लेखक- इंद्रजीत कौशिक
19 साल का दिलीप शहर में पढ़ाई करने आया था ताकि अपने मांबाप के सपनों को साकार कर सके. कहने को तो यह शहर बहुत बड़ा था, हजारों मकान थे पर दिलीप को रहने के लिए एक छत तक भी न मिल सकी.
एक कुंआरे लड़के को कौन किराएदार रखने का जोखिम उठाता? दरदर भटकने के बाद आखिरकार उसे सिर छिपाने को एक जगह मिल गई, वह भी पेइंग गैस्ट के तौर पर. मिसेज कल्पना अपनी बहू मिताली के साथ घर में अकेली रहती थीं. उन का बेटा कहने को तो कमाने के लिए परदेस गया हुआ था पर पैसे वह कभीकभार ही भेजता था.
‘‘बेटा, तेरे यहां रहने से हमें दो पैसे की आमदनी भी हो जाएगी और रोहित की कमी भी नहीं खलेगी. जैसा हम खातेपीते हैं वैसा ही तुम भी खा लेना,’’ मिसेज कल्पना ने उसे एक कमरा दिखाते हुए कहा. ‘‘जी अम्मां, मेरी तरफ से आप को किसी तरह की शिकायत नहीं मिलेगी,’’ दिलीप ने कहा.
उस की रहने और खाने की समस्या एकसाथ इतनी आसानी से हल हो जाएगी, यह तो उस ने सपने में भी नहीं सोचा था. अब वह पूरा ध्यान पढ़ाई में लगा सकता था. दिलीप को केवल और केवल अपनी पढ़ाई में ध्यान लगाते देख मिसेज कल्पना को बहुत खुशी होती थी. खाना पहुंचाने वे दिलीप के कमरे में खुद आतीं और उसे ढेरों आशीर्वाद भी दे डालतीं.
सबकुछ ठीक चल रहा था. एक दिन अचानक मिसेज कल्पना बीमार पड़ गईं. उन्हें अस्पताल दिलीप ही ले कर गया. एक लायक बेटे की तरह वह मिसेज कल्पना की सेवा कर रहा था. एक दिन वह अस्पताल से घर लौट रहा था कि बारिश शुरू हो गई. बारिश तेज होती जा रही थी. दिलीप जल्दी से जल्दी घर पहुंचना चाहता था ताकि किताबें भीगने से बच जाएं.
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