Serial Story वसीयत- आखिर सीमा और जेम्स वारन के बीच क्या रिश्ता था

Serial Story वसीयत- आखिर सीमा और जेम्स वारन के बीच क्या रिश्ता था : भाग 2

‘यह सबकुछ सुन कर मैं धम्म से सोफे पर धंस गया तो विलियम मेरा आशय समझ मुसकरा कर कहने लगा, कि ‘डैडी, आप अकेले हो जाएंगे, इसलिए हम दोनों यह प्रस्ताव अस्वीकार कर देते हैं. वैसे तो यहां भी सबकुछ है.

‘मैं ने अपनेआप को संभाला और कहा कि वाह, मेरा बेटा और बहू इतने बड़े पद पर जा रहे हैं तो मेरे लिए यह गर्व की बात है. सच, मुझे इस से बड़ी खुशी क्या होगी?

‘जाने की तैयारियां होने लगीं. दिन तो बीत जाता पर रात में नींद न आती. कभी विलियम और जैनी तो कभी जार्ज के स्वास्थ्य की चिंता बनी रहती.

‘वह दिन भी आ गया जब लंदन एअरपोर्ट पर विलियम, जैनी और जार्ज को विदा कर भीगे मन से घर वापस लौटना पड़ा. विलियम और जैनी ने जातेजाते भी अपने वादे की पुष्टि की कि वे हर सप्ताह फोन करते रहेंगे और मुझ से आग्रह किया कि मैं उन से मिलने के लिए आस्टे्रलिया अवश्य आऊं. वे टिकट भेज देंगे.

‘मन में उमड़ते हुए उद्गार मेरे आंसुओं को संभाल न पाए. जार्ज को बारबार चूमा. एअरपोर्ट से बाहर आने के बाद वापस घर लौटने के लिए दिल ही नहीं करता था. कार को दिन भर दिशाहीन घुमाता रहा. शाम को घर लौटना ही पड़ा. सामने जार्ज की दूध की बोतल पड़ी थी. उठा कर सीने से चिपका ली और ऐथल की तसवीर के सामने फूटफूट कर रोया.

‘चार दिन बाद फोन की घंटी बजी तो दौड़ कर रिसीवर उठाया, ‘हैलो डैडी,’ यह स्वर सुनने के लिए कब से बेचैन था. मैं भर्राए स्वर में बोला, ‘तुम सब ठीक हो न, जार्ज अपने दादा को याद करता है कि नहीं?’ जैनी से भी बात की और यह जान कर दिल को बड़ा सुकून हुआ कि वे सब स्वस्थ और कुशलपूर्वक हैं.

‘विलियम ने टेलीफोन को जार्ज के मुंह के आगे कर दिया तो उस की ‘आउं आउं’ की आवाज ने कानों में अमृत सा घोल दिया. थोड़ी देर बाद फोन पर आवाजें बंद हो गईं.

‘3 महीने तक उन के टेलीफोन लगातार आते रहे, फिर यह गति धीमी हो गई. मैं फोन करता तो कभी विलियम कह देता कि दरवाजे पर कोई घंटी दे रहा है और फोन काट देता. बातचीत शीघ्र ही समाप्त हो जाती. 6 महीने इसी तरह बीत गए. कोई फोन नहीं आया तो घबराहट होने लगी.

‘एक दिन मैं ने फोन किया तो पता लगा कि वे लोग अब सिडनी चले गए हैं. यह भी कहने पर कि मैं उस का पिता हूं, नए किराएदार ने उस का पता नहीं दिया. उस की कंपनी को फोन किया तो पता चला कि उस ने कंपनी की नौकरी छोड़ दी थी. यह जान कर तो मेरी चिंता और भी बढ़ गई थी.

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‘मेरा एक मित्र आर्थर छुट्टियां मनाने 3 सप्ताह के लिए आस्ट्रेलिया जा रहा था. मैं ने अपनी समस्या उसे बताई तो बोला कि वह 2 दिन सिडनी में रहेगा और यदि विलियम का पता कहीं मिल गया तो मुझे फोन कर के बता देगा. पर आर्थर का फोन नहीं आया. 3 सप्ताह की अंधेरी रातें अंधेरी ही रहीं.

‘3 सप्ताह के बाद जब आर्थर आस्टे्रलिया से वापस आया तो आशा दुख भरी निराशा में बदल गई. विलियम और जैनी उसे एक रेस्तरां में मिले थे किंतु वे किसी आवश्यक कार्य के कारण जल्दी में उसे अपना पता, टेलीफोन नंबर यह कह कर नहीं दे पाए कि शाम को डैडी को फोन कर के नया पता आदि बता देंगे.

‘उस के फोन की आस में अब हर शाम टेलीफोन के पास बैठ कर ही गुजरती है. जिस घंटी की आवाज सुनने के लिए इन 6 सालों से बेजार हूं वह घंटी कभी नहीं सुनी. हो सकता है कि उसे डर लगता हो कि कहीं बाप आस्टे्रलिया न धमक जाए.’

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जेम्स ने एक लंबी सांस ली. मुझ से पता पूछा तो मैं ने जेब से अपना विजिटिंग कार्ड निकाल कर दे दिया और बोला, ‘मिस्टर जेम्स, किसी भी समय मेरी जरूरत हो तो अब बिना किसी झिझक के मुझे फोन कर देना. आइए, मैं आप को आप के घर छोड़ देता हूं. मेरी कार बराबर की गली में खड़ी है.’

‘धन्यवाद, मैं पैदल ही जाऊंगा क्योंकि इस प्रकार मेरा व्यायाम भी हो जाता है.’

घर आने पर देखा तो डाक में कुछ चिट्ठियां पड़ी थीं. मैं ने कोर्बी टाउन के एक स्कूल में गणित विभाग के अध्यक्ष पद के लिए साक्षात्कार दिया था. पत्र खोला तो पता चला कि मुझे नियुक्त कर लिया गया है.

नए स्कूल के लिए मैं ने अपनी स्वीकृति भेज दी. जाने में केवल एक सप्ताह शेष था. जाते हुए जेम्स से विदा लेने के लिए उस के मकान पर गया पर वह वहां नहीं था. पड़ोसी से पता लगा कि वह अस्पताल में भरती है. इतना समय नहीं था कि अस्पताल जा कर उस का हाल देख लूं.

एक दिन की मुलाकात मस्तिष्क की चेतना पर अधिक समय नहीं टिकी. समय के साथ मैं जेम्स को बिलकुल भूल गया.

वकील के पत्रानुसार नियत समय पर जेम्स के घर पर पहुंच गया. उसी दरवाजे पर घंटी का बटन दबाया जहां से 30 साल पहले जेम्स से मिले बिना ही लौटना पड़ा था. आज बड़ा विचित्र सा लग रहा था. लगभग 45 वर्षीय एक व्यक्ति ने दरवाजा खोला.

Serial Story वसीयत- आखिर सीमा और जेम्स वारन के बीच क्या रिश्ता था : भाग 3

मैं ने अपना और सीमा का परिचय दिया तो वकील ने भी अपना परिचय दे कर हमें अंदर ले जा कर एक सोफे पर बैठा दिया. वहां 3 पुरुष और 1 महिला पहले ही मौजूद थे. तीनों ही अंगरेज थे.

मार्टिन ने हम सब का परिचय कराया. एक सज्जन आर.एस.पी.सी.ए. (दि रायल सोसाइटी फार दि प्रिवेंशन आफ क्रूएल्टी टु ऐनिमल्स) का प्रतिनिधित्व कर रहे थे. अन्य 3, विलियम वारन (जेम्स वारन का पुत्र), उस की पत्नी जैनी वारन तथा जेम्स का पौत्र जार्ज वारन थे, जो आस्टे्रलिया से आए थे.

बाईं ओर छोटे से नर्म गद्दीदार गोल बिस्तर में एक बड़ी प्यारी सी काली और सफेद रंग की बिल्ली कुंडली के आकार में सोई पड़ी थी, जिस का नाम ‘विलमा’ बताया गया.

मार्टिन ने अपनी फाइल से वसीयत के कागज निकाल कर पढ़ने शुरू किए. अपनी संपत्ति के वितरण के बारे में कुछ कहने से पहले जेम्स ने अपनी सिसकती वेदना का चित्रण इन शब्दों में किया था:

‘लगभग 4 दशक पहले मेरे अपने बेटे विलियम और उस की पत्नी जैनी ने लंदन छोड़ कर मुझे मेरे हाल पर छोड़ दिया. मैं फोन पर अपने पोते और इन दोनों की आवाज सुनने को तरस गया. मैं फोन करता तो शीघ्र ही किसी बहाने से काट देते और एक दिन इस फोन ने मौन धारण कर यह सहारा भी छीन लिया. किसी कारण स्थानांतरण होने पर बेटे ने मुझे अपने नए पते या टेलीफोन नंबर की सूचना तक नहीं दी. मैं इस अकेलेपन के कारण तड़पता रहा. कोई बात करने वाला नहीं था. कौन बात करेगा, जिस का अपना ही खून सफेद हो गया हो.

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‘6 साल जीभ बिना हिले पड़ीपड़ी बेजान हो गई थी कि एक दिन एक भारतीय सज्जन राकेश वर्मा ने पार्क में मेरी इस मौन व्यथा को देखा और समझा. मेरे उमड़ते हुए उद्गारों को इस अनजान आदमी ने पहचाना. विडंबना यह रही कि वह भी व्यक्तिगत कारणों से लंदन से दूर चले गए.

‘राकेश वर्मा के साथ एक दिन की भेंट मेरे सारे जीवन की धरोहर बन यादों में सुकून देती रही. फिर इस भयावह अकेलेपन ने धीरेधीरे भयानक रूप ले लिया. आयु और शारीरिक रोगों के अलावा मानसिक अवसाद ने भी मुझे घेर लिया.

‘इस अभिशप्त जीवन में आशा की एक लहर मेरे मकान के बाग में न जाने कहां से एक बिल्ली के रूप में आ गई. कौन जाने इस का मालिक भी देश छोड़ गया हो और इसे भी इस के भाग्य पर मेरी तरह ही अकेला छोड़ गया हो. बिल्ली को मैं ने एक नाम दिया ‘विलमा.’

‘2-3 दिनों में विलमा और मैं ऐसे घुलमिल गए जैसे बचपन से हम दोनों साथ रहे हों. मैं उसे अपनी कहानी सुनाता और वह ‘मियाऊंमियाऊं’ की भाषा में हर बात का उत्तर देती. मुझे ऐसा लगता जैसे मैं नन्हें जार्ज से बात कर रहा हूं.

‘एक दिन वह जब बाहर गई और रात को वापस नहीं लौटी तो मैं बहुत रोया, ठीक उसी तरह जैसे जार्ज, विलियम और जैनी को छोड़ने के बाद दिल की पीड़ा को मिटाने के लिए रोया था. मैं रात भर विलमा की राह देखता रहा. अगले दिन वह वापस आ गई. बस, यही अंतर था विलमा और विलियम में जो वापस नहीं लौटा.

‘विलमा के संग रहने से मेरे मानसिक अवसाद में इतना सुधार हुआ जो अच्छी से अच्छी दवाओं से नहीं हो पाया था. उस ने मुझे एक नया जीवन दिया. वह कब क्या चाहती है, मैं हर बात समझ लेता था. यह सब वर्णन से बाहर है, केवल अनुभूति ही हो सकती है.’

विलियम, जैनी और जार्ज, तीनों के चेहरों पर उतारचढ़ाव कभी रोष तो कभी पश्चात्ताप के लक्षणों का स्पष्टीकरण कर रहे थे.

जेम्स ने अपनी वसीयत में मुख्य रूप से कहा था कि मेरी सारी चल और अचल संपत्ति में से समस्त टैक्स तथा हर प्रकार के वैध खर्च, बिल आदि देने के बाद शेष बची रकम का इस प्रकार वितरण किया जाए :

‘मिस्टर राकेश वर्मा, जिन का पुराना पता था : 23 रैले ड्राइव, वैटस्टोन, लंदन एन 20, को 2 हजार पौंड दिए जाएं और उन से मेरी ओर से विनम्रतापूर्वक कहा जाए कि यह राशि उन के उस एक दिन का मूल्य न समझा जाए जिस के कारण मेरे जीवन के मापदंड ही बदल गए थे. उन अमूल्य क्षणों का मूल्य तो चुकाने की सामर्थ्य किसी के भी पास न होगी. यह क्षुद्र रकम तो मेरे उद्गारों का केवल टोकन भर है.

‘मेरे उक्त वक्तव्य से, स्पष्ट है कि विलियम वारन, जैनी वारन या जार्ज वारन इस संपत्ति के उत्तराधिकारी होने के अयोग्य हैं.’

वकील कहतेकहते कुछ क्षणों के लिए रुक गया. विलियम, जैनी और जार्ज की मुखाकृति पर एक के बाद एक भाव आजा रहे थे. वे कभी आंखें नीची करते हुए दांत पीसते तो कभी अपने कठोर व्यवहार का पश्चात्ताप करते.

विलियम अपने क्रोध को वश में न रख सका और खड़े हो कर सामने रखी मेज पर जोर से हाथ मार कर जाने को खड़ा हो गया तो जैनी ने उसे समझाबुझा कर बैठा लिया.

वकील ने पुन: वसीयत पढ़नी शुरू की तो यह जान कर सभी आश्चर्यचकित हो गए कि शेष समस्त संपत्ति ‘विलमा’ बिल्ली के नाम कर दी गई थी और साथ ही कहा गया था कि आर.एस.पी.सी.ए. को ‘विलमा’ के शेष जीवन के पालनपोषण का अधिकार दिया जाए और इसी संस्था को प्रबंधक नियुक्त किया जाए. साथ ही एक सूची थी जिस में ‘विलमा’ को जेम्स किस प्रकार रखता था, उस का पूरा वर्णन था. आगे लिखा था, ‘विलमा के निधन पर उस का एक स्मारक बनाया जाए. उस के बाद शेष धन को राह भटके हुए, प्रताडि़त पशुओं की दशा सुधारने पर व्यय किया जाए.’

मैं ने मार्टिन से कहा, ‘‘यदि आप अनुमति दें तो ये 2 हजार पौंड, जो वसीयत के अनुसार जेम्स वारन मुझे दे रहे हैं, इस राशि को भी ‘विलमा’ की वसीयत की राशि में ही मिला दें तो मुझे हार्दिक सुख मिलेगा.’’

वकील ने कहा, ‘‘इस को विधिवत बनाने में थोड़ी अड़चन आ सकती है. हां, इसी राशि का एक चैकआर.एस.पी.सी.ए. को अपनी इच्छानुसार देना अधिक सुगम होगा.’’

अंत में औपचारिक शब्दों के साथ मार्टिन ने वसीयत बंद कर बैग में रख ली. बिल्ली, जो अभी भी सारी काररवाई से अनजान सोई हुई थी, आर.एस.पी.सी.ए. के प्रतिनिधि को सौंप दी गई. इस प्रकार वकील का भी प्रतिदिन ‘विलमा’ की देखरेख का भार समाप्त हो गया. सब मकान से बाहर आ गए.

मैं ने सीमा से कहा कि मैं तुम्हें उस मकान पर ले चलता हूं जहां लंदन में विवाह से पहले मैं रहता था. कार 10 मिनट में 23 रैले ड्राइव के सामने पहुंच गई. कार एक ओर खड़ी की और न जाने क्यों बिना सोचेसमझे ही उंगली उस मकान की घंटी के बटन पर दबा दी.

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एक अंगरेज वृद्ध ने छोटे से कुत्ते के साथ दरवाजा खोला. कुत्ते ने भौंकना शुरू कर दिया. मैं ने उस वृद्ध को बताया कि लगभग 30 वर्ष पहले मैं इस मकान में किराएदार था. बस, इधर से गुजर रहा था तो पुरानी याद आ गई…इस से पहले कि मैं आगे कुछ कहता, बूढ़े ने बड़े रूखेपन से कहना शुरू कर दिया.

‘‘यदि तुम इस मकान को खरीदने के विचार से आए हो तो वापस चले जाओ. इन दीवारों में केरी और चार्ल्स की यादें बसी हुई हैं. चार्ल्स की मां, मेरी पत्नी तो मुझे कब की छोड़ गई…चार्ल्स अमेरिका से एक दिन अवश्य आएगा… हां, कहीं उस का फोन न आ जाए?’’

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इतना कहतेकहते उस ने दरवाजा बंद कर लिया. अंदर से कुत्ता अभी भी भौंक रहा था. सीमा की नजर दरवाजे पर अटकी हुई थी. कह रही थी.

Serial Story वसीयत- आखिर सीमा और जेम्स वारन के बीच क्या रिश्ता था : भाग 1

दरवाजा खोला तो पोस्टमैन ने सीमा के हाथ में चिट्ठी दे कर दस्तखत करने को कहा.

‘‘किस की चिट्ठी है?’’ मैं ने बैठेबैठे ही पूछा.

चिट्ठी देख कर सीमा ठिठक गई और आश्चर्य से बोली, ‘‘किसी सौलिसिटर की है. लिफाफे पर भेजने वाले का नाम ‘जौन मार्र्टिन-सौलिसिटर्स’ लिखा है.’’

यह सुनते ही मैं ने चाय का प्याला होंठों तक पहुंचने से पहले ही मेज पर रख दिया. इंगलैंड में मैं वैध रूप से आया था और 65 वर्ष की आयु में वकील का पत्र देख कर दिल को कुछ घबराहट सी होने लगी थी. उत्सुकता और भय का भाव लिए पत्र खोला तो लिखा था.

‘‘जेम्स वारन, 30 डार्बी एवेन्यू, लंदन निवासी का 85 वर्ष की आयु में 28 नवंबर, 2004 को देहांत हो गया. उस की वसीयत में अन्य लोगों के साथ आप का भी नाम है. जेम्स की वसीयत 15 दिसंबर, 2004 को 3 बजे जेम्स वारन के निवास पर पढ़ी जाएगी. आप से अनुरोध है कि आप निर्धारित तिथि पर वहां पधारें या आफिस के पते पर टेलीफोन द्वारा सूचित करें.’’

‘‘यह जेम्स वारन कौन है?’’ सीमा ने उत्सुकता से कहा, ‘‘मेरे सामने तो आप ने कभी भी इस व्यक्ति का कोई जिक्र नहीं किया.’’

मैं जैसे किसी पुराने टाइमजोन में पहुंच गया. चाय का एक घूंट पीते हुए मैं ने सीमा को बताना शुरू किया.

उस समय मैं अविवाहित था और लंदन में रहता था. मैं कभीकभी 2 मील की दूरी पर स्थित एवेन्यू पार्क में जाता था. वहां एक अंगरेज वृद्ध जिस की उम्र लगभग 55-60 की होगी, बैंच पर अकेला बैठा रहता और वहां से गुजरने वाले हर व्यक्ति को हंस कर ‘गुडमार्निंग’ या ‘गुड डे’ इस अंदाज में कह कर अभिवादन करता, मानो कुछ कहना चाहता हो.

इंगलैंड में धूप खिलीखिली हो तो कौन उस बूढ़े की ऊलजलूल बातों में समय गंवाए? यह सोच कर लोग उसे नजरअंदाज कर चले जाते और वह बैंच पर अकेला बैठा होता था. मैं भी औरों की तरह अकसर आंखें नीची किए कतरा कर चला जाता था.

हर रोज अंधेरा शुरू होने से पहले बूढ़ा अपनी जगह से उठता और धीरेधीरे चल देता. मैं कभी अनायास ही पीछे मुड़ कर देखता तो हाथ हिला कर वह ‘हैलो’  कह कर मुसकरा देता. मैं भी उसी प्रकार उत्तर दे कर चला जाता.

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यह क्रम चलता रहा. एक दिन रात को ठीक से नींद नहीं आई तो विचारों के क्रम में बारबार बूढे़ की आकृति सामने आती रही, फिर नींद लगी तो देर से सो कर उठा. सामान्य कार्यों के बाद कुछ भोजन कर कपड़े बदले और पार्क जा पहुंचा.

देखा तो बूढ़ा उसी बैंच पर मुंह नीचे किए बैठा हुआ था. इस बार कतराने के बजाय मैं ने उस से कहा, ‘हैलो, जेंटिलमैन.’

बूढ़े ने मुंह ऊपर उठाया. उस की नजरें कुछ क्षणों के लिए मेरे चेहरे पर अटक गईं. फिर एकदम से उस की आंखों में चमक सी आ गई. वह बड़े उल्लास- पूर्वक बोला, ‘हैलो, सर. आप मेरे पास बैठेंगे क्या?’

मैं उसी बैंच पर उस के पास बैठ गया. बूढ़े ने मुझ से हाथ मिलाया, जैसे कई वर्षों के बाद कोई अपना मिला हो. मैं ने पूछा, ‘आप कैसे हैं?’

जब भी 2 व्यक्ति मिलते हैं तो यह एक ऐसा वाक्य है जो स्वत: ही मुख से निकल जाता है. कुछ देर मौन ने हम को अलग रखा था पर मैं ने ही फिर पूछा, ‘आसपास में ही रहते हैं?’

मेरे इस सवाल पर ही उस ने बिना झिझक के कहना शुरू कर दिया, ‘मेरा नाम जेम्स वारन है. 30 डार्बी एवेन्यू, फिंचले में अकेला ही रहता हूं.’

मैं ने कहा, ‘मिस्टर वारन…नहीं, नहीं…जेम्स.’

‘आप मुझे जेम्स कह कर ही पुकारें तो मुझे अच्छा लगेगा,’ जेम्स ने मेरी बात पूरी होने से पहले ही कह दिया.

मैं जानता था कि जेम्स वारन के पास कहने को बहुत कुछ है, जिसे उस ने अपने अंदर दबा कर रखा है क्योंकि कोई सुनने वाला नहीं है. उस के अचेतन मन में पड़ी हुई पुरानी यादें चेतना पर आने के लिए जाने कब से संघर्ष कर रही होंगी किंतु किस के पास इस बूढ़े की दास्तान सुनने के लिए समय है?

जेम्स ने एक आह सी भरी और कहना शुरू किया.

‘मैं अकेला हूं और 4 बेडरूम के मकान की भांयभांय करती दीवारों से पागलों की तरह बातें करता रहता हूं.’

इतना कह कर जेम्स ने चश्मे को उतारा और उसे साफ कर के दोबारा बोलना शुरू किया.

‘ऐथल, यानी मेरी पत्नी, केवल सुंदर ही नहीं, स्वभाव से भी बहुत अच्छी थी. हम दोनों एकदूसरे की सुनते थे. उस के साथ दुख का आभास ही नहीं होता था तो दुख की पहचान कैसे होती?

‘एक दिन पत्नी ने मुझे जो बताया उसे सुन कर मैं फूला न समाया. पिता बनने की खबर ने मुझे ऐसे हवाई सिंहासन पर बैठा दिया जैसे एक बड़ा साम्राज्य मेरे अधीन हो. मेरी मां ने दादी बनने की खुशी में घर पर परिचितों को बुला कर पार्टी दे डाली. इसी तरह 8 महीने आनंद से बीत गए. ऐथल ने अपने आफिस से अवकाश ले लिया था. मैं सारे दिन बच्चे और ऐथल के बारे में सोचता रहता.

‘एक रात मूसलाधार वर्षा हो रही थी. ऐथल को ऐसा तेज दर्द हुआ जो उस के लिए सहना कठिन था. मैं ने एंबुलेंस मंगाई और ऐथल की कराहटों व अपनी घबराहट के साथ अस्पताल पहुंच गया.

‘नर्सों ने एंबुलेंस से ऐथल को उतारा और तेजी से आई.सी.यू. में ले गईं. डाक्टर ने ऐथल की हालत जांच कर कहा कि शीघ्र ही आपरेशन करना पड़ेगा. अंदर डाक्टर और नर्सें ऐथल और बच्चे के जीवन और मौत के बीच अपने औजारों से लड़ते रहे, बाहर मैं अपने से लड़ता रहा. काफी देर बाद एक नर्स ने आ कर बताया कि तुम एक लड़के के पिता बन गए हो. खुशी में एक उन्माद सा छा गया. नर्स को पकड़ कर मैं नाचने लगा था. नर्स ने मुझे जोर से झंझोड़ सा दिया पर मेरा हाथ जोर से दबाए रही. कहने लगी कि मिस्टर वारन, मुझे बहुत ही दुख से कहना पड़ रहा है कि डाक्टरों की हर कोशिश के बाद भी आप की पत्नी नहीं बच सकी.

जेम्स ने आंखों से चश्मा उतार कर फिर साफ किया. उस की आंखें आंसुओं के भार को संभाल नहीं पाईं.  उस ने एक लंबी सांस छोड़ी और अपनी इस वेदना भरी कहानी को जारी करते हुए बोला, ‘मां पोते की खुशी और ऐथल की मृत्यु की पीड़ा में समझौता कर जीवन को सामान्य बनाने की कोशिश करने लगीं. मेरी मां बड़ी साहसी थीं. उन्होंने बच्चे का नाम विलियम वारन रखा क्योंकि विलियम ब्लेक, ऐथल का मनपसंद लेखक था.’

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‘इसी तरह 8 साल बीत गए. मां बहुत बूढ़ी हो चुकी थीं. एक दिन वह भी विलियम को मुझे सौंप कर इस संसार से विदा ले कर चली गईं. उस दिन से विलियम के लिए मैं ही मां, दादी और पिता के कर्तव्यों को पूरी जिम्मेदारी से निभाता. उसे सुबह नाश्ता दे कर स्कूल छोड़ कर अपने दफ्तर जाता. वहां से भी दिन के समय स्कूल में फोन पर उस की टीचर से उस का हाल पूछता रहता. विलियम की उंगली में यदि जरा सी भी चोट लग जाती तो मुझे ऐसा लगता जैसे मेरे सारे शरीर में दर्द फैल गया हो.

‘इतने लाड़प्यार में पलते हुए वह 18 वर्ष का हो गया. ए लेवल की परीक्षा में ए ग्रेड में पास होने की खबर सुन कर मैं बेहद खुश हुआ था. जब उस ने आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से आनर्स की डिगरी पास की तो मेरे आनंद का पारावार न था.

‘विलियम की गर्लफ्रेंड जैनी जब भी उस के साथ घर आती तो मैं खुशी से नाच पड़ता. जैनी और विलियम का विवाह उसी चर्च में संपन्न हुआ जहां मेरा और ऐथल का विवाह हुआ था. एक साल के बाद ही विलियम और जैनी ने मुझे दादा बना दिया. उस दिन मुझे मां और ऐथल की बड़ी याद आई. मेरी आंखें भर आईं. पोते का नाम जार्ज वारन रखा.

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‘हंसतेखेलते एक साल बीत गया. इतनी कशमकश भरे जीवन में अब आयु ने भी शरीर से खिलवाड़ करना शुरू कर दिया था.

‘डैडी, जैनी और मुझे, कंपनी एक बहुत बड़ा पद दे कर आस्टे्रलिया भेज रही है. वेतन भी बहुत बढ़ा दिया है. मकान, गाड़ी, हवाई जहाज की यात्रा के साथसाथ कंपनी जार्ज के स्कूल का प्रबंध आदि की सुविधाएं भी दे रही है, विलियम ने बताया तो मेरी आंखें खुली की खुली ही रह गईं.

Serial Story – मुसकान : क्या टूट गए उन दोनों के सपने

Serial Story मुसकान : क्या टूट गए उन दोनों के सपने- भाग 2

‘‘बेटा, मैं जानता हूं और तुम डाक्टर हो, जानते हो कि देह व्यापार और नशेबाजों के मुकाबले में डाक्टर को एड्स से अधिक खतरा है. खुदगर्ज, निकम्मे व भ्रष्ट लोगों की वजह से अनजाने में ही मेडिकल स्टाफ इस बीमारी की गिरफ्त में आ जाता है. सिरिंजों, दस्तानों की रिसाइक्ंिलग, हमारी लापरवाही, अस्पतालों में आवश्यक साधनों की कमी जैसे कितने ही कारण हैं. लोग ब्लड डोनेट करते हैं, समाज सेवा के लिए मगर उसी सेट और सूई को दोबारा इस्तेमाल किया जाए तो क्या होगा? शायद वही सूई पहले किसी एड्स के मरीज को लगी हो.’’

‘‘सर, मुझे अपनी चिंता नहीं है. मैं मुसकान से क्या कहूंगा? वह तो जीते जी मर जाएगी,’’ सुनील की आवाज कहीं दूर से आती लगी.

‘‘बेटा, हौसला रखो. अभी किसी से कुछ मत कहो. आज पापा का आपरेशन हो जाने दो. 15 दिन तो अभी यहीं लग जाएंगे. घर जा कर मांबाप की सलाह से अगला कदम उठाना. जीवन को एक चुनौती की तरह लो. सकारात्मक सोच से हर समस्या का हल मिल जाता है. मुसकान से मैं बात करूंगा पर अभी नहीं.’’

‘‘सर, उसे अभी कुछ मत बताइए, मुझे सोचने दीजिए,’’ कह कर सुनील अपने कमरे में आ गया था.

पर वह क्या सोच सकता है? एड्स. क्या मुसकान सुन सकेगी? नहीं, वह सह नहीं सकेगी. मैं उसे तलाक दे दूंगा, कहीं दूर चला जाऊंगा, नहीं…नहीं…वह तो अपनी जान दे देगी…नहीं…इस से अच्छा वह मर जाएगा पर मांबाप सह नहीं पाएंगे. नहीं…विपदा का हल मौत नहीं. सर ने ठीक कहा था कि सब को एक न एक दिन मरना है पर मरने से पहले जीना सीखना चाहिए.

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अचानक उसे ध्यान आया, आपरेशन का टाइम होने वाला है. मुसकान परेशान हो रही होगी…कम से कम जब तक पापा ठीक नहीं होते, मैं उस का ध्यान रख सकता हूं…इतने दिन कुछ सोच भी सकूंगा.

वह जल्दी कमरा बंद कर के वार्ड में आ गया.

‘‘अब कैसी तबीयत है?’’ उसे देखते ही मुसकान पूछ बैठी.

‘‘मैं ठीक हूं. मुसकान, तुम थोड़ी स्ट्रांग बनो. मैं तुम्हें परेशान देख कर बीमार हो जाता हूं.’’

12 बजे राजकुमार को आपरेशन के लिए ले गए. वह तीनों आपरेशन थियेटर के बाहर बैठ गए. मुसकान को सुनील की खामोशी खल रही थी पर समय की नजाकत को देखते हुए चुप थी. शायद पापा के कारण ही सुनील परेशान हों.

आपरेशन सफल रहा. अगले दिन घर से भी सब लोग आ गए थे. मां ने दोनों को गेस्ट रूम में आराम करने को भेज दिया.

कमरे में जाते ही सुनील लेट गया.

‘‘मुसकान, तुम भी थोेड़ी देर सो लो, रात भर जागती रही हो. मुझे भी नींद आ रही है,’’ कहते हुए वह मुंह फेर कर लेट गया. मुसकान भी लेट गई.

शादी के बाद पहली बार दोनों अकेले एक ही कमरे में थे. इस घड़ी में सुनील का दिल जैसे अंदर से कोई चीर रहा हो. उस का जी चाह रहा था कि मुसकान को बांहों में भर ले पर नहीं, वह उसे और सपने नहीं दिखाएगा. वह उस की जिंदगी बरबाद नहीं होने देगा.

मुसकान मायूस सी किसी हसरत के इंतजार में लेट गई. कुछ कहना चाह कर भी कह नहीं पा रही थी. सुनील पास हो कर भी दूर क्यों है? शायद कई दिनों से भागदौड़ में ढंग से सो नहीं पाया. पर दिल इस पर यकीन करने को तैयार नहीं था. उस ने सोचा, सुनील थोड़ी देर सो ले तब तक मैं वार्ड में चलती हूं. जैसे ही वह दरवाजा बंद करने लगी कि सुनील उस का नाम ले कर चीख सा पड़ा.

‘‘क्या हुआ,’’ वह घबराई सी आई तो देखा कि सुनील का माथा पसीने से भीगा हुआ था.

‘‘एक गिलास पानी देना.’’

उस ने पानी दिया और उसे बेड पर लिटा दिया.

‘‘कहीं मत जाओ, मुसकान. मैं ने अभीअभी सपना देखा है. एक लालपरी बारबार मुझे दिखाई देती है. मैं उसे छूने के लिए आगे बढ़ता हूं पर छू नहीं पाता, एक पहाड़ आगे आ जाता है. वह उस के पीछे चली जाती है. मैं उस पहाड़ पर चढ़ने की कोशिश करता हूं तो नीचे गिर जाता हूं,’’ इतना कह कर सुनील मुसकान का हाथ जोर से पकड़ लेता है.

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‘‘कैसी बहकीबहकी बातें कर रहे हो? सपने भी क्या सच होते हैं? चलो, चुपचाप सो जाओ. तुम्हारी लालपरी तुम्हारे पास बैठी है.’’

वह धीरेधीरे उस के माथे को सहलाने लगी. सुनील ने आंखें बंद कर लीं. थोड़ी देर बाद मुसकान ने सोचा, वह सो गया है. वह चुपके से उठी और वार्ड की तरफ चल पड़ी. वह उसे डिस्टर्ब नहीं करना चाहती थी.

वार्ड में पहुंचते ही उस का सामना

डा. परमिंदर से हो गया, ‘‘गुडमार्निंग, सर.’’

‘‘गुडमार्निंग, बेटा. कैसी हो?’’

‘‘फाइन, सर.’’

‘‘अच्छा, 10 मिनट बाद मेरे आफिस में आना,’’ कह कर डाक्टर परमिंदर सिंह चले गए.

10 मिनट बाद वह डा. परमिंदर के सामने थी.

‘‘बैठो बेटा. सुनील कहां है?’’

Serial Story मुसकान : क्या टूट गए उन दोनों के सपने- भाग 3

‘‘सर, वह कमरे में सो रहे हैं. उन की तबीयत ठीक नहीं. मैं ने सोचा कुछ सो लें तो मैं इधर आ गई. पता नहीं क्यों खामोश से, परेशान से हैं.’’

‘‘तुम ने पूछा नहीं?’’

‘‘पूछा था. कहते हैं, कुछ नहीं…पर कुछ अजीब सी दहशत में कोई सपना देखा है, बता रहे थे.’’

‘‘बेटा, तुम सुनील से कितना प्यार करती हो?’’

‘‘अपनी जान से बढ़ कर. सर, आप तो जानते हैं कि हम बचपन से ही एकदूसरे को कितना चाहते हैं.’’

‘‘कल हम यही बातें कर रहे थे. कल उस ने एक अपाहिज को देखा. एक्सीडेंट की वजह से उस की दोनों टांगें काटनी पड़ीं. उस की पत्नी का रुदन देखा नहीं जा रहा था, तभी एकदम वह बोल उठा था कि कल को अगर उसे ऐसा कुछ हो जाए तो मुसकान कैसे जी पाएगी. बेटी, वह तुम्हें दुखी नहीं देख सकता.’’

‘‘सर, इस का मतलब वह मुझे प्यार नहीं करते या वह मुसकान को जान ही नहीं पाए. अगर कल मैं अपाहिज हो जाऊं तो वह क्या करेंगे? जब हम किसी से प्यार करते हैं तो उस का एक ही अर्थ होता है कि हम उस को मन और आत्मा से प्यार करते हैं. उस की हर अच्छाईबुराई अपनाते हैं.’’

‘‘पर मन और आत्मा की भी कई जरूरतें होती हैं जिन का संबंध इस शरीर से होता है,’’ डा. परमिंदर ने टोका.

‘‘सर, मैं सोचती हूं कि प्यार ही दुनिया में एक ऐसी शक्ति है जो मन और आत्मा को सही दिशा देती है. इसी शक्ति से हम जरूरतों के अधीन नहीं रहते बल्कि जरूरतों को अपने अधीन कर सकते हैं.’’

‘‘वाह बेटा, मुझे नहीं पता था कि मुसकान इतनी समझदार और साहसी है. मुझे लगता है तुम मेरे बेटे को जीवन दान दे सकती हो.’’

‘‘मैं समझी नहीं सर, आप किस की बात कर रहे हैं?’’

कुछ देर के लिए वहां खामोशी छा गई. फिर डा. परमिंदर इस खामोशी को तोड़ते हुए बोले, ‘‘आजकल तुम्हें पता है, डाक्टर लोग ही नहीं सारा मेडिकल स्टाफ जिन हालात में काम कर रहा है ऐसे में हम कभी भी किसी खतरनाक बीमारी का शिकार हो सकते हैं. आज सुनील के साथ ऐसी ही अनहोनी हो गई है. मुझ से वादा करो तुम सब की खातिर जो कदम उठाओगी सोचसमझ कर उठाओगी. कल सुनील का खून तुम्हारे पापा से मैच करने के लिए लिया तो वह एच.आई.वी. पाजिटिव है.’’

‘‘सर…’’ वह जोर से चीख उठी.

‘‘बेटे, हौसला रखो. अगर तुम से उस की शादी न हुई होती तो उस के पास कई विकल्प थे. वह कहीं भी कैसे भी जी लेता. मगर आज वह तुम्हें क्या जवाब दे. इसलिए मुझे डर है कहीं वह कुछ ऐसावैसा कदम न उठा ले. वह तुम्हारी जिंदगी बरबाद नहीं होने देगा.’’

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‘‘सर, मैं उस के बचपन से ले कर अब तक के हर पल की गवाह हूं. उस ने कभी कोई गलत काम नहीं किया. फिर उस के साथ ऐसा क्यों हुआ?’’ मुसकान का दिल फटने को था.

‘‘तुम्हें पता है, हमारे पेशे में किसी के साथ भी ऐसा हो सकता है. मैं यह नहीं कहता कि तुम उस के साथ अपनी जिंदगी बरबाद करो. मगर यह सोच कर कि अगर तुम्हारे साथ ऐसा हुआ होता तो सुनील को क्या करना चाहिए था. फिर तुम लोग डाक्टर हो, जानते हो क्याक्या परहेज कर के एक आम आदमी जैसा जीवन जीया जा सकता है. अब तुम चलो. उस ने अभी तुम्हें बताने के लिए मना किया था पर मुझे दोनों की चिंता है इसलिए तुम्हें बताना जरूरी था.’’

वह उठी पर उस के कदम आगे बढ़ने से इनकार कर रहे थे. यह क्या हो गया सुनील? अकेले इतना बड़ा दुख सह रहे हो? वह लालपरी वाला सपना नहीं बल्कि उस के दिल की बात थी, तभी तो मुझ से दूरदूर था. क्या बीत रही होगी उस के दिल पर. वह मुझ से प्यार करता है तभी तो मुझे छूने से डरता है…कहीं मुसकान को भी एड्स न हो जाए. कितना संघर्ष करना पड़ा होगा दिल से…अपने अरमानों का खून करते हुए पर वह मुसकान को नहीं जानता…मैं उसे टूटने नहीं दूंगी…उसे ध्यान आया वह अकेला है…उसे अब अकेला नहीं छोड़ना चाहिए. उस के कदमों में कुछ तेजी आ गई.

मुसकान ने धीरे से दरवाजा खोला. सुनील सो रहा था. वह कितनी देर उसे सोता हुआ देखती रही. फिर चुपके से पास बैठ गई और उस के माथे को चूमा तो आंखों से आंसू टपक कर सुनील के माथे पर पड़े. वह हड़बड़ा कर उठा, ‘‘मुसकान, क्या हुआ? पापा ठीक हैं न?’’

‘‘हां.’’

‘‘अच्छा चलो, पापा के पास चलते हैं,’’ उस ने उठने की कोशिश की पर मुसकान ने उसे जबरदस्ती लिटा दिया.

‘‘सुनील, बताओ तुम मुझे कितना प्यार करते हो?’’

‘‘अपनी जान से भी ज्यादा.’’

‘‘झूठ, अच्छा मान लो मैं अपाहिज हो जाऊं, तुम्हारे काम की न रहूं तो?’’

‘‘मुसकान,’’ वह चीख सा पड़ा, ‘‘ऐसी बात भूल कर भी न कहना. मैं तुम से प्यार करता हूं तुम्हारे शरीर से नहीं.’’

‘‘झूठ.’’ वह रो पड़ी, ‘‘अगर मुझ से प्यार करते होते तो मुझे अपने दुख में शरीक न करते? क्या मुझे इतना स्वार्थी समझ लिया कि मैं तुम से घृणा करने लगूंगी? क्या सोच कर तुम अकेले इतना बड़ा बोझ लिए अपने से लड़ रहे हो?’’

‘‘मुसकान, यह क्या तुम बहकी- बहकी बातें कर रही हो?’’

‘‘अभीअभी मैं डा. परमिंदर सिंह से मिल कर आ रही हूं. मेरे होते, मांबाप के होते, तुम ने कैसे सोच लिया कि अपनी जिंदगी का फैसला तुम्हें अकेले करना है.’’

‘‘अब जब तुम जान ही गई हो तो मुझे समझने की कोशिश करो, मुसकान. यह ठीक है मैं तुम्हें जान से भी अधिक चाहता हूं मगर इतना भी स्वार्थी नहीं कि तुम्हारा जीवन बरबाद करूं,’’ सुनील ने समझाने की कोशिश की.

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‘‘मैं सोचसमझ कर ही कह रही हूं. देखो, जो मुसीबत हम पर आई है उस में न तुम्हारा दोष है न मेरा, न ही हमारे मांबाप का. यह मुसीबत तो हम सब पर आई है और तुम्हें यह हक कदापि नहीं है कि तुम अकेले कोई फैसला करो. अगर तुम मुझ से प्यार करते हो, मांबाप को प्यार करते हो तो हम दोनों मिल कर सोचेंगे. मैं तुम्हारी पत्नी हूं. मेरा भी हर फैसले पर उतना ही हक है जितना तुम्हारा. फिर अगर हमें अभी पता न चलता तो क्या करते.’’

‘‘मैं क्या फैसला ले सकता हूं? मेरे पास बचा ही क्या है? मुसकान, मैं बरबाद हो गया,’’ सुनील के आंसू नहीं थम रहे थे.

‘‘अच्छा, अगर मुझे एड्स हो गया होता तो तुम क्या करते? क्या मुझे छोड़ देते या मरने देते?’’

‘‘नहीं…नहीं, ऐसा मत कहो. मैं कैसे तुम्हें छोड़ सकता था?’’

‘‘हम दोनों डाक्टर हैं, सुनील. इस बीमारी के बारे में हम जानते हैं और यह भी जानते हैं कि क्या परहेज कर के हम आम इनसान की तरह जी सकते हैं. हम अपना बच्चा ही पैदा नहीं कर सकते न और तो कुछ समस्या नहीं है…तो देश में कितने अनाथ बच्चे हैं, कोई भी गोद ले लेंगे. साथसाथ दुखसुख बांट लेंगे, मेरे लिए नहीं तो कम से कम दोनों के मांबाप की तो सोचो. वह सह सकेंगे? मुझ से वादा करो कि मुझ से दूर जाने की नहीं सोचोगे. मैं जी नहीं पाऊंगी,’’ यह कहते समय मुसकान सुनील की छाती पर सिर रख कर रोए जा रही थी.

‘‘मुसकान, मैं तो यों ही टूट रहा था, तड़प रहा था अपनी लालपरी को छूने के लिए, मुझे पता ही नहीं चला वह तो मेरे दिल में बैठी है… उस परी ने मुझे नई जिंदगी दी है,’’

Serial Story मुसकान : क्या टूट गए उन दोनों के सपने- भाग 1

आज आसमान से कोई परी उतरती तो वह भी मुसकान को देख कर शरमा जाती, क्योंकि मुसकान आज परियों की रानी लग रही है. नजाकत से धीरेधीरे पांव रखती शादी के मंडप की ओर बढ़ रही मुसकान लाल सुर्ख जरी पर मोतियों से जड़ा लहंगाचोली पहने जेवरों से लदी, चूड़ा, कलीरे और पांव में झांजर डाले हुए है. उस के भाई उस के ऊपर झांवर तान कर चल रहे हैं. झांवर भी गोटे और घुंघरुओं से सजी है. उस का सगा भाई अनिल उस के आगेआगे रास्ते में फूल बिछाते हुए चल रहा है.

शादी के मंडप की शानोशौकत देखते ही बनती है. सामने स्टेज पर सुनील दूल्हा बना बैठा है. वहां मौजूद सभी एकटक मुसकान को आते हुए देख रहे हैं जो अपने को आज दुनिया की सब से खुशनसीब लड़की समझ रही है. आज मुसकान अपने सपनों के राजकुमार की होने जा रही है. सुनील के पिता सुंदरलालजी जिस फैक्टरी में लेखा अधिकारी हैं उसी में मुसकान के पिता राजकुमार सहायक हैं.

दोनों परिवार 20 साल से इकट्ठे रह रहे हैं. दोनों के घरों के बीच में दीवार न होती तो एक ही परिवार था. राजकुमार के 2 बच्चे थे, जबकि सुंदरलाल का इकलौता बेटा सुनील था. यह छोटा सा परिवार हर तरह से खुशहाल था. सुंदरलाल, मुसकान को अपनी बेटी की तरह मानते थे. तीनों बच्चे साथसाथ खेले, बढ़े और पढ़े.

मुसकान, अनिल से 5 वर्ष छोटी थी. सुनील और मुसकान हमउम्र थे. दोनों पढ़ने में होशियार थे. जैसेजैसे बड़े होते गए उन में प्यार बढ़ता गया. मन एक हो गए, सपने एक हो गए और लक्ष्य भी एक, दोनों डाक्टर बनेंगे.

राजकुमार की हैसियत मुसकान को डाक्टरी कराने जितनी नहीं थी मगर सुनील के मांबाप ने मन ही मन मुसकान को अपनी बहू बनाने का निश्चय कर लिया था इसलिए उन्होंने यथासंभव सहायता का आश्वासन दे कर मुसकान को डाक्टर बनाने का फैसला कर लिया था. अनिल भी इंजीनियरिंग कर के नौकरी पर लग गया. वह भी चाहता था कि मुसकान डाक्टर बने.

सुनील को एम.बी.बी.एस. में दाखिला मिल गया. मुसकान अभी 12वीं में थी. जब सुनील पढ़ने के लिए पटियाला चला गया तब दोनों को लगा कि वे एकदूसरे के बिना जी नहीं सकेंगे. मुसकान को लगता कि उस का कुछ कहीं खो गया है पर वह चेहरे पर खुशी का आवरण ओढ़े रही ताकि मन की पीड़ा को कोई दूसरा भांप न ले. दाखिले के 7 दिन बाद सुनील पटियाला से आया तो सीधा मुसकान के पास ही गया.

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‘लगता है 7 दिन नहीं सात जन्म बाद मिल रहा हूं. मुसकान, मैं तुम्हें बहुत मिस करता हूं.’

मुसकान कुछ कह न पाई पर उस के आंसू सबकुछ कह गए थे.

‘मुसकान, आंसू कमजोर लोगों की निशानी है. हमें तो स्ट्रांग बनना है, कुछ कर दिखाना है, तभी तो हमारा सपना साकार होगा,’ सुनील ने उसे हौसला दिया.

अब दोनों ही अपना कैरियर बनाने में जुट गए. सुनील जब भी घर आता मुसकान के लिए किताबें, नोट्स ले कर आता. वह चाहता था कि मुसकान को भी उस के ही कालिज में दाखिला मिल जाए. मुसकान उसे पाने के लिए कुछ भी कर सकती थी. सुनील मुसकान की पढ़ाई की इतनी चिंता करता कि फोन पर उसे समझाता रहता कि कौन सा विषय कैसे पढ़ना है, टाइम मैनेज कैसे करना है.

सुनील एक हफ्ते की छुट्टी ले कर घर आया और मुसकान से टेस्ट की तैयारी करवाई. दोनों ने दिनरात एक किया. अगर लक्ष्य अटल हो, प्रयास सबल हो तो विजय निश्चित होती है. मुसकान को भी पटियाला में ही प्रवेश मिल गया. मुसकान को दाखिल करवाने दोनों के ही मांबाप गए थे. वापसी से पहले सुनील की मां ने मुसकान से कहा था, ‘बेटा, हमें उम्मीद है तुम दोनों अपने परिवार की मर्यादा का ध्यान रखोगे तो हम सब तुम्हारे साथ हैं.’

‘मां, जितना प्यार मुझे मेरे मांबाप ने दिया है उस से अधिक आप लोगों ने दिया है. मैं आप से वादा करती हूं कि मेरा जीवन इस परिवार और प्यार के लिए समर्पित है,’ मुसकान मम्मी के गले लग गई.

दोनों ने बड़ी मेहनत की और अपने मांबाप की आशाओं पर फूल चढ़ाए. सुनील ने एम.डी. की और उसे पटियाला में ही नौकरी मिल गई. दोनों के मांबाप चाहते थे अब सुनील व मुसकान की शादी हो जानी चाहिए पर दोनों ने फैसला किया था कि जब मुसकान भी एम.डी. हो जाए उस के बाद ही वे शादी करेंगे.

आज उन की मेहनत और सच्चे प्यार का पुरस्कार शादी के रूप में मिला था. सुनील हाथ में जयमाला लिए मंडप की ओर आती मुसकान को देख रहा था.

मुसकान की विदाई एक तरह से अनोखी ही थी. न किसी के चेहरे पर उदासी न आंखों में आंसू. सभी लोग शादी के मंडप से निकले और गाडि़यों में बैठ कर जहां से चले थे वहीं वापस आ गए. दुलहन के रूप में मुसकान सुनील के घर चली गई. दोनों घरों के बीच एक दीवार ही तो थी. जब सब के दिल एक थे तो मायका क्या और ससुराल क्या.

आज सुनील से भी अपनी खुशी छिपाए नहीं छिप रही थी. आज वह अपनी लाल परी को छुएगा.

‘‘मां, हमें जल्दी फारिग करो, हम थक गए हैं,’’ सुनील बेसब्री से बोला.

‘‘बस, बेटा, 10 मिनट और लगेंगे. मुसकान कपड़े बदल ले.’’

मम्मी मुसकान को एक कमरे में ले गईं और एक बड़ा सा पैकेट दे कर बोलीं, ‘‘बेटा, यह सुनील ने अपनी पसंद से तुम्हारे लिए खरीदा है आज रात के लिए.’’

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मम्मी के जाने के बाद मुसकान ने कमरा अंदर से बंद किया और जैसे ही उस ने पैकेट खोला, वह उसे देख कर हैरान रह गई. पैकेट में सुर्ख रंग का जरी, मोतियों की कढ़ाई से कढ़ा  हुआ कुरता, हैवी दुपट्टा पटियाला सलवार, परांदा आदि निकला था. उस ने तो बचपन से ही पैंटजींस पहनी थी. कपड़ों की तरफ दोनों ने पहले कभी ध्यान ही नहीं दिया था. सुनील ने भी कभी उस के कपड़ों पर कोई टिप्पणी नहीं की थी.

वह बड़े सलीके से तैयार हुई. अपने केशों में परांदी, सग्गीफूल लगाया, मैच करती लिपस्टिक लगाई, माथे पर मांग टीका लटक रहा था, फिर दुपट्टा पिनअप कर के जैसे ही शीशे के सामने खड़ी हुई सामने पंजाबी दुलहन के रूप में खुद को देख मुसकान हैरान रह गई. सुनील की पसंद पर उसे नाज हो आया और दिल धड़क उठा रात के उस क्षण के लिए जब उस का राजकुमार उसे अपनी बांहों में भर कर उस की कुंआरी देहगंध से रात को सराबोर करेगा.

किसी ने दरवाजा खटखटाया. मुसकान ने दरवाजा खोला तो सामने मम्मी और मां घबराई सी खड़ी थीं.

‘‘बेटी, तुम्हारे पापा की तबीयत खराब हो गई थी. सुनील और अनिल उन्हें अस्पताल ले कर गए हैं. पर घबराने की बात नहीं है, अभी आते होंगे,’’ कह कर मां और मम्मी दोनों उस के पास बैठ गईं.

मुसकान एकदम घबरा गई. अभी 1 घंटा पहले तो पापा ठीक थे, हंसखेल रहे थे. उस ने जल्दी से मोबाइल उठाया, ‘‘सुनील, कैसे हैं पापा, क्या हुआ उन्हें?’’

‘‘मुसकान, देखो घबराना नहीं,’’ सुनील बोला, ‘‘मेरे होते हुए चिंता मत करो. पापा को हलका हार्ट अटैक पड़ा है. हमें इन्हें ले कर पटियाला जाना होगा. तुम जरूरी सामान और कपड़े ले कर डैडी के साथ यहीं आ जाओ. तुम भी साथ चलोगी. मेरे वाला पैकेट अभी संभाल कर रख लो.’’

‘‘मम्मी, सुनील ने मुझे अस्पताल बुलाया है. पापा को पटियाला ले कर जाना पड़ेगा,’’ और फिर जितनी हसरत से उस ने सुनील वाले कपड़े पहने थे, उतने ही दुखी मन से उन्हें उतार दिया. हलके रंग का सूट पहना और यह सोच कर कि इस लाल सूट को तो वह सुहागरात को ही पहनेगी उसे बड़े प्यार से उसी तरह अलमारी में रख दिया.

राजकुमार को एंबुलेंस में डाला गया तो सभी उन के साथ जाना चाहते थे पर सुनील नहीं माना. सुनील, अनिल और मुसकान साथ गए.

पटियाला पहुंच कर जल्दी ही सारे टेस्ट हो गए. डाक्टर ने रात को ही उन की बाईपास सर्जरी करने को कहा. 2 बोतल खून का भी प्रबंध करना था, जिस के लिए सुनील और अनिल अपना खून का सैंपल मैच करने के लिए दे आए थे. बेशक दोनों डाक्टर थे पर मुसकान बहुत घबराई हुई थी. लोगों को बीमारी में देखना और बात है पर अपनों के लिए जो दर्द, घबराहट होती है, यह मुसकान आज जान पाई.

सुनील उसे ढाढ़स बंधा रहा था. उसे यह सोच कर दुख हो रहा था कि उस के सपनों की राजकुमारी, जिस ने जीवन में दुख का एक क्षण नहीं देखा, आज इतना बड़ा दुख…वह भी उस रात में जिस में इस समय उस की बांहों में लिपटी सुहागरात की सेज पर बैठी होती.

‘‘मुसकान, मैं हूं न तुम्हारे साथ. मेरे होते तुम चिंता क्यों करती हो.’’

‘‘मुझे आप के लिए दुख हो रहा है कि मेरे पापा के कारण आप को अपनी खुशी छोड़नी पड़ी,’’ मुसकान की आंखों में आंसू आ गए.

‘‘पगली, यह हमारे बीच में मेरे-तुम्हारे कहां से आ गया. यह मेरे भी पापा हैं. कल को मुझ पर या घर के किसी दूसरे सदस्य पर कोई मुसीबत आ जाए तो क्या तुम साथ नहीं दोगी?’’

‘‘मेरी तो जान भी हाजिर है.’’

‘‘मुझे जान नहीं, बस, मुसकान चाहिए,’’ कहते हुए सुनील ने उस का हाथ अपने हाथों में ले कर दबाया.

सुनील को डाक्टर ने बुलाया था. अनिल बाजार सामान लेने गया हुआ था. मुसकान पापा के पास बैठ गई. पूरे एक घंटे बाद सुनील आया तो उदास और थकाथका सा था.

‘‘क्या खून दे कर आए हैं?’’ मुसकान घबरा गई.

‘‘हां,’’ जैसे कहीं दूर से उस ने जवाब दिया हो.

‘‘आप थोड़ी देर कमरे में जा कर आराम कर लें, अभी भैया भी आ जाएंगे. मैं पापा के पास बैठती हूं.’’

मुसकान के मन में चिंता होने लगी. सुनील को क्या हो गया. शायद थकावट और परेशानी है और ऊपर से खून भी देना पड़ा. चलो, थोड़ा आराम कर लेंगे तो ठीक हो जाएंगे.

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उधर सुनील पर तो जैसे पहाड़ टूट पड़ा था. किसे बताए, क्या बताए. मुसकान का क्या होगा. फिर डाक्टर परमिंदर सिंह का चेहरा उस की आंखों के सामने घूमने लगा और उन के कहे शब्द दिमाग में गूंजने लगे :

‘‘सुनील बेटा, तुम  मेरे छात्र रह चुके हो, मेरे बेटे जैसे हो. कैसे कहूं, क्या बताऊं मैं 2 घंटे से परेशान हूं.’’

‘‘सर, मैं बहुत स्ट्रांग हूं, कुछ भी सुन सकता हूं, आप निश्ंिचत हो कर बताइए,’’ सुनील सोच भी नहीं सकता था, वह क्या सुनने जा रहा है.

‘‘तुम एच.आई.वी. पौजिटिव हो. जांच के लिए भेजे गए तुम्हारे ब्लड से पता चला है.’’

‘‘क्या? सर, यह कैसे हो सकता है? आप तो मुझे जानते हैं. कितना सादा और संयमित जीवन रहा है मेरा.’’

Serial Story- राजीव और अशरफ का अनमोल रिश्ता : भाग 2

लेेखिक- पुष्पा अग्रवाल

‘‘आदाब चाचाजान, मैं आप को पहचान गया. मैं सलीम भाई का लड़का अशरफ बोल रहा हूं, अब्बा अकसर आप की बातें करते हैं. आप मुझे हुक्म कीजिए,’’ अशरफ की आवाज नम्र थी.

ये एकदम आतुरता से बोले, ‘‘असल में मैं आप को एक तकलीफ दे रहा हूं, मेरे बेटे राजीव का एलप्पी में एक्सीडेंट हो गया है. वहीं अस्पताल में है, आप उस की कुछ मदद कर सकते हैं क्या?’’

‘‘अरे, चाचाजान, आप बेफिक्र रहिए. मैं अभी एलप्पी के लिए गाड़ी से निकल जाता हूं. उन का पूरा खयाल रख लूंगा और आप को सूचना भी देता रहूंगा. आप उन का मोबाइल नंबर बता दीजिए.’’

इन्होंने जल्दी से सीमा का मोबाइल नंबर बता दिया और आगे कहा, ‘‘ऐसा है, हम जल्दी से जल्दी पहुंचने की कोशिश करेंगे, सो यदि उचित समझो तो उन को कोच्चि में भी दिखा देना.’’

‘‘आप मुझे शर्मिंदा न करें, चाचाजान, अच्छा अब मैं फोन रखता हूं.’’

अशरफ की बातें सुन कर तो हमें चैन आ गया, फटाफट प्लेन का पता किया. जल्दीजल्दी अटैची में सामान ठूंस रहे थे और जाने की व्यवस्था भी कर रहे थे. रात होने की वजह से हवाई जहाज से जाने का कार्यक्रम कुछ सही बैठ नहीं रहा था. सिर्फ सीमा से बात कर के तसल्ली कर रहे थे. मन में शंका भी हो रही थी कि अशरफ अभी रवाना होगा या सुबह?

खाने का मन न होते हुए भी इन की डायबिटीज का ध्यान कर हम ने दूध बे्रड ले लिया.

मन में बहुत ज्यादा उथलपुथल हो रही थी. सलीम भाई से बात नहीं हुई थी, यहां आते थे तब तो बहुत बातें करते थे. क्या कारण हो सकता है? कितने ही विचार मन में घूम रहे थे.

6 साल पुरानी बातें आज जेहन में टकराने लगीं.

मैं सब्जी बना चुकी थी कि इन का फोन आ गया, ‘सुधा, एक मेहमान खाना खाएंगे. जरा देख लेना.’

मेरा मूड एकदम बिगड़ गया, कितने दिनों बाद तो आज मूंग की दालपालक बनाया था, अब मेहमान के सामने नए सिरे से सोचना पड़ेगा. न मालूम कौन है?

खाने की मेज पर इन्होंने मेरा परिचय दिया और बताया, ‘ये सलीम भाई हैं. सामने उदयपुर होटल में ही ठहरे हैं. इन का मार्बल और लोहे का व्यापार है. उसी सिलसिले में मुझ से मिलने आए हैं.’

फिर आगे बोले, ‘ये कैल्लूर के रहने वाले हैं, बहुत ही खुशमिजाज हैं.’

वास्तव में सलीम भाई बहुत ही खुशहाल स्वभाव के थे. उन के चेहरे पर हरदम एक मुसकान सी रहती थी, मार्बल के सिलसिले में इन से राय लेने आए थे.

धीरेधीरे इन का सलीम भाई के साथ अभिन्न मित्र की तरह संबंध हो गया. वह 2-3 महीने में अपने काम के सिलसिले में उदयपुर चक्कर लगाते थे.

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गरमी के दिन थे. सलीम भाई का सिर सुबह से ही दुख रहा था. दवा दी पर शाम तक तबीयत और खराब होने लगी. उलटियां और छाती में दर्द बढ़ता गया. अस्पताल में भरती कराया क्योंकि उन को एसीडीटी की समस्या हो गई थी. 1 दिन अस्पताल में रहे, तो इन्होंने उन्हें 4 दिन रोक लिया. घर की तरह रहते हुए उन की आंखें बारबार शुक्रिया कहतेकहते भर आती थीं.

सलीम भाई के स्वभाव से तो कोई तकलीफ नहीं थी पर मैं अकसर कुढ़ जाती थी, ‘आप भी बहुत भोले हो. अरे, दुनिया बहुत दोरंगी है, अभी तो आप के यहां आते हैं. परदेस में आप का जैसा जिंदादिल आदमी मिल गया है. कभी खुद को कुछ करना पड़ेगा तब देखेंगे.’

‘बस, तुम्हारी यही आदत खराब है. सबकुछ करते हुए भी अपनी जबान को वश में नहीं रख सकतीं, वे अपना समझ कर यहां आते हैं. दोस्ती तो काम ही आती है,’ ये मुझे समझाते.

2 साल तक उन का आनाजाना रहा. एक बार वे हमारे यहां आए. एकाएक उन का मार्बल का ट्रक खराब हो गया. 2 दिन तक ठीक कराने की कोशिश की. पर ठीक नहीं हुआ. पता लगा कि इंजन फेल हो गया था इसलिए अब ज्यादा समय लगेगा.

सलीम भाई ने झिझकते हुए कहा, ‘भाई साहब, अब मेरा जाना भी जरूरी है और मैं आप को काम भी बता कर जा रहा हूं, कृपया इसे ठीक करा कर भेज दीजिएगा. अगले महीने मैं आऊंगा तब सारा पेमेंट कर दूंगा.’

पर सलीम भाई के आने की कोई खबर नहीं आई. न उन के पेमेंट के कोई आसार नजर आए.

इंतजार में दिन महीनों में और महीने सालों में बदलने लगे. पूरे 5 साल निकल गए.

मैं अकसर इन को ताना मार देती थी, ‘और करो भलाई, एक अनजान आदमी पर भरोसा किया. मतलब भी निकाल लिया. 40 हजार का फटका भी लग गया.’

ये ठंडे स्वर में कहते, ‘भूलो भी, जो हो गया सो हो गया. उस की करनी उस के साथ.’

‘‘क्या बात है? किन खयालों में खोई हुई हो,’’ इन की आवाज सुन कर मेरा ध्यान बंटा, घड़ी की ओर देखा पूरे 12 बज रहे थे. नींद आने का तो सवाल ही नहीं था, बेटे और पोतेपोती की चिंता हो रही थी. न जाने कहां कितनीकितनी चोटें लगी होंगी. शायद सीमा ज्यादा नहीं बता रही हो कि मम्मीपापा को चिंता हो जाएगी.

वहां एलप्पी में न जाने कैसा अस्पताल होगा. बस, बुराबुरा ही दिमाग में घूम रहा था. करीब 3 बजे फोन की घंटी बजी. हड़बड़ाहट में लपकते हुए मैं ने फोन उठाया. सीमा का ही था, ‘‘मम्मी, यहां एलप्पी अस्पताल में हम ने मरहमपट्टी करा ली है. अब अशरफ भाईजान आ गए हैं. हम सुबह उन के संग कोच्चि जा रहे हैं.’’

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फिर एक क्षण रुक कर बोली, ‘‘अशरफ भाईजान से बात कर लो.’’

‘‘आंटी, आप बिलकुल चिंता मत करना, मैं कोच्चि में बढि़या से बढि़या इलाज करवा दूंगा, आप बेफिक्र हो कर आराम से आओ.’’

फिर आगे बोला, ‘‘यदि आप की तबीयत ठीक न हो तो इतना लंबा सफर मत करना, मैं इन्हें सकुशल उदयपुर पहुंचा दूंगा.’’

‘‘शुक्रिया बेटा, लो अपने अंकल से बात करो,’’ मेरा मन हलका हो गया था.

‘‘बेटा, हम परसों तक पहुंचने की कोशिश करेंगे. तुम्हें तकलीफ तो दे रहे हैं, पर सलीम भाई से बात नहीं हुई. वे कहां हैं?’’ इन्होंने संशय के साथ पूछा.

‘‘अंकल, वह कोच्चि में ही हैं. आजकल उन की भी तबीयत ठीक नहीं है. अच्छा मैं फोन रखता हूं.’’

‘‘चलो, मन को तसल्ली हो गई कि परदेस में भी कोई तो अपना मिला. यह कहते हुए मैं लेट गई. जल्दी से जल्दी टैक्सी से पहुंचने में भी हमें समय लग गया. अशरफ ने हमें अस्पताल और रूम नंबर बता दिया था, सो हम सीधे कोच्चि के अस्पताल में पहुंच गए.

वाकई अशरफ वहां के एक बड़े अस्पताल में सब जांच करवा रहा था, आरुषि के 2-3 फ्रैक्चर हो गए थे, उस के प्लास्टर बंध गया था.

राजीव के दिमाग में तो कोई चोट नहीं आई थी. पर बैकबोन में लगने से वह हिलडुल नहीं पा रहा था. चक्कर भी पूरे बंद नहीं हुए थे. एक पांव की एड़ी में भी ज्यादा चोट लग गई थी.

डाक्टर ने 10 दिन कोच्चि में ही रहने की सलाह दी. ऐसी हालत में इतनी दूर का सफर ठीक नहीं है, सीमा ठीक थी और वही सब को संभाल रही थी.

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पोते आयुष को हम अपने साथ अस्पताल से बाहर ले आए और अशरफ से होटल में ठहरने की बात की.

‘‘अंकल, आप क्यों शर्मिंदा कर रहे हैं. घर चलिए, अब्बाजान आप का इंतजार कर रहे हैं.’’

हमारी हिचक देख कर वह बोला, ‘‘अंकल, आप चिंता न करें. आप के धर्म को देख कर मैं ने इंतजाम कर दिया है.’’

Serial Story- राजीव और अशरफ का अनमोल रिश्ता : भाग 3

लेेखिक- पुष्पा अग्रवाल

‘‘अरे, नहीं बेटा, दोस्ती में धर्म नहीं देखा जाता है,’’ ये शर्मिंदगी महसूस कर रहे थे.

अशरफ हमें सलीम भाई के कमरे में ले गया. सलीम भाई ने एक हाथ उठा कर अस्फुट शब्दों में बोल कर हमारा स्वागत किया. उन की आंखें बहुत कुछ कह रही थीं. हमारे मुंह से बोल नहीं निकल रहा था. इन्होंने सलीम भाई का हाथ पकड़ कर हौले से दबा दिया. 10 मिनट तक हम बैठे रहे, सलीम भाई उसी टूटेफूटे शब्दों में हम से बात करने की कोशिश कर रहे थे. अशरफ ही उन की बात समझ रहा था.

खाना खाने के बाद अशरफ ने बताया, ‘‘अब्बाजान जब भी उदयपुर से आते थे आप की बहुत तारीफ करते थे. हमेशा कहते थे, ‘‘मुझे जिंदगी में इस से बढि़या आदमी नहीं मिला और चाचीजान के खाने की इतनी तारीफ करते थे कि पूछो मत.’’

उस के चेहरे पर उदासी आ गई. एक मिनट खामोश रह कर बात आगे बढ़ाई, ‘‘आप के यहां से आने के चौथे दिन बाद ही अम्मीजान की तबीयत ज्यादा खराब हो गई थी. बे्रस्ट में ब्लड आ जाने से एकदम चिंता हो गई थी. कैल्लूर के डाक्टर ने तो सीधा मुंबई जाने की सलाह दी.

‘‘जांच होने पर पता चला कि उन्हें बे्रस्ट कैंसर है और वह भी सेकंडरी स्टेज पर. बस, सारा घर अम्मीजान की सेवा में और पूरा दिन अस्पताल, डाक्टरों के चक्कर लगाने में बीत जाता था.

‘‘इलाज करवातेकरवाते भी कैंसर उन के दिमाग में पहुंच गया. अब्बाजान तो अम्मीजान से बेइंतहा मोहब्बत करते थे. अम्मी 2 साल जिंदा रहीं पर अब्बाजान ने उन्हें कभी अकेला नहीं छोड़ा. मैं उस समय सिर्फ 20 साल का था.

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‘‘ऐसी हालत में व्यापार बिलकुल चौपट हो गया. फैक्टरी बेचनी पड़ी. अम्मीजान घर से क्या गईं, लक्ष्मी भी हमारे घर का रास्ता भटक गई.

‘‘अकसर अब्बाजान आप का जिक्र करते थे और कहते थे, ‘एक बार मुझे उदयपुर जाना है और उन का हिसाब करना है, वे क्या सोचते होंगे कि दोस्ती के नाम पर एक मुसलमान धोखा दे गया.’?’’

हमारी आंखें नम हो रही थीं, इन्होंने एकदम से अशरफ को गले लगा लिया और बात बदलते हुए पूछा, ‘‘सलीम भाई की यह हालत कैसे हो गई?’’

अशरफ गुमसुम सा छत की ओर ताकने लगा, मन की वेदना छिपाते हुए आगे बोला, ‘‘अंकल, जब मुसीबत आती है, तो इनसान को चारों ओर से घेर लेती है. अभी 2 साल पहले अब्बाजान ने फिर से व्यापार में अच्छी तरह मन लगाना शुरू किया था. हमारा कैल्लूर छूट गया था. हम कोच्चि में ही रहने लगे. मैं भी अब उन के संग काम करना सीख रहा था.

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‘‘पहले वाला मार्बल का काम बिलकुल ठप्प पड़ गया था. कर्जदारों का बोझ बढ़ गया था. व्यापार की हालत खराब हुई तो लेनदार आ कर दरवाजे पर खड़े हो गए. पर देने वालों ने तो पल्ला ही झाड़ लिया. आजकल मोबाइल नंबर होते हैं, बस, नंबर देखते ही लाइन काट देते थे.

‘‘जैसेतैसे थोड़ी हालत ठीक हुई तो अब्बाजान को लकवे ने आ दबोचा. चल- फिर नहीं पाते और जबान भी साफ नहीं हुई, इसलिए एक बार फिर व्यापार का वजन मेरे कंधों पर आ गया.’’

यों कहतेकहते अशरफ फूटफूट कर रो पड़ा. मेरी भी रुलाई फूट रही थी. मुझे आत्मग्लानि भी महसूस हो रही थी. कितनी संकीर्णता से मैं ने एकतरफा फैसला कर के किसी को मुजरिम करार दे दिया था.

राजीव की सारी जांच की रिपोर्टें आने के बाद कोई बीमारी नहीं निकली थी. हम सब ने राहत की सांस ली. मन की दुविधा निकल गई थी. हमें देख कर आज भी सलीम भाई के चेहरे पर वही चिरपरिचित मुसकान आ जाती थी.

10 दिन रह कर हमारे उदयपुर लौटने का समय आ गया था. अशरफ के कई बार मना करने के बावजूद इन्होंने सारा पेमेंट चुकाते हुए कहा, ‘‘बेटा, मैं तुम्हारे पिता के समान हूं. एक बाप अपने बेटे पर कर्तव्यों का बोझ डालता है पर खर्चे का नहीं. अभी तो मैं खर्च कर सकता हूं.’’

अशरफ इन के पांवों में झुक गया. इन्होंने उसे गले लगाते हुए कहा, ‘‘बेटा, तुम ने जिस तरह से अपने पिताजी की शिक्षा ग्रहण की है और कर्तव्य की कसौटी निभाई है वह बेमिसाल है.’’

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फिर एक बार सलीम भाई के गले मिले. दोनों की आंखें झिलमिला रही थीं.

चलते समय अशरफ ने झुक कर आदाब किया. इन्होंने आशीर्वाद देते हुए कहा, ‘‘बेटा, आज से अपने इस चाचा को पराया मत समझना. तुम्हारे एक नहीं 2 घर हैं. हमारे बीच एक अनमोल रिश्ता है, जो सब रिश्तों से ऊपर है.’’

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