द चिकन स्टोरी- भाग 3: क्या उपहार ने नयना के लिए पिता का अपमान किया?

लेखक- अरशद हाशमी

‘‘तुम ही चल कर एक बार पिताजी को सम?ा लो,’’ उस ने मेरी बात को अनसुनी करते हुए कहा.

‘‘अरे नहीं रे बाबा.’’ गोलगप्पा मेरे मुंह से बाहर निकलतेनिकलते बचा. मैं तो आज तक भी उन के सामने आने से घबराता हूं. याद है, कैसे तुम ने मु?ो फंसवा दिया था. अब तुम दोनों ही कुछ रास्ता निकालो, मैं ने साफ इनकार  कर दिया.

पिताजी और उपकार दोनों ही ?ाकने के लिए तैयार नहीं थे. फिर कुछ दिनों बाद उपकार को एक मीटिंग में हिस्सा लेने के लिए एक हफ्ते के लिए अमेरिका जाना पड़ा. अभी वह अमेरिका पहुंचा भी नहीं था कि उस के पिताजी की तबीयत अचानक बिगड़ गई. रातभर बेचारे दर्द से तड़पते रहे. अगले दिन जब खाना बनाने वाली आंटी आईं तो उन्होंने ?ाट से अस्पताल से एंबुलैंस मंगवा कर उन को एडमिट कराया. उन्होंने उपकार को फोन कर के सूचित किया. उपकार के लिए इतनी जल्दी वापस आना लगभग असंभव था. किसी भी सूरत में वह दोतीन दिनों से पहले वापस नहीं आ सकता था. उस ने मु?ो फोन करने की कोशिश की, लेकिन मेरा फोन खराब होने की वजह से मु?ा से बात नहीं हो पाई. तब उस ने नयना को फोन किया तो वह तुरंत पिताजी के पास अस्पताल पहुंच गई.

अंकलजी की हालत में अब काफी सुधार था. नयना 2 दिनों तक उन के पास अस्पताल में ही रही. नयना ने उपकार को फोन कर के वापस आने से मना कर दिया कि अब अंकल की तबीयत बिलकुल सही है और वह अपना काम खत्म कर के ही लौटे.

फिर वह उन को अस्पताल से घर ले आई और उन की खूब सेवा की.

‘‘तुम पाठक साहब की बेटी हो न. पाठक साहब तो काशी गए हुए हैं. तुम दिल्ली से कब आईं. सौरी, तुम को मेरे लिए इतना कष्ट उठाना पड़ रहा है.’’ उपकार के पिताजी नयना को पाठक साहब की बेटी सम?ा रहे थे. शहर में पाठक साहब ही उन के एकमात्र मित्र थे, इसलिए उन को लगा शायद नयना पाठक साहब की बेटी है.

‘‘मैं आप की बेटी हूं और मु?ो आप की सेवा करने में कोई कष्ट नहीं है. और आप को डाक्टर ने ज्यादा बोलने के लिए मना किया है, इसलिए आप ज्यादा बात न करें,’’ नयना ने उन को दवाई देते हुए कहा.

‘कितनी सुशील और संस्कारी लड़की है. काश, उपकार इस से शादी के लिए तैयार हो जाए.’ नयना को अपनी सेवा करते देख अंकलजी ने मन ही मन सोचा.

उपकार रोज ही अंकलजी से फोन पर बात करता. अंकलजी ने उस को बिलकुल भी चिंता नहीं करने की बात कही.

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नयना ने मु?ो फोन कर के अंकलजी के बारे में बता दिया था, तो मैं उन से मिलने आया. नयना ने मु?ो मना किया था कि मैं उस के बारे में अंकलजी को कुछ न बताऊं. अंकलजी की तबीयत अब काफी अच्छी थी. उपकार 2 दिनों बाद वापस आने वाला था.

‘‘बेटा, तुम तो उपकार के सब से अच्छे दोस्त हो. उस को सम?ाओ कि वह इस लड़की से शादी के लिए तैयार हो जाए. इस से अच्छी लड़की उस को कहां मिलेगी. पता नहीं, वह किस लड़की से शादी करने की जिद पकड़े बैठा है.’’ अंकलजी ने यह मु?ा से धीरे से कहा.

अब मैं अंकलजी से क्या कहता. चुपचाप चाय पी कर वहां से चला आया.

फिर जिस दिन उपकार को वापस आना था, नयना वापस अपने घर आ गई. उपकार के आने से पहले ही पाठक साहब काशी से वापस आ गए थे.

‘‘अरे पंडितजी, यह क्या हाल बना लिया. मैं तो मिठाई लाया था अपनी पारुल का रिश्ता काशी में कर दिया है.  अब जल्दी से ठीक हो जाइए, शादी अगले महीने ही है,’’ पाठक साहब अंकलजी के पास बैठते हुए बोले.

‘‘अरे बिटिया की शादी तय भी कर आए इतनी जल्दी.’’ पाठक साहब की बेटी की शादी की बात सुन अंकलजी बिलकुल निराश हो गए.

‘‘जी, बस, सबकुछ जल्दी ही तय हो गया. एक छोटे से समारोह में पारुल और शैलेश की सगाई भी कर दी है,’’ पाठक साहब ने अंकलजी को बताया.

‘‘सगाई भी हो गई, लेकिन बिटिया तो यहीं थी, फिर कैसे?’’ अंकलजी हैरानी से बोले.

‘‘नहीं, पारुल तो हमारे साथ काशी में ही थी. वह दिल्ली से वहीं आ गई थी,’’ पाठक साहब ने कहा तो अंकलजी सोच में पड़ गए कि अगर पारुल काशी में थी तो उन के साथ इतने दिनों तक कौन थी.

फिर शाम तक उपकार भी वापस आ गया. अंकलजी ने उपकार से पूछा कि आखिर इतने दिनों तक उन की सेवा करने वाली लड़की कौन थी.

‘‘मेरे एक दोस्त की बहन थी,’’ उपकार ने छोटा सा जवाब दिया, ‘‘कल से आप की देखभाल के लिए एक नर्स आ रही है. आप जल्दी से अच्छे हो जाइए, तो मैं आप को प्रयाग ले कर चलूंगा,’’ उपकार ने मुसकरा कर अंकलजी से कहा.

‘‘मेरी एक बात मान ले बेटा, नर्स की जगह तू उसी लड़की को इस घर में ले आ मेरी बहू बना कर,’’ अंकलजी ने उपकार का हाथ अपने हाथों में ले कर कहा.

‘‘मैं तो कब का माना हुआ हूं, आप ही नहीं मान रहे,’’ उपकार ने हताशाभरी मुसकान से कहा, तो अंकलजी को मानो एक ?ाटका सा लगा.

‘‘तो क्या यह वही लड़की है जिस से तुम शादी करना चाहते हो,’’ अंकलजी ने बड़ी हैरत से कहा.

‘‘जी बाबूजी, लेकिन अब नहीं. मेरे लिए वह आप से बढ़ कर नहीं है. आप को यह शादी मंजूर नहीं है, तो फिर यह शादी नहीं होगी,’’ उपकार अपने आंसुओं को रोकने की कोशिश करते हुए बोला और फिर वहां से चला गया. लेकिन अंकलजी विचलित हो गए.

रातभर अंकलजी सही से सो नहीं पाए. बारबार उन्हें नयना की सेवा और उपकार की आंखों में आंसू याद आते रहे. एक तरफ उन का धर्म था, तो दूसरी तरफ बेटे की खुशियां. वे किसी भी निर्णय पर नहीं पहुंच पा रहे थे. फिर सुबह होतेहोते उन्होंने एक फैसला कर लिया.

‘‘अगर तुम मु?ो इतना ही मान देते हो तो जहां मैं कहूं वहां शादी करोगे,’’ अंकलजी ने चाय पीते हुए उपकार से कहा.

‘‘जैसा आप कहें पिताजी,’’ उपकार ने हार मानते हुए कहा.

‘‘तो फिर नयना को बोलो जल्दी से मेरी बहू बन कर इस घर में आ जाए,’’ अंकलजी ने मुसकरा कर कहा तो उपकार को विश्वास ही नहीं हुआ.

‘‘पिताजी, क्या आप सच कह रहे हैं?’’ उपकार की बांछें खिल गईं.

‘‘हां, अभी के अभी उस को यहां बुलाओ. 2 दिनों से उस को नहीं देखा, तो कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा,’’ अंकलजी उपकार की खुशी देख कर खुद भी बहुत खुश थे.

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उपकार ने ?ाट से नयना को फोन कर के घर बुला लिया.

‘‘बेटी, क्या तुम इस घर की बहू बनोगी,’’ अंकलजी ने आते ही नयना से कहा, तो नयना आंखों में आंसू लिए उन के गले लग गई.

‘‘नालायक, तू ने भी मु?ा को नहीं बताया,’’ कुछ दिनों बाद दोनों की सगाई के मौके पर अंकलजी ने मेरे कान खींचते हुए कहा.

फिर उपकार और नयना दोनों ने एकदूसरे को सगाई की अंगूठी पहनाई.

‘‘आज मैं अगर तुम से कुछ मांगूं, तो दोगे,’’ नयना ने उपकार से मेरी मौजूदगी में कहा.

‘‘जी बोलिए, आज आप जो कहेंगी, मैं वह करूंगा,’’ उपकार ने हंसते हुए कहा.

‘‘तो आज से आप और मैं पूर्ण शाकाहारी होंगे. हम पिताजी के लिए इतना तो कर सकते हैं न,’’ नयना ने गंभीरता से कहा तो ह्यमु?ो अपनी बहन पर बड़ा गर्व हुआ.

‘‘जो हुक्म मल्लिका का.’’ चिकन छोड़ने के खयाल से उपकार का मुंह लटक तो गया लेकिन फिर उस ने नयना से नाटकीय अंदाज में ?ाकते हुए यह कहा, तो हम सब हंस पड़े. हम ने ध्यान भी नहीं दिया कि हमारे पीछे अंकलजी हमारी बातें सुन कर अपनी आंखों में आए पानी को साफ कर रहे थे.

सच्चा प्यार- भाग 2: जब उर्मी की शादीशुदा जिंदगी में मुसीबत बना उसका प्यार

Writer- Girija Zinna

मैं ने तुरंत उस आवाज को पहचान लिया. हां वह और कोई नहीं शेखर ही था.

‘‘कैसी हैं आप? उम्मीद है आप मुझे याद करती हैं?’’

मैं ने हंसते हुए कहा, ‘‘कोई आप को भूल सकता है क्या? बताइए, क्या हालचाल हैं? कैसे याद किया मुझे आप ने अपनी इतनी सारी गर्लफ्रैंड्स में?’’

‘‘आप के ऊपर एक इलजाम है और उस के लिए जो सजा मैं दूंगा वह आप को माननी पड़ेगी. मंजूर है?’’ उस की आवाज में शरारत उमड़ रही थी.

‘‘इलजाम? मैं ने ऐसी क्या गलती की जो सजा के लायक है… आप ही बताइए,’’ मैं भी हंस कर बोली.

शेखर ने कहा, ‘‘पिछले 1 हफ्ते से न मैं ठीक से खा पाया हूं और न ही सो पाया… मेरी आंखों के सामने सिर्फ आप का ही चेहरा दिखाई देता है… मेरी इस बेकरारी का कारण आप हैं, इसलिए आप को दोषी ठहरा कर आप को सजा सुना रहा हूं… सुनेंगी आप?’’

‘‘हां, बोलिए क्या सजा है मेरी?’’

‘‘आप को इस शनिवार मेरे फ्लैट पर मेरा मेहमान बन कर आना होगा और पूरा दिन मेरे साथ बिताना होगा… मंजूर है आप को?’’

‘‘जी, मंजूर है,’’ कह मैं भी खूब हंसी.

उस शनिवार मुझे अपने फ्लैट में ले जाने के लिए खुद शेखर आया. मेरी खूब खातिरदारी की. एक लड़की को अति महत्त्वपूर्ण महसूस कैसे करवाना है यह बात हर मर्द को शेखर से सीखनी चाहिए. शाम को जब वह मुझे होस्टल छोड़ने आया तब हम दोनों को एहसास हुआ कि हम एकदूसरे को सदियों से जानते… यही शेखर की खूबी थी.

उस के बाद अगले 6 महीने हर शनिवार मैं उस के फ्लैट पर जाती और फिर रविवार को ही लौटती. हम दोनों एकदूसरे के बहुत करीब हो गए थे. मगर मैं एक विषय में बहुत ही स्पष्ट थी. मुझे मालूम था कि हम दोनों भारत से हैं. इस के अलावा हमारे बीच कुछ भी मिलताजुलता नहीं. हमारी बिरादरी अलग थी. हमारी आर्थिक स्थिति भी बिलकुल भिन्न थी, जो बड़ी दीवार बन कर हम दोनों के बीच खड़ी रहती थी.

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शुरू से ही जब मैं ने इस रिश्ते में अपनेआप को जोड़ा उसी वक्त से मेरे मन में कोई उम्मीद नहीं थी. मुझे मालूम था कि इस रिश्ते का कोई भविष्य नहीं है. मगर जो समय मैं ने शेखर के साथ व्यतीत किया वह मेरे लिए अनमोल था और मैं उसे खोना नहीं चाहती थी. इसलिए मुझे हैरानी नहीं हुई जब शेखर ने बड़ी ही सरलता से मुझे अपनी शादी का निमंत्रण दिया, क्योंकि उस रिश्ते से मुझे यही उम्मीद थी. अगले हफ्ते ही वह भारत चला गया और उस के बाद हम कभी नहीं मिले. कभीकभी उस की याद मुझे आती थी, मगर मैं उस के बारे में सोच कर परेशान नहीं होती थी. मेरे लिए शेखर एक खत्म हुए किस्से के अलावा कुछ नहीं था.

शेखर के चले जाने के बाद मैं 1 साल के लिए अमेरिका में ही रही. इस दौरान मेरी मां भी अपनी अध्यापिका के पद से सेवानिवृत्त हो चुकी थीं. उन्हें अमेरिका आना पसंद नहीं था, क्योंकि वहां का सर्दी का मौसम उन के लिए अच्छा नहीं था. इसलिए मैं अपनी पीएच.डी. खत्म कर के भारत लौट आई.

अमेरिका में जो पैसे मैं ने जमा किए और मेरी मां के पीएफ से मिले उन से मुंबई में 2 बैडरूम वाला फ्लैट खरीद लिया. बाद में मुझे क्व30 हजार मासिक वेतन पर एक कालेज में लैक्चरर की नौकरी मिल गई.

मेरे मुंबई लौटने के बाद मेरी मां मेरी शादी करवाना चाहती थीं. उन्हें डर था कि अगर उन्हें कुछ हो जाए तो मैं इस दुनिया में अकेली हो जाऊंगी. मगर शादी इतनी आसान नहीं थी. शादी के बाजार में हर दूल्हे के लिए एक तय रेट होता था. हमारे पास मेरी तनख्वाह के अलावा कुछ भी नहीं था. ऊपर से मेरी मां का बोझ उठाने के लिए लड़के वाले तैयार नहीं थे.

जब मैं अमेरिका से मुंबई आई थी तब मेरी उम्र 25 साल थी. शादी के लिए सही उम्र थी. मैं भी एक सुंदर सा राजकुमार जो मेरा हाथ थामेगा उसी के सपने देखती रही. सपने को हकीकत में बदलना संभव नहीं हुआ. दिन हफ्तों में और हफ्ते महीनों में और महीने सालों में बदलते हुए 3 साल निकल गए.

मेरी जिंदगी में दोबारा एक आदमी का प्रवेश हुआ. उस का नाम ललित था. वह भी अंगरेजी का लैक्चरर था. मगर उस ने पीएचडी नहीं की थी. सिर्फ एमफिल किया था. पहली मुलाकात में ही मुझे मालूम हो गया कि वह भी मेरी तरह मध्यवर्गीय परिवार का है और उस की एक मां और बहन है. उस ने कहा कि उस के पिता कई साल पहले इस दुनिया से जा चुके हैं और मां और बहन दोनों की जिम्मेदारी उसी पर है.

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पहले कुछ महीने हमारे बीच दोस्ती थी. हमारे कालेज के पास एक अच्छा कैफे था. हम दोनों रोज वहां कौफी पीने जाते. इसी दौरान एक दिन उस ने मुझे अपने घर बुलाया. वह एक छोटे से फ्लैट में रहता था. उस की मां ने मेरी खूब खातिरदारी की और उस की बहन जो कालेज में पढ़ती थी वह भी मेरे से बड़ी इज्जत से पेश आई.

इसी दौरान एक दिन ललित ने मुझ से कहा, ‘‘उर्मी, क्या आप मेरे साथ कौफी पीने के लिए आएंगी?’’

उस का इस तरह पूछना मुझे थोड़ा अजीब सा लगा, मगर फिर मैं ने हंस कर पूछा, ‘‘कोई खास बात है जो मुझे कौफी पीने को बुला रहे हो?’’

उस ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘हां, बस ऐसा ही समझ लीजिए.’’

शाम कालेज खत्म होने के बाद हम दोनों कौफी शौप में गए और एक कोने में जा कर बैठ गए. मैं ने उस के चेहरे को देख कर कहा, ‘‘हां, बोलो ललित क्या बात करनी है मुझ से?’’

कहीं किसी रोज- भाग 1: आखिर जोया से विमल क्या छिपा रहा था?

स्विमिंग पूल के किनारे एक तरफ जा कर विमल ने हाथ में लिए होटल के गिलास से ही सूर्य को जल चढ़ाया, सुबह की हलकीहलकी खुशनुमा सी ताजगी हर तरफ फैली थी, जल चढ़ाते हुए उस ने कितने ही शब्द होठों में बुदबुदाते हुए कनखियों से पूल के किनारे चेयर पर बैठी महिला को देखा, आज फिर वह अपनी बुक में खोई थी.

कुछ पल वहीं खड़े हो कर वह उसे फिर ध्यान से देखने लगा, सुंदर, बहुत स्मार्ट, टीशर्ट, ट्रैक पैंट में, शोल्डर कट बाल, बहुत आकर्षक, सुगठित देहयष्टि.

विमल को लगा कि वह उस से उम्र में कुछ बड़ी ही होगी, करीब चालीस की तो होगी ही, वह उसे निहार ही रहा था कि उस स्त्री ने उस की तरफ देख कर कहा, ‘‘इतनी दूर से कब तक देखते रहेंगे, आप की पूजाअर्चना हो गई हो और अगर आप चाहें तो यहां आ कर बैठ सकते हैं.‘‘

विमल बहुत बुरी तरह झेंप गया. उसे कुछ सूझा ही नहीं कि चोरी पकडे जाने पर अब क्या कहे, चुपचाप चलता हुआ उस स्त्री से कुछ दूर रखी चेयर पर जा कर बैठ गया.

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स्त्री ने ही बात शुरू की, ‘‘आप भी मेरी तरह लौकडाउन में इस होटल में फंस गए हैं न? आप को रोज देख रही हूं पूजापाठ करते. और आप भी मुझे देख ही रहे हैं, यह भी जानती हूं.‘‘

विमल झेंप रहा था, बोला, ‘‘हां, यहां देहरादून में औफिस के टूर पर आया था, अचानक लौकडाउन में फंस गया, मैं लखनऊ में रहता हूं और आप…?‘‘

‘‘मैं देहरादून घूमने आई थी. मैं बैंगलोर में रहती हूं, वहीं जौब भी करती हूं.‘‘

‘‘अकेले आई थीं घूमने?‘‘ विमल हैरान हुआ.

‘‘जी, मगर आप इतने हैरान क्यों हुए?‘‘

विमल चुप रहा, महिला उठ खड़ी हुई, ‘‘चलती हूं, मेरा एक्सरसाइज का टाइम हो गया. थोड़ी रीडिंग के बाद ही मेरा दिन शुरू होता है.‘‘

विमल ने झिझकते हुए पूछा, ‘‘आप का शुभ नाम?‘‘

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‘‘जोया.‘‘

‘‘आगे?‘‘

‘‘आगे क्या?‘‘

‘‘मतलब, सरनेम?‘‘

‘‘मुझे बस अपना नाम अच्छा लगता है, मैं सरनेम लगा कर किसी धर्म के बंधन में नहीं बंधना चाहती, सरनेम के बिना भी मेरा एक स्वतंत्र व्यक्तित्व हो सकता है. आप भी मुझे अपना नाम ही बताइए, मुझे किसी के सरनेम में कभी कोई दिलचस्पी नहीं होती.‘‘

विमल का मुंह खुला का खुला रह गया, ‘‘यह औरत है, क्या है,’’ धीरे से बोला विमल.

‘‘ओके, बाय,‘‘ कह कर जोया चली गई. विमल जैसे एक जादू के असर में बैठा रह गया.

लौकडाउन के शुरू होने पर रूड़की के इस होटल में 8-10 लोग फंस गए थे, कुछ यंग जोड़े थे जो कभीकभी दिख जाते थे, कुछ ऐसे ही टूर पर आए लोग थे, दिनभर तो विमल लैपटौप पर औफिस के काम में बिजी रहता. वह बहुत ही धर्मभीरु, दब्बू किस्म का इनसान था, उस की पत्नी और दो बच्चे लखनऊ में रहते थे, जिन से वह लगातार टच में था, जोया को वह अकसर ऐसे ही स्विमिंग पूल के आसपास खूब देखता. अकसर वह इसी तरह बुक में ही खोई रहती.

जोया एक बिंदास, नास्तिक महिला थी, बैंगलोर में अकेली रहती थी, एक कालेज में फाइन आर्ट्स की प्रोफेसर थी, विवाह किया नहीं था. पेरेंट्स भाई के पास दिल्ली रहते थे, घूमनेफिरने का शौक था, खूब सोलो ट्रैवेलिंग करती, खूब पढ़ती, हमेशा बुक्स साथ रखती, अब लौकडाउन में फंसी  थी तो बुक्स पढ़ने के शौक में समय बीत रहा था. वह बहुत इंटेलीजेंट थी, कई फिलोसोफर्स को पढ़ चुकी थी, कई दिन से देख रही थी कि विमल उसे चोरीचोरी खूब देखता है, उसे मन ही मन हंसी भी आती, विमल देखने में स्मार्ट था, पर उसे एक नजर देखने से ही जोया को अंदाजा हो गया था कि वह धर्म में पोरपोर डूबा इनसान है.

होटल में स्टाफ अब बहुत कम  था, खानेपीने की चीजें सीमित थीं, पर काम चल रहा था. विमल का आज काम में दिल नहीं लगा, आंखों के आगे जोया का जैसे एक साया सा लहराता रह गया.

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शाम होते ही लैपटौप बंद कर स्विमिंग पूल की तरफ भागा, जोया अपनी बुक में डूबी थी. विमल उस के पास जा कर खड़ा हो गया, ‘‘गुड ईवनिंग, जोयाजी.”

बुक बंद कर जोया मुसकराई, ‘‘गुड ईवनिंग, आइए, फ्री हैं तो बैठिए.”

विमल तो उस के पास बैठने के लिए ही बेचैन था, जोया बहुत प्यारी लग रही थी, नेवई ब्लू, टीशर्ट में उस का गोरा सुनस
सुंदर चेहरा खिलाखिला लग रहा था. जोया ने छेड़ा, ‘‘देख लिया हो तो कोई बात करें.”

हंस पड़ा विमल, ‘‘आप बहुत स्मार्ट हैं, नजरों को खूब पढ़ती हैं.”

‘‘हां जी, यह तो सच है,” जोया ने दोस्ताना ढंग से कहा, तो दोनों में कुछ बढ़ा, जोया ने कहा, ‘‘आजकल तो यहां जितनी भी सुविधाएं मिल रही हैं, बहुत हैं, मेरी सुबहशाम तो स्विमिंग पूल पर कट रही है और दिन होटल के कमरे में. आप क्या करते रहते हैं?”

तलाक के बाद- भाग 1: जब सुमिता को हुआ अपनी गलतियों का एहसास

Writer- Vinita Rahurikar

3 दिनों की लंबी छुट्टियां सुमिता को 3 युगों के समान लग रही थीं. पहला दिन घर के कामकाज में निकल गया. दूसरा दिन आराम करने और घर के लिए जरूरी सामान खरीदने में बीत गया. लेकिन आज सुबह से ही सुमिता को बड़ा खालीपन लग रहा था. खालीपन तो वह कई महीनों से महसूस करती आ रही थी, लेकिन आज तो सुबह से ही वह खासी बोरियत महसूस कर रही थी.

बाई खाना बना कर जा चुकी थी. सुबह के 11 ही बजे थे. सुमिता का नहानाधोना, नाश्ता भी हो चुका था. झाड़ूपोंछा और कपड़े धोने वाली बाइयां भी अपनाअपना काम कर के जा चुकी थीं. यानी अब दिन भर न किसी का आना या जाना नहीं होना था.

टीवी से भी बोर हो कर सुमिता ने टीवी बंद कर दिया और फोन हाथ में ले कर उस ने थोड़ी देर बातें करने के इरादे से अपनी सहेली आनंदी को फोन लगाया.

‘‘हैलो,’’ उधर से आनंदी का स्वर सुनाई दिया.

‘‘हैलो आनंदी, मैं सुमिता बोल रही हूं, कैसी है, क्या चल रहा है?’’ सुमिता ने बड़े उत्साह से कहा.

‘‘ओह,’’ आनंदी का स्वर जैसे तिक्त हो गया सुमिता की आवाज सुन कर, ‘‘ठीक हूं, बस घर के काम कर रही हूं. खाना, नाश्ता और बच्चे और क्या. तू बता.’’

‘‘कुछ नहीं यार, बोर हो रही थी तो सोचा तुझ से बात कर लूं. चल न, दोपहर में पिक्चर देखने चलते हैं,’’ सुमिता उत्साह से बोली.

‘‘नहीं यार, आज रिंकू की तबीयत कुछ ठीक नहीं लग रही है. मैं नहीं जा पाऊंगी. चल अच्छा, फोन रखती हूं. मैं घर में ढेर सारे काम हैं. पिक्चर देखने का मन तो मेरा भी कर रहा है पर क्या करूं, पति और बच्चों के ढेर सारे काम और फरमाइशें होती हैं,’’ कह कर आनंदी ने फोन रख दिया.

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सुमिता से उस ने और कुछ नहीं कहा, लेकिन फोन डिस्कनैक्ट होने से पहले सुमिता ने आनंदी की वह बात स्पष्ट रूप से सुन ली थी, जो उस ने शायद अपने पति से बोली होगी. ‘इस सुमिता के पास घरगृहस्थी का कोई काम तो है नहीं, दूसरों को भी अपनी तरह फुरसतिया समझती है,’ बोलते समय स्वर की खीज साफ महसूस हो रही थी.

फिर शिल्पा का भी वही रवैया. उस के बाद रश्मि का भी.

यानी सुमिता से बात करने के लिए न तो किसी के भी पास फुरसत है और न ही दिलचस्पी.

सब की सब आजकल उस से कतराने लगी हैं. जबकि ये तीनों तो किसी जमाने में उस के सब से करीब हुआ करती थीं. एक गहरी सांस भर कर सुमिता ने फोन टेबल पर रख दिया. अब किसी और को फोन करने की उस की इच्छा ही नहीं रही. वह उठ कर गैलरी में आ गई. नीचे की लौन में बिल्डिंग के बच्चे खेल रहे थे. न जाने क्यों उस के मन में एक हूक सी उठी और आंखें भर आईं. किसी के शब्द कानों में गूंजने लगे थे.

‘तुम भी अपने मातापिता की इकलौती संतान हो सुमि और मैं भी. हम दोनों ही अकेलेपन का दर्द समझते हैं. इसलिए मैं ने तय किया है कि हम ढेर सारे बच्चे पैदा करेंगे, ताकि हमारे बच्चों को कभी अकेलापन महसूस न हो,’ समीर हंसते हुए अकसर सुमिता को छेड़ता रहता था.

बच्चों को अकेलापन का दर्द महसूस न हो की चिंता करने वाले समीर की खुद की ही जिंदगी को अकेला कर के सूनेपन की गर्त में धकेल आई थी सुमिता. लेकिन तब कहां सब सोच पाई थी वह कि एक दिन खुद इतनी अकेली हो कर रह जाएगी.

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कितना गिड़गिड़ाया था समीर. आखिर तक कितनी विनती की थी उस ने, ‘प्लीज सुमि, मुझे इतनी बड़ी सजा मत दो. मैं मानता हूं मुझ से गलतियां हो गईं, लेकिन मुझे एक मौका तो दे दो, एक आखिरी मौका. मैं पूरी कोशिश करूंगा कि तुम्हें अब से शिकायत का कोई मौका न मिले.’

समीर बारबार अपनी गलतियों की माफी मांग रहा था. उन गलतियों की, जो वास्तव में गलतियां थीं ही नहीं. छोटीछोटी अपेक्षाएं, छोटीछोटी इच्छाएं थीं, जो एक पति सहज रूप से अपनी पत्नी से करता है. जैसे, उस की शर्ट का बटन लगा दिया जाए, बुखार से तपते और दुखते उस के माथे को पत्नी प्यार से सहला दे, कभी मन होने पर उस की पसंद की कोई चीज बना कर खिला दे वगैरह.

द चिकन स्टोरी- भाग 2: क्या उपहार ने नयना के लिए पिता का अपमान किया?

लेखक- अरशद हाशमी

अभी मेरी सांस में सांस वापस आई भी नहीं थी कि अंदर से अंकलजी के चिल्लाने की आवाज सुनाई दी. ‘‘यह राक्षस फिर आ गया इस घर में.’’ अब तो मेरी सांस ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे ही रह गई. मु?ो लगा, अंकलजी को शायद पता चल गया. मैं तो उठ कर भागने ही वाला था कि अंदर से एक थैली उड़ती हुई आई और बाहर आंगन में आ कर गिरी. उस में से ढेर सारा प्याज निकल कर चारों तरफ फैल गया.

‘‘तु?ो कितनी बार मना किया है लहसुनप्याज खाने को, सुनता क्यों नहीं,’’ अंकलजी आग्नेय नेत्रों से उपकार को घूरते हुए बोले. अंकलजी को देख कर मु?ो घिग्गी बंध गई, लगा कि आज हम दोनों भस्म हुए ही हुए.

उपकार मुंह नीचे किए चुपचाप बैठा था. मु?ो काटो तो खून नहीं. और अंकलजी बड़बड़ाते हुए घर से बाहर चले गए.

मैं ने तुरंत टेबल के नीचे से डब्बा निकाला और बाहर की तरफ जाने लगा.

‘‘यह डब्बा तो छोड़ता जा, कल ले जाना,’’ उपकार की दबीदबी सी आवाज आई.

‘‘इतना सुनने के बाद तु?ो अभी भी चिकन खाना है,’’ मैं हैरत में डूबा हुआ उपकार को देख रहा था.

जवाब में उपकार ने मेरे हाथ से डब्बा ले लिया. उसी समय अंकलजी वापस आए और मैं उन को नमस्ते कर के घर से निकल गया.

पूरे एक हफ्ते तक मैं ने उपकार के घर की तरफ रुख न किया. पूरे एक साल तक मैं ने चिकन को हाथ भी नहीं लगाया. घर वाले हैरान थे कि मु?ो क्या हो गया. कहां मैं इतने शौक से चिकन खाता था और कहां मैं चिकन की तरफ देखता भी नहीं.

मैं अकसर उपकार को सम?ाता कि एक ब्राह्मण के लिए मांसाहार उचित नहीं है. साथ ही, उस को अपने पिताजी की भावनाओं का सम्मान करते हुए लहसुनप्याज भी नहीं खानी चाहिए. लेकिन, उस पर कोई असर हो तब न. उलटे, उस को तो मेरे घर का चिकन इतना अच्छा लगा कि कभी भी मेरे घर आ जाता और मां से चिकन बनवाने की फरमाइश कर बैठता. छोटी बहन नयना तो चिकन बहुत ही स्वादिष्ठ बनाती थी.

मां कहती थी, ऐसा स्वादिष्ठ चिकन पूरे महल्ले में कोई नहीं बनाता था. पता नहीं मां ऐसा, बस, अपनी बेटी के मोह में कहती थी या सचमुच नयना सब से अच्छा चिकन बनाती थी. हमें तो महल्ले की किसी कन्या के हाथ का बना चिकन खाने का मौका मिला नहीं था, इसलिए नयना का बनाया चिकन ही हमारे लिए सब से अच्छा था.

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यों ही समय कटता चला गया और फिर हमारी ग्रेजुएशन पूरी हो गई. उपकार ने पूरी यूनिवर्सिटी में टौप किया था. मैं भी उस के साथ पढ़पढ़ कर ठीकठाक नंबर से पास हो गया था. उपकार ने तो अपने ही कालेज में एमएससी में ऐडमिशन ले लिया था जबकि मु?ो दिल्ली में एक एक्सपोर्ट कंपनी में नौकरी मिल गई. महीने में एक बार ही मैं घर आ पाता. उपकार मु?ा से मिलने आ जाता और फिर चिकन खा कर ही जाता.

देखतेदेखते 2 साल गुजर गए. उपकार को अपने ही कालेज में लैक्चरर की नौकरी मिल गई. बधाई देने के लिए मैं उस के घर गया, तो उस ने बड़ी गर्मजोशी से मेरा स्वागत किया. मु?ो लगा जैसे वह मु?ा से कुछ कहना चाह रहा है लेकिन कह नहीं पा रहा था.

‘‘क्या बात है, कुछ कहना चाह रहे हो?’’ मैं ने उस से पूछ ही लिया.

‘‘हां, नहीं… कुछ नहीं.’’ मेरे पूछने पर वह थोड़ा हड़बड़ा गया.

‘‘कालेज में सब ठीक तो है?’’ मु?ो लगा शायद उसे नई नौकरी में एडजस्ट करने में कोई दिक्कत हो रही हो.

‘‘कालेज में तो सब ठीक है, असल में, मैं तुम से कुछ बात करना चाहता हूं, पर डरता हूं कि पता नहीं तुम क्या सोचो,’’ उस ने थोड़ी हिम्मत जुटाई.

‘‘अरे, तो बोल न. अगर कुछ चाहिए तो बता. बस, मु?ा से चिकन लाने को मत बोलना,’’ मैं बोल कर जोर से हंस दिया.

‘‘मैं चिकन नहीं, चिकन वाली को इस घर में लाना चाहता हूं,’’ उपकार ने धीमी सी आवाज में कहा.

‘‘मतलब?’’ मैं सच में कुछ नहीं सम?ा था.

‘‘मैं नयना से शादी करना चाहता हूं, अगर तुम को कोई आपत्ति न हो.’’ आखिर उस ने हिम्मत कर के बोल ही दिया.

‘‘नयना, अपनी नयना.’’ मु?ो उपकार की बात सुन कर एक ?ाटका सा लगा, लेकिन अगले ही पल मु?ो लगा नयना के लिए उपकार से अच्छा लड़का और कहां मिलेगा.

‘‘हां, हम दोनों एकदूसरे को पसंद करते हैं और शादी करना चाहते हैं,’’ उपकार ने नजरें नीची किए हुए कहा.

‘‘सच कहूं तो मु?ो तो बहुत खुशी होगी अगर नयना को इतना अच्छा घरपरिवार मिल जाए,’’ मैं ने मुसकरा कर कहा लेकिन अगले ही पल मेरी आंखों के आगे अंकलजी यानी उपकार के पिताजी का चेहरा घूम गया.

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‘‘लेकिन तुम्हारे पिताजी? वे तो लहसुनप्याज को भी घर में नहीं आने देते, भला एक मांसाहारी, गैरब्राह्मण लड़की को अपनी बहू बनाने के लिए कैसे तैयार होंगे,’’ मैं ने अपनी शंका उपकार के सामने रखी.

‘‘उन की चिंता तुम मत करो. उन को मैं किसी तरह मना ही लूंगा. मु?ो पहले तुम्हारी अनुमति की आवश्यकता थी,’’ उपकार ने मेरा हाथ पकड़ते हुए कहा.

‘‘मेरी अनुमति की कोई आवश्यकता नहीं है. नयना और तुम दोनों सम?ादार हो. मु?ो पूरा विश्वास है तुम दोनों की आपस में खूब बनेगी,’’ मैं एक बड़े भाई की तरह ज्ञान दे रहा था.

फिर घर आ कर मैं ने पहले मां व पिताजी से नयना और उपकार के बारे में बात की. मां तो बहुत प्रसन्न थीं, पिताजी यद्यपि थोड़े सशंकित थे कि एक कट्टर ब्राह्मण परिवार नयना को कैसे अपनी बहू बनाने के लिए तैयार होगा. लेकिन मैं ने उन को विश्वास दिलाया कि शादी उपकार के पिताजी की सहमति के बाद ही होगी.

फिर एक दिन उपकार ने मौका देख कर अपने पिताजी से नयना के बारे में बात की. जब उस ने बताया कि लड़की ब्राह्मण नहीं है तो वे थोड़े निराश हो गए. जानते तो थे ही कि उपकार जातपांत में विश्वास नहीं रखता, इसलिए उन्होंने भी अपने मन को सम?ा लिया.

लेकिन अगले ही पल उन का सवाल था, ‘‘लड़की मांसाहारी तो नहीं है?’’

अब उपकार ठहरा आज के जमाने का महाराजा हरिश्चंद्र, बता दिया सच. सुनते ही पिताजी हत्थे से उखड़ गए.

‘‘लड़की ब्राह्मण नहीं है, मैं यह तो स्वीकार कर सकता हूं, लेकिन एक मांसाहारी लड़की को मैं अपनी बहू स्वीकार नहीं कर सकता,’’ पिताजी अपने रौद्र रूप में आ गए थे.

‘‘आप एक बार उस से मिल तो लीजिए. वह एक बहुत अच्छी लड़की है,’’ उपकार ने पिताजी को मनाने की कोशिश की.

‘‘चाहे वह कितनी भी अच्छी हो और कितनी भी सुंदर हो, मैं तुम्हें उस से शादी की अनुमति नहीं दे सकता,’’ पिताजी ने उपकार से साफसाफ बोल दिया.

‘‘लेकिन मैं उस के अलावा किसी और से शादी नहीं करूंगा,’’ अब उपकार को भी थोड़ा गुस्सा आने लगा था.

‘‘ठीक है, तो जाओ और कर लो उस से शादी. लेकिन उस से पहले तुम्हें मु?ो और इस घर को त्यागना होगा,’’  उपकार के पिताजी ने हाथ उठा कर उपकार को आगे कुछ भी बोलने से रोक दिया और उठ कर अपने कमरे में चले गए.

यहीं आ कर उपकार अपने को बड़ा असहाय पा रहा था. वह जानता था कि उस के पिताजी ने उस को किस तरह पाला है. मां के देहांत के बाद जब सभी रिश्तेदार उन से दूसरी शादी के लिए कह रहे थे, उन्होंने कहा था कि वे अपना सारा जीवन उपकार के लिए बिता देंगे. उन्होंने कभी भी उपकार को किसी चीज की कमी नहीं होने दी, कभी किसी चीज के लिए मना नहीं किया. लेकिन आज जब उपकार को पसंद की जीवनसाथी का साथ चाहिए था, तो उस के पिताजी किसी भी तरह तैयार नहीं थे.

उपकार ने एकदो बार फिर पिताजी को मनाने की कोशिश की, लेकिन वे कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थे.  बड़ी मुश्किल थी. उधर उपकार, इधर नयना – दोनों दुखी और निराश थे.

‘‘यार, कोई रास्ता तो बताओ पिताजी को मनाने का. वे तो मेरी बात सुनने को ही तैयार नहीं हैं,’’ एक दिन उपकार मु?ा से मिला और बोला.

‘‘यार, मैं ने कहीं पढ़ा था अगर लड़की के पिता को मनाना हो तो एक काले कपड़े पर मिट्टी का पुतला रख कर उस पर लाल धागा बांध कर लालमिर्च और नारियल चढ़ाने से मनोकामना पूरी होती है, लेकिन मु?ो यह नहीं पता कि इस से लड़के के पिता भी मानेंगे या नहीं,’’ मैं ने उस को एक टोटके के बारे में बताया.

‘‘यार, तुम को मजाक सू?ा रही है. यहां मैं टैंशन लेले कर गंजा न हो जाऊं,’’ उपकार ने मु?ो घूरते हुए कहा.

‘‘मैं मजाक नहीं कर रहा. अब तुम न मानो तो तुम्हारी मरजी,’’ मैं ने सुरेश के मशहूर गोलगप्पे मुंह में डालते हुए कहा

खुशी के आंसू- भाग 1: आनंद और छाया ने क्यों दी अपने प्यार की बलि?

लेखिका- डा. विभा रंजन  

आनंद आजकल छाया के बदले ब्यवहार से बहुत परेशान था. छाया आजकल उस से दूरी बना रही थी, जो आनंद के लिए असह्य हो रहा था. दोनों की प्रगाढ़ता के बारे में स्कूल के सभी लोगों को भी मालूम था. वे दोनों 5 वर्षों से साथ थे. छाया और आनंद एक ही स्कूल में शिक्षक के रूप में कार्यरत थे. वहीं जानपहचान हुई और दोनों ने एकदूसरे को अपना जीवनसाथी बनाने का फैसला कर लिया था.

दोनों की प्रेमकहानी को छाया के पिता का आशीर्वाद मिल चुका था. वे दोनों शादी के बंधन में बंधने वाले थे कि छाया के पिता को कैंसर जैसी भंयकर बीमारी से मृत्यु हो गई थी. विवाह एक वर्ष के लिए टल गया था. छाया की छोटी बहन ज्योति थी जो पिता की बीमारी के कारण बीए की परीक्षा नहीं दे पाई थी. छाया उसे आगे पढ़ाना चाहती थी. छाया के कहने पर आनंद उसे पढ़ाने उस के घर जाया करता था.

आजकल वह ज्योति के ब्यवहार में बदलाव देख रहा था. उसे महसूस होने लगा था कि ज्योति उस की तरफ आकर्षित हो रही है. उस ने जब से यह बात छाया को बताई तब से छाया उस से ही दूरी बनाने लगी. अब वह न पहले की तरह आनंद से मिलतीजुलती है और न बात करती है.

आनंद को समझ नहीं आ रहा था आखिर छाया  ने अचानक उस से बातचीत क्यों बंद कर दी. कहीं वह ज्योति की प्यार वाली बात में उस की गलती तो नहीं मान रही. नहींनहीं, वह अच्छी तरह जानती है मैं उस से कितना चाहता हूं. आखिर कुछ तो पता चले उस की बेरुखी का कारण क्या है?

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आज 3 दिन हो गए एक स्कूल में रह कर भी हम न मिल पाए न उस ने मेरी एक भी कौल का जवाब दिया. आनंद छाया की गतिविधियों पर अपनी नज़र  जमाए हुए था. वह स्कूल आया जरूर, पर अंदर दाखिल नहीं हुआ. बस, छाया को स्कूल में दाखिल होते देखता रहा.

छुट्टी के समय छाया जैसे ही गेट से बाहर निकलने वाली थी, आनंद ने अपनी बाइक उस के सामने खड़ी कर दी और बोला, “पीछे बैठो, मैं कोई तमाशा नहीं चाहता.”

छाया ने उस की वाणी में कठोरता महसूस की, वह डर गई. वह चुपचाप बाइक पर बैठ गई. बाइक तेजी से सड़क पर दौड़ने लगी. थोड़ी देर बाल आनंद ने बाइक को एक छोटे से पार्क के पास रोक दिया. पार्क में और भी जोड़े बैठे थे. आनंद ने छाया का हाथ पकड़ा और छाया के साथ एक बैंच पर बैठ गया.

दो पल दोनों खामोश बैठे रहे, फिर आनंद ने कहा,  “छाया,  मैं ने तुम्हें कितनी कौल कीं, तुम ने न फोन उठाया, न मुझे कौल ही किया. आखिर क्या बात है, क्यों मुझ से दूर रह कर मुझे परेशान कर रही हो? मेरी क्या गलती है, मुझे बताओ? मैं ने ऐसा  क्या कर दिया?”

“आनंद, तुम्हारी कोई गलती नहीं है.”

“तब फिर, इस बेरुखी का मतलब?”

“मैं खुद बहुत परेशान हूं,” छाया ने भीगे स्वर में कहा.

“तुम्हारी ऐसी कौन सी परेशानी है जो मुझे पता नहीं? मैं तुम्हारा साथी हूं, सुखदुख का भागीदार हूं. मुझे बताओ, हम मिल कर हर समस्या का हल निकाल लेंगे.”

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छाया एकटक आनंद को देखे जा रही थी.

“ऐसे क्यों देख रही हो, तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं है? तुम जानती हो,मैं झूठ नहीं बोलता, बताओ क्या बात है?” आनंद ने कहा,-

सच्चा प्यार- भाग 3: जब उर्मी की शादीशुदा जिंदगी में मुसीबत बना उसका प्यार

Writer- Girija Zinna

ललित ने बिना किसी हिचकिचाहट के कहा, ‘‘उर्मी, मैं बातों को घुमाना नहीं चाहता हूं. मैं तुम से प्यार करता हूं. अगर तुम्हें भी मंजूर है, तो मैं तुम से शादी करना चाहता हूं.’’

यह सुन कर मुझे सच में झटका लगा. मुझे जरा सा भी अंदाजा नहीं था कि ललित इस तरह मुझ से पूछेगा.

मैं ने ललित के बारे में बहुत सोचा. मुझे तब तक मालूम हो चुका कि मेरे पास जो पैसे हैं वे मेरी शादी के लिए बहुत कम हैं और फिर मेरी मां को भी अपनाने वाला दूल्हा मिलना लगभग नामुमकिन ही था. इस बारे में मेरे दिल ने नहीं दिमाग ने निर्णय लिया और मैं ने ललित को अपनी मंजूरी दे दी.

उस के बाद हर हफ्ते हम रविवार को हमारे घर के सामने वाले पार्क में मिलते. इसी बीच यकायक ललित 3 दिन की छुट्टी पर चला गया.

ललित चौथे दिन कालेज आया. उस का चेहरा उतरा हुआ था. शाम को हम दोनों पार्क में जा कर बैठ गए. मुझे मालूम था कि ललित मुझ से कुछ कहना चाह रहा, मगर कह नहीं पा रहा.

फिर उस ने मेरा हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘मुझे माफ कर दो उर्मी… मैं ने खुद ही तुम से प्यार का इजहार किया था और अब मैं ही इस रिश्ते से पीछे हट रहा हूं. तुम्हें मालूम है कि मेरी एक बहन है. वह किसी लड़के से प्यार करती है और उस लड़के की एक बिन ब्याही बहन है. उन लोगों ने साफ कह दिया कि अगर मैं उन की लड़की से शादी करूं तो ही वे मेरी बहन को अपनाएंगे. मेरे पास अब कोई रास्ता नहीं रहा.’’

मैं 1 मिनट के लिए चुप रही. फिर कहा, ‘‘फैसला ले ही लिया तो अब किस बात का डर… शादी मुबारक हो ललित,’’ और फिर घर चली आई.

1 महीने में ललित और उस की बहन की शादी धूमधाम से हो गई. अब ललित कालेज की नौकरी छोड़ कर अपनी ससुराल की कंपनी में काम करने लगा.

अब मनोहर से मेरी शादी हुए 1 महीना हो गया है. मेरी ससुराल वालों ने मेरे पति को मेरे साथ मेरे फ्लैट में रहने की इजाजत दे दी ताकि मेरी मां को भी हमारा सहारा मिल सके. इस नई जिंदगी से मुझे कोई शिकायत नहीं. मेरे पति एक अच्छे इनसान हैं. मुझे किसी भी बात को ले कर परेशान नहीं करते हैं. मेरी बहुत इज्जत करते हैं. औरतों को पूरा सम्मान देते हैं. उन का यह स्वभाव मुझे बहुत अच्छा लगा.

‘‘उर्मी जल्दी से तैयार हो जाओ. हमारी शादी के बाद तुम पहली बार मेरे दफ्तर की पार्टी में चल रही हो. आज की पार्टी खास है, क्योंकि हमारे मालिक के बेटे दिल्ली से मुंबई आ रहे हैं. तुम उन से भी मिलोगी.’’

जब हम पार्टी में पहुंचे तो कई लोग आ चुके थे. मेरे पति ने मुझे सब से मिलवाया. इतने में किसी ने कहा चेयरमैन साहब आ गए. उन्हें देख कर एक क्षण के लिए मेरी सांस रुक गई. चेयरमैन कोई और नहीं शेखर ही था.

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तभी सभी को नमस्कार कहते हुए शेखर मुझे देख कर 1 मिनट के लिए चौंक गया.

मेरे पति ने उस से कहा, ‘‘मेरी बीवी है सर.’’

शेखर ने हंसते हुए कहा, ‘‘मुबारक हो… शादी कब हुई?’’

मेरे पति उस के सवालों के जवाब देते रहे और फिर वह चला गया.

कुछ देर बाद शेखर के पी.ए. ने आ कर कहा, ‘‘मैडम, चेयरमैन साहब आप को बुला रहे हैं अकेले.’’ मैं ने चुपके से अपने पति के चेहरे को देखा. पति ने भी सिर हिला कर मुझे जाने का इशारा किया.

शेखर एक बड़ी मेज के सामने बैठा था. मैं उस के सामने जा कर खड़ी हो गई.

शेखर ने मुझे देख कर कहा, ‘‘आओ उर्मी, प्लीज बैठो.’’

मैं उस के सामने बैठ गई.

शेखर ने कहा, ‘‘मेरे पास ज्यादा वक्त नहीं. मैं सीधे मुद्दे पर आ जाऊंगा… मैं हमारी पुरानी दोस्ती को फिर से शुरू करना चाहता हूं बिलकुल पहले जैसे. मैं तुम्हारे पति का दिल्ली में तबादला कर दूंगा. अगर तुम चाहती हो तो तुम्हें दिल्ली के किसी कालेज में लैक्चरर की नौकरी दिला दूंगा.’’

वह ऐसे बोलता रहा जैसे मैं ने उस की बात मान ली. मगर मैं उस वक्त कुछ नहीं कह सकी. चुपचाप लौट कर पति के सामने आ कर बैठ गई. कुछ भी नहीं बोली. टैक्सी से लौटते समय भी कुछ नहीं पूछा उन्होंने.

घर लौटने के बाद मेरे पति ने मुझ से कुछ भी नहीं पूछा. मगर मैं ने उन से सारी बातें कहने का फैसला कर लिया. पति ने मेरी सारी बातें चुपचाप सुनीं. मैं ने उन से कुछ नहीं छिपाया.

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मेरी आंखों से आंसू आने लगे. मेरे पति ने मेरा हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘उर्मी, तुम ने कुछ गलत नहीं किया. हम सब के अतीत में कुछ न कुछ हुआ होगा. अतीत के पन्नों को दोबारा खोल कर देखना बेकार की बात है. कभीकभी न चाहते हुए भी हमारा अतीत हमारे सामने खड़ा हो जाता है, तो हमें उसे महत्त्व नहीं देना चाहिए. हमेशा आगे की सोच रखनी चाहिए. शेखर की बातों को छोड़ो. उस का रुपया बोल रहा है… हम कभी उस का मुकाबला नहीं कर सकते… मैं कल ही अपना इस्तीफा दे दूंगा. दूसरी नौकरी ढूंढ़ लूंगा. तुम चिंता करना छोड़ो और सो जाओ. हर कदम मैं तुम्हारे साथ हूं,’’ और फिर मुझे बांहों में भर लिया. उन की बांहों में मुझे फील हुआ कि मैं महफूज हूं. इस के अलावा और क्या चाहिए एक पत्नी को?

मिसफिट पर्सन- भाग 1: जब एक जवान लड़की ने थामा नरोत्तम का हाथ

‘‘आप के सामान में ड्यूटी योग्य घोषित करने का कुछ है?’’ कस्टम अधिकारी नरोत्तम शर्मा ने अपने आव्रजन काउंटर के सामने वाली चुस्त जींस व स्कीवी पहने खड़ी खूबसूरत बौबकट बालों वाली नवयौवना से पूछा.

नवयौवना, जिस का नाम ज्योत्सना था, ने मुसकरा कर इनकार की मुद्रा में सिर हिलाया. नरोत्तम ने कन्वेयर बैल्ट से उतार कर रखे सामान पर नजर डाली.

3 बड़ेबड़े सूटकेस थे जिन की साइडों में पहिए लगे थे. एक कीमती एअरबैग था. युवती संभ्रांत नजर आती थी.

इतना सारा सामान ले कर वह दुबई से अकेली आई थी. नरोत्तम ने उस के पासपोर्ट पर नजर डाली. पन्नों पर अनेक ऐंट्रियां थीं. इस का मतलब था वह फ्रीक्वैंट ट्रैवलर थी.

एक बार तो उस ने चाहा कि सामान पर ‘ओके’ मार्क लगा कर जाने दे. फिर उसे थोड़ा शक हुआ. उस ने समीप खड़े अटैंडैंट को इशारा किया. एक्सरे मशीन के नीचे वाली लाल बत्तियां जलने लगीं. इस का मतलब था सूटकेसों में धातु से बना कोई सामान था.

‘‘सभी अटैचियों के ताले खोलिए,’’ नरोत्तम ने अधिकारपूर्ण स्वर में कहा.

‘‘इस में ऐसा कुछ नहीं है,’’ प्रतिवाद भरे स्वर में युवती ने कहा.

‘‘मैडम, यह रुटीन चैकिंग है. अगर इस में कुछ नहीं है तब कोई बात नहीं है. आप जल्दी कीजिए. आप के पीछे और भी लोग खड़े हैं,’’ कस्टम अधिकारी ने पीछे खड़े यात्रियों की तरफ इशारा करते हुए कहा.

विवश हो युवती ने बारीबारी से सभी ताले खोल दिए. सभी सूटकेसों में ऊपर तक तरहतरह के परिधान भरे थे. उन को हटाया गया तो नीचे इलैक्ट्रौनिक वस्तुओं के पुरजे भरे थे.

सामान प्रतिबंधित नहीं था मगर आयात कर यानी ड्युटीएबल था.

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नरोत्तम ने अपने सहायक को इशारा किया. सारा सामान फर्श पर पलट दिया गया. सूची बनाई गई. कस्टम ड्यूटी का हिसाब लगाया गया.

‘‘मैडम, इस सामान पर डेढ़ लाख रुपए का आयात कर बनता है. आयात कर जमा करवाइए.’’

‘‘मेरे पास इस वक्त पैसे नहीं हैं,’’ युवती ने कहा.

‘‘ठीक है, सामान मालखाने में जमा कर देते हैं. ड्यूटी अदा कर सामान ले जाइएगा,’’ नरोत्तम के इशारे पर सहायकों ने सारे सामान को सूटकेसों में बंद कर सील कर दिया. बाकी सामान नवयुवती के हवाले कर दिया.

ज्योत्सना ने अपने वैनिटी पर्स से एक च्युंगम का पैकेट निकाला. एक च्युंगम मुंह में डाला, एअरबैग कंधे पर लटकाया और एक सूटकेस को पहियों पर लुढ़काती बड़ी अदा से एअरपोर्ट के बाहर चल दी, जैसे कुछ भी नहीं हुआ था.

सभी यात्री और अन्य स्टाफ उस की अदा से प्रभावित हुए बिना न रह सके. नरोत्तम पहले थोड़ा सकपकाया फिर वह चुपचाप अन्य यात्रियों को हैंडल करने लगा.

नरोत्तम शर्मा चंद माह पहले ही कस्टम विभाग में भरती हुआ था. वह वाणिज्य में स्नातक यानी बीकौम था. कुछ महीने प्रशिक्षण केंद्र में रहा था. फिर बतौर अंडरट्रेनी कस्टम विभाग के अन्य विभागों में रहा था.

उस के अधिकांश उच्चाधिकारी उस को सनकी या मिसफिट पर्सन बताते थे. वह स्वयं को हरिश्चंद्र का आधुनिक अवतार समझता था, न रिश्वत खाता था न खाने देता था.

शाम को रिटायरिंग रूम में कौफी पीते अन्य कस्टम अधिकारी आज की घटना की चर्चा कर रहे थे. आव्रजन काउंटर पर अघोषित माल या तस्करी का सामान पकड़ा जाना नई बात नहीं थी. असल बात तो नरोत्तम जैसे असहयोगी या मिसफिट पर्सन नेचर वाले व्यक्ति की थी. ऐसा अधिकारी कभीकभार महकमे में आ ही जाता था.

‘‘यह नया पंछी शर्मा चंदा लेता नहीं है या इस को चंदा लेना नहीं आता?’’ सरदार गुरजीत सिंह, वरिष्ठ कस्टम अधिकारी ने पूछा.

‘‘लेता नहीं है. यह इतना भोंदू नजर नहीं आता कि चंदा कैसे लिया जाता है, न जानता हो,’’ वधवा ने कहा.

‘‘एक बात यह भी है कि लेनादेना सब के सामने नहीं हो सकता,’’ रस्तोगी की इस बात का सब ने अनुमोदन किया.

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‘‘एअरपोर्ट पर आने से पहले यह कहां था?’’

‘‘कंपनियों को चैक करने वाले स्टाफ में था.’’

‘‘वहां क्या परेशानी थी?’’

‘‘वहां भी ऐसा ही था.’’

‘‘इस का मतलब यह इस लाइन का नहीं है. कितने समय तक यहां टिक पाएगा?’’ गुरजीत सिंह के इस सवाल पर सब हंस पड़े.

ज्योत्सना अपनी सप्लायर मिसेज बख्शी के सामने बैठी थी.

‘‘आज माल कैसे फंस गया?’’

‘‘एक नया कस्टम अधिकारी था, उस ने माल चैक कर मालखाने में जमा करवा दिया.’’

‘‘बूढ़ा है या नौजवान?’’

‘‘कड़क जवान है. लगता है अभी कालेज से निकला है.’’

‘‘शादीशुदा है?’’

‘‘यह उस के माथे पर तो नहीं लिखा है? वैसे कुंआरा है या शादीशुदा, आप को क्या करना है?’’ एक आंख दबाते हुए ज्योत्सना ने कहा.

‘‘मेरा मतलब है जब उस ने तेरे रूप और जवानी का रोब नहीं खाया तो, या तो शादीशुदा है या…’’ मिसेज बख्शी ने भी उसी की तरह आंख दबाते हुए कहा.

कहीं किसी रोज- भाग 2: आखिर जोया से विमल क्या छिपा रहा था?

‘‘औफिस का काम काफी रहता है, बस यों ही टाइम बीत जाता है.”

जोया ने पूछा, ‘‘और आप की फैमिली में कौनकौन हैं?”

विमल ने बता कर उस से भी पूछा. जोया ने जब बताया कि वह अविवाहित है. विमल हैरानी से उस का मुंह देखता रह गया.

यह देख जोया हंस पड़ी, ‘‘आप बहुत हैरान होते हैं, बातबात पर.‘‘ विमल को अब तक जोया के जौली नेचर का अंदाजा हो गया था. जोया ने फिर कहा, “मैं अपनी लाइफ अपने तरीके से ऐंजौय कर रही हूं, पता नहीं, लोग मेरी लाइफ पर हैरान ही होते रहते हैं, जैसे मैं जीती हूं, मुझे उस पर गर्व है.”

‘‘आप को एक फैमिली की जरूरत महसूस नहीं होती?”

‘‘पेरेंट्स हैं, भाई हैं, बाकी पति, बच्चे जैसी चीजों की कमी कभी नहीं महसूस हुई. मैं तो यहां लौकडाउन में फंसा होना भी ऐंजौय कर रही हूं, आप के पास पैसा हो तो आप को लाइफ ऐसे ही ऐंजौय करनी चाहिए, डेनिस रोडमैन ने तो कह ही दिया, ‘‘इनसान के जीवन में ५० पर्सेंट सैक्स होता है और ५० पर्सेंट पैसा.”

विमल का चेहरा शर्म से लाल हो गया. पहली बार कोई महिला उस के सामने बैठी सैक्स शब्द ऐसे खुलेआम बोल रही थी, जोया ने फिर कहा, ‘‘आप को अजीब लगा न कि कोई महिला कैसे सैक्स शब्द खुलेआम बोल रही है, इस विषय पर तो आप लोगों का कौपीराइट है,‘‘ कह कर जोया बहुत प्यारी हंसी हंसी.

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विमल इस हंसी में कहीं खो सा गया, बोला, ‘‘आप सब से बहुत अलग हैं.”

‘‘जी, मैं जानती हूं.”

‘‘आजकल आप क्या पढ़ रही हैं?”

‘‘कार्ल मार्क्स.”

‘‘और क्याक्या शौक हैं आप के?”

‘‘खुश रहने का शौक है मुझे, बाकी सब चीजें इस के साथ अपनेआप जुड़ती चली गईं. आज डिनर साथ करें क्या?”

‘‘आज तो मेरा फास्ट है. मंगलवार है न. मैं जरा धार्मिक किस्म का इनसान हूं.”

जोया मुसकराई, तो विमल ने पूछ लिया, ‘‘आप किस धर्म को मानती हैं?”

‘‘मैं तो धर्म के खिलाफ हूं, क्योंकि इस में मेरे तर्कों का कोई जवाब नहीं. लोगों ने मुझे हमेशा दिमाग से काम लेने की सलाह दी. मैं ने मानी, बस, मैं फिर नास्तिक हो गई, है न ये मजेदार बात. जब लोग मुझ से मेरा धर्म पूछते हैं, मैं कह देती हूं, नॉन डेलूशनल.

‘‘मैं तो यह मानता हूं कि ऊपर वाला हर वस्तु में है और सब से ऊपर भी, भगवान को अपने आसपास ही महसूस करता हूं, इसी अनुभूति से जीवन सफल हो सकता है, भगवान ही हमारी हर मुश्किल का अंत कर सकते हैं.”

‘‘और मैं कार्ल मार्क्स की इस बात को मानती हूं कि लोगों की खुशी के लिए पहली जरूरत धर्म का अंत है और धर्म लोगों का अफीम है.”

‘‘आप विदेशी लेखकों की बुक्स शायद ज्यादा पढ़ चुकी हैं.”

‘‘नहीं, ऐसा नहीं है, मुझे बीआर अंबेडकर की यह बात बहुत पसंद है, जो उन्होंने कहा है कि मैं ऐसे धर्म को मानता हूं जो स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा सिखाए.”

‘‘पर, जोयाजी.”

‘‘आप मुझे सिर्फ जोया ही कह सकते हैं, यह जी मुझे अकसर बहुत फिजूल की चीज लगती है.”

विमल थोड़ा हिचकिचाया, पर उसे अपने मुंह से निकलता सिर्फ जोया बहुत प्यारा लगा, वह इस नाम पर ही अब मरमिटा था, इस नाम ने ही उस के अंदर एक हलचल मचा दी थी, उसे लग रहा था कि सामने बैठी, उस से उम्र में बड़ी महिला सारी उम्र बस उस के सामने ऐसे ही बैठी रहे और वह उस की बातें सुनता रहे, उसे देखता रहे, ब्यूटी विद ब्रेन.

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‘‘तो आज आप फास्ट में डिनर में क्या खाएंगे?”

‘‘फ्रूट्स और मिल्क,”
जोया मुसकराई, ‘‘मैं ने तो अपनी लाइफ में कभी कोई फास्ट नहीं रखा.”

‘‘मैं सचमुच हैरान हूं, आप किसी भी धर्म को नहीं मानती? अच्छा, ठीक है, चलो, मुझे यह तो बता दो कि आप के पेरेंट्स का सरनेम क्या है?”

जोया बहुत जोर से हंसी, ‘‘आप उन्ही लोगों में से हैं न, जो सामने वाले के धर्म, जाति पूछ कर आगे बात करते हैं, तरस आता है मुझे ऐसे लोगों पर, जिन की दुनिया बस इतनी ही छोटी है जिस में सरनेम ही रह सकता है. खैर, मैं हूं जोया सिद्दीकी.”

विमल का चेहरा उतर गया, मुंह से निकल ही गया, ‘‘ओह्ह्ह.”

जोया ने छेड़ा, ‘‘आया मजा? क्या हुआ? झटका लगा न? अब बात नहीं कर पाएंगे?”

‘‘नहीं, नहीं, ऐसा तो नहीं है.”

दोनों फिर यों ही कुछ देर बात करते रहे, विमल जोया की नौलेज से प्रभाावित था, कमाल की थी जोया, विमल अपने रूम में आ कर भी सिर्फ जोया के बारे में ही सोचता रहा, पूरी रात उस के बारे में करवटें बदल बदल कर गुजारीं, जोया को भी विमल की सादगी बहुत अच्छी लगी थी, वह भी उस के बारे में सोच कर मुसकराती रही, अगली सुबह विमल ने उसे देखते ही बेचैनी से कहा, ‘‘आज तो मैं सो ही नहीं पाया.”

जोया ने बड़े स्टाइल से कहा, ‘‘जानती हूं.”

‘‘अरे, आप को कैसे पता?”

‘‘अकसर लोग मुझ से मिल कर जल्दी सो नहीं पाते.”

विमल थोड़ा फ्लर्ट के मूड में आ गया, ‘‘बहुत जानती हैं आप ऐसे लोगों को?”

‘‘हां, जनाब, बहुत देखे हैं.”

दोनों ने अपनेआप को एकदूसरे के कुछ और करीब महसूस किया, दोनों स्विमिंग पूल के किनारे चहलकदमी करते हुए बातें कर रहे थे, जोया ने कहा, ‘‘आज आप ने नहाधो कर सूर्य को जल नहीं चढ़ाया.”

‘‘हां, आज मन ही नहीं हुआ, मैं ठीक से सोता नहीं तो मेरा सारा काम उलटापुलटा हो जाता है.”

‘‘आप के भगवान मुझ से गुस्सा तो नहीं हो जाएंगे कि मेरी वजह से आप सो नहीं पाए. वैसे, अच्छा ही हुआ एक गिलास पानी वेस्ट होने से बच गया. आप ने कभी सोचा नहीं कि आप के भगवान को सचमुच उस पानी की जरूरत है? मुझे इस के पीछे का लौजिक समझा दीजिए, प्लीज.”

विमल ने हाथ जोड़े, ‘‘मैं समझ चुका हूं कि मैं आप से जीत नहीं सकता, जोया. मैं आप से हार चुका हूं,” उस के इस भोले से व्यवहार पर जोया मुसकरा दी. जोया ने कहा, ‘‘फिर तो बात ही खत्म, हारे हुए इनसान को क्या कहना? आज नाश्ता साथ करें?”

‘‘बिलकुल, फ्रेश हो कर मिलते हैं, इन का रैस्टोेरैंट तो बंद ही है आजकल, औफिस की मीटिंग में एक घंटा है, मेरे रूम में आओगी?”

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‘‘हां, मिलते हैं.”

घुटने तक की एक ड्रेस, शोल्डर कट बाल शैंपू किए, हलका सा मेकअप, उस के पास से आती बढ़िया परफ्यूम की खुशबू, तैयार विमल ने जब अपने रूम का दरवाजा खोला, तो जोया को देखता ही रह गया. वह बहुत सुंदर थी, उस के रूप के जादू से बचना विमल को बहुत मुश्किल सा लग रहा था. वह पूरी तरह उस के होशोहवास पर छा चुकी थी, विमल ने उस की पसंद पूछ कर नाश्ता आर्डर किया, वेटर स्टेचू सा चेहरा लिए चला गया, तो जोया हंसी, ‘‘आज तो इन लोगों को भी टाइमपास करने का हमारा टौपिक मिल गया, ये बेचारे भी लौकडाउन में ऐसी बातों के लिए तरस गए होंगे.”

विमल को बहुत जोर से हंसी आई, ‘‘क्याक्या सोच लेती हो आप भी?”

‘‘तुम भी कहोगे मुझे तो अच्छा लगेगा, आप बहुत दूर कर देता है सामने वाले को.”

‘‘पर, आप मुझ से बड़ी हैं शायद.”

‘‘शायद नहीं, बड़ी ही हूं, पर मुझे तुम से तुम ही सुनना अच्छा लगेगा, विमल, जब करीब आ ही रहे हैं तो फौर्मलिटीज क्यों?”

तलाक के बाद- भाग 2: जब सुमिता को हुआ अपनी गलतियों का एहसास

Writer- Vinita Rahurikar

लेकिन समीर की इन छोटीछोटी अपेक्षाओं पर भी सुमिता बुरी तरह से भड़क जाती थी. उसे इन्हें पूरा करना गुलामी जैसा लगता था. नारी शक्ति, नारी स्वतंत्रता, आर्थिक स्वतंत्रता इन शब्दों ने तब उस का दिमाग खराब कर रखा था. स्वाभिमान, आत्मसम्मान, स्वावलंबी बन इन शब्दों के अर्थ भी तो कितने गलत रूप से ग्रहण किए थे उस के दिलोदिमाग ने.

मल्टीनैशनल कंपनी में अपनी बुद्धि के और कार्यकुशलता के बल पर सफलता हासिल की थी सुमिता ने. फिर एक के बाद एक सीढि़यां चढ़ती सुमिता पैसे और पद की चकाचौंध में इतनी अंधी हो गई कि आत्मसम्मान और अहंकार में फर्क करना ही भूल गई. आत्मसम्मान के नाम पर उस का अहंकार दिन पर दिन इतना बढ़ता गया कि वह बातबात में समीर की अवहेलना करने लगी. उस की छोटीछोटी इच्छाओं को अनदेखा कर के उस की भावनाओं को आहत करने लगी. उस की अपेक्षाओं की उपेक्षा करना सुमिता की आदत में शामिल हो गया.

समीर चुपचाप उस की सारी ज्यादतियां बरदाश्त करता रहा, लेकिन वह जितना ज्यादा बरदाश्त करता जा रहा था, उतना ही ज्यादा सुमिता का अहंकार और क्रोध बढ़ता जा रहा था. सुमिता को भड़काने में उस की सहेलियों का सब से बड़ा हाथ रहा. वे सुमिता की बातों या यों कहिए उस की तकलीफों को बड़े गौर से सुनतीं और समीर को भलाबुरा कह कर सुमिता से सहानुभूति दर्शातीं. इन्हीं सहेलियों ने उसे समीर से तलाक लेने के लिए उकसाया. तब यही सहेलियां सुमिता को अपनी सब से बड़ी हितचिंतक लगी थीं. ये सब दौड़दौड़ कर सुमिता के दुखड़े सुनने चली आती थीं और उस के कान भरती थीं, ‘तू क्यों उस के काम करे, तू क्या उस की नौकरानी या खरीदी हुई गुलाम है? तू साफ मना कर दिया कर.’

एक दिन जब समीर ने बाजार से ताजा टिंडे ला कर अपने हाथ के मसाले वाले भरवां टिंडे बनाने का अनुरोध किया, तो सुमिता बुरी तरह बिफर गई कि वह अभी औफिस से थकीमांदी आई है और समीर उस से चूल्हे-चौके का काम करने को कह रहा है. उस दिन सुमिता ने न सिर्फ समीर को बहुत कुछ उलटासीधा कहा, बल्कि साफसाफ यह भी कह दिया कि वह अब और अधिक उस की गुलामी नहीं करेगी. आखिर वह भी इंसान है, कोई खरीदी हुई बांदी नहीं है कि जबतब सिर झुका कर उस का हुकुम बजाती रहे. उसे इस गुलामी से छुटकारा चाहिए.

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समीर सन्न सा खड़ा रह गया. एक छोटी सी बात इतना बड़ा मुद्दा बनेगी, यह तो उस ने सपने में भी नहीं सोचा था. इस के बाद वह बारबार माफी मांगता रहा, पर सुमिता न मानी तो आखिर में सुमिता की खुशी के लिए उस ने अपने आंसू पी कर तलाक के कागजों पर दस्तखत कर के उसे मुक्त कर दिया.

पर सुमिता क्या सचमुच मुक्त हो पाई?

समीर के साथ जिस बंधन में बंध कर वह रह रही थी, उस बंधन में ही वह सब से अधिक आजाद, स्वच्छंद और अपनी मरजी की मालिक थी. समीर के बंधन में जो सुरक्षा थी, उस सुरक्षा ने उसे समाज में सिर ऊंचा कर के चलने की एक गौरवमयी आजादी दे रखी थी. तब उस के चारों ओर समीर के नाम का एक अद्भुत सुरक्षा कवच था, जो लोगों की लोलुप और कुत्सित दृष्टि को उस के पास तक फटकने नहीं देता था. तब उस ने उस सुरक्षाकवच को पैरों की बेड़ी समझा था, उस की अवहेलना की थी लेकिन आज…

आज सुमिता को एहसास हो रहा है उसी बेड़ी ने उस के पैरों को स्वतंत्रता से चलना बल्कि दौड़ना सिखाया था. समीर से अलग होने की खबर फैलते ही लोगों की उस के प्रति दृष्टि ही बदल गई थी. औरतें उस से ऐसे बिदकने लगी थीं, जैसे वह कोई जंगली जानवर हो और पुरुष उस के आसपास मंडराने के बहाने ढूंढ़ते रहते. 2-4 लोगों ने तो वक्तबेवक्त उस के घर पर भी आने की कोशिश भी की. वह तो समय रहते ही सुमिता को उन का इरादा समझ में आ गया नहीं तो…

अब तो बाजार या कहीं भी आतेजाते सुमिता को एक अजीब सा डर असुरक्षा तथा संकोच हर समय घेरे रहता है. जबकि समीर के साथ रहते हुए उसे कभी, कहीं पर भी आनेजाने में किसी भी तरह का डर नहीं लगा था. वह पुरुषों से भी कितना खुल कर हंसीमजाक कर लेती थी, घंटों गप्पें मारती थीं. पर न तो कभी सुमिता को कोई झिझक हुई और न ही साथी पुरुषों को ही. पर अब किसी भी परिचित पुरुष से बातें करते हुए वह अंदर से घबराहट महसूस करती है. हंसीमजाक तो दूर, परिचित औरतें खुद भी अपने पतियों को सुमिता से दूर रखने का भरसक प्रयत्न करने लगी हैं.

भारती के पति विशाल से सुमिता पहले कितनी बातें, कितनी हंसीठिठोली करती थी. चारों जने अकसर साथ ही में फिल्म देखने, घूमनेफिरने और रेस्तरां में साथसाथ लंच या डिनर करने जाते थे. लेकिन सुमिता के तलाक के बाद एक दिन आरती ने अकेले में स्पष्ट शब्दों में कह दिया, ‘‘अच्छा होगा तुम मेरे पति विशाल से दूर ही रहो. अपना तो घर तोड़ ही चुकी हो अब मेरा घर तोड़ने की कोशिश मत करो.’’

सुमिता स्तब्ध रह गई. इस के पहले तो आरती ने कभी इस तरह से बात नहीं की थी. आज क्या एक अकेली औरत द्वारा अपने पति को फंसा लिए जाने का डर उस पर हावी हो गया? आरती ने तो पूरी तरह से उस से संबंध खत्म कर लिए. आनंदी, रश्मि, शिल्पी का रवैया भी दिन पर दिन रूखा होता जा रहा है. वे भी अब उस से कन्नी काटने लगी हैं. उन्होंने पहले की तरह अब अपनी शादी या बच्चों की सालगिरह पर सुमिता को बुलावा देना बंद कर दिया. कहां तो यही चारों जबतब सुमिता को घेरे रहती थीं.

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सुमिता को पता ही नहीं चला कि कब से उस की आंखों से आंसू बह रहे थे. 4 साल हो गए उसे तलाक लिए. शुरू के साल भर तो उसे लगा था कि जैसे वह कैद से आजाद हो गई. अब वह अपनी मर्जी से रहेगी. पर फिर डेढ़दो साल होतेहोते वह अकेली पड़ने लगी. न कोई हंसनेबोलने वाला, न साथ देने वाला. सारी सहेलियां अपने पति बच्चों में व्यस्त होती गईं और सुमिता अकेली पड़ती गई. आज उसे अपनी स्वतंत्रता स्वावलंबन, अपनी नौकरी, पैसा सब कुछ बेमानी सा लगता है. अकेले तनहा जिंदगी बिताना कितना भयावह और दुखद होता है.

लोगों के भरेपूरे परिवार वाला घर देख कर सुमिता का अकेलेपन का एहसास और भी अधिक बढ़ जाता और वह अवसादग्रस्त सी हो जाती. अपनी पढ़ाई का उपयोग उस ने कितनी गलत दिशा में किया. स्वभाव में नम्रता के बजाय उस ने अहंकार को बढ़ावा दिया और उसी गलती की कीमत वह अब चुका रही है.

सोचतेसोचते सुमिता सुबकने लगी. खानाखाने का भी मन नहीं हुआ उस का. दोपहर 2 बजे उस ने सोचा घर बैठने से अच्छा है अकेले ही फिल्म देख आए. फिर वह फिल्म देखने पहुंच ही गई.

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