Best Hindi Kahani: अहंकारी – कामना की वासना का खेल

Best Hindi Kahani: अभिजीत 2 दिनों से घर नहीं लौटा था. उस की मां सरला देवी कंपनी में पूछ आई थीं. अभिजीत 2 दिन पहले कंपनी में आया था, यह चपरासी ने सरला देवी को बताया था. अभिजीत 25 साल का अच्छी कदकाठी का नौजवान था. वह सेठ गोपालदास की कंपनी में पिछले 2 साल से बतौर क्लर्क काम कर रहा था. अभिजीत के परिवार में उस की मां सरला देवी के अलावा 2 बहनें थीं. 2 साल पहले अभिजीत के पिता की मौत हो चुकी थी. वे भी सेठ गोपालदास की कंपनी में काम करते थे. उन्हीं की जगह अभिजीत इस कंपनी में काम कर रहा था.

अभिजीत के इस तरह गायब होने से सरला देवी और उन की दोनों बेटियां परेशान थीं. सरला देवी को उम्मीद थी कि सेठ गोपालदास ने उसे कंपनी के किसी काम से बाहर भेजा होगा, पर अब उन के द्वारा इनकार किए जाने पर सरला देवी की परेशानी और बढ़ गई थी.

सरला देवी ने अभिजीत को हर जगह तलाश किया, पर वह कहीं नहीं मिला. आखिर वह गया तो कहां गया, यह बात उस की मां को बेहद परेशान करने लगी. फिर उन्होंने कंपनी के सिक्योरिटी गार्ड से बात की. पहले तो उस ने इधरउधर की बात की, फिर बता दिया कि उस दिन कंपनी की छुट्टी का समय हो गया था. उस में काम करने वाले लोग जा चुके थे.

अभिजीत अपने थोड़े बचे काम को तेजी से निबटा रहा था, ताकि समय से घर लौट सके. तभी सेठ गोपालदास की छोटी बेटी कामना कंपनी में आई. वह अभिजीत की टेबल के करीब आई और अपने हाथ टेबल पर टिका कर झुक गई.

उस समय वह जींस और शर्ट पहने हुई थी, जो उस के भरेभरे जिस्म पर यों कसी हुई थीं कि उस के बदन की ऊंचाइयां और गहराइयां साफ दिख रही थीं.

अभिजीत अपने काम में मशगूल था. कामना ने उस का ध्यान खींचने के लिए अपना पैर धीरे से पटका.

आवाज सुन कर अभिजीत ने नजरें उठा कर देखा तो बस देखता ही रह गया. कामना उस की टेबल पर हाथ टिकाए झुकी हुई थी, जिस से उस के भारी और दूधिया उभारों का ऊपरी हिस्सा शर्ट से झांक रहा था.

वह गार्ड नौजवान था, पर समझदार भी था. उस ने सरला देवी को बताया कि उसे कामना का बरताव अजीब लगा था. वह कोने में खड़ा हो कर उन की बातें सुनने लगा. दफ्तर तो पूरा खाली ही था.  उन दोनों की बातचीत इस तरह थी:

‘कहां खो गए?’ कामना धीरे से बोली थी.

‘कहीं नहीं,’ अभिजीत ने बौखला कर अपनी नजरें उस के उभारों से हटा ली थीं. उस की बौखलाहट देख कर कामना के होंठों पर एक मादक मुसकान खिल उठी थी. वह अभिजीत के सजीले रूप को देखते हुए बोली थी, ‘क्यों, आज घर जाने का इरादा नहीं है?’

‘है तो…’ अभिजीत अपनेआप को संभालते हुए बोला था, ‘थोड़ा सा काम बाकी रह गया था, सोचा, पूरा कर लूं तो चलूं.’

‘काम का क्या है, वह तो होता ही रहेगा…’ कामना बोली थी, ‘पर इनसान को कभीकभी घूमनेफिरने का समय भी निकालना चाहिए.’

‘मैं समझा नहीं.’

‘मैं समझाती हूं…’ कामना अभिजीत की आंखों में झांकते हुए बोली थी, ‘अभिजीत, तुम्हें घर लौटने की जल्दी तो नहीं है न?’

‘कोई खास जल्दी नहीं…’ अभिजीत बोला था.

‘मैं आज मूड में हूं और अगर तुम्हें एतराज न हो, तो तुम मेरे साथ पापा के कमरे में चलो.’

‘पर मैं आप का मुलाजिम हूं और आप मेरे मालिक की बेटी.’

‘मैं इन बातों को नहीं मानती…’ कामना बोली थी, ‘मैं तो बस इतना जानती हूं कि मैं इनसान हूं और तुम भी. तुम मुझे अच्छे लगते हो. अब मैं तुम्हें अच्छी लगती हूं या नहीं, तुम जानो.’

‘आप भी मुझे अच्छी लगती हैं…’ अभिजीत पलभर सोचने के बाद बोला था, ‘ठीक है.’

कामना अभिजीत को ले कर एक कमरे में पहुंचे. दफ्तर में अंधेरा था, पर दरवाजे में एक छेद भी था. गार्ड उसी से देखने लगा कि अंदर क्या हो रहा है.

उस गार्ड ने सरला देवी को बताया कि अभिजीत कामना की इस हरकत से परेशान लग रहा था.

‘अरे, तुम अभी तक खड़े ही हो?’ कामना बोली थी, ‘आराम से सोफे पर बैठो.’

अभिजीत आगे बढ़ कर कमरे में रखे गुदगुदे सोफे पर बैठ गया था. कामना आ कर उस के करीब बैठ गई थी और अभिजीत की आंखों में झांकते हुए बोली थी, ‘अभिजीत, तुम ने किसी से प्यार किया है?’

गार्ड सब सुन सकता था, क्योंकि पूरे दफ्तर में सन्नाटा था.

‘नहीं…’ अभिजीत बोला था, ‘कभी यह काम करने का मौका ही नहीं मिला.’

‘अगर मिला, तो क्या करोगे?’

अभिजीत चुप रहा था.

‘तुम ने जवाब नहीं दिया?’

‘हां, करूंगा’ वह बोला था.

‘आज मौका है और समय भी.’

‘पर लड़की?’

‘तुम्हारा मेरे बारे में क्या खयाल है?’ कहते हुए कामना ने अपनी शर्ट उतार दी. उस के ऐसा करते ही उस के उभार अभिजीत के सामने आ गए थे. उन को देखते ही अभिजीत के सब्र का बांध टूट गया था. जब कामना उस से लिपट गई, तो पलभर के लिए वह बौखलाया, फिर अपने हाथ कामना की पीठ पर कस दिए.

इस के बाद तो अभिजीत सबकुछ भूल कर कामना की खूबसूरती की गहराइयों में उतरता चला गया.

सरला देवी ने कामना के ड्राइवर से भी पूछताछ की. उसे भी बहुतकुछ मालूम था. उस ने बताया कि पिछली सीट पर अकसर कामना मनमाने ढंग से उस का इस्तेमाल करने लगी थी.

कामना का दिल जिस पर आ जाता, वह उसे अपने प्रेमजाल में फांसती, उस से अपना दिल बहलाती और जब दिल भर जाता, तो उसे अपनी जिंदगी से निकाल फेंकती.

ड्राइवर ने आगे बताया कि एक दिन उन दोनों में झगड़ा हुआ था. कामना का दिल उस से भर गया, तो वह उस से कन्नी काटने लगी. उस के इस रवैए से अभिजीत तिलमिला उठा. वह कामना से सच्चा प्यार करता था.

जब कामना को पता चला तो वह बोली थी, ‘अपनी औकात देखी है तुम ने? तुम हमारी कंपनी में एक छोटे से मुलाजिम हो. मैं ब्राह्मण और तुम यादव. दूसरी जाति की लड़की को तुम प्यार कर पा रहे हो, क्या यह कम है. शादी की तो सोचना भी नहीं.’

‘पर तुम ने इसी मुलाजिम से दिल लगाया था?’

‘दिल नहीं लगाया था, बल्कि दिल बहलाया था. अब मेरा दिल तुम से भर गया है, इसलिए हमारे रास्ते अलग हैं.’

‘नहीं…’ अभिजीत तेज आवाज में बोला था, ‘तुम मुझे यों अपनी जिंदगी से नहीं निकाल सकती.’

‘और अगर निकाला तो?’

‘मैं सारी दुनिया को तुम्हारी हकीकत बता दूंगा.’

अभिजीत की बात सुन कर कामना पलभर को हड़बड़ाई, पर अगले ही पल उस की आंखों से गुस्सा टपकने लगा. वह अभिजीत को घूरते हुए बोली, ‘तुम ऐसा कर नहीं पाओगे. मैं तुम्हें ऐसा हरगिज करने नहीं दूंगी.’

यह बात सारा दफ्तर जानता था कि एक दिन अभिजीत से सेठ गोपालदास ने कठोर आवाज में सब के सामने बोला था, ‘तुम ने हमारी बेटी को अपने प्रेमजाल में फंसाया और उस की इज्जत पर हाथ डाला. यह बात खुद कामना ने मुझे बताई है.

‘कोई मेरी बेटी के साथ ऐसी हरकत करे, मैं यह बरदाश्त नहीं कर सकता. तुझे इस की सजा मिलेगी,’ इतना कहने के बाद सेठजी ने अपने आदमियों को इशारा किया था.

सेठजी के आदमी अभिजीत को खींचते हुए दफ्तर से बाहर ले गए. इस के बाद अभिजीत को किसी ने नहीं देखा था.

अभिजीत को गायब हुए जब 10 दिन बीत गए, तो सरला देवी समझ गईं कि अभिजीत मार दिया गया है.

सरला देवी ने उस की गुमशुदगी की रिपोर्ट पुलिस में लिखवा दी.

सरला देवी अपने बेटे को ले कर यों परेशानी के दौर से गुजर रही थीं कि उन की मुलाकात अभिजीत के एक दोस्त से हुई, जो उसी के साथ काम करता था. उस ने सरला देवी को बताया कि अभिजीत को मारने में सेठ गोपालदास का हाथ है.

सरला देवी ने अभिजीत के दोस्त को बताया कि कामना को सबक सिखाना है. कामना अपनी ऐयाशियों में डूबी हुई थी. अभिजीत की मौत से बेपरवाह कामना की नजरें एक दूसरे लड़के को ढूंढ़ रही थीं. उस ने रमेश को फांस लिया.

एक शाम जब कामना अपनी कार में लौंग ड्राइव पर निकली थी, तो रमेश उसे सरला देवी के घर ले गया.

सरला देवी को देख कर कामना की घिग्घी बंध गई. वह सबकुछ उगल गई. रमेश ने उसे एक कुरसी से बांध दिया और कई घंटों तक तड़पने के लिए छोड़ दिया. इस के बाद कामना का पूरा बयान रेकौर्ड कर लिया.

रात में जब सरला देवी ने उसे छोड़ा तो कहा, ‘‘जैसे मैं जिंदगीभर अभिजीत को याद करूंगी, वैसे ही तुम भी करना. यह टेप, यह बयान, हर बार तब काम आएंगे, जब तुम शादी करने की कोशिश करोगी.’’

कामना के पास कोई चारा नहीं बचा था. वह पैदल ही घर की ओर चल पड़ी, हारी और लुटी हुई. Best Hindi Kahani

Story In Hindi: हवस का नतीजा – देवर और भाभी की रासलीला

Story In Hindi: मुग्धा का बदन बुखार से तप रहा था. ऊपर से रसोई की जिम्मेदारी. किसी तरह सब्जी चलाए जा रही थी तभी उस का देवर राज वहां पानी पीने आया. उस ने मुग्धा के हावभाव देखे तो उस के माथे पर हाथ रखा और बोला, ‘‘भाभी, आप को तो तेज बुखार है.’’

‘‘हां…’’ मुग्धा ने कमजोर आवाज में कहा, ‘‘सुबह कुछ नहीं था. दोपहर से अचानक…’’

‘‘भैया को बताया?’’

‘‘नहीं, वे तो परसों आने ही वाले हैं वैसे भी… बेकार परेशान होंगे. आज तो रात हो ही गई… बस कल की बात है.’’

‘‘अरे, लेकिन…’’ राज की फिक्र कम नहीं हुई थी. मगर मुग्धा ने उसे दिलासा देते हुए कहा, ‘‘कोई बात नहीं. मामूली बुखार ही तो है. तुम जा कर पढ़ाई करो, खाना बनते ही बुला लूंगी.’’

‘‘खाना बनते ही बुला लूंगी…’’ मुग्धा की नकल उतार कर चिढ़ाते हुए राज ने उस के हाथ से बेलन छीना और बोला, ‘‘लाइए, मैं बना देता हूं. आप जा कर आराम कीजिए.’’

‘‘न… न… लेट गई तो मैं और बीमार हो जाऊंगी,’’ मुग्धा बैठने वालियों में से नहीं थी. वह बोली, ‘‘हम दोनों मिल कर बना लेते हैं,’’ और वे दोनों मिल कर खाना बनाने लगे.

मुग्धा का पति विनय कंपनी के किसी काम से 3 दिनों के लिए बाहर गया हुआ था. वह कर्मचारी तो कोई बहुत बड़ा नहीं था, लेकिन बौस का भरोसेमंद था. सो, किसी भी काम के लिए वे उसे ही भेजते थे.

मुग्धा का 21 साल का देवर राज प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहा था. विनय जैसा प्यार करने वाला पति पा कर मुग्धा भी खुश रहती थी. कुछ पति की तनख्वाह और कुछ वह खुद जो निजी स्कूल में पढ़ाती, दोनों से मिला कर घर का खर्च अच्छे से निकल आता. सासससुर गांव में रहते थे. देवर राज अपनी पढ़ाई के चलते उन के साथ ही रहता था.

जिंदगी में कमी थी तो बस यही कि खुशहाल शादीशुदा जिंदगी के 10 सालों के बाद भी उन के कोई औलाद नहीं थी. अब मुग्धा 35 साल की हो चुकी थी. अपनी हमउम्र बाकी टीचरों को उन के बच्चों के साथ देखती तो न चाहते हुए भी उसे रोना आ ही जाता. वह अपनी डायरी के पन्ने इसी पीड़ा से रंगती जाती.

रोटियां बन चुकी थीं. राज ने उसे कुरसी पर बैठने को बोला और सामान समेटने लगा. मुग्धा ने सिर पीछे की ओर टिकाया और आंखें बंद कर लीं. वातावरण एकदम शांत था. तभी वहां वही तूफान फिर से गरजने लगा जिस का शोर मुग्धा आज तक नहीं भांप पाई थी.

राज की गरदन धीरे से मुग्धा की ओर घूम चुकी थी. वह कनखियों से मुग्धा की फिटिंग वाली समीज में कैद उस के उभारों को देखने लगा था. मुग्धा की सांसों के साथ जैसेजैसे वे ऊपरनीचे होते, वैसेवैसे राज के अंदर का शैतान जागता जाता.

‘‘हो गया सब काम…?’’ बरतनों की आवाज बंद जान कर मुग्धा ने अचानक पूछते हुए अपनी आंखें खोल दीं.

राज हकबका गया और बोला, ‘‘हां भाभी, बस हो ही गया…’’ कह कर राज ने जल्दीजल्दी बाकी काम निबटाया और खाने की चीजों को उठा कर मेज पर ले गया.

मुग्धा ने मुश्किल से 2 रोटियां खाईं, वह भी राज की जिद पर. वह जबरदस्ती सब्जी उस की प्लेट में डाल दे रहा था. खाने के बाद मुग्धा सोने जाने लगी तो राज बोला, ‘‘भाभी, 15 मिनट के लिए आगे वाले कमरे में बैठिए न… मैं आप के लिए दवा ले आता हूं.’’

‘‘अरे नहीं, रातभर में उतर जाएगा…’’ मुग्धा ने मना किया लेकिन राज कहां मानने वाला था.

‘‘मैं पास वाले कैमिस्ट से ही दवा ले कर आ रहा हूं भाभी… जहां से आप मंगाती हैं हमेशा… दरवाजा बंद कर लीजिए… मैं अभी आया…’’ कहता हुआ वह निकल गया.

मुग्धा ने दरवाजा बंद किया और सोफे पर पैर ऊपर कर के बैठ गई.

राज ने तय कर लिया था कि आज तो वह अपने मन की कर के ही रहेगा. इस बीच कैमिस्ट की दुकान आ गई.

‘‘क्या बात है राज बाबू?’’ कैमिस्ट ने राज को खोया सा देखा तो पूछा. राज का ध्यान वापस दुकान पर आया.

‘‘दवा चाहिए थी,’’ उस ने जवाब दिया.

‘‘अबे तो यहां क्या मिठाई मिलती है?’’ कैमिस्ट उसे छेड़ते हुए बोला. वह उस का पुराना दोस्त था.

राज मुसकरा उठा और कहा, ‘‘अरे, जल्दी दे न…’’

‘‘जल्दी दे न…’’ बड़बड़ाते हुए कैमिस्ट ने हैरत से उस की ओर देखा, ‘‘कौन सी दवा चाहिए, यह तो बता?’’

राज को याद आया कि उस ने तो सचमुच कोई दवा मांगी ही नहीं है. उस ने ऐसे ही बोल दिया, ‘‘भाभी की तबीयत ठीक नहीं है. उन्हें बुखार है. जरा नींद की गोली देना.’’

‘नींद की गोली बुखार के लिए…’ सोचते हुए कैमिस्ट ने उसे देखा. वह खुद भी मुग्धा के हुस्न का दीवाना था. हमेशा उस के बारे में चटकारे लेले कर बातें किया करता था. उस ने राज के मन की बात ताड़ ली. ऐसी बातों का उसे बहुत अनुभव जो था. उस ने नींद की गोली के साथ बुखार की भी दवा दे दी.

राज ने लिफाफा जेब में रखा और तेजी से वापस चलने को हुआ कि तभी कैमिस्ट चिल्लाया, ‘‘अरे भाई, खुराक तो सुन ले.’’

राज को अपनी गलती का अहसास हुआ. वह काउंटर पर आया. कैमिस्ट ने उसे डोज बताई और आंख मारते हुए बोला, ‘‘यह नींद वाली एक से ज्यादा मत देना… टाइट चीज है…’’

‘‘अबे, क्या बकवास कर रहा है,’’ राज के मन का डर उस की जबान से बोल पड़ा. उस की तो चोर की दाढ़ी में तिनका वाली हालत हो गई. वह जाने लगा.

कैमिस्ट पीछे से कह रहा था, ‘‘अगली बार हम को भी याद रखना दोस्त…’’

राज उस को अनसुना करता हुआ आगे बढ़ गया. घर लौटने पर डोर बैल बजाते ही मुग्धा ने दरवाजा खोल दिया और बोली, ‘‘यहीं बैठी थी लगातार…’’

‘‘जी भाभी, आइए अंदर चलिए…’’ राज ने अपने माथे से पसीना पोंछते हुए कहा.

मुग्धा अपने कमरे में आ कर लेट गई. राज ने उसे पहले बुखार की दवा दी. मुग्धा दवा ले कर सोने के लिए लेटने लगी तो राज ने उसे रोका, ‘‘भाभी, अभी एक दवा बाकी है…’’

‘‘कितनी सारी ले आए भैया?’’ मुग्धा ने थकी आवाज में बोला और बाम ले कर माथे पर लगाने लगी.

‘‘भाभी दीजिए, मैं लगा देता हूं,’’ कह कर राज ने उस से बाम की डब्बी ले ली और उस के माथे पर मलने लगा. थोड़ी देर बाद उस ने मुग्धा को नींद वाली गोली भी खिला दी और लिटा दिया.

राज उस का माथा दबाता रहा. थोड़ी देर बाद उस ने पुष्टि करने के लिए मुग्धा को आवाज दी. ‘‘भाभी सो गईं क्या?’’

कोई जवाब नहीं मिला. राज ने उस के चेहरे को हिलाडुला कर भी देख लिया. कोई प्रतिक्रिया न पा कर वह समझ गया कि रास्ता साफ हो चुका है.

राज की कनपटियों में खून तेजी से दौड़ने लगा. वह बत्ती जलती ही छोड़ मुग्धा के ऊपर आ गया. मर्यादा के आवरण प्याज के छिलकों की तरह उतरते चले गए. कमरे में आए भूचाल से मेज पर रखी विनयमुग्धा की तसवीर गिर कर टूट गई.

सबकुछ शांत होने पर राज थक कर चूरचूर हो कर मुग्धा के बगल में लेट गया.

‘‘बस अब बुखार उतर जाएगा भाभीजी… इतना पसीना जो निकलवा दिया मैं ने आप का,’’ राज बेशर्मी से बड़बड़ाया और मुग्धा की कुछ तसवीरें खींचने के बाद उसे कपड़े पहना दिए.

मुग्धा अब तक धीमेधीमे कराह रही थी. राज पलंग से उतरा और खुद भी कपड़े पहनने लगा. तभी उस की नजर आधी खुली दराज पर गई. भूल से मुग्धा अपनी डायरी उसी में छोड़ी हुई थी. राज ने उसे निकाला और कपड़े पहनतेपहनते उस के पन्ने पलटने लगा.

अचानक एक पेज पर जा कर उस की आंखें अटक गईं. वह अभी अपनी कमीज के सारे बटन भी बंद नहीं कर पाया था लेकिन उस को इस बात की परवाह नहीं रही. वह अपलक उस पन्ने में लिखे शब्दों को पढ़ने लगा. उस में मुग्धा ने लिखा था, ‘बस अब बहुत रो लिया, बहुत दुख मना लिया औलाद के लिए. मेरा बेटा मेरे पास था और मैं उसे पहचान ही नहीं पाई. जब से मैं यहां आई, उसे बच्चे के रूप में देखा तो आज अपनी कोख के बच्चे के लिए इतनी चिंता क्यों? मैं बहुत जल्दी राज को कानूनी रूप से गोद लूंगी.’

राज की आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा. वह सिर पकड़ कर वहीं बैठ गया और जोरजोर से रोने लगा, फिर भाग कर मुग्धा के पैरों को पकड़ कर अपना माथा उस से रगड़ते हुए रोने लगा, ‘‘भाभी, मुझे माफ कर दो… यह क्या हो गया मुझ से.’’

अचानक राज का ध्यान मुग्धा के बिखरे बालों पर गया. उस ने जल्दी से जमीन पर गिरी उस की हेयर क्लिप उठाई और मुग्धा का सिर अपनी गोद में रख कर बालों को संवारने लगा. वह किसी मशीन की तरह सबकुछ कर रहा था. हेयर क्लिप अच्छे से उस के बालों में लगा कर राज उठा और घर से निकल गया.

अगली सुबह तकरीबन 8 बजे मुग्धा की आंखें खुलीं. उस का सिर अभी तक भारी था. घर में भीड़ लग चुकी थी.

एक आदमी ने आखिरकार बोल ही दिया, ‘‘देवरभाभी के रिश्ते पर भरोसा करना ही पागलपन है…’’

मुग्धा के सिर में जैसे करंट लगा. वह सवालिया नजरों से उसे देखने लगी. तभी इलाके के पुलिस इंस्पैक्टर ने प्रवेश किया और बताया, ‘‘आप के देवर राज की लाश पास वाली नदी से मिली है. उस ने रात को खुदकुशी कर ली…’’

मुग्धा का कलेजा मुंह को आने लगा. वह हड़बड़ा कर पलंग से उठी लेकिन लड़खड़ा कर गिर गई.

एक महिला सिपाही ने राज के मोबाइल फोन में कैद मुग्धा की कल रात वाली तसवीरें उसे दिखाईं और कड़क कर पूछा, ‘‘कल रंगरलियां मनातेमनाते ऐसा क्या कह दिया लड़के से तू ने जो उस ने अपनी जान दे दी?’’

तसवीरें देख कर मुग्धा हैरान रह गई. अपनी शारीरिक हालत से उसे ऐसी ही किसी घटना का शक तो हो रहा था लेकिन दिल अब तक मानने को तैयार नहीं था. वह फूटफूट कर रोने लगी.

इंस्पैक्टर ने उस महिला सिपाही को अभी कुछ न पूछने का इशारा किया और बाकी औपचारिकताएं पूरी कर वहां से चला गया. धीरेधीरे औरतों की भीड़ भी छंटती गई.

विनय का फोन आया था कि वह आ रहा है, घबराए नहीं, लेकिन मुग्धा बस सुनती रही. उस की सूनी आंखों के सामने राज का बचपन चल रहा था. जब वह नईनई इस घर में आई थी.

दोपहर तक विनय लौट आया और भागते हुए मुग्धा के पास कमरे में पहुंचा. वह जड़वत अभी भी पलंग पर बैठी शून्य में ताक रही थी. विनय ने उस के कंधे पर हाथ रखा लेकिन मुग्धा का शरीर एक ओर लुढ़क गया.

‘‘मुग्धा… मुग्धा…’’ चीखता हुआ विनय उसे झकझोरे जा रहा था, पर मुग्धा कभी न जागने वाली नींद में सो चुकी थी. Story In Hindi

Best Hindi Kahani: आखिर कब तक – धर्म के नाम पर दो प्रेमियों की बलि

Best Hindi Kahani: राम रहमानपुर गांव सालों से गंगाजमुनी तहजीब की एक मिसाल था. इस गांव में हिंदुओं और मुसलिमों की आबादी तकरीबन बराबर थी. मंदिरमसजिद आसपास थे. होलीदीवाली, दशहरा और ईदबकरीद सब मिलजुल कर मनाते थे. रामरहमानपुर गांव में 2 जमींदारों की हवेलियां आमनेसामने थीं. दोनों जमींदारों की हैसियत बराबर थी और आसपास के गांव में बड़ी इज्जत थी.

दोनों परिवारों में कई पीढ़ियों से अच्छे संबंध बने हुए थे. त्योहारों में एकदसूरे के यहां आनाजाना, सुखदुख में हमेशा बराबर की साझेदारी रहती थी. ब्रजनंदनलाल की एकलौती बेटी थी, जिस का नाम पुष्पा था. जैसा उस का नाम था, वैसे ही उस के गुण थे. जो भी उसे देखता, देखता ही रह जाता था. उस की उम्र नादान थी. रस्सी कूदना, पिट्ठू खेलना उस के शौक थे. गांव के बड़े झूले पर ऊंचीऊंची पेंगे लेने के लिए वह मशहूर थी.

शौकत अली के एकलौते बेटे का नाम जावेद था. लड़कों की खूबसूरती की वह एक मिसाल था. बड़ों की इज्जत करना और सब से अदब से बात करना उस के खून में था. जावेद के चेहरे पर अभी दाढ़ीमूंछों का निशान तक नहीं था.

जावेद को क्रिकेट खेलने और पतंगबाजी करने का बहुत शौक था. जब कभी जावेद की गेंद या पतंग कट कर ब्रजनंदनलाल की हवेली में चली जाती थी, तो वह बिना झिझक दौड़ कर हवेली में चला जाता और अपनी पतंग या गेंद ढूंढ़ कर ले आता.

पुष्पा कभीकभी जावेद को चिढ़ाने के लिए गेंद या पतंग को छिपा देती थी. दोनों में खूब कहासुनी भी होती थी. आखिर में काफी मिन्नत के बाद ही जावेद को उस की गेंद या पतंग वापस मिल पाती थी. यह अल्हड़पन कुछ समय तक चलता रहा. बड़ेबुजुर्गों को इस खिलवाड़ पर कोई एतराज भी नहीं था.

समय तो किसी के रोकने से रुकता नहीं. पुष्पा अब सयानी हो चली थी और जावेद के चेहरे पर दाढ़ीमूंछ आने लगी थीं. अब जावेद गेंद या पतंग लेने हवेली के अंदर नहीं जाता था, बल्कि हवेली के बाहर से ही आवाज दे देता था.

पुष्पा भी अब बिना झगड़ा किए नजर झुका कर गेंद या पतंग वापस कर देती थी. यह झुकी नजर कब उठी और जावेद के दिल में उतर गई, किसी को पता भी नहीं चला.

अब जावेद और पुष्पा दिल ही दिल में एकदूसरे को चाहने लगे थे. उन्हें अल्हड़ जवानी का प्यार हो गया था.

कहावत है कि इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपते. गांव में दोनों के प्यार की बातें होने लगीं और बात बड़ेबुजुर्गों तक पहुंची.

मामला गांव के 2 इज्जतदार घरानों का था. इसलिए इस के पहले कि मामला तूल पकड़े, जावेद को आगे की पढ़ाई के लिए शहर भेज दिया गया. यह सोचा गया कि वक्त के साथ इस अल्हड़ प्यार का बुखार भी उतर जाएगा, पर हुआ इस का उलटा.

जावेद पर पुष्पा के प्यार का रंग पक्का हो गया था. वह सब से छिप कर रात के अंधेरे में पुष्पा से मिलने आने लगा. लुकाछिपी का यह खेल ज्यादा दिन तक नहीं चल सका. उन की रासलीला की चर्चा आसपास के गांवों में भी होने लगी.

आसपास के गांवों की महापंचायत बुलाई गई और यह फैसला लिया गया कि गांव में अमनचैन और धार्मिक भाईचारा बनाए रखने के लिए दोनों को उन की हवेलियों में नजरबंद कर दिया जाए.

ब्रजनंदनलाल और शौकत अली को हिदायत दी गई कि बच्चों पर कड़ी नजर रखें, ताकि यह बात अब आगे न बढ़ने पाए. कड़ी सिक्योरिटी के लिए दोनों हवेलियों पर बंदूकधारी पहरेदार तैनात कर दिए गए.

अब पुष्पा और जावेद अपनी ही हवेलियों में अपने ही परिवार वालों की कैद में थे. कई दिन गुजर गए. दोनों ने खानापीना छोड़ दिया था. आखिरकार दोनों की मांओं का हित अपने बच्चों की हालत देख कर पसीज उठा. उन्होंने जातिधर्म के बंधनों से ऊपर उठ कर घर के बड़ेबुजुर्गों की नजर बचा कर गांव से दूर शहर में घर बसाने के लिए अपने बच्चों को कैद से आजाद कर दिया.

रात के अंधेरे में दोनों अपनी हवेलियों से बाहर निकल कर भागने लगे. ब्रजनंदनलाल और शौकत अली तनाव के कारण अपनी हवेलियों की छतों पर आधी रात बीतने के बाद भी टहल रहे थे. उन दोनों को रात के अंधेरे में 2 साए भागते दिखाई दिए. उन्हें चोर समझ कर दोनों जोर से चिल्लाए, पर वे दोनों साए और तेजी से भागने लगे.

ब्रजनंदनलाल और शौकत अली ने बिना देर किए चिल्लाते हुए आदेश दे दिया, ‘पहरेदारो, गोली चलाओ.’

‘धांयधांय’ गोलियां चल गईं और 2 चीखें एकसाथ सुनाई पड़ीं और फिर सन्नाटा छा गया.

जब उन्होंने पास जा कर देखा, तो सब के पैरों के नीचे की जमीन खिसक गई. पुष्पा और जावेद एकदूसरे का हाथ पकड़े गोलियों से बिंधे पड़े थे. ताजा खून उन के शरीर से निकल कर एक नई प्रेमकहानी लिख रहा था.

आननफानन यह खबर दोनों हवेलियों तक पहुंच गई. पुष्पा और जावेद की मां दौड़ती हुई वहां पहुंच गईं. अपने जिगर के टुकड़ों को इस हाल में देख कर वे दोनों बेहोश हो गईं. होश में आने पर वे रोरो कर बोलीं, ‘अपने जिगर के टुकड़ों का यह हाल देख कर अब हमें भी मौत ही चाहिए.’

ऐसा कह कर उन दोनों ने पास खड़े पहरेदारों से बंदूक छीन कर अपनी छाती में गोली मार ली. यह सब इतनी तेजी से हुआ कि कोई उन को रोक भी नहीं पाया.

यह खबर आग की तरह आसपास के गांवों में पहुंच गई. हजारों की भीड़ उमड़ पड़ी. सवेरा हुआ, पुलिस आई और पंचनामा किया गया. एक हवेली से 2 जनाजे और दूसरी हवेली से 2 अर्थियां निकलीं और उन के पीछे हजारों की तादाद में भीड़.

अंतिम संस्कार के बाद दोनों परिवार वापस लौटे. दोनों हवेलियों के चिराग गुल हो चुके थे. अब ब्रजनंदनलाल और शौकत अली की जिंदगी में बच्चों की यादों में घुलघुल कर मरना ही बाकी बचा था.

ब्रजनंदनलाल और शौकत अली की निगाहें अचानक एकदसूरे से मिलीं, दोनों एक जगह पर ठिठक कर कुछ देर तक देखते रहे, फिर अचानक दौड़ कर एकदूसरे से लिपट कर रोने लगे.

गहरा दुख अपनों से मिल कर रोने से ही हलका होता है. बरसों का आपस का भाईचारा कब तक उन्हें दूर रख सकता था. शायद दोनों को एहसास हो रहा था कि पुरानी पीढ़ी की सोच में बदलाव की जरूरत है. Best Hindi Kahani

Hindi Kahani: मुसाफिर – चांदनी ने कैसे उस के साथ मजे किए

Hindi Kahani: गर्भवती चांदनी को रहरह कर पेट में दर्द हो रहा था. इसी वजह से उस का पति भीमा उसे सरकारी अस्पताल में भरती कराने ले गया. उस ने लेडी डाक्टर से बड़ी चिरौरी कर जैसेतैसे एक पलंग का इंतजाम करवा लिया. नर्स के हाथ पर 10 रुपए का नोट रख कर उस ने उसे खुश करने का वचन भी दे दिया, ताकि बच्चा पैदा होने के समय वह चांदनी की ठीक से देखभाल करे.

चांदनी के परिवार में 4 बेटियां रानी, पिंकी, गुडि़या और लल्ली के अलावा पति भीमा था, जो सीधा और थोड़ा कमअक्ल था.

भीमा मरियल देह का मेहनती इनसान था. ढाबे पर सुबह से रात तक डट कर मेहनत से दो पैसे कमाना और बीवीबच्चों का पेट भरना ही उस की जिंदगी का मकसद था. जब कभी बारिश के दिनों में तालतलैया में मछलियां भर जातीं, तब भीमा की जीभ लालच से लार टपकाने लगती थी और वह जाल ले कर मछली पकड़ने दोस्तों के साथ घर से निकल पड़ता था.

गांव में मजदूरी न मिलने पर वह कई बार दिहाड़ी मजदूरी करने आसपास के शहर में भी चला जाता था. तब चांदनी अकेले ही सुबह से रात तक ढाबे पर रहती थी.

गठीले बदन और तीखे नाकनक्श की चांदनी 30 साल की हो कर भी गजब की लगती थी. जब वह ढाबे पर बैठ कर खनकती हंसी हंसती, तो रास्ता चलते लोगों के सीने में तीर से चुभ जाते थे. कितने तो मन न होते हुए भी एक कप चाय जरूर पी लेते थे.

अस्पताल में तनहाई में लेटी चांदनी कमरे की दीवारों को बिना पलक झपकाए देख रही थी. उसे याद आया, जब एक बार मूसलाधार बारिश में उस के गांव भगवानपुर से आगे 4 मील दूर बहती नदी चढ़ आई थी. सारे ट्रक नदी के दोनों तरफ रुक गए थे. तकरीबन एक मील लंबा रास्ता ट्रकों से जाम हो गया था.

तब न कोई ट्रक आता था, न जाता था. सड़क सुनसान पड़ी थी. इस कारण चांदनी का ढाबा पूरी तरह से ठप हो चुका था. वह रोज सवेरे ग्राहक के इंतजार में पलकपांवड़े बिछा कर बैठ जाती, पर एकएक कर के 5 दिन निकल गए और एक भी ग्राहक न फटका था. बोहनी तो हुई ही नहीं, उलटे गांठ के पैसे और निकल गए थे.

ऐसे में चांदनी एकएक पैसे के लिए मुहताज हो गई थी. चांदनी मन ही मन खुद पर बरसती कि चौमासे का भी इंतजाम नहीं किया. उधर भीमा भी 15 दिनों से गायब था. जाने कसबे की तरफ चला गया था या कहीं उफनती नदी में मछलियां खंगाल रहा था.

भीमा का ध्यान आते ही चांदनी सोचने लगी कि किसी जमाने में वह कितना गठीला और गबरू जवान था. आग लगे इस नासपिटी दारू में कि उस की देह दीमक लगे पेड़ की तरह खड़ीखड़ी सूख गई. अब नशा कर के आता है और उसे बेकार ही झकझोर कर आग लगाता है. खुद तो पटाके की तरह फुस हो जाता है और वह रातदिन भीतर ही भीतर सुलगती रहती है.

कभीकभी तो भीमा खुद ही कह देता है कि चांदनी अब मुझ में पहले वाली जान नहीं रही, तू तलाश ले कोई गबरू जवान, जिस से हमारे खानदान को एक चिराग तो मिल जाए.

तब चांदनी भीमा के मुंह पर हाथ रख देती और नाराज हो कर कहती कि चुप हो जा. शर्म नहीं आती ऐसी बातें कहते हुए. तब भीमा बोलता, ‘अरी, शास्त्रों में लिखा है कि बेटा पैदा करने के लिए घड़ी दो घड़ी किसी ताकतवर मर्द का संग कर लेना गलत नहीं होता. कितनों ने ही किया है. पंडित से पूछ लेना.’

चांदनी अपने घुटनों में सिर दे कर चुप रह जाती थी. रास्ता रुके हुए छठा दिन था कि रात के अंधेरे को चीरती एक टौर्च की रोशनी उस के ढाबे पर पड़ी. चांदनी आंखें मिचमिचाते हुए उधर देखने लगी. पास आने पर देखा कि टौर्च हाथ में लिए कोई आदमी ढाबे की तरफ चला आ रहा था.

वह टौर्च वाला आदमी ट्रक ड्राइवर बलभद्र था. बलभद्र आ कर ढाबे के बाहर बिछी चारपाई पर बैठ गया. बरसात अभी रुकी थी और आबोहवा में कुछ उमस थी.

बलभद्र ने बेझिझक अपनी कमीज उतार कर एक तरफ फेंक दी. वह एक गठीले बदन का मर्द था. पैट्रोमैक्स की रोशनी में उस का गोरा बदन चमक छोड़ रहा था. बेचैनी और उम्मीद में डूबती चांदनी कनखियों से उसे ताक रही थी.

थकान और गरमी से जब बलभद्र को कुछ छुटकारा मिला, तब उस का ध्यान चांदनी की ओर गया.

वह आवाज लगा कर बोला, ‘‘क्या बाई, कुछ रोटी वगैरह मिलेगी?’’

‘‘हां,’’ चांदनी बोली.

‘‘तो लगा दाल फ्राई और रोटी.’’

चांदनी में जैसे बिजली सी चमकी. उस ने भट्ठी पर फटाफट दाल फ्राई कर दी और कुछ ही देर में वह गरम तवे पर मोटीमोटी रोटियां पलट रही थी.

चारपाई पर पटरा लगा कर चांदनी ने खाना लगा दिया. खाना खाते समय बलभद्र कह रहा था, ‘‘5 दिनों में भूख से बेहाल हो गया.’’

जाने चांदनी के हाथों का स्वाद था या बलभद्र की पुरानी भूख, उसे ढाबे का खाना अच्छा लगा. वह 14 रोटी खा गया. पानी पी कर उस ने अंगड़ाई ली और वहीं चारपाई पर पसर गया. बरतन उठाती चांदनी को जेब से निकाल कर उस ने सौ रुपए का एक नोट दिया और बोला, ‘‘पूरा पैसा रख ले बाई.’’

चांदनी को जैसे पैर में पंख लग गए थे. उसे बलभद्र की बातों पर यकीन नहीं हो रहा था. बरतन नाली पर रख कर चांदनी फिर भट्ठी के पास आ बैठी. बलभद्र लेटेलेटे ही गुनगुना रहा था.

गीत गुनगुनाने के बाद बलभद्र बोला, ‘‘बाई, आज यहां रुकने की इच्छा है. आधी रात को कहां ट्रक के पास जाऊंगा. क्लीनर ही गाड़ी की रखवाली कर लेगा. क्यों बाई, तुम्हें कोई एतराज तो नहीं?’’

चांदनी को भला क्या एतराज होता. उस ने कह दिया कि उसे कोई एतराज नहीं है. अगर रुकना चाहो तो रुक जाओ और बलभद्र गहरी तान कर सो गया.

चांदनी की चारों बेटियां ढाबे के पिछले कमरे में बेसुध सोई पड़ी थीं. रात गहरी हो रही थी. बादलों से घिरे आसमान में बिजली की चमक और गड़गड़ाहट रहरह कर गूंज रही थी.

तब रात के 12 बजे होंगे. किसी और ग्राहक के आने की उम्मीद छोड़ कर चांदनी वहां से हटी. देखा तो बलभद्र धनुष बना गुड़ीमुड़ी हुआ चारपाई पर पड़ा था.

चांदनी भीतर गई और एक कंबल उठा लाई. बलभद्र को कंबल डालते समय चांदनी का हाथ उस के माथे से टकराया, तो उसे लगा कि उसे तेज बुखार है.

चांदनी ने अचानक अपनी हथेली बलभद्र के माथे पर रखी. वह टुकुरटुकुर उसे ही ताक रहा था. उन आंखों में चांदनी ने अपने लिए एक चाहत देखी.

तभी अचानक तेज हवा चली और पैट्रोमैक्स भभक कर बुझ गया. हड़बड़ा कर उठती चांदनी का हाथ सकुचाते हुए बलभद्र ने थाम लिया. थोड़ी देर कसमसाने के बाद चांदनी अपने बदन में छा गए नशे से बेसुध हो कर उस के ऊपर ढेर हो गई थी. सालों बाद चांदनी को बड़ा सुख मिला था.

भोर होने से पहले ही वह उठी और पिछले कमरे की ओर चल पड़ी थी. उस ने सोचा कि खुद भीमा ने ही तो इस के लिए उस से कहा था, और फिर इस काली गहरी अंधेरी रात में भला किस ने देखा था. यही सब सोचतेसोचते वह नींद में लुढ़क गई.

सूरज कितना चढ़ आया था, तब बड़ी बेटी ने उसे जगाया और बोली, ‘‘रात का मुसाफिर 5 सौ रुपए दे गया है.’’

वह चौंकती सी उठी, तो देखा बलभद्र जा चुका था. चारपाई पर पड़ा हुआ कंबल उसे बड़ा घिनौना लगा. वह देर तक बैठी रात के बारे में सोचती रही.

15 दिन बाद बलभद्र फिर लौटा और भीमा के साथ उस ने खूब खायापीया. नशे में डूबा भीमा बलभद्र का गुण गाता भीतर जा कर लुढ़क गया और चांदनी ने इस बार जानबूझ कर पैट्रोमैक्स बुझा दिया.

बलभद्र का अपना ट्रक था और खुद ही उसे चलाता था, इसलिए उस के हाथ में खूब पैसा भी रहता था. चांदनी का सांचे में ढला बदन और उस की चुप रहने की आदत बहुत भाई थी उसे. चांदनी अपने शरीर के आगे मजबूर होती जा रही थी और बलभद्र के जाते ही हर बार खुद को मन ही मन कोसती रहती थी.

अब बलभद्र के कारण भीमा की माली हालत सुधरने लगी. वह उस का भी गहरा दोस्त हो गया था. 3 लड़कों का बाप बलभद्र बताता था कि कितना अजीब है कि वह लड़की पैदा करना चाहता है और भीमा लड़के की अभिलाषा रखता है.

चांदनी चुप जरूर थी, लेकिन अंदर ही अंदर खुश रहती थी. उस का सातवां महीना था. भीमा के साथ आसपास के जानने वाले लोग भी बेचैनी से इस बच्चे के जन्म का इंतजार कर रहे थे.

तब पूरे 9 महीने हो गए थे. एक दिन अचानक बलभद्र खाली ट्रक ले कर वहां आ धमका और उदास होता हुआ बोला, ‘‘अब वह पंजाब में ही ट्रक चलाएगा, क्योंकि घर के लोगों ने नाराज हो कर उसे वापस बुलाया है.’’

यह सुन कर भीमा और चांदनी बेहद उदास हो गए थे. आखिरी बार चांदनी ने उसे अच्छा खाना खिलाया और दुखी मन से विदा किया. अगले ही दिन उसे अस्पताल आना पड़ा था. तब से वह बच्चा पैदा होने के इंतजार में थे.

उसे दर्द बढ़ गया, तो उस ने नर्स को बुलाया. आननफानन उसे भीतर ले जाया गया. आखिरकार उस ने बच्चे को जन्म दिया और बेहोश हो गई.

कुछ देर बाद होश में आने पर चांदनी ने जाना कि उस ने एक बेटे को  जन्म दिया है. वह जल्दी से बच्चे को घूरने लगी कि लड़के की शक्ल किस से मिलती है… भीमा से या बलभद्र से? Hindi Kahani

Hindi Family Story: सच्चा रिश्ता – साहिल ने कैसे दिखाई हिम्मत

Hindi Family Story: साहिल आज काफी मसरूफ था. सुबह से उठ कर वह जयपुर जाने की तैयारी में लगा था. उस की अम्मी उस के काम में हाथ बंटा रही थीं और समझा रही थीं, ‘‘बेटे, दूर का मामला है, अपना खयाल रखना और खाना ठीक समय पर खा लिया करना.’’ साहिल अपनी अम्मी की बातें सुन कर मुसकराता और कहता, ‘‘हां अम्मी, मैं अपना पूरा खयाल रखूंगा और खाना भी ठीक समय पर खा लिया करूंगा. वैसे भी अम्मी अब मैं बड़ा हो गया हूं और मुझे अपना खयाल रखना आता है.’’

साहिल को इंटरव्यू देने जयपुर जाना था. उस के दिल में जयपुर घूमने की चाहत थी, इसलिए वह 10-15 दिन जयपुर में रहना चाहता था. सारा सामान पैक कर के साहिल अपनी अम्मी से विदा ले कर चल पड़ा.

अम्मी ने साहिल को ले कर बहुत सारे ख्वाब देखे थे. जब साहिल 8 साल का था, तब उस के अब्बा बब्बन मियां का इंतकाल हो गया था. साहिल की अम्मी पर तो जैसे बिजली गिर गई थी. उन के दिल में जीने की कोई तमन्ना ही नहीं थी, लेकिन साहिल को देख कर वे ऐसा न कर सकीं. अम्मी ने साहिल की अच्छी परवरिश को ही अपना मकसद बना लिया था. इसी वजह से साहिल को कभी अपने अब्बा की कमी महसूस नहीं हुई थी. तभी तो साहिल ने अपनी अम्मी की इच्छाओं को पूरा करने के लिए एमए कर लिया था और अब वह नौकरी के सिलसिले में इंटरव्यू देने जयपुर जा रहा था.

साहिल को विदा कर के उस की अम्मी घर का दरवाजा बंद कर घर के कामों में मसरूफ हो गईं. उधर साहिल भी अपने शहर के बस स्टैंड पर पहुंच गया. जयपुर जाने वाली बस आई, तो साहिल ने बस में चढ़ कर टिकट लिया और एक सीट पर बैठ गया.

साहिल की आंखों से उस का शहर ओझल हो रहा था, पर उस की आंखों में अम्मी का चेहरा रहरह कर सामने

आ रहा था. अम्मी ने साहिल को काफी मेहनत से पढ़ायालिखाया था, इसलिए साहिल ने भी इंटरव्यू के लिए बहुत अच्छी तैयारी की थी. बस के चलतेचलते रात हो गई थी. ज्यादातर सवारियां सो रही थीं. जो मुसाफिर बचे थे, वे ऊंघ रहे थे.

रात के अंधेरे को रोशनी से चीरती हुई बस आगे बढ़ी जा रही थी. एक जगह जंगल में रास्ता बंद था. सड़क पर पत्थर रखे थे. ड्राइवर ने बस रोक दी. तभी 2-3 बार फायरिंग हुई और बस में कुछ लुटेरे घुस आए. इस अचानक हुए हमले से सभी मुसाफिर घबरा गए और जान बचाते हुए अपना सारा पैसा उन्हें देने लगे.

एक लड़की रोरो कर उन से दया की भीख मांगने लगी. वह बारबार कह रही थी, ‘‘मेरे पास थोड़े से रुपयों के अलावा कुछ नहीं है.’’ मगर उन जालिमों पर उस की मासूम आवाज का कुछ असर नहीं हुआ. उन में से एक लुटेरा, जो दूसरे सभी लुटेरों का सरदार लग रहा था, एक लुटेरे से बोला, ‘‘अरे ओ कृष्ण, बहुत बतिया रही है यह लड़की. अरे, इस के पास देने को कुछ नहीं है, तो उठा ले ससुरी को और ले चलो अड्डे पर.’’

इतना सुनते ही एक लुटेरे ने उस लड़की को उठा लिया और जबरदस्ती उसे अपने साथ ले जाने लगा. वह डरी हुई लड़की ‘बचाओबचाओ’ चिल्ला रही थी, पर किसी मुसाफिर में उसे बचाने की हिम्मत न हुई.

साहिल भी चुप बैठा था, पर उस के दिल के अंदर से आवाज आई, ‘साहिल, तुम्हें इस लड़की को उन लुटेरों से छुड़ाना है.’ यही सोच कर साहिल अपनी सीट से उठा और लुटेरों को ललकारते हुए बोला, ‘‘अरे बदमाशो, लड़की को छोड़ दो, वरना अच्छा नहीं होगा.’’

इतना सुनते ही उन में से 2-3 लुटेरे साहिल पर टूट पड़े. वह भी उन से भिड़ गया और लड़की को जैसे ही छुड़ाने लगा, तो दूसरे लुटेरे ने गोली चला दी. गोली साहिल की बाईं टांग में लगी. साहिल की हिम्मत देख कर दूसरे कई मुसाफिर भी लुटेरों को मारने दौड़े. कई लोगों को एकसाथ आता देख लुटेरे भाग खड़े हुए, पर तब तक साहिल की टांग से काफी खून बह चुका था. लिहाजा, वह बेहोश हो गया.

ड्राइवर ने बस तेजी से चला कर जल्दी से साहिल को एक अस्पताल में पहुंचा दिया. सभी मुसाफिर तो साहिल को भरती करा कर चले गए, पर वह लड़की वहीं रुक गई. डाक्टर ने जल्दी ही साहिल की मरहमपट्टी कर दी.

कुछ देर बाद जब साहिल को होश आया, तो सामने वही लड़की खड़ी थी. साहिल को होश में आता देख कर वह लड़की बहुत खुश हुई.

साहिल ने उसे देख राहत की सांस ली कि लड़की बच गई. पर अचानक इंटरव्यू का ध्यान आते ही उस के मुंह से निकला, ‘‘अब मैं जयपुर नहीं पहुंच सकता. मेरे इंटरव्यू का क्या होगा?’’ लड़की उस की बात सुन कर बोली, ‘‘क्या आप जयपुर में इंटरव्यू देने जा रहे थे? मेरी वजह से आप की ये हालत हो गई. मैं आप से माफी चाहती हूं. मुझे माफ कर दीजिए.’’

‘‘अरे नहीं, यह आप क्या कह रही हैं? आप ने मेरी बात का गलत मतलब निकाल लिया. अगर मैं आप को बचाने न आता, तो पता नहीं मैं अपनेआप को माफ कर भी पाता या नहीं. खैर, छोडि़ए यह सब. अच्छा, यह बताइए कि आप यहां क्यों रुक गईं? मुझे लगता है कि सभी मुसाफिर चले गए हैं.’’ लड़की ने कहा, ‘‘जी हां, सभी मुसाफिर रात को ही चले गए थे. आप के पास भी तो किसी को होना चाहिए था. अपनी जान की परवाह किए बिना आप ने मेरी जान बचाई. ऐसे में मेरा फर्ज बनता था कि मैं आप के पास रुकूं. मैं आप की हमेशा एहसानमंद रहूंगी.’’

‘‘यह तो मेरा फर्ज था, जो मैं ने पूरा किया. अच्छा, यह बताइए कि आप कल जयपुर जा रही थीं या कहीं और…?’’

इतना सुनते ही लड़की की आंखों में आंसू आ गए. वह बोली, ‘‘आप ने मेरी जान बचाई है, इसलिए मैं आप से कुछ नहीं छिपाऊंगी. मेरा नाम आरती?है. मेरे पैदा होने के कुछ साल बाद ही पिताजी चल बसे थे. मां ने ही मुझे पाला है. ‘‘मेरे ताऊजी मां को तंग करते थे. हमारे हिस्से की जमीन पर उन्होंने कब्जा कर लिया. उन्होंने मेरी मां से धोखे में कोरे कागज पर अंगूठा लगवा लिया और हमारी जमीन उन के नाम हो गई.

‘‘एक महीने पहले मां भी मुझे छोड़ कर चल बसीं. मेरे ताऊजी मुझे बहुत तंग करते थे. उन के इस रवैए से तंग आ कर मैं भाग निकली और उसी बस में आ कर बैठ गई, जो बस जयपुर जा रही थी. ‘‘मैं ने 12वीं तक की पढ़ाई की है. सोचा था कि कहीं जा कर नौकरी कर लूंगी,’’ यह कह कर आरती चुप हो गई.

साहिल को आरती की कहानी सुन कर अफसोस हुआ. कुछ देर बाद आरती बोली, ‘‘अब आप को होश आ गया है, 2-4 दिन में आप बिलकुल ठीक हो जाएंगे. अच्छा तो अब मैं चलती हूं.’’

साहिल ने कहा, ‘‘पर कहां जाएंगी आप? अभी तो आप ने बताया कि अब आप का न कोई घर है, न ठिकाना. ऐसे में आप अकेली लड़की. बड़े शहर में नौकरी मिलना इतना आसान नहीं होता. ‘‘वैसे, मेरा नाम साहिल है. मजहब से मैं मुसलमान हूं, पर अगर आप हमारे घर मेरी छोटी बहन बन कर रहें, तो मुझे बहुत खुशी होगी.’’

‘‘लेकिन, आप तो मुसलमान हैं?’’ आरती ने कहा. साहिल ने कहा, ‘‘मुसलमान होने के नाते ही मेरा यह फर्ज बनता है कि मैं किसी बेसहारा लड़की की मदद करूं. मुझे हिंदू बहन बनाने में कोई परहेज नहीं, अगर आप तैयार हों, तो…’’

आरती ने साहिल के पैर पकड़ लिए, ‘‘भैया, आप सचमुच महान हैं.’’ ‘‘अरे आरती, यह सब छोड़ो, अब हम अपने घर चलेंगे. अम्मी तो तुम्हें देख कर बहुत खुश होंगी.’’

एक हफ्ते बाद साहिल ठीक हो गया. डाक्टर ने उसे छुट्टी दे दी. साहिल आरती को ले कर अपने घर पहुंचा. दरवाजा खटखटाते हुए उस ने आवाज लगाई, तो उस की अम्मी ने दरवाजा खोला.

साहिल को देख कर वे चौंकीं, ‘‘अरे साहिल, सब खैरियत तो है न? तू इतनी जल्दी कैसे आ गया? तू तो 15 दिन के लिए जयपुर गया था. क्या बात है?’’ ‘‘अरे अम्मी, अंदर तो आने दो.’’

‘‘हांहां, अंदर आ.’’ साहिल जैसे ही लंगड़ाते हुए अंदर आया, तो उस की अम्मी को और धक्का लगा, ‘‘अरे साहिल, तू लंगड़ा क्यों रहा है? जल्दी बता.’’

साहिल ने कहा, ‘‘सब बताता हूं, अम्मी. पहले मैं तुम्हें एक मेहमान से मिलवाता हूं,’’ कह कर साहिल ने आरती को आवाज दी. आरती दबीसहमी सी अंदर आई.

खूबसूरत लड़की को देख कर साहिल की अम्मी का दिल खुश हो गया, पर अगले ही पल अपने को संभालते हुए वे बोलीं, ‘‘साहिल, ये कौन है? कहीं तू ने… ‘‘अरे नहीं, अम्मी. आप गलत समझ रही हैं.’’

अपनी अम्मी से साहिल ने जयपुर सफर की सारी बातें बता दीं. सबकुछ सुन कर साहिल की अम्मी बोलीं, ‘‘बेटा, तू ने यह अच्छा किया. अरे, नौकरी तो फिर कहीं न कहीं मिल ही जाएगी, पर इतनी खूबसूरत बहन तुझे फिर न मिलती. बेटी आरती, आज से यह घर तुम्हारा ही है.’’

इतना सुनते ही आरती साहिल की अम्मी के पैरों में गिर पड़ी. ‘‘अरे बेटी, यह क्या कर रही हो. तुम्हारी जगह मेरे दिल में बन गई. अब तुम मेरी बेटी हो,’’ इतना कह कर अम्मी ने आरती को गले से लगा लिया.

साहिल एक ओर खड़ा मुसकरा रहा था. अब साहिल के घर में बहन की कमी पूरी हो गई थी. आरती को भी अपना घर मिल गया था. उस की आंखों में खुशी के आंसू छलक आए थे. Hindi Family Story

Story In Hindi: रावण अब भी जिंदा है – क्या मीना बचा पाई इज्जत

Story In Hindi: मीना सड़क पर आ कर आटोरिकशे का इंतजार करने लगी, मगर आटोरिकशा नहीं आया. वह अकेली ही बूआ के यहां गीतसंगीत के प्रोग्राम में गाने आई थी. तब बूआ ने भी कहा था, ‘अकेली मत जा. किसी को साथ ले जा.’ मीना ने कहा था, ‘क्यों तकलीफ दूं किसी को? मैं खुद ही आटोरिकशे में बैठ कर चली जाऊंगी?’

मीना को तो अकेले सफर करने का जुनून था. यहां आने से पहले उस ने राहुल से भी यही कहा था, ‘मैं बूआ के यहां गीत गाने जा रही हूं.’ ‘चलो, मैं छोड़ आता हूं.’

‘नहीं, मैं चली जाऊंगी,’ मीना ने अनमने मन से कह कर टाल दिया था. तब राहुल बोला था, ‘जमाना बड़ा खराब है. अकेली औरत का बाहर जाना खतरे से खाली नहीं है.’

‘आप तो बेवजह की चिंता पाल रहे हैं. मैं कोई छोटी बच्ची नहीं हूं, जो कोई रावण मुझे उठा कर ले जाएगा.’ ‘यह तुम नहीं तुम्हारा अहम बोल रहा है,’ समझाते हुए एक बार फिर राहुल बोला था, ‘जब से दिल्ली में चलती बस में निर्भया के साथ…’

‘इस दुनिया में कितनी औरतें ऐसी हैं, जो अकेले ही नौकरी कर रही हैं…’ बीच में ही बात काटते हुए मीना बोली थी, ‘मैं तो बस गीत गा कर वापस आ जाऊंगी.’ यहां से उस की बूआ का घर

3 किलोमीटर दूर है. वह आटोरिकशे में बैठ कर बूआ के यहां पहुंच गई थी. वहां जा कर राहुल को फोन कर दिया था कि वह बूआ के यहां पहुंच गई है. फिर वह बूआ के परिवार में ही खो गई. मगर अब रात को सड़क पर आ कर आटोरिकशे का इंतजार करना उसे महंगा पड़ने लगा था.

जैसेजैसे रात गहराती जा रही थी, सन्नाटा पसरता जा रहा था. इक्कादुक्का आदमी उसे अजीब सी निगाह डाल कर गुजर रहे थे. जितने भी आटोरिकशे वाले गुजरे, वे सब भरे हुए थे. जब कोई औरत किसी स्कूटर के पीछे मर्द के सहारे बैठी दिखती थी, तब मीना भी यादों में खो जाती थी. वह इसी तरह राहुल के स्कूटर पर कई बार पीछे बैठ चुकी थी.

आटोरिकशा तो अभी भी नहीं आया था. रात का सन्नाटा उसे डरा रहा था. क्या राहुल को यहां बुला ले? अगर वह बुला लेगी, तब उस की हार होगी. वह साबित करना चाहती थी कि औरत अकेली भी घूम सकती है, इसलिए उस ने राहुल को फोन

नहीं किया. इतने में एक सवारी टैंपो वहां आया. वह खचाखच भरा हुआ था. टैंपो वाला उसे बैठने का इशारा कर रहा था. मीना ने कहा, ‘‘कहां बैठूंगी भैया?’’

वह मुसकराता हुआ चला गया. तब वह दूसरे टैंपों का इंतजार करने लगी, मगर काफी देर तक टैंपो नहीं आया. तभी एक शख्स उस के पास आ कर बोला, ‘‘चलोगी मेरे साथ?’’

‘‘कहां?’’ मीना ने पूछा. ‘‘उस खंडहर के पास. कितने पैसे लोगी?’’ उस आदमी ने जब यह कहा, तब उसे समझते देर न लगी. वह आदमी उसे धंधे वाली समझ रहा था.

वह भी एक धंधे वाली औरत बन कर बोली, ‘‘कितना पैसा दोगे?’’ वह आदमी कुछ न बोला. सोचने लगा. तब मीना फिर बोली, ‘‘जेब में कितना माल है?’’

‘‘बस, 50 रुपए.’’ ‘‘जेब में पैसा नहीं है और आ गया… सुन, मैं वह औरत नहीं हूं, जो तू समझ रहा है,’’ मीना ने कहा.

‘‘तब यहां क्यों खड़ी है?’’ ‘‘भागता है कि नहीं… नहीं तो चप्पल उतार कर सारा नशा उतार दूंगी तेरा,’’ मीना की इस बात को सुन कर वह आदमी चलता बना.

अब मीना ने ठान लिया था कि वह खाली आटोरिकशे में नहीं बैठेगी, क्योंकि उस ड्राइवर में अकेली औरत को देख कर न जाने कब रावण जिंदा हो जाए? ‘‘कहां चलना है मैडम?’’ एक आटोरिकशा वाला उस के पास आ कर बोला. जब मीना ने देखा कि उस की आंखों में वासना है, तब वह समझ गई कि इस की नीयत साफ नहीं है.

वह बोली, ‘‘कहीं नहीं.’’ ‘‘मैडम, अब कोई टैंपो मिलने वाला नहीं है…’’ वह लार टपकाते हुए बोला, ‘‘आप को कहां चलना है? मैं छोड़ आता हूं.’’

‘‘मुझे कहीं नहीं जाना है,’’ वह उसे झिड़कते हुए बोली. ‘‘जैसी आप की मरजी,’’ इतना कह कर वह आगे बढ़ गया.

मीना ने राहत की सांस ली. शायद आटोरिकशे वाला सही कह रहा था कि अब कोई टैंपो नहीं मिलने वाला है. अगर वह मिलेगा, तो भरा हुआ मिलेगा. मगर अब कितना भी भरा हुआ टैंपो आए, वह उस में लद जाएगी. वह लोगों की निगाह में बाजारू औरत नहीं बनना चाहती थी. मीना को फिल्मों के वे सीन याद आए, जब हीरोइन को अकेले पा कर गुंडे उठा कर ले जाते हैं, मगर न जाने कहां से हीरो आ जाता है और हीरोइन को बचा लेता है. मगर यहां किसी ने उस का अपहरण कर लिया, तब उसे बचाने के लिए कोई हीरो नहीं आएगा.

मीना आएदिन अखबारों में पढ़ती रहती थी कि किसी औरत के साथ यह हुआ, वह हुआ, वह यहां ज्यादा देर खड़ी रहेगी, तब उसे लोग गलत समझेंगे. तभी मीना ने देखा कि 3-4 नौजवान हंसते हुए उस की ओर आ रहे थे. उन्हें देख वह सिहर गई. अब वह क्या करेगी? खतरा अपने ऊपर मंडराता देख कर वह कांप उठी.

वे लोग पास आ कर उस के आसपास खड़े हो गए. उन में से एक बोला, ‘यहां क्यों खड़ी है?’’ दूसरे आदमी ने जवाब दिया, ‘‘उस्ताद, ग्राहक ढूंढ़ रही है.’’

तीसरा शख्स बोला, ‘‘मिला कोई ग्राहक?’’ पहले वाला बोला, ‘‘अरे, कोई ग्राहक नहीं मिला, तो हमारे साथ चल.’’

मीना ने उस अकेले शख्स से तो मजाक कर के भगा दिया था, मगर यहां 3-3 जिंदा रावण उस के सामने खड़े थे. उन्हें कैसे भगाए? वे तीनों ठहाके लगा कर हंस रहे थे, मगर तभी पुलिस की गाड़ी सायरन बजाती हुई आती दिखी.

एक बोला, ‘‘चलो उस्ताद, पुलिस आ रही है.’’ वे तीनों वहां से भाग गए. मगर मीना इन पुलिस वालों से कैसे बचेगी?

पुलिस की जीप उस के पास आ कर खड़ी हो गई. उन में से एक पुलिस वाला उतरा और कड़क आवाज में बोला, ‘‘इतनी रात को सड़क पर क्यों खड़ी है?’’

‘‘टैंपो का इंतजार कर रही हूं,’’ मीना सहमते हुए बोली. ‘‘अब रात को 11 बजे टैंपो नहीं मिलेगा. कहां जाना है?’’

‘‘सर, सांवरिया कालोनी.’’ ‘‘झूठ तो नहीं बोल रही है?’’

‘‘नहीं सर, मैं झूठ नहीं बोलती,’’ मीना ने एक बार फिर सफाई दी. ‘‘मैं अच्छी तरह जानता हूं तुम जैसी धंधा करने वाली औरतों को…’’ पुलिस वाला जरा अकड़ कर बोला, ‘‘अब जब पकड़ी गई हो, तो सती सावित्री बन रही हो. बता, वे तीनों लोग कौन थे?’’

‘‘मुझे नहीं मालूम सर.’’ ‘‘झूठ बोलते शर्म नहीं आती तुझे,’’ पुलिस वाला फिर गरजा.

‘‘मैं सच कह रही हूं सर. वह तीनों कौन थे, मुझे कुछ नहीं मालूम. मुझे अकेली देख कर वे तीनों आए थे. मैं वैसी औरत नहीं हूं, जो आप समझ रहे हैं,’’ मीना ने अपनी सफाई दी. ‘‘चल थाने, वहां सब असलियत का पता चल जाएगा. चल बैठ जीप में… सुना कि नहीं?’’

‘‘सर, मुझे मत ले चलो. मैं घरेलू औरत हूं.’’ ‘‘अरे, तू घरगृहस्थी वाली औरत है, तो रात के 11 बजे यहां क्या कर रही है? ठीक है, बता, तेरा पति कहां है?’’

‘‘सर, वे तो घर में हैं.’’ ‘‘मतलब, वही हुआ न… तू धंधा करने के लिए रात को अकेली निकली है और अपने पति की आंखों में धूल झोंक रही है. तेरा झूठ यहीं पकड़ा गया…

‘‘अच्छा, अब बता कि तू कहां से आ रही है?’’ ‘‘बूआ के यहां गीतसंगीत के प्रोग्राम में आई थी सर. वहीं देर हो गई.’’

‘‘फिर झूठ बोल रही है. बैठ जीप में,’’ पुलिस वाला अब तक उस पर शिकंजा कस चुका था. ‘‘ठीक है सर, अगर आप को यकीन नहीं हो रहा है, तो मैं उन्हें फोन कर के बुलाती हूं, ताकि आप को असलियत का पता चल जाए,’’ कह कर वह पर्स में से मोबाइल फोन निकालने लगी.

तभी पुलिस वाला दहाड़ा, ‘‘इस की कोई जरूरत नहीं है. मुझे मालूम है कि तू अपने पति को बुला कर उस के सामने अपने को सतीसावित्री साबित करना चाहेगी. सीधेसीधे क्यों नहीं कह देती है कि तू धंधा करती है.’’ मीना की आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा था कि तभी अचानक राहुल उसे गाड़ी से आता दिखाई दिया. उस ने आवाज लगाई, ‘‘राहुल… राहुल.’’

राहुल पास आ कर बोला, ‘‘अरे मीना, तुम यहां…’’ अचानक उस की नजर जब पुलिस पर पड़ी, तब वह हैरानी से आंखें फाड़ते हुए देखता रहा.

पुलिस वाला उसे देख कर गरजा, ‘‘तुम कौन हो?’’ ‘‘मैं इस का पति हूं.’’

‘‘तुझे झूठ बोलते हुए शर्म नहीं आती,’’ पुलिस वाला अपनी वरदी का रोब दिखाते हुए बोला, ‘‘तुम दोनों मुझे बेवकूफ बना रहे हो. अपनी पत्नी से धंधा कराते हुए तुझे शर्म नहीं आती. चल थाने में जब डंडे पड़ेंगे, तब भूल जाएगा अपनी पत्नी से धंधा कराना.’’ यह सुन कर राहुल हाथ जोड़ता हुआ बोला, ‘‘आप यकीन रखिए सर, यह मेरी पत्नी है, बूआ के यहां गीत गाने अकेली गई थी. लौटने में जब देर हो गई, तब बूआ ने बताया कि यह तो घंटेभर पहले ही निकल चुकी है.

‘‘जब यह घर न पहुंची, तब मैं इसे ढूंढ़ने के लिए निकला. अगर आप को यकीन न हो, तो मैं बूआ को यहीं बुला लेता हूं.’’ ‘‘ठीक है, ठीक है. तुम झूठ तो नहीं बोल रहे हो,’’ पुलिस वाले ने जरा नरम पड़ते हुए कहा.

‘‘अकेली औरत को देर रात को बाहर नहीं भेजना चाहिए,’’ पुलिस वाले को जैसे अब यकीन हो गया था, इसलिए अपने तेवर ठंडे करते हुए वह बोला, ‘‘यह तो मैं समय पर आ गया, वरना वे तीनों गुंडे आप की पत्नी की न जाने क्या हालत करते. फिर आप लोग पुलिस वालों को बदनाम करते.’’ ‘‘गलती हमारी है. आगे से मैं ध्यान रखूंगा,’’ राहुल ने हाथ जोड़ कर माफी मांगते हुए कहा.

पुलिस की गाड़ी वहां से चली गई. मीना नीचे गरदन कर के खड़ी रही.

राहुल बोला, ‘‘देख लिया अकेले आने का नतीजा.’’ ‘‘राहुल, मुझे शर्मिंदा मत करो. रावण तो एक था, मगर इस 2 घंटे के समय में मुझे लगा कि आज भी कई रावण जिंदा हैं.

‘‘अगर आप नहीं आते, तो वह पुलिस वाला मुझे थाने में बैठा देता,’’ कह कर मीना ने मन को हलका कर लिया.

‘‘तो बैठो गाड़ी में…’’ गुस्से से राहुल ने कहा, ‘‘बड़ी लक्ष्मीबाई बनने चली थी.’’ मीना नजरें झुकाए चुपचाप गाड़ी में जा कर बैठ गई. Story In Hindi

Best Hindi Kahani: उस की मम्मी मेरी अम्मा – दो मांओं की कहानी

Best Hindi Kahani: दीक्षा की मम्मी उसे कार से मेरे घर छोड़ गईं. मैं संकोच के कारण उन्हें अंदर आने तक को न कह सकी. अंदर बुलाती तो उन्हें हींग, जीरे की दुर्गंध से सनी अम्मा से मिलवाना पड़ता. उस की मम्मी जातेजाते महंगे इत्र की भीनीभीनी खुशबू छोड़ गई थीं, जो काफी देर तक मेरे मन को सुगंधित किए रही.

मेरे न चाहते हुए भी दीक्षा सीधे रसोई की तरफ चली गई और बोली, ‘‘रसोई से मसालों की चटपटी सी सुगंध आ रही है. मौसी क्या बना रही हैं?’’

मैं ने मन ही मन कहा, ‘सुगंध या दुर्गंध?’ फिर झेंपते हुए बोली, ‘‘पतौड़े.’’

दीक्षा चहक कर बोली, ‘‘सच, 3-4 साल पहले दादीमां के गांव में खाए थे.’’

मैं ने दीक्षा को लताड़ा, ‘‘धत, पतौड़े भी कोई खास चीज होती है. तेरे घर उस दिन पेस्ट्री खाई थी, कितनी स्वादिष्ठ थी, मुंह में घुलती चली गई थी.’’

दीक्षा पतौड़ों की ओर देखती हुई बोली, ‘‘मम्मी से कुछ भी बनाने को कहो तो बाजार से न जाने कबकब की सड़ी पेस्ट्री उठा लाएंगी, न खट्टे में, न ढंग से मीठे में. रसोई की दहलीज पार करते ही जैसे मेरी मम्मी के पैर जलने लगते हैं. कुंदन जो भी बना दे, हमारे लिए तो वही मोहनभोग है.’’

अम्मा ने दही, सौंठ डाल कर दीक्षा को एक प्लेट में पतौड़े दिए तो उस ने चटखारे लेले कर खाने शुरू कर दिए. मैं मन ही मन सोच रही थी, ‘कृष्ण सुदामा के तंबुल खा रहे हैं, वरना दीक्षा के घर तो कितनी ही तरह के बिस्कुट रखे रहते हैं. अम्मा से कुछ बाजार से मंगाने को कहो तो तुरंत घर पर बनाने बैठ जाएंगी. ऊपर से दस लैक्चर और थोक के भाव बताने लगेंगी, ताजी चीज खाया करो, बाजार में न जाने कैसाकैसा तो तेल डालते हैं.’

दीक्षा प्लेट को चाटचाट कर साफ कर रही थी और मैं उस की मम्मी, उस के घर के बारे में सोचे जा रही थी, ‘दीक्षा की मम्मी साड़ी और मैचिंग ब्लाउज में मुसकराती हुई कितनी स्मार्ट लगती हैं. यदि वे क्लब चली जाती हैं तो कुंदन लौन में कुरसियां लगा देता है और अच्छेअच्छे बिस्कुटों व गुजराती चिवड़े से प्लेटें भरता जाता है. अम्मा तो बस कहीं आनेजाने में ही साड़ी पहनती हैं और उन के साथ लाल, काले, सफेद रूबिया के 3 साधारण ब्लाउजों से काम चला लेती हैं.’

प्लेट रखते हुए दीक्षा अम्मा से बोली, ‘‘मौसी, आप ने कितने स्वादिष्ठ पतौड़े बनाए हैं. दादी ने तो अरवी के पत्ते काट कर पतौड़े बनाए थे, पर उन में वह बात कहां जो आप के चटपटे पतौड़ों में है.’’

मैं और दीक्षा कैरम खेलने लगीं. मैं ने उस से पूछा, ‘‘मौसीजी आज कहां गई हैं?’’

दीक्षा ने उदासी से उत्तर दिया, ‘‘उन का महिला क्लब गरीब बच्चों के लिए चैरिटी शो कर रहा है, उसी में गई हैं.’’

मैं ने आश्चर्य से चहक कर कहा, ‘‘सच? मौसी घर के साथसाथ समाजसेवा भी खूब कर लेती हैं. एक मेरी अम्मा हैं कि कहीं निकलती ही नहीं. हमेशा समय का रोना रोती रहेंगी. कभी कहो कि अम्मा, मौल घुमा लाओ, तो पिताजी को साथ भेज देंगी. तुम्हारी मम्मी कितनी टिपटौप रहती हैं. अम्मा कभी हमारे साथ चलेंगी भी तो यों ही चल देंगी. दीक्षा, सच तो यह है कि मौसीजी तेरी मम्मी नहीं, वरन दीदी लगती हैं,’’ मैं मन ही मन अम्मा पर खीजी.

रसोई से अम्मा की खटरपटर की आवाज आ रही थी. वे मेरे और दीक्षा के लिए मोटेमोटे से 2 प्यालों में चाय ले आईं. दीक्षा उन से लगभग लिपटते हुए बोली, ‘‘मौसी, आप भी कमाल हैं, बच्चों का कितना ध्यान रखती हैं. आइए, आप भी कैरम खेलिए.’’

अम्मा छिपी रुस्तम निकलीं. एकसाथ 2-2, 3-3 गोटियां निकाल कर स्ट्राइकर छोड़तीं. अचानक उन को जैसे कुछ याद आया. कैरम बीच में ही छोड़ कर कहते हुए उठ गईं, ‘‘मुझे मसाले कूट कर रखने हैं. तुम लोग खेलो.’’

अम्मा के जाने के बाद दीक्षा आश्चर्य से बोली, ‘‘तुम लोग बाजार से पैकेट वाले मसाले नहीं मंगाते?’’

मेरा सिर फिर शर्म से झुक गया. रसोई से इमामदस्ते की खटखट मेरे हृदय पर हथौड़े चलाने लगी, ‘‘कई बार मिक्सी के लिए बजट बना, पर हर बार पैसे किसी न किसी काम में आते रहे. अंत में हार कर अम्मा ने मिक्सी के विचार को मुक्ति दे दी कि इमामदस्ते और सिलबट्टे से ही काम चल जाएगा. मिक्सी बातबात में खराब होती रहती है और फिर बिजली भी तो झिंकाझिंका कर आती है. ऐसे में मिक्सी रानी तो बस अलमारी में ही सजी रहेंगी.’’

मुझे टैस्ट की तैयारी करनी थी, मैं ने उस से पूछा, ‘‘मौसीजी चैरिटी शो से कब लौटेंगी? तेरे पापा भी तो औफिस से आने वाले हैं.’’

दीक्षा ने लंबी सांस ले कर उत्तर दिया, ‘‘मम्मी का क्या पता, कब लौटें? और पापा को तो अपने टूर प्रोग्रामों से ही फुरसत नहीं रहती, महीने में 4-5 दिन ही घर पर रहते हैं.’’

अतृप्ति मेरे मन में कौंधी, ‘एक अपने पिताजी हैं, कभी टूर पर जाते ही नहीं. बस, औफिस से आते ही हम भाईबहनों को पढ़ाने बैठ जाएंगे. टूर प्रोग्राम तो टालते ही रहते हैं. दीक्षा के पापा उस के लिए बाहर से कितना सामान लाते होंगे.’

मैं ने उत्सुकता से पूछा, ‘‘सच दीक्षा, फिर तो तेरा सारा सामान भारत के कोनेकोने से आता होगा?’’

दीक्षा रोनी सूरत बना कर बोली, ‘‘घर पूरा अजायबघर बन गया है और फिर वहां रहता ही कौन है? बस, पापा का लाया हुआ सामान ही तो रहता है घर में. महल्ले की औरतें व्यंग्य से मम्मी को नगरनाइन कहती हैं, उन्हें समाज कल्याण से फुरसत जो नहीं रहती. होमवर्क तक समझने को तरस जाती हूं मैं. मम्मी आती हैं तो सिर पर कस कर रूमाल बांध कर सो जाती हैं.’’

पहली बार दीक्षा के प्रति मेरे हृदय की ईर्ष्या कुछ कम हुई. उस की जगह दया ने ले ली, ‘बेचारी दीक्षा, तभी तो इसे स्कूल में अकसर सजा मिलती है. इस का मतलब अभी यह जमेगी हमारे घर.’

अम्मा ने रसोई से आ कर प्यार से कहा, ‘‘चलो दीक्षा, सीमा, कल के लिए कुछ पढ़ लो. ये आएंगे तो सब साथसाथ खाना खा लेना. उस के बाद उन से पढ़ लेना. कल तुम लोगों के 2-2 टैस्ट हैं, बेटे.’’

दीक्षा ने अम्मा की ओर देखा और मेरे साथ ही इतिहास के टैस्ट की तैयारी करने लगी. उसे कुछ भी तो याद नहीं था. उस की रोनीसूरत देख कर अम्मा उसे पाठ याद करवाने लगीं. जैसेजैसे वह उसे सरल करकर के याद करवाती जा रही थीं, उस के चेहरे की चमक लौटती जा रही थी. आत्मविश्वास उस के चेहरे पर झलकने लगा था.

पिताजी औफिस से आए तो हम सब के साथ खाना खा कर उन्होंने मुझे तथा दीक्षा को गणित के टैस्ट की तैयारी के लिए बैठा दिया. दीक्षा को पहाडे़ भी ढंग से याद नहीं थे. जोड़जोड़ कर पहाड़े वाले सवाल कर रही थी. तभी दीक्षा की मम्मी कार ले कर उसे लेने आ गईं.

अम्मा सकुचाई सी बोलीं, ‘‘दीक्षा को मैं ने जबरदस्ती खाना खिला दिया है. जो कुछ भी बना है, आप भी खा लीजिए.’’

थोड़ी नानुकुर के बाद दीक्षा की मम्मी ने हमारे उलटेसीधे बरतनों में खाना खा लिया. मैं शर्र्म से पानीपानी हो गई. स्टूल और कुरसी से डाइनिंग टेबल का काम लिया. न सौस, न सलाद. सोचा, अम्मा को भी क्या सूझी? हां, उन्होंने उड़द की दाल के पापड़ घर पर बनाए थे. अचानक ध्यान आया तो मैं ने खाने के साथ उन्हें भून दिया. दीक्षा की मम्मी ने भी दीक्षा की ही तरह हमारे घर का खाना चटखारे लेले कर खाया. फिर मांबेटी चली गईं.

अब अकसर दीक्षा की मम्मी उसे हमारे घर कार से छोड़ जातीं और रात को ले जातीं. समाज कल्याण के कार्यों में वे पहले से भी अधिक उलझती जा रही थीं. शुरूशुरू में दीक्षा को संकोच हुआ, पर धीरेधीरे हम भाईबहनों के बीच उस का संकोच कच्चे रंग सा धुल गया. पिताजी औफिस से आ कर हम सब के साथ उसे भी पढ़ाते और गलती होने पर उस की खूब खबर लेते.

मैं ने दीक्षा से पूछा, ‘‘पिताजी तुझे डांटते हैं तो कितना बुरा लगता होगा? उन्हें तुझे डांटना नहीं चाहिए.’’

दीक्षा मुसकराई, ‘‘धत पगली, मुझे अच्छा लगता है. मेरे लिए उन के पास वक्त है. दवाई भी तो कड़वी होती है, पर वह हमें ठीक भी करती है. मेरे मम्मीपापा के पास तो मुझे डांटने के लिए भी समय नहीं है.’’

मुझे दीक्षा की बुद्धि पर तरस आने लगा, ‘अपने मम्मीपापा की तुलना मेरे मातापिता से कर रही है. मेरे पिताजी क्लर्क और उस के पापा बहुत बड़े अफसर. उस की मम्मी कई समाजसेवी संस्थाओं की सदस्या, मेरी अम्मा घरघुस्सू. उस के  पापा क्लबों, टूरों में समय बिताने वाले, मेरे पिताजी ट्यूशन का पैसा बचाने में माहिर. उस की मम्मी सुंदरता का पर्याय, मेरी अम्मा को आईना देखने तक की भी फुरसत मुश्किल से ही मिल पाती है.’

अचानक दीक्षा 1 और 2 जनवरी को विद्यालय नहीं आई. यदि वह 3 जनवरी को भी नहीं आती तो उस का नाम कट जाता. इसलिए मैं 3 जनवरी को विद्यालय जाने से पूर्व उस के घर जा पहुंची. काफी देर घंटी बजाने के बाद दरवाजा खुला.

मैं आश्चर्यचकित हो दीक्षा को देखे चली जा रही थी. वह एकदम मुरझाए हुए फूल जैसी लग रही थी. मैं ने उसे मीठी डांट पिलाते हुए कहा, ‘‘दीक्षा, तू बीमार है, मुझे मैसेज तो कर देती.’’

वह फीकी सी हंसी के साथ बोली, ‘‘मम्मी पास के गांवों में बच्चों को पोलियो की दवाई पिलवाने चली जाती हैं…’’

‘‘और कुंदन?’’ मैं ने पूछा.

‘‘4-5 दिनों से गांव गया हुआ है. उस की बेटी बीमार है.’’

पहली बार मेरे मन में दीक्षा की मम्मी के लिए रोष के तीव्र स्वर उभरे, ‘‘और तू जो बीमार है तो तेरे लिए मौसीजी का समाजसेविका वाला रूप क्यों धुंधला जाता है. चैरिटी घर से ही शुरू होती है.’’ यह कह कर मैं ने उस को बिस्तर पर बैठाया.

दीक्षा ने बात पूरी की, ‘‘पर घर की  चैरिटी से मम्मी को प्रशंसा के पदक और प्रमाणपत्र तो नहीं मिलते. गवर्नर उन्हें भरी सभा में ‘कल्याणी’ की उपाधि तो नहीं प्रदान करता.’’

शो केस में सजे मौसी को मिले चमचमाते पदक, जो मुझे सदैव आकर्षित करते

थे, तब बेहद फीके से लगे. अचानक मुझे पिछली गरमी में खुद को हुए मलेरिया के बुखार का ध्यान आ गया. बोली, ‘‘दीक्षा, मुझे कहलवा दिया होता. मैं ही तेरे पास बैठी रहती. मुझे जब मलेरिया हुआ था तो मैं अम्मा को अपने पास से उठने तक नहीं देती थी. बस, मेरी आंख जरा लगती थी, तभी वे झटपट रसोई में कुछ बना आती थीं.’’

दीक्षा के सिरहाने बिस्कुट का पैकेट तथा थर्मस में गरम पानी रखा हुआ था. मैं ने उसे चाय बना कर दी. फिर स्कूल जा कर अपनी और दीक्षा की छुट्टी का प्रार्थनापत्र दे आई. लौटते हुए अम्मा को सब बताती भी आई.

पूरा दिन मैं दीक्षा के पास बैठी रही. थर्मस का पानी खत्म हो चुका था. मैं ने थर्मस गरम पानी से भर दिया. दीक्षा का मन लगाने के लिए उस के साथ वीडियो गेम्स खेलती रही.

शाम को मौसीजी लौटीं. उन की सुंदरता, जो मुझे सदैव आकर्षित करती थी, कहीं गहन वन की कंदरा में छिप गई थी. बालों में चांदी के तार चमक रहे थे. मुंह पर झुर्रियों की सिलवटें पड़ी थीं. उन में सुंदरता मुझे लाख ढूंढ़ने पर भी न मिली.

वे आते ही झल्लाईं, ‘‘यह पार्लर भी न जाने कब खुलेगा. रोज सुबहशाम चक्कर काटती हूं. आजकल मुझे न जाने कहांकहां जाना पड़ता है. कोई पहचान ही नहीं पाता. यदि पार्लर कल भी न खुला तो मैं घर पर ही बैठी रहूंगी. इस हाल में बाहर जाते हुए मुझे शर्म आती है. सभी आंखें फाड़फाड़ कर देखते हैं कि कहीं मैं बीमार तो नहीं.’’

मैं ने चैन की सांस ली कि चलो, मौसी कल से दीक्षा के पास पार्लर न खुलने की ही मजबूरी में रहेंगी. उन की सुंदरता ब्यूटीपार्लर की देन है. क्रीम की न जाने कितनी परतें चढ़ती होंगी.

मन ही मन मेरा स्वर विद्रोही हो उठा, ‘मौसी, तब भी आप को अपनी बीमार बिटिया का ध्यान नहीं आता. कुंदन, ब्यूटीपार्लर…सभी तो बारीबारी से बीमार दीक्षा की ओर संकेत करते हैं. आप ने तो यह भी ध्यान नहीं किया कि स्कूल में 3 दिनों की अनुपस्थिति में दीक्षा का नाम कटतेकटते रह गया.

‘ओह, मेरी अम्मा कितनी अच्छी हैं. उन के बिना मैं घर की कल्पना ही नहीं कर सकती. वे हमारे घर की धुरी हैं, जो पूरे घर को चलाती हैं. आप से ज्यादा तो कुंदन आप के घर को चलाने वाला सदस्य है.

मेरी अम्मा की जो भी शक्लसूरत है, वह उन की अपनी है, किसी ब्यूटीपार्लर से उधार में मांगी हुई नहीं. यदि आप का ब्यूटीपार्लर 4 दिन भी न खुले तो आप की सुंदरता दम तोड़ देती है. अम्मा ने 2 कमरों के मकान को घर बनाया हुआ है, जबकि आप का लंबाचौड़ा बंगला, बस, शानदार मगर सुनसान स्मारक सा लगता है.

‘मौसी, आप कितनी स्वार्थी हैं कि अपने बच्चों को अपना समय नहीं दे सकतीं, जबकि हमारी अम्मा का हर पल हमारा है.’

मेरा मन भटके पक्षी सा अपने नीड़ में मां के पास जाने को व्याकुल होने लगा. Best Hindi Kahani

Best Hindi Story: जरा सी बात – प्रथा का द्वंद्व

Best Hindi Story: प्रथानहीं जानती थी कि यों जरा सी बात का बतंगड़ बन जाएगा. हालांकि अपने क्षणिक आवेश का उसे भी बहुत दुख है, लेकिन अब तो बात उस के हाथ से जा चुकी है. वैसे भी विवाहित ननदों के तेवर सास से कम नहीं होते. फिर रजनी तो इस घर की लाडली छोटी बेटी थी. सब के स्नेह की इकलौती अधिकारी… उस के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे परिवार के लिए ये जरा सी बात बहुत बड़ी बात थी.

‘हां, जरा सी बात ही तो थी… क्या हुआ जो आवेश में रजनी को एक थप्पड़ लग गया. उसे इतना तूल देने की क्या जरूरत थी. वैसे भी मैं ने किसी द्ववेष से तो उसे थप्पड़ नहीं मारा था. मैं तो रजनी को अपनी छोटी बहन मानती हूं. रजनी की जगह मेरी अपनी बहन होती तो क्या इसे पी नहीं जाती. लेकिन रजनी लाख बहन जैसी होगी, बहन तो नहीं है न. इसीलिए तांडव मचा रखा है,’ प्रथा जितना सोचती उतना ही उल झती जाती. मामले को सुल झाने का कोई सिरा उस के हाथ नहीं आ रहा था.

दूसरा कोई मसला होता तो प्रथा पति भावेश को अपनी बगल में खड़ा पाती, लेकिन यहां तो मामला उस की अपनी छोटी बहन का है, जिसे रजनी ने अपने स्वाभिमान से जोड़ लिया है. अब तो भावेश भी उस से नाराज है. किसकिस को मनाए… किसकिस को सफाई दे… प्रथा सम झ नहीं पा रही थी.

हालांकि ननद पर हाथ उठते ही प्रथा को अपनी गलती का एहसास हो गया था. लेकिन वह जली हुई साड़ी बारबार उसे अपनी गलती नहीं मानने के लिए उकसा रही थी. दरअसल, प्रथा को अपनी सहेली की शादी की सालगिरह पार्टी में जाना था. भावेश पहले ही तैयार हो कर उसे देर करने का ताना मार रहा था ऊपर से जिस साड़ी को वह पहनने की सोच रही थी वह आयरन नहीं की हुई थी.

छुट्टियों में मायके आई हुई ननद ने लाड़ दिखाते हुए भाभी की साड़ी को आयरन करने की जिम्मेदारी ले ली. प्रथा ननद पर री झती हुई बाथरूम में घुस गई. इधर ननदोईजी का फोन आ गया और उधर रजनी बातों में डूब गई. बातों में व्यस्त रजनी आयरन को साड़ी पर से उठाना भूल गई और जब प्रथा बाथरूम से निकली तो अपनी साड़ी को जलते देख कर अपना होश खो बैठी. उस ने ननद को उस की गलती का एहसास करवाने के लिए गुस्से में उस से मोबाइल छीनने की कोशिश की, लेकिन खतरे से अनजान रजनी के अचानक मुंह घुमा लेने से प्रथा का हाथ उस के गाल पर लग गया जिसे उस ने ‘थप्पड़’ कह कर पूरे घर को सिर पर उठा लिया.

देखते ही देखते घर में भूचाल आ गया. घर भर की लाडली बहू अचानक किसी खलनायिका सी अप्रिय हो गई.

मनहूसियत के साए में भी भला कभी रूमानियत खिली है? प्रथा का पार्टी में जाना तो कैंसिल होना ही था. अब सासननद तो रसोई में घुसने से रही क्योंकि वह तो पीडि़त पक्ष था. लिहाजा प्रथा को ही रात के खाने में जुटना पड़ा.

खाने की मेज पर सब के मुंह चपातियों की तरह फूले हुए थे. ननद ने खाने की तरफ देखना तो दूर खाने की मेज पर आने तक से इनकार कर दिया. सास ने बहुत मनाया कि किसी तरह दो कौर हलक से नीचे उतार ले, लेकिन रूठी हुई रानियां भी भला बनवास से कम मानी हैं कभी?

रजनी की जिद थी कि भाभी उस से माफी मांगे. सिर्फ दिखावे भर की नहीं, बल्कि पश्चात्ताप के आंसुओं से तर माफी. उधर प्रथा इसे अपनी गलती ही नहीं मान रही थी तो माफी और पश्चात्ताप का तो प्रश्न ही नहीं उठता, बल्कि वह तो चाह रही थी कि रजनी को उस की कीमती साड़ी जलाने का अफसोस करते हुए स्वयं उस से माफी मांगनी चाहिए.

जिस तरह से एक घर में 2 महत्त्वाकांक्षाएं नहीं रह सकतीं उसी तरह से यहां भी यह जरा सी बात अब प्रतिष्ठा का सवाल बनने लगी थी. रजनी अब यहां एक पल रुकने को तैयार नहीं थी. वहीं सास को डर था कि बात समधियाने तक जाएगी तो बेकार ही धूल उड़ेगी. किसी तरह सास उसे मामला सुलटने तक रुकने के लिए मना सकी. एक उम्मीद भी थी कि हो सकता है 1-2 दिन में प्रथा को अपनी गलती का एहसास हो जाए.

ससुरजी का कमरा और सास की अध्यक्षता… देर रात तक चारों की मीटिंग चलती रही. प्रथा इस मीटिंग से बहिष्कृत थी. अपने कमरे में विचारों में डूबी प्रथा के लिए पति को अपने पक्ष में करना कठिन नहीं था. पुरुष की नाराजगी भला होती ही कितनी देर तक है… कामिनी स्त्री की पहल जितनी ही न… एक रति शस्त्र में ही पुरुष घुटनों पर आ जाता है. लेकिन आज प्रथा इस अमोघ बाण को चलाने के मूड में भी तो नहीं थी. वह भी देखना चाहती थी कि इस ससुरजी के कमरे में होने वाले मंथन से उस के हिस्से में क्या आता है. जानती थी कि हलाहल ही होगा लेकिन बस आधिकारिक घोषणा का इंतजार कर रही थी.

ढलती रात भावेश ने कमरे में प्रवेश किया. प्रथा जागते हुए भी सोने का नाटक करती रही. भावेश ने उस की कमर के गिर्द घेरा डाल दिया. प्रथा ने कसमसा कर अपना मुंह उस की तरफ घुमाया.

‘‘प्रथा, तुम सुबह रजनी से माफी मांग लेना. बड़ी मुश्किल से उसे इस बात के लिए राजी कर पाए हैं कि वह इस बात को यहीं खत्म कर दे,’’ भावेश ने अपनी आवाज को यथासंभव धीरे रखा ताकि बात बैडरूम से बाहर न जाए.

उस का प्रस्ताव सुनते ही प्रथा के सीने में जलन होने लगी. बोली, ‘‘भावेश तुम भी… जिस ने गलती की उसी का पक्ष ले रहे हो?  एक तो तुम्हारी उस नकचढ़ी बहन ने मेरी इतनी कीमती साड़ी जला दी, ऊपर से तुम चाहते हो कि मैं नाराजगी जाहिर करने का अपना अधिकार भी खो दूं? गिर जाऊं उस के पैरों में? नहीं, मु झ से यह नहीं होगा… किसी सूरत में नहीं.’’

‘‘साड़ी ही तो थी न, जाने दो. मैं वैसी 5 नई ला दूंगा. तुम प्लीज उस से माफी मांग लो,’’ भावेश ने फिर खुशामद की. मगर प्रथा ने कोई जवाब नहीं दिया और पीठ फेर कर सो गई, जो उस के स्पष्ट इनकार का द्योतक था. भावेश ने उसे मजबूत बांह से पकड़ कर जबरदस्ती अपनी तरफ फेरा. प्रथा को उस की यह हरकत बहुत ही नागवार लगी.

‘‘एक थप्पड़ ही तो मारा था न… वह भी उस की गलती पर. यदि वह तुम्हारी

बहन न हो कर मेरी बहन होती तब भी क्या ऐसा ही बवाल मचता? नहीं न? बात आईगई हो जाती. तुम बहनभाई कभी आपस में नहीं लड़े क्या? क्या तुम ने या तुम्हारे मांपापा ने आज तक कभी उस पर हाथ नहीं उठाया? फिर आज ये महाभारत क्यों छिड़ गई?’’ प्रथा ने उस का हाथ  झटकते हुए कहा.

भावेश ने बात आगे न बढ़ाना ही उचित सम झा. उस रात शायद घर का कोई भी सदस्य नहीं सोया होगा. सब अपनेअपने मन को मथ रहे थे. विचारों की झड़ी लगी थी. रजनी अपनी मां के आंचल को भिगो रही थी तो प्रथा तकिए को.

सुबह प्रथा ने अपनी नैतिक जिम्मेदारी सम झते हुए सब को चाय थमाई, लेकिन आज इस चाय में किसी को कोई मिठास महसूस नहीं हुई. रजनी और सास ने तो कप को छुआ तक नहीं. बस, घूरती रहीं. हरकोई बातचीत शुरू होने की प्रतीक्षा कर रहा था.

‘‘भाई, तुम किसे ज्यादा प्यार करते हो मु झे या अपनी बीवी को?’’ अचानक रजनी का अटपटा प्रश्न सुन कर भावेश चौंक गया. उस ने अपनी मां की तरफ देखा. मां ने कन्नी काट ली. पिता ने अपना सिर अखबार में घुसा लिया. प्रथा की निगाहें भी भावेश के चेहरे पर टिक गई.

‘‘यह कैसा बेतुका प्रश्न है?’’ भावेश ने धर्मसंकट से बचना चाहा, लेकिन यह इतना आसान कहां था.

‘‘अटपटाचटपटा मैं नहीं जानती. आप जवाब दो कि यदि आप को बहन औैर बीवी में से एक को चुनना पड़े तो आप किसे चुनेंगे?’’ रजनी ने उसे रणछोड़ नहीं बनने दिया.

भावेश ने देखा कि प्रथा बिना उस के जवाब की प्रतीक्षा किए बाथरूम में घुस गई. उस ने राहत की सांस ली. वह रजनी की बगल वाली कुरसी पर आ कर बैठ गया. भावेश ने स्नेह से बहन की गले में अपने हाथ डाल धीरे से गुनगुनाया, ‘‘फूलों का तारों का…सब कहना है…एक हजारों में… मेरी बहना है…’’

दृश्य देख कर मां मुसकराई. पिता का सीना गर्व से चौड़ा हो गया. रजनी को अपने प्रश्न का जवाब मिल गया था.

‘‘भाई, यदि आप मु झे सचमुच प्यार करते हो तो भाभी को तलाक दे दो,’’ रजनी ने भाई के कंधे पर सिर टिकाते हुए कहा. उस की आंखें  झर रही थीं.

बहन की बात सुनते ही भावेश को सांप सूंघ गया. उस ने रजनी का मुंह अपने हाथों में ले लिया, ‘‘यह क्या कह रही हो तुम? जरा सी बात पर इतना बड़ा फैसला? तलाक का मतलब जानती हो न? एक बार फिर से सोच कर देखो. मेरे खयाल से प्रथा की गलती इतनी बड़ी तो नहीं है जितनी बड़ी तुम सजा तय कर रही हो,’’ भावेश ने रजनी को सम झाने की कोशिश की. फिर अपनी बात के समर्थन में उस ने मांपापा की तरफ देखा, लेकिन मां ने अनसुना कर दिया और पापा तो पहले से ही अखबार में घुसे हुए थे. भावेश निराश हो गया.

‘‘जरा सी बात? क्या बहन के स्वाभिमान पर चोट भाई के लिए जरा सी बात हो सकती है? हम बहनें इसी दिन के लिए राखियां बांधती हैं क्या?’’ रजनी ने गुस्से से कहा.

‘‘रजनी ठीक ही कहती है. वो 2 साल की ब्याही लड़की तुम्हें अपनी सगी बहन से ज्यादा प्यारी हो गई? आज उस ने रजनी से माफी मांगने से मना किया है कल को सासससुर की इज्जत को भी फूंक मार देगी,’’ बहनभाई की बहस को नतीजे पर पहुंचाने की मंशा से मां बोली.

‘‘मनरेगा में बरसात से पहले ही नदीनालों पर बांध बनवाए जा रहे हैं ताकि तबाही होने से रोकी जा सके. सरकार का यह फैसला प्रशंसनीय है,’’ पापा ने अखबार की खबर पढ़ कर सुनाई.

भावेश सम झ गया कि इन का पलड़ा भी बेटी की तरफ ही  झुका हुआ है. कहां तो भावेश सोच रहा था कि इस बार बहन के प्यार को रिश्तों के पलड़े पर रख कर मकान पर उस के हिस्से वाले आधे भाग को भी अपने नाम करवा लेगा, लेकिन यहां तो खुद उस का प्यार ही पलडे़ पर रखा जा रहा है. प्रथा का थप्पड़ उस के मंसूबों की लिखावट पर पानी फेर रहा है. उस ने वैभव ने प्रथा को शीशे में उतारना तय कर लिया. वह इस जरा सी बात के लिए अपना इतना बड़ा नुकसान नहीं कर सकता. फिर वैसे भी यदि वह नुकसान में होगा तो प्रथा भी कहां फायदे में रहेगी.

रजनी दिनभर अपने कमरे में पड़ी रही. सब ने कोशिश कर देख ली, लेकिन वह तो प्रथा को तलाक देने की बात पर अड़ ही गई. हालांकि सब को उस की यह जिद बचकानी ही लग रही थी, लेकिन मन में कहीं न कहीं यह भय भी सिर उठा रहा था कि इस बार की जीत कहीं प्रथा के सिर पर सींग न उगा दे. कहीं ऐसा न हो कि वह छोटेबड़े का लिहाज ही बिसरा दे…  झाडि़यों को बेतरतीब होने से पहले ही कतर देना ठीक रहता है. इसलिए प्रथा को एक सबक सिखाने के पक्ष में तो सभी थे.

‘‘प्रथा, सुनो न,’’ रात को सोने से पहले भावेश ने स्वर पर चाशनी चढ़ाई. प्रथा ने सिर्फ आंखों से पूछा, ‘‘क्या है?’’

‘‘रजनी को सौरी बोल भी दो न. उस का बालहठ सम झ कर. जरा सोचो. यदि यह बात उस की ससुराल चली गई तो वे लोग हमारे बारे में क्या सोचेंगे खासकर तुम्हारे बारे में? तुम जानती हो न कि रजनी के ससुरजी तुम्हें कितना मान देते हैं,’’ भावेश ने निशाना साध कर चोट की. निशाना लगा भी सही जगह पर प्रहार अधिक दमदार न होने के कारण अपने लक्ष्य को बेध नहीं सका.

‘‘इसे बालहठ नहीं इसे तिरिया हठ कहते हैं.’’ प्रथा ने ननद पर व्यंग्य कसते हुए पति के कमजोर ज्ञान पर तीर चला दिया.

भावेश को पत्नी की यह बात खली तो बहुत, लेकिन मौके की नजाकत को भांपते हुए उस ने इसे खुशीखुशी सह लिया.

‘‘अरे हां, तुम तो साहित्य में मास्टर्स हो. वह कहावत सुनी ही होगी कि जरूरत पड़ने पर गधे को भी बाप बनाना पड़ता है. सम झ लो कि आज अपनी जरूरत है और हमें रजनी को मनाना है,’’ भावेश ने आवेश में प्रथा के हाथ पकड़ लिए.

कहावत के अनुसार उस में रजनी के पात्र की कल्पना कर के अनायास प्रथा के चेहरे पर मुसकान आ गई. भावेश को लगा मानो अब उस के प्रयास सही दिशा में जा रहे हैं. उस ने प्रथा को सारी बात बताते हुए उसे अपनी योजना में शामिल कर लिया.

रूठे हुए पतिपत्नी के मिलन के बीच एक प्यारभरी मनुहार की ही तो दूरी होती है. अभिसार के एक इसरार के साथ ही यह दूरी खत्म हो गई. शक्कर के दूध में घुलते ही उस की मिठास कई गुणा बढ़ जाती है.

अगली सुबह प्रथा को सब को गुनगुनाते हुए चाय बनाते देखा तो इस परिवर्तन पर किसी को यकीन नहीं हुआ. भावेश अवश्य राजभरी पुलक के साथ मेज पर हाथों से तबला बजा रहा था. मांपापा उठ कर कमरे से बाहर आ चुके थे. रजनी अभी भी भीतर ही थी. प्रथा ने 3 कप चाय बाहर रखे और 2 कप ले कर रजनी को उठाने चल दी. मांपापा की आंखें लगातार उस का पीछा कर रही थीं.

‘‘आई एम सौरी रजनी. मु झे इस तरह रिएक्ट नहीं करना चाहिए था. प्लीज, मु झे माफ कर दो,’’ प्रथा ने बिस्तर में गुमसुम बैठी ननद के पास बैठते हुए कहा.

रजनी को सुबहसुबह इस माफीनामे की उम्मीद नहीं थी. वह अचकचा गई.

‘‘कल तक मैं इसे जरा सी बात ही सम झ रही थी औैर तुम्हारी जिद को तुम्हारा बचपना, लेकिन कल रात जब से मैं ने ‘थप्पड़’, मूवी देखी है तब से तुम्हारे दर्द को बहुत नजदीक से महसूस कर पा रही हूं. मैं इस बात से शर्मिंदा हूं कि एक स्त्री हो कर मैं तुम्हारे स्वाभिमान की रक्षा नहीं कर पाई. मैं सचमुच तुम से माफी मांगती हूं… दिल से.’’

रजनी ने देखा प्रथा की पलकें सचमुच नम थी. उस ने एक पल सोचा और फिर भाभी के गले में बाहें डाल दीं. भावेश खुश था कि वह अपनी योजना को अमलीजामा पहनाने में कामयाब हुआ. मांपापा खुश थे, क्योंकि बेटी भी खुश थी और रजनी भी, क्योंकि एक स्त्री ने दूसरी स्त्री के स्वाभिमान को पोषित किया था. Best Hindi Story

Hindi Story: कौन चरित्रहीन – मांगी बच्चों की कस्टडी

Hindi Story: उसके हाथों में कोर्ट का नोटिस फड़फड़ा रहा था. हत्प्रभ सी बैठी थी वह… उसे एकदम जड़वत बैठा देख कर उस के दोनों बच्चे उस से चिपक गए. उन के स्पर्श मात्र से उस की ममता का सैलाब उमड़ आया और आंसू बहने लगे. आंसुओं की धार उस के चेहरे को ही नहीं, उस के मन को भी भिगो रही थी. न जाने इस समय वह कितनी भावनाओं की लहरों पर चढ़उतर रही थी. घबराहट, दुख, डर, अपमान, असमंजस… और न जाने क्याक्या झेलना बाकी है अभी. संघर्षों का दौर है कि थमने का नाम ही नहीं ले रहा है. जब भी उसे लगता कि उस की जिंदगी में अब ठहराव आ गया है, सबकुछ सामान्य हो गया है कि फिर उथलपुथल शुरू हो जाती है.

दोनों बच्चों को अकेले पालने में जो उस ने मुसीबतें झेली थीं, उन के स्थितियों को समझने लायक बड़े होने के बाद उस ने सोचा था कि वे कम हो जाएंगी और ऐसा हुआ भी था. पल्लवी 11 साल की हो गई थी और पल्लव 9 साल का. दोनों अपनी मां की परेशानियों को न सिर्फ समझने लगे थे वरन सचाई से अवगत होने के बाद उन्होंने अपने पापा के बारे में पूछना भी छोड़ दिया था. पिता की कमी वे भी महसूस करते थे, पर नानी और मामा से उन के बारे में थोड़ाबहुत जानने के बाद वे दोनों एक तरह से मां की ढाल बन गए थे. वह नहीं चाहती थी कि उस के बच्चों को अपने पापा का पूरा सच मालूम हो, इसलिए कभी विस्तार से इस बारे में बात नहीं की थी. उसे अपनी ममता पर भरोसा था कि उस के बच्चे उसे गलत नहीं समझेंगे.

कागज पर लिखे शब्द मानो शोर बन कर उस के आसपास चक्कर लगा रहे थे, ‘चरित्रहीन, चरित्रहीन है यह… चरित्रहीन है इसलिए इसे बच्चों को अपने पास रखने का भी हक नहीं है. ऐसी स्त्री के पास बच्चे सुरक्षित कैसे रह सकते हैं? उन्हें अच्छे संस्कार कैसे मिल सकते हैं? इसलिए बच्चों की कस्टडी मुझे मिलनी चाहिए… एक पिता होने के नाते मैं उन का ध्यान ज्यादा अच्छी तरह रख सकता हूं और उन का भविष्य भी सुरक्षित कर सकता हूं…’

चरित्रहीन शब्द किसी हथौड़े की तरह उस के अंतस पर प्रहार कर रहा था. मां को रोता देख पल्लवी ने कोर्ट का कागज मां के हाथों से ले लिया. ज्यादा कुछ तो समझ नहीं आया. पर इतना अवश्य जान गई कि मां पर इलजाम लगाए जा रहे हैं.

‘‘पल्लव तू सोने जा,’’ पल्लवी ने कहा तो वह बोला, ‘‘मैं कोई छोटा बच्चा नहीं हूं. सब जानता हूं. हमारे पापा ने नोटिस भेजा है और वे चाहते हैं कि हम उन के पास जा कर रहें. ऐसा कभी नहीं होगा. मम्मी आप चिंता न करें. मैं ने टीवी में एक सीरियल में देखा था कि कैसे कोर्ट में बच्चों को लेने के लिए लड़ाई होती है. मैं नहीं जाऊंगा पापा के पास. दीदी आप भी नहीं जाना.’’

पल्लव की बात सुन कर वह हैरान रह गई. सही कहते हैं लोग कि वक्त किसी को भी परिपक्व बना सकता है.

‘‘मैं भी नहीं जाऊंगी उन के पास और कोर्ट में जा कर कह दूंगी कि हमें मम्मी के पास ही रहना है. फिर कैसे ले जाएंगे वे हमें. मुझे तो उन की शक्ल तक याद नहीं. इतने सालों तक एक बार भी हम से मिलने नहीं आए. फिर अब क्यों ड्रामा कर रहे हैं?’’ पल्लवी के स्वर में रोष था.

कोई गलती न होने पर भी वह इस समय बच्चों से आंख नहीं मिला पा रही थी. छि: कितने गंदे शब्द लिखे हैं नोटिस में… किसी तरह उस ने उन दोनों को सुलाया.

रात की कालिमा परिवेश में पसर चुकी थी. उसे लगा कि अंधेरा जैसे धीरेधीरे उस की ओर बढ़ रहा है. इस बार यह अंधेरा उस के बच्चों को छीनने के लिए आ रहा है. भयभीत हो उस ने बच्चों की ओर देखा… नहीं, वह अपने बच्चों को अपने से दूर नहीं होने देगी… अपने जिगर के टुकड़ों को कैसे अलग कर सकती है वह?

तब कहां गया था पिता का अधिकार जब उसे बच्चों के साथ घर छोड़ने पर मजबूर किया गया था? बच्चों की बगल में लेट कर उस ने उन के ऊपर हाथ रख दिया जैसे कोई सुरक्षाकवच डाल दिया हो.

उस के दिलोदिमाग में बारबार चरित्रहीन शब्द किसी पैने शीशे की तरह चुभ रहा था. कितनी आसानी से इस बार उस पर एक और आरोप लगा दिया गया है और विडंबना तो यह है कि उस पर चरित्रहीन होने का आरोप लगाया गया है जिसे कभी झल्ली, मूर्ख, बेअक्ल और गंवारकहा जाता था. आभा को लगा कि नरेश का स्वर इस कमरे में भी गूंज रहा है कि तुम चरित्रहीन हो… तुम चरित्रहीन हो… उस ने अपने कानों पर हाथ रख लिए. सिर में तेज दर्द होने लगा था.

समय के साथ शब्दों ने नया रूप ले लिया, पर शब्दों की व्यूह रचना तो बरसों पहले ही हो चुकी थी. अचानक ‘तुम गंवार हो… तुम गंवार हो…’ शब्द गूंजने लगे… आभा घिरी हुई रात के बीच अतीत के गलियारों में भटकने लगी…

‘‘मांबाप ने तुम जैसी गंवार मेरे पल्ले बांध मेरी जिंदगी खराब कर दी है. तुम्हारी जगह कोई पढ़ीलिखी, नौकरीपेशा बीवी होती तो मुझे कितनी मदद मिल जाती. एक की कमाई से घर कहां चलता है. तुम्हें तो लगता है कि घर संभाल रही हो तो यही तुम्हारी बहुत बड़ी क्वालिफिकेशन है. अरे घर का काम तो मेड भी कर सकती है, पर कमा कर तो बीवी ही दे सकती है,’’ नरेश हमेशा उस पर झल्लाता रहता.

आभा ज्यादातर चुप ही रहती थी. बहुत पढ़ीलिखी न सही पर ग्रैजुएट थी. बस आगे कोई प्रोफैशनल कोर्स करने का मौका ही नहीं मिला. कालेज खत्म होते ही शादी कर दी गई. सोचा था शादी के बाद पढ़ेगी, पर सासससुर, देवर, ननद और गृहस्थी के कामों में ऐसी उलझी कि अपने बारे में सोच ही नहीं पाई. टेलैंट उस में भी है. मूर्ख नहीं है. कई बार उस का मन करता कि चिल्ला कर एक बार नरेश को चुप ही करा दे, पर सासससुर की इज्जत का मान रखते हुए उस ने अपना मुंह ही सी लिया. घर में विवाद हो, यह वह नहीं चाहती थी.

मगर मन ही मन ठान जरूर लिया था कि वह पढ़ेगी और स्मार्ट बन कर दिखाएगी…

स्मार्ट यानी मौडर्न और वह भी कपड़ों से…

ऐसी नरेश की सोच थी… पर वह स्मार्टनैस सोच में लाने में विश्वास करती थी. जल्दीजल्दी 2 बच्चे हो गए, तो उस की कोशिशें फिर ठहर गईं. बच्चों की अच्छी परवरिश प्राथमिकता बन गई. मगर खर्चे बढ़े तो नरेश की झल्लाहट भी बढ़ गई. बहन की शादी पर लिया कर्ज, भाई की भी पढ़ाई और मांबाप की भी जिम्मेदारी… गलती उस की भी नहीं थी. वह समझ रही थी इसलिए उस ने सिलाई का काम करने का प्रस्ताव रखा, ट्यूशन पढ़ाने का प्रस्ताव रखा पर गालियां ही मिलीं.

‘‘कोई सौफिस्टिकेटेड जौब कर सकती हो तो करो… पर तुम जैसी गंवार को कौन नौकरी देगा. बाहर निकल कर उन वर्किंग वूमन को देखो… क्या बढि़या जिंदगी जीती हैं. पति का हाथ भी बंटाती हैं और उन की शान भी बढ़ाती हैं.’’

आभा सचमुच चाहती थी कि कुछ करे. मगर वह कुछ सोच पाती उस से पहले ही विस्फोट हो गया.

‘‘निकल जा मेरे घर से… और अपने इन बच्चों को भी ले जा. मुझे तेरी जैसी गंवार की जरूरत नहीं… मैं किसी नौकरीपेशा से शादी करूंगा. तेरी जैसी फूहड़ की मुझे कोई जरूरत नहीं.’’

सकते में आ गई थी वह. फूहड़ और गंवार मैं हूं कि नरेश… कह ही नहीं पाई वह.

सासससुर के समझाने पर भी नरेश नहीं माना. उस के खौफ से सभी डरते थे. उस के चेहरे पर उभरे एक राक्षस को देख उस समय वह भी डर गई थी. सोचा कुछ दिनों में जब उस का गुस्सा शांत हो जाएगा, वह वापस आ जाएगी. 2 साल की पल्लवी और 1 साल के पल्लव को ले कर जब उस ने घर की देहरी के बाहर पांव रखा था तब उसे क्या पता था कि नरेश का गुस्सा कभी शांत होगा ही नहीं.

मायके में आ कर भाईभाभी की मदद व स्नेह पा कर उस ने ह्यूमन रिसोर्स मैनेजमैंट की पढ़ाई की. फिर जब एक कंपनी में उसे नौकरी मिली तो लगा कि अब उस के सारे संघर्ष खत्म हो गए हैं. बच्चों को अच्छे स्कूल में डाल दिया. खुद का किराए पर घर ले लिया.

इतने सालों बाद फिर से यह झंझावात कहां से आ गया. यह सच है कि नरेश ने तलाक नहीं लिया था, पर सुनने में आया था कि किसी पैसे वाली औरत के साथ ऐसे ही रह रहा था. सासससुर गांव चले गए थे और देवर अपना घर बसा कर दूसरे शहर में चला गया था. फिर अब बच्चे क्यों चाहिए उसे…

वह इस बार हार नहीं मानेगी… वह लड़ेगी अपने हक के लिए. अपने बच्चों की खातिर. आखिर कब तक उसे नरेश के हिसाब से स्वयं को सांचे में ढालते रहना होगा. उसे अपने अस्तित्व की लड़ाई तो लड़नी ही होगी. आखिर कैसे वह जब चाहे जैसा मरजी इलजाम लगा सकता है और फिर किस हक से… अब वह तलाक लेगी नरेश से.

अदालत में जज के सामने खड़ी थी आभा. ‘‘मैं अपने बच्चों को किसी भी हालत में इसे नहीं सौंप सकती हूं. मेरे बच्चे सिर्फ मेरे हैं. पिता का कोई दायित्व कब निभाया है इस आदमी ने…’’

‘‘तुम्हारी जैसी महत्त्वाकांक्षी, रातों को देर तक बाहर रहने वाली, जरूरत से ज्यादा स्मार्ट और मौडर्न औरत के साथ बच्चे कैसे सुरक्षित रह सकते हैं? पुरुषों के साथ मीटिंग के बहाने बाहर जाती है, उन से हंसहंस कर बातें करती है… मैं ने इसे छोड़ दिया तो क्या यह अब किसी भी आदमी के साथ घूमने के लिए आजाद है? जज साहब, मैं इसे अभी भी माफ करने को तैयार हूं. यह चाहे तो वापस आ सकती है. मैं इसे अपना लूंगा.’’

‘‘नहीं. कभी नहीं. तुम इसलिए मुझे अपनाना चाहते हो न, क्योंकि मैं अब कमाती हूं. तुम्हें उस अमीर औरत ने बेइज्जत कर के बाहर निकाल दिया है और तुम चाहते हो कि मैं तुम्हें कमा कर खिलाऊं? नरेश मैं तुम्हारे हाथों की कठपुतली बनने को तैयार नहीं हूं और न ही तुम्हें बच्चों की कस्टडी दूंगी. हां, तुम से तलाक जरूर लूंगी.

‘‘जज साहब अगर बच्चों को अच्छी जिंदगी देने के लिए मेहनत कर पैसा कमाना चारित्रहीनता की निशानी है तो मैं चरित्रहीन हूं. जब मैं घर की देहरी के अंदर खुश थी तो मुझे गंवार कहा गया, जब मैं ने घर की देहरी के बाहर पांव रखा तो मैं चरत्रिहीन हो गई. आखिर यह कैसी पुरुष मानसिकता है… अपने हिसाब से तोड़तीमरोड़ती रहती है औरत के अस्तित्व को, उस की भावनाओं को अपने दंभ के नीचे कुचलती रहती है… मुझे बताइए मैं चरित्रहीन हूं या नरेश जैसा पुरुष?’’ आभा के आंसू बांध तोड़ने को आतुर हो उठे थे. पर उस ने खुद को मजबूती से संभाला.

‘‘मैं तुम्हें तलाक देने को तैयार नहीं हूं. तुम भिजवा दो तलाक का नोटिस. चक्कर लगाती रहना फिर अदालत के बरसों तक,’’ नरेश फुफकारा था.

केस चलता जा रहा था. पल्लवी और पल्लव को आभा को न चाहते हुए भी केस में घसीटना पड़ा. जज ने कहा कि बच्चे इतने बड़े हैं कि उन से पूछना जरूरी है कि वे किस के साथ रहना चाहते हैं.

‘‘हम इस आदमी को जानते तक नहीं हैं. आज पहली बार देख रहे हैं. फिर इस के साथ कैसे जा सकते हैं? हम अपनी मां के साथ ही रहेंगे.’’

अदालत में 2 साल तक केस चलने के बाद जज साहब ने फैसला सुनाया, ‘‘नरेश को बच्चों की कस्टडी नहीं मिल सकती और आभा पर मानसिक रूप से अत्याचार करने व उस की इज्जत पर कीचड़ उछालने के जुर्म में उस पर मानहानि का मुकदमा चलाया जाए. ऐसी घृणित सोच वाले पुरुष ही औरत की अस्मिता को लहूलुहान करते हैं और समाज में उसे सम्मान दिलाने के बजाय उस के सम्मान को तारतार कर जीवन में आगे बढ़ने से रोकते हैं. आभा को परेशान करने के एवज में नरेश को उन्हें क्व5 लाख का हरजाना भी देना होगा.’’

आभा ने नरेश के आगे तलाक के पेपर रख दिए. बुरी तरह से हारे हुए नरेश के सामने कोई विकल्प ही नहीं बचा था. दोनों बच्चों के लिए तो वह एक अजनबी ही था. कांपते हाथों से उस ने पेपर्स पर साइन कर दिए. अदालत से बाहर निकलते हुए आभा के कदमों में एक दृढ़ता थी. दोनों बच्चों ने उसे कस कर पकड़ा था. Hindi Story

Story In Hindi: हत्या या आत्महत्या – क्या हुआ था अनु के साथ?

Story In Hindi: अनु के विवाह समारोह से उस की विदाई होने के बाद रात को लगभग 2 बजे घर लौटी थी. थकान से सुबह 6 बजे गहरी नींद में थी कि अचानक अनु के घर से, जो मेरे घर के सामने ही था, जोरजोर से विलाप करने की आवाजों से मैं चौंक कर उठ गई. घबराई हुई बालकनी की ओर भागी. उस के घर के बाहर लोगों की भीड़ देख कर किसी अनहोनी की कल्पना कर के मैं स्तब्ध रह गई. रात के कपड़ों में ही मैं बदहवास उस के घर की ओर दौड़ी. ‘अनु… अनु…’ के नाम से मां को विलाप करते देख कर मैं सकते में आ गई.

किसी से कुछ पूछने की हिम्मत नहीं हो रही थी. लेकिन मुझे वहां की स्थिति देख कर समझने में देर नहीं लगी. तो क्या अनु ने वही किया, जिस का मुझे डर था? लेकिन इतनी जल्दी ऐसा करेगी, इस का मुझे अंदेशा नहीं था. कैसे और कहां, यह प्रश्न अनुत्तरित था, लेकिन वास्तविकता तो यह कि अब वह इस दुनिया में नहीं रही. यह बहुत बड़ी त्रासदी थी. अभी उम्र ही क्या थी उस की…? मैं अवाक अपने मुंह पर हाथ रख कर गहन सोच में पड़ गई.

मेरा दिमाग जैसे फटने को हो रहा था. कल दुलहन के वेश में और आज… पलक झपकते ही क्या से क्या हो गया. मैं मन ही मन बुदबुदाई. मेरी रूह अंदर तक कांप गई. वहां रुकने की हिम्मत नहीं हुई और क्यों कर रुकूं… यह घर मेरे लिए उस के बिना बेगाना है. एक वही तो थी, जिस के कारण मेरा इस घर में आनाजाना था, बाकी लोग तो मेरी सूरत भी देखना नहीं चाहते.

मैं घर आ कर तकिए में मुंह छिपा कर खूब रोई. मां ने आ कर मुझे बहुत सांत्वना देने की कोशिश की तो मैं उन से लिपट कर बिलखते हुए बोली, ‘‘मां, सब की माएं आप जैसे क्यों नहीं होतीं? क्यों लोग अपने बच्चों से अधिक समाज को महत्त्व देते हैं? क्यों अपने बच्चों की खुशी से बढ़ कर रिश्तेदारों की प्रतिक्रिया का ध्यान रखते हैं? शादी जैसे व्यक्तिगत मामले में भी क्यों समाज की दखलंदाजी होती है? मांबाप का अपने बच्चों के प्रति यह कैसा प्यार है जो सदियों से चली आ रही मान्यताओं को ढोते रहने के लिए उन के जीवन को भी दांव पर लगाने से नहीं चूकते? कितना प्यार करती थी वह जैकब से? सिर्फ वह क्रिश्चियन है…? प्यार क्या धर्म और जाति देख कर होता है? फिर लड़की एक बार मन से जिस के साथ जुड़ जाती है, कैसे किसी दूसरे को पति के रूप में स्वीकार करे?’’ रोतेरोते मन का सारा आक्रोश अपनी मां के सामने उगल कर मैं थक कर उन के कंधे पर सिर रख कर थोड़ी देर के लिए मौन हो गई.

पड़ोसी फर्ज निभाने के लिए मैं अपनी मां के साथ अनु के घर गई. वहां लोगों की खुसरफुसर से ज्ञात हुआ कि विदा होने के बाद गाड़ी में बैठते ही अनु ने जहर खा लिया और एक ओर लुढ़क गई तो दूल्हे ने सोचा कि वह थक कर सो गई होगी. संकोचवश उस ने उसे उठाया नहीं और जब कार दूल्हे के घर के दरवाजे पर पहुंची तो सास तथा अन्य महिलाएं उस की आगवानी के लिए आगे बढ़ीं. जैसे ही सास ने उसे गाड़ी से उतारने के लिए उस का कंधा पकड़ा उन की चीख निकल गई. वहां दुलहन की जगह उस की अकड़ी हुई लाश थी. मुंह से झाग निकल रहा था.

चीख सुन कर सभी लोग दौड़े आए और दुलहन को देख कर सन्न रह गए.

दहेज से लदा ट्रक भी साथसाथ पहुंचा. लेकिन वर पक्ष वाले भले मानस थे, उन्होंने सोचा कि जब बहू ही नहीं रही तो उस सामान का वे क्या करेंगे? इसलिए उसी समय ट्रक को अनु के घर वापस भेज दिया. उन के घर में खुशी की जगह मातम फैल गया. अनु के घर दुखद खबर भिजवा कर उस का अंतिम संस्कार अपने घर पर ही किया. अनु के मातापिता ने अपना सिर पीट लिया, लेकन अब पछताए होत क्या, जब चिडि़यां चुग गई खेत.

एक बेटी समाज की आधारहीन परंपराओं के तहत तथा उन का अंधा अनुकरण करने वाले मातापिता की सोच के लिए बली चढ़ गई. जीवन हार गया, परंपराएं जीत गईं.

अनु मेरे बचपन की सहेली थी. एक साथ स्कूल और कालेज में पढ़ी, लेकिन जैसे ही उस के मातापिता को ज्ञात हुआ कि मैं किसी विजातीय लड़के से प्रेम विवाह करने वाली हूं, उन्होंने सख्ती से उस पर मेरे से मिलने पर पाबंदी लगाने की कोशिश की, लेकिनउस ने मुझ से मिलनेजुलने पर मांबाप की पाबंदी को दृढ़ता से नकार दिया. उन्हें क्या पता था कि उन की बटी भी अपने सहपाठी, ईसाई लड़के जैकब को दिल दे बैठी है. उन के सच्चे प्यार की साक्षी मुझ से अधिक और कौन होगा? उसे अपने मातापिता की मानसिकता अच्छी तरह पता थी. अकसर कहती थी, ‘‘प्रांजलि, काश मेरी मां की सोच तुम्हारी मां जैसे होती. मुझे एक बात समझ में नहीं आती कि मातापिता हमें अपनी सोच की जंजीरों में क्यों बांधना चाहते हैं. तो फिर हमें खुले आसमान में विचरने ही क्यों देते हैं? क्यों हमें ईसाई स्कूल में पढ़ाते हैं? क्यों नहीं पहले के जमाने के अनुसार हमारे पंख कतर कर घर में कैद कर लेते हैं? समय के अनुसार इन की सोच क्यों नहीं बदलती? ’’

मैं उस के तर्क सुन कर शब्दहीन हो जाती और सोचती काश मैं उस के मातापिता को समझा पाती कि उन की बेटी किसी अन्य पुरुष को वर के रूप में स्वीकार कर ही नहीं पाएगी, उन्हें बेटी चाहिए या सामाजिक प्रतिष्ठा, लेकिन उन्होंने मुझे इस अधिकार से वंचित कर दिया था.

अनु एक बहुत ही संवेदनशील और हठी लड़की थी. जैकब भी पढ़ालिखा और उदार विचारों वाला युवक था. उस के मातापिता भी समझदार और धर्म के पाखंडों से दूर थे. वे अपने इकलौते बेटे को बहुत प्यार करते थे और उस की खुशी उन के लिए सर्वोपरि थी. मैं ने अनु को कई बार समझाया कि बालिग होने के बाद वह अपने मातापिता के विरुद्ध कोर्ट में जा कर भी रजिस्टर्ड विवाह कर सकती है, लेकिन उस का हमेशा एक ही उत्तर होता कि नहीं रे, तुझे पता नहीं हमारी बिरादरी का, मैं अपने लिए जैकब का जीवन खतरे में नहीं डाल सकती… इतना कह कर वह गहरी उदासी में डूब जाती.

मैं उस की कुछ भी मदद न करने में अपने को असहाय पा कर बहुत व्यथित होती. लेकिन मैं ने जैकब और उस के परिवार वालों से कहा कि उस के मातापिता से मिल कर उन्हें समझाएं, शायद उन्हें समझ में आ जाए,

लेकिन इस में भी अनु के घर वालों को मेरे द्वारा रची गई साजिश की बू आई, इसलिए उन्होंने उन्हें बहुत अपमानित किया और उन के जाने के बाद अनु को मेरा नाम ले कर खूब प्रताडि़त किया. इस के बावजूद जैकब बारबार उस के घर गया और अपने प्यार की दुहाई दी. यहां तक कि उन के पैरों पर गिर कर गिड़गिड़ाया भी, लेकिन उन का पत्थर दिल नहीं पिघला और उस की परिणति आज इतनी भयानक… एक कली खिलने से पहले ही मुरझा गई. मातापिता को तो उन के किए का दंड मिला, लेकिन मुझे अपनी प्यारी सखी को खोने का दंश बिना किसी गलती के जीवनभर झेलना पड़ेगा.

लोग अपने स्वार्थवश कि उन की समाज में प्रतिष्ठा बढ़ेगी, बुढ़ापे का सहारा बनेगा और दैहिक सुख के परिणामस्वरूप बच्चा पैदा करते हैं और पैदा होने के बाद उसे स्वअर्जित संपत्ति मान कर उस के जीवन के हर क्षेत्र के निर्णय की डोर अपने हाथ में रखना चाहते हैं, जैसे कि वह हाड़मांस का न बना हो कर बेजान पुतली है. यह कैसी मानसिकता है उन की?

कैसी खोखली सोच है कि वे जो भी करते हैं, अपने बच्चों की भलाई के लिए करते हैं? ऐसी भलाई किस काम की, जो बच्चों के जीवन से खुशी ही छीन ले. वे उन की इस सोच से तालमेल नहीं बैठा पाते और बिना पतवार की नाव के समान अवसाद के भंवर में डूब कर जीवन ही नष्ट कर लेते हैं, जिसे हम आत्महत्या कहते हैं, लेकिन इसे हत्या कहें तो अधिक सार्थक होगा. अनु की हत्या की थी, मातापिता और उन के खोखले समाज ने. Story In Hindi

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