गांव के लड़कों को शादी की परेशानी, हकीकत हैरान करने वाली

Society News in Hindi: गांव में शादियों के मामले में सरकारी नौकरी बनाम पकौड़ा रोजगार के मद्देनजर पकौड़े बेचने वाले युवाओं को लोग कम पसंद कर रहे हैं. ऐसे में खेतीकिसानी और उस से जुड़े रोजगार करने वालों को तो गांव की सही लड़की मिल भी जा रही है पर बेरोजगार (Employment) और नशेड़ी युवाओं (Drug Addicts) के लिए शादी के रिश्ते ही नहीं आ रहे हैं. गांव में शादी योग्य लड़कों की संख्या बढ़ती जा रही है. लड़कियों की जनसंख्या (Population of Girl Child) कम होने से लड़कों के सामने शादी एक समस्या बनती जा रही है. योग्य लड़कों की तलाश की वजह से दहेज (Dowry) भी बढ़ता जा रहा है. अच्छे लड़कों की गिनती में सरकारी नौकरी (Goverment Job) वाले सब से आगे हैं. गांव में रोजगार करने वाले लड़कों के लिए गांव की लड़कियों के रिश्ते भले ही आ रहे हों पर उन के लिए पढ़ीलिखी व नौकरी करने वाली शहरी लड़कियों के रिश्ते नहीं आ रहे हैं.

कानपुर में विवाह का एक कार्यक्रम था. लड़कालड़की वाले सभी रीतिरिवाजों में व्यस्त थे. शादी में शामिल होने आए नातेरिश्तेदार इस चर्चा में मशगूल थे कि गांव में लड़कों की शादियों के लिए बहुत कम रिश्ते आ रहे हैं. इस शादी में कानपुर, रायबरेली, हरदोई, उन्नाव और लखनऊ जैसे करीबी शहरों के तमाम लोग शामिल हुए थे.

हर किसी का कहना था कि उन के गांव में 20 से ले कर 50 तक की संख्या में लड़के शादीयोग्य उम्र के हैं, लेकिन उन की शादी नहीं हो पा रही है. उन की उम्र बढ़ती जा रही है. यह परेशानी केवल कानपुर की शादी में ही चर्चा का विषय नहीं थी बल्कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले में एक शादी समारोह में भी ऐसी ही चर्चा हो रही थी. यहां गोंडा, बलरामपुर, बस्ती, सुल्तानपुर और गोरखपुर के लोग इसी परेशानी की चर्चा में लगे दिखे.

सामान्यतौर पर देखें तो ऐसे हालात हर गांव में दिख रहे हैं. अगड़ी और पिछड़ी दोनों ही जातियों में यह समस्या दिख रही है. पिछड़ी जातियों में यह समस्या उन जातियों में सब से अधिक है जो पिछड़ों में अगड़ी जातियां जैसे यादव, कुर्मी, पटेल हैं. अगड़ी और पिछड़ी जातियों के मुकाबले दलितों में ऐसे हालात नहीं हैं.

उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव जब मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने कन्या विद्याधन योजना चलाई थी जिस के तहत हाईस्कूल और इंटर पास करने वाली लड़कियों को नकद पैसे मिले. इस के साथ उन्हें साइकिल भी मिली थी. इस योजना के  बाद गांवों में लड़कियों के स्कूल जाने की तादाद में तेजी से बढ़ोतरी हुई थी. अब गंवई इलाकों में ग्रेजुएट लड़कियों की संख्या लड़कों से अधिक हो गई है. इन इलाकों में शिक्षक के रूप में नौकरी पाने वालों में भी लड़कों के मुकाबले लड़कियां अधिक हैं.

आगे निकल रही हैं लड़कियां

एक तरफ समाज में यह कहा जा रहा है कि लड़कों की अपेक्षा लड़कियों की संख्या कम होती जा रही है, दूसरी तरफ लड़कों की शादी के लिए लड़कियों के परिवारों से रिश्ते नहीं आ रहे हैं. इस स्थिति को समझने के लिए जब कई ग्रामीणों से बात की गई तो पता चला कि योग्यता के पैमाने पर लड़कियां लड़कों से आगे निकल रही हैं.

पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों, जैसे देवरिया, बलिया, गोरखपुर में शादियों के रिश्ते ज्यादातर बिहार से आते हैं. बिहार  में लड़कियां शिक्षा के मामले में ज्यादा आगे निकल रही हैं. ऐसे में बिहार से शादी के लिए उत्तर प्रदेश के इन जिलों में आने वाले रिश्ते खत्म हो गए हैं. उत्तर प्रदेश के इन जिलों के गांवों में रहने वाले लड़कों के लिए अब रिश्ते नहीं आ रहे हैं. बिहार में यह परेशानी जस की तस उत्तर प्रदेश जैसी ही है.

गांव में रहने वालों में से करीब 50 फीसदी लोग अब दूरदराज के शहरों में रहने लगे हैं. ये लोग अपना परिवार सीमित रखते हैं. लड़की हो या लड़का, दोनों को पढ़ने का समान अवसर देते हैं. ऐसे में ये परिवार अपनी लड़की को शादी के लिए शहर से गांव में नहीं ले जाते हैं. उस का कारण गांव में रहने वालों की संकीर्ण विचारधारा और रूढि़वादी सोच है. गांव में भले ही लड़के के पास जमीन या रोजगार हो, वह शहर में प्राइवेट नौकरी करने वाले से अधिक पैसा कमा रहा हो पर उस की सोच वही होती है, ऐसे में पढ़ीलिखी लड़की खुद को वहां ऐडजस्ट नहीं कर पाती है. परिवारों के सीमित होने से लड़की के परिवार के पास अब लड़की की शादी में खर्च करने के लिए पैसा है और वह बेटी के भविष्य को सुखमय देखना चाहता है. ऐसे में वह नौकरी करने वाले लड़कों को प्राथमिकता देता है.

जाति और गोत्र की परेशानी

गांव में रहने वाले परिवार आज भी जाति व गोत्र की ऊंचनीच में फंसे हैं. गैरबिरादरी में शादी तो बड़ी दूर की बात है. सब से पहली इच्छा भी यही होती है कि लड़के की शादी एक गोत्र नीचे और लड़की की शादी एक गोत्र ऊपर की जाए. हालांकि, अब इस प्रथा को छोड़ने के लिए लोग तैयार हो गए हैं.

अब लोगों की इच्छा रहती है कि अपनी ही बिरादरी में शादी हो जाए. गोत्र को ले कर लोग समझौते करने लगे हैं. अभी गैरबिरादरी में वे शादी करने को तैयार नहीं होते हैं. अपनी ही जाति में योग्य लड़कों की संख्या सब से कम मिलती है. अगर मिलती भी है तो वहां दहेज अधिक देना पड़ता है. दहेज की मांग इसलिए भी बढ़ रही है क्योंकि योग्य लड़कों की संख्या बहुत कम है, सो, उन के लिए शादी के औफर ज्यादा हैं. योग्यता  के पैमाने के बाद पर्सनैलिटी के हिसाब से देखें तो गांव के लड़केलड़कियों से कमतर दिखते हैं.

गांव के लोगों में गैरबिरादरी में शादी का रिवाज नहीं है. ऐसा केवल अगड़ी जाति में ही नहीं है. पिछड़ी और दलित जातियों में भी अपनी जाति से बाहर शादी करने का चलन नहीं है. यही कारण है कि विवाह योग्य कुछ लोग जब अपनी शादी होते नहीं देखते तो वे दूरदराज से शादी कर के लड़की ले आते हैं. उस की जाति के बारे में किसी को कुछ पता नहीं होता है और धीरेधीरे उस को सामाजिक स्वीकृति भी मिल जाती है.

हरियाणा और पंजाब में ऐसे बहुत से उदाहरण मिलते हैं जहां पर बिहार, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल और नेपाल की लड़कियां आ जाती हैं. कई लोग तो ऐसी लड़कियों को खरीद कर लाते हैं.

नशे के शिकार

गांव में खेतीकिसानी ही मुख्य पेशा होता है. हाल के कुछ सालों में किसानी बेहाल होती जा रही है. गांव के आसपास शहरों का विकास होने लगा है. गांव की जमीन महंगी होती जा रही है. गांव के आसपास सड़क बनने से सरकार ग्रामीणों से जमीन खरीद कर उन्हें अच्छाखासा मुआवजा देने लगी है. घर और रिसोर्ट बनाने वाले भी गांवों की जमीन की खरीदारी कर रहे हैं. शहरों में रहने वाले लोग भी गांव की जमीनें खरीदने लगे हैं. ऐसे में गांव के लोगों के पास जमीन बेचने से  पैसा आने लगा है.

पैसा आने के बाद ये लोग उस का उपयोग अपने ऐशोआराम में करने लगे हैं. ऐसे में नशे की प्रवृत्ति सब से अधिक बढ़ती है. गांव में रहने वाले 90 फीसदी युवा नशे के शिकार हो रहे हैं. ये शराब, भांग और गांजा सहित तंबाकू का सेवन करने लगे हैं. पढ़ाईलिखाई से दूर ऐसे बेरोजगार युवाओं से लोग अपनी लड़की की शादी नहीं करना चाहते हैं.

नशे के आदी इन युवाओं की छवि बेहद खराब है. लड़कियों को लगता है कि ये लोग शादी के बाद मारपीट और गालीगलौज अधिक करते हैं. ऐसे में इन के पास जमीनजायदाद होते हुए भी लड़कियां शादी के लिए तैयार नहीं होतीं. कई बार अगर मातापिता के दबाव में लड़की शादी करने को राजी हो भी जाए तो आखिर में शादी टूट ही जाती है. नशे और स्वभाव के चलते गंवई लड़के लड़कियों को पसंद नहीं आते. गांव के माहौल में ग्रामीण लड़कियां तो किसी तरह से अपने को ढाल भी लें पर शहरी लड़कियां ऐसा नहीं कर पाती हैं.

समाजसेवी राकेश कुमार कहते हैं, ‘‘गांव में भी अब परिवार सीमित होने लगे हैं. ऐसे में लड़कियों के मातापिता अपनी लड़की की शादी नौकरी करने वालों से करना चाहते हैं. इस के अलावा, उन की यह चाहत भी रहती है कि लड़की शहर में रहे.’’

रूढ़िवादी सोच

शहरों के मुकाबले ग्रामीणों की रूढि़वादी सोच भी यहां की शादियों में एक बड़ी परेशानी बन रही है. तमाम तरह के रीतिरिवाज पुराने ढंग से निभाए जा रहे हैं, जिन के बारे में शहरों में रह रही लड़कियां कुछ जानती भी नहीं. ऐसे में उन को वहां सामंजस्य बैठाना सरल नहीं होता. रूढि़वादी सोच के कारण लड़कियों को वहां टीकाटिप्पणी का सामना भी करना पड़ता है, जिस से नई सोच की लड़कियों को परेशानी होने लगती है.

गांव में आज भी परदा प्रथा हावी है. अभी भी वहां घूघंट निकाल कर रहना पड़ता है. किसी काम के लिए बाहर आनेजाने पर मनाही है, जिस की वजह से पढ़ीलिखी लड़कियों को लगता है कि वे गांव में शादी कर के अपने कैरियर को हाशिए पर ले जा रही हैं.

अभी भी बहुत सारे गांवों में घरों में शौचालय नहीं हैं. जिन घरों में हैं भी, वहां वे प्रयोग में नहीं हैं. ऐसे में शहरों या कसबों की लड़कियों के लिए वहां शादी करना मुश्किल हो रहा है. अब गांव के लोग भी अपनी लड़कियों की शादी शहरों में करना चाहते हैं. वे उन लड़कों को अधिक महत्त्व देते हैं जो गांव और शहर दोनों जगह रहते हैं.

सब से बड़ी शर्त सरकारी नौकरी की होने लगी है. सरकारी नौकरी वाले लड़के से अपेक्षा की जाती है कि वह गांव में रहने के साथसाथ शहर या कसबे में भी अपना घर जरूर बना लेगा. ऐसे में लड़की को गांव में ही नहीं रहना होगा. आज जिस तरह से महिलाओं के मजबूर होने की बात हो रही है उस से शादी के मामले में लड़कियों की पसंद का भी खयाल रखा जाने लगा है.

बदलती जीवनशैली

लड़कियों की बदलती जीवनशैली, पहनावा और शिक्षा भी इस के लिए एक महत्त्वपूर्ण कारक बन गया है. इस के अलावा लड़कियों की शादी की उम्र भी बढ़ गई है. पहले जहां 18 से 20 साल में लड़की की शादी हो जाती थी वहीं अब 20 से 25 वर्ष तक की उम्र में शादी हो रही है. लड़की कम से कम अब ग्रेजुएशन कर रही है और किसी न किसी रूप में रोजगार या नौकरी से जुड़ रही है.

ऐसे में वह आसानी से समझौते नहीं करती है. उस की पसंद गांव वाली शादी नहीं होती है. वह शहर में शादी कर के रहना चाहती है. इस वजह से भी गांव में शादी करने के लिए लोग रिश्ते ले कर कम आ रहे हैं.

गांव में पहले ज्यादातर शादियां आपसी रिश्तों में तय होती थीं. अब आपसी रिश्तेदारियों में लोग शादी कर शादी के बाद होने वाली परेशानियों से बचना चाहते हैं.

ऐसे में जानकारी के बाद भी लोग शादी के बीच में नहीं पड़ना चाहते हैं. गांव के रहने वालों के सामने लड़की को तलाश करने का कोई दूसरा माध्यम नहीं है. गांव के लोगों का अभी भी वैवाहिक विज्ञापनों पर भरोसा नहीं है. ऐसे में शादी लायक युवकों के सामने परेशानी बढ़ती जा रही है.

कई बारबार ऐसे गांवों का हाल प्रमुखता से खबरों में आता है जहां पानी या सड़क की परेशानी के चलते शादियां कम होती हैं. ऐसे गांवों की संख्या भी तेजी से बढ़ती जा रही है जहां पर लड़कों की शादियों के लिए रिश्ते कम आ रहे हैं. इस के अपने अलगअलग कारण हैं. परेशानी की बात यह है कि सालदरसाल वह परेशानी बढ़ती जा रही है. इस से गांव में एक अलग किस्म का बदलाव महसूस किया जा रहा है. गंवई युवा पहले से अधिक कुंठित हो कर मानसिक रोगों के शिकार होते जा रहे हैं.

भोजपुरी सिंगर नीतू श्री के इस ‘दहेज गीत’ को मिले 4 लाख से अधिक व्यूज, देखें Video

‘‘विजय लक्ष्मी भोजपुरी ट्यून’’ से रिलीज गीत ‘‘दहेज की आग’’ को लेकर उत्साहित आनंद मोहन कहते हैं-‘‘यह गाना एक अच्छे मकसद के लिए बना है, इसलिए इसे लोग पसंद कर रहे हैं. हमारे यहां आज भी हमारी बेटियां, दहेज लोभियों की शिकार हो रही हैं. इस गाने में ऐसी ही एक दहेज पीड़िता का अपने पिता के साथ संजीदा संवाद है, जो आपके दिल को भी छू लेगा.’’

जबकि गायिका नीतू श्री ने कहा- ‘‘यह गाना मेरे लिए बेहद खास था. दहेज की आग गाने को आप खुद सुने और अपने आसपास के लोगों को भी सुनवाए और उन्हें दहेज प्रथा से दूर होने के लिए प्रेरित करें. यही इस गाने की सफलता होगी. क्योंकि दहेज की आग में बेटियां जलती हैं, जिन्हें हम लक्ष्मी भी कहते हैं. अगर कोई अपनी घर की लक्ष्मी को आग लगा सकता है, तो जिंदगी में उसके घर  कभी खुशियां नहीं आ सकती.इस बात को समझने के लिए हमारा यह गाना बेहद खास है.’’

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गीत ‘‘दहेज की आग’’ के गीतकार अमन अलबेला,संगीतकार लार्ड जी और इसके वीडियो के कलाकार हैं-आनंद मोहन पांडेय, नेहा सिद्दीकी, सारिका, निशा तिवारी और राजनंदनी हैं.वीडियो निर्देशक व कैमरामैन रंजीत कुमार सिंह हैं.

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दहेज एक सामाजिक अभिशाप है. दहेज उन्मूलन को लेकर सरकार कई वर्षों से प्रयासरत है, कई कड़े कानून बनाए जा चुके हैं. हम अत्याधुनिक होने का दावा भी करते हैं. इसके बावजूद 21वीं सदी में भी दहेज प्रथा के मामले सामने आते रहते हैं और दहेज की कमी के आरोपों के साथ महिलाएं हिंसा की शिकार भी होती रहती हैं.समाज की इसी कुरीति को उजागर कर समाज में जागरूकता लाने के मकसद से ‘विजय लक्ष्मी म्यूजिक’ एक गाना ‘‘दहेज की आग’’रिलीज किया, जिसे काफी पसंद किया जा रहा है.

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‘‘दहेज की आग’’एक पारंपरिक शादी गीत ही है, जिसे अभिनेता आनंद मोहन ने नीतू श्री के साथ मिलकर गाया है.इस गाने को सुनकर लोग इसकी तरफ खिंचे चले आ रहे हैं. अब तक इस गाने को 3 दिन में 429,200 व्यूज मिल चुके हैं.

दहेज में जाने वाले दैय्यत बाबा

लेखक- रामकिशोर पंवार

इन सब के अलावा वर पक्ष को दहेज के रूप में बिना मांगे उस गांव का दैय्यत बाबा भी मिल जाता है, जो उस लड़की के साथ उस की ससुराल में तब तक रहता है, जब तक उस के पहले बेटे या बेटी की चोटी उस के स्थान पर न उतारी जाए.

कहनेसुनने में आप को भले ही यह बात अजीबोगरीब लगे, पर मध्य प्रदेश के बैतूल जिले की मुलताई तहसील के सैकड़ों गांवों में आज भी दर्जनों दैय्यत बाबा अपने क्षेत्र की लड़कियों के

साथ दहेज में बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना की तरह जाते हैं. ऐसा आज से नहीं, बल्कि सैकड़ों सालों से हो रहा है.

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अंधविश्वास से भरे इस रिवाज का पालन करने वालों में इस मुलताई तहसील के गरीब मजदूर तबके से ले कर धन्नासेठ भी शामिल हैं. कुछ लोग तो विदेशों से अपने गांव के दैय्यत बाबा के पास अपने बच्चे की चोटी उतारने आ चुके हैं.

पैर पसार चुकी प्रथा

हमारे समाज में प्राचीन काल से ही कई रूढि़यां जारी हैं. पंवारों की रियासत धारा नगरी पर मुगलों के लगातार हमलों से लड़ती, थकीहारी व धर्म परिवर्तन के डर से घबराई पंवार राजपूतों की फौज ने जानमाल की सुरक्षा के लिए धारा नगरी को छोड़ना उचित समझा था.

धारा नगरी छोड़ कर गोंडवाना क्षेत्र में आ कर बसे पंवार राजपूतों के वंशजों ने इस क्षेत्र में खुद की पहचान को छुपा कर अपनी पहचान भोयर जाति के रूप में कराई और वे यहीं पर बस गए.

आदिवासियों के बीच रह कर उन का रहनसहन सीख कर वे भी आदिवासी क्षेत्र में मौजूद बाबा भगतों के चक्कर में आ कर उन्हीं की तरह दैय्यत बाबाओं के पास जा कर मन्नतें मांगने लगे.

जब उन की तथाकथित मन्नतें पूरी होने लगीं तो वे दैय्यत बाबाओं को खुश करने के लिए उन के स्थान पर मुरगे या बकरे की बलि देने लगे.

ये हैं दैय्यत बाबा

मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र की सीमा पर बसा बैतूल जिला अपने प्राचीन समय से ही गोंड राजाओं के अधीन रहा था. आदिवासी समाज के बारे में कहा जाता है कि ये लोग शिव के उपासक होते हैं. खुद को दैत्य गुरु शुक्राचार्य के अनुयायी के रूप मानने वाले इन लोगों ने अपने परिवार के कर्मकांडों में स्वयंभू ग्राम देवता के रूप में पहचान बना चुके दैय्यत (पत्थर से बनी घोड़े पर सवार सफेद कुरताधोती पहने बाबा की आकृति) बाबाओं के मंदिर बना कर उन्हें स्थापित कर दिया है. गांव के बाहर स्थापित ऐसे दैय्यत बाबाओं के स्थान पर चैत्र महीने में मुरगेबकरे की बलि दी जाती है.

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बैतूल जिले की मूल आदिवासी आबादी के बाद दूसरे नंबर पर गांवों में रहने वाली बहुसंख्यक पंवार जाति के लोगों ने आदिवासी के साथसाथ इन देवीदेवताओं को स्वीकार कर उन की तरह बलि प्रथा को भी अपना लिया है.

पंवार जाति की बेटियों की शादियों में दहेज के रूप में गांव के दैय्यत बाबा भी जाने लगे और इस बहाने गांव की बेटियां अपनी पहली औलाद होने के बाद दैय्यत बाबा को खुश करने के लिए मुरगे या बकरे की बलि देने लगीं.

बाबा जाते हैं दहेज में

बैतूल जिले की मुलताई तहसील में पंवार समाज की तादाद ज्यादा है. पंवार (भोयर) समाज में वर्तमान समय में चुट्टी (चोटी) नामक परंपरा जारी है, जो एक मन्नत का रूप होती है. इस में अपने पहले बच्चे की चोटी उतारी जाती है जो हिंदू महीने माघ से वैशाख महीने तक चलती रहती है. इन महीनों में चोटी उतरवाने का कार्यक्रम ज्यादातर बुधवार और रविवार के दिन होता है.

एक दिन में अलगअलग अपनेअपने दैय्यत बाबा, जिन के अलगअलग नाम होते हैं, जैसे खंडरा देव बाबा, एलीजपठार वाले दैय्यत बाबा, देव बाबा के पास सैकड़ों की तादाद में चोटी उतारने का कार्यक्रम होता है.

एक जानकारी के मुताबिक, एक ही दैय्यत बाबा के पास दिनभर में 10-10 चोटी उतारने के कार्यक्रम होते हैं. हर गांव में अलगअलग नामों से देव यानी दैय्यत बाबा के सामने उस गांव की विवाहिता बेटी अपने पहले बच्चे के नाम से मन्नतें मानती हैं.

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मुरगा या बकरा पार्टी

5 साल से 11 साल तक के बच्चों (चाहे वह लड़का हो या लड़की) के नाम से दैय्यत बाबा के सामने मुरगे या बकरे की बलि दी जाती है. बच्चों को नए कपड़े, मिठाई वगैरह दी जाती है, जिसे प्रसाद के रूप में वहां मौजूद सभी लोगों को बांटा जाता है.

ग्राम चौथिया, चिल्हाटी, करपा, बरई, एनस, तुमड़ीडोल, मुलताई, पारबिरोली सहित सैकड़ों गांवों में कोई न कोई चोटी उतारने का कार्यक्रम आएदिन होता रहता है.

गांव चिल्हाटी के दुर्गेश बुआडे कहते हैं कि हिंदू धर्म में चोटी उतारने का रिवाज है, भले ही इन के नाम बदल दिए हों. चोटी बच्चों की सलामती के लिए एक मन्नत का नाम है जिस के पूरा होने पर मन्नत मांगने वाला आदमी अपनी पहली संतान से इसे शुरू करता है.

अकसर विवाहिता बेटी के बेटे या बेटी की ही चोटी उतारी जाती है. अगर पतिपत्नी दोनों एक ही गांव के हों तो फिर उसी गांव के दैय्यत बाबा के पास चोटी उतारने का कार्यक्रम होता है.

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अगर किसी लड़की की ससुराल किसी दूसरे गांव की होती है तो उसे अपनी ससुराल जा कर ही उस दैय्यत बाबा के पास अपने पहले बेटे या बेटी की चोटी 5 साल से 11 साल की उम्र में उतरवाई जाती है.

चोटी कार्यक्रम में दैय्यत बाबा के दरबार में उस गांव के भगत बाबा द्वारा पूजा कर के बकरे की बलि दी जाती है. चोटी के संबंध में मान्यता है कि जब तक पहले बच्चे की चोटी नहीं उतारी जाती, तब तक दैय्यत बाबा उसे सताता रहता है.

यह परंपरा समाज में पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है. हालांकि इस तरह के कार्यक्रम में काफी रुपयापैसा खर्च होता है, लेकिन लोगों को समझाना भी आसान नहीं है. कुछ लोग तो अपनी ससुराल के दैय्यत बाबा के पास चोटी उतारने के बाद अपने गांव के दैय्यत बाबा के पास भी बकरे की बलि देते हैं.

केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री रह चुकी मेनका गांधी भले ही टीवी पर ‘जीने की राह’ प्रोग्राम दिखा कर जीव हत्या से लोगों को सचेत करें, लेकिन बैतूल जिले में आज भी लोगों के बीच फैले अंधविश्वास के चलते हजारों मुरगेबकरे काटे जा रहे हैं.

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दहेज का दावानल

एक समय ऐसा भी था जब मोटरसाइकिल का किसी घर में होना रुतबे की बात मानी जाती थी और अगर किसी को वह दहेज में मिल जाती थी तो पूरे इलाके में मानो मुनादी सी पिट जाती थी.

आज दहेज भी बरकरार है और इस के नाम पर गाड़ी मांगने का रिवाज भी. पर कभीकभार इस मांगने के खेल में पासा उलटा भी पड़ जाता है.

ऐसा ही कुछ उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में हुआ. यहां दहेज को ले कर हुए झगड़े में दूल्हे और बरातियों को बंधक बनाए जाने का मामला सामने आया.

इतना ही नहीं, वधू पक्ष ने महल्ले वालों के साथ मिल कर दूल्हे समेत 4 लोगों के सिर मुंड़वा दिए. मामले की सूचना देर रात पुलिस को हुई तो बंधक बनाए गए बरातियों को छुड़ाया जा सका.

यह था मामला

जानकारी के मुताबिक, खुर्रमनगर इलाके में लड़की के पिता सब्जी बेच कर गुजारा करते हैं. उन का शहीद जियाउल हक पार्क के पास कच्चा मकान है. अपनी बेटी का रिश्ता उन्होंने बाराबंकी के धौकलपुरवा के रहने वाले अब्दुल कलाम से तय किया था. कुछ समय पहले ही मंगनी की रस्म हुई थी. सामाजिक रीतिरिवाजों की लाज बचाने के लिए उन्होंने निकाह के लिए दहेज का सामान जुटाया था.

लड़की के पिता का आरोप है कि निकाह से हफ्ताभर पहले ही लड़के ने दहेज की मांगें बढ़ानी शुरू कर दीं. जैसेतैसे उन्होंने उस की सभी मांगें पूरी करने की कोशिश भी की.

निकाह के दिन दूल्हे ने दहेज का सामान देखा तो ‘पल्सर’ मोटरसाइकिल देख कर कहने लगा कि उसे तो ‘अपाचे’ मोटरसाइकिल चाहिए. इतना ही नहीं, उस ने 4 तोला सोने की चेन की भी मांग रख दी.

दुल्हन के पिता ने बताया कि जब उन्होंने मांग पूरी करने में हाथ खड़े कर दिए तो दूल्हा बरात वापस ले जाने की धमकी देने लगा.

आरोप है कि लड़की वालों ने 25,000 रुपए की मेहर तय की थी. इस पर भी लड़के वालों ने एतराज जताया. उन्होंने निकाहनामा से इस शर्त को हटाने की मांग की.

लड़की के पिता का कहना है कि वे तकरीबन 3 से 4 लाख रुपए दहेज दे रहे थे, लिहाजा 25,000 रुपए मेहर की रकम इस के सामने कुछ नहीं थी.

उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि विवाद के बीच दूल्हा और बराती शराब के नशे में हंगामा करने लगे.  इस के बाद दुलहन पक्ष के लोग भी नाराज होने लगे और बिना निकाह किए जाने पर नतीजा भुगतने की चेतावनी दी गई.

हालात बिगड़ते देख बरातियों ने मौके से भाग निकलने की कोशिश की. इस दौरान दूल्हा और उस का भाई भी भागने लगे तो लड़की के घर वालों ने उन्हें पकड़ लिया. इस के बाद भीड़ ने दूल्हे समेत 4 लोगों के सिर मुंड़वा दिए.

इस पूरे हंगामे पर दुलहन की दादी का कहना था, ‘‘उन्होंने शादी से 5 दिन पहले ये मांगें रखी थीं. जब हम ने कहा कि हम मांग पूरी नहीं कर सकते, तो दूल्हे ने निकाह करने से इनकार कर दिया. मुझे नहीं पता कि उस का सिर किस ने मुंड़वा दिया.’’

दहेज के इस मामले में तो वधू पक्ष ने समाज की परवाह न करते हुए वर पक्ष को सबक सिखा दिया, पर हर बार ऐसा नहीं हो पाता है. एक हैरतअंगेज मामले में ससुराल वालों ने अपनी 2 बहुओं को डेढ़ लाख रुपए में बेच डाला था.

यह केस विरार पुलिस स्टेशन इलाके का था. उन बहुओं को तब पता चला, जब खरीदने वाला उन्हें राजस्थान से वसई ले आया था.

पुलिस ने बताया कि इस मामले में पीडि़ता औरतों के पति, सासससुर समेत 12 लोग शामिल थे. मुंबई के विरार (पश्चिम) इलाके की एमबी स्टेट निवासी 24 साला पीडि़ता ने बताया कि साल 2015 में उस की शादी विरार के रहने वाले संजय मोहनलाल रावल से हुई थी. उस की छोटी बहन की शादी संजय के छोटे भाई वरुण रावल के साथ हुई थी.

वे दोनों बहनें एक ही घर में रहती थीं. शादी के बाद से ससुराल वाले उन दोनों बहनों को दहेज के लिए सताने लगे थे. ससुराल वालों ने उन से अपने मायके से 5 लाख रुपए लाने की डिमांड रखी थी. ऐसा नहीं करने पर उन्हें सताया जाने लगा था.

30 अगस्त को ससुराल वाले किसी बहाने से दोनों बहुओं को राजस्थान ले गए. वहां भी दोनों को मारापीटा गया. जलाने की भी धमकी दी गई. 10 सितंबर को ससुराल वालों ने उन दोनों को ट्रेन में बैठा दिया और अपने घर विरार जाने को कहा. उन के साथ एक अनजान शख्स भी गया था.

दूसरे दिन जब ट्रेन वसई रेलवे स्टेशन पहुंची तो उस आदमी ने उन से मीरा रोड चलने को कहा. इस बात पर उन का झगड़ा हो गया. यह देख कर कुछ लोग बीचबचाव में आ गए.

वहां उस आदमी ने खुलासा किया कि इन औरतों की ससुराल वालों ने इन्हें उसे डेढ़ लाख रुपए में बेचा है और वह इतना बोल कर वहां से चला गया.

इन दोनों मामलों में किसी की जान नहीं गई जबकि दहेज के दावानल में न जाने कितनी विवाहिताएं अपनी जान तक गंवा देती हैं.

नैशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि अलगअलग राज्यों से साल 2012 में दहेज हत्या के 8,233 मामले सामने आए थे. आंकड़ों का औसत बताता है कि हर घंटे में एक औरत दहेज की बलि चढ़ रही है.

केंद्र सरकार की ओर से जुलाई, 2015 में जारी आंकड़ों के मुताबिक, बीते 3 सालों में देश में दहेज संबंधी कारणों से मौत का आंकड़ा 24,771 था. जिन में से 7,048 मामले सिर्फ उत्तर प्रदेश से थे. इस के बाद बिहार और मध्य प्रदेश में क्रमश: 3,830 और 2,252 मौतों का आंकड़ा सामने आया.

दहेज निषेध अधिनियम

दहेज निषेध अधिनियम, 1961 के मुताबिक, दहेज लेने, देने या इस के लेनदेन में सहयोग करने पर 5 साल की कैद और 15,000 रुपए तक के जुर्माने की सजा हो सकती है.

दहेज के लिए सताने पर भारतीय दंड संहिता की धारा 498 ए, जो पति और उस के रिश्तेदारों द्वारा जायदाद या कीमती सामान के लिए अवैधानिक मांग के मामले से जुड़ी है, के तहत 3 साल की कैद और जुर्माना हो सकता है.

धारा 406 के तहत लड़की के पति और ससुराल वालों के लिए 3 साल की कैद या जुर्माना या फिर दोनों हो सकती हैं, अगर वे लड़की के स्त्रीधन को उसे सौंपने से मना करते हैं.

यदि किसी लड़की की शादी के 7 साल के भीतर असामान्य हालात में मौत होती है और यह साबित कर दिया जाता है कि मौत से पहले उसे दहेज के लिए सताया गया है, तो भारतीय दंड संहिता की धारा 304 बी के तहत लड़की के पति और रिश्तेदारों को कम से कम 7 साल से ले कर ताउम्र कैद की सजा हो सकती है.

आज की जिंदगी में बहुत से लोग इतने लालची होते जा रहे हैं कि वे अपने बेटों को दहेज के बाजार में बेचने से भी नहीं हिचकिचाते हैं. बेटे की पढ़ाई पर लगाई गई रकम को वे लड़की वालों से वसूलने की कोशिश करते हैं और जब उन के मुंह खून लग जाता है तो वे लड़की को बाद में भी सताने से बाज नहीं आते हैं. कुछ मामलों में शादी के दौरान ही दूल्हे पक्ष को सबक सिखा दिया जाता है तो कहीं बाद में दुलहनें भी बिकती नजर आती हैं.

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