जानिए क्या करें जब आग लग जाए

यों तो सालभर देशभर में कहीं न कहीं से भयानक आग लगने की खबरें आती रहती हैं लेकिन गरमी के मौसम में आग लगने के हादसों की तादाद बढ़ जाती है. इस साल अप्रैल में आग लगने की 2 दर्जन बड़ी घटनाएं हुईं जिन में सब से ज्यादा दिल दहला देने वाला हादसा मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले के हर्रई ब्लौक के गांव बारगी में हुआ. 22 अप्रैल की शाम 4 बजे चिलचिलाती धूप में बारगी गांव के सैकड़ों लोग राशन की दुकान के सामने लाइन में लगे थे. यह राशन की दुकान ठीक वैसी ही है, जैसी देशभर में होती हैं कि एकाधदो कमरे राशन की सहकारी दुकान चलाने वाला किराए पर ले लेता है. इन में बांटा जाने वाला अनाज और राशन के दूसरे आइटम ठूंसठूंस कर भरे रहते हैं. एक तरह से राशन की इन सस्ती दुकानों को छोटेमोटे गोदाम कहना ज्यादा बेहतर होगा.

बारगी में गांव वालों को बांटने के लिए कैरोसिन का तेल इस दिन आया था. यह खबर आग की तरह गांवभर में फैली तो देखते ही देखते तेल लेने वालों की भीड़ इकट्ठी हो गई. बाहर लाइन लगी तो दुकानदार भीतर अनाज बांटने लगा. चूंकि कैरोसिन चाहने वालों की तादाद ज्यादा थी, इसलिए दुकानदार ने दरवाजे पर कैरोसिन का ड्रम रख लिया. जिन्हें अनाज चाहिए था वे दुकान के भीतर रह गए और जिन्हें कैरोसिन चाहिए था वे बाहर लाइन में खड़े हो गए.

सैकड़ों लोगों को उन की मांग के मुताबिक कैरोसिन का तेल बांटने में देर लग रही थी. लाइन में लगे गांव वालों में से किसी ने आदतन बीड़ी सुलगा ली और पीने के बाद आदत के मुताबिक ही उस का ठूंठ फेंक दिया. इसी दौरान एक और गांव वाले ने बीड़ी सुलगा कर तीली फेंकी तो वह कैरोसिन के ड्रम के पास जा गिरी. कैरोसिन ने आग पकड़ी तो देखते ही देखते हाहाकार मच गया.

बचने के बजाय फंसे

कैरोसिन ने आग पकड़ी तो भगदड़ मच गई. बाहर लाइन में खड़े लोग तो खुले की तरफ जान बचाने के लिए भाग गए पर जो लोग अंदर कमरे में बंद थे, उन की हालत चूहेदानी में फंसे चूहे जैसी हो गई थी. आग अंदर तक फैली और अनाज के बारदानों तक जा पहुंची. अंदर फंसे लोगों में से किसी को नहीं सूझा कि क्या करे.

हरेक की हर मुमकिन कोशिश खुद की जान बचाने की थी. इस से हुआ उलटा, कि जरा से कमरे से भागादौड़ी के चलते इनेगिने लोग ही बाहर आ पाए और 13 लोग आग की भेंट चढ़ गए यानी जिंदा जल मरे.

मंजर यह था कि महज 5 मिनट में ही आग ने पूरी दुकान को अपनी गिरफ्त में ले लिया. भीतर वाले कमरे में रखा सामान और अनाज के बारदाने भी जलने लगे तो छोटा सा कमरा धुंए से भर गया. नतीजतन, वहां मौजूद लोगों का दम भी घुटने लगा. जान बचाने के लिए लोगों को कुछ नहीं सूझा तो वे बारदानों के ऊपर चढ़ गए पर वहां भी आग की लपटों ने उन का पीछा नहीं छोड़ा.

हादसे के गवाह रहे एक घायल मनोज कुमार मालवीय का कहना है कि उसे और दूसरे लोगों को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें. बाहर निकलने के लिए एक ही दरवाजा था और लोग उस की तरफ भाग रहे थे. चूंकि कैरोसिन या खाने वाला तेल फर्श पर फैल गया था, इसलिए लोग उस पर से फिसलने लगे थे. इस आपाधापी और भागादौड़ी में कुल 4 लोग ही बाहर निकल पाए.

आग जब शबाब पर आई तो 200 लिटर से भरे ड्रमों में से भड़ामभड़ाम की आवाजें आने लगीं जिस से लोग और दहशत से भर उठे. देखते ही देखते सोसाइटी की दुकान का यह कमरा श्मशान घाट बन गया. बाहर खड़े चिल्लाते लोग बेबसी से मौत का यह मंजर देखते रहे, जिसे शायद ही वे जिंदगीभर भुला पाएं.

आग के इस हादसे की खबर भी आग की तरह फैली और जिलेभर से फायरब्रिगेड आईं. दुकान की दीवार तोड़ कर आग बुझाई गई पर जब तक जो होना था वह हो चुका था.

बच सकते थे

मनोज की बातों से जाहिर होता है कि घबराए लोगों ने वही गलती की जो आमतौर पर ऐसे हादसों के वक्त लोग करते हैं वह थी भगदड़ मचा कर पहले भागने की.

लोग चाहते थे तो एकएक कर बाहर निकल सकते थे पर हर एक को अपनी जान की पड़ी थी, इसलिए भीतर फंसे लोगों में से कोई नहीं बच सका. मरने वालों में 5 औरतें भी थीं.

साफ दिख रहा है कि लोग आग से कम, भगदड़ से ज्यादा मरे. हो यह रहा था कि लोग एकदूसरे को धकिया कर पहले बाहर निकलने के लिए दरवाजे की तरफ भाग रहे थे और आगेवाले पीछे वालों को धक्का दे रहे थे. इस गफलत में कोई बाहर नहीं निकल पाया और आग ने उन्हें बख्शा नहीं.

यह ठीक है कि हमारे देश में आग और दूसरी कुदरती आफतों से बचने के लिए कोई ट्रेनिंग नहीं दी जाती है जो कि अब आग की बढ़ती घटनाओं को देख जरूरी लगने लगी है.

छिंदवाड़ा की आग के बाद हफ्तेभर में ही अकेले मध्य प्रदेश के ही भोपाल, इंदौर, मंडला और बैतूल में लगी आग से 6 लोग और मारे गए.

इंदौर में पटाखों की दुकान में आग लगी तो भोपाल में रिहायशी इलाके सोनागिरि की एक बिल्ंिडग को आग ने अपनी गिरफ्त में ले लिया. बैतूल और मंडला में खेतखलिहानों में आग लगी थी. यानी आग से कहीं कोई महफूज नहीं है, वह बंद और खुली दोनों जगहों में लग सकती है.

खुली जगहों मसलन, मैदान, खेत और खलिहान में आग से बचने के मौके ज्यादा होते हैं लेकिन बंद जगहों में समझदारी से ही अपनी जान बचाई जा सकती है.

ऐसे बचें हादसे से

जिस तेजी से आग लगने के हादसे बढ़ रहे हैं, उन से लगने लगा है कि लोगों को खुद अपना बचाव करना आना चाहिए जिस से ऐसे बुरे वक्त में वे अपनी और औरों की जान बचा पाएं. इस के लिए इन बातों को ध्यान में रखना चाहिए-

– अगर यंत्र का इस्तेमाल करना न आता हो तो आसपास देखें कि शायद कोई ऐसी चीज मिल जाए जिस आग पर फेंक देने से उसे रोका जा सके. मसलन, रेत या पानी, ये चीजें अगर मिल जाएं तो इन्हें तुरंत तेजी से आग पर फेंकना चाहिए पर अगर आग बिजली के तारों या शौर्ट सर्किट की वजह से लगी दिखे तो उसे बुझाने के लिए पानी का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए. इस से करंट लगने का डर बना रहता है.

– आजकल तकरीबन हर जगह आग बुझाने के अग्निशामक यंत्र रखे जाते हैं, पर अफसोस की बात यह है कि इन्हें चलाना हर कोई नहीं जानता. इसलिए नजदीकी फायर ब्रिगेड दफ्तर से इन्हें चलाने का तरीका सीखने में हर्ज नहीं, क्योंकि पता नहीं, कब कहां ऐसी नौबत आ जाए.

– आग में फंसने पर ऊपर के कपड़े उतार कर फेंक देना चाहिए क्योंकि ये जल्दी आग पकड़ते हैं. इन के जरिए ही शरीर जलता है और बचने का मौका नहीं मिल पाता.

– आग कहीं से भी उठती दिखे, तुरंत बिजली के खटकों और हो सके तो मेनस्विच को बंद कर देना चाहिए क्योंकि बिजली के तार जल्द आग पकड़ते हैं.

– आग कहीं भी, कैसे भी लगे, उस से धुआं जरूर फैलता है. इसलिए रूमाल, गमछा, दुपट्टा जो भी मिले, उस से मुंह ढक लेना चाहिए ताकि दम न घुटे.

– आग कपड़ों तक आ जाए तो जमीन पर लेट कर लुढ़कना चाहिए. इस से आग बुझने में मदद मिलती है. चादर, कंबल या दूसरा बड़ा कपड़ा मिल जाए तो उसे शरीर पर लपेट लेना चाहिए. फिल्मों में अकसर इसी तरह आग से जलते आदमी को बचाते हुए दिखाया जाता है.

– किसी बड़ी इमारत में आग लगे तो भागने के लिए लिफ्ट के बजाय सीढि़यों का इस्तेमाल करना चाहिए.

– आग जहां से उठती दिखे, उस के आसपास की चीजों को हटा देना चाहिए क्योंकि उन से आग को फैलने का मौका मिलता है.

छिंदवाड़ा के बारगी गांव के हादसे से एक बात साफ और उजागर यह हुई कि लोगों ने समझ खो दी थी. अगर पीछे वाले, आगे वाले लोगों को दरवाजे से बाहर निकल जाने देते तो उन्हें भी अपनी जान बचाने का मौका मिल सकता था. आगे वाले की तो जान बच ही जाती.

बीड़ी और जलती तीली फेंकने वाले तो गुनहगार हैं ही, लेकिन जब आग लग ही गई थी तो लोग सब्र का दामन न छोड़ते, समझ से काम लेते तो हादसा इतना भयानक नहीं होता.

जलने पर यह करें

– आग में थोड़ा जलें या ज्यादा, बेहतर यह होता है कि जब तक जलन कम न हो, तब तक आप जख्म पर ठंडे पानी का छोटा कपड़ा रखें.

– जहां आग लगी है वहां की खिड़कियां खोलने की कोशिश करनी चाहिए.

– जली हुई जगह पर चूना, हलदी या टूथपेस्ट न लगाएं, इस से घाव ठीक नहीं होता, उलटे डाक्टर को  घाव साफ करने में परेशानी पेश आती है.

– जली हुई जगह पर पानी डालने से जख्म गहरा नहीं हो पाता.

– तुरंत ऐंबुलैंस को फोन करें.

एहतियात जरूरी

आग अकसर लापरवाही से लगती और फैलती है. बागरी गांव में लोग जलती बीड़ी या तीली नहीं फेंकते तो एक बड़े हादसे और 13 मौतों से बच सकते थे. अगर ये एहतियात बरती जाएं तो आग लगने की घटनाओं को रोका जा सकता है-

– आग लगने के आधे से ज्यादा हादसे बिजली के तारों और शौर्ट सर्किट होने के चलते होते हैं. गरमी में बिजली की खपत ज्यादा होती है, इसलिए बिजली के तारों पर जोर ज्यादा पड़ता है और वे जलने लगते हैं.

– इसलिए बेहतर यह होता है कि घटिया किस्म के बिजली के तारों का इस्तेमाल न किया जाए, हमेशा ब्रैंडेड तार ही इस्तेमाल किए जाएं.

– झुग्गीझोंपडि़यों और कच्चे मकानों में आमतौर पर सीधे खंबे से बिजली ले ली जाती है, यह बेहद जोखिम वाला काम है, इस से बचना चाहिए. मकान

चूंकि कच्चे होते हैं और उन में लकड़ी, घासफूस वगैरा का ज्यादा इस्तेमाल होता है, इसलिए बिजली के तारों से आग लगने का खतरा ज्यादा रहता है.

– हर दूसरेतीसरे साल में घर की बिजली फिटिंग की जांच कराते रहना चाहिए और खराब व गले तारों को हटवा देना चाहिए.

– आमतौर पर घरों में बिजली का एक ही मेनस्विच रखा जाता है जिस पर बिजली का सारा लोड पड़ता है. इस से उस के जलने का खतरा बना रहता है. इस से बचने के लिए 2 मेनस्विच लगवाने चाहिए.

– इलैक्ट्रिक और इलैक्ट्रौनिक आइटमों में जरा सी भी खराबी आ जाने पर उन की रिपेयरिंग करवानी चाहिए.

– एसी, फ्रिज, कंप्यूटर, टीवी, टुल्लू पंप और ओवन जैसे आइटमों के लिए पावरस्विच लगवाना चाहिए. साधारण खटके से चलाने पर वे जल्द गरम होते हैं और आग लगने का खतरा बढ़ जाता है.

– रात को सोने से पहले गैस सिलैंडर की नौब बंद कर देनी चाहिए.

– घर में बेवजह की रद्दी व कचरा नहीं रखना चाहिए, ये आइटम जल्द आग पकड़ते हैं.

– खेतखलिहानों में सूखी घास, लकडि़यां आदि महफूज जगह पर रखनी चाहिए और नरवाई में आग नहीं लगानी चाहिए. गांवदेहातों में आजकल आग नरवाई लगाने से ज्यादा लग रही है, इसलिए इसे कानूनी जुर्म भी घोषित कर दिया गया है.

इन बातों पर अमल किया जाए तो आग से बचा जा सकता है. बेहतर तरीका यह है कि आग से बचाव पर ध्यान दिया जाए वरना आग लगने में देर नहीं लगती.

शराबी बाप और जवान बेटियां

निहाल सिंह की उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में अच्छीखासी दुकान चल रही थी, जिस से उस के परिवार का खर्चा आसानी से निकल रहा था. लेकिन 2 साल पहले दोस्तों के चलते उसे शराब की ऐसी लत लगी कि कारोबार चौपट हो गया. निहाल सिंह के शराब पीने की लत दिनोंदिन बढ़ती जा रही थी, जिस की वजह से उस के घर में खाने के भी लाले पड़ गए. उस की पत्नी जब भी शराब छोड़ने की बात कहती, तो वह उसे मारनेपीटने लगता था. ऐसे में उस की बेटियां सहमी सी अपनी मां को पिटते हुए देखती थीं.

आखिरकार निहाल सिंह की बेटियां पिता की शराब की लत के चलते काम की तलाश में रहने लगीं. लेकिन वे जहां भी जातीं, तो उन्हें हवस की नजरों से ही देखा जाता. लड़कियों ने घर पर ही कागज के लिफाफे बना कर बेचने का काम शुरू कर दिया, लेकिन निहाल सिंह बेटियों की इस कमाई को भी छीन कर शराब पीने में उड़ा देता था.

एक दिन निहाल सिंह अपने कुछ शराबी दोस्तों के साथ महफिल जमाए बैठा था कि उस के शराबी दोस्तों की नजर उस की जवान होती बेटियों पर पड़ गई. अपनी शराब की लत के चलते निहाल सिंह अपने दोस्तों से काफी रुपए उधार ले चुका था. जब उन्होंने अपने रुपए मांगने शुरू किए, तो वह बोला कि उस के पास पैसे तो नहीं हैं. इस पर दोस्तों ने सख्ती से रुपए मांगे और यह भी कहा कि वे आगे से उस की शराब की जरूरत पूरी नहीं कर पाएंगे.

निहाल सिंह शराब के नशे का इतना आदी हो चुका था कि उस ने अपने दोस्तों से गिड़गिड़ाते हुए कहा कि वह उस की शराब की जरूरत पूरी करते रहें. उस के दोस्तों ने निहाल सिंह की मजबूरी का फायदा उठाते हुए बेटियों से पहले छेड़छाड़ की और फिर निहाल सिंह की नजर बचा कर उन को छेड़ना शुरू कर दिया.

बेटियों ने बाप से शिकायत की, तो उस ने उन्हें चुप करा दिया कि वे उस के दोस्त ही तो हैं.

इस के बाद तो निहाल सिंह की कम उम्र की बेटियां उस के शराबी दोस्तों की शिकार होती रहीं. यह बात तब खुली, जब निहाल सिंह की बड़ी बेटी ने बाप के शराबी दोस्तों से तंग आ कर फांसीं लगा कर अपनी जान दे दी.

इस मामले में पुलिसिया पूछताछ के दौरान यह पता चला कि निहाल सिंह की शराब की लत का फायदा उठा कर उस के शराबी दोस्त महीनों से उस की बेटियों को अपनी हवस का शिकार बनाते आ रहे थे.

पुलिस ने निहाल सिंह और उस के दोस्तों को इस मामले में गुनाहगार मानते हुए सलाखों के पीछे डाल दिया, जबकि निहाल सिंह को अपनी इस करनी पर कोई पछतावा नहीं था.

ज्यादातर मामलों में शराबी बाप के चलते उस की जवान होती बेटियों को किसी न किसी तरह से ज्यादती का शिकार होना पड़ता है.

बाप की शराब की लत के चलते उन की पढ़ाईलिखाई और सामाजिक सुरक्षा भी खतरे में पड़ जाती है. ऐसी हालत में ज्यादातर लड़कियां चुपचाप सबकुछ सहती रहती हैं और जो नहीं सह पाती हैं, वे या तो घर छोड़ कर गलत धंधे में उतर जाती हैं या खुदकुशी का रास्ता अख्तियार कर लेती हैं.

शराब है दुश्मन

शराब दिलोदिमाग के सोचने की ताकत को खत्म कर देती है. जैसेजैसे कोई शख्स शराब का आदी होता जाता है, वह अपनी नौकरीकारोबार से हाथ धोने लगता है. एक समय ऐसा भी आता है, जब शराब की लत के चलते उस का सबकुछ चौपट हो चुका होता है.

पढ़ाईलिखाई का सपना संजोने वाली लड़कियों के ख्वाब पिता की इस बुरी लत के चलते धरे के धरे रह जाते हैं और उन्हें बीच में ही अपनी पढ़ाई छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ता है. इस की वजह से वे न केवल कुंठा का शिकार हो जाती हैं, बल्कि तमाम मजबूरियों के चलते कई तरह के अपराधों में भी शामिल हो जाती हैं.

शराबी बाप के चलते जवान होती बेटियों के सामने जो सब से बड़ी समस्या उभर कर आती है, वह है उन की शादी.

ऐसी हालत में या तो उन्हें भाग कर शादी करनी पड़ती है या फिर शराब की जरूरतों को पूरा करने के लिए पिता बेटी को पैसों के लालच के चलते उस से उम्र में काफी बड़े शख्स के साथ शादी कर देता है.

देह धंधे को मजबूर

बाप की शराब की लत के चलते अगर सब से ज्यादा खतरा किसी को होता है, वह है उस की जवान होती बेटियां, क्योंकि बाप की शराब की लत परिवार की माली हालत को खस्ताहाल बना देती है. इस वजह से परिवार में भूखों मरने की नौबत तक आ जाती है, जिस से उबरने व पेट की भूख मिटाने के लिए जवान बेटियां खुद की इज्जत बेचने को मजबूर हो जाती हैं.

इस तरह के जितने भी मामले अभी तक सामने आए हैं, उन में यह पाया गया है कि जो लड़कियां देह धंधे में आईं, उन में से ज्यादातर की वजह पिता के शराब पीने की लत रही है. इस हालत में छोटे भाईबहनों की अच्छी पढ़ाईलिखाई और पेट की भूख मिटाने के लिए उन के पास यह गलत काम करने के सिवा कोई दूसरा चारा नहीं था.

दिल्ली के रहने वाले सुशील खन्ना पिछले कई सालों से नशे व शराब के खिलाफ मुहिम चला कर जागरूकता फैला रहे हैं. उन का कहना है कि शराब हर तरीके से पतन की तरफ ले जाती है. इस का जो सब से ज्यादा बुरा असर देखा गया है, वह है शराबी बाप की जवान होती बेटियों पर, क्योंकि बाप की शराब की लत के चलते इन की पढ़ाईलिखाई, शादीब्याह में रुकावट तो आती ही है, साथ ही इन की इज्जत पर हर समय खतरा मंडराता रहता है.

ऐसे कई मामले सामने आते रहते हैं, जिस में किसी जवान लड़की ने अपने शराबी बाप की ज्यादतियों के चलते खुदकुशी कर ली फिर या ऐसे कदम उठा लिए, जिसे समाज अच्छी नजर से नहीं देखता है.

अगर आप भी किसी बेटी के बाप हैं और नशे के आदी हैं, तो आज ही इस से दूरी बना लें. शराब पीने की लत आप की बेटी के भविष्य को चौपट कर सकती है. आप इस से छुटकारा पाने के लिए अपने नजदीकी नशामुक्ति केंद्र जा सकते हैं. आप का यह फैसला आप की बेटी के भविष्य के सुनहरे पल लाने के लिए काफी होगा.

Twin Tower: ‘कुंडली भाग्य’ के इस एक्टर का भी टूटा घर, पिता का था सपनों का आशियाना

नोएडा में सुपरटेक के ट्विन टावर को गिराना चर्चा का विषय  रहा है. 28 अगस्त को गिराई गई इमारतें खबर का विषय बना हुआ है. एक्टर मनित जौरा ने अपनी प्रॉपर्टी खोई है. उन्होंने सोशल मीडिया पर बताया कि उन्होंंने इस इमारत में अपना पैसा लगाया था.

उन्होंने एक रिपोर्ट में बताया कि मेरे पिता को उस वक्त कोर्ट के चक्कर लगाने पड़े थें, और मुझे बहुत ज्यादा खराब लग रहा था. मेरे पिता ने अच्छे लोकेशन पर एक आशियाना का ख्वाब देखा था. जो कि पूरा नहीं हो सका. सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि खरादारों को ब्याज देना पड़ा होगा.

 

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मनित ने कहा कि ये सब लंबे वक्त तक नहीं चला वह कुछ दिनों तक ही दिया, मनित ने एक इंटरव्यू में बताया कि उनके पिता ने साल 2011 में इस सोसाइटी में फ्लैट बुक करवाया था, और उन्होंने सोचा था कि वह जाकर रहेंगे लेकिन सबकुछ बिल्कुल उल्टा हुआ. एक सपना बिखर सा गया.

उन्होंने 8 साल पहले कंपनी को केस करने का फैसला लिया था, उन्होंने बताया कि इस केस में बहुत ज्यादा खींच तान रही है यह मेरे परिवार के लिए भयानक सपनें से कम नहीं थां. जिसे उन्होंने न देखा न उसके बारे में कुछ ज्यादा सोचा होगा. मनित ने इसके बात चीत के वीडियो को सोशल मीडिया पर शेयर किया है.

 

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और विवाद

दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का बड़ा नाम है क्योंकि यहीं आमतौर पर पिछड़ों, दलितों, मुसलमानों, औरतों और कमजोरों की बातें जोरदार ढंग से रखने की इजाजत हैं. इसे कांग्रेस ने बनवाया और यहीं कांग्रेस के खिलाफ भ्रष्टाचार और नाइंसाफी के मामले सब से ज्यादा उजागर हुए. अब कट्टरपंथी पाखंडों में भरोसा रखने वाले पूजापाठी इस पर कब्जा करना चाहते हैं और इसे नक्सलवादी, अलगाववादी, टुकड़ेटुकड़े गैंग, लैफ्टिस्ट, माम्र्सवादी, अंबेडकरवादी वगैरा से नामों से पुकारते हैं.

हालांकि उसी विश्वविद्यालय के निकले कई आज सत्ता में ऊंचे पदों पर हैं पर फिर भी इस विश्वविद्यालय में कुछ ऐसा माहौल है कि यहां खुली बहस हो ही जाती है. भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने खास चुन कर यहां सांतिश्री धुलियदी पंडित के वाइस चांसलर बनाया कि इस विश्वविद्यालय पाखंड विरोधियों का सफाया किया जा सकेगा पर इस वाइस चांसलर को तो आजाद ख्यालों के कीड़े ने काट खाया और उन्होंने अंबेडकर लेक्चर सीरीज में पुरखों की कहानियों से अपनेआप साफ होती बात कह डाली कि ङ्क्षहदुओं का शायद ही कोई देवता ब्राह्मïण है.

न राम ब्राह्मïण थे, न कृष्ण, न शिव, न काली, न लक्ष्मी न गंगा, न गौमाता, न हनुमान न जगन्नाथ न वेंक्टेश्वर. गांवगांव बने मंदिरों में जिस देवतादेवी को पूजा जाता है और जिस पर कोई ब्राह्मïण बैठा चंदा जमा कर रहा है, वह ब्राह्मïण है, परशुराम शायद ब्राह्मïण थे पर उन के मंदिर यदाकदा ही हैं और वे भी वहांजहां दूसरे किसी देवीदेवता का एक विशाल मंदिर है.

जवाहर लाल नेहरू जैसे विश्वविद्यालय की जरूरत असल में हर जिले को है. देश के जहालत, पुराने रीतिरिवाजों, दानपुण्य, धर्म और जाति के नाम पर आए दिन होने वाले झगड़ों जिन में सिर्फ तूतू मैंमैं नहीं, दंगे, फसाद, लूट, रेप, रेड शामिल हैं से लोगों को निकालने के लिए जरूरी है कि नई सोच पनपे.

पढ़लिख कर भी हमारे देश के युवक व युवती सोच में हजारों साल पीछे हैं और इस सोच के साथ दकियानूसी तरह से ङ्क्षजदगी जीना तो है ही, अपना समय बर्बाद करना है.

किसी भी गांव कस्बे में चले जाइए. सब से साफ सुंदर चमचमाते मंदिर, मसजिद, गुरूद्वारे, चर्च मिलेंगे. स्कूलकालेज फटेहाल दिखेंगे. खाने की जगहों पर बदबू होगी. सरकारी औफिसों की दीवारों पर पान के निशान मिलेंगे. अदालतों और थानों दोनों में बिखरा सामान होगा.

ङ्क्षजदगी को खुशहाल बनाना है तो ऐसी सोच की जरूरत है तो लोगों के गहरे गढ़े से निकाले, न कि उन्हें उस में फिर से धकेले, जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय ऐसे चुंबक हैं जो नई सोच वालों को एक छत के नीचे ले आते हैं. कट्टरपंथी धर्म के नाम पर पौवर व पैसा बनाने वाले इन से चिढ़ते हैं. नई वाइस चांसलर का दिल बदला है या नहीं पर उन्होंने जो कहां वह उम्मीद जगाता है कि देश अभी भी पुरातनपंथियों के हाथों बिका नहीं है.

इलाज बना कारोबार

मरीजों की शारीरिक और मानसिक कमजोरी का फायदा उठा कर जेबें कैसे भरनी हैं, यह सफेद कोट वाले डाक्टर जानते हैं. अपने उपचार की सही जानकारी ले कर मरीज ऐसी धांधली से बच सकते हैं. बुखार से पीडि़त संदेशा इलाज के लिए नजदीकी प्राइवेट दफ्तर के पास गई. कुछ दिनों तक वहां उस का इलाज चला. इसी बीच उस के खून की जांच से ले कर कई दूसरी महंगी जांचें डाक्टर ने करा लीं. हफ्तेभर बाद भी संदेशा की सेहत में कोई सुधार नहीं आया,

बल्कि हालत और भी गंभीर हो गई. तब डाक्टर ने उसे अपने पहचान के माहिर के पास जाने की सलाह दी. वहां भी डाक्टर ने सारी जांचें कराईं, पर हफ्तेभर बाद भी संदेशा की हालत में कोई सुधार नजर नहीं आया. बिगड़ती हालत को देख हुए उस डाक्टर ने संदेशा को अस्पताल में भरती करने की सलाह दी और झट से एक अस्पताल का नाम लिख कर दे दिया. संदेशा की बिगड़ती हालत को देख कर पहले से ही उस के मातापिता की चिंता बढ़ी हुई थी और अस्पताल में भरती कराने की बात सुन कर वे और भी घबरा गए. उन्होंने तुरंत ही बिना सोचविचार किए संदेशा को अस्पताल में भरती करा दिया. जैसेतैसे अस्पताल में डिपौजिट जमा कर संदेशा के पिता राजनाथ बेटी को बैड पर लिटा ही रहे थे कि नर्स ने राजनाथ के हाथ में एक लंबा सा परचा थमा कर सामान लाने को कहा. वे तुरंत जा कर एक बौक्स भर सामान ले आए. इस के बाद कई दिनों तक यही सब चला.

अस्पताल में भी संदेशा की ढेर सारी जांचें की गईं. इलाज शुरू होने के बावजूद उस की हालत में खास सुधार नहीं आया. जब राजनाथ ने डाक्टर से बात करनी चाही, तो उन्हें जवाब मिला कि वे इलाज कर रहे हैं. ठीक होने में समय तो लगता ही है. परेशान राजनाथ ने अपने संबंधियों की सलाह से 6 दिन बाद संदेशा को अस्पताल से डिस्चार्ज करा लिया. अस्पताल का कुल बिल 50,000 रुपए के ऊपर चला गया. इस के अलावा अस्पताल में दवाओं व दूसरे जरूरी सामान में 10,000 रुपए खर्च हो चुके थे. राजनाथ संदेशा को ले कर अपने संबंधी के पहचान के एक डाक्टर के पास ले गए. वहां डाक्टर ने फिर से संदेशा के खून की जांच की और तब पता लगा कि उसे टायफाइड हुआ है.

गलत उपचार के चलते उस की हालत बिगड़ गई थी. आखिर में कुलमिला कर 75,000 रुपए के आसपास खर्च हुआ. उस पर भी चिंताजनक बात यह थी कि पूरे 9 महीने तक संदेशा बिस्तर से उठ न पाई थी. फायदा उठाते पेशेवर बीमारी की हालत में गरीब से गरीब आदमी पैसों के बारे में न सोचते हुए डाक्टर जो कहते हैं, उसे आंख मूंद कर मान लेता है. ऐसे हालात का पेशेवर सफेद कोट वाले डाक्टर पूरा फायदा उठाना जानते हैं. मरीजों की जान उन के लिए खास माने नहीं रखती. दरअसल, यह पेशा अब कारोबार बन गया है. इन की एक बड़ी चेन होती है, जिस में स्थानीय प्राइवेट दफ्तर से ले कर लैबोरेटरी व बड़ेबड़े अस्पताल शामिल होते हैं. दूसरे कारोबार की तरह यहां भी सारा काम कमीशन पर होता है. नवी मुंबई की रश्मि जोशी अपने खून में हीमोग्लोबिन की मात्रा की जांच कराने गईं.

लैब असिस्टैंट ने रश्मि की एक उंगली पर से स्लाइड पर 2 बूंद खून ले कर पूछा कि आखिरी बार की गई जांच में क्या रिपोर्ट आईर् थी? दूसरे दिन जब रश्मि ने रिपोर्ट देखी, तो वह पिछली रिपोर्ट जैसी थी. रश्मि को कुछ गड़बड़ लगा, इसलिए उस ने जांच के तरीके के बारे में जानना चाहा, तो लैब असिस्टैंट सकपका गया. उस ने बात को घुमाया और रश्मि से ऊंची आवाज में बात करने लगा. रश्मि ने लैब के डाक्टर से बात की, तब पता लगा कि लैब असिस्टैंट ने कोई जांच की ही नहीं थी. पिछली रिपोर्ट की जानकारी से उस ने पैसे बनाने के चक्कर में नई रिपोर्ट तैयार कर दी. ग्लूकोज वाले डाक्टर आजकल जचगी के वक्त ज्यादातर डाक्टर कोईर् न कोई वजह बता कर जरूरत न होने पर भी औरतों से सिजेरियन कराने के लिए कहते हैं. दरअसल, कुछ डाक्टरों के लिए मरीज केवल पैसा बनाने का जरीया होते हैं. यहां तक कि मुंबई समेत कई ऐसे शहर हैं,

जहां हर बीमारी का इलाज ग्लूकोज चढ़ा कर किया जाता है. ऐसी कई डिस्पैंसरी ग्लूकोज वाले डाक्टर के नाम से जानी जाती हैं. वहां ज्यादातर गरीब व मजदूर तबके के मरीज आते हैं. ऐसी डिस्पैंसरी में ग्लूकोज चढ़ाने को बच्चों के खेल से ज्यादा कुछ नहीं सम झा जाता. एक बार मरीज डिस्पैंसरी में आ जाए, तो चाहे बीमारी पकड़ में आए या न आए, ग्लूकोज व 2-3 रंगों के इंजैक्शन उस में मिला कर चढ़ाना और फिर मरीजों से पैसे ऐंठना उन का एकमात्र मकसद होता है. इस से बीमारी से आई कमजोरी को कुछ कम या कुछ समय के लिए हलका किया जाता है. ऐसे में इन बातों से अनजान मरीज अपनी जेब खाली कर खुशीखुशी घर चला जाता है. ऐसा हो भी क्यों न? जब इन पेशेवर लोगों ने डिगरी हासिल करने के लिए लाखों रुपए खर्च किए हैं, तो उन्हें वसूलने के लिए कोई न कोई रास्ता तो निकालना होगा. जागरूकता में कमी भारत की ज्यादातर जनता अपने बुनियादी हकों से अनजान है.

अनपढ़ता की वजह से वह डाक्टरों से सवालजवाब कर पाने में नाकाम है. कुछ लोग अपने थोड़ीबहुत जानकारी के साथ कुछ जाननेसम झने की कोशिश करते हैं, उन्हें एक ही डायलौग सुनने को मिलता है कि डाक्टर आप हैं या हम? सफेट कोट वाले यानी डाक्टर आम जनता को लूट पाने में इसलिए कामयाब हो पा रहे हैं, क्योंकि वे अपनी सेहत संबंधी हकों के प्रति जागरूक नहीं है. द्य बतौर ग्राहक मरीजों के हैं ये हक * मरीज को अपनी बीमारी के बारे मेंजानने का पूरा हक होता है.

* मरीज को अपने उपचार के जोखिम और असर को जानने का भी पूरा हक होता है.

* मरीज की बीमारी को पूरी तरह से राज रखा जाए.

* मरीज को अपने डाक्टर की पढ़ाईलिखाई जानने का पूरा हक होता है.

* मरीज द्वारा किसी भी उपचार के लिए दी गई सलाह पर दूसरी राय ली जा सकती है.

* अस्पताल का मरीज होने के नाते वहां के नियमकानूनों के साथसाथ सुविधाओं की पूरी जानकारी लेने का हक होता है.

* किए जाने वाले औपरेशन ले कर जोखिम तक की जानकारी मरीज को पहले से जानने का हक है. अगर मरीज इस हालत में नहीं है कि वह कुछ सम झ सके, तो उस के संबंधियों को बताया जाना जरूरी है.

* डाक्टरों से सलाह ले कर दूसरे अस्पताल में भरती हुआ जा सकता है.

* जरूरी नहीं है कि डाक्टर ने जहां से जांच कराने के लिए लिखा हो, वहीं से जांच कराई जाए. अपनी सुविधा के मुताबिक दूसरी जगहों पर विचार किया जा सकता है.

* मरीज को अपना केस पेपर हासिल करने का पूरा हक होता है.

* इमर्जैंसी में त्वरित उपचार लिया जा सकता है.

* मरीज को हक है कि मानव प्रयोग, अनुसंधान, किसी भी तरह की योजना वगैरह उस की देखरेख या उपचार पर असर डालती हो, तो वह असहमति जताए.

* मरीज अपने बिल का सारा ब्योरा मांग सकता है.

* उपचार के दौरान अगर मरीज की मौत हो जाती है और अगर परिवार मौत की वजह से सहमत नहीं है, तो मरीज के सगेसंबंधियों को पूरा हक है कि वे पोस्टमार्टम कराएं और उस की सारी रिपोर्ट हासिल करें. कुलमिला कर मरीज व उस के परिवार वाले सावधानियां बरतने के साथसाथ अपने हकों के प्रति जागरूक रह कर कारोबारी हो चुके डाक्टरों के चंगुल से बच सकते हैं.

दोस्ती की आड़ में कहीं सैक्स तो नहीं

अंतरा ने जब अपने पिता के ट्रांसफर के कारण नए शहर के एक नए स्कूल में दाखिला लिया तो उस की खुशी का ठिकाना न रहा, क्योंकि उस की खूबसूरती के कारण स्कूल के अधिकांश युवक उस से दोस्ती करना चाहते थे. जिस की वजह से कभी कोई उसे गिफ्ट देता तो कोई चौकलेट. किंतु शहरी लाइफस्टाइल और विपरीतलिंगी दोस्ती के गहरे अर्थों से अनजान अंतरा को यह रहस्य बिलकुल भी पता नहीं था कि इस के पीछे हकीकत क्या है. शुरूशुरू में तो अंतरा को यह सब अच्छा लगता था, क्योंकि उस से दोस्ती करने वालों और उसे चाहने वालों की लाइन जो लगी रहती थी, लेकिन अंतरा वह सब नहीं देख पा रही थी जो असल में इस दोस्ती के पीछे छिपा हुआ था. उस के लिए ऐसी दोस्ती का मतलब केवल बाहर होटल या रेस्तरां में लंच तथा डिनर करना, स्कूल कैंटीन और कौफी हाउस में कोल्डडिं्रक ऐंजौय करना और चौकलेट्स शेयर करना तथा दोस्तों की बर्थडे पार्टियों में केक खाना और मस्ती के साथ नाचगाना करने के रूप में सीमित था.

इन सब पार्टियों के कारण अंतरा अकसर स्कूल से अपने घर बड़ी देर से लौटती थी. उस के मम्मीपापा भी ज्यादा टोकाटाकी नहीं करते थे. इसलिए अंतरा खुल कर इन पलों को जी रही थी, लेकिन अंतरा के साथ एक दिन जो घटा उस की उस ने सपने में भी कल्पना नहीं की थी.

संयोग से एक दिन गौरव का बर्थडे था, जिसे अंतरा अपना सब से अच्छा दोस्त समझती थी, उस दिन अंतरा स्कूल के बाद अन्य दोस्तों के साथ गौरव का बर्थडे सैलिब्रेट करने के लिए शहर से कुछ दूर स्थित गौरव के फार्म हाउस गई. वहां केक, मिठाइयों और चौकलेट्स के साथसाथ शराब और बियर की बोतलें भी खुलीं. अंतरा इस से बच न सकी. नशे में बेखबर अंतरा वह सबकुछ कर रही थी, जिस का उसे जरा भी अंदाजा नहीं था.

नशे की हालत में धीरेधीरे उस के दोस्तों ने अंतरा के साथ छेड़खानी शुरू कर दी. पार्र्टी में अंतरा 10-12 दोस्तों के बीच अकेली लड़की थी. अपने बदन पर अपने दोस्तों की छुअन की सिहरन को अंतरा खूब महसूस कर रही थी, लेकिन जब अंतरा को लगा कि उस के साथ जबरदस्ती की जा रही है तो उसे अपनी गलती का एहसास हुआ. ऐसे में अपने दोस्तों से उस ने छोड़ने की मिन्नतें कीं, लेकिन वे सभी अंतरा की खूबसूरती के नशे में अंधे हो चुके थे.

अंतरा को जब लगा कि वे ऐसे नहीं मानेंगे तो वह जोरजोर से चिल्लाने लगी और पास में रखी खाली बोतलें खिड़कियों के शीशे पर मारने लगी. कहीं लोग इकट्ठे न हो जाएं इस भय से अंतरा के दोस्तों ने उसे छोड़ दिया. इस जाल से निकलने के बाद अंतरा को नए अनुभव के साथ नई जिंदगी मिली थी, जो उस के लिए बड़ी सीख थी.

सच पूछिए तो अंतरा जैसी निर्दोष और मासूम युवती के जीवन की व्यथा की यह कहानी एक लेखक की कोरी कल्पना हो सकती है, लेकिन वास्तविक दुनिया में इस तरह की सच्ची और कड़वी कहानियों से प्रिंट मीडिया के पेज और टैलीविजन के चैनल्स भरे रहते हैं. यह भी सच है कि इस तरह की घटना का शिकार होने वाली अंतरा वास्तविक जीवन और मौडर्न दुनिया में अकेली नहीं है. अंतरा जैसी कुछ युवतियां परिवार और समाज के भय से या तो आत्महत्या कर लेती हैं या फिर अपने पर किए गए जुल्मों को चुपचाप सह लेती हैं.

अहम प्रश्न यह उठता है कि जिस दोस्ती को मानव जीवन का अनमोल उपहार माना जाता है, आखिर उसी पवित्र रिश्ते को कलंकित करने की पृष्ठभूमि तैयार करने के लिए कौन जिम्मेदार होता है? साइकोलौजी के जनक कहे जाने वाले सिगमंड फ्रायड का यह मानना था कि मानो जीवन की हरेक ऐक्टिविटी केवल 2 उद्देश्यों से प्रभावित होती है, प्रसिद्धि पाने की लालसा और सैक्स. इस तरह सैक्स को मानव जीवन में एक कुदरती आवश्यकता के रूप में शुमार किया जाता है.

सच पूछिए तो किसी युवक और युवती के बीच दोस्ती संबंधों की मर्यादा और उस की पवित्रता का वहन करना कोईर् आसान काम नहीं होता. दोस्ती का यह रिश्ता जिस नाजुक डोर से बंधा होता है वह तनमन की हलकी सी गरमी से भी दरक उठता है. लिहाजा, यदि आप भी तथाकथित दोस्ती के किसी ऐसे बंधन से बंधे हुए हैं तो आप को इस पवित्र रिश्ते को स्वच्छ रखने के लिए अपने मन पर बड़ी कठोरता से नियंत्रण रखने की आवश्यकता है, क्योंकि युवक और युवतियों की दोस्ती के बंधन की उम्र बहुत छोटी होती है. ऐसा नहीं है कि इस प्रकार की दोस्ती की आड़ में केवल युवक ही सैक्सुअल रिलेशन बनाने की ताक में रहते हैं बल्कि युवतियां भी इस में पीछे नहीं रहतीं.

संस्कार जब एक छोटे से गांव से अपनी स्कूली पढ़ाई पूरी कर कालेज की पढ़ाई के लिए शहर आया तो उसे शुरू में सबकुछ अजीब सा लगता था. वह बहुत शर्मीले स्वभाव का था और वह युवतियां तो दूर युवकों से भी बड़ी मुश्किल से बात करता था. लेकिन वह बहुत होशियार था और पेरैंट्स उसे एक आईएएस औफिसर के रूप में देखना चाहते थे. वर्षा भी उसी की क्लास में पढ़ती थी और संस्कार के रिजर्व नेचर और होशियार होने के कारण उसे मन ही मन काफी चाहती भी थी, लेकिन वह संस्कार को इस बारे में बता पाने की हिम्मत नहीं जुटा पाती थी.

संयोग से एक दिन उस के कालेज का एक हिल स्टेशन पर जाने का प्रोग्राम बना और इस दौरान दोनों को बस में एकसाथ बैठने का मौका मिल गया. मौका पा कर वर्षा ने संस्कार के हाथों में हाथ डाल कर अपने मन की बात कह डाली. यह सुन संस्कार के होश उड़ गए और उस ने बिना सोचेसमझे ही उसे मना कर दिया, क्योंकि वह जिस बैकग्राउंड से आया था उस में उस के लिए इन सब चीजों को ऐक्सैप्ट करना संभव नहीं था.

ठीक है, तुम मुझे प्यार नहीं कर सकते तो हम दोनों दोस्त बन कर तो रह ही सकते हैं. क्या तुम मेरी फैं्रडशिप भी ऐक्सैप्ट नहीं करोगे? वर्षा ने प्यार के अंतिम तीर के रूप में जब यह प्रश्न संस्कार के सामने रखा तो संस्कार भावनाओं के सागर में गोते लगाने लगा और इस के लिए उस ने हामी भर दी.

दोस्ती के नाम पर अब वे दोनों साथ घूमतेफिरते, मस्ती करते. वक्त के साथ उन दोनों के बीच दोस्ती और भी गहरी होती गई और धीरेधीरे साथसाथ जीनेमरने की कसमें भी खाई जाने लगीं. वैलेंटाइन डे के दिन जब पूरा कालेज डांस और म्यूजिक में बिजी था तो संस्कार और वर्षा फरवरी की उस कुनकुनी ठंड में शहर के एक खूबसूरत पार्क में साथसाथ जीवन जीने के सपने बुन रहे थे.

सूरज डूब चुका था और शाम के साए में रोशनी धीरेधीरे खत्म हो रही थी. वहां से लौटते हुए वर्षा और संस्कार की करीबी में जीवन की सारी मर्यादाओं की रेखा मिट चुकी थी. दोस्ती के बंधन में प्यार और वासना की भूख ने कब सेंध लगा दी, इस का एहसास भी प्रेमी युगल को नहीं हो पाया.

जब इस प्रकार दोस्ती निभाने का प्रश्न उठता है तो ऐसा करना किसी तलवार की धार पर चलने से कम खतरनाक नहीं होता. पहले तो आप इस प्रकार के रिश्ते को अपने परिवार वालों से छिपा कर न रखें. महंगे गिफ्ट्स के ऐक्सचेंज से दूर रहने की कोशिश करें, क्योंकि जब इस प्रकार के महंगे गिफ्ट्स के ऐक्सचेंज की शुरुआत होती है तो एकदूसरे से अपेक्षाओं का दायरा काफी बढ़ जाता है और इस के साथ सब से बड़ी बात यह होती है कि इस प्रकार की अपेक्षाओं की कोई लक्ष्मण रेखा नहीं होती.

दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि किसी भी पार्टी और फंक्शन में अपने फ्रैंड्स के साथ अकेले जाने से परहेज करें, क्योंकि मन के आवेग का कोई भरोसा नहीं होता. यदि ऐसी पार्टियों में जाना निहायत जरूरी हो तो अपने परिवार के किसी सदस्य या फिर कौमन फैं्रड्स के साथ जाएं. ऐसा करने से आप सेफ रहेंगी.

मसला : नहीं डर कानून का?

भीड़ का गुस्सा भयावह होता जा रहा है. विरोध करने के चक्कर में सार्वजनिक जगहें और दूसरी चीजें निशाना बनती हैं. इस से सवाल उठते हैं कि क्या जनता का न्याय व्यवस्था से मोह भंग होता जा रहा है? क्या पुलिस के प्रति लोगों का विश्वास घटा है? क्या समाज में गिरावट आई है, जिस से लोग अपना आपा खो रहे हैं? क्या जल्दी इंसाफ नहीं मिलने की वजह से कानून को अपने हाथ में लेने की फितरत बढ़ी है? आखिर वे कौन सी वजहें हैं, जिन के चलते कानून के दायरे में रहने वाले कानून के खलनायक बनने लगे हैं? सड़क हादसे में एक बच्चे की मौत हो गई.

गांव वालों को गुस्सा आ गया और बस में आग लगा दी. एक घर में आग लगने पर फायर ब्रिगेड को फोन किया गया. देर से पहुंचने की वजह से घर जल कर खाक हो गया. भीड़ अपने गुस्से पर काबू नहीं रख सकी. उस ने फायर ब्रिगेड की गाड़ी को भी फूंक दिया. राशन की एक दुकान के लगातार बंद रहने पर भीड़ ने दुकान का ताला तोड़ कर दुकान में रखे सामान को लूट लिया. खाद नहीं मिलने पर किसानों द्वारा किए गए चक्का जाम में पुलिस के बल प्रयोग के बाद गुस्साए किसानों ने मुरैना जिले के सबलगढ़ कसबे में जम कर पथराव किया और पुलिस चौकी समेत कुछ दुकानों में आग लगा दी. साथ ही, अनुविभागीय दंडाधिकारी और पुलिस अधिकारों को विश्रामगृह में बंधक बना कर वहां पथराव किया. पुलिस ने बचाव में हवाई फायर किए और आंसू गैस का इस्तेमाल भी किया. मंदिर तोड़े जाने के खिलाफ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा आयोजित 3 घंटे के चक्का जाम का पूरे देश में व्यापक असर. संघ समर्थकों ने जम कर उपद्रव किया.

उन से निबटने के लिए पुलिस लाठीचार्ज और फायरिंग करनी पड़ी, जिस से कई घायल हुए और कई मौतें हुईं. राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के कार्यकर्ताओं की गुंडई के विरोध में रेल यात्रियों के साथ छात्रों ने मारपीट की. ‘जय श्रीराम’ का नारा दलितों और मुसलमानों से बुलवाने के चक्कर में हर रोज कहीं न कहीं फसाद खड़ा हो जाता है. सरकारी पार्टी की शह पर लोग और ज्यादा उग्र हो रहे हैं और कानून हाथ में ले रहे हैं. दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष आदेश गुप्ता खुलेआम अपने कार्यकर्ताओं को कह रहे हैं कि घरघर जा कर चैक करो कि वहां बंगलादेशी और रोहिंग्या शरणार्थी रह रहे हैं, जबकि यह काम सरकार का है और आदेश गुप्ता न मंत्री हैं, न मुख्यमंत्री. भारत में बढ़ते गुस्से के ये वे सीन हैं, जिन का दोहराव हर शहर में अलगअलग रूपों में आएदिन देखने को मिलता है. पूरे देश में आम लोगों को गुस्सा होने का हक दिया जा रहा है. यह तपिश की तरह तेज होता जा रहा है. इस गुस्से में निजी फायदा ही छिपा है और दूसरे का अहित भी. कई गुस्से ऐसे भी हैं, जिन से किसी को कुछ लेनादेना नहीं है, फिर भी भीड़ के भयावह तंत्र का हम और आप सभी एक हिस्सा बन जाते हैं. किसी चौराहे पर बेवजह किसी रिकशे वाले को कोई पुलिस वाला पीटता है, तो अनायास ही अंदर से गुस्सा उबल पड़ता है. मन करता है कि पुलिस के हाथ से डंडा छीन कर उसे ही धुन दें.

कानून को अपने हाथ में लेने की फितरत आखिर क्यों बढ़ रही है? कानून को अपने हाथ में ले कर पुलिस, प्रशासन, न्यायपालिका और राजतंत्र के खिलाफ छापामार लड़ाई छेड़ने के लिए भारत आदी क्यों होता जा रहा है? एक जमाने में यह हालत सिर्फ बिहार की थी, आज पूरे देश में ऐसी ही शासन शैली बन गई है. यह हर प्रदेश में घनी होती जा रही है. भीड़ का हिस्सा और यह भी भयावह बनाने के लिए कौन दोषी है? यह गुस्सा आखिर आता कहां से है? कौन इतना गुस्सा देता है? ये ऐसे सवाल हैं, जिन का जवाब कानून के पास नहीं है और न ही समाज के पास. इन घटनाओं का सीधा सा जवाब है समाज में आई गिरावट और इंसाफ मिलने में हो रही देरी. इस घटना को ही देख लीजिए. मध्य प्रदेश के एक दूल्हे की बरात में नाचगाना कर रहे बरातियों में से 4 लोगों को एक ट्रक ने रौंद दिया.

उस के बाद बरातियों ने कई दुकानें जला दीं और उस ट्रक में आग तो लगाई ही साथ ही सड़क के किनारे खड़े 4-5 दूसरे वाहनों को भी फूंक दिया. पुलिस के आने के पहले तकरीबन घंटाभर तक भीड़ ने आसपास के इलाकों में काफी उत्पात मचाया. राह चलती औरतों और लड़कियों को छेड़ने वाले एक तथाकथित दादा को 20 से ज्यादा लोगों ने उस के घर में धावा बोल कर उस की पिटाई कर दी. उसे लहूलुहान कर दिया. उस के हाथपैर तोड़ डाले. पुलिस से शिकायत करने के बाद भी कोई हल नहीं निकलने पर लोगों ने कानून को अपने हाथ में ले लिया. कई जगहों में भीड़ तत्काल इंसाफ खुद कर देती है. गौरक्षकों को तो ट्रेनिंग दी जा रही है कि खुद ही मारपीट कर किसी को भी सजा दे दो.

मध्य प्रदेश के सिवनी जिले में 2 दलित आदिवासियों की हत्या मई, 2022 में कर दी गई. उन के इंसाफ करने के तरीके को देख कर लगता है कि सजा देने का कानून पुलिस से जंगल से सीख कर आए हैं. अब हर प्रदेश के शहरों में यह दिखने लगा है. समाज में ये ज्यादातर घटनाएं जाति, वर्ग, धर्म और अंधश्रद्धा से जुड़ी हैं. जब हर शहर में, गांवों में और जिलों में हिंसा को इस रूप में देखा जाता है, तो सहज ही सवाल उठने लगता है कि क्या उन संस्थाओं के प्रति असहिष्णुता बढ़ रही है, जिन पर कानून व्यवस्था बनाए रखने और इंसाफ देने का जिम्मा है? किसी पार्टी के नेता को पुलिस ने पीट दिया, तो उस के समर्थक सड़कों पर उतर आते हैं. सभी तरह के गुस्से के मूल में कोई चाह होती है, जो पूरी नहीं होने पर अचानक ज्वालामुखी की तरह फूट पड़ती है. बिजली नहीं मिली, तो लोगों ने गुस्से में आ कर बिजली के सबस्टेशन में आग लगा दी. एक पब में कट्टरपंथियों ने औरतों पर हमला किया. वे इस बात से नाराज थे कि वे औरतें मुसलिम मर्दों के साथ हंसबोल रही थीं और महिलाएं शराब पी रही थीं.

इस मसले पर शिक्षिका डाक्टर संगीता शर्मा कहती हैं, ‘‘हिंसा बीमारी नहीं, सिस्टम खराब होने का लक्षण है, जो बताता है कि सरकारी तंत्र में कहीं खराबी आ गई है. बारबार शिकायत करने के बाद भी सुधार नहीं होने पर खीज कर लोग हिंसक हुए हैं. वैसे भी जनता में अब सहनशीलता दिनोंदिन घटती जा रही है. ‘‘मनोवैज्ञानिकों की नजर में हिंसा कुंठा की उपज है और कुंठा के मूल में होती है अधूरी इच्छा. भारत के लिहाज से देखें तो जब किसी इनसान की रोटी, शिक्षा, सुरक्षा और स्वास्थ्य आदि बुनियादी सुविधाओं में किसी तरह की कमी होती है या पूरी नहीं होती, तो इस से कुंठा जन्मती है और कुंठित आदमी का हिंसक या आक्रामक होना लाजिमी है.’’ भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता. हर भीड़ एकदम से आक्रामक नहीं होती. भीड़ दिमाग से कम भावनाओं से ज्यादा काम लेती है. इस में दोराय नहीं है कि मामले के निदान में निजी कोशिश नाकाम हो जाती है,

तो भीड़ का सामूहिक प्रयास ही कभीकभी समस्या के निदान का कारक बन जाता है, लेकिन यह वजह हमेशा कारगर साबित नहीं होती. लोगों में कानून को हाथ में लेने की फितरत बढ़ने के पीछे कोई एक वजह नहीं है. हमेशा कानून के सहारे रहने से खुशी नहीं मिलती. उषा अवस्थी कहती हैं, ‘‘अगर भीड़ किसी को सजा दे रही है, तो यह साफ संकेत है कि कानून व्यवस्था और न्याय व्यवस्था को ले कर लोगों में किस कदर घोर निराशा है. हो सकता है कि कानून हाथ में लेने से निर्भीक अपराधियों में डर पैदा हो और वे अपराध करने से पहले सौ बार सोचें.’’ हम जब ट्रेन या बस में सफर करते हैं, तो किनारे पर लिखा होता है कि यात्री अपने सामान की हिफाजत खुद करें यानी रोडवेज, निजी बस औपरेटर या रेलवे आप के सामान की सुरक्षा की जिम्मेदारी नहीं लेता.

ऐसे में किसी यात्री के सामान को कोई चोर ले कर भाग रहा हो या किसी यात्री को कोई बदमाश चाकू मार रहा हो या फिर कोई लोफर किसी औरत या लड़की को छेड़ रहा हो, तो दूसरे मुसाफिर उस अपराधी को पकड़ कर मारने लगें, तो कानून हाथ में लेना कैसे हो गया? बहुत जगहों पर और मामलों में पुलिस का इंतजार नहीं किया जा सकता और न ही न्याय व्यवस्था का. समाज इसे सामान्य मानेगा, तो वहां कानून को तो हाथ में लिया ही जाएगा. आज देश में भारतवासियों को कई तरह का गुस्सा आता है. पर कई मामले में नहीं भी आता. भ्रष्टाचार, जहरीली शराब से होने वाली मौत, शहर में बढ़ते अपराध, बलात्कार की घटनाएं, रेल दुर्घटना आदि ऐसी घटनाएं हैं,

जिन के होने पर लोगों की धार्मिक या राष्ट्रप्रेम की भावनाएं नहीं जागतीं, इसलिए कि समाज ने भ्रष्टाचार को स्वीकार कर लिया है. वह इस बात को मानता है कि कहीं न कहीं हम खुद दोषी हैं. शहर में बढ़ते अपराध पर एक वर्ग इसलिए कुछ नहीं बोलता कि वह पीडि़त नहीं है. रेप की घटनाओं को भी गंभीरता से लोग अब नहीं लेते, तब तक कि जब कोई मासूम पीडि़त न हो या लगातार ऐसी वारदात न हो. जहरीली शराब पर होने वाली मौत पर भी यह कह कर कि शराब जब जहर है, चुप्पी साध लेते हैं. जानते हैं, तो फिर क्यों पी? इसी तरह से नक्सलियों और आतंकवादियों की हरकतों पर गुस्सा कम भड़कता है. संसद भवन को उड़ाने,

मुंबई के ताज होटल और छत्रपति शिवाजी स्टेशन पर आतंकवादियों की दहशत भरी हरकतों पर गुस्सा आता है, लेकिन उस से भी ज्यादा गुस्सा देश की कानून व्यवस्था और राजनीतिक लोगों पर. अब गुस्से को चैनेलाइज कर लिया गया है. फिलहाल यह मुसलिम समाज के खिलाफ है, हिजाब के खिलाफ है, बहुविवाह को ले कर है. पर कल यह गाज किसी पर भी गिर सकती है. जो चंदा न दे, उस पर गिर सकती है. जो सड़क पर चलते हुए कहीं नारे न लगाए, उस पर गिर सकती है. जो विपक्षी दल का है, उस पर गिर सकती है. सामूहिक हिंसा के रूप अलग देखने को मिल रहे हैं. कई बार गलीमहल्ले की घटनाओं में भीड़ उमड़ पड़ती है. उग्र प्रदर्शन भी करती है. ऐसे प्रदर्शन के पीछे बाहरी तत्त्वों का हाथ ज्यादा होता है. कहानी कुछ होती है, लेकिन अंजाम दूसरा निकलता है.

भीड़ को पता भी नहीं होता कि वो किस बात पर उग्र है, लेकिन वह धार्मिक तत्त्वों की वजह से आक्रामक हो जाती है. आक्रामकता दिखाना वीरता नहीं है. वीरता तो सही जगह आक्रामक होने पर है. अधिकारों के प्रति जागरूक होना चाहिए, साथ ही साथ कर्तव्यों के प्रति भी सचेत रहना चाहिए. हिंसा को मीडिया में ज्यादा जगह मिलने से भी लोग हिंसा के रास्ते पर चल कर चर्चित होने के लिए सड़क की राजनीति को अख्तियार कर लेते हैं. यह सच है कि सड़क की राजनीति किसी भी सरकार की नींद में खलल पैदा करने के लिए काफी है. राजस्थान के गुर्जर आरक्षण के लिए कितना हिंसक हुए जगजाहिर है. भले ही बात उस समय नहीं बनी, लेकिन उन्होंने जो उन्माद दिखाया, वह लोकतंत्रीय व्यवस्था में उचित नहीं है. जिस बात से लोक के तंत्र को नुकसान हो, उसे अंजाम नहीं देना चाहिए, हिंसा से बचना चाहिए.

लूट का जरिया बन रही टैक्नोलौजी !

टैक्नोलौजी गरीबों, कम पढ़ेलिखे नौजवानों, बेचारों, बेरोजगारों को कैसे पूरी तरह लूट का जरिया बनती जा रही है, इस का सब से बड़ा नमूना है एप्प के जरिए फलफूल रहा व्यापार. इस में एप्प में चलाई जा रही टैक्सी सॢवसें, फूड डिलीवरी सॄवसें, दवाओं को घरघर पहुंचाने की सॢवसें, मेडिकल टेस्ट कराने की सॢवसें, ब्यूचोलियों, कारपेंटरों, इलैक्ट्रिशियनों की सॢवसें शामिल हो चुकी हैं. अपने खुद के नाम से सेवा देने वालों की कमी होती जा रही है और एयर कंडीशंड आफिसों में कंप्यूटरों के आगे बैठे लोग जमीन पर तपती धूप और कड़ाके की ठंड में काम कर रहे लोगों को चूस रहे हैं क्योंकि उन के पास मोबाइल से हर हाथ पहुंचने वाली टैक्नोलौजी है.

इन सेवाओं को देने वालों ने अपने यूनियनों को बनाने की कोशिश शुरू की है हालांकि यह 1857 की अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई की तरह बेमतलब की साबित होगी क्योंकि इन के पास न टैक्नौलौजी न स्ट्रेरेजी.

दुनिया भर में वह गरीब रहेगा जो नई टैक्नीक को नहीं अपनाएगा और नई टैक्नीक की जानकारी अब इसी मंहगी कर दी गई है कि केवल अमीरों के बच्चे ही जा सकते हैं. ये गरीब पहले छोटी दुकानों में या छोटे खोखों में काम करते थे, अब बड़ी, कईकई देशों में फैली कंपनियों के जरिए काम कर रहे हैं क्योंकि कंपनी के पास टैक्नोलौजी है. वे ग्राहकों, उत्पादकों और डिलिवरी करने वालों सब को लूट सकते हैं.

फूड डिलिवरी का एक नमूना इन बिग सेवा देने वालों की मीङ्क्षटग में बताया गया. इन्हें इंसैङ्क्षटव दिया गया कि यदि एक दिन में 23 डिलिवरी करेंगे तो एक्स्ट्रा पैसे मिलेंगे पर कंप्यूटर सिस्टम सेवा बनाया कि वह 20 आर्डरों के बाद नया आर्डर देगा ही नहीं. केवल छुट्टियों और त्यौहार के साल में 10-95 दिन यह एक्स्ट्रा कमाई हो सकती है.

टेक्नोलौजी के जरिए इन बिग सेवा देने वाली कंपनियों ने कोने की किराने की दुकान का धंधा कम कर दिया, पलंबर को बेकार कर दिया, कैमिस्ट खाली रहने लगा, रेस्ट्राओं का बिजनैस कम हो गया, क्लाउड  किचन चल गईं जिस में किचन का नाम है पर रेस्ट्रा है ही नहीं. इन सब की जान डिलिवरी देने वाले, मेडिकल सैंपल लेने वाले, ब्यूटिशियन, जिम, कारपैंटरी की सेवा देने वाले हैं पर न वे दाम तय करते हैं, न क्वालिटी, टैक्नोजौली कंपनी और ग्राहक के बीच में फंस कर रह गए हैं. मोटर साइकलों पर ये घुड़संवार सैनिकों की वह लाइन है जिस पर लड़ाइयां जीती जाती हैं पर मरते सब से ज्यादा इन्हीं में से हैं.

टैक्नोलौजी बुरी नहीं होती पर आमतौर पर हर युग में टैक्नोलौजी का इजाद करने वाले या कंट्रोल करने वालों के राज किया है और उन से काम कराते वाले फक्कड़ गरीब बने रहे हैं. आज अमेजन की डिलिवरी हो, स्वीगी का फूड पार्सल या 1 एमजी की वलड टेङ्क्षस्टग, जो ग्राहक के संपर्क में आता है उसे न सामान के बारे में काम आता है, न खाने के बारे में न टेङ्क्षस्टग की कला के बारे में उबर या ओला वाला ड्राइवर कंपनी की टैक्नोलौजी के दिए गए रूप पर चल कर ग्राहक लेता है और उसी टैक्नोलौजी के बताए रास्ते पर चल कर पहुंचाता है, उसे कंपनी क्या देगी, यह कंपनी की मर्जी है.

बिग सिस्टम ने ‘मैं ने इसे बनाया’ बड़ी तसल्ली का हक हरेक कामगार से छीन लिया है. यह जलन बेबस है, लाचार है.

नीतीश कुमार अपने पलटियों के लिए हैं बदनाम

नीतीश कुमार अपनी पलटियों की वजह से राजनीतिक हल्कों में अपनी इज्जत तो खो चुके थे पर इस बार उन्होंने मोदीशाह जोड़ी को तुर्की ब तुर्की जवाब दे कर जता दिया कि जो ड्रामा वे करते हैं, दूसरे भी कर सकते हैं. ङ्क्षहदूत्व आज उतना जोर नहीं मार रहा जितना ईडी, इंकमटैक्स, पुलिस, सेना, बुलडोजर भर रहा है. भारतीय जनता पार्टी का मंदिर कार्ड आज भी चल रहा है पर उस के फैलाए सपनीले परदों के नीचे बेहद बढ़ती बदबू व सडऩ अब जनता को खाने लगी है.

जब कभी मुसलिम शासक, मुगल, फ्रैंच, पौर्तुगाली, उठा और अंग्रेज इस देश में आए तो जनता ने चुपचाप उन को आने दिया क्योंकि तब के राजाओं को मंदिर बनाने, यज्ञ हवन कराने, जनता की जगह पूजापाठियों का खयाल रखने से फुर्सत नहीं होती थी. जिस तरह आज आम जनता मंहगाई, बेरोजगारी, तानाशाही और बुलडोजरी घौंस से छटपटा रही है, उसी तरह उस युग की जनता ने हार कर विदेशियों का मुंह देखना ज्यादा अच्छा समझा था.

नीतीश कुमार का हाल मायावती, अकाली दल, शिवेसना, जैसा कर देने की सीख भारतीय जनता पार्टी को पौराणिक कहानियों में ही मिली है जिस में भाईभाई को दगा देता है. रामायण और महाभारत के जितने महान लोग थे. सब की अपनो से नाराजगी थी चाहे वह कैकई हो, विभिषण हो, शकुनी हो, दादा भीष्म हों. नीतीश कुमार के नीचे से कालीन ङ्क्षखचवाने के चक्कर में लगी भाजपा को पटखनी दे कर एक सबक तो सिखाया गया है अब जज, पुलिस, इंक्मटैक्स, ईडी सब पटना में जमा हो जाएंगे जैसे कुरूक्षेत्र में हुए थे और चाहे गरीब राज्य का नुकसान हो, वहां से खबरें छापों की आएंगी, नए निर्माणों की नहीं.

भाजपा की सोच वाले लालूयादव के साथ एक बार ऐसा कर चुके हैं और झूठेसच्चे चारा घोटाले में उसे फसा कर उस कैरियर समाप्त कर चुके हैं. अब खीसिया कर वही दोहराया जाएगा. नवीन पटनायक, जगन रैट्डी, केसीआर को चेतावनी दी जा चुकी है.

बिहार की बात राजनीतिक उठापटक पर हो, यह अफसोस है. बिहार जितने होथियार लोग देश को दिए हैं, उतने शायद किसी और राज्य ने नहीं दिए. उतने शायद किसी और राज्य ने नहीं दिए. मौर्चा युग में बिहार ही देश का सब से अमीर इलाका रहा है. आज भी दुनिया भर में फैले भारतीय भूल के लोग, चाहे वे कोई काम कर रहे हैं, ज्यादातर बिहार के हैं.

बिहार का शोषण किया गया है और भाजपाई सोच वाले ऊंची जातियों के लोग उसे लगातार दुहना चाहते हैं और यह तभी संभव है जब धर्मकर्म वालों की सरकार हो. कांग्रेस के जमाने में जो सरकारें थीं, वे भारतीय जनता पार्टी की सरकारों से बढ़ कर पूजापाठी थीं. अब नीतीश कुमार और तेजस्वी की सरकार जो बनेगी, उसे बिहार के दलदल से निकालने का मौका मिलेगा. वैसे केंद्र सरकार शायद ऐसा नहीं होने देगी और पैसा छीन कर उस का गला घोंटे रखेगी.

नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव जब तक अपनी बात जनता तक नहीं ले जाएंगे, उन का कल्याण नहीं होगा. उन्हें सब से पहले पूजापाठियों से निपटना है जो आसान नहीं है.

दिल्ली: सीबीआई और मनीष सिसोदिया के बहाने भाजपा का सच

दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदियाजिन के पास शिक्षा व आबकारी विभाग हैंआजकल भारतीय जनता पार्टी के निशाने पर हैं. जी हांसीबीआई जांच के साथ ही जिस तरह उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया को भारतीय जनता पार्टी के विभिन्न बड़े नेताओं द्वारा निरंतर निशाना बनाया जा रहा हैउस से साबित हो जाता है कि भाजपा की मंशा क्या है. 

मगर कहते हैं न, ‘चोर की दाढ़ी में तिनका’. सीबीआई जांच कर रही है और भाजपा के सारे नेता आक्रामक हो गए हैं. इस का सीधा सा संदेश देश की जनता में यही जा रहा है कि जिस तरह कौरवों ने चक्रव्यूह बना कर अभिमन्यु को मार डाला थाआज की भाजपा भी आप पार्टी के खिलाफ चक्रव्यूह रच रही है.

देश और दुनिया का एक सब से निष्पक्ष कहा जाने वाला मीडिया संस्थान बीबीसी है. इस में जब मनीष सिसोदिया के सीबीआई जांच की रिपोर्टिंग प्रसारित की गईतो आश्चर्यजनक तरीके से मनीष सिसोदिया के पक्ष में कमैंट्स देखे गएजिस में लोगों ने उन का साथ दिया और भाजपा को लताड़ा.

इस समाचार बुलेटिन में कमैंट के रूप में बहुत सारे लोगों ने मनीष सिसोदिया को ईमानदार और एक काम करने वाला नेता माना और उन्होंने भाजपा की कटु निंदा की. यह एक उदाहरण हैजिस के माध्यम से आप पार्टी पर कसा जाने वाला सीबीआई का शिकंजा और उस की कथा उजागर हो गई.

न्यूयौर्क टाइम्स’ में तारीफ

एक आश्चर्यजनक घटना घटित हुई. दुनिया के नामचीन मीडिया संस्थानों में से एक न्यूयौड्डर्क टाइम्स’ में दिल्ली की शिक्षा व्यवस्था की तारीफ की गई. यही नहींयह भी सच है कि देशभर में आज दिल्ली के स्कूलों की शिक्षा व्यवस्था और चिकित्सा व्यवस्था पर जोरदार चर्चा चल रही हैजिस से भारतीय जनता पार्टी चिंतित दिखाई देती है.

इधरअमेरिकी अखबार न्यूयौर्क टाइम्स’ ने दिल्ली की शिक्षा व्यवस्था पर अपनी स्टोरी को निष्पक्ष और जमीनी रिपोर्टिंग’ पर आधारित बताते हुए पेड न्यूज’ के आरोपों को खारिज कर दिया.

सीबीआई ब्यूरो द्वारा दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया के आवास पर छापेमारी के बाद अखबार के आलेख को ले कर भाजपा और आप के बीच वाकयुद्ध शुरू हो गया था. आप सरकार की आबकारी नीति को तैयार करने और इस की अनियमितताओं को ले कर सीबीआई ने यह कार्यवाही की.

मनीष सिसोदिया के पास शिक्षा और आबकारी विभाग की भी जिम्मेदारी है. आप ने कहा कि जब न्यूयौर्क टाइम्स’ ने शिक्षा के दिल्ली मौडल पर सकारात्मक खबर छापी तो नरेंद्र मोदी की केंद्र सरकार ने सीबीआई को मनीष सिसोदिया के घर भेज दियावहीं भाजपा ने खिसियानी बिल्ली खंभा नोंचे की तर्ज पर कहा कि यह एक पेड’ आलेख है.

सवाल है कि बिना सुबूतों और जांच के आप यह कैसे कह सकते हैं कि यह पेड न्यूज है?

न्यूयौर्क टाइम्स’ की बाह्य संचार निदेशक निकोल टायलर ने एक ईमेल में लिखा, ‘दिल्ली की शिक्षा व्यवस्था में सुधार के प्रयासों के बारे में हमारी रिपोर्ट निष्पक्षजमीनी रिपोर्टिंग पर बनी है.

इस के साथ यह भी नहीं भूलना चाहिए कि दिल्ली की शिक्षा व्यवस्था की चर्चा देशभर के गलीकूचे में हो रही है. जैसा कि हम जानते हैं सच को छिपाया नहीं जा सकतावह धीरेधीरे लोगों तक पहुंच ही जाता है.

सीबीआई क्या बोली

केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो की प्राथमिकी में कहा गया है कि मनोरंजन और इवैंट मैनेजमैंट कंपनी ओनली मच लाउडर’ के पूर्व मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) विजय नायरपरनोड रिकौर्ड के पूर्व कर्मचारी मनोज रायब्रिंडको स्पिरिट्स के मालिक अमनदीप ढल और इंडोस्पिरिट्स के मालिक समीर महेंद्र अनियमितताओं में शामिल थे.

गुड़गांव में बड़ी रिटेल प्राइवेट लिमिटेड के निदेशक अमित अरोड़ादिनेश अरोड़ा और अर्जुन पांडे मनीष सिसोदिया के करीबी सहयोगी’ हैं और आरोपी लोकसेवकों के लिए शराब लाइसैंसधारियों से एकत्र किए गए अनुचित आर्थिक लाभ के प्रबंधन और स्थानांतरण करने में सक्रिय रूप से शामिल थे.

दिनेश अरोड़ा द्वारा प्रबंधित राधा इंडस्ट्रीज को इंडोस्पिरिट्स के समीर महेंद्र से एक करोड़ रुपए मिले. अरुण रामचंद्र पिल्लईविजय नायर के माध्यम से समीर महेंद्र से आरोपी लोकसेवकों को आगे स्थानांतरित करने के लिए अनुचित धन एकत्र करता था.

अर्जुन पांडे नाम के एक आदमी ने विजय नायर की ओर से समीर महेंद्र से  तकरीबन 2-4 करोड़ रुपए की बड़ी नकद राशि एकत्र की. सनी मारवाह की महादेव लिकर्स को योजना के तहत एल-1 लाइसैंस दिया गया था.

यह भी आरोप है कि दिवंगत शराब कारोबारी पोंटी चड्ढा की कंपनियों  के बोर्ड में शामिल मारवाह आरोपी लोकसेवकों के निकट संपर्क में था.

 

 

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