नरेंद्र मोदी के राज में महंगी ट्रेनें और खाली बटुआ

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को रैपिड रेल ट्रांजिट सिस्टम के 18 मील के हिस्से का उद्घाटन करने का समय दिया गया, यह देश के लिए बड़े गौरव की बात है. 18 घंटे काम करने वाले नरेंद्र मोदी को रेलों के उद्घाटनों में बहुत मजा आता है चाहे उन की ही झंडियां दिखाई हुईं रेलें महंगी और बेमतलब होने के कारण खाली क्यों न चल रही हों. अधिकतर वंदेभारत ट्रेनें खाली चल रही हैं.

यह रैपिड रेल ट्रांजिट सिस्टम कब चालू होगा पता नहीं. उसे दिल्ली से मेरठ तक जाना है पर दिल्ली में जंगपुरा के पास बारापुला के पास तो इस के खंबे अभी तो लोहे के रावण जैसे लग रहे हैं जिन पर कागज मड़ा जाना है.

अभी जो 18 मील का सफर है उस का किराया साधारण श्रेणी का 50 रुपया है. इस रेल तक पहुंचने और फिर आखिरी स्टेशन से घर, औफिस या दुकान तक पहुंचने में जो खर्चा होगा, वह अलग. साधारण वाहन भी हो तो 18 किलोमीटर के साथ जो अलग से खर्च होगा उसे मिला कर यह रेल की झंडी बटुए को खाली करने का इशारा आया है.

हमारे देश में पिछले सालों में बहुतकुछ बन रहा है. संसद भवन बना, भारत मंडपम बना, सरदार पटेल का स्टैचू बना, बड़े लंबे हाईवे बने, विशाल एयरपोर्ट बने. पर क्या इस में वे लोग चलेंगे या वे वहां छुट्टी मनाने जाएंगे जिन्होंने इसे बनाया? नहीं, क्योंकि किसी भी जगह आम आदमी की पहुंच नहीं है. न उस के पास पैसा है, न रुतबा है, न उसे जरूरत है.

जनता का पैसा मंदिरों के रास्तों या जी-20 की आवभगत में खर्च किया जा रहा है. जनता के पैसे से बने स्टेडियमों में क्रिकेट मैच हो रहे हैं, जहां 5-6 घंटे के हजारों के टिकट लगते हैं और काम सिर्फ ‘हाहाहूहू’ करना होता है.

दुनिया में हंगर इंडैक्स में 125 देशों में से 111वीं जगह पर होने वाला देश इसे ऐयाशी का नाम न दे तो क्या करे. प्रधानमंत्री ने अपने लिए 2-2 विशाल विमान खरीदे, न जाने कितने हैलीकौप्टर इस्तेमाल होते हैं, कहीं जाएं तो लंबाचौड़ा बंदोबस्त होता है. जनता के प्रधानमंत्री के फैसले जनता से दूर रह कर किए जा रहे हैं और 100 महीनों से यही हो रहा है.

रैपिड रेल ट्रांजिट सिस्टम में जाने में मजा आ सकता है पर यह अभी उस स्टेज पर नहीं है कि राज्य या किसी शहर को कोई फायदा हो. वैसे भी जरूरत भी ऐसी बसों की जो चाहे एयरकंडीशंड न हों पर इतनी दुरुस्त हों जो बिना रास्ते में खराब हुए उतनी ही दूरी उतनी ही देर में पूरी करा दें.

जरूरत सड़कों के मैनेजमैंट की है. सड़कों की भीड़ आम लोगों का समय बरबाद न करे, यह पहला काम है. अगर रैपिड ट्रेन बनानी हैं तो वे सस्ती हों चाहे एयरकंडीशंड न हों. ऐसे प्लेटफार्म से चलें जहां पानी मुफ्त मिलता हो, 20 रुपए में पूरीआलू मिल जाए न कि ऐसे से जहां पानी की बोतल 50 रुपए की हो और कम से कम खाना 300 रुपए का हो.

जरूरत नई तकनीक पैर से चलने वाले या बैटरी रिकशों की है जिन से पुलिस वाले रिश्वत न लें और जिन पर करोड़ोंअरबों की सड़कों पर चलने से मनाही न हो.

एक प्रधानमंत्री को एयरकंडीशंड रेलों, गाडि़यों, हवाईजहाजों में नहीं, सड़कों पर चलने की आदत होनी चाहिए.

अमित शाह का बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर हमला

बिहार के पूॢणया में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर हमला करते हुए भारतीय जनता पार्टी के गृहमंत्री अमित शाह ने भारतीय जनता पार्टी का साथ छोड़ कर राष्ट्रीय जनता दल का दामन इसलिए पकड़ा कि वह प्रधानमंत्री बन सकें. यह सही है पर इस को मान लेने का अर्थ है कि अमित शाह अब इस संभावना के लिए तैयार हैं कि नरेंद्र मोदी का काल समाप्त हो सकता है. अभी कुछ दिन पहले तक भारतीय जनता पार्टी तो नरेंद्र मोदी के 2029 और 2034 के चुनाव भी जीत लेने की बात करती रही है.

अमित शाह ने आरोप लगाया कि नीतीश कुमार अपने फायदे के लिए खेमे बदलते रहे हैं पर यह आरोप तो नीतीश कुमार की जगह भारतीय जनता पार्टी पर ज्यादा लगना चाहिए जो सारे देश में चुने हुए विधायकों को अपनी पार्टी में शामिल कर के सरकारों पर कब्जा कर रही है. अपने फायदे में तो भाजपा ज्यादा रही है जो दंड और अर्थ का इस्तेमाल कर के दलबदल करा रही है.

नीतीश कुमार ने अगर उस समय पार्टी का साथ छोड़ा जब भाजपा एकएक कर के कई राज्यों में अपनी जांच एजेंसियों के सहारे सत्ता में आने लगी थी. अमित शाह ने नीतीश कुमार की कलाबाजियां गिनाईं पर भाजपा खुद कभी रामविलास पासवान तो कभी ज्यातिर्मय ङ्क्षसधिया तो कभी अमङ्क्षरद्र ङ्क्षसह जैसे घोर भाजपा विरोधियों को बड़े ढोल बजा कर शामिल करती रही है.

राजनीति में दलबदल अगर सिद्धांतो की असहमति के कारण हो तो ठीक है पर पिछले सालों में यह केवल जांच एजेंसियों के डर या पैसे के कारण होने लगा है जो देश की बचीखुची राजनीतिक विश्वसनीयता का लगभग नष्ट कर चुका है. आज किसी पार्टी को भरोसा नहीं है कि उस का उम्मीदवार जीतने के बाद कब तक पार्टी में रहेगा. जैसे ही भाजपा कहीं भी कमजोर होने लगेगी, यह बिमारी भाजपा में फूटने लगेगी क्योंकि भाजपा ने दलबदल का वायरस खुशीखुशी अपनी पार्टी में मिलाया है.

नीतीश कुमार प्रधानमंत्री बन सकें या न सकें, इस से ज्यादा अमित शाह का यह आरोप यह सिद्ध करने के लिए काफी है कि हाल में ही प्रधानमंत्री पद पर बदलाव संभव है. यह थोड़ा अपने में ही अजूबा है.

संसद में कर्मकांड और प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी

देश के नए संसद भवन के उद्घाटन के दरमियान प्राचीन रीति-रिवाजों के नाम पर जिस तरह कर्मकांड दुनिया और हमने देखे हैं उससे यह संदेश गया है कि आजाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु की वैज्ञानिक सोच से इतर आज का भारत यह है जो हवन और कर्मकांड में विश्वास रखता है . क्योंकि इसके बगैर न तो देश की तरक्की हो सकती है और न ही समाज की. संभवत नरेंद्र दामोदरदास मोदी को यह विश्वास और आस्था है कि पंडित पुरोहितो के सामने समर्पण करने से देश दुनिया का सरताज बन सकता है और तथाकथित रूप से विश्व गुरु भी.

यह सब देखने के बाद कहा जा सकता है कि आज देश उस चौराहे पर खड़ा है जहां से एक बार फिर पोंगा पंथ और पुरातन पंथी विचारधारा को  सरकार और  सबसे ज्यादा प्रधानमन्त्री का प्रश्रय मिला है.

दरअसल, यह देश में  हिंदुओं की तुष्टिकरण के कारण और बहुलता के कारण यह सब किया जा रहा है. जो सीधे-सीधे संविधान और अंग्रेजों से लड़ते हुए शहीद हो जाने वाले लाखों लोगों का अवमान है. यह बताता है कि लोकतंत्र में सत्ता के लिए वोटों की राजनीति का भयावह चित्र कैसा हो सकता है. हमारे देश के संविधान में स्पष्ट रूप से अंकित है कि लोकतांत्रिक गणराज्य है. मगर आज हिंदुत्व वाली सोच कि भारतीय जनता पार्टी की सरकार के प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र दामोदरदास मोदी संविधान की भावना से हटकर के वह सब कर रहे हैं जो इसके पहले 75 वर्षों में कभी भी नहीं हुआ. और मजे‌ बात की लोग कह रहे हैं कि नए भारत का आगाज हो गया है. यह हास्यास्पद है की ऐसा महसूस कराया जा रहा है मानो बीते 75 साल हमारे देश के लिए अंधकार के समान थे और नरेंद्र मोदी की सत्ता आने के बाद देश सही अर्थों में आजाद हुआ है विकास की ओर बढ़ रहा है और दुनिया का नेतृत्व करेगा. मगर यह सब बातें मीडिया का हो हल्ला है. सच्चाई यह है कि देश जिस तरह अपनी संविधान की सीमाओं से हटकर के पीछे की ओर जा रहा है उससे देश की छवि दुनियां में पूरी तरह से बदल रही है जो भविष्य के लिए अच्छी नहीं कही जा सकती.

नेहरू और नरेन्द्र मोदी

तथ्य यह  है कि प्रधानमंत्री मोदी विपक्ष को सम्मान नहीं देते और उनके कार्य व्यवहार से महसूस होता है मानो विपक्ष को समाप्त कर देना चाहते हैं.  नरेंद्र मोदी बारंबार विपक्ष को नजरअंदाज कर और हंसी उड़ाते दिखाई देते हैं. अगर ऐसा नहीं है तो जब संसद के निर्माण का विचार नरेंद्र मोदी सरकार को आया तो उन्होंने विपक्ष से मिल बैठकर विचार विमर्श क्यों नहीं किया. जब उद्घाटन का समय आया तब उन्होंने विपक्ष के साथ विचार-विमर्श क्यों नहीं किया. देश सत्ता और विपक्ष के माध्यम से ही चलता है.  मगर नरेंद्र दामोदरदास मोदी की सोच  है कि विपक्ष को पूरी तरह से खत्म कर दिया जाए. यही कारण है कि नई संसद के उद्घाटन के दरमियान कांग्रेस और अन्य राजनीतिक दलों ने संसद भवन के उद्घाटन का बहिष्कार कर दिया. मगर उन्हें मनाने के लिए सकारात्मक   पहल नरेंद्र मोदी सरकार ने नहीं की. बल्कि  हुआ यह कि सरकार के चर्चित चेहरों द्वारा चाहे वह राजनाथ सिंह को या फिर स्मृति ईरानी द्वारा विपक्ष का मजाक बनाया गया और उन पर प्रश्नचिन्ह उठाए गए. इस संदर्भ में शरद पवार ने जो कहा है वह सौ फीसदी दी सच है.

राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के प्रमुख शरद पवार के मुताबिक,- “नए संसद भवन के बनाने से मैं खुश नहीं हूं. मैंने सुबह कार्यक्रम देखा है, अच्छा है मैं वहां नहीं गया. नई संसद मे जो कार्यक्रम हुआ उससे हम देश को पीछे ले जा रहे हैं.”

शरद पवार देश वरिष्ठ राजनेता है अगर उन्होंने उद्घाटन समारोह पर यह टिप्पणी की है तो यह देश की दुनिया की आवाज ही कही जा सकती है. उनके मुताबिक -“उद्घाटन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी  की विभिन्न रस्मों से यह प्रदर्शित हुआ  की देश को दशकों पीछे ले जाया जा रहा है , देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने वैज्ञानिक सोच रखने वाले समाज की परिकल्पना की थी, लेकिन नए संसद भवन के उद्घाटन समारोह में जो कुछ हुआ वह इसके ठीक उलट है.”

सचमुच यह दुखद है और जिसका टेलीकास्ट दुनियाभर में हुआ है सारी दुनिया जानती है कि भारत एक लोकतांत्रिक देश है जहां सभी जाति समुदाय के लोग प्रेम और सद्भाव के साथ रहते हैं, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी के एक कार्यक्रम से मानो सब कुछ मिट्टी पलीद हो गया.

संसद भवन का उद्घाटन के दौरान वहां हवन किया गया तथा लोकसभा अध्यक्ष के आसन के निकट राजदंड (सेंगोल) स्थापित किया गया. यह साला ढकोसला दुनिया ने देखा है और इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया है. जिसका दूरगामी असर भारत की राजनीति पर भविष्य पर पड़ने वाला है.

दरअसल,प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा आधुनिक भारत की अवधारणा की बात करने और नई दिल्ली में नए संसद भवन में की गई विभिन्न रस्मों में बहुत बड़ा अंतर है. जो सिर्फ हिंदुत्व की स्थापना और हिंदू तुष्टीकरण के कारण किया गया है. यह पूरी तरह संविधान की भावना के विपरीत है. वस्तुत: यह लोग ऐसे हैं कि अगर आज हिंदुओं की जगह कोई दूसरा जाति समुदाय बहुसंख्यक हो जाए तो यह लोग उनके पैरों में भी लोटने लगेंगे.

नए संसद भवन के उद्घाटन के अवसर पर देश के सभी छोटे बड़े नेताओं बुद्धिजीवियों ने अपने विचार रखे हैं ,ऐसे समय में शरद पवार का बयान अत्यंत महत्वपूर्ण है नए संसद भवन के उद्घाटन के संपूर्ण कार्यक्रम पर उनका यह कहना कि विज्ञान पर समझौता नहीं किया जा सकता. नेहरू ने वैज्ञानिक सोच वाले समाज का निर्माण करने की ओर निरंतर प्रयास किया. लेकिन आज नए संसद भवन के उद्घाटन समारोह में जो कुछ हुआ, वह उससे ठीक उलट है जिसकी नेहरू ने परिकल्पना की थी.

तालिबान: नरेंद्र मोदी ने महानायक बनने का अवसर खो दिया!

अफगानिस्तान पर  लाखों करोड़ों रुपए का निवेश करने और 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद दोस्ती का  नया गठबंधन करने के लिए जाने जाने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने जिस तरह अफगानिस्तान पर तालिबान का रातों-रात कब्जा हो गया और मौन देखते रहे यह देशभर में चर्चा का विषय बना हुआ है.

अगरचे, नरेंद्र दामोदरदास मोदी जिन्होंने अपनी छवि दुनिया में एक प्रभावशाली नेता के रूप में बनानी थी तो यह उनके पास एक सुनहरा अवसर था.

दरअसल, नरेंद्र दामोदरदास मोदी अफगानिस्तान के राष्ट्रपति से बातचीत करके उनकी मदद का हाथ बढ़ा देते तो दुनिया में मोदी और भारत की छवि कुछ अलग तरह से निखर कर सामने आ सकती थी.कहते हैं, संकट के समय ही आदमी की पहचान होती है यह एक पुरानी भी कहावत है.

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सभी जानते हैं कि भारत और अफगानिस्तान वर्षों वर्षों पुराने मित्र हैं और हाल में इस मित्रता का रिन्यूअल मोदी जी ने अफगानिस्तान को हर संभव सहयोग करके और वहां जाकर के किया था. उनके भाषण गूगल पर उपलब्ध हैं, ऐसे में  दृढ़ता का परिचय देते हुए नरेंद्र मोदी ने आगे बढ़कर के तालिबान का मुकाबला किया होता तो शायद राजीव गांधी की तरह उनकी छवि भी दुनिया में प्रभावशाली बन करके सामने आ सकती थी.

क्या आपको स्मरण हैं प्रधानमंत्री पद पर रहते राजीव गांधी ने श्रीलंका में लिट्टे के खिलाफ शांति सेना भेजी थी. जिसके परिणाम स्वरूप श्रीलंका और भारत के संबंध और भी मजबूत हुए थे और दुनिया में एक संदेश गया था कि भारत अपने आस-पड़ोस जहां भी अशांति फैलती है और मदद की आवश्यकता होती है तो आगे आ जाता है.

इसका दुनिया की राजनीति और मिजाज पर गहरा असर पड़ता यह दुनिया की महा शक्तियों के लिए भी एक सबक होता अमेरिका जब अफगानिस्तान को छोड़कर नौ दो ग्यारह हो रहा था सारी दुनिया आतंक के सामने नतमस्तक थी, ऐसे में नरेंद्र दामोदरदास मोदी का एक्शन दुनिया के लिए एक नजीर बन जाता.

आतंक का सफाया हो जाता

अफगानिस्तान पर जब तालाबानियों लड़ाकों ने आक्रमण किया, उस समय उनकी संख्या 75 हजार बताई गई है. और अफगानिस्तान के सैनिकों की थी संख्या 3 लाख.और तो और अफगानिस्तान के  पास हवा से आक्रमण करने के सैन्य साधन भी थे जो तालाबानी आतंकियों के पास नहीं थे.

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हमारा मानना है-  पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की नीति के अनुरूप श्रीलंका में जैसे उन्होंने शांति सेना भेजी थी अगर तालाबानियों के हमले के समय भारत अपनी “शांति सेना” भारत में उतार देता अथवा   बंगला देश निर्माण के समय की तरह सामने आता तो निश्चित रूप से 75 हजार तालाबानियों को आत्मसमर्पण करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता. और पूरी बाजी नरेंद्र दामोदरदास मोदी और भारत के हाथों में होती.

हमारा आकलन यह है कि…

तालाबानियों के आत्मसमर्पण के लिये भारत को बड़ा बलिदान भी नहीं देना पड़ता और चीन,पाकिस्तान तथा रूस जो तालाबानियों के खैरख्वाह बने हुए हैं उनको बोलने का कोई अवसर ही नहीं मिलता. राजनीति के जानकार वरिष्ठ पत्रकार  आर के पालीवाल के मुताबिक ऐसी स्थिति में  पूर्व से स्थापित राष्ट्रपति  और अफगानिस्तान सरकार जिससे भारत का मित्रवत सम्बन्ध है,उसी सरकार का अस्तित्व में रहता. अफगानिस्तान की सरकार ने भारत सरकार से मदद की गुहार न भी लगाई हो,उसके उपरांत भी भारत विश्व मंच पर बड़ी दृढ़ता के साथ अपनी बात रख सकता था कि पदस्थ सरकार पर आतंकियों के हमले को रोकने और पड़ोसी देश होने के कारण उसने ये कदम उठाया है.

अगरचे, आज भारत की जो ऊहापोह की स्थिति नहीं रहती और भारत की पूरे विश्व मे एक नई छवि भी बनती.

“शिक्षा नीति” की “ढोल और ढोंग” की पोल

कोरोना वायरस संक्रमण काल में देश की शिक्षा व्यवस्था पर जो आघात लगा है उस पर राष्ट्रव्यापी चर्चा करना आवश्यक है. इधर नरेंद्र मोदी सरकार ने नई शिक्षा नीति लागू कर दी है जिसके विरोध के स्वर भी उठने लगे हैं. क्योंकि किसी भी समाज में शिक्षा देश की “शिक्षा नीति” ही भविष्य की नींव को मजबूत बनाती है.

मगर कोरोना वायरस के आगमन के साथ देश की संपूर्ण शिक्षा व्यवस्था तार तार हो गई है. देश के सत्ताधारी मुखिया और कार्यपालिका को यह समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर शिक्षा को बुलंद बनाए रखने की तोड़ क्या हो सकती है. और ऐसे में आज जब देश में नई शिक्षा नीति लाद दी गई है  यह प्रसंग चर्चा का विषय है की कोरोना वायरस के इस समय में जब पहली प्राथमिकता लोगों की जिंदगी को बचाने की है लोगों को दो वक्त की रोटी मुहैया कराने की है. शिक्षा व्यवस्था के साथ किस तरह के प्रयोग किए जा रहे हैं. और भगवाधारी हरावल दस्ता  अपनी सोच को देश की युवा पीढ़ी के ऊपर लादने की षड्यंत्र पर अमल शुरू कर चुका  है.आज चिंता का विषय  है कि जब देश कोरोना के कारण त्राहि-त्राहि कर रहा है सत्ता में बैठी हुई नरेंद्र दामोदरदास मोदी की सरकार आहिस्ता से संपूर्ण शिक्षा नीति को ही बदल कर क्या देश को दुनिया के सबसे पीछे ले जाने की तैयारी कर रही है.

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सबसे बड़ी बात यह है कि जिस शक्ति और ताकत के साथ शिक्षा नीति का विरोध विपक्ष कांग्रेस को करना चाहिए था वह नहीं कर पा रही . दूसरी तरफ आज 7 अगस्त को प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी नई शिक्षा नीति पर देश को संबोधित करने जा रहे है. आज प्रधानमंत्री एक कॉन्क्लेव को संबोधित करेंगे. मानव संसाधन मंत्रालय का नाम बदल दिया गया है और शिक्षा विभाग के रूप में उसे जाना जाएगा. यानी अब वह समय आ गया है जब धीरे धीरे संपूर्ण व्यवस्था और संस्थाओं में आमूलचूल परिवर्तन होगा. यहां यह भी जानना जरूरी होगा कि नरेंद्र दामोदरदास मोदी सरकार अपने पुराने संघ के एजेंट पर आंखें बंद कर आगे बढ़ रही है. और कोई भी विरोध उसे स्वीकार नहीं है. इधर यह भी तथ्य सामने आ चुके हैं कि झारखंड सरकार नई शिक्षा नीति को सिरे से नकार चुकी है. वहां के शिक्षा मंत्री जगरनाथ महतो ने ऐलान कर दिया है कि झारखंड में मोदी की शिक्षा नीति लागू नहीं होगी. अर्थात जहां-जहां भाजपा सरकारें नहीं है यथा पंजाब,राजस्थान, छत्तीसगढ़ ओडिशा आदि राज्यों में शिक्षा नीति का अश्वमेधी  घोड़ा रोक दिया जाएगा?

शिक्षा की लॉक डाउन में  बदहाली

एक तरफ नई शिक्षा नीति के तहत स्किल डेवलप ढोल पीटा जा रहा है दूसरी तरफ यह भी सत्य है कि कोरोना काल मे विगत चार माह से यदाकदा मिली मामूली छूटों के साथ जारी लॉक डाउन शिक्षा प्रणाली के लिए घातक सिद्ध हुआ है. मार्च के अंतिम सप्ताह में लगे लॉक डाउन से लेकर अभी स्कूल  कॉलेजों को किसी भी प्रकार की रियायत नही दी गई. इस बीच नए शैक्षणिक सत्र के प्रारंभ होने का समय भी आ गया है. परंतु अभी भी महाविद्यालयो में परीक्षाएं रुकी हुई है. परीक्षा लेने के सम्बंध में  यू जी सी द्वारा जारी दिशा निर्देशों के बाद भी विश्वविद्यालय  तय नही कर पा रहे कि इतनी बड़ी पंजीकृत विद्यार्थियों की परीक्षा कैसे व किस तरह ली जाए.

कुछ विश्वविद्यालयों द्वारा  स्नातक प्रथम वर्ष में प्रवेश की अधिसूचना जारी कर आवेदन आमंत्रित किये जा रहे. परन्तु प्रवेश प्रक्रिया पूरी करके पढ़ाई कब शुरू  की जाएगी इसके विषय मे कॉलेज व विश्वविद्यालय कुछ कह पाने की स्थिति में नहीं है. कोरोना काल मे बन्द पड़े उच्च शिक्षण संस्थाओं में सभी तरह की परीक्षाएं स्थगित है. इन परीक्षाओं में विश्वविद्यालयीन प्रवेश परीक्षाएं भी सम्मिलित है. अलग अलग ग्रेड व प्रतिशत पाकर हाई स्कूल परीक्षा पास किये विद्यार्थीगण विश्वविद्यालय में प्रवेश पाने सबको समान अवसर उपलब्ध कराने वाले प्रवेश परीक्षा में बैठने की तैयारी कर रहे थे. परंतु अब संक्रमण के भय से प्रवेश परीक्षा न आयोजित कर मेरिट के आधार पर प्रवेश देने की नीति पर विचार किया जा रहा.

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इससे ऐसे प्रतिभाशाली विद्यार्थी जो आर्थिक सामाजिक स्वास्थ्यगत आदि कारणों से अच्छा ग्रेड या प्रतिशत नही ले प्राप्त कर सके वे अच्छे संस्थानों में मनमाफिक पाठ्यक्रमों में प्रवेश पाने से वंचित रह जाएंगे. इससे उनका भविष्य की दशा व दिशा निर्धारण खटाई में पड़ता नजर आ रहा है. कमोबेश इसी हालात का सामना स्नातक करके मनचाहे स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में प्रवेश की  चाहने वालों विद्यार्थियों को करना पड़ेगा.

स्नातक व स्नातकोत्तर अंतिम वर्ष के लिए जिस प्रकार की परीक्षा प्रणाली अपनाने की चर्चा की जा रही है प्रतियोगोगिता के स्तर को समाप्त करने वाला प्रतीत हो रहा है जो कि बेहद चिंताजनक है. दूसरी ओर स्कूल शिक्षा की स्थिति में अच्छी नही है.हाल  ही में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार कोरोना आपदा  के आर्थिक परिणामों के कारण वर्तमान सत्र में वैश्विक स्तर पर करीब ढाई करोड़ बच्चों पर स्कूल नहीं लौटने खतरा उत्पन्न हो गया है. रिपोर्ट में बताया गया है कि कोरोना काल में शैक्षणिक संस्थानो के बन्द होने से विश्व की करीब 94 प्रतिशत छात्र आबादी प्रभावित हुई है. इस महामारी में वर्तमान शिक्षण प्रणाली में असमानता हो बढ़ा दिया है. कोरोना काल मे संपन्न वर्ग की तुलना में आर्थिक रुप कमजोर  व संवेदनशील वर्ग के बच्चे शिक्षा से ज्यादा दूर हुए है.  रिपोर्ट के अनुसार 2020 को दूसरी तिमाही में  निम्न आय वाले देशों में करीब 86 प्रतिशत बच्चे स्कूलों से बाहर हो गए हैं वहीं उच्च आय वाले देशों में यह आंकड़ा मात्र 20 प्रतिशत ही है.

अभिनव प्रयास भी फ्लाप

यहां यह स्पष्ट है कि कोरोना वायरस के संक्रमण के बाद संपूर्ण शिक्षा व्यवस्था की हालत बदतर हो गई है. हालांकि देश प्रदेश की सरकार प्रयास कर रही है की एजुकेशन की गंगा प्रवाहमान रहे. इसे हेतू सरकार ने ऑनलाइन पढ़ाई प्रारंभ करायी मगर धीरे-धीरे यह स्पष्ट होता जा रहा है कि इसमें बहुतेरी खामियां हैं और एक विकासशील देश के लिए यह मुफीद नहीं है. क्योंकि यहां  90% छात्र तो ऐसे हैं जिनके पास मोबाइल ही नहीं है. इसी तरह सरकार यह प्रयास भी कर रही है कि ग्रामीण अंचल में गांव-गांव में लाउडस्पीकर के माध्यम से बच्चों की पढ़ाई जारी रहे. मगर यह भी  एक सफल शिक्षण प्रयोग नहीं माना जा  रहा है.

अतः  विशाल आबादी वाले निम्न आय श्रेणी में आने वाले विकासशील हमारे देश की हालत का अंदाज़ा  इस विजन में आसानी से लगाया जा सकता है. शिक्षाविद ऋषभदेव पांडेय के अनुसार विभिन्न राज्य सरकारे स्कूल शिक्षा को शुरू करने के लिए अभिनव प्रयास कर रही हैं. विभिन्न स्थानों पर ऑनलाइन कक्षाओं को प्रोत्साहित किया जा रहा है.छत्तीसगढ़ के सरगुजा बस्तर जैसे मोबाइल नेटवर्क विहीन अंदुरुनी पिछड़े क्षेत्रों ध्वनिविस्तार यंत्रों के माध्यम शिक्षण कार्य किया जा रहा है. जो कि अनुकरणीय पहल कही जा सकती है. परन्तु सरकार के उक्त प्रयासों को स्थानीय प्रशासन द्वरा कोरोना नियंत्रण के लिए बनाई गई रणनीतियां नकारात्मक रूप से प्रभावित कर रही हैं.

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ऋषभदेव पांडे बताते हैं छत्तीसगढ़ प्रदेश में

कोरोना काल मे स्थानीय प्रशासन द्वारा शासकीय शिक्षकों की ड्यूटी कोरेंनटाइन केंद्र सहित गांव गांव के चौक  चौराहों पर लगा दी गई है.जो एक मजाक बनाकर पूरी शिक्षा व्यवस्था को चिड़ा रहा है. यही कारण है कि छत्तीसगढ़ प्रदेश में  शिक्षण कार्यं के लिए मानव संशाधन की कमी साफ दिखाई दे रही है.

इसी तरह शिक्षाविद बीएल साहू के अनुसार कोरोना संक्रमण को रोकने के प्रयासों के बीच विद्यार्थियों के लिये ऐसे नीति अपनानी होगी जिससे उनके स्वास्थ्य के साथ साथ उनके भविष्य के साथ किसी भी प्रकार का समझौता न हो. सरकार को उच्च शिक्षण संस्थानों में  स्नातक अंतिम वर्ष की  स्तरहीन परीक्षाएं आयोजित करने के स्थान पर कोरोना वैक्सीन आने तक यथास्थिति बनाए रखते हुए प्रवेश परीक्षा की गुंजाइश बरकरार रखने पर विचार करना चाहिए. पुराने विद्यार्थियों को जोड़े रखते हुए स्कूल शिक्षा से जुड़ने हेतु नए विद्यार्थियों को आकर्षित करने के लिए कोरोना प्रोटोकाल का पालन सुनिश्चित कराते हुए शिक्षकों को उनके मूल कार्य करने की स्वतंत्रता दी जानी चाहिए. शासन स्तर पर किये गए उपर्युक्त प्रयासों में क्रियान्वित होने पर ही हम कोरोना के शिक्षा प्रणाली पर पड़ रहे कुप्रभाव को कम करते हुए अशिक्षा के कारण उत्पन्न होने वाले सामाजिक समस्याओं को बढ़ाने से रोक सकते हैं.

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