छोटेछोटे गुनाहों पर भारी रकम वसूल करना आज किसी भी कोने में खड़े वरदीधारी के लिए वैसा ही आसान हो गया है जैसा पहले सूनी राहों में ठगों और डकैतों के लिए हुआ करता था.
ट्रैफिक को सुधारने की जरूरत है, इस में शक नहीं है पर ट्रैफिक सुधारने के नाम पर कागजों की भरमार करना और किसी को भी जब चाहे पकड़ लेना एक आपातकाल का खौफ पैदा करना है. नियमकानून बनने चाहिए क्योंकि देश की सड़कों पर बेतहाशा अंधाधुंध टेढ़ीमेढ़ी गाडि़यां चलाने वालों ने अपना पैदायशी हक मान रखा था पर जिस तरह का जुर्माना लगाया गया है वह असल में उसी सोच का नतीजा है जिस में बिल्ली को मारने पर सोने की बिल्ली ब्राह्मण को दान में देने तक का विधान है.
ट्रैफिक कानून को सख्ती से लागू करना जरूरी था पर इस में फाइन बढ़ाना जरूरी नहीं. पहले भी जो जुर्माने थे वे कम नहीं थे और यदि उन्हें लागू किया जाता तो उन से ट्रैफिक संभाला जा सकता था, पर लगता है नीयत कुछ और है. नीयत यह है कि हर पुलिस कौंस्टेबल एक डर पैदा कर दे ताकि उस के मारफत घरघर में सरकार के बारे में खौफ का माहौल पैदा किया जा सके. यह साजिश का हिस्सा है.
इस की एक दूरगामी साजिश यह भी है कि ट्रक, टैंपो, आटो, टैक्सी, ट्रैक्टर, बस ड्राइवरों को इस तरह गरीब रखा जाए कि वे कभी न तो चार पैसे जमा कर सकें और न ही अपनी खुद की गाडि़यों के मालिक बन सकें. उन्हें आधा भूखा रखना ऐसे ही जरूरी है जैसे सदियों तक देश के कारीगरों को साल में 2 बार अनाज और कपड़े ही वेतन के बदले दिए जाते थे.