लेखक- सुधा गुप्ता

भाग-1

लगभग साल भर बाद जब मीरा मायके आई थी, दोनों छोटे भाई आपस में नाराज चल रहे थे, अपनीअपनी सफाई दोनों देते रहते थे. मीरा दोनों की ही सुनती रहती. अपना पक्ष दोनों ही उस के सामने रखते और यही प्रमाणित करते कि उसी के साथ सब से अधिक अन्याय किया गया है. घर की जिम्मेदारी में जितना वह पिसा है उतना दूसरा नहीं.

दोनों भाइयों में बोलचाल न जाने कब से बंद थी. जब भी मिलते तो ऐसे मिलते जैसे अभी एकदूसरे का गला ही पकड़ लेंगे.

छोटा अपनी व्यथाकथा सुना रहा था और उसी संदर्भ में उस ने यह शब्द कहे थे. यही शब्द मीरा ने बड़े भाई के मुंह से भी सुने थे. अवाक थी मीरा कि जराजरा सी बात का बखेड़ा कर दोनों ही जलतेभुनते जा रहे हैं.

मीरा सोचने लगी कितना आसान है यह कहना कि मर गया मेरा भाई. अरे, जिन के मर जाते हैं, कभी उन से पूछा होता कि उन पर क्या बीतती है? क्या वास्तव में मनुष्य ऐसा सोच सकता है कि उसे कभी किसी की जरूरत नहीं पड़ेगी?

जहां तक उस का विचार है मनुष्य को किसी दूसरे की जरूरत मृत्युपर्यंत पड़ती है. चार आदमी श्मशान तक ले जाने को उसे तब भी चाहिए. तब यह कहना कितना निरर्थक है कि उसे कभी किसी की जरूरत ही नहीं पड़ेगी.

मायके आने का मीरा का सारा उत्साह ठंडा पड़ता जा रहा था. वह कभी मायके में किसी बात पर दखल नहीं देती थी क्योंकि किसी भी एक के पक्ष में कुछ बोलना, दूसरे को नाराज कर सकता था और सचाई क्या है, उसे क्या पता. वह निर्णय कैसे और क्यों ले सकती है कि सच्चा कौन है और झूठा कौन? किस की तरफ से झगड़े की पहल होती है और कौन ज्यादा या कम सहनशील है?

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