Short Story : श्रीमान पेट्रोल का सार्वजनिक अभिनंदन

Short Story : मेरे दाम ग्यारह महीने में, बारह बार बढ़ गए. मैं आपके सब्र का कायल हो गया. थोड़ा बहुत आपने गुस्सा दिखाया मगर अंततः मुझे स्वीकार किया. सच, मैं चकित हूं. आपकी सहनशीलता अद्भुत है. आपका प्यार मैं सदैव स्मरण रखूंगा. दुनिया में आप जैसा कोई राष्ट्र नहीं . मैं बहुत कुछ कहना चाहता हूं मगर मैं भावुक हो रहा हूं. आशा है, मेरे कहे को वृहद रूप में व्याख्या के साथ समझने का कष्ट करेंगे.

आज पेट्रोल का अभिनंदन समारोह था .राष्ट्रपति भवन में श्रीमान पेट्रोल  स॔ज संवर कर मंचस्थ थे.  देश के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति सहित केंद्रीय कैबिनेट,विपक्ष के नेता इत्यादि मौजूद थे.

श्रीमान पेट्रोल का अभिनंदन समारोह हुआ. अंत में पेट्रोल से उद्गार व्यक्त करने का अनुरोध किया गया. पेट्रोल हल्के पीताभ वस्त्र धारण किये हुए था. चेहरे पर अद्भुत तेजस्विता विद्यमान थी वह माइक पर उपस्थित हुआ और संबोधन शुरू किया .संपूर्ण देश आज उत्साह से परिपूर्ण था. हिंदुस्तान के महानगर से लेकर गांव कस्बे तक जन-जन में उत्साह का संचरण था.

एक ही चर्चा श्रीमान पेट्रोल का राष्ट्रपति भवन में देश की ओर से अभिनंदन है .आज का दिन देश के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है. पेट्रोल जी अभिनंदन के लिए तैयार हो गए ? यही इस देश और सरकार का सौभाग्य है .सभी जानते हैं दुनियाभर में पेट्रोल का जलवा है आज यहां तो कल वहां .ऐसे में हमारी सरकार ने समय मांगा और उन्होंने दे दिया यह बड़े सौभाग्य की बात है.

देश भर के नागरिक जितने मुंह उतनी बात कर रहे थे. मगर सार तत्व यही था – श्रीमान पेट्रोल का अभिनंदन कर के देश के प्रधानमंत्री और सरकार ने बड़ी दूर दृष्टि और संवेदनशीलता का परिचय परिचय दिया है.

श्रीमान पेट्रोल कह रहे थे – यह बहुत बड़ी बात है कि इस देश में हर महीने पेट्रोल के दाम बढ़ते रहे और लोग जरा सी खींझ दिखाकर अपने अपने कामों में लग जाते. मुझे कई बार लगता अब कि गुस्सा फूट पड़ेगा… अब की क्रोध का दावानल उमड़ पड़ेगा और सरकार को बहा ले जाएगा. मगर यह सोचना मेरा भ्रम सिद्ध होता रहा.मैं इसके लिए भारत की जनता का शुक्रगुजार हूं, कितनी सहनशील है इस देश की जनता! कितना भाग्यशाली है इस राष्ट्र का प्रधानमंत्री और कैबिनेट!! अगर कोई दूसरा राष्ट्र  होता, तो पता नहीं क्या हो जाता. मगर वाह! इस देश के लोग… दरअसल इस देश की यही खासियत है, जिससे इस देश की आवाम प्रेम करती है उसके सौ खून माफ भी करती है…

पेट्रोल जी धाराप्रवाह भाषण दे रहे हैं . संपूर्ण देश में टीवी के माध्यम से मिस्टर पेट्रोल के भाषण को देशवासी लाइव देख रहे हैं. हर आदमी टेलीविजन सेट खोल कर बैठा हुआ है. कोई भी भारतीय आज चुकना नहीं चाहता .छोटा, बड़ा, अमीर गरीब, हर आदमी पेट्रोल के श्री मुख से एक-एक बात श्रद्धापूर्वक सुन रहा है या कहें आत्मसात कर रहा है.

राष्ट्रपति के ऐतिहासिक अशोका हाल में अभिनंदन समारोह हुआ. देश की शीर्षस्थ विभूतियां मंचस्थ है । प्रारंभ में देश के राष्ट्रपति महामहिम द्वारा श्रीमान पेट्रोल के स्वागत में दो शब्द कहे- देशवासियों ! आप जानते हैं पेट्रोल जी का समय कितना बेशकीमती है. आप बेहद व्यस्त रहते हैं, मगर जब हमने सार्वजनिक अभिनंदन हेतु समय मांगा आपने उदारता पूर्वक हमारे आग्रह को स्वीकार किया और आज आए. दरअसल में संपूर्ण देशवासियों की और से अभिनंदन करताहूँ.

पेट्रोल का चेहरा देखने के लायक था. मुख पर खुशी फूट पड़ी थी. चेहरा लाल लाल सेब सरीखा हो गया था. राष्ट्रपति जी के पश्चात प्रधानमंत्री जी का संबोधन था- मेरे प्यारे देशवासियों!( उनके स्वर में पार्टी आलाकमान जी की भांति उतार-चढ़ाव था, नकल थी ) आप सभी जानते हैं पेट्रोल की कितनी वैल्यू है, हीरा और अलेग्जेंडर से भी अधिक वैल्यू आपकी ही है.

एक बार हीरा, पन्ना और सोने के बगैर यह देश निष्कंटक प्रगति के पथ पर अविराम बढ़ सकता है, मगर श्रीमान पेट्रोल के स्नेह और अनुराग के बगैर हमारा देश एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता. यह हमारा जीवन है हमारी धड़कन  है .

प्रधानमंत्री का भाषण सुन मन पर मंच पर उपस्थित विभूतिया ने तालियां बजायी.श्रीमान पेट्रोल थोड़ा शरमाया .यह देखकर सभी उनकी सज्जनता के कायल हो गए. संपूर्ण देश एक लय हैं . सिर्फ और सिर्फ एक शख्सियत को छोड़कर.उनके चेहरे पर भाव आ और जा रहे हैं जिसमें प्रमुख है द्वेष का.

प्रधानमंत्री ने अपने विस्तृत भाषण में श्रीमान पेट्रोल की भूरी -भूरी प्रशंसा की . उनका महत्व महत्ता पर प्रकाश डाला और आश्वस्त किया कि शनै: शनै: हम आप की गरिमा के अनुरूप आपके श्री बुद्धि का महत्वपूर्ण काज करते रहेंगे.

तत्पश्चात देश के महत्वपूर्ण विभूतियों ने श्रीमान पेट्रोल के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डाला .सभी ने प्रशंसा के गीत गाए. अब बारी थी विपक्ष के नेता की. प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति सहित महत्वपूर्ण शख्सियते नेता प्रतिपक्ष के चेहरे के हाव-भाव देखकर संसकित थे. पता नहीं था यह विघ्न संतोषी क्या करेगा. बोलना तो कोई देना नहीं चाहता था मगर क्या करते डिकोरम में हल करना था फिर देश में इमरजेंसी भी लागू नहीं थी सो नेता प्रतिपक्ष को स्वर में चासनी घोलकर आमंत्रित किया गया.

जिससे प्रभावित होकर वे सम स्वर मे अपनी बात रखें मगर हुआ वही जिसकी शंका थी उन्होंने खिलाफत मैं बोलना शुरू किया – देशवासियों!मैं कहना तो नहीं चाहता,मगर यह सरकार मिस्टर पेट्रोल के आगे घुटने टेक चुकी है. देश में आग लगी हुई है और सरकार इनका अभिनंदन कर रही है. नेता प्रतिपक्ष की वाणी सुन संपूर्ण देश में उनके और उनकी पार्टी के खिलाफ रोष फैल गया .विपक्ष इस गुस्से के कारण थरथर कांपने लगा और छिपकर संसद में जा बैठा.

Family Story : विश्वास

Family Story : फोन पर ‘हैलो’ सुनते ही अंजलि ने अपने पति राजेश की आवाज पहचान ली.

राजेश ने अपनी बेटी शिखा का हालचाल जानने के बाद तनाव भरे स्वर में पूछा, ‘‘तुम यहां कब लौट रही हो?’’

‘‘मेरा जवाब आप को मालूम है,’’ अंजलि की आवाज में दुख, शिकायत और गुस्से के मिलेजुले भाव उभरे.

‘‘तुम अपनी मूर्खता छोड़ दो.’’

‘‘आप ही मेरी भावनाओं को समझ कर सही कदम क्यों नहीं उठा लेते हो?’’

‘‘तुम्हारे दिमाग में घुसे बेबुनियाद शक का इलाज कर ने को मैं गलत कदम नहीं उठाऊंगा…अपने बिजनेस को चौपट नहीं करूंगा, अंजलि.’’

‘‘मेरा शक बेबुनियाद नहीं है. मैं जो कहती हूं, उसे सारी दुनिया सच मानती है.’’

‘‘तो तुम नहीं लौट रही हो?’’ राजेश चिढ़ कर बोला.

‘‘नहीं, जब तक…’’

‘‘तब मेरी चेतावनी भी ध्यान से सुनो, अंजलि,’’ उसे बीच में टोकते हुए राजेश की आवाज में धमकी के भाव उभरे, ‘‘मैं ज्यादा देर तक तुम्हारा इंतजार नहीं करूंगा. अगर तुम फौरन नहीं लौटीं तो…तो मैं कोर्ट में तलाक के लिए अर्जी दे दूंगा. आखिर, इनसान की सहने की भी एक सीमा…’’

अंजलि ने फोन रख कर संबंधविच्छेद कर दिया. राजेश ने पहली बार तलाक लेने की धमकी दी थी. उस की आंखों में अपनी बेबसी को महसूस करते हुए आंसू आ गए. वह चाहती भी तो आगे राजेश से वार्तालाप न कर पाती क्योंकि उस के रुंधे गले से आवाज नहीं निकलती.

शिखा अपनी एक सहेली के घर गई हुई थी. अंजलि के मातापिता अपने कमरे में आराम कर रहे थे. अपनी चिंता, दुख और शिकायत भरी नाराजगी से प्रभावित हो कर वह बिना किसी रुकावट के कुछ देर खूब रोई.

रोने से उस का मन उदास और बोझिल हो गया. एक थकी सी गहरी आस छोड़ते हुए वह उठी और फोन के पास पहुंच कर अपनी सहेली वंदना का नंबर मिलाया.

राजेश से मिली तलाक की धमकी के बारे में जान कर वंदना ने उसे आश्वासन दिया, ‘‘तू रोनाधोना बंद कर, अंजलि. मेरे साहब घर पर ही हैं. हम दोनों घंटे भर के अंदर तुझ से मिलने आते हैं. आगे क्या करना है, इस की चर्चा आमने- सामने बैठ कर करेंगे. फिक्र मत कर, सब ठीक हो जाएगा.’’

वंदना उस के बचपन की सब से अच्छी सहेली थी. उस का व उस के पति कमल का अंजलि को बहुत सहारा था. उन दोनों के साथ अपने सुखदुख बांट कर ही पति से दूर वह मायके में रह रही थी. अपना मानसिक संतुलन बनाए रखने के लिए अंजलि जो बात अपने मातापिता से नहीं कह पाती, वह इन दोनों से बेहिचक कह देती.

राजेश से फोन पर हुई बातचीत का ब्योरा अंजलि से सुन कर वंदना चिंतित हो उठी तो उस के पति कमल की आंखों में गुस्से के भाव उभरे.

‘‘अंजलि, कोई चोर कोतवाल को उलटा नहीं धमका सकता है. राजेश को तलाक की धमकी देने का कोई अधिकार नहीं है. अगर वह ऐसा करता है तो समाज उसी के नाम पर थूथू करेगा,’’ कमल ने आवेश भरे लहजे में अपनी राय बताई.

‘‘मेरी समझ से हमें टकराव का रास्ता छोड़ कर राजेश से बात करनी चाहिए,’’ चिंता के मारे अपनी उंगलियां मरोड़ते हुए वंदना ने अपने मन की बात कही.

‘‘राजेश से बातचीत करने को अगर अंजलि उस के पास लौट गई तो वह अपने दोस्त की विधवा के प्रेमजाल से कभी नहीं निकलेगा. उस पर संबंध तोड़ने को दबाव बनाए रखने के लिए अंजलि का यहां रहना जरूरी है.’’

‘‘अगर राजेश ने सचमुच तलाक की अर्जी कोर्ट में दे दी तो क्या करेंगे हम? तब भी तो अंजलि

को मजबूरन वापस लौटना पडे़गा न.’’

‘‘मैं नहीं लौटूंगी,’’ अंजलि ने सख्त लहजे में उन दोनों को अपना फैसला सुनाया, ‘‘मैं 2 महीने अलग रह सकती हूं तो जिंदगी भर को भी अलग रह लूंगी. मैं जब चाहूं तब अध्यापिका की नौकरी पा सकती हूं. शिखा को पालना मेरे लिए समस्या नहीं बनेगा. एक बात मेरे सामने बिलकुल साफ है. अगर राजेश ने उस विधवा सीमा से अपने व्यक्तिगत व व्यावसायिक संबंध बिलकुल समाप्त नहीं किए तो वह मुझे खो देंगे.’’

वंदना व कमल कुछ प्रतिक्रिया दर्शाते, उस से पहले ही बाहर से किसी ने घंटी बजाई. अंजलि ने दरवाजा खोला तो सामने अपनी 16 साल की बेटी शिखा को खड़ा पाया.

‘‘वंदना आंटी और कमल अंकल आए हुए हैं. तुम उन के पास कुछ देर बैठो, तब तक मैं तुम्हारे लिए खाना लगा लाती हूं,’’ भावुकता की शिकार बनी अंजलि ने प्यार से अपनी बेटी के कंधे पर हाथ रखा.

‘‘मेरा मूड नहीं है, किसी से खामखां सिर मारने का. जब भूख होगी, मैं खाना खुद ही गरम कर के खा लूंगी,’’ बड़ी रुखाई से जवाब देने के बाद साफ तौर पर चिढ़ी व नाराज सी नजर आ रही शिखा अपने कमरे में जा घुसी.

अंजलि को उस का अचानक बदला व्यवहार बिलकुल समझ में नहीं आया. उस ने परेशान अंदाज में इस की चर्चा वंदना और कमल से की.

‘‘शिखा छोटी बच्ची नहीं है,’’ वंदना की आंखों में चिंता के बादल और ज्यादा गहरा उठे, ‘‘अपने मातापिता के बीच की अनबन जरूर उस के मन की सुखशांति को प्रभावित कर रही है. उस के अच्छे भविष्य की खातिर भी हमें समस्या का समाधान जल्दी करना होगा.’’

‘‘वंदना ठीक कह रही है, अंजलि,’’ कमल ने गंभीर लहजे में कहा, ‘‘तुम शिखा से अपने दिल की बात खुल कर कहो और उस के मन की बातें सहनशीलता से सुनो. मेरी समझ से हमारे जाने के बाद आज ही तुम यह काम करना. कोई समस्या आएगी तो वंदना और मैं भी उस से बात करेंगे. उस की टेंशन दूर करना हम सब की जिम्मेदारी है.’’

उन दोनों के विदा होने तक अपनी समस्या को हल करने का कोई पक्का रास्ता अंजलि के हाथ नहीं आया था. अपनी बेटी से खुल कर बात करने के  इरादे से जब उस ने शिखा के कमरे में कदम रखा, तब वह बेचैनी और चिंता का शिकार बनी हुई थी.

‘‘क्या बात है? क्यों मूड खराब है तेरा?’’ अंजलि ने कई बार ऐसे सवालों को घुमाफिरा कर पूछा, पर शिखा गुमसुम सी बनी रही.

‘‘अगर मुझे तू कुछ बताना नहीं चाहती है तो वंदना आंटी और कमल अंकल से अपने दिल की बात कह दे,’’  अंजलि की इस सलाह का शिखा पर अप्रत्याशित असर हुआ.

‘‘भाड़ में गए कमल अंकल. जिस आदमी की शक्ल से मुझे नफरत है, उस से बात करने की सलाह आज मुझे मत दें,’’  शिखा किसी ज्वालामुखी की तरह अचानक फट पड़ी.

‘‘क्यों है तुझे कमल अंकल से नफरत? अपने मन की बात मुझ से बेहिचक हो कर कह दे गुडि़या,’’ अंजलि का मन एक अनजाने से भय और चिंता का शिकार हो गया.

‘‘पापा के पास आप नहीं लौटो, इस में उस चालाक इनसान का स्वार्थ है और आप भी मूर्ख बन कर उन के जाल में फंसती जा रही हो.’’

‘‘कैसा स्वार्थ? कैसा जाल? शिखा, मेरी समझ में तेरी बात रत्ती भर नहीं आई.’’

‘‘मेरी बात तब आप की समझ में आएगी, जब खूब बदनामी हो चुकी होगी. मैं पूछती हूं कि आप क्यों बुला लेती हो उन्हें रोजरोज? क्यों जाती हो उन के घर जब वंदना आंटी घर पर नहीं होतीं? पापा बारबार बुला रहे हैं तो क्यों नहीं लौट चलती हो वापस घर.’’

शिखा के आरोपों को समझने में अंजलि को कुछ पल लगे और तब उस ने गहरे सदमे के शिकार व्यक्ति की तरह कांपते स्वर में पूछा, ‘‘शिखा, क्या तुम ने कमल अंकल और मेरे बीच गलत तरह के संबंध होने की बात अपने मुंह से निकाली है?’’

‘‘हां, निकाली है. अगर दाल में कुछ काला न होता तो वह आप को सदा पापा के खिलाफ क्यों भड़काते? क्यों जाती हो आप उन के घर, जब वंदना आंटी घर पर नहीं होतीं?’’

अंजलि ने शिखा के गाल पर थप्पड़ मारने के लिए उठे अपने हाथ को बड़ी कठिनाई से रोका और गहरीगहरी सांसें ले कर अपने क्रोध को कम करने के प्रयास में लग गई. दूसरी तरफ तनी हुई शिखा आंखें फाड़ कर चुनौती भरे अंदाज में उसे घूरती रहीं.

कुछ सहज हो कर अंजलि ने उस से पूछा, ‘‘वंदना के घर मेरे जाने की खबर तुम्हें उन के घर के सामने रहने वाली रितु से मिलती है न?’’

‘‘हां, रितु मुझ से झूठ नहीं बोलती है,’’ शिखा ने एकएक शब्द पर जरूरत से ज्यादा जोर दिया.

‘‘यह अंदाजा उस ने या तुम ने किस आधार पर लगाया कि मैं वंदना की गैर- मौजूदगी में कमल से मिलने जाती हूं?’’

‘‘आप कल सुबह उन के घर गई थीं और परसों ही वंदना आंटी ने मेरे सामने कहा था कि वह अपनी बड़ी बहन को डाक्टर के यहां दिखाने जाएंगी, फिर आप उन के घर क्यों गईं?’’

‘‘ऐसा हुआ जरूर है, पर मुझे याद नहीं रहा था,’’ कुछ पल सोचने के बाद अंजलि ने गंभीर स्वर में जवाब दिया.

‘‘मुझे लगता है कि वह गंदा आदमी आप को फोन कर के अपने पास ऐसे मौकों पर बुलाता है और आप चली जाती हो.’’

‘‘शिखा, तुम्हें अपनी मम्मी के चरित्र पर यों कीचड़ उछालते हुए शर्म नहीं आ रही है,’’ अंजलि का अपमान के कारण चेहरा लाल हो उठा, ‘‘वंदना मेरी बहुत भरोसे की सहेली है. उस के साथ मैं कैसे विश्वासघात करूंगी? मेरे दिल में सिर्फ तुम्हारे पापा बसते हैं, और कोई नहीं.’’

‘‘तब आप उन के पास लौट क्यों नहीं चलती हो? क्यों कमल अंकल के भड़काने में आ रही हो?’’ शिखा ने चुभते लहजे में पूछा.

‘‘बेटी, तेरे पापा के और मेरे बीच में एक औरत के कारण गहरी अनबन चल रही है, उस समस्या के हल होते ही मैं उन के पास लौट जाऊंगी,’’ शिखा को यों स्पष्टीकरण देते हुए अंजलि ने खुद को शर्म के मारे जमीन मेें गड़ता महसूस किया.

‘‘मुझे यह सब बेकार के बहाने लगते हैं. आप कमल अंकल के कारण पापा के पास लौटना नहीं चाहती हो,’’ शिखा अपनी बात पर अड़ी रही.

‘‘तुम जबरदस्त गलतफहमी का शिकार हो, शिखा. वंदना और कमल मेरे शुभचिंतक हैं. उन दोनों का बहुत सहारा है मुझे. दोस्ती के पवित्र संबंध की सीमाएं तोड़ कर कुछ गलत न मैं कर रही हूं न कमल अंकल. मेरे कहे पर विश्वास कर बेटी,’’ अंजलि बहुत भावुक हो उठी.

‘‘मेरे मन की सुखशांति की खातिर आप अंकल से और जरूरी हो तो वंदना आंटी से भी अपने संबंध पूरी तरह तोड़ लो, मम्मी. मुझे डर है कि ऐसा न करने पर आप पापा से सदा के लिए दूर हो जाओगी,’’ शिखा ने आंखों में आंसू ला कर विनती की.

‘‘तुम्हारे नासमझी भरे व्यवहार से मैं बहुत निराश हूं,’’ ऐसा कह कर अंजलि उठ कर अपने कमरे में चली आई.

इस घटना के बाद मांबेटी के संबंधों में बहुत खिंचाव आ गया. आपस में बातचीत बस, बेहद जरूरी बातों को ले कर होती. अपने दिल पर लगे घावों को दोनों नाराजगी भरी खामोशी के साथ एकदूसरे को दिखा रही थीं.

शिखा की चुप्पी व नाराजगी वंदना और कमल ने भी नोट की. अंजलि उन के किसी सवाल का जवाब नहीं दे सकी. वह कैसे कहती कि शिखा ने कमल और उस के बीच नाजायज संबंध होने का शक अपने मन में बिठा रखा था.

करीब 4 दिन बाद रात को शिखा ने मां के कमरे में आ कर अपने मन की बातें कहीं.

‘‘आप अंदाजा भी नहीं लगा सकतीं कि मेरी सहेली रितु ने अन्य सहेलियों को सब बातें बता कर मेरे लिए इज्जत से सिर उठा कर चलना ही मुश्किल कर दिया है. अपनी ये सब परेशानियां मैं आप के नहीं, तो किस के सामने रखूं?’’

‘‘मुझे तुम्हारी सहेलियों से नहीं सिर्फ तुम से मतलब है, शिखा,’’ अंजलि ने शुष्क स्वर में जवाब दिया, ‘‘तुम ने मुझे चरित्रहीन क्यों मान लिया? मुझ से ज्यादा तुम्हें अपनी सहेली पर विश्वास क्यों है?’’

‘‘मम्मी, बात विश्वास करने या न करने की नहीं है. हमें समाज में मानसम्मान से रहना है तो लोगों को ऊटपटांग बातें करने का मसाला नहीं दिया जा सकता.’’

‘‘तब क्या दूसरों को खुश करने के लिए तुम अपनी मां को चरित्रहीन करार दे दोगी? उन की झूठी बातों पर विश्वास कर के अपनी मां को उस की सब से प्यारी सहेली से दूर करने की जिद पकड़ोगी?’’

‘‘मुझ पर क्या गुजर रही है, इस की आप को भी कहां चिंता है, मम्मी,’’ शिखा चिढ़ कर गुस्सा हो उठी, ‘‘मैं आप की सहेली नहीं बल्कि सहेली के चालाक पति से आप को दूर देखना चाहती हूं. अपनी बेटी की सुखशांति से ज्यादा क्या कमल अंकल के साथ जुडे़ रहना आप के लिए जरूरी है?’’

‘‘कमल अंकल मेरे लिए तुम से ज्यादा महत्त्वपूर्ण कैसे हो सकते हैं, शिखा? मुझे तो अफसोस और दुख इस बात का है कि मेरी बेटी को मुझ पर विश्वास नहीं रहा. मैं पूछती हूं कि तुम ही मुझ पर विश्वास क्यों नहीं कर रही हो?  अपनी सहेलियों की बकवास पर ध्यान न दे कर मेरा साथ क्यों नहीं दे रही हो? मेरे मन में खोट नहीं है, इस बात को मेरे कई बार दोहराने के बावजूद तुम ने उस पर विश्वास न कर के मेरे दिल को जितनी पीड़ा पहुंचाई है, क्या उस का तुम्हें अंदाजा है?’’ बोलते हुए अंजलि का चेहरा गुस्से से लाल हो गया.

‘‘यों चीखचिल्ला कर आप मुझे चुप नहीं कर सकोगी,’’ गुस्से से भरी शिखा उठ कर खड़ी हो गई, ‘‘चित भी मेरी और पट भी मेरी का चालाकी भरा खेल मेरे साथ न खेलो.’’

‘‘क्या मतलब?’’ अंजलि फौरन उलझन का शिकार बन गई.

‘‘मतलब यह कि पापा ने अपनी बिजनेस पार्टनर सीमा आंटी को ले कर आप को सफाई दे दी तब तो आप ने उन की एक नहीं सुनी और यहां भाग आईं, और जब मैं आप से कमल अंकल के साथ संबंध तोड़ लेने की मांग कर रही हूं तो किस आधार पर आप मुझे गलत और खुद को सही ठहरा रही हो?’’

अंजलि को बेटी का सवाल सुन कर तेज झटका लगा. उस ने अपना सिर झुका लिया. शिखा आगे एक भी शब्द न बोल कर अपने कमरे में लौट गई. दोनों मांबेटी ने तबीयत खराब होने का बहाना बना कर रात का खाना नहीं खाया. शिखा के नानानानी को उन दोनों के उखडे़ मूड का कारण जरा भी समझ में नहीं आया.

उस रात अंजलि बहुत देर तक नहीं सो सकी. अपने पति के साथ चल रहे मनमुटाव से जुड़ी बहुत सी यादें उस के दिलोदिमाग में हलचल मचा रही थीं. शिखा द्वारा लगाए गए आरोप ने उसे बुरी तरह झकझोर दिया था.

राजेश ने कभी स्वीकार नहीं किया था कि अपने दोस्त की विधवा के साथ उस के अनैतिक संबंध थे. दूसरी तरफ आफिस में काम करने वाली 2 लड़कियों और राजेश के दोस्तों की पत्नियों ने इस संबंध को समाप्त करवा देने की चेतावनी कई बार उस के कानों में डाली थी.

तब खूबसूरत सीमा को अपने पति के साथ खूब खुल कर हंसतेबोलते देख अंजलि जबरदस्त ईर्ष्या व असुरक्षा की भावना का शिकर रहने लगी.

राजेश ने उसे प्यार से व डांट कर भी खूब समझाया पर अंजलि ने साफ कह दिया, ‘मेरे मन की सुखशांति, मेरे प्यार व खुशियों की खातिर आप को सीमा से हर तरह का संबंध समाप्त कर लेना होगा.’

‘मैं ऐसा कुछ नहीं करूंगा जिस से अपनी नजरों में गिर जाऊं. मैं कुसूरवार हूं ही नहीं, तो सजा क्यों भोगूं? अपने दिवंगत दोस्त की पत्नी को मैं बेसहारा नहीं छोड़ सकता हूं. तुम्हारे बेबुनियाद शक के कारण मैं अपनी नजरों में खुद को गिराने वाला कोई कदम नहीं उठाऊंगा,’ राजेश के इस फैसले को अंजलि किसी भी तरह से नहीं बदलवा सकी.

पहले अपने पति और अब अपनी बेटी के साथ हुए टकरावों में अंजलि को बड़ी समानता नजर आई. उस ने सीमा को ले कर राजेश पर चरित्रहीन होने का आरोप लगाया था और शिखा ने कमल को ले कर खुद उस पर.

वह अपने को सही मानती थी, जैसे अब शिखा अपने को सही मान रही थी. वहां राजेश अपराधी के कटघरे में खड़ा हो कर सफाई देता था और आज वह अपनी बेटी को सफाई देने के लिए मजबूर थी.

अपने दिल की बात वह अच्छी तरह जानती थी. उस के मन में कमल को ले कर रत्ती भर भी गलत तरह का आकर्षण नहीं था. इस मामले में शिखा पूरी तरह गलत थी.

तब सीमा व राजेश के मामले में क्या वह खुद गलत नहीं हो सकती थी? इस सवाल से जूझते हुए अंजलि ने सारी रात करवटें बदलते हुए गुजार दी.

अगली सुबह शिखा के जागते ही अंजलि ने अपना फैसला उसे सुना दिया, ‘‘अपना सामान बैग में रख लो. नाश्ता करने के बाद हम अपने घर लौट रहे हैं.’’

‘‘ओह, मम्मी. यू आर ग्रेट. मैं बहुत खुश हूं,’’ शिखा भावुक हो कर उस से लिपट गई.

अंजलि ने उस के माथे का चुंबन लिया, पर मुंह से कुछ नहीं बोली. तब शिखा ने धीमे स्वर में उस से कहा, ‘‘गुस्से में आ कर मैं ने जो भी पिछले दिनों आप से उलटासीधा कहा है, उस के लिए मैं बेहद शर्मिंदा हूं. आप का फैसला बता रहा है कि मैं गलत थी. प्लीज मम्मा, मुझे माफ कर दीजिए.’’

अंजलि ने उसे अपने सीने से लगा लिया. मांबेटी दोनों की आंखों में आंसू भर आए. पिछले कई दिनों से बनी मानसिक पीड़ा व तनाव से दोनों पल भर में मुक्त हो गई थीं.

उस के बुलावे पर वंदना उस से मिलने घर आ गई. कमल के आफिस चले जाने के कारण अंजलि के लौटने की खबर कमल तक नहीं पहुंची.

वंदना को अंजलि ने अकेले में अपने वापस लौटने का सही कारण बताया, ‘‘पिछले दिनों अपनी बेटी शिखा के कारण राजेश और सीमा को ले कर मुझे अपनी एक गलती…एक तरह की नासमझी का एहसास हुआ है. उसी भूल को सुधारने को मैं राजेश के पास बेशर्त वापस लौट रही हूं.

‘‘सीमा के साथ उस के अनैतिक संबंध नहीं हैं, मुझे राजेश के इस कथन पर विश्वास करना चाहिए था, पर मैं और लोगों की सुनती रही और हमारे बीच प्रेम व विश्वास का संबंध कमजोर पड़ने लगा.

‘‘अगर राजेश निर्दोष हैं तो मेरा झगड़ालू रवैया उन्हें कितना गलत और दुखदायी लगता होगा. बिना कुछ अपनी आंखों से देखे, पत्नी का पति पर विश्वास न करना क्या एक तरह का विश्वासघात नहीं है?

‘‘मैं राजेश को…उन के पे्रम को खोना नहीं चाहती हूं. हो सकता है कि सीमा और उन के बीच गलत तरह के संबंध बन गए हों, पर इस कारण वह खुद भी मुझे छोड़ना नहीं चाहते. उन के दिल में सिर्फ मैं रहूं, क्या अपने इस लक्ष्य को मैं उन से लड़झगड़ कर कभी पा सकूंगी?

‘‘वापस लौट कर मुझे उन का विश्वास फिर से जीतना है. हमारे बीच प्रेम का मजबूत बंधन फिर से कायम हो कर हम दोनों के दिलों के घावों को भर देगा, इस का मुझे पूरा विश्वास है.’’

अंजलि की आंखों में दृढ़निश्चय के भावों को पढ़ कर वंदना ने उसे बडे़ प्यार से गले लगा लिया.

Love Story : संयोग

Love Story : संयोग

लेखक- सनंत प्रसाद

मंजुला और मुकेश के बीच प्यार की कोंपलें फूटने लगी थीं. लेकिन महत्त्वाकांक्षी मंजुला ने मुकेश के प्यार को अपने सपनों से ज्यादा तरजीह दी. बरसों बाद मुकेश से मिलने पर एक बार फिर मंजुला की यादें ताजा हो उठीं.

रात के 10 बज चुके थे. मरीजों को निबटा कर डा. मंजुला प्रियदर्शिनी अपने क्लिनिक में अकेली बैठी थीं. अचानक उन्होंने रिलेक्स के मूड में अपने जूड़े को खोल कर लंबे घने बालों को एक झटका सा दिया और इसी के साथ लंबी जुल्फें लहरा कर इजीचेयर पर फैल गईं.

डा. मंजुला इजीचेयर से उठीं और क्लिनिक के बगल में बने शानदार बाथरूम के आदमकद शीशे में अपने पूरे व्यक्तित्व को निहारने लगीं.

दिनभर की भीड़भाड़ भरी व्यस्त जिंदगी में डा. मंजुला अपने को भूल सी जाती हैं. जिस को समय का ही ध्यान नहीं रहता वह अपना ध्यान कैसे रख सकता है. किंतु समय तो अपनी गति से चलता ही जाता है न. शहर के पौश इलाके में बना उन का नर्सिंग होम  और क्लिनिक उन्हें इतना समय ही नहीं देते कि वह मरीजों को छोड़ कर अपने बारे में सोच सकें.

डा. मंजुला ने अपनी संपन्नता  अथक मेहनत से अर्जित की थी. वह अपनी व्यस्ततम जिंदगी से जब भी कुछ पल अपने लिए निकालतीं तो उन का अकेलापन उन्हें काटने को दौड़ता था. आखिर थीं तो वह भी एक औरत ही न. अपने को आईने में देखा तो 45-50 की ‘प्रियदर्शिनी’ का एक अछूता सा मादक सौंदर्य और यौवन उन्हें थिरकता नजर आया. बालों में थोड़ी सफेदी तो आ गई थी पर उसे स्वाभाविक रंग में रंग कर उन्होंने कलात्मकता से छिपा रखा था.

डा. मंजुला के मन के एक कोने से आवाज आई, काश, कोई उन के आज भी छिपे हुए मादक यौवन और गदराई देह को अपनी सबल बांहों में थाम लेता और उन्हें मसल कर रख देता. एक अनछुई सिहरन उन के मनप्राणों में समा गई. औरत के मन की यह अद्भुत विशेषता और विरोधाभास भी है कि वह जो अंतर्मन से चाहती है, उसे शायद शब्दों में अभिव्यक्त नहीं कर पाती. इसीलिए नारी अपनी कामनाओं को तब तक छिपा कर रखती है जब तक भावनाओं की आंधी में बहा कर ले जाने वाला और उस की अस्मिता की रक्षा करने का आश्वासन देने वाला कोई सबल पुरुष उस के रास्ते में न आ जाए.

बाथरूम से निकल कर डा. मंजुला अपने केबिन में आईं और इजीचेयर पर बैठते ही सिर पीछे की ओर टिका दिया. घर जाने का अभी मन नहीं कर रहा था अत: आंखें बंद कर वह अतीत में खो सी गईं.

20 वर्ष पहले वह मेडिकल कालिज में फाइनल की छात्रा थी. बिलकुल रिजर्व और अंतर्मुखी. लड़के भंवरा बन कर उस पर मंडराते थे क्योंकि मंजुला ‘प्रियदर्शिनी’ एक कलाकार के सांचे में ढली हुई चलतीफिरती प्रतिमा सी लगती थी. अद्भुत देहयष्टि और खिलाखिला सा रूपरंग, उस पर कालेकाले घुंघराले बाल और कजरारे नैननक्श की मलिका मंजुला जिधर से निकलती मनचलों पर बिजलियां सी टूट पड़तीं पर वह किसी को घास न डालती. कोई लड़का उस पर डोरे डालने का साहस भी नहीं जुटा पाता, क्योंकि उस के पिता मनोरम पुलिस के आला अफसर थे और मां माधुरी कलेक्टर जो थीं.

मुकेश कब और कैसे मंजुला के जीवन में आ गया, इसे शायद स्वयं मंजुला भी न समझ सकी. वह लजीला सा नवयुवक उस का सहपाठी तो था पर कभी उस ने मंजुला की ओर आंख उठा कर भर नजर देखा तक नहीं था, जबकि दूसरे लड़के मंजुला को देख कर दबी जबान कुछ न कुछ फब्तियां कस ही देते थे.

मंजुला कभी मुकेश को लाइब्रेरी के एक कोने में चुपचाप किताबों में डूबा हुआ देखती या फिर कक्षा से निकल कर घर जाते हुए. इस अंतर्मुखी लड़के के प्रति उस की उत्सुकता बढ़ती जाती. किंतु उस का अहं कोई पहल करने से उसे रोक देता.

मंजुला को उस दिन बड़ा आश्चर्य हुआ जब मुकेश ने उस के समीप आ कर पूछा, ‘आप इतनी चुपचुप क्यों रहती हैं? क्या आप को ऐसा नहीं लगता कि इस तरह रहने से आप को डिप्रेशन या हाई ब्लड प्रेशर की बीमारी हो सकती है?’

मंजुला उस के भोलेपन पर मन ही मन मुसकरा उठी, साथ ही उस के शरारती मन को टटोलने का प्रयास भी करने लगी. ऊपर से सीधासादा दिखने वाला यह लड़का अंदर से थोड़ा शरारती भी है. तभी तो इतना खूबसूरत बहाना ढूंढ़ा है उस से बात करने का या उस के करीब आने का. फिर भी बनावटी मुसकराहट के साथ उस ने जवाब दिया, ‘नहीं तो, मुझे तो कुछ ऐसा नहीं लगता.’

मुकेश बड़ी विनम्रता से बोला, ‘यदि मैं कैंटीन में चल कर आप को एक कप कौफी पीने का निमंत्रण दूं तो आप बुरा तो न मानेंगी.’

इस बार मंजुला उस के भोलेपन पर सचमुच खिलखिला उठी, ‘चलिए, आई डोंट माइंड.’

कौफी पीतेपीते ही मंजुला से मुकेश का परिचय हुआ. मुकेश एक मध्यवर्ग के संभ्रांत परिवार का लड़का था. घर में उस की मां थीं, 2 बड़ी बहनें थीं,  जिन की शादियां हो चुकी थीं और वे अपनीअपनी गृहस्थी में खुश थीं. मुकेश के पिता एक सरकारी मुलाजिम थे जो लगभग 2 वर्ष पहले बीमारी के चलते दिवंगत हो चुके थे. मां को पिता की सरकारी नौकरी की पेंशन मिलती थी, किंतु गृहस्थी की गाड़ी चलाने के लिए और अपनी मेडिकल की पढ़ाई पूरी करने के लिए मुकेश कालिज के बाद ट्यूशन पढ़ाया करता था.

मंजुला ने जैसे ही अपने बारे में मुकेश को बताना शुरू किया उस ने बीच में ही उसे टोक दिया, ‘मैडम, क्यों कौफी ठंडी कर रही हैं. आप के बारे में मैं तो क्या यह पूरा मेडिकल कालिज जानता है कि आप के मातापिता क्या हैं.’

मंजुला सीधेसादे मुकेश के प्रति एक अनजाना सा ख्ंिचाव महसूस करने लगी थी. उस ने अपने मन से कई बार पूछा कि कहीं वह मुकेश से प्यार तो नहीं करने लगी है?

नारी का मनोविज्ञान सदियों से वही रहा है जो आज है और आगे भी वही रहेगा. हर स्त्री के मन में प्यार और प्रशंसा पाने की ललक होती है, चाहे वह अवचेतन की किसी अतल गहराइयों में ही छिपी हो, जिसे वह समझ नहीं पाती या जाहिर नहीं कर पाती.

खैर, इस प्रकार मंजुला के जीवन में प्यार बन कर मुकेश कब आ गया इसे न मंजुला समझ पाई न मुकेश. दोनों का प्यार परवान चढ़ता रहा. दोनों ने अच्छे नंबरों से मेडिकल की परीक्षाएं पास कीं. मंजुला के पिता के पास पैसा था, सो उन्होंने एक खूबसूरत सा नर्सिंगहोम शहर के बीचोेंबीच एक पौश इलाके में खोल दिया और इसी के साथ डा. मंजुला के अपने कैरियर की शुरुआत करने के दरवाजे खुल गए.

मंजुला कुछ दिनों के लिए विदेश चली गई. लौटी तो ढेर सारी डिगरियां उस ने बटोर ली थीं. एम.डी., एम.एस. और भी कई डिगरियां. मंजुला अपने ही नाम वाले नर्सिंगहोम की मालिक बन कर जीवन में लगभग सेटल हो चुकी थी.

मुकेश अपने ही शहर के एक मेडिकल कालिज में लेक्चरर हो गया था. दोनों का जीवन नदी के दो किनारों की तरह मंथर गति से आगे बढ़ने लगा था. मंजुला के मातापिता ने उसे शादी के लिए प्रेरित करना शुरू किया, किंतु वह शादी से ज्यादा कुछ करने की, कुछ ऊंचाई छू लेने की हसरत रखती थी. इसलिए शादी के बहुतेरे प्रस्तावों को वह किसी न किसी बहाने टालती रही और अपने व्यावसायिक जीवन को संवारने में तनमन से जुट गई.

मुकेश ने मां के बेबस प्यार और आग्रह के सामने सिर झुका लिया. उस की शादी जिस युवती से हुई वह झगड़ालू प्रवृत्ति के साथसाथ हद दरजे की शक्की, बदमिजाज, स्वार्थी एवं ईर्ष्यालु भी थी. सामाजिक दबाव, आर्थिक समस्याओं आदि ने कोई विकल्प मुकेश के सामने छोड़ा ही नहीं और उस ने भी हथियार डाल दिए. आखिर किसी शायर ने ठीक ही तो फरमाया है, ‘कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता, किसी को जमीं तो किसी को आसमां नहीं मिलता.’

मुकेश अब कालिज की ड्यूटी के बाद घर लौट कर एक थीसिस की तैयारी में जुट जाता और देर रात तक उसी में व्यस्त रहता. पत्नी झींकती रहती, तकदीर को कोसती कि कैसे निखट्टू से पाला पड़ गया. मुकेश बेबस हो कर सुनता और चुप रह जाता.

मुकेश के जीवन की एक त्रासदी उस दिन उभर कर सामने आई जब उस की पत्नी चंचला और सास सविता ने उसे निसंतान होने का ताना देना शुरू किया. तमाम मेडिकल जांच के बाद यह तसवीर उभर कर सामने आई कि चंचला मां नहीं बन सकती. नतीजतन, चंचला और भी उग्र और आक्रामक बनती चली गई और मुकेश दीवार पर जड़ दिए गए फ्रेम में सहनशीलता की तसवीर भर बन कर रह गया.

उस दिन शाम के समय गाड़ी से मंजुला कुछ खरीदारी करने निकली थी. मौर्या कांपलेक्स के शौपिंग आरकेड में घुसते ही अचानक मुकेश पर उस की निगाहें टिक गईं. दोनों के बीच औपचारिक बातों के बाद मंजुला ने उसे अगले दिन अपने नर्सिंग होम में आ कर बातचीत करने का निमंत्रण दिया.

दूसरे दिन शाम को मुकेश आया तो दोनों बड़ी देर तक बातों में खोए रहे. रात घिर आई. बातों का सिलसिला टूटा तो घड़ी पर नजर गई. 12 बज चुके थे. मुकेश बाहर निकला तो हलकी बूंदाबांदी शुरू हो गई. मुकेश ने अपनी ईर्ष्यालु पत्नी चंचला का जिक्र छेड़ा तो मंजुला उसे घर छोड़ने का साहस नहीं कर पाई. मंजुला ने उस के खाने का आर्डर दे दिया. फिर उसे अपने नर्सिंग होम के आरामदायक गेस्ट हाउस में ही ठहर जाने का आग्रह किया.

मुकेश ने अपने घर टेलीफोन कर दिया कि एक आवश्यक काम के सिलसिले में उसे रात में रुकना पड़ा है. मुकेश मंजुला के आग्रह को नहीं ठुकरा पाने के कारण नर्सिंग होम के गेस्ट रूम में आराम करने के इरादे से रुक गया. खाना खाने के बाद मुकेश को ‘गुडनाइट’ कह कर मंजुला अपने निकटवर्ती आवास में आराम करने चली गई. मुकेश ने बत्ती बुझा कर थोड़ी झपकियां ही ली थीं कि उस के दरवाजे पर हलकी दस्तक हुई. उस ने अंदर से ही पूछा, ‘कौन?’

‘मैं हूं, मंजुला.’

इस आवाज ने उसे चौंका दिया. मुकेश ने दरवाजा खोला और बत्ती जला दी. मुकेश विस्मित सा मंजुला को सिर से पांव तक निहारता ही रह गया. कांधे तक लहराते गेसुओं और मंजुला की आकर्षक देहयष्टि को एक पारदर्शी नाइटी में देख कर कोई भी होता तो घबरा जाता. मंजुला कमरे की धीमी रोशनी में साक्षात सौंदर्य की प्रतिमा लग रही थी और उस के अंगअंग से रूप की मदिरा छलक रही थी. फिर भी अपने ऊपर संयम का आवरण ओढ़े मुकेश ने धीमे स्वर में पूछा, ‘इतनी रात गए? क्या बात है?’

मंजुला ने उबासियां लेते हुए अंगड़ाई ली तो उस के मादक यौवन में एक तरह का खुला आमंत्रण था जो कह रहा था कि मुकेश, अपनी बांहों में मुझे थाम लो. वह पुरुष था, एक औरत के खुले आमंत्रण को कैसे ठुकरा सकता था, वह भी उसे जिसे वह दिल से चाहता है.

मुकेश अपने को रोक न सका और मंजुला को अपनी बांहों में लेते हुए उस के लरजते होंठों पर चुंबनों की झड़ी लगा दी. मंजुला तो मानो किसी दूसरी दुनिया में तिर रही थी. एक औरत के लिए पुरुष का यह पहला एहसास था. बंद आंखों से उस ने भी अपनी बांहों के घेरे में मुकेश को कस लिया और यौवन का ऐसा ज्वार आया कि दोनों एकदूसरे में खो गए.

इस सुखद एहसास की पुनरावृत्ति मंजुला के जीवन में दोबारा नहीं हो सकी क्योंकि घटनाओं का सिलसिला ऐसा चला कि मुकेश का तबादला दूसरे शहर के एक प्रतिष्ठित मेडिकल कालिज में हो गया. मंजुला के जीवन में वह मादक क्षण और वह मधुर रात अतीत का एक स्वप्न बन कर रह गई. तभी फोन की घंटी बजी तो वह सपनों की दुनिया से निकल कर वर्तमान में आ गई. फोन उठाया तो दूसरी ओर से उस की नौकरानी थी जो अभी तक घर न पहुंचने पर चिंता जता रही थी.

डा. मंजुला अपनी इजीचेयर से उठीं. घड़ी पर नजर डाली तो आधी रात हो चुकी थी. वह सधे कदमों से निवास की ओर चल दीं. थके हुए तनमन के साथ थोड़ा सा खाना खा कर वह कब नींद के आगोश में समा गईं, होश ही नहीं रहा. दूसरे दिन जब दिन चढ़ आया तब मंजुला की नींद खुली. बाथरूम में से निकल कर हलका सा बे्रकफास्ट लिया और अपने नर्सिंग होम के कामों को पूरा करने में जुट गईं.

मंजुला को अपने काम के सिलसिले में नैनीताल जाना पड़ा. 2 दिनों तक तो वह काम को पूरा करने में लगी रहीं. काम खत्म हुआ तो मंजुला प्राकृतिक दृश्यों से भरपूर इस पहाड़ी शहर का आनंद लेने निकली थीं. वह अपनी वातानुकूलित गाड़ी में बैठी शहर के दर्शनीय स्थलों को देखने में खोई थीं कि एक जगह जा कर उन की नजर ठहर गई. उन्होंने गाड़ी रोक कर पास जा कर देखा तो वह मुकेश ही था. दाढ़ी बढ़ी हुई और नंगे पांव पैदल ही वह भीमताल की सड़कों पर जा रहा था. मंजुला ने गाड़ी एकदम उस के बगल में जा कर रोकी और गाड़ी से सिर निकाल कर बोलीं, ‘‘अरे, मुकेश, तुम यहां कैसे? कब आए? ह्वाट ए प्लिजेंट सरप्राइज?’’ कई प्रश्न एकसाथ मंजुला ने कर डाले.

मुकेश मूक ही बना रहा तो मंजुला ने ही चहक कर कहा, ‘‘आओ, गाड़ी में बैठो. अरे, मेरी बगल ही में बैठो भाई. मैं अच्छी ड्राइविंग करती हूं, घबराओ नहीं.’’

मुकेश को ले कर मंजुला अपने होटल वापस आ गईं और वहां के खुशनुमा माहौल में उसे बिठा कर बोलीं, ‘‘अच्छा बताओ, क्या लोगे? चाय, कौफी या डिनर. खैर, अभी तो मैं गरमागरम कौफी और पकौडे़ मंगवाती हूं.’’

मुकेश ने कौफी में उस का साथ देते हुए अपनी चुप्पी तोड़ी, ‘‘मंजुला, मेरी यह दशा देख कर तुम्हें आश्चर्य हो रहा होगा पर यह वक्त की मार है जो मैं अकेले यहां झेल रहा हूं. यहां आने के कुछ महीनों बाद मां की मृत्यु हो गई. पत्नी चंचला पिछले साल ब्रेनफीवर की बीमारी से चल बसी. जीवन की इस त्रासदी को अकेले झेल रहा हूं,’’ अपनी कहानी बतातेबताते मुकेश की आंखें भर आई थीं. उस की दुखद कहानी सुन कर मंजुला भी दुखित हो उठी थी.

मुकेश चलने के लिए उठा तो मंजुला ने उस के कंधे पर हाथ रख कर उसे बिठा लिया फिर याचना भरे स्वर में बोलीं, ‘‘इतने दिनों बाद मिले हो तो कम से कम आज तो साथ में बैठ कर खाना खा लो, फिर जहां जाना है चले जाना.’’

थोड़ी देर बाद ही होटल के कमरे में खाना आ गया. दोनों आमनेसामने बैठ कर खाना खा रहे थे. मंजुला ने मुकेश की आंखों में झांकते हुए पूछा, ‘‘मुकेश, मुझ से शादी करोगे?’’

मुकेश की आंखों से दो बूंद आंसू मोती बन कर टपक पड़े.

‘‘मंजुला, तुम ने इतनी प्रतीक्षा क्यों कराई? काश, तुम मेरे जीवन में पहली किरण बन कर आ जातीं तो जीवन में इतना भटकाव तो न आता.’’ इन शब्दों को सुनने के बाद मंजुला ने मुकेश के दोनों हाथों को जोर से जकड़ लिया और उस के कांधे पर सिर रख कर मंदमंद मुसकराने लगीं.

Family Story : पक्षाघात

Family Story : पक्षाघात

लेखिका- प्रतिभा सक्सेना

विजय जी काफी देर लिखने के बाद उठे पर ठीक से उठ न पाए और गिर पड़े. उन्होंने दोबारा उठना चाहा पर हाथपैर बेजान ही रहे. वह घबरा तो गए पर हिम्मत न हारी. उठने का उपक्रम करते रहे, फिर थक कर निढाल हो जमीन पर पड़े रहे.

उन्होंने चिल्लाना चाहा पर जबान ने जैसे न हिलने की कसम खा ली. तभी उन्हें याद आया कि सब तो पिक्चर देखने गए हैं, अब तो आने ही वाले होंगे. अब दरवाजा कौन खोलेगा उन के लिए? बेचारे बाहर ठंड में अकड़ जाएंगे.

थोड़ी देर में दरवाजे की घंटी बजी. सब आ चुके थे. उन्होंने फिर उठना चाहा पर न जाने क्या हो गया है, वह यही सोचसोच कर हैरान हो रहे थे. घंटी लगातार बजती ही जा रही थी.

पत्नी तो बेटे- बहुओं के साथ अकेली जाना ही नहीं चाह रही थी. पर उन्हें कुछ लेखन का काम करना था सो जबरन ही उसे बेटों के साथ भेज दिया था. वह तो बहुएं बड़ी लायक हैं, उन्हें यह विचार ही नहीं आता कि मां- बाबूजी को उन के साथ नहीं लगना चाहिए, पर अब वह अपनी जिद को कोस रहे थे कि क्यों भेजा पत्नी को उन के साथ?

बाहर से बेटे बाबूजीबाबूजी चिल्ला रहे थे. दरवाजे को पीटा जाने लगा. तभी पत्नी का दहशत भरा स्वर सुनाई दिया, ‘‘मुकुल, दरवाजा तोड़ दो.’’

शायद दोनों बेटों ने मिल कर दरवाजा तोड़ा. घर में घुसते ही बाबूजीबाबूजी की आवाजें लगनी शुरू हो गईं. कमरे में बाबूजी को यों पड़े देखा तो हाहाकार मच गया. झट से दोनों बेटों ने मिल कर उन्हें पलंग पर लिटाया. उन की पत्नी ललिता उन के तलवे मलने लगी. बहुएं झट रसोई से उन के लिए पानी और हलदी वाला दूध ले आईं.

मुकेश ने पत्नी के हाथ से पानी का गिलास ले लिया और बाबूजी को हाथ के सहारे से उठा कर पिलाना चाहा तो होंठों के किनारों से पानी बाहर बह निकला. पति की यह हालत देख ललिता बिलखने लगीं. मुकेशमुकुल अपनीअपनी पत्नियों को मां को संभालने की आज्ञा दे कर डाक्टर को बुलाने चल दिए.

डाक्टर ने जांच कर के बताया

कि विजयजी को पक्षाघात हुआ है. सब यह सोच कर अचंभित रह गए कि अब क्या होगा? सब को अब अपनी दुनिया अंधेरी नजर आने लगी.

डाक्टर ने दवाइयां और मालिश के लिए तेल लिख दिया और कहा, ‘‘संभालिए आप सब अपनेआप को. यदि आप सब घबरा जाएंगे तो इन्हें कौन संभालेगा? देखिए, इन के जीवन को तो कोई खतरा नहीं है पर कब तक ठीक होंगे यह कहना मुश्किल है. सेवा कीजिए, दवा दीजिए. शायद आप सब का परिश्रम रंग लाए और विजयजी ठीक हो जाएं. और हां, घर का वातावरण शांत रखिए. आप सब हाहाकार मचाएंगे तो मरीज का मन कैसे शांत रहेगा.’’

फिर तो परिवार में हर किसी की दिनचर्या ही बदल गई. फिक्र भरी सुबहें, तो दोपहर व्यस्त हो गई, शामें चिंतित और रातें दुखदायी हो गईं. बेटों ने कुछ दिनों की छुट्टियां ले लीं पर आखिर कब तक घर बैठे रहते. सब की अपनीअपनी उलझनें और परेशानियां थीं, अपनेअपने कार्य थे पर विजयजी कितने निरीह, कितने बेबस हो गए थे यह कौन समझ सकता है. आखिर कोई भी मातापिता अपने बच्चों को परेशान नहीं करना चाहता, पर नियति के आगे किसी की कब चली है.

तय यह हुआ कि अभी सुमि दीदी को खबर नहीं की जाए, इतनी दूर अमेरिका से आ तो पाएंगी नहीं पर परेशान बहुत होंगी. बच्चों को भी सख्त हिदायत दे दी गई कि बूआ का फोन आए तो बाबूजी के बारे में उन से कुछ न कहा जाए.

सुमि का फोन आने पर जब वह बाबूजी से बात कराने को कहती तो अलगअलग बहाने बना दिए जाते. बाबूजी सुमि से क्या बात कर पाते, वह तो जबान ही न हिला पाते.

एक फिजियोथेरैपिस्ट रोज आ कर बाबूजी को हलके व्यायाम करा जाता. दोनों बेटों ने बाबूजी को नहलानेधुलाने और उन की साफसफाई करने के लिए एक नौकर की व्यवस्था कर ली थी. मालिश का काम कभीकभी वह नौकर तो कभी ललिता करतीं.

डाक्टर की नसीहत के कारण बच्चों को बाबूजी के कमरे में ज्यादा देर रुकने को मना कर दिया गया था इसलिए बच्चे कम ही आते थे. विजयजी कमरे में अकेले पड़ेपड़े ऊब गए थे. बेटे तो कामकाजी थे सो वे घर में कम ही रहते थे. बहुएं कमरे में उन का खाना, चाय, दूध, नाश्ता आदि ले कर आतीं और अम्मां को पकड़ा कर चली जातीं. साथ ही कहतीं, ‘‘अम्मांजी, कुछ और जरूरत हो तो आवाज लगा दीजिएगा,’’ फिर वे दोनों अपनेअपने कामों में व्यस्त हो जातीं.

बाबूजी की बीमारी से काम भी तो बहुत बढ़ गए थे. पहले तो उन की मालिश बेटे करते थे पर अब अम्मां और कभीकभी नौकर किशन कर देता था. ललिता उन से दिन भर की बातें करतीं. पर बाबूजी की तरफ से कोई जवाब नहीं आ पाता तो धीरेधीरे बोलने का नियम कम होतेहोते समाप्त सा हो गया. वह भी बस, जरूरत भर की ही बातें करने लगीं.

विजयजी ने कई बार अपनी पत्नी ललिता से कहने की कोशिश की कि बच्चों को कमरे में खेलने दिया करो, कुछ तो मन लगे पर गोंगों का अस्पष्ट स्वर ही निकल पाता. ललिता पूछती ही रह जातीं कि क्या कहना चाह रहे हो? पर स्वत: उन की बात समझने में असफल ही रहतीं.

विजयजी बहुत बेबस हो जाते. दोनों बेटे भी सुबहशाम उन के पास बैठ जाते, पर आखिर कब तक. बाद में तो आफिस से आ कर हालचाल पूछ कर अपनेअपने कमरों में घुस जाते या बाहर आंगन में सब साथ बैठ कर बतियाते. बहुएं भी वहीं बैठ कर कुछ न कुछ करतीं और बच्चे या तो खेलते या फिर पढ़ते पर बाबूजी के कमरे में जाने की उन्हें मनाही थी. ललिता भी अब बाबूजी का काम निबटा कर बहूबेटों के साथ आंगन में बैठने लगीं. अब बाबूजी ज्यादातर दिन भर अकेले ही पड़े रहने लगे.

पहले खबर लगते ही विजयजी के दोस्त घर में जुटने लगे थे. 3-4 दोस्त साथ आ जाते तो उन की गप्पें शुरू हो जातीं. बाबूजी का उन की बातें ही सुन कर वक्त कट जाता पर कभीकभी उन की बातें सुन कर परेशान भी होने लगते. एक दिन गुप्ताजी कहने लगे, ‘‘वैसे यह रोग है बड़ा जानलेवा, जल्दी ठीक ही नहीं होता. मेरे साढू भाई के बड़े भाई साहब को हुआ तो 10 साल बिस्तर पर पड़े रहे. हिलडुल भी नहीं पाते थे, बड़े कष्ट झेले.’’

चोपड़ा साहब ने कहा, ‘‘हां, ठीक कहते हो. कई साल पहले मेरे सगे फूफाजी इसी बीमारी को 11 साल झेल कर गुजर गए. बेचारी बूआ बहुत परेशान रहा करती थीं. पैसों की काफी तंगी हो गई थी उन्हें. सब रिश्तेदारों के आगे हाथ फैलाया करती थीं. शुरू में तो सब ने मदद की पर धीरेधीरे सब ने हाथ खींच लिए.’’

विजयजी सकते में आ गए. तो क्या इतनी वेदना से गुजरेंगे वह और उन के परिवार के लोग. अगर इतने साल बिस्तर पर पड़ेपड़े गुजारने पड़े तो कैसे गुजरेंगे पहाड़ से ये दिन. बाबूजी दिन भर सोचते कि इस दिमाग पर क्यों नहीं फालिज मार गया. कम से कम हर तकलीफ से नजात तो मिल जाती. बस, बाबूजी बेचारगी में छत को देखते रहते और दूर से आती आवाजें सुनते.

एक दिन किशन ने उन के दोस्तों की बातें सुन लीं. वह उस समय बाबूजी की मालिश कर रहा था. कई दोस्त तो उन्हें खूब तसल्ली देते परंतु कुछ एक ऐसे खरदिमाग होते हैं कि कहां क्या बात करनी चाहिए इस की समझ नहीं रखते. तो किशन ने महसूस किया कि इन दिल बैठा देने वाली बातों को सुन कर बाबूजी का रंग उड़ गया है.

उस ने बाद में सारी बातें ज्यों की त्यों मुकुल और मुकेश को सुना दीं. घर के सारे लोग बहुत खफा हुए कि हम सब तो यहां सेवा करकर के बेदम हो रहे हैं और बाबूजी के दोस्तों की कृपा रही तो वह कभी भी स्वस्थ नहीं हो पाएंगे. इस के बाद जब बाबूजी के दोस्त आते तो बाबूजी अभी सो रहे हैं कह कर बाहर से ही विदा कर दिया जाता. ऐसा कई दिनों तक चला तो बाबूजी के दोस्तों ने आना ही बंद कर दिया.

अब बाबूजी सिवा डाक्टर और किशन के बाहर की दुनिया से कट गए थे.

सुमि के फोन आने पर उस से बहाने तो बना दिए जाते पर आखिर कब तक. एक दिन छोटी बहू ने बता ही दिया. सुमि बहुत नाराज हुई कि अब तक उस से छिपाया क्यों गया? क्या भाई नहीं चाहते कि वह मायके आए. भाइयों ने बहुत समझाया कि ऐसा नहीं है, वह इतनी दूर है कि आसानी से आ नहीं सकती तो उसे परेशान नहीं करना चाहते हैं, इस के अलावा न बताने के पीछे कोई और मंशा नहीं थी.

और सच में सुमि फौरन नहीं आ पाई. हां, उस के फोन अब बाबूजी के हालचाल को जानने के लिए जल्दीजल्दी आने लगे.

एक दिन जाने क्या हुआ कि बाबूजी को घर में होहल्ला, चीखपुकार सुनाई पड़ने लगी. उन के काम लोग बदस्तूर कर रहे थे पर उन्हें कोई कुछ बता नहीं रहा था. किशन की तरफ बाबूजी पूछने वाली निगाहों से देखते पर वह भी चुप ही रहता. जिज्ञासा उन्हें खाए जा रही थी.

2 दिन बाद छोटा बेटा मुकेश आया. वह बहुत तैश में था और चुपचाप उन के पास बैठ गया. उन्होंने बड़े प्यार से सवालिया निगाहों से उसे देखा.

मुकेश अचानक फट पड़ा, ‘‘बाबूजी, आप भैया को समझा दें. बातबात पर मुझ को डांटें नहीं. अब मैं बच्चा नहीं रहा. खुद बालबच्चों वाला हूं.’’

बाबूजी ने हंसने की कोशिश में होंठ फैलाने की कोशिश की, जैसे कह रहे हों, ‘अरे, बेटा, तुम कितने भी बालबच्चेदार हो जाओ, बड़ों के लिए तो तुम छोटे ही रहोगे.’

मुकेश ने फिर कहा, ‘‘भैया अब बातबात पर मुझ से उलझने की कोशिश करते हैं, यह मुझे अब बरदाश्त नहीं.’’

बाबूजी बेचारे क्या करते. समझ गए कि दोनों भाई उन की बीमारी से इतने दुखी हो चुके हैं कि अपनीअपनी भड़ास एकदूसरे पर निकालने लगे हैं.

विजयजी पेशे से वकील थे. सरकारी नौकरी उन्होंने कभी नहीं की. रोज कमाओ, रोज खाओ वाली स्थिति रही. वह मेहनती और काबिल वकील थे, तो अच्छा कमा लेते थे. बच्चों को अच्छा खिलाया, पहनाया. उन की इच्छाएं भी पूरी कीं और संस्कार भी अच्छे दिए. काफी कुछ बचाया जिस में से एक बड़ा हिस्सा बेटी के विवाह और घर बनाने में लग गया. बेटों को अलगअलग घर बना कर दे सकते थे पर उन का मानना था कि एक घर में दोनों साथसाथ रहें तो परिवार मजबूत बनेगा. उन के अनुसार दोनों के परिवार 2 नहीं वरन एक बड़ा परिवार है.

घर उन्होंने बेटी के विवाह के बाद बनाया. दोनों बेटों ने पढ़लिख कर कमाना शुरू कर दिया था. अपने घर में उन्होंने बेटे रूपी 2 मजबूत स्तंभ खड़े कर दिए थे जो इस घर की छत कभी भी गिरने नहीं देंगे.

बहुएं भी उन्होंने अपनी पसंद की चुनी थीं. मध्यम वर्ग की संस्कारी लड़कियां, जो अब तक उन की कसौटी पर खरी उतरी थीं. करुणा और ऋतु मिलजुल कर ही रहतीं, काम भी मिलजुल कर करतीं. कभी कोई कटुता दोनों के बीच आई हो ऐसा कभी नहीं लगा. अगर कोई चिल्लपों रही हो घर में तो वह घर के बच्चों के मासूम झगड़े ही थे. अपना परिवार उन का ऐसा किला था जिस को कोई भेद नहीं सकता था. बड़ा सुखद जीवन चल रहा था कि अचानक इस में पक्षाघात रूपी बवंडर आ गया.

आज अपने इस बेटे के उखड़े हुए रूप को देख कर वह दहल गए कि कहीं यह बवंडर उन के घर को तिनकेतिनके कर न ले उड़े पर एक विश्वास था उन्हें कि उन के द्वारा निर्माण किए हुए ये 2 मजबूत स्तंभ ऐसा नहीं होने देंगे, पर अब डर तो बना रहेगा ही.

ऐसे में एक दिन खबर आई कि सुमि अपने पति और बच्चों सहित आ रही है. एक नीरसता भरे वातावरण में उल्लास की लहर दौड़ गई. वह बाबूजी की बीमारी के ढाई वर्ष बाद आ पा रही थी.

सुमि आई. वह और उस के दोनों बेटे बाबूजी के पास बैठते, वहां ताश, लूडो और तरहतरह के खेल खेलते और अपने मामा के बच्चों को भी अपने साथ खेलने को उकसाते. मुकुलमुकेश के बच्चे बड़े असमंजस में पड़ गए कि क्या वे भी बाबाजी के कमरे में खेल सकते थे? इन दोनों को कोई क्यों नहीं मना करता बाबाजी के पास जाने को? पर रिश्ता ही ऐसा था कि उन पर किसी

भी प्रकार का बंधन नहीं डाला जा सकता.

सुमि के जोर देने पर मुकुल व मुकेश ने भी अपने बच्चों को बाबाजी के पास हुड़दंग मचाने की अनुमति दे दी. क्या पता ऐसे ही कुछ फायदा हो जाए. अभी तक तो पहले जैसी ही स्थिति है बाबूजी की.

यह परिवर्तन बाबूजी के लिए सुखद था. अब तक सुमि कहां थी? अब उन का मन लगने लगा. धीरेधीरे उन में जीने की इच्छा जागने लगी. गों गों का स्वर धीरेधीरे अस्फुट शब्दों में परिवर्तित होने लगा. उंगलियों में हरकत होने लगी. सभी तो खुश लग रहे थे इस सुधार से.

सुमि के वापस जाने का समय नजदीक आ रहा था. एक दिन जब सुमि और बच्चे बाबूजी के पास बैठे थे कि मुकुल व मुकेश अपनीअपनी पत्नियों के साथ आ गए. बच्चों को बाहर भेज दिया गया. बाबूजी का दिल बैठने लगा. ऐसी क्या बात है जो बच्चों के सामने नहीं हो सकती?

बड़े बेटे मुकुल ने, अटकते हुए कहना शुरू किया, ‘‘बाबूजी, हमें आप को कुछ बताना है.’’

सुमि बोली, ‘‘क्या बात है, मुकुल?’’

मुकुल बोला, ‘‘दीदी, यह बड़ी अच्छी बात है कि आप के आने से बाबूजी की स्थिति में सुधार आ रहा है, पर…’’

‘‘हां, पर क्या, बोलो?’’

मुकुल थूक निगलते हुए बोला, ‘‘दीदी, बाबूजी की बीमारी के कारण अब हम दोनों की स्थिति ठीक नहीं है.’’

वह आगे कुछ कहता कि सुमि ने आंखें तरेरीं और चुप रहने का इशारा किया पर दोनों भाई तो ठान कर आए थे, सो चुप कैसे रहते, ‘‘बाबूजी, मुकेश आप की बीमारी का कुछ भी खर्चा उठाने को तैयार नहीं है. अभी तक मैं अकेला ही सब खर्चे का बोझ उठा रहा हूं.’’

मुकेश जो अब तक चुप था बोला, ‘‘बाबूजी, आप तो जानते ही हैं कि मेरी इस के जितनी तनख्वाह नहीं है.’’

‘‘तो मैं क्या करूं, अगर आप की तनख्वाह कम है,’’ मुकुल बोला, ‘‘आखिर मुझे भी तो अपने परिवार के भविष्य का खयाल रखना है.’’

‘‘तुम्हारा अपना परिवार? लेकिन मैं तो समझती थी कि यह पूरा परिवार एक ही है, नहीं है क्या?’’ सुमि ने कहा.

‘‘दीदी, किस जमाने की बातें कर रही हो आप. अब वह जमाना नहीं है जब सब एकसाथ हंसीखुशी रहते थे. देखना कुछ सालों बाद आप का यह लाड़ला मुझ से अपना हिस्सा मांगेगा. तो जो कल होना है वह आज अम्मांबाबूजी के सामने क्यों न हो जाए?’’

‘‘कुछ तो शर्म करो तुम दोनों, बाबूजी को ठीक तो होने देते, बेशर्मी करने से पहले,’’ सुमि ने डपटा, ‘‘और अब तो बाबूजी ठीक भी हो रहे हैं. कुछ दिन और सह लो, फिर बंटवारे की जरूरत ही नहीं रहेगी. बाबूजी स्वस्थ हो जाएं तो वह भी कुछ न कुछ कर लेंगे.’’

‘‘नहीं दीदी, आप नहीं समझ रही हैं. बात खर्चे की नहीं है, नीयत की है. मुकेश की नीयत ठीक नहीं,’’ मुकुल बोल पड़ा.

‘‘सोचसमझ कर बोलिए भैया, मेरी नीयत में कोई भी खोट नहीं, यह कहिए कि आप ही निबाहना नहीं चाहते,’’ मुकेश ने बात काटी. दोनों एकदूसरे को खूनी नजरों से घूर रहे थे.

‘‘चुप रहो दोनों. बाबूजी को ठीक होने दो फिर कर लेना जो दिल में आए.’’

‘‘देखिए दीदी, आप बाबूजी की बीमारी के बारे में जानने के बाद अब 1 वर्ष बाद आ पाई हैं. अब बुलाने पर तो आप आएंगी नहीं. यह बात आप के सामने हो तो बेहतर होगा. वरना बाद में आप ने कुछ आपत्ति उठाई तो?’’ मुकेश बोला.

‘‘मुकेश,’’ सुमि चीखी, ‘‘मैं तुम दोनों की तरह बेशर्म नहीं हूं, जो ऐसी बातें करूंगी और सुन लो, मुझे अपने अम्मांबाबूजी की खुशी के अलावा कुछ नहीं चाहिए. और हां, बंटवारे के बाद अम्मांबाबूजी कहां रहेंगे, बताओ तो जरा?’’

‘‘क्यों, मुकेश के पास. वही अम्मां का लाड़ला छोटा बेटा है,’’ मुकुल ने झट कहा.

‘‘मेरे पास क्यों? आप बड़े हैं. आप की जिम्मेदारी है,’’ मुकेश ने नहले पर दहला मारा.

विजयजी की आंखों की कोरों से 2 बूंद आंसू लुढ़क गए. उन के दोनों स्तंभ बड़े कमजोर निकले. उन का अभेद्य किला आज ध्वस्त हो गया था, जाने कब से अंदर ही अंदर यह ज्वालामुखी धधक रहा था. ललिता ने भी मुझे कुछ भनक नहीं लगने दी. अंदर का ज्वालामुखी मन में दबाए मेरे आगे हमेशा हंसती रही. उन की नजरें ललिता को खोजने लगीं. वह उन्हें दरवाजे की ओट में से भीतर झांकती दिखीं. बेहद डरीसहमी हुई. दोनों बहुएं भी वहीं थीं. शायद वे भी यह सब चाहती थीं, पर उन के चेहरों पर ऐसा कुछ भी नहीं था. उन की निगाहें झुकी हुई थीं, चुप थीं दोनों.

सुमि फिर दहाड़ी, ‘‘इतना सबकुछ तय कर लिया अपनेआप, यह भी बताओ, बंटवारा कैसे करना है, यह भी तो सोच ही लिया होगा? आखिर बाबूजी तो लाचार हैं, कुछ बोल नहीं सकेंगे, तो?’’

‘‘इतना बड़ा घर है. बीच से एक दीवार डाल देंगे, जो आंगन को भी बराबरबराबर बांट दे. रसोई काफी बड़ी है, आंगन के बीचोंबीच. उस में भी दीवार डाल देंगे,’’ मुकुल ने कहा.

‘‘और अम्मांबाबूजी के बारे में भी तो तुम दोनों ने सोच ही लिया होगा. उन का क्या होगा, क्या सोचा है?’’ सुमि का चेहरा लाल हो रहा था.

‘‘दीदी, आप अमेरिका में रह कर ऐसी नादानी भरी बातें करेंगी, आप से ऐसी उम्मीद नहीं थी. वहां बूढ़े और अपाहिज मातापिता का क्या करते हैं यह आप से बेहतर कोई क्या जानेगा?’’ मुकुल फुसफुसाया जो सब ने सुन लिया.

‘‘हां, भैया ठीक कह रहे हैं. आजकल यहां भारत में भी ऐसा इंतजाम है. यहां भी कई वृद्धाश्रम खुल गए हैं,’’ मुकेश ने कहा तो सुमि को लगा कि दोनों भाई कम से कम इस बारे में एकमत थे.

दोनों अपना फैसला सुना कर बाहर चल दिए. अम्मां दरवाजे के पास घुटनों में सिर दे कर बैठ गईं, सिसकते हुए अपने दिवंगत सासससुर को याद करने लगीं, ‘‘अब कहां हो अम्मांजी, बापूजी? हम तो एक बेटे एक बेटी में खुश थे. आप ही को 2-2 पोते चाहिए थे. अगर एक ही होता तो आज यह नौबत न आती.’’

सुमि दोनों हथेलियों में सिर थामे निर्जीव सी कुरसी पर ढह गई. जीजाजी, जो अब तक चुप थे, ने चुप ही रहने में अपनी भलाई समझी. कहीं यह न हो कि दोनों सालों को डांटें तो वह यह न कह दें कि जीजाजी, आप को क्या कमी है, आप क्यों नहीं ले जाते अपने साथ?

विजयजी बेबस परेशान अपने दिए संस्कारों में गलतियां खोज रहे थे. जिस भरोसे से उन्होंने अपने अटूट परिवार की नींव डाली थी, वह भरोसा ही खंडखंड हो गया था. सबकुछ तो उन के तय किए हुए खाके पर चल रहा था, शायद ऐसे ही चलता रहता, अगर उन पर इस पक्षाघात का कहर न टूट पड़ता.

Social Story : फर्जी पहचानपत्र

Social Story : फर्जी पहचानपत्र

वह पलंग पर सोया हुआ था. सूरज निकलने ही वाला था कि तभी दरवाजे की घंटी बजी. वह उठा और दरवाजा खोला. सामने पुलिस के 2 सिपाही थे. वह भौचक्का रह गया.‘‘जी, कहिए…’’ उस ने बड़े ही अदब से पूछा.

‘‘क्या नाम है तुम्हारा?’’ पहले सिपाही ने पूछा.

‘‘जी, रामलाल.’’

‘‘बकवास मत करो. अपना सही नाम बताओ.’’

‘‘जी, मेरा नाम रामलाल ही है.’’

‘‘पुलिस से मजाक करने का नतीजा जानते हो?’’

‘‘जी, मैं सच बोल रहा हूं.’’

‘‘अच्छा, पिता का नाम बताओ,’’ दूसरे सिपाही ने पूछा.

‘‘जी, कुंदनलाल…’’ वह बोला.

‘‘लेकिन, ऐसा कैसे हो सकता है?’’ पहले सिपाही ने दूसरे सिपाही से कहा. फिर दोनों किसी सोच में डूब गए.

‘‘क्या हुआ साहब, आप के चेहरे पर चिंता…’’ उस ने पूरी बात जानने की कोशिश की.

‘‘देखो, हमारे हिसाब से तुम आज रात एक सड़क हादसे में मारे जा चुके हो. हम उसी की सूचना देने यहां आए हैं?’’ पहले सिपाही ने कहा.

‘‘लेकिन, ऐसा कैसे हो सकता है साहब?’’

‘‘हमें नहीं पता. हमारे रिकौर्ड में तो तुम मर चुके हो, बस.’’

‘‘लेकिन, मैं तो जिंदा खड़ा हूं.’’

‘‘तो, हम क्या करें. हम अब अपना फैसला नहीं बदल सकते. पूरी कागजी कार्यवाही कर चुके हैं. अब क्या रजिस्टर के पन्ने फाड़ेंगे. हमारे अफसर क्या सोचेंगे. कुछ ले लिया होगा.

‘‘और, अब तो लाश भी पोस्टमार्टम के लिए जा चुकी है. अब तुम सीधे जा कर अपनी लाश को ले लो,’’ पहले सिपाही ने कहा.

‘‘मगर…’’

‘‘अगरमगर कुछ नहीं. चुपचाप हमारे साथ चलो. कागजों पर साइन करो और मुरदाघर से अपनी लाश उठा लाओ. उस के बाद जो मन में आए, अगरमगर करना. हमारा काम खत्म, बस.’’

‘‘लेकिन, आप कैसे कह सकते हैं कि मैं मर गया हूं?’’

‘‘यह हम कहां कह रहे हैं. यह तो तुम्हारी लाश से मिले कपड़े, घड़ी, पर्स, पैसे और पहचानपत्र बता रहे हैं. सब थाने में जमा हैं. तुम चल कर पहचान कर लो.’’

‘‘लगता है, आप को कोई धोखा हुआ है साहब.’’

‘‘देखो, ऐसे मामलों में पुलिस कभी धोखा नहीं खाती. और फिर तुम्हारी लाश से जो पहचानपत्र मिला है, उस पर तुम्हारा ही नामपता लिखा है. अब लाश थोड़े ही बोलेगी

कि साहब, मैं रामलाल नहीं, बल्कि श्यामलाल हूं.’’

‘‘लेकिन, पहचानपत्र फर्जी भी तो हो सकता है साहब?’’

‘‘देखो, वह पहचानपत्र भी एक सरकारी संस्थान द्वारा जारी किया गया सुबूत है. वह  झूठा नहीं हो सकता.’’

‘‘लेकिन, ऐसा भी तो हो सकता है कि मरने वाले ने इस शहर में रहने के लिए मेरे नाम से फर्जी बनवा रखा हो.’’

‘‘फिर तुम्हारा पहचानपत्र कहां है?’’

‘‘पता नहीं, ढूंढ़ना पड़ेगा.’’

‘‘संभाल कर नहीं रखा क्या?’’

‘‘बच्चे संभालें या पहचानपत्र?’’

‘‘तुम्हारे बच्चे भी हैं?’’

‘‘जी, 4 हैं.’’

‘‘बच्चे… ज्यादा हैं या पहचानपत्र?’’

‘‘बच्चे…’’

‘‘फिर कम चीज को संभाल कर रखा जाता है या ज्यादा को?’’

‘‘गलती हो गई साहब. माफ कर दीजिए.’’

‘‘हम कौन होते हैं माफ करने वाले. हम तो केवल साहब के हुक्म की तामील कर रहे हैं. उन्होंने ही हमें आप के परिवार वालों को लाने के लिए भेजा था. अब आप खुद ही मिल गए, तो अब आप ही चलिए.’’

वह चुपचाप थाने की ओर चल पड़ा. चौराहे पर भीड़ जमा थी. लोग तरहतरह की बातें कर रहे थे, ‘बेचारा रामलाल, कल शाम को ही तो यहां से पान खा कर गया था. आज खुद मौत का निवाला बन गया.’

‘होनी को किस ने रोका है साहब. कब क्या हो जाए, किस को पता. सुबह मौत को हाथ पर ले कर निकलते हैं. ठीकठाक से घर लौट आएं, तो बच्चों का नसीब. फिर शहरों में तो रोजाना 5-10 हादसे होना आम बात है.’

उस ने अपने पनवाड़ी दोस्त से कहा, ‘‘अरे भई रामखिलावन, देखो न, ये पुलिस वाले कहते हैं कि मैं मर चुका हूं, पर मैं तो जिंदा हूं भई.’’

‘‘अखबार में तो यही छपा है बाबू. अब आप जिंदा रहें या मरें, हम इस पचड़े में हाथ नहीं डालेंगे. आप की गवाही के चक्कर में कोर्टकचहरी घूमते फिरेंगे या बच्चे पालेंगे…’’ रामखिलावन मुंह फेर कर खड़ा हो गया.

वह आगे चल पड़ा. थाना आ गया. थाने में थाना इंचार्ज को देखते ही पहला सिपाही बोला, ‘‘सर, ले आए हम… कहता है कि वही रामलाल है और जिंदा है. कहो तो अभी टपका दें इसे.’’

‘‘अगर यह रामलाल है, तो वह कौन था?’’ थाना इंचार्ज

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बोला.

‘‘हमें नहीं पता साहब, हम तो केवल इतना जानते हैं कि मरने वाले की जेब से जो पहचानपत्र मिला है, उस पर इसी का नामपता है.’’

‘‘ठीक है, फिर इसे भी डाल दो लौकअप में. जब तक उस मरने वाले की शिनाख्त नहीं होती, इसे यहीं रखो.’’

वह बेचारा लौकअप के एक कोने में बैठा इंतजार कर रहा है उस फर्जी पहचानपत्र वाले की असली पहचान का.

Family Story : राहुल बड़ा हो गया है

Family Story : राहुल बड़ा हो गया है

अमित से मैं अकसर इस बात पर उलझ पड़ती हूं कि राहुल अभी छोटा है. वह कभी हंस देते हैं, कभी झुंझला उठते हैं कि इतना छोटा भी नहीं है जितना तुम समझती हो.

अमित कहते हैं, ‘‘14 साल पूरे करने वाला है और तुम उसे छोटा ही कहती हो. मैं तो समझता हूं कि कल को उस के बच्चे भी हो जाएंगे तब भी राहुल तुम्हें छोटा ही लगेगा.’’

मैं इस तरह की बातें अनसुनी करती रहती हूं. बेटी मिनी, जो 16 की हुई है, वह भी अपने पापा के सुर में सुर मिलाए रखती है. वह भी यही कहती है, ‘‘छोटा है, हुंह, स्कूल में इस की मस्ती देखो तो आप को पता चलेगा कि यह कितना छोटा है.’’

मैं कहती हूं, ‘‘तो क्या हुआ, छोटा है तो मस्ती तो करेगा ही,’’ मतलब मेरे पास इन दोनों की हर बात का यही जवाब होता है कि राहुल अभी छोटा है. यह तो शुक्र है कि राहुल ने बहुत तेज दिमाग पाया है. कक्षा में हमेशा प्रथम स्थान प्राप्त करता है. खेलकूद में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेता है. जिस में भाग लेता है उसी में प्रथम स्थान प्राप्त करता है. यहीं पर अमित उस से बहुत खुश हो जाते हैं नहीं तो उसे मेरा छोटा कहना दोनों बापबेटी के लिए अच्छाखासा मनोरंजन का विषय रहता है. अब मैं क्या करूं, अगर वह मुझे छोटा लगता है. वैसे भी सुना है कि मां के लिए बच्चे हमेशा छोटे ही रहते हैं.

ठीक है, उस का कद मुझे पार कर गया है. मैं जो अच्छीखासी लंबी हूं, राहुल के कंधे पर आने लगी हूं. उस की हर समय खेलकूद की बातें, उस के चेहरे पर रहने वाली भोली सी मुसकराहट, बस, मुझे कुछ दिखाई नहीं देता, न घर में सब को पार करता उस का कद, न उस के होंठों के ऊपर हलकी सी उभरती मूंछों की कालिमा.

अभी एक हफ्ते पहले मैं ने राहुल का एक दूसरा ही रूप देखा जिसे देख कर मैं ने भी महसूस किया कि राहुल बड़ा हो गया है.

मेरी तबीयत अकसर ठीक नहीं रहती है. कभी कुछ, कभी कुछ, लगा ही रहता है. पिछले हफ्ते की बात है. एक दिन घर का सामान लेने बाजार जाना था. मेरी तबीयत सुबह से ही कुछ सुस्त थी. अमित टूर पर थे, मिनी की परीक्षाएं चल रही थीं. सामान जरूरी था, अत: राहुल और मैं शाम को 4 बजे के आसपास बाजार चले गए. यहां मुंबई में किसी भी दिन किसी भी समय कहीं भी चले जाइए भीड़ ही भीड़, लोग ही लोग. कोई कोना खाली नहीं दिखता.

मुंबई आए 7 साल होने को हैं लेकिन आज भी बाहर निकलती हूं तो हर तरफ भीड़ देख कर जी घबरा जाता है. साधारण हाउसवाइफ हूं, बाहर अकेले कम ही निकलती हूं.

खैर, उस दिन बाजार में सामान लेतेलेते एक जगह सिर बहुत भारी लगने लगा. अचानक ही मुझे तेज चक्कर आया और मैं पसीनेपसीने हो उठी. साथ ही पेट के अंदर कमर के पास तेज दर्द शुरू हो गया. राहुल मेरी हालत देख कर घबरा उठा. मैं ने उसे अपना पर्स व सामान थमाया और इतना ही कहा, ‘‘राहुल, तुरंत डाक्टर के पास चलो.’’

राहुल ने तुरंत आटो बुलाया और मुझे उस में बैठा कर मेरे फैमिली डाक्टर के नर्सिंग होम पहुंचा. रास्ते में मैं ने उसे मिनी को फोन कर के बताने को कहा. डाक्टर ने पहुंचते ही मेरा चेकअप किया और बताया, ‘‘ब्लडप्रेशर बहुत हाई है. मुझे कुछ टेस्ट करने हैं. दर्द के लिए इंजेक्शन दे रहा हूं, आज आप को यहां भरती होना पड़ेगा.’’

मैं यह सोच कर परेशान हो गई कि अमित शहर में नहीं हैं और परीक्षा की तैयारी में व्यस्त मिनी घर पर अकेली है.

मैं अपनी परेशान हालत में कुछ और सोचती इस से पहले ही राहुल बोल उठा, ‘‘अंकल, मम्मी आज यहीं रुक जाएंगी. मैं सब देख लूंगा,’’ आगे मुझ से बोला, ‘‘आप बिलकुल किसी बात की चिंता मत करो, मम्मी. मैं यहीं हूं, मैं हर बात का ध्यान रखूंगा.’’

दर्द से तड़पती मैं उस हाल में भी गर्वित हो उठी यह सोच कर कि मेरा छोटा सा बेटा कैसे मेरी देखभाल के लिए तैयार है. दर्द से मेरी जान निकल रही थी. शायद इंजेक्शन से थोड़ी देर में मुझे नींद भी आ गई. इस बीच राहुल ने मिनी को फोन कर के कुछ पैसे और मेरे लिए खाने को कुछ लाने के लिए कहा.

रात 8 बजे मेरी आंख खुली, तो देखा, दोनों बच्चे मेरे सामने चुपचाप उदास बैठे थे. मन हुआ उठ कर दोनों को अपने सीने से लगा लूं. दर्द खत्म हो चुका था, कमजोरी बहुत महसूस हो रही थी.

मैं बच्चों से बोली, ‘‘अब मैं ठीक हूं. तुम लोग अब घर चले जाओ, रात हो गई है.’’

मैं ने अपनी 2-3 सहेलियों के नाम ले कर कहा, ‘‘उन लोगों को बता दो, उन में से कोई एक यहां रुक जाएगा रात को.’’

मैं आगे कुछ और कहती, इस से पहले ही राहुल बोल उठा, ‘‘नहीं, मम्मी, जब मैं यहां हूं और किसी को बुलाने की जरूरत नहीं है. आप देखना, मैं आप का अच्छी तरह ध्यान रखूंगा. मिनी दीदी, आप जाओ, आप के पेपर हैं. मम्मी और मैं सुबह आ जाएंगे.’’

राहुल आगे बोला, ‘‘हां, एक बात और मम्मी, हम पापा को नहीं बताएंगे. वह टूर पर हैं, परेशान हो जाएंगे. वैसे भी 2 दिन बाद तो वह आ ही जाएंगे.’’

मैं अपने छोटे से बेटे का यह रूप देख कर हैरान थी. मिनी को हम ने समझा कर घर भेज दिया. वैसे भी वह एक समझदार लड़की है. राहुल ने अपने हाथों से मुझे थोड़ा खाना खिलाया और कुछ खुद भी खाया. मेरे राहुल ने कितनी देर से कुछ भी नहीं खाया था, सोच कर मैं लेटेलेटे दुखी सी हो गई.

कुछ दवाइयों का असर था शायद मैं फिर सो गई लेकिन रात को मैं ने जितनी बार आंखें खोलीं, राहुल को बराबर के बेड पर जागते ही पाया. सुबह मुझे पता चला कि किडनी में पथरी का दर्द था. खैर, उस का इलाज तो बाद में होना था. ब्लडप्रेशर सामान्य था.

अब मैं डाक्टर की हिदायतों के बाद घर जाने को तैयार थी. डाक्टर से दवाई समझता, सब बिल चुकाता, एक हाथ से मेरा हाथ, दूसरे में मेरा पर्स और बैग थामता राहुल आज मुझे सच में बड़ा लग रहा था.

Social Story : बस नंबर 9261

Social Story : बस नंबर 9261

आज जैसे ही अजय बस में चढ़ा तो चौंक गया. बमुश्किल 5-6 सवारियां होंगी. वैसे भी ड्राइवर जोगिंदर का यह आखिरी फेरा होता था.

दिनभर की भागमभागी में अजय को आज काफी थकान हो गई थी और घर पर भी कोई नहीं था.

‘‘क्यों जोगिंदर, कोई होटल खुला होगा क्या?’’

‘‘हां साहबजी, पांडेयजी का होटल रात 11 बजे तक तो खुला रहता है,’’ जोगिंदर का जवाब था.

तभी अजय ने देखा कि पीछे की सीट पर 2 औरतें बैठी थीं. साथ में एक बच्ची थी, जो तकरीबन 3-4 साल की होगी.

उन औरतों में से एक काले रंग की औरत ने अपनी दोनों छाती नंगी की और उस बच्ची को दूध पिलाने लगी. खूब काले, बड़े और कसे हुए उभार थे उस के.

बच्ची एक छाती को मुंह में लिए थी, जबकि दूसरे को हाथ से पकड़े हुए थी. अब तो बस में बैठे अजय और जोगिंदर का ध्यान न चाहते हुए भी उस औरत पर चला गया.

जोगिंदर एक तरफ बस चला रहा था, वहीं दूसरी तरफ उस औरत को देख भी रहा था. अजय भी कनखियों से उसे देख रहा था. वजह, ऐसा सीन उस ने आज तक नहीं देखा था.

‘‘ड्राइवर, क्या आप यहां पर बस रोकेंगे…’’ अनायास ही उस औरत की आवाज गूंजी.

‘‘जी मैडम,’’ कहते हुए जोगिंदर ने बस रोक दी.

बस रुकते ही वह औरत झटके से उठ खड़ी हुई और अजय के पास आ गई.

‘‘क्या बात है मैडम, बस क्यों रुकवाई?’’ अजय ने चौंकते हुए पूछा.

‘‘वह इसलिए कि तुम दोनों मुड़मुड़ कर मेरी तरफ देख रहे थे, जब मैं बच्ची को दूध पिला रही थी. लो, ठीक से देख लो,’’ इतना कहते हुए उस औरत ने अपनी छाती हाथ में पकड़ कर अजय के सामने कर दी, ‘‘ले पीएगा, मुंह खोल,’’ इतना कहते ही उस ने अजय के मुंह के पास छाती कर दी.

अजय और जोगिंदर दोनों शर्मिंदा थे. वे सिर नहीं उठा पा रहे थे.

‘‘गाड़ी सामने देख कर चलाओ. तुम दोनों भी किसी मां के बेटे हो. ऐक्सिडैंट होने से हम सब मारे जाएंगे,’’ वह औरत बोली.

‘‘आप हमें माफ कर दें,’’ अचानक जोगिंदर के मुंह से निकला.

‘‘चलो माफ किया, मगर सोचो, जिस मां का दूध पी कर तुम इतने बड़े हुए, आज उसी एक मां की छाती देखने पर इतना बड़ा रिस्क उठाया,’’ उस औरत के इस वाक्य ने रहीसही कसर पूरी कर दी.

वह औरत सामान्य भाव से अपनी छाती ढकते हुए सीट पर जा बैठी. थोड़ी देर बाद अवधपुरी चौराहे पर उतर कर वह औरत बच्ची के साथ घर की ओर गई.

उन दोनों ने आज पांडेयजी के होटल पर जाने का विचार छोड़ दिया.

घर पहुंच कर अजय ने चुपचाप 4-5 गिलास पानी पीया और बिस्तर पर लेट गया.

आज के बाद अजय कभी बस नंबर 9261 से नहीं चढ़ेगा और न ही किसी औरत की ओर आंख उठा कर देखेगा.

Love Story : कितना करूं इंतजार

Love Story : कितना करूं इंतजार

मुझे गुमसुम और उदास देख कर मां ने कहा, ‘‘क्या बात है, रति, तू इस तरह मुंह लटकाए क्यों बैठी है? कई दिन से मनोज का भी कोई फोन नहीं आया. दोनों ने आपस में झगड़ा कर लिया क्या?’’

‘‘नहीं, मां, रोज रोज क्या बात करें.’’

‘‘कितने दिनों से शादी की तैयारी कर रहे थे, सब व्यर्थ हो गई. यदि मनोज के दादाजी की मौत न हुई होती तो आज तेरी शादी को 15 दिन हो चुके होते. वह काफी बूढ़े थे. तेरहवीं के बाद शादी हो सकती थी पर तेरे ससुराल वाले बड़े दकियानूसी विचारों के हैं. कहते हैं कि साए नहीं हैं. अब तो 5-6 महीने बाद ही शादी होगी.

‘‘हमारी तो सब तैयारी व्यर्थ हो गई. शादी के कार्ड बंट चुके थे. फंक्शन हाल को, कैटरर्स को, सजावट करने वालों को, और भी कई लोगों को एडवांस पेमेंट कर चुके थे. 6 महीने शादी सरकाने से अच्छाखासा नुकसान हो गया है.’’

‘‘इसी बात से तो मनोज बहुत डिस्टर्ब है, मां. पर कुछ कह नहीं पाता.’’

‘‘बेटा, हम भी कभी तुम्हारी उम्र के थे. तुम दोनों के एहसास को समझ सकते हैं, पर हम चाह कर भी कुछ नहीं कर सकते. मैं ने तो तेरी सास से कहा भी था कि साए नहीं हैं तो क्या हुआ, अच्छे काम के लिए सब दिन शुभ होते हैं…अब हमें शादी कर देनी चाहिए.

‘‘मेरा इतना कहना था कि वह तो भड़क गईं और कहने लगीं, आप के लिए सब दिन शुभ होते होंगे पर हम तो सायों में भरोसा करते हैं. हमारा इकलौता बेटा है, हम अपनी तरफ से पुरानी मान्यताओं को अनदेखा कर मन में कोई वहम पैदा नहीं करना चाहते.’’

रति सोचने लगी कि मम्मी इस से ज्यादा क्या कर सकती हैं और मैं भी क्या करूं, मम्मी को कैसे बताऊं कि मनोज क्या चाहता है.

नर्सरी से इंटर तक हम दोनों साथसाथ पढ़े थे. किंतु दोस्ती इंटर में आने के बाद ही हुई थी. इंटर के बाद मनोज इंजीनियरिंग करने चला गया और मैं ने बी.एससी. में दाखिला ले लिया था. कालिज अलग होने पर भी हम दोनों छुट्टियों में कुछ समय साथ बिताते थे. बीच में फोन पर बातचीत भी कर लेते थे. कंप्यूटर पर चैट हो जाती थी.

एम.एससी. में आते ही मम्मीपापा ने शादी के लिए लड़का तलाशने की शुरुआत कर दी. मैं ने कहा भी कि मम्मी, एम.एससी. के बाद शादी करना पर उन का कहना था कि तुम अपनी पढ़ाई जारी रखो, शादी कौन सी अभी हुई जा रही है, अच्छा लड़का मिलने में भी समय लगता है.

शादी की चर्चा शुरू होते ही मनोज की छवि मेरी आंखों में तैर गई थी. यों हम दोनों एक अच्छे मित्र थे पर तब तक शादी करने के वादे हम दोनों ने एकदूसरे से नहीं किए थे. साथ मिल कर भविष्य के सपने भी नहीं देखे थे पर मम्मी द्वारा शादी की चर्चा करने पर मनोज का खयाल आना, क्या इसे प्यार समझूं. क्या मनोज भी यही चाहता है, कैसे जानूं उस के दिल की बात.

मुलाकात में मनोज से मम्मी द्वारा शादी की पेशकश के बारे में बताया तो वह बोला, ‘‘इतनी जल्दी शादी कर लोगी, अभी तो तुम्हें 2 वर्ष एम.एससी. करने में ही लगेंगे,’’ फिर कुछ सोचते हुए बोला था, ‘‘सीधेसीधे बताओ, क्या मुझ से शादी करोगी…पर अभी मुझे सैटिल होने में कम से कम 2-3 वर्ष लगेंगे.’’

प्रसन्नता की एक लहर तनमन को छू गई थी, ‘‘सच कहूं मनोज, जब मम्मी ने शादी की बात की तो एकदम से मुझे तुम याद आ गए थे…क्या यही प्यार है?’’

‘‘मैं समझता हूं यही प्यार है. देखो, जो बात अब तक नहीं कह सका था, तुम्हारी शादी की बात उठते ही मेरे मुंह पर आ गई और मैं ने तुम्हें प्रपोज कर डाला.’’

‘‘अब जब हम दोनों एकदूसरे से चाहत का इजहार कर ही चुके हैं तो फिर इस विषय में गंभीरता से सोचना होगा.’’

‘‘सोचना ही नहीं होगा रति, तुम्हें अपने मम्मीपापा को इस शादी के लिए मनाना भी होगा.’’

‘‘क्या तुम्हारे घर वाले मान जाएंगे?’’

‘‘देखो, अभी तो मेरा इंजीनियरिंग का अंतिम साल है. मेरी कैट की कोचिंग भी चल रही है…उस की भी परीक्षा देनी है. वैसे हो सकता है इस साल किसी अच्छी कंपनी में प्लेसमेंट मिल जाए क्योंकि कालिज में बहुत सी कंपनियां आती हैं और जौब आफर करती हैं. अच्छा आफर मिला तो मैं स्वीकार कर लूंगा और जैसे ही शादी की चर्चा शुरू होगी मैं तुम्हारे बारे में बता दूंगा.’’

प्यार का अंकुर तो हमारे बीच पनप ही चुका था और हमारा यह प्यार अब जीवनसाथी बनने के सपने भी देखने लगा था. अब इस का जिक्र अपनेअपने घर में करना जरूरी हो गया था.

मैं ने मम्मी को मनोज के बारे में बताया तो वह बोलीं, ‘‘वह अपनी जाति का नहीं है…यह कैसे हो सकता है, तेरे पापा तो बिलकुल नहीं मानेंगे. क्या मनोज के मातापिता तैयार हैं?’’

‘‘अभी तो इस बारे में उस के घर वाले कुछ नहीं जानते. फाइनल परीक्षा होने तक मनोज को किसी अच्छी कंपनी में जौब का आफर मिल जाएगा और रिजल्ट आते ही वह कंपनी ज्वाइन कर लेगा. उस के बाद ही वह अपने मम्मीपापा से बात करेगा.’’

‘‘क्या जरूरी है कि वह मान ही जाएंगे?’’

‘‘मम्मी, मुझे पहले आप की इजाजत चाहिए.’’

‘‘यह फैसला मैं अकेले कैसे ले सकती हूं…तुम्हारे पापा से बात करनी होगी…उन से बात करने के लिए मुझे हिम्मत जुटानी होगी. यदि पापा तैयार नहीं हुए तो तुम क्या करोगी?’’

‘‘करना क्या है मम्मी, शादी होगी तो आप के आशीर्वाद से ही होगी वरना नहीं होगी.’’

इधर मेरा एम.एससी. फाइनल शुरू हुआ उधर इंजीनियरिंग पूरी होते ही मनोज को एक बड़ी कंपनी में अच्छा स्टार्ट मिल गया था और यह भी करीबकरीब तय था कि भविष्य मेें कभी भी कंपनी उसे यू.एस. भेज सकती है. मनोज के घर में भी शादी की चर्चा शुरू हो गई थी.

मैं ने मम्मी को जैसेतैसे मना लिया था और मम्मी ने पापा को किंतु मनोज की मम्मी इस विवाह के लिए बिलकुल तैयार नहीं थीं. इस फैसले से मनोज के घर में तूफान उठ खड़ा हुआ था. उस के घर में पापा से ज्यादा उस की मम्मी की चलती है. ऐसा एक बार मनोज ने ही बताया था…मनोज ने भी अपने घर में ऐलान कर दिया था कि शादी करूंगा तो रति से वरना किसी से नहीं.

आखिर मनोज के बहनबहनोई ने अपनी तरह से मम्मी को समझाया था, ‘‘मम्मी, आप की यह जिद मनोज को आप से दूर कर देगी, आजकल बच्चों की मानसिक स्थिति का कुछ पता नहीं चलता कि वह कब क्या कर बैठें. आज के ही अखबार में समाचार है कि मातापिता की स्वीकृति न मिलने पर प्रेमीप्रेमिका ने आत्महत्या कर ली…वह दोनों बालिग हैं. मनोज अच्छा कमा रहा है. वह चाहता तो अदालत में शादी कर सकता था पर उस ने ऐसा नहीं किया और आप की स्वीकृति का इंतजार कर रहा है. अब फैसला आप को करना है.’’

मनोज के पिता ने कहा था, ‘‘बेटा, मुझे तो मनोज की इस शादी से कोई एतराज नहीं है…लड़की पढ़ीलिखी है, सुंदर है, अच्छे परिवार की है… और सब से बड़ी बात मनोज को पसंद है. बस, हमारी जाति की नहीं है तो क्या हुआ पर तुम्हारी मम्मी को कौन समझाए.’’

‘‘जब सब तैयार हैं तो मैं ही उस की दुश्मन हूं क्या…मैं ही बुरी क्यों बनूं? मैं भी तैयार हूं.’’

मम्मी का इरादा फिर बदले इस से पहले ही मंगनी की रस्म पूरी कर दी गई थी. तय हुआ था कि मेरी एम.एससी. पूरी होते ही शादी हो जाएगी.

मंगनी हुए 1 साल हो चुका था. शादी की तारीख भी तय हो चुकी थी. मनोज के बाबा की मौत न हुई होती तो हम दोनों अब तक हनीमून मना कर कुल्लूमनाली, शिमला से लौट चुके होते और 3 महीने बाद मैं भी मनोज के साथ अमेरिका चली जाती.

पर अब 6-7 महीने तक साए नहीं हैं अत: शादी अब तभी होगी ऐसा मनोज की मम्मी ने कहा है. पर मनोज शादी के टलने से खुश नहीं है. इस के लिए अपने घर में उसे खुद ही बात करनी होगी. हां, यदि मेरे घर से कोई रुकावट होती तो मैं उसे दूर करने का प्रयास करती.

पर मैं क्या करूं. माना कि उस के भी कुछ जजबात हैं. 4-5 वर्षों से हम दोस्तों की तरह मिलते रहे हैं, प्रेमियों की तरह साथसाथ भविष्य के सपने भी बुनते रहे हैं किंतु मनोज को कभी इस तरह कमजोर होते नहीं देखा. यद्यपि उस का बस चलता तो मंगनी के दूसरे दिन ही वह शादी कर लेता पर मेरा फाइनल साल था इसलिए वह मन मसोस कर रह गया.

प्रतीक्षा की लंबी घडि़यां हम कभी मिल कर, कभी फोन पर बात कर के काटते रहे. हम दोनों बेताबी से शादी के दिन का इंतजार करते रहे. दूरी सहन नहीं होती थी. साथ रहने व एक हो जाने की इच्छा बलवती होती जाती थी. जैसेजैसे समय बीत रहा था, सपनों के रंगीन समुंदर में गोते लगाते दिन मंजिल की तरफ बढ़ते जा रहे थे. शादी के 10 दिन पहले हम ने मिलना भी बंद कर दिया था कि अब एकदूसरे को दूल्हादुलहन के रूप में ही देखेंगे पर विवाह के 7 दिन पहले बाबाजी की मौत हमारे सपनों के महल को धराशायी कर गई.

बाबाजी की मौत का समाचार मुझे मनोज ने ही दिया था और कहा था, ‘‘बाबाजी को भी अभी ही जाना था. हमारे बीच फिर अंतहीन मरुस्थल का विस्तार है. लगता है, अब अकेले ही अमेरिका जाना पडे़गा. तुम से मिलन तो मृगतृष्णा बन गया है.’’

तेरहवीं के बाद हम दोनों गार्डन में मिले थे. वह बहुत भावुक हो रहा था, ‘‘रति, तुम से दूरी अब सहन नहीं होती. मन करता है तुम्हें ले कर अनजान जगह पर उड़ जाऊं, जहां हमारे बीच न समाज हो, न परंपराएं हों, न ये रीतिरिवाज हों. 2 प्रेमियों के मिलन में समाज के कायदे- कानून की इतनी ऊंची बाड़ खड़ी कर रखी है कि उन की सब्र की सीमा ही समाप्त हो जाए. चलो, रति, हम कहीं भाग चलें…मैं तुम्हारा निकट सान्निध्य चाहता हूं. इतना बड़ा शहर है, चलो, किसी होटल में कुछ घंटे साथ बिताते हैं.’’

जो हाल मनोज का था वही मेरा भी था. एक मन कहता था कि अपनी खींची लक्ष्मण रेखा को अब मिटा दें किंतु दूसरा मन संस्कारों की पिन चुभो देता कि बिना विवाह यह सब ठीक नहीं. वैसे भी एक बार मनोज की इच्छा पूरी कर दी तो यह चाह फिर बारबार सिर उठाएगी, ‘‘नहीं, यह ठीक नहीं.’’

‘‘क्या ठीक नहीं, रति. क्या तुम को मुझ पर विश्वास नहीं? पतिपत्नी तो हमें बनना ही है. मेरा मन आज जिद पर आया है, मैं भटक सकता हूं, रति, मुझे संभाल लो,’’ गार्डन के एकांत झुटपुटे में उस ने बांहों में भर कर बेतहाशा चूमना शुरू कर दिया था. मैं ने भी आज उसे यह छूट दे दी थी ताकि उस का आवेग कुछ शांत हो किंतु मनोज की गहरीगहरी सांसें और अधिक समा जाने की चाह मुझे भी बहकाए उस से पूर्व ही मैं उठ खड़ी हुई.

‘‘अपने को संभालो, मनोज. यह भी कोई जगह है बहकने की? मैं भी कोई पत्थर नहीं, इनसान हूं…कुछ दिन अपने को और संभालो.’’

‘‘इतने दिन से अपने को संभाल ही तो रहा हूं.’’

‘‘जो तुम चाह रहे हो वह हमारी समस्या का समाधान तो नहीं है. स्थायी समाधान के लिए अब हाथपैर मारने होंगे. चलो, बहुत जोर से भूख लगी है, एक गरमागरम कौफी के साथ कुछ खिला दो, फिर इस बारे में कुछ मिल कर सोचते हैं.’’

रेस्टोरेंट में बैरे को आर्डर देने के बाद मैं ने ही बात शुरू की, ‘‘मनोज, तुम्हें अब एक ही काम करना है… किसी तरह अपने मातापिता को जल्दी शादी के लिए तैयार करना है, जो बहुत मुश्किल नहीं. आखिर वे हमारे शुभचिंतक हैं, तुम ने उन से एक बार भी कहा कि शादी इतने दिन के लिए न टाल कर अभी कर दें.’’

‘‘नहीं, यह तो नहीं कहा.’’

‘‘तो अब कह दो. कुछ पुराना छोड़ने और नए को अपनाने में हरेक को कुछ हिचक होती है. अपनी इंटरकास्ट मैरिज के लिए आखिर वह तैयार हो गए न. तुम देखना बिना सायों के शादी करने को भी वह जरूर मान जाएंगे.’’

मनोज के चेहरे पर खुशी की एक लहर दौड़ गई थी, ‘‘तुम ठीक कह रही हो रति, यह बात मेरे ध्यान में क्यों नहीं आई? खाने के बाद तुम्हें घर पर छोड़ देता हूं. कोर्ट मैरिज की डेट भी तो पास आ गई है, उसे भी आगे नहीं बढ़ाने दूंगा.’’

‘‘ठीक है, अब मैरिज वाले दिन कोर्ट में ही मिलेंगे.’’

‘‘मेरे आज के व्यवहार से डर गईं क्या? इस बीच फोन करने की इजाजत तो है या वह भी नहीं है?’’

‘‘चलो, फोन करने की इजाजत दे देते हैं.’’

रजिस्ट्रार के आफिस में मैरिज की फार्र्मेलिटी पूरी होने के बाद हम दोनों अपने परिवार के साथ बाहर आए तो मनोज के जीजाजी ने कहा, ‘‘मनोज, अब तुम दोनों की शादी पर कानून की मुहर लग गई है. रति अब तुम्हारी हुई.’’

‘‘ऐ जमाई बाबू, ये इंडिया है, वह तो वीजा के लिए यह सब करना पड़ा है वरना इसे हम शादी नहीं मानते. हमारे घर की बहू तो रति विवाह संस्कार के बाद ही बनेगी,’’ मेरी मम्मी ने कहा.

‘‘वह तो मजाक की बात थी, मम्मी, अब आप लोग घर चलें. मैं तो इन दोनों से पार्टी ले कर ही आऊंगा.’’

होटल में खाने का आर्डर देने के बाद मनोज ने अपने जीजाजी से पूछा, ‘‘जीजाजी, मम्मी तक हमारी फरियाद अभी पहुंची या नहीं?’’

‘‘साले साहब, क्यों चिंता करते हो. हम दोनों हैं न तुम्हारे साथ. अमेरिका आप दोनों साथ ही जाओगे. मैं ने अभी बात नहीं की है, मैं आप की इस कोर्ट मैरिज हो जाने का इंतजार कर रहा था. आगे मम्मी को मनाने की जिम्मेदारी आप की बहन ने ली है. इस से भी बात नहीं बनी तो फिर मैं कमान संभालूंगा.’’

‘‘हां, भैया, मैं मम्मी को समझाने की पूरी कोशिश करूंगी.’’

‘‘हां, तू कोशिश कर ले, न माने तो मेरा नाम ले कर कह देना, ‘आप अब शादी करो या न करो भैया भाभी को साथ ले कर ही जाएंगे.’’’

‘‘वाह भैया, आज तुम सचमुच बड़े हो गए हो.’’

‘‘आफ्टर आल अब मैं एक पत्नी का पति हो गया हूं.’’

‘‘ओके, भैया, अब हम लोग चलेंगे, आप लोगों का क्या प्रोग्राम है?’’

‘‘कुछ देर घूमघाम कर पहले रति को उस के घर छोडूंगा फिर अपने घर जाऊंगा.’’

मेरे गले में बांहें डालते हुए मनोज ने शरारत से देखा, ‘‘हां, रति, अब क्या कहती हो, तुम्हारे संस्कार मुझे पति मानने को तैयार हैं या नहीं?’’

आंखें नचाते हुए मैं चहकी, ‘‘अब तुम नाइंटी परसेंट मेरे पति हो.’’

‘‘यानी टैन परसेंट की अब भी कमी रह गई है…अभी और इंतजार करना पडे़गा?’’

‘‘उस दिन का मुझे अफसोस है मनोज…पर अब मैं तुम्हारी हूं.’’

Hindi Story : बालू पर पड़ी लकीर

Hindi Story : पंडित ओंकारनाथ और मौलाना करीमुद्दीन जब भी आमनेसामने होते तो एकदूसरे पर कटाक्ष करने से बाज न आते पर हालात ने एक दिन कुछ ऐसा कर दिखाया कि वे सारे गिलेशिकवे भूल कर एकदूसरे के गले लग गए. पढि़ए रेणुका पालित की एक हृदयस्पर्शी कहानी.

मैं अपने घर  के बरामदे में बैठा पढ़ने का मन बना रहा था, पर वहां शांति कहां थी. हमेशा की तरह हमारे पड़ोसी पंडित ओंकारनाथ और मौलाना करीमुद्दीन की जोरजोर से झगड़ने की आवाजें आ रही थीं. वह उन का तकरीबन रोज का नियम था. दोनों छोटी से छोटी बात पर भी लड़तेझगड़ते रहते थे, ‘‘देखो, मियां करीम, मैं तुम्हें आखिरी बार मना करता हूं, खबरदार जो मेरी कुरसी पर बैठे.’’

‘‘अमां पंडित, बैठने भर से क्या तुम्हारी कुरसी गल गई. बड़े आए मुझे धमकी देने, हूं.’’

‘नहाते तो हैं नहीं महीनों से और चले आते हैं कुरसी पर बैठने,’ पंडितजी ने बड़बड़ाते हुए अपनी कुरसी उठाई और अंदर रखने चले गए.

मुझे यह देख कर आश्चर्य होता था कि मौलाना और पंडित में हमेशा खींचातानी होती रहती थी, पर उन की बेगमों की उन में कोई भागीदारी नहीं थी. मानो दोनों अपनेअपने शौहरों को खब्ती या सनकी समझती थीं. अचार, मंगोड़ी से ले कर कसीदा, कढ़ाई तक में दोनों बेगमों का साझा था.

पंडित की बेटी गीता जब ससुराल से आती, तब सामान दहलीज पर रखते ही झट मौलाना की बेटी शाहिदा और बेटे रागिब से मिलने चली जाती. मौलाना भी गीता को देख कर बेहद खुश होते. घंटों पास बैठा कर ससुराल के हालचाल पूछते रहते. उन्हें चिढ़ थी तो सिर्फ  पंडित से.

कटाक्षों का सिलसिला यों ही अनवरत जारी रहता. पिछले दिन ही मौलाना का लड़का रागिब जब सब्जियां लाने बाजार जा रहा था, तब पंडिताइन ने पुकार कर कहा, ‘‘बेटे रागिब, बाजार जा रहा है न. जरा मेरा भी थैला लेता जा. दोचार गोभियां और एक पाव टमाटर लेते आना.’’

‘‘अच्छा चचीजान, जल्दी से पैसे दे दीजिए.’’

पंडित और मौलाना अपनेअपने बरामदे में कुरसियां डाले बैठे थे. भला ऐसे सुनहरे मौके पर मौलाना कटाक्ष करने से क्यों चूकते. छूटते ही उन्होंने व्यंग्यबाण चलाए, ‘‘बेटे रागिब, दोनों थैले अलग- अलग हाथों में पकड़ कर लाना, नहीं तो पंडित की सब्जियां नापाक हो जाएंगी.’’

मुसकराते हुए उन्होंने कनखियों से पंडित की ओर देखा और पान की एक गिलौरी गाल में दबा ली.

जब पंडित ने इत्मीनान कर लिया कि रागिब थोड़ी दूर निकल गया है, तब ताव दिखाते हुए बोले, ‘‘अरे, रख दे मेरे थैले. मेरे हाथपांव अभी सलामत हैं. मुझे किसी का एहसान नहीं लेना. पंडिताइन की बुद्धि जाने कहां घास चरने चली गई है. खुद चली जाती या मुझे ही कह देती.’’

भुनभुनाते हुए पंडित दूसरी ओर मुंह फेर कर बैठ जाते.

यों ही नोकझोंक चलती रहती पर एक दिन ऐसी गरम हवा चली कि सारी नोकझोंक गंभीरता में तबदील हो गई.

शहर शांत था, पर वह शांति किसी तूफान के आने से पूर्व जैसी भयानक थी. अब न पंडिताइन रागिब को सब्जियां लाने को आवाज देती, न ही मौलाना आ कर पंडित की कुरसी पर बैठते. एक अदृश्य दीवार दोनों घरों के मध्य उठ गई थी, जिस पर दहशत और अविश्वास का प्लास्टर दोनों ओर के लोग थोपते जा रहे थे. रिश्तेदार अपनी ‘बहुमूल्य राय’ दे जाते, ‘‘देखो मियां, माहौल ठीक नहीं है. यह महल्ला छोड़ कर कुछ दिन हमारे साथ रहो.’’

परंतु कुछ ऐसे भी घर थे जहां अविश्वास की परत अभी उतनी मोटी नहीं थी. इन दोनों परिवारों को भी अपना घर छोड़ना मंजूर नहीं था.

‘‘गीता के बापू, सो गए क्या?’’

‘‘नहीं सोया हूं,’’ पंडित खाट पर करवट बदलते हुए बोले.

‘‘मेरे मन में बड़ी चिंता होती है.’’

‘‘तुम क्यों चिंता में प्राण दिए दे रही हो. ख्वाहमख्वाह नींद खराब कर दी, हूंहं,’’ और पंडित बड़बड़ाते हुए बेफिक्री से करवट बदल कर सो गए.

पर एक रात ऐसा ही हुआ जिस की आशंका मन के किसी कोने में दबी हुई थी. दंगाई (जिन की न कोई जाति होती है, न धर्म) जोरजोर से पंडित का दरवाजा खटखटा रहे थे, ‘‘पंडितजी, बाहर आइए.’’

पंडित के दरवाजा खोलते ही लोग चीखते हुए पूछने लगे, ‘‘कहां छिपाया है आप ने मौलाना के परिवार को?’’

‘‘मैं…मैं ने छिपाया है, मौलाना को? अरे, मेरा तो उन से रोज ही झगड़ा होता है. नहीं विश्वास हो तो देख लो मेरा घर,’’ पंडित ने दरवाजे से हटते हुए कहा.

अभी दंगाइयों में इस बात पर बहस चल ही रही थी कि पंडित के घर की तलाशी ली जाए या नहीं कि शहर के दूसरे छोर से बच्चों और स्त्रियों की चीखपुकार सुनाई पड़ी. रात के सन्नाटे में वह हंगामा और भी भयावह प्रतीत हो रहा था. दरिंदे अपना खतरनाक खेल खेलने में मशगूल थे. बलवाइयों ने पंडित के घर की चिंता छोड़ दी और वे दूसरे दंगाइयों से निबटने के लिए नारे लगाते हुए तेजी से कोलाहल की दिशा की ओर झपट पड़े.

दंगाइयों के जाते ही पंडित ने दरवाजा बंद किया. तेजी से सीटी बजाते हुए एक ओर चले. वह कमरा जिसे पंडिताइन फालतू सामान और लकडि़यां रखने के काम में लाती थी, अब मौलाना के परिवार के लिए शरणस्थली था. सभी भयभीत कबूतरों जैसे सिमटे थे. बस, सुनाई पड़ रही थी तो अपनी सांसों की आवाजें.

पंडित ने कमरे में पहुंचते ही मौलाना को जोर से अंक में भींच कर गले लगा लिया. आंखों से अविरल बह रहे आंसुओं ने खामोशी के बावजूद सबकुछ कह दिया. मौलाना स्वयं भी हिचकियां लेते जाते और पंडित के गले लगे हुए सिर्फ ‘भाईजान, भाईजान’ कहते जा रहे थे.

गरम हवा शांत हो कर फिर बयार बहने लगी थी. सबकुछ सामान्य हो चला था. न तो किसी को किसी से कोई गिला था, न शिकवा. एक संतुष्टि मुझे भी हुई, अब मेरा महल्ला शांत रहेगा. पढ़ने के उपयुक्त वातावरण पर मेरा यह चिंतन मिथ्या ही साबित हुआ.

सुबह होते ही पंडित और मौलाना ने अखाड़े में अपनी जोरआजमाइश शुरू कर दी थी.

‘‘तुम ने मेरे दरवाजे की पीठ पर फिर थूक दिया, मौलाना, ’’ पंडित गरज रहे थे.

‘‘अरे, मैं क्यों थूकने लगा. तुझे तो लड़ने का बहाना चाहिए.’’

‘‘क्या कहा, मैं झगड़ालू हूं.’’

‘‘मैं तो गीता बिटिया के कारण तेरे घर आता हूं, वरना तेरीमेरी कैसी दोस्ती.’’

शिकायतों और इलजामों का कथोपकथन तब तक जारी रहा जब तक दोनों थक नहीं गए.

मैं ने सोचा, ‘यह समुद्र की लहरों द्वारा बालू पर खींची गई वह लकीर है, जो क्षण भर में ही मिट जाती है. समुद्र के किनारों ने लहरों के अनेक थपेड़ों को झेला है पर आखिर में तो वे समतल ही हो जाते हैं.’

sweet story : मौसी की महक

लेखिका – रीता कश्‍यप 

sweet story :  रात के 9 बज चुके थे. टीवी चैनल पर ‘कौन बनेगा करोड़पति’ प्रोग्राम शुरू हो चुका था. मैं जल्दी से मेज पर खाना लगा कर प्रोग्राम देखने के लिए बैठना ही चाहती थी, तभी फोन की घंटी बज उठी. आनंद प्रोग्राम छोड़ कर उठना नहीं चाहते थे, सो मुझे फोन की ओर बढ़ता देख बोले, ‘‘मेरे लिए हो तो नाम पूछ लेना, मैं बाद में फोन कर लूंगा.’’

मेरे रिसीवर उठाते ही अजनबी आवाज कानों में पड़ी. संक्षिप्त परिचय के बाद अत्यंत दुखद समाचार मिला कि आनंद की उदयपुर वाली मौसी के एकलौते जवान बेटे की ऐक्सिडैंट में मौत हो गई है. फोन सुनते ही मैं स्तब्ध रह गई.

मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि यह दुखद समाचार मैं आनंद को कैसे दूं. खाना मेज पर लगा था. मैं सोच में पड़ गई कि क्या पहले खाना खा लेने दूं, फिर बताऊं? लेकिन मेरे दिलोदिमाग ने चेहरे का साथ नहीं दिया. मुझे देखते ही आनंद हैरान हो गए, बोले, ‘‘क्या हुआ? किस का फोन था?’’

आनंद के पूछते ही मैं स्वयं को रोक न सकी और भीगी आंखों से उन्हें पूरी बात बता दी. सुनते ही आनंद गुमसुम से हो गए. मैं भी परेशान हो उठी थी. टीवी प्रोग्राम में अब मन नहीं लग रहा था. उस प्रोग्राम से कई गुना बड़े सवाल हमारे मन में उठने लगे थे. प्रोग्राम में पूछे जा रहे सवालों का तो 4 में से एक सही उत्तर भी था, लेकिन मन में उठ रहे सवालों का हमारे पास कोई उत्तर न था.

बच्चे हमें देख कर सहम से गए थे. उन्हें तो जैसेतैसे खाना खिला कर सुला दिया, लेकिन हम दोनों चाह कर भी कुछ न खा पाए.

आनंद उदयपुर जाने की तैयारी करने लगे. वहां जाना तो मैं भी चाहती थी, लेकिन एक तो सुबह दफ्तर में जरूरी मीटिंग थी, जिस के कारण मेरा अचानक छुट्टी करना संभव नहीं था, दूसरे, बच्चों को कुछ दिनों के लिए कहां, किस के पास छोड़ते हमें हड़बड़ी में कुछ नहीं सूझ रहा था. सो, आनंद तुरंत ही अकेले उदयपुर के लिए रवाना हो गए.

आनंद बहुत दुखी थे. यह स्वाभाविक भी था, क्योंकि मौसी से आनंद का विशेष स्नेह है. बचपन में आनंद अपनी छुट्टियां मौसी के यहां ही बिताना पसंद करते थे. मां की मृत्यु के बाद तो मौसी ने मां की ही जगह ले ली थी. मौसी के बेटे, शिव और आनंद में उम्र का भी कोई ज्यादा फर्क नहीं था. शिव आनंद का मौसेरा भाई कम, दोस्त ज्यादा था.

मौसी शादी के 10 साल बाद ही विधवा हो गई थीं. बहुत मेहनत से उन्होंने अपने एकलौते बेटे शिव की परवरिश की, उसे पैरों पर खड़ा किया था. शिव भी श्रवण कुमार से कम न था. शादी के लिए बरसों इनकार करता रहा. मां की कठिन तपस्या के बदले वह मां की आजीवन सेवा करना चाहता था. वह डरता था कि कहीं कोई झगड़ालू बहू आ कर मां का जीवन जीर्ण न बना दे.

मौसी का स्वभाव बहुत ही अच्छा है. उन की जबान से शहद और आंखों से स्नेह बरसता था. मौसी के जीवन का एक ही अरमान था कि बेटे के सिर पर सेहरा देखें और बहू घर लाएं. लेकिन शिव था कि अपनी ही जिद पर अड़ा था. मौसी के बहुत कहने और हम सब के बहुत समझने पर शिव ने शादी के लिए हामी भरी थी. उस की शादी को 2 साल भी नहीं हुए थे कि जीवनभर मां की सेवा का व्रत लेने वाला शिव, बुढ़ापे में मां को छोड़ कर चला गया था.

कुछ ही दिनों बाद मैं भी दफ्तर से छुट्टी ले कर बच्चों को साथ ले उदयपुर पहुंच गई. सफेद साड़ी में लिपटी मौसी और शिव की पत्नी भारती मुझे वेदना की प्रतिमूर्ति लगीं. मैं दोनों से गले क्या मिली कि आंसुओं की बाढ़ सी आ गई.

मौसी की गृहस्थी 2 प्राणियों में सिमट कर रह गई थी. सूनी मांग तथा सूनी गोद वाली 2 औरतें, एक के सामने पहाड़ जैसा जीवन था तो दूसरी के सामाने लाचार बुढ़ापा. घर लोगों से भरा था, लेकिन शिव के बिना बिलकुल खाली लग रहा था.

भारती के मातापिता उसे हमेशा के लिए अपने साथ ले जाना चाहते थे. एक तरह से यह ठीक भी था. मुझे लगा, उस घर से दूर रह कर भारती का जख्म जल्दी भर जाएगा और फिर उस की दूसरी शादी भी कर देनी चाहिए. किसी औरत के लिए पूरा जीवन अकेले काटना बहुत कठिन होता है. वैसे भी, जीने का कोई तो बहाना होना ही चाहिए.

अपने मातापिता के निर्णय पर भारती मुझे 2 हिस्सों में बंटी हुई लगी. वह शिव की यादों के सहारे जीना भी चाहती थी और पूरा जीवन अकेले जीने के भय से ग्रस्त भी थी.

मौसी कुछ भी नहीं कह पा रही थीं. जीने का बहाना तो उन्हें भी चाहिए था, जो अब मात्र भारती के रूप में था, लेकिन भारती के भविष्य की चिंता उन्हें चुप रहने पर भी मजबूर कर रही थी.

फिर एक शाम बहुत ही दुखी मन से हम सब ने यही फैसला लिया कि भारती का लौट जाना ही उस के भविष्य को सुरक्षित रख पाएगा. आखिर एक बूढ़े पेड़ के साए में वह पूरा जीवन कैसे काट पाएगी?

मौसी अब बिलकुल अकेली हो गई थीं. एक ओर मौसी का दुख और उन का अकेलापन मुझसेदेखा नहीं जा रहा था तो दूसरी ओर आनंद का अंदर ही अंदर टूटना मुझसे सहा नहीं जा रहा था. मेरे अंदर अजीब सी कशमकश चल रही थी.

एक शाम मैं अपनी कशमकश से उबर ही आई और मैंने अपना फैसला सुना दिया, ‘‘मौसी, आप अब यहां अकेली नहीं रहेंगी. यहां की हर चीज शिव की यादों से जुड़ी है, जो आप को जीने नहीं देगी.’’

‘‘मैं तो जीती ही रहूंगी, बहू. मेरी मौत बहुत मुश्किल है. भरी जवानी में पति छोड़ कर चले गए, मैं जीती रही. अब बुढ़ापे में बेटा छोड़ गया है तो भी…’’ कहते हुए वे फूटफूट कर रोने लगीं.

मैं भी स्वयं को रोक न सकी. बहुत देर तक कमरे में सन्नाटा छाया रहा.

‘‘आप को जीना है और हमारे लिए जीना है,’’ कहते हुए मैं ने खामोशी तोड़ी.

‘‘बहू, मेरे लिए परेशान होने की जरूरत नहीं. मेरी जिंदगी में अब बचा ही क्या है.’’

‘‘मौसीजी, आप हमारे साथ चलेंगी. हमें आप की जरूरत है,’’ कहते हुए मैं मौसी के गले लग गई.

मेरी बात सुन कर आनंद ने राहत की सांस ली थी, ऐसा उन के चेहरे के हावभाव बता रहे थे. वे तुरंत बोल उठे, ‘‘मौसी, मुझमें और शिव में आप ने कभी कोई फर्क नहीं किया. मैं आप का बेटा, अभी जिंदा हूं. आप के पोतेपोती हैं, बहू है, हम सब को छोड़ कर आप यहां अकेली कैसे रहेंगी?’’

‘‘क्यों नहीं, बेटा. तुम सब मेरे अपने हो, तुम्हारे सिवा अब मेरा और है ही कौन? लेकिन बेटा, मैं दुखियारी अब बुढ़ापे में तुम पर बोझ नहीं बनना चाहती.’’

‘‘मां बोझ नहीं हुआ करती. आप हमारे साथ चलिए. हम सब मिल कर आप का दुख बांटने की कोशिश करेंगे, फिर भी अगर आप को वहां अच्छा न लगे तो लौट आइएगा. हम आप को नहीं रोकेंगे,’’ मैं ने अपनी बात रखते हुए कहा.

‘‘हां मौसी, अभी आप हमारे साथ चल रही हैं. हम आप को यहां अकेला नहीं छोड़ सकते. बाद में आप को जैसा ठीक लगेगा, हम ने आप पर छोड़ा,’’ आनंद ने भी अपना फैसला सुना दिया था.

जल्दी ही हम मौसी को साथ ले कर दिल्ली लौट आए. 2-4 दिन मौसी के साथ घर पर बिता कर मैं ने दफ्तर जाना शुरू कर दिया. कई दिनों की छुट्टी के बाद मैं दफ्तर गई तो लंचटाइम में सब सहेलियां मिलीं और कई तरह के सवाल करने लगीं. कोई मेरी छुट्टियों का कारण पूछ रही थी तो कोई शिव की मृत्यु की खबर पर दुख जता रही थी, कोई उदयपुर के बारे में जानकारी चाहती थी. तभी बातोंबातों में मैं ने बताया कि मैं मौसी को साथ ले आई हूं. अब वे हमारे साथ ही रहेंगी.

मेरी बात सुनते ही सीमा बोली, ‘‘दीपा, गई तुम भी काम से. हो गया शुरू रोज का कलह, तानोंउलाहनों का सिलसिला.’’

‘‘मौसी ऐसी नहीं हैं. वे स्वभाव की बहुत अच्छी हैं,’’ मैं ने तुरंत उत्तर दिया.

‘‘कैसी भी हों, हैं तो सास ही. देख लेना एक दिन तेरा सांस लेना दूभर कर देंगी,’’ रश्मि ने हाथ नचाते हुए कहा.

तभी सुषमा बहुत ही अपनेपन से बोली, ‘‘तुझे बैठेबिठाए क्या पड़ी थी जो यह मुसीबत गले डाल ली. अच्छीभली गृहस्थी चल रही थी, ले आई मौसी को साथ.’’

‘‘अरी, ऐसा फैसला लेने से पहले तुझे हमारी याद नहीं आई, जो वर्षों से सास के जुल्मों को सह रही हैं, तू तो फिर भी खुशहाल है जो तेरी सास नहीं है. तुझे क्या शौक चर्राया था जो मौसी सास को घर ले आई?’’ वनिता ने मुंह बनाते हुए कहा.

‘‘मेरे हसबैंड अगर ऐसा कहते भी न, तो मैं अड़ जाती, कभी ऐसा न होने देती. और एक तू है मूर्ख, जो स्वयं मौसी को साथ ले आई,’’ शिखा कब चुप रहने वाली थी जो कुछ महीने पहले ही लड़झगड़ कर ससुराल से अलग हुई थी, सो वह भी बोल उठी.

मेरी बात कोई सुनने को तैयार ही नहीं थी. सब अपनीअपनी कह रही थीं. उन के विचार में वे सब अनुभवी थीं और मैं नादान, जिस ने स्वयं ही अपने पांव पर कुल्हाड़ी मार ली थी. उन सब की बातें सुन कर मेरे मन में बहुत से प्रश्न उठ रहे थे. मैं उन्हें बहुतकुछ समझना चाहती थी, लेकिन मैं जानती थी कि उस समय उन से बहस करना फुजूल था.

शाम को मेरे घर पहुंचते ही मौसी पानी का गिलास ले आईं जो हमेशा मुझे स्वयं ही भर कर पीना पड़ता था. फिर मौसी बहुत ही अपनत्व से बोलीं, ‘‘बहू, हाथमुंह धो लो, चाय तैयार है.’’

यह सुनते ही खुशी से मेरा तनमन भीग गया. कपड़े बदल कर हाथमुंह धोए, मेज पर पहुंचते ही मैं ने देखा कि गरमागरम चायनाश्ता तैयार है.

‘‘आनंद भी आने ही वाले होंगे,’’ मैं ने यों ही कह दिया, जबकि गरमागरम चायनाश्ता देख कर मैं स्वयं को रोक नहीं पा रही थी.

‘‘कोई बात नहीं, बहू. सुबह की गई अब आई हो. थकी होगी तुम, अब तुम आराम से चाय पियो, आनंद आएगा तो फिर बना दूंगी.’’

मैं चाय पी ही रही थी कि रसोईघर से कुकर की सीटी की आवाज कानों में पड़ी. पता चला मौसी ने रात के खाने की तैयारी भी शुरू कर दी थी.

‘‘मौसीजी, आप पूरा दिन काम में लगी रहीं, आप आराम किया कीजिए, यह काम तो मैं आ कर रोज करती ही थी.’’

‘‘तुम्हारी गृहस्थी है, बहू. सब तुम्हें ही करना है, मैं तो यों ही थोड़ी मदद कर रही हूं. पहाड़ जितना बड़ा दिन, खाली बैठ कर गुजारना भी तो मुश्किल होता है.’’

‘‘इन दोनों शैतानों ने आप को परेशान तो नहीं किया?’’ मौसी की अगलबगल आ कर बैठे दोनों बच्चों को देख कर मैं ने हंसते हुए कहा.

‘‘ये क्या परेशान करेंगे, बहू. वे लोग खुशहाल होते हैं जिन के घर में बच्चों की किलकारियां गूंजती हैं. इन से ही तो जीवन में रौनक है,’’ मौसी बोलीं.

शायद मैं ने अनजाने में ही मौसी की दुखती रग पर हाथ रख दिया था, लेकिन मौसी ने मुझे शर्मिंदा होने का अवसर ही नहीं दिया, वे तुरंत बोलीं, ‘‘बहू, चाहो तो जब तक आनंद आता है, थोड़ा आराम कर लो. रसोई की चिंता तुम मत करो,’’ कहते हुए वे दोनों बच्चों का हाथ पकड़ कर उन्हें अपने कमरे में ले गईं.

आजकल रहरह कर मेरे कानों में अपनी सहकर्मियों की कड़वी बातें गूंजती रहती हैं, लेकिन मेरा अनुभव उन के अनुभव से मेल नहीं खाता. मैं तो आजकल दफ्तर में स्वयं को इतना हलका और तनावमुक्त अनुभव करती हूं कि बता नहीं सकती. सुबह बिना किसी भागदौड़ के दफ्तर पहुंचती हूं, क्योंकि मौसी घर पर हैं ही. बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करने से ले कर नाश्ता बनाने तक वे बराबर मेरी मदद करती हैं.

अब बच्चों के लिए दोपहर का खाना बनाने की भी जरूरत नहीं रही, क्योंकि मौसी उन्हें गरमागरम खाना खिलाती हैं. अब न बच्चों का सामान क्रैच में दे कर आना पड़ता है और न ही शाम को दफ्तर के बाद उन्हें वहां से लाने की चिंता है. बच्चे दिनभर अपने घर में सुरक्षित हाथों में रहते हैं.

मुझे तो मौसी को घर लाने के अपने फैसले में कहीं कोई गलती नजर नहीं आ रही. शाम को जब घर पहुंचती हूं तो घर का दरवाजा खुला मिलता है. मुसकराते और खिलखिलाते बच्चे मिलते हैं जो दिनभर क्रैच के बंधन में नहीं, अपने घर के उन्मुक्त वातावरण में रहते हैं. दोनों बच्चे दोपहर में थोड़ा आराम करने के बाद अपनाअपना होमवर्क भी कर लेते हैं.

मौसी को देख कर मुझे लगता है, वे ऐसा घना पेड़ हैं जिस के साए में हम जिंदगी की तेज धूप से बच सकते हैं. हम सब की भी पूरी कोशिश रहती है कि मौसी अपने गम को भूली रहें.

एक शाम मैं दफ्तर से आई तो तबीयत कुछ ठीक नहीं लग रही थी. देखते ही देखते मुझे तेज बुखार हो गया. मौसी तो परेशान हो उठीं. आनंद अभी दफ्तर से नहीं लौटे थे. मौसी ने तुरंत मुझे दूध के साथ बुखार उतारने की गोली दी और पानी की पट्टियां रखनी शुरू कर दीं. आनंद को आते ही डाक्टर के पास भेज दिया. जब तक मेरा बुखार नहीं उतरा, वे मेरे पास से नहीं उठीं.

मौसी का ऐसा स्नेह देख कर मैं स्वयं को रोक न सकी, मेरी आंखें भीग गईं. मौसी के हाथ अपने हाथों में ले कर मैं ने पूछा, ‘‘आप आनंद की मौसी हैं या मेरी मां?’’

‘‘चल पगली, मैं आनंद की मौसी बाद में हूं, पहले तेरी मां हूं. बहू क्या बेटी नहीं होती? सास क्या मां नहीं होती?’’ मौसी की जबान से सदा की भांति शहद और आंखों से नेह बरस रहा था.

‘‘मां ही तो होती है,’’ कहते हुए मैं मौसी से लिपट गई.

उस पल मुझे मौसी से वैसी ही गंध आ रही थी जो मैं बचपन में अपनी मां के गले लग कर महसूस करती थी. यह यकीनन ममता, प्यार की ही गंध थी, जिसे मैं वर्षों बाद अनुभव कर रही थी.

 

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