Hindi Story : सुधरा संबंध – निलेश और उस की पत्नी के बीच तनाव की क्या थी वजह?

Hindi Story : शादी की वर्षगांठ की पूर्वसंध्या पर हम दोनों पतिपत्नी साथ बैठे चाय की चुसकियां ले रहे थे. संसार की दृष्टि में हम आदर्श युगल थे. प्रेम भी बहुत है अब हम दोनों में. लेकिन कुछ समय पहले या कहिए कुछ साल पहले ऐसा नहीं था. उस समय तो ऐसा प्रतीत होता था कि संबंधों पर समय की धूल जम रही है.

मुकदमा 2 साल तक चला था तब. आखिर पतिपत्नी के तलाक का मुकदमा था. तलाक के केस की वजह बहुत ही मामूली बातें थीं. इन मामूली सी बातों को बढ़ाचढ़ा कर बड़ी घटना में ननद ने बदल दिया. निलेश ने आव देखा न ताव जड़ दिए 2 थप्पड़ मेरे गाल पर. मुझ से यह अपमान नहीं सहा गया. यह मेरे आत्मसम्मान के खिलाफ था. वैसे भी शादी के बाद से ही हमारा रिश्ता सिर्फ पतिपत्नी का ही था. उस घर की मैं सिर्फ जरूरत थी, सास को मेरे आने से अपनी सत्ता हिलती लगी थी, इसलिए रोज एक नया बखेड़ा. निलेश को मुझ से ज्यादा अपने परिवार पर विश्वास था और उन का परिवार उन की मां तथा एक बहन थीं. मौका मिलते ही मैं अपने बेटे को ले कर अपने घर चली गई. मुझे इस तरह आया देख कर मातापिता सकते में आ गए. बहुत समझाने की कोशिश की मुझे पर मैं ने तो अलग होने का मन बना लिया था. अत: मेरी जिद के आगे घुटने टेक दिए.

दोनों ओर से अदालत में केस दर्ज कर दिए गए. चाहते तो मामले को रफादफा भी किया जा सकता था, पर निलेश ने इसे अपनी तौहीन समझा. रिश्तेदारों ने मामले को और पेचीदा बना दिया. न सिर्फ पेचीदा, बल्कि संगीन भी. सब रिश्तेदारों ने इसे खानदान की नाक कटना कहा. यह भी कहा कि ऐसी औरत न वफादार होती है न पतिव्रता. इसे घर में रखना, अपने शरीर में मियादी बुखार पालते रहने जैसा है.

बुरी बातें चक्रवृत्ति ब्याज की तरह बढ़ती हैं. अत: दोनों तरफ से खूब आरोप उछाले गए. ऐसा लगता था जैसे दोनों पक्षों के लोग आरोपों की कबड्डी खेल रहे हैं. निलेश ने मेरे लिए कई असुविधाजनक बातें कहीं. निलेश ने मुझ पर चरित्रहीनता का तो हम ने दहेज उत्पीड़न का मामला दर्ज कराया. 6 साल तक शादीशुदा जीवन बिताने और 1 बच्चे के मातापिता होने के बाद आज दोनों तलाक के लिए लड़ रहे थे. हम दोनों पतिपत्नी के हाथों में तलाक के लिए अर्जी के कागजों की प्रति थी. दोनों चुप थे, दोनों शांत, दोनों निर्विकार.

मुकदमा 2 साल तक चला था. 2 साल हम पतिपत्नी अलग रहे थे और इन 2 सालों में बहुत कुछ झेला था. मैं ने नौकरी ढूंढ़ ली थी. बेटे का दाखिला एक अच्छे स्कूल में करा दिया था. सब से बड़ी बात हम दोनों में से ही किसी ने भी अपने बच्चे की मनोस्थिति नहीं पढ़ी.

बेटा हमारे अलग होने के फैसले से खुश नहीं था, पर सब कुछ उस की आंखों के सामने हुआ था तो वह चुप था. मुकदमे की सुनवाई पर दोनों को आना होता. दोनों एकदूसरे को देखते जैसे चकमक पत्थर आपस में रगड़ खा गए हों. दोनों गुस्से में होते. दोनों में बदले की भावना का आवेश होता. दोनों के साथ रिश्तेदार होते जिन

की हमदर्दियों में जराजरा विस्फोटक पदार्थ भी छिपा होता. जब हम पतिपत्नी कोर्ट में दाखिल होते तो एकदूसरे को देख कर मुंह फेर लेते. वकील और रिश्तेदार दोनों के साथ होते. दोनों पक्ष के वकीलों द्वारा अच्छाखासा सबक सिखाया जाता कि हमें क्या कहना है. हम दोनों वही कहते. कई बार दोनों के वक्तव्य बदलने लगते तो फिर संभल जाते.

अंत में वही हुआ जो हम सब चाहते थे यानी तलाक की मंजूरी. पहले उन के साथ रिश्तेदारों की फौज होती थी, धीरेधीरे यह संख्या घटने लगी. निलेश की तरफ के रिश्तेदार खुश थे, दोनों के वकील खुश थे, पर मेरे मातापिता दुखी थे. अपनीअपनी फाइलों के साथ मैं चुप थी. निलेश भी खामोश.

यह महज इत्तफाक ही था. उस दिन की अदालत की फाइनल कार्रवाई थोड़ी देर से थी. अदालत के बाहर तेज धूप से बचने के लिए हम दोनों एक ही टी स्टौल में बैठे थे. यह भी महज इत्तफाक ही था कि हम पतिपत्नी एक ही मेज के आमनेसामने थे.

मैं ने कटाक्ष किया, ‘‘मुबारक हो… अब तुम जो चाहते हो वही होने को है.’’

‘‘तुम्हें भी बधाई… तुम भी तो यही चाह रही थीं. मुझ से अलग हो कर अब जीत जाओगी,’ निलेश बोला. मुझ से रहा नहीं गया. बोली, ‘‘तलाक का फैसला क्या जीत का प्रतीक

होता है?’’

निलेश बोले, ‘‘तुम बताओ?’’

मैं ने जवाब नहीं दिया, चुपचाप बैठी रही, फिर बोली, ‘‘तुम ने मुझे चरित्रहीन कहा था… अच्छा हुआ अब तुम्हारा चरित्रहीन स्त्री से पीछा छूटा.’’

‘‘वह मेरी गलती थी, मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए था.’’

‘‘मैं ने बहुत मानसिक तनाव झेला,’’ मेरी आवाज सपाट थी. न दुख, न गुस्सा, निलेश ने कहा, ‘‘जानता हूं पुरुष इसी हथियार से स्त्री पर वार करता है, जो स्त्री के मन को लहूलुहान कर देता है… तुम बहुत उज्ज्वल हो. मुझे तुम्हारे बारे में ऐसी गंदी बात नहीं कहनी चाहिए थी. मुझे बेहद अफसोस है.’’

मैं चुप रही, निलेश को एक बार देखा. कुछ पल चुप रहने के बाद उन्होंने गहरी सांस ली और फिर कहा, ‘‘तुम ने भी तो मुझे दहेज का लोभी कहा था…’’

‘‘गलत कहा था,’’ मैं निलेश की ओर देखते हुए बोली.

कुछ देर और चुप रही. फिर बोली, ‘‘मैं कोई और आरोप लगाती, लेकिन मैं नहीं…’’

तभी चाय आ गई. मैं ने चाय उठाई. चाय जरा सी छलकी. गरम चाय मेरे हाथ पर गिरी तो सीसी की आवाज निकली.

निलेश के मुंह से उसी क्षण उफ की आवाज निकली. हम दोनों ने एकदूसरे को देखा.

‘‘तुम्हारा कमर दर्द कैसा है?’’ निलेश का पूछना थोड़ा अजीब लगा.

‘‘ऐसा ही है,’’ और बात खत्म करनी चाही.

‘‘तुम्हारे हार्ट की क्या कंडीशन है? फिर अटैक तो नहीं पड़ा, मैं ने पूछा.’’

‘‘हार्ट…डाक्टर ने स्ट्रेन…मैंटल स्ट्रैस कम करने को कहा है,’’ निलेश ने जानकारी दी.

एकदूसरे को देखा, देखते रहे एकटक जैसे एकदूसरे के चेहरे पर छपे तनाव को पढ़ रहे हों.

‘‘दवा तो लेते रहते हो न?’’ मैं ने निलेश के चेहरे से नजरें हटा पूछा.

‘‘हां, लेता रहता हूं. आज लाना याद नहीं रहा,’’ निलेश ने कहा.

‘‘तभी आज तुम्हारी सांसें उखड़ीउखड़ी सी हैं,’’ बरबस ही हमदर्द लहजे में कहा.

‘‘हां, कुछ इस वजह से और कुछ…’’ कहतेकहते वे रुक गए.

‘‘कुछ…कुछ तनाव के कारण,’’ मैं ने बात पूरी की.

वे कुछ सोचते रहे, फिर बोले,  ‘‘तुम्हें 15 लाख रुपए देने हैं और 20 हजार रुपए महीना भी.’’

‘‘हां, फिर?’’ मैं ने पूछा.

‘‘नोएडा में फ्लैट है… तुम्हें तो पता है. मैं उसे तुम्हारे नाम कर देता हूं. 15 लाख फिलहाल मेरे पास नहीं हैं,’’ निलेश ने अपने मन की बात कही.

नोएडा वाले फ्लैट की कीमत तो 30 लाख होगी?

मुझे सिर्फ 15 लाख चाहिए… मैं ने अपनी बात स्पष्ट की.

‘‘बेटा बड़ा होगा… सौ खर्च होते हैं,’’ वे बोले.

‘‘वह तो तुम 20 हजार महीना मुझे देते रहोगे,’’ मैं बोली.

‘‘हां जरूर दूंगा.’’

‘‘15 लाख अगर तुम्हारे पास नहीं हैं तो मुझे मत देना,’’ मेरी आवाज में पुराने संबंधों की गर्द थी.

वे मेरा चेहरा देखते रहे.

मैं निलेश को देख रही थी और सोच रही थी कि कितना सरल स्वभाव है इन का… जो कभी मेरे थे. कितने अच्छे हैं… मैं ही खोट निकालती रही…

शायद निलेश भी यही सोच रहे थे. दूसरों की बीमारी की कौन परवाह करता है? यह करती थी परवाह. कभी जाहिर भी नहीं होने देती थी. काश, मैं इस के जज्बे को समझ पाता.

हम दोनों चुप थे, बेहद चुप. दुनिया भर की आवाजों से मुक्त हो कर खामोश.

दोनों भीगी आंखों से एकदूसरे को देखते रहे.

‘‘मुझे एक बात कहनी है,’’ निलेश की आवाज में झिझक थी.

‘‘कहो,’’ मैं ने सजल आंखों से उन्हें देखा.

‘‘डरता हूं,’’ निलेश ने कहा.

‘‘डरो मत. हो सकता है तुम्हारी बात मेरे मन की बात हो.’’

‘‘तुम्हारी बहुत याद आती रही,’’ वे बोले.

‘‘तुम भी,’’ मैं एकदम बोली.

‘‘मैं तुम्हें अब भी प्रेम करता हूं.’’

‘‘मैं भी,’’ तुरंत मैं ने भी कहा.

दोनों की आंखें कुछ ज्यादा ही सजल हो गई थीं. दोनों की आवाज जज्बाती और चेहरे मासूम.

‘‘क्या हम दोनों जीवन को नया मोड़ नहीं दे सकते?’’ निलेश ने पूछा.

‘‘कौन सा मोड़?’’ पूछ ही बैठी.

‘‘हम फिर से साथसाथ रहने लगें… एकसाथ… पतिपत्नी बन कर… बहुत अच्छे दोस्त बन कर?’’

‘‘ये पेपर, यह अर्जी?’’ मैं ने पूछा.

‘‘फाड़ देते हैं. निलेश ने कहा और अपनेअपने हाथ से तलाक के कागजात फाड़ दिए. फिर हम दोनों उठ खड़े हुए. एकदूसरे के हाथ में हाथ डाल कर मुसकराए.’’

दोनों पक्षों के वकील हैरानपरेशान थे. दोनों पतिपत्नी हाथ में हाथ डाले घर की तरफ चल दिए. सब से पहले हम दोनों मेरे घर आए. मातापिता से आशीर्वाद लिया. आज उन के चेहरे पर संतुष्टि थी. 2 साल बाद मांपापा को इतना खुश देखा था. फिर हम बेटे के साथ इन के घर, हमारे घर, जो सिर्फ और सिर्फ पतिपत्नी का था. 2 दोस्तों का था, चल दिए.

वक्त बदल गया और हालात भी. कल भी हम थे और आज भी हम ही पर अब किसी कड़वाहट की जगह नहीं. यह सुधरा संबंध है. पतिपत्नी के रिश्ते से भी कुछ ज्यादा खास.

Short Story: और ‘तोड़’ टूट गई

Short Story : मैं 3 महीने से उस आफिस का चक्कर लगा रहा था. इस बार इत्तेफाक से मेरे पेपर्स वाली फाइल मेज पर ही रखी दिख गई थी. मेरी आंखों में अजीब किस्म की चमक सी आ गई और मुन्नालालजी की आंखों में भी.

‘‘मान्यवर, मेरे ये ‘बिल’ तो सब तैयार रखे हैं. अब तो सिर्फ ‘चेक’ ही बनना है. कृपया आज बनवा दीजिए. मैं पूरे दिन रुकने के लिए तैयार हूं,’’ मैं ने बड़ी ही विनम्रता से निवेदन किया.

उन्होंने मंदमंद मुसकान के साथ पहले फाइल की तरफ देखा, फिर सिर पर नाच रहे पंखे की ओर और फिर मेरी ओर देख कर बोले, ‘‘आप खाली बिल तो देख रहे हैं पर यह नहीं देख रहे हैं कि पेपर्स उड़े जा रहे हैं. इन पर कुछ ‘वेट’ तो रखिए, नहीं तो ये उड़ कर मालूम नहीं कहां चले जाएं.’’

मैं ‘फोबोफोबिया’ का क्रौनिक पेशेंट ठहरा, इसलिए पास में रखे ‘पेपरवेट’ को उठा कर उन पेपर्स पर रख दिया. इस पर मुन्नालालजी के साथ वहां बैठे अन्य सभी 5 लोग ठहाका लगा कर हंस पड़े. मैं ने अपनी बेचारगी का साथ नहीं छोड़ा.

मुन्नालालजी एकाएक गंभीर हो कर बोले, ‘‘एक बार 3 बजे आ कर देख लीजिएगा. चेक तो मैं अभी बना दूंगा पर इन पर दस्तखत तो तभी हो पाएंगे जब बी.एम. साहब डिवीजन से लौट कर आएंगे.’’

मैं ने उसी आफिस में ढाई घंटे इधरउधर बैठ कर बिता डाले. मुन्नालालजी की सीट के पास से भी कई बार गुजरा पर, न ही मैं ने टोका और न ही उन्होंने कोई प्रतिक्रिया जाहिर की. ठीक 3 बजे मेरा धैर्य जवाब दे गया, ‘‘बी.एम. साहब आ गए क्या?’’

‘‘नहीं और आज आ भी नहीं पाएंगे. आप ऐसा करें, कल सुबह साढ़े 11 बजे आ कर देख लें,’’ उन्होंने दोटूक शब्दों में जवाब दिया.

वैसे तो मैं काफी झल्ला चुका था पर मरता क्या न करता, फिर खून का घूंट पी कर रह गया.

मैं ने वहां से चलते समय बड़े अदब से कहा, ‘‘अच्छा, मुन्नालालजी, सौरी फौर द ट्रबल, एंड थैंक यू.’’ पर मेरा मूड काफी अपसेट हो चुका था इसलिए एक और चाय पीने की गरज से फिर कैंटीन में जा पहुंचा. संयोग ही था कि उस समय कैंटीन में बिलकुल सन्नाटा था. उस का मालिक पैसे गिन रहा था. जैसे ही मैं ने चाय के लिए कहा, वह नौकर को एक चाय के लिए कह कर फिर पैसे गिनने लगा.

मैं ने सुबह से 3 बार का पढ़ा हुआ अखबार फिर से उठा लिया. अभी इधरउधर पलट ही रहा था कि वह पैसों को गल्ले के हवाले करते हुए मेरे पास आ बैठा, ‘‘माफ कीजिएगा, मुझे आप से यह पूछना तो नहीं चाहिए, पर देख रहा हूं कि आप यहां काफी दिनों से चक्कर लगा रहे हैं, क्या मैं आप के किसी काम आ सकता हूं?’’ कहते हुए उस ने मेरी प्रतिक्रिया जाननी चाही.

‘‘भैया, यहां के एकाउंट सैक्शन से एक चेक बनना है. मुन्नालालजी 3 महीने से चक्कर लगा रहे हैं,’’ मैं ने कहा.

‘‘आप ने कुछ तोड़ नहीं की?’’ उस ने मेरी आंखों में झांका.

‘‘मैं बात समझा नहीं,’’ मैं ने कहा.

‘‘बसबस, मैं समझ गया कि क्या मामला है,’’ उस ने अनायास ही कह डाला.

‘‘क्या समझ गए? मुझे भी तो समझाइए न,’’ मैं ने सरलता से कहा.

‘‘माफ कीजिएगा, या तो आप जरूरत से ज्यादा सीधे हैं या फिर…’’ वह कुछ कहतेकहते रुक गया.

‘‘मैं आप का मतलब नहीं समझा,’’ मैं ने कहा.

‘‘अरे, ऐसे कामों में कुछ खर्चापानी लगता है जिस को कुछ लोग हक कहते हैं, कुछ लोग सुविधाशुल्क कहते हैं और कुछ लोग ‘डील’ करना कहते हैं. यहां दफ्तर की भाषा में उसे ‘तोड़’ कहा जाता है.’’

‘‘तो इन लोगों को यह बताना तो चाहिए था,’’ मैं ने उलझन भरे स्वर में कहा.

‘‘यह कहा नहीं जाता है, समझा जाता है,’’ उस ने रहस्यात्मक ढंग से बताया.

‘‘ओह, याद आया. आज मुन्नालालजी ने मुझ से पेपर्स पर ‘वेट’ रखने के लिए कहा था. शायद उन का मतलब उसी से रहा होगा,’’ मैं ने उन को बताया.

‘‘देखिए, किसी भी भौतिक वस्तु में जो महत्त्व ‘वेट’ यानी भार का है वही महत्त्व भार में गुरुत्वाकर्षण शक्ति का है. आप गुरुत्वाकर्षण का मतलब समझते हैं?’’ उस ने पूछा.

‘‘हां, बिलकुल, मैं ने बी.एससी. तक फिजिक्स पढ़ी है,’’ मैं ने कहा.

‘‘तो यह रिश्वत यानी वेट यानी डील यानी सुविधाशुल्क उसी गुरुत्वाकर्षण शक्ति के जैसा काम करता है. बिना इस के वेट नहीं और बिना वेट के पेपर्स उड़ेंगे ही. वैसे आप का कितने का बिल है?’’ वह गुरुत्वाकर्षण का नियम समझाते हुए पूछ बैठा.

‘‘60,400 रुपए का,’ मैं ने झट से बता दिया.

‘‘तो 6 हजार रुपए दे दीजिए, चेक हाथोंहाथ मिल जाएगा,’’ वह बोला.

‘‘पर यह दिए कैसे जाएं और किसे?’’

‘‘मुन्नालालजी को यहां चाय के बहाने लाएं. उन के हाथ में 6 हजार रुपए पकड़ाते हुए कहिए, ‘यह खर्चापानी है.’ फिर देखिए कि चेक 5 मिनट के अंदर मिल जाता है कि नहीं,’’ कहते हुए वह उठ खड़ा हुआ.

मैं ने उसी बिल्ंिडग में स्थित ए.टी.एम. से जा कर 7 हजार रुपए निकाले. उस में से 1 हजार अपने अंदर वाले पर्स में रखे और बाकी बाईं जेब में रख कर मुन्नालालजी के पास जा पहुंचा तथा जैसे मुझे चाय वाले ने बताया था मैं ने वैसा ही किया. मैं चेक भी पा गया था पर लौटते समय मैं ने उस कैंटीन वाले को शुक्रिया कहना चाहा.

उस ने मुझे देखते ही पूछा, ‘‘चेक मिला कि नहीं?’’

‘‘साले ने 6 हजार रुपए लिए थे. चेक कैसे न देता?’’ मेरे मुंह से निकल गया.

मैं वहां से बाहर आ कर गाड़ी स्टार्ट करने वाला ही था कि एक चपरासी ने आ कर कहा, ‘‘मांगेरामजी, आप को मुन्नालालजी बुला रहे हैं.’’

पहले मैं ने सोचा कि गाड़ी स्टार्ट कर के अब भाग ही चलूं, पर जब उस ने कहा कि चेक में कुछ कमी रह गई है तो मैं ने अपना फैसला बदल लिया.

जैसे ही मैं मुन्नालालजी के पास पहुंचा वे बोले, ‘‘अभी आप को फिर से चक्कर लगाना पड़ता. उस चेक में एक कमी रह गई है.’’

मैं ने खुशीखुशी चेक निकाल कर उन को दिया. उन्होंने उसे फिर से दबोच लिया. फिर मेरे दिए हुए 6 हजार निकाल कर मेरी ओर बढ़ा कर बोले, ‘‘ये आप के पैसे आप के पास पहुंच गए और यह मेरा चेक मेरे पास आ गया. अब आप जहां और जिस के पास जाना चाहें जाएं, कोर्ट, कचहरी, विधानसभा, पार्लियामैंट, अखबारों के दफ्तर या अपने क्षेत्र के दादा के पास. तमाम जगहें हैं.’’

हाथ में आई मोटी रकम यों फिसल जाएगी यह सोच कर मैं ने मायूसी व लाचारगी से मुन्नालाल को देखा पर कुछ बोला नहीं. मेरे मन में तोड़ की टूटी कड़ी को फिर से जोड़ने की जुगत चल रही थी.

Hindi Story : गंवार – देवरानी-जेठानी का तानों का रिश्ता

Hindi Story : आज मोनिका 2 महीने की बीमारी की छुट्टी के बाद पहली बार औफिस जा रही थी. मोनिका की देवरानी वंदना ने अपने हाथों से मोनिका के लिए टिफिन तैयार किया था. वह किचन से बाहर आते हुए बोली –

“भाभी, आप का टिफिन,” और मोनिका के करीब पहुंची तो मोनिका उसे गले लगा लिया. मोनिका की आंखों से आंसुओं की झड़ी लग गई. उस के मानस पटल पर अतीत की यादें किसी चलचित्र की भांति अंकित होने लगीं.

छोटे से गांव से मायानगरी मुंबई के पौश इलाके में बहू बन कर आने वाली वंदना के लिए अपननी ससुराल की राह पहले दिन से ही कठिन बन गई थी. शादी के बाद अपनी इकलौती जेठानी के पैर छूने के लिए झुकी तो मोनिका पीछे हटते हुए बोली –

“ओह, व्हाट इज़ दिस? यह किस जमाने में जी रही है, गंवार कहीं की, आजकल कोई पैर छूता है क्या? यह हाईटेक युग है, हाय-हैलो और हग करने का जमाना है. लगता है यह लड़की एजजुकेटेड भी नहीं है.”

“फिर तो भाभी से गले मिल लो वंदना,” अजित ने हंसते हुए कहा.

वंदना आगे बढ़ी तो मोनिका ने नाक सिकोड़ते हुए कहा, “बस, बस, दूर से ही नमस्कार कर दो, मैं मान लूंगी.”

वंदना दोनों हाथ जोड़ कर नमस्कार कर आगे बढ़ गई थी.

शादी के पहले दिन से ही जेठानी मोनिका का पारा सातवें आसमान पर चढ़ा हुआ था. हाईटेक सिटी मुंबई की गलियों में बचपन बिताने वाली मोनिका को किसी ठेठ गांव की लड़की बतौर अपनी देवरानी कतई पसंद नहीं थी. मोनिका ने अपने देवर अजित की शादी अपने मामा की इकलौती बेटी लवलीना से करवाने के लिए बहुत हाथपैर मारे थे परंतु अजित ने उस की एक न सुनी थी.

लवलीना मौडलिंग करती थी और शहर के स्थानीय फैशन शोज में नियमित रूप से शरीक होती थी. फैशन शोज के लिए वह देश के अन्य शहरों में भी अकसर जाती थी. लवलीना का ताल्लुक हाईफाई सोसायटी से था. जुहू स्कीम इलाके में स्टार बेटेबेटियों के साथ स्वच्छन्द जीवन का लुत्फ उठाने वाली लवलीना फिल्मों में भी अपना नसीब आजमा रही थी. मोनिका किटी पार्टियों, शौपिंग व पिकनिक की जबरदस्त शौकीन थी. वह चाहती थी कि उस के परिवार में ऐसी ही कोई मौड लड़की आए ताकि जेठानीदेवरानी में बेहतर तालमेल बना रहे. परंतु जब अजित ने देहाती लड़की से विवाह कर लिया तो मोनिका के तमाम ख्वाब पत्थर से टकराए शीशे की भांति टूट कर चकनाचूर हो गए. वह जलभुन कर रह गई.

अजित मैडिकल का छात्र था. जब वह एमबीबीएस के अंतिम वर्ष में स्टडी कर रहा था तब अपने मित्र सुमित के विवाह में शरीक होने उस के गांव गया था. वह पहली बार किसी गांव में गया था. पर्वतों की तलहटी में बसे इस गांव के प्राकृतिक सौंदर्य को देख कर अभिजीत को पहली नजर में ही इस गांव से प्यार हो गया था. गांव के चारों ओर आच्छादित हरियाली, दूरदूर तक लहलहाते हरेभरे खेत, खेतों में फुदकती चिडियां, हरेभरेघने वृक्षों पर कलरव करते विहग और उन की छांव में नृत्य करते मोर, अमराइयों में कूकती कोयल आदि ने अजित को इतना प्रभावित किया कि वह शादी के बाद भी कई दिनों तक अपने दोस्त के घर पर ही रुक गया था.

अपने दोस्त के विवाह में ही अजित ने वंदना को देखा था. विवाह के 2 दिन पूर्व आयोजित संगीत संध्या में उस ने वंदना को गाते और नृत्य करते हुए पहली बार देखा था. संगीत संध्या की रात को नींद ने अजित की आंखों से किनारा कर लिया. रातभर उस की आंखों के सामने वंदना का चेहरा ही घूम रहा था. उसे लगा कि अब उस की तलाश पूरी हो गई है. उस के दिमाग में जीवनसाथी की जो तसवीर थी उसी के अनुरूप वंदना थी.

सुमित के विवाह के बाद अजीत ने वंदना के बारे में छानबीन शुरू कर दी थी. उस ने प्रवीण के पिता शिवशंकर प्रसाद से इस बारे में पूछा तो उन्होंने बताया, ‘बेटा, वंदना, पंडित रामप्रसाद की ज्येष्ठ कन्या है. वे सेवानिवृत्त अध्यापक हैं, जो 2 वर्ष पहले ही सेवानिवृत्त हुए हैं. घर की गरीबी के कारण वंदना ने कक्षा 10वीं उत्तीर्ण कर स्कूल को अलविदा कह दिया था. वंदना मेरी गोद में खेली है, लड़की बहुत ही संस्कारित, सुशील और बुद्धिमान है. वंदना की आवाज बहुत ही मीठी व सुरीली है. वह बहुत अच्छा गाती है. प्रवीण के विवाह में संगीत संध्या में तुम ने वंदना के गीत सुने होंगे. अजित, एक बात मैं तुम्हें यह भी बताना चाहूंगा कि वंदना के विवाह की चिंता ने रामप्रसाद की नींद हराम कर दी है. उन की बिरादरी के कई लोग वंदना को देखने आते हैं पर दहेज पर आ कर बात फिसल जाती है. वंदना से छोटी एक और बहन है. उस के हाथ भी पीले करने हैं. गत वर्ष पंडितजी की पत्नी का अल्पावधि बीमारी के बाद आकस्मिक निधन हो गया था. उन्होंने इलाज में पैसे पानी की तरह बहाया. पर उसे बचा न सके. पंडितजी की पत्नी का निधन क्या हुआ, इस परिवार की रीढ़ ही टूट गई.’

शिवशंकर प्रसाद ने अजित के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘बेटे अजित, पंडितजी मेरे बहुत अच्छे मित्र हैं. उन की दोनों बेटियां सुंदर, सुशील और सुसंस्कारित हैं. अगर वंदना तुम्हें पसंद है और उसे अपना जीवनसाथी बनाना चाहते हो तो मुझे पंडितजी से बात करने में प्रसन्नता होगी.’

शिवशंकर प्रसाद की बातों से अजित के मन में लड्डू फूट रहे थे. वह जल्दी से जल्दी मुंबई जा कर इस संबंध में अपने मातापिता से बात करना चाहता था.

शिवशंकर ने अल्पविराम के बाद कहा, ‘बेटा, कोई निर्णय लेने से पहले अपने मातापिता से एक बार बात जरूर कर लेना. हो सके तो उन्हें एक बार यहां ले कर आ जाना.’

‘जरूर अंकल, मैं कोई निर्णय लेने से पूर्व मातापिता से जरूर बात करूंगा और मुझे पूरा विश्वास है कि मेरी पसंद ही मेरे मातापिता की पसंद होगी. अंकल, वंदना तो मुझे पहली नजर में ही पसंद आ गई है. मैं ऐसी ही लड़की को अपनी जीवनसंगिनी बनाना चाहता हूं, जिस का मन स्वच्छ कांच की तरह पारदर्शक हो, जिस के आरपार सहज देखा जा सकता है. वंदना का मन ताल के स्वच्छ जल की तरह निर्मल है, जिस के भीतर सहजता से झांक कर तल को देखा जा सकता है. अंकल, सुमित के विवाह के दौरान हमारी कई बार मुलाकातें हो चुकी हैं. मैं कल ही मुंबई जा रहा हूं. आप चाहे तो वंदना के पापा से बात कर सकते हैं,’ अजित उत्साहित हो कर बोल रहा था.

‘ठीक है, मैं कल ही पंडितजी से बात कर लेता हूं,’ शिवशंकर ने कहा.

अजित ने मुंबई पहुंच कर जब अपने मम्मीपापा और भैयाभाभी से इस बारे में बात की तो मोनका भाभी क्रोधित हो गईं. उन्होंने नाराज़गी व्यक्त करते हुए कहा, ‘अरे, अजीत, मैं ने तो लवलीना से तुम्हारे लिए बात कर रखी है. मुंबई जैसे शहर में गांव की अशिक्षित और गंवार लड़की ला कर समाज में हमारी नाक कटवाओगे क्या?’

‘अरे भाभी, मैं ने आप से पहले ही कह दिया था न कि मुझे लवलीना पसंद नहीं है. मेरी और उस की सोच में ज़मीनआसमान का अंतर है. भाभी, मैं सीधासादा लड़का हूं जबकि लवलीना हायफाय,’ अजित मुसकराते हुए और कुछ कहने जा रहा था मगर मोनिका ने अजित की बात काटते हुए कहा, ‘क्या बुराई है लवलीना में, दिखने में किसी हीरोईन से कम नहीं है, अच्छी पढ़ीलिखी है, ऊंचे खानदान की है, हाई सोसायटी से ताल्लुकात रखती है. भैया, तुम्हें ऐसी लड़की दिन में चिराग ले कर ढूंढ़ने से भी नहीं मिलेगी,’ कहते हुए मोनिका मुंह फुला कर बैठक से चली गई.

‘अरे भाई, उसे अपनी पसंद की लड़की से शादी करने दो न. तुम अपनी पसंद उस पर क्यों थोप रही हो?’ अजित के बड़े भाई रोहन ने मोनिका को समझाते हुए कहा. लेकिन तब तक मोनिका अपने कमरे में जा हो चुकी थी.

2 ही दिनों बाद अजित अपने मातापिता को ले कर वंदना के गांव पहुंच गया. वंदना सभी को पसंद आ गई. अजित की मम्मी ने तो वंदना के हाथ में शगुन भी दे दिया. चट मंगनी और पट विवाह हो गया. मोनिका की नाराजगी के बावजूद वंदना इस घर की बहू बन कर आ गई. वंदना को विवाह के पहले दिन से ही अपनी जेठानी मोनिका की नाराज़गी का शिकार होना पड़ा था. वह बातबात पर वंदना पर ताने कसती थी. लेकिन वंदना ने मानो विनम्रता का चोगा पहन लिया हो, वह मोनिका के तानों पर चूं तक न करती, चुपचाप सहन करती रही. वंदना जानती थी कि शब्द से शब्द बढ़ता है, सो, उस के लिए इस वक्त खामोश रहना ही उचित है. उसे विश्वास था कि समय सदैव एकसमान नहीं रहता है, यह परिवर्तनशील है, एक दिन उस का भी वक्त बदलेगा.

समय बीत रहा था. मोनिका एक सरकारी बैंक में नौकरी करती थी, सो, वह हमेशा अपना टिफिन खुद बना कर सुबह 9 बजे अपनी स्कूटी से बैंक चली जाती थी और शाम को 5 बजे के आसपास लौटती थी. वंदना से मोनिका इस कदर नाराज थी कि वह उस के हाथ की चाय तक नहीं पीती थी. मोनिका के बैंक जाने के बाद ही वंदना का किचन में प्रवेश होता था. वंदना के सासससुर मोनिका के तेजतर्रार स्वभाव से भलीभांति परिचित थे, सो, वे हमेशा खामोश ही रहते थे. सबकुछ ठीक चल रहा था. पर किसी को क्या पता था कि कोई अनहोनी उन के दरवाजे पर जल्दी ही दस्तक देने वाली है.

एक दिन शाम को बैंक से लौटते वक्त किसी टैम्पो ने मोनिका की स्कूटी को पीछे से जोर से टक्कर मार दी. मोनिका ने हेल्मेट पहना हुआ था, इसलिए उस के सिर पर चोट नहीं आई मगर उस के दाएं हाथ और बाएं पैर पर गहरी चोट आई थी. किसी भले व्यक्ति ने अपनी कार से मोनिका को नजदीक के अस्पताल में पहुंचाया था. अस्पताल से फोन आते ही अजित और वंदना तुरंत अस्पताल पहुंचे.

मोनिका के पति रोहन औफिस के काम से भोपाल गए हुए थे. अजित ने देखा कि मोनिका आईसीयू में है. डाक्टरों ने बताया कि वह अभी बेहोशी की अवस्था में है. कुछ देर में उन्हें होश आ जाएगा. हैल्मेट की वजह से उन के सिर में कोई चोट नहीं आई, मगर वह घबरा कर बेहोश हो गई है. उस के हाथ और पैर में गहरी चोट लगी है. फ्रैक्चर भी हो सकता है. एक्सरे रिपोर्ट आने के बाद पता चल जाएगा.

कुछ ही देर में मोनिका को होश आ गया. डाक्टर ने अजित को इशारे से अंदर बुलाया. अजित ने मोनिका को बताया कि वे बिलकुल न घबराएं. उन के हाथ और पैर में ही चोट लगी है, सिर में कहीं चोट नहीं आई है. एक्सरे से मालूम पड़ जाएगा कि फ्रैक्चर है या नहीं. कुछ ही देर बाद डाक्टर ने एक्सरे देख कर अजित को बताया कि मोनिका के दाएं हाथ और बाएं पैर में फ्रैक्चर है. उन्हें करीब एक सप्ताह अस्पताल में रहना पड़ेगा. अजित ने फोन द्वारा रोहन को घटना की जानकारी दे दी.

करीब 2 सप्ताह के बाद मोनिका को अस्पताल से छुट्टी मिली. अजित और वंदना के साथ मोनिका घर पर आई. घर के दरवाजे पर मोनिका को रोक कर वंदना ने कहा, ‘भाभी, अब तुम अपने लिए पानी का गिलास तक नहीं भरोगी. डाक्टर ने वैसे भी आप को पूरे 2 महीने आराम करने की सलाह दी है. फिर आप के एक हाथ और एक पैर पर प्लास्टर चढ़ा है. सो, आप को अब आराम की सख्त जरूरत है. आज से आप मुझे कोई भी और किसी प्रकार का काम करने के लिए कहने में कोई संकोच नहीं करोगी, ऐसा मुझ से वादा करो. तभी आप को मैं घर के अंदर आने दूंगी.’ यह कहने के साथ ही वंदना बीच दरवाजे पर खड़ी हो गई.

मोनिका की आंखों से आंसू छलक पड़े. उस ने वंदना को एक हाथ से अपनी ओर खींचते हुए उस का माथा चूम लिया और रुंधे कंठ से बोली, ‘वंदना, मुझे माफ कर देना, मैं ने तुम्हें न जाने क्याक्या कहा और तुम्हें बेवजह परेशान भी बहुत किया. तुम पिछले 2 सप्ताह से सबकुछ भुला कर मेरी सेवा में समर्पित हो गईं. इतनी सेवा तो अपना भी कोई नहीं करेगा. वंदना, तुम्हें इस घर में आए अभी 7 महीने ही हुए हैं, पर तुम ने अपनी मृदुलवाणी और विनयभाव से हम सब का दिल जीत लिया. मुझे अजित की पसंद पर गर्व है. वंदना, तुम्हारे बरताव से एक बात मेरी समझ में आ गई कि गांव की लड़की अशिक्षित हो सकती है मगर असंस्कारित नहीं. तुम पारिवारिक एटिकेट्स की जीतीजागती मूरत हो. वंदना, प्लीज, पहले तुम मुझे माफ कर दो, तो ही मैं घर में प्रवेश करूंगी.’

‘भाभी, आप बड़ी बहन के समान हैं, जिसे अपनी छोटी बहन को डांटने और फटकारने का हक तो होता है न, फिर भला, मुझे बुरा क्यों लगेगा. आप माफी की बात कर के मुझे शर्मिंदा न करें, यह तो आपका विनय है भाभी,’ कहते हुए वंदना ने अपनी जेठानी को बांहों में भर लिया.

‘अरे भाई, देवरानी और जेठानी की डायलौगबाजी खत्म हो गई हो, तो हम अंदर चलें क्या, मुझे और अजित को जोर से भूख लगी है,’ दरवाजे के बाहर खड़े रोहन ने अजित की ओर देख कर मुसकराते हुए कहा.

‘हां…हां भाईसाहब, खत्म हो गई है हमारी डायलौबाजी, आप सब भीतर आइए. मैं भाभी को अपने कमरे में बिठा कर आप सभी के लिए चायनाश्ता बनाती हूं,’ कहते हुए वंदना ने अपने दोनों हाथ मोनिका की तरफ बढ़ा दिए, जिन्हें उस ने कस कर पकड़ लिया और धीरेधीरे वंदना का सहारा लेते हुए अपने कमरे की ओर बढ़ने लगी.

“अरे भाभी, आप कहां खो गई हो, अब तो मेरा हाथ छोड़ो न, आप ने कब से इसे कस कर पकड़ रखा है. आप को बैंक जाने में देर हो रही है,” वंदना ने कहा.

“ओह, सौरी वंदना, मैं तो अतीत में पहुंच गई थी,“ कहते हुए मोनिका ने वंदना के हाथ से टिफिन लिया और अपने पति रोहन के साथ धीरेधीरे सीढ़ियों से उतरने लगी.

Hindi Story: बंद मुट्ठी – जब दो भाईयों के बीच लड़ाई बनी परिवार के मनमुटाव का कारण

Hindi Story : रविवार का दिन था. पूरा परिवार साथ बैठा नाश्ता कर रहा था. एक खुशनुमा माहौल बना हुआ था. छुट्टी होने के कारण नाश्ता भी खास बना था. पूरे परिवार को इस तरह हंसतेबोलते देख रंजन मन ही मन सोच रहे थे कि उन्हें इतनी अच्छी पत्नी मिली और बच्चे भी खूब लायक निकले. उन का बेटा स्कूल में था और बेटी कालेज में पढ़ रही थी. खुद का उन का कपड़ों का व्यापार था जो बढि़या चल रहा था.

पहले उन का व्यापार छोटे भाई के साथ साझे में था, पर जब दोनों की जिम्मेदारियां बढ़ीं तो बिना किसी मनमुटाव के दोनों भाई अलग हो गए. उन का छोटा भाई राजीव पास ही की कालोनी में रहता था और दोनों परिवारों में खासा मेलजोल था. उन की पत्नी नीता और राजीव की पत्नी रिचा में बहनापा था.

रंजन नाश्ता कर के बैठे ही थे कि रमाशंकर पंडित आ पहुंचे.

‘‘यहां से गुजर रहा था तो सोचा यजमान से मिलता चलूं,’’ अपने थैले को कंधे से उतारते हुए पंडितजी आराम से सोफे पर बैठ गए. रमाशंकर वर्षों से घर में आ रहे थे. अंधविश्वासी परिवार उन की खूब सेवा करता था.

‘‘हमारे अहोभाग्य पंडितजी, जो आप पधारे.’’

कुछ ही पल में पंडितजी के आगे नीता ने कई चीजें परोस दीं. चाय का कप हाथ में लेते हुए वे बोले, ‘‘बहू, तुम्हारा भी जवाब नहीं, खातिरदारी और आदर- सत्कार करना तो कोई तुम से सीखे. हां, तो मैं कह रहा था यजमान, इन दिनों ग्रह जरा उलटी दिशा में हैं. राहुकेतु ने भी अपनी दिशा बदली है, ऐसे में अगर ग्रह शांति के लिए हवन कराया जाए तो बहुत फलदायी होता है,’’ बर्फी के टुकड़े को मुंह में रखते हुए पंडितजी बोले.

‘‘आप बस आदेश दें पंडितजी. आप तो हमारे शुभचिंतक हैं. आप की बात क्या हम ने कभी टाली है  अगले रविवार करवा लेते हैं. जो सामान व खर्चा आएगा, वह आप बता दें.’’

रंजन की बात सुन पंडितजी की आंखों में चमक आ गई. लंबीचौड़ी लिस्ट दे कर और कुल 10 हजार का खर्चा बता वे निकल गए.

इस के 2 दिन बाद दोपहर में पंडितजी राजीव के घर बैठे कोल्ड डिं्रक पी रहे थे, ‘‘आप को आप के भाई ने तो बताया होगा कि वे अगले रविवार को हवन करवा रहे हैं ’’

पंडितजी की बात सुन कर राजीव हैरान रह गया, ‘‘नहीं तो पंडितजी, मुझे नहीं पता. क्यों रिचा, क्या भाभी ने तुम्हें कुछ बताया है इस बारे में ’’ अपनी पत्नी की ओर उन्होंने सवालिया नजरों से देखा.

‘‘नहीं तो, कल ही तो भाभी से मेरी फोन पर बात हुई थी, पर उन्होंने इस बारे में तो कोई जिक्र नहीं किया. कुछ खास हवन है क्या पंडितजी ’’ रिचा ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘दरअसल वे इसलिए हवन कराने के लिए कह रहे थे ताकि कामकाज में और तरक्की हो. छोटी बहू, तुम तो जानती हो, हर कोई अपना व्यापार बढ़ाना चाहता है. आप लोगों का व्यापार क्या कम फैला हुआ है उन से, पर आप लोग जरा ठहरे हुए लोग हैं. इसलिए जितना है उस में खुश रहते हैं. बड़ी बहू का बस चले तो हर दूसरे दिन पूजापाठ करवा लें. उन्हें तो बस यही डर लगा रहता है कि किसी की बुरी नजर न पड़ जाए उन के परिवार पर.’’

अपनी बात को चाशनी में भिगोभिगो कर पंडितजी ने उन के सामने परोस दिया. उन के कहने का अंदाज इस तरह का था कि राजीव और रिचा को लगे कि शायद यह बात उन्हीं के संदर्भ में कही गई है.

‘‘हुंह, हमें क्या पड़ी है नजर लगाने की. हम क्या किसी से कम हैं,’’ रिचा को गुस्से के साथ हैरानी भी हो रही थी कि जिस जेठानी को वह बड़ी बहन का दर्जा देती है और जिस से दिन में 1-2 बार बात न कर ले, उसे चैन नहीं पड़ता, वह उन के बारे में ऐसा सोचती है.

‘‘पंडितजी, आप की कृपा से हमें तो किसी चीज की कमी नहीं है, पर आप कहते हैं तो हम भी पूजा करवा लेते हैं,’’ एक मिठाई का डब्बा और 501 रुपए उन्हें देते हुए राजीव ने कहा. उन्हें 15 हजार रुपए का खर्चा बता और उन के गुणगान करते पंडितजी तो वहां से चले गए पर राजीव और रिचा के मन में भाईभाभी के प्रति एक कड़वाहट भर गए. मन ही मन पंडितजी सोच रहे थे कि इन दोनों भाइयों को मूर्ख बनाना आसान है, बस कुनैन की गोली खिलाते रहना होगा.

अगले रविवार जब रंजन के घर वे हवन करा रहे थे तो नीता से बोले, ‘‘बड़ी बहू, मुझे जल्दी ही यहां से जाना होगा. देखो न, क्या जमाना आ गया है. तुम लोगों ने हवन कराने की बात की तो राजीव भैया मेरे पीछे पड़ गए कि हम भी आज ही पूजा करवाएंगे. बताया तो होगा, तुम्हें छोटी बहू ने इस बारे में ’’

‘‘नहीं, पंडितजी, रिचा ने तो कुछ नहीं बताया.’’

नीता उस के बाद काम में लग गई पर उसे बहुत बुरा लग रहा था कि रिचा उस से यह बात छिपा गई. जब उस ने उन्हें हवन पर आने का न्योता दिया था तो उस ने यह कह कर मना कर दिया था कि रविवार को तो उस के मायके में एक समारोह है और वहां जाना टाला नहीं जा सकता.

हालांकि तब नीता को इस बात पर भी हैरानी हुई थी कि आज तक रिचा बिना उसे साथ लिए मायके के किसी समारोह तक में नहीं गई थी तो इस बार अकेली कैसे जा रही है, पर यह सोच कर कुछ नहीं बोली थी कि हर बार हो सकता है साथ ले जाना मुमकिन न हो.

रिचा के झूठ से नीता के मन में एक फांस सी चुभ गई थी.

2 दिन बाद नीता मंदिर गई तो आशीष देते हुए पंडितजी बोले, ‘‘आओ बड़ी बहू. भक्तन हो तो तुम्हारे जैसी. कैसे सेवाभाव से उस दिन भोजन खिलाया था और दक्षिणा देने में भी कोई कमी नहीं छोड़ी थी. छोटी बहू ने तो 2 चीजें बना कर ही निबटारा कर दिया और दक्षिणा में भी सिर्फ 251 रुपए दिए. मैं तो कहता हूं कि पैसा होने से क्या होता है, दिल होना चाहिए. तुम्हारा दिल तो सोने जैसा है, बड़ी बहू. तुम तो साक्षात अन्नपूर्णा हो.’’

उस के बाद नीता ने तुरंत 501 रुपए निकाल कर पंडितजी की पूजा की थाली में रख दिए.

कुछ दिनों बाद जब रिचा मंदिर आई तो वे उस की प्रशंसा करने लगे, ‘‘छोटी बहू, तुम आती हो तो लगता है कि जैसे साक्षात लक्ष्मी के दर्शन हो गए हैं. कितने प्रेमभाव से तुम सब काम करती हो. तुम्हारे घर पूजा करवाई तो मन प्रसन्न हो गया. कहीं कोई कमी नहीं थी और बड़ी बहू के हाथ से तो पैसा निकलने का नाम ही नहीं लेता. हर सामग्री तोलतोल कर रखती हैं. तुम दोनों बहुओं के बीच क्या कोई कहासुनी हुई है  बड़ी बहू तुम से काफी नाराज लग रही थीं. काफी कुछ उलटासीधा भी बोल रही थीं तुम लोगों के बारे में.’’

रिचा ने तब तो कोई जवाब नहीं दिया, पर उस दिन के बाद से दोनों परिवारों में बातचीत कम हो गई. कहां दोनों परिवारों में इतना अपनापन और प्रेम था कि दोनों भाई और देवरानीजेठानी जब तक एकदो दिन में एकदूसरे से मिल न लें, उन्हें चैन नहीं पड़ता था. यहां तक कि बच्चे भी एकदूसरे से कटने लगे थे.

पंडितजी इस मनमुटाव का फायदा उठा जबतब किसी न किसी भाई के घर पहुंच जाते और कोई न कोई पूजा करवाने के बहाने पैसे ऐंठ लेते. साथ में कभी खाना तो कभी मिठाई, वस्त्र अपने साथ बांध कर ले जाते.

नीता ने एक दिन उन्हें हलवा परोसा तो वे बोले, ‘‘वाह, क्या हलवा बनाती हो बहू. छोटी बहू ने भी कुछ दिन पहले हलवा खिलाया था, पर उस में शक्कर कम थी और मेवा का तो नाम तक नहीं था. जब भी उस से तुम्हारी बात या प्रशंसा करता हूं तो मुंह बना लेती है. क्या कुछ झगड़ा चल रहा है आपस में  यह तो बहू सब संस्कारों की बात है जो गुरु और ब्राह्मणों की सेवा से ही आते हैं. अच्छा, चलता हूं. आज रंजन भैया ने दुकान पर बुलाया है. कह रहे थे कि कहीं पैसा फंस गया है, उस का उपाय करना है.’’

धीरेधीरे पंडितजी दोनों भाइयों के बीच कड़वाहट पैदा करने में तो कामयाब हो ही गए साथ ही उन्हें भ्रमित कर मनचाहे पैसे भी ऐंठ लेते. एकदूसरे की सलाह पर काम करने वाले भाई जब अपनीअपनी दिशा चलने लगे तो व्यापार पर भी इस का असर पड़ा और कमाई का एक बड़ा हिस्सा पंडित द्वारा बताए उपाय और पूजापाठ पर खर्च होने लगा.

नीता और रिचा, जो अपने सुखदुख बांट गृहस्थी और दुनियादारी कुशलता से निभा लेती थीं, अब अपनेअपने ढंग से जीने का रास्ता ढूंढ़ने लगीं जिस के कारण उन की गृहस्थी में भी छेद होने लगे.

पहले कभी पतिपत्नी के बीच शिकवेशिकायत होते थे तो दोनों आपसी सलाह से उसे सुलझा लेती थीं. अकसर नीता राजीव को समझा देती थी कि वह रिचा से गलत व्यवहार न किया करे या फिर रिचा को ही सही सलाह दे दिया करती थी.

बंद मुट्ठी के खुलते ही रिश्तों के साथसाथ धन का रिसाव भी बहुत शीघ्रता से होने लगता है. बेशक दोनों परिवार अलग रहते थे, पर मन से वे कभी दूर नहीं थे. अब उन के बीच इतनी दूरियां आ गई थीं कि एक की बरबादी की खबर दूसरे को आनंदित कर देती. वे सोचते, उन के साथ ऐसा ही होना चाहिए था.

धीरेधीरे उन दोनों का ही व्यापार ठप होने लगा और आपसी प्यार व विश्वास की दीवारें गिरने लगीं. उन के बीच दरारें पैदा कर और पैसे ऐंठ कर पंडितजी ने एक फ्लैट खरीद लिया और घर में हर तरह की सुविधाएं जुटा लीं. उन के बच्चे अंगरेजी स्कूल में जाने लगे.

जब पंडितजी ने देखा कि अब दोनों परिवार खोखले हो गए हैं और उन्हें देने के लिए उन के पास धन नहीं है तो उन का आनाजाना कम होने लगा. अब राजीव और रंजन उन्हें सलाह लेने के लिए बुलाते तो वे काम का बहाना बना टाल जाते. आखिर, उन्हें तो अपनी कमाई का और कोई जरिया ढूंढ़ना था, इसलिए बहुत जल्दी ही उन्होंने दवाइयों के व्यापारी मनक अग्रवाल के घर आनाजाना आरंभ कर दिया.

‘‘क्या बताऊं यजमान, कैसा जमाना आ गया है. आप कपड़ा व्यापारी भाई रंजन और राजीव भैया को तो जानते ही होंगे, कितना अच्छा व्यापार था दोनों का. पैसों में खेलते थे, पर विडंबना तो देखो, दोनों भाइयों की आपस में बिलकुल नहीं बनती. आपसी लड़ाईझगड़ों के चलते व्यापार तो लगभग ठप ही समझो.

‘‘आप भी तो हैं, कितना स्नेह है तीनों भाइयों में. अगलबगल 3 कोठियों में आप लोग रहते हो, पर मजाल है कि आप के दोनों छोटे भाई आप की कोई बात टाल जाएं. यहां आ कर तो मन प्रसन्न हो जाता है. मैं तो कहता हूं कि मां लक्ष्मी की कृपा आप पर इसी तरह बनी रहे,’’ काजू की बर्फी के 2-3 पीस एकसाथ मुंह में रखते हुए पंडितजी ने कहा.

‘‘बस, आप का आशीर्वाद चाहिए पंडितजी,’’ सेठ मनक अग्रवाल ने दोनों हाथ जोड़ कर कहा.

‘‘वह तो हमेशा आप के साथ है. मेरी मानो तो इस रविवार लक्ष्मीपूजन करवा लो.’’

‘‘जैसी आप की इच्छा,’’ कह मनक अग्रवाल ने उन के सामने हाथ जोड़ लिए. वहां से कुछ देर बाद जब पंडितजी निकले तो उन के हाथ में काजू की बर्फी का डब्बा और 2100 रुपए का एक लिफाफा था.

आने वाले रविवार को तो तगड़ी दक्षिणा मिलेगी, इसी का हिसाबकिताब लगाते पंडितजी अपने घर की ओर बढ़ गए.

उन के चेहरे पर एक कुटिल मुसकान खेल रही थी और आंखों से धूर्तता टपक रही थी. बस, उन्हें तो अब तीनों भाइयों की बंद मुट्ठी को खोलना था. उन का हाथ जेब में रखे लिफाफे पर गया. लिफाफे की गरमाहट उन्हें एक सुकून दे रही थी.

Hindi Story : सिद्ध बाबा – क्यों घोंटना पड़ा सोहनलाल को अपनी ही बेटी का गला?

Hindi Story, लेखक- विवेक द्विवेदी

अपनी पत्नी को भोजन ले जाते देख सोहनलाल पूछ बैठे, ‘‘यह थाली किस के लिए है?’’

‘‘क्या आप को नहीं मालूम?’’

‘‘मुझे कुछ नहीं मालूम,’’ सोहनलाल झल्ला कर बोले.

‘‘सूरदास महाराज के लिए…’’ पत्नी ने सहजता से जवाब दिया.

‘‘बंद करो उस का भोजन,’’ सोहनलाल चीखे तो पत्नी के हाथ से थाली गिरतेगिरते बची. वह आगे बोले, ‘‘पिछले 5 साल से उस अंधे के बच्चे को खाना खिला रहा हूं. उस से कह दो कि यहां से जाए और भिक्षा मांग कर अपना पेट भरे. मेरे पास कुबेर का भंडार नहीं है.’’

‘‘गरीब ब्राह्मण है. अगर उस के घर वाले न निकालते तो भला क्यों आप के टुकड़ों पर टिका रहता. इसलिए जैसे 10 लोग खाते हैं, वैसे एक वह भी सही,’’ कहते हुए पत्नी ने थाली को और मजबूती से पकड़ा और आगे बढ़ गई.

थोड़ी देर बाद जब वह सूरदास के पास से लौटी तो सोहनलाल उसे देखते ही पुन: बोल उठे, ‘‘आखिर उस अंधे से तुम्हें क्या मिलता है?’’

‘‘तुम्हें तो राम का नाम लेने की फुरसत नहीं…कम से कम वह इस कुटिया में बैठाबैठा राम नाम तो जपता रहता है.’’

‘‘यह अंधा राम का नाम लेता है? अरे, जिस की जबान हमेशा लड़खड़ाती रहती हो वह…लेकिन हां, उस ने तुम पर जरूर जादू कर दिया है…’’

‘‘तुम आदमी लोग हमेशा फायदे की बात ही सोचते हो…सूरदास महाराज कोई साधारण इंसान नहीं हैं. वे सिद्ध बाबा हैं.’’

‘‘अच्छा…लगता है, उस ने तुम्हें कोई खजाना दिला दिया है?’’ सोहनलाल की आवाज में व्यंग्य का पुट था.

‘‘खजाना तो नहीं, लेकिन जब से उन के चरण इस घर में पड़े हैं, किसी चीज की कोई कमी नहीं रही. चमनलाल की पत्नी ने एक बार बाबा से हंसते हुए पूछा था कि क्या उस के पति की पदोन्नति होगी तो सूरदासजी ने कहा कि 3 महीने के अंदर हो जाएगी.’’

‘‘तो हुई?’’

‘‘हां, हुई, दोनों पतिपत्नी तब यहां आए थे. सूरदास महाराज ने उन्हें पुन: आशीर्वाद दिया. उन्होंने महाराजजी के चरणों में 501 रुपए और एक नारियल की भेंट भी चढ़ाई.’’

501 का आंकड़ा सुनते ही सोहनलाल अपने स्थान से उठ खड़े हुए. उन्हें यह सब आश्चर्य लगा. विश्वास ही नहीं हो रहा था कि जिस की जबान लड़खड़ाती है, पूरा दिन सोता रहता है, गंदगी का सैलाब अपने चारों तरफ इकट्ठा किए रहता है, उस के पास इतनी बड़ी सिद्धि हो सकती है. वे एकाएक मुसकरा उठे. पत्नी इस रहस्य को न समझ सकी.

सोहनलाल ने इशारे से पूछा, ‘‘501 रुपए हैं कहां?’’

उन की पत्नी भी मुसकरा दी. इशारे से ही जवाब दिया कि वह राशि उन के पास ही है. सोहनलाल चुपचाप उठे और सूरदास के कमरे की ओर बढ़ गए. उस वक्त सूरदास जमीन पर लेटा सींक से दांत साफ कर रहा था. सोहनलाल को लगा कि जैसे सूरदास के चेहरे पर कोई विशेष आभा चमक रही हो. उन्हें लगा कि वह जमीन पर नहीं बल्कि फूलों की शैया पर लेटा हो. उन्होंने सूरदास के चरणों में अपना सिर टिका दिया, ‘‘मेरी भूल क्षमा करो महाराज. मैं आप को पहचान नहीं पाया.’’

‘‘कौन…सोहनलाल?’’ सूरदास उठ कर बैठ गया.

‘‘जी, महाराज…मैं सोहनलाल.’’

‘‘लेकिन तुम तो मुझे अंधा ही कहो. मैं कोई सिद्ध बाबा नहीं हूं. यह तो तुम्हारी पत्नी का भ्रम है.’’

‘‘भ्रम ही सही, महाराज, मैं भी चाहता हूं कि यह भ्रम हमेशा बना रहे.’’

‘‘इस से क्या होगा?’’

‘‘यह जीवन का सब से सुनहरा सुअवसर होगा.’’

‘‘मैं समझा नहीं, तुम कहना क्या चाहते हो?’’

सोहनलाल ने आराम से बगल में बैठ कर सूरदास के कंधे पर हाथ रख दिया. फिर धीरे से बोले, ‘‘देखो सूरदास, मुझे मालूम है कि तुम कोई सिद्धविद्ध नहीं हो, लेकिन मैं चाहता हूं कि तुम सिद्ध बाबा बन जाओ. इस विज्ञान के युग

में भी लोग चमत्कारों पर विश्वास करते हैं.’’

‘‘लेकिन चमत्कार होगा कैसे? और इस से फायदा क्या होगा?’’

‘‘अब सही जगह पर लौटे हो, सूरदास. अगर 100 लोग आशीर्वाद लेने आएंगे तो 10 का काम होगा ही. 10 के नाम पर 100 का चढ़ावा मिलेगा. घर बैठे धंधा खूब चलेगा… हम दोनों का आधाआधा हिस्सा होगा.’’

सूरदास के चेहरे पर चमक आ गई. उस का अंगअंग फड़क उठा. वह चहक कर बोला, ‘‘लेकिन यह सब होगा कैसे?’’

‘‘यह काम मेरा है.’’

सूरदास की चर्चा चमनलाल की पत्नी ने अपने पड़ोसियों से की. साथ ही सोहनलाल की पत्नी ने इस बारे में अपने परिचितों को बताया.

उधर सोहनलाल ने इसे एक अभियान का रूप दे दिया. चर्चा 2-4 लोगों के बीच शुरू हुई थी लेकिन हवा शहर के आधे हिस्से में फैल गई. शाम को सूरदास के साथ सोहनलाल किसी मुद्दे पर चर्चा कर ही रहे थे कि उन की पत्नी अपने साथ 2 औरतों को ले कर आ पहुंची.

सोहनलाल उन औरतों को देखते ही एक तरफ बैठने का इशारा कर के स्वयं सूरदास के पैर दबाने लगे. सूरदास समझ गया कि कोई अंदर आया है. उस ने गंभीर स्वर में पूछा, ‘‘सोहनलाल, कौन आया है?’’

‘‘स्वामीजी, आप के भक्त आए हैं.’’

सोहनलाल की बात पूरी हुई ही थी कि दोनों महिलाएं सूरदास के पांव  छूने लगीं.

‘‘सदा सुखी रहो,’’ सूरदास ने उन के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा.

लेकिन किसी नारी का पहली बार स्पर्श पा कर उस का पूरा शरीर रोमांचित हो उठा. वह तुरंत बोला, ‘‘भगवान का दिया हुआ तो तुम्हारे पास बहुत कुछ है, लेकिन फिर भी इतनी चिंतित क्यों हो, बेटी?’’

सूरदास की बात सुन कर वृद्ध महिला, जो अपनी बहू को ले कर आई थी, आंखें फाड़फाड़ कर सूरदास की ओर देखने लगी.

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‘‘स्वामीजी, ये विपिन की मां हैं, साथ में इन की बहू भी है. शादी को 7 साल हो गए हैं, लेकिन…’’

सोहनलाल की पत्नी इतना ही बोल पाई कि सूरदास ने आगे की बात पूरी कर दी, ‘‘तो क्या हुआ? विपिन अब तक बच्चा चाहता ही नहीं था. जो प्रकृति का नियम है वह तो होना ही है.’’

‘‘सच, महाराजजी,’’ विपिन की मां पूछ बैठीं.

‘‘बाबा जो कह दें उस पर तर्क की गुंजाइश नहीं रहती, मां,’’ सोहनलाल ने कहा.

उसी समय एक औरत थाली में फलफूल लिए ‘सिद्ध बाबा की जय, सिद्ध बाबा की जय’ कहती हुई अंदर आ पहुंची. सभी की निगाहों ने उसे घेर लिया. सोहनलाल के चेहरे पर मुसकराहट थिरकने लगी. उस औरत ने थाली सूरदास के सामने रखते हुए अपना माथा उस के चरणों में झुका दिया. फिर मधुर वाणी में बोली, ‘‘स्वामीजी, आप का आशीर्वाद फल गया, बहू को लड़का हुआ है. मैं आप की सेवा में कुछ फलफूल ले कर आई हूं. कृपया स्वीकार कर लीजिए.’’

विपिन की मां ने देखा कि थाली में फलफूल के अलावा भी 100-100 के कई नोट रखे हुए हैं, लेकिन सूरदास लेने से इनकार कर रहा है. साथ में यह भी कह रहा है कि मुझे इन सारी चीजों का क्या करना. मैं तो सोहनलाल की दो रोटियों से ही खुश हूं.

लेकिन वह महिला न मानी और थाली वहीं पर छोड़ कर माथा टेकते हुए बाहर निकल गई. विपिन की मां को कुछ झेंप सी हुई. चलते वक्त उन्होंने भी अपना पर्स खोला और 200 रुपए निकाल कर सूरदास के चरणों में रख दिए. फिर वह सोहनलाल की पत्नी के साथ बाहर निकल आई और बोली, ‘‘स्वामीजी ने समय तो नहीं बताया.’’

‘‘हो सकता है, अभी कुछ और समय लगे, लेकिन विपिन की मां, लड़का तो अवश्य होगा. सूरदास महाराज की वाणी असत्य नहीं कह सकती. परंतु डाक्टरी इलाज अवश्य जारी रखना.’’

वक्त ने पलटा खाया और सूरदास सिद्ध बाबा के रूप में प्रसिद्ध हो गया. उसे सिद्ध बाबा बनाने में सोहनलाल का काफी योगदान रहा. मौका देख कर सिद्ध बाबा की वाहवाही करने के लिए उस के पास दर्जनों स्त्रीपुरुष थे, जो वेश बदल कर जनता के सामने उस के पास जाते और चरणों में फलफूल के साथ हजारों रुपए और सोनेचांदी के उपहार चढ़ाने का वचन दे कर बाबा से आशीर्वाद ले आते.

सिद्ध बाबा की चर्चा अब केवल उस क्षेत्र तक ही सीमित नहीं थी, बल्कि उन के चरणों में मुंबई, कोलकाता और दिल्ली से भी लोग आने लगे थे. सोहनलाल अब बहुत मालदार हो गए थे. सूरदास के लिए एक बहुत ही खूबसूरत मंदिर का निर्माण कराया गया. सोहनलाल का बंगला भी कम न था और जीप, कार का तो कहना ही क्या.

सूरदास के घर वाले पास जा कर देखते भी तो उन्हें विश्वास न होता कि क्या यह वही सूरदास है जिसे सावन की झड़ी में उन्होंने घर से बाहर निकाल दिया था. घने काले बाल, मुलायम दाढ़ी जैसे सचमुच कोई ऋषिमुनि हो. उन्हें रहस्य मालूम हो गया था, लेकिन बोल नहीं सकते थे. चारों तरफ मौन का आतंक था.

सोहनलाल की कृपा से सूरदास अब पूरी तरह से व्यभिचारी हो गया था. लड़की और शराब उस के व्यसन बन चुके थे.

एक दिन धर्मशाला में रात के समय किसी स्त्री के सिसकने की आवाज उभरी. चारों तरफ अंधेरा था.

एक नारी का स्वर उभरा, ‘‘मां, ऐसे दरिंदे के पास लाई थीं मुझे. यह सिद्ध बाबा नहीं, शैतान है, शैतान. इस ने मेरी इज्जत लूट ली. मां, मैं इसे नहीं छोड़ूंगी.’’

‘‘नहीं, बेटी,’’ मां जैसे समझाने और चुप करने की चेष्टा कर रही थी. लेकिन अंधेरे का सन्नाटा टूट चुका था, ‘‘सिद्ध बाबा के हाथ बड़े लंबे हैं. तेरी जबान काट ली जाएगी. सुबह होते ही यहां से निकल चलें, इसी में हमारी भलाई है.’’

उस वक्त सूरदास का बड़ा भाई चौकसी कर रहा था. जब उस ने यह सब सुना तो वह बुरी तरह से विचलित हो उठा. उसी वक्त उस ने निर्णय किया कि सोहनलाल को सबक सिखा कर ही रहेगा.

सुबह से भीड़ आ कर सोहनलाल को घेर लेती थी. सूरदास का बड़ा भाई अलग से जा कर उस से कुछ कहना चाह रहा था कि उसी समय एक आदमी दौड़ता हुआ आया और घबराए हुए स्वर में बोला, ‘‘आप की बेटी की तबीयत काफी खराब है, मांजी ने फौरन बुलाया है.’’

सोहनलाल चुपचाप उठे और शीघ्रता से अपने बंगले की ओर चल दिए. उन की बेटी को 3-4 उलटियां हुई थीं. शायद इसी वजह से बेहोश हो गई थी.

सोहनलाल बेटी की ऐसी हालत देख कर गुस्से में पत्नी से बोले, ‘‘ऐसे मौके पर डाक्टर को टेलीफोन करना चाहिए था,’’ फिर उन्होंने खुद ही रिसीवर उठा कर डायल घुमाना ही चाहा था कि उन की पत्नी ने हाथ पकड़ लिया, ‘‘डाक्टर की आवश्यकता नहीं है.’’

‘‘क्या बात है?’’ उन्होंने गंभीरता से पूछा.

‘‘हमारी बेटी गर्भवती है.’’

‘‘क्या…?’’

सोहनलाल का चेहरा फक पड़ गया.

‘‘गर्भ सूरदास का है. उस वहशी ने हमारा घर भी नहीं छोड़ा,’’ पत्नी ने आंसू बहाते हुए कहा.

‘‘उस कुत्ते की मैं हत्या कर दूंगा. कमीने को जिस थाली में खाना खिलाया उसी में छेद कर दिया,’’ सोहनलाल यह सब एक झटके में बोल गए, लेकिन उन्हें लगा कि जैसे वह कुछ गलत बोल गए हैं.

‘नहींनहीं, सूरदास की हत्या…कभी नहीं. भला कोई सोने के अंडे देने वाली मुरगी की भी हत्या करता है,’ सोचते हुए उन के चेहरे पर मुसकराहट दौड़ने लगी. होंठ फड़फड़ाए, ‘‘गर्भपात.’’

‘‘लेकिन कैसे?’’

‘‘दुनिया बहुत बड़ी है. हम लोग कुछ दिनों के लिए बाहर चले जाएंगे.’’

‘‘लेकिन लड़की उस के लिए तैयार नहीं है.’’

एकबारगी सोहनलाल का चेहरा तमतमा उठा, ‘‘वह क्या चाहती है?’’

‘‘सूरदास से शादी.’’

‘‘बेबी…’’ सोहनलाल ने बेटी को पुकारा. फिर चुपचाप उठे और बेटी के पास जा कर बैठ गए. उस के सिर पर धीरे से हाथ रख कर बोले, ‘‘बेबी, नादानी नहीं करते, कोई भी निर्णय इतनी जल्दी नहीं लेना चाहिए.’’

‘‘पिताजी, आप ने ही तो मुझे सूरदास के हवाले किया था. फिर अब इतने परेशान क्यों हैं?’’ बेबी बोली.

‘‘क्या बकती हो? तुम्हें इतना भी नहीं मालूम कि मैं तुम्हारा बाप हूं.’’

‘‘रिश्ते अपने मूल्य क्यों खो चुके हैं पिताजी, बताइए न? मेरी सहेली क्या आप की बेटी नहीं थी?’’

‘‘बेबी, होश में आओ. तुम्हें मेरा गुस्सा नहीं मालूम.’’

‘‘पिताजी, मैं ने तो सूरदास को अपना पति मान लिया है…’’

‘‘बेबी…तुम्हें मृत्यु से डरना चाहिए.’’

‘‘नहीं पिताजी, मृत्यु से तो कायर डरते हैं.’’

सोहनलाल ने सहसा पूरी ताकत के साथ बेबी की गरदन दबोच ली तो पत्नी चिल्लाई, ‘‘यह आप क्या कर रहे हैं?’’

‘‘समय के साथ समझौता…’’

परंतु तब तक बेबी की आंखें बाहर आ गई थीं और पूरा शरीर ठंडा पड़ गया था.

कमरे में सन्नाटा फैला हुआ था. सोहनलाल की पत्नी प्रस्तर प्रतिमा बनी शून्य में निहार रही थी.

Hindi Story : ऐश्वर्या नहीं चाहिए मुझे – जब वृद्धावस्था में पिताजी को आई अक्ल

Hindi Story : ‘‘उम्र उम्र की बात होती है. जवानी में जो अच्छा लगता है बुढ़ापे में अकसर अच्छा नहीं लगता. इसी को तो कहते हैं जेनरेशन गैप यानी पीढ़ी का अंतर. जब मांबाप बच्चे थे तब वे अपने मांबाप को दकियानूसी कहते थे. अब जब खुद मांबाप बन गए हैं तो दकियानूसी नहीं हैं. अब बच्चे उद्दंड और मुंहजोर हैं. मतलब चित भी मांबाप की और पट भी उन्हीं की. किस्सा यहां समाप्त होता है कि मांबाप सदा ही ठीक थे, वे चाहे आप हों चाहे हम.’’

राघव चाचा मुसकराते हुए कह रहे थे और मम्मीपापा कभी मेरा और कभी चाचा का मुंह देख रहे थे. राघव चाचा शुरू से मस्तमलंग किस्म के इनसान रहे हैं. मैं अकसर सोचा करता था और आज भी सोचता हूं, क्या चाचा का कभी किसी से झगड़ा नहीं होता? चिरपरिचित मुसकान चेहरे पर और नजर ऐसी मानो आरपार सब पढ़ ले.

‘‘इनसान इस संसार को और अपने रिश्तों को सदा अपने ही फीते से नापता है और यहीं पर वह भूल कर जाता है कि उस का फीता जरूरत के अनुसार छोटाबड़ा होता रहता है. अपनी बच्ची का रिश्ता हो रहा हो तो दहेज संबंधी सभी कानून उसे याद होंगे और अपनी बच्ची संसार की सब से सुंदर लड़की भी होगी क्योंकि वह आप की बच्ची है न.’’

‘‘तुम कहना क्या चाहते हो, राघव,’’ पिताजी बोले, ‘‘साफसाफ बात करो न.’’

‘‘साफसाफ ही तो कर रहा हूं. सोमू के रिश्ते के लिए कुछ दिन पहले एक पतिपत्नी आप के घर आए थे…’’

पिताजी ने राघव चाचा की बात बीच में काटते हुए कहा था, ‘‘आजकल सोमू के रिश्ते को ले कर कोई न कोई घर आता ही रहता है. खासकर तब से जब से मैं ने अखबार में विज्ञापन दिया है.’’

‘‘मैं अखबार की बात नहीं कर रहा हूं,’’ राघव चाचा बोले, ‘‘अखबार के जरिए जो रिश्ते आते हैं वे हमारी जानपहचान के नहीं होते. आप ने उन से क्या कहा क्या नहीं, बात बनी, नहीं बनी, किसे पता. दूर से कोई आया, आप से मिला, आप की सुनी, उसे जंची, नहीं जंची, वह चला गया, किसे पता किसे कौन नहीं जंचा. किस ने क्या कहा, किस ने क्या सुना…’’

चाचा के शब्दों पर मैं तनिक चौंक गया. मैं पापा के साथ ही उन के कामकाज मेें हाथ बटाता हूं. आजकल बड़े जोरशोर से मेरे लिए लड़की ढूंढ़ी जा रही है. घर में भी और दफ्तर में भी. कौन किस नजर से आता है, देखतासुनता है वास्तव में मुझे भी पता नहीं होता.

‘‘याद है न जब मानसी के लिए लड़का ढूंढ़ा जा रहा था तब आप की गरदन कैसी झुकी होती थी. उस का रंग सांवला है, उसी पर आप उठतेबैठते चिंता जाहिर करते थे. मैं तब भी आप को यही समझाता था कि रंग गोराकाला होने से कोई फर्क नहीं पड़ता. पूरा का पूरा अस्तित्व गरिमामय हो, उचित पहनावा हो, शालीनता हो तो कोई भी लड़की सुंदर होती है. गोरी चमड़ी का आप क्या करेंगे, जरा मुझे समझाइए. यदि लड़की में संस्कार ही न हुए तो गोरे रंग से ही क्या आप का पेट भर जाएगा? आप का सम्मान ही न करे, जो हवा में तितली की तरह उड़ती फिरे, जो जमीन से कोसों दूर हो, क्या वैसी लड़की चाहिए आप को?

‘‘अच्छा, एक बात और, आप मध्यमवर्गीय परिवार से आते हैं न, जहां दिन चढ़ते ही जरूरतों से भिड़ना पड़ता है. भाभी सारा दिन रसोई में खटती हैं और जिस दिन काम वाली न आए, उन्हें बरतन भी साफ करने पड़ते हैं. यह सोमू भी एक औसत दर्जे का लड़का है, जो पूरी तरह आप के हाथ के नीचे काम करता है. इस की अपनी कोई पहचान नहीं बनी है. आप हाथ खींच लें तो दो वक्त की रोटी भी मुश्किल से कमा सकेगा. आप का बुढ़ापा तभी सुखमय होगा जब संस्कारी बहू आ कर आप से जुड़ जाएगी. कहिए, मैं सच कह रहा हूं कि नहीं?’’

राघव चाचा ने एक बार पूछा तो मम्मीपापा आंखें फाड़फाड़ कर उन का चेहरा देख रहे थे. सच ही तो कह रहे थे चाचा. मेरी अपनी अभी कोई पहचान है कहां. वकालत पढ़ने के बाद पापा की ही तो सहायता कर रहा हूं मैं.

‘‘मेरे एक मित्र की भतीजी है जो मुझे बड़ी प्यारी लगती है. काफी समय से उन के घर मेरा आनाजाना है. वह मुझे अपनीअपनी सी लगती है. सोचा, मेरे ही घर में क्यों न आ जाए. मुझे सोमू के लिए वह लड़की उचित लगी. उस के मांबाप आप का घरद्वार देखने आए थे. मेरे साथ वे नहीं आना चाहते थे, क्योंकि अपने तरीके से वे सब कुछ देखना चाहते थे.’’

‘‘कौन थे वे और कहां से आए थे?’’

‘‘आप ने क्या कहा था उन्हें? आप को तो सुंदर लड़की चाहिए जो ‘ऐश्वर्या राय तो मैं नहीं कहता हो पर उस के आसपास तो हो,’ यही कहा था न आप ने?’’

मैं चाचा की बात सुन कर अवाक् रह गया था. क्या पापा ने उन से ऐसा कहा था? ठगे से पापा जवाब में चुप थे. इस का मतलब चाचा जो कह रहे थे सच है.

‘‘क्या आप अमिताभ बच्चन हैं और आप का बेटा अभिषेक, जिस की लंबाई 5 फुट 7 इंच’ है. आप एक आम इनसान हैं और हम और? क्या आप को ऐश्वर्या राय चाहिए? अपने घर में? क्या ऐश्वर्या राय को संभालने की हिम्मत है आप के बेटे में?… इनसान उतना ही मुंह खोले जितना पचा सके और जितनी चादर हो उतने ही पैर पसारे.’’

‘‘बस करो, राघव,’’ मां तिलमिला कर बोलीं, ‘‘क्या बकबक किए जा रहे हो.’’

‘‘बुरा लग रहा है न सुन कर? मुझे भी लगा था. मुझे सुन कर शर्म आ गई जब उन्होंने मुझ से हाथ जोड़ कर माफी मांग ली. भैया को शर्म नहीं आई अपनी भावी बहू के बारे में विचार व्यक्त करते हुए…भैया, आप किसी राह चलती लड़की पर फबती कसें तो मैं मान लूंगा क्योंकि मैं जानता हूं कि आप कैसे चरित्र के मालिक हैं. पराई लड़कियां आप की नजर में सदा ही पराई रही हैं, जिन पर आप कोई भी फिकरा कस लेते हैं, लेकिन अपनी बहू ढूंढ़ने वाला एक सम्मानजनक ससुर क्या इस तरह की बात करता है, जरा सोचिए. आप तब अपनी बहू के बारे में बात कर रहे थे या किसी फिल्म की हीरोइन के बारे में?’’

पापा ने तब कुछ नहीं कहा. माथे पर ढेर सारे बल समेटे कभी इधर देखते कभी उधर. गलत नहीं कह रहे हैं चाचा. मेरे पापा जब भी किसी की लड़की के बारे में बात करते हैं, तब उन का तरीका सम्मानजनक नहीं होता. इस उम्र में भी वे लड़कियों को पटाखा, फुलझड़ी और न जाने क्याक्या कहते हैं. मुझे अच्छा नहीं लगता पर क्या कर सकता हूं. मां को भी उन का ऐसा व्यवहार पसंद नहीं है.

‘‘अब आप बड़े हो गए हैं भैया. अपना चरित्र जरा सा बदलिए. छिछोरापन आप को नहीं जंचता. हमें स्वप्न सुंदरी नहीं, गृहलक्ष्मी चाहिए, जो हमारे घर में रचबस जाए और लड़की वालों को इतना सस्ता भी न आंको कि उन्हें आप कहीं भी फेंक देंगे. लड़की वाले भी देखते हैं कि कहां उन की बेटी की इज्जत हो पाएगी, कहां नहीं. जिस घर में ससुर ही ऐसी भाषा बोलेगा वहां बाकी सब कैसा बोलते होंगे यह सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है.’’

‘‘कौन थे वे लोग? और कहां से आए थे?’’ मां ने प्रश्न किया.

‘‘वे जहां से भी आए हों पर उन्होंने साफसाफ कह दिया है कि राघवजी, आप के भाई का परिवार बेहद सुंदर है और इतने सुंदर परिवार में हमारी लड़की कहीं भी फिट नहीं बैठ पाएगी. वह एक सामान्य रंगरूप की लड़की है जो हर कार्य और गुण में दक्ष है, लेकिन ऐश्वर्या जैसी किसी भी कोण से नहीं लगती.’’

चाचा उठ खड़े हुए. उड़ती सी नजर मुझ पर डाली, मानो मुझ से कोई राय लेना चाहते हों. क्या वास्तव में मुझे भी कोई रूपसी ही चाहिए, जिस के नखरे भी मैं शायद नहीं उठा पाऊंगा. राह चलते जो रूप की चांदी यहांवहां बिखराती रहे और मैं असुरक्षा के भाव से ही घिरा रहूं. मैं ही कहां का देवपुरुष हूं, जिसे कोई अप्सरा चाहिए. चाचा सच ही कह रहे हैं कि पापा को ऐसा नहीं कहना चाहिए था. मैं ने एकाध बार पापा को समझाया भी था तो उन्होंने मुझे बुरी तरह डांट दिया था, ‘बाप को समझा रहा है. बड़ा मुंहजोर है तू.’

मुझे याद है एक बार मानसी की एक सहेली घर आई थी. पापा ने उसे देख कर मुझ से ही पूछा था :

‘‘सोमू, यह पटाखा कौन है? इस की फिगर बड़ी अच्छी है. तुम्हारी कोई सहेली है क्या?’’

तब पहली बार मुझे बुरा लगा था. वह मानसी की सहेली थी. अगर मानसी किसी के घर जाए और उस घर के लोग उस के शरीर की बनावट को तोलें तो यह जान कर मुझे कैसा लगेगा? यहां तो मेरा बाप ही ऐसी अशोभनीय हरकत कर रहा था.

मेरे मन में एक दंश सा चुभने लगा. कल को मेरे पिता मेरी पत्नी की क्या इज्जत करेंगे? ये तो शायद उस की भी फिगर ही तोलते रहेंगे. मेरी पत्नी में इन्हें ऐश्वर्या जैसा रूप क्यों चाहिए? मैं ने तो इस बारे में कभी सोचा ही नहीं कि मेरी पत्नी कैसी होगी. मेरी बहन  का रंग सांवला है, शायद इसीलिए मुझे सांवली लड़कियां बहुत अच्छी लगती हैं.

मैंने चाचा की तरफ देखा. उन की नजरें बहुत पारखी हैं. उन्होंने जिसे मेरे लिए पसंद किया होगा वह वास्तव में अति सुंदर होगी, इतनी सुंदर कि उस से हमारा घर रोशन हो जाए. मुझे लगा कि पिता की आदत पर अब रोक नहीं लगाऊंगा तो कब लगाऊंगा. मैं ने चाचा को समझाया कि वे उन से दोबारा बात करें.

‘‘सोमू, वह अब नहीं हो पाएगा.’’

चाचा का उत्तर मुझे निरुत्तर कर गया.

‘‘अपने पिता की आदत पर अंकुश लगाओ,’’ चाचा बोले, ‘‘उम्रदराज इनसान को शालीनता से परहेज नहीं होना चाहिए. खूबसूरती की तारीफ करनी चाहिए. मगर गरिमा के साथ. एक बड़ा आदमी सुंदर लड़की को ‘प्यारी सी बच्ची’ भी तो कह सकता है न. ‘पटाखा’ या ‘फुलझड़ी’ कहना अशोभनीय लगता है.’’

चाचा तो चले गए मगर मेरी आंखों के आगे अंधेरा सा छाने लगा. ऐसा लगने लगा कि मेरा पूरा भविष्य ही अंधकार में डूब जाएगा, अगर कहीं पापा और मेरी पत्नी का रिश्ता सुखद न हुआ तो? पापा का अपमान भी मुझ से सहा नहीं जाएगा और पत्नी की गरिमा की जिम्मेदारी भी मुझ पर ही होगी. तब क्या करूंगा मैं जब पापा की जबान पर अंकुश न हुआ तो?

मां ने तो शायद यह सब सुनने की आदत बना ली है. मेरी पत्नी पापा की आदत पचा पाए, न पचा पाए कौन जाने. अभी पत्नी आई नहीं थी लेकिन उस के आने के बाद की कल्पना से ही मैं डरने लगा था.

सहसा एक दिन कुछ ऐसा हो गया जिस से हमारा सारा परिवार ही हिल गया. हमारी कालोनी से सटा एक मौल है जहां पापा एक दिन सिनेमा देखने चले गए. अकेले गए थे इसलिए हम में से किसी को भी पता नहीं था कि कहां गए हैं. शाम के 5 बजे थे. पापा खून से लथपथ घर आए. उन की सफेद कमीज खून से सनी थी. एक लड़की उन्हें संभाले उन के साथ थी. पता चला कि आदमकद शीशा उन्हें नजर ही नहीं आया था और वे उस से जा टकराए थे. नाक का मांस फट गया था जिस वजह से इतना खून बहा था. पापा को बिस्तर पर लिटा कर मां उन की देखभाल में जुट गईं और मैं उस लड़की के साथ बाहर चला आया.

‘‘ये दवाइयां इन्हें खिलाते रहें. टिटनैस का इंजेक्शन मैं ने लगवा दिया है,’’ इतना कहने के बाद उस लड़की ने अपना पर्स खोल कर दवाइयां निकालीं.

‘‘दरअसल इन का ध्यान कहीं और था. ये दूसरी ओर देख रहे थे. लगता है सुंदर चेहरे अंकल को बहुत आकर्षित करते हैं.’’

जबान जम गई थी मेरी. उस ने नजरें उठा कर मुझे देखा और बताने लगी, ‘‘माफ कीजिएगा, मैं भी उन चेहरों के साथ ही थी. जब ये टकराए तब वे चेहरे तो खिलखिला कर अंदर थिएटर में चले गए लेकिन मैं जा नहीं पाई. मेरी पिक्चर छूट गई, इस की चिंता नहीं. मेरे पिताजी की उम्र का व्यक्ति खून से सना हुआ छटपटा रहा है, यह मुझ से देखा नहीं गया.’’

दवाइयों का पुलिंदा और ढेर सारी हिदायतें मुझे दे कर वह सांवली सी लड़की चली गई. अवाक् छोड़ गई मुझे. मेरे पिता पर उस ने कितने पैसे खर्च दिए पूछने का अवसर ही नहीं दिया उस ने.

नाक की चोट थी. पूरी रात हम जागते रहे. सुबह पापा के कराहने से हमारी तंद्रा टूटी. आंखों के आसपास उभर आई सूजन की वजह से उन की आंखें खुली हैं या बंद, यह हमें पता नहीं चल रहा था.

‘‘वह बच्ची कहां गई. बेचारी कहांकहां भटकी मेरे साथ,’’ पापा का स्वर कमजोर था मगर साफ था, ‘‘बड़ी प्यारी बच्ची थी. वह कहां है?’’

पापा का स्वर पहले जैसा नहीं लगा मुझे. उस साधारण सी लड़की को वह बारबार ‘प्यारी बच्ची’ कह रहे थे. बदलेबदले से लगे मुझे पापा. यह चोट शायद उन्हें सच के दर्शन करा गई थी. सुंदर चेहरे उन पर हंस कर चले गए और साधारण चेहरा उन्हें संभाल कर घर छोड़ गया था. एक कमजोर सी आशा जागी मेरे मन में. हो सकता है अब पापा भी मेरी ही तरह कहने लगें, ‘साधारण सी लड़की चाहिए, ऐश्वर्या नहीं चाहिए मुझे.’

Hindi Story : अंतिम मुस्कान – प्राची क्यों शादी के लिए आनाकानी करने लगी?

Hindi Story : ‘‘एकबार, बस एक बार हां कर दो प्राची. कुछ ही घंटों की तो बात है. फिर सब वैसे का वैसा हो जाएगा. मैं वादा करती हूं कि यह सब करने से तुम्हें कोई मानसिक या शारीरिक क्षति नहीं पहुंचेगी.’’

शुभ की बातें प्राची के कानों तक तो पहुंच रही थीं परंतु शायद दिल तक नहीं पहुंच पा रही थीं या वह उन्हें अपने दिल से लगाना ही नहीं चाह रही थी, क्योंकि उसे लग रहा था कि उस में इतनी हिम्मत नहीं है कि वह अपनी जिंदगी के नाटक का इतना अहम किरदार निभा सके.

‘‘नहीं शुभ, यह सब मुझ से नहीं होगा. सौरी, मैं तुम्हें निराश नहीं करना चाहती थी परंतु मैं मजबूर हूं.’’

‘‘एक बार, बस एक बार, जरा दिव्य की हालत के बारे में तो सोचो. तुम्हारा यह कदम उस के थोड़े बचे जीवन में कुछ खुशियां ले आएगा.’’

प्राची ने शुभ की बात को सुनीअनसुनी करने का दिखावा तो किया पर उस का मन दिव्य के बारे में ही सोच रहा था. उस ने सोचा, रातदिन दिव्य की हालत के बारे में ही तो सोचती रहती हूं. भला उस को मैं कैसे भूल सकती हूं? पर यह सब मुझ से नहीं होगा.

मैं अपनी भावनाओं से अब और खिलवाड़ नहीं कर सकती. प्राची को चुप देख कर शुभ निराश मन से वहां से चली गई और प्राची फिर से यादों की गहरी धुंध में खो गई.

वह दिव्य से पहली बार एक मौल में मिली थी जब वे दोनों एक लिफ्ट में अकेले थे और लिफ्ट अटक गई थी. प्राची को छोटी व बंद जगह में फसने से घबराहट होने की प्रौब्लम थी और वह लिफ्ट के रुकते ही जोरजोर से चीखने लगी थी. तब दिव्य उस की यह हालत देख कर घबरा गया था और उसे संभालने में लग गया था.

खैर लिफ्ट ने तो कुछ देर बाद काम करना शुरू कर दिया था परंतु इस घटना ने दिव्य और प्राची को प्यार के बंधन में बांध दिया था. इस मुलाकात के बाद बातचीत और मिलनेजुलने का सिलसिला चल निकला और कुछ ही दिनों बाद दोनों साथ जीनेमरने की कसमें खाने लगे थे. प्राची अकसर दिव्य के घर भी आतीजाती रहती थी और दिव्य के मातापिता और उस की बहन शुभ से भी उस की अच्छी पटती थी.

इसी बीच मौका पा कर एक दिन दिव्य ने अपने मन की बात सब को कह दी, ‘‘मैं प्राची के साथ शादी करना चाहता हूं,’’ किसी ने भी दिव्य की इस बात का विरोध नहीं किया था.

सब कुछ अच्छा चल रहा था कि एक दिन अचानक उन की खुशियों को ग्रहण लग गया.

‘‘मां, आज भी मेरे पेट में भयंकर दर्द हो रहा है. लगता है अब डाक्टर के पास जाना ही पड़ेगा.’’ दिव्य ने कहा और वह डाक्टर के पास जाने के लिए निकल पड़ा.

काफी इलाज के बाद भी जब पेट दर्द का यह सिलसिला एकदो महीने तक लगातार चलता रहा तो कुछ लक्षणों और फिर जांचपड़ताल के आधार पर एक दिन डाक्टर ने कह ही दिया, ‘‘आई एम सौरी. इन्हें आमाशय का कैंसर है और वह भी अंतिम स्टेज का. अब इन के पास बहुत कम वक्त बचा है. ज्यादा से ज्यादा 6 महीने,’’ डाक्टर के इस ऐलान के साथ ही प्राची और दिव्य के प्रेम का अंकुर फलनेफूलने से पहले ही बिखरता दिखाई देने लगा.

आंसुओं की अविरल धारा और खामोशी, जब भी दोनों मिलते तो यही मंजर होता.

‘‘सब खत्म हो गया प्राची, अब तुम्हें मुझ से मिलने नहीं आना चाहिए.’’ एक दिन दिव्य ने प्राची को कह दिया.

‘‘नहीं दिव्य, यदि वह आना चाहती है, तो उसे आने दो,’’ शुभ ने उसे टोकते हुए कहा. ‘‘जितना जीवन बचा है, उसे तो जी लो वरना जीते जी मर जाओगे तुम. मैं चाहती हूं इन 6 महीनों में तुम वह सब करो जो तुम करना चाहते थे. जानते हो ऐसा करने से तुम्हें हर पल मौत का डर नहीं सताएगा.’’

‘‘हो सके तो इस दुख की घड़ी में भी तुम स्वयं को इतना खुशमिजाज और व्यस्त कर लो कि मौत भी तुम तक आने से पहले एक बार धोखा खा जाए कि मैं कहीं गलत जगह तो नहीं आ गई. जब तक जिंदगी है भरपूर जी लो. हम सब तुम्हारे साथ हैं. हम वादा करते हैं कि हम सब भी तुम्हें तुम्हारी बीमारी की गंभीरता का एहसास तक नहीं होने देंगे.’’

बहन के इस ऐलान के बाद उन के घर का वातावरण आश्चर्यजनक रूप से बदल

गया. मातम का स्थान खुशी ने ले लिया था. वे सब मिल कर छोटी से छोटी खुशी को भी शानदार तरीके से मनाते थे, वह चाहे किसी का जन्मदिन हो, शादी की सालगिरह हो या फिर कोई त्योहार. घर में सदा धूमधाम रहती थी.

एक दिन शुभ ने अपनी मां से कहा, ‘‘मां, आप की इच्छा थी कि आप दिव्य की शादी धूमधाम से करो. दिव्य आप का इकलौता बेटा है. मुझे लगता है कि आप को अपनी यह इच्छा पूरी कर लेनी चाहिए.’’

मां उसे बीच में ही रोकते हुए बोलीं, ‘‘देख शुभ बाकी सब जो तू कर रही है, वह तो ठीक है पर शादी? नहीं, ऐसी अवस्था में दिव्य की शादी करना असंभव तो है ही, अनुचित भी है. फिर ऐसी अवस्था में कौन करेगा उस से शादी? दिव्य भी ऐसा नहीं करना चाहेगा. फिर धूमधाम से शादी करने के लिए पैसों की भी जरूरत होगी. कहां से आएंगे इतने पैसे? सारा पैसा तो दिव्य के इलाज में ही खर्च हो गया.’’

‘‘मां, मैं ने कईर् बार दिव्य और प्राची को शादी के सपने संजोते देखा है. मैं नहीं चाहती भाई यह तमन्ना लिए ही दुनिया से चला जाए. मैं उसे शादी के लिए मना लूंगी. फिर यह शादी कौन सी असली शादी होगी, यह तो सिर्फ खुशियां मनाने का बहाना मात्र है. बस आप इस के लिए तैयार हो जाइए.

‘‘मैं कल ही प्राची के घर जाती हूं. मुझे लगता है वह भी मान जाएगी. हमारे पास ज्यादा समय नहीं है. अंतिम क्षण कभी भी आ सकता है. रही पैसों की बात, उन का इंतजाम भी हो जाएगा. मैं सभी रिश्तेदारों और मित्रों की मदद से पैसा जुटा लूंगी,’’ कह कर शुभ ने प्राची को फोन किया कि वह उस से मिलना चाहती है.

और आज जब प्राची ने शुभ के सामने यह प्रस्ताव रखा तो प्राची के जवाब ने शुभ को निराश ही किया था परंतु शुभ ने निराश होना नहीं सीखा था.

‘‘मैं दिव्य की शादी धूमधाम से करवाऊंगी और वह सारी खुशियां मनाऊंगी जो एक बहन अपने भाई की शादी में मनाती है. इस के लिए मुझे चाहे कुछ भी करना पड़े.’’ शुभ अपने इरादे पर अडिग थी.

घर आते ही दिव्य ने शुभ से पूछा, ‘‘क्या हुआ, प्राची मान गई क्या?’’

‘‘हां मान गई. क्यों नहीं मानेगी? वह तुम से प्रेम करती है,’’ शुभ की बात सुन कर दिव्य के चेहरे पर एक अनोखी चमक आ गई जो शुभ के इरादे को और मजबूत कर गई.

शुभ ने दिव्य की शादी के आयोजन की इच्छा और इस के लिए आर्थिक मदद की जरूरत की सूचना सभी सोशल साइट्स पर पोस्ट कर दी और इस पोस्ट का यह असर हुआ कि जल्द ही उस के पास शादी की तैयारियों के लिए पैसा जमा हो गया.

घर में शादी की तैयारियां धूमधाम से शुरू हो गईं. दुलहन के लिए कपड़ों और गहनों का

चुनाव, मेहमानों की खानेपीने की व्यवस्था, घर की साजसजावट सब ठीक उसी प्रकार होने लगा जैसा शादी वाले घर में होना चाहिए.

शादी का दिन नजदीक आ रहा था. घर में सभी खुश थे, बस एक शुभ ही चिंता में डूबी हुई थी कि दुलहन कहां से आएगी? उस ने सब से झूठ ही कह दिया था कि प्राची और उस के घर वाले इस नाटकीय विवाह के लिए राजी हैं पर अब क्या होगा यह सोचसोच कर शुभ बहुत परेशान थी.

‘‘मैं एक बार फिर प्राची से रिक्वैस्ट करती हूं. शायद वह मान जाए.’’ सोच कर शुभ फिर प्राची के घर पहुंची.

‘‘बेटी हम तुम्हारे मनोभावों को बहुत अच्छी तरह समझते हैं और हम तुम्हें पूरा सहयोग देने के लिए तैयार हैं पर प्राची को मनाना हमारे बस की बात नहीं. हमें लगता है कि दिव्य के अंतिम क्षणों में, उसे मौत के मुंह में जाते हुए पर मुसकराते हुए वह नहीं देख पाएगी, शायद इसीलिए वह तैयार नहीं है. वह बहुत संवेदनशील है,’’ प्राची की मां ने शुभ को समझाते हुए कहा.

‘‘पर दिव्य? उस का क्या दोष है, जो प्रकृति ने उसे इतनी बड़ी सजा दी है? यदि वह इतना सहन कर सकता है तो क्या प्राची थोड़ा भी नहीं?’’ शुभ बिफर पड़ी.

‘‘नहीं, तुम गलत सोच रही हो. प्राची का दर्द भी दिव्य से कम नहीं है. वह भी बहुत सहन कर रही है. दिव्य तो यह संसार छोड़ कर चला जाएगा और उस के साथसाथ उस के दुख भी. परंतु प्राची को तो इस दुख के साथ सारी उम्र जीना है. उस की हालत तो दिव्य से भी ज्यादा दयनीय है. ऐसी स्थिति में हम उस पर ज्यादा दबाव नहीं डाल सकते.

‘‘फिर हमें समाज का भी खयाल रखना है. शादी और उस के तुरंत बाद ही दिव्य की मृत्यु. वैधव्य की छाप भी तो लग जाएगी प्राची पर. किसकिस को समझाएंगे कि यह एक नाटक था. यह इतना आसान नहीं है जितना तुम समझ रही हो?’’ प्राची की मां ने शुभ को समझाने की कोशिश की.

उस दिन पहली बार शुभ को दिव्य से भी ज्यादा प्राची पर तरस आया लेकिन यह उस की समस्या का समाधान नहीं था. तभी उस के तेज दिमाग ने एक हल निकाल ही लिया.

वह बोली, ‘‘आंटी जी, बीमारी की वजह से इन दिनों दिव्य को कम दिखाई देने लगा है. ऐसे में हम प्राची की जगह उस से मिलतीजुलती किसी अन्य लड़की को भी दुलहन बना सकते हैं. दिव्य को यह एहसास भी नहीं होगा कि दुलहन प्राची नहीं, बल्कि कोई और है. यदि आप की नजर में ऐसी कोई लड़की हो तो बताइए.’’

‘‘हां है, प्राची की एक सहेली ईशा बिलकुल प्राची जैसी दिखती है. वह अकसर नाटकों में भी भाग लेती रहती है. पैसों की खातिर वह इस काम के लिए तैयार भी हो जाएगी. पर ध्यान रहे शादी की रस्में पूरी नहीं अदा की जानी चाहिए वरना उसे भी आपत्ति हो सकती है.’’

‘‘आप बेफिक्र रहिए आंटी जी, सब वैसा ही होगा जैसा फिल्मों में होता है, केवल दिखावा. क्योंकि हम भी नहीं चाहते हैं कि ऐसा हो और दिव्य भी ऐसी हालत में नहीं है कि वह सभी रस्में निभाने के लिए अधिक समय तक पंडाल में बैठ भी सके.’’

शादी का दिन आ पहुंचा. विवाह की सभी रस्में घर के पास ही एक गार्डन में होनी थीं. दिव्य दूल्हा बन कर तैयार था और अपनी दुलहन का इंतजार कर रहा था कि अचानक एक गाड़ी वहां आ कर रुकी. गाड़ी में से प्राची का परिवार और दुलहन का वेश धारण किए गए लड़की उतरी.

हंसीखुशी शादी की सारी रस्में निभाई जाने लगीं. दिव्य बहुत खुश नजर आ रहा था. उसे देख कर कोई यह नहीं कह सकता था कि यह कुछ ही दिनों का मेहमान है. यही तो शुभ चाहती थी.

‘‘अब दूल्हादुलहन फेरे लेंगे और फिर दूल्हा दुलहन की मांग भरेगा.’’ जब पंडित ने कहा तो शुभ और प्राची के मातापिता चौकन्ने हो गए. वे समझ गए कि अब वह समय आ गया है जब लड़की को यहां से ले जाना चाहिए वरना अनर्थ हो सकता है और वे बोले, ‘‘पंडित जी, दुलहन का जी घबरा रहा है. पहले वह थोड़ी देर आराम कर ले फिर रस्में निभा ली जाएं तो ज्यादा अच्छा रहेगा.’’ कह कर उन्होंने दुलहन जोकि छोटा सा घूंघट ओढ़े हुए थी, को अंदर चलने का इशारा किया.

‘‘नहीं पंडित जी, मेरी तबीयत इतनी भी खराब नहीं कि रस्में न निभाई जा सकें.’’ दुलहन ने घूंघट उठाते हुए कहा तो शुभ के साथसाथ प्राची के मातापिता भी चौक उठे क्योंकि दुलहन कोई और नहीं प्राची ही थी.

शायद जब ईशा को प्राची की जगह दुलहन बनाने का फैसला पता चला होगा तभी प्राची ने उस की जगह स्वयं दुलहन बनने का निर्णय लिया होगा, क्योंकि चाहे नाटक में ही, दिव्य की दुलहन बनने का अधिकार वह किसी और को दे, उस के दिल को मंजूर नहीं होगा.

आज उस की आंखों में आंसू नहीं, बल्कि उस के होंठों पर मुसकान थी. अपना सारा दर्द समेट कर वह दिव्य की क्षणिक खुशियों की भागीदारिणी बन गई थी. उसे देख कर शुभ की आंखों से खुशी और दुख के मिश्रित आंसू बह निकले. उस ने आगे बढ़ कर प्राची को गले से लगा लिया.

यह देख कर दिव्य के चेहरे पर एक अनोखी मुसकान आ गई. ऐसी मुसकान पहले किसी ने उस के चेहरे पर नहीं देखी थी. परंतु शायद वह उस की आखिरी मुसकान थी, क्योंकि उस का कमजोर शरीर इतना श्रम और खुशी नहीं झेल पाया और वह वहीं मंडप में ही बेहोश हो गया.

दिव्य को तुरंत हौस्पिटल ले जाना पड़ा जहां उसे तुरंत आईसीयू में भेज दिया गया. कुछ ही दिनों बाद दिव्य नहीं रहा परंतु जाते समय उस के होंठों पर मुसकान थी.

प्राची का यह अप्रत्याशित निर्णय दिव्य और उस के परिवार वालों के लिए वरदान से कम नहीं  था. वे शायद जिंदगी भर उस के इस एहसान को चुका न पाएं. प्राची के भावी जीवन को संवारना अब उन की भी जिम्मेदारी थी.

Hindi Story : सही समय पर

Hindi Story : कमलेश के साथ मैं ने विवाहित जिंदगी के 30 साल गुजारे थे, लेकिन कैंसर ने उसे हम से छीन लिया. सिर्फ एक रिश्ते को खो कर मैं बेहद अकेला और खाली सा हो गया था.

ऊब और अकेलेपन से बचने को मैं वक्तबेवक्त पार्क में घूमने चला जाता. मन की पीड़ा को भुलाने के लिए कोई कदम उठाना, उस से छुटकारा पा लेने के बराबर नहीं होता है.

आजकल किसी के पास दूसरे के सुखदुख को बांटने के लिए समय ही कहां है. हर कोई अपनी जिंदगी की समस्याओं में पूरी तरह उलझा हुआ है. मेरे दोनों बेटे और बहुएं भी इस के अपवाद नहीं हैं. मैं अपने घर में खामोश सा रह कर दिन गुजार रहा था.

कमलेश से बिछड़े 2 साल बीत चुके थे. एक शाम पापा के दोस्त आलोकजी मुझे हार्ट स्पैशलिस्ट डाक्टर नवीन के क्लीनिक में मिले. उन की विधवा बेटी सरिता उन के साथ थी.

बातोंबातों में मालूम पड़ा कि आलोकजी को एक दिल का दौरा 4 महीने पहले पड़ चुका था. उन की बूढ़ी, बीमार आंखों में मुझे जिंदगी खो जाने का भय साफ नजर आया था.

उन्हें और उन की बेटी सरिता को मैं ने उस दिन अपनी कार से घर तक छोड़ा. तिवारीजी ने अपनी जिंदगी के दुखड़े सुना कर अपना मन हलका करने के लिए मुझे चाय पिलाने के बहाने रोक लिया था.

कुछ देर उन्होंने मेरे हालचाल पूछे और फिर अपने दिल की पीड़ा मुझ से बयान करने लगे, ‘‘मेरा बेटा अमेरिका में अपनी पत्नी व बच्चों के साथ ऐश कर रहा है. वह मेरी मौत की खबर सुन कर भी आएगा कि नहीं मुझे नहीं पता. तुम ही बताओ कि सरिता को मैं किस के भरोसे छोड़ कर दुनिया से विदा लूं?

‘‘शादी के साल भर बाद ही इस का पति सड़क दुर्घटना में मारा गया था. मेरे खुदगर्ज बेटे को जरा भी चिंता नहीं है कि उस की बहन पिछले 24 साल से विधवा हो कर घर में बैठी है. उस ने कभी दिलचस्पी…’’

तभी सरिता चायनाश्ते की ट्रे ले कर कमरे में आई और अपने पापा को टोक दिया, ‘‘पापा, भैया के रूखेपन और मेरी जिंदगी की कहानी सुना कर मनोज को बोर मत करो. मैं टीचर हूं और अपनी देखभाल खुद बहुत अच्छी तरह से कर सकती हूं.’’

चाय पीते हुए मैं ने उस से सवाल पूछ लिया था, ‘‘सरिता, तुम ने दोबारा शादी क्यों नहीं की?’’

‘‘मेरे जीवन में जीवनसाथी का सुख लिखा होता तो मैं विधवा ही क्यों होती,’’ उस ने लापरवाही से जवाब दिया.

‘‘यह तो कोई दलील नहीं हुई. जिंदगी में कोई हादसा हो जाता है तो इस का मतलब यह नहीं कि फिर जिंदगी को आगे बढ़ने का मौका ही न दिया जाए.’’

‘‘तो फिर यों समझ लो कि पापा की देखभाल की चिंता ने मुझे शादी करने के बारे में सोचने ही नहीं दिया. अब किसी और विषय पर बात करें?’’

उस की इच्छा का सम्मान करते हुए मैं ने बातचीत का विषय बदल दिया था.

मैं उन के यहां करीब 2 घंटे रुका. सरिता बहुत हंसमुख थी. उस के साथ गपशप करते हुए समय के बीतने का एहसास ही नहीं हुआ था.

सरिता से मुलाकात होने के बाद मेरी जिंदगी उदासी व नीरसता के कोहरे से बाहर निकल आई थी. मैं हर दूसरेतीसरे दिन उस के घर पहुंच जाता. हमारे बीच दोस्ती का रिश्ता दिन पर दिन मजबूत होता गया था.

कुछ हफ्ते बाद आलोकजी की बाईपास सर्जरी हुई पर वे बेचारे ज्यादा दिन जिंदा नहीं रहे. हमारी पहली मुलाकात के करीब 6 महीने बाद उन्होंने जब अस्पताल में दम तोड़ दिया तब मैं भी सरिता के साथ उन के पास खड़ा था.

‘‘मनोज, सरिता का ध्यान रखना. हो सके तो इस की दूसरी शादी करवा देना,’’ मुझ से अपने दिल की इस इच्छा को व्यक्त करते हुए उन की आवाज में जो गहन पीड़ा व बेबसी के भाव थे उन्हें मैं कभी नहीं भूल सकूंगा.

आलोकजी के देहांत के बाद भी मैं सरिता से मिलने नियमित रूप से जाता रहा. हम दोनों ही चाय पीने के शौकीन थे, इसलिए उस से मिलने का सब से अच्छा बहाना साथसाथ चाय पीने का था.

मेरी जिंदगी अच्छी तरह से आगे बढ़ रही थी कि एक दिन मेरे दोनों बेटे गंभीर मुद्रा बनाए मेरे कमरे में मुझ से मिलने आए थे.

‘‘पापा, आप कुछ दिनों के लिए चाचाजी के यहां रह आओ. जगह बदल जाने से आप का मन बहल जाएगा,’’ बेचैन राजेश ने बातचीत शुरू की.

‘‘मुझे तंग होने को उस छोटे से शहर में नहीं जाना है. वहां न बिजली है न पानी. अगर मन किया तो तुम्हारे चाचा के घर कभी सर्दियों में जाऊंगा,’’ मैं ने अपनी राय उन्हें बता दी.

राजेश ने कुछ देर की खामोशी के बाद आगे कहा, ‘‘कोई भी इंसान अकेलेपन व उदासी का शिकार हो गलत फैसले कर सकता है. पापा, हमें उम्मीद है कि आप कभी ऐसा कोई कदम नहीं उठाएंगे जो समाज में हमें गरदन नीचे कर के चलने पर मजबूर कर दे.’’

‘‘क्या मतलब हुआ तुम्हारी इस बेसिरपैर की बात का? तुम ढकेछिपे अंदाज में मुझ से क्या कहना चाह रहे हो?’’ मैं ने माथे में बल डाल लिए.

रवि ने मेरा हाथ पकड़ कर भावुक लहजे में कहा, ‘‘हम मां की जगह किसी दूसरी औरत को इस घर में देखना कभी स्वीकार नहीं कर पाएंगे, पापा.’’

‘‘पर मेरे मन में दूसरी शादी करने का कोई विचार नहीं है फिर तुम इस विषय को क्यों उठा रहे हो?’’ मैं नाराज हो उठा था.

‘‘वह चालाक औरत आप की परेशान मानसिक स्थिति का फायदा उठा कर आप को गुमराह कर सकती है.’’

‘‘तुम किस चालाक औरत की बात कर रहे हो?’’

‘‘सरिता आंटी की.’’

‘‘पर वह मुझ से शादी करने की बिलकुल इच्छुक नहीं है.’’

‘‘और आप?’’ राजेश ने तीखे लहजे में सवाल किया.

‘‘वह इस समय मेरी सब से अच्छी दोस्त है. मेरी जिंदगी की एकरसता को मिटाने में उस ने बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है,’’ मैं ने धीमी आवाज में उन्हें सच बता दिया.

‘‘पापा, आप खुद समझदार हैं और हमें विश्वास है कि हमारे दिल को दुखी करने वाला कोई गलत कदम आप कभी नहीं उठाएंगे,’’ राजेश की आंखों में एकाएक आंसू छलकते देख मैं ने आगे कुछ कहने के बजाय खामोश रहना ही उचित समझा था.

अगली मुलाकात होने पर जब मैं ने सरिता को अपने बेटों से हुई बातचीत की जानकारी दी तो वह हंस कर बोली थी, ‘‘मनोज, तुम मेरी तरह मस्त रहने की आदत डाल लो. मैं ने देखा है कि जो भी अच्छा या बुरा इंसान की जिंदगी में घटना होता है, वह अपने सही समय पर घट ही जाता है.’’

‘‘तुम्हारी यह बात मेरी समझ में ढंग से आई नहीं है, सरिता. तुम कहना क्या चाह रही हो?’’ मेरे इस सवाल का जवाब सरिता ने शब्दों से नहीं बल्कि रहस्यपूर्ण अंदाज में मुसकरा कर दिया था.

सप्ताह भर बाद मैं शाम को पार्क में बैठा था तब तेज बारिश शुरू हो गई. बारिश करीब डेढ़ घंटे बाद रुकी और मैं पूरे समय एक पेड़ के नीचे खड़ा भीगता रहा था.

रात होने तक शरीर तेज बुखार से तपने लगा और खांसीजुकाम भी शुरू हो गया. 3 दिन में तबीयत काफी बिगड़ गई तो राजेश और रवि मुझे डाक्टर को दिखाने ले गए.

उन्होंने चैकअप कर के बताया कि मुझे निमोनिया हो गया है और उन की सलाह पर मुझे अस्पताल में भरती होना पड़ा.

तब तक दोनों बहुएं औफिस जा चुकी थीं. राजेश और रवि दोनों गंभीर मुद्रा में यह फैसला करने की कोशिश कर रहे थे कि मेरे पास कौन रुके. दोनों को ही औफिस जाना जरूरी लग रहा था.

तब मैं ने बिना सोचविचार में पड़े सरिता को फोन कर अस्पताल में आने के लिए बड़े हक से कह दिया था.

सरिता को बुला लेना मेरे दोनों बेटों को अच्छा तो नहीं लगा पर मैं ने साफ नोट किया कि उन की आंखों में राहत के भाव उभरे थे. अब वे दोनों ही बेफिक्र हो कर औफिस जा सकते थे.

कुछ देर बाद सरिता उन दोनों के सामने ही अस्पताल आ पहुंची और आते ही उस ने मुझे डांटना शुरू कर दिया, ‘‘क्या जरूरत थी बारिश में इतना ज्यादा भीगने की? क्या किसी रोमांटिक फिल्म के हीरो की तरह बारिश में गाना गा रहे थे.’’

‘‘तुम्हें तो पता है कि मैं ट्रेजडी किंग हूं, रोमांटिक फिल्म का हीरो नहीं,’’ मैं ने मुसकराते हुए जवाब दिया.

‘‘तुम्हारे पापा से बातों में कोई नहीं जीत सकता,’’ कहते हुए वह राजेश और रवि की तरफ देख कर बड़े अपनेपन से मुसकराई और फिर कमरे में बिखरे सामान को ठीक करने लगी.

‘‘बिलकुल यही डायलाग कमलेश हजारों बार अपनी जिंदगी में मुझ से बोली होगी,’’ मेरी आंखों में अचानक ही आंसू भर आए थे.

तब सरिता भावुक हो कर बोली, ‘‘यह मत समझना कि दीदी नहीं हैं तो तुम अपनी सेहत के साथ खिलवाड़ कर सकते हो. समझ लो कि कमलेश दीदी ने तुम्हारी देखभाल की जिम्मेदारी मुझे सौंपी है.’’

‘‘तुम तो उस से कभी मिली ही नहीं, फिर यह जिम्मेदारी तुम्हें वह कब सौंप गई?’’

‘‘वे मेरे सपने में आई थीं और अब अपने बेटों के सामने मुझ से डांट नहीं खाना चाहते तो ज्यादा न बोल कर आराम करो,’’ उस की डांट सुन कर मैं ने किसी छोटे बच्चे की तरह अपने होंठों पर उंगली रखी तो राजेश और रवि भी मुसकरा उठे थे.

मेरे बेटे कुछ देर बाद अपनेअपने औफिस चले गए थे. शाम को दोनों बहुएं मुझ से मिलने औफिस से सीधी अस्पताल आई थीं. सरिता ने फोन कर के उन्हें बता दिया था कि मेरे लिए घर से कुछ लाने की जरूरत नहीं है क्योंकि मेरे लिए खाना तो वही बना कर ले आएगी.

मैं 4 दिन अस्पताल में रहा था. इस दौरान सरिता ने छुट्टी ले कर मेरी देखभाल करने की पूरी जिम्मेदारी अकेले उठाई थी. मेरे बेटेबहुओं को 1 दिन के लिए भी औफिस से छुट्टी नहीं लेनी पड़ी थी. सरिता और उन चारों के बीच संबंध सुधरने का शायद यही सब से अहम कारण था.

अस्पताल छोड़ने से पहले मैं ने सरिता से अचानक ही संजीदा लहजे में पूछा था, ‘‘क्या हमें अब शादी नहीं कर लेनी चाहिए?’’

‘‘अभी ऐसा क्या खास घटा है जो यह विचार तुम्हारे मन में पैदा हुआ है?’’ उस ने अपनी आंखों में शरारत भर कर पूछा.

‘‘तुम ने मेरी देखभाल वैसे ही की है जैसे एक पत्नी पति की करती है. दूसरे, मेरे बेटेबहुएं तुम से अब खुल कर हंसनेबोलने लगे हैं. मेरी समझ से यह अच्छा मौका है उन्हें जल्दी से ये बता देना चाहिए कि हम शादी करना चाहते हैं.’’

सरिता ने आंखों में खुशी भर कर कहा, ‘‘अभी तो तुम्हारे बेटेबहुओं के साथ मेरे दोस्ताना संबंधों की शुरुआत ही हुई है, मनोज. इस का फायदा उठा कर मैं पहले तुम्हारे घर आनाजाना शुरू करना चाहती हूं.’’

‘‘हम शादी करने की अपनी इच्छा उन्हें कब बताएंगे?’’

‘‘इस मामले में धैर्य रखना सीखो, मेरे अच्छे दोस्त,’’ उस ने पास आ कर मेरा हाथ प्यार से पकड़ लिया, ‘‘कल तक वे सब मुझे नापसंद करते थे, पर आज मेरे साथ ढंग से बोल रहे हैं. कल को हमारे संबंध और सुधरे तो शायद वे स्वयं ही हम दोनों पर शादी करने को दबाव डालेंगे.’’

‘‘क्या ऐसा कभी होगा भी?’’ मेरी आवाज में अविश्वास के भाव साफ झलक रहे थे.

‘‘जो होना होता है सही समय आ जाने पर वह घट कर रहता है,’’ उस ने मेरा हाथ होंठों तक ला कर चूम लिया था.

‘‘पर मेरा दिल…’’ मैं बोलतेबोलते झटके से चुप हो गया.

‘‘हांहां, अपने दिल की बात बेहिचक बोलो.’’

‘‘मेरा दिल तुम्हें जीभर कर प्यार करने को करता है,’’ अपने दिल की बात बता कर मैं खुद ही शरमा गया था.

पहले खिलखिला कर वह हंसी और फिर शरमाती हुई बोली, ‘‘मेरे रोमियो, अपनी शादी के मामले में हम बच्चों को साथ ले कर चलेंगे. जल्दबाजी में हमें ऐसा कुछ नहीं करना है जिस से उन का दिल दुखे. मेरी समझ से चलोगे तो ज्यादा देर नहीं है जब वे चारों ही मुझे अपनी नई मां का दर्जा देने को खुशीखुशी तैयार हो जाएंगे.’’

‘‘तुम सचमुच बहुत समझदार हो, सरिता,’’ मैं ने दिल से उस की तारीफ की.

‘‘थैंक यू,’’ उस ने आगे झुक कर मेरे होंठों को पहली बार प्यार से चूमा तो मेरे रोमरोम में खुशी की लहर दौड़ गई थी…

सही समय की शुरुआत हो चुकी थी.

Hindi Story: लिस्ट – क्या सच में रिया का कोई पुरुष मित्र था?

Hindi Story : संडे के दिन लंच के बाद मैं सारे काम निबटा कर डायरी उठा कर बैठ गई. मेहमानों की लिस्ट भी तो बनानी थी. 20 दिन बाद हमारे विवाह की 25वीं सालगिरह थी. एक बढि़या पार्टी की तैयारी थी.

आलोक भी पास आ कर बैठ गए. बोले, ‘‘रिया, बच्चों को भी बुला लो. एकसाथ बैठ कर देख लेते हैं किसकिस को बुलाना है.’’

मैं ने अपने युवा बच्चों सिद्धि और शुभम को आवाज दी, ‘‘आ जाओ बच्चो, गैस्ट लिस्ट बनानी है.’’

दोनों फौरन आ गए. कोई और काम होता तो इतनी फुरती देखने को न मिलती. दोनों कुछ ज्यादा ही उत्साहित थे. अपने दोस्तों को जो बुलाना था. डीजे होगा, डांस करना है सब को. एक अच्छे होटल में डिनर का प्लान था.

मैं ने पैन उठाते हुए कहा, ‘‘आलोक, चलो आप से शुरू करते हैं.’’

‘‘ठीक है, लिखो. औफिस का बता देता हूं. सोसायटी के हमारे दोस्त तो कौमन ही हैं,’’ उन्होंने बोलना शुरू किया, ‘‘रमेश, नवीन, अनिल, विकास, कार्तिक, अंजलि, देविका, रंजना.’’

आखिर के नाम पर मैं ने आलोक को देखा तो उन्होंने बड़े स्टाइल से कहा, ‘‘अरे, ये भी तो हैं औफिस में…’’

‘‘मैं ने कुछ कहा?’’ मैं ने कहा.

‘‘देखा तो घूर कर.’’

‘‘यह रंजना मुझे कभी पसंद नहीं आई.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘तुम जानते हो, उस का इतना मटकमटक कर बा करना, हर पार्टी में तुम सब कुलीग्स के गले में हाथ डालडाल कर बातें करना बहुत बुरा लगता है. ऐसी उच्छृंखल महिलाएं मुझे कभी अच्छी नहीं लग सकतीं.’’

‘‘रिया, ऐसी छोटीछोटी बातें मत सोचा करो. आजकल जमाना बदल गया है. स्त्रीपुरुष की दोस्ती में ऐसी छोटीछोटी बातों पर कोई ध्यान नहीं देता… अपनी सोच का दायरा बढ़ाओ.’’

मैं चुप रही. क्या कहती. आलोक के प्रवचन सुन कर कुछ कटु शब्द कह कर फैमिली टाइम खराब नहीं करना चाहती थी. अत: चुप ही रही.  फिर मैं ने शुभम से कहा, ‘‘अब तुम लिखवाओ अपने दोस्तों के नाम.’’

शुभम शुरू हो गया, ‘‘रचना, शिवानी, नव्या, अंजलि, टीना, विवेक, रजत, सौरभ…’’

मैं बीच में ही हंस पड़ी, ‘‘लड़कियां कुछ ज्यादा नहीं हैं लिस्ट में?’’

‘‘हां मौम, खूब दोस्त हैं मेरी,’’ कह वह और भी नाम बताता रहा और मैं लिखती रही.

‘‘यह हमारी शादी की सालगिरह है या तुम लोगों का गैट टु गैदर,’’ मैं ने कहा.

‘‘अरे मौम, सब वेट कर रहे हैं पार्टी का… नव्या और रचना तो डांस की प्रैक्टिस भी करने लगी हैं… दोनों सोलो परफौर्मैंस देंगी.’’

सिद्धि ने कहा, ‘‘चलो मौम, अब मेरे दोस्तों के नाम लिखो- आशु, अभिजीत, उत्तरा, भारती, शिखर, पार्थ, टोनी, राधिका.’’

उस ने भी कई नाम लिखवाए और मैं लिखती रही. शुभम ने उसे छेड़ा, ‘‘देखो मौम, इस की लिस्ट में भी कई लड़के हैं न?’’

सिद्धि ने कहा, ‘‘चुप रहो, आजकल सब दोस्त होते हैं. हम लोग पार्टी का टाइम पूरी तरह ऐंजौय करने वाले हैं… आप देखना मौम आशु कितना अच्छा डांसर है.’’ इसी बीच आलोक को औफिस की 2 और लड़कियों के नाम याद आ गए. मैं ने वे भी लिख लिए.

‘‘हमारे दोस्तों की लिस्ट तो बन गई मौम. लाओ, मुझे डायरी और पैन दो मैं आप की फ्रैंड्स के नाम लिखूंगी,’’ सिद्धि बोली.

‘‘अरे, तुम्हारी मम्मी की लिस्ट तो मैं ही बता देता हूं,’’ मैं कुछ कहती उस से पहले ही आलोक बोल उठे तो मैं मुसकरा दी.

आलोक बताने लगे, ‘‘नीरा, मंजू, नीलम, विनीता, सुमन, नेहा… कुछ और भी होंगी किट्टी पार्टी की सदस्याएं… हैं न?’’  तब मैं ने 4-5 नाम और बताए. फिर अचानक कहा, ‘‘बस एक नाम और लिख लो, शरद.’’

‘‘यह कौन है?’’ तीनों चौंक उठे.

‘‘मेरा दोस्त है.’’

‘‘क्या? कभी नाम नहीं सुना… कौन है? इसी सोसायटी में रहता है?’’

तीनों के चेहरों के भाव देखने लायक थे.

आलोक ने कहा, ‘‘कभी तुम ने बताया नहीं. मुझे समझ नहीं आ रहा कौन है?’’

‘‘बताने को तो कुछ खास नहीं है. ऐसे ही कुछ दोस्ती है… मेरा मन कर रहा है कि मैं उसे भी सपरिवार इस पार्टी में बुला लूं. इसी सोसायटी में रहता है. 1 छोटी सी बेटी है. कई बार उसे सपरिवार घर बुलाने की सोची पर बुला नहीं पाई. अब पार्टी है तो मौका भी है… तुम लोगों को अच्छा लगेगा उस से मिल कर. अच्छा लड़का है.’’  तीनों को तो जैसे सांप सूंघ गया. माहौल एकदम  बदल गया. एकदम हैरत भरा, गंभीर माहौल.

आलोक के मुंह से फिर यही निकला, ‘‘तुम ने कभी बताया नहीं.’’

‘‘क्या बताना था… इतनी बड़ी बात नहीं थी.’’

‘‘कहां मिला तुम्हें यह?’’

‘‘लाइब्रेरी में मिल जाता है कभीकभी. मेरी तरह ही पढ़नेलिखने का शौकीन है… वहीं थोड़ी जानपहचान हो गई.’’

‘‘उस की पत्नी से मिली हो?’’

‘‘बस उसे देखा ही है. बात तो कभी नहीं हुई. अब सपरिवार बुलाऊंगी तो मिलना हो जाएगा.’’

शुभम ने कहा, ‘‘मौम, कुछ अजीब सा लग रहा है सुन कर.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘पता नहीं मौम, आप के मुंह से किसी मेल फ्रैंड की बात अजीब सी लग रही है.’’

सिद्धि ने भी कहा, ‘‘मौम, मुझे भी आप से यह उम्मीद तो कभी नहीं रही.’’

‘‘कैसी उम्मीद?’’

‘‘यही कि आप किसी लड़के से दोस्ती करेंगी.’’

‘‘क्यों, इस में इतनी नई क्या बात है? जमाना बदल गया है न. स्त्रीपुरुष की मित्रता तो सामान्य सी बात है न. मैं तो थोड़ी देर पहले आप लोगों के विचार सुन कर खुश हो रही थी कि मेरा परिवार इतनी आधुनिक सोच रखता है, तो मेरे भी दोस्त से मिल कर खुश होगा.’’

अभी तक तीनों के चेहरे देखने लायक थे. तीनों को जैसे कोई झटका लगा था.  आलोक ने अचानक कहा, ‘‘अभी थोड़ा लेटने का मन हो रहा है. बच्चो, तुम लोग भी अपना काम कर लो. बाकी तैयारी की बातें बाद में करते हैं.’’  बच्चे मुंह लटकाए हुए चुपचाप अपने  रूम में चले गए. आलोक ने लेट कर आंखों पर हाथ रख लिया. मैं वहीं बैठेबैठे शरद के बारे में सोचने लगी…  साल भर पहले लाइब्रेरी में मिला था. वहीं थोड़ीबहुत कुछ पुस्तकों पर, पत्रिकाओं पर बात होतेहोते कुछ जानपहचान हो गई थी. वह एक स्कूल में हिंदी का टीचर है. उस की पत्नी भी टीचर है और बेटी तो अभी तीसरी क्लास में  ही है. उस का सीधासरल स्वभाव देख कर ही उस से बात करने की इच्छा होती है मेरी. कहीं कोई अमर्यादित आचरण नहीं. बस, वहीं खड़ेखड़े कुछ साहित्यिक बातें, कुछ लेखकों का जिक्र, बस यों ही आतेजाते थोड़ीबहुत बातें… मुझे तो उस का घर का पता या फोन नंबर भी नहीं पता… उसे बुलाने के लिए मुझे लाइब्रेरी के ही चक्कर काटने पड़ेंगे.

खैर, वह तो बाद की बात है. अभी तो मैं अपने परिवार की स्त्रीपुरुष मित्रता पर आधुनिक सोच के डबल स्टैंडर्ड पर हैरान हूं. शरद का नाम सुन कर ही घर का माहौल बदल गया. मैं कुछ हैरान थी. मैं तो कितनी सहजता से तीनों के दोस्तों की लिस्ट बना रही थी. मेरी लिस्ट में एक लड़के का नाम आते ही सब का मूड खराब हो गया. पहले तो मुझे थोड़ी देर तक बहुत गुस्सा आता रहा, फिर अचानक मेरा दिल कुछ और सोचने लगा.

इन तीनों को मेरे मुंह से एक पुरुष मित्र का नाम सुन कर अच्छा नहीं लगा… ऐसा क्यों हुआ? वह इसलिए ही न कि तीनों मुझे ले कर पजैसिव हैं तीनों बेहद प्यार करते हैं मुझ से, जैसेजैसे मैं इस दिशा में सोचती गई मेरा मन हलका होता गया. कुछ ही पलों में डबल स्टैंडर्ड के साथसाथ मुझे इस बात में भी बहुत सा स्नेह, प्यार, सुरक्षा, अधिकार की भावना महसूस होने लगी. फिर मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं रही. मुझे कुछ हुत अच्छा लगा.  अचानक फिर तीनों के साथ बैठने का मन हुआ तो मैं ने जोर से  आवाज दी, ‘‘अरे, आ जाओ सब. मैं तो मजाक कर रही थी. मैं तो तुम लोगों को चिढ़ा रही थी.’’

आलोक ने फौरन अपनी आंखों से हाथ हटाया, ‘‘सच? झूठ क्यों बोला?’’

बच्चे फौरन हाजिर हो गए, ‘‘मौम, झूठ  क्यों बोला?’’

‘‘अरे, तुम लोग इतनी मस्ती, मजाक करते रहते हो, तो क्या मैं नहीं तुम्हें चिढ़ा सकती?’’

सिद्धि ने फरमाया, ‘‘फिर भी मौम, ऐसे मजाक भी न किया करें… बहुत अजीब लगा था.’’

शुभम ने भी हां में हां मिलाई, ‘‘हां मौम, मुझे भी बुरा लगा था.’’

आलोक मुसकराते हुए उठ कर बैठ चुके थे, ‘‘तुम ने तो परेशान कर दिया था सब को.’’

अब फिर वही पार्टी की बातें थीं और  मैं मन ही मन अपने सच्चेझूठे मजाक पर मुसकराते हुए बाकी तैयारी की लिस्ट में व्यस्त हो गई. लेकिन मन के एक कोने में शरद की याद और ज्यादा पुख्ता हो गई. उसे तो किसी दिन बुलाना ही होगा. मैरिज ऐनिवर्सरी पर नहीं तो किसी और दिन.

Hindi Story: बाढ़ – जब अनीता ने फंसाया अपने सीधे-सादे पति अमित को!

Hindi Story, लेखिका- नमिता दुबे

अनिता बचपन से मनमौजी, महत्त्वाकांक्षी और बिंदास थी. दोस्तों के साथ घूमना, पार्टी करना और उपहार लेनादेना उसे बहुत पसंद था. बहुतकुछ करना चाहती थी, किंतु वह अपने लक्ष्य पर कभी केंद्रित न हो सकी. बमुश्किल वह एमबीए कर सकी थी, तब उस के मातापिता अच्छे दामाद की खोज मे लग गए.

उस समय अनिता मानसिकतौर पर शादी के लिए तैयार नहीं थी. अपनी लाड़ली की मंशा से अनजान पिता जब सीधेसादे अमित से मिले तो उन्हें मुराद पूरी होती दिखी.

अमित डाक्टर था. वह प्रैक्टिस करने के साथ ही एमएस की तैयारी कर रहा था. अमित के पिता की 7 वर्षों पहले एक दुर्घटना में मौत हो गई थी. अमित का बड़ा भाई अमेरिका मे डाक्टर था, वह विदेशी लड़की से शादी कर वहीं बस गया था. घर में सिर्फ मां थी जो बहुत ही शालीन महिला थी और गांव के घर में रहती थी. इस विश्वास के साथ कि उस घर में उन की लाड़ली सुकून से रह सकती है, उन्होंने अमित से अनिता की शादी तय कर दी. अमित पहले तो शादी के लिए तैयार ही नहीं था किंतु अनीता के पापा में अपने पापा की छवि की अनुभूति ने उसे राजी कर लिया.

डाक्टर अमित को जीवन के थपेड़ों ने बचपन में ही बड़ा बना दिया था. पिता की मृत्यु के बाद मां को संभालते हुए डाक्टरी की पढ़ाई करना आसान न था. अमित आधुनिकता से दूर, अपने काम से काम रखने वाला अंतर्मुखी लड़का था. उस की दुनिया सिर्फ मां तक ही सीमित थी.

शादी के बाद अमित पत्नी अनिता को ले कर भोपाल आ बसा. उस ने अनिता को असीम प्यार और विश्वास से सराबोर कर दिया. अल्हड़ अनिता आधुनिकता के रंग में रंगी अतिमहत्त्वाकांक्षी लड़की थी. वह खुद भी नहीं जानती थी कि वह चाहती क्या है? अनिता अपने पिता के इस निर्णय से कभी खुश नहीं हुई, किंतु परिवार के दबाव में आ कर उसे अमित के साथ शादी के लिए हां कहना पड़ा.

अमित अपनी एमएस की तैयारी में लगे होने से अनिता को ज्यादा समय नहीं दे पा रहा था. वह उस की भावनाओं का सम्मान तो करता था लेकिन वक्त की नज़ाकत को देख उस ने अनिता को समझाया कि, बस, 2 वर्षों की बात है, उस का एमएस पूरा हो जाए, फिर उस के पास समय की कमी नहीं होगी. तब दोनों जीवन का भरपूर आनंद लेंगे.

क्लब, दोस्तों और पार्टियों मे समय बिताने वाली अनिता को अमित के साथ चल रही नीरस ज़िंदगी रास नहीं आ रही थी. अमित का पूरा फोकस पढ़ाई पर था. वह चाहता था अनिता भी आगे पढ़े. उस ने उसे प्रोत्साहित भी किया. उस की हर इच्छा पूरी करता, उस के सारे नखरे उठाता था क्योंकि कहीं न कहीं उसे समय न दे पाने की मजबूरी उसे परेशान करती थी.

अमित की भावनाओं से बेखबर अनिता बहुत मनमौजी होती जा रही थी. वह कई रातें अपनी दोस्तों के साथ होस्टल मे बिताने लगी. उसे पता ही नहीं चला वह कब गलत संगत मे फंस चुकी थी. उस की सहेलियां अमित को ले कर ताने भी मारतीं. अब उसे भी अमित से नफरत होने लगी थी. इस के लिए अब वह अपने मांपिता को जिम्मेदार समझने लगी. जितना अमित उस के प्यार को समेटने की कोशिश करता, उतनी ही उस में नफरत की आग भड़क उठती.

अमित की परीक्षा नजदीक आ गई थी. इधर अनीता का व्यवहार पल में तोला पल में माशा होता. कभी तो वह अमित को मोहब्बत के सुनहरे सब्जबाग दिखाती, कभी सीधे मुंह बात भी न करती.

एक दिन अमित की नाइट ड्यूटी थी. तब अनिता ने अपनी दोस्त सारिका को अपने घर बुला लिया. दोनों ने दिनभर पिक्चर देखी और खूब गपें मारीं. रात में बहुतरात तक लैपटौप पर पिक्चर देखती रहीं. सुबह जब अमित हौस्पिटल से लौटा तब दोनों नींद से उनींदी हो रही थीं.

नाइट ड्यूटी से लौटा अमित थका हुआ था. अनिता पति अमित को वहीं खीच लाई जहां सारिका सो रही थी. पलभर के लिए तो अमित सकपका गया, फिर संभलते हुए कहा कि तुम आराम करो, मैं बाहर सोफे पर सो जाऊंगा. उसे समझ पाना अमित के लिए मुश्किल हो रहा था.

उस दिन अनिता अपनी पहली वैडिंग एनिवर्सरी की तैयारी में जुटी थी. उस ने अमित के लिए इम्पोर्टेड महंगी घडी और्डर कर दी थी. अमित भी बहुत खुश था और मन ही मन एक रोमांटिक डिनर प्लान कर चुका था. अमित जल्दी से अपना काम निबटा कर हौस्पिटल से निकल गया. हालांकि परीक्षा होने में सिर्फ 10 दिन थे लेकिन आज वह अपना पूरा दिन अनिता को देना चाहता था, इसलिए ही उस ने नाइट ड्यूटी की थी.

लाल शिफौन की साड़ी पर खुली हुईं घुंघराली व लहराती काली जुल्फ़ें अनिता की सुंदरता में चारचांद लगा रही थीं. अमित जैसे ही घर आया, अनिता की बला की खूबसूरती और उसे बेसब्री से अपना इंतज़ार करते देख मंत्रमुग्ध हो गया. घर में हर सामान बहुत सलीके से रखा था. पूरा घर रजनीगंधा की महक से महक रहा था. अमित के आते ही अनिता बांहों का हार डाल उस से लिपट गई, धीरे से कान में फुसफुसाई, ‘आय लव यू अमित. रियली, आय मिस यू अमित. मिस यू वेरी मच माय डियर.’

अमित इस बदलाव से आश्चर्यचकित था, मन ही मन सोच रहा था कहीं गलती से वह दूसरे घर में तो नहीं आ गया. उस ने खुद को चिकोटी काटी. तभी अनीता ने उसे प्यार से धक्का देते हुए कहा, “अब यों ही बुत बने खड़े रहोगे या…?” “ओह, मैं अभी आया फ्रेश हो कर.” अमित को आज पहली बार अनिता के निश्च्छल प्रेम की अनुभूति हुई थी और वह उस में पूरी तरह डूब जाना चाहता था. अनिता ने जल्दी से 2 गिलास शरबत तैयार किया. जब तक अमित फ्रेश हो कर आया तब तक अनिता अपना शरबत ख़त्म कर चुकी थी. अमित के आते ही उस ने अपने हाथों से उसे शरबत पिलाया. फिर दोनों ने मिल कर केक काटा, साथ ही, अपना वीडियो भी बनाया. और फिर गिफ्ट में अनिता ने अमित को सुंदर घड़ी पहना दी. अमित भी कहां मौका चूकने वाला था, उस ने भी हीरे के लौकेट की प्लेटिनम चेन अनिता को पहना दी.

लेकिन, यह क्या… थोड़ी देर बाद ही अमित उलटियां करने लगा. पूरा कमरा उलटी से भर चुका था. फिर वह धीरेधीरे होश खोते फर्श पर गिर पड़ा. कुछ देर बाद खुद को जख्मी कर, अनिता पड़ोस में रहने वाली आंटी को बता रही थी कि आज अमित नशा कर के आया और देखो आंटी, उस ने मुझे मारा भी!

“अरे, ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ. कहां है वो? मैं उस से जा कर बात करती हूं, कहती हुई आंटी उठ खड़ी हुईं.

“अरे नहीं आंटी, वह तो उलटियां कर के औंधा पड़ा है,” कहती हुई अनिता ने आंटी को रोक दिया.

अमित की ऐसी बदसलूकी पर कोई यकीन नहीं कर रहा था. थोड़ी देर बाद अमित को अस्पताल ले जाया गया जहां इलाज़ के दौरान पता चला कि यह ज्यादा मात्रा में नींद की गोली का परिणाम है.

अनिता का एक नया रूप सामने आ चुका था. अमित की सज्जनता से सभी परिचित थे, इसलिए अनिता द्वारा लगाए आरोपों को किसी ने भी सच नहीं माना, यहां तक कि अनिता के मांबाप ने भी अमित की खूबियां बताते हुए अनिता को समझाने का असफल प्रयास किया.

बौखलाई अनिता की नफ़रत अब अपने चरम पर थी. अमित कुछ समझ पाता, इस से पहले ही अनिता ने अमित के विरुद्ध मोरचा तान दिया. थाने में घरेलू हिंसा, प्रताड़ना, दहेज़ के केस दायर हो चुके थे. पढ़ाई छोड़ अमित कोर्ट और थाने के चक्करों में उलझ कर रह गया. 10 दिनों बाद होने वाली परिक्षा को पास करने में उसे 2 वर्ष लग गए.

3 वर्षों बाद 15 लाख रुपए दे कर आपसी सुलह से जैसेतैसे केस निबटा कर अमित जब घर आया तो मां की सूनीनिरीह आंखों से अश्रुधारा बह निकली. आखिर क्या दोष था अमित का? अमित तो जैसा कल था वैसा ही आज भी है, फिर यदि अनिता को अमित उस के ख्वाबों का राजकुमार नहीं लगा था तो अनिता शादी के लिए तैयार ही क्यों हुई? क्या अनिता की महत्त्वाकांक्षा से उस के मांबाप परिचित न थे? आज अमित की मां भी इसी निष्कर्ष पर थी कि लड़की की इच्छाओं को, उस की महत्त्वाकांक्षाओं को समझना चाहिए. कहीं ऐसा न हो कि मांबाप योग्य लड़का देख, अपनी बेटी की शादी कर, अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लें और उधर लड़की की उछलती महत्त्वाकांक्षाओं की लहरें बाढ़ बन कर, न जाने कितनों को हताहत कर जाएं.

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