सुलझती जिंदगियां- भाग 1: आखिर क्या हुआ था रागिनी के साथ?

विवाह स्थलअपनी चकाचौंध से सभी को आकर्षित कर रहा था. बरात आने में अभी समय था. कुछ बच्चे डीजे की धुनों पर थिरक रहे थे तो कुछ इधर से उधर दौड़ लगा रहे थे. मेजबान परिवार पूरी तरह व्यवस्था देखने में मुस्तैद दिखा.

इसी विवाह समारोह में मौजूद एक महिला कुछ दूर बैठी दूसरी महिला को लगता घूर रही थी. बहुत देर तक लगातार घूरने पर भी जब सामने बैठी युवती ने कोई प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की तो सीमा उठ कर खुद ही उस के पास चली गई. बोली, ‘‘तुम रागिनी हो न? रागिनी मैं सीमा. पहचाना नहीं तुम ने? मैं कितनी देर से तुम्हें ही देख रही थी, मगर तुम ने नहीं देखा, तो मैं खुद उठ कर तुम्हारे पास चली आई. कितने वर्ष गुजर गए हमें बिछुड़े हुए,’’ और फिर सीमा ने उत्साहित हो कर रागिनी को लगभग झकझोर दिया.

रागिनी मानो नींद से जागी. हैरानी से सीमा को देर तक घूरती रही. फिर खुश हो कर बोली, ‘‘तू कहां चली गई थी सीमा? मैं कितनी अकेली हो गई थी तेरे बिना,’’ कह कर उस ने उसे अपनी बांहों में भर लिया. दोनों की आंखें छलक उठीं.

‘‘तू यहां कैसे?’’ सीमा ने पूछा.

‘‘मेरे पति रमन ओएनजीसी में इंजीनियर हैं और यह उन के बौस की बिटिया की शादी है, तो आना ही था अटैंड करने. पर तू यहां कैसे?’’ रागिनी ने पूछा.

‘‘सुकन्या यानी दुलहन मेरी चचेरी बहन है. अरे, तुझे याद नहीं अकसर गरमी की छुट्टियों में आती तो थी हमारे घर लखनऊ में. कितनी लड़ाका थी… याद है कभी भी अपनी गलती नहीं मानती थी. हमेशा लड़ कर कोने में बैठ जाती थी. कितनी बार डांट खाई थी मैं ने उस की वजह से,’’ सीमा ने हंस कर कहा.

‘‘ओ हां. अब कुछ ध्यान आ रहा है,’’ रागिनी जैसे अपने दिमाग पर जोर डालते हुए बोली.

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फिर तो बरात आने तक शौपिंग, गहने, मेकअप, प्रेमप्रसंग और भी न जाने कहांकहां के किस्से निकले और कितने गड़े मुरदे उखड़ गए. रागिनी न जाने कितने दिनों बाद खुल कर अपना मन रख पाई किसी के सामने.

सच बचपन की दोस्ती में कोई बनावट, स्वार्थ और ढोंग नहीं होता. हम अपने मित्र के मूल स्वरूप से मित्रता रखते हैं. उस की पारिवारिक हैसियत को ध्यान नहीं रखते.

तभी शोर मच गया. किसी की 4 साल की बेटी, जिस का नाम निधि था, गुम हो गई थी. अफरातफरी सी मच गई. सभी ढूंढ़ने में जुट गए, तुरंत एकदूसरे को व्हाट्सऐप से लड़की की फोटो सैंड करने लगे. जल्दी ही सभी के पास पिक थी. शादी फार्महाउस में थी, जिस के ओरछोर का ठिकाना न था. जितने इंतजाम उतने ही ज्यादा कर्मचारी भी.

आधे घंटे की गहमागहमी के बाद वहां लगे गांव के सैट पर सिलबट्टा ले कर चटनी पीसने वाली महिला कर्मचारी के पास खेलती मिली. रागिनी तो मानो तूफान बन गई. उस ने तेज निगाह से हर तरफ  ढूंढ़ना शुरू कर दिया था. बच्ची को वही ढूंढ़ कर लाई. सब की सांस में सांस आई. निधि की मां को चारों तरफ  से सूचना भेजी जाने लगी, क्योंकि सब को पता चल गया था कि मां तो डीजे में नाचने में व्यस्त थी. बेटी कब खिसक कर भीड़ में खो गई उसे खबर ही न हई. जब निधि की दादी को उसे दूध पिलाने की याद आई, तो उस की मां को ध्यान आया कि निधि कहां है?

बस फिर क्या था. सास को मौका मिल गया. बहू को लताड़ने का और फिर शोर मचा कर सास ने सब को इकट्ठा कर लिया.

भीड़ फिर खानेपीने में व्यस्त हो गई. सीमा ने भी रागिनी से अपनी छूटी बातचीत का सिरा संभालते हुए कहा, ‘‘तेरी नजरें बड़ी तेज हैं… निधि को तुरंत ढूंढ़ लिया तूने.’’

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‘‘न ढूंढ़ पाती तो शायद और पगला जाती… आधी पागल तो हो ही गई हूं,’’ रागिनी उदास स्वर में बोली.

‘‘मुझे तो तू पागल कहीं से भी नहीं लगती. यह हीरे का सैट, ब्रैंडेड साड़ी, यह स्टाइलिश जूड़ा, यह खूबसूरत चेहरा, ऐसी पगली तो पहले नहीं देखी,’’ सीमा खिलखिलाई.

‘‘जाके पैर न फटे बिवाई वो क्या जाने पीर पराई. तू मेरा दुख नहीं समझ पाएगी,’’ रागिनी मुरझाए स्वर में बोली.

10 साल- भाग 1: क्यों नानी से सभी परेशान थे

Writer- लीला रूपायन

जब से होश संभाला था, वृद्धों को झकझक करते ही देखा था. क्या घर क्या बाहर, सब जगह यही सुनने को मिलता था, ‘ये वृद्ध तो सचमुच धरती का बोझ हैं, न जाने इन्हें मौत जल्दी क्यों नहीं आती.’ ‘हम ने इन्हें पालपोस कर इतना बड़ा किया, अपनी जान की परवा तक नहीं की. आज ये कमाने लायक हुए हैं तो हमें बोझ समझने लगे हैं,’ यह वृद्धों की शिकायत होती. मेरी समझ में कुछ न आता कि दोष किस का है, वृद्धों का या जवानों का. लेकिन डर बड़ा लगता. मैं वृद्धा हो जाऊंगी तो क्या होगा? हमारे रिश्ते में एक दादी थीं. वृद्धा तो नहीं थीं, लेकिन वृद्धा बनने का ढोंग रचती थीं, इसलिए कि पूरा परिवार उन की ओर ध्यान दे. उन्हें खानेपीने का बहुत शौक था. कभी जलेबी मांगतीं, कभी कचौरी, कभी पकौड़े तो कभी हलवा. अगर बहू या बेटा खाने को दे देते तो खा कर बीमार पड़ जातीं. डाक्टर को बुलाने की नौबत आ जाती और यदि घर वाले न देते तो सौसौ गालियां देतीं.

घर वाले बेचारे बड़े परेशान रहते. करें तो मुसीबत, न करें तो मुसीबत. अगर बच्चों को कुछ खाते देख लेतीं तो उन्हें इशारों से अपने पास बुलातीं. बच्चे न आते तो जो भी पास पड़ा होता, उठा कर उन की तरफ फेंक देतीं. बच्चे खीखी कर के हंस देते और दादी का पारा सातवें आसमान पर पहुंच जाता, जहां से वे चाची के मरे हुए सभी रिश्तेदारों को एकएक कर के पृथ्वी पर घसीट लातीं और गालियां देदे कर उन का तर्पण करतीं. मुझे बड़ा बुरा लगता. हाय रे, दादी का बुढ़ापा. मैं सोचती, ‘दादी ने सारी उम्र तो खाया है, अब क्यों खानेपीने के लिए सब से झगड़ती हैं? क्यों छोटेछोटे बच्चों के मन में अपने प्रति कांटे बो रही हैं? वे क्यों नहीं अपने बच्चों का कहना मानतीं? क्या बुढ़ापा सचमुच इतना बुरा होता है?’ मैं कांप उठती, ‘अगर वृद्धावस्था ऐसा ही होती है तो मैं कभी वृद्धा नहीं होऊंगी.’

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मेरी नानी को नई सनक सवार हुई थी. उन्हें अच्छेअच्छे कपड़े पहनने का शौक चर्राया था. जब वे देखतीं कि बहू लकदक करती घूम रही है, तो सोचतीं कि वे भी क्यों न सफेद और उजले कपड़े पहनें. वे सारा दिन चारपाई पर बैठी रहतीं. आतेजाते को कोई न कोई काम कहती ही रहतीं. जब भी मेरी मामी बाहर जाने को होतीं तो नानी को न जाने क्यों कलेजे में दर्द होने लगता. नतीजा यह होता कि मामी को रुकना पड़ जाता. मामी अगर भूल से कभी यह कह देतीं, ‘आप उठ कर थोड़ा घूमाफिरा भी करो, भाजी ही काट दिया करो या बच्चों को दूधनाश्ता दे दिया करो. इस तरह थोड़ाबहुत चलने और काम करने से आप के हाथपांव अकड़ने नहीं पाएंगे,’ तो घर में कयामत आ जाती.

‘हांहां, मेरी हड्डियों को भी मत छोड़ना. काम हो सकता तो तेरी मुहताज क्यों होती? मुझे क्या शौक है कि तुम से चार बातें सुनूं? तेरी मां थोड़े हूं, जो तुझे मुझ से लगाव होता.’ मामी बेचारी चुप रह जातीं. नौकरानी जब गरम पानी में कपड़े भिगोने लगती तो कराहती हुई नानी के शरीर में न जाने कहां से ताकत आ जाती. वे भाग कर वहां जा पहुंचतीं और सब से पहले अपने कपड़े धुलवातीं. यदि कोई बच्चा उन्हें प्यार करने जाता तो उसे दूर से ही दुत्कार देतीं, ‘चल हट, मुझे नहीं अच्छा लगता यह लाड़. सिर पर ही चढ़ा जा रहा है. जा, अपनी मां से लाड़ कर.’ मामी को यह सुन कर बुरा लगता. मामी और नानी दोनों में चखचख हो जाती. नानी का बेटा समझाने आता तो वे तपाक से कहतीं, ‘बड़ा आया है समझाने वाला. अभी तो मेरा आदमी जिंदा है, अगर कहीं तेरे सहारे होती तो तू बीवी का कहना मान कर मुझे दो कौड़ी का भी न रहने देता.’

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साथी- भाग 2: क्या रजत और छवि अलग हुए?

रजत का मन करता उस के दोस्तों की बीवियों की तरह छवि भी तरहतरह की ड्रैसेज पहने, जो शालीन पर फैशनेबल हों. कम से कम चूड़ीदार सूट, अनारकली सूट ये तो वह पहन ही सकती है. यही सोच कर वह एक दिन उसे किसी तरह पटा कर बाजार ले गया. लेकिन छवि कोई भी ड्रैस, यहां तक कि सूट खरीदने को भी तैयार नहीं हुई.

‘‘अरे ये सब… मांपापा क्या कहेंगे… मैं नहीं पहन सकती ये सब.’’

‘‘मेरे सभी दोस्तों की पत्नियां पहनती हैं छवि… यह अनारकली सूट ले लो… तुम पर खूब फबेगा… अभी तुम्हारी उम्र  ही क्या है… आजकल तो 60 साल की औरतें भी ये सब पहनती हैं.’’

‘‘जो पहनती हैं उन्हें पहनने दो. मैं नहीं पहन सकती. उन के सासससुर उन के साथ नहीं रहते होंगे… मांपापा क्या कहेंगे.’’

‘‘छवि मैं जानता हूं अपने मम्मीपापा को… वे पुराने विचारों के नहीं हैं… मैं ने हर तरह का माहौल देखा है… वे आर्मी अफसर की पत्नी हैं… वे तुम्हें ये सब पहने देख कर खुश ही होंगे.’’

मगर छवि ने रजत का प्रस्ताव सिरे से नकार दिया. जब छवि अनारकली सूट जैसी शालीन ड्रैस पहनने को तैयार नहीं हुई तो जींसटौप क्या पहनेगी. पापा सही कहते थे, घर का रहनसहन, स्कूलिंग, शिक्षादीक्षा इन सब का असर इंसान की पर्सनैलिटी और विचारों पर पड़ता है. पत्नी को तरहतरह से सजानेसवारने का रजत का शौक धीरेधीरे दम तोड़ गया.

रजत नौकरी में ऊंचे पदों पर पहुंचता गया. बच्चे बड़े होते गए. मातापिता वृद्ध होते गए और फिर एक दिन इस दुनिया से चले गए. छवि की जैसेजैसे उम्र बढ़नी शुरू हुई तो खुद से बेपरवाह उस का शरीर भी फैलना शुरू हो गया. चेहरे की रौनक जो उम्र की देन थी बिना देखभाल के बेजान होने लगी. लंबे लहराते बाल उम्र के साथ पतली पूंछ जैसे रह गए. वह उन्हें लपेट कर कस कर जूड़ा बना लेती, जो उस के मोटे चेहरे को और भी अनाकर्षक बना देता.

रजत कहता, ‘‘छवि मैं तुम में 20-22 साल की लड़की नहीं ढूंढ़ता, पर चाहता हूं कि तुम अपनी उम्र के अनुसार तो खुद को संवार कर रखा करो… 42 की उम्र ज्यादा नहीं होती है.’’

मगर छवि पर कोई असर नहीं पड़ता. धीरेधीरे रजत ने बोलना ही छोड़ दिया. वह खुद 46 की उम्र में अभी भी 36 से अधिक नहीं लगता था. अपने मोटापे, पहनावे और रहनसहन की वजह से छवि उम्र में उस से बड़ी लगने लगी थी. अब रजत का उसे साथ ले जाने का भी मन नहीं करता. ऐसा नहीं था कि वह दूसरी औरतों की तरफ आकर्षित होता था पर तुलना स्वाभाविक रूप से हो जाती थी.

‘‘आप अभी तक यहां बैठे हैं… लाइट भी नहीं जलाई,’’ छवि लाइट जलाते हुए बोली, ‘‘चलो खाना खा लो.’’

खाना खा कर रजत सो गया. आज पुरानी बातें याद कर के उस के मन की खिन्नता और बढ़ गई थी. छवि के प्रति जो अजीब सा नफरत का भाव उस के मन में भर गया था वह और भी बढ़ गया.

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दूसरे दिन रजत औफिस पहुंचा. उस के एक कुलीग का तबादला हुआ था. उस की जगह कोई महिला आज जौइन करने वाली थी. रजत अपने कैबिन में पहुंचा तो चपरासी ने आ कर उसे सलाम किया. फिर बोला, ‘‘साहब आप को बुला रहे हैं.’’

रजत बौस के कमरे की तरफ चल दिया. इजाजत मांग कर अंदर गया तो उस के बौस बोले, रजत ये रीतिका जोशी हैं. सहदेव की जगह इन्होंने जौइन किया है. इन्हें इन का काम समझा दो.’’

रजत ने पलट कर देखा तो खुशी से बोला, ‘‘अरे, रीतिका तुम?’’

‘‘रजत तुम यहां…’’ रीतिका सीट से उठ खड़ी हुई.

‘‘आप दोनों एकदूसरे को जानते हैं?’’

‘‘जी, हम दोनों ने साथ ही इंजीनियरिंग की थी.’’

‘‘फिर तो और भी अच्छा है… रीतिका रजत आप की मदद कर देंगे…’’

‘‘जी, सर,’’ कह कर दोनों बौस के कमरे से बाहर आ गए.

रीतिका को उस का काम समझा कर लंचब्रेक में मिलने की बात कह कर रजत अपने लैपटौप में उलझ गया. लंचब्रेक में रीतिका उस के कैबिन में आ गई, ‘‘लंचब्रेक हो गया… अभी भी लैपटौप पर नजरें गड़ाए बैठे हो.’’

‘‘ओह रीतिका,’’ वह गरदन उठा कर बोला. फिर घड़ी देखी, ‘‘पता ही नहीं चला… चलो कैंटीन चलते हैं.’’

‘‘क्यों, तुम्हारी पत्नी ने जो लंच दिया है उसे नहीं खिलाओगे?’’

‘‘वही खाना है तो उसे खा लो,’’ कह रजत टिफिन खोलने लगा. खाने की खुशबू चारों तरफ बिखर गई.

दोनों खातेखाते पुरानी बातों, पुरानी यादों में खो गए. रजत देख रहा था रीतिका में उम्र के साथसाथ और भी आत्मविश्वास आ गया था. साधारण सुंदर होते हुए भी उस ने अपने व्यक्तित्व को ऐसा निखारा था कि अपनी उम्र से 10 साल कम की दिखाई दे रही थी.

रजत छेड़ते हुए बोला, ‘‘क्या बात है, तुम्हारे पति तुम्हारा बहुत खयाल रखते हैं… उम्र को 7 तालों में बंद कर रखा है.’’

‘‘हां,’’ वह हंसते हुए बोली, ‘‘जब उम्र थी तब तुम ने देखा नहीं… अब ध्यान दे रहे हो.’’

‘‘ओह रीतिका तुम भी कहां की बात ले बैठी… ये सब संयोग की बातें हैं,’’ उस का कटाक्ष समझ कर रजत बोला.

‘‘अच्छा छोड़ो इन बातों को. मुझे घर कब बुला रहे हो? तुम्हारी पत्नी से मिलने का बहुत मन है. मैं भी तो देखूं वह कैसी है, जिस के लिए तुम ने कालेज में कई लड़कियों के दिल तोड़े थे.’’

रजत चुप हो गया. थोड़ी देर अपनेअपने कारणों से दोनों चुप रहे. फिर रीतिका ही चुप्पी तोड़ती हुई बोली, ‘‘लगता है घर नहीं बुलाना चाहते.’’

‘‘नहींनहीं ऐसी बात नहीं. जिस दिन भी फुरसत हो फोन कर देना. उस दिन का डिनर घर पर साथ करेंगे.’’

‘‘ठीक है.’’

फिर अगले काफी दिनों तक रीतिका बहुत बिजी रही. नयानया काम संभाला था. जब फुरसत मिली तो एक रविवार को फोन कर दिया, ‘‘आज शाम को आ रही हूं तुम्हारे घर, कहीं जा तो नहीं रहे हो न?’’

‘‘नहींनहीं, तुम आ जाओ… डिनर साथ करेंगे.’’

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शाम को रीतिका पहुंच गई. उस दिन तो वह और दिनों से भी ज्यादा स्मार्ट व सुंदर लग रही थी. रजत को उसे छवि से मिलाते हुए भी शर्म आ रही थी. फिर खुद को ही धिक्कारने लगा कि क्या सोच रहा है वह.

तभी छवि ड्राइंगरूम में आ गई.

‘‘छवि, यह है रीतिका… मेरे साथ इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ती थी.’’

छवि का परिचय कराते हुए रजत ने रीतिका के चेहरे के भाव साफ पढ़ लिए. वह जैसे कह रही हो कि यही है वह, जिस के लिए तुम ने मुझे ठुकरा दिया था, वह थोड़ी देर तक हैरानी से छवि को देखती रही.

‘‘बैठिए न खड़ी क्यों हैं,’’ छवि की आवाज सुन कर वह चौकन्नी हुई. छवि और रीतिका की पर्सनैलिटी में जमीनआसमान का फर्क था. दोनों की बातचीत में कुछ भी कौमन नहीं था, इसलिए ज्यादा बातें रजत व रीतिका के बीच ही होती रहीं पर साफ दिल छवि ने इसे अन्यथा नहीं लिया.

खाना खा कर रीतिका जाने लगी तो रजत कार की चाबी उठाते हुए बोला, ‘‘छवि, मैं रीतिका को घर छोड़ आता हूं.’’

अपनेअपने झंझावातों में उलझे रजत व रीतिका कार में चुप थे. तभी रजत अचानक बोल पड़ा, रीतिका छवि पहले बहुत खूबसूरत थी.

‘‘हूं.’’

‘‘पर उसे न सजनेसंवरने, न पहननेओढ़ने और न ही पढ़नेलिखने का शौक है… किसी भी बात का शौक नहीं रहा उसे कभी.’’

‘हूं,’ रीतिका ने जवाब दिया.

निकम्मा: जिसे जिंदगीभर कोसा, उसी ने किया इंतजाम

दीपक 2 साल बाद अपने घर लौटा था. उस का कसबा भी धीरेधीरे शहर के फैशन में डूबा जा रहा था. जब वह स्टेशन पर उतरा, तो वहां तांगों की जगह आटोरिकशा नजर आए. तकरीबन हर शख्स के कान पर मोबाइल फोन लगा था.

शाम का समय हो चुका था. घर थोड़ा दूर था, इसलिए बीच बाजार में से आटोरिकशा जाता था. बाजार की रंगत भी बदल गई थी. कांच के बड़े दरवाजों वाली दुकानें हो गई थीं. 1-2 जगह आदमीऔरतों के पुतले रखे थे. उन पर नए फैशन के कपड़े चढ़े हुए थे. दीपक को इन 2 सालों में इतनी रौनक की उम्मीद नहीं थी. आटोरिकशा चालक ने भी कानों में ईयरफोन लगाया हुआ था, जो न जाने किस गाने को सुन कर सिर को हिला रहा था.

दीपक अपने महल्ले में घुस रहा था, तो बड़ी सी एक किराना की दुकान पर नजर गई, ‘उमेश किराना भंडार’. नीचे लिखा था, ‘यहां सब तरह का सामान थोक के भाव में मिलता है’. पहले यह दुकान भी यहां नहीं थी.

दीपक के लिए उस का कसबा या यों कह लें कि शहर बनता कसबा हैरानी की चीज लग रहा था.

आटोरिकशा चालक को रुपए दे कर जब दीपक घर में घुसा, तो उस ने देखा कि उस के बापू एक खाट पर लेटे हुए थे. अम्मां चूल्हे पर रोटी सेंक रही थीं, जबकि एक ओर गैस का चूल्हा और गैस सिलैंडर रखा हुआ था.

दीपक को आया देख अम्मां ने जल्दी से हाथ धोए और अपने गले से लगा लिया. छोटी बहन, जो पढ़ाई कर रही थी, आ कर उस से लिपट गई.

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दीपक ने अटैची रखी और बापू के पास आ कर बैठ गया. बापू ने उस का हालचाल जाना. दीपक ने गौर किया कि घर में पीले बल्ब की जगह तेज पावर वाले सफेद बल्ब लग गए थे. एक रंगीन टैलीविजन आ गया था.

बहन के पास एक टचस्क्रीन मोबाइल फोन था, तो अम्मां के पास एक पुराना मोबाइल फोन था, जिस से वे अकसर दीपक से बातें कर के अपनी परेशानियां सुनाया करती थीं.

शायद अम्मां सोचती हैं कि शहर में सब बहुत खुश हैं और बिना चिंता व परेशानियों के रहते हैं. नल से 24 घंटे पानी आता है. बिजली, सड़क, साफसुथरी दुकानें, खाने से ले कर नाश्ते की कई वैराइटी. शहर यानी रुपया भरभर के पास हो. लेकिन यह रुपया ही शहर में इनसान को मार देता है. रुपयारुपया सोचते और देखते एक समय में इनसान केवल एक मशीन बन कर रह जाता है, जहां आपसी रिश्ते ही खत्म हो जाते हैं. लेकिन अम्मां को वह क्या समझाए?

वैसे, एक बार दीपक अम्मां, बापू और अपनी बहन को ले कर शहर गया था. 3-4 दिनों बाद ही अम्मां ने कह दिया था, ‘बेटा, हमें गांव भिजवा दो.’

बहन की इच्छा जाने की नहीं थी, फिर भी वह साथ लौट गई थी. शहर में रहने का दर्द दीपक समझ सकता है, जहां इनसान घड़ी के कांटों की तरह जिंदगी जीने को मजबूर होता है.

अम्मां ने दीपक से हाथपैर धो कर आने को कह दिया, ताकि सीधे तवे पर से रोटियां उतार कर उसे खाने को दे सकें. बापू को गैस पर सिंकी रोटियां पसंद नहीं हैं, जिस के चलते रोटियां तो चूल्हे पर ही सेंकी जाती हैं. बहन ने हाथपैर धुलवाए. दीपक और बापू खाने के लिए बैठ गए.

दीपक जानता था कि अब बापू का एक खटराग शुरू होगा, ‘पिछले हफ्ते भैंस मर गई. खेती बिगड़ गई. बहुत तंगी में चल रहे हैं और इस साल तुम्हारी शादी भी करनी है…’

दीपक मन ही मन सोच रहा था कि बापू अभी शुरू होंगे और वह चुपचाप कौर तोड़ता जाएगा और हुंकार भरता जाएगा, लेकिन बापू ने इस तरह की कोई बात नहीं छेड़ी थी.

पूरे महल्ले में एक अजीब सी खामोशी थी. कानों में चीखनेचिल्लाने या रोनेगाने की कोई आवाज नहीं आ रही थी, वरना 2 घर छोड़ कर बद्रीनाथ का मकान था, जिन के 2 बेटे थे. बड़ा बेटा गणेश हाईस्कूल में चपरासी था, जबकि दूसरा छोटा बेटा उमेश पोस्ट औफिस में डाक रेलगाड़ी से डाक उतारने का काम करता था.

अचानक न जाने क्या हुआ कि उन के छोटे बेटे उमेश का ट्रांसफर कहीं और हो गया. तनख्वाह बहुत कम थी, इसलिए उस ने जाने से इनकार कर दिया. जाता भी कैसे? क्या खाता? क्या बचाता? इसी के चलते वह नौकरी छोड़ कर घर बैठ गया था.

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इस के बाद न जाने किस गम में या बुरी संगति के चक्कर में उमेश को शराब पीने की लत लग गई. पहले तो परिवार वाले बात छिपाते रहे, लेकिन जब आदत ज्यादा बढ़ गई, तो आवाजें चारदीवारी से बाहर आने लगीं.

उमेश ने शराब की लत के चलते चोरी कर के घर के बरतन बेचने शुरू कर दिए, फिर घर से गेहूंदाल और तेल वगैरह चुरा कर और उन्हें बेच कर शराब पीना शुरू कर दिया. जब परिवार वालों ने सख्ती की, तो घर में कलह मचना शुरू हो गया.

उमेश दुबलापतला सा सांवले रंग का लड़का था. जब उस के साथ परिवार वाले मारपीट करते थे, तो वह मुझे कहता था, ‘चाचा, बचा लो… चाचा, बचा लो…’

2-3 दिनों तक सब ठीक चलता, फिर वह शराब पीना शुरू कर देता. न जाने उसे कौन उधार पिलाता था? न जाने वह कहां से रुपए लाता था? लेकिन रात होते ही हम सब को मानो इंतजार होता था कि अब इन की फिल्म शुरू होगी. चीखना, मारनापीटना, गली में भागना और उमेश का चीखचीख कर अपना हिस्सा मांगना… उस के पिता का गालियां देना… यह सब पड़ोसियों के जीने का अंग हो गया था.

इस बीच 1-2 बार महल्ले वालों ने पुलिस को बुला भी लिया था, लेकिन उमेश की हालत इतनी गईगुजरी थी कि एक जोर का थप्पड़ भी उस की जान ले लेता. कौन हत्या का भागीदार बने? सब बालबच्चों वाले हैं. नतीजतन, पुलिस भी खबर होने पर कभी नहीं आती थी.

उमेश को शराब पीते हुए 4-5 साल हो गए थे. उस की हरकतों को सब ने जिंदगी का हिस्सा मान लिया था. जब उस का सुबह नशा उतरता, तो वह नीची गरदन किए गुमसुम रहता था, लेकिन वह क्यों पी लेता था, वह खुद भी शायद नहीं जानता था. महल्ले के लिए वह मनोरंजन का एक साधन था. उस की मित्रमंडली भी नहीं थी. जो कुछ था परिवार, महल्ला और शराब थी. परिवार के सदस्य भी अब उस से ऊब गए थे और उस के मरने का इंतजार करने लगे थे. एक तो निकम्मा, ऊपर से नशेबाज भी.

लेकिन कौऐ के कोसने से जानवर मरता थोड़े ही है. वह जिंदा था और शराब पी कर सब की नाक में दम किए हुए था.

लेकिन आज खाना खाते समय दीपक को पड़ोस से किसी भी तरह की आवाज नहीं आ रही थी. बापू हाथ धोने के लिए जा चुके थे.

दीपक ने अम्मां से रोटी ली और पूछ बैठा, ‘‘अम्मां, आज तो पड़ोस की तरफ से लड़ाईझगड़े की कोई आवाज नहीं आ रही है. क्या उमेश ने शराब पीना छोड़ दिया है?’’

अम्मां ने आखिरी रोटी तवे पर डाली और कहने लगीं, ‘‘तुझे नहीं मालूम?’’

‘‘क्या?’’ दीपक ने हैरानी से पूछा.

‘‘अरे, जिसे ये लोग निकम्मा समझते थे, वह इन सब की जिंदगी बना कर चला गया…’’ अम्मां ने चूल्हे से लकडि़यां बाहर निकाल कर अंगारों पर रोटी को डाल दिया, जो पूरी तरह से फूल गई थी.

‘‘क्या हुआ अम्मां?’’

‘‘अरे, क्या बताऊं… एक दिन उमेश ने रात में खूब छक कर शराब पी, जो सुबह उतर गई होगी. दोबारा नशा करने के लिए वह बाजार की तरफ गया कि एक ट्रक ने उसे टक्कर मार दी. बस, वह वहीं खत्म हो गया.’’

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‘‘अरे, उमेश मर गया?’’

‘‘हां बेटा, लेकिन इन्हें जिंदा कर गया. इस हादसे के मुआवजे में उस के परिवार को 18-20 लाख रुपए मिले थे. उन्हीं रुपयों से घर बनवा लिया और तू ने देखा होगा कि महल्ले के नुक्कड़ पर ‘उमेश किराने की दुकान’ खोल ली है. कुछ रुपए बैंक में जमा कर दिए. बस, इन की घर की गाड़ी चल निकली.

‘‘जिसे जिंदगीभर कोसा, उसी ने इन का पूरा इंतजाम कर दिया,’’ अम्मां ने अंगारों से रोटी उठाते हुए कहा.

दीपक यह सुन कर सन्न रह गया. क्या कोई ऐसा निकम्मा भी हो सकता है, जो उपयोगी न होने पर भी किसी की जिंदगी को चलाने के लिए अचानक ही सबकुछ कर जाए? जैसे कोई हराभरा फलदार पेड़ फल देने के बाद सूख जाए और उस की लकडि़यां भी जल कर आप को गरमागरम रोटियां खाने को दे जाएं. हम ऐसी अनहोनी के बारे में कभी सोच भी नहीं सकते.

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घर का भूला- भाग 1: कैसे बदलने लगे महेंद्र के रंग

आभा और अमित जब शाम 5 बजे कालिज से लौटे तो अपने दरवाजे पर भीड़ देख कर  घबरा गए. दोनों दौड़ कर गए तो देखा कि उन के पापा, लहूलुहान मम्मी को बांहों में भरे बिलखबिलख कर रो रहे हैं. दोनों बच्चे यह सब देख कर चकरा कर गिर पड़े.  उन के आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे. तब पत्नी को धरती पर लिटा कर अपने दोनों बच्चों को छाती से लगा कर वह भी आर्तनाद कर उठे.

पड़ोसियों ने उन्हें संभाला, तब दोनों को ज्ञात हुआ कि घटना कैसे हुई. पड़ोस की कुछ महिलाएं नित्य मिल कर सब्जी- भाजी लेने जाती थीं. गृहस्थी का सब सामान लाद कर ले आतीं. उस दिन भी 4 महिलाएं सामान खरीद कर आटो से लौट रही थीं तभी पीछे से सिटी बस ने टक्कर मार दी. सामान का थैला पकड़े माया किनारे बैठी थीं. वह झटके से नीचे गिर पड़ीं. उधर सिटी बस माया को रौंदती हुई आगे निकल गई. बीच सड़क पर कोहराम मच गया. माया ने क्षण भर में प्राण त्याग दिए. पुलिस आई, केस बना, महेंद्र को फोन किया और वह दौड़े आए.

उन की दुनिया उजाड़ कर समय अपनी गति पर चल रहा था परंतु गृहस्थी की गाड़ी का एक पहिया टूट कर सब अस्तव्यस्त कर गया. मां तो बेटी से अब तक कुछ भी काम नहीं कराती थीं परंतु अब उस के कंधों पर पूरी गृहस्थी का भार आ पड़ा. कुछ भी काम करे तो चार आंसू पहले रो लेती. न पढ़ाई में चित्त लगता था न अन्य किसी काम में. न ढंग का खाना बना पाती, न खा पाती. शरीर कमजोर हो चला था. तब उन्होंने अपने आफिस के साथियों से कह कर एक साफसुथरी, खाना बनाने में सुघड़ महिला मालती को काम पर रख लिया था. चौकाबर्तन, झाड़ूपोंछा और कपड़े धोने के लिए पहले से ही पारोबाई रखी हुई थी.

महेंद्र कुमार उच्चपदाधिकारी थे. अभी आयु के 45 वसंत ही पार कर पाए थे कि यह दारुण पत्नी बिछोह ले बैठे. सब पूर्ति हो गई थी, नहीं हुई थी तो पत्नी की. घर आते तो मुख पर हर क्षण उदासी छाई रहती. हंसी तो जैसे सब के अधरों से विदा ही हो चुकी थी. जीवन जैसेतैसे चल रहा था.

धीरेधीरे 6 माह बीत गए. शीत लहर चल रही थी, ठंड अपने पूरे शबाब पर थी. उस दिन आकाश पर घनघोर बादल छाए हुए थे. दोनों एक ही कालिज में पढ़ते थे. अमित एम.ए. फाइनल और आभा बी.ए. फाइनल में थी. कालिज घर से दूर था, तभी बारिश शुरू हो गई. डेढ़ घंटे के बाद वर्षा थमी तो ये दोनों घर आए. कुछकुछ भीग गए थे. पापा घर आ चुके थे और शायद चायनाश्ता ले कर अपने कमरे में आराम कर रहे थे. कपडे़ बदल कर दोनों ने कहा, ‘‘मालती, चायनाश्ता दो, क्या बनाया है आज?’’

‘‘आज साहब ने पकौड़े बनवाए थे. आप लोगों के लिए भी ला रही हूं,’’ कहती हुई वह 2 प्लेटों में पकौड़े रख कर चाय बनाने चली गई परंतु आभा के मन में गहरी चोट कर गई. जब वह दोबारा आ कर चाय की केटलीकप टेबिल पर रख रही थी तब वह मालती को देख कर चिल्लाई, ‘‘यह…यह क्या? यह तो मम्मी की साड़ी है, यह तुम ने कहां से उठाई है?’’

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मालती घबरा गई, ‘‘मैं ने खुद नहीं उठाई बेबी, घर से आते हुए बारिश में भीग गई थी. ठंड से कांप रही थी तो साहब ने खुद निकाल कर दी है. ये 4 कपड़े स्वेटर, पेटीकोट, साड़ी और ब्लाउज…आप पूछ सकती हैं.’’

तभी उस की आवाज सुन कर महेंद्र दौड़े आए, ‘‘आभा, ये मैं ने ही दिए हैं. यह भीग गई थी, फिर अब इन का क्या काम? वह तो चली गई. किसी के काम आएं इस से बढ़ कर दान क्या है. गरीब हैं ये लोग.’’

‘‘नहीं पापा, मैं मम्मी के कपड़ों में इसे नहीं देख सकती. इस से कह दें कि अपने कपड़े पहन ले,’’ वह सिसकसिसक कर रो पड़ी. अमित के भी आंसू छलक आए.

‘‘यह तो पागलपन है, ऐसी नादानी ठीक नहीं है.’’

‘‘तो आप मम्मी के सब कपड़े अनाथालय में दान कर आएं. यह हमें इस तरह पलपल न मारे, मैं सह नहीं पाऊंगी.’’

‘‘आभा, जब इतना बड़ा गम हम उठा चुके हैं तो इतनी सी बात का क्यों बतंगड़ बना रही हो? इस के कपड़े अभी सूखे होंगे क्या? बीमार पड़ गई तो सारा काम तुम पर आ पडे़गा. इंसानियत भी तो कोई चीज है,’’ फिर वह मालती से मुखातिब हुए, ‘‘नहीं मालती, गीले कपडे़ मत पहनना. अभी इस ने पहली बार ऐसा देखा है न, इस से सह नहीं पाई. धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा. तुम जा कर खाना बनाओ और तुम दोनों अपने कमरे में जाओ,’’ कह कर वह अपने कमरे में घुस गए. उधर वे दोनों भी भारी मन से उठ कर अपने कमरे में चले गए.

एक दिन बहुत सुबह आभा ने देखा कि मालती पापा के कमरे से कुछ बर्तन लिए निकल रही है. मालती 5 बजे सुबह आ जाती थी, क्योंकि पानी 5 बजे सुबह ही आता था.

‘‘मालती, पापा के कमरे से क्या ले कर आई है?’’

‘‘रात को दूध लेते हैं. साहब, इस से ये बर्तन उठाने पड़ते हैं.’’

‘‘परंतु पापा तो कभी दूध पीते ही  नहीं हैं?’’ आभा अचरज से बोली.

‘‘वह कई दिन से दूधबादाम ले रहे हैं, मैं रात में भिगो देती हूं. वह सोते समय रोज ले लेते हैं.’’

‘‘बादाम कौन लाया?’’ आभा शंका में डूबती चली गई.

‘‘वह आप की मम्मी के समय के रखे थे. एक दिन डब्बा खोला तो देखा वे घुन रहे थे, सो उन से पूछा कि क्या करूं इन का, तो बोले कि रोज 5-6 भिगो दिया कर, दूध के साथ ले लिया करूंगा. तभी से दे रही हूं.’’

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सुन कर आभा सोच में डूब गई. कुछ दिनों बाद आभा को फिर झटका लगा, देखा कि वह मम्मी की महंगी साड़ी और चमड़े की चप्पल पहने रसोई में खाना बना रही है. उस का मन जल उठा. उस की मम्मी कभी चमडे़ की चप्पल पहन कर रसोई में नहीं जाती थीं और यह नवाबजादी मजे से पहने खड़ी है. वह तेज स्वर में बोली, ‘‘मालती, तुम चमडे़ की चप्पल पहने खाना बना रही हो? यह मम्मी की महंगी साड़ी और यह नई पायल तो मम्मी करवा चौथ पर पहनने को लाई थीं, ये चीजें तुम्हें कहां मिलीं?’’ क्रोध से उस का मुंह लाल हो गया.

‘‘ये सब तुम अपने पापा से पूछो बेबी, उन्होंने मुझ से अलमारी साफ करने को कहा तो पालिथीन की थैली नीचे गिरी. मैं ने साहब को उठा कर दी तो वह बोले तुम ले लो मालती, आभा तो यह सब नहीं पहनती, तुम्हीं पहन लो. उन्होंने ही सैंडिल भी दी, सो पहन ली.’’

‘‘देखो, यहां ये लाट साहिबी नहीं चलेगी, चप्पल उतार कर नंगे पांव खाना बनाओ समझी,’’ वह डांट कर बोली तो मालती ने सकपका कर चप्पल आंगन में उतार दीं.

अमित भी बोल  उठा, ‘‘पापा, यह आप क्या कर रहे हैं? क्या अब मम्मी के जेवर भी इस नौकरानी को दे देंगे? उन की महंगी साड़ी, सैंडिल भी, ये सब क्या है?’’

‘‘अरे, घर का पूरा काम वह इतनी ईमानदारी से करती है, और कोई होता तो चुपचाप पायल दबा लेता. इस ने ईमानदारी से मेरे हाथों में सौंप दी. साड़ी आभा तो पहनती नहीं है, इस से दे दी. इसे नौकरानी कह कर अपमानित मत करो. तुम्हारी मम्मी जैसा ही सफाई से सारा काम करती है. थोड़ा उदार मन रखो.’’

‘‘तो अब आप इसे मम्मी का दर्जा देने लगे,’’ आभा तैश में आ कर बोली.

‘‘आभा, जबान संभाल कर बात करो, क्या अंटशंट बक रही हो. अपने पापा पर शक करती हो? तुम अपने काम और पढ़ाई पर ध्यान दो. मैं क्या करता हूं, क्या नहीं, इस पर फालतू में दिमाग मत खराब करो. परीक्षा में थोड़े दिन बचे हैं, मन लगा कर पढ़ो, समझी,’’ वह क्रोध से बोले तो आभा सहम गई. इस से पहले पापा ने इतनी ऊंची आवाज में उसे कभी नहीं डांटा था.

अंतिम निर्णय: कुछ तो लोग कहेंगे!

सुहासिनी के अमेरिका से भारत आगमन की सूचना मिलते ही अपार्टमैंट की कई महिलाएं 11 बजते ही उस के घर पहुंच गईं. कुछ भुक्तभोगियों ने बिना कारण जाने ही एक स्वर में कहा, ‘‘हम ने तो पहले ही कहा था कि वहां अधिक दिन मन नहीं लगेगा, बच्चे तो अपने काम में व्यस्त रहते हैं, हम सारा दिन अकेले वहां क्या करें? अनजान देश, अनजान लोग, अनजान भाषा और फिर ऐसी हमारी क्या मजबूरी है कि हम मन मार कर वहां रहें ही. आप के आने से न्यू ईयर के सैलिब्रेशन में और भी मजा आएगा. हम तो आप को बहुत मिस कर रहे थे, अच्छा हुआ आप आ गईं.’’

उन की अपनत्वभरी बातों ने क्षणभर में ही उस की विदेशयात्रा की कड़वाहट को धोपोंछ दिया और उस का मन सुकून से भर गया. जातेजाते सब ने उस को जेट लैग के कारण आराम करने की सलाह दी और उस के हफ्तेभर के खाने का मैन्यू उस को बतला दिया. साथ ही, आपस में सब ने फैसला कर लिया कि किस दिन, कौन, क्या बना कर लाएगा.

सुहासिनी के विवाह को 5 साल ही तो हुए थे जब उस के पति उस की गोद में 5 साल के सुशांत को छोड़ कर इस दुनिया से विदा हो गए थे. परिजनों ने उस पर दूसरा विवाह करने के लिए जोर डाला था, लेकिन वह अपने पति के रूप में किसी और को देखने की कल्पना भी नहीं कर सकती थी. पढ़ीलिखी होने के कारण किसी पर बोझ न बन कर उस ने अपने बेटे को उच्चशिक्षा दिलाई थी. हर मां की तरह वह भी एक अच्छी बहू लाने के सपने देखने लगी थी.

सुशांत की एक अच्छी कंपनी में जौब लग गई थी. उस को कंपनी की ओर से किसी प्रोजैक्ट के सिलसिले में 3 महीने के लिए अमेरिका जाना पड़ा. सुहासिनी अपने बेटे के भविष्य की योजनाओं में बाधक नहीं बनना चाहती थी, लेकिन अकेले रहने की कल्पना से ही उस का मन घबराने लगा था.

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अमेरिका में 3 महीने बीतने के बाद, कंपनी ने 3 महीने का समय और बढ़ा दिया था. उस के बाद, सुशांत की योग्यता देखते हुए कंपनी ने उसे वहीं की अपनी शाखा में कार्य करने का प्रस्ताव रखा तो उस ने अपनी मां से भी विचारविमर्श करना जरूरी नहीं समझा और स्वीकृति दे दी, क्योंकि वह वहां की जीवनशैली से बहुत प्रभावित हो गया था.

सुहासिनी इस स्थिति के लिए बिलकुल तैयार नहीं थी. उस ने बेटे को समझाते हुए कहा था, ‘बेटा, अपने देश में नौकरियों की क्या कमी है जो तू अमेरिका में बसना चाहता है? फिर तेरा ब्याह कर के मैं अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहती हूं. साथ ही, तेरे बच्चे को देखना चाहती हूं, जिस से मेरा अकेलापन समाप्त हो जाए और यह सब तभी होगा, जब तू भारत में होगा. मैं कब से यह सपना देख रही हूं और अब यह पूरा होने का समय आ गया है, तू इनकार मत करना.’ यह बोलतेबोलते उस की आवाज भर्रा गई थी. वह जानती थी कि उस का बेटा बहुत जिद्दी है. वह जो ठीक समझता है, वही करता है.

जवाब में वह बोला, ‘ममा, आप परेशान मत होे, मैं आप को भी जल्दी ही अमेरिका बुला लूंगा और आप का सपना तो यहां रह कर भी पूरा हो जाएगा. लड़की भी मैं यहां रहते हुए खुद ही ढूंढ़ लूंगा.’ बेटे का दोटूक उत्तर सुन कर सुहासिनी सकते में आ गई. उस को लगा कि वह पूरी दुनिया में अकेली रह गई थी.

सालभर के अंदर ही सुशांत ने सुहासिनी को बुलाने के लिए दस्तावेज भेज दिए. उस ने एजेंट के जरिए वीजा के लिए आवेदन कर दिया. बड़े बेमन से वह अमेरिका के लिए रवाना हुई. अनजान देश में जाते हुए वह अपने को बहुत असुरक्षित अनुभव कर रही थी. मन में दुविधा थी कि पता नहीं, उस का वहां मन लगेगा भी कि नहीं. हवाई अड्डे पर सुशांत उसे लेने आया था. इतने समय बाद उस को देख कर उस की आंखें छलछला आईं.

घर पहुंच कर सुशांत ने घर का दरवाजा खटखटाया. इस से पहले कि वह अपने बेटे से कुछ पूछे, एक अंगरेज महिला ने दरवाजा खोला. वह सवालिया नजरों से सुशांत की ओर देखने लगी. उस ने उसे इशारे से अंदर चलने को कहा. अंदर पहुंच कर बेटे ने कहा, ‘ममा, आप फ्रैश हो कर आराम करिए, बहुत थक गई होंगी. मैं आप के खाने का इंतजाम करवाता हूं.’

सुहासिनी को चैन कहां, मन ही मन मना रही थी कि उस का संदेह गलत निकले, लेकिन इस के विपरीत सही निकला. बेटे के बताते ही वह अवाक उस की ओर देखती ही रह गई. उस ने इस स्थिति की कल्पना भी नहीं की थी. उस के बहू के लिए देखे गए सपने चूरचूर हो कर बिखर गए थे.

सुहासिनी ने अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखते हुए कहा, ‘मुझे पहले ही बता देता, तो मैं बहू के लिए कुछ ले कर आती.’

मां की भीगी आखें सुशांत से छिपी नहीं रह पाईं. उस ने कहा, ‘ममा, मैं जानता था कि आप कभी मन से मुझे स्वीकृति नहीं देंगी. यदि मैं आप को पहले बता देता तो शायद आप आती ही नहीं. सोचिए, रोजी से विवाह करने से मुझे आसानी से यहां की नागरिकता मिल गई है. आप भी अब हमेशा मेरे साथ रह सकती हैं.’ उस को अपने बेटे की सोच पर तरस आने लगा. वह कुछ नहीं बोली. मन ही मन बुदबुदाई, ‘कम से कम, यह तो पूछ लेता कि विदेश में, तेरे साथ, मैं रहने के लिए तैयार भी हूं या नहीं?’

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बहुत जल्दी सुहासिनी का मन वहां की जीवनशैली से ऊबने लगा था. बहूबेटा सुबह अपनीअपनी जौब के लिए निकल जाते थे. उस के बाद जैसे घर उस को काटने को दौड़ता था. उन के पीछे से वह घर के सारे काम कर लेती थी. उन के लिए खाना भी बना लेती थी, लेकिन उस को महसूस हुआ कि उस के बेटे को पहले की तरह उस के हाथ के खाने के स्थान पर अमेरिकी खाना अधिक पसंद आने लगा था. धीरेधीरे उस को लगने लगा था कि उस का अस्तित्व एक नौकरानी से अधिक नहीं रह गया है. वहां के वातावरण में अपनत्व की कमी होने के चलते बनावटीपन से उस का मन बुरी तरह घबरा गया था.

सुहासिनी को भारत की अपनी कालोनी की याद सताने लगी कि किस तरह अपने हंसमुख स्वभाव के कारण वहां पर हर आयुवर्ग की वह चहेती बन गई थी. हर दिन शाम को, सभी उम्र के लोग कालोनी में ही बने पार्क में इकट्ठे हो जाया करते थे. बाकी समय भी व्हाट्सऐप द्वारा संपर्क में बने रहते थे और जरा सी भी तबीयत खराब होने पर एकदूसरे की मदद के लिए तैयार रहते थे.

उस ने एक दिन हिम्मत कर के अपने बेटे से कह ही दिया, ‘बेटा, मैं वापस इंडिया जाना चाहती हूं.’

यह प्रस्ताव सुन कर सुशांत थोड़ा आश्चर्य और नाराजगी मिश्रित आवाज में बोला, ‘लेकिन वहां आप की देखभाल कौन करेगा? मेरे यहां रहते हुए आप किस के लिए वहां जाना चाहती हैं?’ वह जानता था कि उस की मां वहां बिलकुल अकेली हैं.

सुहासिनी ने उस की बात अनसुनी करते हुए कहा, ‘नहीं, मुझे जाना है, तुम्हारे कोई बच्चा होगा तो आ जाऊंगी.’ आखिर वह भारत के लिए रवाना हो गई.

सुहासिनी को अब अपने देश में नए सिरे से अपने जीवन को जीना था. वह यह सोच ही रही थी कि अचानक उस की ढलती उम्र के इस पड़ाव में भी सुनीलजी, जो उसी अपार्टमैंट में रहते थे, के विवाह के प्रस्ताव ने मौनसून की पहली झमाझम बरसात की तरह उस के तन के साथ मन को भी भिगोभिगो कर रोमांचित कर दिया था. उस के जीवन में क्या चल रहा है, यह बात सुनीलजी से छिपी नहीं थी.

सुहासिनी के हावभाव ने बिना कुछ कहे ही स्वीकारात्मक उत्तर दे दिया था. लेकिन उस के मन में आया कि यह एहसास क्षणिक ही तो था. सचाई के धरातल पर आते ही सुहासिनी एक बार यह सोच कर कांप गई कि जब उस के बेटे को पता चलेगा तो क्या होगा? वह उस की आंखों में गिर जाएगी? वैधव्य की आग में जलते हुए, दूसरा विवाह न कर के उस ने अपने बेटे को मांबाप दोनों का प्यार दे कर उस की परवरिश कर के, समाज में जो इज्जत पाई थी, वह तारतार हो जाएगी?

‘नहीं, नहीं, ऐसा मैं सोच भी नहीं सकती. ठीक है, अपनी सकारात्मक सोच के कारण वे मुझे बहुत अच्छे लगते हैं और उन के प्रस्ताव ने यह भी प्रमाणित कर दिया कि यही हाल उन का भी है. वे भी अकेले हैं. उन की एक ही बेटी है, वह भी अमेरिका में रहती है. लेकिन समाज भी कोई चीज है,’ वह मन ही मन बुदबुदाई और निर्णय ले डाला.

जब सुनीलजी मिले तो उस ने अपना निर्णय सुना दिया, ‘‘मैं आप की भावनाओं का आदर करती हूं, लेकिन समाज के सामने स्वीकार करने में परिस्थितियां बाधक हो जाती हैं और समाज का सामना करने की मेरी हिम्मत नहीं है, मुझे माफ कर दीजिएगा.’’ उस के इस कथन पर उन की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई, जैसे कि वे पहले से ही इस उत्तर के लिए तैयार थे. वे जानते थे कि उम्र के इस पड़ाव में इस तरह का निर्णय लेना सरल नहीं है. वे मौन ही रहे.

अचानक एक दिन सुहासिनी को पता चला कि सुनीलजी की बेटी सलोनी, अमेरिका से आने वाली है. आने के बाद, एक दिन वह अपने पापा के साथ उस से मिलने आई, फिर सुहासिनी ने उस को अपने घर पर आमंत्रित किया. हर दिन कुछ न कुछ बना कर सुहासिनी, सलोनी के लिए उस के घर भेजती ही रहती थी. उस के प्रेमभरे इस व्यवहार से सलोनी भावविभोर हो गई और एक दिन कुछ ऐसा घटित हुआ, जिस की वह कल्पना भी नहीं कर सकती थी.

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अचानक एक दिन सलोनी उस के घर आई और बोली, ‘‘एक बात बोलूं, आप बुरा तो नहीं मानेंगी? आप मेरी मां बनेंगी? मुझे अपनी मां की याद नहीं है कि वे कैसी थीं, लेकिन आप को देख कर लगता है ऐसी ही होंगी. मेरे कारण मेरे पापा ने दूसरा विवाह नहीं किया कि पता नहीं नई मां मुझे मां का प्यार दे भी पाएगी या नहीं. लेकिन अब मुझ से उन का अकेलापन देखा नहीं जाता. मैं अमेरिका नहीं जाना चाहती थी. लेकिन विवाह के बाद लड़कियां मजबूर हो जाती हैं. उन को अपने पति के साथ जाना ही पड़ता है. मेरे पापा बहुत अच्छे हैं. प्लीज आंटी, आप मना मत करिएगा.’’ इतना कह कर वह रोने लगी. सुहासिनी शब्दहीन हो गई. उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या कहे. उस ने उसे गले लगा लिया और बोली, ‘‘ठीक है बेटा, मैं विचार करूंगी.’’ थोड़ी देर बाद वह चली गई.

कई दिनों तक सुहासिनी के मनमस्तिष्क में विचारों का मंथन चलता रहा. एक दिन सुनीलजी अपनी बेटी के साथ सुहासिनी के घर आ गए. वह असमंजस की स्थिति से उबर ही नहीं पा रही थी. सबकुछ समझते हुए सुनीलजी ने बोलना शुरू किया, ‘‘आप यह मत सोचना कि सलोनी ने मेरी इच्छा को आप तक पहुंचाया है. जब से वह आई है, हम दोनों की भावनाएं इस से छिपी नहीं रहीं. उस ने मुझ से पूछा, तो मैं झूठ नहीं बोल पाया. अभी तो उस ने महसूस किया है, धीरेधीरे सारी कालोनी जान जाएगी. इसलिए उस स्थिति से बचने के लिए मैं अपने रिश्ते पर विवाह की मुहर लगा कर लोगों के संदेह पर पूर्णविराम लगाना चाहता हूं.

‘‘शुरू में थोड़ी कठिनाई आएगी, लेकिन धीरेधीरे सब भूल जाएंगे. आप मेरे बाकी जीवन की साथी बन जाएंगी तो मेरे जीवन के इस पड़ाव में खालीपन के कारण तथा शरीर के शिथिल होने के कारण जो शून्यता आ गई है, वह खत्म हो जाएगी. इस उम्र की इस से अधिक जरूरत ही क्या है?’’ सुनील ने बड़े सुलझे ढंग से उसे समझाया.

सुहासिनी के पास अब तर्क करने के लिए कुछ भी नहीं बचा था. उस ने आंसूभरी आंखों से हामी भर दी. सलोनी के सिर से मानो मनों बोझ हट गया और वह भावातिरेक में सुनील के गले से लिपट गई.

अब सुहासिनी को अपने बेटे की प्रतिक्रिया की भी चिंता नहीं थी.

जीवन की मुसकान मैं इलाहाबाद में लोकनिर्माण विभाग में स्थानिक अभियंता के पद पर कार्यरत था. एक दिन मैं अपने स्कूटर से साइट निरीक्षण के लिए जा रहा था. मैं ने अपना ब्रीफकेस स्कूटर पर आगे रखा हुआ था, जिस कारण मेरा बायां पैर स्कूटर के बाहर लटका हुआ था.

मैं जब पुल पर पहुंचा, तभी एक स्कूल बस ने मुझे ओवरटेक किया और मेरे स्कूटर से आगे निकलने लगी. उस बस की खिड़की के पास एक 6-7 साल का छात्र बैठा था, उस ने स्कूटर से बाएं लटकते मेरे पैर को देखा और जोरजोर से मुझे आवाज देने लगा, ‘‘अंकल, अपना पैर अंदर कर लें वरना आप को चोट लग जाएगी.’’

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इतनी कम उम्र में इतनी समझदारी व मुझ अनजान के प्रति प्रेम देख कर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई. मैं ने मन ही मन अच्छे संस्कार देने के लिए उस छात्र के मातापिता व अध्यापकअध्यापिकाओं को धन्यवाद दिया.      राजेश कुमार सक्सेना पूरे 40 वर्षों तक सरकारी नौकरी करने के बाद मैं रिटायर हो गई. तब समकक्ष दोस्तों ने समझाया कि अब इंद्रियां शिथिल होने लगेंगी, इसलिए सक्रिय रहने के लिए स्वाध्याय कीजिए और समाज से जुड़ कर अपने अनुभव को प्रेमपूर्वक बांटिए.

मैं ने ऐसा ही किया और आसपास के इलाकों में घूमघूम कर लोगों से परिचय बढ़ाया. फिर इसी दौरान एक पोलियोग्रस्त युवक से लगाव हो गया. वह तसवीरों को फ्रेम करने का काम करता था और प्रतिदिन विकलांग वाली गाड़ी में बैठ कर महल्ले में घूमता था. उस की दुकान छोटी है, मगर ग्राहकों के बैठने के लिए एक छोटा सा स्टूल रखा हुआ है जिस पर बैठ कर मैं उस से बातें करती थी.

एक दिन पुरस्कारस्वरूप कुछ किताबें और एक प्रशस्तिपत्र कोरियर से मेरे पास आया. इस प्रशस्तिपत्र को फ्रेम कराने के लिए मै उसी युवक के पास गई और अपना पर्स स्टूल पर रख कर बतियाने लगी और फिर घर वापस आ गई.

घर आ कर मुझे अपने पर्स का ध्यान न रहा और दोपहर से शाम तक का वक्त गुजर गया. तभी वह युवक अपनी विकलांग गाड़ी चलाता हुआ मेरे दरवाजे तक आ गया और फ्रेम देने के बाद हंसता हुआ बोला, ‘‘यह लीजिए अपना पर्स, आप वहीं भूल आई थीं.’’

मैं उस की ईमानदारी देख कर हैरान रह गई.

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लौटती बहारें- भाग 1: मीनू के मायके वालों में क्या बदलाव आया

अचानकशेखर को जल्दी घर आया देख मैं चौंक गई. साहब 8 बजे से पहले कभी पहुंचते नहीं हैं. औफिस से तो 6 बजे छुट्टी हो जाती है, पर घर पहुंचने में समय लग जाता है. मगर आज एक मित्र ने गाड़ी में लिफ्ट दे दी. अत: जल्दी आ गए. बड़ा हलकाफुलका महसूस कर रहे थे.

मैं जल्दी से 2 कप चाय ले कर अम्मांजी के कमरे में पहुंची. औफिस से आ कर शेखर की हाजिरी वहीं लगती है. पापा का ब्लडप्रैशर, रवि भैया का कालेज सभी की जानकारी लेने के बाद आखिर में मेरी खोजखबर ली जाती और वह भी रात के डिनर का मैन्यू पता करने के लिए. पापाजी भी शाम की सैर से आ गए थे. उन के लिए भी चाय ले कर गई. जल्दी में पोहे की प्लेट रसोई में ही रह गई. बस अम्मां झट से बोल उठीं, ‘‘बहू इन की पोहे की प्लेट कहां है?’’

मैं कुछ जवाब देती उस से पहले ही शेखर का भाषण शुरू हो गया, ‘‘मीनू, 2 महीने हो गए हमारे घर आए पर तुम अभी तक एक भी नियमकायदा नहीं सीख पाई हो. कल अम्मां का कमरा साफ नहीं हुआ था. उस से पहले रवि के कपड़े प्रैस करना भूल गई थी.’’

अम्मां ने जले पर नमक बुरकते हुए कहा, ‘‘पराए घर की लड़कियां हैं, ससुराल को अपना घर कहां समझती हैं.’’

मैं मन मसोस कर रह गई. कुछ कहने का मौका ही नहीं दिया. मैं सुबह से ले कर देर रात तक इस घर में सब की फरमाइशें पूरी करने के लिए चक्करघिन्नी की तरह घूमती हूं, फिर भी पराया घर, पराया खून बस यही उपाधियां मिलती हैं.

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मैं बोझिल कदमों से रसोई में आ कर रात के डिनर की तैयारी में जुट गई. खाना तैयार कर मैं दो घड़ी आराम करने के लिए अपने कमरे में जा रही थी तो अम्मांपापाजी को कमरे में अपने श्रवण कुमार बेटे शेखर से धीमे स्वर में बतियाते देखा तो कदम सुस्त हो गए.

ध्यान से सुनने पर पता चला शेखर 8 दिनों के लिए मुंबई टूअर पर जा रहे हैं. इसीलिए आज जल्दी घर आ गए थे. मन में टीस सी उठी कि जो खबर सब से पहले मुझे बतानी चाहिए थी, उसे अभी तक इस बात का पता ही नहीं.

अभी 2 महीने पहले ही आंखों में सपने लिए ससुराल आई थी, पर अपनापन कहीं दूरदूर तक दिखाई नहीं देता. सब ने एक बेगानेपन का नकाब सा ओढ़ रखा है. हां, रवि भैया को जब कोई काम होता है तो अपनापन दिखा कर करवा लेते हैं. शेखर के प्यार की बरसात तभी होती है जब रात को हमबिस्तर होते हैं.

मैं ने जल्दी से मसाले वाला गाउन बदल हाथमुंह धो कर साड़ी पहन ली. बाल खोल कर सुलझा रही थी कि शेखर सीटी बजाते हुए बड़े हलके मूड में कमरे में आ गए. मुझे तैयार होते देख मुसकराते हुए अपनी बांहों के घेरे में लेने लगे तो मैं ने पूछा, ‘‘आप ने जल्दी आने का कारण नहीं बताया?’’

शेखर बोले, ‘‘अरे, कुछ खास नहीं. 8 दिनों के लिए मुंबई टूअर पर जा रहा हूं.’’

मैं ने शरमाते हुए कहा, ‘‘मैं 8 दिन आप के बिना कैसे रहूंगी? मेरा मन नहीं लगेगा आप के बिना… मुझे भी साथ ले चलो न… वैसे भी शादी के बाद कहीं घूमने भी तो नहीं गए.’’

यह सुनते ही इन का सारा रोमांस काफूर हो गया. मुझे बांहों के बंधन से अलग करते हुए बोले, ‘‘मेरी गैरमौजूदगी में अम्मांपापा का खयाल रखने के बजाय घूमनेफिरने की बात कह रही हो… अम्मां सही कहती हैं कि बहुएं कभी अपनी नहीं होती… पराया खून पराया ही होता है.’’

यह सुन कर मैं ने चुप रहना ही ठीक समझा.

शेखर भी अनमने से प्यारमुहब्बत का ऐपिसोड अधूरा छोड़ डिनर के लिए अम्मांपापा को बुलाने चले गए. रवि भैया भी आ पहुंचे थे. मैं पापा की पसंद के भरवां करेले और सब की पसंद की अरहर की दाल व चावल परोस कर गरमगरम रोटियां सेंकने लगी.

सब डिनर कर कुरसियां खिसका कर उठ खड़े हुए. मुझे न तो किसी ने खाना खाने के लिए कहा न कोई मेरे लिए खाना परोसने खड़ा हुआ. मैं ने भी लाजशर्म छोड़ जल्दी से हाथ धो कर अपनी थाली लगा ली. बचा खाना मेरी प्रतीक्षा में था. भूख ज्यादा लगी थी, इसलिए खाना कुछ जल्दी खा लिया.

अम्मां के कमरे के बाहर लगे वाशबेसिन में हाथ धो रही थी कि अम्मांजी की व्यंग्यात्मक आवाज कानों में पड़ी, ‘‘शेखर के पापा, देखा आप ने नई बहू वाली तो कोई बात ही नहीं है मीनू में… मैं जब आई थी तो सासननद से पूछे बिना कौर नहीं तोड़ती थी. यहां तो मामला ही अलग है.’’

यह सुन कर मन वितृष्णा से भर उठा कि यह क्या जाहिलपन है. नई बहू यह नहीं करती, पराए घर की, पराया खून बस यही सुनसुन कर कान पक गए.

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अम्मां की बातों को दरकिनार कर मैं अपने कमरे में चली गई. वहां शेखर अपने कपड़े फैलाए बैठे थे. पास ही सूटकेस रखा था. समझ गई साहब जाने की तैयारी में लगे हैं. मैं बड़े प्यार से उन का हाथ पकड़ उन्हें उठाते हुए बोली, ‘‘हटिए, मैं आप का सूटकेस तैयार कर देती हूं…’’

‘‘अब आप को यह जहमत उठाने की जरूरत नहीं है,’’ शेखर ने हाथ झटकते हुए कहा, ‘‘अरे यार, कनफ्यूज न करो. तुम्हें मेरी पसंदनापसंद का कुछ पता भी है.’’

मैं चुप लगा कर बाहर बालकनी में आ कर खड़ी सड़क की रौनक देखने लगी. मन बहुत खिन्न था. पहली बार विवाह के बाद बाहर जा रहे हैं… अकेली कैसे रहूंगी… होने को भरापूरा घर है… ऐसा कोई कष्ट भी नहीं है, परंतु ससुराल में जो सब की अलगाव की भावना मुझे अंदर ही अंदर सालती थी.

मैं पेड़ से टूटी डाली की तरह एक ओर पड़ी थी. कुछ दिन पहले की ही बात है. इन की बहन नीलम जीजी आई थीं. मेरी हमउम्र भी थीं. मैं मन ही मन बहुत उत्साहित थी कि नीलम जीजी से खुल कर बातें करूंगी. इतने दिनों से लाज, संकोच ही पीछा नहीं छोड़ता था कि कहीं कुछ गलत न बोल जाऊं. नईनवेली थी. जबान खुलती ही न थी. मैं अल्पभाषी थी. मगर अब सोच लिया था कि नीलम जीजी को अपनी दहेज में मिली साडि़यों और उपहारों को दिखाऊंगी. वे कुछ लेना चाहेंगी तो उन्हें दे दूंगी. उन का उन की ससुराल में मान बढ़ेगा.

मैं ने बड़े चाव से रवि भैया से उन की खानेपीने की पसंद पूछ कर उन की पसंद का मटरपनीर, भरवां भिंडी, मेवे वाली खीर बना दी. मैं हलका सा मेकअप कर तैयार हो नीलम जीजी का बेकरारी से इंतजार करने लगी.

नीलम जीजी नन्हे राहुल को ले कर अकेली ही आई थीं. उन्हें देख कर मैं बहुत उत्साह से आगे बढ़ी और उन्हें गले लगा लिया. मुझे लगा जैसे मेरी कोई बचपन की सहेली हैं पर नीलम जीजी तुरंत मुझे स्वयं से अलग करते हुए एक औपचारिक सी मुसकान दे कर अम्मांअम्मां करते हुए कमरे में चली गईं.

मुझे ठेस सी लगी पर मैं सब कुछ भूल कर ननद की सेवा में जुट गई. मांबेटी को एकांत देने के लिए मैं रसोई में ही बनी रही.

छुट्टी का दिन था. सब घर में ही थे. अम्मां के घुटनों का दर्द बहुत बढ़ा हुआ था, इसलिए उन्होंने मुझे आदेश दिया, ‘‘बहू खाना मेरे कमरे में ही लगा दो.’’

एक अतिरिक्त टेबल रख कर मैं खाना रखने की व्यवस्था कर किचन में चली गई. किचन में जा कर मैं ने जल्दीजल्दी चपातियां बनाईं. अम्मां के कमरे में खुशनुमा महफिल जमी थी. ठहाकों की आवाजें आ रही थीं. मैं जैसे ही खाना ले कर कमरे में पहुंची सब चुप हो गए मानो कमरे में कोई अजनबी आ गया हो. हंसने वाले चुप हो गए, बोलने वालों ने बातों का रूख बदल दिया. खाना टेबल पर लगा कर मैं जल्दीजल्दी चपातियां देने लगी.

खाना खाने के बाद नीलम जीजी और रवि बरतन समेट कर रसोई में रखने आ गए. किचन से निकलते समय वे बिना मेरी ओर देखे बोले, ‘‘आप भी हमारे साथ खा लेतीं भाभी.’’

मैं कोई जवाब देती उस से पहले ही रवि व जीजी किचन से जा चुके थे. एक बार फिर महफिल जम गई. मैं शांता बाई के साथ मिल कर रसोई संभालने लगी. बड़ा मन कर रहा था कि मैं भी उन के साथ बैठूं, घर के और सदस्यों की तरह हंसीमजाक करूं, पर न मुझे किसी ने बुलाया और न ही मेरी हिम्मत हुई. शाम की चाय के बाद नीलम जीजी जाने को तैयार हो गईर्ं. रवि औटो ले आया. शेखर और पापाजी आंगन में खड़े जीजी से बतिया रहे थे. मैं भी वहीं पास जा कर खड़ी हो गई. औटो आते ही मैं लपक कर आगे बढ़ी पर जीजी सिर पर पल्ला लेते हुए ‘‘भाभी बाय’’ कह कर औटो में जा बैठीं. देखतेदेखते औटो चला गया. मैं ठगी सी वहीं खड़ी रही. अलगाव की पीड़ा ने मुझे बहुत उदास कर दिया था.

रवि की आवाज मुझे एक बार फिर वर्तमान में खींच लाई. रवि ने बताया कि आप के मायके से पापा का फोन आया है. मैं ने रवि से मोबाइल ले कर पापा से कुशलमंगल पूछा तो उन्होंने बताया कि 31 मार्च को उन का रिटायरमैंट का आयोजन है. मुझे सपरिवार आमंत्रित किया.

तब पापाजी (मेरे ससुरजी) ने, मेरे पापा से न आ पाने के लिए क्षमायाचना करते हुए मुझे भेजने की बात कही. तय हुआ कि रवि मुझे बस में बैठा देगा. वहां सहारनपुर बसअड्डा से राजू मुझे ले लेगा.

सहारनपुर अपने मायके जाने की बात सुन कर मुझे तो जैसे खुशियों के पंख लग गए. पगफेरे के बाद मैं पहली बार वहां अकेली रहने जा रही थी. मैं भी अपना सूटकेस तैयार करने के लिए उतावली हुई जा रही थी.

दूसरा विवाह: विकास शादी क्यों नहीं करना चाहता था?

अपने दूसरे विवाह के बाद, विकास पहली बार जब मेरे घर आया तो मैं उसे देखती रह गई थी. उस का व्यक्तित्व ही बदल गया था. उस के गालों के गड्ढे भर गए थे. आंखों पर मोटा चश्मा, जो किसी चश्मे वाले मास्टरजी के कार्टून वाले चेहरे पर लगा होता है वैसे ही उस की नाक पर टिका रहता था लेकिन अब वही चश्मा व्यवस्थित तरीके से लगा होने के कारण उस के चेहरे की शोभा बढ़ा रहा था. कपड़ों की तरफ भी जो उस का लापरवाही भरा दृष्टिकोण रहता था उस में भी बहुत परिवर्तन दिखा. पहले के विपरीत उस ने कपड़े और सलीके से पहने हुए थे. लग रहा था जैसे किसी के सधे हाथों ने उस के पूरे व्यक्तित्व को ही संवार दिया हो. उस के चेहरे से खुशी छलकी पड़ रही थी.

मैं उसे देखते ही अपने पास बैठाते हुए खुशी से बोली, ‘‘वाह, विकास, तुम तो बिलकुल बदल गए. बड़ा अच्छा लग रहा है तुम्हें देख कर. शादी कर के तुम ने बहुत अच्छा किया. तुम्हारा घर बस गया. आखिर कितने दिन तुम ममता का इंतजार करते. अच्छा हुआ तुम्हें उस से छुटकारा मिल गया.’’

उस के लिए चाय बनातेबनाते, मैं मन ही मन सोचने लगी कि इस लड़के ने कितना झेला है. पूरे 8 साल अपनी पहली पत्नी ममता का मायके से लौटने का इंतजार करता रहा. लेकिन वह अपनी जिद पर अड़ी रही कि वह नहीं आएगी. विकास को ही अपना परिवार, जिस में उस की मां और एक कुंआरी बहन थी, को छोड़ कर उस के साथ रहना होगा.

विकास के छोटे से घर में उन सब के साथ रहना उस को अच्छा नहीं लगता था. ममता की अपनी मां का घर बहुत बड़ा था. विकास ने उसे बहुत समझाया कि बहन का विवाह करने के बाद वह बड़ा घर ले लेगा. लेकिन ममता को अपने सुख के सामने कुछ भी दिखाई ही नहीं पड़ता था. उस के मायके वालों ने भी उसे कभी समझाने की कोशिश नहीं की. विकास ने ममता की अनुचित मांग को मानने से साफ इनकार कर दिया. लेकिन ससुराल में जा कर ममता को समझाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. अंत में वही हुआ, दोनों का तलाक हो गया. उन 8 सालों में हम ने विकास को तिलतिल मरते देखा था. वह मेरे बेटे रवि का सहकर्मी था. अकसर वह हमारे घर आ जाता था. मैं ने उस को कई बार समझाया कि वह अब पत्नी ममता का इंतजार न करे और तलाक ले ले. लेकिन वह कहता कि वह ममता को तलाक नहीं देगा, ममता को पहल करनी है तो करे. ममता को जब यह विश्वास हो गया कि विकास उस की शर्त कदापि पूरी नहीं करेगा तो उस ने विकास से अलग होने का फैसला ले लिया.

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चाय पीते हुए मैं ने विकास से उस की नई पत्नी के बारे में पूछा तो उस ने बताया, ‘‘आंटी, मैं तो शादी करना ही नहीं चाहता था, लेकिन मां और बहन की जिद के आगे मुझे झुकना पड़ा. आप को पता है कि उमा जिस से मैं ने शादी की है, वह एक स्कूल में टीचर है. उस के 2 बच्चे, एक लड़का और एक लड़की हैं. लड़का 12 साल का और लड़की 16 साल की है. उमा भी शादी नहीं करना चाहती थी. उमा के मांबाप तो उसे समझा कर थक गए थे, लेकिन अपने बच्चों की जिद के आगे उस ने शादी करना स्वीकार किया. जब उन बच्चों ने मुझे अपने पापा के रूप में पसंद किया, तभी हमारा विवाह हुआ. ‘‘मेरी होने वाली बेटी ने विवाह से पहले, मुझ से कई सवाल किए, पहला कि मैं उस के पहले पापा की तरह उन से मारपीट तो नहीं करूंगा. दूसरा, मुझे शराब पीने की आदत तो नहीं है? जब उसे तसल्ली हो गई तब उस ने मुझे पापा के रूप में स्वीकार करने की घोषणा की. मैं ने भी उन को बताया कि मेरे ऊपर जिम्मेदारी है, मैं उन को उतनी सुखसुविधाएं तो नहीं दे पाऊंगा, जो वर्तमान समय में उन्हें अपने नाना के घर में मिल रही हैं. मैं ने अभी बात भी पूरी नहीं की कि मेरी बेटी बोली कि उसे कुछ नहीं चाहिए, बस, पापा चाहिए. मुझे पलेपलाए बच्चे मिल गए और उन्हें पापा मिल गए.

‘‘मेरा तो कोई बच्चा है नहीं, अब इस उम्र में ऐसा सुख मिल जाए तो और क्या चाहिए. उमा भी यह सोच कर धन्य है कि उस को एक जीवनसाथी मिल गया और उस के बच्चों को पापा मिल गए. अब घर, घर लगता है. बच्चे जब मुझे पापा कहते हैं तो मेरा सीना गर्व से फूल जाता है. एक बार मेरी बेटी ने मेरे जन्मदिन पर एक नोट लिख कर मेरे तकिए के नीचे रख दिया. उस में लिखा था, ‘दुनिया के बैस्ट पापा’. उसे पढ़ कर मुझे लगा कि मेरा जीवन ही सार्थक हो गया है.’’

उस ने एक ही सांस में अपने मन के उद्गार मेरे सामने व्यक्त कर दिए. ऐसा करते हुए उस के चेहरे की चमक देखने लायक थी. बातबात में जब वह बड़े आत्मविश्वास के साथ ‘मेरी बेटी’ शब्द इस्तेमाल कर रहा था, उस समय मैं सोच रही थी कि कितनी खुश होगी वह लड़की, लोग तो अपनी पैदा की हुई बेटी को भी इतना प्यार नहीं करते. मैं ने कहा, ‘‘सच में, तुम ने एक औरत और उस के बच्चों को अपना नाम दे कर उन का जीवन खुशियों से भर दिया. एक तरह से उन का नया जन्म हो गया है. तुम ने इतना बड़ा काम किया है कि जिस की जितनी भी प्रशंसा की जाए, कम है. तुम्हें घर बसाने वाली पत्नी के साथ पापा कहने वाले बच्चे भी मिल गए. मुझे तुम पर गर्व है. कभी परिवार सहित जरूर आना.’’ उस ने मोबाइल पर सब की फोटो दिखाई और दिखाते समय उस के चेहरे के हावभाव से ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे वह कोई नैशनल लैवल का मैडल जीत कर आया है और दिखा रहा है.

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‘‘चलता हूं, आंटीजी, बेटी को स्कूल से लेने जाना है. वह मेरा इंतजार कर रही होगी. अगली बार सब को ले कर आऊंगा…’’ और झुकते हुए मेरे पांव छू कर दरवाजे की ओर वह चल दिया. मैं उसे विदा कर के सोच में पड़ गई कि समय के साथ लोगों की सोच में कितना सकारात्मक परिवर्तन आ गया है. पहले परित्यक्ता और विधवा औरतों को कितनी हेय दृष्टि से देखा जाता था, जैसे उन्होंने ही कोई अपराध किया हो. पहली बात तो उन के पुनर्विवाह के लिए समाज आज्ञा ही नहीं देता था और किसी तरह हो भी जाता तो, विवाह के बाद भी ससुराल वाले उन को मन से स्वीकार नहीं करते थे. अच्छी बात यह है कि अब बच्चे ही अपनी मां को उन के जीवन के खालीपन को भरने के लिए उन्हें दूसरे विवाह के लिए प्रोत्साहित करते हैं, जैसा कि विकास के साथ घटित हुआ है. यह सब देख कर मुझे बहुत सुखद अनुभूति हुई और आज की युवा पीढ़ी की सोच को मैं ने मन ही मन नमन करते हुए आत्मसंतुष्टि का अनुभव किया.

मुहरे- भाग 2: विपिन के लिए रश्मि ने कैसा पैंतरा अपनाया

बटनों से छेड़छाड़ करने पर लिफ्ट 7वीं मंजिल पर बढ़ गई. हमारी लिफ्ट दरवाजों वाली नहीं है, चैनल वाली है, खुली है तो मुझे जरा ठीक लगता है. मैं ने अब उस लड़के पर नजर डाली. 26-27 साल का होगा. वह 7वीं मंजिल पर लिफ्ट से बाहर निकल कर मुसकराया तो आदतन मैं भी मुसकरा दी. मैं ने फिर 3 वाला बटन दबाया और अपने फ्लोर पर पहुंच मुसकराती हुई घर में घुसी. तीनों मेरा ही वेट कर रहे थे.

शाश्वत बोला, ‘‘अरे वाह, पनीर मिल गया?’’ मैं ने हंसते हुए ‘हां’ कहा तो विपिन ने कहा, ‘‘कितनी अच्छी लग रही हो हंसते हुए.’’

मैं मुसकराते हुए ही लिफ्ट में हुई गड़बड़ बताने लगी तो विपिन कुछ गंभीर हो गए. मैं मन ही मन हंसी. मैं ने कहा, ‘‘अच्छा लड़का था.’’

‘‘इतनी जल्दी पता चल गया तुम्हें कि अच्छा लड़का था?’’ विपिन बोले. ‘‘हां, मुझे जल्दी पता चल जाता है,’’ कहते हुए मुझे मजा आया.

वे बोले, ‘‘ध्यान रखा करो, यार… कहां था तुम्हारा ध्यान?’’ मैं मुसकराती रही. 3-4 दिन बाद मैं शाम की सैर से लौट रही थी. वही लड़का फिर मुझे मिल गया. हमारी हायहैलो हुई, बस. 2 दिन बाद मैं फिर सब्जी ले कर लौट रही थी तो वह लिफ्ट में साथ हो गया. उस ने मेरे कुछ कहे बिना लिफ्ट तीसरी मंजिल पर रोक दी. मैं थैंक्स कह बाहर आ गई.

मैं ने उस रात डिनर करते हुए सब को बताया, ‘‘अरे, आज वह लिफ्ट वाला लड़का भी मेरे साथ ही आया तो उस ने खुद ही तीसरी मंजिल पर लिफ्ट रोक दी.’’

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विपिन के चेहरे पर जो भाव आए, उन्हें देख कर मुझे मन ही मन शरारत सूझ गई. मैं ने कई बातें एकसाथ सोच लीं. फिर भोलेपन से पूछा, ‘‘क्या हुआ विपिन? क्या सोचने लगे?’’

वान्या और शाश्वत आराम से खाना खाते हुए हमारी बातें सुन रहे थे. विपिन ने कहा, ‘‘यह फिर कहां से लिफ्ट में मिल गया?’’

‘‘तो क्या हुआ, वह तो मुझे अकसर कहीं न कहीं टकरा ही जाता है… जब एक बिल्डिंग में रहते हैं तो सामना तो होगा ही न.’’ विपिन और मैं डिनर के बाद घूमने जाते हैं. उस दिन भी गए तो वह लड़का किसी से फोन पर बात कर रहा था.. मैं ने उसे देख कर जानबूझ कर हाथ हिला दिया. उस ने भी जवाब दिया.

विपिन ने कहा, ‘‘यह कौन है?’’ ‘‘वही लिफ्ट वाला.’’

बेचारे हायहैलो पर क्या बोलते, उस समय तो चुप ही रहे. घर आ कर जानबूझ कर बच्चों के सामने बोले, ‘‘आज तुम्हारी मम्मी का लिफ्ट वाला दोस्त देखा मैं ने.’’ बच्चे हंसे तो मैं भी मुसकरा दी, ‘‘अरे छोड़ो, कहां से दोस्त होगा वह मेरा, बच्चा है, मेरी उम्र देखो… इस उम्र में उस की उम्र का मेरा क्या दोस्त बनेगा?’’

उन के मुंह से निकल ही गया, ‘‘इतनी उम्र कहां हो गई तुम्हारी?’’ मैं ने चौंकने का अभिनय किया, ‘‘अच्छा? उम्र नहीं हो गई मेरी?’’

विपिन को कुछ न सूझा तो मुझे बहुत मजा आया. उस रात सोने लेटी तो विपिन के आज के चेहरे के भाव पर हंसी आ रही थी. आजकल उम्र की छेड़छाड़ से मुझे कितना परेशान कर रखा है. मुझे तो अब शरारत सूझ ही चुकी थी. जानती हूं मेरी इस शरारत के आगे विपिन टिक नहीं पाएंगे. पर अब सोच रही हूं कि मैं उन के इस मजाक पर इतना चिढ़ती क्यों हूं… स्त्री हूं न… उम्र की बात पर दिल जरा कमजोर पड़ ही जाता है. कौन स्त्री नहीं चाहती हमेशा यंग बने रहना, पर जब मैं मन से स्वयं को यंग और ऐनर्जेटिक महसूस करती हूं तो मैं हर समय यह नहीं सुनना चाहती कि मेरी उम्र हो रही है.

कभी कहीं दर्द हो गया तो उम्र का मजाक, कभी कुछ भूल गई तो उम्र… नहीं सुनना होता मुझे ये सब. अरे, मजाक कुछ और भी तो हो सकते हैं न. उम्र के मजाक और वह भी एक स्त्री से… घोर अपराध. अगले 10-15 दिन मैं ने नोट किया कि अकसर मेरे सैर से लौटने के समय वह लिफ्ट वाला लड़का मुझे नीचे मिलता और मेरे साथ ही लिफ्ट में प्रवेश कर जाता. मेरे दिल ने कहा, यह संयोग नहीं हो सकता. वह जानबूझ कर ऐसा करने लगा है. कभी कोई अन्य व्यक्ति लिफ्ट में होता तो बस मुसकरा देता वरना थोड़ीबहुत बात करता.

मुझे 2-3 बार उस ने यह भी कहा कि मैम, यू आर लुकिंग नाइस. एक दिन उस ने लिफ्ट में मुझ से कहा, ‘‘मैम, मैं प्रशांत, बहुत दिनों से आप का नाम भी जानना चाह रहा था, प्लीज बताएं’’ इतने में तीसरी मंजिल आ गई थी लिफ्ट से निकलते हुए मैं ने कहा, ‘‘रश्मि.’’

उस ने ऊपर जाते हुए ‘‘बाय, मैम’’ कहा. मैं जब अपना नाम बता रही थी वान्या अपने घर का दरवाजा खोल कर बाहर आ रही थी, उस ने मेरा अपना नाम बताना सुन लिया था.’’ पूछा, ‘‘मम्मी, किसे अपना नाम बता रही थीं?’’

‘‘लिफ्ट वाले लड़के को.’’ वान्या ने जिस तरह मुझे देखा उस पर मैं खुल कर हंसी.

‘‘पता नहीं किसकिस से बातें करती रहती हैं आप… अच्छा, मैं नोटबुक लेने जा रही हूं. अभी आई.’’ डिनर के समय वान्या ने कहा, ‘‘मम्मी, मैं आप को बताना भूल गई. मेरी शर्ट के बटन लगा देंगी अभी?’’

‘‘हां, पर सूई में धागा डाल दो प्लीज. चश्मा लगा कर भी मुझ से धागा नहीं लगाया जाता है.’’

विपिन को एक और मौका मिल गया. बोले, ‘‘हां अब धीरेधीरे चश्मे का नंबर बढ़ेगा ही.’’ ‘‘क्यों पापा, नंबर क्यों बढ़ेगा?’’ वान्या ने पूछा.

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‘‘अरे भई, उम्र के साथ नजर भी कमजोर होती है न.’’ ‘‘पापा अभी इतनी उम्र भी नहीं हुई है मम्मी की… आप ने अभी मम्मी के जलवे नहीं देखे… पड़ोस के लड़के नाम पूछते घूमते हैं.’’

वान्या के कहने के ढंग पर मैं खुल कर हंसी. हम चारों में बेहद शानदार दोस्ती है. हमारे युवा बच्चे हमारे दोस्त हैं, हम एकदूसरे के साथ हंसीमजाक, छेड़छाड़ करते हैं. बस मैं उम्र के मजाक पर गंभीर हो जाती हूं.

विपिन ने पूछा, ‘‘कौन भई?’’ ‘‘लिफ्ट वाला लड़का आज मम्मी से इन का नाम पूछ रहा था.’’

‘‘क्यों? उसे क्या करना है इन के नाम का?’’ मैं ने बहुत ही भोलेपन से कहा, ‘‘जाने दो, बच्चा है… उम्र देखो मेरी.’’

‘‘इतनी भी उम्र नहीं हो रही तुम्हारी.’’ मैं ने फिर हैरानी से आंखें फाड़ी, ‘‘अच्छा?’’ विपिन झेंप गए तो मुझे बड़ी खुशी हुई.

हमारी सोसायटी में स्वीपर सुबह 8 बजे कूड़ा लेने आ जाते हैं. जब वान्या

सत्य असत्य- भाग 1: क्या था कर्ण का असत्य

कर्ण के एक असत्य ने सब के लिए परेशानी खड़ी कर दी. जहां इसी की वजह से हुई निशा के पिता की मौत ने उसे झकझोर कर रख दिया, वहीं खुद कर्ण पछतावे की आग में सुलगता रहा. पर निशा से क्या उसे कभी माफी मिल सकी?

घर की तामीर चाहे जैसी हो, इस में रोने की कुछ जगह रखना.’ कागज पर लिखी चंद पंक्तियां निशा के हाथ में देख मैं हंस पड़ी, ‘‘घर में रोने की जगह क्यों चाहिए?’’

‘‘तो क्या रोने के लिए घर से बाहर जाना चाहिए?’’ निशा ने हंस कर कहा.

‘‘अरे भई, क्या बिना रोए जीवन नहीं काटा जा सकता?’’

‘‘रोना भी तो जीवन का एक अनिवार्य अंग है. गीता, अगर हंसना चाहती हो तो रोने का अर्थ भी समझो. अगर मीठा पसंद है तो कड़वाहट को भी सदा याद रखो. जीत की खुशी से मन भरा पड़ा है तो यह मत भूलो, हारने वाला भी कम महत्त्व नहीं रखता. वह अगर हारता नहीं तो दूसरा जीतता कैसे?’’

निशा के सांवले चेहरे पर बड़ीबड़ी आंखें मुझे सदा ही भाती रही हैं, और उस से भी ज्यादा प्यारी लगती रही हैं मुझे उस की बातें. हलके रंग के कपड़े उस पर बहुत सजते हैं.

वह मुसकराते हुए बोली, ‘‘ये मशहूर शायर निदा फाजली के विचार हैं और मैं इन से पूरी तरह सहमत हूं. गीता, यह सच है, घर में एक ऐसा कोना जरूर होना चाहिए जहां इंसान जी भर कर रो सके.’’

‘‘तुम्हारा मतलब है, जैसे घर में रसोईघर, सोने का कमरा, अतिथि कक्ष, क्या वैसा ही? मगर इतनी महंगाई में कैसे होगा यह सब? सुना है, राजामहाराजा रानियों के लिए कोपभवन बनवाते थे. क्या तुम भी वैसा ही कोई कक्ष चाहती हो?’’

शायद मेरी बात में छिपा व्यंग्य उसे चुभ गया. उस ने किताबें संभालीं और उठ कर चल दी.

मैं ने उसे रोकना चाहा, मगर वह रुकी नहीं. पलभर को मुझे बुरा लगा, लेकिन जल्द ही नौर्मल हो गई.

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मैं एमए के बाद बीएड कर रही थी. इसी सिलसिले में निशा से मुलाकात हो गई थी. पहली ही बार जब वह मिली, तभी इतनी अच्छी लगी थी कि कहीं गहरे मन में समा सी गई थी. पिता के सिवा उस का और कोईर् न था. पिता ही उस के सब थे. मैं उन से मिली नहीं थी, परंतु उन के बारे मैं इतना कुछ जान लिया था, मानो बहुतकुछ देखापरखा हो.

निशा के पिता विज्ञान के प्राध्यापक थे. लगभग 6 माह पहले ही उन का दिल्ली स्थानांतरण हुआ था.

‘‘आप इस से पहले कहां थीं?’’ एक दिन मैं ने पूछा तो वह बोली, ‘‘जम्मू.’’

‘‘बड़ी सुंदर जगह है न जम्मू. कश्मीर भी तो एक सुंदर जगह है. वहां तो तुम लोग जाती ही रहती होगी?’’

‘‘हां, बहुत सुंदर. कश्मीर तो अकसर जाते रहते हैं.’’

‘‘मगर तुम तो कश्मीरी नहीं लगतीं?’’

‘‘जानती हूं, दक्षिण भारतीय लगती हूं न, सभी हंसते हैं, पता नहीं क्यों. शायद मेरी मां सांवली होंगी. मगर मेरे पिता तो बहुत सुंदर हैं, कश्मीरी हैं न.’’

‘‘तुम्हारे भाईबहन?’’

‘‘कोई नहीं है. मैं और मेरे पिता, बस.’’

मां की कमी उसे खलती हो, ऐसा मुझे कभी नहीं लगा. वह मस्तभाव से हर बात करती थी.

एक दिन मेरे बड़े भैया ने मुझ से कहा, ‘‘कभी उसे घर लाना न, निशा कैसी है, जरा हम भी तो देखें.’’

‘‘अच्छा, लाऊंगी, मगर तुम इतनी दिलचस्पी क्यों ले रहे हो?’’ भाई को तनिक छेड़ा तो पिताजी ने कहा, ‘‘अरे भई, दिलचस्पी लेने की यही तो उम्र है.’’

कहकहों के बीच एक भीनी सी इच्छा ने भी जन्म ले लिया था कि क्यों न मैं उसे अपनी भाभी ही बना लूं. वैसे है तो सांवली, लेकिन हो सकता है, भैया को पसंद आ जाए. हां, मां का पता नहीं, उन का गोरीचिट्टी बहू का सपना है, क्या पता वे इस लोभ से ऊपर न उठ पाएं.

उसी दिन से मैं उसे दूसरी ही नजर से देखने लगी थी. कल्पना में ही उसे भैया की बगल में बिठा कर दोनों की जोड़ी कैसी लगेगी. गुलाबी जोड़े में कैसी सजेगी निशा, कैसी प्यारी लगेगी.

‘गीता, क्या देखती रहती हो?’ अकसर निशा के टोकने पर ही मेरी तंद्रा भंग होती थी.

‘कुछ भी तो नहीं,’ मैं हौले से कह उठती.

एक दिन मैं ने उस से कहा, ‘‘हमारे घर चलोगी? तुम्हें सब से मिलाना चाहती हूं. चलो, मेरे साथ.’’

‘‘नहीं गीता, पिताजी को अच्छा नहीं लगता. फिर इस शहर में हम नए हैं न, किसी से इतनी जानपहचान कहां है, जो…’’

‘‘क्या मेरे साथ भी जानपहचान नहीं है?’’

‘‘कभी पिताजी के साथ ही आऊंगी, उन के बिना मैं कहीं नहीं जाती.’’

एक दिन मैं उस के साथ उस के घर चली गई. वे विश्वविद्यालय की ओर से मिले आवास में रहते थे.

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उन लोगों के पास 2 चाबियां थीं. घर पहुंचने पर द्वार उसे खुद ही खोलना पड़ा, क्योंकि उस के पिता अभी नहीं आए थे. पर सुंदर, व्यवस्थित घर में मैं ने उन का चित्र जरूर देख लिया. सचमुच वे बहुत सुंदर थे. किसी भी कोने से वे मुझे उस के पिता नहीं लगे, मगर बालों की सफेदी के कारण विश्वास करना ही पड़ा.

उस ने कहा, ‘‘पिताजी को फोन कर के बुला लूं. आज तुम पहली बार आई हो?’’

‘‘नहीं निशा, क्या यह अच्छा लगेगा कि मेरी वजह से वे काम छोड़ कर चले आएं? मैं फिर कभी अपने पिताजी के साथ आ जाऊंगी. दोनों में दोस्ती हो गई तो तुम्हें हमारे घर आने से नहीं रोकेंगे न.’’

‘घर में रोने को एक कोना उसे क्यों चाहिए? क्या उस के पिता ने किसी वजह से डांट दिया?’ घर आ कर भी मैं देर तक यह सोचती रही.

एक शाम भैया को

घर में प्रवेश करते

देखा तो कह दिया, ‘‘मेरे साथ निशा के घर चलो भैया, आज वह बहुत उदास थी. पता नहीं उसे क्या हो गया है.’’

‘‘तुम गौर से सुन लो, आइंदा उस से कभी मत मिलना. वह अच्छे चरित्र की लड़की नहीं है.’’

‘‘भैया,’’ मैं चीख उठी.

‘‘तुम उस के बहुत गुणगान करती थीं. अपने बाप के बिना वह कहीं जाती नहीं. अरे, दस बार तो मैं उसे एक लड़के के साथ देख चुका हूं.’’

‘‘लेकिन,’’ मैं भाई के कथन पर अवाक रह गई. फिर सोचते हुए पूछा, ‘‘आप ने निशा को कब देखा? जानते भी हो उसे?’’

‘‘जब से घर में उस के गुण गा रही हो, तभी से उसे देख रहा हूं.’’

‘‘कहां?’’

‘‘वहीं कालेज के बाहर. जब वह अपने घर जाती है, तब.’’

‘‘क्यों देखते रहे उसे?’’

‘‘झक मारता रहा, बस. और क्या कहूं,’’ भैया पैर पटक कर भीतर चले गए.

घर में मां और पिताजी नहीं थे, इसीलिए तमतमाई सी पीछे जा पहुंची, ‘‘आप सड़कछाप लड़कों की तरह उस का पीछा करते रहे? क्या आप अच्छे चरित्र के मालिक हैं? वाह भैया, वाह.’’

‘‘तुम ने ही कहा था न कि वह जहां जाती है, अपने पिता के साथ जाती है. यहां तक कि यहां तुम्हारे साथ भी नहीं आई.’’

‘‘हां, मैं ने कहा था, लेकिन यह तो नहीं कहा था कि…लेकिन आप इतने गंभीर क्यों हो रहे हैं? क्या वह किसी के साथ आजा नहीं सकती. भैया, आखिर उसे चरित्रहीन कहने का आप को क्या हक है?’’

‘‘हक क्यों नहीं है. मैं…मैं उसे पसंद करने लगा था. वह मुझे भी उतनी ही अच्छी लगती रही है, जितनी कि तुम्हें. पिछले कई हफ्तों से मैं उस पर नजर रख रहा हूं. वह लड़का उस के घर उस से मिलने भी जाता है. मैं ने कई जगह दोनों को देखा है.’’

पहली बार लगा, मुझ से बहुत बड़ी भूल हो गई. अगर उस का किसी के साथ प्रेम है भी, तो मुझे बताया क्यों नहीं.

मैं ने तनिक गुस्से में कहा, ‘‘भैया, अपने शब्द वापस लो. प्रेम करने और चरित्रहीन होने में जमीनआसमान का अंतर है. वह चरित्रहीन नहीं है.’’

‘‘कैसे नहीं है? तुम ने कहा था न.’’

‘‘मेरी बात छोड़ो. मैं तो यह भी कह रही हूं कि वह अच्छी लड़की है. मात्र मेरी बातों का सहारा मत लो. अपनी जलन को कीचड़ बना कर उस के चरित्र पर मत उछालो.’’

इतना सुनते ही भैया खामोश हो गए.

मैं निशा को ले कर बराबर विचलित रही. 2-3 दिन बीत गए, पर वह कालेज नहीं आई. मैं ने बहुत चाहा कि उस के घर जा कर उस युवक के विषय में पूछूं, पर हिम्मत ही न हुई.

?एक रात फोन की घंटी घनघना उठी.

?फोन निशा का था और वह

अस्पताल से बोल रही थी. उस के पिता को दिल का जबरदस्त दौरा पड़ा था. भैया मेरे साथ उसी समय अस्पताल गए.

निशा के पिता आपातकक्ष में थे. हम उन्हें देखने भीतर नहीं जा सकते थे. मुझे देखते ही वह जोरजोर से रोने लगी. उन के पड़ोसी प्रोफैसर सुदीप चुपचाप पास खड़े थे.

दूसरे दिन सुबह भैया ने कहा था कि मैं निशा को अपने साथ घर ले जाऊं. पर वह हड़बड़ा गई, ‘‘नहीं गीता, मैं पिताजी को छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी.’’

निशा के मना करने पर भैया ऊंची आवाज में बोले, ‘‘यहां बैठ कर रोनेधोने से क्या वे जल्दी अच्छे हो जाएंगे? जाओ, घर जा कर कुछ खापी लो. मैं यहीं हूं. पिताजी से कह देना, आज छुट्टी ले लें. जाओ, तुम दोनों घर चली जाओ.’’

वह मेरे साथ घर आईर् तो पिताजी ने कहा, ‘‘घबराना नहीं बेटी, यह मत सोचना कि तुम इस शहर में अकेली हो. हम हैं न तुम्हारे…’’

मेरे मन में बारबार प्रश्न उठता रहा कि आखिर इस संकट की घड़ी में निशा का वह मित्र कहां गायब हो गया? क्या वह मात्र सुख का साथी था?

निशा ने नहा कर मेरी गुलाबी साड़ी पहन ली. मेरा मन भर आया कि काश, निशा मेरी भाभी बन पाती.

मैं समझ नहीं पा रही थी कि क्या करूं? मुझे भैया की आंखों में बसी पीड़ा याद आने लगी.

बरामदे से मां का बिस्तर साफ दिख रहा था. सर्दी में निशा सिकुड़ी सी सोई थी. भीतर जा कर मैं ने उस के ऊपर लिहाफ ओढ़ा दिया.

नहा कर और नाश्ता कर के मैं भी अपने कमरे में जा लेटी. भैया अभी तक घर नहीं लौटे थे. थोड़ी देर बार मेरी पलकें मुंदने लगीं. परंतु शीघ्र ही ऐसा लगा, जैसे कोई मुझे पुकार रहा है, ‘गीता…गीता…उठो न.’’

सहसा मेरी नींद खुल गई. लेकिन मेरी हड़बड़ाहट की सीमा न रही. वास्तव में जो सामने था, वह अविश्वसनीय था. सामने द्वार पर भैया पगलाए से खड़े थे और मेरी पीठ के पीछे निशा छिपने का प्रयास कर रही थी. फिर किसी तरह बोली, ‘‘मेरे पैर पकड़ रहे हैं तुम्हारे भैया. कहते हैं, वे मेरे दोषी हैं. पर मैं ने तो इन्हें पहले कभी नहीं देखा.’’

‘‘गीता, मुझ से घोर ‘पाप’ हो गया. मुझे माफ कर दो, गीता,’’ भैया ने डबडबाई आंखों से मेरी ओर देखा.

सहमी सी निशा कभी मुझे और कभी उन्हें देख रही थी. उस ने हिम्मत कर के पूछा, ‘‘आप ने मेरा क्या बिगाड़ा है जो इस तरह क्षमायाचना…मेरे पिताजी को कुछ हो तो नहीं गया?’’

भैया गरदन नहीं उठा पाए. निशा के पिता का निधन हो चुका था. कैसे कहूं, क्याक्या बीत गया उन 3 दिनों में. मेरे पिता और भाई शव के साथ जम्मू चले गए. वहीं उन के नातेरिश्तेदार थे. पत्थर सी निशा भी साथ गई. एक अध्याय जैसे समाप्त हो गया.

कई दिनों तक घर का माहौल बोझल बना रहा. फिर धीरेधीरे सब सामान्य हो गया. परंतु भैया सामान्य नहीं हो पाए. कई बार मैं सोचती, उन से पूछूं कि उन्होंने खुद को निशा का दोषी क्यों कहा था?

लगभग 15-20 दिन बीत गए थे. एक शाम आंगन में भैया का बदलाबदला स्वर सुनाई दिया, ‘‘अरे निशा, आओ…आओ…’’

हाथ में अटैची पकड़े सामने निशा ही तो खड़ी थी. मां और पिताजी ने प्रश्नसूचक भाव से पहले मेरा मुंह देखा और फिर एकदूसरे का. मैं बढ़ कर उस का स्वागत करती, इस से पहले ही भैया ने उस के हाथ से अटैची ले ली.

‘‘आओ निशा, कैसी हो?’’ मैं ने पूछा तो वह मेरे गले से लग कर फूटफूट कर रो पड़ी.

मां और पिताजी ने उसे बड़े स्नेह से दुलारा.

थोड़ी देर बाद निशा आंसू पोंछती हुई बोली, ‘‘गीता, मेरे पिताजी को किसी ने मुझ से अलग कर दिया. पता नहीं कौन उन्हें फोन कर के यह कहता रहा कि मैं उन से छिप कर किसी से मिलती हूं. भला किसी को मुझ से क्या दुश्मनी होगी? मैं ने तो कभी किसी का बुरा नहीं चाहा. मुझे किस अपराध की सजा मिली?’’

रोतेरोते उस की हिचकी बंध गई. सहसा मेरे मन में एक सवाल उठा कि कौन था वह जिस के साथ भैया ने उसे देखा था? किसी तरह मां ने उसे शांत किया. मैं चाय, नाश्ता ले आई. भैया गुमसुम से सामने बैठ रहे.

निशा को बीएड की परीक्षाएं तो देनी ही थीं, उसी संदर्भ में उस ने पूछा, ‘‘क्या मैं कुछ दिन पेइंगगैस्ट के रूप में आप के पास रह सकती हूं? बीएड के बाद नौकरी कर लूंगी, फिर अपने घर चली जाऊंगी.’’

‘‘अरे, यह क्या कह रही हो बेटी, यह भी तुम्हारा ही घर है. पेइंगगैस्ट नहीं, मालकिन बन कर रहो,’’ पिताजी ने उस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा.

निशा के रहने की व्यवस्था मेरे कमरे में हो गई. हमारा दिनरात का साथ हो गया. वह गृहकार्य में भी दक्ष थी, सो, मां का हाथ भी बंटाती. उस का सांवला रूप मुझे लुभालुभा जाता. परंतु एक जरा सा सत्य मुझे, बस, पीड़ा पर पीड़ा देता रहता.

अपने भाई के लिए भी मैं परेशान रहती. जब से निशा आईर् थी, वे अपने कमरे में ही कैद हो गए थे. चाय, नाश्ता सब खुद ही आ कर भीतर ले जाते. हमारे बीच बैठ कर बातचीत किए जैसे उन्हें सदियां बीत गई थीं. निशा उन की तरफ से तटस्थ थी.

मैं हैरान थी, 4-5 महीने बीतने पर भी निशा ने अपने मित्र का उल्लेख एक बार भी नहीं किया था. मैं सोचती, वह भला कब और किस वक्त उस से मिलती होगी, क्योंकि हमारा तो हर पल का साथ था. कभीकभी भैया एकटक निशा को ही निहारते रहते.

बीएड की परीक्षा हो गईर् और परीक्षाफल आतेआते एक विचित्र घटना घटी. भैया अपने एक परम मित्र से निशा की शादी करवाना चाहते थे. वे बोले, ‘‘निशा, वह कल आएगा, तुम उसे देख लेना. बहुत अच्छा इंसान है. मेरे साथ ही है, बैंक में काम करता है.’’

‘‘लेकिन कर्ण भैया,’’ पहली बार निशा ने मेरे भाई को पुकारा था.

‘‘तुम्हारे पिता के अंतिम शब्द यही थे कि वे तुम्हारी सुखी गृहस्थी नहीं देख पाए. तब यह जिम्मेदारी मैं ने अपने सिर पर ली थी. विजय मेरे साथ कालेज के दिनों से है. वह उतना ही अच्छा है, जितनी अच्छी तुम हो,’’ भैया ने गंभीर स्वर में कहा.

‘‘जी,’’ अवरुद्ध कंठ से वह इतना ही कह पाई.

‘‘तुम अगर उसे पसंद कर…’’ भैया ने आगे कहना चाहा, मगर वह बीच में ही बोल पड़ी, ‘‘उस की जरूरत नहीं है. आप सब पिताजी जैसे ही माननीय हैं. आप जो करेंगे, अच्छा ही करेंगे.’’

‘‘लेकिन भैया,’’ मैं ने हौले से कहा, ‘‘निशा की भी अपनी कुछ पसंद होगी. हो सकता है उसे कोई और पसंद हो. आप अपना फैसला इस तरह इस पर क्यों थोप रहे हैं?’’

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‘‘हांहां, बेटे, इस की पसंद भी तो पूछो. शादीब्याह जबरदस्ती का नहीं, प्यार का नाता होता है,’’ मेरे पिताजी बोले.

सहसा निशा रो पड़ी. फिर कुछ क्षणों के बाद बोली, ‘‘मेरी कोई पसंद नहीं है.’’

तभी मेरे मन में विचार आया कि हो सकता है, निशा ने उस पुरुषमित्र को छोड़ दिया हो. सच ही तो है, जो कभी उस का सुखदुख पूछने भी नहीं आया, वह भला कैसा प्रेमी? तब इस अवस्था में वह मेरी भाभी क्यों नहीं बन सकती.

उस रात बड़ी देर तक मुझे नींद नहीं आई. मैं ने निशा की तरफ करवट बदली, तो देखा, वह तकिए में मुंह छिपाए सुबकसुबक कर रो रही थी. पास जा कर उसे हिलाया, उस के हाथपैर काफी ठंडे थे. मैं ने घबरा कर भाई को बुलाया. हम दोनों कितनी देर तक उस के हाथपैर रगड़ते रहे. भैया ने लिहाफ ओढ़ा कर उसे बिठाया तो वह उन की छाती में मुंह छिपा कर बेतहाशा रोने लगी, ‘‘मैं ने अपने पिताजी से कभी कुछ नहीं छिपाया था. मुझे कभी कहीं भी अकेले नहीं जाने देते थे. फिर मुझे अकेली क्यों छोड़ गए? मैं सच कह रही हूं, मैं ने उन से कभी…’’

‘‘मैं जानता हूं निशा, मैं सब जानता हूं,’’ भैया ने अपने कुरते की बांह से उस की आंखें पोंछीं.

थोड़ी देर बाद बोले, ‘‘तुम निर्दोष हो निशा, तुम्हारे पिता तुम से नाराज नहीं थे. वह तो बस, यही कहते रहे कि जहां निशा चाहे, वहीं उसे…’’

‘‘मगर मैं ने चाहा ही क्या था? कुछ भी तो नहीं चाहा था…’’

रातभर भैया हमारे ही कमरे में रहे. मैं हैरान थी कि जिस निशा को वे चरित्रहीन घोषित कर चुके थे, उस पर इतना स्नेह लुटाने का क्या मतलब?

‘‘भैया, निशा के उस मित्र का पता क्यों नहीं करते?’’ मौका पाते ही मैं ने कह दिया.

भैया ने एक  बार मेरी ओर देखा अवश्य, पर बोले कुछ नहीं.,

‘‘जिस इंसान के लिए उस ने अपने पिता को खो दिया, कम से कम उसे निशा से मिलने तो आना चाहिए था न?’’

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