अचानक मेरा हृदय कागज के फूल सा हलका हो कर उज्जवल के प्रति असीम कृतज्ञता से छलक उठा था. कैसी मूर्ख थी मैं, इतना प्यार करने वाले पति पर अविश्वास किया.
मेरी बुद्धि मेरे विश्वास को एक गुमनाम पत्र लिख चुकी थी. सबकुछ ऊपर से सामान्य नजर आ रहा था, लेकिन मेरे भीतर कुछ दरक गया था. मेरी नजरें जैसे कुछ तलाशती रहतीं. एक मालगाड़ी की तरह बिना किसी स्टेशन पर रुके, चोरों की भांति उज्जवल को निहारते, मैं जी रही थी. कभीकभी खुद के गलत होने का अनुभव भी होता.
फिर जब एक दिन ऐसा लगने लगा कि मैं इधरउधर से आई पटरियों के संगम पर हताश खड़ी हूं, तो दूर किसी इंजन की सर्चलाइट चमकी थी.
हम ने स्नेह के 10वें जन्मदिन पर शानदार पार्टी का आयोजन किया था. शाम होते ही मेहमान आने लगे थे. मैं और उज्जवल एक अच्छे होस्ट की तरह सभी का स्वागत कर रहे थे. तभी जैसे उज्जवल की आंखों में एक सुनहरी पतंग सी चमक आ गई, और उस के होंठों ने गोलाकार हो कर एक नाम पुकारा, ‘मो.’
मैं नाम तो सुन नहीं पाई लेकिन उस सुनहरी पतंग की डोरी को थामे उस चेहरे तक अवश्य पहुंच गई थी, जिस के हाथों में मां झा था. वहां मोहिनी मजूमदार खड़ी थी. उज्जवल के बचपन के दोस्त दीपक मजूमदार की पत्नी. उस की बेटी सारा, स्नेह की क्लास में ही पढ़ती थी.
अपने अंदर की शंका के सर्प को मैं ने डांट कर सुला दिया और अतिथियों के स्वागत में व्यस्त हो गई थी. केक कटा, गेम्स हुए और फिर खाना लगा.
कभीकभी नारी ही नारी के लिए जटिल पहेली बन जाती है, तो कभीकभी उस पहेली का हल भी. शंका के जिस विषम सर्प को मैं ने सुला दिया था, मोहिनी ने उसे जगा दिया. मैं ने देखा, गिलास थामने के साथसाथ मोहिनी की कांपती उंगलियां उज्जवल की उंगलियों को थाम कर दबा दे रही थीं. मैं ने वह भी देखा, खाने की मेज पर आमनेसामने बैठते ही मोहिनी के कोमल पैरों में उज्जवल के बलिष्ठ पंजों का बंदी बन जाना, परदे की आड़ का बहाना बना, जानबू झ कर उन का टकरा जाना, और फिर ‘सौरीसौरी’ कह एकदूसरे को देख चुपके से चुंबन उछाल देना.
ये भी पढ़ें- असली प्यार: क्या ममता ने विनय से शादी की?
मैं यह सब देख रही थी. सहसा मेरी तरफ देख कर मोहिनी ने एक आंख मूंद ली. तब मैं ने जाना कि वह चाहती थी कि मैं देखूं. उस की आंखों में जलते घमंड और वासना की ज्वाला ने मेरे वर्षों के प्रेम और समर्पण को भस्म कर दिया था.
मैं उज्जवल से कुछ पूछ ही नहीं पाई. शायद मैं डर रही थी कि मैं पूछूं और वह झूठ बोल दे या उस से भी बुरा, अगर वह सच बोल दे.
मैं ने एक बनावटी जीवन जीना आरंभ कर दिया. बनावटी जीवन एक समय बाद आप को ही परेशान करने लगता है. जब तक आप इस बात को सम झ कर गंभीर होते हैं तब तक बहुत देर हो चुकी होती है, क्योंकि तब आप की वास्तविक भावनाएं न तो कोई देखना चाहता है और न ही आप खुद उन्हें सम झ पाते हैं.
मैं शीशे के सामने खड़ी हो कर अपनी कमी को देखने का प्रयास करती. मु झे लगता कि मेरी ही किसी भूल के कारण उज्जवल मु झ से दूर हो गया था. मैं मोहिनी से खुद की तुलना करती. खुद को उस से बेहतर बनाने का प्रयास करती. उज्जवल को हरसंभव सुख देने का प्रयास करती. हमारे अंतरंग पलों को जीना, मैं ने कब का छोड़ दिया था. मेरा प्रयास मात्र उज्जवल का आनंद रह गया था. अपनी भावनाओं को दबा कर मैं खुद के प्रति इतनी कठोर हो गई थी कि हमेशा खुद को जोखिमभरे कामों में उल झा कर रखने लगी. मानो ये सब कर के मैं उसे मोहिनी के पास जाने से रोक लूंगी.
मैं यह भूल गई कि एक रिश्ता ऐसा भी होता है जिस की डोर आप से इतनी बंधी होती है कि आप के मन की दलदल में उन का जीवन भी फिसलने लगता है. वह रिश्ता होता है, एक मां और संतान का. इस का अनुभव होते ही मैं समाप्त होने से पहले जी उठी.
एक शाम जब मैं विवाहेतर संबंध क्यों बनते हैं, पर आर्टिकल पढ़ रही थी, स्नेह मेरे निकट आ कर बैठ गया.
‘‘मां.’’
‘‘हां,’’ मैं ने उस की तरफ देखे बिना पूछा था.
‘‘आई मिस यू.’’
मैं ने चौंक कर स्नेह को देखा, बोली, ‘‘क्यों बेटा?’’
‘‘आप खो गई हो, अब हंसती भी नहीं. मैं अलोन हो गया हूं.’’
दर्द के जिन बादलों को मैं ने महीनों से अपने भीतर दबा रखा था, वे फट पड़े और आंखें बरसने लगीं. जिस आदमी ने मेरे विश्वास और प्रेम को कुचलने से पहले एक बार भी नहीं सोचा, उस के लिए मैं अपने बच्चे और खुद के साथ कितना सौतेला व्यवहार करने लगी थी. मेरा मृतप्राय आत्मविश्वास जीवित हो उठा. मैं ने उस दिन मात्र स्नेह को ही नहीं, अपने घायल मैं को भी गले लगा लिया था.
ये भी पढ़ें- उड़ान: क्यों श्रेया की शादी नहीं हुई?
मैं ने पूरी रात सोच कर एक निर्णय लिया और अगले दिन सुबह ही दीपक मजूमदार को फोन कर दिया था.
2 दिनों बाद दीपक और मोहिनी मेरे लिविंगरूम में मेरे सामने बैठे थे. रविवार था, तो उज्जवल भी घर पर ही था. सारा को मैं ने स्नेह के कमरे में भेज दिया.
कमरे का तापमान गरम था. वहां की खामोशी में सभी की सांसों की आवाज साफ सुनाई दे रही थी. मैं और उज्जवल अलगअलग कुरसियों पर बैठे थे. मोहिनी और दीपक सोफे पर एकसाथ बैठे थे. सभी एकदूसरे से नजरें चुरा रहे थे.
‘‘इस रिश्ते का क्या भविष्य है?’’ उज्जवल की तरफ देख कर बात मैं ने ही शुरू की.
‘‘बताओ मोहिनी,’’ दीपक ने कहा.
उन के बीच बात हो गई थी. 2 दिनों पहले जब मैं ने दीपक को फोन किया था, तब दीपक ने मु झे उज्जवल और मोहिनी को रंगेहाथ पकड़ने की बात बताई थी. अपने और मोहिनी के मनमुटाव के बारे में भी बताया. मैं ने जब उन दोनों को घर आ कर बात करने को कहा, तो दीपक ने स्वीकार कर लिया था.
उस रात मोहिनी ने उज्जवल को फोन भी किया. लेकिन उज्जवल ने मु झ से कुछ नहीं पूछा. और मैं, मैं तो उस के कुछ कहने का इंतजार ही करती रह गई. मैं तो उस का परस्त्री के प्रति आकर्षण भी स्वीकार कर लेती, लेकिन यह छल और अनकहा अपमान मु झे स्वीकार्य नहीं था.
इसलिए जब उस दिन उज्जवल ने कहा, ‘मैं जानता हूं, जो हुआ ठीक नहीं हुआ, लेकिन प्रेम वायु है. उसे न तो सहीगलत की परिभाषा रोक सकती है और न समाज के बनाए नियम. प्रेम तो वह नदी है, जिस पर बनाए गए हर बांध को टूटना ही होता है. मैं और मोहिनी प्रेम में हैं, और सदा रहना चाहते हैं.’ उस की स्वीकारोक्ति सुन कर मेरी आंखें छलछला आई थीं.
मैं एक बार उज्जवल को देखती और फिर मोहिनी को, फिर उन दोनों को. पागल सी हो रही थी, पर मैं रोई नहीं, बहुत रो जो चुकी थी. विवाह के शुरुआती दिवसों की मधुर स्मृतियां, विवाहपूर्व उस सरल उज्जवल का प्रथम अनाड़ी चुंबन मु झे व्याकुल कर रहा था. उन दिनों वह मुस्तफा जैदी की एक शायरी मेरी आंखों को चूमते हुए कहती –
‘इन्ही पत्थरों पे चल कर
अगर आ सको तो आओ,
मेरे घर के रास्ते में
कोई कहकशां नहीं है’
आज कहां गया वह अनुरोध, वह प्रेम, वह आलिंगन. न चाहते हुए मेरी नजर मोहिनी के लंबे काले बालों पर चली गई. न जाने कितनी बार ये केश मेरे जीवन सहचर के नग्न वक्षस्थल पर लहराए होंगे. मैं ने घबरा कर नजरें नीची कर ली थीं.
‘हम सोलमेट्स हैं,’ मोहिनी ने
कहा था.
‘‘प्रेम थोपा तो जा नहीं सकता. जैसा कि मैं कल कह चुका हूं, अलग हो जाना सही विकल्प है,’’ दीपक ने इतना कह कर मेरी तरफ देखा. तीन जोड़ी आंखें मु झ पर ठहर गई थीं.
‘‘मैं अभी आर्थिक रूप से उज्जवल पर निर्भर हूं. जब शादी घरवालों की इच्छा के विरुद्ध की, तो इस का परिणाम उन पर क्यों थोपूं. मु झे नौकरी ढूंढ़ने के लिए कुछ समय चाहिए. तब तक स्नेह के साथ मेरी भी जिम्मेदारी उज्जवल को उठानी होगी. इस घर में हम दोनों का पैसा लगा है, तो शीघ्र ही उज्जवल को मेरा हिस्सा भी देना होगा. स्नेह तो खैर इन की जिम्मेदारी हमेशा रहेगा. उम्मीद करती हूं, तुम ने मात्र जीवनसाथी के पद से इस्तीफा दिया है, पिता तुम आज भी हो.’’
ये भी पढ़ें- कहीं किसी रोज: आखिर जोया से विमल क्या छिपा रहा था?
न कोई आरोप, न आंसू, न क्रोध. उज्जवल खामोश मु झे देखता रहा था. जहां तूफान की आशंका हो, वहां अश्रुओं की रिम िझम का भी अभाव रहा. मेरी इस उदासीनता के लिए उज्जवल प्रस्तुत नहीं था. हमारे बीच एक छोटी सी बात अवश्य हुई, लेकिन मैं ने उज्जवल पर क्रोध नहीं किया. क्रोध तो वहां आता है जहां अधिकार हो, एक अपरिचित पर कैसा अधिकार.
उज्जवल और मोहिनी साथ रहने लगे थे. दीपक ने मोहिनी की जिम्मेदारियों से हाथ खींच लिया, जो सही भी था. वैसे सारा की जिम्मेदारियों से उस ने कभी इनकार नहीं किया. तलाक के पेपर कोर्ट में डाले जा चुके थे, जिस पर सालभर में फैसला आने की उम्मीद थी.