थार की बेटी का हुनर: भाग 2

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रूमा देवी महिलाओं को ट्रेनिंग के साथ मार्केटिंग के गुर भी सिखाती हैं. वह इन महिलाओं के उत्पादों को सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर तक पहचान दिला चुकी हैं.

लंदन, जर्मनी, सिंगापुर और कोलंबो के फैशन वीक्स में भी उन के उत्पादों का प्रदर्शन हो चुका है. अपनी कला के सिलसिले में रूमा को पहली बार फैशन शो देखने दिल्ली जाने का मौका मिला था. वहां रूमा को पता चला कि वह दूसरे लोगों से कितनी पीछे हैं.

काफिला चला तो मंजिल मिलती गई

उस समय बाड़मेर की हस्तकला को कोई नहीं जानता था. अपने हुनर को पहचान दिलाने के लिए रूमा देवी ने कौटन की साडि़यों के साथ अन्य कपड़ों पर कशीदाकारी करानी शुरू की.

राजस्थान हेरिटेज वीक में पहली बार फैशन शो करने के लिए रूमा जयपुर गई थीं. वहां जितने भी नामचीन फैशन डिजाइनर आए हुए थे, वे उन सभी से मिलीं. लेकिन उन लोगों ने उन्हें निगेटिव रिस्पौंस दिया. उन्होंने कहा, ‘‘रूमाजी, फैशन शो में शामिल होना आप के स्तर का काम नहीं है.’’

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इस कटाक्ष ने रूमा के अंदर आग भर दी. इस के बाद रूमा ने अपना काम सुधारने की जिद ठान ली. उन्होंने एक महीने में अपने नए प्रोडक्ट तैयार किए, फिर बाड़मेर में अपना फैशन शो किया. रूमा और उन की टीम ने घूंघट में ही रैंप पर कैटवाक किया तो लोगों की तालियां रुक ही नहीं रही थीं. यह रूमा की पहली सफलता थी. इस के बाद रूमा को राजस्थान स्थापना दिवस पर जयपुर में हुए मेगा शो में प्रदर्शन का मौका मिला.

उस कार्यक्रम को 112 देशों में लाइव दिखाया गया. रूमा व उन की अन्य सहयोगियों ने खुद की कशीदाकारी की हुई पारंपरिक रंगबिरंगी वेशभूषा में जब रैंप पर वाक किया तो लोग देखते रह गए.

राजस्थानी वेशभूषा को इस रूप में विदेश में पहली बार देखा जा रहा था. इस का फायदा यह हुआ कि रूमादेवी को कई फैशन डिजाइनरों से और्डर मिलने लगे.

इस बीच जर्मनी के टैक्सटाइल शो में रूमा को जाने का मौका मिला तो उन्हें यकीन नहीं हो रहा था कि जिस ने आठवीं की पढ़ाई बीच में छोड़ दी हो, वह विदेश जा रही है. रूमा की बारी आई तो वह सुईधागा ले कर अपना हुनर दिखाने लगीं. रूमा की कशीदाकारी देख कर विदेशी डिजाइनर अचंभित रह गए.

सन 2017 में दिल्ली फेयर रनवे शो में बाड़मेर क्राफ्ट से तैयार स्टाइलिश परिधानों में रूमा व उस की सहयोगियों ने प्रस्तुति दी.

अपने काम की बदौलत रूमा को सरकार व विदेश से ढेर सारे अवार्ड मिल चुके हैं. सन 2017 के गणतंत्र दिवस समारोह में प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल कल्याण सिंह ने उसे प्रशस्ति पत्र दे कर सम्मानित किया.

इस के अलावा नीदरलैंड ने वूमन औफ विंग्स पुरस्कार दिया. जैपोर ई-कौमर्स ने उसे हुनरमंद अवार्ड दिया. हस्तशिल्प कला संवर्धन, केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने भी इन्हें सम्मानित किया. इस के अलावा रूमा को विश्व के 51 प्रभावशाली लोगों में अंतरराष्ट्रीय सीएसआर अवार्ड, शिल्प सृजन अवार्ड से सम्मानित किया जा चुका है.

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर 8 मार्च, 2019 को रूमा देवी को राष्ट्रपति रामनाद कोविंद ने नारी शक्ति अवार्ड से सम्मानित किया. बाड़मेर में पहली बार किसी महिला को सर्वोच्च नारी शक्ति के रूप में सम्मान मिला है. यह सम्मान रूमा देवी को हस्तशिल्प कला में नवाचार के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम करने पर दिया गया.

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पुरस्कार में उन्हें प्रशस्ति पत्र के साथ एक लाख रुपए की राशि प्रदान की गई. महिला व बाल विकास मंत्रालय, महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में विशेष योगदान देने वाली महिलाओं को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर नारी शक्ति पुरस्कार प्रदान करता है.

नारी शक्ति पुरस्कार मिलने के बाद देश भर से आई तमाम अवार्ड पाने वाली महिलाओं से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुलाकात की. प्रधानमंत्री ने रूमा देवी से बात की और उन्हें बधाई दी. मोदी ने कहा, ‘रूमादेवी जी, मैं आप के बारे में इंडिया टुडे में पढ़ चुका हूं. आप का काम व योगदान बहुत महत्त्वपूर्ण है. राजस्थान के पिछड़े जिले में 75 गांवों की 22 हजार से ज्यादा महिलाओं को घर बैठे रोजगार देना कोई मामूली बात नहीं है. यह बहुत बड़ी उपलब्धि है. आप और आगे बढ़ो, मेरी शुभकामनाएं आप के साथ हैं.’

लगने लगी पुरस्कारों की झड़ी

राष्ट्रपति से नारी शक्ति अवार्ड मिलने के बाद रूमा देवी को एक और कामयाबी मिली है. उन्हें अब डिजाइनर औफ द ईयर 2019 के अवार्ड से नवाजा गया है. रूमा देवी ने दिल्ली में कई फैशन डिजाइनर्स को पीछे छोड़ यह अवार्ड जीता है.

दिल्ली के प्रगति मैदान टैक्सटाइल फेयर्स इंडिया (टीएफआई) द्वारा फैशन शो प्रतियोगिता हुई, जिस में देश भर के नामी डिजाइनर्स के साथसाथ रूमा देवी ने भी अपने समूह के कलेक्शन रैंप पर उतारे थे.

इस प्रतियोगिता का पहला राउंड रूमा देवी ने मई 2019 में क्लियर कर लिया था, जिस में पूरे भारत से 14 प्रतिभावान यंग डिजाइनर्स को दूसरे राउंड के लिए चयनित किया गया.

16 जुलाई, 2019 को प्रतियोगिता के फाइनल राउंड में रूमादेवी का ब्लैक एंड वाइट कलेक्शन प्रथम स्थान पर रहा. टीएफआई की ओर से आयोजित फैशन शो प्रतियोगिता जीतने के साथ ही रूमा देवी को पेरिस (फ्रांस) का टूर पैकेज भी मिला है. रूमा देवी और उन का समूह फ्रांस जा कर वहां बाड़मेर के हस्तशिल्प के लिए नए संभावनाओं की तलाश करेंगी.

इस शो में फैशन गुरु एवं डायरेक्टर प्रसाद बिडप्पा, सुपर वुमन मौडल नयनिका चटर्जी, वरिष्ठ डिजाइनर अब्राहम एंड ठाकुर, पायल जैन, टी.एम. कृष्णमूर्ति एवं टैक्सटाइल इंडस्ट्री के 240 समूहों के प्रतिनिधि व 40 देशों के व्यापार प्रतिनिधियों सहित फैशन जगत की विभिन्न हस्तियां शामिल रहीं.

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बाड़मेर के पड़ोसी जिलों जैसलमेर, जोधपुर व बीकानेर आने वाले सात समंदर पार के विदेशी सैलानियों को रूमादेवी एवं उन के समूह के उत्पाद खास पसंद आने लगे हैं. रूमादेवी कहती हैं कि जब बिचौलिए एजेंट पहले उन से हस्तशिल्प के काम के बदले थोड़ी मजदूरी दे कर बाकी के रुपए डकार जाते थे, तब से ही उन्होंने कमर कस ली थी कि वह इन एजेंटों का खेल खत्म कर के कार्य करने वाली हस्तशिल्पी महिलाओं को उन के हक का पैसा दिलाएंगी.

लेकिन रूमा को दुख है कि हस्तशिल्प के काम में लगी महिलाओं को आज भी वाजिब मजदूरी नहीं मिल रही. उन की उन्नति के लिए वह रातदिन इसी काम में लगी रहती हैं. इस की वजह से वह अपने एकलौते बेटे को भी समय नहीं दे पातीं.

उन के पति टीकूराम हर कदम पर उन का साथ देते हैं. टीकूराम अपने बेटे को भी संभालते हैं. उन्हें पता है कि रूमा के पास बहुत काम है.

रूमा देवी ने बताया कि एंब्रायडरी का मतलब होता है धागे से कपड़े पर काम करना. समूह में काम करने वाली अधिकांश महिलाएं अनपढ़ हैं. ये अनपढ़ महिलाएं एक प्रकार की डिजाइन तैयार करती हैं.

वे गिनगिन कर अलगअलग रंग के धागों से कशीदाकारी करती हैं. महीन कढ़ाई की जाती है. कपड़े पर एंब्रायडरी देख कर लगता नहीं कि ये हुनर अनपढ़ ग्रामीण महिलाओं के हाथों का है. मगर सच यही है कि ये महिलाएं फैशन डिजाइनर्स को पीछे छोड़ देती हैं.

महिलाएं एप्लीक का काम भी करती हैं. एप्लीक के काम में 2 कपड़े लिए जाते हैं. कपड़े की कटिंग कैंची से नहीं, छेनी और हथौड़ी से की जाती है. छेनी से खांचे बना कर कपड़े पर एप्लीक की जाती है. लकड़ी के गट्ठे पर कागज रख कर कागज पर तह किया कपड़ा रख कर छेनी से कपड़े पर खांचे बनाए जाते हैं.

खांचे छेनी और हथौड़ी से एक बार में कम से कम 10 पीस बनाए जाते हैं. अगर थोड़ी सी भी छेनी इधरउधर हो गई तो कपड़े का पूरा डिजाइन खराब हो जाने की संभावना रहती है. इसलिए कपड़े पर बहुत सावधानी से खांचे बनाए जाते हैं.

कटिंग के बाद कपड़े को ग्वार के गम के पानी से भिगो कर कड़क किया जाता है. फिर पेस्ट कर के महिलाओं को तुरपाई के लिए दिया जाता है. महिलाएं तुरपाई कर के कपड़े पर हाथ से सुईधागे द्वारा डिजाइन बनाती हैं. बड़ी डिजाइन कपड़े पर बनाने में कम समय लगता है जबकि छोटी डिजाइन में समय ज्यादा लगता है.

एक कुशन कवर 2 दिन में तैयार होता है. इसी से आप समझ सकते हैं कि इन शिल्पकारों को कितना परिश्रम करना पड़ता है. उस के हिसाब से इन्हें मजदूरी कम मिलती है.

कपड़े पर डिजाइन करने के बाद उस कपड़े को 12 घंटे तक पानी में भिगो कर रखते हैं ताकि ग्वार गम का कड़कपन उतर कर कपड़ा मुलायम हो जाए. इस से कपड़े का डिजाइन निखर आता है. यह कपड़ा बाजार में मांग के हिसाब से बेच दिया जाता है. इस तरह थार की महिलाएं घर बैठे काम कर के पैसे कमा रही हैं.

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कई महिलाओं के निठल्ले पति तो शराब पी कर घर पर पड़े रहते हैं. उन का पालनपोषण ये महिलाएं कर रही हैं. ग्रामीण विकास एवं चेतना संस्थान के सचिव विक्रम सिंह चौधरी ने रूमा देवी को जो राह दिखाई, वह उसी पर चल कर आज इस मुकाम तक पहुंची हैं. रूमा देवी उन्हें अपना गुरु मानती हैं.

रूमा देवी की लगन और परिश्रम ने बाड़मेर के क्राफ्ट डिजाइनरों और शिल्पकारों के लिए संभावनाओं के द्वार खोल दिए हैं. रूमा देवी ने 20 सितंबर को टीवी शो ‘कौन बनेगा करोड़पति’ में भी भाग लिया, जिस में उन्होंने साढ़े 12 लाख रुपए जीते थे. इस मौके पर महानायक अमिताभ बच्चन ने भी उन के हस्तशिल्प कार्य की सराहना की.

रूमा देवी ने अपने हुनर से न केवल राजस्थान का नाम रोशन किया, बल्कि यह भी साबित कर दिया कि कामयाबी के लिए अगर मन में लगन हो तो दुनिया में हुनर बोलता है.

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थार की बेटी का हुनर: भाग 1

राजस्थान के सीमावर्ती जिलों बाड़मेर, जैसलमेर, बीकानेर से पाकिस्तान की सीमा लगी हुई है. जैसलमेर और बाड़मेर जिलों की सीमा के सामने पाकिस्तान का सिंध प्रांत है. सिंध में राजस्थान के सैकड़ों लोगों के रिश्तेदार हैं. सिंध के अमरकोट के सोढ़ा राजपूतों की रिश्तेदारियां जैसलमेर, बाड़मेर और जोधपुर के तमाम गांवों में हैं. इन जिलों से लगती पाक सीमा पर जब से तारबंदी हुई, तब से लोग परेशान हैं. तारबंदी से पहले इन जिलों के लोग पाकिस्तान में अपनी रिश्तेदारी में हो आते थे. पाक के लोग भी भारत में आ जाते थे और शादीब्याह कर के लौट जाते.

सिंध और पश्चिमी राजस्थान के लोगों की बोलचाल की भाषा और रहनसहन मिलताजुलता है. इसलिए उन की यह पहचान नहीं हो पाती थी कि वे भारतीय हैं या पाकिस्तानी.

1965 और 1971 के भारतपाक युद्ध के दौरान कई लोग पाक से जैसलमेर, बाड़मेर के गांवों में आ बसे थे. इन में ज्यादातर हिंदू थे. उन परिवारों की महिलाएं हस्तशिल्प के काम में निपुण थीं.

ये महिलाएं हस्तशिल्प कला गुदड़ी (राली), रूमाल, बैडशीट, तकिया कवर, चादर, पर्स, बैग और अन्य चीजों पर हाथ से ऐसी कशीदाकारी करती हैं कि देखने वाला देखता रह जाए. इन अनपढ़ महिलाओं का हुनर पढ़ेलिखे फैशन डिजाइनरों को भी पीछे छोड़ देता है.

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पाकिस्तान से आए इन शरणार्थियों के पास राजस्थान में न तो जमीन थी और न ही रोजगार के साधन. बाड़मेर, जैसलमेर के गांवों में बिजली, पानी, सड़क, विद्यालय आदि की भी व्यवस्था नहीं थी. गांवों में मजदूरी का भी कोई साधन नहीं था. इस के अलावा हर साल पड़ने वाले अकाल ने भी इस इलाके में भुखमरी बढ़ाने का काम किया.

पाकिस्तान से आए शरणार्थी परिवारों की महिलाओं की हस्तकला ने यहां पर दो जून की रोटी का प्रबंधन किया. उन दिनों एजेंट कपड़ा ला कर इन महिलाओं को दे देते थे. ये महिलाएं उस कपडे़ पर आकर्षक दस्तकारी कर के कपड़े की कीमत दोगुनी कर देतीं.

एजेंट इन अशिक्षित गरीब महिलाओं को अनाज व चंद रुपए दे कर बाजार में मोटा मुनाफा कमाते थे. गांवों में उन दिनों भेड़ की ऊन से भी कपड़े, दरियां, पट्टू, बरड़ी आदि बनाए जाते थे. गांव के लोग बुनकर को ऊन दे कर कपड़े बनवाते थे. बुनकर आधी ऊन स्वयं रख कर आधी ऊन से कपड़े बुन कर गांव वालों को दे देते थे.

कहने का मतलब यह कि इस इलाके में उन दिनों बहुतों ने गरीबों को ठगने का काम किया. गांव के लोगों के पास उस समय और कोई चारा नहीं था. इसलिए सब कुछ समझते हुए वे शोषण का शिकार बनते रहे. दशकों से हस्तशिल्प कला का इस इलाके में काम होता रहा, मगर इसे पहचान कोई नहीं दिला सका.

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बहुत संघर्ष किया थार की बेटी ने

बाद में बाड़मेर की इस कला को थार की बेटी रूमा देवी ने विश्वस्तर पर पहचान दिलाई. उन की वजह से आज पूरे विश्व में बाड़मेर का नाम है. अपनी कोशिश से 8वीं तक पढ़ी रूमा देवी ने 75 गांवों में करीब 22 हजार महिलाओं की जिंदगी बदल दी है.

राजस्थान के सीमावर्ती जिले बाड़मेर में एक गांव है रावतसर. इसी गांव के खेताराम चौधरी की बेटी हैं रूमा देवी. खेताराम गरीब किसान थे. किसी तरह परिवार की गुजरबसर चल रही थी. उन की 7 बेटियां थीं. रूमा जब 4 साल की हुई तो मां का देहांत हो गया. उस छोटी बच्ची की परवरिश उस की दादी और चाची ने की.

पिता खेताराम ने तो पत्नी की मौत के बाद दूसरी शादी कर ली थी. रूमा चाचाचाची के पास रही. उन्होंने ही उसे पालापोसा. 8वीं पास करने के बाद रूमा आगे भी पढ़ना चाहती थी लेकिन चाचाचाची ने पढ़ाई छुड़वा कर उसे घर के काम में लगा दिया.

रूमा की दादी कशीदाकारी करती थीं. उन के साथ रूमा भी यह काम बखूबी सीख गई. घर के काम निपटाने के बाद रूमा दस्तकारी करती थी. रूमा को घर के कामों के लिए 10 किलोमीटर दूर से बैलगाड़ी द्वारा पानी लाना पड़ता था.

मोहल्ले के कुछ लोग भी उस से अपने लिए पानी मंगा लेते थे. इस के बदले में वे उसे कुछ पैसे जरूर दे दिया करते थे. इस तरह लोगों की प्यास बुझाने के साथसाथ उसे कुछ आमदनी भी हो जाती थी.

रूमा जब 17 साल की हुई तो उस की शादी बाड़मेर जिले के गुड़ामालानी तहसील के गांव मंगला की बेरी निवासी टीकूराम चौधरी के साथ हो गई. रूमा का बाल विवाह हुआ था. टीकूराम के पिता कहीं छोटी सी नौकरी करते थे, जिस की वजह से उन्हें परिवार के साथ बलदेव नगर कच्ची बस्ती में रहने के लिए विवश होना पड़ा था.

रूमा भी शादी के बाद ससुराल मंगला की बेरी से बाड़मेर शहर आ गई. वह ससुराल में खुश थी. मगर यहां भी गरीबी ने उस का पीछा नहीं छोड़ा था. ससुर की नौकरी से बमुश्किल घर का खर्च चलता था.

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शादी के 2 साल बाद रूमा ने एक बेटे को जन्म दिया. बेटा कमजोर था. उस का इलाज कराने के भी पैसे नहीं थे, जिस से 2 दिन बाद ही उस की मौत हो गई थी. बेटे की मौत ने उसे झकझोर कर रख दिया था.

रूमा ने उसी समय तय कर लिया था कि वह चूल्हेचौके में जिंदगी खपाने के बजाय कोई ऐसा काम करेगी, जिस से दो पैसे आएं. लेकिन उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह काम कौन सा करे. तभी उस के दिमाग में बैग बनाने का विचार आया.

सोचनेविचारने के बाद रूमा ने एक पुरानी सिलाई मशीन खरीदी और छोटेमोटे बैग बनाने लगी. वह बाजार से बैग बनाने का सामान खरीद कर लाती, फिर बैग बना कर दुकानों पर सप्लाई करने जाती. घर की जिम्मेदारियों के साथ बैग बनाने के लिए रूमा अकेली ही संघर्ष करती रही.

कुछ महीनों बाद उस के बनाए बैग की मांग बढ़ने लगी तो रूमा ने मोहल्ले की अन्य महिलाओं को अपने साथ जोड़ना शुरू कर दिया. महिलाओं को जब पैसे मिलने लगे तो वे भी मन से काम करने लगीं.

काम बढ़ा तो सन 2008 में रूमादेवी ने 10 महिलाओं के साथ ‘दीप देवल महिला स्वयं सहायता समूह’ का गठन किया. रूमा के पास इतने पैसे नहीं थे कि वह बैग बनाने का सामान इकट्ठा खरीद सके. दुकानदार भी उसे जान गए थे. वे उसे उधार में सामान दे देते थे. बैगों की बिक्री कर के वह सभी के पैसे चुका देती थी. यह सिलसिला कई महीनों तक चला.

बलदेवनगर क्षेत्र में ही ग्रामीण विकास चेतना संस्थान का कार्यालय था. रूमा वहां गई और सेक्रेटरी विक्रम सिंह चौधरी से मिल कर उन से हस्तशिल्प के लिए सहयोग मांगा. इस पर वहां के अध्यक्ष ने कुछ सैंपल बना कर दिखाने को कहा. रूमा ने अन्य महिलाओं के साथ कई दिनों तक सैंपल तैयार किए.

खुद ढूंढी राह रूमा ने

सैंपल देख कर विक्रम सिंह खुश हुए. इस से उन्हें यकीन हो गया कि रूमा एवं उस की साथी महिलाएं अच्छा काम कर सकती हैं, इसलिए उन्होंने रूमा को पहला और्डर दिला दिया. रूमा और उस की साथी महिलाओं ने तय समय पर उन का और्डर पूरा कर के दे दिया.

काम अच्छा था, इसलिए रूमा के उत्पाद की तारीफ होने लगी. काम की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए रूमा ने समूह में काम करने वाली महिलाओं को ट्रेनिंग देनी शुरू कर दी. इस के अलावा उन्होंने कच्ची बस्ती की अन्य महिलाओं को हस्तकला सिखाई.

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सन 2008 से 2010 तक रूमा ने करीब 1500 महिलाओं को हस्तकला के कई पैटर्न सिखा कर अपनी संस्था से जोड़ा. रूमा का व्यवहार एवं काम के प्रति लगन, मेहनत और ईमानदारी देख कर सभी महिलाओं ने रूमा देवी को ग्रामीण विकास एवं चेतना संस्थान की अध्यक्ष चुन लिया.

अध्यक्ष चुने जाने के बाद रूमा की जिम्मेदारी और बढ़ गई थी. रूमा को रोजाना 10 से 12 घंटे काम करना पड़ता था. बाड़मेर शहर के बाद रूमा गांवगांव, ढाणीढाणी पहुंच कर वहां की महिलाओं को हस्तकला के लिए प्रेरित करने लगीं.

शुरू में रूमा को इस काम में सफलता नहीं मिली. मर्द तो यह कहने लगे थे कि यह उन की बय्यरवानियों को बिगाड़ देगी. लेकिन रूमा के अंदर काम करने की ललक थी, इसलिए उस ने हिम्मत नहीं हारी.

ग्रामीण महिलाओं से मिल कर उन्हें घर बैठे काम और मजदूरी देने का वादा किया तो महिलाएं मान गईं. इस के बाद उन के पति भी रूमा का आदरसम्मान करने लगे.

दरअसल, पश्चिमी राजस्थान के जैसलमेर, बाड़मेर, जोधपुर, बीकानेर जिलों के सभी गांवों ढाणियों में आज भी परदा प्रथा कायम है. हालांकि घूंघट से महिलाएं छुटकारा चाहती हैं, मगर पुरुष प्रधान समाज में उन की  एक नहीं चलती.

इस कारण छाती तक घूंघट निकालती महिलाएं अपने घर में ही कैद रहने को मजबूर हैं. घर का काम निपटा कर महिलाएं घर में ही पड़े रह कर समय बिताती हैं. उन के पास और कोई काम नहीं रहता.

आजकल पढ़ीलिखी बहुएं गांवों में आने लगी हैं. उन्हें भी रिवाज के अनुसार ससुराल में रहना पड़ता है. इसलिए राजस्थान में 21वीं सदी में भी परदा प्रथा कायम है. ऐसे रूढि़वादी परिवेश में रूमादेवी ने किस तरह महिलाओं और उन के घर वालों को समझा कर काम से जोड़ा, इस की कल्पना की जा सकती है.

रूमा को बहुत संघर्ष करना पड़ा. मगर उस ने हिम्मत नहीं हारी. उसी संघर्ष और साहस का परिणाम यह है कि आज उस ने बाड़मेर के मंगला की बेरी, रावतसर सहित 3 बड़े जिलों बाड़मेर, जैसलमेर और बीकानेर के 75 गांवों की करीब 22 हजार महिलाओं को आर्थिक स्वतंत्रता दिलाई.

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रूमा की वजह से बाड़मेर, बीकानेर और जैसलमेर की ये महिलाएं आत्मनिर्भर बन कर खुद के पैरों पर खड़ी हो गई हैं. इन महिलाओं में पाकिस्तान से आए उन शरणार्थी परिवार की महिलाओं भी शामिल हैं,जो हस्तकला में पारंगत हैं.

जानें आगे क्या हुआ अगने भाग में…

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