था. नौकर ने ही तो आ कर खबर दी थी कि माशा मर गया है,’’ बबल ने क्रोध में अपने दांत पीसे.

‘‘हम कुत्ता पालते तो हैं लेकिन उस का सुख नहीं भोग सकते,’’ मैं ने उदास हो कर कहा.

‘‘मां, अगर आप को फ्लौपी जैसा पिल्ला मिल जाए तो आप ले लेंगी?’’ विनम्रता से चहक कर उस ने मतलब की बात कही.

‘‘मैं साढ़े 700 रुपए खर्च करने वाली नहीं. कोई मजाक है क्या? मुझे नहीं चाहिए फ्लौपी,’’ मैं ने गुस्से में अपने तेवर बदले.

‘‘कौन कहता है आप को रुपए खर्च करने को. चाचीजी तो उसे मुफ्त में दे रही हैं.’’

‘‘क्यों? तो फिर जरूर उस में कोई खोट होगी. वरना कौन अपना कुत्ता किसी को देता है?’’

‘‘खोटवोट कुछ नहीं. उन का बच्चा छोटा है, इसलिए उसे समय नहीं दे पातीं. आप तो बस हर बात पर शक करती हैं.’’

हम दोनों की बहस सुन कर मेरा बड़ा बेटा विकी भी उस की तरफदारी करने अपने कमरे से निकल आया, ‘‘मां, बबल बिलकुल ठीक कह रहा है. चाचीजी पिल्ले के लिए कोई अच्छा सा परिवार ढूंढ़ रही हैं. आप को शक हो तो स्वयं उन से मिल लो.’’

‘‘मुझे नहीं मिलना किसी से. माशा के बाद अब मुझे कोई कुत्ता नहीं पालना. सुना तुम ने,’’ मैं पांव पटकती पुन: सामान समेटने लगी, ‘‘कलकत्ता के 8वें तल्ले पर है हमारा फ्लैट. उसे पालना कोई मजाक नहीं. तुम्हारे पिता भी नहीं मानेंगे,’’ मैं ने कड़ा विरोध किया. परंतु उन दोनों में से मेरी बात मानने वाला वहां था कौन?

‘‘हम तो फ्लौपी को जरूर पालेंगे,’’ दोनों भाई जोरदार शब्दों में घोषणा कर के अपनेअपने कमरों में चले गए.

जब दूसरे दिन इस विषय पर कोई चर्चा न हुई तो मैं ने चैन की सांस ली. परंतु तीसरे दिन सवेरा होते ही पुन: वही रट शुरू हो गई, ‘‘मां, कृपया फ्लौपी को ले लो न. हम वादा करते हैं, उस की सारी जिम्मेदारी हमारी होगी. आप को कुछ भी नहीं करना होगा,’’ दोनों भाई एकसाथ बोल पड़े.

इस तरह मेरे कड़े विरोध के बावजूद उस रोज 1 घंटे के अंदर ही नन्हा फ्लौपी हमारे परिवार का सदस्य हो गया. शाम को जब यह दफ्तर से घर आए तो फ्लौपी को देख कर बोले, ‘‘तो इन दोनों ने अपनी बात मनवा कर ही दम लिया. बड़ा मुश्किल काम है इसे पालना.’’

इस बार मेरे साहित्यप्रेमी पति को पिल्ले का नाम सोचने के सुख से हमें वंचित ही रखा, क्योंकि गिरतालुढ़कता फ्लौपी अपना नामकरण तो पहले परिवार से ही करवा कर आया था. दूसरे दिन लाख कोशिशों के बावजूद राजधानी एक्सप्रेस से जब फ्लौपी की बुकिंग न हो सकी तो मैं ने पुन: खैर मनाई. सोचा, चलो सिर से बला टली. पर बबल की आंखों से बहती आंसुओं की अविरल धारा ने मेरे पति के कोमल हृदय को छू लिया और बाध्य हो कर उन्होंने वादा किया कि किसी भी हालत में वे फ्लौपी को कलकत्ता जरूर पहुंचा देंगे.

लगभग 20 रोज पश्चात जब यह दिल्ली दौरे पर गए तो फ्लौपी को लिवा लेने के लिए बच्चों ने फिर जिद की. फिर एक रात सचमुच मैं ने फ्लौपी को सुदर्शन के साथ मुख्यद्वार पर खड़ा पाया.

दोनों बच्चों के मुख पर खुशी का वेग उमड़ आया, ‘‘अरे, तू तो कितना मोटू हो गया है,’’ दोनों उसे बारीबारी सहलाने लगे और बदले में फ्लौपी उन का मुख चाटचाट कर दुम हिलाता रहा.

सवेरा होते ही सारे मिंटो पार्क में हर्षोल्लास की लहर दौड़ गई. बारीबारी सब बच्चे उसे देखने आए, मानो घर में कोई नववधू विराजी हो. पड़ोस की लाहसा ऐप्सो टापिसी तो अपनी मालकिन को हमारे घर ऐसे खींच ले आई मानो फ्लौपी उस का भावी दूल्हा हो और सब बच्चों में धाक अलग से जमी कि बबल का कुत्ता हवाई जहाज से आया है.

कलकत्ता में मिंटो पार्क के मैदान और बगीचे की कोई सानी नहीं. हरी मखमली घास पर जब हमारा फ्लौपी चिडि़यों के पीछे भागता तो बच्चे भी उस के साथ भागते. अच्छाखासा बच्चों का जमघट कहकहों और किलकारियों से गूंजता रहता.

एक रोज हमें कहीं बाहर जाना पड़ा तो हम फ्लौपी को एक कमरे में बंद कर के खुला छोड़ गए. सोचा, आखिर कुत्ते को घर में रह कर मकान की रखवाली करनी चाहिए. लौट कर आसपड़ोस से पता चला कि पीछे से भौंकभौंक कर उस ने सारा मिंटो पार्क सिर पर उठा लिया था. अपने प्रति अन्याय का ढोल पीटपीट कर सब को खूब परेशान किया. अब एक ही चारा था कि या तो कोई घर में सदा उस के पास रहे या फिर वह कार में हमारे साथ चले.

बहुत सोचविचार करने पर दूसरा उपाय ही सब को ठीक लगा. एक रविवार हम टालीगंज क्लब गए तो उसे भी अपने साथ ले गए. मैं ने तरणताल के साथ रखी एक बेंच से उसे बांध दिया और स्वयं तैरने चली गई. तैरते हुए हंसतेखेलते बच्चों व अन्य लोगों को देख कर फ्लौपी ऐसा अभिभूत हुआ कि वहां पर आतीजाती सभी सुंदरियां उसी की हो गईं. जो भी लड़की वहां से गुजरती हम से हैलो पीछे करती, पहले फ्लौपी का मुख चूमती. क्लब का बैरा उस के लिए मीट की हड्डी ले आया. अब हम जहां भी जाते, उसे साथ ले जाते.

फिर बारी आई डाक्टर और दवाइयों के खर्चों की. परंतु जब विटामिन की ताकत उच्छृंखलता में परिवर्तित होने लगी तो मैं सकते में आ गई. अब उसे बांधा जाने लगा. परंतु जैसे ही उस नटखट पिल्ले को मौका मिलता, वह चीजों को मटियामेट करने से न चूकता. कभी जुराब तो कभी बनियान तो कभी परदा यानी जो भी उस के हाथ लगता, हम से नजर चुरा कर उस का कचूमर निकाल डालता.

एक रोज एक कीमती ब्लाउज इस्तरी करने लगी. उसे खोल कर मेज पर बिछाया तो उस की हालत देख कर दंग रह गई, ‘‘ओ मंगला, यह देख इस की हालत, क्या इसे किसी काकरोच ने काट डाला?’’ मैं ने हैरानगी जाहिर की.

मंगला बेचारी सारा काम छोड़ कर भागी आई, ‘‘मेमसाहब, इसे तो फ्लौपी ने काटा है.’’

‘‘ऐसा कैसे हो सकता है? देखो, गले के पीछे से और बाजुओं पर से ही तो काटा गया है.’’

‘‘हां, जहांजहां पसीने के दाग थे, वह हिस्सा चबा गया.’’

‘‘इस मुसीबत ने तो जीना मुश्किल कर दिया है,’’ मैं ने फ्लौपी को जंजीर समेत घसीट कर अपना ब्लाउज दिखाया.

मेरी कठोर आवाज सुन कर वह सहम गया और उस ने अपना मुख दूसरी तरफ फेर लिया. मेरी गुस्से भरी आवाज सुन कर बबल भी अपने कमरे से भाग आया और गुस्से से बोला, ‘‘हमें जीने नहीं देगा. अब तू क्या चाहता है?’’ उस ने उस रात उसे पलंग के पाए से कस कर बांध दिया, ‘‘बच्चू, तेरी यही सजा है. अपनी हरकतों से बाज आ जा वरना मार डालूंगा,’’ बबल ने उंगली दिखा कर उसे कड़ा आदेश दिया.

फ्लौपी दुम दबा कर पलंग के नीचे दुबक गया.

‘‘मां, आप मेरी बात मानो. इस बेवकूफ को मीट की हड्डी ला दो, सारा दिन बैठा चबाता रहेगा. याद है, माशा हड्डी से कितना खुश रहता था,’’ रात को मेरे बड़े बेटे ने खाने की मेज पर हिदायत दी.

‘‘पर माशा ने हमारी एक भी चीज खराब नहीं की थी. बड़ा ही समझदार कुत्ता था.’’

‘‘हां मां, पर वह बंगले के बाहर के बरामदे में बंधा रहता था और रात को अपना चौकीदार उस की देखभाल करता था. आप उस को घर के अंदर कहां आने देती थीं.’’

‘‘बेटे, यही तरीका है कुत्ता पालने का और यहां इस 8वें तल्ले पर हम इस बेजबान के साथ सरासर अन्याय कर रहे हैं,’’ मैं ने जवाब दिया.

‘‘मेमसाहब. कितनी बार हम इस के साथ नीचे जाएंगे,’’ मंगला ने गुस्से में मेरी बात का समर्थन किया.

अगले दिन खरीदारी करने जब मैं बाजार गई तो 4-5 मोटीमोटी मीट की हड्डियां खरीद लाई. रोज उसे एक पकड़ा देती. हड्डी देख कर वह नाच उठता. दिन के समय वह कुरसी के पाए से बंधा रहता और रात को पलंग के पाए से. हड्डी उस के पास धरी रहती. जब उस का जी करता, चबा लेता. 5-6 रोज तक फिर उस ने कोई चीज न फाड़ी. एक सुबह सो कर उठी तो यह सोच कर बहुत प्रसन्न थी कि फ्लौपी की आदतों में सुधार हो रहा है. मैं ने उसे प्यार से सहलाया और फिर रसोई में नाश्ता बनाने चली गई.

इस बीच बच्चे अपना कमरा बंद कर के पढ़ने का नाटक रचते रहे और फ्लौपी को बड़ी मेज की कुरसी के पाए से बांध गए. जब खापी कर नाश्ता खत्म हो गया तो मैं ने आमलेट का एक टुकड़ा दे कर फ्लौपी को पुचकारा, ‘‘अब तो मेरा फ्लौपी बहुत सयाना हो गया है.’’

मेरी बात सुन कर बबल सहम गया. पर उस के सहज होने के नाटक से मैं ताड़ गई कि कोई न कोई बात जरूर है जो मुझ से छिपाई जा रही है. चुपके से जा कर मैं ने विकी के कमरे का दरवाजा सरकाया तो दंग रह गई. हाल ही में खरीदे गए गद्दे पर विकी सफाई से पैबंद लगा रहा था.

‘‘तो यह बात है. 400 रुपए का नया गद्दा है मेरा. इस मुसीबत के कारण तो सारे घर की शांति भंग हो गई है,’’ मैं ने दोचार करारे थप्पड़ उस बेजबान के मुख पर जड़ दिए, ‘‘तू है ही नालायक.’’

रोजरोज घर की शांति भंग होने लगी. शेष बची चीजों को मैं संभालती ताकि कंबल, साडि़यां आदि पर वह अपने दांत न आजमाए. अब उस ने हमारे एक कीमती गलीचे को अपना शिकार बनाया और हमारे बारबार मना करने पर भी वह नजर चुरा कर उसे पेशाब और मल से गंदा कर देता. दिल चाहा कि फ्लौपी के टुकड़े कर दिए जाएं और बच्चों की भी जम कर पिटाई की जाए, जो उसे घर में लाने के जिम्मेदार थे.

एक रात को तो हद हो गई. रात के 3 बजे थे. यह दौरे पर थे. मेरी तबीयत खराब थी. फ्लौपी ने मुझे पांव मार कर जगाया कि उसे नीचे जाना है. मैं ने बबल को आवाज दी, ‘‘रात का समय है, मेरे साथ नीचे चलो.’’

बेचारा झट उठ खड़ा हुआ. बाहर बरामदे में जा कर देखा तो लिफ्ट काम नहीं कर रही थी. अब एक ही चारा था कि सीढि़यों से नीचे उतरा जाए. बेचारा जानवर अपनेआप को कब तक रोकता. उस ने सीढि़यों में ही ‘गंदा’ कर दिया.

मिंटो पार्क कलकत्ता की एक बेहद आधुनिक जगह है. कागज का एक टुकड़ा भी सारे अहाते में दिखाई दे जाए तो बहुत बड़ी बात है.

सवेरा होते मैं डर ही रही थी कि यहां के प्रभारी आ धमके, ‘‘सुनिए, या तो आप अपने कुत्ते को पैंट पहनाइए या फिर किसी नीचे रहने वाले निवासी को सौंप दीजिए. यही मेरी राय है.’’

उस दिन से हम एक ऐसे अदद परिवार की तलाश करने लगे जो फ्लौपी को उस की शैतानियों के साथ स्वीकार कर सके.

हमारे घर विधान नामक एक युवक दूध देने आता था. वह फ्लौपी को बहुत प्यार करता था. हमारी समस्या से वह कुछकुछ वाकिफ हो गया. एक रोज साहस कर के बोला, ‘‘मेमसाहब, नीचे वाला दरबान बोल रहा है कि आप फ्लौपी किसी को दे रहे हैं.’’

‘‘हां, हमारा ऊपर का फ्लैट है न, इसलिए कुछ मुश्किल हो रही है.’’

‘‘मेमसाहब, हमारा घर तो नीचे का है. हमें दे दीजिए न फ्लौपी को.’’

‘‘पूरे 800 रुपए का कुत्ता है, भैया,’’ पास खड़ी मंगला ने रोबदार आवाज में कहा.

‘‘नहींनहीं, हमें इसे बेचना नहीं है. देंगे तो वैसे ही. जो भी इसे प्यार से, ठीक से रख सके.’’

‘‘हम तो इसे बहुत प्यार से रखेंगे,’’ विधान बोला.

‘‘पर तुम तो काम करते हो. घर पर इस की देखभाल कौन करेगा,’’ मैं ने पूछा.

‘‘घर में मां, बहन और एक छोटा भाई है.’’

‘‘इस का खर्चा बहुत है, कर सकोगे?’’

‘‘दूध तो अपने पास बहुत है और मीट भी हम खाते ही हैं.’’

‘‘इस की दवाइयों और डाक्टर का खर्चा?’’

‘‘आप चिंता न करें,’’ विधान ने मुसकराते हुए कहा.

हम दोनों की बातें सुन कर विकी अपने कमरे से भागा आया, ‘‘मां, वह प्यार से फ्लौपी को मांग रहा है. मेरी बात मानो, दे दो इसे. मुझे घर की शांति ज्यादा प्यारी है.’’

सचमुच उस ने फ्लौपी को दोनों हाथों से उठा कर विधान के हाथों में दे दिया.

मैं हतप्रभ सी खड़ी बबल के चेहरे पर उतरतेचढ़ते भावों को पढ़ कर बोली, ‘‘विधान, तुम इसे कुछ रोज अपने पास रखो, फिर मैं सोचूंगी.’’

फ्लौपी चला गया तो ऐसा लगा कि घर में कुछ विशेष काम ही नहीं. ‘चलो मुसीबत टली,’ मैं ने सोचा. पर 2 दिन पश्चात ही महसूस होने लगा कि घर का सारा माहौल ही कसैला हो गया है. बच्चे स्कूल से लौटते तो चुपचाप अपनेअपने कमरों में दुबक जाते. न कोई हंसी न खेल. 2 रोज पहले तो फ्लौपी था. बच्चों की आहट पाते ही भौंभौं कर के झूमझूम जाता था और बदले में विकी और बबल के प्रेमरस से सराबोर फिकरे सुनने को मिलते.

उल्लासरहित वातावरण मन को अखरने लगा. जब खाने की मेज पर बच्चे बैठते तो बारबार उस कोने को देख कर ठंडी आहें भरते जहां वह बंधा रहता था. मन एक तीव्र उदासी से लबालब हो उठा. अगली सुबह जब विधान दूध देने आया तो मैं ने फ्लौपी के बारे में पूछताछ की.

‘‘बहुत खुश है, मेमसाहब. मेरी बहन उसे बहुत प्यार करती है,’’ विधान ने बताया.

‘‘कल शाम को उसे मिलाने के लिए जरूर लाना. बच्चे उसे बहुत याद करते हैं.’’

‘‘अच्छा मेमसाहब, कल शाम 4 बजे उसे जरूर लाऊंगा,’’ वह कुछ सोच कर बोला.

दूसरे दिन 3 बजते ही बच्चे फ्लौपी का बेसब्री से इंतजार करने लगे थे. इतने उत्साहित थे कि अपने मित्रों के साथ नीचे खेलने भी न गए. जरा सी आहट पाते ही मंगला बारबार दरवाजा खोल कर देखती. पहले 4 बजे, फिर 5 बज गए, पर फ्लौपी न आया और न विधान ही दिखाई दिया. हम सब का धैर्य जवाब देने लगा. बबल उदास स्वर में बोला, ‘‘अब वह लड़का फ्लौपी को कभी नहीं लाएगा.’’

‘‘क्यों?’’ मैं हैरान हो कर बोली.

‘‘उस ने उस पर अपना हक जमा लिया है.’’

‘‘तो क्या, 2 रोज में ही फ्लौपी विधान का हो गया. मैं कल ही उस से बात करूंगा,’’ विकी क्रोध में बोला.

‘‘कितना महंगा कुत्ता है. कहीं उस ने बेच न दिया हो, मेमसाहब,’’ मंगला ने अपनी शंका व्यक्त की.

‘‘बेच कर तो देखे. हम उस की पुलिस में रिपोर्ट कर देंगे,’’ विकी ने ऊंचे स्वर में कहा.

‘‘ऐसा करो बबल, जा कर देख आओ कि सब ठीक है न,’’ इन्हीं बातों में शाम बीत गई पर विधान न आया.

‘‘मां, एक बात कहूं पर डर लगता है,’’ विकी बोला.

‘‘क्या बात है?’’

‘‘कहीं फ्लौपी का एक्सीडेंट तो नहीं हो गया,’’ उस की बात सुन कर मेरा कलेजा धक से रह गया कि कहीं माशा वाले अंत की पुनरावृत्ति न हो जाए. मुझे तो विधान से यह भी पूछना याद नहीं रहा कि कहीं उस का घर सड़क के किनारे तो नहीं.

अज्ञात आशंका के कारण सारा उत्साह भय में तबदील हो गया. मन एक तीव्र अपराधबोध से भर उठा. एक घुटन सी मेरे भीतर गूंजने लगी. सोचा, जल्दबाजी में सब गड़बड़ हो गया. कुछ दिनों में फ्लौपी अपनेआप ठीक हो जाता.

सवेरा होते ही मैं दरवाजे पर टकटकी लगाए विधान की राह देखने लगी. जैसे ही लिफ्ट की आहट हुई, मैं ने झट से किवाड़ खोला, उसे अकेला आया देख कर एक बार तो संशय तनमन को झकझोरने लगा.

‘‘फ्लौपी को क्यों नहीं लाए? सब ठीक तो है न?’’ मैं एकसाथ कई प्रश्न कर उठी.

‘‘कल कुछ मेहमान आ गए थे, मेमसाहब. इसलिए नहीं आ सका. वैसे वह ठीक है.’’

विधान की बात सुन कर मैं एक सुखद आश्चर्य से अभिभूत हो कर बोली, ‘‘देखो, आज शाम को फ्लौपी को जरूर लाना वरना बच्चे बहुत नाराज होंगे.’’

शाम को 3 बजे जैसे ही बाहर की घंटी बजी, बच्चों ने लपक कर दरवाजा खोला. फ्लौपी हम सब को देखते ही विधान की बांहों से छूट कर मेरी गोद में आ गया.

मुख चाटचाट कर, दुम हिलाहिला कर और झूमझूम कर वह अपनी खुशी प्रकट करने लगा. बच्चों का उत्साह से नाचना और खिलखिलाना मुझे बड़ा भला लगा. एक बार तो मुझे ऐसा लगा कि दीर्घकाल से बिछुड़ा मेरा तीसरा बच्चा मिल गया हो और हमारी ममता भरी छाया में पहुंच गया हो. आधे घंटे बाद जब विधान पुन: फ्लौपी को लेने के लिए आया तो मेरे मुख से बस इतना ही निकला, ‘‘विधान, अब फ्लौपी को यहीं रहने दो, हमारा मन नहीं मानता.’’

एक मुलाकात जिन्ना से

मोहम्मद अली जिन्ना, जिन को पाकिस्तान का संस्थापक होने का श्रेय दिया जाता है, अब इस दुनिया में नहीं हैं. जाहिर है उन से मुलाकात तो अब सिर्फ सपने में ही हो सकती है. चलिए ऐसा ही एक सपना एक दिन मैं ने भी देख लिया. सपने में मैं ने देखा कि मैं जिन्ना का इंटरव्यू ले रहा हूं.

राजनेता वैसे भी इंटरव्यू देने में बड़े उतावले व कुशल होते हैं. खुद का अधिक से अधिक प्रचार व सत्ता की प्राप्ति ही उन के जीवन का इकलौता ध्येय होता है. जिन्ना कोई साधारण राजनेता नहीं थे, वे आजादी के लिए संघर्ष करने वाले योद्धा थे. कोई एक व्यक्ति ही नए राष्ट्र के निर्माण का सारा श्रेय ले जाए, ऐसा उदाहरण विश्व इतिहास में विरला है. जिन्ना साहब ने यही श्रेय प्राप्त किया है.

मेरे मन में मुख्य प्रश्न तो यही था कि यदि इस पृथ्वी पर धर्म जैसी कोई चीज नहीं होती तो क्या जिन्ना जिन्ना होते या कुछ और होते? माना, जिन्ना ने देश के 2 टुकड़े किए लेकिन जिस चाकू से उन्होंने 2 टुकड़े किए वह चाकू तो धर्म का ही था. सदियों से इनसान समझ नहीं पाया है कि धर्म जोड़ने का काम करता है या तोड़ने का. धर्म को ले कर इनसान इतना टची क्यों है? खैर, यहां आप के लिए पेश हैं उस काल्पनिक इंटरव्यू के कुछ अंश :

जिन्ना साहब, आप हमेशा हौट रहे हैं. आप उन राजनेताओं में हैं जो हमेशा हौट डिमांड में रहते हैं. आप इस समय भी बड़ी चर्चा में हैं. आप को चर्चा में लाने वाले हैं जसवंत सिंह. आप जिन्ना और वे जसवंत. मजे की बात यह है कि वे एक ऐसे राजनीतिक दल के सदस्य रहे हैं जो धर्म की बैसाखियों के सहारे ही चलता रहा है. जसवंत ने बड़ी कुशलता से अपने विचारों को वर्षों छिपा कर रखा और अब जब उन्होंने उन विचारों को जाहिर किया तो उन के दल ने उन्हें बाहर निकाल दिया.

हूं हूं. राजनीति कुछ ऐसी ही होती है. एक समय सुभाष चंद्र बोस को भी कांगे्रस छोड़ कर जाना पड़ा था.

आप को यह जान कर खुशी होगी कि जसवंत ने आप को एक महान भारतीय बताया है?

इनसानों पर लेबल लगाना हमेशा से समाज का काम रहा है. किसी पर वह भगवान होने का लेबल लगाता है तो किसी पर शैतान होने का लेबल लगाता है. हिंदूमुसलमान के लेबल भी तो समाज ही लगाता है, कोई अपनी मां के पेट से तो हिंदूमुसलमान हो कर आता नहीं है. दूसरे इनसानों की तरह मैं भी सिर्फ एक इनसान ही हूं.

(आश्चर्य से) जिन्ना साहब, यह आप कह रहे हैं?

यकीन रखो, मैं अब बहुत बदल चुका हूं. मैं वह नहीं हूं जो कभी पहले था. गांधी भी आज होते तो वही नहीं होते जो वे 1948 में थे. इनसान निरंतर बदलता रहता है, समय व समाज भी निरंतर बदलते रहते हैं. बौद्ध ठीक कहते हैं कि सत्य परिवर्तनशील है.

आप की बातों से मेरा आश्चर्य बढ़ता है. इन दिनों मैं ने आप पर दर्जनों लेख समाचारपत्रपत्रिकाओं में पढ़े हैं. ये लेख स्वनामधन्य, नामीगिरामी लेखकों द्वारा लिखे गए हैं. सब पढ़ कर भी कुछ हाथ नहीं लगा. और तो और यह भी पता नहीं लगा कि जिन्ना साहब नायक हैं या खलनायक, और न ही यह पता चला कि देश का बंटवारा क्यों हुआ. क्या आप बता सकते हैं कि देश का बंटवारा क्यों हुआ?

देश का बंटवारा हुआ, इस बारे में हम कह सकते हैं कि पहली बार 2 आधुनिक राष्ट्रों के रूप में भारत व पाकिस्तान का गठन हुआ. 540 रियासतों को एक कर पहली बार भारत देश बना. वरना तो यह भूभाग हजारों वर्षों से छोटेछोटे राजामहाराजाओं के कब्जे में रहा है. मैं ने भी पाकिस्तान के रूप में एक आधुनिक देश के निर्माण का प्रयास किया. यह अलग बात है कि वह आधुनिक राष्ट्र नहीं बन पाया. अब तो पाकिस्तान तालिबानीकरण का शिकार हो गया है. न जाने मेरे सपने का क्या होगा?

इस देश के लोग हमेशा से धर्म व जाति के नाम पर बंटे हुए थे. देश का बंटवारा क्यों हुआ यह पूछने से पहले यह पूछो कि देश गुलाम क्यों हुआ? हजारों साल से यह देश गुलाम था. देश का गुलाम होना, आजाद होना, देश का बंटवारा होना, ये सब एक लंबी ऐतिहासिक प्रक्रिया का हिस्सा हैं.

1971 में तो देश फिर एक बार टूटा. पाकिस्तान व भारत पर आज भी विभाजन का खतरा ज्यों का त्यों बना हुआ है. लोग धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र आदि के नाम पर दिनरात लड़ रहे हैं. बंटवारे के लिए किसी एक व्यक्ति को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है. पूरा देश व पूरा समाज इस के लिए जिम्मेदार था.

मैं पूछता हूं कि 1947 में मुझ जिन्ना के सिवा शेष 40 करोड़ लोग क्या कर रहे थे. यदि मैं देश को तोड़ने में लगा था तो उन्होंने मेरा हाथ क्यों नहीं पकड़ा? उन्होंने मुझ को उठा कर गटर में क्यों नहीं डाल दिया? अपने को धोखा न दो, बंटवारे के लिए उस समय मौजूद देश का हर नागरिक जिम्मेदार था. हां, मेरी जिम्मेदारी दूसरों से कुछ ज्यादा हो सकती है.

जिन्ना साहब, आप तो धर्मवादी नहीं थे. धर्म ने एकता के नाम पर हमेशा लोगों को विभाजित किया है. आप का निजी जीवन तो धर्म से लगभग मुक्त था. फिर क्यों आप ने अपनी राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए धार्मिक विभाजन की बैसाखियों का सहारा लिया?

मजेदार बात यह है कि मैं, नेहरू व पटेल तो शुद्ध राजनेता थे. हम में से किसी को भी साधु होने का शौक नहीं था. केवल गांधी ही कभी यह तय नहीं कर पाए कि उन्हें साधु होना है या राजनीति करनी है. उन का जीवन एक घालमेल बन गया. राजनेता हर हाल में सत्ता पाना चाहता है. लेकिन समाज द्वारा थोपे गए आदर्शों के कारण उसे हिप्पोक्रेट बनना पड़ता है.

मैं भी अपने समय का शीर्षस्थ नेता होना चाहता था लेकिन 1915 में गांधी ने अफ्रीका से आ कर मेरे सपनों को तोड़ना शुरू कर दिया. पटेल व नेहरू तो उन के अनुयायी हो गए. मेरे लिए यह संभव नहीं था. उन्होंने सार्वजनिक जीवन में जिस तरह धर्म का उपयोग शुरू किया उस का मुकाबला भी मैं किसी प्रकार नहीं कर सकता था. राजनेता के लिए लोकप्रियता उस का जीवन रस है. आखिर एक समय भगतसिंह का अपने बराबर लोकप्रिय हो जाना गांधी को भी रास नहीं आया था.

राजनीति में अपनी महत्त्वाकांक्षा पूरी करना बुरी बात नहीं समझी जाती है. चाणक्य ने भी साम, दाम, दंड, भेद की बात की है. हजारों वर्षों से राजा, राजनेता अपने स्वार्थ, अपनी महत्त्वाकांक्षा के लिए राज्यों को बनाते व तोड़ते आए हैं. इसलिए मैं न तो ऐसा पहला व्यक्ति हूं और न ही अंतिम. हां, आज मुझे यह लगता है कि मैं ने धर्म व राजनीति की जगह इनसानियत को तरजीह दी होती तो बेहतर होता.

तो आप विभाजन में अपनी जिम्मेदारी स्वीकारते हैं?

जितनी मेरी थी उतनी स्वीकारता हूं. उस से ज्यादा जिम्मेदारी मुझ पर मत थोपें.

कुछ लोग यह सपना देखते हैं कि भारत, पाकिस्तान व बंगलादेश फिर एक हो जाएं. क्या आप भी ऐसा सोचते हैं?

उस से क्या होगा? एक हो भी गए तो क्या होगा? जो हाल अभी इन 3 देशों का है एक होने पर भी वही हाल बना रहेगा. भ्रष्टाचार, सांप्रदायिकता, वोटों की राजनीति, कमजोरों और दलितों पर अत्याचार, पैसे की ताकत का नंगा नाच, स्त्रियों से बलात्कार आदि मामलों में एक होने से हालात कुछ बदल नहीं जाएंगे.

धर्मों ने हमेशा एकतासमानता की बातें की हैं, लेकिन वे कभी एकता- समानता ला नहीं पाए हैं. सच तो यह है कि हर नए धर्म ने विश्व को एक नया विभाजन दिया है. एक ही धर्म के मानने वाले लोग भी कभी आपस में एकतासमानता को स्थापित नहीं कर सके तो अन्य धर्मावलंबियों के साथ तो एकतासमानता की बात ही व्यर्थ है.

शायद वैश्विक एकता की बात वे लोग करते हैं जो दूसरों पर शासन करने को उत्सुक होते हैं. बगैर लोगों को संगठित किए नेता बना नहीं जा सकता है. यदि विश्व सरकार स्थापित हो जाए तो एक राजनेता पूरे विश्व पर शासन कर सकता है. यदि विश्व के सब नागरिक हिंदू हो जाएं तो एक हिंदू धर्मगुरु पूरे विश्व पर शासन कर सकता है. इसी तरह यदि सब मुसलमान एक हो जाएं तो एक मुसलमान धर्मगुरु सब पर शासन कर सकता है. बुरा होगा वह दिन जब एक ही व्यक्ति या एक ही दल का शासन पूरे विश्व पर होगा.

राजनेता हो या धर्मगुरु, कोई भी आखिरी सांस तक अपनी सत्ता छोड़ना नहीं चाहता है. जनता मजबूर कर दे तो बात अलग है.

खेद व्यक्त करता हूं जिन्ना साहब कि आप का इंटरव्यू करतेकरते मैं अपने विचार व्यक्त करने लग गया.

खैर, आप आज के युवकों को कोई संदेश देना चाहते हैं?

मेरा कोई संदेश नहीं है. हजारों वर्षों में धर्मगुरुओं, विचारकों ने हजारों व्यर्थ धारणाओं, आदर्शों को गढ़ा है. हमें इस जाल को काट फेंकना है. इनसान को धर्म व राजनीति की जकड़ से छुड़ाना है.

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