पैसे कम फिर भी नंबर ज्यादा

इस बात में कोई शक नहीं कि भारती खांडेकर के नंबर बहुत ज्यादा नहीं हैं, लेकिन उस के बारे में जानने के बाद लगता है कि वह किसी टौपर से कम नहीं.

मध्य प्रदेश के इंदौर में रहने वाली इस बेहद गरीब लड़की ने इस साल माध्यमिक शिक्षा मंडल के 10वीं बोर्ड के इम्तिहान में 68 फीसदी नंबर हासिल कर फर्स्ट डिविजन बनाई है, जो किसी भी मैरिट वाले छात्र को इस लिहाज से सबक है कि उस के पास खुद का कमरा होना तो दूर की बात है, खुद का कोई घर भी नहीं है.

दरअसल, भारती इंदौर के शिवाजी मार्केट इलाके के फुटपाथ पर पिछले 15 साल से रह रही थी. उस के पिता दशरथ खांडेकर ठेला चलाते हैं और मां पैसे वालों के घरों में  झाड़ूपोंछा लगाने का काम करती हैं. सिर ढकने के लिए मांबाप ने एक  झोंपड़ी तान ली, जिसे हटाने के लिए कभी नगरनिगम, तो कभी पुलिस वाले आ धमकते थे.

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देश के दूसरे करोड़ों  झोंपड़ों की तरह इस  झोंपड़े में भी बिजलीपानी की कोई सहूलियत नहीं थी. 5 सदस्यों वाले इस परिवार को अकसर खानेपीने के लाले पड़े रहते थे, सो अलग. इस पर भी भारी परेशानी की बात यह कि बारिश में  झोंपड़ा पानी से लबालब भर जाता था और गरमीसर्दी की मार बरदाश्त करना हर किसी के बस की बात नहीं.

मांबाप सुबह काम पर निकल जाते थे, तो भारती अपने 2 छोटे भाइयों की देखभाल में जुट जाती थी और वक्त मिलने पर ही अपने स्कूल अहल्या आश्रम जा पाती थी. उस के पास नई कौपीकिताबें खरीदने के पैसे नहीं होते थे, फिर यह सोचना तो बेमानी है कि उसे कहीं से कोचिंग या ट्यूशन मिलती होगी.

शाम को जब मांबाप काम से वापस आते थे, तब इस  झोंपड़े में चूल्हा जलता था और भारती को पढ़ने के लिए थोड़ा वक्त मिल पाता था, वह भी खंभे की रोशनी के नीचे. इस के बाद भी वह 68 फीसदी नंबर ले आई, तो उस की कहानी जान कर हर कोई हैरान रह गया.

क्या भारती जैसी जिंदगी, जिस में खानेपीने, रहने का भी ठिकाना न हो, में गुजर करते हुए बोर्ड के इम्तिहान में फर्स्ट डिविजन लाना वाकई मामूली बात है, इस का जवाब शायद ही कोई हां में दे.

भारती बताती है कि उसे जरा सी भी फुरसत मिलती थी, तो वह पढ़ने बैठ जाती थी. रात में वह नोट्स बनाती थी और दिन में कोर्स की किताबें पढ़ती थी. जैसे ही उस की कामयाबी की कहानी आम हुई, तो मध्य प्रदेश बाल आयोग ने पहल करते हुए प्रशासन को उस के लिए कुछ करने के लिए कहा.

नगरनिगम, इंदौर ने फुरती दिखाते हुए भारती को गरीबों के भले के लिए चलाई जा रही योजना के तहत एक फ्लैट बतौर इनाम दिया. जिंदगी में पहली बार पक्के मकान का मुंह देखने वाली भारती की खुशी का अब कोई ठिकाना नहीं है. अब वह आईएएस अफसर बनने का ख्वाब देख रही है, जो उस की मेहनत और लगन को देखते हुए नामुमकिन भी नहीं, क्योंकि अब कई हाथ उस की मदद को उठने लगे हैं.

लेकिन ऐसा तब हुआ, जब भारती ने खुद को साबित कर दिखाया और यह भी जता दिया कि आदमी अगर ठान ले तो नामुमकिन को भी मुमकिन बना सकता है. जरूरत बस हौसले की है, जो कोई दूसरा नहीं दे सकता. वह तो खुद अपने से पैदा करना पड़ता है.

भारती ने यह भी साबित कर दिया है कि अव्वल आने के लिए बहुत से साधन और सहूलियतें भी जरूरी नहीं.  बहुत सी कमियों में रहते हुए भी आप न केवल पढ़ाई, बल्कि जिंदगी की दौड़ में उन्हें भी पछाड़ सकते हैं, जिन के पास वह सबकुछ है, जिस से वे तेज दौड़ कर जीत सकते हैं, लेकिन उम्मीद के मुताबिक दौड़ नहीं पाते.

अकेली भारती ही नहीं, बल्कि देशभर के उस जैसे कई गरीब बच्चों ने इस साल के बोर्ड इम्तिहानों में ऐसा ही कारनामा कर दिखाया है, जिस से महसूस होता है कि अब पढ़ाईलिखाई पर अमीर और ऊंची जाति वाले बच्चों का पहले सा दबदबा नहीं रह गया है.

कर्णिका का कारनामा

जिस इम्तिहान में भारती फर्स्ट डिविजन में पास हुई है, उसी में इस बार राज्य में भोपाल की एक लड़की कर्णिका मिश्रा ने टौप किया. कर्णिका भोपाल के एक छोटे से स्कूल रीमा विद्या मंदिर में पढ़ती है. उस ने सौ फीसदी नंबर ला कर एक मिसाल बनाई है कि बिना पैसे के भी मैरिट में अव्वल आया जा सकता है.

जब कर्णिका महज 5 साल की थी, तब उस के पिता चल बसे थे, जिस से मां स्वाति और उस पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा था. एक समय ऐसा भी आया, जब इन मांबेटी को भूखे पेट सोना पड़ा या फिर पानी पी कर पेट भरना पड़ा.

ऐसे में स्वाति ने मामूली तनख्वाह वाली एक प्राइवेट नौकरी कर ली और मायके में अपनी मां के पास आ कर रहने लगीं. थोड़ा सा सहारा मिला तो कर्णिका को सम झ आ गया कि अब अगर कुछ बनना है, तो दिनरात पढ़ाई करने के सिवा कोई रास्ता नहीं. लिहाजा, उस ने खुद को पढ़ाई में  झोंक दिया. नतीजा सुखद आया और रिजल्ट वाले दिन मांबेटी की आंखों से खुशी के आंसू बहते रहे.

कर्णिका बताती है कि वह रोजाना 3-4 घंटे पढ़ती थी और उस का एक मकसद नौलेज हासिल करना भी था. वह अब पीएससी का इम्तिहान पास कर सरकारी अफसर बनना चाहती है.

यह जान कर हैरानी होती है कि मध्य प्रदेश में इस बार 10वीं बोर्ड के इम्तिहान में 15 छात्रों ने सौ फीसदी स्कोर किया, जिन में से आधे एससीबीसी और गरीब तबके के हैं. कमोबेश यही हालत दूसरे राज्यों के छात्रों की रही, जिन्होंने भारती और कर्णिका की तरह पढ़ाई की दौड़ और होड़ में कई अमीर बच्चों को पीछे छोड़ते हुए अपनी जगह मैरिट में बनाई.

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यह बदलाव एक बहुत बड़ा इशारा भी है कि गरीब और एससीबीसी के होनहार बच्चों को अब रोका नहीं जा सकता, जो अपनी लड़ाई पैसों व साधनों वाले बच्चों से लड़ कर जीत रहे हैं.

पैसा बनाम नंबर

हर कोई मानता और जानता है कि गरीब तबकों की बदहाली की सब से बड़ी वजह उन का अनपढ़ रहना है, जिस के चलते वे लंबे समय तक ऊंची जाति और रसूखदारों की गुलामी करते रहे.  हालांकि अभी भी वे पूरी तरह इस से आजाद नहीं हुए हैं, लेकिन बहुत धीरेधीरे ही सही हो तो रहे हैं, क्योंकि यह बात उन्हें सम झ आ रही है कि उन के शोषण की सब से बड़ी वजह उन्हें तालीम से दूर रखने की साजिश रही. इस के लिए दबंगों ने छलकपट, जुल्मोसितम और धार्मिक किताबों का सहारा लिया.

इस से छुटकारे के लिए अब अच्छी बात यह है कि वे अपने बच्चों को पढ़ा रहे हैं, जिस से न केवल उन की माली, बल्कि सामाजिक हालत भी सुधरी. हालांकि, उन के बच्चे भी उम्मीदों पर खरे उतर रहे हैं, जबकि उन के पास न तो पक्के मकान होते हैं, न कोचिंग और ट्यूशन के लिए पैसे. न लजीज पकवान उन्हें खाने को मिलते हैं, न नएनए फैशन वाले कपड़े और न बहुत सी किताबें उन के पास होती हैं. फिर यह सोचने की तो कोई वजह ही नहीं कि गेम खेलने के साथ पढ़ाई करने के लिए उन के पास कंप्यूटर और महंगे मोबाइल फोन होते हैं.

इन बच्चों की एकलौती पूंजी उन की कुछ बन जाने की बेचैनी और कशिश ही है, जो इन्हें जुनून से भर देती है और यह जुनून उन्हें पैसे वालों से नफरत करना नहीं सिखाता, बल्कि पढ़ाई के जरीए उन की बराबरी करने के लिए उकसाता है.

बोर्ड के कड़े इम्तिहान इस होड़ का सब से बड़ा और अच्छा पैमाना है. इन तबकों के एकाध बच्चे मैरिट में आते तो बात नजरअंदाज की जा सकती थी, लेकिन इन की बढ़ती तादाद उन कइयों के लिए चिंता का सबब हो सकती है, जो यह मान बैठे हैं कि तालीम, कामयाबी और छोटीबड़ी सरकारी नौकरियों पर उन का और उन के ही बच्चों का हक है.

बात चिंता की भी है 

दिक्कत तो यह है कि ये लोग पैसों से शौपिंग माल के आइटम की तरह मैरिट अपने बच्चों के लिए नहीं खरीद पा रहे हैं, जिन की परवरिश मुकम्मल ऐशोआराम में हो रही है. इन के बच्चे एक मांगते हैं, तो ये 4 तरह की किताबें खरीद कर उन्हें देते हैं. हर विषय की ट्यूशन और कोचिंग उन के लिए मुहैया है, फिर भी उन के बच्चे कर्णिका सरीखे सौ फीसदी नंबर नहीं ला पाते. हां, फुटपाथ पर रह रही भारती की बराबरी जरूर वे कर लेते हैं, तो बात साफ हो जाती है कि जिन 65-70 फीसदी नंबरों के लिए ये लाखों रुपए खर्च कर देते हैं, वे नंबर कोई भारती मुफ्त में ले आती है.

चिंता और डर की नई बात यह है कि समाज, राजनीति और सिस्टम को अपनी मुट्ठी में दबाए रखने वाले ये लंबरदार लोग कहीं खी झ कर सरकारी स्कूलों को बंद कराना ही शुरू न कर दें, क्योंकि गरीब बच्चे पढ़ते तो इन्हीं में हैं, जबकि इन के बच्चे ब्रांडेड एयरकंडीशंड महंगे और आलीशान इमारतों वाले स्कूलों में पढ़ते हैं, जिन में से कई की सालाना फीस ही लाखों रुपए में होती है.

इसे इत्तिफाक कम साजिश ज्यादा माना जाएगा कि ऐसा देशभर के राज्यों में हो भी रहा है कि तरहतरह के बहाने गढ़ कर बड़े पैमाने पर सरकारी स्कूल बंद कराए जा रहे हैं, जिस के पीछे असल मंशा यह है कि गरीब और एससीबीसी तबके के बच्चे पढ़ ही न पाएं.

इस में कोई शक नहीं कि सरकारी स्कूलों की पढ़ाई की क्वालिटी प्राइवेट स्कूलों के मुकाबले घटिया होती है और टीचर पढ़ाने के नाम पर रस्म सी अदा करते हैं. इस के बाद भी बच्चे अव्वल आ रहे हैं, तो यह उन की मेहनत और काबिलीयत ही है.

फरवरी महीने में मध्य प्रदेश सरकार ने कई सरकारी स्कूलों को बंद करने की पहल की थी. बहाना स्कूलों में कम होते दाखिले व पढ़ाई की क्वालिटी सुधारने का बनाया था. जब सरकार बदली तो यह पेशकश ठंडे बस्ते में चली गई, लेकिन सरकार बदली है अफसर नहीं, लिहाजा फिर से यह फाइल खोली जा सकती है.

एक एनजीओ की रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2012 से ले कर साल 2017 तक देशभर में डेढ़ लाख से भी ज्यादा स्कूल ऐसे ही बहाने बना कर बंद कर दिए गए थे. राजस्थान में ही तकरीबन 15,000 सरकारी स्कूल साल 2017 में वसुंधरा सरकार ने बंद करा दिए थे, जिस से तकरीबन ढाई लाख बच्चे पढ़ाई से दूर हो गए थे. बिहार,  झारखंड, ओडिशा और छत्तीसगढ़ में भी हजारों की तादाद में सरकारी स्कूल बंद हुए हैं, जिन की खोजखबर लेनेदेने वाला कोई नहीं, क्योंकि इन में गरीब और एससीबीसी तबके के बच्चे पढ़ते हैं.

साल 2015 में 10वीं की टौपर रही भोपाल की छात्रा नंदिनी का कहना है, ‘‘मैं भी इन्हीं अभावों में पढ़ी हूं और इस नतीजे पर पहुंची हूं कि पैसे वालों के बच्चे सहूलियतों के चलते यह मान बैठते हैं कि गरीब बच्चा उन के सामने नहीं टिकेगा, इसलिए वे फालतू कामों में ज्यादा समय बरबाद करते हैं. इस के उलट गरीब बच्चों को यह एहसास रहता है कि उन के पास केवल मेहनत है और वे समय का सही इस्तेमाल करते हैं.

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बकौल, नंदिनी इन बच्चों को मालूम रहता है कि जैसे भी हो पढ़ लो, तभी हालत सुधरेगी. आजकल मीडिया भी ऐसे बच्चों का खूब सपोर्ट करता है.

नंदिनी बताती है, ‘‘इस से हौसला बढ़ता है. खुद मेरा इंटरव्यू उस समय देश की नामी पत्रिका ‘सरिता’ में छपा था, तो मेरी कामयाबी देश के लाखों लोगों तक पहुंची थी.’’

ये भी हैं नंबरों अमीर

वह दौर कब का गया जब साल 2 साल में एकाध कोई एससीबीसी या गरीब घर का बच्चा बोर्ड इम्तिहान में अच्छे नंबर लाता था, तो हल्ला मच जाता था. अब तो यह हर साल की बात हो चली है कि इन तबकों के एकदो नहीं, बल्कि सैकड़ों गुदड़ी के बच्चे मैरिट लिस्ट में अपनी जगह बनाने लगे हैं.

इस साल भी इन बच्चों ने मेहनत कर बाजी मारी. आइए, उन में से कुछ की बात करते हैं, जिन्होंने कम पैसों में अपनी मार्कशीट को नंबरों से मालामाल कर दिया :

झारखंड में मनीष का  झंडा : इस साल  झारखंड बोर्ड के 10वीं के इम्तिहान में मनीष कुमार कटियार पूरे राज्य में अव्वल रहे हैं. लातेहर के नेतरहाट के स्कूल के छात्र मनीष के पिता देवाशीष भारती एक गरीब किसान हैं, जिन्हें उम्मीद थी कि बेटे का रिजल्ट अच्छा आएगा, लेकिन इतना अच्छा आएगा, इस की उम्मीद उन्हें क्या किसी को भी नहीं थी.

कामयाबी के बाद मनीष ने कहा कि वह आईएएस अफसर बनना चाहता है, ताकि सभी के लिए पक्के घर बनवा सके. इस से ही सम झा जा सकता है कि मनीष के दिल में कौन सी कसक है, जिस ने उसे टौपर बनने के लिए उकसाया.

मनीष के घर की माली हालत अच्छी नहीं है, लेकिन उस के हौसले बुलंद हैं. 500 में से 490 नंबर लाने वाला मनीष नहीं चाहता कि किसी भी बच्चे को पढ़ाई के लिए उस के जैसा संघर्ष करना पड़े.

वाराणसी की शान : उत्तर प्रदेश बोर्ड के रिजल्ट में हाईस्कूल में इस बार वाराणसी के गांव खरगपुर के धीरज पटेल ने जिले में टौप किया है. उस के पिता किराए का आटोरिकशा चलाते हैं. ऐसे में सहज सम झा जा सकता है कि धीरज ने किन मुश्किलों में पढ़ाई की होगी.

वाराणसी के ही अक्षय कुमार ने इस साल जिले में इंटर के इम्तिहान में टौप किया है. उस के पिता भोनू प्रसाद बुनकर हैं और पावरलूम चला कर जैसेतैसे घर चला पाते हैं, लेकिन अक्षय की कामयाबी ने उन्हें आस बंधाई है कि उन के दिन फिरेंगे और बेटे का आईएएस अफसर बनने का सपना भी इसी तरह पूरा होगा.

वाराणसी के रामनगर के विशेष सोनकर ने उत्तर प्रदेश बोर्ड के इम्तिहान में जिले में दूसरा नंबर हासिल किया है. जिस वक्त विशेष का रिजल्ट आया, तब उस के पिता कैलाश सोनकर और मां भागवती देवी बगीचे में जामुन बीनने गए थे, जिस से शाम को घर का चूल्हा जल सके.

विशेष के घर की माली हालत का अंदाजा लगाने के लिए इस से ज्यादा कुछ और कहने की जरूरत नहीं रह जाती.

वाराणसी के एससीबीसी और गरीब तबके के मैरिट में आए छात्रों की लिस्ट काफी लंबी है जिस में एक और नाम सविता बिंद का शुमार है. उस के पिता छब्बू बिंद बंटाई पर खेती करते हैं. इस से भी घरखर्च पूरा नहीं पड़ता, तो वे शादीब्याह में हलवाईगीरी करने लगते हैं.

बेटी ने जब जिले में टौप किया, तो उन की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. इस की एक वजह यह भी है कि छब्बू खुद पढ़ नहीं पाए थे. अब सविता ने टौप कर के जता दिया है कि अनपढ़ मांबाप भी तालीम की अहमियत सम झने लगे हैं और अच्छी बात यह है कि उन की औलादें उन्हें निराश नहीं कर रहीं.

‘‘मम्मी, मैं पास हो गई,’’ वाराणसी के राजातालाब रानी बाजार की खुशबू मोदनवाल मारे खुशी के यह कहते हुए चिल्लाई, तब उस के पिता त्रिभुवन प्रसाद चक्की पर आटा पीसने के अपने रोजाना के काम को अंजाम दे रहे थे. उन्होंने दौड़ कर अपनी नन्ही परी को गले लगा लिया, क्योंकि खुशबू सिर्फ पास ही नहीं हुई थी, बल्कि उस का नाम भी टौप 10 में था.

इंटर की मैरिट में खुशबू से एक पायदान ऊपर रहे हर्ष कुमार पटेल के पिता पेशे से मिस्त्री हैं. ऊपर की 2 जगह घेर कर इन बच्चों ने इशारा कर दिया है कि गुजरा कल किसी का भी रहा हो, लेकिन आने वाला कल इन का है.

फिर जीते अजीत और आकाश : अगर वाराणसी के इन होनहारों को थोड़ी भी सहूलियतें मिली होतीं तो तय है कि वे और अव्वल आते. हालांकि अभी उन्होंने जो कर दिखाया, वह भी किसी से कम नहीं. न केवल इन्हें बल्कि सभी छात्रों को आगरा के अजीत सिंह से काफीकुछ सीखना चाहिए, जिस ने इस साल इंटरमीडिएट में उत्तर प्रदेश में 15वां स्थान हासिल किया है.

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अजीत के पिता गब्बर सिंह खेतिहर मजदूर हैं. लिहाजा, वे जैसेतैसे उसे पढ़ा पा रहे थे, लेकिन होनहार अजीत ने हार नहीं मानी और कुछ बन जाने की ख्वाहिश लिए वह दिनरात एक कर पढ़ता रहा. बिजली न होने के चलते अकसर उसे मोमबत्ती की रोशनी में पढ़ाई करनी पड़ती थी. इसी लगन और मेहनत का नतीजा था कि उसे हाईस्कूल में भी 86 फीसदी नंबर मिले थे. इस कामयाबी के बाद उस ने मुड़ कर नहीं देखा और इस बार वह आगरा में फर्स्ट और राज्य में 15वेें नंबर पर आया.

अजीत की तरह आगरा का ही आकाश कुशवाह भी मिलिट्री में जाना चाहता है, जिस ने इस साल हाईस्कूल में प्रदेशभर में 8वां नंबर हासिल किया. आकाश के पिता लाखन सिंह किसान हैं.

बिहार के ये होनहार : इस साल बोर्ड के मैट्रिक इम्तिहान में नंबर एक की पोजिशन पर आए हिमांशु राज के पिता सब्जी बेचते हैं. रोहतास के इस टौपर को सब से ज्यादा 96.2 फीसदी नंबर मिले हैं. हिमांशु सौफ्टवेयर इंजीनियर बनना चाहता है.

इसी इम्तिहान में दूसरे नंबर पर आए समस्तीपुर के  दुर्गेश कुमार के पिता मामूली किसान हैं. एक नंबर से टौप आने से पिछड़ गए दुर्गेश का सपना इंजीनियर बनने का है.

तीसरे नंबर पर रही अरवल की जूली कुमारी डाक्टर बनना चाहती है, लेकिन गरीबी का डर उसे सता रहा है. जूली के पिता मनोज सिन्हा शिक्षक हैं. उन की आमदनी इतनी नहीं है कि बेटी का दाखिला मैडिकल कालेज में करा सकें, इसलिए वे सरकार से मदद की आस लगाए बैठे हैं.

चौथे नंबर पर आए लखीसराय के सन्नू कुमार की हालत इन सब से ज्यादा खस्ता है. उस के पिता शंभू कुमार और मां पंचा देवी दोनों मजदूरी करते हैं. सन्नू कुमार की ख्वाहिश भी आईएएस अफसर बनने की है.

लाल राजस्थान के : 8 जुलाई को राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के विज्ञान विषय का रिजल्ट देख कर हर कोई हैरान रह गया था, क्योंकि दूसरा नंबर बीकानेर के एक मामूली अनपढ़ किसान धर्मचंद्र शर्मा के बेटे अमित शर्मा के खाते में गया था. उस के घर की माली हालत इतनी खस्ता है कि वह प्रिंस स्कूल की मदद से पढ़ रहा था. 10वीं में भी अच्छे नंबर लाने वाले अमित को इस स्कूल ने मुफ्त पढ़ाई और होस्टल

मुहैया कराया था. 3 विषयों में 100 फीसदी नंबर लाने वाला अमित डाक्टर बनने का सपना पाले बैठा है. वह कहता है कि सपने पूरा करने के लिए दिनरात मेहनत करनी पड़ती है.

इसी कड़े मुकाबले वाले इम्तिहान में कोचिंग सिटी के नाम से मशहूर कोटा के प्रगति स्कूल के एक छात्र शोएब हुसैन ने भी 98.40 फीसदी नंबर ला कर सब को चौंका दिया था. शोएब के पिता निसार अहमद कारीगर हैं, जिन की आमदनी बहुत ज्यादा नहीं है. अपने छात्र की कामयाबी से खुश इस स्कूल के डायरैक्टर जे. मोहम्मद ने शोएब के छोटे भाईबहनों को मुफ्त पढ़ाई की पेशकश की है.

ससुराल में पूरे हुए रूपा के सपने

लेखक- डा. श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट

रूपा यादव की तीसरी जमात में पढ़ते हुए ही 8 साल की अबोध उम्र में शादी हो गई थी. रूपा ने ब्याहता बन कर भी घर का कामकाज करने के साथसाथ अपनी पढ़ाई जारी रखी.

शादी के बाद गौना नहीं होने तक रूपा मायके में पढ़ी और फिर ससुराल वालों ने उसे पढ़ाया. ससुराल में पति और उन के बड़े भाई यानी रूपा के जेठ ने सामाजिक रूढि़यों को दरकिनार करते हुए रूपा की पढ़ाई जारी रखी. पढ़ाई का खर्च उठाने के लिए दोनों भाइयों ने खेती करने के साथसाथ टैंपो भी चलाया.

रूपा ने ससुराल का साथ मिलने पर डाक्टर बनने का सपना संजोया और 2 साल कोटा में रह कर एक इंस्टीट्यूट से कोचिंग कर के दिनरात पढ़ाई की.

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जयपुर के चैमू क्षेत्र के गांव करेरी की रूपा यादव, जिस ने नीट 2017 में 603 अंक हासिल किए थे, को प्रदेश के सरकारी सरदार पटेल मैडिकल कालेज में दाखिला मिल गया.

ऐसी है कहानी

रूपा यादव गांव के ही सरकारी स्कूल में पढ़ती थी. जब वह तीसरी क्लास में थी, तब उस की शादी कर दी गई. गुडि़यों से खेलने की उम्र में ही वह शादी के बंधन में बंध गई थी. दोनों बहनों की 2 सगे भाइयों से शादी हुई थी. उस के पति शंकरलाल की भी उम्र तब 12 साल की थी. रूपा का गौना 10वीं जमात में हुआ था.

गांव में 8वीं जमात तक का सरकारी स्कूल था, तो वह उस में ही पढ़ी. इस के बाद पास के गांव के एक प्राइवेट स्कूल में दाखिला लिया और वहीं से 10वीं जमात तक की पढ़ाई की.

10वीं जमात का इम्तिहान दिया. जब रिजल्ट आया तब रूपा ससुराल में थी. पता चला कि 84 फीसदी अंक आए हैं. ससुराल में आसपास की औरतों ने घर वालों से कहा कि बहू पढ़ने वाली है, तो इसे आगे पढ़ाओ.

शंकरलाल ने इस बात को स्वीकार कर रूपा का दाखिला गांव से तकरीबन 6 किलोमीटर दूर प्राइवेट स्कूल में करा दिया.

रूपा के 10वीं जमात में अच्छे अंक आए. पढ़ाई के दौरान ही उस के सगे चाचा भीमाराव यादव की दिल का दौरा पड़ने से मौत हो गई. उन्हें पूरी तरह से उपचार भी नहीं मिल सका था.

इस के बाद ही रूपा ने बायलौजी विषय ले कर डाक्टर बनने का निश्चिय किया. 11वीं जमात की पढ़ाई के दौरान रूपा बहुत कम स्कूल जा पाती थी. वह घर के कामकाज में भी पूरा हाथ बंटाती थी. गांव से 3 किलोमीटर स्टेशन तक जाना होता था. वहां से बस से

3 किलोमीटर दूर वह स्कूल जाती थी. उस के 11वीं जमात में भी 81 फीसदी अंक आए. उस ने 12वीं जमात का इम्तिहान दिया और 84 फीसदी अंक हासिल किए.

बाद में रूपा यादव ने बीएससी में दाखिला ले लिया. बीएससी के पहले साल के साथ एआईपीएमटी का इम्तिहान भी दिया. इस में उस के 415 नंबर आए और 23,000वीं रैंक आई.

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लिया बड़ा फैसला

रूपा के पति व जेठ ने फैसला किया कि जमीन बेचनी पड़ी तो बेच देंगे, लेकिन रूपा को पढ़ाएंगे. रूपा कोटा में पढ़ने गई तो वहां का माहौल आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करने वाला था. टीचर बहुत मदद करते थे. कोटा में रह कर एक साल मेहनत कर के रूपा अपने लक्ष्य के बहुत करीब पहुंच गई.

रूपा ने पिछले साल नीट में 506 अंक हासिल किए, लेकिन लक्ष्य से थोड़ी सी दूर रह गई. फिर से कोचिंग करने में परिवार की गरीबी आड़े आ रही थी. परिवार उलझन में था कि कोचिंग कराएं या नहीं. ऐसे में एक कैरियर इंस्टीट्यूट ने रूपा का हाथ थामा और उसे पढ़ाई के लिए प्रेरित किया.

उस संस्थान द्वारा रूपा की 75 फीसदी फीस माफ कर दी गई. सालभर तक उस ने दिनरात मेहनत की और 603 अंक हासिल किए. नीट रैंक 2283 रही. अगर वह कोटा नहीं आती, तो शायद आज बीएससी कर के घर में ही काम कर रही होती.

रूपा ने लोगों के ताने भी सहे, लेकिन हिम्मत नहीं हारी. तभी तो वह आज यहां तक भी पहुंच पाई है. इस में उस की ससुराल का बहुत बड़ा योगदान रहा है. पहले साल सिलैक्शन नहीं हुआ या तो खुसुरफुसुर होने लगी कि क्यों पढ़ा रहे हो? क्या करोगे पढ़ा कर? घर की बहू है तो काम कराओ.

इस तरह की बातें होने लगी थीं. यही नहीं, कोटा में पढ़ाई के दौरान ससुराल वालों ने खर्चों की भरपाई के लिए उधार पैसे ले कर भैंस खरीदी थी, ताकि दूध दे कर ज्यादा कमाई की जा सके, लेकिन वह भैंस भी 15 दिन में मर गई. इस से तकरीबन सवा लाख रुपए का घाटा हुआ, लेकिन ससुराल वालों ने उसे कुछ नहीं बताया, बल्कि पति व जेठ और मजबूत हो गए. इस से रूपा बहुत प्रोत्साहित हुई और उस ने पढ़ने में बहुत मेहनत की.

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कोटा में रहने व दूसरे खर्च उठाने के लिए पति और जेठ टैंपो चलाने का काम करने लगे, जबकि रूपा रोजाना 8 से 9 घंटे पढ़ाई करती थी. रूपा जब कभी घर जाती है, तो घर का सारा काम भी बड़ी लगन से करती है. सुबहशाम का खाना बनाने के साथसाथ झाड़ूपोंछा लगाना उस की दिनचर्या में शामिल है. इस के साथ ही खेत में खरपतवार हटाने के काम में भी रूपा हाथ बंटाती है.

रूपा ने असाधारण हालात के बावजूद कामयाबी हासिल की है. रूपा की मदद का सिलसिला जारी रखने के लिए एक संस्थान ने उसे एमबीबीएस की पढ़ाई के दौरान 4 साल तक मासिक छात्रावृत्ति देने का फैसला किया है.

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