लेखक- रमेश चंद्र सिंह
संध्या ने सोचा कि रजनी को वह अपने क्वार्टर से चैकबुक लाने के लिए कहेगी. चाबी नीलेश के पास ही होगी, क्योंकि उसी ने आते वक्त उस का फ्लैट लौक किया होगा.
यही सब सोचते हुए शाम हो गई. नीलेश औफिस बंद कर सीधे अस्पताल पहुंचा, तब तक रजनी भी जाग गई थी.
‘‘अब कैसी हो संध्या?’’ आते ही नीलेश ने पूछा.
‘‘ठीक हूं, सिर में थोड़ा दर्द है,’’ संध्या ने कहा, तो नीलेश बोला, ‘‘डाक्टर से नहीं कहा?’’
‘‘कहा था. वह दवा लिख कर दे गया है.’’
‘‘परचा मुझे दो. मैं दवा ला देता हूं,’’ नीलेश ने कहा, तो रजनी ने दीदी के हाथ से परचा लेते हुए कहा, ‘‘तुम क्यों परेशान होते हो? मैं ला देती हूं न.’’
‘‘तुम दवा के पैसे लेते जाओ. फार्मेसी वाले नकद भुगतान लेते?हैं,’’ नीलेश ने कहा, तो संध्या कुछ न बोली, क्योंकि उस के पास पैसे नहीं थे और रजनी तो अभी दूसरों की मुहताज थी.
‘‘रहने दो, मैं पैमेंट कर दूंगी.’’
‘‘अभी तुम्हें पैसे की बहुत जरूरत है. संभाल कर रखो,’’ कहते हुए नीलेश ने रजनी को 2,000 का एक नोट थमा दिया.
रजनी ने दवा ला कर संध्या को दी और कहा, ‘‘अगर दीदी ठीक रहती हैं, तो मैं नीलेश के घर जा कर भाभी से मिलूंगी. मैं यह जानना चाहती हूं कि वे अब तक दीदी से मिलने कभी अस्पताल क्यों नहीं आईं?’’
यह सुनते ही वहां सन्नाटा सा पसर गया. न संध्या ने कुछ कहा और न ही नीलेश ने. अब वे कहते भी क्या. उन्हें अचानक रजनी से इस तरह के प्रस्ताव की उम्मीद नहीं थी.