Indian Politics : ओबीसी और एससी में क्यों है दूरी?

Indian Politics : साल 2027 के विधानसभा चुनाव के लिए उत्तर प्रदेश में राजनीतिक गोलबंदी अभी से तेज हो गई है. कयास इस बात का लगाया जा रहा है कि एससी और ओबीसी तबका किधर जाएगा.

साल 2024 के लोकसभा चुनाव में एससी, ओबीसी और मुसलिम तबका इंडिया ब्लौक के साथ रहा था, जिस का फायदा कांग्रेस और समाजवादी पार्टी दोनों को हुआ था. कांग्रेस को लोकसभा की 6 सीटें और समाजवादी पार्टी को 37 सीटें मिली थीं, जो अपनेआप में एक बड़ा इतिहास है.

इस के बाद हुए उत्तर प्रदेश में विधानसभा के उपचुनाव और दिल्ली, महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनाव के नतीजे देखने से लगा कि लोकसभा चुनाव वाला वोटिंग ट्रैंड बदल चुका है, खासकर एससी और ओबीसी जातियां धर्म के चलते आपसी दूरी दिखा रही हैं.

एससी और ओबीसी जातियों में खेमेबंदी केवल वोट तक ही नहीं सिमटी है, बल्कि यह जातीय और सामाजिक लैवल पर गुटबाजी में बदल चुकी है, जिस का असर वोट बैंक पर तो पड़ ही रहा है, साथ ही, घरों और स्कूलों पर भी पड़ रहा है. सरकारी स्कूलों में जहां बच्चों को भोजन ‘मिड डे मील’ खाने को मिल रहा है, वहां पर ओबीसी बच्चे एससी बच्चों के साथ बैठ कर खाना खाने से बचते हैं.

ओबीसी बच्चे तादाद में ज्यादा होने के चलते अपना अलग ग्रुप बना लेते हैं, जिस से एससी बच्चे अलगथलग पड़ जाते हैं. स्कूलों से शुरू हुए इस जातीय फर्क को आगे भी देखा जाता है. ओबीसी जातियां ऊंची जातियों जैसी दिखने के लिए खुद को बदल रही हैं.

ओबीसी समाज के लड़के ऊंची जाति की लड़कियों से शादी कर रहे हैं. ऊंचे तबके के परिवारों को भी अगर एससी और ओबीसी में से किसी एक को चुनना हो, तो वह ओबीसी को ही पसंद करते हैं. ओबीसी बच्चे पूरी तरह से ऊंची जाति वाला बरताव करते हैं और यही उन के स्वभाव में रचबस जाता है.

उत्तर प्रदेश में सब से बड़े यादव परिवार मुलायम सिंह यादव का घर इस का उदाहरण है. मुलायम सिंह यादव की पीढ़ी में यादव जाति के बाहर की कोई महिला नहीं थी, पर मुलायम सिंह यादव की दूसरी पत्नी साधना गुप्ता बनिया बिरादरी से थीं.

इस के बाद अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव पहाड़ी जाति की ठाकुर हैं. उन के पिता का नाम आरएस रावत और मां का नाम चंपा रावत है. शादी के पहले डिंपल सिंह रावत थीं, जो अब डिंपल यादव हो गई हैं.

मुलायम सिंह यादव के दूसरे बेटे प्रतीक यादव की भी शादी अपर्णा बिष्ट से हुई है. वे भी पहाड़ी ठाकुर हैं. मुलायम सिंह यादव के भाई शिवपाल यादव के बेटे आदित्य यादव की पत्नी राजलक्ष्मी मध्य प्रदेश के मैहर राजपूत घराने की हैं. इन के नाना राजा कुंवर नारायण सिंह जूदेव 3 बार विधायक रहे थे. राजलक्ष्मी ने लखनऊ यूनिवर्सिटी से एमबीए किया था.

बिहार में लालू प्रसाद यादव के बेटे तेज प्रताप यादव की शादी भूमिहार जाति से आने वाले नेता और मुख्यमंत्री रह चुके दारोगा राय की पोती ऐश्वर्या राय से हुई है. ऐश्वर्या के पिता चंद्रिका राय भी बिहार में मंत्री रहे हैं.

लालू प्रसाद यादव के दूसरे बेटे तेजस्वी यादव की पत्नी रेचल गोडिन्हो हरियाणा के रेवाड़ी में रहने वाले ईसाई परिवार की बेटी हैं. वे दिल्ली में पलीबढ़ी हैं और वहीं तेजस्वी यादव से उन की मुलाकात भी हुई थी और शादी के बाद उन का नाम राजश्री यादव हो गया.

राजश्री यादव नाम इसलिए रखा गया, जिस से बिहार के लोग आसानी से इस नाम का उच्चारण कर सकें. इस नाम को रखने का सुझाव लालू प्रसाद यादव ने ही दिया था.

ओबीसी जातियों ने खुद को बदला है. वह अपना रहनसहन और बरताव ऊंची जातियों जैसा ही करने लगी है. धार्मिक रूप से वह ऊंची जाति वालों की तरह ही बरताव करने लगी हैं.

समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव भले ही खुद को शूद्र कहें, लेकिन उन का बरताव ऊंची जाति के लोगों जैसा ही होता है. वोट से अलग हट कर देखें, तो वे धार्मिक कर्मकांड को पूरी तरह से मानते हैं.

उन्होंने अपने पिता की अस्थियों का विसर्जन पूरी आस्था और धार्मिक कर्मकांडों के साथ किया था. वे गंगा में डुबकी लगा आए और कुंभ भी नहा आए. ऐसे में एससी जातियों को ओबीसी और ऊंची जातियों में फर्क नजर नहीं आता है.

कांग्रेस दलितों की करीबी क्यों?

एससी तबके के लोग जब कांग्रेस और ओबीसी दलों के बीच तुलना करते हैं, तो उसे कांग्रेस ही बेहतर नजर आती है. इस की सब से खास बात यह भी है कि कांग्रेस जब सत्ता में थी, तब उस ने ऐसे तमाम कानून बनाए थे, जिन से गैरबराबरी को खत्म करने में मदद मिली. इन में जमींदारी उन्मूलन कानून, छुआछूत विरोधी कानून और दलित कानून प्रमुख हैं.

लंबे समय तक एससी तबका कांग्रेस का वोटबैंक रहा है. इस वजह से जब साल 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने आरक्षण और संविधान को मुद्दा बनाया, तो एससी जातियों ने उस की बात पर भरोसा किया.

इस भरोसे के बल पर ही एससी तबके ने कांग्रेस और उस की अगुआई वाले इंडिया ब्लौक को चुनावी कामयाबी दिलाई, जिस से भारतीय जनता पार्टी बहुमत से सरकार बनाने में चूक गई.

यह इंडिया ब्लौक और कांग्रेस की बड़ी कामयाबी थी. इस के बाद हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की भूमिका को सहयोगी दलों ने सीमित करने की कोशिश की, जिस वजह से एससी वोटबैंक वापस भाजपा में चला गया.

दिल्ली में आम आदमी पार्टी हो या उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, दोनों चुनाव हार गईं. कांग्रेस को अलगथलग कर के एससी वोट हासिल नहीं किया जा सकता है. इस हालत में कांग्रेस जरूरी होती जा रही है. समाजवादी पार्टी जितना जल्दी इस बात को समझ ले, उतना ही उस का भला होगा.

उत्तर प्रदेश में एससी बिरादरी को अपनी तरफ खींचने के लिए राजनीतिक दल तानाबाना बुनने में लगे हैं. भाजपा अपने संगठन में दलितों को खास तवज्जुह देने की कवायद में है. संविधान और डाक्टर भीमराव अंबेडकर के नाम पर दलित समाज का दिल जीतने की कवायद कांग्रेस से ले कर समाजवादी पार्टी तक कर रही हैं.

बहुजन समाज पार्टी के लगातार कमजोर होने से एससी तबका मायावती की पकड़ से बाहर निकलता जा रहा है. नगीना लोकसभा सीट से सांसद चुने जाने के बाद चंद्रशेखर आजाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दलित राजनीति का नया चेहरा बन कर उभरे हैं और बसपा के औप्शन के तौर पर खुद को पेश कर
रहे हैं.

दूसरी बड़ी हिस्सेदारी

ओबीसी के बाद दूसरी सब से बड़ी हिस्सेदारी एससी की है. दलित आबादी 22 फीसदी के आसपास है. यह दलित वोटबैंक जाटव और गैरजाटव के बीच बंटा हुआ है. 22 फीसदी कुल दलित समुदाय में सब से बड़ी तादाद 12 फीसदी जाटवों की है और 10 फीसदी गैरजाटव दलित हैं.

उत्तर प्रदेश में दलित जाति की कुल 66 उपजातियां हैं, जिन में से 55 ऐसी उपजातियां हैं, जिन का संख्या बल ज्यादा नहीं है. इन में मुसहर, बसोर, सपेरा, रंगरेज जैसी जातियां शामिल हैं.

दलित की कुल आबादी में 56 फीसदी जाटव के अलावा दलितों की अन्य जो उपजातियां हैं, उन की संख्या 46 फीसदी के आसपास है. पासी 16 फीसदी, धोबी, कोरी और वाल्मीकि 15 फीसदी और गोंड, धानुक और खटीक तकरीबन 5 फीसदी हैं.

बसपा प्रमुख मायावती और भीम आर्मी के चीफ चंद्रशेखर जाटव समुदाय से आते हैं. उत्तर प्रदेश में दलित राजनीति हमेशा से जाटव समुदाय के ही इर्दगिर्द सिमटी रही है.

बसपा प्रमुख मायावती के दौर में जाटव समाज का सियासी असर बढ़ा, तो गैरजाटव दलित जातियों ने भी अपने सियासी सपनों को पूरा करने के लिए बसपा से बाहर देखना शुरू किया.

साल 2012 के चुनाव के बाद से गैरजाटव दलित में वाल्मीकि, खटीक, पासी, धोबी, कोरी समेत तमाम जातियों के विपक्षी राजनीतिक दल अपनेअपने पाले में लामबंद करने में कामयाब रहे हैं.

अखिलेश यादव साल 2019 के बाद से ही दलित वोटों को किसी भी दल के गठबंधन की बैसाखी के बजाय अपने दम पर हासिल करने की कवायद में हैं.

बसपा के कई दलित नेताओं को उन्होंने अपने साथ मिलाया है, जिस के चलते साल 2022 और साल 2024 में उन्हें कामयाबी भी मिली थी. सपा अब ‘पीडीए’ की बैठक कर के दलित वोटबैंक अपनी तरफ करने का काम कर रही है.

जाटव बिरादरी के राजाराम कहते हैं, ‘‘हम बसपा को वोट देते हैं, लेकिन मेरी बहू और बेटे बसपा को पसंद नहीं करते हैं. वे भाजपा को वोट देते हैं.’’

साल 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद उत्तर प्रदेश में हुए 10 उपचुनाव में बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस ने चुनाव नहीं लड़ा था. सीधा मुकाबला सपा और भाजपा के बीच था, जिस में सपा को केवल 2 सीटों पर जीत मिली और 8 सीटें भाजपा जीत ले गई.

अखिलेश यादव भाजपा की इस जीत को लोकतंत्र विरोधी बता रहे हैं. इस के बाद यह साफ हो गया है कि लोकसभा चुनाव में सपाकांग्रेस गठबंधन को वोट देने वाला एससी तबका सपा के साथ नहीं है. कांग्रेस और बसपा के चुनाव लड़ने के फैसले से वह भाजपा को विकल्प के रूप में देख रहा है.

गृह मंत्री अमित शाह द्वारा डाक्टर भीमराव अंबेडकर पर टिप्पणी किए जाने के मुद्दे को ले कर कांग्रेस नेताओं ने संसद से सड़क तक भाजपा और मोदी सरकार के खिलाफ मोरचा खोल दिया था.

कांग्रेस ने देशभर में ‘जय भीम’, ‘जय बापू’ और ‘जय संविधान’ नाम से अभियान शुरू किया था. राहुल गांधी ने साल 2024 का लोकसभा चुनाव संविधान और आरक्षण के मुद्दे पर लड़ा था.

इस का सियासी फायदा कांग्रेस और उस के सहयोगी दलों को मिला था. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को 6 सीटें मिली थीं और उस के सहयोगी दल सपा को 37 सीटों पर जीत मिली थी. इसी तरह महाराष्ट्र में भी संविधान और आरक्षण का दांव कारगर रहा था.

उत्तर प्रदेश में 42 ऐसे जिले हैं, जहां दलितों की तादाद 20 फीसदी से ज्यादा है. राज्य में सब से ज्यादा दलित आबादी सोनभद्र में 42 फीसदी, कौशांबी में 36 फीसदी, सीतापुर में 31 फीसदी है, बिजनौर और बाराबंकी में 25-25 फीसदी हैं. इस के अलावा सहारनपुर, बुलंदशहर, मेरठ, अंबेडकरनगर, जौनपुर में दलित समुदाय निर्णायक भूमिका में है.

इस तरह से उत्तर प्रदेश में दलित समाज के पास ही सत्ता की चाबी है, जिसे हर दल अपने हाथ में लेना चाहता है. दलितों के बीच ‘सामाजिक समरसता अभियान’ के तहत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने उस दलित वोटबैंक पर निशाना साधा, जिस पर बसपा ने कभी ध्यान ही नहीं दिया था. इस का फायदा भाजपा को सीधेसीधे देखने को मिला है.

धार्मिक दलित बने भाजपाई

‘रामचरित मानस’ की चौपाई ‘ढोल गंवार शूद्र पशु नारी’ को भूल कर एससी और ओबीसी का एक बड़ा तबका पूरी तरह से धार्मिक हो चुका है. यही भाजपा की सब से बड़ी ताकत है. भाजपा धर्म के जरीए राजनीति कर रही है. उस का प्रचार मंदिरों से होता है.

अब तकरीबन हर जाति के लोगों के अलगअलग मंदिर हैं, जहां लोग अपनेअपने भगवानों की पूजा करते हैं. धर्म के नाम पर वे भाजपा के साथ खड़े हो रहे हैं.

समाजवादी पार्टी का मूल वोटबैंक यादव समाज भी अब अखिलेश यादव के साथ पूरी तरह से नहीं है. वह सपा को पसंद करता है, लेकिन जैसे ही मुद्दा हिंदूमुसलिम का होता है, वह भाजपा के साथ खड़ा हो जाता है.

अयोध्या के करीब मिल्कीपुर विधानसभा सीट पर 6 महीने पहले लोकसभा चुनाव में फैजाबाद लोकसभा सीट सपा के अवधेश प्रसाद ने जीती थी. इस के बाद उन को विधायक की सीट छोड़नी पड़ी थी, जिस का उपचुनाव हुआ. सपा ने अवधेश प्रसाद के बेटे अजीत प्रसाद को टिकट दे दिया. विधानसभा के उपचुनाव में सपा तकरीबन 65,000 वोट से हार गई.

सपा चुनावी धांधली का कितना भी बहाना बनाए, पर सच यह है कि सपा के वोट कम हुए हैं. इस की वजह यह रही कि अवधेश प्रसाद को राजा अयोध्या कहना एससी और ओबीसी जातियों को भी अच्छा नहीं लगा. इस वजह से उन्होंने सपा के उम्मीदवार के खिलाफ वोट दे कर उस को हरवा दिया.

एससी अब ओबीसी के साथ खड़ा होने में हिचक रहा है. इस में ओबीसी की कमी है, क्योंकि वह खुद को ऊंची जाति का समझ कर वैसा ही बरताव एससी के साथ कर रहा है.

ओबीसी अब मन से ऊंची जाति का बन चुका है. मंडल कमीशन लागू करते समय यह सोचा गया था कि ओबीसी अपने तबके से कमजोर तबके को आगे बढ़ाएगा.

मंडल कमीशन की सिफारिशों का सब से ज्यादा फायदा यादव और कुर्मी जातियों ने आपस में बांट लिया. गरीब तबका गरीब ही रह गया. अब वह धर्म के सहारे आगे बढ़ कर खुद को ऊंची जाति वालों जैसा बना कर एससी से दूर हो रहा है.

एससी की सब से पहली पसंद हमेशा से ही कांग्रेस रही है. जैसेजैसे कांग्रेस मजबूत होगी, वैसेवैसे एससी और मुसलिम दोनों ही उस की तरफ जाएंगे. इन को लगता है कि भाजपा से टक्कर लेने का काम केवल कांग्रेस ही कर सकती है.

राहुल गांधी ही भाजपा का मुकाबला कर सकते हैं. एससी और मुसलिम दोनों ही कांग्रेस के पक्ष में तैयार खड़े हैं. ऐसे में अब समाजवादी पार्टी की मजबूरी है कि वह कांग्रेस को साथ ले कर चले. अगर ऐसा नहीं हुआ, तो दिल्ली जैसी हालत उत्तर प्रदेश में भी होगी. अरविंद केजरीवाल जैसा बरताव अखिलेश यादव को धूल चटा देगा.

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस नेताओं का कहना है कि सपा कांग्रेस को कमजोर न समझे, सहयोगी और साथी समझे, नहीं तो ‘हम तो डूबे हैं सनम तुम को भी ले डूबेंगे’.

ब्राह्मण बनते Upper Cast OBC

Upper Cast OBC : रविवार, 8 दिसंबर, 2024 को विश्व हिंदू परिषद के विधि प्रकोष्ठ ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के लाइब्रेरी हाल में ‘विधि कार्यशाला’ नामक कार्यक्रम कराया था. इस कार्यक्रम में जस्टिस शेखर कुमार यादव के अलावा इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक और मौजूदा जस्टिस दिनेश पाठक भी शामिल हुए थे.

इस कार्यक्रम में ‘वक्फ बोर्ड अधिनियम’, ‘धर्मांतरण कारण एवं निवारण’ और ‘समान नागरिक संहिता एक संवैधानिक अनिवार्यता’ जैसे विषयों पर अलगअलग लोगों ने अपनी बात रखी थी.

इस दौरान जस्टिस शेखर कुमार यादव ने ‘समान नागरिक संहिता एक संवैधानिक अनिवार्यता’ विषय पर बोलते हुए कहा था कि देश एक है, संविधान एक है, तो कानून एक क्यों नहीं है?

तकरीबन 34 मिनट के इस भाषण के दौरान जस्टिस शेखर कुमार यादव ने कहा कि ‘हिंदुस्तान में रहने वाले बहुसंख्यकों के अनुसार ही देश चलेगा. यही कानून है. आप यह भी नहीं कह सकते कि हाईकोर्ट के जज हो कर ऐसा बोल रहे हैं. कानून तो भैया बहुसंख्यक से ही चलता है’.

अपने इसी भाषण में जस्टिस शेखर यादव यह भी कह गए कि ‘कठमुल्ले’ देश के लिए घातक हैं. वे यह सम?ाते हैं कि ‘कठमुल्ला’ शब्द गलत है. इस के बाद भी कहते हैं, ‘जो कठमुल्ला है, शब्द गलत है, लेकिन कहने में गुरेज नहीं है, क्योंकि वे देश के लिए घातक हैं. जनता को बहकाने वाले लोग हैं. देश आगे न बढ़े, इस प्रकार के लोग हैं. उन से सावधान रहने की जरूरत है’.

‘कठमुल्ला’ का शाब्दिक अर्थ ‘कट्टरपंथी मौलवी’, ‘मत या सिद्धांत’ के प्रति अत्यंत आग्रहशील या दुराग्रही व्यक्ति होता है. इस का मतलब कट्टर मौलवी होता है, जो काठ के मनकों की माला फेरता हो. अब यही ‘कठमुल्ला’ शब्द विवाद का विषय बन गया है.

जस्टिस शेखर कुमार यादव की दूसरी उस बात पर विवाद है, जिस में यह कहा कि ‘कानून तो बहुसंख्यक से ही चलता है’. इस देश में कठमुल्ला, बहुसंख्यक, अल्पसंख्यक जैसे शब्द राजनीतिक दलों को बहुत लुभाते हैं’.

जस्टिस शेखर कुमार यादव जैसे ओबीसी समाज के तमाम ऐसे लोग हैं, जिन को लगता है कि देश से वर्ण व्यवस्था खत्म हो गई है. ऐसे ही लोगों में एक बड़ा नाम है बाबा रामदेव का, जिन्होंने धर्म का इस्तेमाल अपनेआप को स्थापित करने में किया.

साल 2012-13 में बाबा रामदेव अन्ना हजारे के आंदोलन का हिस्सा बने थे. उस समय केंद्र में कांग्रेस की अगुआई वाली डाक्टर मनमोहन सिंह की सरकार थी. साल 2014 में जैसे ही सरकार बदली, वैसे ही बाबा रामदेव धर्म के प्रचारक हो गए. योग के साथसाथ उन्होंने अपने जो सामान बेचने शुरू किए, उन का आधार धर्म को बनाया.

दक्षिणपंथ से अलग थी समाजवादी विचारधारा

धर्म और राष्ट्रवाद के नाम पर बाबा रामदेव का कारोबार भले ही बढ़ गया हो, पर इस से वर्ण व्यवस्था पर कोई असर नहीं हुआ. ऐसे ओबीसी नेताओं की लिस्ट लंबी है, जो ओबीसी के नाम पर आगे तो बढ़ गए, लेकिन वे खुद को ब्राह्मण जैसा समझने लगे.

ओबीसी के जो नेता आगे बढ़े, वे धर्म की आलोचना कर के ही आगे बढ़े थे. उन की विचारधारा दक्षिणपंथी पंडावाद की नहीं थी.

वे सब समाजवादी विचारधारा के थे, जिस में औरतों और रूढि़वादी विचारों को काफी जगह दी गई थी. समाजवादी राजनीति उस पक्ष या विचारधारा को कहते हैं, जो वर्ण व्यवस्था वाले समाज को बदल कर उस में और ज्यादा माली और जातीय समानता लाना चाहते हैं. इस विचारधारा में समाज के उन लोगों के लिए हमदर्दी जताई जाती है, जो किसी भी वजह से दूसरे लोगों की तुलना में पिछड़ गए हों या कमजोर रह गए हों.

समाजवादी विचारधारा सब को साथ ले कर चलने की बात करती है. यह वर्ण व्यवस्था के ठीक उलट विचारों को ले कर चलती है. यही वजह है कि समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने उत्तर प्रदेश की विधानसभा में कहा कि ‘हम शूद्र हैं’. समाजवादी पार्टी के दफ्तर पर इस का प्रचार करता होर्डिंग भी लगाया गया था.

उत्तर प्रदेश में ‘रामचरितमानस’ पर विवादित बयान देने वाले नेता स्वामी प्रसाद मौर्य उस समय समाजवादी पार्टी में थे. इस को ले कर सपा प्रमुख अखिलेश यादव पर सवाल उठ रहे थे. अखिलेश यादव को हिंदू संगठनों ने काले झंडे दिखाए और उन के खिलाफ नारेबाजी की.

इसे ले कर अखिलेश यादव ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सरकार पर हमला बोला. उन्होंने कहा कि ‘मैं मुख्यमंत्रीजी से सदन में पूछूंगा कि मैं शूद्र हूं कि नहीं हूं? भाजपा और आरएसएस के लोग दलितों और पिछड़ों को शूद्र समझते हैं’. यह वर्ण व्यवस्था की देन थी.

क्या है वर्ण व्यवस्था

वर्ण व्यवस्था का सब से पहले जिक्र ऋग्वेद के 10वें मंडल में पाया जाता है. यही बाद में जातीय व्यवस्था बन गई. जातीय व्यवस्था में 4 जातियां प्रमुख रूप से रखी गईं. ये वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र हैं. शूद्र का मतलब दलित वर्ग से नहीं था. वर्ण व्यवस्था में उन को तो चर्चा के लायक भी नहीं समझ जाता था.

वर्ण व्यवस्था 1500 ईसा पूर्व आर्यों के आने के साथ ही भारत में आ गई थी. वे मध्य एशिया से भारत आए थे. वे गोरे रंग वाले लोग थे. अपनी नस्लीय श्रेष्ठता को बनाए रखने की कोशिश में उन्होंने देश के मूल निवासियों यानी काली चमड़ी वाले लोगों से खुद को अलग रखा था.

आर्यों के आने के बाद समाज में 2 वर्ग हो गए. मूल वर्ग काले रंग का था, जिस को दास कहा गया. ऋग्वैदिक काल में ही समाज का बंटवारा हो गया था. आर्यों के एक समूह ने बौद्धिक नेतृत्व के लिए खुद को दूसरों से अलग रखा.

इस समूह को ‘पुजारी’ कहा जाता था. दूसरे समूह ने समाज की रक्षा के लिए दावा किया, जिसे ‘राजन्या’ यानी राजा से पैदा कहा जाता था. यही आगे चल कर क्षत्रिय वर्ग बन गया. तीसरे वर्ग ने कारोबार करना शुरू किया, यही वैश्य कहलाया.

उत्तर वैदिक काल में शूद्र नामक एक नए वर्ण का उदय हुआ. इस की जानकारी ‘ऋग्वेद’ के 10वें मंडल में मिलती है. ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों को द्विज का दर्जा दिया गया था, जबकि शूद्रों को द्विज के दायरे से बाहर रखा गया था और उन्हें ऊपरी 3 वर्णों की सेवा के लिए बनाया गया था.

वर्ण व्यवस्था के तहत लोगों को उन के सामाजिक और माली हालात के आधार पर दर्जा दिया जाता था. वर्ण व्यवस्था के तहत समाज को 4 अलगअलग वर्णों में बांटा गया था. इस के आधार पर जातीय भेदभाव भी खूब होता है.

वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मणों का स्थान सब से ऊपर था. एक ब्राह्मण औरत एक ब्राह्मण मर्द से ही शादी कर सकती थी. इस के बाद दूसरे नंबर पर क्षत्रिय वर्ग आता था. इन का मुख्य काम युद्धभूमि में लड़ना था. एक क्षत्रिय को सभी वर्णों की औरत से विवाह करने की इजाजत थी. हालांकि, एक ब्राह्मण या क्षत्रिय महिला को प्राथमिकता दी जाती थी.

इस व्यवस्था में तीसरा नंबर वैश्य का था. इस वर्ण की औरतें पशुपालन, कृषि और व्यवसाय में अपने पति का साथ देती थीं. वैश्य औरतों को किसी भी वर्ण के मर्द से शादी करने की आजादी दी गई थी. शूद्र मर्द से शादी करने की कोशिश नहीं की जाती थी.

शूद्र वर्ण व्यवस्था में सब से निचले स्थान पर थे. इन को किसी भी तरह के अनुष्ठान करने से रोक दिया गया था. कुछ शूद्रों को किसानों और व्यापारियों के रूप में काम करने की इजाजत थी. शूद्र औरतें किसी भी वर्ण के मर्द से विवाह कर सकती थीं, जबकि एक शूद्र मर्द केवल शूद्र वर्ण की औरत से ही विवाह कर सकता था.

बौद्ध और जैन धर्म में वर्ण व्यवस्था में जातीय भेदभाव को खत्म करने की कोशिश की गई, लेकिन यह खत्म नहीं हो सका. आजादी के बाद भी इस का असर कायम है.

संविधान से मिली आरक्षण की ताकत से शूद्र वर्ग के लोग राजनीतिक और सामाजिक रूप से आगे बढ़ गए. पैसा आने से यह खुद को ब्राह्मणों जैसा समझने लगे हैं.

असल में, ये अपने वर्ग में श्रेष्ठ हो सकते हैं, लेकिन वर्ण व्यवस्था में इन की जगह जहां पहले थी, आज भी वहीं है. इस की सब से बड़ी मिसाल समाचारपत्रों में छपने वाले वैवाहिक विज्ञापनों में देखी जा सकती है.

वैवाहिक विज्ञापनों में वर्ण व्यवस्था

‘ब्राह्मण, 29 वर्षीय पोस्ट ग्रेजुएट बिजनैसमैन युवक के लिए सर्वगुण, सुंदर, स्लिम, संस्कारी, गृहकार्य में दक्ष, विश्वसनीय, ईमानदार व शाकाहारी वधू चाहिए. नौकरी केवल सरकारी टीचर और केवल ब्राह्मण परिवार ही स्वीकार्य. कुंडली मिलान और 36 गुणयोग, बायोडाटा फोटो सहित संपर्क करें.’

ऐसे वैवाहिक विज्ञापनों में पूरी जातीय और वर्ण व्यवस्था दिखती है. हर जाति के लिए अलग कौलम बने हैं, जहां अंतर्जातीय विवाह की बात होती है. उस का मतलब है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य आपस में विवाह कर सकते हैं. शूद्र के साथ ये लोग अंतर्जातीय विवाह नहीं करते हैं. ये विज्ञापन आज भी उतने ही रूढि़वादी और जातिवादी हैं, जितने पहले थे.

हाल के 10-15 सालों में विज्ञापन और ज्यादा पितृसत्तात्मक सोच से ग्रस्त हो गए हैं. इन विज्ञापनों में यह भी दिखता है कि कैसे हमारे समाज में विवाह की मूल सोच को नकारते हुए इसे वैवाहिक सौदा बनाया गया है, जिस में जाति, धर्म, गोत्र का ध्यान रखना सब से पहले जरूरी है.

कुछ विज्ञापनों में बिना दहेज और कोई जाति बाधा न होने जैसी बातें भले ही लिखी जा रही हैं, लेकिन विज्ञापन देने वाले अपनी जाति का जिक्र करना नहीं भूलते हैं.

असलियत में अपनी जाति से हट कर शादी करना कितना मुश्किल होता है, इस का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आज भी हमारे समाज में अपनी पसंद से शादी करने वाले जोड़े को अपनी जान तक गंवानी पड़ती है.

शादी के नाम पर पहले भी मातापिता की रजामंदी के आधार पर जातीय व धार्मिक व्यवस्था को लागू किया जाता रहा है. मैट्रिमोनियल साइटें इन बातों को ध्यान में रखते हुए जाति, धर्म, समुदाय, क्षेत्र और व्यवसाय जैसे वर्गों में बंटी हुई हैं. वैवाहिक विज्ञापनों और साइटों की भाषा समाज की उसी सोच को दिखाती है, जो ब्राह्मणवादी पितृसत्ता की सोच है.

वैवाहिक विज्ञापनों की शुरुआत के पहले कौलम में ‘ब्राह्मण’ वैसे ही लिखा होता है, जैसे वर्ण व्यवस्था में उस का नाम पहले आता है. वर चाहिए या वधू… इस के अलगअलग कौलम होते हैं. इस के बाद क्षत्रिय, वैश्य, कायस्थ, जाट, जाटव, मुसलिम, यादव, बंगाली, पंजाबी, सिख होते हैं.

एक कौलम अन्य का होता है. इस में पासी, विश्वकर्मा, पाल, गडरिया, प्रजापति जैसी जातियों के लिए वर या वधू का जिक्र होता है.

ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के विज्ञापनों में सजातीय शब्द के वर या वधू की चाहत ज्यादा होती है. बहुत कम में जाति बंधन नहीं लिखा मिलता है. पासी, विश्वकर्मा, पाल, गडरिया, प्रजापति, जाटव जैसी जातियों के वर्ग में जाति बंधन नहीं लिखा होता है.

सोशल मीडिया पर वैवाहिक साइटों की मैंबरशिप लेने से पहले वर या वधू की पूरी जानकारी बायोडाटा के रूप में ली जाती है. अब इस में लड़का, लड़की और उस के मातापिता की जानकारी के अलावा भाई, बहन, चाचा और चाची की जानकारी भी ली जाती है.

इस के साथ ही यह भी लड़की शाकाहारी है और अल्कोहल का सेवन नहीं करती, लिखा जाता है. एक नया कौलम और जुड़ गया है, जिस में पूछा जाता है कि वह सोशल मीडिया पर रील तो नहीं बनाती. समाचारपत्रों के वैवाहिक विज्ञापनों में कम बातों का जिक्र किया जाता है.

वैवाहिक साइटों में तमाम तरह की गोपनीय जानकारी ली जाती है, जिस में माली हालत, लोन, ईएमआई जैसे सवाल होते हैं. कुछ बातें फार्म में भरी नहीं जाती हैं, जो अपने परिचय में बताई जाती हैं.

वैवाहिक साइट चलाने वालों का दावा है कि इन जानकारियों के जरीए ही वे परफैक्ट मैच तलाश करते हैं. इन के जरीए लोगों की गोपनीय जानकारियां कहीं की कहीं पहुंचने का खतरा रहता है.

इस तरह से आजादी के 77 साल बाद यह वर्ण व्यवस्था आज भी कायम है. आज भी शादी का वहीं ढांचा चल रहा है, जो मनु के समय में था. ऐसे में कुछ ओबीसी और एससी के ब्राह्मण जैसा बनने से पूरे समाज में बदलाव नहीं माना जा सकता.

Reality of Society : पढ़ाई छोड़ रही एससीएसटी लड़कियां

Reality of Society : देशराज अपनी 18 साल की बेटी की शादी का न्योता देने गांव के प्रधान इंद्र प्रताप के पास गया. उन्होंने पूछा, ‘‘इतनी कम उम्र में शादी क्यों कर रहे हो? तुम ने अपनी बेटी को स्कूल की पढ़ाई भी नहीं करने दी? कानून और संविधान की बहुत सी कोशिशों के बावजूद भी एससीएसटी लड़कियां जल्दी पढ़ाई छोड़ रही हैं और उन की शादी भी जल्दी हो जा रही हैं, जिस से कम उम्र में कई बच्चों का पैदा होना उन को बीमार बनाता है.

‘‘पढ़ाई छोड़ने के चलते वे अच्छी नौकरी नहीं कर पाती हैं, जिस से बाद में वे मजदूरी ही करती रहती हैं. आजादी के 77 सालों के बाद आखिर एससीएसटी लड़कियों की ऐसी हालत क्यों है? एससीएसटी तबका हिंसा का ज्यादा शिकार होता है. ये गरीब हैं और लड़कियां हैं, इसलिए इन को नीची नजरों से देखा जाता है. इन के हक में खड़े होने वाले कम होते हैं, इसलिए इन्हें सैक्स हिंसा का ज्यादा शिकार होना पड़ता है.’’

देश की आबादी में एससीएसटी औरतों और लड़कियों की तादाद 18 से 20 फीसदी है. आजादी और आरक्षण के बाद भी आज वे जातीय व्यवस्था और भेदभाव की शिकार हैं. इन की परेशानी यह है कि ये घर के अंदर और बाहर दोनों ही जगहों पर जोरजुल्म का शिकार होती हैं, जिस के चलते इन की पढ़ाई जल्दी छुड़वा दी जाती है, जबकि लड़कों को बाहर पढ़ने भेजा जाता है. मातापिता लड़कियों को जिम्मेदारी भरा बोझ समझ कर शादी कर देना चाहते हैं, ताकि इन की जिम्मेदारी पति उठाए.

जातिगत होती है सैक्स हिंसा

एससीएसटी लड़कियों के साथ किस तरह से जातिगत सैक्स हिंसा होती है, उत्तर प्रदेश का हाथरस कांड इस का बड़ा उदाहरण है. यहां एससी तबके की लड़की के साथ कथित तौर पर ऊंची जाति के लोगों द्वारा रेप और हत्या का मसला सुर्खियों में रहा है. गांव के इलाकों में एससी औरतें और लड़कियां सैक्स हिंसा की शिकार रही हैं. यहां की ज्यादातर जमीन, संसाधन और सामाजिक ताकत ऊंची जातियों के पास है.
एससीएसटी के खिलाफ जोरजुल्म को रोकने के लिए साल 1989 में बनाए गए कानून के बावजूद भी एससीएसटी औरतों और लड़कियों के खिलाफ हिंसा में कोई कमी नहीं आई है. आज भी इन का पीछा किया जाता है. इन के साथ छेड़छाड़ और रेप की वारदातें होती हैं. विरोध करने पर इन की हत्या भी की जाती है.

आंकड़े बताते हैं कि भारत में हर दिन 10 एससीएसटी औरतों और लड़कियों के साथ रेप होता है. उत्तर प्रदेश, बिहार और राजस्थान में एससीएसटी लड़कियों के खिलाफ सैक्स हिंसा के सब से ज्यादा मामले होते हैं.

500 एससीएसटी औरतों और लड़कियों पर की गई एक रिसर्च से पता चलता है कि 54 फीसदी पर शारीरिक हमला किया गया, 46 फीसदी पर सैक्स से जुड़ा जुल्म किया गया, 43 फीसदी ने घरेलू हिंसा का सामना किया, 23 फीसदी के साथ रेप हुआ और 62 फीसदी के साथ गालीगलौज की गई.

क्या है 1989 का कानून

साल 1989 का कानून अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के नाम से जाना जाता है. इस को एससीएसटी ऐक्ट के नाम से भी जाना जाता है.

यह अधिनियम अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों को जाति के आधार पर होने वाले भेदभाव और हिंसा से बचाने के लिए बनाया गया था.

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 और 17 पर यह अधिनियम आधारित है. इस अधिनियम को 11 सितंबर, 1989 को पास किया गया था और 30 जनवरी, 1990 से इसे जम्मूकश्मीर को छोड़ कर पूरे भारत में लागू
किया गया.

कश्मीर में अनुच्छेद 370 लागू होने के चलते वहां यह कानून लागू नहीं हो सका था. साल 2019 में अनुच्छेद 370 खत्म होने के बाद अब यह कानून वहां भी लागू होता है.

इस अधिनियम के तहत अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों के खिलाफ शारीरिक हिंसा, जोरजुल्म, और सामाजिक भेदभाव जैसे अपराधों को अत्याचार माना गया है.

इस अधिनियम के तहत इन अपराधों के लिए कठोर सजा दी जाती है. ऐसे अपराधों के लिए स्पैशल कोर्ट बनाई गई हैं. इस के तहत ही पीडि़तों को राहत और पुनर्वास भी दिया जाता है. साथ ही, पीडि़तों को अपराध के स्वरूप और गंभीरता के हिसाब से मुआवजा दिया जाता है.

कम उम्र में होती हैं शिकार

भारत के 16 जिलों में एससीएसटी औरतों और लड़कियों के खिलाफ सैक्स हिंसा की 100 घटनाओं की स्टडी से पता चलता है कि 46 फीसदी पीड़ित 18 साल से कम उम्र की थीं. 85 फीसदी 30 साल से कम उम्र की थीं. हिंसा के अपराधी एससी तबके सहित 36 अलगअलग जातियों से थे.

इस का मतलब यह है कि दूसरी जाति के लोग ही नहीं, बल्कि अपनी जाति के लोग भी एससीएसटी औरतों और लड़कियों पर जोरजुल्म करते हैं. इस की सब से बड़ी वजह यह है कि अब ये लड़कियां मुखर हो कर अपनी बात कहने लगी हैं. इन की आवाज को दबाने के लिए जोरजुल्म किया जाता है. एससी के बढ़ते दबदबे से ऊंची जातियां विरोध करने लगी हैं.

एससी परिवारों में जागरूक और पढ़ेलिखे लोग भी अपनी लड़कियों को ऊंची तालीम के मौके दे रहे हैं. इस के बावजूद ज्यादातर परिवार अपनी लड़कियों की पढ़ाई क्लास 5वीं से क्लास 8वीं के बीच छुड़वा दे रहे हैं. पढ़ाई छोड़ने वाली लड़कियों की तादाद में एससी लड़कियां सब से आगे पाई जाती हैं.

आज भी 18 से 20 साल की उम्र के बीच इन की शादी तय कर दी जाती है, जो औसत उम्र से काफी कम है. इस वजह से इन को अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ती है. आंकड़ों के मुताबिक, 25 फीसदी एसटी और 20 फीसदी एससी 9वीं और 10वीं क्लास में स्कूल छोड़ देती हैं.

एससीएसटी औरतों और लड़कियों के साथ सैक्स हिंसा जिंदगी के हर पहलू में असर डाल रही है. इन को काम करने की जगहों पर सैक्स से जुड़ा जोरजुल्म, लड़कियों की तस्करी, सैक्स शोषण और घरेलू हिंसा का शिकार होना पड़ता है.

20 साल की एक एससी लड़की प्रेमा बताती है, ‘‘जब मैं पहली बार पुलिस के पास शिकायत दर्ज कराने गई, तो पुलिस ने मेरे रेप और अपहरण की शिकायत पर एफआईआर दर्ज करने से इनकार कर दिया था.

थाने में बिचौलिए ने कहा कि मैं आरोपी से कुछ पैसे ले लूं और मामले में समझौता कर लूं. समझौाता करने के लिए मुझ पर दबाव बनाया गया.’’

परिवार पर पड़ता है असर

आज भी पुलिस में एफआईआर दर्ज कराना आसान नहीं है. कई बार थाने में एफआईआर नहीं लिखी जाती, तो बड़े पुलिस अफसरों तक जाना पड़ता है. बड़े पुलिस अफसरों तक शिकायतें पहुंचने के बाद ही एफआईआर दर्ज की जाती है. कई मामलों में तो अदालत के आदेश के बाद ही मुकदमा दर्ज हो पाता है.

पुलिस और कोर्ट के चक्कर काटने में ही घरपरिवार और नौकरी पर बुरा असर पड़ता है. कई लोगों को अपनी नौकरी छोड़नी पड़ती है, क्योंकि कोर्ट केस लड़ने के लिए उन को छुट्टी नहीं मिलती है.

देवरिया के रहने वाले राधेश्याम की 17 साल की बेटी कविता का अपहरण कर लिया गया था. 2 साल तक उसे तस्करी, सैक्स हिंसा और बाल मजदूरी का शिकार होना पड़ा था. कई अलगअलग शहरों में मुकदमे दर्ज हुए.

पुलिस के बयान, टैस्ट के लिए उसे अपनी बेटी को साथ ले कर जाना पड़ता था. इस के लिए उसे छुट्टियां लेनी पड़ती थीं, जिस की वजह से उसे काम से निकाल दिया गया था.

राधेश्याम बताते हैं, ‘‘मेरी बेटी के साथ रेप हुआ था, लेकिन उस की शिकायत करने पर थाना, अस्पताल और कचहरी में वही बात इतनी बार पूछी गई कि मुझे रोजरोज उस पीड़ा से गुजरना पड़ता था.’’

एससीएसटी तबके की ज्यादातर औरतें और लड़कियां मजदूरी करती हैं. ऐसे में उन को पैसा देने वाले ठेकेदार और मैनेजर टाइप के लोग पैसा देने के बहाने जबरदस्ती करते हैं. उन को ज्यादा पैसा देने की बात कह कर सैक्स हिंसा करना चाहते हैं.

आज बड़ी तादाद में घरेलू नौकर के रूप में काम करने वाली लड़कियों और औरतों के साथ भी ऐसी वारदातें खूब हो रही हैं. 1997 में विशाखा कमेटी के दिशानिर्देश केवल कागजी साबित हो रहे हैं. इन औरतों और लड़कियों के खिलाफ हिंसा काम करने की जगह और घर दोनों पर होती है. घरेलू काम करने वाली लड़कियों की उम्र 15 से 18 साल होती है. ये शारीरिक हिंसा की सब से ज्यादा शिकार होती हैं.

बदनामी भी इन्हीं की होती है

बहुत सारी जागरूकता के बाद भी सैक्स हिंसा और रेप जैसी घटनाओं को महिलाओं के किरदार से जोड़ कर देखा जाता है. इस में कुसूरवार औरत या लड़की को हीबदचलनसमझ जाता है. उसे ही ज्यादातर कुसूरवार साबित किया जाता है.

रुचि नामक एक एससी तबके की लड़की अपने परिवार की मदद करने के लिए एक डाक्टर के यहां घरेलू नौकरी करती थी. डाक्टर के पति ने उस को लालच दे कर अपने साथ सैक्स करने के लिए तैयार कर लिया. एक दिन उन की पत्नी ने देख लिया. पतिपत्नी में थोड़ी नोकझों हुई.

इस का शिकार रुचि बनी. उसे बदचलन बता कर काम से निकाल दिया गया. इस के बाद उस
पूरी कालोनी में रुचि को दूसरी नौकरी नहीं मिली. बदनामी से बचने के लिए इस बात को दबा दिया गया.

रेप को हादसा मान कर घरपरिवार और समाज उस लड़की को आगे नहीं बढ़ने देते हैं. उस को बदचलन सम? जाता है. ऐसे में वह जिंदगीभर उस दर्द को भूल नहीं पाती है. ऐसे में एससीएसटी परिवारों में लड़कियों की शादी जल्दी करा दी जाती है, जिस से किसी तरह की बदनामी से बचा जा सके.

यह बात और है कि कम उम्र में शादी और मां बनने से लड़कियों का कैरियर और हैल्थ दोनों पर ही बुरा असर पड़ता है, जिस से तरक्की की दौड़ में वे पूरे समाज से काफी पीछे छूट जाती हैं.

एससीएसटी समाज की लड़कियों के लिए सब से मुश्किल अपने ही घरपरिवार के लोगों को समझाना होता है, जिस की वजह से उन की स्कूली पढ़ाई पूरी नहीं होती है और वे तालीम से आज भी कोसों दूर हैं.

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