आप हिंदू राष्ट्र की इच्छा मन में रखिए, देश तो संविधान से चलेगा – Arvind Kumar Bajpai

Arvind Kumar Bajpai: बिहार में नीतीश सरकार का कार्यकाल इस साल 22 नवंबर, 2025 तक है. मतलब, बिहार विधानसभा चुनाव दस्तक देने वाले हैं और ऐसा माना जा रहा है कि सितंबर से अक्तूबर महीने के बीच प्रदेश में आचार संहिता लग जाएगी. सबकुछ सही रहा तो अक्तूबर से नवंबर महीने के शुरुआती हफ्ते के बीच वोटिंग और वोटों की गिनती पूरी कराई जा सकती है.

विधानसभा सिर पर हैं, तो सियासी दलों में भी अपनीअपनी रणनीति बनाने का काम शुरू हो गया. चूंकि गठबंधन का दौर है, तो पाला बदलने की गुंजाइश और फरमाइश दोनों को हवा दी जा रही है. वोटरों को रिझाने का खाका खींचा जाने लगा है, पर साथ ही जनता यह भी जानना और समझना चाहती है कि प्रदेश के मुद्दों पर नेता कितने संजीदा हैं.

तो क्या हैं बिहार के मुद्दे? क्या वहां भी मुफ्त की रेवड़ियां बांटने के सब्जबाग दिखाए जाएंगे? जातिवाद या प्रगतिवाद, नेता जनता को किस सड़क की राह दिखाएंगे? वहां जो ‘रिवर्स माइग्रेशन’ का गुब्बारा फुलाया जा रहा है, वह कितनी ऊंची उड़ान भरेगा?

ऐसे ही कुछ सवालों के हल जानने के लिए हम ने लोक जनशक्ति पार्टी के संस्थापक सदस्य, वरिष्ठ उपाध्यक्ष और राष्ट्रीय प्रवक्ता अरविंद कुमार बाजपेयी से बात की, जो सुप्रीम कोर्ट में एडवोकेट और सौलिसिटर भी हैं. पेश हैं, उसी बातचीत के खास अंश :

आगामी विधानसभा चुनाव में लोक जनशक्ति पार्टी की क्या अहम रणनीति रहेगी?

-साल 2014 में हम ने बिहार के लिए एक विजन डौक्यूमैंट बनाया था ‘बिहार फर्स्ट, बिहारी फर्स्ट’. इस में हम ने बिहार के विकास का पूरा खाका बनाया कि कैसे पलायन रोका जाए, क्या नया काम किया जाए, कैसे इंडस्ट्री यहां रह जाएं वगैरह. जब भी हम चुनाव लड़ते हैं, तो उस विजन डौक्यूमैंट को जनता के सामने रखते हैं.

बिहार में रिवर्स माइग्रेशन का मुद्दा काफी गरम है. पलायन रोकने का लोजपा के पास क्या खाका है?

-इसे एक उदाहरण से समझते हैं. राजस्थान के कोटा शहर में छात्रों की पढ़ाई की कोचिंग बहुत होती है. वहां जितने भी कोचिंग सैंटर हैं, उन में से ज्यादातर के मालिक बिहारी हैं और छात्र भी ज्यादातर बिहारी हैं. जब बिहार के लोग वहां जा कर खुद को एश्टैब्लिश कर सकते हैं, तो यह पटना में क्यों नहीं हो सकता? या दरभंगा में क्यों नहीं हो सकता?

तो उस के लिए हमारा विजन क्लियर है कि सरकार बनने के बाद हम प्रदेश में कोचिंग सैंटर एश्टैब्लिश करेंगे. इसी तरह जब एक अच्छी कानून व्यवस्था का सिगनल जाएगा, तो नई इंडस्ट्री लगने को भी बढ़ावा मिलेगा. सरकार बनने के बाद इसे और मुस्तैदी से किया जाएगा.

बिहार में मुसलिम समुदाय भी अच्छीखासी तादाद में है. इस तबके के नौजवानों को अच्छा रोजगार मिले, इस बारे में आप क्या कदम उठाएंगे?

-सिर्फ प्रदेश में ही नहीं, बल्कि पूरे देश मुसलिम समुदाय की तरक्की का कार्यक्रम हमारे दिमाग में है. इस के लिए कुटीर उद्योग को बढ़ावा देना होगा. छोटेछोटे कारखाने, जिसे घरेलू उद्योग कहा जाता है, पर फोकस करना होगा.

आप को याद होगा कि पहले हर शहर की कोई न कोई चीज मशहूर होती थी, जैसे भदोई के कालीन. ये चीजें अब खत्म होने की कगार पर हैं. हम उन्हें दोबारा जिंदा करने की कोशिश करेंगे.

क्या इस की भरपाई सरकारी नौकरियों से नहीं हो सकती है, जिस से एससीएसटी, अन्य पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक समुदाय को समाज की मुख्यधारा में शामिल होने का मौका मिले?

-अब समय आ गया है कि सिर्फ सरकारी नौकरियों से काम चलने वाला नहीं है. पर साथ ही यह बात भी सही है कि अगर निचली जमात के लोग सरकारी अफसर बनेंगे, तो उन समुदायों में आत्मविश्वास भी आएगा.

पर राजनीतिक दलों और नेताओं का विजन भी काफी क्लियर होता है, क्योंकि बहुत से तो उसी जमात से निकल कर आगे आए हुए होते हैं. इस जमात के लोगों को बड़ा सरकारी अफसर बनना चाहिए, तभी तो बाबा साहब अंबेडकर द्वारा संविधान में रिजर्वेशन दिया गया है.

बिहार को पिछड़ा प्रदेश माना जाता है, जहां अंधविश्वास की भरमार दिखाई देती है और तालीम की कमी का भी एहसास होता है. ऐसे में वहां की तरक्की कैसे मुमकिन की जा सकती है?

जब बिहार को 2 हिस्सों में बांट कर एक हिस्सा झारखंड बना दिया था, तब सारे प्राकृतिक संसाधन झारखंड में चले गए थे, जबकि बिहार एक बाढ़ प्रभावित क्षेत्र है. इसी बाढ़ की रोकथाम के लिए नेपाल से बातचीत चल रही है. इस बार के बजट में 30,000 करोड़ रुपए बाढ़ की रोकथाम के लिए रखे गए हैं. एक बांध बनाने का प्रस्ताव है.

लेकिन एक बात और अहम है कि प्रदेश की तरक्की के लिए समाज को हिस्सेदारी लेनी पड़ेगी और सरकार को हिस्सेदारी देनी पड़ेगी. यह सरकार तो दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यक समुदाय की तरक्की के लिए नीतियां बना रही है. सरकार ने 80 करोड़ लोगों के भोजन का इंतजाम इसीलिए किया है, ताकि कोई भूखा न सोए.

राजद ने औफर दिया था कि चिराग पासवान उन के साथ शामिल हो जाएं. इस बारे में लोजपा का क्या स्टैंड है?

हमारी अपनी पार्टी है, अपना झंडा है, अपना कैडर है, अपना विजन है, अपना नेता है. हम किसी के साथ क्यों जाएंगे? हम एक गठबंधन में पहले से हैं. चिराग पासवान हमारे नेता हैं और आगे भी रहेंगे, क्योंकि उन की अपनी ठोस नीतियां हैं, जिन पर काम हो रहा है.

आप के गठबंधन का बड़ा दल भारतीय जनता पार्टी दक्षिणपंथी विचारधारा को मानती है. वह हिंदुत्व की बात करती है. आप इस सोच के साथ कैसे तालमेल बैठाते हैं?

-सरकार किसी भी पार्टी की हो, पर देश और सरकार तो संविधान से ही चलती है. भाजपा की विचारधारा कुछ भी हो, पर सरकार का कोई भी फैसला संविधान के मुताबिक ही लिया जाएगा. अगर भाजपा ने कोई मंदिर बनाने का सोचा, तो कोई गुनाह किया? कोर्ट का फैसला आया और मंदिर बन गया. हमें कोई असहजता नहीं है. मोदी सरकार पूरी तरह से संविधान के हिसाब से काम कर रही है. आप हिंदू राष्ट्र की इच्छा रखिए, पर देश तो संविधान से ही चलेगा.

आजकल देश में 2 तरह के अगुआ ज्यादा नजर आते हैं. एक तो धार्मिक नेता और दूसरे राजनीतिक नेता. जनता की बात करने वाले अगुआ नहीं दिखाई देते हैं. ऐसा क्यों?

-जब से देश आजाद हुआ है तब से राजनीतिक नेता देश हित के लिए काम कर रहे हैं, बल्कि आजादी की लड़ाई भी सियासी नेताओं ने लड़ी थी. जनता किस को अपना प्रतिनिधि चुनेगी, यह उस का हक है. कोई नेता तभी कामयाब हो सकता है, जब उस की नीति और नीयत में कोई खोट न हो.

आजकल चुनाव जीतने के लिए जनता में मुफ्त की रेवड़ियां बांटने का चलन देखा जा रहा है. क्या ये लोकलुभावन बातें देशहित के लिए सही हैं, क्योंकि गरीब तबके के साथसाथ पढ़ालिखा तबका भी इस तरह के झांसे में आ जाता है?

-आज से 3 साल पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि यह उचित नहीं है. भारत एक वैलफेयर स्टेट है. गरीबगुरबों, दबेकुचले लोगों, वंचितों, शोषितों का उत्थान कर के बराबरी में लाना है. सब्सिडी और मुफ्त में बहुत बड़ा अंतर है. अगर कोई 10 रुपए की चीज किसी गरीब को मिले तो वह मुफ्त नहीं है. पर जिस को जरूरत नहीं है, उसे आप लैपटौप बांट रहे हैं, तो मतभेद आता है.

इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में मामला लंबित है. सरकार भी सोच रही है कि कैसे इस को बैलेंस किया जाए.

Nitish Kumar को पटकनी देने के लिए भाजपा का चक्रव्यूह

बिहार की राजनीति में इन दिनों काफी हलचल मची हुई है. इस हलचल के कई कारण हैं. सब से बड़ा कारण यह है कि विधानसभा चुनाव समय से पहले हो सकते हैं. तय अवधि के तहत चुनाव नवंबर में होने हैं. लेकिन भाजपा को एक ‘अज्ञात डर’ है कि Nitish Kumar के स्वास्थ्य को देखते हुए तय वक्त पर चुनाव कराने से राजग की जीत में संशय हो सकता है.

भाजपा ने अपने ‘पिछड़े’ चेहरे सम्राट चौधरी को मुख्यमंत्री बनाने की तैयारियां शुरू कर दी हैं. नीतीश कुमार की पार्टी की ताकत लगातार घटी है. कभी विधानसभा में जनता दल (एकी.) सब से बड़ी पार्टी थी, फिर वह भाजपा से नीचे आ गई थी. पिछले विधानसभा चुनाव में तो जद (एकी.) तीसरे नंबर की पार्टी बन कर रह गई है. महज 43 विधायकों के बल पर नीतीश कुमार मुख्यमंत्री हैं.

भाजपा को लगता था कि नीतीश कुमार चुनाव से पहले स्वयं मुख्यमंत्री पद छोड़ देंगे पर वे कोई बड़ी डील करने से पहले मुख्यमंत्री पद छोड़ने को तैयार नहीं हैं. इधर उन के बेटे निशांत का चेहरा भी सामने लाया गया है. ऐसे में नीतीश कुमार भारतीय जनता पार्टी नेतृत्व के लिए सिरदर्द बनते जा रहे हैं, मगर भाजपा की मजबूरी है कि अगर केंद्र में सत्ता बनाए रखनी है, तो नीतीश कुमार की जीहुजूरी करनी होगी, नहीं तो फिर लालू प्रसाद यादव और तेजस्वी यादव तो नीतीश कुमार के लिए बांहें फैला कर खड़े ही हैं.

उल्लेखनीय है कि भाजपा ने अपनी सोचीसमझी रणनीति के तहत आरिफ मोहम्मद खान को बिहार का राज्यपाल बनाया है. भाजपा का जनाधार और बढ़ाने के लिए राज्यपाल तुरुप का पत्ता बन गए हैं.

बिहार की राजनीति में इन दिनों कई तरह की अटकलें लगाई जा रही हैं. सब से बड़ी अटकल यह है कि भाजपा विधानसभा चुनाव समय से पहले करा सकती है. इस के कई कारण बताए जा रहे हैं.

पहला कारण यह है कि भाजपा को डर है कि नीतीश कुमार के स्वास्थ्य को देखते हुए तय वक्त पर चुनाव कराने से राजग की जीत में संशय हो सकता है.

दूसरा कारण यह है कि भाजपा अपने ‘पिछड़े’ चेहरे सम्राट चौधरी को मुख्यमंत्री बनाने को आतुर है.

तीसरा कारण यह है कि नीतीश कुमार की पार्टी की ताकत लगातार घटी है. कभी विधानसभा में जद (एकी.) सब से बड़ी पार्टी थी, फिर वह भाजपा से नीचे आ गई. पिछले विधानसभा चुनाव में तो जद (एकी.) तीसरे नंबर की पार्टी बन कर रह गई. महज 43 विधायकों के बल पर नीतीश कुमार मुख्यमंत्री हैं.

चौथा कारण यह है कि भाजपा को भरोसा था कि नीतीश कुमार चुनाव से पहले मुख्यमंत्री पद छोड़ देंगे, पर वे इस मूड में नहीं हैं. अब तो उन के बेटे निशांत का चेहरा भी सामने है.

एक कारण यह भी है कि भाजपा ने अपनी सोचीसमझी रणनीति के तहत ही आरिफ मोहम्मद खान को बिहार का राज्यपाल बनाया है. राष्ट्रपति शासन की नौबत आई तो राज्यपाल के जरीए भाजपा चुनाव से पहले अपना एजेंडा आगे बढ़ा सकेगी.

इन सभी कारणों के चलते बिहार की राजनीति में इन दिनों काफी हलचल मची हुई है. भारतीय जनता पार्टी के साथ राष्ट्रीय जनता दल और नीतीश कुमार का घातप्रतिघात धीरेधीरे बढ़ता जा रहा है. अब यह देखना दिलचस्प होगा कि बिहार की राजनीति में आने वाले दिनों में क्या होता है.

Bahujan Samaj Party में दरार

Bahujan Samaj Party को नई दिशा देने की कोशिश में जुटे आकाश आनंद को मायावती ने बाहर का रास्ता दिखा दिया है. एक बार फिर सवाल उठ गया है कि क्या मायावती का मकसद बसपा को पूरी तरह तबाह कर देना है?

दरअसल, आकाश आनंद ने अपने एक संबोधन में मायावती के कुछ करीबियों पर पार्टी के हित का ध्यान न रखने का आरोप लगाया था. यह बात बसपा सुप्रीमो मायावती को पसंद नहीं आई और पाटी को लगातार मिल रही हार की बौखलाहट भी आकाश आनंद के बाहर होने की अहम वजह बन गई.

परिवारवाद के खिलाफ बोलने वाली मायावती आखिरकार खुद भी उसी राह पर चल पड़ी थीं. यह उन की सब से बड़ी गलती थी. अगर कांशीराम चाहते तो वे भी अपने किसी भाईभतीजे को बसपा सौंप सकते थे, मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया और भारतीय राजनीति में ऐसा काम किया, जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता.

लेकिन कुछ समय पहले मायावती ने पहले तो अपने भतीजे आकाश आनंद को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर खांटी बसपाइयों को भीतर ही भीतर नाराज कर दिया, फिर हरियाणा, राजस्थान और दिल्ली सरीखे राज्यों में हुए चुनाव की सारी जिम्मेदारी आकाश आनंद को सौंपी.

आकाश आनंद इन राज्यों में बसपा को दोबारा मुख्यधारा में लाने के लिए खासी मेहनत करते दिखाई दिए और एक दफा उन्होंने बहुजन समाज पार्टी के कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा था, ‘हमारे कुछ पदाधिकारी पाटी को फायदा पहुंचाने के बजाय नुकसान पहुंचा रहे हैं. गलत लोग गलत जगह पर बैठे हैं, जिस से पार्टी को नुकसान हो रहा है. यह चीज मैं ने भी महसूस की. मु?ो भी काम करने में बहुत दिक्कत आ रही है.

‘कुछ लोग हमें भी काम नहीं करने दे रहे हैं. कुछ लोग ऐसे बैठे हैं, जिन को अभी हम छेड़ नहीं सकते. जिन को हम हिला नहीं सकते. जिस तरह से पार्टी चल रही है, उस में काफी कमियां हैं.’

दरअसल, आकाश आनंद ने जिस तरह खुल कर पार्टी की खामियों के बारे में कार्यकर्ताओं से मंच से बात की, वह बड़ेबड़े नेताओं को पसंद नहीं आ रही थी. इस से पार्टी के बीच आकाश आनंद को ले कर विरोध के स्वर उठने लगे.

नतीजतन, मायावती ने वही किया, जो उन के आसपास बैठे लोगों ने उन्हें बताया और मजबूर कर दिया.

बसपा सुप्रीमो मायावती ने आकाश आनंद को जिम्मेदारी सौंपी थी कि वे नौजवानों को बसपा के साथ जोड़ें, पर लगता है कि मायावती को अपने भतीजे के काम करने का तरीका पसंद नहीं आया.

अगर मायावती को बहुजन समाज पार्टी को सचमुच कांशीराम के पदचिह्नों पर आगे ले जाना है, तो आकाश आनंद जैसे लोगों को अहमियत देनी ही पड़ेगी. यह नहीं भूलना चाहिए कि बसपा का जो असर बहुजन समाज पर था, आज वह धीरेधीरे कमजोर होता जा रहा है, तो उस की एक अहम वजह मायावती के काम करने के तरीके हैं.

Indian Politics : ओबीसी और एससी में क्यों है दूरी?

Indian Politics : साल 2027 के विधानसभा चुनाव के लिए उत्तर प्रदेश में राजनीतिक गोलबंदी अभी से तेज हो गई है. कयास इस बात का लगाया जा रहा है कि एससी और ओबीसी तबका किधर जाएगा.

साल 2024 के लोकसभा चुनाव में एससी, ओबीसी और मुसलिम तबका इंडिया ब्लौक के साथ रहा था, जिस का फायदा कांग्रेस और समाजवादी पार्टी दोनों को हुआ था. कांग्रेस को लोकसभा की 6 सीटें और समाजवादी पार्टी को 37 सीटें मिली थीं, जो अपनेआप में एक बड़ा इतिहास है.

इस के बाद हुए उत्तर प्रदेश में विधानसभा के उपचुनाव और दिल्ली, महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनाव के नतीजे देखने से लगा कि लोकसभा चुनाव वाला वोटिंग ट्रैंड बदल चुका है, खासकर एससी और ओबीसी जातियां धर्म के चलते आपसी दूरी दिखा रही हैं.

एससी और ओबीसी जातियों में खेमेबंदी केवल वोट तक ही नहीं सिमटी है, बल्कि यह जातीय और सामाजिक लैवल पर गुटबाजी में बदल चुकी है, जिस का असर वोट बैंक पर तो पड़ ही रहा है, साथ ही, घरों और स्कूलों पर भी पड़ रहा है. सरकारी स्कूलों में जहां बच्चों को भोजन ‘मिड डे मील’ खाने को मिल रहा है, वहां पर ओबीसी बच्चे एससी बच्चों के साथ बैठ कर खाना खाने से बचते हैं.

ओबीसी बच्चे तादाद में ज्यादा होने के चलते अपना अलग ग्रुप बना लेते हैं, जिस से एससी बच्चे अलगथलग पड़ जाते हैं. स्कूलों से शुरू हुए इस जातीय फर्क को आगे भी देखा जाता है. ओबीसी जातियां ऊंची जातियों जैसी दिखने के लिए खुद को बदल रही हैं.

ओबीसी समाज के लड़के ऊंची जाति की लड़कियों से शादी कर रहे हैं. ऊंचे तबके के परिवारों को भी अगर एससी और ओबीसी में से किसी एक को चुनना हो, तो वह ओबीसी को ही पसंद करते हैं. ओबीसी बच्चे पूरी तरह से ऊंची जाति वाला बरताव करते हैं और यही उन के स्वभाव में रचबस जाता है.

उत्तर प्रदेश में सब से बड़े यादव परिवार मुलायम सिंह यादव का घर इस का उदाहरण है. मुलायम सिंह यादव की पीढ़ी में यादव जाति के बाहर की कोई महिला नहीं थी, पर मुलायम सिंह यादव की दूसरी पत्नी साधना गुप्ता बनिया बिरादरी से थीं.

इस के बाद अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव पहाड़ी जाति की ठाकुर हैं. उन के पिता का नाम आरएस रावत और मां का नाम चंपा रावत है. शादी के पहले डिंपल सिंह रावत थीं, जो अब डिंपल यादव हो गई हैं.

मुलायम सिंह यादव के दूसरे बेटे प्रतीक यादव की भी शादी अपर्णा बिष्ट से हुई है. वे भी पहाड़ी ठाकुर हैं. मुलायम सिंह यादव के भाई शिवपाल यादव के बेटे आदित्य यादव की पत्नी राजलक्ष्मी मध्य प्रदेश के मैहर राजपूत घराने की हैं. इन के नाना राजा कुंवर नारायण सिंह जूदेव 3 बार विधायक रहे थे. राजलक्ष्मी ने लखनऊ यूनिवर्सिटी से एमबीए किया था.

बिहार में लालू प्रसाद यादव के बेटे तेज प्रताप यादव की शादी भूमिहार जाति से आने वाले नेता और मुख्यमंत्री रह चुके दारोगा राय की पोती ऐश्वर्या राय से हुई है. ऐश्वर्या के पिता चंद्रिका राय भी बिहार में मंत्री रहे हैं.

लालू प्रसाद यादव के दूसरे बेटे तेजस्वी यादव की पत्नी रेचल गोडिन्हो हरियाणा के रेवाड़ी में रहने वाले ईसाई परिवार की बेटी हैं. वे दिल्ली में पलीबढ़ी हैं और वहीं तेजस्वी यादव से उन की मुलाकात भी हुई थी और शादी के बाद उन का नाम राजश्री यादव हो गया.

राजश्री यादव नाम इसलिए रखा गया, जिस से बिहार के लोग आसानी से इस नाम का उच्चारण कर सकें. इस नाम को रखने का सुझाव लालू प्रसाद यादव ने ही दिया था.

ओबीसी जातियों ने खुद को बदला है. वह अपना रहनसहन और बरताव ऊंची जातियों जैसा ही करने लगी है. धार्मिक रूप से वह ऊंची जाति वालों की तरह ही बरताव करने लगी हैं.

समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव भले ही खुद को शूद्र कहें, लेकिन उन का बरताव ऊंची जाति के लोगों जैसा ही होता है. वोट से अलग हट कर देखें, तो वे धार्मिक कर्मकांड को पूरी तरह से मानते हैं.

उन्होंने अपने पिता की अस्थियों का विसर्जन पूरी आस्था और धार्मिक कर्मकांडों के साथ किया था. वे गंगा में डुबकी लगा आए और कुंभ भी नहा आए. ऐसे में एससी जातियों को ओबीसी और ऊंची जातियों में फर्क नजर नहीं आता है.

कांग्रेस दलितों की करीबी क्यों?

एससी तबके के लोग जब कांग्रेस और ओबीसी दलों के बीच तुलना करते हैं, तो उसे कांग्रेस ही बेहतर नजर आती है. इस की सब से खास बात यह भी है कि कांग्रेस जब सत्ता में थी, तब उस ने ऐसे तमाम कानून बनाए थे, जिन से गैरबराबरी को खत्म करने में मदद मिली. इन में जमींदारी उन्मूलन कानून, छुआछूत विरोधी कानून और दलित कानून प्रमुख हैं.

लंबे समय तक एससी तबका कांग्रेस का वोटबैंक रहा है. इस वजह से जब साल 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने आरक्षण और संविधान को मुद्दा बनाया, तो एससी जातियों ने उस की बात पर भरोसा किया.

इस भरोसे के बल पर ही एससी तबके ने कांग्रेस और उस की अगुआई वाले इंडिया ब्लौक को चुनावी कामयाबी दिलाई, जिस से भारतीय जनता पार्टी बहुमत से सरकार बनाने में चूक गई.

यह इंडिया ब्लौक और कांग्रेस की बड़ी कामयाबी थी. इस के बाद हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की भूमिका को सहयोगी दलों ने सीमित करने की कोशिश की, जिस वजह से एससी वोटबैंक वापस भाजपा में चला गया.

दिल्ली में आम आदमी पार्टी हो या उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, दोनों चुनाव हार गईं. कांग्रेस को अलगथलग कर के एससी वोट हासिल नहीं किया जा सकता है. इस हालत में कांग्रेस जरूरी होती जा रही है. समाजवादी पार्टी जितना जल्दी इस बात को समझ ले, उतना ही उस का भला होगा.

उत्तर प्रदेश में एससी बिरादरी को अपनी तरफ खींचने के लिए राजनीतिक दल तानाबाना बुनने में लगे हैं. भाजपा अपने संगठन में दलितों को खास तवज्जुह देने की कवायद में है. संविधान और डाक्टर भीमराव अंबेडकर के नाम पर दलित समाज का दिल जीतने की कवायद कांग्रेस से ले कर समाजवादी पार्टी तक कर रही हैं.

बहुजन समाज पार्टी के लगातार कमजोर होने से एससी तबका मायावती की पकड़ से बाहर निकलता जा रहा है. नगीना लोकसभा सीट से सांसद चुने जाने के बाद चंद्रशेखर आजाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दलित राजनीति का नया चेहरा बन कर उभरे हैं और बसपा के औप्शन के तौर पर खुद को पेश कर
रहे हैं.

दूसरी बड़ी हिस्सेदारी

ओबीसी के बाद दूसरी सब से बड़ी हिस्सेदारी एससी की है. दलित आबादी 22 फीसदी के आसपास है. यह दलित वोटबैंक जाटव और गैरजाटव के बीच बंटा हुआ है. 22 फीसदी कुल दलित समुदाय में सब से बड़ी तादाद 12 फीसदी जाटवों की है और 10 फीसदी गैरजाटव दलित हैं.

उत्तर प्रदेश में दलित जाति की कुल 66 उपजातियां हैं, जिन में से 55 ऐसी उपजातियां हैं, जिन का संख्या बल ज्यादा नहीं है. इन में मुसहर, बसोर, सपेरा, रंगरेज जैसी जातियां शामिल हैं.

दलित की कुल आबादी में 56 फीसदी जाटव के अलावा दलितों की अन्य जो उपजातियां हैं, उन की संख्या 46 फीसदी के आसपास है. पासी 16 फीसदी, धोबी, कोरी और वाल्मीकि 15 फीसदी और गोंड, धानुक और खटीक तकरीबन 5 फीसदी हैं.

बसपा प्रमुख मायावती और भीम आर्मी के चीफ चंद्रशेखर जाटव समुदाय से आते हैं. उत्तर प्रदेश में दलित राजनीति हमेशा से जाटव समुदाय के ही इर्दगिर्द सिमटी रही है.

बसपा प्रमुख मायावती के दौर में जाटव समाज का सियासी असर बढ़ा, तो गैरजाटव दलित जातियों ने भी अपने सियासी सपनों को पूरा करने के लिए बसपा से बाहर देखना शुरू किया.

साल 2012 के चुनाव के बाद से गैरजाटव दलित में वाल्मीकि, खटीक, पासी, धोबी, कोरी समेत तमाम जातियों के विपक्षी राजनीतिक दल अपनेअपने पाले में लामबंद करने में कामयाब रहे हैं.

अखिलेश यादव साल 2019 के बाद से ही दलित वोटों को किसी भी दल के गठबंधन की बैसाखी के बजाय अपने दम पर हासिल करने की कवायद में हैं.

बसपा के कई दलित नेताओं को उन्होंने अपने साथ मिलाया है, जिस के चलते साल 2022 और साल 2024 में उन्हें कामयाबी भी मिली थी. सपा अब ‘पीडीए’ की बैठक कर के दलित वोटबैंक अपनी तरफ करने का काम कर रही है.

जाटव बिरादरी के राजाराम कहते हैं, ‘‘हम बसपा को वोट देते हैं, लेकिन मेरी बहू और बेटे बसपा को पसंद नहीं करते हैं. वे भाजपा को वोट देते हैं.’’

साल 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद उत्तर प्रदेश में हुए 10 उपचुनाव में बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस ने चुनाव नहीं लड़ा था. सीधा मुकाबला सपा और भाजपा के बीच था, जिस में सपा को केवल 2 सीटों पर जीत मिली और 8 सीटें भाजपा जीत ले गई.

अखिलेश यादव भाजपा की इस जीत को लोकतंत्र विरोधी बता रहे हैं. इस के बाद यह साफ हो गया है कि लोकसभा चुनाव में सपाकांग्रेस गठबंधन को वोट देने वाला एससी तबका सपा के साथ नहीं है. कांग्रेस और बसपा के चुनाव लड़ने के फैसले से वह भाजपा को विकल्प के रूप में देख रहा है.

गृह मंत्री अमित शाह द्वारा डाक्टर भीमराव अंबेडकर पर टिप्पणी किए जाने के मुद्दे को ले कर कांग्रेस नेताओं ने संसद से सड़क तक भाजपा और मोदी सरकार के खिलाफ मोरचा खोल दिया था.

कांग्रेस ने देशभर में ‘जय भीम’, ‘जय बापू’ और ‘जय संविधान’ नाम से अभियान शुरू किया था. राहुल गांधी ने साल 2024 का लोकसभा चुनाव संविधान और आरक्षण के मुद्दे पर लड़ा था.

इस का सियासी फायदा कांग्रेस और उस के सहयोगी दलों को मिला था. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को 6 सीटें मिली थीं और उस के सहयोगी दल सपा को 37 सीटों पर जीत मिली थी. इसी तरह महाराष्ट्र में भी संविधान और आरक्षण का दांव कारगर रहा था.

उत्तर प्रदेश में 42 ऐसे जिले हैं, जहां दलितों की तादाद 20 फीसदी से ज्यादा है. राज्य में सब से ज्यादा दलित आबादी सोनभद्र में 42 फीसदी, कौशांबी में 36 फीसदी, सीतापुर में 31 फीसदी है, बिजनौर और बाराबंकी में 25-25 फीसदी हैं. इस के अलावा सहारनपुर, बुलंदशहर, मेरठ, अंबेडकरनगर, जौनपुर में दलित समुदाय निर्णायक भूमिका में है.

इस तरह से उत्तर प्रदेश में दलित समाज के पास ही सत्ता की चाबी है, जिसे हर दल अपने हाथ में लेना चाहता है. दलितों के बीच ‘सामाजिक समरसता अभियान’ के तहत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने उस दलित वोटबैंक पर निशाना साधा, जिस पर बसपा ने कभी ध्यान ही नहीं दिया था. इस का फायदा भाजपा को सीधेसीधे देखने को मिला है.

धार्मिक दलित बने भाजपाई

‘रामचरित मानस’ की चौपाई ‘ढोल गंवार शूद्र पशु नारी’ को भूल कर एससी और ओबीसी का एक बड़ा तबका पूरी तरह से धार्मिक हो चुका है. यही भाजपा की सब से बड़ी ताकत है. भाजपा धर्म के जरीए राजनीति कर रही है. उस का प्रचार मंदिरों से होता है.

अब तकरीबन हर जाति के लोगों के अलगअलग मंदिर हैं, जहां लोग अपनेअपने भगवानों की पूजा करते हैं. धर्म के नाम पर वे भाजपा के साथ खड़े हो रहे हैं.

समाजवादी पार्टी का मूल वोटबैंक यादव समाज भी अब अखिलेश यादव के साथ पूरी तरह से नहीं है. वह सपा को पसंद करता है, लेकिन जैसे ही मुद्दा हिंदूमुसलिम का होता है, वह भाजपा के साथ खड़ा हो जाता है.

अयोध्या के करीब मिल्कीपुर विधानसभा सीट पर 6 महीने पहले लोकसभा चुनाव में फैजाबाद लोकसभा सीट सपा के अवधेश प्रसाद ने जीती थी. इस के बाद उन को विधायक की सीट छोड़नी पड़ी थी, जिस का उपचुनाव हुआ. सपा ने अवधेश प्रसाद के बेटे अजीत प्रसाद को टिकट दे दिया. विधानसभा के उपचुनाव में सपा तकरीबन 65,000 वोट से हार गई.

सपा चुनावी धांधली का कितना भी बहाना बनाए, पर सच यह है कि सपा के वोट कम हुए हैं. इस की वजह यह रही कि अवधेश प्रसाद को राजा अयोध्या कहना एससी और ओबीसी जातियों को भी अच्छा नहीं लगा. इस वजह से उन्होंने सपा के उम्मीदवार के खिलाफ वोट दे कर उस को हरवा दिया.

एससी अब ओबीसी के साथ खड़ा होने में हिचक रहा है. इस में ओबीसी की कमी है, क्योंकि वह खुद को ऊंची जाति का समझ कर वैसा ही बरताव एससी के साथ कर रहा है.

ओबीसी अब मन से ऊंची जाति का बन चुका है. मंडल कमीशन लागू करते समय यह सोचा गया था कि ओबीसी अपने तबके से कमजोर तबके को आगे बढ़ाएगा.

मंडल कमीशन की सिफारिशों का सब से ज्यादा फायदा यादव और कुर्मी जातियों ने आपस में बांट लिया. गरीब तबका गरीब ही रह गया. अब वह धर्म के सहारे आगे बढ़ कर खुद को ऊंची जाति वालों जैसा बना कर एससी से दूर हो रहा है.

एससी की सब से पहली पसंद हमेशा से ही कांग्रेस रही है. जैसेजैसे कांग्रेस मजबूत होगी, वैसेवैसे एससी और मुसलिम दोनों ही उस की तरफ जाएंगे. इन को लगता है कि भाजपा से टक्कर लेने का काम केवल कांग्रेस ही कर सकती है.

राहुल गांधी ही भाजपा का मुकाबला कर सकते हैं. एससी और मुसलिम दोनों ही कांग्रेस के पक्ष में तैयार खड़े हैं. ऐसे में अब समाजवादी पार्टी की मजबूरी है कि वह कांग्रेस को साथ ले कर चले. अगर ऐसा नहीं हुआ, तो दिल्ली जैसी हालत उत्तर प्रदेश में भी होगी. अरविंद केजरीवाल जैसा बरताव अखिलेश यादव को धूल चटा देगा.

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस नेताओं का कहना है कि सपा कांग्रेस को कमजोर न समझे, सहयोगी और साथी समझे, नहीं तो ‘हम तो डूबे हैं सनम तुम को भी ले डूबेंगे’.

मायावती ने भतीजे के पर कतरे : क्या सियासी गर्त में जा रही है Bahujan Samaj Party?

Bahujan Samaj Party : मायावती को कांशीराम की राजनीतिक धरोहर बहुजन समाज पार्टी जिस ऊंचाई पर ले जानी चाहिए, अगर उस के बजाय पार्टी अंधेरे गड्ढे में चली जा रही है, तो यह चिंता की बात है. मायावती बारबार ऐसे फैसले ले रही हैं, जिन से बहुजन समाज पार्टी कमजोर होती चली जा रही है. याद कीजिए, बसपा के निर्माता कांशीराम के समय के दिन, जब बसपा ने लीक से ह टकर राजनीति के क्षेत्र में अपना परचम लहराया था. वह परचम अब पुराना होता दिख रहा है, जिस की चमक बहुत ज्यादा फीकी हो गई है.

अब जब बहुजन समाज पार्टी को नई दिशा देने की कोशिश में जुटे आकाश आनंद को मायावती ने बाहर का रास्ता दिखाया है, तो एक बार फिर सवाल उठ गया है कि क्या मायावती का मकसद बसपा को पूरी तरह तबाह कर देना है?

दरअसल, आकाश आनंद ने अपने एक संबोधन में मायावती के कुछ करीबियों पर पार्टी के हित का ध्यान न रखने का आरोप लगाया था. यह बात बसपा सुप्रीमो मायावती को पसंद नहीं आई और पाटी को लगातार मिल रही हार की बौखलाहट भी आकाश आनंद के बाहर होने की अहम वजह बन गई. परिवारवाद के खिलाफ बोलने वाली मायावती आखिरकार खुद भी उसी राह पर चल पड़ी थीं. यह उन की सब से बड़ी गलती थी. अगर कांशीराम चाहते तो वे भी अपने किसी भाईभतीजे को बसपा सौंप सकते थे, मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया और भारतीय राजनीति में ऐसा काम किया, जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता.

लेकिन कुछ समय पहले मायावती ने पहले तो अपने भतीजे आकाश आनंद को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर खांटी बसपाइयों को भीतर ही भीतर नाराज कर दिया, फिर हरियाणा, राजस्थान और दिल्ली सरीखे राज्यों में हुए चुनाव की सारी जिम्मेदारी आकाश आनंद को सौंपी. आकाश
आनंद इन राज्यों में बसपा को दोबारा मुख्याधारा में लाने के लिए खासी मेहनत करते दिखाई दिए और एक दफा उन्होंने बहुजन समाज पार्टी के कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा था, ‘हमारे कुछ पदाधिकारी पाटी को फायदा पहुंचाने की जगह नुकसान पहुंचा रहे हैं. गलत लोग गलत जगह पर बैठे हैं, जिस से पार्टी को नुकसान हो रहा है. यह चीज मैं ने भी महसूस की. मुझे भी काम करने में बहुत दिक्कत आ रही है. कुछ लोग हमें भी काम नहीं करने दे रहे हैं. कुछ लोग ऐसे बैठे हैं जिन को अभी हम छेड़ नहीं सकते. जिन को हम हिला नहीं सकते. जिस तरह से पार्टी चल रही है, उस में काफी कमियां हैं.’

दरअसल, आकाश आनंद ने जिस तरह खुल कर पार्टी की खामियों के बारे में कार्यकर्ताओं से मंच से बात की, वह बड़ेबड़े नेताओं को पसंद नहीं आ रही थी. उन्हें लग रहा था कि आने वाले समय में उन की कुरसी खतरे में है. इस से पार्टी के बड़े नेताओं के बीच आकाश आनंद को ले कर विरोध के स्वर उठने लगे. नतीजतन, मायावती ने वही किया जो उन के आसपास बैठे लोगों ने उन्हें बताया और मजबूर कर दिया. आकाश आनंद को पार्टी से बाहर करने की वजह भी यही बनी.

बसपा सुप्रीमो मायावती ने आकाश आनंद को जिम्मेदारी सौंपी थी कि वे नौजवानों को बसपा के साथ जोड़ें, पर लगता है कि मायावती को अपने भतीजे के काम करने का तरीका पसंद नहीं आया.

अगर मायावती को बहुजन समाज पार्टी को सचमुच कांशीराम के पदचिह्नों पर आगे ले जाना है, तो आनंद प्रकाश जैसे लोगों को अहमियत देनी ही पड़ेगी. यह नहीं भूलना चाहिए कि बसपा का जो असर बहुजन समाज पर था, आज वह धीरेधीरे अगर कमजोर हो जा रहा है, तो उस की बड़ी वजह मायावती के काम करने के तरीके हैं.

गहरी पैठ : Cyber Fraud से सावधान!

Cyber Fraud : दिल्ली के एक अखबार में एक ही दिन एक पेज पर 6 खबरें छपीं जिन में औनलाइन फ्राडों का जिक्र था. 2 मामले डिजिटल अरैस्ट के थे. एक मामले में तो शिकार खुद पढ़ीलिखी डाक्टर थी जिसे घंटों तक शातिरों ने ‘डिजिटल अरैस्ट’ कर रखा था. डिजिटल अरैस्ट में कुछ अरैस्ट नहीं होता. बस शिकार को कहा जाता है कि अपना ह्वाट्सएप वीडियो औन रखो और वहीं उस के सामने बैठे रहो. दूसरी तरफ एक पुलिस अफसर के वेश में बैठा शख्स होता है जो कहता है कि किसी औनलाइन ट्रांजैक्शन की वजह से कोई जुर्म हुआ है.

धमकी दी जाती है कि अगर डिजिटल अरैस्ट की शर्तें नहीं मानी गईं तो असल में पुलिस कई गाडि़यों में आ कर गिरफ्तार कर लेगी और पूरे समाज में बदनाम हो जाओगे. इस दौरान रिश्वत के नाम पर मामले को रफादफा करने के लिए 27 लाख रुपए ट्रांसफर भी करवा लिए गए. शर्तों में एक शर्त यह भी होती है कि कोई दूसरा उस कमरे में न हो. बारबार धमकी दी जाती है कि पुलिस वाले घर के आसपास ही हैं और कभी भी धावा बोल कर असली अरैस्ट कर सकते हैं.

दूसरे मामले में 48 घंटे तक डिजिटल अरैस्ट कर के रखा गया और 5 लाख वसूल कर लिए गए. तीसरे में एक ग्राफिक डिजाइनर को 4 घंटे तक डिजिटल अरैस्ट कर के 2 लाख ठगे.

एक और मामले में मुनाफा दिलाने का लालच दे कर एक लैफ्टिनैंट कमांडर से 25 लाख रुपए झटक लिए गए. एक मामले में पुलिस ने नोएडा में काल सैंटर चलाते शख्स को पकड़ा जो देशविदेश में कंप्यूटर इस्तेमाल करने वालों को सौफ्टवेयर अपग्रेड करने का झांसा दे कर कंप्यूटर का पूरा डाटा इकट्ठा कर लेता था और फिर उस में से जरूरत की चीजें खंगाल कर या तो अकाउंट साफ करता या ब्लैकमेल करता था.

ये सब क्या लोगों की गलती से अपराध हो रहे हैं? नहीं, इन के लिए सरकार और सिर्फ सरकार जिम्मेदार है. मोबाइल की पहुंच लोगों की बातचीत के लिए थी पर सरकार ने बैंकों, जीएसटी, इनकम टैक्स, रिटर्नों, म्यूनिसिपल टैक्सों के लिए मोबाइल को पहचानपत्र, आईडैंटिटी कार्ड बना दिया. अब यह मोबाइल तो लोगों के हाथों में है पर इस के अंदर क्या तकनीक है यह लोगों को क्या पता. जिन्हें पता है वे सरकारी घोड़ों पर चढ़ कर अब लूटमार कर रहे हैं.

सरकार हर चीज के लिए पहले औनलाइन एप्लाई करने को कहती है, फिर ओटीपी आता है, फिर उसे औनलाइन डालना पड़ता है तो सरकारी काम होता है. सरकार ने अपने दफ्तरों के दरवाजों पर ताला डाल दिया है, वहां सिर्फ कंप्यूटर वायर जा रहे हैं तो जनता को कंप्यूटरों और मोबाइलों पर भरोसा तो करना ही पड़ेगा न.

टैलीकौम कंपनियों, इंटरनैट कंपनियों, मोबाइल कंपनियों ने दुनियाभर के बैंकों, सरकारों, कंपनियों, इंश्योरैंस कंपनियों को फांस लिया कि हर काम मोबाइल पर कराओ ताकि उन के मोबाइल बिकें, डाटा बिके और साथ ही हर नागरिक को पूरी तरह गिरफ्त में रखा जा सके. शातिर इसी का फायदा उठा रहे हैं.

मोबाइल इस्तेमाल कराने की जबरदस्ती सरकार ने की है, सरकार के बैंकों ने की है. सारे अपराधों की जमीन उस ने ही तैयार की है. सरकार 4 अखबारों में इश्तिहार दे कर बच नहीं सकती कि उस ने तो जनता को बता दिया था.

जिस दिन एक पेज में 6 घटनाएं छपीं, उस दिन देश के अलगअलग हिस्सों में सैकड़ों मामले हुए होंगे. गरीब लोगों को भी लूटा गया होगा, अमीरों को भी. अभी जैसे एक नंबर पर एक काल आई +245311151.

यह पक्के तौर पर फ्राड काल थी और अगर फोन उठा लिया जाता तो कोई बुरी बात ही होती. यह नंबर गुआना, कांगो, अंगोला कहीं का भी हो सकता है. फोन कहीं और से भी किया जा सकता है.

आम आदमी जिसे सरकार ने धकेला है कि हर फोन को उठाओ क्योंकि यह बैंक से हो सकता, टैक्स वालों का हो सकता है, पुलिस वालों का हो सकता है, कौरपोरेशन का हो सकता है कैसे पता करे कि वह जाल में फंसेगा नहीं. जिम्मेदार वह सरकार है जो मोबाइल को जबरन थोप रही है.

॥॥॥

शादीशुदाओं के प्यार में पड़ने और किसी पराए के साथ सोने के किस्से कभी भी कम नहीं होते थे. हमारी स्मृतियों में, जिन में हिंदू कानूनों को लिखा गया, ऐसी बहुत सी सजाओं के बारे में लिखा गया है जो उन मर्दों और औरतों को दी जाती थीं जो शादी के बाहर के बंधन बनाते थे. सतयुग, त्रेता युग, द्वापर युग भी जब उन से भरा हो तो किस संस्कार, किस संस्कृति, किस पुराने काल के अच्छे होने की बात की जा सकती है.

अभी उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में अदालत ने एक औरत को अपने मर्द को गोली से मारने की सजा सुनाई क्योंकि मर्द उस के एक लड़के के सैक्स संबंध पर एतराज कर रहा था और झगड़ रहा था. मजेदार बात यह है कि औरत के प्रेमी, पिता और भाई को भी सजा दी गई क्योंकि हत्या में तीनों का भी हाथ था. मर्द को सिर में गोली मारी गई थी.

इस मामले में औरत के 6 साल के बच्चे ने सच उगल दिया वरना तो पुलिस के पास सुबूत भी नहीं थे.

अपने मर्द से नाराज हो कर दूसरे के साथ सोना कोई नई बात नहीं है और अमेरिका में ऐसे बहुत से मामले नेताओं और चर्चों के पुजारियों के भी खूब सामने आते हैं. वहां के चुने गए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को तो लंपट माना गया है फिर भी उन को वहां की जनता ने जीत का सेहरा बांध दिया.

असल में मर्द अभी भी यह नहीं भूले हैं कि औरतें तो उन के लिए खिलौना हैं. बस फर्क यह हुआ?है कि अब औरतें अपनी मरजी कुछ ज्यादा चलाने लगी हैं और कुछ कानून पिछले 60-70 सालों में बने हैं जिन में औरतों की बात को पहला सच माना जाता है. जहां पहले औरतें समाज के डर की वजह से मुंह छिपाती थीं और किसी की ज्यादती या अपना प्यार छिपाती थीं, अब वे खुल कर सामने आने को तैयार हैं.

आज की औरत अपनी मेहनत, अपनी अक्ल के साथसाथ अपने बदन की भी पूरीपूरी कीमत वसूलना सीख रही है. वह न पिता की गुलाम रह गई है, न पति की या किसी और मर्द की. प्रेमी भी धोखा दे तो उसे भी थानेकचहरी में घसीटने में वह हिचकती नहीं है.

आदमी अभी भी पुरानी सोच वाले हैं कि औरत पैर की जूती है, उसे जैसे मरजी फेंको. अब औरतें अपनी दमदार हैसियत रखने वाली हैं. मुंबई में एक ऐक्टर ने एक लड़की को फेसबुक पर उस का लिखा देख कर बुलाया और फिर उस से जोरजबरदस्ती करने लगा. लड़की ने तुरंत शिकायत कर दी और अब ऐक्टर बंधाबंधा बरसों घूमेगा. वह कचहरियों से बच जाए शायद पर जिसे जूती समझ रहा था वह उस के सिर पर पड़ने लगी है.

गांवदेहातों की लड़कियां तो शहरी लड़कियों से आगे हैं. वे दमखम में कम नहीं हैं और उन के साथ 4 जने आसानी से खड़े हो जाते हैं. यह बदलाव धर्म के बावजूद आया है. अगर औरतों ने धर्म का पल्लू छोड़ दिया होता तो वे कब की आजाद हो चुकी होतीं. धर्म उन्हें असल में गुलाम बने रहने की पट्टी रोजाना 4 बार पढ़ाता है. उस के बावजूद अगर यह सब हो रहा है तो खुशी की ही बात है.

पिता की विरासत को आगे बढ़ाती डा. पल्लवी सिंह पटेल

उत्तर प्रदेश और बिहार में ‘रामचरितमानस’ को ले कर विवाद चल रहा है. डाक्टर पल्लवी सिंह पटेल का नाम भी सुर्खियों में है. वे अपने पिता डाक्टर सोनेलाल पटेल के विचारों को आगे बढ़ाते हुए कहती हैं, ‘‘हमें अपने समाज को जागरूक करने की जरूरत है, जिस से वह इन किताबों को पढ़े ही नहीं. किताब की कुछ लाइनों को हटाने से समाज का भला नहीं होने वाला है. जब तक हम समाज को जागरूक नहीं करेंगे, तब तक वह अंधविश्वास और कुरीतियों में फंस कर रूढि़वादी ताकतों के हाथों में खेलता रहेगा.’’

समाजवादी पार्टी की सहयोगी अपना दल (कमेरावादी) की नेता और विधायक डाक्टर पल्लवी सिंह पटेल ने समाजवादी पार्टी के एमएलसी स्वामी प्रसाद मौर्य पर भी निशाना साधा है. वे चौपाई पर की जा रही आपत्ति को सही करार देती हैं, लेकिन देर से बोलने पर एतराज भी जताया है.

डाक्टर पल्लवी सिंह पटेल ने कहा कि मुख्यमंत्री आवास को गंगाजल से धुलवाना गलत है. लेकिन स्वामी प्रसाद मौर्य ने उस वक्त इस पर सवाल क्यों नहीं उठाया, जब वे भारतीय जनता पार्टी में थे? अगर उन्हें इतना ही बुरा लगा था, तो नैतिकता के आधार पर पार्टी का साथ छोड़ देना चाहिए था.

विधायक डाक्टर पल्लवी सिंह पटेल ने कहा, ‘‘‘रामचरितमानस’ की चौपाई में लिखा है ताड़ना के अधिकारी. मैं एक नारी हूं और हिम्मत है तो कोई मेरी ताड़ना कर के दिखा तो दे. यह सिर्फ मन में होता है. अगर आप में शक्ति है तो लिखी हुई बातें आप कभी भी गलत साबित कर सकते हैं.

‘‘मैं खुद स्त्री हूं, लेकिन मेरी ताड़ना करने का अधिकार और हिम्मत कोई नहीं रखता है, इसलिए मेरा मानना है कि समाज को जागरूक और मजबूत बनाया जाए.’’

डाक्टर पल्लवी सिंह पटेल ने मायावती के ट्वीट का जवाब देते हुए कहा, ‘‘वे जिस गैस्ट हाउस कांड की बात कर रही हैं, वह पुरानी हो चुकी है. वे अबला नहीं हैं, बल्कि देश की मजबूत राजनीतिज्ञ हैं. उन्होंने कहा कि शूद्र तो हम हैं ही, लेकिन शूद्र होने को कैसे स्वीकार किया जाता है, यह मूल बात है.

‘‘मैं अपने काम को कर रही हूं. मैं ने अपने सिद्धांतों को कभी नहीं बदला. इस के लिए भले ही कितना ही संघर्ष करना पड़ा हो. मेरी पार्टी और परिवार में विभाजन को गया, पर मैं ने पिता की विरासत को अपनाया. सत्ता के सुख की परवाह नहीं की.’’

डिप्टी सीएम को दी मात

डाक्टर पल्लवी सिंह पटेल को अखिलेश यादव ने केशव प्रसाद मौर्य के खिलाफ 2022 के उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में सिराथू सीट से टिकट दिया था. मुकाबला कड़ा था. पल्लवी पटेल ने भारतीय जनता पार्टी के डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य को मात दे दी थी. उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में यह सब से बड़ा उलटफेर था.

डाक्टर पल्लवी सिंह पटेल डाक्टर सोनेलाल पटेल की बेटी हैं. डाक्टर सोनेलाल पटेल ने पिछड़ों और कमजोर लोगों का मजबूत बनाने के लिए अपना दल की स्थापना की थी.

डाक्टर पल्लवी सिंह पटेल नरेंद्र मोदी सरकार में केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल की बड़ी बहन हैं. वे अपना दल (कमेरावादी) की कार्यवाहक अध्यक्ष हैं. सिराथू विधानसभा सीट केशव प्रसाद मौर्य की पारंपरिक सीट रही है. यह सीट पटेल बहुल रही है. यहां पटेल और कुर्मी वोटरों में अपना दल की पैठ रही है. ऐसे में समाजवादी पार्टी ने डाक्टर पल्लवी सिंह पटेल को सिराथू से टिकट दे कर पटेल बिरादरी में सेंध लगाने की कोशिश की थी. सपा की यह योजना कामयाब हुई थी.

पिता की विरासत को संभाला

डाक्टर पल्लवी सिंह पटेल अपने पिता सोनेलाल पटेल के निधन के बाद साल 2009 में राजनीति में सक्रिय हुई थीं. अपना दल के संस्थापक सोनेलाल पटेल की 17 अक्तूबर, 2009 को एक सड़क हादसे में मौत हो गई थी. पिता के निधन के बाद उन की मां कृष्णा पटेल पार्टी की अध्यक्ष बनीं और अनुप्रिया पटेल ने राष्ट्रीय महासचिव की जिम्मेदारी संभाली. हालांकि साल 2014 में कृष्णा पटेल ने पल्लवी पटेल को पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया तो अनुप्रिया ने इस का विरोध किया. मामला 2016 में चुनाव आयोग पहुंचा तो पार्टी 2 धड़ों में बंट गई.

डाक्टर पल्लवी सिंह पटेल ने बायो टैक्नोलौजी से ग्रेजुएशन करने के बाद सब्जियों व फलों के फंगस पर अपनी पीएचडी पूरी की है. वे साल 2014 से अपना दल (कमेरावादी) की कार्यवाहक अध्यक्ष हैं. उन्होंने अपना राजनीतिक सफर पिता डाक्टर सोनेलाल पटेल के साथ शुरू किया था.

साल 2008 से पार्टी में सक्रिय रही डाक्टर पल्लवी सिंह पटेल ने अपने पिता डाक्टर सोनेलाल पटेल के साथ एक सहयोगी रूप में काम करना शुरू किया था. लंबे समय तक पार्टी की सक्रिय कार्यकर्ता रहने के बाद उन्होंने पार्टी की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष के पद पर काम किया. साल 2017 के विधानसभा चुनाव के बाद उन्होंने अपना दल (कमेरावादी) की कमान संभाली.

परिवार का साथ नहीं छोड़ा

साल 2022 के विधानसभा चुनाव से पहले केंद्रीय राज्यमंत्री अनुप्रिया पटेल की सब से छोटी बहन अमन पटेल ने अखिलेश यादव को एक भावुक पत्र लिख कर मां कृष्णा पटेल से इंसाफ दिलाने की गुहार लगाई थी. उन का कहना था कि मेरी सब से बड़ी बहन पल्लवी पटेल मां कृष्णा पटेल के साथ मिल कर पिता सोनेलाल पटेल ट्रस्ट की अकेली मालकिन बनना चाहती हैं, इसलिए आप हमें इंसाफ दिलाएं.

पिछले साल ही अमन पटेल ने उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक को पत्र लिख कर अपनी बड़ी बहन और अपना दल (कमेरावादी) की कार्यकारी अध्यक्ष पल्लवी पटेल पर पिता की संपत्ति हड़पने का आरोप लगाया था. पल्लवी पटेल और उन के पति पंकज सिंह समेत 5 लोगों के खिलाफ गोमतीनगर थाने में जालसाजी सहित 10 धाराओं में केस दर्ज किया गया था. आरोप था कि कुख्यात अपराधी ददुआ के रिश्तेदार के साथ मिल कर पल्लवी पटेल ने गोमतीनगर के एक फ्लैट पर कब्जा कर लिया था और विरोध करने पर फ्लैट के मालिक को जान से मारने की धमकी दी थी.

पल्लवी पटेल के पति पंकज निरंजन सिंह भी राजनीति में सक्रिय हैं. साल 2019 में पल्लवी पटेल की पार्टी ने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया था. कांग्रेस ने उन के पति पंकज सिंह को फूलपुर विधानसभा सीट से टिकट दिया था.

डाक्टर पल्लवी सिंह पटेल ने साल 2021 में कमेरा समाज की आवाज को सरकार तक पहुंचाने के लिए ‘कमेरा पद यात्रा’ निकली थी, जिस का मकसद था गांवगांव जा कर लोगों को अपने अधिकारों के बारे में जागरूक करना.

साल 2022 के विधानसभा चुनाव में पल्लवी पटेल ने विश्वनाथगंज के जगदीशपुर मंडी के निकट आयोजित चुनावी जनसभा को संबोधित करते हुए बिना नाम लिए अपनी छोटी बहन और भाजपा सरकार में केंद्रीय राज्यमंत्री अनुप्रिया पटेल के खिलाफ जोरदार हमला बोला था. उन्होंने अनुप्रिया पटेल को लालची भी कहा था. यह भी कहा था कि वे अपने समाज के साथसाथ मातापिता को भी धोखा दे रही हैं. डाक्टर पल्लवी सिंह पटेल ने अपनी बहन अनुप्रिया पटेल की तरह पिता के विचारों को छोड़ कर सत्ता का सुख लेने के लिए समझौता नहीं किया.

डाक्टर सोनेलाल पटेल ने मनुवादियों के खिलाफ संघर्ष किया था. वही काम आज डाक्टर पल्लवी सिंह पटेल कर रही हैं.

71,000 को नियुक्तिपत्र : नरेंद्र मोदी का ‘चुनावी बाण’

आज जब देश के 2 राज्यों गुजरात और हिमाचल प्रदेश में हाल ही में विधानसभा चुनाव हुए हैं, ऐसे में प्रधानमंत्री द्वारा लोगों को नौकरी का नियुक्तिपत्र दिया जाना एक ऐसा मसला बन कर सामने है, जो सीधेसीधे निष्पक्ष चुनाव को पलीता लगाने वाला कहा जा सकता है.

इस बारे में देश की जनता से एक ही सवाल है कि अगर आज टीएन शेषन मुख्य चुनाव अधिकारी होते तो क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 71,000 लोगों को तो क्या किसी एक को भी सरकारी नौकरी का नियुक्तिपत्र दे सकते थे?  इस का सीधा सा जवाब यही है कि बिलकुल नहीं.

देश का विपक्ष आज चुप है. देश की संवैधानिक संस्थाएं आज चुप हैं. इस आसान से लगने वाले एक मामले के आधार पर हम कह सकते हैं कि नरेंद्र मोदी सरकार और वे खुद लगातार कुछ न कुछ ऐसा कर रहे हैं, जिस से नियमकायदों और नैतिकता की धज्जियां उड़ रही हैं.

जैसा कि हम सब जानते हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 10 लाख कर्मियों के लिए भरती अभियान वाले ‘रोजगार मेला’ के तहत तकरीबन 71,000 नौजवानों को नियुक्तिपत्र सौंपे थे. प्रधानमंत्री कार्यालय ने एक बयान में यह जानकारी दी थी.

कहा गया था कि ‘रोजगार मेला’ नौजवानों को रोजगार के मौके देने को सर्वोच्च प्राथमिकता देने की दिशा में प्रधानमंत्री की प्रतिबद्धता को पूरा करने में एक बड़ा कदम है.

सभी जानते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गुजरात और हिमाचल प्रदेश  लगातार जा रहे थे और लोगों को संबोधित कर रहे थे. ऐसे में चुनाव के वक्त नियुक्तियों का यह झुनझुना सीधेसीधे मतदान को प्रभावित करने वाला था, इसलिए इस पर निर्वाचन आयोग को खुद संज्ञान ले कर रोक लगानी चाहिए. सरकारी नौकरियों का लौलीपौप

लाख टके का सवाल यही है कि आज जब गुजरात, जो नरेंद्र मोदी का गृह प्रदेश है और जहां से उन्होंने अपनी राजनीति का सफर शुरू किया था और प्रधानमंत्री पद पर पहुंचे हैं, सारा देश जानता है कि गुजरात प्रदेश का विधानसभा चुनाव नरेंद्र मोदी के लिए कितनी अहम जगह रखता है, क्योंकि गुजरात की जीत सीधेसीधे नरेंद्र मोदी की जीत और गुजरात की हार उन की हार कही जाएगी.

ऐसे में नियुक्तिपत्र का यह लौलीपौप संविधान के निष्पक्ष चुनाव के विरुद्ध है और हम नरेंद्र मोदी से पूछना चाहते हैं कि अगर वे खुद विपक्ष में होते और अगर सत्ताधारी पार्टी ऐसे करती तो क्या वे चुप रहते?

जैसा कि प्रधानमंत्री कार्यालय के बयान में कहा गया कि ‘यह’ रोजगार मेला रोजगार सृजन में उत्प्रेरक के रूप में काम करेगा और युवाओं को उन के सशक्तीकरण और राष्ट्रीय विकास में सीधी भागीदारी के लिए सार्थक अवसर प्रदान करेगा.

हम कह सकते हैं कि गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनाव के वक्त यह सब करना सीधेसीधे निष्पक्ष चुनाव को प्रभावित करने वाला था. आप को याद होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस से पहले अक्तूबर महीने में ‘रोजगार मेला’ की शुरुआत

की थी. उन्होंने एक समारोह में 71,000 नवनियुक्त कर्मियों को नियुक्तिपत्र सौंपे थे. हालांकि प्रधानमंत्री कार्यालय ने कहा है कि गुजरात और हिमाचल प्रदेश को छोड़ कर देश की 45 जगहों पर नियुक्त कर्मियों को नियुक्तिपत्र सौंपे जाएंगे. ऐसा कहना भी यह साबित करता है कि यह चुनाव वोटरों को प्रभावित करने का ही एक खेल था.

दरअसल, नियुक्तिपत्र बांटने का काम कर के यह बताया जा रहा है कि आने वाले समय में हम ऐसा काम करेंगे, जिस से साफ है कि यह वोटरों को प्रभावित करने की ही एक कोशिश है. पिछली बार जिन श्रेणियों में नौजवानों को नियुक्ति दी गई थी, उन के अलावा इस बार शिक्षक, व्याख्याता, नर्स, नर्सिंग अधिकारी, चिकित्सक, फार्मासिस्ट, रेडियोग्राफर और अन्य तकनीकी और पैरामैडिकल पदों पर भी नियुक्ति की जाएगी. प्रधानमंत्री कार्यालय ने बताया कि इस बार अच्छीखासी तादाद में केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा विभिन्न केंद्रीय बलों में भी नौजवानों को नियुक्ति दी गई है. प्रधानमंत्री नवनियुक्त कर्मियों के लिए आयोजित किए जाने वाले औनलाइन ओरिएंटेशन कोर्स ‘कर्मयोगी प्रारंभ’ की भी शुरुआत करेंगे.

इस में सरकारी कर्मचारियों के लिए आचार संहिता, कार्यस्थल, नैतिकता और ईमानदारी, मानव संसाधन नीतियां और अन्य लाभ व भत्ते से संबंधित जानकारियां शामिल होंगी, जो उन्हें नीतियों के अनुकूल और नवीन भूमिका में आसानी से ढल जाने में मदद करेंगी. इस सब के बावजूद हम तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से यही सवाल करते हैं कि क्या नियुक्तिपत्र देने का काम प्रधानमंत्री कार्यालय का है और यह कब से हो गया? नियमानुसार तो नियुक्तिपत्र वह विभाग देता है, जिस के अधीनस्थ कर्मचारी काम करता है. प्रधानमंत्री कार्यालय या प्रधानमंत्री का यह काम नहीं है और यह बात देश का हर नागरिक जानता है.

टैक्स: क्या थी सरकार की नीति

सस्ती या मुफ्त बिजलीपानीपढ़ाईखाने को ले कर प्रधानमंत्री ने रेवड़ी बांटो कल्चर कह कर बदनाम करना शुरू किया है. ये सस्ती चीजें देश के उन गरीबों को मिलती हैं जिन को समाज आज भी इतना कमाने का मौका नहीं दे रहा है कि वे अपने लिए जिंदगी जीने के लिए इन पहली चीजों का इंतजाम कर सकें. भारतीय जनता पार्टी ने चूंकि सरकारों का खजाना खाली कर दिया है और वह बेतहाशा पैसा अमीरों के लिए खर्च कर रही हैचुनावों में ये सस्ती चीजें देने की बात से उसे चिढ़ होने लगी है. भारतीय जनता पार्टी की कल्चर तो यह है कि सस्ता सिर्फ मंदिरों को मिले जो न बिजली का बिल देते हैं चाहे जितनी बिजली खर्च करेंन पानी का बिल देते हैं चाहे कितना बहाएंन नगरनिगम को टैक्स देते हैं चाहे जितना बनाएं. भारतीय जनता पार्टी के लिए सस्ती चीजें पाने वाले असल में पापी हैं जिन्होंने पिछले जन्मों में पुण्य नहीं किएदान नहीं दिया और अब उस की सजा भुगत रहे हैं. हमारे धर्मग्रंथ इन किस्सों से भरे हैं और प्रधानमंत्री व अन्य भाजपा नेताओं के मुंह से ये बातें निकलतीफिसलती रहती हैं.

गरीब जनता को सस्ती बिजलीपानी व खाना असल में अमीरों के फायदे के लिए होता है. जैसे ही एक गरीब घर को सस्ती बिजली व घर में मुफ्त पानी मिलने लगता हैउस की सेहत सुधर जाती हैउस के काम के घंटे बढ़ जाते हैं और वह कम तनख्वाह पर काम करने को तैयार होने लगता है.

दुनिया के कई देशों ने सस्ते घर भी अपने गरीब और मध्यम वर्गों को दिए और वहां वेतन काफी कम हो गए और लोग ज्यादा मेहनत करने लगे क्योंकि उन्हें छत के लिए दरदर नहीं भटकना पड़ता. दिल्लीमुंबईलखनऊ या किसी भी बड़े शहर की गरीब बस्ती को देख लें. वहां लोग घंटों पीने के पानीराशन की दुकानों और यहां तक कि शौच की जगह के लिए बरबाद करते हैं. उन घरों में एक आफत नौकरी होती है तो दूसरी यह कि चूल्हा कैसे जलेगापकेगा कैसेलोग नहाएंगे कैसेपीएंगे क्यादेश के व्यापारकारखानेखेत इतना पैसा नहीं दे पाते कि लोग पूरे दामों में कोई चीज खरीद सकें.

और फिर यह पूरा दाम क्या हैज्यादातर रोजमर्रा की चीजों में दाम असल में टैक्स से भरे होते हैं. हर चीज को बनानेपैदा करने में जितना पैसा लगता है उस का तीनचौथाई तक टैक्स होता है. तरहतरह के टैक्स जीएसटी के बावजूद मौजूद हैं. अगर ईमानदारी से टैक्स दिया जाए तो जीएसटी छोटे से दुकानदार के बड़े होलसेल दुकानदार से सिर पर सामान लाद कर अपनी 10×10 फुट की दुकान पर बेचता है तो उस की मेहनत पर भी टैक्स लग जाता है. वह अगर कोई चीज 100 रुपए में लाता है120 में बेचता है तो 20 रुपए पर टैक्स देना पड़ता है वह भी 12 से 18 फीसदी. गरीब को टैक्स से चूसने वाली सरकार को यह बुरा लग रहा है कि कोई इस गरीब को मुफ्त सामान दे कर उस को टैक्स की मार से फ्री कर रहा है. भारतीय जनता पार्टी के लिए जीएसटी तो जनता से जबरन वसूला गया दानपुण्य है और जो कहे कि यह सामान ही मुफ्त है वह इस दानपुण्य की महान हिंदू संस्कृति पर हमला कर रहा है. उसे रेवड़ी बांटना नहीं कहा जाए तो क्या कहा जाए. हमारे धर्मग्रंथ तो कहते हैं कि रेवड़ी बांटो नहींशूद्र के पास जो भी संपत्ति हो वह राजा जब्त कर ले.

हेमंत सोरेन की चुनौती और भाजपा

आजकल देश में एक तरह से राजनीतिक गृह युद्ध के हालात हैं. एक तरफ है केंद्र की सरकार, जिस का नेतृत्व भारतीय जनता पार्टी कर रही है, तो वहीं दूसरी तरफ है देश के अनेक प्रदेशों के मुख्यमंत्री और क्षेत्रीय राजनीतिक दल, साथ में कांग्रेस. भारतीय जनता पार्टी ने केंद्र में सरकार बनाने के बाद यह टारगेट तय कर लिया है कि देशभर में भाजपा की सरकार ही होनी चाहिए और यह कोई दबीछिपी बात भी नहीं है. इस की घोषणा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई दफा कर चुके हैं. अब जो सीन दिखाई दे रहा है, उस में प्रवर्तन निदेशालय और केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो द्वारा लगातार विपक्ष की सरकारों, मुख्यमंत्रियों और उन की गुड लिस्ट में शामिल लोगों को निशाने पर लेने की घटनाएं आम हैं.

यह देश देख चुका है कि किस तरह सोनिया गांधी, राहुल गांधी समेत प्रियंका गांधी और अनेक बड़े नेताओं पर प्रवर्तन निदेशालय का शिकंजा कसा गया और माहौल यह बना दिया है कि यही लोग सब से बड़े अपराधी हैं. हां, यह हो सकता है कि गलतियां हुई हों, अपराध भी हुए हों, मगर इन सब हालात से जो माहौल देश का बन रहा है, वह खतरनाक साबित हो सकता है. आज देशभर में झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन का एक बयान चर्चा में है कि अगर मैं अपराधी हूं, तो मुझे गिरफ्तार कर लिया जाए.  उन्होंने प्रवर्तन निदेशालय के नोटिस को एक तरह से नजरअंदाज किया है. यह घटना देश के इतिहास में एक ऐसा टर्निंग पौइंट बन सकती है, जहां से देश का एक नया राजनीतिक राजमार्ग बन सकता है.  दरअसल, झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने ईडी के समन के बाद तेवर कड़े कर के एक संदेश दिया है. वे चुनौती की मुद्रा में हैं और उसी अंदाज में विरोधियों पर पलटवार की भी तैयारी है. झारखंड में सत्तारूढ़ झारखंड मुक्ति मोरचा ने साफतौर पर ऐलान किया है कि अगर सरकार के साथ साजिश हुई, तो छोड़ेंगे नहीं.

4 नवंबर, 2022 को रांची में झारखंड मुक्ति मोरचा समर्थकों की जुटी भीड़ का भी अंदाज तल्ख था. झामुमो के निशाने पर प्रवर्तन निदेशालय, राज्यपाल और भाजपा है. समर्थकों को आंदोलन के आगाज का निर्देश दिया गया है. झारखंड मुक्ति मोरचा के कार्यकर्ता सभी जिला मुख्यालयों में सरकार को अस्थिर करने की कोशिशों के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं और प्रदेशभर में यह संदेश दिया जा रहा है कि हेमंत सोरेन की सरकार को भारतीय जनता पार्टी कमजोर करने का काम कर रही है. कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष राजेश ठाकुर ने सभी जिला इकाइयों को निर्देश जारी किया है कि कार्यकर्ता पूरी मजबूती के साथ प्रदर्शन में शामिल हों. अब जैसा कि सारा देश जानता है कि भारतीय जनता पार्टी के तेवर हमेशा आक्रामक रहते हैं. जब से देश में नरेंद्र मोदी की सरकार आई है और गृह मंत्री के रूप में अमित शाह हैं, भाजपा हर मौके पर वार करने की हालत में रहती है.  यहां भी भाजपा के तेवर यह बता  रहे हैं कि हेमंत सोरेन से सत्ता हासिल करने के लिए और उन की छवि को खराब करने की कोशिश में भाजपा पीछे नहीं रहेगी. इधर भाजपा ने प्रखंड मुख्यालयों से आंदोलन शुरू करने की घोषणा की है.

शक्ति प्रदर्शन की इस कवायद से राजनीतिक टकराव की बैकग्राउंड तैयार हो रही है.  हालात की गंभीरता को देखते हुए राजधानी में भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश कार्यालय में सुरक्षा के कड़े बंदोबस्त किए गए हैं. ईडी के क्षेत्रीय कार्यालय और राजभवन की सुरक्षा व्यवस्था भी बढ़ाई गई है. उठ खड़ा होगा  संवैधानिक संकट जैसे हालात झारखंड समेत देश के कुछ राज्यों में बन रहे हैं, इस सिलसिले में कहा जा सकता है कि आने वाले समय में संवैधानिक संकट खड़े होने का डर है.  सच तो यह है कि चाहे केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो हो या प्रवर्तन निदेशालय, उन का इस्तेमाल नैतिक रूप से ईमानदारी से किया जाना चाहिए, ताकि कोई भी यह न कह सके कि उन का गलत इस्तेमाल किया जा रहा है.  ऐसा पहले कई दफा हुआ है, जिस का सब से बड़ा उदाहरण लालू प्रसाद यादव हैं, जिन्होंने हमेशा कानून पर आस्था जाहिर की है और हर एक कार्यवाही को सम्मान के साथ स्वीकार किया है. यह भी सच है, जिस से इनकार नहीं किया जा सकता कि आज की कई सरकारें भ्रष्टतम आचरण कर रही हैं, अनेक बड़े घोटाले का खेल जारी है. ऐसे में अगर केंद्रीय एजेंसियां शिकंजा कस रही हैं, तो नैतिकता के नाम पर आप विरोध कैसे कर सकते हैं? नतीजतन, आंदोलन के लिए सत्तापक्ष और विपक्ष के अपनेअपने मुद्दे हैं.

भाजपा, ईडी और राजभवन के खिलाफ आंदोलन का आह्वान कर विरोधी दल शक्ति प्रदर्शन करने की तैयारी में हैं. उधर भाजपा ने राज्य सरकार पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए घेराबंदी तेज की है.  देश और प्रदेश की जनता आज दुविधा में है कि वह राज्य सरकार के पक्ष में खड़ी हो या केंद्र सरकार के पक्ष में. आवाम प्रवर्तन निदेशालय, केंद्रीय जांच ब्यूरो के खिलाफ झारखंड मुक्ति मोरचा के हेमंत सोरेन के पक्ष में खड़ी हो या केंद्रीय जांच एजेंसियों की कार्यवाही के पक्ष में. ऐसे में आने वाला समय संवैधानिक संकट का आगाज कर रहा है.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें