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लेखक- रमेश चंद्र सिंह

एक दिन जब संध्या नीलेश के बंगले पर आई हुई थी और नीलेश उस से प्यार पाने की जिद कर रहा था, तब उस ने उस से कहा, ‘हमलोग जो यह कर रहे हैं, क्या वह तुम्हें अच्छा लगता है नीलेश? बोलो क्या यह एक सही कदम है?’

नीलेश हवस का मारा हो रहा था, इसलिए इस समय वह संध्या से इस मुद्दे पर बहस के मूड में न था. वह बोला, ‘अब इन दकियानूसी बातों से बाहर आओ संध्या. तुम किस जमाने में जी रही हो? अब ऐसी बातें घिसीपिटी हो गई हैं. जिस तरह शरीर को भूख लगती है और उस को मिटाने के लिए खाने की जरूरत होती है कुछ इसी तरह की जरूरत है सैक्स, इसलिए इस पर सोचना करना बंद करो और जिंदगी का मजा लो.’

‘फिर इनसान ने और जानवर में क्या फर्क रह जाएगा नीलेश? संध्या बोली थी, ‘सभ्य समाज में सभी लोग यही करेंगे तो क्या अराजकता न फैल जाएगी?’

‘कुछ नहीं होगा, सदियों से होता आया है ऐसे. थोड़ी अपनी सोच को बड़ा बनाओ. अब सभ्य समाज में ये सब आम बातें हैं. हां, यह जरूर है कि लोग खुलेतौर पर इस से बचते हैं.

‘क्या पहले यह सब नहीं होता था? क्या राजाओं और सामंतों के यहां पत्नी के अलावा जरूरी औरतों को रखैल बना कर रखने का रिवाज नहीं था?’

संध्या चुप हो गई. वह जानती थी कि नीलेश पर अब हवस हावी है. उसे बस उस का शरीर चाहिए.

संध्या ने नीलेश से कहा, ‘नहीं नीलेश, अब बहुत हुआ. अब तुम वादा करो कि मुझ से शादी करोगे, तभी मैं तुम्हारे साथ रह सकती हूं.’

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