लेखक- डा. करुणा उमरे

सबकुछ हंसीखुशी चल रहा था. लेकिन एक दिन डा. अनिल ने मेरे पति के गंभीर रोग के बारे में बताते हुए इन्हें शहर के किसी अच्छे डाक्टर को दिखाने की सलाह दी. मेरी सहूलियत के लिए उन्होंने किसी डाक्टर शेखर के नाम एक पत्र भी लिख कर दिया था.

बड़े भैया दिल्ली में रहते हैं. उन से फोन पर बात कर के पूछा तो कहने लगे, ‘‘अपना घर है, तुम ने पूछा है, इस का मतलब हम लोग गैर हो गए,’’ और न जाने कितना कुछ कहा था. इस के बाद ही हम लोगों ने दिल्ली जाने का कार्यक्रम बनाया. यद्यपि मैं जेठानीजी को सही रूप से पहचानती थी, पर ये तो कहते नहीं थकते थे कि दिल्ली वाली भाभी बिलकुल मां जैसी हैं, तुम तो बेवजह उन पर शक करती हो. फिर भी मैं अपनी तरफ से पूरी तरह तैयार हो कर आईर् थी कि जो भी कुछ होगा उस का सामना करूंगी.

हम दोनों लगभग 2 बजे दिन में दिल्ली पहुंच गए. स्टेशन से घर पहुंचने में कोई परेशानी नहीं हुई. नहाधो कर खाना खाने के बाद ये आराम करतेकरते सो गए और मैं बरतन, झाड़ू में व्यस्त हो गई. यद्यपि सफर की थकान से सिरदर्द हो रहा था, फिर भी रसोई में लग गई, ताकि भाभी को कुछ कहने का मौका न मिले.

शाम को 7 बजे अस्पताल जा कर चैकअप कराना है. यह बात मेरे दिमाग में घूम रही थी. मैं ने एक घंटा पहले ही जरूरी कागजों तथा डा. अनिल के लिखे पत्र को सहेज कर रख लिया था. चूंकि पहला दिन था और कनाट प्लेस जाना था, इसलिए एक घंटा पहले ही घर से निकली थी.

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