love story : न जाने शंभुजी को क्या हो गया था, इतनी बड़ी कोठी, कार, नौकरचाकर, पैसा देखते ही चौंधिया गए थे. शायद उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि एक दिन उन के दामन में इतनी दौलत आएगी कि जिसे समेटने के लिए उन्हें स्वार्थ के दरवाजे खोल कर बुद्धि के दरवाजे बंद कर देने पड़ेंगे.
‘‘मुझे जीवनसाथी की जरूरत है, पापा, दौलत पर पहरा देने वाले पहरेदार की नहीं,’’ सीमा ने साफ शब्दों में अपनी बात कह दी.
शंभुजी कोलकाता से लौट कर आए तो उन्हें बड़ी हैरानी हुई. हमेशा दरवाजे पर स्वागत करने वाली सीमा आज कहीं भी नजर नहीं आ रही थी. मैसेज तो उन्होंने कोलकाता से चलने से पहले ही उस के मोबाइल पर भेज दिया था. क्या उस ने पढ़ा नहीं? लेकिन वे तो हमेशा ही ऐसा करते हैं. चलने से पहले मैसेज कर देते हैं और उन की लाड़ली बेटी सीमा दरवाजे पर मिलती है. उस का हंसता चेहरा देखते ही वे अपनी सारी थकान, सारा अकेलापन पलभर में भूल जाते हैं. शंभुजी का मन उदास हो गया. कहां गई होगी सीमा? मोबाइल भी घर पर छोड़ गई. किस से पूछें वे? और उन्होंने एकएक कर के सारे नौकरों को बुला लिया. पर किसी को पता नहीं था कि सीमा कहां है. सब का एक ही जवाब था, ‘‘सुबह घर पर थी, फिर पता नहीं बिटिया कहां गई.’’
शंभुजी ने सीमा का मोबाइल चैक किया. उन का मैसेज उस ने पढ़ लिया था. फिर भी सीमा घर में नहीं रही. क्या होता जा रहा है उसे? पिछले कई महीनों से वे देख रहे हैं, सीमा में कुछ परिवर्तन होते जा रहे हैं. न वह उन के साथ उतना लाड़ करती है, न उन्हें अपने मन की कोई बात ही बताती है और न ही अब उन से कुछ पूछती है. पिछली बार जब वे कोलकाता जा रहे थे, तो उन्होंने कितना पूछा था, ‘क्यों, बेटे, तुम्हें कुछ मंगवाना है वहां से?’ तो बस, केवल सिर हिला कर उस ने न कर दी थी और वहां से चली गई थी.
पहले जब वे कहीं जाते थे, तो कैसे उन के गले में बांहें डाल कर लटक जाती थी, और मचल कर कहती थी, ‘पापा, जल्दी आ जाइएगा, इतने बड़े सूने घर में हमारा मन नहीं लगता.’
उन का भी कहां इस घर में मन लगता है. यह तो सीमा ही है, जिस के पीछे उन्होंने इतने बरस हंसतेहंसते काट दिए हैं और अपनी पत्नी मीरा को भी भुला बैठे हैं. जबजब वे सीमा को देखते हैं, उन्हें हमेशा यही संदेह होता है, मीरा लौट आई है. और वे अपने अकेलेपन की खाई को सीमा की प्यारीप्यारी बातों से पाट देते हैं.
एक दिन सीमा भी तो पूछ बैठी थी, ‘पापा, मेरी मां बहुत सुंदर थीं?’
‘हां बेटा, बहुत सुंदर थी?’
‘बिलकुल मेरी तरह?’
‘हां, बिलकुल तेरी तरह.’
‘वे आप से रूठती भी थीं?’
‘हां बेटा.’
‘मेरी तरह?’
‘आज तुम्हें क्या हो गया है, सीमा? यह सब तुम्हें किस ने बताया है?’ वे नाराज हो गए थे.
‘15 नंबर कोठी वाली रेखा चाची हैं न, उन्होंने कहा था, मां बहुत अच्छी थीं. आप उन की बात नहीं मानते थे तो वे रूठ जाती थीं,’ सीमा बड़े भोलेपन से बोली थी.
‘तू वहां मत जाया कर, बेटी. अपने घर में क्यों नहीं खेलती? कितने खिलौने हैं तेरे पास?’ उन्होंने प्यार से समझाया था.
‘वहां शरद है न, वह मेरे साथ कैरम खेलता है, बैडमिंटन खेलता है, यहां मेरे साथ कौन खेलेगा? आप तो सारा दिन घर से बाहर रहते हैं,’ वह रोआंसी हो आई थी.
वे उस छोटी सी बेटी को कैसे बताते कि उस की मां उन से क्यों रूठ जाती थी. वे तो आज तक अपने को कोसते हैं कि मीरा की वे कोई भी इच्छा पूरी न कर सके. कितनी स्वाभिमानी थी वह? इतनी बड़ी जायदाद की भी उस की नजर में कोई कीमत न थी. हमेशा यही कहती थी कि वह सुख भी किस काम का जिस से हमेशा यह एहसास होता रहे, यह हमारा अपना नहीं, किसी का दिया हुआ है.
यह जो आज इतना बड़ा राजपाट है, यह सब उन्हें मीरा की बदौलत ही तो मिला था. लेकिन मीरा ने कभी इस राजपाट को प्यार नहीं किया. न जाने शंभुजी को क्या हो गया था, इतनी बड़ी कोठी, कार, नौकरचाकर, पैसा देखते ही चौंधिया गए थे. शायद उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि एक दिन उन के दामन में इतनी दौलत आ आएगी कि जिसे समेटने के लिए उन्हें स्वार्थ के दरवाजे खोल कर बुद्धि के दरवाजे बंद कर देने पड़ेंगे.
बहुत बड़ा कारोबार था मीरा के पिताजी का. कितने ही लोग उन के दफ्तर में काम करते थे. शंभुजी भी वहीं काम करते थे. वे बहुत ही स्मार्ट, होनहार और ईमानदार व्यक्ति थे. अपनी मेहनत और लगन से उन्होंने मीरा के पिता का मन जीत लिया था. शंभुजी से उन की कोई बात छिपी नहीं थी, और शंभुजी भी उन की बात को अपनी बात समझ कर न जाने पेट के किस कोने में रख लेते थे, जिस से कोई जान तक नहीं पाता था. मीरा की मां ने ही एक दिन पति को सुझाव दिया था, ‘क्योंजी, तुम तो दिनरात शंभुजी की प्रशंसा करते हो. अगर हम अपनी मीरा की शादी उन से कर दें, तो कैसा रहेगा? गरीब घर का लड़का है, अपने घर रह जाएगा.’
‘मैं भी कितने दिनों से यही सोच रहा था. मुझे भी ऐसा लड़का चाहिए जो मेरा कारोबार भी संभाल ले, और हमारी बेटी भी हमारे पास रह जाए,’ मीरा के पिता ने बात का समर्थन किया था.
‘मेरी चिंता दूर हुई. लेदे कर एक ही तो औलाद है, वही आंखों से दूर हो जाए तो यह तामझाम किस काम का?’
‘लड़का हीरा है, हीरा. चरित्रवान, स्मार्ट, मेहनती, ईमानदार, यह समझ लो, चिराग ले कर ढूंढ़ने से भी ऐसा लड़का हमें नहीं मिलेगा.’
‘तो बात पक्की कर लो. यह जरूर जतला देना, घरजमाई बन कर रहना पड़ेगा. उसे मंजूर हो तो बस चट मंगनी पट ब्याह वाली बात कर ही डालो,’ मीरा की मां ने पुलकित हो कर कहा था.
बात पक्की हो गई थी. बड़ी धूमधाम से मीरा और शंभुजी की शादी हुई थी. शंभुजी के पांव धरती पर नहीं पड़ते थे. पहले तो दफ्तर में काम करने वाले सभी साथियों ने ईर्ष्या की थी, लेकिन धीरेधीरे वे सब के लिए छोटे मालिक हो गए थे. मीरा के पिता तो जैसे उन्हें पा कर पूरी तरह निश्ंिचत हो गए थे. धीरेधीरे सारा कारोबार ही उन्होंने शंभुजी को सौंप दिया था.
मीरा भी उन जैसा पति पा कर गर्व से फूल उठी थी और मन ही मन उस ने अपने मातापिता की बुद्धि को सराहा भी था. कुछ समय तक तो सबकुछ ठीकठाक चलता रहा था, लेकिन बाद में मीरा महसूस करने लगी थी जैसे पिताजी ने, दामाद नहीं, गुलाम खरीदा हो. शंभुजी सोए हों, या उस से प्रेमालाप कर रहे हों, बस पिताजी का एक बुलावा आया नहीं कि वे उठ कर चल देते. ऐसे में मीरा प्यार से उन्हें समझाती और कहती, ‘पिताजी से कह क्यों नहीं देते कि वक्तबेवक्त न बुलाया करें.’
‘अरे भई, काम होता है, तभी तो बुलाते हैं, और काम कोई वक्त देख कर तो नहीं आता,’ शंभूजी भी प्यार से जवाब देते.
‘पहले भी तो वे स्वयं काम संभालते थे, अब क्यों नहीं संभालते?’ मीरा उखड़ जाती.
‘इसी लिए तो उन्होंने तुम जैसी पत्नी का मुझे पति बना दिया है, ताकि मैं उन का बोझ हलका करूं,’ शंभुजी हंस कर टाल देते.
‘फिर उन्हें बेटी देने की क्या जरूरत थी. बोझ हलका करने के लिए तुम्हें रुपयों से खरीदा भी जा सकता था. तुम नहीं बोल सकते तो मैं पिताजी से कहूंगी कि आप साथसाथ काम करने के लिए कोई दूसरा नौकर रख लीजिए,’ मीरा नाराज हो जाती.
‘तुम तो बहुत भावुक हो, मीरा. जितनी मेहनत और ईमानदारी से अपने घर का आदमी काम कर सकता है, कोई दूसरा करेगा क्या?’ वे तर्क देते.
‘यह क्यों नहीं कहते कि तुम बिक गए हो. तुम्हें पत्नी की नहीं, सिर्फ दौलत की जरूरत थी,’ और मीरा फफक कर रो पड़ी थी.
शंभुजी कितने ही प्यार से क्यों न समझाते लेकिन मीरा को यह कतई पसंद नहीं था कि वे घरदामाद बन कर रहें. वह हमेशा यही कहती थी, ‘घरदामाद तो पालतू कुत्ते की तरह होता है, जो टुकड़े खा कर दिनरात वफादारी करता है. तुम क्यों नहीं अलग मकान ले लेते. तुम जैसे भी रखोगे, मैं उसी तरह रहूंगी. तुम से कभी गिला नहीं करूंगी. मुझे यह तो एहसास रहेगा, मेरा अपना घर है, तुम मेरे हो. यहां तो हमेशा मुझे ऐसा लगता है जैसे हम पिताजी की दया पर पल रहे हैं और तुम भी सोचते होगे कि यदि मैं ने कहीं विद्रोह किया, तो पिताजी रोजी ही न छीन लें.’
‘न जाने तुम क्यों गलत ढंग से सोचने लगी हो? मैं ने तो कभी इस तरह सोचा भी नहीं. मीरा, तुम पहले भी तो इस घर में रहती थीं, तब तुम ऐसा क्यों नहीं सोचती थीं?’
‘तब मैं कुआंरी थी. कुआंरी लड़की हमेशा अपनी नई दुनिया बसाने के सपने देखती है. एक ऐसे पति का सपना, जो उसे घर देगा, उस के सुखदुख का भागीदार होगा, और वह उस के हर सुखदुख की चादर अपने ऊपर ओढ़ लेगी. बताओ, क्या दिया तुम ने मुझे अपनी ओर से? बाकी सब छोड़ भी दें तो प्यार और विश्वास भी तुम नहीं दे सके, जिस समय भी मेरे पास होते हो, तुम्हें यही खयाल रहता है कि पिताजी के कहे काम सब पूरे हो गए कि नहीं, कहीं वे यह न सोचें, शादी होते ही लापरवाह हो गया है.’
इसी तरह तकरार और प्यार में वर्ष छलांगें लगाते निकल रहे थे. मीरा की गोद में सीमा भी आ गई थी. सीमा को पा कर मीरा काफी हद तक सहज हो गई थी. उन्होंने सोचा था, ‘मीरा सीमा को पा कर तनाव से शायद मुक्त हो गई है.’ लेकिन यह उन की भूल थी.
सीमा जैसेजैसे बड़ी होती गई, मीरा की खामोशी बढ़ती गई. वह हमेशा देखती, सीमा की हर जरूरत पिताजी पूरी करते हैं, उस का भविष्य कैसे संवारना है, यह भी पिताजी सोचते हैं. बिलकुल उसी तरह, जिस तरह उन्होंने उस के लिए सोचा था.
शंभुजी ने तो एक दिन भी यह महसूस नहीं किया कि बाप का अपनी संतान के लिए क्या कर्तव्य होता है. मीरा की जरूरत पिताजी आ कर पूछते. शंभुजी को इस से कोई अंतर नहीं पड़ता था. बस, उन्हें यही संतोष था कि पिताजी के होते उन्हें चिंता करने की क्या आवश्यकता है, या पिताजी उन पर कितने प्रसन्न हैं, क्योंकि उन्होंने उन का व्यापार और बढ़ा दिया था. मीरा की हर बात चिकने घड़े पर पड़े पानी की तरह उन के ऊपर से फिसल जाती थी.
एक दिन बेहद गुस्से में मीरा ने कहा था, ‘इन सुखों की खातिर तुम ने अपनेआप को बेच दिया है. अपनी आजादी, अपने आदर्शों तक को दांव पर लगा दिया है.’
‘तुम सुखी रहो, इसी लिए तो यह सब किया है मैं ने, वरना मैं अकेला तो दो रोटी और दो कपड़ों में ही प्रसन्न था. यदि तुम्हारी खुशी के लिए स्वयं मुझे भी बिकना पड़ा तो भी मैं पीछे नहीं हटूंगा, मीरा,’ शंभुजी ने हंस कर बात टालनी चाही थी.
‘मेरा नाम ले कर झूठ मत बोलो. तुम जानते हो इस पैसे की दुनिया से मुझे कभी प्यार नहीं रहा जहां आदमी आजादी से अपनी कोई इच्छा ही पूरी न कर सके, जहां आगेपीछे नौकरों की फौज खड़ी हो. मैं खुली हवा में सांस लेना चाहती हूं. प्लीज, मुझे अलग ले जाओ, ताकि मैं अपना छोटा सा संसार बना सकूं, और सोच सकूं, यह घर मेरा है, जहां सुकून हो, जहां तुम हो, हमारी बच्ची हो, और मैं होऊं,’ और मीरा रो पड़ी थी.
‘ठीक है, मीरा. मैं वचन देता हूं, हम उसी तरह रहेंगे जैसे तुम चाहती हो. मैं पिताजी से जरूर बात करूंगा,’ उन्होंने मीरा को प्यार से थपथपा दिया था.
जब मीरा ने देखा कि यह तकरार भी चिकने घड़े की बूंद बन गई है तो वह हमेशा के लिए चुप हो गई थी. शायद उस ने ‘जो है, सो ठीक है,’ समझ कर ही संतोष कर लिया था.
दूसरे बच्चे के समय मीरा की तबीयत बहुत बिगड़ गई थी. डाक्टरों की भीड़ भी उसे नहीं बचा सकी थी. तब यही शंभुजी सीमा को छाती से लगा कर फूटफूट कर रो पड़े थे. उन्होंने मन ही मन मीरा से कितनी बार माफी मांगी थी और वादा किया था, ‘तुम्हारी सीमा की मैं हर इच्छा पूरी करूंगा. मैं स्वयं उस का खयाल रखूंगा, उसे मां बन कर पालूंगा.’
कितना स्नेह और ममत्व उन्होंने बेटी को दिया था. उस के उठने से ले कर सोने तक, हर बात का ध्यान वे खुद रखते थे. बाहर जाना भी कितना कम कर दिया था. लेकिन कभीकभी जब सीमा उन्हें टकटकी लगाए देखने लगती थी तो न जाने वे क्यों सिहर उठते थे. उन्हें महसूस होता था, ये निगाहें सीमा की नहीं, मीरा की हैं, जो उन से कुछ कहना चाह रही हैं, तो वे घबरा कर यह पूछ बैठते, ‘कुछ कहना है, बेटी?’
‘कुछ नहीं, पापा,’ जब सीमा कहती तो उन की सांस की गति ठीक होती.
समय के साथ सीमा बड़ी हुई. मीरा के मातापिता का साथ छूटा. सारा कारोबार फिर एक बार शंभुजी पर आ पड़ा. यह वही जिम्मेदारी थी जो किसी को दी नहीं जा सकती थी और फिर धीरेधीरे वे पहले की तरह व्यस्तता के बीच खोने लगे थे.
एक दिन जब वे काफी रात गए घर लौटे थे, तो यह देख कर हैरान हो गए थे कि जल्दी सो जाने वाली सीमा, आज बालकनी में खड़ी उन का इंतजार कर रही है. वे हैरानी से बोले थे, ‘सोई क्यों नहीं?’
‘आप जल्दी क्यों नहीं आते? अकेले मेरा मन नहीं लगता,’ सीमा गुस्से में थी.
‘मेरा बहुत काम होता है, इसी लिए देर हो जाती है. आज कोई पहली बार तो मैं देर से नहीं आया?’ उन्होंने प्यार से समझाया था.
‘इतनी रात तक किसी का काम नहीं होता. आप झूठ बोलते हैं. आप पार्टियों में जाते हैं, शराब पीते हैं, इसी लिए आप को देर हो जाती है.’
‘सीमा,’ वे नाराज हो गए थे.
‘डांटिए मत, मैं कालेज से देर से आऊंगी, तब आप को अच्छा लगेगा?’ वह भी सख्ती से बोली थी, ‘मैं कहे देती हूं, अब आप देर से आएंगे तो मैं खाना नहीं खाऊंगी.’ और वह पैर पटकती हुई चली गई थी.
वे हैरान से खड़े देखते रह गए थे. मीरा और सीमा में कितना साम्य है. वह अगर हवा का तेज झोंका थी तो यह सबकुछ हिला देने वाली तेज आंधी.
कुछ दिन तक तो वे समय पर घर पहुंचते रहे थे. लेकिन क्रम टूटते ही घर में तूफान आ जाता था. एक बार तो सीमा ने हद कर दी थी. महाराज के बारबार खाने के लिए बुलाने पर उस ने खाने की मेज ही उलट कर रख दी थी, और चिल्ला कर कहा था,
‘मैं शीला चाची के यहां जा रही हूं. डाक्टर साहब के साथ शतरंज खेलूंगी. पिताजी से कह देना, जिस समय मेरा मन होगा, मैं वापस आऊंगी. मुझे वहां लेने आने की कोई जरूरत नहीं.’ और वह दनदनाती हुई चली गई थी.
जब शंभुजी को पता चला तो वे चाह कर भी उसे लेने नहीं जा सके थे. उन्हें डर था, ‘जिद्दी लड़की है, वहीं कोई नाटक न शुरू कर दे.’
12 बजे के करीब डाक्टर साहब का बेटा दीपक उसे छोड़ने आया था तो वह बिना उन्हें देखे अपने कमरे में चली गई थी. पीछेपीछे भारी कदमों से उन्हें उस के कमरे में जाना पड़ा था, ‘खाना नहीं खाओगी, बेटी?’
‘मैं ने खा लिया है,’ वह लापरवाही से बोली थी.
‘तुम डाक्टर साहब के यहां रात को क्यों गई थी?’ उन्होंने सख्ती से पूछा था.
‘आप भी तो वहां जाते हैं. वे भी हमारे घर आते हैं,’ वह भी सख्त हो गई थी.
‘वे मेरे मित्र हैं, बेटी. तुम समझती क्यों नहीं? तुम अब बड़ी हो गई हो. रात को अकेले तुम्हें…’ आगे वे बात पूरी नहीं कर सके थे.
‘मैं वहां जरूर जाऊंगी. दीपक मुझे घुमाने ले जाता है. मेरा खयाल रखता है. वह भी मेरा दोस्त है. जब आप को फुरसत नहीं मिलती तो मैं अकेली क्या करूं?’इतना सुनते ही उन का सिर चकराने लग गया था. इन बातों का तो उन्हें पता ही नहीं था. वे तो अपने काम में ही इतने व्यस्त रहते थे कि बाहर क्या हो रहा है, कुछ जानते ही न थे. डाक्टर साहब जरूर उन्हें कभीकभी खींच कर पार्टियों में या क्लब में ले जाते थे.
फिर उन्हें यह भी जानकारी मिली कि, सीमा दीपक के साथ फिल्म देखने भी जाती है तो वे बड़े परेशान हो गए थे. पहले तो उन्हें सीमा पर गुस्सा आया था कि कभी मुझ से पूछती तक नहीं, लेकिन फिर वे स्वयं पर भी नाराज हो उठे थे, उन्होंने ही बेटी से कब, कुछ जानना चाहा था.
सीमा कुछ और सयानी हो गई थी. उन्होंने भी सोचा था, ‘दीपक अच्छा लड़का है. अगर सीमा उसे पसंद करती है तो वे उस की इस खुशी को जरूर पूरा करेंगे. सीमा के सिवा उन का है ही कौन? यह घर, यह कारोबार किसी को तो संभालना ही है. फिर दीपक तो बड़ा ही प्यारा लड़का है.’ और वे निश्ंिचत हो गए थे.
अब वे सीमा से हमेशा दीपक के बारे में पूछा करते थे. वे यह भी देख रहे थे, सीमा धीरेधीरे गंभीर होती जा रही है.
एक दिन बातोंबातों में सीमा ने कहा था, ‘पिताजी, आप क्यों नहीं किसी को अपने विश्वास में ले लेते? उसे सारा काम समझा दीजिए, तो आप का कुछ बोझ तो हलका हो ही जाएगा. आप को कितना काम करना पड़ता है.’
‘हां, बेटा, मैं भी कई दिनों से यही सोच रहा था. पहले तुम्हारे हाथ पीले कर दूं, फिर कारोबार का बोझ भी अपने ऊपर से उतार फेंकूं. अब मैं भी बहुत थक गया हूं, बेटी.’
‘आप एक चैरिटेबल ट्रस्ट क्यों नहीं बना देते? उस से जितना भी लाभ हो, गरीबों की सहायता में लगा दिया जाए. गरीबों के लिए एक अस्पताल बनवा दीजिए. एक स्कूल खुलवा दीजिए. इतने पैसों का आप क्या करेंगे?’
‘बेटी, अपना हक यों बांट देना चाहती हो,’ वे हैरानी से बोले थे.
‘मैं भी इतना पैसा क्या करूंगी. आदमी की जरूरतें तो सीमित होती हैं, और उसी में उसे खुशी होती है. इतना पैसा किस काम का जो किसी दूसरे के काम न आ सके, बैकों में पड़ापड़ा सड़ता रहे. सब बांट दीजिए, पापा.’
‘कैसी बातें करती हो, मैं ने सारी जिंदगी क्या इसी लिए खूनपसीना एक किया है कि मैं कमा कर लोगों में बांटता फिरूं. तुम नहीं जानतीं. मैं ने इसी व्यापार को बढ़ाने की खातिर क्या कुछ खोया है?’
‘मुझे सब पता है, पापा. इसी लिए तो कहती हूं, आप समेटतेसमेटते फिर कुछ न खो बैठें. एक बार बांट कर तो देखिए, आप को कितना सुख मिलता है. जो खुशी दूसरों के लिए कुछ कर के हासिल होती है, वह खुद के लिए समेट कर नहीं होती.’
‘यह तुम क्या कह रही हो?’
‘डाक्टर चाचा भी तो यही कहते हैं, पापा, देखिए न, वे गरीबों का मुफ्त इलाज करते हैं. वे हमेशा यही कहते हैं, बस, जितने की मुझे जरूरत होती है, मैं रख लेता हूं, बाकी दूसरों को दे देता हूं, ताकि मेरे साथसाथ दूसरों का भी काम चलता रहे.’
वे बेटी का मुंह देखते रह गए थे. अच्छा हुआ सीमा ने बात खोल दी, नहीं तो वे कितनी बड़ी गलती कर बैठते. नहीं, नहीं, उन्हें तो ऐसा लड़का चाहिए जो व्यापार को संभाल सके. वे इस तरह अपनी दौलत को कभी नहीं लुटाएंगे. और उन्होंने निश्चय किया था, वे अपनी तरफ से तलाश शुरू कर देंगे. यह काम जल्दी ही करना होगा.
जल्दी काम करने का नतीजा भी सीमा की नजरों से छिपा नहीं रहा. शंभुजी के औफिस की टेबल पर उस ने जब कई लड़कों के फोटो देखे तो वह सबकुछ समझ गई थी. उसी दिन वे कोलकाता जाने वाले थे. सीमा ने सबकुछ देखने के बाद केवल इतना ही कहा था, ‘पापा, आप इतनी जल्दी न करें, तो अच्छा है.’
‘तुम्हें मेरे फैसले पर कोई आपत्ति है.’
‘मेरा अपना भी तो कोई फैसला हो सकता है,’ उस ने दृढ़ता से कहा था.
‘मुझे तुम्हारे फैसले पर आपत्ति नहीं, बेटी. दीपक मुझे भी पसंद है. लेकिन मेरी भी तो कुछ खुशियां हैं, कुछ इच्छाएं हैं. तुम जानती हो, दीपक को शादी के बाद…’
‘आप पहले कोलकाता हो आइए. इस बारे में हम फिर बात करेंगे,’ उस ने उन की बात काट दी थी.
वे निश्ंिचत हो कर चले गए थे, और आज वापस आए थे. लेकिन दरवाजे पर इंतजार करती सीमा कहीं नजर नहीं आ रही थी.
वे तेजी से उस के कमरे में गए, शायद उस ने कोई मैसेज छोड़ा हो लेकिन कहीं कुछ भी नहीं था. सबकुछ व्यवस्थित था. तभी नौकर ने आ कर धीरे से कहा, ‘‘सीमा बिटिया आ गई है.’’
सीमा जब उन के सामने आ कर खड़ी हुई थी तो वे उसे अपलक देखते रह गए थे. इन 6 दिनों में सीमा को क्या हो गया है. लगता है, जैसे इतने दिनों तक सोई ही न हो, ‘‘कहां गई थी, बेटी?’’
‘‘रमेशजी के यहां, मां की तबीयत ठीक नहीं थी. उन्होंने बुलवा भेजा था.’’
‘‘मां…कौन मां?’’ वे हैरान थे.
‘‘रेखा चाची, यानी शरदजी की मां. शरदजी की भी तबीयत ठीक नहीं है. मैं यही बताने आई थी, कहीं आप चिंता न करने लगें. मुझे अभी फिर वापस जाना है. उन की देखभाल करने वाला कोई नहीं. दोनों बीमार हैं. शायद मुझे रात को भी वहीं रहना पड़े.’’
‘‘उन का नौकर उन की…’’ वे बात पूरी नहीं कर सके थे.
‘‘जितनी सेवा कोई अपना कर सकता है, उतनी सेवा क्या नौकर करेगा? मेरा मतलब तो आप समझ गए न, मैं ने कहा था न, पिताजी मेरा भी कोई फैसला हो सकता है.’’
‘‘और डाक्टर का बेटा दीपक?’’ वे हैरान थे.
‘‘वह तो बचपन की पगडंडियों पर लुकाछिपी खेलने वाला दोस्त था, जो जवानी के मोड़ पर आ कर आप की दौलत से भी आंखमिचौली खेलना चाहता था. मुझे जीवनसाथी की जरूरत है, पापा, दौलत पर पहरा देने वाले पहरेदार की नहीं. मैं जानती हूं, आप को मेरी बातों से दुख हो रहा है. लेकिन यह भी तो सोचिए, लड़की के जीवन में एक वह भी समय आता है जब वह बाबुल का घर छोड़ कर पति के घर जाने के लिए आतुर हो जाती है. इसी में उसे जिंदगी का सुख मिलता है. मांबाप की भी तो यही खुशी होती है कि लड़की अपने घर में सुखी रहे. आप शरद को भी बचपन से जानते हैं, आप भी अपना फैसला बदल डालिए, इसी में मेरी खुशी है और आप का सुख,’’ और वह जाने को तैयार हो गई.
‘‘रुक जाओ, बेटी, मुझे तुम्हारा फैसला मंजूर है. तुम ने तो एकसाथ मेरे दोदो बोझ हलके कर दिए हैं. बेटी का बोझ और धन का बोझ. इसे भी अपनी मरजी से ठिकाने लगा देना, बेटी, जिस से कइयों को खुशियां मिलती रहें,’’ कहतेकहते उन की आंखें नम हो गई थीं.
‘‘पापा,’’ वह भाग कर मुद्दत से प्यासे पापा के हृदय से लग कर रो पड़ी थी.