Hindi Romantic Story: अधूरी प्रीत

Hindi Romantic Story: घर की दहलीज पर कदम रखते ही सामने दीवार पर मम्मी का मुसकराता फोटो देख कर उस के कदम वहीं रुक गए. न जाने कितनी देर अपलक वह मम्मी के फोटो को निहारती रही.

‘‘दीदी, अब अंदर भी चलो. कब तक दरवाजे के बाहर खड़ी रहोगी?’’ उन को बसस्टैंड से लिवाने गए अविनाश ने पीछे से आते हुए कहा.

‘‘हां, चलो,’’ कहते हुए वह घर के अंदर दाखिल हो गई.

मम्मी की फोटो के आगे हाथ जोड़ कर प्रणाम करने के बाद वह कमरे का मुआयना करने लगी. अविनाश उस का बैग ले कर अंदर के कमरे में चला गया. कमरे में करीने से सजा कर रखी गई एक भी वस्तु में उसे कहीं भी इस बार अपनेपन का एहसास नहीं हो रहा था. इस कमरे में दीवार पर लगी मम्मी की फोटो के अतिरिक्त उसे सबकुछ अपरिचित सा दिखाई दे रहा था. 10 महीनों में पूरे घर की साजसज्जा ही बदल चुकी थी. लकड़ी के नक्काशी वाले पुराने सोफे की जगह मखमली गद्दी वाले नए सोफे ने ले ली थी.

एक समय मम्मी की पसंद रही भारीभरकम सैंट्रल टेबल की जगह पर कांच वाली राउंड सैंट्रल टेबल आ चुकी थी. खिड़की के पास कमरे के कोने में मनीप्लांट का पौट रखा हुआ होता था. वह उसे कहीं दिखाई नहीं दे रहा था. मम्मी ने कई वर्षों तक जतन कर उसे सहेज कर रखा हुआ था. उसे अब भी याद है कि सुबह हाथ में चाय का प्याला लेने के साथ ही मम्मी मनीप्लांट को पानी देना कभी नहीं भूलती थीं.

तभी अविनाश की पत्नी ज्योति पानी का गिलास ले कर बाहर के कमरे में आई.

‘‘आप खड़ी क्यों हैं? बैठिए न दीदी.’’

‘‘बस यों ही कमरे की सजावट देख रही थी,’’ पानी का गिलास हाथ में लेते हुए उस ने अनमने भाव से कहा.

‘‘पसंद आया न आप को? सारी चीजें मेरी पसंद की हैं. आप के भाई को तो इन सब बातों में कुछ सूझता ही नहीं,’’ ज्योति ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘अच्छा है,’’ बुझे स्वर में उत्तर देते हुए वह अंदर की ओर जाने लगी. उस के कदम अपनेआप ही मम्मी जिस कमरे में सोती थीं उस ओर बढ़ गए. तभी पीछे से ज्योति की आवाज सुन कर वह रुक गई.

‘‘दीदी, उधर नहीं इधर. सासुमां के जाने के बाद अब वह कमरा रानी का है. आप का सामान इधर दूसरे कमरे में रखा है.’’

मम्मी और उस की कई कही और अनकही बातों का साक्षी था वह कमरा. 12वीं पास करने के बाद से ही वह इस कमरे में मम्मी के साथ अपनी शादी होने तक रह चुकी थी. उस के इस घर से विदा होने के बाद मम्मी अपनी अंतिम सांस तक इसी कमरे में रहीं. दो घड़ी एक नजर उस ने उस कमरे पर डाली और फिर मनमसोस कर दूसरे कमरे में चली गई.

यह कमरा उसे पहले की अपेक्षा कुछ छोटा महसूस हुआ. सहसा कमरे के फर्नीचर पर नजर पड़ते ही उसे इस के छोटे लगने का कारण समझ आ गया. दरवाजे के बाजू की सूनी पड़ी रहती दीवार पर वार्डरोब बन चुका था. खिड़की के पास एक बैड और उस के नजदीक एक कुरसी रखी हुई थी. 10×10 फुट के कमरे में इस से अधिक फर्नीचर आने की गुंजाइश नहीं थी. वह वहीं पलंग पर बैठ गई.

पलंग पर बैठ कर न जाने क्यों उसे एक अजीब तरह की अनुभूति होने लगी. यहां उसे कुछ अपना सा महसूस हो रहा था. उठ कर उस ने गौर से पलंग को देखा तो उस का मन खुशी से भर गया. इसी पलंग पर तो मम्मी ने अपनी अंतिम सांसें ली थीं. इसी पलंग पर लेटे हुए उन्होंने उस से और अविनाश से एकदूसरे के सुखदुख में हमेशा साथ निभाने का वचन लिया था. पुरानी डिजाइन का यह पलंग शायद रानी को पसंद नहीं आया होगा, इसीलिए इसे मम्मी के जाने के बाद शायद अलग कमरे में रख दिया. वह यह सोच कर कुछ अंदाजा लगा रही थी कि सहसा उसे याद आया इसी कमरे में तो मम्मी की अलमारी रखी होती थी. अलमारी की जगह पर तो वार्डरोब बन चुका था.

‘तो अलमारी कहां गई?’ वह मन ही मन बुदबुदाई.

मम्मी की अलमारी से तो उन की कितनी सारी यादें जुड़ी हुई थीं. वह तब 14 वर्ष की रही होगी जब पापा ने मम्मी को उन के जन्मदिन पर अलमारी गिफ्ट में दी थी. मम्मी ने बड़ी ही सूझबूझ के साथ अलमारी में पापा, अविनाश और उस के कपड़ों के लिए एक अलग जगह बना दी थी. उन्होंने अपने सामान के लिए एक लौकर वाला पार्टिशन बचा कर रखा था जिस में वे अपने गहने और अन्य कीमती सामान रखा करती थीं.

घर में किसी की भी मजाल नहीं थी कि कोई उन के उस लौकर को छू सके. पापा तो हर दफा अपने कपड़े अलमारी से निकालते वक्त सारी अलमारी अस्तव्यस्त कर देते थे और मम्मी उन पर गुस्सा होते हुए सारे कपड़े फिर से करीने से जमाने बैठ जाती थीं. उसे अब भी याद है जब एक बार अविनाश से अलमारी के दरवाजे पर लगा कांच टूट गया था और वह मम्मी के खौफ से बचने के लिए अलमारी के अंदर ही छिप गया था.

बड़बड़ाते हुए मम्मी ने अविनाश को खोजा, उस के न मिलने पर उसे कोसती हुई वे टूटे पड़े कांच बटोरने लगीं. तभी अलमारी के दरवाजे के कोने से खून की बूंदें निकलते देख वे घबरा उठीं और हड़बड़ा कर दरवाजा खोला तो अविनाश नीचे के खाने में बेहोश पड़ा हुआ था.

घबराए बिना उन्होंने उसे बाहर निकाला और पानी के छींटे दे कर उसे होश में लाने का प्रयत्न किया. उस ने जब आंखें खोलीं तो उसे सीने से लगाए वे घंटों तक रोती रहीं. इस घटना के बाद तो उन्होंने उस के समझदार होने तक अलमारी को लौक कर रखने की आदत बना ली.

तभी अविनाश अंदर आ कर उस के पास ही कुरसी ले कर बैठ गया.

‘‘दीदी, मम्मी के जाने के बाद से तो जैसे आप ने इस ओर आना ही बंद कर दिया. मम्मी थीं तो कम से कम महीनेदोमहीने में आप उन की खबर पूछने के बहाने आ जाती थीं.’’

‘‘तब की बात और थी, अविनाश. मम्मी की बीमारी का पता चलते ही हर बार मन में एक भय सा बना रहता था कि अगली बार मम्मी मिलेंगी या नहीं. इसलिए बारबार जब मन होता था तो आ जाती थी,’’ उस ने शांति से अविनाश की बात का उत्तर दिया.

‘‘आप का यह छोटा भाई अब भी इसी घर में रहता है. आप को इस घर की याद अब क्या केवल रक्षाबंधन के दिन ही आती है?’’ अविनाश के स्वर में शिकायत थी.

‘‘नहीं रे, ऐसा नहीं है. तू तेरी घरगृहस्थी में सुखी है, फिर अब मम्मी के जाने के बाद बारबार इस उम्र में मायके आना शोभा नहीं देता,’’ कहते हुए उस के चेहरे के भाव बदल गए.

‘‘क्या बात है, दीदी? आप कुछ उखड़ी हुई सी लग रही हैं,’’ अविनाश उस के चेहरे के बदलते भाव भांप गया.

‘‘अविनाश, यहां इस कमरे में मम्मी की अलमारी रखी होती थी. वह कहां है?’’ उस से रहा नहीं गया.

‘‘वो तो निकाल दी. इस कमरे में वार्डरोब बनवाने के बाद तिजोरी रखने की जगह नहीं बची थी. वैसे भी, वह बहुत पुरानी हो चुकी थी,’’ अविनाश ने जवाब दिया.

मम्मी की मौजूदगी में जब भी आई तब तक वह घर उस के लिए मम्मी का घर था पर अब एक रिश्ते के जाते ही जैसे समीकरण बदल चुके थे. मम्मी का घर कहलाने वाला घर अब भाई का घर हो चुका था. इसीलिए मम्मी के जाने के 10 महीनों के बाद एक बार फिर से इस घर में आने पर उसे बारबार पहली बार यहां आने का आभास हो रहा था. दुख उसे इस बात का हो रहा था कि मम्मी से जुड़ी यादों का सौदा करने से पहले अविनाश ने एक बार भी उस से पूछा नहीं. मम्मी के जाते ही उसे पराया कर दिया.

‘‘तू ने मम्मी की आखिरी निशानी नहीं रखी? उसे बेच दिया? मम्मी को कितनी प्यारी थी वह अलमारी, मुझ से एक बार कहा होता तो…’’ कहते हुए उस की आंखों से आंसू की 2 बूंदें उभर आईं.

‘‘क्या दीदी आप भी. इतनी भावुक हो कर कैसे जी लेती हैं?’’ अविनाश थोड़ा असहज हो गया.

‘‘सवाल भावुकता का नहीं है. मम्मी की वह कीमती निशानी तो रहने दी होती इस घर में?’’

‘‘पुरानी चीज जाएगी तभी तो नया सामान आएगा. फिर मम्मी ने दादी की बसाई हुई पुरानी चीजें समय बीतने पर नहीं निकाल दी थीं?’’ अविनाश ने अपना तर्क रखा.

‘‘पर कम से कम कुछ समय तो बीतने दिया होता. अभी सालभर भी नहीं हुआ है उन को गए,’’ कहते हुए उस का गला रुंध गया.

‘‘आप की भावना समझता हूं मैं. मम्मी की बसाई सारी चीजें ऐसी जगह गई हैं जहां उन की सब से ज्यादा जरूरत थी.’’

‘‘तू कहना क्या चाहता है? मैं समझी नहीं?’’ अविनाश की बात सुन कर उस ने उस की ओर देखा.

‘‘एक वृद्धाश्रम को उन सब चीजों की जरूरत थी तो मैं ने दान कर दीं. इस बहाने उन की याद बनी रहेगी. वैसे भी मम्मी को तो अलमारी इसलिए प्यारी थी क्योंकि उस में उन की एक और कीमती चीज उन्होंने रख छोड़ी थी,’’ अविनाश की बात सुन कर वह उसे सवालिया नजरों से देखने लगी.

किचन में काम करती ज्योति शायद भाईबहन के बीच हो रही बात सुन चुकी थी. तभी वह एक छोटा सा डब्बा ले कर उस कमरे में दाखिल हुईर्. अविनाश ने वह डब्बा उस के हाथ से ले लिया.

‘‘दीदी, आप को याद है मम्मी की अलमारी का लौकर हम सब के लिए कुतूहल का विषय बना रहता था? लौकर को वे किसी को भी छूने नहीं देती थीं?’’

‘‘हां, तो?’’ अविनाश के प्रश्न के उत्तर में उस ने हामी भरते हुए सिर हिला दिया.

‘‘यह उन के उस अलमारी के लौकर से निकला है,’’ यह कह कर अविनाश ने वह डब्बा उस की ओर बढ़ा दिया.

उस छोटे से डिब्बे को हाथ में ले कर उस की आंखें डबडबा आईं. उसे लगा जैसे उस ने मम्मी को स्पर्श कर लिया. धीमे से उस ने उस डब्बे का ढक्कन खोला. एक पुराना सा ब्लैक ऐंड व्हाइट फोटो और एक पुराना सा पत्र उस के हाथ में आ गया.

फोटो को बड़े ही गौर से देखने के बाद भी उस में कैद छवि को वह पहचान नहीं पाई.

‘‘कौन है यह अविनाश?’’

‘‘फोटो के साथ रखा पत्र पढ़ लो, दीदी, सब समझ जाओगी,’’ अविनाश ने उस की जिज्ञासा को और बढ़ाते हुए कहा.

‘मेरी प्रिय रंजना,

फूलों की खुशबू की तरह अब भी तुम मेरे मन पर छाई हुई हो. तुम्हारी तसवीर जब भी देखता हूं, बस, तुम से मिलने को जी बेताब होने लगता है. इस बार शायद गांव न आ पाऊं. यहां बौर्डर पर दुश्मनों की हलचल बढ़ चुकी है, इसलिए अगले महीने मिलने वाली छुट्टियां रद्द कर दी गई हैं. जब भी छुट्टी मंजूर होगी, दौड़ा चला आऊंगा तुम से मिलने और तुम्हें अपना बनाने. आते ही तुम्हारे बाबा से बात कर हमारी शादी के लिए उन्हें मना लूंगा. बस, तब तक मेरा इंतजार करना.

तुम्हारा, केवल तुम्हारा

रतन.’

वह 2-3 बार धूमिल हो चुके उस पत्र को पढ़ गई.

‘‘रतन? कहीं ये मामा के गांव वाले रतन चाचा तो नहीं?’’ उस ने एक बार फिर से उस तसवीर को गौर से देख कर कुछ अनुमान लगाते हुए कहा.

‘‘वही हैं, दीदी. मैं ने फोन पर उन से बात कर कन्फर्म किया है,’’ कहते हुए अविनाश की आंखें भीग आईं.

‘‘तू यह क्या कह रहा है? मम्मी और रतन चाचा…फिर पापा…? मुझे तो कुछ समझ नहीं आ रहा है?’’ उस के मन में एक अजीब सी हड़बड़ाहट होने लगी.

‘‘सबकुछ सच है, दीदी. मम्मी और रतन चाचा आपस में प्यार करते थे पर जब वे 2 साल तक बौर्डर पर से गांव नहीं आ पाए तो मम्मी की शादी पापा से हो गई. रतन चाचा उन्हें बेहद प्यार करते थे और यही वजह है कि फिर वे किसी दूसरी स्त्री को अपनी जिंदगी में स्थान नहीं दे पाए.’’ अविनाश अपनी जगह से खड़ा हो गया.

मम्मी की मृत्यु के बाद पहली बार इस घर में आ कर जिन चीजों में वह मम्मी के एहसास को खोज रही थी उन्हें न पा कर मन ही मन उसे अब अपनेआप को इस घर से पराए होने का एहसास हो रहा था. पर फिर अविनाश द्वारा सहेज कर रखी गई मम्मी की इस अमूल्य याद को पा कर उस के मन में उठता पराएपन का भाव अपनेआप ही तिरोहित हो गया. इस क्षण पहली बार उसे भाई के घर में मम्मी के अब भी होने का एहसास हो आया.

‘‘अब समझ आ रहा है कि क्यों मम्मी के प्यार में एक दुखमिश्रित दर्द समाया होता था. अपने अंतिम समय में क्यों वे बारबार अलमारी की रट लगाए हुए थीं. आज पहली बार जान पाई कि मम्मी किस पीड़ा को अपने अंदर समाए जी रही थीं,’’ कहते हुए उस की आंखों से अश्रुधारा निकल पड़ी. Hindi Romantic Story

Story In Hindi: वे सूखे पत्ते

Story In Hindi: आज से 15 साल पहले की बात है. मैं 11वीं जमात में पढ़ता था. वह लड़की हमारी क्लास में नईनई आई थी. उस के पैर में कुछ लचक थी. शायद कुछ चोट लगी हो, इसलिए वह थोड़ा लंगड़ा कर चल रही थी. उस ने 10वीं क्लास में पूरे उदयपुर में टौप किया था और मैं ने अपने स्कूल में.

दिखने में तो वह बला की खूबसूरत थी. मगर कहते हैं न कि चांद में भी दाग होता है, बिलकुल ऐसे ही उस के पैर की वह चोट उस चांद से हुस्न का दाग बन गई थी.

उस ने पहले दिन से ही क्लास के मनचले लड़कों को अपनी खूबसूरती का दीवाना बना दिया था. उस की सादगी की चर्चा हर जबान पर थी.

शुरुआत के चंद महीनों में ही क्लास के आधे से ज्यादा लड़के उसे प्रपोज कर चुके थे. सब को उस के हुस्न से मतलब था, उस से नहीं. हम लड़कों की सोच गिरी हुई होती है. लड़की को इस्तेमाल करने की चीज समझते हैं. इस्तेमाल किया और फेंक दिया. मगर सबकुछ जानते हुए भी उस ने कभी किसी को जवाब नहीं दिया. न ही नाराजगी से और न ही खुशी से.

और एक मैं था, जो अभी तक उस का नाम भी नहीं जानता था. सच कहूं, तो मैं ने कभी कोशिश भी नहीं की थी. नाम जान कर करना भी क्या था, जब दोनों की दुनिया और रास्ते ही अलग थे. हर कोई उसे अलगअलग नाम से पुकारता था, इसलिए कभी सुनने में भी नहीं आया उस का असली नाम.

मैं ने उस की आंखें देखी थीं. कुछ बोलती थीं उस की आंखें, मगर क्या बोलती थीं, यह जानने के लिए कभी सोचा ही नहीं. मेरे लिए पढ़ाई ज्यादा जरूरी थी. अनाथ था न मैं. अपना सबकुछ खुद ही देखना था. अपना भविष्य खुद बनाना था. जिस उम्र में लड़के तरहतरह के शौक पूरे करने में लगे होते हैं, उस उम्र में मैं खुद को एक सांचे में ढालने चला था. भला हो उस गैरसरकारी संस्था का, जो मुझे इस स्कूल में पढ़ा रही थी.

कुछ दिनों के बाद इम्तिहान हो गए. उस लड़की ने क्लास में फिर से टौप कर दिया. मेरी सालों से चली आ रही क्लास में पहली पोजीशन की हुकूमत को उस ने खत्म कर दिया था. हमारे क्लास टीचर क्लास में आए और बोले, ‘‘सरोज, तुम ने 96 फीसदी नंबर ला कर क्लास में टौप किया है.’’ मुझे धक्का लगा कि मैं पीछे कैसे रह गया. मैं इतनी मेहनत से तो पढ़ा था.

टीचर दोबारा बोले, ‘‘राघव, तुम्हारे  95.8 फीसदी नंबर आए हैं. तुम दूसरे नंबर पर हो.’’

इस पर मुझे राहत सी मिली कि बस थोड़ा सा फर्क है. मगर फर्क क्यों है, इस का जवाब मुझे खुद को देना था. यह जवाब मैं कहां से लाता? मैं पूरी क्लास में यही सोचता रहा. सब लड़के खुश थे. जो फेल थे वे भी, क्योंकि उन्हें उस का असली नाम पता लग गया था. क्लास खत्म होने पर मैं उस से मिला और बधाई दी. वह इस की हकदार भी थी, इसलिए उस ने भी मुझे बधाई दी.

यह हमारी पहली मुलाकात थी. इस के बाद आगे के दिनों में धीरेधीरे बातें होने लगीं, मगर जबान से नहीं, बस इशारों से. दूर से देख कर हाथ हिला देना, मगर सामने होने पर चुपचाप निकल जाना, यह हमारे लिए बहुत आम हो गया था.

फाइनल इम्तिहान आने वाले थे. हमारी बातें अब शुरू होने लगी थीं.

मगर मैं ने कभी सरोज के बारे में जानने की कोशिश नहीं की, बस हालचाल पूछ लिया करता था.

फिर एक दिन वह बोली, ‘‘इम्तिहान के बाद मिलना.’’

मगर कहां मिलना, यह नहीं बताया. मैं कुछ देर सोचता ही रहा कि कहां और क्यों? क्यों का जवाब तो यह था कि हम दोस्त थे, मगर कहां का जवाब मुझे नहीं मिल रहा था. क्या मेरे घर में? मगर मैं तो अनाथ आश्रम में रहता हूं. तो क्या फिर उस के घर में? मगर उस का घर तो मुझे पता ही नहीं. तो कहां? फिर उसी ने बताया कि स्कूल के पास वाले बाग में मिलना. मेरे अंदर के सवालों का तूफान थाम दिया था उस के इस जवाब ने.

इम्तिहान खत्म हुए. हम मिले, हम फिर मिले, हम बारबार मिले. एक अजीब सी, मगर बहुत प्यारी सी धुन लग गई थी दोनों को एकदूसरे के साथ की.

फिर एक दिन मैं ने उसे बताया कि मैं अनाथ हूं, तो जवाब मिला कि वह भी अनाथ है. मेरी तो यह जान कर जैसे सांसें ही थम गई थीं कि इतनी प्यारी लड़की के मांबाप नहीं हैं.  बला की खूबसूरत लड़की इस नोच खाने वाले समाज में अपना वजूद बनाए हुए थी. समझ आ गया था मुझे कि उस की आंखें क्या बोलती थीं और क्यों वह इतनी नरम मिजाज थी. मुझे आज उन सवालों के जवाब भी मिल गए थे, जिन सवालों को मैं ने कभी सोचा भी नहीं था.

फिर कुछ देर चुप रहने के बाद मैं ने बड़ी हसरत से उस से पूछा, ‘‘क्या अब तक तुम्हारा कभी कोई दोस्त रहा है?’’

वह हथेली भर के सूखे पत्ते ले आई और बोली, ‘‘ये हैं मेरे दोस्त.’’ मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि सरोज क्या बोल रही है. मैं हंस भी नहीं सकता था, क्योंकि उस के चेहरे पर हंसी  नहीं दिख रही थी.

‘‘सरोज, मैं कुछ समझा नहीं?’’ मैं ने बहुत जिज्ञासा से पूछा.

जब उस की आंखें सबकुछ बोलती ही थीं, तो क्यों आज मैं उस की जबान का बोला हुआ शब्द समझ नहीं पा रहा था. वह चाह रही थी कि उस का यह दोस्त उस की आंखें पढ़ कर जान जाए कि क्यों ये सूखे पत्ते उस के दोस्त थे. मगर उस ने नहीं बताया और मैं ने भी मान लिया कि शायद

दुनिया में कहीं उस का भरोसा टूटा होगा, इसलिए वह ऐसी बातें करती है. हमारी बातों के सिलसिले अब काफी बढ़ गए थे और हम धीरेधीरे बहुत करीब आ गए थे. एक लगाव था, एक अधूरापन था, जो साथ रह कर ही पूरा होता था. मैं जानना चाहता था उस का और उस के सूखे पत्तों का रिश्ता. मैं इतना करीब तो था उस के, मगर उस के दोस्त अब भी सूखे पत्ते ही थे.

फिर एक दिन मेरे मन में यह सवाल उठा कि स्कूल से पढ़ाई खत्म होने के बाद हम कैसे मिलेंगे? मगर यह सवाल मैं उस से सुनना चाहता था और यह भी जानता था कि वह नहीं पूछेगी, क्योंकि उसे मुझ से ज्यादा उन सूखे पत्तों से जो लगाव था. स्कूल की पढ़ाई खत्म हो गई. उस से मिले हुए काफी दिन गुजर गए. अकेलापन महसूस होने लगा था और यह अकेलापन मुझे काटने को दौड़ता था. सरोज लौट गई थी अपनी दुनिया में, अपने उन सूखे पत्तों के पास या फिर कहीं और.

फर एक दिन मैं ने स्कूल जा कर पता किया. कितना बेवकूफ था मैं. इतना वक्त साथ रहे, मगर कभी यह जानने की कोशिश नहीं की कि वह रहती कहां थी.

मैं अपने टीचर के पास गया और सरोज का पता पूछा. टीचर बोले, ‘‘राघव, पता तो मुझे भी नहीं मालूम, मगर सरोज तुम्हारे लिए एक चिट्ठी छोड़ गई है.’’ मैं बहुत खुश हुआ, मगर न जाने क्यों मेरे हाथ कांप रहे थे उस चिट्ठी को खोलने में. जिंदगी में पहली बार किसी ने मुझ अनाथ को चिट्ठी लिखी थी.

टीचर बोले, ‘‘अरे, यह क्या? जो राघव हमेशा पढ़ने में अव्वल रहा, आज उस के हाथ इस मामूली सी चिट्ठी को लेने में कांप क्यों रहे हैं?’’‘‘पता नहीं, सर. मगर यह मामूली नहीं है,’’ इतनकह कर मैं वहां से बहुत तेजी से भाग निकला. और क्या भागा यह मैं भी नहीं जानता. शायद मुझ में हिम्मत नहीं थी उस वक्त का सामना करने की.

मैं बहुत भागा और न जाने क्यों मेरे कदम उस बाग की ओर बढ़ते चले गए, जहां हम अकसर मिलते थे. मेरी सांसें बहुत तेज चल रही थीं. थकने की वजह से नहीं, डर की वजह से. और डर था उसे खो देने का. डर था मुझे कि यह चिट्ठी पढ़ते ही मैं उसे खो दूंगा. या उस का मेरे लिए पहला और आखिरी खत था. क्या करूं, कुछ समझ ही नहीं आ रहा था. अभी पढ़ूं कि नहीं.

मन में हजारों बुरे खयाल आ रहे थे. सांसें भी थमने का नाम नहीं ले रही थीं. फिर सोचा, ‘शायद उस ने इस में अपना नया पता लिखा हो.’ बहुत हिम्मत कर के मैं ने वह खत खोल ही दिया और वह कुछ यों था:

‘प्यारे दोस्त राघव,

‘मैं जानती हूं कि यह खत पढ़ने से पहले तुम ने हजार बार सोचा होगा. तुम्हारे हाथ कांपे होंगे, धड़कनों का शोर कुछ ज्यादा हो गया होगा. मन में हजारों तरह के खयाल आ रहे होंगे और उन में सब से बड़ा सवाल यह होगा कि मेरे दोस्त सूखे पत्ते ही क्यों?

‘राघव, मैं ने तुम्हें कभी नहीं बताया, पर अब बताती हूं. मैं अपने मातापिता की एकलौती लड़की थी. जिस घर में मैं पैदा हुई, वहां लड़की का पैदा होना जुर्म माना जाता था. जब मैं 4 साल की थी, तब मेरे पिता ने मुझे छत से नीचे फेंक दिया था. मैं आंगन में रखे उन सूखे पत्तों के ढेर पर गिरी थी, जिसे कुछ देर पहले मेरी मां ने जमा किया था. तब मैं तो बच गई, मगर मेरा पैर टूट गया था.

‘पिताजी की ऐसी गिरी हुई हरकत देख कर मां ने वहीं पर रखी कुल्हाड़ी से उन की जान ले ली. उन्होंने मुझे बहुत प्यार से गले लगाया, खूब रोईं. मैं भी रो रही थी. फिर मां ने मुझे छोड़ा और घर बंद कर के खुद को आग लगा ली. मां भी मर गईं और मैं छोटी सी लड़की 4 साल की उम्र में ही अनाथ हो गई.

‘किसी रिश्तेदार ने मेरी जिम्मेदारी नहीं ली. जिस उम्र में औलाद को उस की मां के सहारे की सब से ज्यादा जरूरत होती है, वह सहारा मुझ से छिन गया था. मां के आंचल में खेलने की उम्र में मुझे अनाथालय वाले ले गए.‘वहां जब मैं गई, तो हर बार बस अपना गिरना याद आता था उस वक्त मुझे बचाने वोल वे सूखे पत्ते ही थे, जिन से मैं ने कभी बात तक नहीं की थी. उन बेजबानों ने मुझे एक नई जिंदगी दे दी थी. मेरा पैर हमेशा के लिए खराब हो गया था.

‘मैं आज भी हर रोज जब सड़कों पर गिरे सूखे पत्ते देखती हूं, तो मुझे वही ढेर याद आता है. मैं उन का कुछ इसी तरह एहसान मानती हूं कि जब मेरा अपना पिता मेरा अपना नहीं हो सका, तब इन गैर और बेजबान पत्तों ने मुझे सहारा दिया. ‘मुझे जब भी इस बेहया दुनिया से डर लगता है, मैं अकसर इन्हें खत लिखती हूं. मैं इन का एक ढेर बनाती हूं, फिर एक हवा का झोंका आता है और उस ढेर के सब पत्तों को मेरे चारों ओर फैला कर कहता है कि भरोसा रखना सरोज… ये सूखे पत्ते हमेशा तेरे साथ हैं… हमेशा.

‘मैं जानती हूं राघव कि तुम यह खत अभी उसी बाग में बैठ कर पढ़ रहे हो, और तुम्हारी आंखें भीग गई हैं. मुझे माफ कर देना तुम्हें चुपचाप छोड़ कर जाने के लिए. मगर महसूस कर के देखना… मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूं, इन सूखे पत्तों की तरह.

‘तुम्हारी सरोज.’

मेरी आंखें सच में भर आई थीं. एक आह निकल गई थी मेरे दिल से. आज समझ आ गया था कि क्यों हैं ये सूखे पत्ते उस के दोस्त… कितना जानती थी वह मुझे… उसे पता था कि मैं यह खत उस बाग में ही पढ़ूंगा. अब समझ आया कि क्यों मेरे पैर भागतेभागते मुझे इस बाग में ले आए थे.

मैं सरोज के दोस्तों को ले कर बनाए हुए ढेर में सरोज की दुनिया को बड़े गौर से देख रहा था कि न जाने कहां से अचानक एक हवा का झोंका आया, जिस ने उन पत्तों को मेरे चारों ओर फैला दिया और मुझे सच में एहसास होने लगा कि सरोज मेरे बहुत करीब है… बहुत ही करीब… Story In Hindi

Hindi Romantic Story: वह धोखेबाज प्रेमिका – नीलेश का दीवानापन

Hindi Romantic Story: अनीता की खूबसूरती के किस्से कालेज में हरेक की जबान पर थे. वह जब कालेज आती तो हर ओर एक समा सा बंध जाता था. वह हरियाणा के एक छोटे से शहर सिरसा के नामी वकील की बेटी थी तथा बेहद खूबसूरत व प्रतिभाशाली थी. चालाक इतनी कि अपने आगे किसी को कुछ नहीं समझती थी. अभिजात्य व आत्मविश्वास से उस का नूरानी चेहरा हरदम चमकता रहता. वह मुसकराती भी तो ऐसे जैसे सामने वाले पर एहसान कर रही हो. कालेज में एक रसूख वाले नामी वकील की बेटी यदि होशियार और सुंदर हो, तो उस के आगेपीछे घूमने वालों की फेहरिस्त भी लंबी ही होगी.

लेकिन अनीता ने सब युवकों में से नीलेश को चुना जो गरीब और हर वक्त किताबों में खोया रहता था. वह अनीता का ही सहपाठी था, और गांव के एक गरीब किसान का बेटा था. उस के पिता का असमय निधन हो गया था, इसलिए बड़ी मुश्किल से विधवा मां नीलेश को पढ़ा रही थीं व नीलेश हर समय अपनी पढ़ाई में व्यस्त रहता था. अनीता को तो नीलेश ही पसंद आया, क्योंकि वह लंबा, हैंडसम और मेहनती नौजवान था. अनीता जबतब कुछ पूछने के बहाने उसे अपने नजदीक लाती गई और देखतेदेखते उन की दोस्ती की चर्चा अब पूरे कालेज में होने लगी. नीलेश खोयाखोया रहने लगा. धीरेधीरे इस मेधावी छात्र की पढ़ाई जहां ठप सी हो गई, वहीं अनीता जो पढ़ाई में औसत दर्जे की थी अब वह उस के बनाए नोट्स पढ़ कर फर्स्ट आने लगी.

इस सब में नीलेश की मेहनत होती. वह रातभर उस के लिए नोट्स बनाता, उस की प्रैक्टिकल की फाइल्स तैयार करता, लैब में ऐक्सपैरिमैंट्स वह करता, लेकिन उस की मेहनत का सारा फल अनीता को मिलता. नीलेश तो बस, अपनी प्रेमिका के प्रेम में ही डूबा रहता. वह उस के अलावा कुछ सोच भी नहीं पाता. यहां तक कि छुट्टी में वह अपनी मां से मिलने गांव भी नहीं जाता. ये सब देख मां भी बीमार रहने लगीं.

नीलेश प्यार के छलावे में इस कदर खो गया कि उसे याद ही नहीं रहता कि गांव में उस की मां भी हैं, जो आठों पहर उस की राह देखती रहती हैं. मां ने अपने जेवर बेच कर उस के कालेज की फीस भरी. मां बड़े किसानों के यहां धान साफ कर के उस की पढ़ाई का खर्च पूरा कर रही थीं. उन के प्रति चाह कर भी नीलेश नहीं सोच पाता, क्योंकि अनीता के साथ उस के प्रश्नोत्तर बनाना, फिर उस के घर जाना, वह कहीं जा रही हो, तो उसे साथ ले जाना, उस के संग पिक्चर व पार्टी अटैंड करना, ये सब काम वह करता. वह इन सब में इतना थक जाता कि उसे अपना भी होश न रहता. कालेज की गैदरिंग में उस ने अनीता को देख कर ही यह गीत गाया था, ‘एक शेर सुनाता हूं मैं, जो तुझ को मुखातिब है, इक हुस्नपरी दिल में है, जो तुझ को मुखातिब है…’

इस गीत को गाने में वह इतना तन्मय हो गया था कि बड़ी देर तक तालियां बजती रही थीं, पर वह सामने कुरसी पर बैठी अनीता को ही ताकता रहा और उस के कान में तालियों की आवाज भी जैसे नहीं पड़ रही थी. अनीता का सिर गर्व से ऊंचा हो गया था. सारे कालेज में वह जूलियट के नाम से जानी जाने लगी थी. हालांकि उस ने इस प्यार में अपना कुछ नहीं खोया. नीलेश ने उसे कभी उंगली से भी नहीं छुआ था.

इधर ऐग्जाम होतेहोते अनीता का मुंबई में रिश्ता तय हो गया. अनीता को क्या फर्क पड़ना था. वह तो मस्त थी. कभी प्रेम में पड़ी ही नहीं थी. वह तो मात्र मनोरंजन और मतलब के लिए नीलेश को इस्तेमाल कर रही थी. आखिर रिजल्ट आया, अनीता अव्वल आई पर नीलेश 2 विषयों में लटक गया. उस का 1 वर्ष बरबाद हो गया. इधर अनीता विवाह कर मुंबई रहने चली गई, जबकि नीलेश को प्यार में नाकामी और अवसाद हाथ लगा.

उस का साल बरबाद हो गया इस का तो उसे गम नहीं हुआ लेकिन जिसे वह दिल ही दिल में चाहने लगा था, उस अनीता के एकाएक चले जाने से वह इतना निराश हो गया कि उस ने नींद की गोलियां खा कर आत्महत्या का प्रयास किया. जब अनीता की बरात आ रही थी, तब नीलेश अस्पताल में जीवन और मौत के बीच झूल रहा था. उस की गरीब मां का रोरो कर बुला हाल था. वह नहीं समझ पा रही थीं कि हर कक्षा में प्रथम आने वाला उस का बेटा आज कैसे फेल हो गया. वह इतना होशियार, सच्चा, ईमानदार, व मेहनती था कि मां ने उस के लिए असंख्य सपने संजोए थे, किंतु एक बेवफा के प्यार ने उसे इतना नाकाम बना दिया कि वह शराब पीने लगा. उस का भराभरा चेहरा व शरीर हड्डियों का ढांचा नजर आने लगा. Hindi Romantic Story

Short Story In Hindi: मेहंदी लगी मेरे हाथ – क्या दीपा और अविनाश की शादी हुई

Short Story In Hindi: शादी के बहुत दिनों बाद मैं पीहर आई थी. पटना के एक पुराने महल्ले में ही मेरा पीहर था और आज भी है. यहां 6-7 फुट की गलियों में मकान एकदूसरे से सटे हैं. छतों के बीच भी 3-4 फुट की दूरी थी. मेरे पति संकल्प मुझे छोड़ कर विदेश दौरे पर चले गए थे. साल में 2-3 टूअर तो इन के हो ही जाते थे.

मैं मम्मी के साथ छत पर बैठी थी. शाम का वक्त था. हमारी छत से सटी पड़ोसी की छत थी. उस घर में एक लड़का अविनाश रहता था. मुझ से 4-5 साल बड़ा होगा. मेरे ही स्कूल में पढ़ता था. मुझे अचानक उस की याद आ गई. मैं मम्मी से पूछ बैठी, ‘‘अविनाश आजकल कहां है?’’

‘‘मैं उस के बारे में कुछ नहीं जानती हूं. तुम्हारी शादी से कुछ दिन पहले वह यह घर छोड़ कर चला गया था. वैसे भी वह तो किराएदार था. पटना पढ़ने के लिए आया था.’’

मैं किचन में चाय बनाने चली गई पर मुझे अपने बीते दिन अनायास याद आने लगे थे. मन विचलित हो रहा था. किसी काम में मन नहीं लग रहा था. कप में चाय छान रही थी तो आधी कप में और आधी बाहर गिर रही थी. मन रहरह कर अतीत के गलियारों में भटकने लगा था. खैर, मैं चाय बना कर छत पर आ गई. ऊपर मम्मी पड़ोस वाली छत पर खड़ी आंटी से बातें कर रही थीं. दोनों के बीच बस 3 फुट की दूरी थी. मैं ने अपनी चाय आंटी को देते हुए कहा, ‘‘आप दोनों पी लें. मैं अपने लिए फिर बना लूंगी.’’

मैं उन दोनों से अलग छत के दूसरे कोने पर जा खड़ी हुई. अंधेरा घिरने लगा था. बिजली चली गई, तो बच्चे शोर मचाते बाहर निकल आए. कुछ अपनीअपनी छत पर आ गए. ऐसे ही अवसर पर मैं जब छत पर होती थी, अविनाश मुझे देख कर मुसकराता था, तो कभी हवा में हाथ उठाता था. मैं उस वक्त 8वीं कक्षा में थी. मैं अकसर कपड़े सुखाने छत पर आती थी. अविनाश भी उस समय छत पर ही होता था खासकर छुट्टी के दिन.

एक दिन जब मैं छत पर खड़ी थी तो बिजली चली गई. कुछ अंधेरा था. अविनाश ने पास आ कर एक परची मुझे पकड़ा दी और फिर जल्द ही वहां से मुसकराता हुआ भाग खड़ा हुआ. मैं बहुत डर गई थी. परची को कुरते के अंदर छिपा लिया. बचपन और जवानी के बीच के कुछ वर्ष लड़कियों के लिए बड़े कशमकश भरे होते हैं. कभी मन उछलनेकूदने को करता है तो कभी बाली उम्र से डर लगता है. कभी किसी को बांहों में लेने को जी चाहता है तो कभी खुद किसी की बांहों में कैद होने को जी करता है.

मैं ने बाद में उस परची को पढ़ा. लिखा था, ‘‘दीपा, तुम मुसकराती हो तो बहुत सुंदर लगती हो और मुझे यह देख कर खुशी होती है.’’

ऐसे ही समय बीत रहा था. मेरी दीदी की शादी थी. मेहंदी की रस्म थी. मैं ने भी

दोनों हाथों में मेहंदी लगवाई और शाम को छत पर आ गई. अविनाश भी अपनी छत पर था. उस ने मुसकरा कर हाथ लहराया. न जाने मुझे क्या सूझा कि मैं ने भी अपने मेहंदी लगे हाथ उठा दिए. उस ने इशारों से रेलिंग के पास बुलाया तो मैं किसी आकर्षणवश खिंची चली गई. उस ने तुरंत मेरे हाथों को चूम लिया. मैं छिटक कर अलग हो गई.

अविनाश को जब भी मौका मिलता मुझे चुपके से परची थमा जाता था. यों ही मुसकराती रहो, परची में अकसर लिखा होता. मुझे अच्छा तो लगता था, पर मैं ने न कभी जवाब दिया और न ही कोई इजहार किया.

मैं ने प्लस टू के बाद कालेज जौइन किया था. एक दिन अचानक दीदी ने अपनी ससुराल से कोई अच्छा रिश्ता मेरे लिए मम्मीपापा को सुझाया. मैं पढ़ना चाहती थी पर सब ने एक सुर में कहा, ‘‘इतना अच्छा रिश्ता चल कर अपने दरवाजे पर आया है. इस मौके को नहीं गंवाना है. तुम बाकी पढ़ाई ससुराल में कर लेना.’’

मेरी शादी की तैयारी चल रही थी. अविनाश ने एक परची मुझे किसी छोटे बच्चे के हाथ भिजवाई. लिखा था कि शादी मुबारक हो. ससुराल में भी मुसकराती रहना. शायद तुम्हारी शादी की मेहंदी लगे हाथ देखने का मौका न मिले, इस का अफसोस रहेगा.

मैं शादी के बाद ससुराल इंदौर आ गई. पति संकल्प अच्छे नेक इंसान हैं, पर अपने काम में काफी व्यस्त रहते थे. काम से फुरसत मिलती तो क्रिकेट के शौकीन होने के चलते टीवी पर मैच देखते रहेंगे या फिर खुद बल्ला उठा कर अपने क्रिकेट क्लब चले जाएंगे. वैसे इस के लिए मैं ने उन से कोई गिलाशिकवा नहीं किया था.

मम्मी की आवाज से मेरा ध्यान टूटा, ‘‘दीपा, कल पड़ोसी प्रदीप अंकल की बेटी मोहिनी की मेहंदी की रस्म है और लेडीज संगीत भी है. तुम तो उसे जानती हो. तुम्हारे स्कूल में ही थी. तुम से 2 क्लास पीछे. तुम्हें खासकर बुलाया है. मोहिनी ने भी कहा था दीपा दी को जरूर साथ लाना. तुम्हें चलना होगा.’’

अगले दिन शाम को मैं मोहिनी के यहां गई. दोनों हाथों में कुहनियों तक मेहंदी लगवाई. कुछ देर तक लेडीज संगीत में भाग लिया, फिर बिजली चली गई तो मैं अपने घर लौट आई. हालांकि वहां जनरेटर चल रहा था. म्यूजिक सिस्टम काफी जोर से बज रहा था. मैं यह शोरगुल ज्यादा नहीं झेल पाई, इसलिए चली आई.

मैं अपनी छत पर गई. मुझे अविनाश की याद आ गई. मैं ने अचानक मेहंदी वाले दोनों हाथों को हवा में लहरा दिया. पड़ोस वाली आंटी ने अपनी छत से मुझे देखा. वे समझीं कि मैं ने उन्हें हाथ दिखाए हैं. रेलिंग के पास आ कर मुझे पास बुलाया और फिर मेरे हाथ देख कर बोलीं, ‘‘काफी अच्छे लग रहे हैं मेहंदी वाले हाथ. रंग भी पूरा चढ़ा है. दूल्हा जरूर बहुत प्यार करता होगा.’’

मैं ने शरमा कर अपने हाथ हटा लिए. रात में मैं लैपटौप पर औनलाइन थी. मैं ने अप्रत्याशित अविनाश की फ्रैंड रिक्वैस्ट देखी और तत्काल ऐक्सैप्ट भी कर लिया. थोड़ी ही देर में उस का मैसेज आया कि कैसी हो दीपा और तुम्हारी मुसकराहट बरकरार है न? संकल्प को भी तुम्हारी मुसकान अच्छी लगती होगी.’’

मैं आश्चर्यचकित रह गई. इसे संकल्प के बारे में कैसे पता है. अत: मैं ने पूछा, ‘‘तुम उन्हें कैसे जानते हो?’’

‘‘मैं दुबई के सैंट्रल स्कूल में टीचर हूं. संकल्प यहां हमारे स्कूल में कंप्यूटर और वाईफाई सिस्टम लगाने आया था. बातोंबातों में पता चला कि वह तुम्हारा पति है. उस ने ही तुम्हारा व्हाट्सऐप नंबर दिया है.’’

‘‘खैर, तुम बताओ, कैसे हो? बीवीबच्चे कैसे हैं?’’ मैं ने पूछा.

‘‘पहले बीवी तो आए, फिर बच्चे भी आ जाएंगे.’’

‘‘तो अभी तक शादी नहीं की?’’

‘‘नहीं, अब कर लूंगा.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘हर क्यों का जवाब हो, जरूरी नहीं है. वैसे एक बार तुम्हारी मुसकराहट देखने की इच्छा थी. खैर, छोड़ो और क्या हाल है?’’

‘‘पड़ोस में मोहिनी की मेहंदी की रस्म में गई थी.’’

‘‘तब तो तुम ने भी अपने हाथों में मेहंदी जरूर लगवाई होगी.’’

‘‘हां.’’

‘‘जरा वीडियो औन करो, मुझे भी दिखाओ. तुम्हारी शादी की मेहंदी नहीं देख सका था.’’

‘‘लो देखो,’’ कह कर मैं ने वीडियो औन कर अपने हाथ उसे दिखाए.

‘‘ब्यूटीफुल, अब एक बार वही पुरानी मुसकान भी दिखा दो.’’

‘‘यह तुम्हारे रिकौर्ड की सूई बारबार मुसकराहट पर क्यों अटक जाती है.’’

‘‘तुम्हें कुछ पता भी है, एक भाषा ऐसी है जो सारी दुनिया जानती है.’’

‘‘कौन सी भाषा?’’

‘‘मुसकराहट. मैं चाहता हूं कि सारी दुनिया मुसकराती रहे और बेशक दीपा भी.’’ मैं हंस पड़ी.

वह बोला, ‘‘बस यह अरमान भी पूरा हो गया.’’

मुझे लगा मेरी भी सुसुप्त अभिलाषा पूरी हुई. अविनाश के बारे में जानना चाह रही थी. अत: बोली, ‘‘अपनी शादी में बुलाना नहीं भूलना.’’

‘‘अब पता मिल गया तो भूलने का सवाल ही नहीं उठता. इसी बहाने एक बार फिर तुम्हारे मेहंदी वाले हाथ और वही मुसकराता चेहरा भी देख लूंगा.’’

‘‘अब ज्यादा मसका न लगाओ. जल्दी से शादी का कार्ड भेजो.’’

‘‘खुशी हुई शादी के बाद तुम्हें बोलना तो आ गया. आज से पहले तो कभी बात भी नहीं की थी.’’

‘‘हां, इस का अफसोस मुझे भी है.’’

एक बार फिर बिजली चली गई. इंटरनैट बंद हो गया. अविनाश कितना चाहता था मुझे शायद मैं नहीं जान पाती अगर उस से आज बात नहीं हुई होती. Short Story In Hindi

Romantic Story In Hindi: परिवर्तन – मोहिनी क्यों बदल गई थी?

Romantic Story In Hindi: गेट पर तिपहिया के रुकने का स्वर सुन कर परांठे का कौर मुंह की ओर ले जाते हुए खुदबखुद विभा का हाथ ठिठक गया. उस ने प्रश्नवाचक दृष्टि से मांजी की ओर देखा. उन की आंखों में भी यही प्रश्न तैर रहा था कि इस वक्त कौन आ सकता है?

सुबह के 10 बजने वाले थे. विनय और बाबूजी के दफ्तर जाने के बाद विभा और उस की सास अभी नाश्ता करने बैठी ही थीं कि तभी घंटी की तेज आवाज गूंज उठी. विभा ने निवाला थाली में रखा और दौड़ कर दरवाजा खोला तो सामने मोहिनी खड़ी थी.

‘‘तुम, अकेली ही आई हो क्या?’’

‘‘क्यों, अकेली आने की मनाही है?’’ मोहिनी ने नाराजगी दर्शाते हुए सवाल पर सवाल दागा.

‘‘नहींनहीं, मैं तो वैसे ही पूछ…’’ विभा जब तक बात पूरी करती, मोहिनी तेजी से अंदर के कमरे की ओर बढ़ गई. विभा भी दरवाजा बंद कर के उस के पीछे हो गई.

मांजी अभी मेज के सामने ही बैठी थीं, वे मोहिनी को देख आश्चर्य में पड़ गईं. उन के मुंह से निकला, ‘‘मोहिनी, तू, एकाएक?’’

मोहिनी ने सूटकेस पटका और कुरसी पर बैठती हुई रूखे स्वर में बोली, ‘‘मां, तुम और भाभी तो ऐसे आश्चर्य कर रही हो, जैसे यह मेरा घर नहीं. और मैं यहां बिना बताए अचानक नहीं आ सकती.’’ मोहिनी का मूड बिगड़ता देख विभा ने बात पलटी, ‘‘तुम सफर में थक गई होगी, थोड़ा आराम करो. मैं फटाफट परांठे और चाय बना कर लाती हूं.’’ विभा रसोई में घुस गई. वह जल्दीजल्दी आलू के परांठे सेंकने लगी. तभी मांजी उस की प्लेट भी रसोई में ले आईं और बोलीं, ‘‘बहू, अपने परांठे भी दोबारा गरम कर लेना, तुझे बीच में ही उठना पड़ा…’’

‘‘कोई बात नहीं, आप का नाश्ता भी तो अधूरा पड़ा है. लाइए, गरम कर दूं.’’

‘‘नहीं, जब तक तू परांठे सेंकेगी, मैं मोहिनी के पास बैठ कर अपना नाश्ता खत्म कर लूंगी,’’ फिर उन्होंने धीमी आवाज में कहा, ‘‘लगता है, लड़ कर आई है.’’ मांजी के स्वर में झलक रही चिंता ने विभा को भी गहरी सोच में डाल दिया और वह अतीत की यादों में गुम हो, सोचने लगी :

जहां मां, बाबूजी और विनय प्यार व ममता के सागर थे, वहीं मोहिनी बेहद बददिमाग, नकचढ़ी और गुस्सैल थी. बातबात पर तुनकना, रूठना, दूसरों की गलती निकालना उस की आदत थी. जब विवाह के बाद विभा ससुराल आई तो मांजी, बाबूजी ने उसे बहू नहीं, बेटी की तरह समझा, स्नेह दिया. विनय से उसे भरपूर प्यार और सम्मान मिला. बस, एक मोहिनी ही थी, जिसे अपनी भाभी से जरा भी लगाव नहीं था. उस ने तो जैसे पहले दिन से ही विभा के विरुद्ध मोरचा संभाल लिया था. बातबात में विभा की गलती निकालना, उसे नीचा दिखाना मोहिनी का रोज का काम था. लेकिन विभा न जाने किस मिट्टी की बनी थी कि वह मोहिनी की किसी बात का बुरा न मानती, उस की हर बेजा बात को हंस कर सह लेती.

हर काम में कुशल विभा की तारीफ होना तो मोहिनी को फूटी आंख न सुहाता था. एक दिन विभा ने बड़े मनोयोग से डोसा, इडली, सांबर आदि दक्षिण भारतीय व्यंजन तैयार किए थे. सभी स्वाद लेले कर खा रहे थे. विनय तो बारबार विभा की तारीफ करता जा रहा था, ‘वाह, क्या लाजवाब डोसे बने हैं. लगता है, किसी दक्षिण भारतीय लड़की को ब्याह लाया हूं.’ तभी एकाएक मोहिनी ने जोर से थाली एक तरफ सरकाते हुए कहा, ‘आप लोग भाभी की बेवजह तारीफ करकर के सिर पर चढ़ा रहे हो. देखना, एक दिन पछताओगे. मुझे तो इन के बनाए खाने में कोई स्वाद नजर नहीं आता, पता नहीं आप लोग कैसे खा लेते हैं?’

अभी मोहिनी कुछ और कहती, तभी बाबूजी की कड़क आवाज गूंजी, ‘चुप हो जा. देख रहा हूं, तू दिन पर दिन बदतमीज होती जा रही है. जब देखो, तब बहू के पीछे पड़ी रहती है, नालायक लड़की.’ बाबूजी का इतना कहना था कि मोहिनी ने जोरजोर से रोना शुरू कर दिया. रोतेरोते वह विभा को कोसती भी जा रही थी, ‘जब से भाभी आई हैं, तभी से मैं सब को बुरी लगने लगी हूं. न जाने इन्होंने सब पर क्या जादू कर दिया है. भैया तो बिलकुल ही जोरू के गुलाम बन कर रह गए हैं.’ अब तक चुप तमाशा देख रहा विनय और न सुन सका, उस ने मोहिनी को डांटा, ‘बहुत हो गया, अब फौरन अपने कमरे में चली जा.’

मोहिनी तो पैर पटकती अपने कमरे में चली गई परंतु विभा इस बेवजह के अपमान से आहत हो रो पड़ी. उसे रोता देख विनय, मां और बाबूजी तीनों ही बेहद दुखी हो उठे. बाबूजी ने विभा के कंधे पर हाथ रख कर कहा, ‘‘बेटी, हमें माफ कर देना. मोहिनी की तरफ से हम तुम से माफी मांगते हैं.’’ जब विभा ने देखा कि मां, बाबूजी बेहद ग्लानि महसूस कर रहे हैं और विनय तो उसे रोता देख खुद भी रोंआसा सा हो उठा है तो उस ने फौरन अपने आंसू पोंछ लिए. यही नहीं, उस ने अगले ही दिन मोहिनी से खुद ही यों बातचीत शुरू कर दी मानो कुछ हुआ ही न हो. मांजी तो विभा का यह रूप देख निहाल हो उठी थीं. उन का मन चाहा कि विभा को अपने पास बिठा कर खूब लाड़प्यार करें. परंतु कहीं मोहिनी बुरा न मान जाए, यह सोच वे मन मसोस कर रह गईं. एक दिन मोहनी अपनी सहेली के घर गई हुई थी. विभा और मांजी बैठी चाय पी रही थीं. एकाएक मांजी ने विभा को अपनी गोद में लिटा लिया और प्यार से उस के बालों में उंगलियां फेरती हुई बोलीं, ‘काश, मेरी मोहिनी भी तेरी तरह मधुर स्वभाव वाली होती. मैं ने तो उस का चांद सा मुखड़ा देख मोहिनी नाम रखा था. सोचा था, अपनी मीठी हंसी से वह घर में खुशियों के फूल बिखेरेगी. लेकिन इस लड़की को तो जैसे हंसना ही नहीं आता, मुझे तो चिंता है कि इस से शादी कौन करेगा?’

मांजी को उदास देख विभा का मन भी दुखी हो उठा. उस ने पूछा, ‘मांजी, आप ने मोहिनी के लिए लड़के तो देखे होंगे?’ ‘हां, कई जगह बात चलाई, परंतु लोग केवल सुंदरता ही नहीं, स्वभाव भी तो देखते हैं. जहां भी बात चलाओ, वहीं इस के स्वभाव के चर्चे पहले पहुंच जाते हैं. छोटे शहरों में वैसे भी किसी के घर की बात दबीछिपी नहीं रहती.’ कुछ देर चुप रहने के बाद मांजी ने आशाभरी नजरों से विभा की ओर देखते हुए पूछा, ‘तुम्हारे मायके में कोई लड़का हो तो बताओ. इस शहर में तो इस की शादी होने से रही.’

बहुत सोचनेविचारने के बाद एकाएक उसे रंजन का ध्यान आया. रंजन, विभा के पिताजी की मुंहबोली बहन का लड़का था. एक ही शहर में रहने के कारण विभा अकसर उन के घर चली जाती थी. वह रंजन की मां को बूआ कह कर पुकारती थी. रंजन के घर के सभी लोग विभा से बहुत स्नेह करते थे. रंजन भी विभा की तरह ही बुराई को हंस कर सह जाने वाला और शीघ्र ही क्षमा कर देने में विश्वास रखने वाला लड़का था. ‘यह घर मोहिनी के लिए उपयुक्त रहेगा. रंजन जैसा लड़का ही मोहिनी जैसी तेजतर्रार लड़की को सहन कर सकता है,’ विभा ने सोचा.

फिर मां, बाबूजी की आज्ञा ले कर वह अपने मायके चली गई. जैसा कि होना ही था, मोहिनी का फोटो रंजन को ही नहीं, सभी को बहुत पसंद आया. लेकिन विभा ने मोहिनी के स्वभाव के विषय में रंजन को अंधेरे में रखना ठीक न समझा. मोहिनी के तीखे स्वभाव के बारे में जान कर रंजन हंस पड़ा, ‘अच्छा, तो यह सुंदर सी दिखने वाली लड़की नकचढ़ी भी है. लेकिन दीदी, तुम चिंता मत करो, मैं इस गुस्सैल लड़की को यों काबू में ले आऊंगा,’ कहते हुए उस ने जोर से चुटकी बजाई तो उस के साथसाथ विभा भी हंस पड़ी. लेकिन विभा जानती थी कि मोहिनी को काबू में रखना इतना आसान नहीं है जितना कि रंजन सोच रहा है. तभी तो उस के विवाह के बाद भी वह और मांजी निश्ंिचत नहीं हो सकी थीं. उन्हें हर वक्त यही खटका लगा रहता कि कहीं मोहिनी ससुराल में लड़झगड़ न पड़े, रूठ कर वापस न आ जाए. अभी मोहिनी के विवाह को हुए 4 महीने ही बीते थे कि अचानक वह अजीब से उखड़े मूड में आ धमकी थी.

‘न जाने क्या बात हुई होगी?’ विभा का दिल शंका से कांप उठा था कि तभी परांठा जलने की गंध उस के नथुनों से टकराई. अतीत में खोई विभा भूल ही गई थी कि उस ने तवे पर परांठा डाल रखा है. फिर विभा ने फटाफट दूसरा परांठा सेंका, चाय बनाई और नाश्ता ले कर मोहिनी के पास आ बैठी.

पता नहीं, इस बीच क्या बातचीत हुई थी, लेकिन विभा ने स्पष्ट देखा कि मांजी का चेहरा उतरा हुआ है. नाश्ता करते हुए जब मोहिनी चुप ही रही तो विभा ने बात शुरू की, ‘‘और सुनाओ, ससुराल में खुश तो हो न?’’ शायद मोहिनी इसी अवसर की प्रतीक्षा में थी. उस ने बिफर कर जवाब दिया, ‘‘खाक खुश हूं. तुम ने तो मुझे इतने लोगों के बीच फंसवा दिया. दिनरात काम करो, सासससुर के नखरे उठाओ,  और एक देवर है कि हर वक्त उस के चोंचले करते फिरो.’’ मोहिनी का धाराप्रवाह बोलना जारी था, ‘‘रंजन भी कम नहीं है. हर वक्त अपने घर वालों की लल्लोचप्पो में लगा रहता है. मेरी तो एक नहीं सुनता. उस घर में रहना मेरे बस का नहीं है. अब तो मैं तभी वापस जाऊंगी, जब रंजन अलग घर ले लेगा.’’ इसी तरह मोहिनी, रंजन के परिवार को बहुत देर तक भलाबुरा कहती रही. परंतु मांजी और विभा को क्या उस के स्वभाव के बारे में मालूम न था. वे जान रही थीं कि मोहिनी सफेद झूठ बोल रही है. वास्तव में तो संयुक्त परिवार में रहना उसे भारी पड़ रहा होगा, तभी वह खुद ही लड़ाईझगड़ा करती होगी ताकि घर में अशांति कर के अलग हो सके.

वैसे भी विभा, रंजन के परिवार को वर्षों से जानती थी. उसे पता था कि रंजन और उस के परिवार के अन्य सदस्य मोहिनी को खुश रखने की हर संभव कोशिश करते होंगे. उस से दिनरात काम करवाने का तो सवाल ही नहीं उठता होगा, उलटे बूआ तो उस के छोटेबड़े काम भी खुश हो कर कर देती होंगी.

मांजी ने मोहिनी को समझाने की कोशिश की, ‘‘देख बेटी, तेरी भाभी भी तो खुशीखुशी संयुक्त परिवार में रह रही है, यह भी तो हम सब के लिए काम करती है. इस ने तेरी बातों का बुरा मानने के बजाय हमेशा तुझे छोटी बहन की तरह प्यार ही किया है. तुझे इस से सीख लेनी चाहिए.’’ लेकिन मोहिनी तो विभा की तारीफ होते देख और भी भड़क गई. उस ने साफ कह दिया, ‘‘भाभी कैसी हैं, क्या करती हैं, इस से मुझे कोई मतलब नहीं है. मैं तो सिर्फ अपने बारे में जानती हूं कि मैं अपने सासससुर के साथ नहीं रह सकती. अब भाभी या तो रंजन को अलग होने के लिए समझाएं, वरना मैं यहां से जाने वाली नहीं.’’

मोहिनी का अडि़यल रुख देख कर विभा ने खुद ही जा कर रंजन से बातचीत करने का फैसला किया. रास्तेभर विभा सोचती रही कि वह किस मुंह से रंजन के घर जाएगी. आखिर उसी ने तो सबकुछ जानते हुए भी मोहिनी जैसी बददिमाग लड़की को उन जैसे शरीफ लोगों के पल्ले बांधा था. परंतु रंजन के घर पहुंच कर विभा को लगा ही नहीं कि उन लोगों के मन में उस के लिए किसी प्रकार का मैल है. विभा को संकोच में देख रंजन की मां ने खुद ही बात शुरू की, ‘‘विभा, मैं ने रंजन को अलग रहने के लिए मना लिया है. अब तू जा कर मोहिनी को वापस भेज देना. दोनों जहां भी रहें, बस खुश रहें, मैं तो यही चाहती हूं.’’

विभा ने शर्मिंदगीभरे स्वर में कहा, ‘‘बूआ, मेरी ही गलती है जो रंजन का रिश्ता मोहिनी से करवाया…’’ तभी रंजन ने बीच में टोका, ‘‘नहीं दीदी, आप ने तो मुझे सबकुछ पहले ही बता दिया था. खैर, अब तो जैसी भी है, वह मेरी पत्नी है. मुझे तो उस का साथ निभाना ही है. लेकिन मुझे विश्वास है कि एक दिन उस का स्वभाव जरूर बदलेगा.’’ वापस घर पहुंच कर जब विभा ने रंजन के अलग घर ले लेने की खबर दी तो मोहिनी खुश हो गई. लेकिन विनय खुद को कहने से न रोक सका, ‘‘मोहिनी, तू जो कर रही है, ठीक नहीं है. खैर, अब रंजन को खुश रखना. वह तेरी खुशी के लिए इतना बड़ा त्याग कर रहा है.’’

‘‘अच्छा, अब ज्यादा उपदेश मत दो,’’ मुंह बिचका कर मोहिनी ने कहा और फिर वापस जाने की तैयारी में जुट गई. फिर एक दिन रंजन का फोन आया. उस ने घबराए स्वर में बतलाया, ‘‘दीदी, मोहिनी को तीसरे महीने में अचानक रक्तस्राव शुरू हो गया है. डाक्टर ने उसे बिस्तर से बिलकुल न उठने की हिदायत दी है. आप को या मांजी को आना पड़ेगा. मैं तो मां को ला रहा था, लेकिन मोहिनी कहती है कि अब वह किस मुंह से उन्हें आने के लिए कह सकती है.’’ सास की तबीयत खराब थी, इसलिए विभा को ही जाना पड़ा. लेकिन वहां पहुंच कर उस ने देखा कि रंजन की मां वहां पहले से ही मौजूद हैं.

विभा ने सुखद आश्चर्य में पूछा, ‘‘बूआ, आप यहां?’’

‘‘अरी, यह मोहिनी तो पागल है, भला मुझे बुलाने में संकोच कैसा? मुसीबत में में काम नहीं आएंगे तो और कौन काम आएगा? यह तो अपने पूर्व व्यवहार के लिए बहुत ग्लानि महसूस कर रही है. बेटी, तू इसे समझा कि इस अवस्था में ज्यादा सोचा नहीं करते.’’ रात को विभा मोहिनी के कमरे के पास से गुजर रही थी कि अंदर की बातचीत सुन वहीं ठिठक गई. रंजन मोहिनी को छेड़ रहा था, ‘‘अब क्या करोगी, अब तो तुम्हें काफी समय तक मां के साथ रहना पड़ेगा?’’ ‘‘मुझे और शर्मिंदा मत कीजिए. आज मुझे परिवार का महत्त्व समझ में आ रहा है. सच, सब से प्यार करने से ही जीवन का वास्तविक आनंद प्राप्त होता है.’’

‘‘अरे, अरे तुम तो एक ही दिन में बहुत समझदार हो गई हो.’’

‘‘अच्छा, अब मजाक मत कीजिए. और हां, जब मैं ठीक हो जाऊं तो मुझे अपने घर ले चलना, अब मैं वहीं सब के साथ रहूंगी.’’

बाहर खड़ी विभा ने चैन की सांस ली, ‘चलो, देर से ही सही, लेकिन आज मोहिनी को परिवार के साथ मिलजुल कर रहने का महत्त्व तो पता चला.’ अब विभा को यह समाचार विनय, मांजी और बाबूजी को सुनाने की जल्दी थी कि मोहिनी के स्वभाव में परिवर्तन हो चुका है. Romantic Story In Hindi

Family Story In Hindi: अब आएगा मजा – कैसे सिया ने अपनी सास का दिल जीता?

Family Story In Hindi: ‘‘अब आएगा मजा. पता चलेगा बच्चू को जब सारे नखरे ढीले हो जाएंगे. मां को नचाना आसान है न. मां हूं न. मैं ने तो ठेका लिया है सारे नखरे उठाने का,’’ सुनंदा अपने बेटे राहुल को सुनाती हुई किचन में काम कर रही थी. मां के सारे ताने सुनता राहुल मंदमंद मुसकराता हुआ फोन पर सिया से चैट करने में व्यस्त था.

कपिल ने मांबेटे की अकसर होने वाली तानेबाजी का आनंद उठाते हुए, धीरेधीरे हंसते हुए बेटे से कहा, ‘‘वैसे तुम परेशान तो बहुत करते हो अपनी मां को, चुपचाप नाश्ते में पोहा खा लेते तो इतने ताने क्यों सुनते. तन्वी को देखो, जो मां देती है, आराम से खा लेती है बिना कोई नखरा किए.’’

‘‘हां पापा, पर मैं क्या करूं. मुझे शौक है अच्छेअच्छे, नएनए खाना खाने का. मुझे नहीं खाना है संडे को सुबहसुबह पोहा. अरे संडे है, कुछ तो स्पैशल होना चाहिए न, पापा.’’

किचन से ही सुनंदा की आवाज आई, ‘‘हांहां, बना रही हूं, कितना स्पैशल खाओगे संडे को.’’

राहुल हंस दिया. यह रोज का तमाशा था, खानेपीने का शौकीन राहुल सुनंदा की नाक में दम कर के रखता था. घर का सादा खाना उस के गले से नहीं उतरता था. उसे रोज कोई न कोई स्पैशल आइटम चाहिए होता था. सुनंदा उस के नखरे पूरे करतेकरते थक जाती थी. पर अब उसे इंतजार था राहुल के विवाह का. एक महीने बाद ही राहुल का सिया से विवाह होने वाला था. राहुल और सिया की

3 साल की दोस्ती प्रेम में बदली तो दोनों ने विवाह का निर्णय ले लिया था. दोनों के परिवारों ने इस विवाह पर अपनी सहमति सहर्ष प्रकट की थी.

सुनंदा को इस बात की खुशी थी कि राहुल के नखरों से छुट्टी मिलेगी. राहुल स्वभाव से मृदुभाषी, सभ्य लड़का था पर खाने के मामले में वह कभी समझौता नहीं करता था. जो मन होता था, वही चाहिए होता था. आजकल सुनंदा का रातदिन यही कहना था, ‘‘कर लो थोड़े दिन और नखरे, बीवी आएगी न, तो सुधार देगी. अब आएगा मजा, पता चलेगा, ये सारे नखरे मां ही उठा सकती है.’’ सिया से जब सुनंदा मिली तो मधुर स्वभाव, शांत, हंसमुख, सुंदर, मौडर्न सिया उसे देखते ही पसंद आ गई. कपिल एक कंपनी में जनरल मैनेजर थे, तन्वी राहुल से 3 साल छोटी थी. वह अभी पढ़ रही थी. कपिल और तन्वी को भी सिया पसंद आई थी. सिया अच्छे पद पर कार्यरत थी. विवाह की तिथि नजदीक आती जा रही थी और सुनंदा का ‘अब आएगा मजा’ कहना बढ़ता ही जा रहा था. हंसीमजाक और उत्साह के साथ तैयारियां जोरों पर थीं.

राहुल ने एक दिन कहा, ‘‘मां, आजकल आप बहुत खुश दिखती हैं. अच्छा लग रहा है.’’ कपिल और तन्वी भी वहीं बैठे थे. कपिल ने कहा, ‘‘हां, सास जो बनने जा रही है.’’ सुनंदा ने कहा, ‘‘नहीं, मुझे बस उस दिन का इंतजार है जब राहुल खाने के साथ समझौता करेगा, तो मैं कहूंगी, ‘बेटा, सुधर गए न’.’’

सब इस बात पर हंस पड़े. सुनंदा ने अत्यंत उत्साहपूर्वक कहा, ‘‘बस, अब आएगा मजा. सिया औफिस जाएगी या इस के नखरे उठाएगी. बस, अब मेरा काम खत्म. यह जाने या सिया जाने. मैं तो बहुत दिन नाच ली इस के इशारों पर.’’

तन्वी ने कहा, ‘‘मां, पर भाभी तो कुकिंग जानती हैं.’’

‘‘सब कहने की बात है, औफिस जाएगी या बैठ कर इस के लिए खाना बनाएगी. मैं तो बहुत उत्साहित हूं. बहुत मजा आएगा.’’ राहुल मंदमंद मुसकराता रहा, सुनंदा उसे जी भर कर छेड़ती रही.

विवाह खूब अच्छी तरह से संपन्न हुआ. सिया घर में बहू बन कर आ गई. दोनों ने 15 दिनों की छुट्टी ली थी. विवाह के बाद सब घर समेटने में व्यस्त थे. यह मुंबई शहर के मुलुंड की एक सोसायटी में थ्री बैडरूम फ्लैट था. सिया का मायका भी थोड़ा दूर ही था. औफिस जाने का भी समय आ गया. सिया का औफिस पवई में था. राहुल का अंधेरी में. औफिस जाने वाले दिन सिया भी जल्दी उठ गई. राहुल ने आदतन पूछा, ‘‘मां, नाश्ते में क्या है?’’

‘‘आलू के परांठे.’’

‘‘नहीं मां, इतना हैवी खाने का मन नहीं है.’’

सुनंदा ने राहुल को घूरा, फिर कहा, ‘‘सब का टिफिन तैयार कर दिया है. टिफिन में आलू की सब्जी बनाई थी, तो यही नाश्ता भी बना लिया.’’ सिया ने कहा, ‘‘अरे मां, आप ने क्यों सब बना लिया. मैं तैयार हो कर आ ही रही थी.’’

‘‘कोई बात नहीं सिया, आराम से हो जाता है सब. तुम्हें औफिस भी जाना है न.’’

राहुल ने कहा, ‘‘मां, मेरे लिए एक सैंडविच बना दो न.’’

सिया ने कहा, ‘‘हां, मैं बना देती हूं. आलू के परांठे तो हैं ही, कितना टाइम लगेगा, झट से बन जाएंगे.’’

अचानक एक ही पल में राहुल और सुनंदा ने एकदूसरे को देखा. आंखों में कई सवालजवाब हुए. तन्वी भी वहीं खड़ी थी. उस ने राहुल को देखा और फिर दोनों हंस दिए. ‘‘मैं 2 मिनट में बना कर लाई,’ कह कर सिया किचन में चली गई. मां की मुसकराहट झेंपभरी थी जबकि बेटी की मुसकराहट में शरारत थी. उम्मीद से जल्दी ही सिया सैंडविच बना लाई. सब नाश्ता कर के अपनेअपने काम पर चले गए. तन्वी अपने कालेज चली गई.

शाम को ही सब आगेपीछे लौटे. सुनंदा डिनर की काफी तैयारी कर के रखती थी. डिनर पूरी तरह से राहुल की पसंद का था तो सब ने खुशनुमा माहौल में खाना खाया. 3-4 दिन और बीते. सिया सुनंदा के काम में भरसक हाथ बंटाने लगी थी. एक दिन डिनर के समय राहुल ने कहा, ‘‘मैं नहीं खाऊंगा यह दालसब्जी.’’ सुनंदा ने राहुल को घूरा, ‘‘चुपचाप खा लो, साढ़े 8 बज रहे हैं. अब क्या कुछ और बनेगा.’’

‘‘नहीं मां, यह दालसब्जी मैं नहीं खाऊंगा.’’ खाना पूरी तरह से लग चुका था. सिया के सामने यह दूसरा ही मौका था. मांबेटे एकदूसरे को घूर रहे थे. कपिल और तन्वी मुसकराते हुए सब को देख रहे थे. सिया ने कहा, ‘‘अच्छा बताओ, राहुल, क्या खाना है?’’

‘‘कुछ भी चलेगा, पर यह नहीं.’’

‘‘औमलेट बना दूं?’’

‘‘हां, अच्छा रहेगा, साथ में एक कौफी भी मिलेगी?’’

‘‘हां, क्यों नहीं, आप लोग बैठो, मैं अभी बना कर लाई.’’

राहुल सुनंदा को देख कर मुसकराने लगा तो वह भी हंस ही दी. सिया बहुत जल्दी सब बना लाई. बातोंबातों में सिया ने कहा, ‘‘मां, राहुल आप को बहुत परेशान करते हैं न, मैं ही इन की पसंद का कुछ न कुछ बनाती रहूंगी. आप का काम भी हलका रहेगा.’’ सुनंदा ने हां में गरदन हिला दी.एकांत में कपिल ने कहा, ‘‘सुनंदा, तुम्हें तो बहुत अच्छी बहू मिल गई है.’’

‘‘हां, पर यह थोड़े दिन के शौक हैं. उस के नखरे उठाना आसान बात नहीं है.’’ शनिवार, रविवार सब की छुट्टी ही रहती थी. दोनों दिन कुछ स्पैशल ही बनता था. सिया ने सुबह ही सुनंदा से कहा, ‘‘ये 2 दिन कुछ स्पैशल बनता है न, मां? आज और कल मैं ही बनाऊंगी. आप ये 2 दिन आराम करना.’’

‘‘नहीं, बेटा, मिल कर बना लेंगे, पूरा हफ्ता तुम्हारी भी तो भागदौड़ रहती है.’’

राहुल वहीं आ कर बैठता हुआ बोला, ‘‘हां मां, आप वीकैंड पर थोड़ा आराम कर लो, आप को भी तो आराम मिलना चाहिए.’’ सुनंदा को बेटेबहू की यह बात सुन कर अच्छा लगा. सिया ने पूछा, ‘‘मां, नाश्ते में क्या बनेगा?’’

राहुल ने फौरन कहा, ‘‘बढि़या सैंडविच.’’

‘‘और लंच में?’’

सुनंदा ने कहा, ‘‘मैं ने छोले भिगोए थे रात में.’’

‘‘नहीं मां, आज नहीं, पिछले संडे भी खाए थे, कुछ और खाऊंगा.’’

‘‘राहुल, क्यों हमेशा काम बढ़ा देते हो?’’

‘‘मां, कुछ चायनीज बनाओ न.’’

‘‘उस की तो कुछ भी तैयारी नहीं है.’’

सिया ने फौरन कहा, ‘‘मां, आप परेशान न हों. छोले भी बन जाएंगे. एक चायनीज आइटम भी.’’ सिया किचन में चली गई. सुनंदा हैरान सी थी, यह कैसी लड़की है, कुछ मना नहीं करती. राहुल की पसंद के हर खाने को बनाने के लिए हमेशा तैयार. छुट्टी के दोनों दिन सिया उत्साहपूर्वक राहुल और सब की पसंद का खाना बनाने में व्यस्त रही. सोमवार से फिर औफिस का रूटीन शुरू हो गया. जैसे ही सिया को अंदाजा होता कि नाश्ताखाना राहुल की पसंद का नहीं है, वह झट से किचन में जाती और कुछ बना लाती. सुनंदा हैरान सी सिया की एकएक बात नोट कर रही थी. 2 महीने बीत रहे थे, इतने कम समय में ही सिया घर में पूरी तरह हिलमिल गई थी. सुनंदा को उस का राहुल का इतना ध्यान रखना बहुत भाता था.

पिछले कुछ सालों से किसी न किसी शारीरिक अस्वस्थता के चलते सुनंदा खाना इस तरह से बना रही थी कि उसे किचन में ज्यादा न खड़ा होना पड़े, इसलिए कई चीजें तो घर में बननी लगभग छूट ही चुकी थीं. अब सिया घर में आई तो किचन की रूपरेखा ही बदल गई. उसे हर तरह का खाना बनाना आता था. वह कुकिंग में इतनी ऐक्सपर्ट थी कि सुनंदा ने भी जो चीजें कभी नहीं बनाई थीं, वह उत्साहपूर्वक सब को बना कर खिलाने लगी. सुनंदा तो सिया की लाइफस्टाइल पर हैरान थी. सुबह 6 बजे उठ कर सिया किचन के खूब काम निबटा देती. छुट्टी वाले दिन तो सब इंतजार करने लगे थे कि आज क्या बनेगा. सुनंदा ने तो कभी सोचा ही नहीं था कि इतनी मौडर्न लड़की किचन इस तरह संभाल लेगी.

एक संडे को सब लंच करने बैठे. सिया ने छोलेभठूरे बनाए थे. सब ने वाहवाह करते हुए खाना शुरू ही किया था कि राहुल ने कहा, ‘‘मार्केट में छोलों पर गोलगोल कटे हुए प्याज अच्छे लगते हैं न.’’ सुनंदा ने राहुल को घूरा. सिया ने कहा, ‘‘गोल काट कर लाऊं?’’

सुनंदा ने कहा, ‘‘रहने दो सिया, इस के नखरे उठाना बहुत मुश्किल है, थक जाओगी.’’

सिया उठ खड़ी हुई, ‘‘एक मिनट लगेगा, लाती हूं.’’

सुनंदा सोच रही थी कि राहुल के नखरे कम तो क्या हुए, बढ़ते ही जा रहे हैं. उसे सोचता देख कपिल ने पूछा, ‘‘अरे, तुम क्या सोचने लगी?’’

‘‘कुछ नहीं.’’

राहुल ने शरारत से हंसते हुए कहा, ‘‘मुझे पता है, मां क्या सोच रही है.’’ सुनंदा ने घूरा, ‘‘अच्छा, बताना?’’

राहुल हंसा, ‘‘मां कहती थी न, विवाह होने दो, बच्चू को मजा आएगा, तो मां, मजा तो आ रहा है न?’’ सब हंस पड़े. सुनंदा झेंप गई. इतने में एक प्लेट में गोलगोल पतलेपतले प्याज सजा कर लाती हुई सिया ने पूछा, ‘‘क्या हुआ, किसे मजा आ रहा है?’’ सब मुसकरा रहे थे. राहुल ने मां को छेड़ा, ‘‘इस समय तो सब को आ रहा है. जानती हो, सिया, मां को हमारे विवाह से पहले ही पता था कि बहुत मजा आएगा. है न मां?’’ सब  हंस रहे थे तो झेंपती हुई सुनंदा भी सब के साथ हंसी में शामिल हो गई. सिया को पूरी बात समझ तो नहीं आई थी पर वह मांबेटे की आंखों में चलती छेड़छाड़ को समझने की कोशिश कर रही थी. Family Story In Hindi

Hindi Romantic Story: दिल चाहता है – दिल पर क्यों नहीं लग पाता उम्र का बंधन

Hindi Romantic Story: जुलाई का महीना है. सुबह की सैर  से वापस आ कर मैं ने कपड़े  बदले. छाता होने के बाद भी कपड़े कुछ तो भीग ही जाते हैं. चाय का अपना कप ले कर मैं बालकनी में आ कर चेयर पर बैठ गई और सुबहसुबह नीचे खेल रही छोटी बच्चियों पर नजर डाली. मन में स्नेह की एक लहर सी उठी. बहुत अच्छी लगती हैं मुझे हंसतीखेलती छोटीछोटी बच्चियां. जब भी इन्हें देखती हूं, दिल चाहता है सब छोड़ कर नीचे उतर जाऊं और इन बच्चियों के खेल में शामिल हो जाऊं, पर जानती हूं यह संभव नहीं है.

इस उम्र में बारिश में भीगते हुए छोटी बच्चियों के साथ पानी में छपाकछपाक करते हुए सड़क पर कूदूंगी तो हर कोई मुझे पागल समझेगा, कहेगा, इस उम्र में बचपना दिखा रही है, खुद को बच्ची समझ रही है. अब अपने मन में छिपे बच्चे के बचपन की इस कसक को दिखा तो सकती नहीं, मन मार कर बच्चियों को खेलते देखते रह जाती हूं. कितने सुहाने लगते हैं इन के खेल, कितने भरोसे के साथ हाथ पकड़ते हैं ये एकदूसरे का लेकिन बड़े होने पर न तो वे खेल रहते हैं न खिलखिलाहट, न वैसा विश्वास और साथ, कहां चला जाता है यह सब?

अभी सैर पर थी तो पार्क में कुछ युवा जोड़े एकदूसरे में खोए बैठे थे. मुंबई में जगह की कमी शायद सब से ज्यादा इन्हीं जोड़ों को खलती है. सुबहसुबह भी लाइन से बैठे रहते हैं. बराबर वाला जोड़ा क्या कर रहा है, इस की चिंता उन्हें नहीं होती. हां, देखने वाले अपने मन में, कितने बेशर्म हैं ये युवा, सोचते कुढ़ते हुए अपनी सैर पूरी करते हैं, लोगों का ध्यान अकसर उन्हीं पर होता है लेकिन वे जोड़े किसी की चिंता में अपना समय खराब नहीं करते. सैर की मेरी साथी भी जब अकसर उन्हें कोस रही होती है, मैं मन ही मन सोच रही होती हूं कि आह, यह उम्र क्यों चली गई, मीठेमीठे सपनों, सुंदर एहसासों की उम्र, अब क्यों हम अपनी जिम्मेदारियों में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि यह सबकुछ बेमानी हो जाता है.

मेरा तो आज भी दिल यही चाहता है कि अनिरुद्ध जब भी अपने काम से फ्री हों, हम दोनों ऐसे ही बाइक पर घूमने निकल जाएं, उन की कमर में हाथ डाल कर बैठना कितना अच्छा लगता था. अब तो कार में गाने सुनते हुए, कभी चुपचाप, कभी दोचार बात करते हुए सफर कटता है और हम अपना काम निबटा कर घर लौट आते हैं.

कई बार मैं स्नेहा और यश से जब कहती हूं, ‘चलो, अपना फोन और कंप्यूटर बंद करो, कहीं बाहर घूमने चलते हैं. थोड़ा साथ बैठेंगे या पिकनिक की बात करती हूं तो दोनों कहेंगे, ‘स्टौप इट मौम, क्या बच्चों जैसी बात करती हैं आप, इस उम्र में पिकनिक का शौक चढ़ा है आप को, हमें और भी काम हैं.’

मैं पूछती हूं, ‘क्या काम हैं छुट्टी के दिन?’ तो उन के काम यही होते हैं, सोना, टीवी देखना या अपने दोस्तों के साथ किसी मौल में घूमना. फिर मेरा दिल जो चाहता है, वह दिल में ही रह जाता है. कालेज से लौटती हुई अपने घर जाने से पहले सड़क पर खड़ी लड़कियों को कहकहे लगाती देखती हूं तो दिल चाहता है अपनी सहेलियों को बुला कर ऐसे ही खूब दिल खोल कर हंसू, ठहाके लगाऊं लेकिन अब न वे सहेलियां हैं न वह समय.

अब तो हमें वे मिलती भी हैं तो बस पति और बच्चों की शिकायतें, अपनीअपनी बीमारियों की, महंगाई की, रिश्तेदारों की परेशानियां क्यों हम ऐसे खुश रहना, बेफिक्री से समय बिताना भूल जाती हैं.

पिछले संडे की बात है. अनिरुद्ध नाश्ते के बाद फ्री थे. मैं ने कहा, ‘चलो, अनि, आज कार छोड़ कर बारिश में कहीं बाइक पर चलते हैं.’

फट से जवाब आया, ‘पागल हो गई हो क्या, नीरा? हड्डियां तुड़वानी हैं क्या? बाइक स्लिप हो गई तो, कितनी बारिश हो रही है?’

‘अनि, पहले भी तो जाते थे हम दोनों.’

‘पहले की बात और थी.’

‘क्यों, पहले क्या बात थी जो अब नहीं है?’ कह कर मैं ने उन के गले में बांहें डाल दीं, ‘अनि, मेरा दिल करता है हम अब भी बारिश में थोड़ा घूम कर रोमांस करें, एकदूसरे में खो जाएं.’

अनि हंसते हुए बोले, ‘यह सब तो रात में भी हो सकता है, उस के लिए बारिश में भीगने की क्या जरूरत है.’

‘कुछ चैंज होगा, अनि.’

‘क्या चैंज होगा? यही कि मुझे जुकाम हो जाएगा और मुंबई की सड़कों पर बाइक पर बैठ कर तुम्हें कमरदर्द. डार्लिंग, दिल को काबू में रखो, दिल का क्या है.’

मैं मन मार कर चुप रह गई थी. यह नहीं समझा पाई थी कि दिल करता है हम भीग जाएं, थोड़ी ठंड लगे, आ कर कपड़े बदल कर साथ कौफी पीएं, फिर बैडरूम में चले जाएं, फिर बस, इस के आगे नहीं समझा पाऊंगी.

कभीकभी तो हद हो जाती है, दिल करता है खुद ही अकेले कार ले कर लौंगड्राइव पर निकल जाऊं, कहीं दूर खुले रेस्तरां में बैठ कर कौफी पीऊं, फिर वहां कोई मिल जाए जो मेरा अच्छा दोस्त बन जाए, बस एक दोस्त, इस के आगे कुछ नहीं, जो मुझ से ढेर सी बातें करे, जो मेरी ढेर सी बातें सुने, अभी मैं और पता नहीं क्याक्या सोचती कि जम्हाई लेते हुए अनिरुद्ध आए और बोले, ‘‘यहां क्या कर रही हो सुबहसुबह? चाय मिलेगी?’’ और मैं यह सोचती हुई कि सच ही तो कहते हैं अनि, दिल का क्या है, दिल तो पता नहीं क्याक्या सोचता है, उठ कर अपने रोज के कामों में व्यस्त हो गई. Hindi Romantic Story

Story In Hindi: टीसता जख्म – उमा के चरित्र पर अनवर ने कैसा दाग लगाया

Story In Hindi: अचानक उमा की आंखें खुलती हैं. ऊपर छत की तरफ देखती हुई वह गहरी सांस लेती है. वह आहिस्ता से उठती है. सिरहाने रखी पानी की बोतल से कुछ घूंट अपने सूखे गले में डालती है. आंखें बंद कर वह पानी को गले से ऐसे नीचे उतारती है जैसे उन सब बातों को अपने अंदर समा लेना चाहती है. पर, यह हो नहीं पा रहा. हर बार वह दिन उबकाई की तरह उस के पेट से निकल कर उस के मुंह में भर आता है जिस की दुर्गंध से उस की सारी ज्ञानेंद्रियां कांप उठती हैं.

पानी अपने हलक से नीचे उतार कर वह अपना मोबाइल देखती है. रात के डेढ़ बजे हैं. वह तकिए को बिस्तर के ऊंचे उठे सिराहने से टिका कर उस पर सिर रख लेट जाती है.

एक चंदन का सूखा वृक्ष खड़ा है. उस के आसपास मद्धिम रोशनी है. मोटे तने से होते हुए 2 सूखी शाखाएं ऊपर की ओर जा रही हैं, जैसे कि कोई दोनों हाथ ऊपर उठाए खड़ा हो. बीच में एक शाखा चेहरे सी उठी हुई है और तना तन लग रहा है. धीरेधीरे वह सूखा चंदन का पेड़ साफ दिखने लगता है. रोशनी उस पर तेज हो गई है. बहुत करीब है अब… वह एक स्त्री की आकृति है. यह बहुत ही सुंदर किसी अप्सरा सी, नर्तकी सी भावभंगिमाएं नाक, आंख, होंठ, गरदन, कमर की लचक, लहराते सुंदर बाजू सब साफ दिख रहे हैं.

चंदन की खुशबू से वहां खुशनुमा माहौल बन रहा है कि तभी उस सूखे पेड़ पर उस उकेरी हुई अप्सरा पर एक विशाल सांप लिपटा हुआ दिखने लगता है. बेहद विशाल, गहरा चमकीला नीला, हरा, काला रंग उस के ऊपर चमक रहा है. सारे रंग किसी लहर की तरह लहरा रहे हैं. आंखों के चारों ओर सफेद चमकीला रंग है. और सफेद चमकीले उस रंग से घिरी गोल आंख उस अप्सरा की पूरी काया को अपने में समा लेने की हवस लिए हुए है. रक्त सा लाल, किसी कौंधती बिजली से कटे उस के अंग उस काया पर लपलपा रहे हैं.

वह विशाल सांप अपनी जकड़ को घूमघूम कर इतना ज्यादा कस रहा है कि वह उस पेड़ को मसल कर धूल ही बना देना चाह रहा है. तभी वह काया जीवित हो जाती है. सांप उस से दूर गिर पड़ता है. वह एक सुंदर सी अप्सरा बन खड़ी हो जाती है और सांप की तरफ अपनी दृष्टि में ठहराव, शांति, आत्मविश्वास और आत्मशक्ति से ज्यों ही नजर डालती है वह सांप गायब हो जाता है और उमा जाग जाती है. सपने को दोबारा सोच कर उमा फिर बोतल से पानी की घूंट अपने हलक से उतारती है. अब उसे नींद नहीं आ रही.

भारतीय वन सेवा के बड़े ओहदे पर है उमा. उमा को मिला यह बड़ा सा घर और रहने के लिए वह अकेली. 3 तो सोने के ही कमरे हैं जो लगभग बंद ही रहते हैं. एक में वह सोती है. उमा उठ कर बाहर के कमरे में आ जाती है. बड़ी सी पूरे शीशे की खिड़की पर से परदा सरका देती है. दूरदूर तक अंधेरा. आईजीएनएफए, देहरादून के अहाते में रोशनी करते बल्ब से बाहर दृश्य धुंधला सा दिख रहा था. अभीअभी बारिश रुकी थी. चिनार के ढलाव से नुकीले पत्तों पर लटकती बूंदों पर नजर गड़ाए वह उस बीते एक दिन में चली जाती है…

उन दिनों वह अपनी पीएचडी के अध्ययन के सिलसिले में अपने शहर रांची के बिरसा कृषि विश्वविद्यालय (कांके) आई हुई थी. पूरा बचपन तो यहीं बीता उस का. झारखंड के जंगलों में अवैध खनन व अवैध जंगल के पेड़ काटने पर रोक व अध्ययन के लिए जिला स्तर की कमेटी थी. आज उमा ने उस कमेटी के लोगों को बातचीत के लिए बुलाया था. उसे जरा भी पता नहीं था, उस के जीवन में कौन सा सवाल उठ खड़ा होने वाला है.

मीटिंग खत्म हुई. सारे लोग चाय के लिए उठ गए. उमा अपने लैपटौप पर जरूरी टिप्पणियां लिखने लग गई. तभी उसे लगा कोई उस के पास खड़ा है. उस ने नजर ऊपर की. एक नजर उस के चेहरे पर गड़ी हुई थी. आप ने मुझे पहचाना नहीं?

उमा ने कहा, ‘सौरी, नहीं पहचान पाई.’ ‘हम स्कूल में साथ थे,’ उस शख्स ने कहा.

‘क्षमा करें मेरी याददाश्त कमजोर हो गई है. स्कूल की बातें याद नहीं हैं,’ उमा ने जवाब दिया.

‘मैं अनवर हूं. याद आ रहा है?’

अनवर नाम तो सुनासुना सा लग रहा है. एक लड़का था दुबलापतला, शैतान. शैतान नहीं था मैं, बेहद चंचल था,’ वह बोला था.

उमा गौर से देखती है. कुछ याद करने की कोशिश करती है…और अनवर स्कूल के अन्य दोस्तों के नाम व कई घटनाएं बनाता जाता है. उमा को लगा जैसे उस का बचपन कहीं खोया झांकने लगा है. पता नहीं कब वह अनवर के साथ सहज हो गई, हंसने लगी, स्कूल की यादों में डूबने लगी.

अनवर की हिम्मत बढ़ी, उस ने कह डाला, ‘मैं तुम्हें नहीं भूल पाया. मैं साइलेंट लवर हूं तुम्हारा. मैं तुम से अब भी बेहद प्यार करता हूं.’

‘यह क्या बकवास है? पागल हो गए हो क्या? स्कूल में ही रुक गए हो क्या?’ उमा अक्रोशित हो गई.

‘हां, कहो पागल मुझे. मैं उस समय तुम्हें अपने प्यार के बारे में न बता सका, पर आज मैं इस मिले मौके को नहीं गंवाना चाहता. आइ लव यू उमा. तुम पहले भी सुंदर थीं, अब बला की खूबसूरत हो गई हो.’

उमा झट वहां से उठ जाती है और अपनी गाड़ी से अपने आवास की ओर निकल लेती है. आई लव यू उस के कानों में, मस्तिष्क में रहरह गूंज रहा था. कभी यह एहसास अच्छा लगता तो कभी वह इसे परे झटक देती.

फोन की घंटी से उस की नींद खुलती है. अनवर का फोन है. वह उस पर ध्यान नहीं देती. फिर घड़ी की तरफ देखती है, सुबह के 6 बज गए हैं. इतनी सुबह अनवर ने रिंग किया? उमा उठ कर बैठ जाती है. चेहरा धो कर चाय बनाती है. अपने फोन पर जरूरी मैसेज, कौल, ईमेल देखने में लग जाती है. तभी फिर फोन की घंटी बज उठती है. फिर अनवर का फोन है.

‘हैलो, हां, हैलो उठ गई क्या? गुडमौर्निंग,’ अनवर की आवाज थी.

‘इतने सवेरे रिंग कर दिया,’ उमा बोली.

‘हां, क्या करूं, रात को मुझे नींद ही नहीं आई. तुम्हारे बारे में ही सोचता रहा,’ अनवर बोला.

‘मुझे अभी बहुत काम है, बाद में बात करती हूं,’ उमा ने फोन काट दिया.

आधे घंटे बाद फिर अनवर का फोन आया.

‘अरे, मैं तुम से मिलना चाहता हूं.’

‘नहींनहीं, मुझे नहीं मिलना है. मुझे बहुत काम है,’ और उस ने फोन जल्दी से रख दिया.

आधे घंटे बाद फिर अनवर का फोन आया और वह बोला, ‘सुनो, फोन काटना मत. बस, एक बार मिलना चाहता हूं, फिर मैं कभी नहीं मिलूंगा.’

‘ठीक है, लंच के बाद आ जाओ,’ उमा ने अनवर से कहा.

लंच के समय कमरे की घंटी बजती है. उमा दरवाजा खोलती है. सामने अनवर खड़ा है. अनवर बेखौफ दरवाजे के अंदर घुस जाता है.

‘ओह, आज बला की खूबसूरत लग रही हो, उमा. मेरे इंतजार में थी न? तुम ने अपनेआप को मेरे लिए तैयार किया है न?’

उमा बोली, ‘ऐसी कोई बात नहीं है? मैं अपने साधारण लिबास में हूं. मैं ने कुछ भी खास नहीं पहना.’

अनवर डाइनिंग रूम में लगी कुरसी पर ढीठ की तरह बैठ गया. उमा के अंदर बेहद हलचल मची हुई है पर वह अपनेआप को सहज रखने की भरपूर कोशिश में है. वह भी दूसरे कोने में पड़ी कुरसी पर बैठ गई. अनवर 2 बार राष्ट्रीय स्तर की मुख्य राजनीतिक पार्टी से चुनाव लड़ चुका था, लेकिन दोनों बार चुनाव हार गया था. अब वह अपने नेता होने व दिल्ली तक पहुंच होने को छोटेमोटे कार्यों के  लिए भुनाता है. उस के पास कई ठेके के काम हैं. बातचीत व हुलिया देख कर लग रहा था कि वह अमीरी की जिंदगी जी रहा है. अनवर की पूरी शख्सियत से उमा डरी हुई थी.

‘उमा, मैं तुम से बहुत सी बातें करना चाहता हूं. मैं तुम से अपने दिल की सारी बातें बताना चाहता हूं. आओ न, थोड़ा करीब तो बैठो प्लीज,’ अनवर अपनी कुरसी उस के करीब सरका कर कहता है, ‘तुम भरपूर औरत हो.’

अचानक उमा का बदन जैसे सिहर उठा. अनवर ने उस का हाथ दबा लिया था. अनवर की आंखें गिद्ध की तरह उमा के चेहरे को टटोलने की कोशिश कर रही थीं. उमा ने झटके से अपना हाथ खींच लिया.

‘मैं चाय बना कर लाती हूं,’ कह कर उमा उठने को हुई तो अनवर बोल उठा.

‘नहींनहीं, तुम यहीं बैठो न.’

उमा पास रखी इलैक्ट्रिक केतली में चाय तैयार करने लगी. तभी उमा को अपने गले पर गरम सांसों का एहसास हुआ. वह थोड़ी दूर जा कर खड़ी हो गई.

‘क्या हुआ? तुम ने शादी नहीं की पर तुम्हें चाहत तो होती होगी न,’ अनवर ने जानना चाहा.

‘कैसी बकवास कर रहे हो तुम,’ उमा खीझ कर बोली.

‘हम कोई बच्चे थोड़े हैं अब. बकवास तो तुम कर रही हो,’ अनवर भी चुप नहीं हुआ और उस के होंठ उमा के अंगों को छूने लगे. उमा फिर दूर चली गई.

‘अनवर, बहुत हुआ, बस करो. मुझे यह सब पसंद नहीं है,’ उमा ने संजीगदी से कहा.

‘एक मौका दो मुझे उमा, क्या हो गया तुम्हें, अच्छा नहीं लगा क्या?  मैं तुम से प्यार करता हूं. सुनो तो, तुम खुल कर मेरे साथ आओ,’ उस ने उमा को गोद में उठा लिया. अनवर की गोद में कुछ पल के लिए उस की आंखें बंद हो गईं. अनवर ने उसे बिस्तर पर लिटा दिया और उस पर हावी होने लगा. तभी बिजली के झटके की तरह उमा उसे छिटक कर दूर खड़ी हो गई.

‘अभी निकलो यहां से,’ उमा बोल उठी.

अनवर हारे हुए शिकारी सा उसे देखता रह गया.

उमा बोली, ‘मैं कह रही हूं, तुम अभी जाओ यहां से.’

अनवर न कुछ बोला और न वहां से गया तो उमा ने कहा, ‘मैं यहां किसी तरह का हंगामा नहीं करना चाहती. तुम बस, यहां से चले जाओ.’

अनवर ने अपना रुमाल निकाला और चेहरे पर आए पसीने को पोंछता हुआ कुछ कहे बिना वहां से निकल गया. उमा दरवाजा बंद कर डर से कांप उठी. सारे आंसू गले में अटक कर रह गए. अपने अंदर छिपी इस कमजोरी को उस ने पहली बार इस तरह सामने आते देखा. उसे बहुत मुश्किल से उस रात नींद आई.

फोन की घंटी से उस की नींद खुली. फोन अनवर का था.

‘मैं बहुत बेचैन हूं. मुझे माफ कर दो.’

उमा ने फोन काट कर उस का नंबर ब्लौक कर दिया. फिर दोबारा एक अनजान नंबर से फोन आया. यह भी अनवर की ही आवाज थी.

‘मुझे माफ कर दो उमा. मैं तुम्हारी दोस्ती नहीं खोना चाहता.’

उमा ने फिर फोन काट दिया. वह बहुत डर गई थी. उमा ने सोचा कि उस के वापस जाने में 2 दिन बाकी हैं. वह बेचैन हो गई. किसी तरह वह खुद को संयत कर पाई.

कई महीने बीत गए. वह अपने कामों में इतनी व्यस्त रही कि एक बार भी उसे कुछ याद नहीं आया. हलकी याद भी आई तो यही कि वह जंग जीत गई है.

‘जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग

चंदन विष व्याप्त नहीं, लपटे रहत भुजंग.’

एक दिन अचानक एक फोन आया. उस तरफ अनवर था, ‘सुनो, मेरा फोन मत काटना और न ही ब्लौक करना. मैं तुम्हारे बिना जी नहीं पा रहा है. बताओ न तुम कहां हो? मैं तुम से मिलना चाहता हूं. मैं मर रहा हूं, मुझे बचा लो.’

‘यह किस तरह का पागलपन है. मैं तुम से न तो बात करना चाहती हूं और न ही मिलना चाहती हूं,’ उमा ने साफ कहा.

‘अरे, जाने दो, भाव दिखा रही है. अकेली औरत. शादी क्यों नहीं की, मुझे नहीं पता क्या? नौ सौ चूहे खा कर बिल्ली चली हज को. मजे लेले कर अब मेरे सामने सतीसावित्री बनती हो. तुम्हें क्या चाहिए मैं सब देने को तैयार हूं,’ अनवर अपनी औकात पर उतर आया था.

ऐसा लगा जैसे किसी ने खौलता लावा उमा के कानों में उडे़ल दिया हो. उस ने फोन काट दिया और इस नंबर को भी ब्लौक कर दिया. यह परिणाम बस उस एक पल का था जब वह पहली बार में ही कड़ा कदम न उठा सकी थी.

इस बात को बीते 4 साल हो गए हैं. अनवर का फोन फिर कभी नहीं आया. उमा ने अपना नंबर बदल लिया था. पर आज भी यह सपना कहीं न कहीं घाव रिसता है. दर्द होता है. कहते हैं समय हर घाव भर देता है पर उमा देख रही है कि उस के जख्म रहरह कर टीस उठते हैं. Story In Hindi

Short Story In Hindi: मन का दाग – सरोज को क्यों भड़का रही थी पड़ोसन

Short Story In Hindi: ‘‘अरे तेरी बहू अब तक सो रही है और तू रसोई में नाश्ता बना रही है. क्या सरोज, तू ने तो अपने को घर की मालकिन से नौकरानी बना लिया,’’ सरोज की पड़ोसिन सुबहसुबह चीनी लेने आई और सरोज को काम करता देख सहानुभूति दिखा कर चली गई. उस के जाने के बाद सरोज फिर से अपने काम में लग गई पर मन में कही पड़ोसिन की बात खटकने लगी. वह सोचने लगी कि पिछले 30 साल से यही तो कर रही है. सुबह का नाश्ता, दोपहर को क्या बनना है, बाजार से क्या लाना है, बच्चों को क्या पसंद है, इसी में सारा दिन निकल जाता है. घर के बाकी कामों के लिए तो बाई आती ही है. बस, बच्चों को अपने हाथ का खाना खिलाने का मजा ही कुछ और है. इतने में सोच में डूबी सरोज के हाथ से प्लेट गिर गई तो पति अशोक ने रसोई में आ कर कहा, ‘‘सरोज, जरा ध्यान से, बच्चे सो रहे हैं.’’

‘‘हांहां, गलती से गिर गई,’’ सरोज ने प्लेट उठा कर ऊपर रख दी. आज से पहले भी छुट्टी वाले दिन सुबह नाश्ता बनाते हुए कभी कोई बरतन गिरता तो अशोक यही कहते कि बच्चे सो रहे हैं. बस, फर्क इतना था तब मेरा बेटा और बेटी सो रहे होते थे और आज बेटा और बहू. आज रविवार था, इसलिए बच्चे इतनी देर तक सो रहे हैं. वरना रोज तो 8 बजे तक औफिस के लिए निकल जाते हैं.

‘‘तुम इतनी सुबहसुबह रसोई में कर क्या रही हो?’’ इन्होंने रसोई में मेरे पास आ कर पूछा.

‘‘कुछ नहीं जी, आज रविवार है. अमन और शिखा की छुट्टी है. सोचा कुछ अच्छा सा नाश्ता बना दूं. बस, उसी की तैयारी कर रही हूं.’’

‘‘ओ अच्छा, फिर तो ठीक है. सुनो, मेरे लिए चाय बना दो,’’ ये अखबार ले कर बैठ गए. इन को चाय दे कर मैं फिर रसोई में लग गई. 10.30 बजे अमन जगा तो चाय लेने रसोई में आया.

‘‘मां, 2 कप चाय बना दो, शिखा भी उठ गई है. बाथरूम गई है. और हां मां, जल्दी तैयार हो जाओ. हम सब फिल्म देखने जा रहे हैं.’’

मैं ने पूछना चाहा कि चाय लेने शिखा क्यों नहीं आई और फिल्म का प्रोग्राम कब बना पर तब तक अमन अपने कमरे में जा चुका था.

‘‘अरे वाह, फिल्म, मजा आ गया. आज की छुट्टी का तो अच्छा इस्तेमाल हो जाएगा. सरोज, मैं तो चला नहाने. तुम मेरी वह नीली वाली कमीज जरा इस्तिरी कर देना,’’ अशोक फिल्म की बात सुन कर खुश हो गए और गुनगुनाते हुए नहाने चले गए. मैं अभी रसोई में ही थी कि शिखा आ गई.

‘‘अरे मम्मी, आप अभी तक यहां ही हैं, 12 बजे का शो है. चलिए, जल्दी से तैयार हो जाइए. चाय मैं बनाती हूं. मम्मी आप वह गुलाबी साड़ी पहनना. वह रंग आप पर बहुत अच्छा लगता है.’’

अमन भी अब तक रसोई में आ गया था. ‘‘शिखा, यह फिल्म का प्रोग्राम कब बना? देखा, मैं ने नाश्ते की सारी तैयारी कर रखी थी…’’ मेरी बात पूरी होने से पहले ही शिखा की जगह अमन बोल पड़ा, ‘‘मम्मी, रात को शिखा ने प्रोग्राम बनाया और फिर इंटरनैट पर ही बुकिंग भी कर ली. अब प्लीज, जल्दी चलो न, मम्मी, नाश्ता हम डिनर में खा लेंगे,’’ अमन ने मेरा हाथ प्यार से पकड़ा और कमरे तक ले आया. बचपन से ही मैं अमन को कभी किसी बात के लिए मना नहीं कर पाती थी. यहां तक कि जब उस ने शिखा को पसंद किया था तब भी मेरी मरजी न होते हुए भी मैं ने हां की ताकि अमन खुश रह सके. अमन जितना चुलबुला और बातूनी था, शिखा उतनी ही शांत थी. मुझे शादी के कुछ ही दिनों में महसूस होने लगा था कि शिखा अमन के अधिकतर फैसले खुद लेती थी, चाहे वह किसी के घर डिनर का हो या कहीं घूमने जाने का. खैर, उस दिन हम चारों ने बहुत मजा किया. फिल्म ठीक थी. पर रात को किसी ने खाना नहीं खाया और मुझे सारा नाश्ता अगले दिन काम वाली को देना पड़ा. मेरी मेहनत खराब हुई और मुझे बहुत दुख हुआ. कुछ दिन के बाद पड़ोस में मेरी सहेली माधुरी के पोते का मुंडन था. मैं ने सोचा मैं ही चली जाती हूं. मैं ने अशोक को फोन कर के बता दिया कि घर पर ताला लगा हुआ है और मैं पड़ोस में जा रही हूं. बच्चे तो रात को लेट ही आते हैं, इसलिए उन्हें बताने की जरूरत नहीं समझी. कुछ ही देर बाद मेरे फोन पर शिखा का फोन आया, ‘‘मम्मी, आप कहां हो, घर पर ताला लगा है. मैं आज जल्दी आ गई.’’

‘‘शिखा, तुम रुको, मैं आती हूं,’’ मैं घर पहुंची तो देखा कि शिखा बुखार से तप रही थी. मैं ने जल्दी से ताला खोला और उसे उस के कमरे में लिटा दिया. बुखार तेज था तो मैं ने बर्फ की पट्टियां उस के माथे पर रख दीं. थोड़ी देर बाद शिखा दवा खा कर सो गई. इतने में दरवाजे की घंटी बजी, माधुरी, जिस का फंक्शन मैं अधूरा छोड़ कर आ गई थी, मुझे मेरा पर्स लौटाने आई थी जो मैं जल्दी में उस के घर भूल आई थी.

‘‘क्या हुआ, सरोजजी, आप जल्दीजल्दी में निकल आईं?’’ माधुरी, जिन्हें मैं दीदी कहती हूं, ने मुझ से पूछा तो मैं ने कहा, ‘‘बस दीदी, बहू घर आ गई थी, थोड़ी तबीयत ठीक नहीं थी उस की.’’

‘‘क्या बात है सरोज, तू भी कमाल करती है, बहू घर जल्दी आ गई तो तू सबकुछ बीच में छोड़ कर चली आई. अरे उस से कहती कि 2 घर छोड़ कर माधुरी के घर में हूं. आ कर चाबी ले जा. सरोज, तेरी बहू को आए अभी सिर्फ 2 महीने ही हुए हैं और तू ने तो उसे सिर पर बिठा लिया है. मुझे देख, 3-3 बहुएं हैं, उन की मजाल है कि कोई मुझे कुछ कह दे. सिर से पल्ला तक खिसकने नहीं देती मैं उन का. पर तू भी क्या करेगी? बेटे की पसंद है, सिर पर तो

बिठानी ही पड़ेगी,’’ माधुरी दीदी न जाने मुझे कौन सा ज्ञान बांट कर चली गईं. पर उन के जाते ही मैं सोच में पड़ गई कि उन्होंने जो कहा वह ठीक था. हर लड़की को शादी के बाद घर की जिम्मेदारियां भी समझनी होती हैं. यह क्या बात हुई, मुझे क्या समझ रखा है शिखा ने. पर अगर शिखा की जगह मेरी बेटी नीति (मेरी बेटी) होती तब भी तो मैं सब छोड़ कर आ जाती. लेकिन बहुओं को घर का काम तो करना ही होता है. शिखा के ठीक होते ही मैं उस से कहूंगी कि सुबह मेरे साथ रसोई में मदद करे. पर वह तो सुबह जल्दी जाती है और रात को देर से आती है और मैं सारा दिन घर पर होती हूं. बहू की मदद के बिना भी काम आराम से हो जाता है. फिर क्यों उस को परेशान करूं. इसी पसोपेश में विचारों को एक ओर झटक कर मैं रात के खाने की तैयारी में जुट गई. बहू की तबीयत ठीक नहीं है उस के लिए कुछ हलका बना देती हूं और अमन के लिए बैगन का भरता. उसे बहुत पसंद है. फिर दिमाग के किसी कोने से आवाज आई 2-2 चीजें क्यों बनानी, बहू इतनी भी बीमार नहीं कि भरता न खा सके. पर दिल ने दिमाग को डांट दिया-नहीं, तबीयत ठीक नहीं है तो हलका ही खाना बनाती हूं. रात को अमन शिखा के लिए खाना कमरे में ही ले गया. मुझे लगा तबीयत कहीं ज्यादा खराब न हो जाए, इसलिए मैं पीछेपीछे कमरे में चली गई. शिखा सोई हुई थी और खाना एक ओर रखा था. अमन लैपटौप पर कुछ काम कर रहा था.

‘‘क्या हुआ, अमन? शिखा ने खाना नहीं खाया?’’

‘‘नहीं, मम्मी, उस को नींद आ रही थी. मैं कुछ देर में खाना रखने आ रहा था. आप आ गई हो तो प्लीज, इसे ले जाओ.’’ अमन फिर लैपटौप पर काम करने लगा. मुझे बहुत गुस्सा आया, एक तो मैं ने उस की बीमारी देखते हुए अलग से खाना बनाया और शिखा बिना खाए सो गई. श्रीमती शर्मा ठीक ही कहती हैं, मैं कुछ ज्यादा ही कर रही हूं. मुझे शिखा की लगाम खींचनी ही पड़ेगी, वरना मेरी कद्र इस घर में खत्म हो जाएगी. अगले दिन मैं रसोई में थी तभी शिखा तैयार हो कर औफिस के लिए निकलने लगी, ‘‘मम्मी, मैं औफिस जा रही हूं.’’

‘‘शिखा, तुम्हारी तो तबीयत ठीक नहीं है, औफिस क्यों जा रही हो?’’ मैं ने पूछा.

‘‘मम्मी, बहुत जरूरी मीटिंग है, टाल नहीं सकती. कल भी जल्दी आ गई थी तो काम अधूरा होगा…’’ अपनी बात खत्म किए बिना ही शिखा औफिस चली गई. मुझे बहुत गुस्सा आया कि कैसी लड़की है, अपने आगे किसी को कुछसमझती ही नहीं. घर में हर किसी को अपने तरीके से चलाना चाहती है. घर की कोई जिम्मेदारी तो समझती नहीं, ऊपर से घर को होटल समझ रखा है…पता नहीं मैं क्याक्या सोचती रही. फिर अपने काम में लग गई. काम खत्म कर के मैं माधुरी दीदी के घर चली गई, जिन के पोते के मुंडन का कार्यक्रम मैं अधूरा छोड़ आई थी. सोचा एक बार जा कर शगुन भी दे आऊं. उन की बहू ने बताया कि माताजी की तबीयत ठीक नहीं है, वे अपने कमरे में हैं. मैं उन के कमरे में ही चली गई. माधुरी दीदी पलंग पर लेटी थीं और उन की दूसरी बहू उन के पैर दबा रही थी. मुझे देख कर उन्होंने अपनी बहू से कहा, ‘‘चल छुटकी, आंटी के लिए चाय बना ला.’’ उन की एक आवाज पर ही उन की बहू उठ कर रसोई में चली गई.

‘‘क्या हुआ, दीदी, आप की तबीयत खराब है क्या?’’ मैं ने पूछा.

‘‘अरे नहीं…कल की थकान है, बस. यों समझ लो कि आज आराम का मन है मेरा,’’ वह मुसकराते हुए बोलीं, ‘‘तेरी बहू की तबीयत कैसी है?’’

‘‘ठीक है, दीदी. औफिस गई है,’’ मैं ने कहा.

‘‘क्या, औफिस गई? देखो तो जरा, कल तक तो इतनी बीमार थी कि 2 घर छोड़ कर चाबी तक लेने नहीं आ पाई. अपनी सास को भगाया और आज औफिस चली गई. सब तेरी ही गलती है, सरोज. तू ने उसे बहुत ढील दे रखी है.

‘‘अरे देख, मेरी बहुओं को, मजाल है कि आवाज निकल जाए इन की मेरे सामने.’’

इतने में छोटी बहू चायपकोड़े रख गई. माधुरी दीदी ने बात आगे शुरू की, ‘‘देख सरोज, मैं ने दुनिया देखी है. इन बहुओं को सिर पर बैठाएगी तो पछताएगी एक दिन. तेरे बेटे को तुझ से दूर कर देगी.’’ तब से वे बोली जा रही थीं और मैं मूक श्रोता बन उन की बातें सुने जा रही थी. दर्द से सिर फटने लगा था. वे बोले जा रही थीं, ‘‘सरोज, मेरी बहन भी तेरी तरह ही बड़ी सीधी है. आज देख उस को, बहुओं ने पूरा घर अपने हाथ में ले लिया.’’ उन्होंने चाय पीनी शुरू कर दी. मुझे कुछ अजीब सा लगने लगा. सिर बहुत भारी हो गया. मैं ने जैसे ही कप उठाया वह छलक कर मेरे कपड़ों पर गिर गया.

‘‘अरे सरोज, आराम से. जा, जल्दी इस को पानी से धो ले वरना निशान पड़ जाएगा.’’

दीदी के कहने पर मैं खुद को संभाल कर बाथरूम की ओर चल पड़ी. बाथरूम की दीवार रसोई के एकदम साथ थी. बाथरूम में खड़े हुए मुझे रसोई में काम कर रही दीदी की बहुओं की आवाजें साफ सुनाई दे रही थीं. ‘‘देखा बुढि़या को, कल सारा वक्त पसर के बैठी थी और फिर भी थक गई,’’ यह आवाज शायद छोटी बहू की थी.

‘‘और नहीं तो क्या, पता नहीं कब यह बुढि़या हमारा पीछा छोड़ेगी. पूरे घर पर कब्जा कर के बैठी है. जल्दी ये मरे और हम घर का बंटवारा कर लें.’’

‘‘हां दीदी, आप के देवर भी यही कहते हैं. कम से कम अपनी मरजी से जी तो पाएंगे. इस के रहते तो हम खुल कर सांस तक नहीं ले सकते.’’

‘‘चल, धीरे बोल. और काम खत्म कर. अगर इस बुढि़या ने सुन लिया तो बस,’’ दोनों दबी आवाज में हंस दीं.

उन दोनों की बात सुन कर मुझे मानो एक धक्का सा लगा, यह कैसी सोच थी उन दोनों की अपनी सास के लिए. पर ठीक ही था, दीदी ने कभी इन दोनों को अपने परिवार का हिस्सा नहीं माना. हाय, मैं भी तो यही करने की सोच रही थी. घर पर अपना ऐसा भी क्या कब्जा कर के रखना कि सामने वाला तुम्हारे मरने का इंतजार करता रहे. अगर मैं दीदी की बातों में आ कर शिखा को बंधन में रखने की कोशिश करती तो घर की शांति ही खत्म हो जाती और कहीं शिखा भी तो मेरे लिए ऐसा ही नहीं सोचने लगती. न न, बिलकुल नहीं, शिखा तो बहुत समझदार है.’’

‘‘क्या हुआ, सरोज, दाग गया या नहीं?’’ बाहर से दीदी की आवाज ने मुझे विचारों से बाहर निकाल दिया.

मैं ने तुरंत बाहर आ कर कहा, ‘‘हां दीदी, सब दाग निकल गए,’’ मैं ने मन में सोचा, ‘साड़ी के भी और मन के भी.’

मैं ने तुरंत घर आ कर शिखा को फोन किया. उस का हालचाल पूछा और उस से जल्दी घर आ कर आराम करने को कहा. फिर मैं रसोई में चली गई रात का खाना बनाने.

आज शिखा के लिए अलग से खाना बनाते हुए मैं ने एक बार भी नहीं सोचा. ऐसा लगा मानो कि अपनी बेटी की बीमारी से परेशान एक मां उस के औफिस से घर आने का इंतजार कर रही हो ताकि वह घर आ कर आराम कर सके. Short Story In Hindi

Hindi Story: पतझड़ के बाद – कैसे बदली सांवली काजल की जिंदगी?

Hindi Story, लेखिका- अंजु गुप्ता ‘प्रिया’

‘‘काजल बेटी, ड्राइवर गाड़ी ले कर आ गया है, बारिश थम जाने के  बाद चली जाती,’’ मां ने खिड़की के पास खड़ी काजल से कहा.

‘‘नहीं, मां, दीपक मेरा इंतजार करते होंगे. मुझे अब जाना चाहिए,’’ कह कर काजल ने मांबाबूजी से विदा ली और गाड़ी में बैठ गई.

बरसात अब थोड़ी थम गई थी और मौसम सुहावना हो चला था. कार में बैठेबैठे काजल के स्मृतिपटल पर अतीत की लकीरें फिर से खिंचने लगीं.

आज यह ड्रामा उस के साथ छठी बार हुआ था. वरपक्ष के लोग, जिन के लिए मांबाबूजी सुबह से ही तैयारी में लगे रहते, काजल से फिर वही जिद की जाती कि वह जल्दी से अच्छी तरह तैयार हो जाए. मेकअप से चेहरा थोड़ा ठीक कर ले पर काजल का कुछ करने का मन न करता. मां के तानों से दुखी हो वह बुझे मन से फिर भी एक आशा के साथ मेहमानों के लिए नाश्ते की ट्रे ले कर प्रस्तुत होती.

पिताजी कहते, ‘बड़ी सुशील व सुघड़ है हमारी काजल. बी.ए. प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया है.

मां भी काजल के बनाए व्यंजनों की तारीफ करना नहीं भूलतीं पर सब व्यर्थ. वर पक्ष के लोग काजल के गहरे काले रंग को देखते ही मुंह बिचका देते और बाद में जवाब देने का वादा कर मूक इनकार का प्रदर्शन कर ही जाते.

आज भी ऐसा ही हुआ और हमेशा की भांति फिर शुरू हुआ मां का तानाकशी का पुराण. बूआ भी काजल की बदसूरती का वर्णन अप्रत्यक्ष ढंग से करते हुए आग में घी डालने का कार्य करतीं. वैसे हमदर्दी का दिखावा करते हुए कहतीं, ‘बेचारी के भाग्य की विडंबना है. कितनी सीधी और सुघड़, हर कार्य में निपुण है, पर कुदरत ने इसे इतना कालाकलूटा तो बनाया ही अच्छे नाकनक्श भी नहीं दिए. ऐसे में भला कौन सा सुंदर नौजवान शादी के लिए इस के साथ हामी भरेगा. हां, कोई उस से उन्नीस हो तो कुछ बात बन जाए.’

काजल कुछ भी न कह पाती और अपनी किस्मत पर सिसकसिसक कर रो पड़ती. अब तो उस की आंखों के आंसू भी सूखने लगे थे. उस के साथ एक विडंबना यह भी थी कि पैदा होते ही उस की मां चिरनिद्रा में सो गईं. पिताजी ने घर वालों व बहनों के कहने पर दूसरी शादी कर ली.

नई मां जितनी खूबसूरत थी उतनी ही खूबसूरती से उस ने काजल के प्रति प्यार जताया था पर जब से उस ने सोनाली व सुंदरी जैसी खूबसूरत बेटियों को जन्म दिया था काजल के प्रति उस का प्यार लुप्त हो गया था.

काजल इस घर में मात्र काम करने वाली एक मशीन बन कर रह गई थी. छोटी बहनों को घर के काम करने से एलर्जी थी. घर की हर छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी जिम्मेदारी लदती तो सिर्फ काजल पर. वैसे मां भी जानती थी कि काजल से उसे कितना सहारा है. कभीकभी तो वह कह देती कि काजल न हो तो घर का एक पत्ता भी न हिले पर ये सब औपचारिक बातें थीं.

मां को नाज था तो सिर्फ अपनी बेटियों पर कि उन्हें तो कोई भी राजकुमार स्वयं मुंह से मांग कर ले जाएगा और ऐसा हुआ भी.

बड़ी बेटी सोनाली अपनी सखी की शादी में गई और वहां कुंवर को पसंद आ गई. पिताजी ने तो कहा कि पहले काजल के हाथ पीले हो जाएं. मां के यह कहने पर कि बड़ी के चक्कर में वे अपनी दोनों बेटियों को कुंवारी नहीं रख सकती, वे थोड़ा आहत भी हो गए थे.

बड़ी बेटी सोनाली की शादी के बाद तो मां को बस छोटी बेटी सुंदरी की चिंता थी पर हुआ यह कि जब काजल को 7वीं बार दिखाया गया उस दौरान सुंदरी के रूप की आभा ने मनोहर का मन हर लिया और वह काजल के बजाय सुंदरी को अपनी घर की शोभा बना कर ले गया.

अब रह गई तो सिर्फ काजल. बाबूजी जब कहते कि काजल के हाथ पीले हो जाते तो इस की मां की आत्मा को शांति मिलती तो मां जवाब देने से न चूकती, ‘काजल का विवाह नहीं हुआ तो इस में मेरा क्या दोष. इस का भाग्य ही खोटा है. मैं ने तो कभी कोई कसर नहीं छोड़ी. इस के चक्कर में मैं अपनी बेटियों को उम्र भर कुंवारी तो नहीं रख सकती थी. 32 की तो यह हो गई. मुझे तो 40 तक इस के आसार नजर नहीं आते.’

फिर भी पिताजी काजल के लिए सतत प्रयत्नशील रहते. काजल भी पिता की सहनशक्ति के आगे चुप थी पर जब पिताजी ने फिर से यह ड्रामा एक बार दोहराने को कहा तो काजल में न जाने कहां से पिताजी का विरोध करने की शक्ति आ गई और जोर की आवाज में कह ही दिया, ‘नहीं, अब और नहीं. पिताजी, मुझ पर दया करो. अपमान का घूंट मैं बारबार न पी सकूंगी, पिताजी. मुझ अभागिन को बोझ समझते हो तो मैं नौकरी कर अपना निर्वाह खुद करूंगी.’

काजल ने इस बार किसी की परवा न करते हुए एक बुटीक में नौकरी कर ली. अब उस की दिनचर्या और भी व्यस्त हो गई. घर के अधिकांश कार्य वह सवेरे तड़के निबटा कर नौकरी पर जाती और शाम तक व्यस्त रहती. रात को सारा काम निबटा कर ही सोती.

अब उसे उदासी के लिए समय ही न मिलता. काम में व्यस्त रह कर वह संतुष्ट रहती. उस की कोई सखीसहेली भी नहीं थी जिस के साथ अपना सुखदुख बांटती. परिवार के सदस्यों के बीच उस ने अपने को हमेशा तनहा ही पाया था पर अब उसे विदुषी जैसी एक अच्छी सहेली मिल गई थी. विदुषी ने ही काजल को अपने यहां नौकरी पर रखा था. वह काजल की कार्य- कुशलता व उस के सौम्य स्वभाव से बहुत प्रभावित थी. उस ने काजल को प्रोत्साहित किया कि वह अपने में थोड़ा परिवर्तन लाए और जमाने के साथ चले.

उस ने काजल को चुस्त, स्मार्ट और सुंदर दिखने के सभी तौरतरीके बताए. काजल पर विदुषी की बातों का गहरा प्रभाव पड़ा. उस के व्यक्तित्व में गजब का बदलाव आया था.

एक दिन विदुषी ने काजल को अपने घर डिनर पर आमंत्रित किया. शाम को जब वह उस के घर पहुंची तो  बड़ी उम्र के एक बदसूरत से युवक ने दरवाजा खोला. तभी विदुषी की आवाज कानों में पड़ी, ‘अरे, महेश, काजल को बाहर ही खड़ा रखोगे या अंदर भी लाओगे… काजल, यह मेरे पति महेश और महेश, यह काजल,’ दोनों का परिचय कराते हुए विदुषी ने चाय की ट्रे मेज पर रख दी.

काजल थोड़ा अचंभित थी, इस विपरीत जोड़े को देख कर, ‘सच विदुषी कितनी खूबसूरत, कितनी स्मार्ट है और ऊपर से अपना खुद का व्यापार करती है. कितने खूबसूरत ड्रेसेज का प्रोडक्शन करती है, औरों को भी खूबसूरत बनाती है, और कहां उस का यह पति. काला, मुंह पर चेचक के दाग…’

काजल अभी सोच ही रही थी कि फोन की घंटी बजी. महेश ने फोन रिसीव कर विदुषी और काजल से जाने की इजाजत मांगी. अर्जेंट केस होने की वजह से वह फौरन गाड़ी ले कर रवाना हो गया.

उस के जाने के बाद खाना खाते हुए काजल ने विदुषी से कहा, ‘‘दीदी, क्या आप का प्रेम विवाह…’’

विदुषी ने बात काटते हुए कहा, ‘हां, मेरा प्रेम विवाह हुआ है. मेरे पति महेश भौतिक सुंदरता के नहीं, मन की सुंदरता के मालिक हैं और मुझे ऊंचा उठाने में मेरे पति का ही श्रेय है.  उन्होंने हर पल मेरा साथ दिया.’

विदुषी ने बताया कि एक एक्सीडेंट के दौरान उन का पूरा परिवार खत्म हो गया था और उन के बचने की भी कोई उम्मीद नहीं थी. ऐसे में उन्हें डाक्टर महेश ने ही संभाला और टूटने से बचाया. जहां मन मिल जाते हैं वहां सुंदरताकुरूपता का कोई अर्थ नहीं होता.

काजल यह सुन कर द्रवित हो उठी थी. खाना खत्म कर काजल ने जाने की इजाजत मांगी. विदुषी से विदा हो कर वह कुछ दूर ही चली थी कि उस ने देखा एक स्कूटर सवार तेजी से एक रिकशे को टक्कर मार कर आगे निकल गया. रिकशे में बैठे वृद्ध दंपती अपने पर नियंत्रण न रख सके और वृद्ध पुरुष रिकशे से गिर पड़ा. उस की पत्नी घबरा कर सहायता के लिए चिल्लाने लगी.

सड़क पर ज्यादा भीड़ नहीं थी. काजल भागीभागी उन के  पास पहुंची. उस ने वृद्धा को ढाढस बंधाते हुए उन की दवाइयां जो सड़क पर गिर गई थीं, समेटीं और वृद्ध को सहारा दे कर उठाया. उस की कुहनियां छिल गई थीं और खून बह रहा था. काजल ने पास में ही एक डाक्टर के क्लिनिक पर ले जा कर उस वृद्ध की ड्रेसिंग कराई.

उस वृद्धा ने काजल को आशीर्वाद देते हुए बताया कि वे कुछ ही दूरी पर रहते हैं. तबीयत खराब होने के कारण डाक्टर को दिखा कर घर वापस जा रहे थे. काजल ने उन्हें उन के घर के पास तक छोड़ कर विदा ली.

वृद्ध पुरुष ने, जिन का नाम उमाकांत था, कहा, ‘बेटी, तुम कल आने का वादा कर के जाओ.’

उन्होंने इतने प्यार से, विनम्रता से निवेदन किया था कि काजल इनकार न कर सकी.

घर में घुसते ही मां ने उसे आड़े हाथों लिया. पिताजी ने भी देरी का कारण न पूछते हुए मौन निगाहों से काजल को देखा और बिना कुछ कहे अपने कमरे में चले गए.

सुबह जब काजल ने पिताजी को रात की घटना बताई तो पिताजी बहुत खुश हुए और आफिस से लौटते हुए उमाकांत बाबू का हालचाल पूछ कर आने को कहा. काजल ने विदुषी से दोपहर में ही छुट्टी ले ली और उमाकांत बाबू के घर की ओर चल पड़ी.

काजल को उमाकांतजी और उन की पत्नी से इतना लगाव हो गया कि वह रोज उन से मिलने जाती. उन की सेवा से  उसे एक सुखद अनुभूति होती.

उस दिन वह आफिस जाने के लिए आधा घंटा पहले घर से निकली तो उस के कदम उमाकांतजी के घर की तरफ बढ़ गए. दरवाजा मांजी की बजाय एक लंबे और आकर्षक नौजवान ने खोला. भीतर से उमाकांत बाबू की आवाज आई, ‘अरे, काजल बेटी, चली आओ. मैं बरामदे में हूं.’

उन्होंने काजल से उस नौजवान का परिचय कराते हुए कहा, ‘यह हमारा बेटा दीपक है. आईएएस की ट्रेनिंग पूरी कर के मसूरी से कल ही लौटा है.’

काजल ने धीरे से दीपक से अभिवादन किया.

दीपक ने कृतज्ञता प्रकट करते हुए कहा, ‘मैं, आप का बहुत आभारी हूं. काजलजी, मेरी अनुपस्थिति में आप ने मेरे मांबाबूजी का खयाल रखा.’

तभी मांजी चाय ले कर आ गइर्ं और बोलीं, ‘दीपक बेटा, यही है मेरी बहू, क्या तुझे पसंद है? और हां, बेटी, तू भी इनकार नहीं करना. मेरा बेटा बड़ा अफसर है, तुझे बहुत खुश रखेगा.’

काजल को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि यह क्या हो रहा है. उस की आंखों से टपटप आंसू गिरने लगे. वह रोते हुए बोली, ‘मांजी. आप यह क्या कह रही हैं? आप मेरे बारे में सब कुछ जानती हैं. कहां मैं और कहां दीपक बाबू? फिर मैं आप की पसंद हूं पर आप के बेटे की तो नहीं…’

दीपक, जो चुपचाप खड़े थे, धीमे से मुसकरा कर बोले, ‘देखिए, काजलजी, शादीविवाह की बात तो मांबाप ही तय करते हैं और मैं ने अपनी पसंद अपनी मां से कह दी. क्या आप को कोई आपत्ति है? मुझे आप जैसी ही लड़की की तलाश थी. यदि मैं आप को पसंद नहीं तो…’

‘नहीं, दीपक बाबू, दरअसल, बात यह नहीं…’

‘यह नहीं, तो कहो हां, बोलो हां.’

और फिर काजल भी सभी के साथ हंस पड़ी.

तब उमाकांत बाबू ने काजल को आदेशात्मक स्वर में कहा, ‘बेटी, आज आफिस नहीं, घर जाओ. हम सब शाम को तुम्हारे रिश्ते की बात करने आ रहे हैं.’

शाम को उमाकांत बाबू, दीपक और उस की मां के साथ आए. वे काजल की मंगनी दीपक के साथ तय कर शादी की तारीख भी पक्की कर गए. सभी तरफ खुशी का माहौल था. सभी रिश्तेदार, पासपड़ोसी काजल के भाग्य से चकित थे. मां भी इठला कर कह रही थीं कि मेरी काजल तो लाखों में एक है तभी तो दीपक जैसा उच्च पदस्थ दामाद मिला.

काजल भी सोच रही थी कि दुख के पतझड़ के बाद कभी न कभी तो सुख का वसंत आता है और यह वसंत उस के जीवन में इतने समय बाद आया….

तभी, गाड़ी का ब्रेक लगते ही काजल अतीत से निकल कर वर्तमान में लौट आई. उस ने देखा दीपक उस के इंतजार में बाहर ही खड़े हैं. Hindi Story

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