समस्या: लोन, ईएमआई और टैक्स भरने में छूट मिले

डाक्टर अर्जिनबी यूसुफ शेख

देशभर के कारोबारी आज कोविड 19 के चलते लगे लौकडाउन से बुरी तरह त्रस्त हैं. बाजार बंद हैं. लिहाजा, सामान या तो दुकान और गोदाम में सड़ रहा है या फिर आ नहीं रहा है और न ही जा रहा है, पर खर्च वहीं के वहीं हैं. कहींकहीं कारोबारी कुछ छुटपुट होहल्ला कर रहे हैं, पर उन की कहीं कोई सुनवाई नहीं हो रही है.

महाराष्ट्र के अकोला जिले में कोरोना के बाद के हालात देखें. वहां कारोबारियों ने जगहजगह मोरचे निकाले. ‘लोग मरेंगे कोरोना से, हम तो वैसे ही मर जाएंगे’ के नारे लगाए.

कुलमिला कर कोरोना के चलते अब लौकडाउन सहनशक्ति से बाहर होता जा रहा है… कोढ़ पर खाज यह है कि कोरोना मरीज रोजाना बढ़ते ही जा रहे हैं. उन की दैनिक इन्क्वायरी, देखभाल और दवा की कमी जनता में चिंता की बात बनी हुई है. साथ ही, रोजगार और कारोबार कोरोना की चपेट में होने से आजीविका चला पाना मुश्किल हो गया है.

‘अशोक फैशंस’ के रोहित भोजवानी का कहना है, ‘‘पिछले एकडेढ़ साल से उपजी कोरोना महामारी में बड़े कारोबारी अपनेआप को संभाले हुए हैं, लेकिन छोटेमोटे कारोबारी बड़ी बदहाली से गुजर रहे हैं.

‘‘ऐसे कारोबारी वे हैं, जिन्हें अपनी दुकान का किराया देना होता है, लोन और ईएमआई भी देनी होती है, बिजली  के बिल भरने होते हैं, अपने कामगारों को भी संभालना होता है और अपने  घर को भी चलाना होता है.

‘‘सरकार या प्रशासन की ओर से ऐसे कारोबारियों के लिए न तो कोई नीति है और न ही कोई सुविधा. कोरोना में लगे लौकडाउन से यह सीजन भी कारोबारियों के हाथ से निकल चुका है.’’

आलोक खंडेलवाल काफी सालों से एक बुक स्टौल चला रहे हैं. उन्होंने बताया, ‘‘कोरोना का इलाज है, पर इस की दहशत इतनी फैल चुकी है कि ‘कोरोना पौजिटिव है’ सुनते ही मरीज आधा मर जाता है. दूसरी ओर कारोबारी, मजदूर कमाएगा नहीं तो खाएगा क्या?

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‘‘सरकार को इस से कोई सरोकार नहीं कि कोई खाए या भूखा सोए, बल्कि उसे तो केवल अपने टैक्स से मतलब है, जो कारोबारियों को हर हाल में भरना ही भरना है. न कारोबारियों के लिए कोई सुविधा है, न ही कोई छूट.

‘‘वैक्सीनेशन के लिए औनलाइन रजिस्ट्रेशन और उस की फीस मध्यमवर्गीय जनता के लिए चिंता की बात बनी हुई है, तो गरीब जनता कहां जाए और क्या करे?

‘‘कारोबारी तबका स्वाभिमान से जीता आया है, पर कोरोना की इस विकट घड़ी में भरे जाने वाले टैक्स से उसे राहत दी जानी चाहिए.’’

पशु खाद्य विक्रेता अजय बजाज से जब पूछा गया कि इस लौकडाउन को वे कितना उचित मानते हैं, तो उन्होंने कहा, ‘‘लौकडाउन समय की जरूरत है. अगर यह नहीं होता, तो हो सकता है कि मरने वालों की तादाद और ज्यादा बढ़ जाती. पौजिटिव केस ज्यादा बढ़ जाने से उन्हें संभाल पाना मुश्किल होता.

‘‘हां, यह जरूर है कि लौकडाउन से छोटेमोटे कारोबारियों का जीना मुहाल हो चुका है. उन की मदद के लिए कोई सरकारी नीति नहीं है. कारोबारियों को अपना बो झ खुद ढोना पड़ रहा है.

‘‘कुछ कारोबारी मजबूरी के चलते बैकडोर से अपने कारोबार चला रहे हैं. कुछ सजा के डर से घरों में बैठे हैं, पर वे मानसिक तनाव के शिकार होते जा रहे हैं. आमदनी के रास्ते बंद हैं, पर खर्च चलाना अनिवार्य होने से वे मानसिक रूप से तनाव के बो झ तले दबते जा रहे हैं.

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‘‘इस मुश्किल घड़ी में जनता नियमों का पालन करे, सावधानी बरते तो हम कोरोना को जल्दी ही मात दे सकते हैं. बिगड़ते हालात संभल सकते हैं. होना यह चाहिए कि छोटेमोटे कारोबारियों को लोन, ईएमआई, टैक्स, बिजली के बिल भरने में जरूर कुछ सुविधा या छूट दी जाए.’’

लगातार लौकडाउनों के बावजूद सरकार ने टैक्सों में कोई छूट नहीं दी है और आगे देगी, इस की बात भी नहीं की जा रही है.

शर्मनाक! सरकार मस्त, मजदूर त्रस्त

लेखक- रोहित और शाहनवाज

कोरोना की दूसरी लहर ने देश में हाहाकार मचा दिया है. इस की गवाही श्मशान से ले कर कब्रिस्तान ने चीखचीख के दे दी है. इस समय जिन्होंने अपने कानों को बंद कर लिया है, उन के लिए अस्पतालों में तड़पते लोग, गंगा में बहती लाशें किसी सुबूत से कम नहीं हैं. सैकड़ों मौतें सरकारी पन्नों में दर्ज हुईं, तो कई अनाम मौतें सरकार की लिस्ट में अपना नाम तक दर्ज नहीं कर पाईं.

कोरोना की पड़ती इस दूसरी मार से बचने के लिए देश की तमाम सरकारों ने अपनेअपने राज्यों में लौकडाउन लगाया, जिस से दिल्ली व एनसीआर का इलाका भी अछूता नहीं रहा.

कोरोना के बढ़ते मामलों को देखते हुए दिल्ली सरकार ने लौकडाउन को सिलसिलेवार तरीके से लागू किया. पहले नाइट कर्फ्यू लगाया गया, जिसे कुछ दिनों बाद वीकैंड कर्फ्यू में बदला गया और आखिर में हफ्ते दर हफ्ते पूरे लौकडाउन में तबदील किया गया.

जाहिर है, यह इसलिए हुआ, क्योंकि सभी सरकारों खासकर मोदी सरकार ने पिछले एक साल से कोई खास तैयारी नहीं की थी. अगर उन की पिछले एक साल की कोरोना प्रबंधन की रिपोर्ट मांगी जाए, तो सारी सरकारें बगलें ?ांकतीं और एकदूसरे पर छींटाकशी करती नजर आएंगी.

इस सब ने समाज के कौन से हिस्से पर गहरी चोट की है, उस पर आज कोई भी सरकार बात करने को तैयार नहीं है.

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पिछले साल जब देश में लौकडाउन लगा था, तब लाखों मजदूर शहरों से पैदल सैकड़ों मील चलने को मजबूर हुए थे. वे चले थे, क्योंकि लौकडाउन के चलते उन की नौकरियां, रहने और खानेपीने के लाले पड़ गए थे, क्योंकि सरकार ने बिना इंतजाम किए सख्त लौकडाउन लगा दिया था.

सीएमआईई की रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2020 में लौकडाउन के चलते अप्रैल महीने में 12.2 करोड़ भारतीयों ने अपनी नौकरियां गंवा दी थीं. वहीं 60 लाख डाक्टर, इंजीनियर, शिक्षक, अकाउंटैंट ने मई से अगस्त 2020 में अपनी नौकरियां गंवाईं. उस दौरान सरकार ने लौकडाउन में यातायात के सारे साधनों को बंद कर दिया था और मजदूर तबके को भूखा मरने के लिए छोड़ दिया था.

इस साल भी सरकार ने मजदूरों के लिए कोई खास इंतजाम नहीं किए हैं. जो मजदूर शहरों में फिर से नई उम्मीद ले कर आए थे, उन्हें खाली हाथ निराश हो कर अपने गांव लौटने को मजबूर होना पड़ा है. लौकडाउन से पहले बसअड्डों की भारी भीड़ ने इस बात की गवाही दी.

पिछले साल इन मजदूरों की आवाज सरकार तक पहुंची भी थी, पर इस साल उन की समस्याओं को उठाने वाला कोई नहीं है. जो मजदूर अभी भी शहरों में रुक गए हैं, उन का या तो गांव में कुछ भी नहीं है या वे घर का सामान गिरवी रख कर अपना घर चला रहे हैं. कई मजदूर ऐसे भी हैं, जिन के पास घर जाने तक का किराया भी नहीं है और वे यहांवहां से उधार मांग कर अपने खानेपीने का इंतजाम ही कर पा रहे हैं.

इस साल सीएमआईई के आंकड़ों से पता चलता है कि अप्रैल, 2021 में कम से कम 73 लाख कामगारों ने अपनी नौकरियां गंवाई हैं.

इन मजदूरों की हालत खस्ता है, काम नहीं है. गांव की जमीन गिरवी रख कर, घरों के गहने गिरवी रख कर ये जैसेतैसे अपना गुजारा चला रहे हैं. आखिर इन शहरों ने इन्हें दिया क्या है?

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एक समय था, जब गांव से कोई शहर अपनी माली हालत ठीक करने के लिए आता था, लेकिन आज ये शहर मानो काटने के लिए दौड़ रहे हैं. शहरों में बैठे हुक्मरान वादे और दावे दोनों करते हैं, लेकिन हकीकत यह है कि इन्हें सामाजिक सिक्योरिटी तक मुहैया नहीं है.

दिल्ली के बलजीत नगर के पंजाबी बस्ती इलाके में रहने वाले 19 साला ललित पेशे से मोची हैं. ललित समाज की दबाई गई उस जाति से संबंध रखते हैं, जिसे आमतौर पर गाली की तरह इस्तेमाल किया जाता है. आज भी वे इस काम को पारंपरिक तरीके से ढो रहे हैं.

ललित बताते हैं कि वे रोज ही सुबह 7 बजे से ले कर रात के 9 बजे तक अपने इलाके में तकरीबन 12-14 किलोमीटर तक चलते हैं. लौकडाउन के समय में बचबचा कर वे यह काम कर रहे हैं. कोई राहगीर उन से अपने जूतेचप्पल ठीक कराते हैं, तो वे दिन का 200 रुपए तक बना लेते हैं. लौकडाउन से पहले यह कमाई 400 रुपए तक हो जाती थी.

ललित के कंधे पर लकड़ी का छोटा संदूक रहता है, जिस के अंदर वे अपने पेशे से जुड़े औजार रखते हैं. वहीं उन के दूसरे हाथ में फटापुराना काला बस्ता रहता है, जिस में जूतेचप्पल की पौलिश करने का सामान होता है. संदूक का बो?ा इतना है कि लगातार उसे बाएं कंधे पर टांगे रखने की वजह से उन का कंधा ?ाक गया है.

ललित बताते हैं कि उन्होंने 7वीं जमात तक ही पढ़ाई की और घर में माली तंगी होने के चलते उन्हें पढ़ाई छोड़ कर अपने पिताजी के इस परंपरागत काम को सीखना पड़ा.

ललित की शादी 15 साल की उम्र में हो गई थी. उन के परिवार में पत्नी,  बच्चे और मातापिता हैं. वे सभी अपने गांव वापस जाना चाहते हैं, लेकिन पैसा न होने के चलते वे यहां बुरी तरह फंस चुके हैं. ललित जिस कालोनी में रहते हैं, वहां इसी पेशे से जुड़े और भी मोची हैं और सभी इस समय त्रस्त हैं.

यह सिर्फ ललित का हाल नहीं है, बल्कि पूरे देश में मजदूर तबके का हाल है. वे इस समय जिंदगी और मौत से जू?ा रहे हैं. उन्हें कोरोना से ज्यादा इस बात का डर लग रहा है कि कोरोना से पहले उन्हें भूख मार देगी. सरकार का हाल यह तबका पिछले साल ही देख चुका था, इसलिए इस साल इसे सरकार से कोई उम्मीद भी नहीं बची.

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ये लोग उस सरकार से उम्मीद भी  लगाएं कैसे, जो इस समय प्राथमिकताएं ही नहीं तय कर पा रही है? ऐसे त्रस्त हालात में भी यह सरकार लोगों को माली और सामाजिक मदद पहुंचाने के बजाय अपनी शानोशौकत के लिए हजारों करोड़ रुपए का सैंट्रल विस्टा तैयार कर रही है.

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आज भी बहुत से कामधंधे और कारोबार ऐसे हैं, जो सालभर न चल कर एक खास सीजन में ही चलते हैं और इन कारोबारों से जुड़े लोग इसी सीजन में कमाई कर अपने परिवार के लिए सालभर का राशनपानी जमा कर लोगों का पेट पाल लेते हैं. पर लगातार दूसरे साल कोरोना महामारी ने इन कारोबारियों पर रोजीरोटी का संकट पैदा कर दिया है.

हमारे देश में सब से ज्यादा शादीब्याह अप्रैल से जुलाई महीने तक होते हैं. इस वैवाहिक सीजन में कोरोना की मार से टैंट हाउस, डीजे, बैंडबाजा, खाना बनाने और परोसने वाले, दोनापत्तल बनाने वाले लोग सब से ज्यादा प्रभावित हुए हैं.

सरकारी ढुलमुल नीतियां भी इस के लिए कम जिम्मेदार नहीं हैं. पूरे मध्य प्रदेश में अप्रैल महीने में लौकडाउन लागू कर दिया, जबकि दमोह जिले में विधानसभा उपचुनाव के चलते सरकार बड़ी सभाओं और रैलियों में मस्त रही. सरकार की इन ढुलमुल नीतियों की वजह से लोगों का गुस्सा आखिरकार फूट ही पड़ा.

दमोह में उमा मिस्त्री की तलैया पर  चुनावी सभा संबोधित करने पहुंचे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का  डीजे और टैंट हाउस वालों ने खुला विरोध कर दिया. मुख्यमंत्री को इन लोगों ने जो तख्तियां दिखाईं, उन पर बड़ेबड़े अक्षरों में लिखा था :

‘चुनाव में नहीं है कोरोना,

शादीविवाह में है रोना.

चुनाव का बहिष्कार,

पेट पर पड़ रही मार.’

आंखों पर सियासी चश्मा चढ़ाए मुख्यमंत्री को इन लोगों का दर्द समझ नहीं आया. लोगों के गुस्से की यही वजह भाजपा उम्मीदवार राहुल लोधी की हार का सबब बनी.

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पिछले साल के लौकडाउन से सरकार ने कोई सबक नहीं लिया और न ही कोरोना से लड़ने के लिए कोई माकूल इंतजाम किए. मध्य प्रदेश के गाडरवारा तहसील के सालीचौका रोड के बाशिंदे दिनेश मलैया अपनी पीड़ा बताते हुए कहते हैं, ‘‘मेरा टैंट डैकोरेशन का काम है, जिसे मैं घर से ही चलाता हूं, लेकिन इस कोरोना बीमारी के चलते पिछले साल सरकार के लगाए हुए लौकडाउन में पूरा धंधा चौपट हो गया.

‘‘पिछले साल का नुकसान तो जैसेतैसे सहन कर लिया, लेकिन इस साल फिर वही बीमारी और लौकडाउन ने तंगहाली ला दी है. इस साल शादियों के सीजन को देखते हुए कर्ज ले कर टैंट डैकोरेशन का सामान खरीद लिया था, पर लौकडाउन की वजह से धंधा चौपट हो गया.’’

साईंखेड़ा के रघुवीर और अशोक वंशकार का बैंड और ढोल आसपास के इलाकों में जाना जाता है, लेकिन पिछले 2 साल से शादियों में बैंडबाजा की इजाजत न होने से उन के सामने रोजीरोटी का संकट खड़ा हो गया है.

वे कहते हैं कि सरकार और उन के मंत्री व विधायक सभाओं और रैलियों में तो हजारों की भीड़ जमा कर सकते हैं, पर 10-15 लोगों की बैंड और ढोल बजाने वाली टीम से उन्हें कोरोना फैलने का खतरा नजर आता है.

दोनापत्तल का कारोबार करने वाले नरसिंहपुर के ओम श्रीवास बताते हैं, ‘‘मार्च के महीने में ही बड़ी तादाद में दोनापत्तल बनवा कर रख लिए थे, पर अप्रैल महीने में लौकडाउन के चलते शादियों में 20 लोगों के शामिल होने की इजाजत मिलने से दोनापत्तल का कारोबार ठप हो गया.’’

शादीब्याह में भोजन बनाने का काम करने वाले राकेश अग्रवाल बताते हैं कि उन के साथ 50 से 60 लोगों की टीम रहती है, जो खाना बनाने और परोसने का काम करती है, लेकिन इस बार इन लोगों को खुद का पेट भरने का कोई काम नहीं मिल रहा है.

शादियों में मंडप की फूलों से डैकोरेशन करने वाले चंदन कुशवाहा ने तो कर्ज ले कर फूलों की खेती शुरू की थी. चंदन को उम्मीद थी कि उन के खेतों से निकले फूलों से वे शादियों में डैकोरेशन कर खूब पैसा कमा लेंगे, पर कोरोना महामारी के चलते सरकार ने जनता कर्फ्यू लगा कर उन की उम्मीदों पर पानी फेर दिया.

हाथ ठेला पर सब्जी और फल बेचने वालों का बुरा हाल है. लौकडाउन में वे अपने परिवार के लिए भोजनपानी की तलाश में कुछ करना चाहते हैं, तो पुलिस की सख्ती उन्हे रोक देती है. हाथ ठेला लगाने वाले ये विक्रेता गांव से सब्जी खरीद कर लाते हैं और दिनभर की मेहनत से उन्हें सिर्फ 200-300 रुपए ही मिल पाते हैं.

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रायसेन जिले के सिलवानी में नगरपरिषद के सीएमओ ने जब एक फलसब्जी बेचने वाले का हाथ ठेला पलट दिया, तो उस का गुस्सा फूट पड़ा और मजबूरन उसे सीएमओ से गलत बरताव करना पड़ा.

यही समस्या दिहाड़ी मजदूरों की भी है, जिन्हें लौकडाउन की वजह से काम नहीं मिल पा रहा है और उन के बीवीबच्चे भूख से परेशान हैं. दिहाड़ी मजदूर रोज कमाते हैं और रोज राशन दुकान से सामान खरीदते हैं, पर राशन दुकान भी बंद हैं.

राजमिस्त्री का काम करने वाले रामजी ठेकेदार का कहना है कि सरकारी ढुलमुल नीतियों की वजह से गरीब मजदूर ही परेशान होता है.

सरकार अभी तक यह नहीं समझ पाई है कि कोरोना वायरस का इलाज लौकडाउन नहीं है, बल्कि सतर्क और जागरूक रह कर उस से मुकाबला किया जा सकता है. पिछले साल से अब तक सरकार अस्पतालों में कोई खास इंतजाम नहीं कर पाई है. जैसे ही अप्रैल महीने  में संक्रमण बढ़ा, तो सरकार ने अपनी नाकामी छिपाने के लिए लौकडाउन  लगा दिया.

सरकार की इस नीति से लाखों की तादाद में छोटामोटा कामधंधा करने वाले लोगों की रोजीरोटी पर जो बुरा असर पड़ा है, उस की भरपाई सालों तक पूरी नहीं हो सकती.

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