‘‘बच्चे थोड़े हैं जो हाथ पकड़ कर डाक्टर के पास ले जाऊं,’’ मम्मी के स्वर में झुंझलाहट थी.
‘‘मम्मा आप भी हद करती हैं… पापा को तेज बुखार है और आप… मानती हूं आप सारी रात परेशान हुईं. पर अपनी बात को रखने का भी एक समय होता है.’’
‘‘तू भी अपने पापा की ही तरफदारी करेगी न…’’
मेरी हालत भी पेंडुलम की तरह थी… कभी मेरी संवेदनाएं मम्मी की तरफ और कभी मम्मी से हट कर बिलकुल पापा की तरफ हो जाती थी. प्रकृति पूरा साल अपने मौसम बदलती पर हमारे घर में बारहों मास एक ही मौसम रहता था कलह और तनाव का. मैं उन दोनों के बीच की वह डोर थी जिस के सहारे उन के रिश्ते की गाड़ी डगमग करती खिंच रही थी.
उस दिन मेरा अंतिम पेपर था. मैं बहुत हलका महसूस कर रही थी. मैं अपने अच्छे परिणाम को ले कर आश्वस्त थी. आज बहुत दिनों बाद हम तीनों इकट्ठे डिनर टेबल पर थे. मम्मी ने आज सबकुछ मेरी पसंद का बनाया था.
‘‘मम्मीपापा, मैं आप दोनों से कुछ कहना चाहती हूं.’’ आज अनिका की भावभंगिता कुछ गंभीरता लिए थी, जिस के मम्मीपापा अभ्यस्त नहीं थे.
‘‘बोलो बेटे… कुछ परेशान सी लग रही हो?’’ वे दोनों एकसाथ बोल चिंतित निगाहों से उसे देखने लगे.
उस ने बहुत आहिस्ता से कहना शुरू किया जैसे कोई बहुत बड़ा रहस्य उजागर करने जा रही हो, ‘‘पापा, मैं आगे की पढ़ाई सूरत में नहीं, बल्कि अहमदाबाद से करना चाहती हूं.’’
‘‘ये कैसी बातें कर रही हो बेटा… तुम्हें तो सूरत के एनआईटी कालेज में आसानी से एडमिशन मिल जाएगा.’’
‘‘मिल तो जाएगा पापा, पर सूरत के कालेजों की रेटिंग काफी नीचे है.’’
‘‘बेटे, यह तुम्हारा ही फैसला था न कि ग्रैजुएशन सूरत से ही कर पोस्टग्रैजुएशन विदेश से कर लोगी, तुम्हारे अचानक बदले इस फैसले का कारण क्या हम जान सकते हैं?’’ पापा के माथे पर तनाव की रेखाएं साफ झलक रही थी.
घर में अनजानी खामोशी पसर गई. यह खामोशी उस खामोशी से बिलकुल अलग थी जो मम्मीपापा की बहस के बाद घर में पसर जाती थी…बस आ रही थी तो घड़ी की टिकटिक की आवाज.
अपनी जान से प्यारे अपने मम्मीपापा को उदास देख अनिका के गले से रोटी
कैसे उतर सकती थी. वह एक रोटी खा कर वाशबेसिन पर पर हाथ धोने लगी. मुंह धोने के बहाने नल से निकलते पानी के साथ उस के आंसू भी धुल गए. वह नैपकिन से अपना मुंह पोंछ रही थी तो सामने लगे आइने में उस ने देखा मम्मीपापा की निगाहें उस पर ही टिकी हैं जिन में बेबस सी अनुनय है.
‘‘आज मुझे महसूस हो रहा है कि सच में जमाना बहुत फौरवर्ड हो गया है… आखिर हमारी बेटी भी इस जमाने के तौरतरीकों बहाव में खुद को बहने से नहीं रोक पाई,’’ पापा के रुंधे स्वर
में कहा.
‘‘ये सब आप के लाडप्यार का नतीजा है, और सुनाओ उसे अपने हौस्टल लाइफ के किस्से चटखारे ले कर… तुम तो चाहते ही थे न कि तुम्हारी बेटी तुम्हारी तरह स्मार्ट बने. तो चली हमारी बेटी आजाद पंछी बन जमाने के साथ
ताल मिलाने. उस ने एक बार भी हमारे बारे में नहीं सोचा.’’
‘‘पापामम्मी के बीच चल रही बातचीत
के कुछ अंश अनिका के कानों में भी पड़ गए
थे. मम्मी ने रोरो कर अपनी आंखें सुजा ली थीं, नाक लाल हो गई थी. पर क्या किया जा
सकता था, आखिर यह उस की पूरी जिंदगी
का सवाल था.’’
आज अनिका स्कूल गई थी. उस ने अपने सारे
कागजात निकलवा कर उन की फोटोकौपी बनवानी थी. वहां जा कर उसे ध्यान आया वह अपनी 10वीं और 11वीं कक्षा की मार्कशीट्स घर पर ही भूल गई है. उस ने तुरंत मम्मी को फोन लगाया, ‘‘मम्मा, मेरी अलमारी में दाहिनी तरफ की दराज में आप को लाल रंग की एक फाइल दिखेगी, उस में से प्लीज मेरी 10वीं और 11वीं की मार्कशीट्स के फोटो भेज दो.’’
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फोटो भेजने के बाद उस फाइल के नीचे दबी एक गुलाबी डायरी पर लिखे सुंदर शब्दों ने मम्मी का ध्यान अपनी ओर खींचा-
‘‘की थी कोशिश, पलभर में काफूर उन लमहों को पकड़ लेने की जो पलभर पहले हमारे घर के आंगन में बिखरे पड़े थे.’’
शायद मेरे चले जाने के बाद उन दोनों का अकेलापन उन्हें एकदूसरे के करीब ले आए. इसीलिए तो अपने दिल पर पत्थर रख उसे
इतना कठोर फैसला लेना पड़ा था. पेज पर
तारीख 15 जून अंकित थी यानी अनिका का जन्मदिन.
मम्मी के मस्तिष्क में उस रात हुई कलह के चित्र सजीव हो गए. एक मां हो कर मैं अपनी बच्ची की तकलीफ को नहीं समझ पाई. अपने अहम की तुष्टि के लिए वक्तबेवक्त वाक्युद्ध पर उतर जाते थे बिना यह सोचे कि उस बच्ची के दिल पर क्या गुजरती होगी.
उन की नजर एक अन्य पेज पर गई,
‘‘मुझे आज रात रोतेरोते नींद लग गई और मैं
सोने से पहले बाथरूम जाना भूल गई और मेरा बिस्तर गीला हो गया. अब मैं मम्मा को क्या जवाब दूंगी.’’
पढ़कर निकिता अवाक रह गई थी. जगहजगह पर उस के आंसुओं ने शब्दों की स्याही को फैला दिया था, जो उस के कोमल मन की पीड़ा के गवाह थे. जिस उम्र में बच्चे नर्सरी राइम्ज पढ़ते हैं उस उम्र में उन की बच्ची की ये संवेदनशीलता और जिस किशोरवय में लड़कियां रोमांटिक काव्य में रुचि रखती हैं उस उम्र में
यह गंभीरता. आज अगर यह डायरी उन के
हाथ नहीं लगी होती तो वे तो अपनी बेटी के फैसले के पीछे का कठोर सच कभी जान ही
नहीं पातीं.
‘‘आप आज अनिका के घर पहुंचने से पहले घर आ जाना, मुझे आप से बहुत जरूरी बात करनी है,’’ मम्मी ने तुरंत पापा को फोन मिलाया.
‘‘निक्की, मुझे ध्यान है नया फ्रिज खरीदना है पर मेरे पास अभी उस से भी महत्त्वपूर्ण काम है… और फिलहाल सब से जरूरी है अनिका का कालेज में एडमिशन.’’
‘‘और मैं कहूं बात उस के बारे में ही है.’’
‘‘मम्मी के इस संयमित लहजे के पापा आदी नहीं थे. अत: उन की अधीरता जायज थी,’’
‘‘सब ठीक तो है न?’’
‘‘आप घर आ जाइए, फिर शांति से बैठ कर बात करते हैं.’’
‘‘पहेलियां मत बुझाओ, साफसाफ क्यों नहीं कहती हो, जब बात अनिका से जुड़ी थी तो पापा कोई ढील नहीं छोड़ना चाहते थे. अत: काम छोड़ तुरंत घर के लिए निकल गए.’’
‘‘देखिए यह अनिका की डायरी.’’
पापा जैसेजैसे पन्ने पलटते गए, अनिका के दिल में घुटी भावनाएं परतदरपरत खुलने लगीं और पापा की आंखें अविरल बहने लगीं. मम्मी भी पहली बार पत्थर को पिघलते देख रही थी.
‘‘कितना गलत सोच रहे थे हम अपनी बेटी के बारे में इस तरह दुखी कर के तो हम उसे घर से हरगिज नहीं जाने दे सकते,’’ उन्होंने अपना फोन निकाल अनिका को मैसेज भेज दिया.
‘‘कोशिश को तेरी जाया न होने देंगे, उस कली को मुरझाने न देंगे,
जो 17 साल पहले हमारे आंगन में खिली थी.’’
‘‘शैतान का नाम लिया और शैतान हाजिर… वाह पापा आप का यह कवि रूप तो पहली बार दिखा,’’ कहती हुई अनिका घर में घुसी और मम्मीपापा को गले लगा लिया.
‘‘हमें माफ कर दे बेटा.’’
‘‘अरे, माफी तो आप लोगों से मुझे मांगनी चाहिए, मैं ने आप लोगों को बुद्धू जो बनाया.’’
‘‘मतलब?’’ मम्मीपापा आश्चर्य के साथ बोले.
‘‘मतलब यह कि घी जब सीधी उंगली से नहीं निकलता है तो उंगली टेढ़ी करनी पड़ती है. इतनी आसानी से आप लोगों का पीछा थोड़े छोड़ने वाली हूं. हां, बस यह अफसोस है कि मुझे अपनी डायरी आप लोगों से शेयर करनी पड़ी. पर कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है न?’’
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‘‘अच्छा तो यह बाहर जा कर पढ़ने का फैसला सिर्फ नाटक था…’’
‘‘सौरी मम्मीपापा आप लोगों को करीब लाने का मुझे बस यही तरीका सूझा,’’ अनिका अपने कान पकड़ते हुए बोली.
‘‘नहीं बेटे, कान तुम्हें नहीं, हमें पकड़ने चाहिए.’’
‘‘हां, और मुझे इस ऐतिहासिक पल को कैमरे में कैद कर लेना चाहिए,’’ कह वह तीनों की सैल्फी लेने लगी.