तिगनी का नाच : खूबसूरत लड़कियों की चालबाजी

साहेबान, लोग कहते हैं कि खूबसूरत लड़कियां तो अच्छेअच्छों को तिगनी का नाच नचा देती हैं. एक समय था, जब हम इस बात से बिलकुल सहमत नहीं थे. हमारा मानना था कि मर्द लोग औरतों को तिगनी का नाच नचाते हैं. लेकिन पिछले दिनों हमारे दफ्तर में जो तमाशा हुआ था, उस की बदौलत हमें आज यकीन करना पड़ रहा है कि औरतें मर्दों को न केवल तिगनी का नाच नचा सकती हैं, बल्कि चाहें तो वे पूरी दुनिया पर राज भी कर सकती हैं.

उस दिन सोमवार था. दफ्तर में कदम रखने पर हमें अपनी एडवरटाइजिंग एजेंसी के गिनेचुने चेहरे ट्यूबलाइट की तरह चमकते दिखाई दिए. हम से रहा नहीं गया. हम ने तुरंत अपने दफ्तर के सुपरस्टार कन्हई चपरासी से पूछा, ‘‘क्यों भैया कन्हई, आज सभी के चेहरों पर बोनस मिलने वाली खुशी क्यों दिखाई दे रही है?’’

कन्हई ने फौरन अपने तंबाकू खाने से काले पड़े दांत दिखाए और बोला, ‘‘अविनाश बाबू, आज दफ्तर में दिल्ली वालों की जबान में ‘टोटा’, यूपी वालों की जबान में ‘छमिया’ और बिहार वालों की जबान में ‘कट्टो’ काम करने आ रही है.’’

दफ्तर में काम करने वाली लड़कियों का आनाजाना लगा ही रहता था, इसलिए हम ने कन्हई की बात को हलके तौर पर लिया और अपने काम में लग गए.

ठीक 11 बजे कन्हई की ‘छमिया’ ने दफ्तर में कदम रखा. उस पर नजर पड़ते ही हमें अपने दिल की धड़कन रुकती सी महसूस हुई. सही में ‘कट्टो’ थी वह. लंबा कद, दूध जैसा रंग, सेब जैसे गाल, रसभरे होंठ, बड़ीबड़ी आंखें, कमर तक लंबे बाल और बदन की नुमाइश करते मौडर्न कपड़े.

उसे देखते ही हमें यकीन करना पड़ा कि उस का बस चलता, तो वह पूजा भट्ट की तरह शरीर पर पेंट करा कर दफ्तर आती. दफ्तर की डिगनिटी मेनटेन रखने के लिए उस ने मजबूरी में कपड़े पहने थे.

उस का डैस्क मेरे डैस्क के सामने था, लिहाजा उस पर बैठने के लिए वह थोड़ा झुक गई. उस का झुकना था कि उस के उभार न चाहते हुए भी हमारी आंखों में गड़ कर रह गए.

यह नजारा देख कर हमारा कलेजा मुंह को आने में एक पल भी नहीं लगा. काफी देर तक हम चुपचाप बैठे रहे और अपनी तख्ती जैसी सपाट बीवी को पानी पीपी कर कोसते रहे. वह ‘छमिया’ की तरह हरीभरी क्यों नहीं थी? वह एक तख्ती की तरह क्यों थी?

ऐसी बात नहीं थी कि उस ‘छमिया’ के अंग प्रदर्शन से बस हमारी ही हालत पतली हुई थी. हम से ज्यादा बुरी हालत तो चौबेलालजी की थी. वे रहरह कर सांप की तरह जीभ बाहर निकाल कर अपने सूखे होंठों को तर कर रहे थे.

‘छमिया’ के अंग प्रदर्शन से दिलीप का चश्मा ही चटक गया था. वे अपने बैग से फौरन दूसरा चश्मा नहीं निकालते, तो शायद उन्हें टूटे चश्मे से ही पूरा दिन गुजारना पड़ जाता. ‘छमिया’ की जवानी की नुमाइश ने मीना को हीन भावना के गहरे कुएं में धकेल दिया था, क्योंकि वह भी हमारी बीवी की तरह तख्ती जैसी थी.

ठीक 12 बजे ‘डाकू हलाकू’ ने दफ्तर में कदम रखा. साहेबान, हमारे अन्नदाता बौस दफ्तर में इसी नाम से जाने जाते हैं. उन का चेहरा विलेन अमरीश पुरी की तरह लगता था, लेकिन उस दिन उन की निगाह झुक कर काम कर रही ‘छमिया’ के उभारों पर पड़ी, तो उन का चेहरा कौमेडियन जौनी लीवर की तरह दिखाई देने लगा. उन्होंने फौरन ‘छमिया’ को चैंबर में आने का आदेश दिया.

‘छमिया’ बड़ी अदा से उठी. उस ने हाथों से ही अपना हुलिया ठीक किया और कूल्हे मटकाते हुए ‘डाकू हलाकू’ के चैंबर में घुस गई.

उस की चाल देख कर एक बार तो हमारा भी मन हुआ कि हम अपनी मानमर्यादा को भूल कर उसे वहीं दबोच लें और फिर ‘इंसा का तराजू’ फिल्म शूट कर डालें.

पर चूंकि हम डालडा घी की पैदाइश थे, इसलिए हम ने अपने मन को जबरन मारा और अपने काम में लग गए. 15 मिनट बाद ‘छमिया’ ‘डाकू हलाकू’ के चैंबर से बाहर आई, तो लुटीपिटी दिखाई दे रही थी. उस के सलीके से प्रैस किए कपड़ों पर जगहजगह से सिलवटें दिखाई दे रही थीं.

सीट पर बैठते ही वह भुनभुनाई, ‘‘यह भी कोई बात हुई. काम 2 लोगों का और तनख्वाह एक की. सैक्रेटरी वाला काम कराना था, तो तनख्वाह भी उसी हिसाब से देनी थी…’’

अगले दिन भी यही किस्सा हुआ. ‘छमिया’ ‘डाकू हलाकू’ के चैंबर से भुनभुनाते हुए बाहर आई और अपनी सीट पर बैठ कर बड़बड़ाई, ‘‘नहीं चलेगा. बिलकुल नहीं चलेगा. तनख्वाह एक जने की और काम 2 जनों का. इस टकलू को तिगनी का नाच न नचाया, तो मेरा नाम भी नताशा नहीं.’’

चूंकि हमारे अन्नदाता के हम पर ढेरों एहसान थे, इसलिए हम उन के फेवर में बोले, ‘‘मैडम, हमारे बौस ने भी कच्ची गोलियां नहीं खेली हैं. वे चाहें तो तुम्हें चींटी की तरह मसल सकते हैं.’’

हमारी इस बात पर ‘छमिया’ खूंटा तुड़ी गाय की तरह हमारे करीब आई और भौंहों को सींगों के आकार में ढालते हुए बोली, ‘‘कितने की शर्त लगाते हो?’’

हमारा उस से शर्त लगाने का कोई इरादा नहीं था, फिर भी न जाने कैसे हमारे मुंह से निकल गया, ‘‘सौसौ रुपए की. आप ने हमारे अन्नदाता को तिगनी का नाच नचाया, तो सौ रुपए हमारी तरफ से और उन्होंने आप को चींटी की तरह मसल…’’

‘‘मुझे मंजूर है…’’ हमारी बात पूरी होने से पहले ही वह बोल पड़ी, ‘‘कल आप सौ रुपए तैयार रखना.’’

हम जानते थे कि इस जंग में हार सरासर ‘छमिया’ की होगी, इसलिए हम ने अगले दिन सौ रुपए तैयार रखने का वादा फौरन कर दिया. अगले दिन ‘छमिया’ ने दफ्तर में कदम रखा, तो हमारा दिल मानो धड़कना बंद हो गया. उस कमबख्त ने सच में सौ रुपए हमारी जेब से निकलवाने की सोच रखी थी.

मिनी स्कर्ट और चुस्त टौप में उस की जवानी फूटफूट कर बाहर आ रही थी. उस का डैस्क हमारे डैस्क के सामने था, इसलिए जब वह अपनी जगह पर बैठी, तो हमारी सांसें गले में फंसने लगीं.

हम ने तुरंत पानी के गिलास का सहारा लिया, वरना दफ्तर में यकीनन एंबुलैंस बुलानी पड़ जाती. जैसेतैसे हम ने अपना ध्यान उस की चिकनी टांगों से हटाया और अपने काम में बिजी हो गए. ठीक समय पर ‘डाकू हलाकू’ दफ्तर में आया और ‘छमिया’ को इशारा कर के अपने चैंबर में चला गया.

‘छमिया’ अपनी जगह से उठ कर हमारे सामने आई और हाथ फैला कर बोली, ‘‘जल्दी से सौ रुपए निकालो.’’

हम किसी अडि़यल घोड़े की तरह बिदके, ‘‘पहले ‘डाकू हलाकू’ को तिगनी का नाच तो नचाओ.’’

‘‘मैं वही काम करने जा रही हूं…’’ ‘छमिया’ बड़े सब्र से बोली, ‘‘थोड़ी देर बाद तुम्हारे साहब तुम्हारे सामने बिना कपड़ों के आ गए, तो मेरे खयाल से यह तिगनी का नाच ही होगा?’’

‘‘बिलकुल होगा…’’ हमारा सिर हैंडपंप के हत्थे की तरह हिला, ‘‘लेकिन यह काम तुम्हारे बस का नहीं है.’’

‘‘बहाने मत बनाओ और सौ रुपए का नोट निकाल लो.’’

‘‘सौ रुपए निकालने में हमें कोई हर्ज नहीं है…’’ हम बड़ी उदारता से बोले, ‘‘लेकिन मोहतरमा, हमें पता तो चले कि आप यह तमाशा दिखाने में कैसे कामयाब होंगी?’’

‘‘देखो, मेरे पास क्लोरोफार्म है…’’ ‘छमिया’ बोली, ‘‘तुम्हारे अन्नदाता जब मुझ से सैक्रेटरी वाला काम लेंगे, तब मैं उन्हें किसी तरीके से क्लोरोफार्म सुंघा दूंगी. उन के बेहोश होने के बाद मैं उन के सारे कपड़े अपने कब्जे में करूंगी और फिर कुछ फाइलों में आग लगा कर यहां से रफूचक्कर हो जाऊंगी.’’

हम ‘छमिया’ को यों देखने लगे, मानो वह वाकई यह काम करने जा रही है. थोड़ी देर बाद हमारे मुंह से निकला, ‘‘सारी बात समझ में आ गई, लेकिन फाइलों को आग लगाने वाली बात…’’

‘‘आग लगने पर ही तो तुम्हारा टकलू बिना कपड़ों के बाहर आएगा…’’ वह खीज कर बोली, ‘‘अब तुम मेरा कीमती समय बरबाद न करो और जल्दी से सौ रुपए निकालो.’’

हालांकि ‘छमिया’ का मनसूबा सिक्काबंद था, फिर भी हमें ‘डाकू हलाकू’ पर सौ फीसदी यकीन था. लिहाजा, हम ने अपने बटुए से सौ रुपए निकाले और ‘छमिया’ के हवाले कर दिए.

‘छमिया’ ने सौ का नोट अपनी गुप्त जेब में ठूंसा और हाई हील के सैंडिल ठकठका कर ‘डाकू हलाकू’ के चैंबर में घुस गई.

पौने घंटे बाद छमिया बाहर आई. अपना अंगूठा दिखा कर जब उस ने अपनी जीत की तसदीक की, तो हमारा दिल सौ रुपए के गम में डूबने सा लगा. उस समय ‘छमिया’ के हाथ में एक पौलीथिन बैग था. उस ने बैग में रखे हमारे अन्नदाता के कपड़े दिखाए और वहां से फुर्र हो गई.

तभी हमें अपने अन्नदाता के चैंबर से धुआं बाहर निकलता दिखाई दिया. चूंकि हम जानते थे कि हमारे बौस बेहोशी की हालत में पड़े होंगे, इसलिए हम फौरन अपनी जगह से उठे और उन के चैंबर की तरफ बढ़ गए. इस से पहले कि हम चैंबर का दरवाजा खोल पाते ‘आगआग’ का शोर मचा कर ‘डाकू हलाकू’ अपने चैंबर से बाहर निकल आए. यकीनन छमिया ने उन्हें कम मात्रा में क्लोरोफार्म सुंघाया था.

उस समय वाकई उन की हालत देखने लायक थी. लिहाजा, सभी के मुंह से एक चीख सी निकल गई.

‘डाकू हलाकू’ के जब होशोहवास जागे, तो वे मारे शर्म के छलांगें मार कर स्टोररूम में घुस गए.

साहेबान, ऐसी बात नहीं है कि इस तमाशे में सारा कुसूर ‘डाकू हलाकू’ का था. हम उन्हें जरा भी दोष नहीं देंगे. पर हम इतना जरूर कहेंगे कि मुंह बंधा कुत्ता कभी शिकार नहीं करता. ‘छमिया’ ने डबल तनख्वाह के लालच में भड़काऊ कपड़े पहन कर उन के मुंह खून लगाया था. छमिया यह सब नहीं करती, तो यह तमाशा भी नहीं होता.

आज की तारीख में हमें अन्नदाता ‘डाकू हलाकू’ से पूरी हमदर्दी है, फिर भी तमाशे के दौरान उन की हालत देख कर हम यही कहेंगे कि जिस औरत ने ‘डाकू हलाकू’ को भरे दफ्तर में नंगा कर दिया, वह कोशिश करे तो क्या नहीं कर सकती.

बोली : ठाकुर ने लगाई ईमानदार अफसर की कीमत

नौकर गणेश ने आ कर ठाकुर सोहन सिंह से घबराते हुए कहा, ‘‘हुजूर, थानेदार साहब आए हैं.’’

‘‘क्या कहा, थानेदार साहब आए हैं…’’ चौंकते हुए सोहन सिंह बोले, ‘‘उन्हें बैठक में बिठा दे. मैं अभी आया.’’

‘‘अच्छा हुजूर,’’ कह कर गणेश चला गया.

ठाकुर सोहन सिंह सोचते रह गए कि थानेदार राम सिंह आज उन की हवेली में क्यों आए हैं?

इस क्यों का जवाब उन के पास नहीं था, मगर थानेदार साहब का हवेली में आना कई बुरी शंकाओं को जन्म दे गया.

जब राम सिंह इस थाने के थानेदार बन कर आए थे, तब ठाकुर सोहन सिंह बड़े खुश हुए थे कि नया थानेदार किसी ठाकुर घराने का ही है और ठाकुर होने के नाते वे उन से हर तरह का फायदा उठाते रहेंगे. जैसा कि वे अब तक हर थानेदार से उठाते रहे हैं.

जिस दिन राम सिंह ने इस थाने का काम संभाला, उसी दिन ठाकुर सोहन सिंह अपने आदमियों के साथ उन का स्वागत करने थाने में पहुंच गए थे.

वहां जा कर उन्होंने कहा था, ‘हुजूर, इस थाने में आप का स्वागत है. मैं इस गांव का ठाकुर सोहन सिंह हूं.’

‘हां, मुझे मालूम है,’ थानेदार राम सिंह ने बेरुखी से जवाब दिया था.

‘हुजूर, इस गांव में आप किसी तरह की तकलीफ मत उठाना,’ ठाकुर सोहन सिंह उन के रूखेपन की परवाह न करते हुए बोले थे.

‘तकलीफ किस चिडि़या का नाम है? हम पुलिस वालों के शब्दकोश में यह नाम नहीं होता है,’ थानेदार राम सिंह के लहजे में वही अकड़ थी. वे बोले, ‘कहिए, किसलिए आए हैं आप लोग?’

नया थानेदार इस तरह की बेरुखी से सवाल पूछेगा, इस की सोहन सिंह को जरा भी उम्मीद न थी, इसलिए वे शालीनता से बोले थे, ‘बस, आप के दर्शन करने आए हैं हुजूर. आप से भेंटमुलाकात हो जाए और फिर आप का भी काम चलता रहे, साथ में हमारा भी.’

‘कहने का मतलब क्या है आप का?’ थानेदार राम सिंह गुस्से से उबल पड़े.

‘मतलब यह है हुजूर कि हम तो आप से दोस्ती बढ़ाने आए हैं. दोस्ती का रंग खूब निखरे, इस के लिए यह छोटा सा तोहफा लाए हैं,’ एक आदमी से सूटकेस ले कर थानेदार को देते हुए वे बोले, ‘लीजिए हुजूर, हमारी तरफ से तोहफा.’

‘क्या है इस में?’ थानेदार राम सिंह ने पूछा.

‘कहा न, उपहार…’ होंठों पर दिखावटी हंसी बिखेरते हुए ठाकुर सोहन सिंह ने कहा.

‘देखिए ठाकुर साहब, गांव का आदमी होने के नाते मैं आप की इज्जत करता हूं…’ थानेदार राम सिंह जरा नरम पड़ते हुए बोले, ‘आप घूस दे कर मुझे खरीदने की कोशिश मत कीजिए. चुपचाप यह सूटकेस उठाइए और बाहर चले जाइए.’

उस दिन थानेदार की ऐसी धमकी सुन कर ठाकुर सोहन सिंह का खून अंदर ही अंदर खौल उठा था, मगर वे बोले कुछ नहीं थे.

इस थाने में अभी तक जितने भी थानेदार आए थे, उन सब को ठाकुर सोहन सिंह ने खरीद लिया था. फिर पूरे गांव में उन का दबदबा था. मगर उस दिन वे चुपचाप सूटकेस उठा कर चलते बने थे. उस दिन वे इस थानेदार को खरीद नहीं सके थे, इसी का उन्हें मलाल हो रहा था.

थोड़े दिनों में ही थानेदार राम सिंह की ईमानदारी की छाप थाने में फैल चुकी थी.

गांव का ठाकुर होने के चलते सोहन सिंह का पूरे गांव में दबदबा था. लोगों से जमीनें हड़पना उन का धंधा था. कहने को आजकल सरकार ने राजेरजवाड़े सब छीन लिए हैं, मगर ठाकुर सोहन सिंह का अब भी उस इलाके में दबदबा था.

गरीब गांव वालों को ठाकुर सोहन सिंह कर्ज देते थे. कर्ज न चुकाने पर वे उन की जमीन हड़प लेते थे और फिर उन्हें बंधुआ मजदूर बना लेते थे.

जिस दिन ठाकुर सोहन सिंह को थाने से बाहर किया गया, उस की चर्चा पूरे गांव में फैल गई थी. लिहाजा, लोग अब खुल कर सांस लेने लगे थे.

मगर आज अचानक थानेदार राम सिंह का ठाकुर सोहन सिंह की हवेली में आना कई बुरी शंकाओं को जन्म दे गया, इसलिए झटपट तैयार हो कर बैठक में वे आ कर हाथ जोड़ते हुए बोले, ‘‘पधारिए हुजूर, हमें ही बुला लिया होता. आप ने आने की तकलीफ क्यों की?’’

‘‘ठाकुर साहब, आप के ही गांव के गणपत ने आप के खिलाफ रिपोर्ट लिखाई है,’’ थानेदार राम सिंह बिना किसी भूमिका के बोले.

यह सुन कर ठाकुर सोहन सिंह ने घबराते हुए पूछा, ‘‘मगर रिपोर्ट क्यों लिखाई उस ने?’’

‘‘आप ने उस की जमीन जबरदस्ती हड़प ली है…’’ थानेदार राम सिंह ने बेफिक्र हो कर कहा, ‘‘सुना है, गांव के गरीब किसानों को आप कर्ज देते हैं और बदले में वे अपनी जमीनें गिरवी रखते हैं. आप उन्हें दारू पिला कर कागज पर उन से अंगूठे का निशान लगवा लेते हैं.’’

‘‘नहीं हुजूर, यह झूठ है. उस से तो पूरे होशोहवास में अंगूठे का निशान लगवाया था,’’ ठाकुर सोहन सिंह की बात में गुस्सा था.

‘‘ठाकुर साहब, ठंडे दिमाग से बात कीजिए,’’ थानेदार राम सिंह ने कहा.

‘‘माफ करें थानेदार साहब,’’ नरम पड़ते हुए ठाकुर सोहन सिंह बोले, ‘‘गुस्सैल स्वभाव है न, इसलिए…’’

‘‘अपना स्वभाव बदलिए. लोगों के साथ प्रेम से रहना सीखिए,’’ थानेदार राम सिंह ने कहा.

‘‘देखिए ठाकुर साहब, आप गांव के इज्जतदार आदमी हैं. मैं नहीं चाहता कि गांव का साधारण सा आदमी आप पर कीचड़ उछाले… मेरा इशारा समझ गएन आप?’’

‘‘हां हुजूर, सबकुछ समझ गया…’’ मन में खुश होते हुए ठाकुर सोहन सिंह बोले, ‘‘यह केस रफादफा कर दें, तो मेहरबानी होगी.’’

‘‘मैं ने उस की रिपोर्ट रोजनामचे में नहीं लिखी है, क्योंकि आप की इज्जत का सवाल था,’’ थानेदार राम सिंह ने कहा.

‘‘बहुत अच्छा किया आप ने. आप ने हमारी आपसदारी की लाज रख ली.’’

‘‘पुलिस की नौकरी में आपसदारी नहीं चलती है ठाकुर साहब…’’ सोहन सिंह को नीचा दिखाने के अंदाज में थानेदार राम सिंह ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘मैं आप की मदद करूं और आप मेरी करें, इस बात को समझते हैं न आप?’’

‘‘समझ गया हुजूर, सब समझ गया,’’ फिर सोहन सिंह तिजोरी में से सौसौ की गड्डियां निकाल कर देते हुए बोले, ‘‘लीजिए हुजूर.’’

‘‘समझिए, आप का काम हो गया,’’ गड्डियों को जेब में रखते हुए थानेदार साहब अदा से बोले, ‘‘आप सोच रहे होंगे कि मैं ने यह सब उस दिन क्यों नहीं लिया?’’

‘‘मैं सब समझ गया हुजूर?’’

‘‘क्या समझ गए?’’

‘‘यही कि आप जनता की नजरों में ईमानदार बने रहना चाहते थे…’’ खुश होते हुए ठाकुर सोहन सिंह बोले, ‘‘मगर हुजूर, आप के काम करने का तरीका अनोखा लगा.’’

‘‘हां ठाकुर साहब, जनता में छवि बनाने के लिए ढोंग का सहारा तो लेना ही पड़ता है…’’ थानेदार राम सिंह बोले, ‘‘फिर आप भी जानते हैं, आजकल थानों की बोली लगती है. मैं इस थाने की बोली 6 लाख रुपए की लगा कर आया हूं. लिहाजा, अब मुझे 6 लाख रुपए का इंतजाम करना पड़ेगा. इसलिए तस्कर, चोर और बदमाशों से रिश्ते रखने पड़ेंगे.’’

‘‘वाह हुजूर, वाह. तब तो आप भी हमारी ही बिरादरी के हैं.’’

‘‘हां ठाकुर साहब, हमारी बिरादरी एक है. अब चलने की इजाजत दें,’’ कह कर थानेदार साहब चले गए.

थानेदार के जाते ही ठाकुर सोहन सिंह खुशी से झूम उठे और अपने नौकर गणेश से बोले, ‘‘अरे, ओ गणेश…’’

‘‘हां हुजूर, कहिए…’’ पास आ कर गणेश बोला.

‘‘थानेदार क्या कह गया, सुना कुछ तू ने?’’

‘‘क्या कह गया हुजूर?’’

‘‘अरे, वह भी इस थाने की बोली लगा कर आया है. अब उस से घबराने की कोई जरूरत नहीं…’’ खुशी से ठाकुर सोहन सिंह बोले, ‘‘ईमानदार के वेश में वह भी बेईमान निकला,’’ इतना कह कर वे अलमारी में से शराब की बोतल निकालने लगे.

स्नेहदान: क्या चित्रा अपने दिल की बात अनुराग से कह पायी

चित्रा बिस्तर पर लेट कर जगजीत सिंह की गजल ‘वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी’ सुन रही थी कि अचानक दरवाजे की घंटी की आवाज ने उसे चौंका दिया. वह अपना दुपट्टा संभालती हुई उठी और दरवाजा खोल कर सामने देखा तो चौंक गई. उसे अपनी ही नजरों पर विश्वास नहीं हो रहा था कि उस के सामने बचपन का दोस्त अनुराग खड़ा है.

चित्रा को देखते ही अनुराग हंसा और बोला, ‘‘मोटी, देखो तुम्हें ढूंढ़ लिया न. अब अंदर भी बुलाओगी या बाहर ही खड़ा रखोगी.’’

चित्रा मुसकराई और उसे आग्रह के साथ अंदर ले कर आ गई. अनुराग अंदर आ गया. उस ने देखा घर काफी सुरुचिपूर्ण ढंग से सजा हुआ है और घर का हर कोना मेहमान का स्वागत करता हुआ लग रहा है. उधर चित्रा अभी भी अनुराग को ही निहार रही थी. उसे याद ही नहीं रहा कि वह उसे बैठने के लिए भी कहे. वह तो यही देख रही थी कि कदकाठी में बड़ा होने के अलावा अनुराग में कोई अंतर नहीं आया है. जैसा वह भोला सा बचपन में था वैसा ही भोलापन आज भी उस के चेहरे पर है.

आखिर अनुराग ने ही कहा, ‘‘चित्रा, बैठने को भी कहोगी या मैं ऐसे ही घर से चला जाऊं.’’

चित्रा झेंपती हुई बोली, ‘‘सौरी, अनुराग, बैठो और अपनी बताओ, क्या हालचाल हैं. तुम्हें मेरा पता कहां से मिला? इस शहर में कैसे आना हुआ…’’

अनुराग चित्रा को बीच में टोक कर बोला, ‘‘तुम तो प्रश्नों की बौछार गोली की तरह कर रही हो. पहले एक गिलास पानी लूंगा फिर सब का उत्तर दूंगा.’’

चित्रा हंसी और उठ कर रसोई की तरफ चल दी. अनुराग ने देखा, चित्रा बढ़ती उम्र के साथ पहले से काफी खूबसूरत हो गई है.

पानी की जगह कोक के साथ चित्रा नाश्ते का कुछ सामान भी ले आई और अनुराग के सामने रख दिया अनुराग ने कोक से भरा गिलास उठा लिया और अपने बारे में बताने लगा कि उस की पत्नी का नाम दिव्या है, जो उस को पूरा प्यार व मानसम्मान देती है. सच पूछो तो वह मेरी जिंदगी है. 2 प्यारे बच्चे रेशू व राशि हैं. रेशू 4 साल का व राशि एक साल की है और उस की अपनी एक कपड़ा मिल भी है. वह अपनी मिल के काम से अहमदाबाद आया था. वैसे आजकल वह कानपुर में है.

अनुराग एक पल को रुका और चित्रा की ओर देख कर बोला, ‘‘रही बात तुम्हारे बारे में पता करने की तो यह कोई बड़ा काम नहीं है क्योंकि तुम एक जानीमानी लेखिका हो. तुम्हारे लेख व कहानियां मैं अकसर पत्रपत्रिकाओं में पढ़ता रहता हूं.

‘‘मैं ने तो तुम्हें अपने बारे में सब बता दिया,’’ अनुराग बोला, ‘‘तुम सुनाओ कि तुम्हारा क्या हालचाल है?’’

इस बात पर चित्रा धीरे से मुसकराई और कहने लगी, ‘‘मेरी तो बहुत छोटी सी दुनिया है, अनुराग, जिस में मैं और मेरी कहानियां हैं और थोड़ीबहुत समाजसेवा. शादी करवाने वाले मातापिता रहे नहीं और करने के लिए अच्छा कोई मनमीत नहीं मिला.’’

अनुराग शरारत से हंसते हुए बोला, ‘‘मुझ से अच्छा तो इस दुनिया में और कोई है नहीं,’’ इस पर चित्रा बोली, ‘‘हां, यही तो मैं भी कह रही हूं,’’ और फिर चित्रा और अनुराग के बीच बचपन की बातें चलती रहीं.

बातों के इस सिलसिले में समय कितना जल्दी बीत गया इस का दोनों को खयाल ही न रहा. घड़ी पर नजर पड़ी तो अनुराग ने चौंकते हुए कहा, ‘‘अरे, रात होने को आई. अच्छा, अब मुझे चलना चाहिए.’’

चित्रा बोली, ‘‘तुम भी कमाल करते हो, अनुराग, आधुनिक पुरुष होते हुए भी बिलकुल पुरानी बातें करते हो. तुम मेरे मित्र हो और एक दोस्त दूसरे दोस्त के घर जरूर रुक सकता है.’’

अनुराग ने हाथ जोड़ कर शरारत से कहा, ‘‘देवी, आप मुझे माफ करें. मैं आधुनिक पुरुष जरूर हूं, हमारा समाज भी आधुनिक जरूर हुआ है लेकिन इतना नहीं कि यह समाज एक सुंदर सी, कमसिन सी, ख्यातिप्राप्त अकेली कुंआरी युवती के घर उस के पुरुष मित्र की रात बितानी पचा सके. इसलिए मुझे तो अब जाने ही दें. हां, सुबह का नाश्ता तुम्हारे घर पर तुम्हारे साथ ही करूंगा. अच्छीअच्छी चीजें बना कर रखना.’’

यह सुन कर चित्रा भी अपनी हंसी दबाती हुई बोली, ‘‘जाइए, आप को जाने दिया, लेकिन कल सुबह आप की दावत पक्की रही.’’

अनुराग को विदा कर के चित्रा उस के बारे में काफी देर तक सोचती रही और सोचतेसोचते कब उस की आंख लग गई उसे पता ही नहीं चला. सुबह जब आंख खुली तो काफी देर हो चुकी थी. उस ने फौरन नौकरानी को बुला कर नाश्ते के बारे में बताया और खुद तैयार होने चली गई.

आज चित्रा का मन कुछ विशेष तैयार होने को हो रहा था. उस ने प्लेन फिरोजी साड़ी पहनी. उस से मेलखाती माला, कानों के टाप्स और चूडि़यां पहनीं और एक छोटी सी बिंदी भी लगा ली. जब खुद को आईने में देखा तो देखती ही रह गई. उसी समय नौकरानी ने आ कर कहा, ‘‘दीदी, अनुराग साहब आए हैं.’’

चित्रा फौरन नीचे उतर कर ड्राइंग रूम में आई तो देखा कि अनुराग फोन पर किसी से बात कर रहे हैं. अनुराग ने इशारे से उसे अपने पास बुलाया और फोन उस के हाथ में दे दिया. वह आश्चर्य से उस की ओर देखने लगी. अनुराग हंसते हुए बोला, ‘‘दिव्या का फोन है. वह तुम से बात करना चाहती है.’’

अचानक चित्रा की समझ में नहीं आया कि वह क्या बोले लेकिन उस ने उधर से दिव्या की प्यारी मीठी आवाज सुनी तो उस की झिझक भी दूर हो गई.

दिव्या को चित्रा के बारे में सब पता था. फोन पर बात करते समय ऐसा लग ही नहीं रहा था कि वे दोनों पहली बार एकदूसरे से बातें कर रही हैं. थोड़ी देर बाद अनुराग ने फोन ले लिया और दिव्या को हाय कर के फोन रख दिया.

‘‘चित्रा जल्दी नाश्ता कराओ. बहुत देर हो रही है. मुझे अभी प्लेन से आगरा जाना है. यहां मेरा काम भी खत्म हो गया और तुम से मुलाकात भी हो गई.’’

अनुराग बोला तो दोनों नाश्ते की मेज पर आ गए.

नाश्ता करते हुए अनुराग बारबार चित्रा को ही देखे जा रहा था. चित्रा ने महसूस किया कि उस के मन में कुछ उमड़घुमड़ रहा है. वह हंस कर बोली, ‘‘अनुराग, मन की बात अब कह भी दो.’’

अनुराग बोला, ‘‘भई, तुम्हारे नाश्ते व तुम को देख कर लग रहा है कि आज कोई बहुत बड़ी बात है. तुम बहुत अच्छी लग रही हो.’’

चित्रा को ऐसा लगा कि वह भी अनुराग के मुंह से यही सुनना चाह रही थी. हंस कर बोली, ‘‘हां, आज बड़ी बात ही तो है. आज मेरे बचपन का साथी जो आया है.’’

नाश्ता करने के बाद अनुराग ने उस से विदा ली और बढि़या सी साड़ी उसे उपहार में दी, साथ ही यह भी कहा कि एक दोस्त की दूसरे दोस्त के लिए एक छोटी सी भेंट है. इसे बिना नानुकर के ले लेना. चित्रा ने भी बिना कुछ कहे उस के हाथ से वह साड़ी ले ली. अनुराग उस के सिर को हलका सा थपथपा कर चला गया.

चित्रा काफी देर तक ऐसे ही खड़ी रही फिर अचानक ध्यान आया कि उस ने तो अनुराग का पता व फोन नंबर कुछ भी नहीं लिया. उसे बड़ी छटपटाहट महसूस हुई लेकिन वह अब क्या कर सकती थी.

दिन गुजरने लगे. पहले वाली जीवनचर्या शुरू हो गई. अचानक 15 दिन बाद अनुराग का फोन आया. चित्रा के हैलो बोलते ही बोला, ‘‘कैसी हो? हो न अब भी बेवकूफ, उस दिन मेरा फोन नंबर व पता कुछ भी नहीं लिया. लो, फटाफट लिखो.’’

इस के बाद तो अनुराग और दिव्या से चित्रा की खूब सारी बातें हुईं. हफ्ते 2 हफ्ते में अनुराग व दिव्या से फोन पर बातें हो ही जाती थीं.

आज लगभग एक महीना होने को आया पर इधर अनुराग व दिव्या का कोई फोन नहीं आया था. चित्रा भी फुरसत न मिल पाने के कारण फोन नहीं कर सकी. एक दिन समय मिलने पर चित्रा ने अनुराग को फोन किया. उधर से अनुराग का बड़ा ही मायूसी भरा हैलो सुन कर उसे लगा जरूर कुछ गड़बड़ है. उस ने अनुराग से पूछा, ‘‘क्या बात है, अनुराग, सबकुछ ठीकठाक तो है. तुम ने तो तब से फोन भी नहीं किया.’’

इतना सुन कर अनुराग फूटफूट कर फोन पर ही रो पड़ा और बोला, ‘‘नहीं, कुछ ठीक नहीं है. दिव्या की तबीयत बहुत खराब है. उस की दोनों किडनी फेल हो गई हैं. डाक्टर ने जवाब दे दिया है कि अगर एक सप्ताह में किडनी नहीं बदली गई तो दिव्या नहीं बच पाएगी… मैं हर तरह की कोशिश कर के हार गया हूं. कोईर् भी किडनी देने को तैयार नहीं है. मुझे समझ में नहीं आ रहा कि मैं क्या करूं? मेरा व मेरे बच्चों का क्या होगा?’’

चित्रा बोली, ‘‘अनुराग, परेशान न हो, सब ठीक हो जाएगा. मैं आज ही तुम्हारे पास पहुंचती हूं.’’

शाम तक चित्रा आगरा पहुंच चुकी थी. अनुराग को देखते ही उसे रोना आ गया. वह इन कुछ दिनों में ही इतना कमजोर हो गया था कि लगता था कितने दिनों से बीमार है.

पति जो ठहरे: शादी के बाद कैसा था सलोनी का हाल

सलोनी की शादी के पीछे सब हाथ धो कर पड़े थे. कुछ तो अंधविश्वासी टाइप के लोग मुफ्त की सलाह भी देते,” देखो, शादी समय से होनी चाहिए नहीं तो बड़ी मुसीबत होगी और अच्छा पति भी नहीं मिलेगा. इसलिए 16 सोमवार का व्रत करो, वैभव लक्ष्मी का 11 शुक्रवार भी, शादी आराम से हो जाएगी…”

सलोनी ने सारे व्रतउपवास कर लिए. अब इंतजार था कि कोई राजकुमार आएगा और उसे घोड़े पर बैठा कर ले जाएगा और जिंदगी हो जाएगी सपने जैसी. प्रतीक्षा को विराम लगा और आ गए राजकुमार साहब, मगर घोड़ा नहीं कार पर चढ़ कर.

अब शादी के पहले का हाल भी बताना जरूरी है…

सगाई के बाद ही सलोनी को यह राजकुमार साहब लगे फोन करने. घंटों बतियाते, चिट्ठी भी लिखतेलिखाते. सलोनी के तो पौ बारह, पढ़ालिखा बांका जवान जो मिल गया था. खैर, शादी धूमधाम से हुई. सलोनी के पैर जमीन पर नहीं पङ रहे थे.

राजकुमार साहब भी शुरुआत में हीरो की माफिक रोमांटिक थे पर पति बनते ही दिमाग चढ़ गया सातवें आसमान पर,”मैं पति हूं…” सलोनी भी हक्कीबक्की कि इन महानुभाव को हुआ क्या? अभी तक तो बड़े सलीके से हंसतेमुसकराते थे, लेकिन पति बनते ही नाकभौं सिकोड़ कर बैठ गए. प्रेम के महल में हुक्म की इंतहा…. यह बात कुछ हजम नहीं हुई पर शादी की है तो हजम करना ही पड़ेगा. फिर तो सलोनी ने अपना पूरा हाजमा ठीक किया पर पति को यह कैसे बरदाश्त कि पत्नी का हाजमा सही हो रहा है, कुछ तो करना पड़ेगा वरना पति बनने का क्या फायदा?

“कपड़े क्यों नहीं फैलाए अभी तक?” पति महाशय ने हेकङी दिखाते हुए पूछा.

बेचारी सलोनी ने सहम कर कहा,”भूल गई थी.”

“कैसे भूल गईं? फेसबुक, व्हाट्सऐप, किताबें याद रहती हैं… यह कैसे भूल गईं?”

‘अब भूल गई तो भूल गई. भूल सुधार ली जाएगी,’ सलोनी मन ही मन बोली.

“कितनी बड़ी गलती है यह तो. अब जाओ, आइंदे से मेरा कोई काम मत करना, मैं खुद कर लूंगा,” पति महाशय ने ऐलान कर दिया.

‘ठीक है जनाब, कर लो… बहुत अच्छा. ऐसे भी मुझे कपड़े फैलाने पसंद नहीं,’ सलोनी ने मन में सोचा.

पति महाशय ने मुंह फुला लिया तो अब बात नहीं करेंगे. बात नहीं करेंगे तो वह भी कुछ घंटों नहीं बल्कि पूरे 3-4 दिनों तक. अब सलोनी का हाजमा कहां से ठीक हो, अब तो ऐसिडिटी होना ही है फिर सिरदर्द.

एक बार सलोनी पति महाशय के औफिस के टूअर पर साथ आई थी. पति महाशय ने रात को गैस्ट हाउस के कमरे में साबुन मांगा. सलोनी ने साबुनदानी पकड़ाई पर यह क्या, उस में तो पिद्दी सा साबुन का टुकड़ा था. पति महाशय का गुस्सा सातवें आसमान पर. फिर तो पूरे 1 हफ्ते बात नहीं की. औफिस के टूअर में घूमने आई सलोनी की घुमाई गैस्ट हाउस में ही रह गई, आखिर इतनी बड़ी भूल जो कर दी थी.

उस के बाद से सलोनी कभी साबुन ले जाना नहीं भूली. पति महाशय गर्व से सीना तान लिए कि सलोनी की इस गलती को उन्होंने सुधार दी. सलोनी ने भी सोचा कि पति के इस तरह मुंह फुलाने की गलती को सुधारा जाए पर पति कहां सुधरने वाले. उन का मुंह गुब्बारे जैसा फूला तो जल्दी पिचकेगा नहीं, आखिर पति जो ठहरे.

सलोनी एक बार घूमने गई थी बड़े शौक से. पति महाशय ने ऊंची एड़ी की सैंडिल खरीदी. सलोनी सैंडिल पहन कर ज्यों ही घूमने निकली कि ऊंची एड़ी की चप्पल गई टूट और पति महाशय गए रूठ. उस पर से ताना भी मार दिया,”कभी इतनी ऊंची एड़ी की चप्पलें पहनी नहीं तो खरीदी क्यों? अब चलो, बोरियाबिस्तर समेट वापस चलो. सलोनी हो गई हक्कीबक्की कि इतनी सी बात पर इतना बवाल? आखिर चप्पल ही है दूसरी ले लेंगे. पति महाशय का मुंह तिकोना हो गया तो सीधा होने में समय लगता है पर सलोनी को भी ऐसे आड़ेतिरछे सीधा करना खूब आता है. फिर तो “सौरी…” बोल कर मामला रफादफा किया.

कभीकभी पति महाशय का स्वर चाशनी में लिपटा होता है पर ऐसा बहुत कम ही होता है. एक बार बड़े प्यार से सलोनी को जन्मदिन पर घुमाने का वादा कर औफिस चले गए और लौटने पर सलोनी के तैयार होने में सिर्फ 5 मिनट की देरी पर बिफर पड़े. नाकभौं सिकोड़ कर ले गए मौल लेकिन मुंह से एक शब्द भी नहीं फूटा… सलोनी ने अपनी फूटी किस्मत को कोसा कि ऐसे नमूने पति मिले थे उसे.

सलोनी पति की प्रतीक्षा में थी कि पति टूअर से लौट कर आएंगे तो साथ में खाना खाएंगे. पति महाशय लौटे 11 बजे. जैसे ही सुना कि सलोनी ने खाना नहीं खाया तो बस जोर से डपट दिया और पूरी रात मुंह फुलाए लेटे रहे. सलोनी ने फिल्मों में कुछ और ही देखा था पर हकीकत तो कुछ और ही था.

वह दिन और आज का दिन सलोनी ने पति की प्रतीक्षा किए बगैर ही खाने का नियम बना लिया. अब भला कौन भूखे पेट को लात मारे और भूखे रह कर कौन से उसे लड्डू मिलने वाले थे.

कभीकभी भ्रम का घंटा मनुष्य को अपने लपेटे में ले ही लेता है. सलोनी को लगा कि पति महाशय का त्रिकोण अब सरलकोण में तब्दील होने लगा है पर भरम तो भरम ही होता है सच कहां होता है? सलोनी को प्रतीत हुआ कि उस का इकलौता पति भी सलोना हो गया है पर सूरत और सीरत में फर्क होता है न… सूरत से सलोना और सीरत… व्यंग्यबाण चला दिया,”आजकल बस पढ़तीलिखती ही रहती हो, घर का काम भी मन से कर लिया किया करो. नहीं तो कोई जरूरत नहीं करने की…”

सलोनी ने कुछ ऊंचे स्वर में कहा,”दिखता नहीं है कि मैं कितना काम करती हूं…” इतना कहना था कि पति जनाब ने फिर से मुंह फुला लिया. इस बार सलोनी ने भी ठान लिया कि वह पति को नहीं मनाएगी. पर हमेशा की तरह सलोनी ने ही मनाया.

सलोनी ने एक दिन अपनी माता से अपनी व्यथा कथा कह डाली,”मां, पापा तो ऐसे हैं नहीं?”

मां मुसकराईं,”बेटी, तुम्हारे पापा बहुत अच्छे हैं पर पति कैसे हैं उस का दुखड़ा अब तुम से क्या बताऊं…मेरी दुखती रग पर तुम ने हाथ रख दिया….दरअसल, यह पति नामक प्रजाति होती ही ऐसी है. इस प्रजाति में कोई भी जैविक विकास की अवधारणा लागू नहीं होती, इसलिए जो है जैसा है, इन्हीं से उलझे रहो. ये कभी सुलझने वाले नहीं. लड़के प्रेमी, भाई, मित्र, पिता सब रूप में अच्छे हैं पर पति बनते ही बौरा जाते हैं. सलोनी को वह गाना याद आने लगा, ‘भला है, बुरा है, जैसा भी है मेरा पति मेरा…’

“पर मां, स्त्री के अधिकारों का क्या और स्त्री विमर्श का प्रश्न?” सलोनी ने पूछा.

“सलोनी, तुम्हारा पति त्रिकोण ही सही पर तिकोना समोसा खिलाता है न…”

“हां, वह तो खिलाते हैं…”

“बस, फिर कोई बात नहीं, उस की बातें एक कान से सुनो और दूसरे से निकाल दो. अपना काम धीरेधीरे करते चलो…”

सलोनी ने एक ठंडी आह भरी और मुंह से निकला,”ओह, पति जो ठहरे.”

दिल जंगली : पत्नी के अफेयर होने की बात पर सोम का क्या था फैसला

रात के 10 बज रहे थे. 10वीं फ्लोर पर स्थित अपने फ्लैट से सोम कभी इस खिड़की से नीचे देखता तो कभी उस खिड़की से. उस की पत्नी सान्वी डिनर कर के नीचे टहलने गई थी. अभी तक नहीं आई थी. उन का 10 साल का बेटा धु्रव कार्टून देख रहा था. सोम अभी तक लैपटौप पर ही था, पर अब बोर होने लगा तो घर की चाबी ले कर नीचे उतर गया.

सोसाइटी में अभी भी अच्छीखासी रौनक थी. काफी लोग सैर कर रहे थे. सोम को सान्वी कहीं दिखाई नहीं दी. वह घूमताघूमता सोसाइटी के शौपिंग कौंप्लैक्स में भी चक्कर लगा आया. अचानक उसे दूर जहां रोशनी कम थी, सान्वी किसी पुरुष के साथ ठहाके लगाती दिखी तो उस का दिमाग चकरा गया. मन हुआ जा कर जोर का चांटा सान्वी के मुंह पर मारे पर आसपास के माहौल पर नजर डालते हुए सोम ने अपने गुस्से पर कंट्रोल कर उन दोनों के पीछे चलते हुए आवाज दी, ‘‘सान्वी.’’

सान्वी चौंक कर पलटी. चेहरे पर कई भाव आएगए. साथ चलते पुरुष से तो सोम खूब परिचित था ही. सो उसे मुसकरा कर बोलना ही पड़ा, ‘‘अरे प्रशांत, कैसे हो?’’

प्रशांत ने फौरन हाथ मिलाने के लिए आगे बढ़ाया, ‘‘मैं ठीक हूं, तुम सुनाओ, क्या हाल है?’’

सोम ने पूरी तरह से अपने दिलोदिमाग पर काबू रखते हुए आम बातें जारी रखीं. सान्वी चुप सी हो गई थी. सोम मौसम, सोसाइटी की आम बातें करने लगा. प्रशांत भी रोजमर्रा के ऐसे विषयों पर बातें करता हुआ कुछ दूर साथ चला. फिर ‘घर पर सब इंतजार कर रहे होंगे’ कह कर चला गया.

प्रशांत के जाने के बाद सोम ने सान्वी को घूरते हुए कहा, ‘‘ये सब क्या चल रहा है?’’

सान्वी ने जब कड़े तेवर से कहा कि जो तुम्हें सम झना है, सम झ लो तो सोम को हैरत हुई. सान्वी पैर पटकते हुए तेजी से घर की तरफ बढ़ गई. आ कर दोनों ने एक नजर धु्रव पर डाली. सान्वी ने धु्रव को ले जा कर उस के रूम में सोने के लिए लिटा दिया. अगले दिन उस का स्कूल भी था.

सान्वी के बैडरूम में पहुंचते ही सोम गुर्राया, ‘‘सान्वी, ये सब क्या चल रहा है? इतनी रात प्रशांत के साथ क्यों घूम रही थी?’’

‘‘ऐसे ही… वह दोस्त है मेरा… नीचे मिल गया तो साथ घूमने लगे.’’

‘‘यह नहीं सोचा कि कोई देखेगा तो क्या सोचेगा?’’

‘‘नहीं सोचा… ऐसा क्या तूफान खड़ा हो गया?’’

सुबह सोम को औफिस जाना था. वह बिजनैसमैन था. आजकल उस का काम घाटे में चल रहा था… उस का दिमाग गुस्से में घूम रहा था पर इस समय वह सान्वी के अजीब से तेवर देख कर चुपचाप गुस्से में करवट बदल कर लेट गया.

सान्वी ने रोज की तरह कपड़े बदले, फ्रैश हुई, नाइट क्रीम लगाई और मन ही मन मुसकराते हुए प्रशांत को याद करते उस की बातों में खोईखोई बैड पर लेट गई. बराबर में नाराज लेटे सोम पर उस का जरा भी ध्यान नहीं था. उस से बिलकुल लापरवाह थोड़ी देर पहले की प्रशांत की बातों को याद कर मुसकराए जा रही थी.

प्रशांत और सान्वी का परिवार 2 साल पहले ही इस सोसाइटी में करीबकरीब साथ ही शिफ्ट हुआ था. प्रशांत से उस की दोस्ती जिम में आतेजाते हुई थी जो बढ़ कर अब प्रगाढ़ संबंधों में बदल चुकी थी. प्रशांत की पत्नी नेहा और उन के 2 युवा बच्चों आर्यन और शुभा से वह बहुत बार मिल चुकी थी. आपस में घर भी आनाजाना हो चुका था. सब से नजरें बचाते हुए प्रशांत और सान्वी अपने रिश्ते में फूंकफूंक कर कदम आगे बढ़ा रहे थे. दोनों का दिल किसी जंगली की तरह न किसी रिश्ते का नियम मानता था, न समाज का कोई कानून. दोनों को एकदूसरे को देखना, बातें करना, साथ हंसना, कुछ समय साथ बिताना बहुत खुशी दे जाता था. दोनों ने अब किसी की भी परवाह करनी छोड़ दी थी.

धु्रव छोटा था. उस की पूरी जिम्मेदारी सान्वी ही उठाती थी. सोम लापरवाह इंसान था. सोम से उस का विवाह उस की दौलत देख कर सान्वी के पेरैंट्स ने तय किया था पर शादी के बाद सोम की पर्सनैलिटी सान्वी को कुछ ज्यादा जंची नहीं. जहां सान्वी बहुत सुंदर, स्मार्ट, फिटनैस के प्रति सजग, जिंदादिली स्त्री थी, वहीं सोम ढीलाढाला सा नौकरों पर बिजनैस छोड़ दोस्तों के साथ शराब पीने में खुशी पाने वाला गैरजिम्मेदार, मूडी, गुस्सैल इंसान था.

सोम के मातापिता भी इसी बिल्डिंग में दूसरे फ्लैट में रहते थे. सान्वी उन के प्रति भी हर फर्ज पूरा करती आई थी. सासससुर को जब भी कोई जरूरत होती, इंटरकौम से सान्वी को बुला लेते. सान्वी फौरन जाती. सोम घरगृहस्थी की हर जिम्मेदारी सान्वी पर डाल निश्चिंत रहता. दोस्तों के साथ पी कर आता. अंतरंग पलों में सान्वी के साथ जिस तरह पेश आता सान्वी कलप कर रह जाती. कहां उस ने कभी रोमांस में डूबे दिनरातके सपने देखे थे और कहां अब पति के मूडी स्वभाव से तालमेल मिलाने की कोशिश ही करती रह जाती.

प्रशांत से मिलते ही दिल खिल सा गया था. प्रशांत उस की हर बात पर ध्यान देता, उस की हर जरूरत का ध्यान रखता  था. सोम कभीकभी मुंबई से बाहर जाता. धु्रव स्कूल में होता तब प्रशांत औफिस से छुट्टी कर धु्रव के आने तक का समय सान्वी के साथ ही बिताता. किसी भी नियम को न मानने वाले दोनों के दिल सभी सीमाएं पार कर गए थे. दोनों एकदूसरे की बांहों में तृप्त हो घंटों पड़े रहते.

सान्वी के तनमन को किस सुख की कमी थी, वह सुख जब प्रशांत से मिला तो उस की सम झ में आया कि अगर प्रशांत न मिला होता तो यह कमी रह जाती. मशीनी से सैक्स के अलावा भी बहुत कुछ है जीवन में… अब सान्वी को पता चला सैक्स सिर्फ शरीर की जरूरत के समय पास आना ही नहीं है, तनमन के अंदर उतर जाने वाला मीठा सा कोमल एहसास भी है.

प्रशांत न मिलता तो न जाने जीवन के कितने खूबसूरत पल अनछुए से रह जाते. उसे कोई अपराधबोध नहीं है. उस ने हमेशा सोम को मौका मिलने पर किसी के साथ भी फ्लर्ट करते देखा है. उस के टोकने पर हमेशा यही जवाब दे कर उसे चुप करवा दिया कि कितनी छोटी सोच है तुम्हारी… 2 बार वह रिश्ते की एक कजिन के साथ सोम को खुलेआम रंगरलियां मनाते पकड़ चुकी है, पर सोम नहीं सुधरा. पराई औरतों के साथ मनमानी हरकतें करना उस के हिसाब से मर्दानगी है. उसे खुशी मिलती है. आज प्रशांत के साथ उसे देख कर ज्यादा कुछ शायद इसलिए ही कह न सका… प्रशांत को याद करतेकरते सान्वी को नींद आ गई.

प्रशांत घर पहुंचा तो नेहा, आर्यन, शुभा सब लेट चुके थे. आर्यन, शुभा दोनों कालेज के लिए जल्दी निकलते थे. उन के लिए नेहा को भी टाइम से सोना पड़ता था.

प्रशांत चेंज कर के बैडरूम में आया तो नेहा ने पूछा, ‘‘इतना लेट?’’

‘‘हां, टहलना अच्छा लग रहा था.’’

‘‘किस के साथ थे?’’

‘‘सान्वी मिल गई थी, फिर सोम भी आ गया था.’’

नेहा चुप रही. पति की सान्वी से बढ़ती नजदीकियों की उसे पूरी खबर थी पर क्या करे, कैसे कहे, युवा बच्चे हैं… बहुत सोचसम झ कर बात करनी पड़ती है. प्रशांत को गुस्से में चिल्लाने की आदत है. शुभा सम झ रही थी कि सान्वी को क्या पता प्रशांत के बारे में… वह बाहर कुछ और है, घर में कुछ और जैसेकि आम आदमी होते हैं. 20 साल के वैवाहिक जीवन में नेहा प्रशांत की रगरग से वाकिफ हो चुकी थी. दूसरी औरतों को प्रभावित करने में उस का कोई मुकाबला नहीं था. नेहा की खुद की छोटी बहन से प्रशांत की अंतरंगता थी. वह कुछ नहीं कर पाई थी. जब उस की बहन की शादी कहीं और हो गई तब जा कर नेहा की जान में जान आई थी. पता नहीं कितनी औरतों के साथ वह फ्लर्ट कर चुका था. गरीब घर की नेहा अपने बच्चों को सुरक्षित भविष्य देने के चक्कर में प्रशांत के साथ निभाती आई थी, पर सान्वी का यह किस्सा आज तक का सब से ज्यादा ओपन केस हो रहा था. अब नेहा परेशान थी. सोसाइटी को यह पता था कि दोनों का जबरदस्त अफेयर है. दोनों डंके की चोट पर मिलते, मूवी देखते, बाहर जाते. प्रशांत तो लेटते ही खर्राटे भरने लगा था पर नेहा बेचैन सी उठ कर बैठ गई कि कैसे रोके प्रशांत की दिल्लगियां? कब सुधरेगा यह? बच्चे भी बड़े हो गए… वह जानती है बच्चों तक यह किस्सा पहुंच चुका है, बच्चे नाराज से रहते हैं, चुप रहने लगे हैं. आजकल नेहा का कहीं मन नहीं लग रहा है. क्या करे. इस बार जैसा तो कभी नहीं हुआ था. अब तो प्रशांत और सान्वी डंके की चोट पर बताते हैं कि हम साथ है.

नेहा रातभर सो नहीं पाई. सुबह यह फैसला किया कि बच्चों के जाने के बाद प्रशांत

से बात करेगी. बच्चे चले गए. प्रशांत थोड़ा लेट निकलता था. उस का औफिस पास ही था. नेहा ने बिना किसी भूमिका के कहा, ‘‘प्रशांत, बच्चों को भी तुम्हारा और सान्वी का किस्सा पता है… दोनों का मूड बहुत खराब रहता है… सारी सोसाइटी को पता है. मेरी फ्रैंड्स ने तुम दोनों को कहांकहां नहीं देखा. शर्म आती है अब प्रशांत… अब उम्र भी हो रही है. ये सब अच्छा नहीं लगता. मैं ने पहले भी तुम्हारी काफी हरकतें बरदाश्त की हैं… अब बरदाश्त नहीं हो रहा है. तुम उस के ऊपर पैसे भी बहुत खर्च कर रहे हो. यह भी ठीक नहीं है.’’

‘‘पैसे मेरे हैं, मैं उन्हें कहीं भी खर्च करूं और रही उम्र की बात, तो तुम्हें लगता होगा कि तुम्हारी उम्र हो गई, मैं सान्वी के साथ भरपूर ऐंजौय कर रहा हूं. दरअसल, उस का साथ मु झे यंग रखता है. यहां तो घर में तुम्हारे उम्र, बच्चे, खर्चों के ही बोरिंग पुराण चलते हैं और रही सोसाइटी की बात तो मैं किसी की परवाह नहीं करता, ठीक है? और कुछ?’’

नेहा का चेहरा अपमान और गुस्से से लाल हो गया, ‘‘पर मैं अब यह बरदाश्त नहीं करूंगी.’’

प्रशांत कुटिलता से हंसा, ‘‘अच्छा, क्या कर लोगी? मायके चली जाओगी? तलाक ले लोगी? हुंह,’’ कह कर वह तौलिया उठा कर नहाने चला गया.

नेहा की आंखों से क्षोभ के आंसू बह निकले. सही कह रहा है प्रशांत, क्या कर लूंगी, कुछ भी तो नहीं. मायका है नहीं. नेहा रोती हुई किचन में काम करती रही. मन में आया, सोम से बात कर के देखूं. सोम का नंबर नेहा के पास नहीं था. अब नेहा ने सान्वी से बात करना बिलकुल छोड़ दिया था. सोसाइटी में उस से आमनासामना होता भी तो वह पूरी तरह से सान्वी को इग्नोर करती. सान्वी भी बागी तेवरों के साथ चुनौती देती हुई मुसकराहट लिए पास से निकल जाती तो नेहा का रोमरोम सुलग उठता.

अपनी किसी सहेली से नेहा को पता चला कि सान्वी 2 दिन के लिए अपने मायके गई है. अत: सही मौका जान कर वह शाम को सोम से मिलने उस के घर चली गई. सोम ने सकुचाते हुए उस का स्वागत किया.

नेहा ने बिना किसी भूमिका के बात शुरू की, ‘‘आप को भी पता ही होगा कि सान्वी और प्रशांत के बीच क्या चल रहा है… आप उसे रोकते क्यों नहीं?’’

‘‘हां, सब पता है. आप प्रशांत को क्यों नहीं रोक रही हैं?’’

‘‘बहुत कोशिश की पर सब बेकार गया.’’

‘‘मेरी कोशिश भी बेकार गई,’’ कह कर सोम ने जिस तरह से कंधे उचका दिए, उसे देख नेहा को गुस्सा आया कि यह कैसा आदमी है… कितने आराम से कह रहा है कि कोशिश बेकार गई.

‘‘तो आप इसे ऐसे ही चलने देने वाले हैं?’’

‘‘हां, क्या कर सकता हूं?’’

‘‘मतलब?’’

‘‘मतलब यह कि मैं स्ट्रौंग पोजीशन में हूं नहीं, अतीत की मेरी हरकतों के कारण आज वह मु झ पर हावी हो रही है.

‘‘मेरा बिजनैस घाटे में है. मैं सान्वी को रोक नहीं पा रहा हूं, सारा दिन बैठ कर उस की चौकीदारी तो कर नहीं सकता.

‘‘बच्चे, घर और मेरे पेरैंट्स की पूरी जिम्मेदारी वह उठाती है… पर ठीक है. कुछ तो करना पड़ेगा… वह लौट आए. फिर कोशिश करता हूं.’’

नेहा दुखी मन से घर आ गई. सोम बहुत कुछ सोचता रहा. सान्वी कैसे किसी से खुलेआम प्रेम संबंध रख सकती है. बहुत हो गया… हद हो गई बेशर्मी की. आ जाए तो उसे ठीक करता हूं, दिमाग ठिकाने लगाता हूं.

उस दिन फोन पर भी उस ने सान्वी से सख्त स्वर में बात की पर सान्वी पर जरा भी

फर्क नहीं पड़ा. सोम की बातों का उस पर फर्क पड़ना बंद हो चुका था. जब से दिल की सुनने लगी थी, दिमाग भी दिल के ही पक्ष में दलीलें देता रहता था. सो जंगली सा दिल बेखौफ आगे बढ़ता जा रहा था और खुश भी बहुत था.

सान्वी आ गई. अगले दिन जब धु्रव को स्कूल भेज सुस्ताने बैठी तो सोम उस के पास आ कर तनातना सा बैठ गया. सान्वी ने महसूस किया कि वह काफी गंभीर है.

‘‘सान्वी, जो भी चल रहा है उसे बंद करो वरना…’’

सान्वी पलभर में कमर कस कर मैदान में खड़ी हो गई, ‘‘वरना क्या?’’

‘‘बहुत बुरा होगा.’’

‘‘क्या बुरा होगा?’’

‘‘जो तुम कर रही हो मैं उसे बरदाश्त नहीं करूंगा.’’

‘‘क्यों? क्या तुम मु झ से कमजोर हो? मैं तुम्हारी ये सब हरकतें बरदाश्त करती रही हूं तो तुम क्यों नहीं कर सकते?’’

‘‘सान्वी,’’ सोम दहाड़ा, ‘‘तुम मेरी पत्नी हो… तुम मेरी बराबरी करोगी?’’

‘‘मैं वही कर रही हूं जो मु झे अच्छा लगता है. कुछ पल अपने लिए जी रही हूं तो क्या गलत है? जिस खुशी का तुम ने ध्यान नहीं रखा, वह अब मिल गई… खुश हूं, क्या गलत है? ये सब तो तुम बहुत सालों से करते आए हो.’’

‘‘सान्वी, सुधर जाओ, नहीं तो मु झे गुस्सा आ गया तो मैं कोर्ट में भी जा सकता हूं… तुम्हारे और प्रशांत के खिलाफ शिकायत कर सकता हूं.’’

‘‘हां, ठीक है, चलो कोर्ट… सारी उम्र मन मार कर जीती रहूं तो ठीक है?’’

‘‘सान्वी, बहुत हुआ. प्रशांत से रिश्ता खत्म करो, नहीं तो कानूनी काररवाई के लिए तैयार रहो… मैं प्रशांत को भी नहीं छोड़ूंगा.’’

‘‘अच्छा? कौन सी कानूनी काररवाई करोगे? नया कानून नहीं जानते? यह न अपराध है, न पुरुषों की बपौती. औरत को भी सैक्सुअल चौइस का हक है.’’

‘‘क्या बकवास कर रही हो?’’

‘‘हां, शादीशुदा होते हुए भी सालों से पराई औरतों के साथ नैनमटक्का कर रहे हो, हमारे रिश्ते को एडलट्री की आग में तुम भी  झोंकते

रहे हो.’’

‘‘पर कोर्ट ने अवैध संबंधों में जाने के लिए नहीं कहा है, न उकसाया है.’’

‘‘पर यह तो साफ हो गया है कि न तुम मेरे मालिक हो, न मैं तुम्हारी गुलाम हूं. मु झे कानून की धमकी देने से कुछ नहीं होगा. तुम्हारी खुद की फितरत क्या रही है… अब बैठ कर सोचो कि मैं ने कितना सहा है. मु झे प्रशांत के साथ अच्छा लगता है. बस, मु झे इतना ही पता है और मु झे भी खुश रहने का उतना ही हक है जितना तुम्हें. और किसी भी जिम्मेदारी से मैं मुंह नहीं मोड़ रही हूं,’’ कह कर घड़ी पर नजर डालते हुए सान्वी ने आगे कहा, ‘‘ध्रुव के स्कूल से वापस आने से पहले मु झे घर के कई काम निबटाने होते हैं, उस के प्रोजैक्ट के लिए सामान लेने भी मु झे ही जाना है,’’ कह कर सान्वी उठ कर नहाने चली गई.

बाथरूम से उस के गुनगुनाने की आवाजें बाहर आ रही थीं. सोम सिर पकड़ कर बैठा था. कुछ सम झ नहीं आ रहा था कि अब क्या करे.

‘‘अगले दिन जब धु्रव को स्कूल भेज सुस्ताने बैठी तो सोम उस के पास आ कर तनातना सा बैठ गया. सान्वी ने महसूस किया कि वह काफी गंभीर है…’’

अधूरे फसाने की मुकम्मल नज्म: क्या पूरा हुआ वर्तिका का प्यार

कितना जादू है उस की कहानियों और कविताओं में. वह जब भी  उस की कोई रचना पढ़ती है, तो न जाने क्यों उस के अल्हड़ मन में, उस की अंतरात्मा में एक सिहरन सी दौड़ जाती है.

उस ने उस मशहूर लेखक की ढेरों कहानियां, नज्में और कुछ उपन्यास भी पढ़े हैं. उसे यह जान कर आश्चर्य हुआ कि उस की मां भी उस के उपन्यास पढ़ती हैं. एक दिन मां के एक पुराने संदूक में उस लेखक के बरसों पहले लिखे कुछ उपन्यास उसे मिले.

वह उपन्यास के पृष्ठों पर अंकित स्याही में उलझ गई. न जाने क्यों उसे लगा कि उपन्यास में वर्णित नायिका और कोई नहीं बल्कि उस की मां है. हां, उस ने कभी किसी प्रकाशक के मुंह से भी सुना था कि उस की मां नीलम का कभी उस लेखक से अफेयर रहा था.

उस समय के नवोदित लेखक रिशी और कालेज गर्ल नीलम के अफेयर के चर्चे काफी मशहूर रहे थे. उस ने उपन्यास का बैक पेज पलटा जिस पर लेखक का उस समय का फोटो छपा था. फोटो बेहद सुंदर और आकर्षक था. उस में वह 20-22 साल से अधिक उम्र का नहीं लग रहा था.

अचानक वर्तिका आईने के सामने आ कर खड़ी हुई. वह कभी खुद को तो कभी उस लेखक के पुराने चित्र को देखती रही.

वह अचानक चौंकी, ‘क्या… हां, मिलते तो हैं नयननक्श उस लेखक से. तो क्या…

‘हां, हो सकता है? अफेयर में अंतरंग संबंध बनना कोई बड़ी बात तो नहीं, लेकिन क्या वह उस की मां के अफेयर की निशानी है? क्या मशहूर लेखक रिशी ही उस का पिता…

‘नहीं, यह नहीं हो सकता,’ वह अपनी जिज्ञासा का खुद ही समाधान भी करती. अगर ऐसा होता तो उस का दिल रिशी की कहानियां पढ़ कर धड़कता नहीं.

‘‘यह कौन सी किताब है तुम्हारे हाथ में वर्तिका? कहां से मिली तुम्हें?’’ मां की आवाज ने उस के विचारों की शृंखला तोड़ी.

वर्तिका चौंक कर हाथ में पकड़े उपन्यास को देख कर बोली, ‘‘मौम, रिशी का यह उपन्यास मुझे आप के पुराने बौक्स से मिला है. क्या आप भी उस की फैन हैं?’’

अपनी बेटी वर्तिका के सवाल पर नीलम थोड़ा झेंपी लेकिन फिर बात बना कर बोलीं, ‘‘हां, मैं ने उस के एकदो उपन्यास  कालेज टाइम में अवश्य पढ़े थे वह ठीकठाक लिखता है. लेकिन हाल में तो मैं ने उस का कोई उपन्यास नहीं पढ़ा. क्या इन दिनों उस का कोई नया उपन्यास रिलीज हुआ है?’’

‘‘हां, हुए तो हैं,’’ वर्तिका अपनी मां की बात से उत्साहित हुई.

‘‘ठीक है मुझे देना, फुरसत मिली तो पढ़ूंगी,’’ कह कर नीलम चली गई और वर्तिका सोचने लगी कि सच इतने अच्छे लेखक को बौयफ्रैंड के रूप में उस की खूबसरत मां जरूर डिजर्व करती होंगी.

2-3 दिन बाद वर्तिका को अवसर मिला. वह अपनी सहेली सोनम के साथ रिशी का कहानीपाठ सुनने पहुंच गई. उस ने पढ़ा था कि लिटरेचर फैस्टिवल में वह आ रहा है.

पूरा हौल खचाखच भरा था. सोनम को इतनी भीड़ का पहले से ही अंदेशा था. तभी तो वह वर्तिका को ले कर समय से काफी पहले वहां आ गई थी. सोनम भी वर्तिका की तरह रिशी के लेखन की प्रशंसक है. दोनों सहेलियां आगे की कुरसियों पर बिलकुल मंच के सामने जा कर बैठ गईं.

रिशी आया और आ कर बैठ गया उस सोफे पर जिस के सामने माइक लगा था. उतना खूबसूरत, उतना ही स्मार्ट जितना  वह 20-21 की उम्र में था, जबकि अब तो लगभग 40 का होगा. बाल कालेसफेद लेकिन फिर भी उस में अलग सा अट्रैक्शन था.

उद्घोषक रिशी का परिचय कराते हुए बोला, ‘‘ये हैं मशहूर लेखक रिशी, जो पिछले 20 साल से युवा दिलों की धड़कन हैं,’’ फिर वह तनिक रुक कर मुसकराते हुए बोला, ‘‘खासकर युवा लड़कियों के.’’

उद्घोषक की बात सुन कर वर्तिका का दिल धड़क उठा. अपने दिल के यों धड़कने की वजह वर्तिका नहीं जानती. रिशी की कहानी में डूबी वर्तिका बारबार खुद को रिशी की नायिका समझती और हर बार अपनी इस सोच पर लजाती.

‘‘तुम में एक जानीपहचानी सी खुशबू है,’’ वर्तिका को औटोग्राफ देते हुए रिशी बोला.

रिशी की बात सुन कर वर्तिका लज्जा गई, क्या रिशी ने उसे पहचान लिया है? क्या वह जान गया है कि वर्तिका उस की प्रेमिका रही नीलम की बेटी है?

रिशी अन्य लोगों को औटोग्राफ देने में व्यस्त हो गया और वर्तिका के दिमाग में उधेड़बुन चलती रही. वह भी मन ही मन रिशी से प्यार करने लगी, यह जानते हुए भी कि कभी उस की मां रिशी की प्रेमिका रही है.

‘तो रिशी उस का पिता हुआ,’  यह सोच कर वर्तिका अपने दिल में उठे इस खयाल भर से ही लज्जा गई. मां ने उसे पिता के बारे में बस यही बताया था कि वे उस के जन्म के बाद से ही घर कभी नहीं आए. मां ने उसे अपने बलबूते ही पाला है.

‘नहींनहीं, ऐसा नहीं हो सकता’ इस खयाल मात्र से ही उस के दिल की धड़कनें बढ़ जातीं. रिशी उस का पिता नहीं हो सकता, लेकिन रिशी से उस के नयननक्श मिलते हैं. फिर आज रिशी ने उसे देखते ही कहा भी ‘वर्तिका तुम्हारी खुशबू जानीपहचानी सी लगती है.’

वर्तिका आज बारबार करवटें बदलती रही, लेकिन नींद तो उस की आंखों से कोसों दूर थी. करवटें बदलबदल कर जब वह थक गई तो ठंडी हवा में सांस लेने के लिए छत पर चली गई.

मम्मी के कमरे के सामने से गुजरते हुए उस ने देखा कि मम्मी के कमरे की लाइट जल रही है, ‘इतनी रात को मम्मी के कमरे में लाइट?’  हैरानी से वर्तिका यह सोच कर खिड़की के पास गई और खिड़की से झांक कर उस ने देखा कि मम्मी तकिए के सहारे लेटी हुई हैं. उन के हाथ में किताब है, जिसे वे पढ़ रही हैं. वर्तिका ने देखा कि यह तो वही किताब है, जो उस ने रिशी के कहानीपाठ वाले हौल से खरीदी थी और उस पर उस ने रिशी का औटोग्राफ भी लिया था.

वर्तिका वापस कमरे में आ गई और अपनी मम्मी और रिशी के बारे में सोचने लगी.

आज वर्तिका को रिशी का पत्र आया था. शायद उस के पहले पत्र का ही रिशी ने जवाब दिया था. उस ने वर्तिका से पूछा कि क्या वह वही लड़की है जो उसे कहानीपाठ वाले दिन मिली थी. साथ ही रिशी ने अपने इस पत्र में यह भी लिखा कि इस से वही खुशबू आ रही है जो मैं ने उस दिन महसूस की थी.

वर्तिका अपनी देह की खुशबू महसूस करने की कोशिश करने लगी, लेकिन उसे  महसूस हुई अपनी देह से उठती रिशी की खुशबू.

उस ने पत्र लिख कर रिशी से मिलने की इच्छा जताई, जिसे रिशी ने कबूल कर लिया.

सामने बैठा रिशी उस का बौयफ्रैंड सा लगता. वर्तिका सोचती, ‘जैसे आज वह रिशी के सामने बैठी है वैसे ही उस की मम्मी भी रिशी के सामने बैठती होंगी.’

‘‘आजकल आप क्या लिख रहे हैं?’’ वर्तिका ने पूछा.

‘‘उपन्यास.’’

‘‘टाइटल क्या है, आप के उपन्यास का?’’

‘‘अधूरे फसाने की मुकम्मल नज्म,’’ कह कर रिशी वर्तिका की आंखों में झांकने लगा और वर्तिका रिशी और मम्मी के बारे में सोचने लगी.

रिशी उस की मम्मी का अधूरा फसाना है. वर्तिका यह तो जानती है पर क्या वह खुद उस अधूरे फसाने की मुकम्मल नज्म है? वर्तिका जानना चाहती है उस मुकम्मल नज्म के बारे में.

वह यह जानने के लिए बारबार रिशी से मिलती है. कहीं वही तो उस का पिता नहीं है. उसे न जाने क्यों मां से अनजानी सी ईर्ष्या होने लगी थी. मां ने एक बार भी रिशी से मिलने की इच्छा नहीं जताई.

उस शाम रिशी ने उस से कहा, ‘‘वर्तिका, मैं लाख कोशिश के बाद भी तुम्हारे जिस्म से उठती खुशबू को नहीं पहचान पाया.’’

‘‘नीलम को जानते हैं आप?’’ वर्तिका अब जिंदगी की हर गुत्थी को सुलझाना चाहती थी.

‘‘हां, पर तुम उन्हें कैसे जानती हो?’’ रिशी चौंक कर वर्तिका की आंखों में नीलम को तलाशने लगा.

‘‘उन्हीं की खुशबू है मेरे बदन में,’’ वर्तिका ने यह कह कर अपनी नजरें झुका लीं.

रिशी वर्तिका को देख कर खामोश रह गया.

रिशी को खामोश देख कर, कुछ देर बाद वर्तिका बोली, ‘‘कहीं इस में आप की खुशबू तो शामिल नहीं है?’’

‘‘यह मैं नहीं जानता,’’ कह कर रिशी उठ गया.

उसे जाता देख कर वर्तिका ने पूछा, ‘‘आप का नया उपन्यास मार्केट में कब आ रहा है? मम्मी पूछ रही थीं.’’

‘‘शायद कभी नहीं,’’ रिशी ने रुक कर बिना पलटे ही जवाब दिया.

‘‘क्यों?’’ वर्तिका उस के सामने आ खड़ी हुई.

‘‘क्योंकि अधूरे फसाने की नज्म भी अधूरी ही रहती है,’’ रिशी वर्तिका की बगल से निकल गया और वर्तिका फिर सोचने लगी, अपने, रिशी और मम्मी के बारे में.

वर्तिका की आंखें लाल हो गईं. रात भर उसे नींद नहीं आई. उस की जिंदगी की गुत्थी सुलझने की जगह और उलझ गई. रिशी को खुद मालूम नहीं था कि वह उस का अंश है या नहीं. अब उसे सिर्फ उस की मम्मी बता सकती हैं कि उस की देह की खुशबू में क्या रिशी की खुशबू शामिल है.

नीलम किचन में नाश्ता तैयार कर रही थी. अचानक वर्तिका की नजर आज के न्यूजपेपर पर पड़ी. वर्तिका न्यूजपेपर में अपना और रिशी का फोटो देख कर चौंक पड़ी. दोनों आमनेसामने बैठे थे. वे एकदूसरे की आंखों में झांक रहे थे.

‘एनादर औफर औफ औथर रिशी’ के शीर्षक के साथ.

अरे, यह खबर तो उसे कहीं का नहीं छोड़ेगी, इस से पहले उसे आज अपने जीवन की गुत्थी सुलझानी ही होगी. वर्तिका भाग कर अपनी मम्मी के पास गई.

‘‘क्या, रिशी मेरे पिता हैं मम्मी?’’ वर्तिका ने अपनी मम्मी से सीधा सवाल किया.

कुछ देर वर्तिका को देख कर कुछ सोचते हुए नीलम बोली, ‘‘अगर रिशी तेरे पिता हुए तो?’’

‘‘तो मुझे खुशी होगी,’’ वर्तिका न्यूजपेपर बगल में दबा कर दीवार के सहारे खड़ी थी.

‘‘और अगर नहीं हुए तो?’’ नीलम ने अपनी बेटी के कंधे पकड़ कर उसे सहारा दिया.

‘‘तो मुझे ज्यादा खुशी होगी,’’ वर्तिका अपनी मम्मी को हाथ से संभालते हुए बोली.

‘‘रिशी तुम्हारे पिता नहीं… हां, हमारी दोस्ती बहुत थी वे तुम्हारे पिता के साथ ही पढ़ाई कर रहे थे…’’ अभी नीलम की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि वर्तिका पलट कर घर से बाहर की ओर भागी.

‘‘अरे, कहां भागी जा रही है इतनी जल्दी में?’’ नीलम ने बेटी को पुकारा.

‘अधूरे फसाने की मुकम्मल नज्म बनने,’ वर्तिका ने उसी तरह भागते हुए बिना पलटे हुए कहा.

प्यार का बंधन: कौन था अंधेरे में वो प्रेमी जोड़ा

मैं एक ठेकेदार हूं और इमारत और सड़क बनाने के ठेके लेता हूं. मेरी पत्नी आभा सरकारी स्कूल में टीचर है. मैं काम के सिलसिले में अकसर बाहर ही रहता हूं. घर पर रामू और रजनी 2 नौकर हैं, जो घर के काम में पत्नी का हाथ बंटाते हैं.

कल रात में साइट से लौट कर घर आ गया था. घर पहुंचतेपहुंचते 10 बज चुके थे. हाथमुंह धो कर खाना खा कर मैं सो गया था. आज सुबह उठा और छत पर गया तो देखा कि 2-3 डिस्पोजल गिलास, चिप्स व नमकीन के कुछ रैपर यहांवहां पड़े थे.

एक गिलास उठा कर देखा तो पाया कि उस में से शराब की बदबू आ रही थी. पता करने पर मालूम हुआ कि यह काम रामू का है. उस को बुला कर फटकारा और ताकीद कर दिया कि अगर आगे से ऐसी कोई घटना हुई तो उस की छुट्टी तय है.

रजनी भी इस दौरान पास ही मंडराती रही. मैं 1-2 दिन रुक कर फिर साइट पर जाने लगा, तो रामू और रजनी को ताकीद करता गया कि वे ठीक तरह से काम करें.

एक बिल्डिंग बनाने का काम चल रहा था. बिल्डिंग की पहली मंजिल पर छत डलनी थी, उसी का मुआयना करने के लिए गया हुआ था.

मिस्त्रियों व कारीगरों को काम समझा रहा था कि पीछे हटते वक्त ध्यान नहीं रहा. पैर पीछे चला गया और मैं धड़ाम से गिरा.

मजदूरों ने भाग कर मुझे उठाया. दाएं पैर में ज्यादा दर्द था, पीठ में भी कुछ चोट लगी थी. सिर बच गया था, हैलमैट जो पहन रखा था.

मुंशी ने फटाफट गाड़ी में डाल कर मुझे अस्पताल पहुंचाया. आभा को भी फोन कर दिया था. वह भी तुरंत अस्तपाल पहुंच गई थी.

डाक्टर ने एक्सरे करवाया, दाएं पैर की नीचे की हड्डी में फ्रैक्चर था. उन्होंने वहां प्लास्टर लगा दिया था. पीठ में कोई टूटफूट नहीं थी. लिहाजा, दवाएं और आराम करने की सलाह दे कर घर भेज दिया.

मैं घर आ कर अपने कमरे के बैड पर लेट गया. समय गुजारने के लिए टैलीविजन, मैगजीन व अखबार मेरे साथी बन गए.

आभा ने छुट्टी लेने के लिए कहा, तो मैं ने मना कर दिया था. मैं थोड़ा सहारा ले कर बाथरूम तक आराम से जा सकता था. जरूरत पड़ने पर सोफे पर भी बैठ सकता था.

आभा सुबह काम कर के स्कूल चली जाती और दोपहर बाद घर आ जाती थी. इस के बाद वह मेरा पूरा खयाल रखती थी.

सारा दिन स्कूल में बच्चों को पढ़ा कर वह थकहार कर घर आती थी. मैं दिनभर खाली रहता था. बीचबीच में नींद भी आ जाती थी, इसलिए रात को देर तक जागता रहता था और टैलीविजन चलाए रखता.

इस से आभा की नींद बारबार डिस्टर्ब होती थी. इस के चलते मैं ने आभा से कहा कि साथ वाले कमरे में सोया करो, ताकि नींद में कोई रुकावट न हो अैर अगले दिन की ड्यूटी पर जाने के लिए आराम से तैयार हो सको.

दिन में प्यारेप्यारे दोस्त, जिन को पता चलता, वे सब मिलने आते रहते. हालचाल जान कर रुखसत होते. इसी तरह दिन गुजर रहे थे.

कभीकभी मेरे दिल में उलटेसीधे खयाल आते कि स्कूल में आभा का किसी के साथ कोई चक्कर तो नहीं चल रहा है. घर पर नौकर रामू जवान है. कहीं उस का तो मालकिन के साथ कोई चक्कर न हो. वे जो डिस्पोजल गिलास छत पर मिले थे… रामू ने अपने साथियों के साथ आभा के साथ कोई ऐसीवैसी हरकत की हो.

इस के बाद मैं मन ही मन सोचता कि मैं भी आभा के बारे में क्या उलटासीधा सोचता रहता हूं. अगर आभा को पता चलेगा कि मैं ऐसे सोचता हूं, तो उसे बहुत ज्यादा दुख होगा.

आभा ने खुद सोचविचार कर एक हफ्ते की छुट्टी ले ली. छुट्टी ले कर आभा को और भी ज्यादा काम करना पड़ गया. रोजाना पैर को एक तरफ रख कर मुझ को नहलाना, अपने हाथों से मालिश करना, कपड़े पहनाना, सभी काम अपने हाथों से करना, यारदोस्तों को अपने हाथों से जलपान करवाना, दिनभर मेरी सेवा में आगेपीछे घूमना, एक पत्नी का सही काम कर के आभा ने मुझे हैरान कर दिया.

3 हफ्ते बाद प्लास्टर हटाने का समय आ गया था. मैं आभा के साथ डाक्टर के पास पहुंचा. डाक्टर ने प्लास्टर काट कर अलग कर दिया और हलके हाथ से मालिश व गरम पानी से रोजाना सिंकाई करने की सलाह दे कर हमें रुखसत किया.

आभा रोजाना यह काम बखूबी कर रही थी. अपने नरम मुलायम हाथ से वह हलकीहलकी मालिश और गरम पानी से सिंकाई करती. अब मुझे काफी आराम हो गया था.

अभी मुझे नींद आ रही थी कि खिड़की के शीशे के अंदर से मैं ने 2 सायों को मिलते देखा. एक साया औरत का था, दूसरा मर्द का. यह मिलन मैं पहले भी देख चुका था. तभी आभा के बारे में उलटेसीधे खयाल मुझे आने लगे थे.

तभी मेरे कमरे का दरवाजा खुला. आभा अंदर आई और पूछा, ‘‘कोई चीज चाहिए क्या?’’

उधर खिड़की के पार 2 सायो का मिलन जारी था. मैं ने जोर से कहा, ‘‘कौन है वहां?’’

मेरे कहने भर की देर थी कि वे दोनों साएं अपनीअपनी दिशा में भाग गए थे.

आभा ने कहा, ‘‘रामू और रजनी होंगे. आजकल उन की गुटरगूं चल रही है. हमें इस से क्या? दोनों प्यार से रहेंगे तो हमें ही फायदा है. कहीं और ये जाएंगे नहीं और हमें नौकर तलाशने की जरूरत नहीं पड़ेगी.’’

इतना कह कर आभा अपने कमरे में जाने लगी, तो मैं ने हाथ पकड़ कर उसे अपने पास खींच लिया और अपने बाहुपाश में जकड़ लिया. मन में जो मैल या अविश्वास था, वह बह गया था. मन और तन निर्मल हो गया था, अपने साथी के साथ प्यार के बंधन में बंधने से.

जूही: आसिफ के साथ मास्टर साहब ने क्या किया?

आसिफ दुकान बंद कर के जब अपने घर पहुंचा, तो ड्राइंगरूम के दरवाजे पर जा कर ठिठक गया. अंदर से उस के अम्मीअब्बा के बोलने की आवाजें आ रही थीं.

‘‘दुलहन तो मुश्किल से 16-17 साल की है और मास्टर साहब 40-50 के. बेचारी…’’

इतना सुनते ही आसिफ जल्दी से दीवार की आड़ में हो गया और सांस रोक कर सारी बातें बड़े ध्यान से सुनने लगा.

‘‘ऐसी शादी से तो बेहतर होता कि लड़की के मांबाप उसे जहर दे कर ही मार डालते,’’ आसिफ की अम्मी सलमा ने कहा.

‘‘तुम नहीं जानती सलमा, लड़की के मांबाप तो बचपन में ही चल बसे थे. गरीब मामामामी ने ही उस की परवरिश की है. 4-4 लड़कियां ब्याहने को हैं,’’ अब्बा ने बताया.

‘‘यह भी कोई बात हुई. कम से कम उस की जोड़ का लड़का तो ढूंढ़ लेते.

‘‘इतनी हसीन और कमसिन लड़की को इस बूढ़े के पल्ले बांधने की क्या जरूरत आ पड़ी थी, जिस के पहले ही 4-4 बच्चे हैं.

‘‘हाय, मुझे तो उस की जवानी पर तरस आ रहा है. कैसे देख रही थी वह मेरी तरफ. इस समय उस पर क्या बीत रही होगी,’’ अम्मी ने कहा.

आसिफ इस से आगे कुछ और सुनने की हिम्मत नहीं जुटा पाया. वह धीरे से अपने कमरे में जा कर कुरसी पर बैठ गया.

आसिफ आंखें मूंद कर सोने लगा, ‘क्या वाकई वह 16-17 साल की है? क्या सचमुच वह हसीन है? अगर वह खूबसूरत लगती होगी तो क्या मास्टर साहब की कमजोर आंखें उस के हुस्न की चमक बरदाश्त कर पाएंगी? आज की रात क्या वह… क्या मास्टर साहब…’ यह सोचतेसोचते उस का सिर चकराने लगा और वह कुरसी से उठ कर कमरे में टहलने लगा.

थोड़ी देर बाद आसिफ की अम्मी खाना रख गईं, मगर उस से खाया न गया. बड़ी मुश्किल से वह थोड़ा सा पानी पी कर बिस्तर पर लेट गया, पर उसे नींद भी नहीं आई. रातभर करवटें बदलते हुए वह न जाने क्याक्या सोचता रहा.

सुबह हुई तो आसिफ मुंह में दातुन दबाए छत पर चढ़ गया और बेकरारी से टहलटहल कर मास्टर साहब के आंगन में झांकने लगा. कुछ ही देर में आंगन में एक परी दिखाई दी.

उसे देख कर आसिफ अपने होशोहवास खो बैठा. फिर कुछ संभलने के बाद उस की खूबसूरती को एकटक देखने लगा. परी को भी लगा कि कोई उसे देख रहा है. उस ने निगाहें ऊपर उठाईं तो आसिफ को देख कर वह शरमा गई और छिप गई.

लेकिन आसिफ उस का मासूम चेहरा आंखों में लिए देर तक उस के खयालों में डूबा रहा. उस की धड़कनें तेज हो गई थीं. दिल में नई चाहत सी उमड़ पड़ी थी. वह फिर उस परी को देखना चाहता था, पर वह नजर न आई.

इस के बाद आसिफ रोज सुबहसुबह मुंह में दातुन दबाए छत पर चढ़ जाता. परी आंगन में आती. उस की निगाह आसिफ की निगाह से टकराती. फिर वह शरमा कर छिप जाती.

लेकिन एक दिन आसिफ को देख कर उस की निगाह झुकी नहीं. वह उसे देखती रही. आसिफ भी उसे देखता रहा. फिर उन के चेहरे पर मुसकराहटें फूटने लगीं और बाद में तो उन में इशारेबाजी भी होने लगी.

अब उन दोनों के बीच केवल बातें होनी बाकी थीं. पर इस के लिए आसिफ को ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा.

मास्टर साहब सुबहसवेरे घर से निकलते थे तो स्कूल से शाम को ही लौटते थे. उन के बच्चे भी स्कूल चले जाते थे. घर में केवल मास्टर साहब की अंधीबहरी मां रह जाती थीं.

एक दिन उस परी का इशारा पा कर आसिफ नजर बचा कर उन के घर में घुस गया. वह उसे बड़े प्यार से अपने कमरे में ले गई और पलंग पर बैठने का इशारा कर के खुद भी पास बैठ गई.

थोड़ी घबराहट के साथ उन में बातचीत शुरू हुई. उस ने अपना नाम जूही बताया. आसिफ ने भी उसे अपना नाम बताया. फिर दोनों ने यह जाहिर किया कि वे एकदूसरे पर दिलोजान से मरते हैं.

आसिफ ने जूही के हाथों पर अपना हाथ रख दिया. वह सिहर उठी. उस पर नशा सा छाने लगा. आसिफ उस के जिस्म पर हाथ फेरने लगा. वह खामोश रही और खुद को आसिफ के हवाले करती चली गई.

कुछ देर बाद जब वे दोनों एकदूसरे से अलग हुए तो जूही अपना दुखड़ा ले कर बैठ गई. ऐसा दुख जिस का आसिफ को पहले से अंदाजा था. लेकिन उस के मुंह से सुन कर आसिफ को पूरा यकीन हो गया. इस से उस का हौसला और भी बढ़ गया.

वह जूही को बांहों में भरते हुए बोला, ‘‘अब मैं तुम्हें कभी दुखी नहीं होने दूंगा.’’

उस के बाद तो उन के इस खेल का सिलसिला सा चल पड़ा. इस चक्कर में आसिफ अब सुबह के बजाय दोपहर

को दुकान पर जाने लगा. वह रोज सुबह 10 बजे तक मास्टर साहब और उन के बच्चों के स्कूल जाने का इंतजार करता. जब वे चले जाते तो जूही का इशारा पा कर वह उस के पास पहुंच जाता.

एक दिन वह मास्टर साहब के बैडरूम में पलंग पर लेट कर रेडियो पर गाने सुन रहा था. जूही उस के लिए रसोईघर में चाय बना रही थी. दरवाजा खुला हुआ था, जबकि रोज वह अंदर से बंद कर देती थी.

अचानक मास्टर साहब आ गए. उन का कोई जरूरी कागज छूट गया था.

आसिफ को अपने पलंग पर आराम से पसरा देख मास्टर साहब के तनबदन में आग लग गई, पर उन्होंने सब्र से काम लिया और फाइल से कागज निकाल कर चुपचाप रसोईघर में चले गए.

‘‘आसिफ यहां क्या कर रहा है?’’ उन्होंने जूही से पूछा.

अचानक मास्टर साहब की आवाज सुन कर जूही का पूरा जिस्म कांप गया और चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं. लेकिन जल्दी ही वह संभलते हुए बोली, ‘‘जी, कुछ नहीं. जरा रेडियो का तार टूट गया था. मैं ने ही उसे बुलाया है.’’

मास्टर साहब फिर कुछ न बोले और चुपचाप घर से बाहर निकल गए.

मास्टर साहब के बाहर जाने के बाद ही जूही की जान में जान आई. वह चाय छोड़ कर कमरे में आ गई. आसिफ अभी तक पलंग पर सहमा हुआ बैठा था.

आसिफ ने कांपती आवाज में पूछा, ‘‘वे गए क्या…?’’

‘‘हां,’’ जूही ने कहा.

‘‘दरवाजा बंद नहीं किया था क्या?’’ आसिफ ने पूछा.

‘‘ध्यान नहीं रहा,’’ जूही बोली.

‘‘अच्छा हुआ कि हम…’’ वह एक गहरी सांस ले कर बोला.

‘‘लगता है, उन्हें शक हो गया है,’’ जूही चिंता में डूबते हुए बोली.

‘‘कुछ नहीं होगा…’’ आसिफ ने उस का कंधा दबाते हुए कहा, ‘‘अच्छा, अब मुझे चलना चाहिए,’’ इतना कह कर वह दुकान पर चला गया.

उस के बाद उन्होंने कुछ दिनों तक मिलने से परहेज किया. जब वे मास्टर साहब की तरफ से पूरी तरह बेफिक्र हो गए, तो यह खेल फिर से

चल पड़ा और हफ्तोंमहीनों नहीं, बल्कि सालों तक चलता रहा. उस दौरान जूही 2 बच्चों की मां भी बन गई.

एक दिन मास्टर साहब काफी गुस्से में घर में दाखिल हुए. किसी ने जूही के खिलाफ उन के कान भर दिए थे.

जूही को देखते ही मास्टर साहब उस पर बरस पड़े, ‘‘क्या समझती हो अपनेआप को. जो तुम कर रही हो, उस का मुझे पता नहीं है. आज के बाद अगर आसिफ यहां आया तो उसे जिंदा न छोड़ूंगा.’’

यह सुन कर जूही डर गई और कुछ भी नहीं बोली. फिर मास्टर साहब गुस्से में आसिफ के अब्बा के पास जा कर चिल्लाने लगे, ‘‘अपने लड़के को समझा दीजिए, मेरी गैरमौजूदगी में वह मेरे घर में घुसा रहता है. आज के बाद उसे वहां देख लिया तो गोली मरवा दूंगा.’’

आसिफ के अब्बा निहायत ही शरीफ इनसान थे, इसलिए उन्होंने अपने बेटे को खूब डांटाफटकारा. इस का नतीजा यह हुआ कि एक दिन आसिफ ने मास्टर साहब को रास्ते में रोक लिया.

‘‘अब्बा से क्या कहा तुम ने? मुझे गोली मरवाओगे? तुम्हारी खोपड़ी उड़ा दूंगा, अगर उन से कुछ कहा तो,’’ आसिफ ने मास्टर साहब का गरीबान पकड़ कर धमकी दी.

उस के बाद न तो मास्टर साहब ने आसिफ को गोली मरवाई और न ही आसिफ ने मास्टर साहब की खोपड़ी उड़ाई.

धीरेधीरे बात पुरानी हो गई. जिस्मों का खेल बंद हो गया. लेकिन आंखों का खेल जारी रहा और आसिफ इंतजार करता रहा जूही के बुलावे का.

पर जूही ने उसे फिर कभी नहीं बुलाया. हां, उस ने एक खत जरूर आसिफ को भिजवा दिया जिस में लिखा था:

‘तुम तो जानते हो कि मैं अपनी किस मजबूरी के चलते इस अधेड़ आदमी से ब्याही गई हूं. अगर यह भी मुझे छोड़ देंगे तो फिर मुझे कौन अपनाएगा? अब मेरे बच्चे भी हैं, उन्हें कौन सहारा देगा? यह सब सोच कर डर सा लगता है. उम्मीद है, तुम मेरी मजबूरी को समझने की कोशिश करोगे.’

खत पढ़ने के बाद आसिफ ने दरवाजे पर खड़ेखड़े बड़ी बेबसी से जूही की तरफ देखा और भारी कदमों से दुकान की तरफ बढ़ गया.

ऐसे रिश्ते का यह खात्मा तो होना ही था. वह तो मास्टर साहब की भलमनसाहत थी कि जूही और आसिफ सहीसलामत रह गए.

कुंठा : महेश के मन में आखिर क्या थी कुंठा

महेश की नौकरी भारतीय वायु सेना में बतौर मैडिकल अटैंडैंट लगी थी. वायु सेना सिलैक्शन सैंटर के कमांडर ने कहा, ‘‘बधाई हो महेश, तुम्हें एक नोबेल ट्रेड मिला है. तुम नौकरी के साथसाथ इनसानियत के लिए भी काम कर सकोगे. किसी लाचार के काम आ सकोगे.’’

जो भी हो, महेश की समझ में तो यही आया कि उसे एक अच्छी नौकरी मिल गई है बस.

अस्पताल में तकरीबन 3 महीने की ट्रेनिंग चल रही थी. सबकुछ करना था. मरीजों का टैंपरेचर, ब्लडप्रैशर, नाड़ी वगैरह के रिकौर्ड रखने से ले कर उन्हें बिस्तर पर सुलाने तक की जिम्मेदारी थी. हर बिस्तर तक जा कर मरीजों को दवा खिलानी पड़ती थी. लाचार मरीजों को स्पंज बाथ देना पड़ता था.

महेश तो एक पिछड़े इलाके से था, जहां के अस्पताल के नर्स से ले कर कंपाउंडर, डाक्टर तक मरीजों को डांटते रहते थे. एकएक इंजैक्शन लगाने के लिए नर्स फीस लेती थी. डाक्टरों से बात करने में डर लगता था कि कहीं डांटने न लगें. स्पंज बाथ का तो नाम भी नहीं सुना था. कभी कोई सगा अस्पताल में भरती हुआ, तो उसे एकएक रिलीफ के लिए दाम देते देखा था.

पर यहां तो नर्सों का ‘इंटरनैशनल एथिक्स’ हम पर लागू था. हमें पहले ही ताकीद कर दी गई थी कि किसी मरीज से कभी भी चाय मत पीना, वरना कोर्ट मार्शल हो सकता है. पलपल यही खयाल रहता था कि कैसे नौकरी महफूज रखी जाए.

एक दिन जब महेश अपनी शिफ्ट ड्यूटी पर गया, तो उस से पहले काम कर रहे साथी ने बताया, ‘‘एक मरीज भरती हुआ है. उस का आपरेशन होना है और उसे तैयार करना है.’’

यह कह कर वह साथी चला गया. महेश ने देखा, तो वह बवासीर का मरीज था. महेश ने उसे नुसखे के मुताबिक समझा दिया और दवा दे दी. पर एक बात के लिए महेश दुविधा में पड़ गया कि उस मरीज के गुप्त भाग की शेविंग करनी थी.

उस की शेविंग कैसे की जाए? अब महेश को अफसोस होने लगा कि यह कैसी नौकरी में वह फंस गया. ड्यूटी उस की थी. उस से पूछा जाएगा.

महेश ने एक उपाय निकाला. मरीज को बुलाया. रेजर में ब्लेड लगा कर उस से कहा, ‘‘अंदर से दरवाजा बंद कर लो और पूरा समय ले कर शेविंग कर डालो.’’

उस मरीज ने हामी में सिर हिलाया और रेजर ले कर चला गया. महेश ने संतोष की सांस ली.

दूसरे दिन जब उस मरीज को औपरेशन के लिए जाना था, तब महेश ही ड्यूटी पर था. वह सोच रहा था कि सब ठीक हो. उस के सीनियर ने उस से पूछा, ‘‘क्या मरीज का ‘प्रीऔपरेटिव’ केयर फालो हुआ?’’

महेश ने ‘हां’ में सिर हिला दिया.

उस सीनियर ने स्क्रीन पर लगा कर मरीज की जांच की. महेश के पास आ कर वह चिल्लाया, ‘‘यह क्या है? तुम ने तो मरीज का कोई केयर ही नहीं किया है?’’

यह सुन कर महेश के पैरों तले जमीन खिसक गई. वह बोला, ‘‘सर, मैं ने उसे समझा दिया था.’’

वह सीनियर महेश पर बिगड़ा, ‘‘तुम्हारी समझाने की ड्यूटी नहीं है. तुम्हें खुद करना है और यह तय करना है कि मरीज को तुम्हारी लापरवाही के चलते कोई इंफैक्शन न हो.’’

महेश की बोलती बंद हो गई. अगले ही महीने उसे छुट्टी पर घर जाना था. उसे बड़ी कुंठा होने लगी कि यही सब जा कर घर पर बताऊंगा.

अब वह अपनेआप को बड़ा बेबस महसूस कर रहा था. वह पूरी तरह हार मान कर सीनियर के पास चला गया, ‘‘सर, मुझे तो अपनेआप को नंगा देखने में शर्म आती है और आप मुझ से उस के गुप्त भाग की शेविंग करने को कह रहे हैं.’’

वह सीनियर तुरंत मुड़ा और मरीज को आवाज दी. उस ने शेविंग का सामान उठाया और कमरे में चला गया. थोड़ी देर बाद वे दोनों बाहर आए.

सीनियर ने महेश से कहा, ‘‘मैं ने इस मरीज की शेविंग कर दी है. किसी लाचार की सेवा करना छोटा या घटिया काम नहीं होता. मैडिकल के प्रोफैशन में औरतमर्द या अंगगुप्तांग नहीं होता, बस एक मरीज होता है और उस का शरीर होता है. तो फिर इस शरीर की साफसफाई करने में किस बात की दिक्कत?’’

इतना कह कर सीनियर चला गया. कितनी आसानी से बिना किसी हीनभावना के उस ने सब कर दिया था. यह देख कर महेश को दुख होने लगा कि उस ने पहले ही ये सब क्यों नहीं किया? उस के अंदर कितनी कुंठा है. उस की नौकरी का असली माने तो यही था. यही तो उस का असली काम था, जिसे करने से वह चूक गया था.

सफर में हमसफर : सुमन की उस रात की कहानी

रात के तकरीबन 8 बजे होंगे. यों तो छोटा शहर होने पर सन्नाटा पसरा रहता है, पर आज भारत पाकिस्तान का क्रिकेट मैच था, तो काफी भीड़भाड़ थी. वैसे तो सुमन के लिए कोई नई बात नहीं थी. यह उस का रोज का ही काम था.

‘‘मैडम, झकरकटी चलेंगी क्या?’’

सुमन ने पलट कर देखा. 3-4 लड़के खड़े थे.

‘‘कितने लोग हो?’’

‘‘4 हैं हम.’’

‘‘ठीक है, बैठ जाओ,’’ कहते हुए सुमन ने आटोरिकशा स्टार्ट किया.

सुमन ने एक ही नजर में भांप लिया था कि वे सब किसी कालेज के लड़के हैं. सभी की उम्र 20-22 साल के आसपास होगी. आज सुबह से सवारियां भी कम मिली थीं, इसलिए सुमन ने सोचा कि चलो एक आखिरी चक्कर मार लेते हैं, कुछ कमाई हो जाएगी और शकील चाचा को टैक्सी का किराया भी देना था.

अभी कुछ ही दूर पहुंच थे कि लड़कों ने आपस में हंसीमजाक और फब्तियां कसना शुरू कर दिया. तभी उन में से एक बोला, ‘‘यार, तुम ने क्या बैटिंग की… एक गेंद में छक्का मार दिया.’’

‘‘हां यार, क्या करें, अपनी तो बात ही निराली है. फिर मैं कर भी क्या सकता था. औफर भी तो सामने से आया था,’’ दूसरे ने कहा.

‘‘हां, पर कुछ भी कहो, कमाल की लड़की थी,’’ तीसरा बोला और सब एकसाथ हंसने लगे.

सुमन ने अपने ड्राइविंग मिरर से देखा कि वे सब बात तो आपस में कर रहे थे, पर निगाहें उसी की तरफ थीं. उस ने ऐक्सलरेटर बढ़ाया कि जल्दी ही मंजिल पर पहुंच जाएं. पता नहीं, क्यों आज सुमन को अपनी अम्मां का कहा एकएक लफ्ज याद आ रहा था.

पिताजी की हादसे में मौत हो जाने के चलते उस के दोनों बड़े भाइयों ने मां की जिम्मेदारी उठाने से मना कर दिया था. सुमन ग्रेजुएशन भी पूरी न कर पाई थी, मगर रोजरोज के तानों से तंग आ कर वह भाइयों का घर छोड़ कर अपने पुराने घर में अम्मां को साथ ले कर रहने आ गई, जहां से अम्मां ने अपनी गृहस्थी की शुरुआत की थी और उस बंगले को भाईभाभी के लिए छोड़ दिया.

ऐसा नहीं था कि भाइयों ने उन्हें रोकने की कोशिश नहीं की, पर सिर्फ एक दिखावे के लिए. अम्मां और सुमन आ तो गए उस मकान में, पर कमाई का कोई जरीया न था. कितने दिनों तक बैठ कर खाते वे दोनों?

मुनासिब पढ़ाई न होने के चलते सुमन को नौकरी भी नहीं मिली. तब पिताजी के करीबी दोस्त शकील चाचा ने उन की मदद की और बोले, ‘तुम पढ़ने के साथसाथ आटोरिकशा भी चला सकती हो, जिस से तुम्हारी पैसों की समस्या दूर होगी और तुम पढ़ भी लोगी.’

पर जब सुमन ने अम्मां को बताया, तो वे बहुत गुस्सा हुईं और बोलीं, ‘तुम्हें पता भी है कि आजकल जमाना कितना खराब है. पता नहीं, कैसीकैसी सवारियां मिलेंगी और मुझे नहीं पसंद कि तुम रात को सवारी ढोओ.’ ‘ठीक है अम्मां, पर गुजारा कैसे चलेगा और मेरे कालेज की फीस का क्या होगा? मैं रात के 8 बजे के बाद आटोरिकशा नहीं चलाऊंगी.’

कुछ देर सोचने के बाद अम्मां ने हां कर दी. अब सुमन को आटोरिकशा से कमाई होने लगी थी. अब वह अम्मां की देखभाल अच्छे से करती और अपनी पढ़ाई भी करती.

सबकुछ ठीक से चलने लगा, पर आज का मंजर देख कर सुमन को लगने लगा कि अम्मां की बात न मान कर गलती कर दी क्या? कहीं कोई ऊंचनीच हो गई, तो क्या होगा…

तभी अचानक तेज चल रहे आटोरिकशा के सामने ब्रेकर आ जाने से झटका लगा और सुमन यादों की परछाईं से बाहर आ गई.

‘‘अरे मैडम, मार ही डालोगी क्या? ठीक से गाड़ी चलाना नहीं आता, तो चलाती क्यों हो? वही काम करो, जो लड़कियों को भाता है,’’ एक लड़के ने कहा.

तभी दूसरा बोला, ‘‘बैठ यार रोहित. ठीक है, हो जाता है कभीकभी.’’

‘‘सौरी सर…’’ पसीना पोंछते हुए सुमन बोली. अभी वे कुछ ही दूर चले थे कि उन में से चौथा लड़का बोला, ‘‘हैलो मैडम, मैं विकास हूं. आप का क्या नाम है?’’

सुमन ने डरते हुए कहा, ‘‘मेरा नाम सुमन है.’’

‘‘पढ़ती हो?’’

‘‘बीए में.’’

‘‘कहां से?’’

‘‘जेएनयू से.’’

‘‘ओह, तभी मुझे लग रहा है कि मैं ने आप को कहीं देखा है. मैं वहां लाइब्रेरी में काम करता हूं,’’ वह लड़का बोला.

‘‘अच्छा… पर मैं ने तो आप को कभी नहीं देखा,’’ सुमन बेरुखी से बोली.

तभी सारे लड़के खिलखिला कर हंस दिए. रोहित बोला, ‘‘क्या लाइन मार रहा है? ऐ लड़की, जरा चौराहे से लैफ्ट ले लेना, वहां से शौर्टकट है.’’ चौराहे से मुड़ते ही सुमन के होश उड़ गए. वह रास्ता तो एकदम सुनसान था.

सुमन ने हिम्मत जुटा कर कहा, ‘‘पहले वाला रास्ता तो काफी अच्छा था, पर यह तो…’’

‘‘नहीं, हम को तुम उसी रास्ते से ले चलो,’’ रोहित बोला. अब तो सुमन का बड़ा बुरा हाल था. उस के हाथपैर डर से कांप रहे थे.

आज सुमन को अम्मां की एकएक बात सच होती दिख रही थी. अम्मां कहती थीं कि इतिहास में औरतें दर्ज कम, दफन ज्यादा हुई हैं. वे रहती पिंजरे में ही हैं, बस उन के आकार और रंग अलग होते हैं. समाज को औरतों का रोना भी मनोरंजन लगता है. हम औरतों को चेहरे और जिस्म के उतारचढ़ाव से देखा और पहचाना जाता है, इसलिए तुम यह फैसला करने से पहले सोच लो…

तभी पीछे से उन में से एक लड़के ने अपना हाथ सुमन के कंधे पर रखा और बोला, ‘‘जरा इधर से राइट चलना. हमें पैसे निकालने हैं.’’ सुमन की तो जैसे सांस ही हलक में अटक गई. उस का पूरा शरीर एक सूखे पत्ते की तरह फड़फड़ा गया.

सुमन ने कहा, ‘‘आप लोगों ने आटोरिकशा नहीं खरीदा है. मैं अब झकरकटी में ही छोड़ूंगी, नहीं तो मैं आप सब को यहीं उतार कर वापस चली जाऊंगी.’’

‘‘कैसे वापस चली जाओगी तुम?’’ रोहित ने पूछा.

‘‘क्या बोला?’’ सुमन ने अपनी आवाज में भारीपन ला कर कहा.

‘‘अरे, मैं यह कह रहा हूं कि इतनी रात को सुनसान जगह में हम सभी कहां भटकेंगे. हमें आप सीधे झकरकटी ही छोड़ दो,’’ रोहित बोला.

‘‘ठीक है… अब आटोरिकशा सीधा वहीं रुकेगा,’’ सुमन बोली.

सुमन के जिंदा हुए आत्मविश्वास से उन का सारा डर पानी में पड़ी गोलियों की तरह घुल गया. उसे लगा कि उस के चारों ओर महकते हुए शोख लाल रंग खिल गए हों और वह उन्हें दुनिया के सामने बिखेर देना चाहती है. अभी तो उस के सपनों की उड़ान बाकी थी, फिर भी उस ने दुपट्टे से अपना चेहरा ढक लिया और सामने दिखे एटीएम पर आटोरिकशा रोक दिया. विकास हैरानी से सुमन के चेहरे पर आतेजाते भाव को अपलक देखे जा रहा था. सुमन इस से बेखबर गाड़ी का मिरर साफ करती जा रही थी. वह पैसा निकाल कर आ गया और सभी फिर चल पड़े.

बमुश्किल एक किलोमीटर ही चले होंगे, तभी सुमन को सामने खूबसूरत सफेद हवेली दिखाई दी. आसपास बिलकुल वीरान था, पर एक फर्लांग की दूरी पर पान की दुकान थी और मैच भी अभीअभी खत्म हुआ था. भारत की जीत हुई थी. सब जश्न मना कर जाने की तैयारी में थे.

सुमन ने हवेली से थोड़ी दूर और पान की दुकान से थोड़ा पहले आटोरिकशा रोक दिया. सभी वहां झूमते हुए उतर गए, पर विकास वहीं खड़ा उसे देख रहा था.

सुमन गुस्से से बोली, ‘‘ऐ मिस्टर… क्या देख रहे हो? क्या कभी लड़की नहीं देखी?’’

‘‘देखी तो बहुत हैं, पर तुम्हारी सादगी और हिम्मत का दीवाना हो गया यह दिल…’’ विकास बोला.

उन सब लड़कों ने खूब शराब पी रखी थी. तभी उस में से एक लड़के ने पीछे मुड़ कर देखा कि विकास वहीं खड़ा है और उसे पुकारते हुए सभी उस के पास वापस आने लगे.

यह देख सुमन घबरा गई. उधर पान वाला भी दुकान पर ताला लगा कर जाने वाला था.

सुमन तेजी से पलट कर जाने लगी, मगर विकास ने पीछे से उस का हाथ पकड़ लिया और घुटनों के बल बैठ कर बोला, ‘‘क्या तुम मुझ से शादी करोगी?’’

यह सुन कर सारे दोस्त ताली बजाने लगे. गहराती हुई रात और चमकते हुए तारों की झिलमिल में विकास की आंखों में सुमन को प्यार की सचाई नजर आ रही थी.

पता नहीं, क्यों सुमन को विकास पर ढेर सारा प्यार आ गया. शायद इस की वजह यह रही होगी कि बचपन से एक लड़की प्यार और इज्जत से दूर रही हो.

सुमन अपने जज्बातों पर काबू पाते हुए बोली, ‘‘चलो, कल कालेज में मिलते हैं. तब तक तुम्हारा नशा भी उतर जाएगा.’’

तभी उन में से एक लड़का बोला, ‘‘सुमन, हम ने शराब जरूर पी रखी है, पर अपने होश में हैं. हम इतने नशे में भी नहीं हैं कि यह न समझ पाएं कि औरत का बदन ही उस का देश होता है और हमारे देश में हमेशा से औरतों की इज्जत की जाती रही है. चंद खराब लोगों की वजह से सारे लोग खराब नहीं होते.’’

सुमन मुसकराते हुए बोली, ‘‘चलो… कल मिलते हैं कालेज में.’’

इस के बाद सुमन ने आटोरिकशा स्टार्ट किया, मगर उसे ऐसा लग रहा था जैसे चांदसितारे और बदन को छूती ठंडी हवा उस के प्यार की गवाह बन गए हों और वह इस छोटे से सफर में मिले हमसफर के ढेरों सपने संजोए और खुशियां बटोरे अपने घर चल दी.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें