ससुराल में पूरे हुए रूपा के सपने

लेखक- डा. श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट

रूपा यादव की तीसरी जमात में पढ़ते हुए ही 8 साल की अबोध उम्र में शादी हो गई थी. रूपा ने ब्याहता बन कर भी घर का कामकाज करने के साथसाथ अपनी पढ़ाई जारी रखी.

शादी के बाद गौना नहीं होने तक रूपा मायके में पढ़ी और फिर ससुराल वालों ने उसे पढ़ाया. ससुराल में पति और उन के बड़े भाई यानी रूपा के जेठ ने सामाजिक रूढि़यों को दरकिनार करते हुए रूपा की पढ़ाई जारी रखी. पढ़ाई का खर्च उठाने के लिए दोनों भाइयों ने खेती करने के साथसाथ टैंपो भी चलाया.

रूपा ने ससुराल का साथ मिलने पर डाक्टर बनने का सपना संजोया और 2 साल कोटा में रह कर एक इंस्टीट्यूट से कोचिंग कर के दिनरात पढ़ाई की.

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जयपुर के चैमू क्षेत्र के गांव करेरी की रूपा यादव, जिस ने नीट 2017 में 603 अंक हासिल किए थे, को प्रदेश के सरकारी सरदार पटेल मैडिकल कालेज में दाखिला मिल गया.

ऐसी है कहानी

रूपा यादव गांव के ही सरकारी स्कूल में पढ़ती थी. जब वह तीसरी क्लास में थी, तब उस की शादी कर दी गई. गुडि़यों से खेलने की उम्र में ही वह शादी के बंधन में बंध गई थी. दोनों बहनों की 2 सगे भाइयों से शादी हुई थी. उस के पति शंकरलाल की भी उम्र तब 12 साल की थी. रूपा का गौना 10वीं जमात में हुआ था.

गांव में 8वीं जमात तक का सरकारी स्कूल था, तो वह उस में ही पढ़ी. इस के बाद पास के गांव के एक प्राइवेट स्कूल में दाखिला लिया और वहीं से 10वीं जमात तक की पढ़ाई की.

10वीं जमात का इम्तिहान दिया. जब रिजल्ट आया तब रूपा ससुराल में थी. पता चला कि 84 फीसदी अंक आए हैं. ससुराल में आसपास की औरतों ने घर वालों से कहा कि बहू पढ़ने वाली है, तो इसे आगे पढ़ाओ.

शंकरलाल ने इस बात को स्वीकार कर रूपा का दाखिला गांव से तकरीबन 6 किलोमीटर दूर प्राइवेट स्कूल में करा दिया.

रूपा के 10वीं जमात में अच्छे अंक आए. पढ़ाई के दौरान ही उस के सगे चाचा भीमाराव यादव की दिल का दौरा पड़ने से मौत हो गई. उन्हें पूरी तरह से उपचार भी नहीं मिल सका था.

इस के बाद ही रूपा ने बायलौजी विषय ले कर डाक्टर बनने का निश्चिय किया. 11वीं जमात की पढ़ाई के दौरान रूपा बहुत कम स्कूल जा पाती थी. वह घर के कामकाज में भी पूरा हाथ बंटाती थी. गांव से 3 किलोमीटर स्टेशन तक जाना होता था. वहां से बस से

3 किलोमीटर दूर वह स्कूल जाती थी. उस के 11वीं जमात में भी 81 फीसदी अंक आए. उस ने 12वीं जमात का इम्तिहान दिया और 84 फीसदी अंक हासिल किए.

बाद में रूपा यादव ने बीएससी में दाखिला ले लिया. बीएससी के पहले साल के साथ एआईपीएमटी का इम्तिहान भी दिया. इस में उस के 415 नंबर आए और 23,000वीं रैंक आई.

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लिया बड़ा फैसला

रूपा के पति व जेठ ने फैसला किया कि जमीन बेचनी पड़ी तो बेच देंगे, लेकिन रूपा को पढ़ाएंगे. रूपा कोटा में पढ़ने गई तो वहां का माहौल आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करने वाला था. टीचर बहुत मदद करते थे. कोटा में रह कर एक साल मेहनत कर के रूपा अपने लक्ष्य के बहुत करीब पहुंच गई.

रूपा ने पिछले साल नीट में 506 अंक हासिल किए, लेकिन लक्ष्य से थोड़ी सी दूर रह गई. फिर से कोचिंग करने में परिवार की गरीबी आड़े आ रही थी. परिवार उलझन में था कि कोचिंग कराएं या नहीं. ऐसे में एक कैरियर इंस्टीट्यूट ने रूपा का हाथ थामा और उसे पढ़ाई के लिए प्रेरित किया.

उस संस्थान द्वारा रूपा की 75 फीसदी फीस माफ कर दी गई. सालभर तक उस ने दिनरात मेहनत की और 603 अंक हासिल किए. नीट रैंक 2283 रही. अगर वह कोटा नहीं आती, तो शायद आज बीएससी कर के घर में ही काम कर रही होती.

रूपा ने लोगों के ताने भी सहे, लेकिन हिम्मत नहीं हारी. तभी तो वह आज यहां तक भी पहुंच पाई है. इस में उस की ससुराल का बहुत बड़ा योगदान रहा है. पहले साल सिलैक्शन नहीं हुआ या तो खुसुरफुसुर होने लगी कि क्यों पढ़ा रहे हो? क्या करोगे पढ़ा कर? घर की बहू है तो काम कराओ.

इस तरह की बातें होने लगी थीं. यही नहीं, कोटा में पढ़ाई के दौरान ससुराल वालों ने खर्चों की भरपाई के लिए उधार पैसे ले कर भैंस खरीदी थी, ताकि दूध दे कर ज्यादा कमाई की जा सके, लेकिन वह भैंस भी 15 दिन में मर गई. इस से तकरीबन सवा लाख रुपए का घाटा हुआ, लेकिन ससुराल वालों ने उसे कुछ नहीं बताया, बल्कि पति व जेठ और मजबूत हो गए. इस से रूपा बहुत प्रोत्साहित हुई और उस ने पढ़ने में बहुत मेहनत की.

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कोटा में रहने व दूसरे खर्च उठाने के लिए पति और जेठ टैंपो चलाने का काम करने लगे, जबकि रूपा रोजाना 8 से 9 घंटे पढ़ाई करती थी. रूपा जब कभी घर जाती है, तो घर का सारा काम भी बड़ी लगन से करती है. सुबहशाम का खाना बनाने के साथसाथ झाड़ूपोंछा लगाना उस की दिनचर्या में शामिल है. इस के साथ ही खेत में खरपतवार हटाने के काम में भी रूपा हाथ बंटाती है.

रूपा ने असाधारण हालात के बावजूद कामयाबी हासिल की है. रूपा की मदद का सिलसिला जारी रखने के लिए एक संस्थान ने उसे एमबीबीएस की पढ़ाई के दौरान 4 साल तक मासिक छात्रावृत्ति देने का फैसला किया है.

वंदना हेमंत पिंपलखरे : कराटे से काटे जिंदगी के दर्द

लेखक- डा. अर्जिनबी यूसुफ शेख

घर में जो सब से छोटा होता है, उसे भाईबहनों के साथसाथ मातापिता का भी सब से ज्यादा लाड़दुलार मिलना लाजिमी है.

31 जुलाई, 1965 को जनमी वंदना अपने भाईबहनों में सब से छोटी थीं. जब तक वे कुछ समझने लगीं, तब तक उन के 2 बड़े भाइयों और 3 बहनों की शादी हो चुकी थी. लिहाजा, भाईबहनों का साथ उन्हें कम ही मिला.

शादी होते ही दोनों बड़े भाई अलग रहने लगे थे. वंदना अपने मातापिता के साथ अकेली रहती थीं. पिता को शराब के नशे में बेहाल देख कर उन का मन दुखता था, पर 10 साल की बच्ची कर भी क्या सकती थी?

पिता रिटायर्ड थे, उन्हें पैंशन नहीं मिलती थी. वंदना ने 6ठी जमात में पढ़ते हुए किसी दुकान में 50 रुपए प्रतिमाह पर नौकरी करनी शुरू की. साथ ही, मां के साथ मिल कर पापड़, अचार, आलू के चिप्स वगैरह बनाने लगीं. वे उस सामान को प्लास्टिक की पन्नी में पैक कर घरघर बेच आती थीं.

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इस तरह वंदना इन घरेलू उत्पादों के और्डर लेने लगीं और अपने घर की गरीबी का रोना न रोते हुए मातापिता के साथ अपनी रोजीरोटी चलाने लगीं.

पिता शराबी, मां भोलीभाली और भाईबहन अपनी दुनिया में मस्त. जिस वंदना के बचपन को प्यार व अपनेपन की जरूरत थी, वह बचपन मातापिता को संभाल रहा था.

अकसर ज्यादा शराब पी लेने के चलते पिता बहुत बुरी हालत में घर पहुंचते थे. उन की कमीज के बटन टूटे रहते थे और लड़खड़ाते हुए उन का घर में आना वंदना को खून के आंसू रुला देता था.

मां तो एक ओर सिमट जाती थीं. वंदना ही पिता को बिस्तर पर बिठातीं, उन के कपड़े ठीक करतीं या बदल देतीं, कीचड़ में सने पैरों को साफ करतीं और बेमन से उन की सेवाटहल करतीं.

वंदना को कुछ अलग करना अच्छा लगता था. वे मार्शल आर्ट सीखने लगीं. 12वीं जमात के बाद उन्होंने असिस्टैंट सबइंस्पैक्टर के लिए हैदराबाद जा कर इम्तिहान देने के लिए फार्म भरा. इसी बीच मां को लकवा होने से अस्पताल में भरती कराना पड़ा. डाक्टर ने 72 घंटे का समय क्रिटिकल बताया था. उस हालत में भी मां के पास अस्पताल में रहने या उन्हें देखने कोई भाईबहन नहीं आया. इस की वजह थी वंदना. उन्हें वंदना का मार्शल आर्ट सीखना पसंद नहीं था, जबकि वंदना इसे न छोड़ने की जिद पर अड़ी थीं.

अस्पताल में मां के साथ रहने से वंदना का घर बंद रहा. हैदराबाद से आया इम्तिहान का लैटर वहीं दरवाजे के भीतर पड़ा रहा. जब वंदना ने उसे देखा तब तक काफी देर हो चुकी थी. वह मोड़ जो वंदना की जिंदगी को नया रास्ता दे सकता था, उन के हाथ से छूट गया. इस दुख के साथ मां की मौत के दुख को भी उन्हें एक ही समय झेलना पड़ा.

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मां की मौत के बाद वंदना बिलकुल अकेली हो गईं. वे सुबह सारे काम निबटा कर, खाना वगैरह बना कर बाहर निकल जातीं, लेकिन जब कभी घर पहुंचने में लेट हो जातीं तो उन्हें खाने के लिए रोटी का एक टुकड़ा नहीं मिलता था. कोई यह सोचने वाला नहीं था कि उन्हें भी रोटी की जरूरत होगी. वे अकेली संघर्ष भरी राह पर चल रही थीं, भाईबहनों की खिलाफत झेलते हुए. भाईबहन तो पिता को भी भड़का देते थे कि वंदना समाज में उन्हें मुंह दिखाने लायक नहीं रख रही है. उन की बातों में आ कर पिता भी वंदना को बेइज्जत करते थे. इतना होते हुए भी वंदना शराब के नशे में चूर अपने पिता को संभालती थीं, उन का खयाल रखती थीं.

न किसी से हौसलाअफजाई, न किसी से मार्गदर्शन, इस के उलट लड़की ने जो नहीं करना चाहिए, जो खेल नहीं सीखना चाहिए, उसे करने से अपनों की बेरुखी वंदना को चुभती जरूर रही, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी.

वंदना ने 5 साल अखाड़े में मार्शल आर्ट में ब्लैक बैल्ट टू डौन कर बीपीऐड किया. साथ ही, घरेलू उत्पाद के और्डर जगहजगह पहुंचा कर वे अपनी गुजरबसर करती रहीं. कुछ मर्दों की नजर में जवान वंदना चुभ जाती थीं. घर में कोई मर्द न हो तो एक लड़की को किस हालात से गुजरना पड़ता है, इसे वंदना ने खूब झेला.

बाद में वंदना ने एक महिला महाविद्यालय में नौकरी हासिल की. दोपहर लंच के समय वे टाइपिंग सीखने चली जातीं. साथ ही, लाइब्रेरी का कोर्स भी किया.

समाज से मिले कड़वे अनुभवों को दरकिनार कर वंदना का टारगेट हमेशा अपने काम पर रहा. वे अपने काम और कामयाबी से समाज को एक करारा जवाब देना चाहती थीं कि जिन कामों को समाज ने महिलाओं के लिए गलत बताया है, वह समाज की एक छोटी सोच है.

इतने दुख झेलने के बाद साल 1995 में हेमंत पिंपलखरे से शादी करने के बाद वंदना हेमंत पिंपलखरे को मजबूती मिली.

शादी के बाद जब वंदना अपने पति के साथ पिता का आशीर्वाद लेने घर पहुंचीं, तो पिता ने उन्हें नफरत से बाहर धकेल दिया, पर ससुराल वालों ने उन्हें दिल से अपनाया. सास से मां समान और दोनों ननदों से बहनों सा प्यार वंदना को मिला.

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मार्शल आर्ट न छोड़ने की जिद के चलते खुद के परिवार से नफरत झेल रही वंदना को अपने कार्य क्षेत्रों में भी अनेक तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ा. वे पलभर के लिए निराश जरूर हुईं, पर अपने लक्ष्य को नजरों से ओझल नहीं होने दिया.

यही वजह है कि आज वंदना हेमंत पिंपलखरे मिक्स बौक्सिंग, थाई बौक्सिंग, म्यूजिकल चेयर, बैल्ट रैसलिंग, नौनचौक वैपन खेलों की अधिकारी व चीफ जूरी के रूप में काम कर रही हैं. साथ ही, वे महाराष्ट्र के ‘पुण्यश्लोक’, ‘अहल्यादेवी होलकर पुरस्कार’, ‘स्त्रीरत्न पुरस्कार,’ ‘ब्रुसलीज ऐक्सिलैंस’ पुरस्कार के साथसाथ बौक्सिंग, थाई बौक्सिंग में फैडरेशन व स्कूल गेम औफ इंडिया की बैस्ट जूरी, रैफरी व जज पुरस्कारों से सम्मानित हो चुकी हैं.

लड़कों से कम नहीं हैं लड़कियां

‘‘जब मेरे पापा गुजरे, तब उन का अंतिम संस्कार मैं ने ही किया था. उन की अर्थी को कंधा मैं ने ही दिया था. उस वक्त मैं ने खुद को बहुत मजबूत पाया था… पापा के जाने के बाद जिंदगी पहले जैसी कभी नहीं रही, मगर उस के बाद घर की जिम्मेदारी अपने कंधों पर लेनी थी. मैं ने खुद को दोतरफा मजबूत पाया. एक तो हमारे समाज में लड़कियों को इस तरह

के कर्मकांडों से दूर रखा जाता है, मगर मैं ने और मेरी बहनों ने मिल कर ये सारे काम किए थे. तब मैं सिर्फ 19 साल की थी.

‘‘पापा की अर्थी को कंधा देने वाली बात मैं लोगों के सामने पहली बार कर रही हूं, क्योंकि वे बहुत ही निजी और भावुक पल थे.  मगर हां, उस के बाद मेरे अंदर एक अलग तरह की ताकत आ गई थी.’’

यह बात एक इंटरव्यू में फिल्म हीरोइन भूमि पेडनेकर ने कही थी, पर फिल्मी कतई नहीं थी. उन के इस भावुक संदेश से यह समझा जा सकता है कि हमारे देश में लड़कियों को खुद को बेहतर और हिम्मती साबित करने के लिए किस तरह के पापड़ बेलने पड़ते हैं. और अगर किसी गांवदेहात की लड़की की समाज में अपने दम पर की गई जद्दोजेहद को खंगालेंगे तो पता चल जाएगा कि उन्हें अपने मन की करने के लिए किस हद तक समाज से लड़ना पड़ता है.

इतना होने के बावजूद आज हमारे देश की लड़कियां उलट हालात में भी हर क्षेत्र में नाम कमा रही हैं. गांव की बहुत सी लड़कियों ने तो खेल, पुलिस, सेना, बड़ी सरकारी नौकरी और यहां तक कि नेतागीरी में मर्दों को भी पछाड़ दिया है.

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उत्तराखंड की सुमन सिंह रावत कुछ ऐसा ही काम कर रही हैं, जिसे करने के लिए बड़ा हौसला चाहिए. अब वे लखनऊ में रहती हैं. सड़क हादसों में घायल लोगों को अस्पताल पहुंचाती हैं, उन का इलाज कराती हैं और लावारिस लाशों का दाह संस्कार भी कराती हैं. यह काम वे पिछले 27 साल से खुद अपने दम पर कर रही हैं, कोई सरकारी मदद नहीं लेती हैं.

इसी तरह इलाहाबाद की ओम कुमारी सिंह अपनी चैतन्य वैलफेयर फाउंडेशन के जरीए गरीब बच्चों को पढ़ा रही हैं, जबकि ‘उद्गम’ संस्था चलाने वाली रुपाली श्रीवास्तव तेजाब से जलाई गई लड़कियों को सहारा देने का काम करती हैं.

उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर में लालगंज इलाके की आदिवासी औरतों ने 2 किलोमीटर लंबी नहर खोद कर गांवघर और खेतों तक पानी पहुंचा दिया है. इस से जंगलों में बेकार बह रहे पानी को काम में लाने से न केवल पीने के पानी की समस्या से नजात मिली है, बल्कि इलाके में जमीनी पानी का लैवल भी बढ़ गया है.

बैतूल जिले के गोपीनाथपुर गांव की 16 औरतों ने महज 2 साल में 3 तालाब खोद डाले, जिन में अब सालभर लबालब पानी भरा रहता है.

इन औरतों ने वसुंधरा महिला मंडल नाम से एक समूह बना कर रजिस्ट्रेशन करवाया और तालाब खुदाई में लग गईं. नतीजतन, आज ये सब इन तालाब के पानी से खेती कर रही हैं और साल में सब्जी से एक लाख से 2 लाख रुपए, फलों से भी तकरीबन 2 लाख रुपए और इतना ही मछलीपालन से कमा रही हैं.

बिहार में गोपालगंज हैडक्वार्टर से तकरीबन 25 किलोमीटर दूर कुचायकोट ब्लौक के बरनैया गोखुल गांव की रहने वाली जैबुन्निसा को सब ‘ट्रैक्टर लेडी’ बुलाते हैं.

जैबुन्निसा बताती हैं कि साल 1998 में वे अपने एक रिश्तेदार के घर हरियाणा गई थीं और वहां उन्होंने टीवी पर एक कार्यक्रम देखा था जो केरल के किसी गांव के बारे में था. वहां की औरतें स्वयंसहायता समूह के बारे में बता रही थीं.

गांव आ कर जैबुन्निसा ने अपने गांव की औरतों से बात की और उन्हें उस कार्यक्रम के बारे में बताया. इस के बाद जैबुन्निसा ने अपना स्वयंसहायता समूह बनाया.

फिर जैबुन्निसा ने खुद से ट्रैक्टर चलाना सीखा और खेतों में काम करने लगीं. आज वे कड़ी मेहनत के बल पर सैकड़ों परिवारों में खुशहाली लाने में जुटी हुई हैं. गांव की 250 से ज्यादा औरतें आत्मनिर्भर हो कर अपने परिवार का पालनपोषण बेहतर ढंग से कर रही हैं.

ऐसी ही एक जुझारू लड़की रीटा शर्मा से मैं दिल्ली में मिला था. वैसे तो वे उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले की रहने वाली हैं, पर अब लखनऊ में रह कर समाजसेवा के ऐसे काम कर रही हैं, जिस में जान दांव पर लगा देने का भी जोखिम है.

रीटा शर्मा ने जब से अपनी पढ़ाई पूरी की थी, तब वहां बहुत ज्यादा सुविधाएं नहीं थीं. तब लोग ऊंची पढ़ाई के लिए लखनऊ या दिल्ली का रुख करते थे. लड़कियों को तो जैसे जिले के बाहर अपनी मरजी की पढ़ाई करने की इजाजत ही नहीं थी.

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महाराजगांव की रीटा शर्मा ने अपनी 12वीं जमात तक की पढ़ाई बहराइच के आर्य कन्या इंटर कालेज से की थी. वे बीए तक हिंदी मीडियम से पढ़ी थीं.

रीटा शर्मा की गैरसरकारी संस्था ‘शक्तिस्वरूपा सेवा संस्थान’ में हर जरूरतमंद की मदद की जाती है. समाज को बेहतर बनाना, बेरोजगारों को रोजगार की ट्रेनिंग देना, जागरूकता मुहिम चलाना, अपनी हिफाजत की ट्रेनिंग देने के साथसाथ लोगों की कानूनी तौर पर मदद भी की जाती है.

एमबीए कर चुकी रीटा शर्मा अपहरण के कई मामलों में लड़कियों को बचा कर घर वापस लाई हैं. सब से अच्छी बात तो यह है कि वे इस काम को मुफ्त में करती हैं.

रीटा शर्मा ने बाराबंकी के जुलाई, 2017 के एक अपहरण कांड के बारे में बताया, ‘‘यह मामला एक 16-17 साल की लड़की का है. मैं अपने काम से अलीगंज, लखनऊ थाना गई थी. वहां मुझे कुरसी पर बैठने को कहा गया, जबकि वहीं पर जमीन पर एक गांव की औरत बैठी थी, जिस से वहां मौजूद पुलिस वाले मजाकिया या कहें तकरीबन बेहूदा भाषा में बात कर रहे थे.

‘‘आदतन मैं उस औरत से उस की परेशानी पूछ बैठी. उस औरत ने बताया कि उस की बेटी बाराबंकी से गांव की कुछ औरतों के साथ अलीगंज का बड़ा मंगल का मेला देखने आई थी, जहां से वह गायब हो गई है. उस का तकरीबन एक महीने से कोई अतापता नहीं है. एफआईआर हो गई थी, मगर कोई कार्यवाही नहीं हुई.

‘‘अभी कल ही एक नंबर से उसी लड़की का फोन आया है. लोगों की सलाह पर वह औरत नंबर ले कर थाने आई थी और अपनी बेटी को ढूंढ़ने की गुजारिश कर रही थी. इस केस का जांच अधिकारी ही उस से हंसीमजाक कर रहा था.

‘‘मैं ने मौके पर उस जांच अधिकारी से सवालजवाब किए और फिर उस औरत को क्षेत्राधिकारी डाक्टर मीनाक्षी से मिला कर बातचीत कराई, जहां उन्होंने नंबर को सर्विलांस पर लगाने और पता लगते ही जांच अधिकारी को जाने के लिए बोला.

‘‘थाने से बाहर आ कर मैं उस औरत के कागजात की फोटोकौपी और मोबाइल नंबर ले कर और अपना विजिटिंग कार्ड दे कर घर आ गई, मगर फिर भी मन में उस अनजान लड़की के लिए चिंता रह गई थी, जो न जाने किन हाथों में और कैसी हालत में थी.

‘‘रात को उस औरत को फोन कर  अगले दिन ही एसएसपी के औफिस में आने को कहा और पूरा केस पढ़ कर जब वहां मौजूद एसपी ग्रामीण डाक्टर सतीश कुमार को पूरी जानकारी दी, तो उन्होंने तुरंत थाने में फोन कर के स्टेटस लिया और आधे घंटे के भीतर ही पुलिस उस औरत के साथ मौजूदा लोकेशन के लिए निकल पड़ी.

‘‘कुछ समय बाद उस लड़की को सुरक्षित एक कारखाने के अंदर से एक लड़के के साथ बरामद किया गया, जिस ने लड़की को कैद कर रखा था. वह फोन नंबर पास रहने वाले एक आदमी का था, जिस ने शक होने पर मौका पा कर पूछताछ कर घर पर बात कराई थी.

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‘‘एक ईमानदार आईपीएस की बदौलत वह लड़की सुरक्षित मिली. केस चल रहा है.’’

एक और केस के बारे में रीटा शर्मा ने बताया कि महाराष्ट्र का रहने वाला मोहम्मद शाहिद पैसे कमाने के लिए 1 मार्च, 2018 को किसी एजेंट के जरीए कतर गया था, मगर कुछ दिन बाद उस ने अपनी पत्नी को फोन पर बताया कि वे लोग उस से बताए गए काम के बजाय मजदूरी करा रहे हैं और खानेपीने को भी नहीं दे रहे हैं. कुछ दिनों बाद उन्होंने फोन भी ले लिया था.

शाहिद की पत्नी और घर वालों ने हर किसी से मदद मांगी. प्रधानमंत्री के दफ्तर में चिट्ठी भी भेजी, मगर कोई जवाब नहीं आया. इस तरह मई का महीना आ गया.

मोहम्मद शाहिद की बहन को किसी ने मेरे बारे में बताया और मोबाइल नंबर दिया. बातचीत और पूरी जानकारी लेने के अलावा सोशल मीडिया के कुछ साथियों से और ज्यादा जानकारी लेने के बाद दोहा एंबैसी को ट्वीट और ईमेल किया. साथ ही, फोन पर बातचीत के बाद उन्होंने दी गई जानकारी के आधार पर जब जांच कराई तो पता चला कि केवल मोहम्मद शाहिद ही नहीं, बल्कि 2 और भारतीय इसी तरह धोखे से लाए गए थे.

लगातार संपर्क में रहने के बाद 13 जून, 2018 को एंबैसी ने सुरक्षित सभी भारतीयों को वापस भारत भेज दिया. सभी परिवार, जो महीनों से परेशान थे और उन से मदद के नाम पर भारीभरकम रकम मांगी जा रही थी, उन का सब काम ऐसे ही बिना रिश्वत दिए हो गया.

रीटा शर्मा बचपन से ही आईपीएस बनने का सपना देखती थीं. जब भी टैलीविजन पर आईपीएस किरण बेदी आती थीं, तो वे उन्हें बहुत ध्यान से देखती थीं, मगर बीए पास करने के बाद पिताजी आगे पढ़ने के लिए उन्हें इलाके से बाहर भेजने को तैयार न हुए. शायद समाज में हो रहे अपराध देख कर उन में बेटी को ले कर असुरक्षा की भावना थी.

बाद में पिताजी से जिद कर रीटा शर्मा ने एक प्राइवेट नौकरी शुरू की. फिर पिताजी की मौत के बाद एक आंटी की मदद से वे बिना पारिवारिक इजाजत के लखनऊ आ गईं और फिर शुरू हुआ जिंदगी की जद्दोजेहद भरा दूसरा दौर.

रीटा शर्मा ने नौकरी के साथ एमबीए किया. इस बीच कुछ निजी परेशानियों के चलते वे डिप्रैशन में आ गईं और उन के बाहर के काम करने पर रोक लग गई. काउंसलिंग और इलाज के दौरान अपना शौक पूरा करने के लिए उन्होंने एक गैरसरकारी संस्था खोल कर बेसहारा लोगों की मदद करने की सोची, वह भी उस वक्त जब उन्हें खुद मदद की जरूरत थी.

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25 दिसंबर, 2015 को इस संस्था का पहला प्रोग्राम जरूरतमंदों को कपड़े बांटने के साथ शुरू हुआ था. उन की इस मुहिम को आगे बढ़ाने में सोशल मीडिया को वे अहम कड़ी मानती हैं.

भविष्य की बात करें, तो रीटा शर्मा अब राजनीति के क्षेत्र में आ कर बड़े लैवल पर समाजसेवा करना चाहती हैं. उन का यह सपना कब और कैसे पूरा होगा, यह तो भविष्य ही बताएगा, पर इतना तो पक्का है कि ऐसी जुझारू लड़कियां अपने बुलंद हौसलों से देश और समाज में पौजिटिव बदलाव लाने का माद्दा रखती हैं और एक छिपी नायिका की तरह उलझे हुए मामले अपनी सूझबूझ और हिम्मत से सुलझा कर कुछ लोगों की जिंदगियां खुशियों से भर देती हैं.

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