इसमें बुरा क्या है : बेला की बेबसी

Social Story in Hindi: एक जवान लड़की का खूबसूरत होना उस के लिए इतना घातक भी हो सकता है… और अगर वह दलित हो, तो कोढ़ में खाज जैसी हालत हो जाती है. आज बेला इस बात को शिद्दत से महसूस कर रही थी. बौस के चैंबर से निकलतेनिकलते उस की आंखें भर गई थीं. भरी आंखों को स्टाफ से चुराती बेला सीधे वाशरूम में गई और फूटफूट कर रोने लगी. जीभर कर रो लेने के बाद वह अपनेआप को काफी हलका महसूस कर रही थी. उस ने अपने चेहरे को धोया और एक नकली मुसकान अपने होंठों पर चिपका कर अपनी सीट पर बैठ गई.

बेला टेबल पर रखी फाइलें उलटनेपलटने लगी, फिर उकता कर कंप्यूटर चालू कर ईमेल चैक करने लगी, मगर दिमाग था कि किसी एक जगह ठहरने का नाम ही नहीं ले रहा था. रहरह कर बौस के साथ कुछ देर पहले हुई बातचीत पर जा कर रुक रहा था.

तभी बेला का मोबाइल फोन बज उठा. देखा तो रमेश का मैसेज था. लिखा था, ‘क्या सोचा है तुम ने… आज रात के लिए?’

बेला तिलमिला उठी. सोचा, ‘हिम्मत कैसे हुई इस की… मुझे इस तरह का वाहियात प्रस्ताव देने की… कैसी नीच सोच है इस की… रसोईघर और पूजाघर में घुसने पर दलित होना आड़े आ जाता है, मगर बिस्तर पर ऐसा कोई नियम लागू नहीं होता…’

मगर यह कोई नई बात तो है नहीं… यह तो सदियों से होता आया है… और बेला के साथ भी बचपन से ही… बिस्तर पर आतेआते मर्दऔरत में सिर्फ एक ही रिश्ता बचता है… और वह है देह का…

बेला अपनेआप से तर्क करते हुए तकरीबन 6 महीने पहले के उस रविवार पर पहुंच गई, जब वह अपने बौस रमेश के घर उन की पत्नी को देखने गई थी. बौस की 3 महीने से पेट से हुई पत्नी सीमा सीढ़ियों से नीचे गिर गई थी और खून बहने लगा था. तुरंत डाक्टरी मदद मिलने से बच्चे को कोई नुकसान नहीं हुआ था, मगर डाक्टर ने सीमा को बिस्तर पर ही आराम करने की सलाह दी थी, इसीलिए बेला उस दिन सीमा से मिलने उन के घर चली गई थी.

रमेश ने बेला के सामने चाय का प्रस्ताव रखा, तो वह टाल नहीं सकी. बौस को रसोईघर में जाते देख बेला ने कहा था, ‘सर, आप मैडम के पास बैठिए. मैं चाय बना कर लाती हूं.’ रमेश ने सीमा की तरफ देखा, तो उन्होंने आंखों ही आंखों में इशारा करते हुए उन की तरफ इनकार से सिर हिलाया था, जिसे बेला ने महसूस कर लिया था.

खैर… उस ने अनजान बनने का नाटक किया और चाय रमेश ही बना कर लाए. बाद में बेला ने यह भी देखा कि रमेश ने उस का चाय का जूठा कप अलग रखा था. हालांकि दूसरे ही दिन दफ्तर में रमेश ने बेला से माफी मांग ली थी. उस के बाद धीरेधीरे रमेश ने उस से नजदीकियां बढ़ानी भी शुरू कर दी थीं, जिन का मतलब अब बेला अच्छी तरह समझने लगी थी.

उन्हीं निकटताओं की आड़ ले कर आज रमेश ने उसे बड़ी ही बेशर्मी से रात में अपने घर बुलाया था, क्योंकि सीमा अपनी डिलीवरी के लिए पिछले एक महीने से मायके में थी. क्या बिस्तर पर उस का दलित होना आड़े नहीं आएगा? क्या अब उसे छूने से बौस का धर्म खराब नहीं होगा?

बेला जितना ज्यादा सोचती, उतनी ही बरसों से मन में सुलगने वाली आग और भी भड़क उठती. सिर्फ रमेश ही क्यों, स्कूलकालेज से ले कर आज तक न जाने कितने ही रमेश आए थे, बेला की जिंदगी में… जिन्होंने उसे केवल एक ही पैमाने पर परखा था… और वह थी उस की देह. उस की काबिलीयत को दलित आरक्षण के नीचे कुचल दिया गया था.

बेला की यादों में अचानक गांव वाले स्कूल मास्टरजी कौंध गए. उन दिनों वह छठी जमात में पढ़ती थी. 5वीं जमात में वह अपनी क्लास में अव्वल आई थी.

बेला खुशीखुशी मिठाई ले कर स्कूल में मास्टरजी को खिलाने ले गई थी. मास्टरजी ने मिठाई खाना तो दूर, उसे छुआ तक नहीं था. ‘वहां टेबल पर रख दो,’ कह कर उसे वापस भेज दिया था. बेला तब बेइज्जती से गड़ गई थी, जब क्लास के बच्चे हंस पड़े थे.

बेला चुपचाप वहां से निकल आई थी, मगर दूसरे ही दिन मास्टरजी ने उसे स्कूल की साफसफाई में मदद करने के बहाने रोक लिया था. बेला अपनी क्लास में खड़ी अभी सोच ही रही थी कि शुरुआत कहां से की जाए, तभी अचानक मास्टरजी ने पीछे से आ कर उसे दबोच लिया था.

बेला धीरे से बोली थी, ‘मास्टरजी, मैं बेला हूं…’

‘जानता हूं… तू बेला है… तो क्या हुआ?’ मास्टरजी कह रहे थे.

‘मगर, आप मुझे छू रहे हैं… मैं दलित हूं…’ बेला गिड़गिड़ाई थी.

‘इस वक्त तुम सिर्फ एक लड़की का शरीर हो… शरीर का कोई जातधर्म नहीं होता…’ कहते हुए मास्टरजी ने उस का मुंह अपने होंठों से बंद कर दिया था और छटपटाती हुई उस मासूम कली को मसल डाला था. बेला उस दिन आंसू बहाने के अलावा कुछ भी नहीं कर सकी थी. बरसों पुरानी यह घटना आज जेहन में आते ही बेला का पूरा शरीर झनझना उठा. वह दफ्तर के एयरकंडीशंड चैंबर में भी पसीने से नहा उठी थी.

स्कूल से जब बेला कालेज में आई, तब भी यह सिलसिला कहां रुका था. उस का सब से पहला विरोध तो गांव की पंचायत ने किया था. पंचायत ने उस के पिता को बुला कर धमकाया था, ‘भला बेला कैसे शहर जा कर कालेज में पढ़ सकती है? जो पढ़ना है, यहीं रह कर पढ़े… वैसे भी अब लड़की सयानी हो गई है… इस के हाथ पीले करो और गंगा नहाओ…’ पंचों ने सलाह दी, तो बेला के पिता अपना सा मुंह ले कर घर लौट आए थे.

उस दोपहर जब बेला अपने पिता को खेत में खाना देने जा रही थी, तब रास्ते में सरपंच के बेटे ने उस का हाथ पकड़ते हुए कहा था, ‘बेला, तेरे शहर जा कर पढ़ने की इच्छा मैं पूरी करवा सकता हूं… बस, तू मेरी इच्छा पूरी कर दे.’

बेला बड़ी मुश्किल से उस से पीछा छुड़ा पाई थी. तब उस ने पिता के सामने आगे पढ़ने की जिद की थी और ऊंची पढ़ाई से मिलने वाले फायदे गिनाए थे. बेटी की बात पिता को समझ आ गई और पंचायत के विरोध के बावजूद उन्होंने उस का दाखिला कसबे के महिला कालेज में करवा दिया और वहीं उन के लिए बने होस्टल में उसे जगह भी मिल गई थी.

हालांकि इस के बाद उन्हें पंचायत की नाराजगी भी झेलनी पड़ी थी. मगर बेटी की खुशी की खातिर उन्होंने सब सहन कर लिया था.  शहर में भी होस्टल के वार्डन से ले कर कालेज के क्लर्क तक सब ने उस का शोषण करने की कोशिश की थी. हालांकि उसे छूने और भोगने की उन की मंशा कभी पूरी नहीं हुई थी, मगर निगाहों से भी बलात्कार किया जाता है, इस कहावत का मतलब अब बेला को अच्छी तरह से समझ आने लगा था.

फाइनल प्रैक्टिकल में प्रोफैसर द्वारा अच्छे नंबर देने का लालच भी उसे कई बार दिया गया था. उस के नकार करने पर उसे ताने सुनने पड़ते थे. ‘इन्हें नंबरों की क्या जरूरत है… ये तो पढ़ें या न पढ़ें, सरकारी सुविधाएं इन के लिए ही तो हैं…’

ऐसी बातें सुन बेला तिलमिला जाती थी. उस की सारी काबिलीयत पर एक झटके में ही पानी फेर दिया जाता था. मगर बेला ने हार नहीं मानी थी. अपनी काबिलीयत के दम पर उस ने सरकारी नौकरी हासिल कर ली थी. पहली बार जब बेला अपने दफ्तर में गई, तो उस ने देखा कि उस का पूरा स्टाफ एकसाथ लंच कर रहा है, मगर उसे किसी ने नहीं बुलाया था. बेला ने स्टाफ के साथ रिश्ता मजबूत करने के लिहाज से एक बार तो खुद ही उन की तरफ कदम बढ़ाए, मगर फिर अचानक कुछ याद आते ही उस के बढ़ते कदम रुक गए थे.

बेला के शक को हकीकत में बदल दिया था उस के दफ्तर के चपरासी ने. वह नादान नहीं थी, जो समझ नहीं सकती थी कि उस के चपरासी ने उसे पानी डिस्पोजल गिलास में देना शुरू क्यों किया था.

क्याक्या याद करे बेला… इतनी सारी कड़वी यादें थीं उस के इस छोटे से सफर में, जिन्हें भूलना उस के लिए नामुमकिन सा ही था. मगर अब उस ने ठान लिया था कि वह अब और सहन नहीं करेगी. उस ने तय कर लिया था कि वह अपनी सरकारी नौकरी छोड़ देगी और दुनिया को दिखा देगी कि उस में कितनी काबिलीयत है. अब वह सिर्फ प्राइवेट नौकरी ही करेगी और वह भी बिना किसी की सिफारिश या मदद के.

बेला के इस फैसले को बचकाना फैसला बताते हुए उस के पिता ने बहुत खिलाफत की थी. उन का कहना भी सही था कि अगर दलित होने के नाते सरकार हमें कोई सुविधा देती है, तो इस में इतना असहज होने की कहां जरूरत है… हम अपना हक ही तो ले रहे हैं.

मगर, बेला ने किसी की नहीं सुनी और सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया. बेला को ज्यादा भागदौड़ नहीं करनी पड़ी थी. उस का आकर्षक बायोडाटा देख कर इस कंपनी ने उसे अच्छे सालाना पैकेज पर असिस्टैंट मैनेजर की पोस्ट औफर की थी. रमेश यहां मैनेजर थे. उन्हीं के साथ रह कर बेला को कंपनी का काम सीखना था.

शुरूशुरू में तो रमेश का बरताव बेला के लिए अच्छा रहा था, मगर जब से उन्होंने कंपनी में उस की पर्सनल फाइल देखी थी, तभी से उन का नजरिया बदल गया था. पहले तो वह समझ नहीं सकी थी, मगर जब से उन के घर जा कर आई थी, तभी से उसे रमेश के बदले हुए रवैए की वजह समझ में आ गई थी.

औरत के शरीर की चाह मर्द से कुछ भी करवा सकती है, यह सोच अब बेला की निगाहों में और भी ज्यादा मजबूत हो चली थी. पत्नी से जिस्मानी दूरियां रमेश से सहन नहीं हो रही थीं, ऐसे में बेला ही उसे आसानी से मिलने वाली चीज लगी थी. बेला का सालभर का प्रोबेशन पीरियड बिना रमेश के अच्छे नोट के क्लियर नहीं हो सकता और इसी बात का फायदा रमेश उठाना चाहते हैं.

‘जब यहां भी मेरी काबिलीयत की पूछ नहीं है, तो फिर सरकारी नौकरी कहां बुरी थी? कम से कम इस तरह के समझौते तो नहीं करने पड़ते थे वहां… नौकरी छूटने का मानसिक दबाव तो नहीं झेलना पड़ेगा… ज्यादा से ज्यादा स्टाफ और अफसरों की अनदेखी ही तो झेलनी पड़ेगी… वह तो हम आजतक झेलते ही आए हैं… इस में नई बात क्या होगी…

‘वैसे भी जब आम सोच यही है कि दलितों को सरकारी नौकरी उन की काबिलीयत से नहीं, बल्कि आरक्षण के चलते मिलती है, तो यही सही… ‘इस सोच को बदलने की कोशिश करने में मैं ने अपने कीमती 2 साल बरबाद कर दिए… अब और नहीं… यह भी तो हो सकता है कि सरकारी पावर हाथ में होने से मैं अपनी जैसी कुछ लड़कियों की मदद कर सकूं,’ बेला ने अब अपनी सोच को एक नई दिशा दी.

इस के बाद बेला ने अपने आंसू पोंछे… आखिरी बार रमेश के चैंबर की तरफ देखा और इस्तीफा लिखने लगी.

अनोखा संबंध: क्या विधवा औरत दूसरी शादी नहीं कर सकती?

Romantic Story in Hindi : ‘‘इस औरत को देख रही हो… जिस की गोद में बच्चा है?’’

‘‘हांहां, देख रही हूं… कौन है यह?’’

‘‘अरे, इस को नहीं जानती तू?’’ पहली वाली औरत बोली.

‘‘हांहां, नहीं जानती,’’ दूसरी वाली औरत इनकार करते हुए बोली.

‘‘यह पवन सेठ की दूसरी औरत है. पहली औरत गुजर गई, तब उस ने इस औरत से शादी कर ली.’’

‘‘हाय, कहां पवन सेठ और कहां यह औरत…’’ हैरानी से दूसरी औरत बोली, ‘‘इस की गोद में जो लड़का है, वह पवन सेठ का नहीं है.’’

‘‘तब, फिर किस का है?’’

‘‘पवन सेठ के नौकर रामलाल का,’’ पहली वाली औरत ने जवाब दिया.

‘‘अरे, पवन सेठ की उम्र देखो, मुंह में दांत नहीं और पेट में आंत नहीं…’’ दूसरी वाली औरत ने ताना मारते हुए कहा, ‘‘दोनों में उम्र का कितना फर्क है. इस औरत ने कैसे कर ली शादी?’’

‘‘सुना है, यह औरत विधवा थी,’’ पहली वाली औरत ने कहा.

‘‘विधवा थी तो क्या हुआ? अरे, उम्र देख कर तो शादी करती.’’

‘‘अरे, इस ने पवन सेठ को देख कर शादी नहीं की.’’

‘‘फिर क्या देख कर शादी की?’’ उस औरत ने पूछा.

‘‘उस की ढेर सारी दौलत देख कर.’’

आगे की बात निर्मला न सुन सकी. जिस दुकान पर जाने के लिए वह सीढि़यां चढ़ रही थी, तभी ये दोनों औरतें सीढि़यां उतर रही थीं. उसे देख कर यह बात कही, तब वह रुक गई. उन दोनों औरतों की बातें सुनने के बाद दुकान के भीतर न जाते हुए वह उलटे पैर लौट कर फिर कार में बैठ गई.

ड्राइवर ने हैरान हो कर पूछा, ‘‘मेम साहब, आप दुकान के भीतर क्यों नहीं गईं?’’

‘‘जल्दी चलो बंगले पर,’’ निर्मला ने अनसुना करते हुए आदेश दिया.

आगे ड्राइवर कुछ न बोल सका. उस ने चुपचाप गाड़ी स्टार्ट कर दी.

निर्मला की गोद में एक साल का बच्चा नींद में बेसुध था. मगर कार में बैठने के बाद भी उस का मन उन दोनों औरतों के तानों पर लगा रहा. उन औरतों ने जोकुछ कहा था, सच ही कहा था. निर्मला उदास हो गई.

निर्मला पवन सेठ की दूसरी ब्याहता है. पहली पत्नी आज से 3 साल पहले गुजर गई थी. यह भी सही है कि उस की गोद में जो लड़का है, वह रामलाल का है. रामलाल जवान और खूबसूरत है.

जब निर्मला ब्याह कर के पवन सेठ के घर में आई थी, तब पहली बार उस की नजर रामलाल पर पड़ी थी. तभी से उस का आकर्षण रामलाल के प्रति हो गया था. मगर वह तो पवन सेठ की ब्याहता थी, इसलिए उस के खूंटे से बंध गई थी.

यह भी सही है कि निर्मला विधवा है. अभी उस की उम्र का 34वां पड़ाव चल रहा है. जब वह 20 साल की थी, तब उस की शादी राजेश से कर दी गई थी. वह बेरोजगार था. नौकरी की तलाश जारी थी. मगर वह इधरउधर ट्यूशन कर के अपनी जिंदगी की गाड़ी खींच रहा था.

निर्मला की सास झगड़ालू थी. हरदम वह उस पर अपना सासपना जताने की कोशिश करती, छोटीछोटी गलतियों पर बेवजह चिल्लाना उस का स्वभाव बना हुआ था. मगर वह दिन काल बन कर उस पर टूट पड़ा, जब एक कार वाला राजेश को रौंद कर चला गया. अभी उन की शादी हुए 7 महीने भी नहीं बीते थे और वह विधवा हो गई. समाज की जरूरी रस्मों के बाद निर्मला की सास ने उसे डायन बता दिया. यह कह कर उसे घर से निकाल दिया कि आते ही मेरे बेटे को खा गई.

ससुराल से जब विधवा निकाली जाती है, तब वह अपने मायके में आती है. निर्मला भी अपने मायके में चली आई और मांबाबूजी और भाई के लिए बो झ बन गई. बाद में एक प्राइवेट स्कूल में टीचर बन गई. तब उसे विधवा जिंदगी जीते हुए 14 साल से ऊपर हो गए.

समाज के पोंगापंथ के मुताबिक, विधवा की दोबारा शादी भी नहीं हो सकती है. उसे तो अब जिंदगीभर विधवा की जिंदगी जीनी है. ऐसे में वह कई बार सोचती है कि अभी मांबाप जिंदा हैं लेकिन कल वे नहीं रहेंगे, तब भाई कैसे रख पाएगा? यही दर्द उसे हरदम कचोटता रहता था.

निर्मला कई बार यह सोचती थी कि वह मांबाप से अलग रहे, मगर एक विधवा का अकेले रहना बड़ा मुश्किल होगा. मर्दों के दबदबे वाले समाज में कई भेडि़ए उसे नोचने को तैयार बैठे हैं. कई वहशी मर्दों की निगाहें अब भी उस पर गड़ी रहती हैं. मां और बाबूजी भी उसे देख कर चिंतित हैं. ऐसी कोई बात नहीं है कि सिर्फ  वही अपने बारे में सोचती है.

मां और बाबूजी भी सोचते हैं कि निर्मला की जिंदगी कैसे कटेगी? वे खुद भी चाहते थे कि निर्मला की दोबारा शादी हो जाए, मगर समाज की बेडि़यों से वे भी बंधे हुए थे.

इसी कशमकश में समाज के कुछ ठेकेदार पवन सेठ का रिश्ता ले कर निर्मला के बाबूजी के पास आ गए.

बाबूजी को मालूम था कि पवन सेठ बहुत पैसे वाला है. उस का बड़ा भाई मनोहर सेठ के नाम से मशहूर है. मगर दोनों भाइयों के बीच 30 साल पहले ही घर की जायदाद को ले कर रिश्ता खत्म हो गया था. आज तक दोनों के बीच बोलचाल बंद है.

बाबूजी यह भी जानते थे कि पवन सेठ 64 साल के ऊपर है. यह बेमेल गठबंधन कैसे होगा? तब समाज के ठेकेदारों ने एक ही बात बाबूजी को सम झाने की कोशिश की थी कि यह निर्मला की जिंदगी का सवाल है. पवन सेठ के साथ वह खुश रहेगी.

तब बाबूजी ने सवाल उठाया था कि पवन सेठ नदी किनारे खड़ा वह ठूंठ है कि कब बहाव में बह जाए. फिर निर्मला विधवा की विधवा रह जाएगी. तब समाज के ठेकेदारों ने बाबूजी को सम झाया कि देखो, वह विधवा जरूर हो जाएगी, मगर सेठ की जायदाद की मालकिन बन कर रहेगी.

तब बाबूजी ने निर्मला से पूछा था, ‘निर्मला तुम्हारे लिए रिश्ता आया है.’

वह सम झते हुए भी अनजान बनते हुए बोली, ‘रिश्ता और मेरे लिए?’

‘हां निर्मला, तुम्हारे लिए रिश्ता.’

‘मगर बाबूजी, मैं एक विधवा हूं और विधवा की दोबारा शादी नहीं हो सकती,’ अपने पिता को सम झाते हुए निर्मला बोली थी.

‘हां, नहीं हो सकती है, मैं जानता हूं. मगर जब सोचता हूं कि तुम यह लंबी उम्र कैसे काटोगी, तो डर जाता हूं.’

‘जैसे, कोई दूसरी विधवा काटती है, वैसे ही काटूंगी बाबूजी,’ निर्मला ने जब यह बात कही, तब बाबूजी सोचविचार में पड़ गए थे.

तब निर्मला खुद ही बोली थी, ‘मगर बाबूजी, मैं आप की भावनाओं को भी अच्छी तरह सम झती हूं. आप बूढ़े पवन सेठ के साथ मेरा ब्याह करना चाहते हैं.’

‘हां बेटी, वहां तेरी जिंदगी अच्छी तरह कट जाएगी और विधवा की जिंदगी से छुटकारा भी मिल जाएगा,’ बोल कर बाबूजी ने अपने मन की सारी बात कह डाली थी. तब वह भी सहमति देते हुए बोली थी, ‘बाबूजी, आप किसी तरह की चिंता मत करें. मैं यह शादी करने के लिए तैयार हूं.’

यह सुन कर बाबूजी का चेहरा खिल गया था. फिर पवन सेठ के साथ निर्मला की बेमेल शादी हो गई.

निर्मला पवन सेठ के बंगले में आ गई थी. दुकान के नौकर अलग, घर के नौकर अलग थे. घर का नौकर रामलाल 20 साल का गबरू जवान था. बाकी तो वहां अधेड़ औरतें थीं.

जब पवन सेठ के साथ निर्मला हमबिस्तर होती थी, वह बहुत जल्दी ठंडा पड़ जाता था. राजेश के साथ जो रातें गुजारी थीं, पवन सेठ के साथ वैसा मजा नहीं मिलता था.

पवन सेठ ने कई बार उस से कहा था, ‘निर्मला, तुम मेरी दूसरी पत्नी हो. उम्र में बेटी के बराबर हो. अगर मेरी पहली पत्नी से कोई औलाद होती, तब वह तुम्हारी उम्र के बराबर होती. मैं तु झ से औलाद की आस रखता हूं. तुम मु झे एक औलाद दे दो.’

‘औलाद देना मेरे अकेले के हाथ में नहीं है,’ निर्मला अपनी बात रखते हुए बोली, ‘मगर, मैं देख रही हूं…’

‘क्या देख रही हो?’ उसे रुकते देख पवन सेठ ने पूछा.

‘हमारी शादी के 6 महीने हो गए हैं, मगर जितना जोश पैदा होता, वह पलभर में खत्म हो जाता है.’

‘अब मैं उम्र की ढलान पर हूं, फिर भी औलाद चाहता हूं,’ पवन सेठ की आंखों का इशारा वह सम झ गई. तब उस ने नौकर रामलाल से बातचीत करना शुरू किया.

निर्मला उसे बारबार किसी बहाने अपने कमरे में बुलाती, आंखों में हवस लाती. कभी वह अपना आंचल गिराती, कभी ब्लाउज का ऊपरी बटन खोल देती, तो कभी पेटीकोट जांघों तक चढ़ा लेती. मर्द कैसा भी पत्थरदिल हो, आखिर एक दिन पिघल ही जाता है.

रामलाल ने कहा, ‘मेम साहब, आप का मु झे देख कर बारबार आंचल गिराना मु झे अच्छा नहीं लगता. आप क्यों ऐसा करती हैं?’

‘अरे बुद्धू, इतना भी नहीं समझता है,’ निर्मला मुसकरा कर बोली और उस के गाल को चूम लिया.

‘सम झता तो मैं सबकुछ हूं, मगर मालिक…’

‘मालिक कुछ भी नहीं कहेंगे,’ बीच में ही उस की बात काट कर निर्मला बोली, ‘मालिक से क्यों घबराता है?’

यह सुन कर रामलाल पहले तो हैरान हुआ, फिर धीरे से मुसकरा दिया. उस ने आव न देखा न ताव निर्मला को दबोच लिया और उस के होंठों पर अपने होंठ रख दिए.

निर्मला ने कुछ नहीं कहा. फिर क्या था, निर्मला की शह पा कर जब भी मौका मिलता, वे दोनों हमबिस्तर हो जाते. इस का फायदा यह हुआ कि निर्मला का जोश शांत होने लगा था और एक दिन वह पेट से हो गई.

पवन सेठ बहुत खुश हुआ और जब पहला ही लड़का पैदा हुआ, तब पवन सेठ की खुशियों का ठिकाना नहीं रहा.

निर्मला और बच्चे की देखरेख के लिए एक आया रख ली गई. जब भी बाजार या कहीं दूसरी जगह जाना होता, निर्मला अपने बच्चे को आया के पास छोड़ जाती है. मगर आज उस की ममता जाग गई थी, इसलिए साथ ले गई थी.

‘‘मेम साहब, बंगला आ गया,’’ जब ड्राइवर ने यह कहा, तब निर्मला पुरानी यादों से लौटी. जब वह कार से उतरने लगी, तब ड्राइवर ने पूछा, ‘‘मेम साहब, जिस दुकान पर आप खरीदारी करने पहुंची थीं, वहां से बिना खरीदारी किए क्यों लौट आईं?’’

‘‘मेरा मूड बदल गया,’’ निर्मला ने जवाब दिया.

‘‘मूड तो नहीं बदला मेम साहब, मगर मैं सब समझ गया,’’ कह कर ड्राइवर मुसकराया.

‘‘क्या सम झे मानमल?’’ गुस्से से निर्मला बोली.

‘‘इस बच्चे को ले कर उन औरतों ने…’’

‘‘देखो मानमल, तुम अपनी औकात में रहो,’’ बीच में ही बात काट कर निर्मला बोली.

‘‘हां मेम साहब, मैं भूल गया था कि मैं आप का ड्राइवर हूं,’’ माफी मांगते हुए मानमल बोला, ‘‘मगर, सच बात तो होंठों पर आ ही जाती है.’’

‘‘क्या सच बात होंठों पर आ जाती है?’’ निर्मला ने पूछा.

‘‘यही मेम साहब कि उन दोनों औरतों ने बच्चे को देख कर कहा होगा कि यह बच्चा सेठजी का खून नहीं है, बल्कि उन के नौकर रामलाल का है,’’ मानमल ने साफसाफ कह दिया.

तब निर्मला गुस्से से बोली, ‘‘देखो मानमल, तुम हमारे नौकर हो और अपनी हद में रहो. औरों की तरह हमारे संबंधों को ले कर बात करने की जरूरत नहीं है,’’ कह कर निर्मला कार से उतर गई.

अभी निर्मला दालान पार कर रही थी कि आया ने आ कर बच्चे को उस से ले लिया. मानमल फिर मुसकरा दिया.

शन्नो की हिम्मत: एक बेटी ने कैसे बदली अपने पिता की जिंदगी

Family Story in Hindi: शन्नो थी तो 10 साल की ही, पर उस का बाप फिरोज खान उस से सख्त नफरत करता था. वजह यह थी कि बेटा पैदा न करने के जुर्म में वह शन्नो की मां को अकसर मारतापीटता था, जिस की शन्नो जम कर खिलाफत करती थी. शन्नो की मां अनवरी मजबूरी के चलते पति के सितम चुपचाप सह लेती थी, लेकिन एक दिन शन्नो का सब्र जवाब दे गया और उस ने बाकरपुर थाने जा कर बाप की शिकायत कर डाली. थाना इंचार्ज एसआई पूनम यादव ने सूझबूझ से काम लेते हुए फिरोज खान को हिरासत में ले लिया.

लेकिन जब पुलिस वाले फिरोज खान की कमर पर रस्सा बांधने लगे, तो शन्नो यह देख कर तड़प उठी. वह एसआई पूनम यादव से रोते हुए बोली, ‘‘मैडमजी, पापा को माफ कर दीजिए. आप इन्हें सिर्फ समझा दीजिए कि अब दोबारा कभी अम्मी को नहीं सताएंगे.

‘‘मैं यह नहीं जानती थी कि पापा इतनी बड़ी मुसीबत में फंस जाएंगे. प्लीज, पापा को छोड़ दीजिए,’’ कह कर वह उन से लिपट कर रोने लगी.

‘‘घबराओ नहीं बेटी, तुम्हारे पापा को कुछ नहीं होगा. हम इन्हें समझाबुझा कर जल्दी छोड़ देंगे,’’ एसआई पूनम यादव ने शन्नो को काफी समझाया, लेकिन वह रोतीबिलखती रही.

पापा के बगैर शन्नो थाने से बाहर नहीं आना चाहती थी. बड़ी मुश्किल से उसे घर पहुंचाया गया. इस वाकिए के बाद शन्नो हंसना ही भूल गई. पापा को उस की वजह से जेल जाना पड़ा था. इस बात का उसे बहुत अफसोस था. एसआई पूनम यादव ने फिरोज खान की माली हालत के मद्देनजर उस पर बहुत कम जुर्माना लगाया, जिस से वह एकाध महीने में ही जेल से छूट गया.

एसआई पूनम यादव ने फिरोज खान को जेल से बाहर आने के बाद समझाया, ‘‘देखो फिरोज, तुम ने बेटा पाने की चाहत में बेटियों की जो लाइन लगा रखी है, उस का बोझ तुम्हें अकेले ही उठाना पड़ेगा, इसलिए अब भी वक्त है कि तुम अपनी बेटियों को ही बेटा समझो. उन्हें प्यारदुलार दो.

‘‘अगर तुम्हारे घर बेटा पैदा नहीं हुआ, तो इस की जिम्मेदार तुम्हारी पत्नी नहीं है, बल्कि तुम खुद हो.

‘‘तुम्हारे घर में कोई तुम्हारा दुश्मन नहीं है, बल्कि तुम सब के दुश्मन हो और अपनी जिंदगी के साथ भी दुश्मनी कर रहे हो.

‘‘अब क्या तुम अपनी बेटी शन्नो से इस बात का बदला लोगे कि तुम्हारे द्वारा उस की मां पर ढाए जाने वाले जुल्म से घबरा कर वह थाने चली आई?’’

फिरोज खान सिर झुकाए चुपचाप एसआई पूनम यादव की बातें सुनता रहा.

‘‘खबरदार फिरोज, अब भूल से भी कोई ऐसीवैसी हरकत मत करना.’’

फिरोज खान ने एसआई पूनम यादव की बात को अनसुना कर दिया, क्योंकि उस के मन में शन्नो के लिए बदले की आग सुलग रही थी. घर में कदम रखते ही फिरोज ने शन्नो की पिटाई की.

बेटी को पिटता देख अनवरी बचाने आई, तो फिरोज ने उसे भी खूब मारापीटा, फिर दोनों मांबेटी को घर से निकाल दिया. इस दुखद मंजर को अड़ोसपड़ोस के लोग चुपचाप देखते रहे. किसी के लफड़े में पड़ने की क्या जरूरत है, इस सोच के चलते महल्ले वाले अपनेअपने जमीर को मुरदा बनाए हुए थे. कोई भी यह नहीं सोचना चाहता था कि कल उन के साथ भी ऐसा हो सकता है.

अनवरी शन्नो को साथ ले कर अपने मायके समस्तीपुर चली आई और अपनी बेवा मां से लिपट कर खूब रोई. सारा दुखड़ा सुनाने के बाद अनवरी बोली, ‘‘अम्मां, आज से शन्नो का जीनामरना आप को ही करना होगा.’’

सुबह होते ही अनवरी बस में सवार हो कर ससुराल लौट गई. इस बात को 10 साल बीत गए. शन्नो के ननिहाल वाले गरीब थे, इस के बावजूद मामूमौसी वगैरह ने मिलजुल कर शन्नो की परवरिश की. उसे अच्छी से अच्छी तालीम दे कर कुछ इस तरह निखारा कि अपनेपराए, सभी उस पर नाज करने लगे.

आज शन्नो 18-19 बरस की हो चली थी. इस दौरान फिरोज खान ने उस की कोई खोजखबर नहीं ली, क्योंकि वह उस से बहुत चिढ़ता था. उसी की वजह से उसे जेल जाना पड़ा था. शन्नो की मां अनवरी अकसर मायके आ कर बेटी को देख लेती थी.

इस बार अनवरी मायके आई, तो उस ने मायके के तमाम रिश्तेदारों को इकट्ठा किया और अपनी लाचारी बयान करते हुए शन्नो के हाथ पीले करने की गुहार लगाई. इस पर मायके वालों ने भरपूर हमदर्दी जताई.

शन्नो के बड़े मामू साबिर ने तो मीटिंग के दौरान ही अपनी जिम्मेदारी का एहसास कराते हुए कहा, ‘‘देखिए, आप लोगों को ज्यादा परेशान होने की जरूरत नहीं है. मैं ने शन्नो के लिए एक अच्छा सा लड़का देख रखा है. वह शरीफ है, कम उम्र का है, पढ़ालिखा है और नौकरी भी बहुत अच्छी करता है.’’

लेकिन जब लड़के की असलियत पता की गई, तो मालूम हुआ कि वह किसी भी नजरिए से शन्नो के लायक नहीं था. वह 50 साल से ऊपर का था और 2 बीवियों को तलाक दे चुका था. नौकरी करने के नाम पर वह दिल्ली में रिकशा चलाता था.

साबिर द्वारा पेश किया गया ऐसा बेमेल रिश्ता किसी को पसंद नहीं आया. नतीजतन, उस रिश्ते को नकार दिया गया. इस पर साबिर ने नाराजगी जताई, तो उस की बड़ी बहन नरगिस बानो ने साबिर को तीखा जवाब दिया, ‘‘लड़का जब इतना ही अच्छा है, तो शन्नो को दरकिनार करो और उस से अपनी बेटी को ब्याह दो.’’

नरगिस बानो के इस फिकरे ने साबिर के होश ठिकाने लगा दिए. वह तिलमिला कर फौरन मीटिंग से उठ गया. शन्नो के लिए एक मुनासिब लड़के की तलाश जारी थी और जल्दी ही नरगिस बानो ने एक लायक लड़के को देख लिया, जो सब को पसंद आया. शादी की तारीख एक महीने के अंदर तय की गई. चंद ननिहाली रिश्तेदारों ने माली मदद में पहल की. इस में नरगिस बानो खासतौर से आगे रहीं.

लड़का पेशे से वकील होने के अलावा एक सच्चा समाजसेवी भी था. उस के स्वभाव में करुणा कूटकूट कर भरी थी. उस ने लड़की वालों से किसी चीज की मांग नहीं की थी.

शन्नो की बरात आने में 10 दिन बाकी रह गए थे. इसी बीच एक दिन शन्नो के होने वाले पति रिजवान ने नरगिस बानो को फोन कर शादी से इनकार करने का संकेत दिया. वजह पूछने पर उस ने बताया कि लड़की अपने बाप को जेल की हवा खिलवा चुकी है. इस वजह से कोई भी शरीफ लड़का ऐसी लड़की को अपना हमसफर बनाना पसंद नहीं करेगा.

शन्नो के ननिहाल वालों की आंखों में मायूसी का अंधेरा पसर गया. वे आपस में मिलबैठ कर सोचविचार कर रहे थे कि बिगड़ी बात कैसे बनाई जाए, तभी नरगिस बानो के मोबाइल फोन की घंटी बजने लगी. रिजवान का फोन था.

नरगिस बानो ने झट से फोन रिसीव किया और बोलीं, ‘‘तुम्हारे शुभचिंतकों ने हमारी शन्नो के खिलाफ और जो कुछ भी शिकायतें की हैं, तो वे भी हम से कह कर भड़ास निकाल लो.’’

‘ऐसी बात नहीं है, बल्कि मैं ने तो आप लोगों से माफी मांगने के लिए फोन किया है. मुझे माफ कर दीजिए प्लीज.’

नरगिस बानो ने मोबाइल फोन का स्पीकर औन कर दिया, ताकि लड़के की बात उन के अलावा घर के दूसरे लोग भी सुन सकें.

‘आप के ही कुछ सगेसंबंधी मेरे कान भर कर मुझे गुमराह करने पर तुले थे. लेकिन भला हो एसआई पूनम मैडम का, जिन्होंने आप के रिश्तेदारों द्वारा रची गई झूठी कहानी का परदाफाश कर मेरी आंखें खोल दीं.’

‘‘लेकिन, कौन पूनम मैडम?’’ नरगिस बानो ने चौंक कर पूछा.

‘जी, वे एक पुलिस वाली होने के अलावा समाजसेवी भी हैं. उन से मेरी अच्छी जानपहचान है. मैं ने उन से शन्नो और उस के अब्बू फिरोज खान साहब से संबंधित थानापुलिस वाली बात जब बताई, तो उन्हें वह सारा माजरा याद आ गया. तब उन की पोस्टिंग बाकरपुर थाने में थी. उन्होंने मुझे सबकुछ बता दिया है, जिस से सारी बात साफ हो गई और मेरा दिल साफ हो गया.’

शन्नो के ननिहाल वाले गौर से रिजवान की बातें सुन रहे थे. रिजवान ने आगे कहा, ‘बड़े अफसोस की बात है कि अपने लोग भी कितने दुश्मन होते हैं. ऐसे लोग अगर किसी मजबूर का भला नहीं कर सकते, तो कम से कम बुराई करने से परहेज करें.’

और फिर देखते ही देखते शन्नो की शादी रिजवान के साथ करा दी गई. शादी में एसआई पूनम यादव भी दूल्हे की तरफ से शरीक हुई थीं. विदाई के दौरान शन्नो की रोती हुई आंखें किसी को तलाश रही थीं. एसआई पूनम यादव उस की बेचैनी को समझ रही थीं. वे थोड़ी देर के लिए भीड़ से निकल गईं और जब लौटीं, तो उन के साथ शन्नो के अब्बू फिरोज खान थे. उस के हाथ में एक छोटी सी थैली थी.

अपने अब्बू को देखते ही शन्नो उन से लिपट गई और रोने लगी. फिरोज खान ने थैली शन्नो की तरफ बढ़ा दी. इसी बीच एसआई पूनम यादव शन्नो से मुखातिब हुईं, ‘‘तुम्हारे पापा ने कड़ी मेहनत और अरमान से तुम्हारे लिए ये गहने बनवाए हैं, इस की गवाह मैं हूं. मैं चाहे जहां भी रहूं, लेकिन ये कोई भी काम मुझ से मशवरा ले कर ही करते हैं.

‘‘तुम्हारे पापा अब बेटी को मुसीबत समझने की नासमझी से तोबा कर चुके हैं. तुम्हारी सारी बहनें अच्छे स्कूल में पढ़ाई कर रही हैं और खूब नाम रोशन कर रही हैं.’’

‘‘मैडमजी ठीक बोल रही हैं बेटी,’’ यह शन्नो की मां अनवरी बानो थीं.

एसआई पूनम यादव बोलीं, ‘‘बस यह समझो कि शन्नो बेटी के अच्छे दिन आ गए हैं. मुबारक हो.’’

शन्नो बोली, ‘‘आप की बड़ी मेहरबानी मैडमजी. आप ने मेरे घर वालों को बिखरने से बचा लिया,’’ इतना कह कर वह एसआई पूनम यादव से लिपट कर इस तरह रो पड़ी, जैसे वह बरसों पहले बाकरपुर थाने में उन से लिपट कर रोई थी.

लौट आई सुनीता : अपहरण की शिकार एक लड़की

कमिल बहुत देर तक उसे देखता रहा. अस्पताल के बिस्तर नंबर 8 पर पड़ी लड़की सुनीता ही थी. वह भूल भी कैसे सकता था उसे.

‘‘मैं कल पूरी तरह तैयार हो कर कोर्ट पहुंच जाऊंगी. आप भी जल्दी से आ जाना कमिल… इंतजार मत कराना. कुछ हो न जाए…’’ सुनीता ने थोड़ा उतावलेपन में कहा था.

जाने से पहले सुनीता अपने कमिल के सीने से लग गई थी. उस ने तो कोर्ट मैरिज के लिए पहले ही रजिस्ट्रेशन करा रखा था, जब सुनीता ने उस से बोला था, ‘‘कमिल, मैं तुम से जल्द से जल्द शादी करना चाहती हूं.’’

कमिल को इस जल्दी के बारे में तो पता नहीं था, पर इतना वह समझ गया था कि सुनीता अब उस की होने वाली है. रजिस्ट्रेशन के बाद उस ने सुनीता को बता दिया था कि कल कोर्ट में उन्हें शादी के लिए बुलाया गया है. यह सुन कर सुनीता खुश हो गई थी.

कमिल समय से पहले ही कोर्ट पहुंच गया था. उस ने नया कुरतापाजामा पहना था और सुनीता के लिए भी वह एक नई साड़ी लाया था. चमचमाते गुलाब की फूलमाला का पैकेट भी उस के हाथों में था.

सारी तैयारी कर के सुनीता का इंतजार करता रहा कमिल. वकील साहब ने भी बता दिया था कि जज साहब ने जो समय दिया है, उस समय तक दोनों को कोर्ट में दाखिल हो जाना होगा.

कमिल ने बड़े यकीन के साथ वकील साहब से कहा था, ‘‘जी जरूर. आप निश्चिंत रहें. मुझ से ज्यादा जल्दी तो उसे है. आप तैयारी पूरी रखें.’’

समय निकलता जा रहा था. कमिल की बेचैनी बढ़ती जा रही थी. वह बारबार घड़ी देख रहा था.

वह कई बार घड़ी को हिला कर देख चुका था कि कहीं वह बंद तो नहीं हो गई, पर उस के कांटे तो बराबर खिसक रहे थे. वकील साहब भी परेशान थे. वे भी बारबार अपनी घड़ी देख रहे थे.

‘‘देखो भाई, कोर्ट का समय निकला जा रहा है. बाद में मजिस्ट्रेट साहब शादी नहीं कराएंगे. या तो वे इस अर्जी को खारिज कर देंगे या दूसरी तारीख देंगे, जो कम से कम एक महीने के बाद की होगी,’’ यह कहते हुए वकील साहब के चेहरे पर भी तनाव फैलता जा रहा था.

कोर्ट का समय निकले भी 2 घंटे से ज्यादा हो चुका था. कोर्ट बंद हो चुका था, पर कमिल बैठा अपनी सुनीता का इंतजार कर रहा था. उसे भरोसा था कि सुनीता जरूर आएगी, पर वह नहीं आई. रात का अंधेरा फैलने के बाद वह उदास कदमों से घर लौट आया था.

अब से कई साल पहले ट्रेन में सफर करने के दौरान कमिल की सुनीता से मुलाकात हुई थी. दोनों आमनेसामने की सीट पर बैठे थे.

‘‘क्या आप आलूबड़ा खाएंगी? यहां के आलूबड़े बहुत मशहूर हैं…’’ कहतेकहते कमिल ने एक आलूबड़ा सुनीता की ओर बढ़ा दिया था.

सुनीता ने हिकारत से कमिल को घूरा और बोली, ‘‘जी नहीं. मैं बाहर की चीज नहीं खाती,’’ और उस ने अपना चेहरा दूसरी ओर घुमा लिया था.

कमिल को भी अपनी गलती का अंदाजा हो चुका था. जब वे एकदूसरे को जानतेपहचानते ही नहीं हैं, तो उसे उस लड़की के सामने आलूबड़ा खाने का प्रस्ताव रखना ही नहीं चाहिए था.

‘सौरी’ कह कर कमिल चुपचाप आलूबड़ा खाने लगा. आलूबड़ा बहुत तीखा था. वह पूरा आलूबड़ा खाता, इस के पहले ही होंठों से ‘सी… सी…’ की आवाज निकलनी शुरू हो गई थी. उसे पानी की सख्त जरूरत थी, जो उस के पास नहीं था.

सुनीता के पास पानी की बोतल नजर आ रही थी, पर कमिल की हिम्मत नहीं हो रही थी उस से मांगने की. वह पानी को यहांवहां तलाशता रहा. सुनीता ने शायद उस की ‘सी… सी…’ की आवाज सुन ली थी.

‘‘यह लीजिए… पानी पी लीजिए… इसी वजह से मैं बाहर की चीज नहीं खाती,’’ कहते हुए सुनीता ने पानी की बोतल कमिल की ओर बढ़ा दी.

पहले तो कमिल का मन हुआ कि वह भी कह दे कि मैं किसी अजनबी के हाथ का पानी नहीं पीता, पर इस समय उसे पानी की बहुत जरूरत थी, सो उस के हाथ से पानी की बोतल ले कर वह गटागट पी गया.

‘‘थैंक्स. आज तो मेरे प्राण ही निकल जाते,’’ कमिल ने कहा.

सुनीता मुसकरा दी थी. स्टेशन आने पर दोनों साथसाथ ही प्लेटफार्म पर उतरे थे.

‘‘अच्छा… आप भी यहीं रहती हैं या पहली बार आना हुआ है?’’ कमिल ने सुनीता से पूछा.

‘‘जी, मैं यहीं रहती हूं,’’ सुनीता ने छोटा सा जवाब दिया था.

‘‘वाह… अब अगर मैं पूछ लूंगा कि आप यहां कहां रहती हैं, तो आप को बुरा लगेगा,’’ यह कहते हुए कमिल के चेहरे पर सवालिया निशान उभर आया था.

‘‘जगदीश वार्ड में… वह पुरानी गल्ला मंडी है न, उस के पीछे है,’’ सुनीता बोली.

‘‘अच्छा, वह जगह तो मैं जानता हूं. मैं भी इसी शहर का रहने वाला हूं. सारी उम्र यहीं गुजर गई है.’’

‘‘ओह… वैसे, आप की उम्र 100 के आसपास होगी…’’ सुनीता ने कमिल को छेड़ा था. फिर वे दोनों अपनेअपने घर चले गए थे.

कमिल और सुनीता की बहुत दिन बाद शादी की एक रिसैप्शन में दोबारा मुलाकात हुई थी. वैसे तो कमिल का इरादा सुनीता को घूरने का बिलकुल भी नहीं था, पर वह इतनी ज्यादा खूबसूरत लग रही थी कि वह अपनी पलकें तक भी नहीं झपका पा रहा था.

सुनीता गोरे रंग की पतली लड़की थी. लेकिन इस के बावजूद उस की देह में गजब की कसावट थी. सांचे में ढला बदन किसी को भी अपना दीवाना बना सकता था.

रिसैप्शन में सुनीता ने पीले रंग का सलवारसूट पहना था. चेहरे पर लाल रंगत थे. उस ने खुले बालों में पीले रंग का बड़ा क्लिप लगा रखा था.

‘‘ओ जनाब, लड़कियों को ऐसे नहीं घूरते,’’ कह कर सुनीता हंस पड़ी. उस की हंसी गूंज गई थी सारे वातावरण में. कुछ चेहरे घूम गए उन दोनों की ओर. कमिल झोंप सा गया.

‘सौरी’ कहते हुए कमिल ने न चाहते हुए भी अपनी नजरें हटा लीं.

‘‘वैसे, अगर आप का कोई नाम हो बता ही दें, क्योंकि आप मुझे यों ही बारबार मिलते रहेंगे, तो मुझे भी तो आप के बारे में पता होना चाहिए न.’’

‘‘जी, कमिल शर्मा,’’ अब कमिल सुनीता की ओर नजर भी नहीं डाल पा रहा था. इस वजह से वह दूसरी ओर देखते हुए बोला.

‘‘मुझे सुनीता कहते हैं. मेरी पढ़ाई पूरी हो चुकी है. नौकरी की तलाश कर रही हूं… वैसे, आप ने खाना खाया?’’

‘‘नहीं. मैं ऐसे कार्यक्रमों में खाना नहीं खाता.’’

‘‘तभी तो इतनी हैंडसम पर्सनैलिटी हैं,’’ कहते हुए सुनीता ने कमिल को ऊपर से नीचे तक देखा.

‘‘अच्छा, चलती हूं. फिर मिलूंगी कमिल…’’ कहते हुए सुनीता के चेहरे पर मुसकान बिखरी नजर आ रही थी.

एक दिन सुनीता अपनी मां के साथ बाजार में कमिल से मिली. उस ने कमिल का परिचय अपनी मां से कराया.

बातोंबातों में सुनीता ने कहा, ‘‘10 तारीख को मुझे भोपाल जाना है… एक  इंटरव्यू है…’’

‘‘अच्छा… बधाई…’’

‘‘अगर ज्यादा बिजी न हो तो चलो तुम भी… शाम को लौट आएंगे…’’ सुनीता ने कहा.

कमिल को अच्छा लगा था. इस बहाने सुनीता से और मेलजोल बढ़ जाएगा और अकेली लड़की को सहारा मिल जाएगा. कमिल ने हामी भर दी.

भोपाल से लौटने के बाद सुनीता और कमिल काफी नजदीक आ चुके थे. आनेजाने के समय बहुत सारी बातें हुईं, एकदूसरे की पसंद को समझ और पहचाना.

लेकिन पिछले कुछ दिनों से सुनीता कुछ अनमनी सी लग रही थी. एक दिन उस ने बोला था, ‘‘कमिल, मैं तुम से शादी करना चाहती हूं… बहुत जल्दी…’’ उस के चेहरे पर तनाव दिखाई दे रहा था.

‘‘देखो, ऐसे फैसले जल्दी में नहीं लिए जाते…’’

‘‘वह मैं नहीं जानती. कमिल, हम जल्दी ही शादी करेंगे. मंदिर में… नहीं… कोर्ट में… तुम अर्जी दे दो, मैं दस्तखत कर देती हूं… तुम न मत कहना प्लीज…’’

कमिल हालात की गंभीरता को जानते हुए भी सहमत हो गया था और उस ने कोर्ट में अर्जी दे दी थी. कोर्ट ने आज की ही तारीख दी थी, पर सुनीता आई ही नहीं.

सुनीता से अचानक बिछड़ने के बाद कमिल का सैलेक्शन सबइंस्पैक्टर के पद पर हो गया था. ट्रेनिंग के बाद वह दूसरे शहर में चला गया था.

उस दिन की घटना से कमिल बहुत मुश्किलों के बाद उबर पाया था. एक ही बात उस के दिमाग में बारबार घूम जाती थी कि सुनीता आखिर आई क्यों नहीं? उस ने खुद ही शादी के लिए जिद की थी, तो उस ने धोखा क्यों दिया? नहीं आ पा रही थी, तो खबर भी दे सकती थी… इस तरह की बातें सोचतेसोचते कमिल की नाराजगी हद से ज्यादा बढ़ जाती थी.

आज सुबह ही कमिल को सूचना मिली थी कि एक लड़की बेहोशी की हालत में रेलवे प्लेटफार्म से कुछ ही दूरी पर पड़ी हुई है. वह दलबल के साथ घटनास्थल पर पहुंचा था. सुनीता को पहचानने में उसे जरा भी मुश्किल नहीं हुई थी.

कमिल ने जल्दीजल्दी कागजी खानापूरी कर के सुनीता को अस्पताल में भरती करा दिया था. वह खुद उस की देखभाल कर रहा था.

जब सुनीता को होश आया, तो उस ने अपने सामने कमिल को खड़ा पाया. वह चौंक गई. उस की आंखों में आंसू आ गए थे. कमिल ने उस का हाथ अपने हाथों में ले लिया था.

‘‘अपनेआप को संभालो सुनीता…’’

पर सुनीता रोती रही. जब वह सामान्य हुई, तो उस ने अपनी आपबीती बतानी शुरू कर दी. यह सच है कि सुनीता को नौकरी के लिए इतनी जल्दबाजी करने की जरूरत नहीं थी, पर जोशजोश में वह एक कंपनी की सेल्सगर्ल बन गई थी. वह सामान की डिलीवरी करती थी, बदले में उसे मोटी तनख्वाह दिए जाने की बात की गई थी. डिलीवरी किस चीज की हो रही है, यह सुनीता ने जानने की कोशिश की, पर उसे नहीं बताया गया.

पर एक दिन सुनीता जान ही गई थी कि वह नशीली दवाओं की डिलीवरी करने के लिए रखी गई है. जब उसे हकीकत का पता चला तो उस ने काम करने से साफ इनकार कर दिया, इस के बाद ही उसे धमकियां मिलने लगी थीं.

सुनीता ने शादी के लिए जो जल्दबाजी दिखाई थी, उस के पीछे भी यही वजह थी. उस दिन वह कोर्ट के लिए समय से पहले ही निकल गई थी. पर कोर्ट पहुंचने से पहले ही उस का अपहरण कर लिया गया था.

चूंकि सुनीता ने घर में एक खत छोड़ दिया था कि वह अपनी मरजी से शादी कर रही है, उसे खोजने की कोशिश न करें, इस नाराजगी में घर के लोगों ने भी उसे खोजने की कोशिश नहीं की.

सुनीता के साथ बहुत जुल्म किए गए थे. कई जगहों पर बंदी बना कर रखा गया था और अब अपहरण करने वाले उसे इस शहर में ले आए थे. पर जब कमिल ने अपने इलाके के अपराधियों पर अंकुश लगाना शुरू किया, तो वे लोग डर के मारे सुनीता को बेहोशी की हालत में छोड़ कर भाग गए.

सुनीता की मदद से कमिल को आरोपियों को खोजने में ज्यादा परेशानी भी नहीं हुई थी. अस्पताल से वह सुनीता को अपने घर ले कर आ गया था.

‘‘आप ने अभी तक शादी नहीं की है शायद…’’ सुनीता ने सवालिया निगाहों से कमिल की ओर देखा.

‘‘उस दिन जब तुम कोर्ट में नहीं आई, तभी मैं ने तय कर लिया था कि अब मैं कभी शादी नहीं करूंगा…’’ कमिल ने बताया. सुनीता खामोश रही.

‘‘मुझ अब समझ आ गया कि तुम ने मुझे धोखा नहीं दिया था.’’

सुनीता ने केवल नजरें उठा कर कमिल की ओर देखा.

‘‘क्या तुम मुझ से शादी करोगी… उस दिन वाले वादे के मुताबिक?’’ कमिल ने पूछा.

सुनीता के चेहरे पर मुसकान खिल गई और वह कमिल के गले से लग गई.

आज का इंसान ऐसा क्यों : जिंदगी का है फलसफा

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और दीप जल उठे : कैंसर से जूझती एक मां

ट्रिनट्रिन…फोन की घंटी बजते ही हम फोन की तरफ झपट पड़े. फोन पति ने उठाया. दूसरी ओर से भाईसाहब बात कर रहे थे. रिसीवर उठाए राजेश खामोशी से बात सुन रहे थे. अचानक भयमिश्रित स्वर में बोले, ‘‘कैंसर…’’ इस के बाद रिसीवर उन के हाथ में ही रह गया, वे पस्त हो सोफे पर बैठ गए. तो वही हुआ जिस का डर था. मां को कैंसर है. नहीं, नहीं, यह कोई बुरा सपना है. ऐसा कैसे हो सकता है? वे तो एकदम स्वस्थ थीं. उन्हें कैंसर हो ही नहीं सकता. एक मिनट में ही दिमाग में न जाने कैसेकैसे विचार तूफान मचाने लगे थे. 2 दिनों से जिन रिपोर्टों के परिणाम का इंतजार था आज अचानक ही वह काला सच बन कर सामने आ चुका था.

‘‘अब क्या होगा?’’ नैराश्य के स्वर में राजेश के मुंह से बोल फूटे. विचारों के भंवर से निकल कर मैं भी जैसे यह सुन कर अंदर ही अंदर सहम गई. ‘भाईसाहब से क्या बात हुई,’ यह जानने की उत्सुकता थी. औचक मैं चिल्ला पड़ी, ‘‘क्या हुआ मां को?’’ बच्चे भी यह सुन कर पास आ गए. राजेश का गला सूख गया. उन के मुंह से अब आवाज नहीं निकल रही थी. मैं दौड़ कर रसोई से एक गिलास पानी लाई और उन की पीठ सहलाते, उन्हें सांत्वना देते हुए पानी का गिलास उन्हें थमा दिया. पानी पी कर वे संयत होने का प्रयास करते हुए धीमी आवाज में बोले, ‘‘अरुणा, मां की जांच रिपोर्ट्स आ गई हैं. मां को स्तन कैंसर है,’’ कहते हुए वे फफकफफक कर बच्चों की तरह रोने लगे. हम सभी किंकर्तव्यविमूढ़ उन की तरफ देख रहे थे. किसी के भी मुंह से आवाज नहीं निकली. वातावरण में एक सन्नाटा पसर गया था. अब क्या होगा? इस प्रश्न ने सभी की बुद्धि पर मानो ताला जड़ दिया था. राजेश को रोते हुए देख कर ऐसा लगा, मानो सबकुछ बिखर गया है. मेरा घरपरिवार मानो किसी ऐसी भंवर में फंस गया जिस का कोई किनारा नजर नहीं आ रहा था.

मैं खुद को संयत करते हुए राजेश से बोली, ‘‘चुप हो जाओ राजेश. तुम्हें इस तरह मैं हिम्मत नहीं हारने दूंगी. संभालो अपनेआप को. देखो, बच्चे भी तुम्हें रोता देख कर रोने लगे हैं. तुम इतने कमजोर कैसे हो सकते हो? अभी तो हमारे संघर्ष की शुरुआत हुई है. अभी तो आप को मां और पूरे परिवार को संभालना है. ऐसा कुछ नहीं हुआ है, जो ठीक न किया जा सके. हम मां को यहां बुलाएंगे और उन का इलाज करवाएंगे. मैं ने पढ़ा है, स्तन कैंसर इलाज से पूरी तरह ठीक हो सकता है.’’

मेरी बातों का जैसे राजेश पर असर हुआ और वे कुछ संयत नजर आने लगे. सभी को सुला कर रात में जब मैं बिस्तर पर लेटी तो जैसे नींद आंखों से कोसों दूर हो गई हो. राजेश को तो संभाल लिया पर खुद मेरा मन चिंताओं के घने अंधेरे में उलझ चुका था. मन रहरह कर पुरानी बातें याद कर रहा था. 10 वर्ष पहले जब शादी कर मैं इस घर में आई थी तो लगा ही नहीं कि किसी दूसरे परिवार में आई हूं. लगा जैसे मैं तो वर्षों से यहीं रह रही थी. माताजी का स्नेहिल और शांत मुखमंडल जैसे हर समय मुझे अपनी मां का एहसास करा रहा था. पूरे घर में जैसे उन की ही शांत छवि समाई हुई थी. जैसा शांत उन का स्वभाव, वैसा ही उन का नाम भी शांति था. वे स्कूल में अध्यापिका थीं.

स्कूल के साथसाथ घर को भी मां ने जिस निपुणता से संभाला हुआ था, लगता था उन के पास कोई जादू की छड़ी है जो पलक झपकते ही सारी समस्याओं का समाधान कर देती है. घर के सभी सदस्य और दूरदूर तक रिश्तेदार उन की स्नेहिल डोर से सहज ही बंधे थे. घर में ससुरजी, भाईसाहब, भाभी और दीदी में भी मुझे उन के ही गुणों की छाया नजर आती थी. लगता था मम्मीजी के साथ रहतेरहते सभी उन्हीं के जैसे स्वभाव के हो गए हैं.

इन सारी मधुर स्मृतियों को याद करतेकरते मुझे वह क्षण भी याद आया जब राजेश का तबादला जयपुर हुआ था. मम्मीजी ने एक मिनट भी नहीं सोचा और तुरंत मुझे भी राजेश के साथ ही जयपुर भेज दिया. खुद वे मेरी गृहस्थी जमाने वहां आई थीं और सबकुछ ठीक कर के एक सप्ताह बाद ही लौट गई थीं. यह सब सोचतेसोचते न जाने कब मेरी आंख लग गई. अचानक सवेरे दूध वाले भैया ने दरवाजे की घंटी बजाई तो आवाज सुन कर हड़बड़ा कर मेरी आंख खुली. देखा साढ़े 6 बज चुके थे.

‘अरे, बच्चों को स्कूल के लिए कहीं देर न हो जाए,’ सोचते हुए झपपट पहले दूध लिया. दोनों को तैयार कर के स्कूल भेजतेभेजते दिमाग ने एक निर्णय ले लिया था. राजेश की चाय बना कर उन्हें उठाते हुए मैं ने अपने निर्णय से उन्हें अवगत करा दिया. मेरे निर्णय से राजेश भी सहमत थे. राजेश ने भाईसाहब को फोन किया, ‘‘आप मां को ले कर आज ही जयपुर आ जाइए. हम मां का इलाज यहीं करवाएंगे, लेकिन आप मां को उन की बीमारी के बारे में कुछ भी मत बताना. और हां, कैसे भी उन्हें यहां ले आइए.’’ भाईसाहब भी राजेश से बात कर के थोड़ा सहज हो गए थे और उसी दिन ढाई बजे की बस से रवाना होने को कह दिया.

‘राजेश के साथ पारिवारिक डाक्टर रवि के यहां हो आते हैं,’ मैं ने सोचा, फिर राजेश से बात की. वे राजेश के बहुत अच्छे मित्र भी हैं. हम दोनों को अचानक आया देख कर वे चौंक गए. जब हम ने उन्हें अपने आने का कारण बताया तो उन्होंने हमें महावीर कैंसर अस्पताल जाने की सलाह दी. उसी समय उन्होंने वहां अपने कैंसर स्पैशलिस्ट मित्र डा. हेमंत से फोन कर के दोपहर का अपौइंटमैंट ले लिया. डा. हेमंत से मिल कर कुछ सुकून मिला. उन्होंने बताया कि स्तन कैंसर से डरने की कोई बात नहीं है. आजकल तो यह पूरी तरह से ठीक हो जाता है. आप सब से पहले मुझे यह बताइए कि माताजी की यह समस्या कब सामने आई?

मैं ने बताया कि एक सप्ताह पहले माताजी ने झिझकते हुए मुझे अपने एक स्तन में गांठ होने की बात कही थी तो अंदर ही अंदर मैं डर गई थी. लेकिन मैं ने उन से कहा कि मम्मीजी, आप चिंता मत करो, सब ठीक हो जाएगा. जब 4-5 दिनों में वह गांठ कुछ ज्यादा ही उभर कर सामने आई तो मम्मीजी चिंतित हो गईं और उन की चिंता दूर करने के लिए भाईसाहब उन्हें दिखाने एक डाक्टर के पास ले गए. जब डाक्टर ने सभी जांच रिपोर्ट्स देखीं तो कैंसर की पुष्टि की.

सब सुनने के बाद डा. हेमंत ने भी कहा, ‘‘आप तुरंत माताजी को यहां ले आएं.’’ मैं ने उन्हें बता दिया कि वे आज शाम को ही यहां पहुंच रही हैं. डा. हेमंत ने अगले दिन सुबह आने का समय दे दिया. राहत की सांस ले कर हम घर चले आए.

रात साढ़े 8 बजे मम्मीजी भाईसाहब के साथ जयपुर पहुंच गईं. राजेश गाड़ी से उन्हें घर ले आए. आते ही मम्मीजी ने पूछा कि क्या हो गया है उन्हें? तुम ने यहां क्यों बुला लिया? मम्मीजी की बात सुन कर मैं ने सहज ही कहा, ‘‘मम्मीजी, ऐसा कुछ नहीं है. बच्चे आप को याद कर रहे थे और आप की गांठ की बात सुन कर राजेश भी कुछ विचलित हो गए थे, इसलिए मैं ने सामान्य चैकअप के लिए आप को यहां बुला लिया है. आप चिंता न करें, आप बिलकुल ठीक हैं.’’ मेरी बात सुन कर मम्मीजी सहज हो गईं. तभी बच्चों को चुप देख कर उन्होंने पूछा, ‘‘अरे, नीटूचीनू तुम दूर क्यों खड़े हो? यह देखो मैं तुम्हारे लिए क्याक्या लाई हूं.’’ बच्चे भी दादी को हंसते हुए देख दौड़ कर उन से लिपट पड़े. ‘‘दादीमां, आप कितने दिनों बाद यहां आई हो. अब हम आप को यहां से कभी भी जाने नहीं देंगे.’’ बच्चों के सहज स्नेह से अभिभूत मम्मीजी उन को अपने लाए खिलौने दिखाने में व्यस्त हो गईं, तो मैं रसोई में उन के लिए चाय बनाने चली गई. इसी बीच राजेश ने भाईसाहब को डा. हेमंत से हुई बातचीत बता दी. अगले दिन सुबह जल्दी तैयार हो कर मम्मीजी राजेश और भाईसाहब के साथ अस्पताल चली गईं.

कैंसर अस्पताल का बोर्ड देख कर मम्मी चौंकी थीं, पर राजेश ने होशियारी बरतते हुए कहा, ‘‘आप पढि़ए, यहां पर लिखा है, ‘भगवान महावीर कैंसर ऐंड रिसर्च इंस्टिट्यूट.’ कैंसर के इलाज के साथ जांचों के लिए यही बड़ा केंद्र है.’’ मां यह बात सुन कर चुप हो गई थीं. अगले 2 दिन जांचों में ही चले गए. इस दौरान उन्हें कुछ शंका हुई, वे बारबार मुझ से पूछतीं, ‘‘तुम ही बताओ, आखिर मुझे हुआ क्या है? ये दोनों भाई तो कुछ बताते नहीं. तुम तो कुछ बताओ. तुम्हें तो सब पता होगा?’’ मैं सहज रूप से कहती, ‘‘अरे, मम्मीजी, आप को कुछ नहीं हुआ है. यह स्तन की साधारण सी गांठ है, जिसे निकलवाना है. डाक्टर छोटी सी सर्जरी करेंगे और आप एकदम ठीक हो जाओगी.’’

‘‘पर यह गांठ कुछ दर्द तो करती नहीं है, फिर निकलवाने की क्या जरूरत है?’’ उन के मुंह से यह सुन कर मुझे सहज ही पता चल गया कि कैंसर के बारे में हमारी अज्ञानता ही इस रोग को बढ़ाती है. मम्मीजी ने तो मुझे यह भी बताया कि उन के स्कूल की एक अध्यापिका ने उन्हें एक वैद्य का पता बताया था जोकि बिना किसी सर्जरी के एक सप्ताह के भीतर अपनी आयुर्वेदिक गोलियों और चूर्ण से यह गांठ गला सकते हैं. मैं ने साफ कह दिया, ‘‘मम्मीजी, हमें इन चक्करों में नहीं पड़ना है.’’ मेरी बात सुन कर वे निरुत्तर हो गईं. जांच रिपोर्ट आने के तीसरे दिन ही डाक्टर ने औपरेशन की तारीख निश्चित कर दी थी. औपरेशन के एक दिन पहले ही रात को मम्मीजी को अस्पताल में भरती करवा दिया गया. राजेश और भाईसाहब मां की जरूरत का सामान बैग में ले कर अस्पताल चले गए.

अगले दिन ब्लडप्रैशर नौर्मल होने पर सवेरे 9 बजे मम्मीजी को औपरेशन थिएटर में ले जाया गया. हम लोग औपरेशन थिएटर के बाहर बैठ इंतजार कर रहे थे. साढ़े 11 बजे तक मम्मीजी का औपरेशन चला. उन के एक ही स्तन में 2 गांठें थीं. सर्जरी से डाक्टर ने पूरे स्तन को ही हटा दिया.

अचानक ही आईसीयू से पुकार हुई, ‘‘शांति के साथ कौन है?’ सुन कर हम सभी जड़ हो गए. राजेश को आगे धकेलते हुए हम ने जैसेतैसे कहा, ‘‘हम साथ हैं.’’ डाक्टर ने राजेश को अंदर बुलाया और कहा कि औपरेशन सफल रहा है. अब इस स्तन के टुकड़े को जांच के लिए मुंबई प्रयोगशाला में भेजेंगे ताकि यह पता लग सके कि कैंसर किस अवस्था में था. राजेश को उन्होंने कहा, ‘‘आप चिंता नहीं करें, आप की माताजी बिलकुल ठीक हैं. औपरेशन सफलतापूर्वक हो गया है तथा 4 से 6 घंटे बाद उन्हें होश आ जाएगा.’’

राजेश जब बाहर आए तो वे सहज थे. उन को शांत देख कर हमें भी चैन आया. तभी भाईसाहब ने परेशान होते हुए पूछा, ‘‘क्या हुआ? तुम्हें अंदर क्यों बुलाया था?’’ राजेश ने बताया कि चिंता की बात नहीं है. डाक्टर ने सर्जरी कर हटाए गए स्तन को दिखाने के लिए बुलाया था. मम्मीजी बिलकुल ठीक हैं.

शाम को करीब साढ़े 7 बजे मम्मीजी को होश आया. होश आते ही उन्होंने पानी मांगा. भाईसाहब ने उन्हें थोड़ा पानी पिलाया. तब तक दीदी भी बीकानेर से आ चुकी थीं. दीदी आते ही रोने लगीं तो हम ने उन्हें मां के सफल औपरेशन के बारे में बताया. जान कर दीदी भी शांत हो गईं. अगले दिन सुबह मां को आईसीयू से वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया. उन्हें हलका खाना जैसे खिचड़ी, दलिया, चायदूध देने की इजाजत दी गई थी.

3 दिनों तक तो उन्हें औपरेशन कहां हुआ है, यह पता ही नहीं चला, लेकिन जैसे ही पता चला वे बहुत दुखी हुईं और रोने लगीं. तब मैं ने उन्हें बताया, ‘‘मम्मीजी, अब चिंता की कोई बात नहीं है. एक संकट अचानक आया था और अब टल चुका है. अब आप एकदम स्वस्थ हैं.’’ 10 दिनों तक हम सभी हौस्पिटल के चक्कर लगाते रहे. मम्मीजी को अस्पताल से छुट्टी मिल गई तो फिर घर आ गए. घर पहुंच कर हम सभी ने राहत की सांस ली. भाईसाहब और दीदी को हम ने रवाना कर दिया. मां भी तब तक थोड़ा सहज हो गई थीं. अब उन्हें कैंसर के बारे में पता चल चुका था और वे समझ चुकी थीं कि औपरेशन ही इस का इलाज है.

एक महीने में उन के टांके सूख गए थे और हम ने हौस्पिटल जा कर उन के टांके कटवाए, क्योंकि वे एक मोटे लोहे के तार से बंधे थे. डाक्टर ने मम्मीजी का हौसला बढ़ाया तथा उन्हें बताया कि अब आप बिलकुल ठीक हैं. आप ने इस बीमारी का पहला पड़ाव सफलतापूर्वक पार कर लिया है. पहले पड़ाव की बात सुन कर हम सभी चौंक गए. ‘‘डाक्टर ये आप क्या कह रहे हैं?’’ राजेश ने जब डाक्टर से पूछा तो उन्होंने बताया कि आप की माताजी का औपरेशन तो अच्छी तरह हो गया है, लेकिन भविष्य में यह बीमारी फिर से उभर कर सामने न आए, इसलिए हमें दूसरे चरण को भी पार करना होगा और वह दूसरा चरण है, कीमोथेरैपी?

‘‘कीमोथेरैपी,’’ हम ने आश्चर्य जताया. डाक्टर ने बताया कि कैंसर अभी शुरुआती दौर में ही है. यह यहीं समाप्त हो जाए, इस के लिए हमें कीमोथेरैपी देनी होगी. कैंसर के कीटाणु के विकास की थोड़ीबहुत आशंका भी अगर हो तो उसे कीमोथेरैपी से खत्म कर दिया जाएगा. डाक्टर ने बताया कि आप की माताजी के टांके अब सूख चुके हैं. सो, ये कीमोथेरैपी के लिए बिलकुल तैयार हैं. अब आप इन्हें कीमोथेरैपी दिलाने के लिए 4 दिनों बाद यहां ले आएं तो ठीक रहेगा. पता चला, मां को कीमोथेरैपी दी जाएगी.

कैंसर में दी जाने वाली यह सब से जरूरी थेरैपी है. 4 दिनों बाद मैं और राजेश मां को ले कर हौस्पिटल पहुंचे. 9 बजे से कीमोथेरैपी देनी शुरू कर दी गई. थेरैपी से पहले मां को 3 दवाइयां दी गईं ताकि थेरैपी के दौरान उन्हें उलटियां न हों. 2 बोतल ग्लूकोज की पहले, फिर कैंसर से बचाव की वह लाल रंग की बड़ी बोतल और उस के बाद फिर से 3 बोतल ग्लूकोज की तथा एक और छोटी बोतल किसी और दवाई की ड्रिप द्वारा मां को चढ़ाई जा रही थीं. धीरेधीरे दी जाने वाली इस पहली थेरैपी के खत्म होतेहोते शाम के 7 बज चुके थे. मैं अकेली मां के पास बैठी थी. शाम को औफिस से राजेश सीधे हौस्पिटल ही आ गए थे.

रात को 8 बजे हम तीनों घर पहुंचे. थेरैपी की वजह से मम्मीजी का सिर चकरा रहा था. हलका खाना खा कर वे सो गईं. अब अगली थेरैपी उन्हें 21 दिनों के बाद दी जानी थी. पहली थेरैपी के बाद ही उन के घने लंबे बाल पूरी तरह झड़ गए. यह देख कर हम सभी काफी दुखी हुए. बाल झड़ने के कारण मां पूरे समय अपने सिर को स्कार्फ से ढक कर रखती थीं. कई बार मां इस दौरान कहतीं, ‘‘कैंसर के औपरेशन में इतनी तकलीफ नहीं हुई जितनी इस थेरैपी से हो रही है.’’

मैं उन को ढाढ़स बंधाती, ‘‘मम्मीजी, आप चिंता मत करो, यह तो पहली थेरैपी है न, इसलिए आप को ज्यादा तकलीफ हो रही है. धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा.’’ थेरैपी के प्रभाव के फलस्वरूप उन की जीभ पर छाले उभर आए. पानी पीने के अलावा कोई चीज वे सहज रूप से नहीं खापी पाती थीं. यह देख कर हम सभी को बहुत कष्ट होता था. उन के लिए बिना मिर्च, नमक का दलिया, खिचड़ी बनाने लगी, ताकि वे कुछ तो खा सकें. फलों का जूस भी थोड़ाथोड़ा देती रहती थी ताकि उन को कुछ राहत मिले. इस तरह 21-21 दिन के अंतराल में उन की सभी 6 थेरैपी पूरी हुईं.

हालांकि ये थेरैपी मम्मीजी के लिए बहुत कष्टकारी थीं लेकिन हम सभी यही सोचते थे कि स्वास्थ्य की तरफ मां का यह दूसरा चरण भी सफलतापूर्वक संपन्न हो जाए, तो अच्छा है. जिस दिन अंतिम थेरैपी पूरी हुई तो मां के साथ मैं ने और राजेश ने भी राहत की सांस ली. जब डाक्टर से मिलने उन के कैबिन में गए तो खुश होते हुए डाक्टर ने हमें बधाई दी, ‘‘अब आप की माताजी बिलकुल स्वस्थ हैं. बस, वे अपने खानेपीने का ध्यान रखें. पौष्टिक भोजन, फल, सलाद और जूस लेती रहें. सामान्य व्यायाम, वाकिंग करती रहें, तो अच्छा होगा.’’ इस के साथ ही डाक्टर ने हमें यह हिदायत विशेषरूप से दी कि जिस स्तन का औपरेशन हुआ है उस तरफ के हाथ पर किसी तरह का कोई कट नहीं लगने पाए. डाक्टर से सारी हिदायतें और जानकारी ले कर हम घर आ गए. अब हर 6 महीने के अंतराल में मां की पूरी जांच करवाते रहना जरूरी था ताकि उन का स्वास्थ्य ठीक रहे और भविष्य में इस तरह की कोई परेशानी सामने न आए. एक महीने आराम के बाद मम्मीजी वापस बीकानेर लौट गई थीं.

6 साल हो गए हैं. अब तो डाक्टर ने जांच भी साल में एक बार कराने के लिए कह दिया. मम्मीजी का जीवन दोबारा उसी रफ्तार और क्रियाशीलता के साथ शुरू हो गया. आज मम्मीजी अपने स्कूल और महल्ले में सब की प्रेरणास्रोत हैं. आज वे पहले से भी अधिक ऐक्टिव हो गई हैं. अब वे 2 स्तरों पर अध्यापन करवाती हैं- एक अपने स्कूल में और दूसरे कैंसर के प्रति सभी को जागरूक व सजग रहने के लिए प्रेरित करती हैं. उन्हें स्वस्थ और प्रसन्न देख कर मेरे साथ पूरा परिवार और रिश्तेदार सभी फिर से उन के स्नेह की छत्रछाया में खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं.

दूध की धुली : नासमझी में उठाया गया कैसा कदम

पृथ्वी सड़क के किनारे चुपचाप चल रहा है. संगीता हरे रंग का सूट पहने हुए है, उस का चेहरा पीला पड़ गया है. हाथों में जेवर की पोटली और किताबों का बैग है. संगीता चलतचलते सरसरी निगाह से पृथ्वी को देख रही है. जब बाजार समाप्त हो गया, तो दोनों पासपास आ गए और एक रिकशे में बैठ कर स्टेशन की ओर चल दिए.

संगीता बोली, ‘‘मुझे बहुत डर लग रहा है.’’

पृथ्वी बोला, ‘‘जब मैं हूं तब किस बात का डर. एक बात बताओ, रास्ते में तुम्हें कोई जानने वाला तो नहीं मिला?’’

संगीता ने कहा, ‘‘नहीं, एक लड़की मिली थी. परंतु तब तुम मेरे से दूर थे. मातापिता परेशान होंगे, मैं उन से कह कर आई थी कि कालेज जा रही हूं. न जाने दिल क्यों इतना घबरा रहा है?’’

पृथ्वी ने आश्वासन दिया, ‘‘डरने की क्या बात है, ट्रेन में बैठ कर सीधे मुंबई पहुंच जाएंगे. एक दिन का तो सफर है. वहां बिलकुल अपरिचित लोग होंगे. बस, मैं और तुम. वहां जा कर एक होटल में ठहर जाएंगे. वैसे भी हमारे घर वालों को, हम पर किसी तरह का शक थोड़े ही हुआ होगा.

संगीता घबराती हुई बोली, ‘‘मुझे घर पर न पा कर मम्मीपापा कितने परेशान होंगे, बहुत डर लग रहा है. पता नहीं क्यों?’’

पृथ्वी हंसते हुए बोला, ‘‘सब से पहले तो तुम्हारे कालेज में पूछताछ होगी. बहरहाल, यह गहने कैसे ले कर आ पाई?’’

‘‘मुझे जगह पता थी. रात को ही अलमारी खोल कर निकाल लिए थे. अलमारी का ताला बंद कर दिया है,’’ संगीता ने बताया.

रिकशा वाला सब सुन रहा था. उन्होंने स्टेशन के लिए 50 रुपए में रिकशा तय किया था. जब स्टेशन आया तो रिकशा वाला हेकड़ी से बोला, ‘‘मैं तो 500 रुपए लूंगा.’’

‘‘500 रुपए,’’ दोनों एकसाथ बोले, ‘‘500 रुपए किस बात के?’’

‘‘चुपचाप 500 रुपए दे दो वरना अभी पुलिस को बुलाता हूं,’’ रिकशे वाले ने कहा.

पृथ्वी ने चुपचाप जेब से 500 रुपए निकाल कर दे दिए. संगीता घबरा रही थी. जल्दीजल्दी पृथ्वी ने मुंबई के फर्स्टक्लास के 2 टिकट ले लिए. टिकट ले कर तेजी से दोनों ट्रेन के फर्स्टक्लास के डब्बे में जा कर बैठ गए और दरवाजा अंदर से बंद कर लिया.

संगीता ने रोते हुए कहा, ‘‘अब तो मुझे और भी ज्यादा डर लग रहा है.’’

पृथ्वी ने समझाया,  ‘‘ऐसी कोई बात नहीं है. फियर इंस्टिंक्ट एक चीज है. लिखने वाले ने तो यह भी लिखा है कि… मगर… खैर छोड़ो… हां, तुम्हारी जरा सी घबराहट ने रिकशा वाले को 500 रुपए का फायदा करा दिया. यदि तुम रिकशे में यह बात न बोलती तो ऐसा कुछ भी न होता. मुझे कुछ नहीं कहना. मगर दुख है तो सिर्फ इस बात का कि मैं मनोविज्ञान का विद्यार्थी और रिकशे वाला मुझे लूट कर चला गया.’’

बाहर दरवाजे पर खटखट हुई, दोनों ने एकदूसरे को डरते हुए देखा. पृथ्वी बोला, ‘‘साले ने 500 रुपए ले कर भी पुलिस को खबर कर दी.’’

संगीता घबराहट के मारे कांप रही थी, वह बोली, ‘‘अब क्या होगा?’’

‘‘चुपचाप देखती रहो, मुझ पर विश्वास रखो. पीछे के दरवाजे से उतर कर किसी दूसरे डब्बे में बैठ जाते हैं,’’ कह कर पृथ्वी ने पिछला दरवाजा खोला और दोनों उतर कर चल दिए. परंतु दूसरे किसी डब्बे में नहीं बैठ पाए, क्योंकि किसी भी डब्बे का दरवाजा खुला हुआ नहीं था. दोनों चुपचाप प्लेटफौर्म पर चलने लगे.

‘‘अपना किताबों का यह बैग तो छोड़ दो,’’ पृथ्वी ने संगीता से कहा.

एक सिपाही घूमता हुआ उधर ही आ रहा था. संगीता ने जल्दी से अपना बैग एक मालगाड़ी के डब्बे में रख दिया. सिपाही इतने में पास आ कर पृथ्वी से बोला, ‘‘आप लोग कहां जाएंगे?’’

पृथ्वी बोला, ‘‘हम तो ऐसे ही घूमने चले आए हैं. अब जा रहे हैं.’’

‘‘मगर आप की गाड़ी तो छूटने वाली है. आप ने फर्स्टक्लास का टिकट बुक कराया था,’’ सिपाही अपनी बात पर जोर देते हुए बोला.

‘‘ऐ मिस्टर, मैं ने कहीं का भी टिकट बुक कराया हो आप को इस से क्या लेनादेना. बोलो, क्या कर लोगे तुम? कौन होते हो यह सब पूछने वाले?’’

‘‘अरे भाई, गुस्सा क्यों होते हो? मैं तो सेवक हूं आप का. जब 50 रुपए की जगह 500 रुपए रिकशे वाले को दे सकते हो, तो हुजूर, थोड़ा सा ईनाम हमें भी मिल जाए.’’

पृथ्वी पूरी बात समझ गया. उसे 500 रुपए का नोट देते हुए बोला, ‘‘हांहां, तुम भी लो.’’ सिपाही रुपए ले कर चला गया. संगीता बोली,  ‘‘हमारे मन में चोर है न, इसलिए हम हर बात से डरते हैं. चलो, फिर वापस चलते हैं.’’

‘‘बेकार में डरडर कर इधरउधर भटकते रहें, क्या फायदा,’’ पृथ्वी ने खीझते हुए कहा, ‘‘बेकार ही कंपार्टमैंट से आए. चलो, वापस वहीं चलते हैं.’’

दोनों तेजी से दौड़े परंतु कंपार्टमैंट में घुसने से पहले ही एक और पुलिस वाला आया और बोला,  ‘‘अरे, झगड़ा बढ़ाने से क्या फायदा, हम सब को 1000-1000 रुपए दो और मौज करो,’’ और हाहा कर हंसने लगा.

संगीता तो डर के मारे बुरी तरह से कांप रही थी. पृथ्वी बोला, ‘‘मैं कोई ईनाम वगैरा नहीं दूंगा. मैं ने कोई दानखाता खोल रखा है क्या? मैं आप लोगों की फितरत समझ रहा हूं.’’

‘‘देखिए साहब, आप पढ़ेलिखे मालूम पड़ते हैं. आओ, पहले डब्बे में बैठ जाएं. यहां भीड़ इकट्ठी हो जाएगी और आप की बदनामी होगी. जब दोनों कंपार्टमैंट में चढ़ गए तो पुलिस वाला भी पीछेपीछे पहुंच गया और बोला, ‘‘थोड़ी देर के लिए आप थाने चलिए.’’

‘‘मैं किसी थानेवाने नहीं जाऊंगा. मेरी गाड़ी छूट जाएगी,’’ गुस्से से पृथ्वी ने कहा.

‘‘देखिए भाईसाहब, अब आप इस गाड़ी से तो नहीं जा सकते. मैं ने तो पहले ही आप से कहा था कि आप हमारे साहब की सेवा में 1000 रुपए दे दीजिए.’’ अब की बार साहब भी उसी कंपार्टमैंट में आ गए, बोले,  ‘‘क्यों बे शकीरा के बच्चे, जाओ, हथकड़ी ले कर आओ. यह लड़का इस लड़की को भगा कर लिए जा रहा है. इस को गिरफ्तार कर के हवालात में बंद कर दो.’’

पृथ्वी ने 2-2 हजार रुपए के 5 नोट निकाल कर उन के हाथ में थमा दिए. बड़े साहब उन नोटों को जेब में रखते हुए बोले, ‘‘अच्छा सर, चलिए, बिना हथकड़ी लगाए ही आप को ले कर चलते हैं.’’

अब पृथ्वी बोला, ‘‘अब मैं थाने क्यों जाऊं. मैं ने 10,000 रुपए किस बात के दिए हैं?’’

‘‘देखो लड़के, यह 10,000 रुपए मैं ने सिर्फ इस बात के लिए हैं कि तुम्हें थाने हथकड़ी डाल कर न ले कर जाऊं.’’

संगीता बहुत देर से साहस जुटा रही थी, बोली, ‘‘देखिए, मैं अपनी मरजी से जा रही हूं. आप बेकार में हमें परेशान मत कीजिए.’’

‘‘हांहां मुन्नी, मैं भी तो यही कह रहा हूं, थाने चल कर थोड़ी देर बैठिएगा. वहीं आप के मम्मीपापा को बुलाया जाएगा. तब जैसा होगा, कर दिया जाएगा और उस सूरत में आप इसी ट्रेन से शाम को जा सकते.’’ तभी पहला सिपाही भी आ गया और बैग देते हुए बोला, ‘‘संगीताजी, आप का बैग. आप ने मालगाड़ी में छोड़ दिया था.’’

संगीता ने बैग हाथ में ले लिया. उस के बाद दोनों चुपचाप नीचे प्लेटफौर्म पर उतर गए. पृथ्वी ने पुलिस अफसर से इजाजत मांगी कि वह संगीता से एकांत में कुछ बात कर ले. उस पर पुलिस वाले ने कहा, ‘‘हांहां, जरूर कर लीजिए.’’ और थोड़ी दूर जा कर खड़ा हो गया. आसपास काफी भीड़ इकट्ठी हो गई थी. पृथ्वी काफी परेशान था, बोला, ‘‘अब क्या होगा?’’

‘‘मुझे मेरे घर या कालेज भेज दीजिए,’’ संगीता ने रोते हुए कहा.

‘‘घर मैं भी जाना चाहता हूं, लेकिन ये कमीने आसानी से पीछा नहीं छोड़ रहे.’’

‘‘कोई ऐसी तरकीब निकालें, जिस से पिताजी को पता न चले,’’ संगीता ने पृथ्वी से घबराते हुए कहा.

‘‘कोशिश तो ऐसी ही करूंगा. मेरा विचार है कि जितना भी रुपया है, इन्हें दे दिया जाए और यहां से वापस चलते हैं. यहां अगर हमें किसी ने पहचान लिया तो मुसीबत हो जाएगी.’’ इस बीच, सिपाही बोला, ‘‘चलिए साहब, थाने.’’

‘‘इंस्पैक्टर साहब, हम से गलती हुई है. अब हम वापस जा रहे हैं,’’ संगीता ने इंस्पैक्टर साहब को अपनी पोटली दे दी.

पृथ्वी का साथ दम तोड़ चुका था. संगीता निर्जीव सी सब कार्य कर रही थी. इसी झगड़े में 11 बज गए. संगीता एक रिकशे पर बैठ कर कालेज चली गई. पृथ्वी दूसरे रिकशे पर बैठ कर अपने घर चला गया. शकीरा ने इंस्पैक्टर से पूछा, ‘‘अगर इन लोगों ने अपने मांबाप को बता दिया तो क्या होगा?’’

‘‘तू गधा है. क्या वे अपने मांबाप को यह बताएंगे कि हम भाग रहे थे. फिर मैं तो उन को जानता भी नहीं. हमें कोई कुछ क्यों बताएगा या देगा?’’

शाम को 4 बजे जब संगीता घर पहुंची तो उस का चेहरा उतरा हुआ था. फिर भी वह हंस रही थी. कहने लगी, ‘‘मम्मी, आज तो कालेज में यह हुआ वह हुआ.’’ उस के बाद कमरे में अकेली जा कर लेट गई और सोचने लगी, ‘अब क्या होगा, कैसे होगा?’

संगीता को कड़वा लग रहा था. उस ने अधिक नहीं खाया. बस, एक ही सवाल उस के जेहन में घूम रहा था, ‘कैसे होगा?’

अलमारी की तरफ अभी तक किसी का ध्यान नहीं गया था.

कैसे होगा? शाम को उस की सहेली आ गई थी. उस ने बताया, ‘‘आज उस के कालेज में फिजिक्स के पीरियड में सब लड़कियां खिड़कियों पर चढ़ गईं और जब फिजिक्स की टीचर आईं, तो उन के कहने पर नीचे उतरीं.’’ संगीता ने कुछ नहीं सुना. बस, उस का दिल घबरा रहा था, ‘अब क्या होगा, कैसे होगा?’

रात को उसे नींद भी नहीं आई. पुलिस, भीड़, रेलवे स्टेशन, बैग, गहने, पोटली बराबर दिमाग में घूम रहे थे और एक ही सवाल बारबार दिमाग में हथियार के जैसे प्रहार कर रहा था, अब कैसे होगा?’

2 बजे रात चुपके से संगीता उठी. उस ने छिपाई हुई चाबी को हाथ में ले कर अलमारी का दरवाजा खोल दिया. बचे हुए गहनों को तितरबितर कर दिया. एक हार पोटली में से जमीन पर डाल दिया. कपड़े आंगन में फैला दिए. दरवाजे की चटकनी खोल दी और फिर जा कर अपने बैड पर लेट गई. दिमाग में एक ही बात हथौड़े जैसे प्रहार कर रही थी कि अब क्या होगा?

सुबह होते ही अड़ोसपड़ोस में शोर मचा हुआ था कि रामप्रकाश के घर में चोरी हो गई. चोर अलमारी खोल कर कुछ लाख रुपए और गहने ले गए हैं. शायद किसी आवाज से डर गए थे. इसलिए सारे गहने ले कर नहीं गए. रामप्रकाश ने लोगों को बताया कि बड़े कमाल की बात है. उन चोरों ने बाहर का दरवाजा कैसे खोला? समझ में नहीं आ रहा है. मैं तो रात को सबकुछ देख कर सोता हूं और सब से बड़ी बात, वे सारे गहने ले कर नहीं गए. यों समझो कि भारी नुकसान होने से बच गए.

चोरी की सूचना पुलिस को दी गई. वहां से एक इंस्पैक्टर और 2 सिपाही जांचपड़ताल के लिए आए. उन्होंने दरवाजे को गौर से देखा. वह अलमारी भी देखी. अलमारी की चाबी भी देखी. लेकिन संगीता को देखते ही पहचान गए. संगीता भी उस पुलिस औफिसर और सिपाही को पहचान गई. तब पुलिस वाले ने संगीता की तरफ देखते हुए कहा, ‘‘यह काम तो किसी घर वाले का ही लगता है.’’

इस पर संगीता की आंखें, पुलिस वाले की आंखों से जा मिलीं. उन में याचना थी. पुलिस वाले ने घर के चारों और देखा और बोला, ‘‘कोई किराएदार ऊपर रहता है क्या?’’

‘‘नहीं साहब,’’ राम प्रकाश ने कहा.

‘‘यह घर के आदमी का काम नहीं हो सकता. मेरा एक लड़का 8 साल का है. एक लड़की है, जो दूध की जैसी धुली हुई है. मैं हूं. मेरी पत्नी है. यह सच्ची बात है कि दरवाजा बाहर से ही खुला है. मगर कमाल है, साहब,’’ राम प्रकाश बोला.

पुलिस वाले ने कहा, ‘‘चोरी का पता लगाने की पूरी कोशिश की जाएगी. मगर मेरी सलाह मानिए, आप अपना जेवरपैसा. अब अलमारी में न रख कर, बैंक में रखें. हो सकता है चोर दोबारा चोट करे.’’

पुलिस वाले ने वहीं बैठ कर रिपोर्ट तैयार की. वहां उपस्थित लोगों के हस्ताक्षर लिए. पुलिस वाले के साथ आए सिपाही ने जाते हुए सरकारी निगाह से संगीता की तरफ देखा और बोला, ‘दूध की धुली’ और लंबी सी डकार लेता हुआ दरवाजे से बाहर निकल गया.

इंसाफ का अंधेरा: 5 कैदियों ने रचा जेल में कैसा खेल – भाग 3

‘‘4 घंटे की ड्यूटी में कोई एक पुलिस वाला अंदर का गेट पार कर के पेशाब के लिए तो जाएगा ही. हमें उसी समय अंदर का गेट बंद कर देना है. एक सिपाही रहेगा. बहुत आसानी रहेगी. और अगर किसी तरह हम मेन गेट के संतरी को अपने काम करने वाले कमरे तक ला सके और उसे किसी तरह कमरे में बंद कर दिया तो हमें ज्यादा समय मिल सकता है. बोलो, तैयार हो?’’

सब ने सहमति जताई. यह योजना बाकी चारों को बहुत पसंद आई थी. वे अब बारीक निगाहों से समय का, गेट के संतरी का, चाबी का, इमर्जैंसी सायरन पर ध्यान देने लगे थे.

इधर बूढ़े बाप के शरीर में अब इतनी ताकत नहीं थी कि वह चलफिर सके. बेटे की जिंदगी को ले कर जो इच्छाएं मन में थीं, वे तो खत्म होने के कगार पर थीं. बस यही आखिरी इच्छा थी कि मरने से पहले बेटा कैद से बाहर आ जाए.

बाप को बेटे की शादी की तो उम्मीद नहीं थी. कौन देगा जेल गए बेटे को अपनी लड़की? खेतीबारी बिक चुकी थी. मजदूरी करने की शरीर में ताकत नहीं थी. इस बुढ़ापे में वह मंदिर के पास पड़ा रहता. वकील से भी बहुत पहले कह दिया था कि हाईकोर्ट का जो फैसला हो, खबर भेज देना. वकील की एकमुश्त फीस दी जा चुकी थी.

आज मौका मिल ही गया उन पांचों को. दोपहर 2 बजे एक संतरी ने अपने साथ ड्यूटी करने वाले संतरी से कहा, ‘‘मैं हलका हो कर आता हूं.’’

जैसे ही उन्हें अंदर का गेट खोलने की आवाज आई, वे पांचों फुरती से बाहर निकले. एक ने दौड़ कर अंदर का गेट बंद किया. 2 लोग कैंची अड़ा कर संतरी को अंदर कमरे में ले गए. जो कपड़े सिल कर तैयार थे, उन्होंने पहन लिए थे. उस ने चाबी छीन कर मेन गेट पर लगाई.

एक कैदी ने इमर्जैंसी सायरन बंद करने की कोशिश की, लेकिन बात बन नहीं पाई. मेन गेट खुलते ही उस ने बाकी चारों से कहा, ‘‘जल्दी निकलो,’’ और वे तेज कदमों से बाहर की ओर बढ़े.

किसी काम से आते हुए एक संतरी ने उन्हें देख लिया. उसे हैरानी हुई. उस ने सोचा, ‘शायद पांचों की जमानत हो गई है या हाईकोर्ट से बरी हो गए हैं. लेकिन इन्हें तो शाम को छोड़ा जाता…’

उसे कुछ शक हुआ. वह तेजी से जेल की तरह बढ़ा. मेन गेट का दरवाजा खुला हुआ था और अंदर से दोनों संतरियों के चीखने की आवाजें आ रही थीं.

वह संतरी अंदर गया. उस ने अंदर के गेट का दरवाजा खोला. दोनों ने सारी बातें बताईं और तुरंत इमर्जैंसी सायरन के स्विच पर उंगली रखी.

सायरन की आवाज उन पांचों के कानों में पड़ी. वे मेन सड़क तक आ चुके थे. उन्होंने सामने से आती हुई बस देखी और बस के पीछे लटक गए. बसस्टैंड के आने से पहले ही वे पांचों अलगअलग हो गए.

उस ने पहले गांव जाने पर विचार किया, फिर तुरंत अपना इरादा बदला. वह पैदल ही शहर की भीड़भाड़ से गुजरते हुए आगे बढ़ता रहा. वह कहां जा रहा था, उसे खुद पता नहीं था.

वह शहर के बाहर चलते हुए खेतखलिहानों को पार करते हुए एक पहाड़ी पर पहुंचा. पहाड़ी पर एक उजाड़ सा मंदिर बना हुआ था. वह वहीं एक पत्थर पर बैठ गया. उसे नींद आई या वह बेहोश हो गया.

अचानक उस की नींद खुल गई. उसे कुछ खतरे का आभास हुआ. उस ने उजाड़ मंदिर की दीवार की आड़ से देखा. दर्जनभर हथियारबंद पुलिस वाले उसे तेजी से अपनी तरफ बढ़ते हुए दिखाई दिए. वह भागा. नीचे गहरी खाई थी. बड़ीबड़ी चट्टानों के बीच बहती हुई नदी थी. सिपाही उस पर बंदूकें ताने हुए थे.

एक सबइंस्पैक्टर था. उस ने उसे अपनी रिवौल्वर के निशाने पर लेते हुए कहा, ‘‘बचने का कोई रास्ता नहीं है. रुक जाओ, नहीं तो मारे जाओगे.’’

उस ने अपनेआप को पहाड़ से नीचे गिरा दिया. सैकड़ों फुट की ऊंचाई से गिरता हुआ वह पथरीली चट्टान से टकराया. तत्काल उस की मौत हो गई.

जेल से भागने के एक घंटे पहले ही हाईकोर्ट ने उसे बाइज्जत बरी कर दिया था. उस की रिहाई के आदेश जारी कर दिए गए थे. बूढ़े बाप तक वकील ने खुद गांव जा कर खबर सुनाई.

पर थोड़ी देर में गांव की चौकी से एक पुलिस वाले ने आ कर उस से कहा, ‘‘तुम्हारा बेटा 4 लोगों के साथ जेल तोड़ कर भागा था. 3 पकड़े गए हैं. एक भागते हुए ट्रक के नीचे आ गया और तुम्हारे बेटे ने पुलिस से बचने के लिए पहाड़ी से छलांग लगा दी और मर गया.’’

कुछ देर तक बाप सकते में रहा, फिर उस ने अपनेआप से कहा, ‘‘मेरी चिंता खत्म. आज सचमुच रिहा हो गया मेरा बेटा और मैं भी.’’ बाप भी लड़खड़ा कर गिर पड़ा और फिर दोबारा न उठ सका.

अधूरा प्यार : जुबेदा ने अशोक के सामने कैसी शर्त रखी- भाग 3

‘‘क्यों शर्मिंदा कर रही हो… इतना महंगा गिफ्ट मेरी हैसियत से बाहर की बात है.’’

जुबेदा बोली, ‘‘ऐसा कुछ भी नहीं है. यह तो पर्सनली तुम्हारे लिए है. मां ने कहा है कि जाने से पहले तुम्हारे भाई और बहन के लिए भी कुछ देना है…तुम्हें गिफ्ट पसंद आया या नहीं?’’

मैं ने कहा, ‘‘पसंद न आने का सवाल ही नहीं है. इतने सुंदर और कौस्टली गिफ्ट की तो मैं सपने में भी कल्पना नहीं कर सकता हूं.’’

‘‘खैर, बातें न बनाओ. मां ने कल दुबई मौल में मिलने को कहा है. मैं भी रहूंगी. गाड़ी भेज दूंगी, आ जाना.’’

अगले दिन शनिवार को जुबेदा ने गाड़ी भेज दी. मैं दुबई मौल में जुबेदा और उस की मां के साथ बैठा था. उस की मां ने मेरे पूरे परिवार के बारे में पूछा. फिर मौल से ही मेरे भाईबहन के लिए गिफ्ट खरीद कर देते हुए कहा, ‘‘तुम बहुत अच्छे लड़के हो. जुबेदा भी तुम्हारी तारीफ करते नहीं थकती है. अभी तो तुम्हारी शादी नहीं हुई है. अगर तुम्हें दुबई में अच्छी नौकरी मिले तो क्या यहां सैटल होना चाहोगे?’’

उन का अंतिम वाक्य मुझे कुछ अजीब सा लगा. मैं ने कहा, ‘‘दुबई बेशक बहुत अच्छी

जगह है, पर मेरे अपने लोग तो इंडिया में ही हैं. फिर भी वहां लौट कर सोचूंगा.’’

जुबेदा मेरी ओर प्रश्नभरी आंखों से देख रही थी. मानो कुछ कहना चाहती हो पर बोल नहीं पा रही थी. मौल से निकलने से पहले एक मिनट के लिए मुझ से अकेले में कहा कि उसे मेरे दुबई में सैटल होने के बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए. खैर अगले दिन रविवार को मैं इंडिया लौट गया.

मेरे इंडिया पहुंचने के कुछ घंटों के अंदर ही जुबेदा ने मेरे कुशल पहुंचने की जानकारी ली. कुछ दिनों के अंदर ही फिर जुबेदा का फोन आया, बोली, ‘‘अशोक, तुम ने क्या फैसला लिया दुबई में सैटल होने के बारे में?’’

मैं ने कहा, ‘‘अभी तक कुछ नहीं सोचा… इतनी जल्दी यह सोचना आसान नहीं है.’’

‘‘अशोक, यह बात तो अब तक तुम भी समझ गए हो कि मैं तुम्हें चाहने लगी हूं. यहां तक कि मेरे मातापिता भी यह समझ रहे हैं. अच्छा, तुम साफसाफ बताओ कि क्या तुम मुझे नहीं चाहते?’’ जुबेदा बोली.

मैं ने कहा, ‘‘हां, मैं भी तुम्हें चाहता हूं. पर हर वह चीज जिसे हम चाहते हैं, मिल ही जाए जरूरी तो नहीं?’’

‘‘पर प्रयास तो करना चाहिए अपनी मंजिल तक पहुंचने के लिए,’’ जुबेदा बोली.

‘‘मुझे क्या करना होगा तुम्हारे मुताबिक?’’ मैं ने पूछा.

‘‘तुम्हें मुझ से निकाह करना होगा. इस के लिए तुम्हें सिर्फ एक काम करना होगा. यानी इसलाम कबूल करना होगा. बाकी सब यहां हम लोग संभाल लेंगे. और हां, चाहो तो अपने भाई को भी यहां बुला लेना. बाद में उसे भी अच्छी नौकरी दिला देंगे.’’

‘‘इस्लाम कबूल करना जरूरी है क्या? बिना इस के नहीं हो सकता है निकाह?’’

‘‘नहीं बिना इसलाम धर्म अपनाए यहां तुम मुझ से शादी नहीं कर सकते हो. तुम ने देखा है न कि मां के लिए मेरे पिता को भी हमारा धर्म स्वीकार करना पड़ा था. उन को यहां आ कर काफी फायदा भी हुआ. प्यार में कंप्रोमाइज करना बुरा नहीं.’’

‘‘सिर्फ फायदे के लिए ही सब काम नहीं किया जाता है और प्यार में कंप्रोमाइज से बेहतर सैक्रिफाइस होता है. मैं दुबई आ सकता हूं, तुम से शादी भी कर सकता हूं, पर मैं भी मजबूर हूं, अपना धर्म नहीं बदल सकता हूं… मैं एक विकल्प दे सकता हूं… तुम इंडिया आ सकती हो… यहां शादी कर सैटल हो सकती हो. मैं तुम्हें धर्म बदलने को मजबूर नहीं करूंगा. धर्म की दीवार हमारे बीच नहीं होगी.’’

‘‘नहीं, मेरे मातापिता इस की इजाजत नहीं देंगे. मेरी मां भी और मैं भी अपने मातापिता की एकलौती संतान हैं. हमारे यहां बड़ा बिजनैस और प्रौपर्टी है. फिर वैसे भी मुझे दूसरे धर्म के लड़के से शादी करने की न तो इजाजत मिलेगी और न ही इस की हिम्मत है मुझ में,’’ जुबेदा बोली.

मैं ने कहा, ‘‘मेरे औफर में किसी को धर्म बदलने की आवश्यकता नहीं होगी. मैं तुम्हें इंडिया में सारी खुशियां दूंगा. मेरा देश बहुत उदार है. यहां सभी धर्मों के लोग अमनचैन से रह सकते हैं, कुछ सैक्रिफाइस तुम करो, कुछ मैं करता हूं पर मैं अपना धर्म नहीं बदल सकता हूं.’’

‘‘तो यह तुम्हारा अंतिम फैसला है?’’

‘‘सौरी. मैं अपना धर्म नहीं बदल सकता हूं. मैं सोच रहा हूं कि जब अगली बार दुबई आऊंगा तुम्हारी हीरे की अंगूठी वापस कर दूंगा. इतनी कीमती चीज मुझ पर कर्ज है.’’

‘‘अशोक, प्लीज बुरा न मानो. इस अंगूठी को बीच में न लाओ. हमारी शादी का इस से कोई लेनादेना नहीं है. डायमंड आर फौर एवर, यू हैव टु कीप इट फौरएवर. इसे हमारे अधूरे प्यार की निशानी समझ कर हमेशा अपने साथ रखना. बाय टेक केयर औफ योरसैल्फ.’’

‘‘तुम भी सदा खुश रहो… यू टू टेक केयर औफ योरसैल्फ.’’

‘‘थैंक्स,’’ इतना कह कर जुबेदा ने फोन काट दिया. यह जुबेदा से मेरी आखिरी बात थी. उस की दी हुई हीरे की अंगूठी अभी तक मेरे पास है. यह हमारे अधूरे प्यार की अनमोल निशानी है.

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