पिता की विरासत को आगे बढ़ाती डा. पल्लवी सिंह पटेल

उत्तर प्रदेश और बिहार में ‘रामचरितमानस’ को ले कर विवाद चल रहा है. डाक्टर पल्लवी सिंह पटेल का नाम भी सुर्खियों में है. वे अपने पिता डाक्टर सोनेलाल पटेल के विचारों को आगे बढ़ाते हुए कहती हैं, ‘‘हमें अपने समाज को जागरूक करने की जरूरत है, जिस से वह इन किताबों को पढ़े ही नहीं. किताब की कुछ लाइनों को हटाने से समाज का भला नहीं होने वाला है. जब तक हम समाज को जागरूक नहीं करेंगे, तब तक वह अंधविश्वास और कुरीतियों में फंस कर रूढि़वादी ताकतों के हाथों में खेलता रहेगा.’’

समाजवादी पार्टी की सहयोगी अपना दल (कमेरावादी) की नेता और विधायक डाक्टर पल्लवी सिंह पटेल ने समाजवादी पार्टी के एमएलसी स्वामी प्रसाद मौर्य पर भी निशाना साधा है. वे चौपाई पर की जा रही आपत्ति को सही करार देती हैं, लेकिन देर से बोलने पर एतराज भी जताया है.

डाक्टर पल्लवी सिंह पटेल ने कहा कि मुख्यमंत्री आवास को गंगाजल से धुलवाना गलत है. लेकिन स्वामी प्रसाद मौर्य ने उस वक्त इस पर सवाल क्यों नहीं उठाया, जब वे भारतीय जनता पार्टी में थे? अगर उन्हें इतना ही बुरा लगा था, तो नैतिकता के आधार पर पार्टी का साथ छोड़ देना चाहिए था.

विधायक डाक्टर पल्लवी सिंह पटेल ने कहा, ‘‘‘रामचरितमानस’ की चौपाई में लिखा है ताड़ना के अधिकारी. मैं एक नारी हूं और हिम्मत है तो कोई मेरी ताड़ना कर के दिखा तो दे. यह सिर्फ मन में होता है. अगर आप में शक्ति है तो लिखी हुई बातें आप कभी भी गलत साबित कर सकते हैं.

‘‘मैं खुद स्त्री हूं, लेकिन मेरी ताड़ना करने का अधिकार और हिम्मत कोई नहीं रखता है, इसलिए मेरा मानना है कि समाज को जागरूक और मजबूत बनाया जाए.’’

डाक्टर पल्लवी सिंह पटेल ने मायावती के ट्वीट का जवाब देते हुए कहा, ‘‘वे जिस गैस्ट हाउस कांड की बात कर रही हैं, वह पुरानी हो चुकी है. वे अबला नहीं हैं, बल्कि देश की मजबूत राजनीतिज्ञ हैं. उन्होंने कहा कि शूद्र तो हम हैं ही, लेकिन शूद्र होने को कैसे स्वीकार किया जाता है, यह मूल बात है.

‘‘मैं अपने काम को कर रही हूं. मैं ने अपने सिद्धांतों को कभी नहीं बदला. इस के लिए भले ही कितना ही संघर्ष करना पड़ा हो. मेरी पार्टी और परिवार में विभाजन को गया, पर मैं ने पिता की विरासत को अपनाया. सत्ता के सुख की परवाह नहीं की.’’

डिप्टी सीएम को दी मात

डाक्टर पल्लवी सिंह पटेल को अखिलेश यादव ने केशव प्रसाद मौर्य के खिलाफ 2022 के उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में सिराथू सीट से टिकट दिया था. मुकाबला कड़ा था. पल्लवी पटेल ने भारतीय जनता पार्टी के डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य को मात दे दी थी. उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में यह सब से बड़ा उलटफेर था.

डाक्टर पल्लवी सिंह पटेल डाक्टर सोनेलाल पटेल की बेटी हैं. डाक्टर सोनेलाल पटेल ने पिछड़ों और कमजोर लोगों का मजबूत बनाने के लिए अपना दल की स्थापना की थी.

डाक्टर पल्लवी सिंह पटेल नरेंद्र मोदी सरकार में केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल की बड़ी बहन हैं. वे अपना दल (कमेरावादी) की कार्यवाहक अध्यक्ष हैं. सिराथू विधानसभा सीट केशव प्रसाद मौर्य की पारंपरिक सीट रही है. यह सीट पटेल बहुल रही है. यहां पटेल और कुर्मी वोटरों में अपना दल की पैठ रही है. ऐसे में समाजवादी पार्टी ने डाक्टर पल्लवी सिंह पटेल को सिराथू से टिकट दे कर पटेल बिरादरी में सेंध लगाने की कोशिश की थी. सपा की यह योजना कामयाब हुई थी.

पिता की विरासत को संभाला

डाक्टर पल्लवी सिंह पटेल अपने पिता सोनेलाल पटेल के निधन के बाद साल 2009 में राजनीति में सक्रिय हुई थीं. अपना दल के संस्थापक सोनेलाल पटेल की 17 अक्तूबर, 2009 को एक सड़क हादसे में मौत हो गई थी. पिता के निधन के बाद उन की मां कृष्णा पटेल पार्टी की अध्यक्ष बनीं और अनुप्रिया पटेल ने राष्ट्रीय महासचिव की जिम्मेदारी संभाली. हालांकि साल 2014 में कृष्णा पटेल ने पल्लवी पटेल को पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया तो अनुप्रिया ने इस का विरोध किया. मामला 2016 में चुनाव आयोग पहुंचा तो पार्टी 2 धड़ों में बंट गई.

डाक्टर पल्लवी सिंह पटेल ने बायो टैक्नोलौजी से ग्रेजुएशन करने के बाद सब्जियों व फलों के फंगस पर अपनी पीएचडी पूरी की है. वे साल 2014 से अपना दल (कमेरावादी) की कार्यवाहक अध्यक्ष हैं. उन्होंने अपना राजनीतिक सफर पिता डाक्टर सोनेलाल पटेल के साथ शुरू किया था.

साल 2008 से पार्टी में सक्रिय रही डाक्टर पल्लवी सिंह पटेल ने अपने पिता डाक्टर सोनेलाल पटेल के साथ एक सहयोगी रूप में काम करना शुरू किया था. लंबे समय तक पार्टी की सक्रिय कार्यकर्ता रहने के बाद उन्होंने पार्टी की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष के पद पर काम किया. साल 2017 के विधानसभा चुनाव के बाद उन्होंने अपना दल (कमेरावादी) की कमान संभाली.

परिवार का साथ नहीं छोड़ा

साल 2022 के विधानसभा चुनाव से पहले केंद्रीय राज्यमंत्री अनुप्रिया पटेल की सब से छोटी बहन अमन पटेल ने अखिलेश यादव को एक भावुक पत्र लिख कर मां कृष्णा पटेल से इंसाफ दिलाने की गुहार लगाई थी. उन का कहना था कि मेरी सब से बड़ी बहन पल्लवी पटेल मां कृष्णा पटेल के साथ मिल कर पिता सोनेलाल पटेल ट्रस्ट की अकेली मालकिन बनना चाहती हैं, इसलिए आप हमें इंसाफ दिलाएं.

पिछले साल ही अमन पटेल ने उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक को पत्र लिख कर अपनी बड़ी बहन और अपना दल (कमेरावादी) की कार्यकारी अध्यक्ष पल्लवी पटेल पर पिता की संपत्ति हड़पने का आरोप लगाया था. पल्लवी पटेल और उन के पति पंकज सिंह समेत 5 लोगों के खिलाफ गोमतीनगर थाने में जालसाजी सहित 10 धाराओं में केस दर्ज किया गया था. आरोप था कि कुख्यात अपराधी ददुआ के रिश्तेदार के साथ मिल कर पल्लवी पटेल ने गोमतीनगर के एक फ्लैट पर कब्जा कर लिया था और विरोध करने पर फ्लैट के मालिक को जान से मारने की धमकी दी थी.

पल्लवी पटेल के पति पंकज निरंजन सिंह भी राजनीति में सक्रिय हैं. साल 2019 में पल्लवी पटेल की पार्टी ने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया था. कांग्रेस ने उन के पति पंकज सिंह को फूलपुर विधानसभा सीट से टिकट दिया था.

डाक्टर पल्लवी सिंह पटेल ने साल 2021 में कमेरा समाज की आवाज को सरकार तक पहुंचाने के लिए ‘कमेरा पद यात्रा’ निकली थी, जिस का मकसद था गांवगांव जा कर लोगों को अपने अधिकारों के बारे में जागरूक करना.

साल 2022 के विधानसभा चुनाव में पल्लवी पटेल ने विश्वनाथगंज के जगदीशपुर मंडी के निकट आयोजित चुनावी जनसभा को संबोधित करते हुए बिना नाम लिए अपनी छोटी बहन और भाजपा सरकार में केंद्रीय राज्यमंत्री अनुप्रिया पटेल के खिलाफ जोरदार हमला बोला था. उन्होंने अनुप्रिया पटेल को लालची भी कहा था. यह भी कहा था कि वे अपने समाज के साथसाथ मातापिता को भी धोखा दे रही हैं. डाक्टर पल्लवी सिंह पटेल ने अपनी बहन अनुप्रिया पटेल की तरह पिता के विचारों को छोड़ कर सत्ता का सुख लेने के लिए समझौता नहीं किया.

डाक्टर सोनेलाल पटेल ने मनुवादियों के खिलाफ संघर्ष किया था. वही काम आज डाक्टर पल्लवी सिंह पटेल कर रही हैं.

71,000 को नियुक्तिपत्र : नरेंद्र मोदी का ‘चुनावी बाण’

आज जब देश के 2 राज्यों गुजरात और हिमाचल प्रदेश में हाल ही में विधानसभा चुनाव हुए हैं, ऐसे में प्रधानमंत्री द्वारा लोगों को नौकरी का नियुक्तिपत्र दिया जाना एक ऐसा मसला बन कर सामने है, जो सीधेसीधे निष्पक्ष चुनाव को पलीता लगाने वाला कहा जा सकता है.

इस बारे में देश की जनता से एक ही सवाल है कि अगर आज टीएन शेषन मुख्य चुनाव अधिकारी होते तो क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 71,000 लोगों को तो क्या किसी एक को भी सरकारी नौकरी का नियुक्तिपत्र दे सकते थे?  इस का सीधा सा जवाब यही है कि बिलकुल नहीं.

देश का विपक्ष आज चुप है. देश की संवैधानिक संस्थाएं आज चुप हैं. इस आसान से लगने वाले एक मामले के आधार पर हम कह सकते हैं कि नरेंद्र मोदी सरकार और वे खुद लगातार कुछ न कुछ ऐसा कर रहे हैं, जिस से नियमकायदों और नैतिकता की धज्जियां उड़ रही हैं.

जैसा कि हम सब जानते हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 10 लाख कर्मियों के लिए भरती अभियान वाले ‘रोजगार मेला’ के तहत तकरीबन 71,000 नौजवानों को नियुक्तिपत्र सौंपे थे. प्रधानमंत्री कार्यालय ने एक बयान में यह जानकारी दी थी.

कहा गया था कि ‘रोजगार मेला’ नौजवानों को रोजगार के मौके देने को सर्वोच्च प्राथमिकता देने की दिशा में प्रधानमंत्री की प्रतिबद्धता को पूरा करने में एक बड़ा कदम है.

सभी जानते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गुजरात और हिमाचल प्रदेश  लगातार जा रहे थे और लोगों को संबोधित कर रहे थे. ऐसे में चुनाव के वक्त नियुक्तियों का यह झुनझुना सीधेसीधे मतदान को प्रभावित करने वाला था, इसलिए इस पर निर्वाचन आयोग को खुद संज्ञान ले कर रोक लगानी चाहिए. सरकारी नौकरियों का लौलीपौप

लाख टके का सवाल यही है कि आज जब गुजरात, जो नरेंद्र मोदी का गृह प्रदेश है और जहां से उन्होंने अपनी राजनीति का सफर शुरू किया था और प्रधानमंत्री पद पर पहुंचे हैं, सारा देश जानता है कि गुजरात प्रदेश का विधानसभा चुनाव नरेंद्र मोदी के लिए कितनी अहम जगह रखता है, क्योंकि गुजरात की जीत सीधेसीधे नरेंद्र मोदी की जीत और गुजरात की हार उन की हार कही जाएगी.

ऐसे में नियुक्तिपत्र का यह लौलीपौप संविधान के निष्पक्ष चुनाव के विरुद्ध है और हम नरेंद्र मोदी से पूछना चाहते हैं कि अगर वे खुद विपक्ष में होते और अगर सत्ताधारी पार्टी ऐसे करती तो क्या वे चुप रहते?

जैसा कि प्रधानमंत्री कार्यालय के बयान में कहा गया कि ‘यह’ रोजगार मेला रोजगार सृजन में उत्प्रेरक के रूप में काम करेगा और युवाओं को उन के सशक्तीकरण और राष्ट्रीय विकास में सीधी भागीदारी के लिए सार्थक अवसर प्रदान करेगा.

हम कह सकते हैं कि गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनाव के वक्त यह सब करना सीधेसीधे निष्पक्ष चुनाव को प्रभावित करने वाला था. आप को याद होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस से पहले अक्तूबर महीने में ‘रोजगार मेला’ की शुरुआत

की थी. उन्होंने एक समारोह में 71,000 नवनियुक्त कर्मियों को नियुक्तिपत्र सौंपे थे. हालांकि प्रधानमंत्री कार्यालय ने कहा है कि गुजरात और हिमाचल प्रदेश को छोड़ कर देश की 45 जगहों पर नियुक्त कर्मियों को नियुक्तिपत्र सौंपे जाएंगे. ऐसा कहना भी यह साबित करता है कि यह चुनाव वोटरों को प्रभावित करने का ही एक खेल था.

दरअसल, नियुक्तिपत्र बांटने का काम कर के यह बताया जा रहा है कि आने वाले समय में हम ऐसा काम करेंगे, जिस से साफ है कि यह वोटरों को प्रभावित करने की ही एक कोशिश है. पिछली बार जिन श्रेणियों में नौजवानों को नियुक्ति दी गई थी, उन के अलावा इस बार शिक्षक, व्याख्याता, नर्स, नर्सिंग अधिकारी, चिकित्सक, फार्मासिस्ट, रेडियोग्राफर और अन्य तकनीकी और पैरामैडिकल पदों पर भी नियुक्ति की जाएगी. प्रधानमंत्री कार्यालय ने बताया कि इस बार अच्छीखासी तादाद में केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा विभिन्न केंद्रीय बलों में भी नौजवानों को नियुक्ति दी गई है. प्रधानमंत्री नवनियुक्त कर्मियों के लिए आयोजित किए जाने वाले औनलाइन ओरिएंटेशन कोर्स ‘कर्मयोगी प्रारंभ’ की भी शुरुआत करेंगे.

इस में सरकारी कर्मचारियों के लिए आचार संहिता, कार्यस्थल, नैतिकता और ईमानदारी, मानव संसाधन नीतियां और अन्य लाभ व भत्ते से संबंधित जानकारियां शामिल होंगी, जो उन्हें नीतियों के अनुकूल और नवीन भूमिका में आसानी से ढल जाने में मदद करेंगी. इस सब के बावजूद हम तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से यही सवाल करते हैं कि क्या नियुक्तिपत्र देने का काम प्रधानमंत्री कार्यालय का है और यह कब से हो गया? नियमानुसार तो नियुक्तिपत्र वह विभाग देता है, जिस के अधीनस्थ कर्मचारी काम करता है. प्रधानमंत्री कार्यालय या प्रधानमंत्री का यह काम नहीं है और यह बात देश का हर नागरिक जानता है.

टैक्स: क्या थी सरकार की नीति

सस्ती या मुफ्त बिजलीपानीपढ़ाईखाने को ले कर प्रधानमंत्री ने रेवड़ी बांटो कल्चर कह कर बदनाम करना शुरू किया है. ये सस्ती चीजें देश के उन गरीबों को मिलती हैं जिन को समाज आज भी इतना कमाने का मौका नहीं दे रहा है कि वे अपने लिए जिंदगी जीने के लिए इन पहली चीजों का इंतजाम कर सकें. भारतीय जनता पार्टी ने चूंकि सरकारों का खजाना खाली कर दिया है और वह बेतहाशा पैसा अमीरों के लिए खर्च कर रही हैचुनावों में ये सस्ती चीजें देने की बात से उसे चिढ़ होने लगी है. भारतीय जनता पार्टी की कल्चर तो यह है कि सस्ता सिर्फ मंदिरों को मिले जो न बिजली का बिल देते हैं चाहे जितनी बिजली खर्च करेंन पानी का बिल देते हैं चाहे कितना बहाएंन नगरनिगम को टैक्स देते हैं चाहे जितना बनाएं. भारतीय जनता पार्टी के लिए सस्ती चीजें पाने वाले असल में पापी हैं जिन्होंने पिछले जन्मों में पुण्य नहीं किएदान नहीं दिया और अब उस की सजा भुगत रहे हैं. हमारे धर्मग्रंथ इन किस्सों से भरे हैं और प्रधानमंत्री व अन्य भाजपा नेताओं के मुंह से ये बातें निकलतीफिसलती रहती हैं.

गरीब जनता को सस्ती बिजलीपानी व खाना असल में अमीरों के फायदे के लिए होता है. जैसे ही एक गरीब घर को सस्ती बिजली व घर में मुफ्त पानी मिलने लगता हैउस की सेहत सुधर जाती हैउस के काम के घंटे बढ़ जाते हैं और वह कम तनख्वाह पर काम करने को तैयार होने लगता है.

दुनिया के कई देशों ने सस्ते घर भी अपने गरीब और मध्यम वर्गों को दिए और वहां वेतन काफी कम हो गए और लोग ज्यादा मेहनत करने लगे क्योंकि उन्हें छत के लिए दरदर नहीं भटकना पड़ता. दिल्लीमुंबईलखनऊ या किसी भी बड़े शहर की गरीब बस्ती को देख लें. वहां लोग घंटों पीने के पानीराशन की दुकानों और यहां तक कि शौच की जगह के लिए बरबाद करते हैं. उन घरों में एक आफत नौकरी होती है तो दूसरी यह कि चूल्हा कैसे जलेगापकेगा कैसेलोग नहाएंगे कैसेपीएंगे क्यादेश के व्यापारकारखानेखेत इतना पैसा नहीं दे पाते कि लोग पूरे दामों में कोई चीज खरीद सकें.

और फिर यह पूरा दाम क्या हैज्यादातर रोजमर्रा की चीजों में दाम असल में टैक्स से भरे होते हैं. हर चीज को बनानेपैदा करने में जितना पैसा लगता है उस का तीनचौथाई तक टैक्स होता है. तरहतरह के टैक्स जीएसटी के बावजूद मौजूद हैं. अगर ईमानदारी से टैक्स दिया जाए तो जीएसटी छोटे से दुकानदार के बड़े होलसेल दुकानदार से सिर पर सामान लाद कर अपनी 10×10 फुट की दुकान पर बेचता है तो उस की मेहनत पर भी टैक्स लग जाता है. वह अगर कोई चीज 100 रुपए में लाता है120 में बेचता है तो 20 रुपए पर टैक्स देना पड़ता है वह भी 12 से 18 फीसदी. गरीब को टैक्स से चूसने वाली सरकार को यह बुरा लग रहा है कि कोई इस गरीब को मुफ्त सामान दे कर उस को टैक्स की मार से फ्री कर रहा है. भारतीय जनता पार्टी के लिए जीएसटी तो जनता से जबरन वसूला गया दानपुण्य है और जो कहे कि यह सामान ही मुफ्त है वह इस दानपुण्य की महान हिंदू संस्कृति पर हमला कर रहा है. उसे रेवड़ी बांटना नहीं कहा जाए तो क्या कहा जाए. हमारे धर्मग्रंथ तो कहते हैं कि रेवड़ी बांटो नहींशूद्र के पास जो भी संपत्ति हो वह राजा जब्त कर ले.

हेमंत सोरेन की चुनौती और भाजपा

आजकल देश में एक तरह से राजनीतिक गृह युद्ध के हालात हैं. एक तरफ है केंद्र की सरकार, जिस का नेतृत्व भारतीय जनता पार्टी कर रही है, तो वहीं दूसरी तरफ है देश के अनेक प्रदेशों के मुख्यमंत्री और क्षेत्रीय राजनीतिक दल, साथ में कांग्रेस. भारतीय जनता पार्टी ने केंद्र में सरकार बनाने के बाद यह टारगेट तय कर लिया है कि देशभर में भाजपा की सरकार ही होनी चाहिए और यह कोई दबीछिपी बात भी नहीं है. इस की घोषणा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई दफा कर चुके हैं. अब जो सीन दिखाई दे रहा है, उस में प्रवर्तन निदेशालय और केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो द्वारा लगातार विपक्ष की सरकारों, मुख्यमंत्रियों और उन की गुड लिस्ट में शामिल लोगों को निशाने पर लेने की घटनाएं आम हैं.

यह देश देख चुका है कि किस तरह सोनिया गांधी, राहुल गांधी समेत प्रियंका गांधी और अनेक बड़े नेताओं पर प्रवर्तन निदेशालय का शिकंजा कसा गया और माहौल यह बना दिया है कि यही लोग सब से बड़े अपराधी हैं. हां, यह हो सकता है कि गलतियां हुई हों, अपराध भी हुए हों, मगर इन सब हालात से जो माहौल देश का बन रहा है, वह खतरनाक साबित हो सकता है. आज देशभर में झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन का एक बयान चर्चा में है कि अगर मैं अपराधी हूं, तो मुझे गिरफ्तार कर लिया जाए.  उन्होंने प्रवर्तन निदेशालय के नोटिस को एक तरह से नजरअंदाज किया है. यह घटना देश के इतिहास में एक ऐसा टर्निंग पौइंट बन सकती है, जहां से देश का एक नया राजनीतिक राजमार्ग बन सकता है.  दरअसल, झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने ईडी के समन के बाद तेवर कड़े कर के एक संदेश दिया है. वे चुनौती की मुद्रा में हैं और उसी अंदाज में विरोधियों पर पलटवार की भी तैयारी है. झारखंड में सत्तारूढ़ झारखंड मुक्ति मोरचा ने साफतौर पर ऐलान किया है कि अगर सरकार के साथ साजिश हुई, तो छोड़ेंगे नहीं.

4 नवंबर, 2022 को रांची में झारखंड मुक्ति मोरचा समर्थकों की जुटी भीड़ का भी अंदाज तल्ख था. झामुमो के निशाने पर प्रवर्तन निदेशालय, राज्यपाल और भाजपा है. समर्थकों को आंदोलन के आगाज का निर्देश दिया गया है. झारखंड मुक्ति मोरचा के कार्यकर्ता सभी जिला मुख्यालयों में सरकार को अस्थिर करने की कोशिशों के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं और प्रदेशभर में यह संदेश दिया जा रहा है कि हेमंत सोरेन की सरकार को भारतीय जनता पार्टी कमजोर करने का काम कर रही है. कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष राजेश ठाकुर ने सभी जिला इकाइयों को निर्देश जारी किया है कि कार्यकर्ता पूरी मजबूती के साथ प्रदर्शन में शामिल हों. अब जैसा कि सारा देश जानता है कि भारतीय जनता पार्टी के तेवर हमेशा आक्रामक रहते हैं. जब से देश में नरेंद्र मोदी की सरकार आई है और गृह मंत्री के रूप में अमित शाह हैं, भाजपा हर मौके पर वार करने की हालत में रहती है.  यहां भी भाजपा के तेवर यह बता  रहे हैं कि हेमंत सोरेन से सत्ता हासिल करने के लिए और उन की छवि को खराब करने की कोशिश में भाजपा पीछे नहीं रहेगी. इधर भाजपा ने प्रखंड मुख्यालयों से आंदोलन शुरू करने की घोषणा की है.

शक्ति प्रदर्शन की इस कवायद से राजनीतिक टकराव की बैकग्राउंड तैयार हो रही है.  हालात की गंभीरता को देखते हुए राजधानी में भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश कार्यालय में सुरक्षा के कड़े बंदोबस्त किए गए हैं. ईडी के क्षेत्रीय कार्यालय और राजभवन की सुरक्षा व्यवस्था भी बढ़ाई गई है. उठ खड़ा होगा  संवैधानिक संकट जैसे हालात झारखंड समेत देश के कुछ राज्यों में बन रहे हैं, इस सिलसिले में कहा जा सकता है कि आने वाले समय में संवैधानिक संकट खड़े होने का डर है.  सच तो यह है कि चाहे केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो हो या प्रवर्तन निदेशालय, उन का इस्तेमाल नैतिक रूप से ईमानदारी से किया जाना चाहिए, ताकि कोई भी यह न कह सके कि उन का गलत इस्तेमाल किया जा रहा है.  ऐसा पहले कई दफा हुआ है, जिस का सब से बड़ा उदाहरण लालू प्रसाद यादव हैं, जिन्होंने हमेशा कानून पर आस्था जाहिर की है और हर एक कार्यवाही को सम्मान के साथ स्वीकार किया है. यह भी सच है, जिस से इनकार नहीं किया जा सकता कि आज की कई सरकारें भ्रष्टतम आचरण कर रही हैं, अनेक बड़े घोटाले का खेल जारी है. ऐसे में अगर केंद्रीय एजेंसियां शिकंजा कस रही हैं, तो नैतिकता के नाम पर आप विरोध कैसे कर सकते हैं? नतीजतन, आंदोलन के लिए सत्तापक्ष और विपक्ष के अपनेअपने मुद्दे हैं.

भाजपा, ईडी और राजभवन के खिलाफ आंदोलन का आह्वान कर विरोधी दल शक्ति प्रदर्शन करने की तैयारी में हैं. उधर भाजपा ने राज्य सरकार पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए घेराबंदी तेज की है.  देश और प्रदेश की जनता आज दुविधा में है कि वह राज्य सरकार के पक्ष में खड़ी हो या केंद्र सरकार के पक्ष में. आवाम प्रवर्तन निदेशालय, केंद्रीय जांच ब्यूरो के खिलाफ झारखंड मुक्ति मोरचा के हेमंत सोरेन के पक्ष में खड़ी हो या केंद्रीय जांच एजेंसियों की कार्यवाही के पक्ष में. ऐसे में आने वाला समय संवैधानिक संकट का आगाज कर रहा है.

तेजस्वी यादव: भाजपा के लिए खतरा

राज्य के मोकामा और गोपालगंज विधानसभा क्षेत्रों में उपचुनाव राष्ट्रीय जनता दल के लिए बेहद खास थे. जनता दल (यूनाइटेड) और भाजपा के अलग होने के बाद ये पहले चुनाव थे. भारतीय जनता पार्टी चाहती थी कि राजद एक भी सीट न जीते, जिस से उस की साख पर बट्टा लग सके. इस के लिए भाजपा ने राजद नेता और बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के मामा साधु यादव और मामी इंदिरा यादव को अपनी तरफ मिला लिया था. वह भाजपा की बी टीम की तरह से काम कर रहे थे. इस के बाद भी राजद ने उपचुनाव में मोकामा सीट पर जीत हासिल कर ली. तेजस्वी यादव कहते हैं, ‘‘गोपालगंज सीट पर भी हम ने भाजपा के वोटों में सेंधमारी की है. साल 2020 के विधानसभा चुनाव में हमें 40,000 वोटों से हार मिली थी, जबकि उपचुनाव में सहानुभूति वोट के बाद भी केवल 1,700 वोटों से हारे हैं.

‘‘इस से इस बात का प्रमाण भी मिल गया है कि तेजस्वी यादव ने अब अपनी पकड़ मजबूत कर ली है. अब बिहार में राजद ही भाजपा को रोकने का काम कर सकती है.’’

33 साल के तेजस्वी यादव को 2 बार बिहार का उपमुख्यमंत्री बनने का मौका मिल चुका है. राजनीतिक जानकार तेजस्वी यादव को बिहार के भविष्य का नेता मान रहे हैं. बिहार में रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी अपना वजूद खो बैठी है. नीतीश कुमार की जनता दल (यूनाइटेड) में नीतीश कुमार का उत्तराधिकारी कोई बन नहीं पाया है. नीतीश कुमार अब बिहार की राजनीति में हाशिए पर जा रहे हैं. कांग्रेस बिहार में अपने को मजबूत नहीं कर पा रही और भाजपा भी अपने बलबूते कुछ चमत्कार नहीं कर पा रही है. ऐसे में बिहार में सब से मजबूत पार्टी राजद के रूप में सामने है. ट्वैंटी20 क्रिकेट सा धमाल जिस तरह से 20 ओवर के क्रिकेट मैच में दमदार खिलाड़ी आखिरी ओवर तक रोमांच बना कर रखता है, कभी हिम्मत नहीं हारता है, ठीक वैसे ही तेजस्वी यादव भी हिम्मत नहीं हारते हैं और हारी बाजी अपने नाम कर लेते हैं. जिस भाजपा और जद (यू) गठबंधन ने तेजस्वी यादव को सत्ता से बाहर किया था, मौका मिलते ही तेजस्वी यादव ने उस बाजी को पलट कर वापस सत्ता में हिस्सेदारी कर ली.

तेजस्वी प्रसाद यादव का जन्म 10 नवंबर, 1989 को हुआ था. वे राष्ट्रीय जनता दल के सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी के बेटे हैं. तेजस्वी यादव क्रिकेट खेलना भी जानते हैं. उन्होंने दिल्ली डेयरडेविल्स के लिए आईपीएल भी खेला है. दिसंबर, 2021 में दिल्ली की एलेक्सिस से उन की शादी हुई थी. तेजस्वी और एलेक्सिस दोनों एकदूसरे को 6 साल से जानते थे और पुराने दोस्त थे. तेजस्वी यादव को महज 26 साल की उम्र में बिहार का उपमुख्यमंत्री बनने का मौका मिला था. तब वे डेढ़ साल तक नीतीश कुमार की 2015 वाली सरकार में बिहार के उपमुख्यमंत्री रहे थे.

साल 2020 के विधानसभा चुनाव में तेजस्वी यादव ने अपनी पार्टी राजद को मजबूत किया. वे कांग्रेस गठबंधन में चुनाव लड़े. राजद सब से बड़ी पार्टी के रूप में सामने आई. किसी भी दल को पूर्ण बहुमत न मिलने के चलते नीतीश कुमार और भाजपा ने मिल कर सरकार बनाई. उस समय तेजस्वी यादव बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता बने. 10 अगस्त, 2022 को नीतीश कुमार और भाजपा में अलगाव हो गया. इस के बाद नीतीश कुमार और राजद का तालमेल हुआ, जिस के बाद तेजस्वी यादव को दोबारा बिहार का उपमुख्यमंत्री बनने का मौका मिला. वे बिहार विधानसभा में राघोपुर से विधायक हैं.

तेजस्वी से डरती है भाजपा जिस तरह से लालू प्रसाद यादव ने 1990 के दशक में भाजपा के बढ़ते रथ को बिहार में रोका था और उसे अपने बल पर सत्ता में नहीं आने दिया था, वही काम अब तेजस्वी यादव कर रहे हैं. लालू प्रसाद यादव की राजनीति को खत्म करने के लिए भाजपा ने उन्हें चारा घोटाले में फंसाया था, वैसे ही अब तेजस्वी यादव को आईआरसीटी घोटाला मामले में फंसाने का काम हो रहा है. भाजपा समझ रही है कि अगर तेजस्वी यादव को रोका नहीं गया, तो उसे बिहार में सत्ता नहीं मिलेगी.

आईआरसीटी घोटाला मामले में तेजस्वी यादव के वकीलों ने केंद्र सरकार पर विपक्ष के खिलाफ सीबीआई व ईडी का गलत इस्तेमाल का आरोप लगाया. आईआरसीटी घोटाला मामले में सुनवाई के दौरान तेजस्वी यादव के वकीलों ने कहा कि विपक्ष के नेता होने के नाते केंद्र सरकार के गलत कामों का विरोध करना उन का फर्ज है. कोर्ट ने दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद बिहार के डिप्टी सीएम को फटकारते हुए कहा कि वे सार्वजनिक रूप से बोलते वक्त जिम्मेदाराना बरताव करें और उचित शब्दों का इस्तेमाल करें. आईआरसीटी घोटाला साल 2004 में संप्रग सरकार में लालू प्रसाद यादव के रेल मंत्री रहने के दौरान का है. रेलवे बोर्ड ने उस वक्त रेलवे की कैटरिंग और रेलवे होटलों की सेवा को पूरी तरह निजी क्षेत्र को सौंप दी थी. इस दौरान झारखंड के रांची और ओडिशा के पुरी के बीएनआर होटल के रखरखाव, संचालन और विकास को ले कर जारी टैंडर में अनियमितताएं किए जाने की बातें सामने आई थीं.

यह टैंडर साल 2006 में एक प्राइवेट होटल सुजाता होटल को मिला था. आरोप है कि सुजाता होटल के मालिकों ने इस के बदले लालू प्रसाद यादव के परिवार को पटना में 3 एकड़ जमीन दी थी, जो बेनामी संपत्ति थी. इस मामले में भी लालू प्रसाद यादव, राबड़ी देवी और तेजस्वी यादव समेत 11 लोग आरोपी हैं. सीबीआई ने जुलाई, 2017 में लालू प्रसाद यादव, तेजस्वी यादव समेत 11 आरोपियों के खिलाफ मामला दर्ज किया था. इस के बाद सीबीआई की एक विशेष अदालत ने जुलाई, 2018 में लालू प्रसाद यादव और अन्य के खिलाफ दायर आरोपपत्र पर संज्ञान लिया था. मामा का लिया सहारा तेजस्वी यादव को घेरने के लिए भाजपा उन के मामा साधु यादव का प्रयोग भी कर रही है. साधु यादव और उन की पत्नी इंदिरा यादव तेजस्वी का विरोध कर रहे हैं. परिवार का होने के कारण तेजस्वी यादव उन के खिलाफ खुल कर बोलने से बचते हैं.

साल 2020 में हुए विधानसभा चुनाव में 75 विधायकों के साथ राजद सब से बड़ी पार्टी बनी थी. उपचुनाव में एक सीट पर जीत मिलने के बाद उस के विधायकों की संख्या 76 हो गई है. दूसरी तरफ भाजपा ने वीआईपी पार्टी के 3 विधायकों को अपने खेमे में शामिल कर लिया था. इस के बाद भाजपा 77 विधायकों के साथ बिहार की पहले नंबर की पार्टी बन गई थी. असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम के 4 विधायकों के पाला बदलते ही बिहार में राजद के पास विधानसभा में विधायकों की संख्या 80 हो गई है.

आने वाले दिनों में भाजपा और राजद के बीच सीटों को ले कर सांपसीढ़ी का यह खेल चलता रहेगा. लेकिन इस में तेजस्वी यादव भारी न पड़ जाएं, इस के लिए भाजपा उन की मजबूत घेराबंदी कर रही है. साधु यादव और उन की पत्नी इंदिरा यादव इस में सब से बड़ा मोहरा बन रहे हैं. आने वाले दिनो में बिहार में बड़ा उलटफेर हो सकता है, जिस के बाद बिहार में सरकार चलाने के लिए तेजस्वी यादव को नीतीश कुमार की जरूरत खत्म हो सकती है. राजद के साथ कुल

80 विधायक हैं. कांग्रेस और वाम दल तो पहले से ही महागठबंधन में हैं. इस से संख्या कुलमिला कर 114 है. अगर तेजस्वी यादव कहीं जीतनराम मांझी के 4 विधायक और कुछ निर्दलीय विधायकों को अपनी तरफ मोड़ने में कामयाब रहे, तो उन के साथ विधायकों की कुल संख्या 121 हो जाएगी, जो नीतीश कुमार के लिए खतरनाक हो जाएगा. आने वाले दिनों में बिहार की राजनीति में तेजस्वी यादव सब से बड़े नेता के रूप में उभर रहे हैं. यह भाजपा के लिए खतरा है. वह तेजस्वी यादव में मंडल युग का लालू प्रसाद यादव वाला असर देख रही है.

महाराष्ट्र: संजय राउत जेल से लौटे- अदालत का इंसाफ और नरेंद्र मोदी

अब तो देश के सामने सबकुछ खुला खेल फर्रुखाबादी की तरह साफसाफ है. महाराष्ट्र में शिव सेना नेता संजय राउत की गिरफ्तारी और तकरीबन 100 दिन की जेल और अदालत से रिहाई. सब से बड़ी बात अदालत की टिप्पणी से साफ है कि केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार और अमित शाह का गृह मंत्रालय किस तरह काम कर रहा है. अगर हम लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थाओं की बात करें, तो आज का समय एक काले अंधेरे की तरह है और देश की जनता अगर इस का अपने मतदान के माध्यम से रास्ता नहीं निकालेगी, तो आखिर में डंडा देश की आम जनता की पीठ पर ही पड़ने वाला है.

शिव सेना सांसद संजय राउत 100 दिन बिता कर एक विजेता की भूमिका में जेल से आ गए हैं. उन की वापसी पर शिव सेना समर्थकों ने जगहजगह ‘टाइगर इज बैक’, ‘शिव सेना का बाघ आया’ जैसे पोस्टर लगाए और यह संदेश दे दिया है कि चाहे कोई कितना जुल्म कर ले, शिव सेना और संजय राउत झुकने वाले नहीं हैं. दरअसल, शिव सेना नेता संजय राउत को प्रवर्तन निदेशालय ने पात्रा चाल घोटाले में मनी लौंड्रिंग से जुड़े मामले में इस साल जुलाई महीने में गिरफ्तार किया था. जेल से बाहर आने के बाद संजय राउत ने अपने घर के बाहर मीडिया से चर्चा की. उन्होंने कहा कि उन की सेहत ठीक नहीं है. अपनी कलाई की ओर इशारा करते हुए संजय राउत ने कहा, ‘‘3 महीने बाद यह घड़ी पहनी है. यह भी कलाई पर ठीक से नहीं आ रही है.’’

जेल में बिताए दिनों को इस से बेहतर दर्दभरे शब्दों में जाहिर नहीं किया जा सकता. इस से पहले संजय राउत ने बाला साहब ठाकरे की समाधि शिवाजी पार्क पहुंच कर उन्हें नमन किया और यह संदेश दे दिया कि आने वाले समय में उन की दिशा क्या होगी. दूसरी तरफ उन्होंने शिव सेना प्रमुख उद्धव ठाकरे से भी मुलाकात की. इस मौके पर उद्धव ठाकरे ने साफसाफ कहा कि केंद्र की जांच एजेंसियां किसी पालतू की तरह काम कर रही हैं. संजय राउत नजीर बन गए नरेंद्र मोदी और अमित शाह की खुल कर आलोचना करने वाले संजय राउत ने जेल से बाहर आते ही अपने तेवर दिखा दिए और कहा, ‘वे नहीं जानते हैं कि उन्होंने कितनी बड़ी गलती मुझे गिरफ्तार कर के की है. यह उन के राजनीतिक जीवन की सब से बड़ी गलती साबित होगी.’

दरअसल, आज देश के हर नागरिक के लिए सोचने वाली बात है कि क्या हम तानाशाही की ओर बढ़ रहे हैं? अगर हम महाराष्ट्र की राजनीति पर नजर डालें तो यह साफ है कि जो भी घट रहा है, मानो उस की पटकथा पहले ही लिखी जा चुकी है. उद्धव ठाकरे का शरद पवार और कांग्रेस के साथ हाथ मिला कर सत्तासीन होना केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार को रास नहीं आया और एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में विधायकों को तोड़ दिया गया. यह सच सारे देश ने देखा है और यह लोकतंत्र की हत्या से कम नहीं कहा जा सकता.

मगर एकनाथ शिंदे की बगावत के बाद महाराष्ट्र की सत्ता और शिव सेना का नाम और निशान खोने वाले उद्धव ठाकरे के लिए यह राहत का सबब है. पहले अंधेरी पूर्व उपचुनाव में जीत और अब संजय राउत की रिहाई ने उन्हें बड़ी राहत दी है. दशहरे की रैली में बड़ी तादाद में लोगों को जुटाने के बाद से ही उद्धव ठाकरे गुट आक्रामक अंदाज में नजर आ रहा है. शायद आज की नरेंद्र मोदी सरकार की विचारधारा यह मानती है कि जो विरोधी हैं, उन्हें खत्म कर दिया जाए. चाहे बिहार हो या फिर उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र हो या फिर मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड हर प्रदेश में भाजपा आक्रामक है और उस के नेता चाहते हैं कि विरोधी खत्म हो जाएं, मगर वे भूल जाते हैं कि लोकतंत्र की खूबसूरती विपक्ष से ही होती है.

सब से बड़ी बात यह कि भाजपा भी कभी विपक्ष में थी. अगर जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी या कांग्रेस के दूसरे बड़े नेता चाहते तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी कहां होती, यह शायद अंदाजा लगाया जा सकता है. अब चूंकि संजय राउत जेल से निकल आए हैं, लिहाजा वे चुप तो बैठेंगे नहीं. उन का हर वार नरेंद्र मोदी की केंद्र सरकार पर ज्यादा होगा, ताकि भविष्य की राजनीति में खलबली मची रहे.

नीतीश कुमार: प्रधानमंत्री पद की ‘पदयात्रा’

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक बार फिर वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ विपक्ष को एकजुट करने के लिए एक तरह से मानो तलवार खींच ली है. वे लगातार राहुल गांधी से ले कर अरविंद केजरीवाल जैसे नेताओं से मिल रहे हैं. उन की इस भेंटमुलाकात का सिलसिला एक तरह से ‘प्रधानमंत्री पद’ हासिल करने के लिए पदयात्रा के समान है.

नीतीश कुमार के पास 17 साल के मुख्यमंत्री पद का गौरवशाली इतिहास है और देशभर में उन की अलग पहचान भी है. मगर यह भी सच है कि बीच में उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन कर के अपनी छवि और भविष्य पर सवालिया निशान भी लगा लिया है.

इस ‘पदयात्रा’ के पड़ाव यह सच है कि नीतीश कुमार ने भाजपा से अलग हो कर कांग्रेसी और राष्ट्रीय जनता दल के साथ तालमेल कर के भाजपा को और सब से ज्यादा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह को धोखा दिया है.

घटनाक्रम बता रहा है कि आज के सत्तासीन केंद्र के ये नेता विपक्ष और दूसरी पार्टियों को एक तरह से खत्म कर देना चाहते हैं. ऐसे में नीतीश कुमार का एक बड़ा चेहरा देश के सामने आया है और वे लगातार देश के बड़े नेताओं से मिल रहे हैं और सब को एकजुट कर रहे हैं.

मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी यानी माकपा के दफ्तर में पार्टी के महासचिव सीताराम येचुरी और भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के महासचिव डी. राजा से मुलाकात करने के बाद नीतीश कुमार ने पत्रकारों से कहा कि यह समय वाम दलों, कांग्रेस और सभी क्षेत्रीय दलों को एकजुट कर के एक मजबूत विपक्ष बनाने का है.

6 सितंबर, 2022 को नीतीश कुमार अरविंद केजरीवाल से मुलाकात के लिए उन के आवास पर पहुंचे. इस मौके पर दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया और जनता दल (यू) के नेता संजय झा भी मौजूद थे.

अरविंद केजरीवाल ने ट्वीट कर के बताया कि मेरे घर पधारने के लिए नीतीश कुमार का शुक्रिया.

नीतीश कुमार ने उन के साथ देश के कई गंभीर विषयों पर चर्चा की. उन्होंने अपने ट्वीट में बताया कि उन के साथ शिक्षा, स्वास्थ्य, आपरेशन लोटस, खुलेआम विधायकों की खरीदफरोख्त कर चुनी सरकारों को गिराना, भाजपा सरकार में बढ़ता निरंकुश भ्रष्टाचार, महंगाई और बेरोजगारी जैसे मुद्दों पर चर्चा हुई.

वहीं नीतीश कुमार ने कहा कि हमारी कोशिश क्षेत्रीय पार्टियों को एकजुट करने की है. अगर सभी क्षेत्रीय पार्टियां मिल जाएं, तो यह बहुत बड़ी बात होगी और हम मिल कर देश के लिए एक मौडल तैयार करने पर काम कर रहे हैं.

इस से पहले नीतीश कुमार ने कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके राहुल गांधी से भी मुलाकात की थी और यह संदेश दे दिया कि वे एक ऐसी पदयात्रा पर निकल पड़े हैं, जो आने वाले समय में उन्हें प्रधानमंत्री पद तक पहुंचा सकती है.

हर पटवारी बेईमान होता है!

हमारे देश के कितने ही गांव, शहर, कसबे, जाति के लोग बेईमान माने जाते हैं. इन लोगों को बारबार जन्मजात बेईमान बताया जाता है. गालियां देते समय इन की जाति, शहर या राज्य का नाम ले कर कहा जाना आम है कि तुम तो वहां के हो, इसलिए बेईमान होगे ही.

भारतीय जनता पार्टी की सरकार अपने खिलाफ राजनीति में जुड़े हर जने पर ईडी, सीबीआई, पीएमएलए, एनआईए, पुलिस को लगा कर अपना उल्लू तो सीधा कर रही है पर इस चक्कर में खुदको भी गहरा काला पोत रही है. यह सोच हरेक के मन में पक्की होती जा रही है कि जिस के पास सत्ता है, पावर है, कुछ कर सकता है, वह ऊपर की भरपूर कमाई कर रहा है, उस के यहां तो कमरे भरे पड़े हैं.

अगर वह भारतीय जनता पार्टी में है तो उस पर रेड न होने की वजह से जनता उसे शरीफ मान लेगी, यह नामुमकिन है. जब बहुत से मंत्री, मुख्यमंत्री, अफसर, उद्योगपति, ठेकेदार चपेट में आ चुके हों तो कुछ बचे होंगे, यह भी पक्का माना जाएगा कि भारतीय जनता पार्टी का हर मंत्री भी बेईमान होगा.

कोई ऐसे ही केवल दिल बदलने से वर्षों पुरानी पार्टी से नाता नहीं तोड़ता. उसे मंत्री पद का लालच भी तभी दिया जा सकता है जब वह मंत्री न हो. यहां तो भाजपा दूसरी पार्टी के मंत्रियों को अपने में मिला कर मंत्री बना रही है तो मतलब साफ है कि उन्हें मंत्री बनने के साथसाथ कुछ और मिला होगा. यह वही कुछ और जिसे ढूंढ़ने के अवसर भाजपा सरकार अपने विरोधियों की पार्टी वालों को भेज रही है.

जनमानस में यह तो हमेशा से था कि हरेक पार्टी बेईमान है पर कांग्रेस महाबेईमान है, यह 2014 तक विनोद राय जैसे कंपट्रोलर जनरल ने नकली, झूठी, विश्वासघात करने वाली साजिशों भरी रिपोर्टें दे कर साबित कर दिया था. जिस तरह 2014 में जीतने के बाद भारतीय जनता पार्टी ने उसे हाथोंहाथ लिया, साबित हो गया कि वह नितांत बेईमानी वाली रिपोर्ट थी और आज जिस तरह वे ऊंचे पद पर बैठे हैं उस से भी साबित है कि इनाम भी मिला.

हमारे देश में शराफत को भाव कभी अच्छा नहीं मिला. धर्म हमेशा कहता रहा कि हर जजमान तो पाप करता ही रहता है और जब तक दानदक्षिणा न दो इस पाप से मुक्ति नहीं मिलेगी. गोदान इसी पाप से मरने के बाद पिंड को यमराज के प्रेतों के जुल्मों से बचाने के लिए किया जाता है. गरुड़ पुराण भरा है उन कष्टों के बखानों से जो यम के दूत देते हैं और उन तरीकों से भी जो दान की वजह से मिलते हैं, पर इस से क्या दान लेने वाला बेईमान नहीं हो जाता?

जो लोग पापी से दान लेते हैं वे पापी के पार्टनर हुए न. अगर 20 नेताओं के यहां रेड पड़ती है, 2-3 के यहां करोड़ों मिलते हैं, 18 के मामले बरसों चलते रहते हैं तो क्या साबित नहीं होता कि सभी नेता चाहे किसी पार्टी के हैं, बेईमान हैं? आज सत्ता में सब से ज्यादा नेता भाजपा के हैं, सब से ज्यादा सरपंच भाजपा के हैं, सब से ज्यादा जिला अध्यक्ष भाजपा के हैं, सब से ज्यादा विधायक भाजपा के हैं, सब से ज्यादा सांसद भाजपा के हैं, सब से ज्यादा मंत्री भाजपा के हैं. वे शराफत के पुतले होंगे जबकि उन के जैसे दूसरी हर पार्टी के विधायक, मंत्री, मुख्यमंत्री काले हैं, यह तो सोचना ही गलत है. भाजपा अपना नुकसान ज्यादा कर रही है. भाजपा हर सुबह बता देती है कि किसी विधायक, मंत्री, सांसद पर भरोसा न करो, उस ने जनता का पैसा खाया होगा.

हर नेता पटवारी की तरह का है क्योंकि यह मान लिया गया है कि हर पटवारी बेईमान होता है.

भाजपा की कमजोर कड़ी है पश्चिमी इलाका

उत्तर प्रदेश  भाजपा की   शैलेंद्र सिंह  कमजोर कड़ी है  पश्चिमी इलाका भारतीय जनता पार्टी को यह पता है कि अगर वोट जातीय आधार पर पड़ेंगे, तो उसे नुकसान होगा. ऐसे में उस की पहली कोशिश यह रहती है कि वोट धर्म के आधार पर पड़ें. साथ ही, वह जातियों में भी एकजुटता नहीं रहने देना चाहती है.  उत्तर प्रदेश में जाट बिरादरी ऐसी है, जिस के पास केवल लोकदल का सहारा रहता है. अब भाजपा इस में सेंधमारी करने की कोशिश कर रही है. इस योजना के तहत भाजपा ने अपना प्रदेश अध्यक्ष और प्रदेश संगठन मंत्री पश्चिमी उत्तर प्रदेश में रहने वालों को बनाया है.

भारतीय जनता पार्टी ने 2022 में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव जीत कर लगातार दूसरी बार बहुमत की सरकार बनाने में कामयाबी हासिल कर ली थी. इस के बाद भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश को ले कर उस के मन में डर बैठा हुआ है.  भाजपा को इस बात का भरोसा नहीं है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश का जाट समाज भाजपा के पक्ष में ही वोट देगा. भाजपा की बहुत सारी कोशिशों के बाद भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश, जिस में जाट बिरादरी का बहुमत ज्यादा है, को वह अपने पक्ष में खड़ा नहीं देख रही है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय लोकदल की साख बनी हुई है. चौधरी अजित सिंह के बाद उन के बेटे जयंत चौधरी ने जाट समाज पर अपनी मजबूत पकड़ बना रखी है. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में लोकदल और समाजवादी पार्टी गठबंधन ने अपना असर दिखा दिया था.

अगर बहुजन समाज पार्टी ने विधानसभा चुनाव में अपनी भूमिका सही से दिखाई होती, तो भाजपा का जीतना मुश्किल हो जाता. भाजपा साल 2024 के लोकसभा चुनावों में कोई ऐसा खतरा नहीं मोल लेना चाहती, जिस से उसे किसी दूसरे दल पर निर्भर रहना पड़े. राजनीति में कोई भी स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता. विपक्षी एकता के असर में अगर बसपा, सपा और लोकदल एक ही मंच पर आ गए और दलितपिछड़ों में यादव और जाटव समाज के साथ दूसरी जातियां भी एक मंच पर खड़ी हो गईं, तो भाजपा के लिए दिक्कत हो सकती है. जाट बिरादरी को खुश करने के लिए ही भारतीय जनता पार्टी ने चौधरी भूपेंद्र सिंह को प्रदेश अध्यक्ष बनाया है. वैसे, वे पहले योगी सरकार में कैबिनेट मंत्री थे.

उन्होंने साल 1991 में भाजपा का साथ पकड़ा था और मेहनती नेता कहलाते हैं. खराब हालात में भी उन की मेहनत से साल 2022 के विधानसभा चुनाव में भाजपा इस बैल्ट की 126 सीटों में से  85 सीटें जीतने में कामयाब हो गई थी. अब साल 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा उत्तर प्रदेश की सभी लोकसभा 80 सीटें जितने का लक्ष्य रख रही है. ऐसे में पश्चिमी उत्तर प्रदेश को खुश करना सब से ज्यादा जरूरी है. इस के लिए ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश के रहने वाले चौधरी भूपेंद्र सिंह को भाजपा का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया है. पश्चिम से ही हैं संगठन मंत्री भाजपा ने प्रदेश संगठन मंत्री के रूप में सुनील बंसल की जगह पर बिजनौर जिले की नगीना तहसील के रहने वाले धर्मपाल सिंह को जिम्मेदारी दी है. इस का मतलब यह है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश से ही भाजपा ने अपना प्रदेश  अध्यक्ष चौधरी भूपेंद्र सिंह को बनाया है और यहीं से धर्मपाल सिंह को संगठन मंत्री बना दिया है.  भाजपा में संगठन मंत्री का पद बहुत खास पद होता है. इस की वजह यह है कि भाजपा का संगठन मंत्री राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का पूर्णकालिक सदस्य होता है. इस पद पर वही रहता है, जो संघ का सदस्य हो. इस के पहले यह पद सुनील बंसल के पास था, जिन को ‘सुपर सीएम’ कहा जाता था.

सत्ता के इसी असर की वजह से सुनील बंसल और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के बीच संबंध सहज नहीं रहते थे. भाजपा के मंत्री और नेता योगी आदित्यनाथ से ज्यादा सुनील बंसल को अहमियत देते थे.  इस से भाजपा में संगठन मंत्री की ताकत को समझा जा सकता है. यह पद ऐसा है, जिस पर संघ तबादले करता है. धर्मपाल सिंह इस के पहले झारखंड भाजपा के प्रदेश संगठन मंत्री थे. पश्चिमी उत्तर प्रदेश की अहमियत को बढ़ाने के लिए भाजपा ने अपना प्रदेश अध्यक्ष और संगठन मंत्री दोनों ही एक इलाके से दे दिए हैं. इस दांव से वह जाट बिरादरी के बीच अपनी पैठ और मजबूत करना चाहती है.  पश्चिमी उत्तर प्रदेश का असर केवल उत्तर प्रदेश में ही नहीं, बल्कि इस की सीमा से लगे दिल्ली और हरियाणा तक भी होता है. ऐसे में ये दोनों ही नेता काफी असरदार साबित हो सकते हैं. इन को संगठन का अनुभव भी है. इस वजह से ये अच्छा चुनाव लड़ा सकते हैं, जिस से भाजपा को पश्चिमी उत्तर प्रदेश से ज्यादा लोकसभा सीटें मिल सकती हैं.

मसला: पौराणिक जीवियों के विरोध में मुखरता की कमी

 शैलेंद्र सिंह

सिस्टम में बदलाव के लिए राजनीतिक सत्ता जरूरी होती है. राजनीतिक सत्ता को बनाए रखने के लिए विचारों की शुद्धता से समझौता करना पड़ता है. विचारों को बनाए रखते हुए सत्ता को बहुत लंबे समय तक बैलैंस नहीं रखा जा सकता है. ऐसे में कई बार दूसरे विचारों को अपनाने का दिखावा किया जाता है और मतलब निकल जाने पर दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल कर फेंक देने को राजनीतिक चतुराई कहा जाता है.

यह कड़वा सच है, जिस की हकीकत जान कर भी उस की धोखेबाजी की बुराई तो दूर बात भी नहीं की जाती. इसे सहज घटना की तरह लिया जाता है मानो यह बेईमानी तो धर्म से एप्रूव्ड है.

पौराणिक कथाओं तक में ऐसी कहानियों को बारबार दोहराया गया है, जिस की वजह से ऐसे कामों को गलत भी नहीं माना जाता है.

हिंदू पौराणिकजीवियों के सताए गए लोग भी पौराणिक कथाओं और नियमों में विश्वास करने लगे हैं, क्योंकि उन को समझाने के लिए कोई मीडिया या मंच नहीं है.

इस समुद्र मंथन की कहानी ऐसी ही एक पौराणिक कथा है, जिस के जरीए आज के हालात को समझाने की कोशिश करते हैं.

एक समय की बात है. राजा बलि के राज्य में दैत्य, असुर व दानव बहुत ज्यादा ताकतवर हो उठे थे. उन को असुरों के गुरु शुक्राचार्य से तमाम ताकतें हासिल हो गई थीं. दुर्वासा ऋषि के शाप से देवराज इंद्र कमजोर हो गए थे. दैत्यराज बलि का राज तीनों लोकों पर हो चुका था. इंद्र समेत सभी देवता उस से डरे रहते थे.

इस बात से दुखी देवता विष्णु के पास पहुंचे और उन को अपनी परेशानी सुनाई. तब विष्णु ने कहा कि यह तुम लोगों के लिए संकट का समय है. दैत्यों, असुरों व दानवों का दबदबा हो रहा है और तुम लोगों के लिए संकटकाल को दोस्ती के भाव से बिता देना चाहिए. तुम दैत्यों से दोस्ती कर लो और क्षीरसागर को मथ कर उस में से अमृत निकाल कर पी लो.

दैत्यों की मदद से यह काम आसानी से हो जाएगा. इस काम के लिए उन की हर शर्त मान लो और अपना काम निकाल लो. अमृत पी कर तुम अमर हो जाओगे और तुम में दैत्यों को मारने की ताकत आ जाएगी.

इस के बाद इंद्र ने समुद्र मंथन से अमृत निकालने की बात बलि को बताई. दैत्यराज बलि ने देवराज इंद्र से समझौता कर लिया. समुद्र मंथन की तैयारियों में ही देवताओं ने चतुराई दिखानी शुरू कर दी.

वासुकी नाग को मुंह की ओर से पकड़ते समय देवताओं ने ऐसा दिखावा किया, जैसे वही ताकतवर हैं. यह बात दैत्य, असुर, दानवों को अपना मजाक लगी. इन लोगों ने देवताओं से कहा कि हम किसी से ताकत में कम नहीं हैं. हम मुंह की ओर की जगह लेंगे.

तब देवताओं ने वासुकी नाग की पूंछ की ओर की जगह ले ली. समुद्र मंथन से जो निकला, वह देवता और दानव आपस में बांटने लगे. अच्छीअच्छी चीजों पर देवताओं ने कब्जा किया, बाकी चीजें दानवों को दे दीं.

जब अमृत कलश सामने आया, तो आपस में लड़ाई होने लगी. दोनों ही पक्ष इस पर अपना हक चाहते थे. जब देवता हारने लगे, तब एक बार ही छल का इस्तेमाल किया गया. देवताओं की निराशा को देख कर विष्णु ने तत्काल बहुत सुंदर कामुक युवती का मोहिनी रूप धर लिया और लड़ते दैत्यों के पास जा पहुंचे.

विष्णु को विश्वमोहिनी रूप में देख कर देत्य व देवताओं की तो बात ही क्या स्वयं ब्रह्मज्ञानी, कामदेव को भस्म कर देने वाले शंकर भी मोहित हो कर उन की ओर बारबार देखने लगे. जब दैत्यों ने उस नवयौवना सुंदरी को अपनी ओर आते देखा, तब वे अपना सारा झगड़ा भूल कर उसी सुंदरी की ओर एकटक देखने लगे.

विश्वमोहिनी बने विष्णु ने अमृत का बंटवारा कुछ इस तरह किया कि सारा का सारा देवताओं को मिल गया. अमृत कलश ले कर देवताओं और दैत्यों को अलगअलग लाइन में बैठने के लिए कहा. उस के बाद दैत्यों को अपने कटाक्ष से मदहोश करते हुए देवताओं को अमृतपान कराने लगे.

दैत्य उन के कटाक्ष से ऐसे मदहोश हुए कि अमृत पीना ही भूल गए. इस तरह देवताओं को अमृत पिला कर विष्णु वहां से लोप हो गए. उन के लोप होते ही दैत्यों की मदहोशी खत्म हो गई. वे गुस्सा हो देवताओं पर हमला करने लगे. भयंकर देवासुर संग्राम शुरू हो गया, जिस में देवराज इंद्र ने दैत्यराज बलि को हरा कर अपना इंद्रलोक वापस ले लिया.

ऐसे खो गई विचारधारा

भारत की राजनीति में भी ऐसी तमाम कहानियां हैं, जहां वोटों के लिए दलित और पिछड़ों का इस्तेमाल किया गया. वोट हासिल करने के बाद उन को इस हालत में पहुंचा दिया गया कि वे अपनी ताकत खो कर दूसरों के मुहताज हो गए.

80 के दौर में दलित चिंतन में कांशीराम का नया विचार आया कि सत्ता के जरीए सिस्टम को बदलना होगा. कांशीराम ने बामसेफ की जगह पर बसपा यानी बहुजन समाज पार्टी को शुरू किया. इसी दौर में राम मंदिर आंदोलन आगे बढ़ा, मंडल कमीशन लागू हुआ, समाज में उथलपुथल का दौर चला. दलितपिछड़ों के सामने पौराणिक विचारधारा कमजोर पड़ने लगी. समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने ‘मिले मुलायमकांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम’ का नारा दे कर सत्ता पर कब्जा किया. ऐसा लगा कि सत्ता के जरीए सिस्टम बदलने के लिए दलितपिछड़े एक मंच पर आ गए हैं.

उत्तर प्रदेश में उस समय सरकार चला रहे समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव ने कारसेवकों को रोकने के लिए अयोध्या में गोली चलवाई. इस के बाद मुलायम सिंह यादव को ‘मुल्ला मुलायम’ कहा जाने लगा. अब धर्म की राजनीति और राम मंदिर आंदोलन का विरोध पूरी ताकत से हो रहा था.

उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में सब को हरा कर सपाबसपा गठबंधन की सरकार बनी. उस दौर में यह साफ  दिख रहा था कि जातीय जागरूकता ने धर्म की राजनीति को हाशिए पर धकेल दिया है. अयोध्या की सरयू नदी में कुछ ही पानी बहा होगा कि सपा और बसपा जैसे दल धर्म के विरोध की राजनीति को छोड़ कर सत्ता की राजनीति पर उतर आए और धर्म का विरोध करना छोड़ दिया.

बसपा नेता मायावती धर्म का विरोध करते हुए कहती थीं, ‘हिंदू देवीदेवताओं की जो मूर्तियां खुद अपनी रक्षा नहीं कर पातीं, वे जनता की रक्षा क्या कर पाएंगी?’

कांशीराम खुद भी कहते थे कि पौराणिक विचारधारा नीबू के रस की तरह होती है. जैसे एक बूंद नीबू का रस पूरे दूध को फाड़ सकता है, वैसे ही पौराणिक विचारधारा के समर्थन की राजनीति होने लगी. मायावती ने मनुवादी भाजपा की मदद से 3 बार मुख्यमंत्री की कुरसी हासिल की.

साल 2007 में जब बसपा अपने बल पर जीत कर बहुमत से सत्ता में आई, तो इस का श्रेय ‘दलितब्राह्मण एकता’ वाले सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले को दिया गया. 1990 के बाद मंडल कमीशन का असर देश की राजनीति पर कमजोर होने लगा और धर्म की राजनीति का असर बढ़ने लगा.

हर दल का नेता अयोध्या जा कर माथा टेकने लगा. 2014 के बाद तो अयोध्या में बौद्ध धर्म भी आडंबर का विरोध दिखावे भर तक सीमित रह गया. 6 दिसंबर को मसजिद के शहीद होने को होने वाले कार्यक्रम फकत तमाशाई बन कर रह गए. कई संगठन, जो अयोध्या को अछूत मान कर दूरी बनाए हुए थे, अयोध्या की भक्ति में डूब गए. अयोध्या की ब्रांडिंग का जरीया बनने लगे.

हिंदू पौराणिकजीवियों के सताए लोग भी पौराणिक कथाओं और नियमों में विश्वास करने लगे, क्योंकि उन के लिए पौराणिक कथाओं से मुकाबला करना आसान नहीं रह गया. बसपा के विचार खत्म हो गए, तो उस का जनाधार भी खो गया और वह सत्ता से दूर हो गई.

‘गैस्ट हाउस कांड’ को भूल कर मायावती ने समाजवादी पार्टी से समझौता किया. इस के बाद भी कुछ हासिल नहीं हुआ, तो वापस अपनी जगह आ गईं. भाजपा के विरोध का स्वर नरम पड़ गया. अब दलित बसपा से ज्यादा भाजपा के पक्ष में खड़ा हो गया है.

इस्तेमाल किया और छोड़ा

मायावती कोई अकेली नेता नहीं हैं, जिन को पौराणिक विचारधारा ने इस्तेमाल किया और जब वह किसी काम के नहीं रह गए, तो उन को छोड़ दिया. ऐसे नेताओं की लंबी लिस्ट है. दलित नेताओं में एक बड़ा नाम रामविलास पासवान का था. रामविलास पासवान ऐसे नेता थे, जिन्होंने प्रधानमंत्री वीपी सिंह, एचडी देवेगौड़ा, इंद्र कुमार गुजराल, अटल बिहारी वाजपेयी, डा. मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी सब के मंत्रिमंडल में प्रमुख मंत्री के रूप में काम किया था.

राम विलास पासवान का जन्म बिहार के खगरिया जिले के शाहरबन्नी गांव में हुआ था. वे एक अनुसूचित जाति परिवार में पैदा हुए थे.

रामविलास पासवान ने 2 शादियां की थीं. पहली शादी राजकुमारी देवी से हुई थी. पहली पत्नी राजकुमारी देवी से उषा और आशा 2 बेटियां हैं. बाद में उन्होंने पहली पत्नी को तलाक दे दिया. इस के बाद अमृतसर की रहने वाली एयरहोस्टेस और पंजाबी हिंदू रीना शर्मा से शादी की. उन से एक बेटा और एक बेटी हैं. उन के बेटे चिराग पासवान लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष रहे हैं. रामविलास पासवान 9 बार लोकसभा सांसद और 2 बार राज्यसभा सांसद रहे थे.

रामविलास पासवान ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत दलितों के अधिकार और सम्मान को ले कर की थी. साल 1983 में उन्होंने दलितों के उत्थान के लिए दलित सेना का गठन किया. जनता दल और जनता दल (यूनाइटेड) से अलग हो कर लोक जनशक्ति पार्टी का गठन किया. इस के बाद वह भाजपा की अगुआई वाले राजग का सदस्य हो कर रह गए.

साल 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव के पहले ही बीमारी की हालत में रामविलास पासवान की मौत हो गई. पार्टी की कमान बेटे चिराग पासवान के हाथ आई. बिहार के चुनाव में पिता की तरह उन्होंने भाजपा का साथ दिया. भाजपा ने जनता दल (यूनाइटेड) नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और चिराग पासवान के बीच दूरियां बढ़ाने का काम किया.

बिहार चुनाव में हार के बाद चिराग पासवान और उन की पार्टी लोक जनशक्ति दोनों ही बिहार की राजनीति में अलगथलग पड़ गए.

रामविलास पासवान ने दलित राजनीति से अपना कैरियर शुरू किया और फिर सत्ता के लिए समझौता कर के कुरसी पर बने रहे. विचारधारा छोड़ने के बाद उन का जनाधार सिमट गया. वे उस पार्टी के पीछे चलने को मजबूर रहे, जिस के खिलाफ चुनाव लड़ने का काम किया करते थे.

पौराणिक विचारधारा ने रामविलास पासवान का इस्तेमाल कर उन के आधार को खत्म कर दिया. रामविलास पासवान के बाद उन की पार्टी गुम हो गई है.

न इधर के रहे न उधर के

दलित नेताओं में एक बड़ा नाम डाक्टर उदित राज का लिया जाता है. वे भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर उत्तरपश्चिम दिल्ली के सांसद बने थे.

उदित राज भी दलित राजनीति के सहारे आगे बढ़े थे. एससीएसटी संगठनों के अखिल भारतीय संघ के वे राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे.

इस के पहले साल 1988 में उदित राज को भारतीय राजस्व सेवा के लिए चुना गया था. एमए और एलएलबी की डिगरी लेने के साथ ही साथ अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय से उन्हें मानद उपाधि मिली थी. डाक्टर उदित राज की पत्नी का नाम सीमा राज है. उन के एक बेटा और एक बेटी हैं.

साल 2003 में डाक्टर उदित राज ने भारत सरकार की सभी सेवाओं से इस्तीफा दे दिया और ‘इंडियन जस्टिस’ नाम की पार्टी बनाई. उदित राज हमेशा की तरह अनुसूचित जातियों, जनजातियों और अन्य वंचित वर्गों के लिए लड़ते रहे.

उत्तर प्रदेश में मायावती के विकल्प के रूप में खुद को पेश करने के लिए उन्होंने ‘इंडियन जस्टिस’ पार्टी बनाई. जब कामयाबी नहीं मिली, तो दलित विचारधारा छोड़ पौराणिक विचारधारा के साथ हो लिए.

साल 2014 में डाक्टर उदित राज भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए. साल 2014 में उत्तरपश्चिम दिल्ली निर्वाचन क्षेत्र से आम आदमी पार्टी की राखी बिड़ला को हराने के बाद वे 16वीं लोकसभा में सांसद चुने गए.

सत्ता के लिए विचारधारा छोड़ने के बाद डाक्टर उदित राज का जनाधार खत्म हो गया. तब भाजपा ने उन को साल 2019 में निकाल दिया. डाक्टर उदित राज फिर से दलितों की लड़ाई लड़ने का दम भरने लगे, पर अब उन की पहले जैसी साख नहीं रही.

ऐसे नेताओं की लिस्ट में दलित नेता रामदास अठावले, ‘अपना दल’ की नेता अनुप्रिया पटेल के नाम भी शामिल हैं. समय के साथसाथ भाजपा की अगुआई वाले राजग में इन का कद इस कदर छोटा हुआ है कि अब रोटी, कपड़ा और मकान के लिए सरकार के आगे हाथ फैलाने को मजबूर हैं.

उत्तर प्रदेश में ओमप्रकाश राजभर को उत्तर प्रदेश सरकार से बाहर जाना पड़ा. योगी सरकार भी ओमप्रकाश राजभर के जनाधार को खत्म करने की योजना बना रही है. ऐसे तमाम दलित नेता भी अपनी विचारधारा को छोड़ कर पौराणिक विचारधारा के साथ जा खड़े हुए हैं. दलित नेताओं के ऐसे फैसलों से दलितों को बेहद नुकसान हुआ है.

समाज का हुआ नुकसान

पौराणिक विचारधारा ने केवल राजनीति को ही नेस्तनाबूद करने का काम नहीं किया है, बल्कि समाज को भी नुकसान पहुंचाया है. विचारों की लड़ाई को पूरी तरह से खत्म कर दिया. कश्मीर में अनुच्छेद 370 को खत्म करने के समय यह कहा गया कि इस से पूरे देश के लोग कश्मीर में जमीन खरीद सकेंगे.

देशभर के लोगों में खुशी की लहर उठने लगी. बिना सोचेसमझे लोग सोशल मीडिया पर कश्मीर में जमीन का टुकड़ा खरीदने को ले कर खुश होने लगे. धारा 370 को खत्म करने के बाद आज तक वहां के हालात सामान्य नहीं हुए हैं. बाहर के लोगों को तो छोड़ दें, वहां के रहने वाले भी पहले की तरह खुशहाली से नहीं रह पा रहे हैं.

ठीक इसी तरह अयोध्या में राम मंदिर बनाते समय यह कहा गया कि सभी जातियों के लोगों का यह मंदिर है. जब अयोध्या में राम मंदिर ट्रस्ट बना, तो उस में सब से बड़ी संख्या में भारतीय जनता पार्टी से जुड़े लोग शामिल हुए. राम मंदिर बनाने के लिए चंदा हर किसी से लिया जा रहा है. मंदिर के संचालन का काम केवल कुछ खास लोगों तक ही सीमित रहेगा.

पौराणिक विचारधारा की सब से बड़ी खासीयत यही है कि वह अपना काम निकालने के लिए हर जाति और धर्म की बात करती है, पर जैसे ही काम निकल जाता है, वह केवल अपने हित पर काम करती है.

समुद्र मंथन से ले कर दलित नेताओं के इस्तेमाल तक इस बात को देखा और समझा जा सकता है. चुनावी दौर की बात करें, तो वह भी सत्ता के लिए समुद्र मंथन सा होता है, जहां हर किसी के हक की बात होती है.

चुनाव में महंगाई कम करने, भ्रष्टाचार खत्म करने, रोजगार देने और देश के विकास की बात होती है. सत्ता पाने के बाद ये काम नहीं होते. जनता को किसी न किसी तरह बहकाने का काम किया जाता है. पौराणिक विचारधारा में आम लोगों को धर्म के नाम पर बेवकूफ  बनाया जाता है.

धर्म के नाम पर चंदा लिया जाता है. इस से मंदिर और उस से जुड़े लोगों का विकास होता है, भक्तों का केवल नुकसान होता है. यह बात नहीं बताई जाती है.

भक्ति की आड़ में दलित राजनीति की ही तरह से आरक्षण को बेदम किया जा रहा है. सरकार जिस तरह से खेती का निजीकरण करने वाले कृषि कानून ले कर आई है, उस से गरीब को और भी गरीब बनाना है, जिस से वह सरकार को वोट दे कर मिलने वाली सब्सिडी और नकद सहायता राशि पा कर खुश होते रहें. जैसे 500 रुपए महीने की ‘किसान सम्मान निधि’ पा कर किसान खुश हो रहे हैं. यह राशि तभी तक है, जब तक किसानों से काम है. उस के बाद किसानों की हालत भी दलित नेताओं की तरह से हो जानी है.

औरतों पर भक्ति की मार

पौराणिक विचारधारा की सब से ज्यादा मार औरतों पर ही पड़ती है. पौराणिक विचारधारा ने औरतों को गुलाम बना लिया है. ऐसे में हर राजनीतिक दल उन्हें संरक्षण नहीं देता है. समझने के लिए देखें, तो भाजपा की मोदी सरकार ने मुसलिम औरतों को राहत देने के लिए ‘तीन तलाक कानून’ में सुधार का काम किया, पर हिंदू धर्म की औरतों के लिए कुछ भी नहीं किया.

हिंदू औरतों के सब से ज्यादा मुकदमे फैमिली कोर्ट में लंबित हैं. सालोंसाल औरतें भटकती रहती हैं. औरतों को ले कर किसी तरह के रोजगार का अलग से प्रावधान नहीं किया गया. केवल कैरियर के लिहाज से नहीं, घरगृहस्थी को सही ढंग से चला सकें, उस के लिए भी कोई योजना नहीं बनाई गई. रसोई गैस के सिलैंडर महंगे हो रहे हैं. बच्चों की स्कूल की फीस महंगी हो गई है. गृहस्थी की गाड़ी चलाना मुश्किल हो गया है. औरतों के नाम पर नाममात्र की प्रौपर्टी है.

भक्ति की मार का ही असर है कि आज भी औरतें बेटा और बेटी में फर्क करती हैं. वे आईवीएफ तकनीक अपना कर बेटे ही पैदा करना चाहती हैं. मंगलसूत्र पहने रहती हैं. करवाचौथ का व्रत वही करती हैं. विधवा या परित्यक्ता होने पर अपने भाग्य को दोष देती हैं, मर्द को नहीं. अंधविश्वास में पड़ कर धर्म के बनाए चक्र में वे पिसती रहती हैं.

त्याग की कमी

धर्म और आडंबर के प्रचार और विरोध की शुरुआत को देखें तो लगता है कि साल 1990 में पहले धर्म के विरोध का जो लैवल था, वह धीरेधीरे कमजोर पड़ने लगा. इस में बामसेफ और वामपंथी दलों के विचारों का कमजोर पड़ना सब से प्रमुख रहा.

भारतीय जनता पार्टी ने राम मंदिर आंदोलन के सहारे पौराणिक कथाओं और नियमों का जिस तरह से प्रचार करना शुरू किया, विरोध के स्वर कमजोर पड़ने लगे. पहले राजनीतिक दलों में विचारधारा को ले कर भ्रम पैदा हुआ, फिर सामाजिक संगठन इस का शिकार हुए. धीरेधीरे मीडिया में भी धर्म के आडंबर का विरोध खत्म हो गया. मीडिया में धर्म का प्रचार हावी होता गया. प्रिंट के मुकाबले इलैक्ट्रौनिक चैनलों ने धर्म के प्रचार को बढ़ावा देने का काम किया.

पौराणिक कथाओं का महिमामंडन शुरू हुआ. स्वर्ण की सीढि़यां, पुनर्जन्म, मंदिरों की कहानियों के जरीए धर्म का बखान दिनरात किया जाने लगा. इस के बाद बाबाओं के प्रवचन और पौराणिक कथाओं को टीवी सीरियल के रूप में पेश किए जाने का काम शुरू हुआ.

एक तरफ जहां धर्म का प्रचार करने में पैसा था, तो वहीं दूसरी तरफ धर्म और आडंबर का विरोध करने वाले माली रूप से टूटते जा रहे थे. जैसे नशे का प्रचार करने वाले आबकारी विभाग के पास बहुत पैसा होता है और नशे का विरोध करने वाले मद्य निषेध विभाग के पास पैसे की कमी होती है. इस वजह से वे अपने कार्यक्रमों को पूरा नहीं कर पाते हैं. धर्म और आडंबर का विरोध करने वालों की हालत भी उसी तरह से हो गई. पैसे की कमी में यह लड़ाई कमजोर पड़ती गई.

धर्म असरदार क्यों

धर्म की विचारधारा का विरोध और समर्थन एकसाथ शुरू हुआ. इस के बाद विरोध के स्वर हाशिए पर पहुंच गए. इस की वजह यह रही कि धर्म बहुत सारी जातियों को अपने साथ ले कर चलने में सफल हो गया.

जिन दलितों में एक जमाने में बौद्ध धर्म अपनाने की दिलचस्पी रहती थी, अब वह हिंदू धर्म की तरफ बढ़ने लगे. देवीदेवताओं को गाली देने वाले लोगों का साथ छोड़ कर यह देवीदेवताओं की पूजा करने लगे. तीजत्योहार मनाने लगे. मंदिरों में जाने लगे. ऐसे लोगों ने ही बसपा का साथ छोड़ दिया और पौराणिक कथाएं सुनाने वाले को वोट देना शुरू कर दिया.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस ने जब अपना संगठन बनाया, तो उस की राजनीतिक शाखा भी तैयार कर ली थी. जनसंघ से भारतीय जनता पार्टी का सफल उदाहरण है.

संघ ने धर्म को सीढ़ी बना कर राजनीति की सत्ता को हासिल किया. इसी के जरीए सिस्टम को अपने मुताबिक बनाने का काम किया. राम मंदिर बनाना और अनुच्छेद 370 को हटाना इस के उदाहरण हैं.

जैसेजैसे भाजपा राजनीतिक संतुलन को साधने के लिए अलगअलग विचारों के लोगों को साथ लेगी, उस के विचारों में भी शुद्धता कम होगी और दूसरे विचार के लोगों के शामिल होने से पार्टी का हाशिए पर जाना शुरू हो जाएगा. अगर धर्म की विचारधारा को सत्ता हासिल नहीं होती, तो उस का प्रचारप्रसार इतना ज्यादा नहीं होता.

पौराणिक विचारधारा ने राजनीतिक समुद्र मंथन कर सत्ता को हासिल किया. सत्ता से मिले अमृत का खुद पान किया. अमृत की मांग दूसरे लोग न कर सकें, इस के लिए जातिधर्म के मोहपाश में उन को उलझाने का काम किया गया है.

अमृत के नाम पर नशा मोहिनी द्वारा पिलाया जा रहा है, यह न कोई बता रहा है और न औरतें सुनने को तैयार हैं, क्योंकि इन बातों को पुलिस, अदालत और कानून के नाम पर दबा दिया जाता है और सताए गए लोगों के नेता चुप हैं.

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