Serial Story : सजा – भाग 1

लेखक : विजया वासुदेवा    

असगर अपने दोस्त शकील की शादी में शरीक होने रामपुर गया. स्कूल के दिनों से ही शकील उस के करीबी दोस्तों में शुमार होता था. सो दोस्ती निभाने के लिए उसे जाना मजबूरी लगा था. शादी की मौजमस्ती उस के लिए कोई नई बात नहीं थी और यों भी लड़कपन की उम्र को वह बहुत पीछे छोड़ आया था.

शकील कालेज की पढ़ाई पूरी कर के विदेश चला गया था. पिछले कितने ही सालों से दोनों के बीच चिट्ठियों द्वारा एकदूसरे का हालचाल पता लगते रहने से वे आज भी एकदूसरे के उतने ही नजदीक थे जितना 10 बरस पहले.

असगर को दिल्ली से आया देख शकील खुशी से भर उठा, ‘‘वाह, अब लगा शादी है, वरना तेरे बिना पूरी रौनक में भी लग रहा था कि कुछ कसर बाकी है. तुझ से मिल कर पता लगा क्या कमी थी.’’

‘‘वाह, क्या विदेश में बातचीत करने का सलीका भी सिखाया जाता है या ये संवाद भाभी को सुनाने से पहले हम पर आजमाए जा रहे हैं.’’

‘‘अरे असगर, जब तुझे ही मेरे जजबात का यकीन न आ रहा हो तो वह क्यों करेगी मेरा यकीन, जिसे मैं ने अभी देखा भी नहीं,’’ शकील, असगर के कंधे पर हाथ रखते हुए बोला.

बातें करतेकरते जैसे ही दोनों कमरे के अंदर आए असगर की निगाहें पल भर के लिए दीवान पर किताब पढ़ती एक लड़की पर अटक कर रह गईं. शकील ने भांपा, फिर मुसकरा दिया. बोला, ‘‘आप से मिलिए, ये हैं तरन्नुम, हमारी खालाजाद बहन और आप हैं असगर कुरैशी, हमारे बचपन के दोस्त. दिल्ली से तशरीफ ला रहे हैं.’’

दुआसलाम के बाद वह नाश्ते का इंतजाम देखने अंदर चली गई. असगर के खयाल जैसे कहीं अटक गए. शकील ने उसे भांप लिया, ‘‘क्यों साहब, क्या हुआ? कुछ खो गया है या याद आ रहा है?’’

असगर कुछ नहीं बोला, बस एक नजर शकील की तरफ देख कर मुसकरा भर दिया.

शादी के सारे माहौल में जैसे तरन्नुम ही तरन्नुम असगर को दिखाई दे रही थी. उसे बिना बात ही मौसम, माहौल सभी कुछ गुनगुनाता सा लगने लगा. उस के रंगढंग देख कर शकील को मजा आ रहा था. वह छेड़खानी पर उतर आया. बोला, ‘‘असगर यार, अपनी दुनिया में वापस आ जाओ. कुछ बहारें देखने के लिए होती हैं, महसूस करने के लिए नहीं, क्या समझे? भई, यह औरतों की आजादी के लिए नारा बुलंद करने वालियों की अपने कालेज की जानीमानी सरगना है, तुम्हारे जैसे बहुत आए और बहुत गए. इसे कुछ असर होने वाला नहीं है.’’

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‘‘लगानी है शर्त?’’ असगर ने चुनौती दी, ‘‘अगर शादी तक कर के न दिखा दूं तो मेरा नाम असगर कुरैशी नहीं.’’

शकील ने उसे छेड़ते हुए कहा, ‘‘मियां, लोग तो नींद में ख्वाब देखते हैं, आप जागते में भी.’’

‘‘बकवास नहीं कर रहा मैं,’’ असगर ने कहा, ‘‘बोल, अगर शादी के लिए राजी कर लूं तो?’’

‘‘ऐसा,’’ शकील ने उकसाया, ‘‘जो नई गाड़ी लाया हूं न, उसी में इस की डोली विदा करूंगा, क्या समझा. यह वह तिल है जिस में तेल नहीं निकलता.’’

और इस चुनौती के बाद तो असगर तरन्नुम के आसपास ही नजर आने लगा. अचानक ही एक से एक शेर उस के होंठों पर और हर महफिल में गजलें उस की फनाओं में बिखर रही थीं.

शकील हैरान था. यह तरन्नुम, जो हर आदमी को, आदमी की जात पर लानत देती थी, कैसे अचानक ही बहुत लजीलीशर्मीली ओस से भीगे गुलाब सी धुलीधुली नजर आने लगी.

घर में उस के इस बदलाव पर हलकी सी चर्चा जरूर हुई. शकील के साथ तरन्नुम के अब्बाअम्मी उस से मिलने आए. शकील ने कहा, ‘‘ये तुम से कुछ बातचीत करना चाहते थे, सो मैं ने सोचा अभी ही मौका है फिर शाम को तो तुम वापस दिल्ली जा ही रहे हो.’’

असगर हैरान हो कर बोला, ‘‘किस बारे में बातचीत करना चाहते हैं?’’

‘‘तुम खुद ही पूछ लो, मैं चला,’’ फिर अपनी खाला शहनाज की तरफ मुड़ कर बोला, ‘‘खालू, देखो जो भी बात आप तफसील से जानना चाहें उस से पूछ लें, कल को मेरे पीछे नहीं पडि़एगा कि फलां बात रह गई और यह बात दिमाग में ही नहीं आई,’’ इस के बाद शकील कमरे से बाहर हो गया.

असगर ने कहा, ‘‘आप मुझ से कुछ पूछना चाहते थे, पूछिए?’’

शहनाज बड़ा अटपटा महसूस कर रही थीं. उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि वे क्या सवाल करें. उन के शौहर रज्जाक अली ने चंद सवाल पूछे, ‘‘आप कहां के रहने वाले हैं. कितने बहनभाई हैं, कहां तक पढ़े हैं? सरकारी नौकरी न कर के आप प्राइवेट नौकरी क्यों कर रहे हैं? अपना मकान दिल्ली में कैसे बनवाया? वगैरहवगैरह.’’

असगर जवाब देता रहा लेकिन उसे समझ में नहीं आ रहा था कि इतनी तहकीकात किसलिए की जा रही है. शहनाज खाला थीं कि उस की तरफ यों देख रही थीं जैसे वह सरकस का जानवर है और दिल बहलाने के लिए अच्छा तमाशा दिखा रहा है. खालू के चंदएक सवाल थे जो जल्दी ही खत्म हो गए.

शहनाज खाला बोलीं, ‘‘तो बेटा, जब तुम्हारे सिर पर बुजुर्गों का साया नहीं है तो तुम्हें अपने फैसले खुद ही करने होते होंगे, है न…’’

‘‘जी,’’ असगर ने कहा.

‘‘तो बताओ, निकाह कब करना चाहोगे?’’

‘‘निकाह?’’ असगर ने पूछा.

‘‘और क्या,’’ खाला बोलीं, ‘‘भई, हमारे एक ही बेटी है. उस की शादी ही तो हमारी जिंदगी का सब से बड़ा अरमान है. फिर हमारे पास कमी भी किस चीज की है. जो कुछ है सब उसे ही तो देना है,’’ खाला ने खुलासा करते हुए कहा.

‘‘पर आप यह सब मुझ से क्यों कह रही हैं?’’

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इस पर खालू ने कहा, ‘‘बात ऐसी है बेटा कि आज तक हमारी तरन्नुम ने किसी को भी शादी के लायक नहीं समझा. हम लोगों की अब उम्र हो रही है. अब उस ने तुम्हें पसंद किया है तो हमें भी अपना फर्ज पूरा कर के सुर्खरू हो लेने दो.’’

‘‘क्या?’’ असगर हैरान रह गया, ‘‘तरन्नुम मुझे पसंद करती है? मुझ से शादी करेगी?’’ असगर को यकीन नहीं आ रहा था.

‘‘हां बेटा, उस ने अपनी अम्मी से कहा है कि वह तुम्हें पसंद करती है और तुम्हीं से शादी करेगी. देखो बेटा, अगर लेनेदेने की कोई फरमाइश हो तो अभी बता दो. हमारी तरफ से कोई कसर नहीं रहेगी.’’

‘‘पर खालू मैं तो शादी,’’ असगर कुछ कहने के लिए सही शब्द सोच ही रहा था कि खालू बीच में ही बोले, ‘‘देखो बेटा, मैं अपनी बच्ची की खुशियां तुम से झोली फैला कर मांग रहा हूं, न मत कहना. मेरी बच्ची का दिल टूट जाएगा. वह हमेशा से ही शादी के नाम से किनारा करती रही है. अब अगर तुम ने न कर दी तो वह सहन नहीं कर सकेगी.’’

एक पल को असगर चुप रहा, फिर बोला, ‘‘आप ने शकील से बात कर ली है.’’

‘‘हां,’’ खालू बोले, ‘‘उस की रजामंदी के बाद ही हम तुम से बात करने आए हैं.’’

शहनाज खाला उतावली सी होती हुई बोलीं, ‘‘तुम हां कह दो और शादी कर के ही दिल्ली जाओ. सभी इंतजाम भी हुए हुए हैं. इस लड़की का कोई भरोसा नहीं कि अपनी हां को कब ना में बदल दे.’’

‘‘ठीक है, जैसा आप सही समझें करें,’’ असगर ने कहा.

Serial Story : सजा – भाग 4

लेखक : विजया वासुदेवा  

‘‘रीता को तो हैदराबादी बिरयानी पसंद है, साथ में मुर्गमुसल्लम भी. मैं जरा रसोई में खानेपीने का इंतजाम देख लूं. नौकर नया है वरना मुर्गे का भरता ही बना देगा. तब तक आप यह अलबम देखिए. रीता, अपनी पसंद का रेकार्ड लगा लो,’’ कहती हुई निकहत अंदर चली गई.

तरन्नुम ने अलबम खोला और उस की आंखें असगर से मिलतेजुलते एक आदमी पर अटक गईं. अगला पन्ना पलटा. निकहत के साथ असगर जैसा चेहरा. अलगअलग जगह, अलगअलग कपड़े. पर असगर से इतना कोई मिल सकता है वह सोच भी नहीं सकती थी. उस ने रीता को फोटो दिखा कर पूछा, ‘‘ये हजरत कौन हैं?’’

‘‘क्यों, आंखों में चुभ गया है क्या?’’ रीता हंस दी, ‘‘संभल के, यह तो निकहत दीदी के पति हैं. है न व्यक्तित्व जोरदार, मल्टीनेशनल कंपनी में काम करते हैं. असल में इन के मांबाप जल्दी ही गुजर गए. निकहत अपने मांबाप की इकलौती बेटी थी तिस पर लंबीचौड़ी जमीनजायदाद, बस, समझो लाटरी ही लग गई इन साहब की. नौकरी भी निकहत के अब्बू ने दिलवाई थी.’’

तरन्नुम को अब न गजल सुनाई दे रही थी और न ही कमरे में बच्चों की खिलखिलाती हंसी का शोर, वह एकदम जमी बर्फ सी सर्द हो गई. दिल की धड़कन का एहसास ही बताता था कि सांस चल रही है.

निकहत ने जब खाने के लिए बुलाया तब वह जैसे किसी दूसरी दुनिया से लौट कर आई, ‘‘आप बेकार ही तकल्लुफ में पड़ गईं, हमें भूख नहीं थी,’’ उस ने कहा.

‘‘तो क्या हुआ, आज का खाना हमारी भूख के नाम पर ही खा लीजिए. हमें तो आप की सोहबत में ही भूख लग आई है.’’

रोशनी सा दमकता चेहरा, उजली धूप सी मुसकान, तरन्नुम ठगी सी देखती रही. फिर बोली, ‘‘आप के पति कितने खुशकिस्मत हैं, इतनी सुंदर बीवी, तिस पर इतना बढि़या खाना.’’

‘‘अरे आप तो बेकार ही कसीदे पढ़ रही हैं. अब इतने बरसों के बाद तो बीवी एक आदत बन जाती है, जिस में कुछ समझनेबूझने को बाकी ही नहीं रहता. पढ़ी किताब सी उबाऊ वरना क्या इतनेइतने दिन मर्द दौरे पर रहते हैं? बस, उन की तरफ से घर और बच्चे संभाल रहे हैं यही बहुत है,’’ निकहत ने तश्तरी में खाना परोसते हुए कहा.

‘‘कहां काम करते हैं कुरैशी साहब?’’ तरन्नुम ने पूछा.

‘‘कटलर हैमर में, उन का दफ्तर कनाट प्लेस में है. असगर पहले इतना दौरे पर नहीं रहते थे जितना कि पिछले एक बरस से रह रहे हैं.’’

‘‘असगर,’’ तरन्नुम ने दोहराया.

‘‘हां, मेरे शौहर, आप ने बाहर तख्ती पर अ. कुरैशी देखा था. अ. से असगर ही है. हमारे बच्चे हंसते हैं, अब्बू, ‘अ’ से अनार नहीं हम अपनी अध्यापिका को बताएंगे ‘अ’ से असगर,’’ फिर प्यार से बच्चे के सिर पर धौल लगाती बोली, ‘‘मुसकराओ मत, झटपट खाना खत्म करो फिर टीवी देखेंगे.’’

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‘‘अरे, तरन्नुम तुम कुछ उठा नहीं रहीं,’’ रीता ने तरन्नुम को हिलाया.

‘‘हूं, खा तो रही हूं.’’

‘‘क्यों, खाना पसंद नहीं आया?’’ निकहत ने कहा, ‘‘सच तरन्नुम, मैं भी बहुत भुलक्कड़ हूं. बस, अपनी कहने की रौ में मुझे दूसरे का ध्यान ही नहीं रहता. खाना सुहा नहीं रहा तो कुछ फल और दही ले लो.’’

‘‘न दीदी, मुझे असल में भूख थी ही नहीं, वह तो खाना बढि़या बना है सो इतना खा गई.’’

‘‘अच्छा अब खाना खत्म कर लो फिर तुम्हें ऊपर वाला हिस्सा दिखाते हैं, जिस में तुम्हें रहना है. तुम्हारे यहां आ कर रहने से मेरा भी अकेलापन खत्म हो जाएगा.’’

‘‘पर किराए पर देने से पहले आप को अपने शौहर से नहीं पूछना होगा,’’ तरन्नुम ने कहा.

‘‘वैसे कानूनन यह कोठी मेरी मिल्कियत है. पहले हमेशा ही उन से पूछ कर किराएदार रखे हैं. इस बार तुम आ रही हो तो बजाय 2 आदमियों के बीच बातचीत हो इस बार तरीका बदला जाए,’’ निकहत शरारत से हंस दी, ‘‘यानी मकान मालकिन और किराएदारनी तथा मध्यस्थ भी इस बार मैं औरत ही रख रही हूं. राजन कपूर की जगह बिन्नी कपूर वकील की हैसियत से हमारे बीच का अनुबंध बनाएंगी, क्यों?’’

रीता जोर से हंस दी, ‘‘रहने दो निकहत दीदी, बिन्नी दी ने शादी के बाद वकालत की छुट्टी कर दी.’’

‘‘इस से क्या हुआ,’’ निकहत हंसी, ‘‘उन्होंने विश्वविद्यालय की डिगरी तो वापस नहीं कर दी है. जो काम कभी न हुआ तो वह आज हो सकता है. क्यों तरन्नुम, तुम्हारी क्या राय है? मैं आज शाम तक कागजात तैयार करवा कर होटल भेज देती हूं. तुम अपनी प्रति रख लेना, मेरी दस्तखत कर के वापस भेज देना. रही किराए के अग्रिम की बात, उस की कोई जल्दी नहीं है, जब रहोगी तब दे देना. आदमी की जबान की भी कोई कीमत होती है.’’

रीता तरन्नुम को तीसरे पहर होटल छोड़ती हुई निकल गई.

शाम को असगर के आने से पहले तरन्नुम ने खूब शोख रंग के कपड़े, चमकदार गहने पहने, गहरा शृंगार किया, असगर उसे तैयार देख कर हैरान रह गया. यह पहरावा, यह हावभाव उस तरन्नुम के नहीं थे जिसे वह सुबह छोड़ कर गया था.

‘‘आप को यों देख कर मुझे लगा जैसे मैं गलत कमरे में आ गया हूं,’’ असगर ने चौंक कर कहा.

‘‘अब गलत कमरे में आ ही गए हो तो बैठने की गलती भी कर लो,’’ तरन्नुम ने कहा, ‘‘क्या मंगवाऊं आप के लिए, चाय, ठंडा या कुछ और,’’ तरन्नुम ने लहरा कर पूछा.

‘‘होश में तो हो,’’ असगर ने कहा.

‘‘हां, आंखें खुल गईं तो होश में ही हूं,’’ तरन्नुम ने जवाब दिया, ‘‘आज का दिन मेरी जिंदगी का बहुत कीमती दिन है. आज मैं ने अपनी हिम्मत से तुम्हारे शहर में बहुत अच्छा घर ढूंढ़ लिया है. उस की खुशी मनाने को मेरा जी चाह रहा है. अब तो अनुबंध की प्रति भी है मेरे पास. देखो, तुम इतने महीने में जो न कर सके वह मैं ने 6 दिन में कर दिया,’’ अपना पर्स खोल कर तरन्नुम ने कागज असगर की तरफ बढ़ाए.

असगर ने कागज लिए. तरन्नुम ने थरमस से ठंडा पानी निकाल कर असगर की तरफ बढ़ाया. असगर के हाथ कांप रहे थे. उस की आंखें कागज को बहुत तेजी से पढ़ रही थीं. उस ने कागज पढ़े और मेज पर रख दिए. तरन्नुम उस के चेहरे के उतारचढ़ाव देख रही थी लेकिन असगर का चेहरा सपाट था कोरे कागज सा.

‘‘असगर, तुम ने पूछा नहीं कि मैं ने कागजात में खाविंद का नाम न लिख कर वालिद का नाम क्यों लिखा?’’ बहुत बहकी हुई आवाज में तरन्नुम ने कहा.

असगर ने सिर्फ सवालिया नजरों से उस की तरफ देखा.

‘‘इसलिए कि मेरे और निकहत कुरैशी के खाविंद का एक ही नाम है और अलबम की तसवीरें कह रही हैं कि हम दोनों बिना जाने ही एकदूसरे की सौतन बना दी गईं. निकहत बहुत प्यारी शख्सियत है मेरे लिए, बहुत सुलझी हुई, बेहद मासूम.’’

‘‘तरन्नुम,’’ असगर ने कहा.

‘‘हां, मैं कह रही थी वह बहुत अच्छी, बहुत प्यारी है. मैं उन का मन दुखाना नहीं चाहती, वैसा कुछ भी मैं नहीं करूंगी जिस से उन का दिल दुखी हो. इसलिए मैं वह घर किराए पर ले चुकी हूं और वहां रहने का मेरा पूरा इरादा है लेकिन उस घर में मैं अकेली रहूंगी. पर एक सवाल का जवाब तुम्हारी तरफ बाकी है, तुम ने मेरे साथ इतना बड़ा धोखा क्यों किया?’’

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‘‘मुझे तुम बेहद पसंद थीं,’’ असगर ने हकलाते हुए कहा.

‘‘तो?’’

‘‘जब तुम्हें भी अपनी तरफ चाहत की नजर से देखते पाया तो सोचा…’’

‘‘क्या सोचा?’’ तरन्नुम ने जिरह की.

‘‘यही कि अगर तुम्हारे घर वालों को एतराज नहीं है तो यह निकाह हो सकता है,’’ असगर ने मुंह जोर होने की कोशिश की.

‘‘मेरे घर वालों को तुम ने बताया ही कहां?’’ तरन्नुम गुस्से से तमतमा उठी.

‘‘देखो, तरन्नुम, अब बाल की खाल निकालना बेकार है. शकील को सब पता था. उसी ने कहा था कि एक बार निकाह हो गया तो तुम भी मंजूर कर लोगी. तुम्हारी अम्मी ने झोली फैला कर यह रिश्ता अपनी बेटी की खुशियों की दुहाई दे कर मांगा था. वैसे इसलाम में 4 शादियों तक भी मुमानियत नहीं है.’’

‘‘देखिए, मुझे अपने ईमान के सबक आप जैसे आदमी से नहीं लेने हैं. आप की हिम्मत कैसे हुई निकहत जैसी नेक बीवी के साथ बेईमानी करने की और मुझे धोखा देने की,’’ तरन्नुम ने तमतमा कर कहा.

‘‘धोखाधोखा कहे जा रही हो. शकील को सब पता था, उसी ने चुनौती दे रखी थी तुम से शादी करने की.’’

‘‘वाह, क्या शर्त लगा रहे हैं एक औरत पर 2 दोस्त? आप को जीत मुबारक हो, लेकिन यह आप की जीत आप की जिंदगी की सब से बड़ी हार साबित होगी, असगर साहब. मैं आप के घर में किराएदार बन कर जिंदगी भर रहूंगी और दिल्ली आने के बाद अदालत में तलाक का दावा भी दायर करूंगी. वैसे मेरी जिंदगी में शादी के लिए कोई जगह नहीं थी. शकील ने शादी के बहुत बार पैगाम भेजे, मैं ने हर बार मना कर दिया. उसी का बदला इस तरह वह मुझ से लेगा, मैं ने सोचा भी नहीं था. आज पंचशील पार्क जा कर मुझे एहसास हुआ कि क्यों दिल्ली में घर नहीं मिल रहे? क्यों तुम उखड़ाउखड़ा बरताव कर रहे थे? देर आए दुरुस्त आए.’’

‘‘पर मैं तुम्हें तलाक देना ही नहीं चाहता,’’ असगर ने कहा, ‘‘मैं ने तुम्हें अपनी बीवी बनाया है. मैं तुम्हारे लिए दूसरी जगह घर बसाने के लिए तैयार हूं.’’

बहुत खुले दिमाग हैं आप के, लेकिन माफ कीजिए. अब औरत उस कबीली जिंदगी से निकल चुकी है जब मवेशियों की गिनती की तरह हरम में औरत की गिनती से आदमी की हैसियत परखी जाती थी. बच्चों से उन का बाप और निकहत से उस का शौहर छीनने का मेरा बिलकुल इरादा नहीं है और वैसे भी एक धोखेबाज आदमी के साथ मैं जी नहीं सकती. हर घड़ी मेरा दम घुटता रहेगा लेकिन तुम्हें बिना सजा दिए भी मुझे चैन नहीं मिलेगा. इसीलिए तुम्हारे घर के ऊपर मैं किराएदार की हैसियत से आ रही हूं.’’

फिर तेज सांसों पर नियंत्रण करती हुई बोली थी तरन्नुम, ‘‘मैं सामान लेने जा रही हूं. तुम निकहत को कुछ बताने का दम नहीं रखते. तुम बेहद कमजोर और बुजदिल आदमी हो. हम दोनों औरतों के रहमोकरम पर जीने वाले.’’

असगर के चेहरे पर गंभीरता व्याप्त थी. तरन्नुम अपनी अटैची बंद कर रही थी. वह मन ही मन सोच रही थी…अम्मीअब्बू की खुशी के लिए उसे वहां कोई भी बात बतानी नहीं है. यह स्वांग यों ही चलने दो जब तक वे हैं.’’

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अधिकार : क्या रिश्ते में अधिकार की भावना जरूरी है – भाग 1

प्रेम में त्याग होता है स्वार्थ नहीं. जो यह कहता है कि अगर तुम मेरे नहीं हो सके तो किसी दूसरे के भी नहीं हो सकते…यहां प्यार नहीं स्वार्थ बोल रहा है…सच तो यह है कि प्रेम में जहां अधिकार की भावना आती है वहीं इनसान स्वार्थी होने लगता है और जहां स्वार्थ होगा वहां प्रेम समाप्त हो जाएगा. उपरोक्त पंक्तियां पढ़तेपढ़ते विनय ने आंखें मूंद लीं…

एकएक शब्द सत्य है इन पंक्तियों का. क्या उस के साथ भी ऐसा ही कुछ घटित नहीं हो रहा. अतीत का एकएक पल उस की स्मृतियों में विचरने लगा. विनय जब छोटा था तभी उस के पापा गुजर गए. उसे और उस की छोटी बहन संजना को उस की मां सपना ने बड़ी कठिनाई से पाला था.

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वह कैसे भूल सकता है वे दिन जब मां बड़ी कठिनाइयों से दो वक्त की रोटी जुटा पाती थीं. अपने जीवनकाल में पिता ने घर के सामान के लिए इतना कर्ज ले लिया था कि पी.एफ. में से कुछ बचा ही नहीं था. पेंशन भी ज्यादा नहीं थी. मां को आज से ज्यादा कल की चिंता थी. उस की और संजना की उच्चशिक्षा के साथसाथ उन्हें संजना के विवाह के लिए भी रकम जमा करनी थी. उन का मानना था कि दहेज का लेनदेन अभी भी समाज में विद्यमान है. कुछ रकम होगी तो दहेजलोभियों को संतुष्ट किया जा सकेगा अन्यथा बेटी के हाथ पीले करना आसान नहीं है.

बड़े प्रयत्न के बाद उन्हें एक स्कूल में अध्यापिका की नौकरी मिली पर वेतन इतना था कि घर का खर्च ही चल पाता था. फायदा बस इतना हुआ कि अध्यापिका की संतान होने के कारण उन को आसानी से स्कूल में दाखिला मिल गया. मां ने उन की देखभाल में कोई कमी नहीं होने दी. आवश्यकता का सभी सामान उन्हें उपलब्ध कराने की उन्होंने कोशिश की. इस के लिए ट्यूशन भी पढ़ाए. उन दोनों ने भी मां के विश्वास को भंग नहीं होने दिया. उन की खुशी की कोई सीमा नहीं रही जब मैट्रिक में उन्होंने राज्य में प्रथम स्थान प्राप्त किया. स्कूल की तरफ से स्कौलरशिप तो मिली ही, उस को पहचान भी मिली. यही 12वीं में हुआ. उसे आई.आई.टी. में दाखिला तो नहीं मिल पाया पर निट में मिल गया.

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संजना ने भी अपने भाई विनय का अनुसरण किया. उस ने भी बायो- टैक्नोलौजी को अपना कैरियर बनाया. बच्चों को अपनेअपने सपने पूरे करते देख मां को सुकून तो मिला पर मन ही मन उन्हें यह डर भी सताने लगा कि कहीं बच्चे अपनी चुनी डगर पर इतने मस्त न हो जाएं कि उन की अनदेखी करने लगें. अब वे उन के प्रति ज्यादा ही चिंतित रहने लगीं. मां स्कूल, कालेज की हर बात तो पूछती हीं, उन के मित्रों के बारे में भी हर संभव जानकारी लेने का प्रयास करतीं. विनय और संजना ने कभी उन की इस बात का बुरा नहीं माना क्योंकि उन्हें लगता था कि मां का अतिशय प्रेम ही उन से यह करवा रहा है. भला मां को उन की चिंता नहीं होगी तो किसे होगी. मां की खुशी की सीमा न रही जब इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी होते ही उस की एक मल्टीनैशनल कंपनी में नौकरी लग गई. संजना का कोर्स भी पूरा होने वाला था. मां ने उस के विवाह की बात चलानी प्रारंभ कर दी…संजना रिसर्च करना चाहती थी. उस ने अपना पक्ष रखा तो मां ने यह कह कर अनसुना कर दिया कि मुझे प्रयास करने दो, यह कोई आवश्यक नहीं कि तुरंत अच्छा रिश्ता मिल ही जाए.

संयोग से एक अच्छा घरपरिवार मिल गया. संजना के मना करने के बावजूद मां ने अपने अधिकार का प्रयोग कर उस पर विवाह के लिए दबाव बनाया. विनय ने संजना का साथ देना चाहा तो मां ने उस से कहा कि मुझे अपनी एक जिम्मेदारी पूरी कर लेने दो, मैं कुछ गलत नहीं कर रही हूं. तुम स्वयं जा कर लड़के से मिल लो, अगर कुछ कमी लगे तो बता देना मैं अपना निर्णय बदल दूंगी और जहां तक संजना की पढ़ाई का प्रश्न है वह विवाह के बाद भी कर सकती है. विनय तब समीर से मिला था. उस में उसे कोई भी कमी नजर नहीं आई, आकर्षक व्यक्तित्व होने के साथ वह अच्छे खातेपीते घर से है, कमा-खा भी अच्छा रहा है.

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इंजीनियरिंग कालेज में लैक्चरर है. मां ने जैसे दिन देखे थे, जैसा जीवन जिया था उस के अनुसार उसे उन का सोचना गलत भी नहीं लगा. वे एक मां हैं, हर मां की इच्छा होती है कि उन के बच्चे जीवन में जल्दी स्थायित्व प्राप्त कर लें. आखिर वह संजना को मनाने में कामयाब हो गया. संजना और समीर का विवाह धूमधाम से हो गया. संजना के विवाह के उत्तरदायित्व से मुक्त हो कर मां कुछ दिनों की छुट्टी ले कर विनय के पास आईं. एक दिन बातोंबातों में उस ने अपने मन की बात उन के सामने रखते हुए कहा, ‘मां अब आप की सारी जिम्मेदारियां समाप्त हो गई हैं. अब नौकरी करने की क्या आवश्यकता है, अब यहीं रहो.’

बेटे के मुख से यह बात सुन कर मां भावविभोर हो गईं. आखिर इस से अधिक एक मां को और क्या चाहिए. उन्होंने त्यागपत्र भेज दिया. कुछ दिन वे उस घर को किराए पर उठा कर तथा वहां से कुछ आवश्यक सामान ले कर आ गईं. उस ने भी आज्ञाकारी पुत्र की तरह मां का कर्ज उतारने में कोई कसर नहीं छोड़ी. घर के खर्च के पूरे पैसे मां को ला कर देता, हर जगह अपने साथ ले कर जाता. उन की हर इच्छा पूरी करने का हरसंभव प्रयत्न करता. धीरेधीरे पुत्र की जिंदगी में उन का दखल बढ़ता गया. वे उस से एकएक पैसे का हिसाब लेने लगीं, अगर वह कभी मित्रों के साथ रेस्तरां में चला जाता तो मां कहतीं, ‘बेटा फुजूलखर्ची उचित नहीं है, आज की बचत कल काम आएगी.’

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अधिकार : क्या रिश्ते में अधिकार की भावना जरूरी है

अधिकार : क्या रिश्ते में अधिकार की भावना जरूरी है – भाग 2

मां अपने जीवन का अनुभव बांट रही थीं पर यह नहीं समझ पा रही थीं कि उन का बेटा अब बड़ा हो गया है, उस की भी कुछ आवश्यकताएं हैं, इच्छाएं हैं. दिन में 3-4 बार फोन करतीं. रात को अगर आने में देर हो जाती तो 10 तरह के सवाल करतीं इसलिए वह मित्रों की पार्टी में भी सम्मिलित नहीं हो पाता था. झुंझलाहट तब और बढ़ जाती जब देर रात तक उसे आफिस में रुकना पड़ता और मां को लगता कि वह अपने मित्रों के साथ घूम कर आ रहा है. मां के तरहतरह के प्रश्न उसे क्रोध से भर देते खासकर जब वे घुमाफिरा कर यह जानने का प्रयत्न करतीं कि उस के मित्रों में कोई लड़की तो नहीं है. उन का आशय समझ कर भी वह उन्हें कुछ नहीं कह पाता तथा मां का अपने प्रति अतिशय प्रेम, चिंता समझ कर टालने की कोशिश करता.

मां का उस की जिंदगी में दखल और मां के प्रति उस का अतिशय झुकाव भांप कर मित्रों ने मां की पूंछ कह कर उस का मजाक बनाना प्रारंभ कर दिया. कोई कहता यार, तू तो अभी बच्चा है, कब तक मां का आंचल पकड़ कर घूमता रहेगा. आंचल छोड़ कर मर्द बन, कुछ निर्णय तो अपनेआप ले. सुन कर उस का आत्मसम्मान डगमगाता, स्वाभिमान को चोट लगती पर चुप रह जाता. अब उसे लगने लगा था कि मां का अपने बच्चे के प्रति प्यार स्वाभाविक है पर उस की सीमारेखा होनी चाहिए, बच्चे को एक स्पेस मिलना चाहिए. कम से कम उसे इस बात की तो छूट देनी चाहिए कि वह कुछ समय अपने हमउम्र मित्रों के साथ बिता सके. आज भी उस के मन में मां का स्थान सर्वोपरि है. आखिर मां ही तो है जिन्होंने न केवल उसे जिंदगी दी, उसे इस मुकाम तक पहुंचाने में कितने ही कष्ट सहे. फिर भी मन में तरहतरह के प्रश्न और शंकाएं क्यों? वे अब भी जो कर रही हैं उस में उन का प्यार छिपा है. मां ने जीवन दिया है अगर वे ले भी लें तो भी इनसान उन के कर्ज से मुक्त नहीं हो सकता.

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निदा फाजली ने यों ही नहीं लिख दिया… ‘मैं रोया परदेश में भीगा मां का प्यार दिल ने दिल से बात की बिन चिट्ठी बिन तार…’ साल दर साल बीतने लगे. उस के लगभग सभी मित्रों के विवाह हो गए. वे अकसर कहते यार कब मिठाई खिला रहा है. वह मुसकरा कर कहता, ‘मुझे आजादी प्यारी है, अभी मैं बंधन में बंधना नहीं चाहता.’ इस बीच कई रिश्ते आए पर मां को कोई लड़की पसंद नहीं आती थी. कहीं परिवार अच्छा नहीं है तो कहीं लड़की. अगर सबकुछ ठीक रहा तो लेनदेन के मसले पर बात टूट जाती. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि मां ऐसा क्यों कर रही हैं जिस दहेज की समस्या से वह संजना के समय त्रस्त थीं वही दहेज का लालच अब उन में कैसे समा गया?

एक रिश्ता तो उस की कंपनी में ही काम कर रही एक लड़की का था. उस के मातापिता इस रिश्ते के लिए इसलिए ज्यादा उत्सुक थे क्योंकि उन्हें लगता था कि दोनों के एक ही कपंनी में काम करने से वे एकदूसरे की समस्याओं को अच्छी तरह समझ पाएंगे, लेकिन मां को वह लड़की ही पसंद नहीं आई. उस ने कुछ कहना चाहा तो बोलीं, ‘तू अभी बच्चा है. शादीविवाह ऐसे ही नहीं हो जाता, बहुत कुछ देखना और सोचना पड़ता है. उस की नाक इतनी मोटी और चपटी है कि अगर उस से विवाह हो गया तो आगे की सारी पीढि़यां चपटी नाक ले कर आएंगी.’ उस ने कभी मां की बात नहीं काटी थी तो अब क्या कहता कि उसे लड़की का रंगरूप, सूरतसीरत ठीक ही लगी. नाक भी ऐसी मोटी या चपटी तो नहीं लगी, जैसा मां कह रही हैं. पता नहीं मां ने बहू के रूप में कैसी लड़की मन में बसा रखी है, अब वे क्यों भूल रही हैं कि हर लड़की सर्वगुणसंपन्न नहीं होती.

सच तो यह है वह इस रिश्ते के आने से पहले कई बार आफिस कैंपस में उस लड़की को देख चुका था, आंखें मिली थीं. शायद चाहने भी लगा था. उस दिन वह बहुत निराश हुआ था और एक सपना टूटता महसूस कर रहा था. पर मां के खिलाफ जा कर कुछ कहने या करने का प्रश्न ही नहीं था. वह सबकुछ सहन कर सकता था पर मां की आंखों में आंसू नहीं. दिन बीत रहे थे. बच्चों के स्कूलों की छुट्टी हो गई थी. मां ने संजना को छुट्टियों में बुला लिया तो उसे भी लगा कि चलो, अच्छा है दिलदिमाग पर छाई नीरसता से मुक्ति मिलेगी. संजना के आते ही घर में रौनक हो गई. उस का 2 वर्षीय बेटा दीप तो उसे छोड़ता ही नहीं था, ‘मामा, हमें यह चाहिए, हमें वह चाहिए.’ और वह उस की डिमांड पूरी करतेकरते थकता नहीं था.

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‘‘भैया, कब तक यों ही अकेले रहोगे. अब तो भाभी ले आओ. आखिर मां कब तक तुम्हारी गृहस्थी संभालती रहेंगी. इन्हें भी तो आराम चाहिए,’’ एक दिन संजना ने बातोंबातोें में कहा. ‘‘कोई लड़की पसंद आए तब न. विवाह गुड्डेगुडि़यों का खेल तो नहीं, जो किसी से भी कर दें,’’ मां ने कहा. ‘‘आखिर भैया को कैसी लड़की चाहिए. मुझे बता दो, मैं ढूंढ़ लूंगी.’’ ‘‘अरे, विनय, संजना को जलेबी पसंद है, आज छुट्टी है, अभी दीप सो रहा है, जा ले आ वरना वह भी तेरे पीछे लग लेगा,’’ मां ने बात का रुख मोड़ते हुए कहा. ‘‘ठीक है मां,’’ उस ने कपड़े बदले तथा चला गया. अभी आधी सीढ़ी ही उतरा था कि उसे याद आया कि बाइक की चाबी लेना तो भूल गया, चाबी लाने वह उलटे पैर लौट आया, घंटी बजाने ही वाला था कि मां की आवाज सुनाई दी.

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‘‘तू बारबार विनय के विवाह के लिए मुझ पर क्यों दबाव डालती है. अरे, अगर उस का विवाह हो गया तो क्या तू ऐसे आ कर यहां रह पाएगी या मैं घर को अपने अनुसार चला पाऊंगी. हर बात में रोकटोक मुझ से सहन नहीं होगा,’’ मां की आवाज आई. ‘‘पर मां यह तो ठीक है कि भैया तुम से बहुत प्यार करते हैं. भला तुम इतनी स्वार्थी कैसे हो सकती हो?’’ ‘‘इस दुनिया में हर इनसान स्वार्थी है, फिर मैं क्यों नहीं बन सकती? मैं ने इतने कष्ट झेले हैं अब जा कर कुछ आराम मिला है फिर कोई आ कर मेरे अधिकार छीने यह मुझ से सहन नहीं होगा.’’ ‘‘मां, अगर भैया को तुम्हारी इस भावना का पता चला तो,’’ संजना ने आक्रोश भरे स्वर में कहा. ‘‘पता कैसे चलेगा… यह मैं तुझ से कह रही हूं, अब तुझ पर इतना विश्वास तो कर ही सकती हूं कि इस राज को राज ही रहने देगी.’’ ‘‘पर मां…’’

‘‘इस संदर्भ में अब मैं एक शब्द नहीं सुनना चाहती. तू अपनी गृहस्थी संभाल और मुझे मेरे तरीके से जीने दे.’’ ‘‘अगर ऐसा था तो तुम ने मेरा विवाह क्यों किया. तुम्हारे अनुसार मैं ने भी तो किसी का बेटा छीना है.’’ ‘‘तेरी बात अलग है. तू मेरी बेटी है, तुझे मैं ने अच्छे संस्कार दिए हैं.’’ इस से आगे विनय से कुछ सुना नहीं गया वह उलटे पांव लौट गया. लगभग 1 घंटे बाद मां का फोन आया. मन तो आया बात न करे पर फोन उठा ही लिया. ‘‘कहां हो तुम, बेटे. इतनी देर हो गई. चिंता हो रही है.’’ आज स्वर की मिठास पर वितृष्णा हो आई पर फिर भी आदतन सहज स्वर में बोला, ‘‘कुछ दोस्त मिल गए हैं, नाश्ते पर इंतजार मत करना, मुझे देर हो जाएगी.’’ ‘‘तेरे दोस्त भी तो तेरा पीछा नहीं छोड़ते. अच्छा जल्दी आ जाना वरना दीप उठते ही तुम्हें ढूंढ़ेगा.’’

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मां का कई बार फोन आते देख उस ने स्विच औफ ही कर दिया. लगभग शाम को लौटा तो मां के तरहतरह के प्रश्नों के उत्तर में उस ने सिर्फ इतना कहा, ‘‘अचानक बौस ने बुला लिया, उन के साथ किसी प्रोजैक्ट पर बात करतेकरते गहमागहमी हो गई. आज प्लीज मुझे अकेला छोड़ दीजिए, बहुत थक गया हूं.’’ मां को अचंभित छोड़ वह अपने कमरे में चला गया तथा कमरा बंद कर लिया. ‘‘पता नहीं क्या हो गया है इसे, आज से पहले तो इस ने ऐसा कभी नहीं किया.’’ ‘‘भैया कह रहे थे कि बौस से कुछ गहमागहमी हो गई है. हो सकता है कुछ आफिस की परेशानी हो.’’

‘‘अगर कुछ परेशानी भी है तो ऐसे कमरा बंद कर के बैठने से थोड़े ही हल हो जाएगी, आज तक तो हर परेशानी मुझ से शेयर करता था फिर आज… कहीं उस ने वह बात…’’ ‘‘मां…तुम भी न जाने क्याक्या सोचती रहती हो…’’ उस के कानों में दीदी के वाक्य पड़े. खाने के समय मां व दीदी उस से खाने के लिए कहने आईं पर उस ने कह दिया, ‘‘भूख नहीं है, उन के साथ ही खा लिया था.’’ विनय जानता था कि उस के इस व्यवहार से मां और दीदी दोनों आहत होंगी पर वह अपने आहत मन का क्या करे? मन नहीं लगा तो वह किताब ले कर बैठ गया. वैसे भी किताबें उस की सदा से साथी रही थीं.

उस की लाइब्रेरी शरतचंद से ले कर चेतन भगत, शेक्सपियर से ले कर हैरी पौटर जैसे नएपुराने लेखकों की किताबों से भरी पड़ी थी. जब मन भटकता था तो वह किताब ले कर बैठ जाता. मन का तनाव तो दूर हो ही जाता, मन को शांति भी मिल जाती थी. फिर अचानक से उस ने उन पंक्तियों पर नजर डाली तो क्या अब मां के प्रेम में स्वार्थ आ गया है जिस से अनचाहा डर पैदा हो गया है.

परिस्थितियों पर नजर डाली तो लगा मां का डर गलत नहीं है पर उन का सोचना तो गलत है. उन्हें यह क्यों लगने लगा है कि दूसरा आ कर उन से उन का अधिकार छीन लेगा. अगर वह अपना निस्वार्थ प्रेम बनाए रखती हैं तो अधिकार छिनेगा नहीं वरन उस में वृद्धि होगी. अगर मैं उन का सम्मान करता हूं, उन की हर इच्छा का पालन करता हूं तो क्या उन का कर्तव्य नहीं है कि वे भी मेरी इच्छा का सम्मान करें, मुझे बंधक बना कर रखने के बजाय थोड़ी स्वतंत्रता दें. अगर मां नहीं चाहतीं तो मैं स्वयं प्रयास करूंगा. आखिर मेरी भी कुछ इच्छाएं हैं. मैं कर्तव्य के साथ अधिकार भी चाहता हूं. मां को मुझे मेरा अधिकार देना ही होगा. मैं संजना से बात करूंगा, अगर उस ने साथ दिया तो ठीक वरना मर्यादा लांघनी ही पड़ेगी. आखिर जब बुजुर्ग अपने ही अंश की भावना को न समझना चाहें तो बच्चों को मर्यादा लांघनी ही पड़ती है.

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इस विचार ने उस के मन में चलती उथलपुथल को शांति दी, घड़ी की ओर देखा तो 2 बज रहे थे, वह सोने की कोशिश करने लगा. साल भर बाद विनय ने संजना और विशाखा के साथ अपने अपार्टमैंट के सामने कार खड़ी की. संजना ने कार से उतर कर कहा, ‘‘भैया, आप भाभी को ले कर पहुंचो तब तक मैं आरती का थाल सजाती हूं.’’ ‘‘अरे, संजना तू, अचानक. न कोई सूचना…कहां है समीर और दीप…’’ मां ने दरवाजे पर उसे अकेला खड़ा देख कर प्रश्न किया. ‘‘वे भी आ रहे हैं पर मां अभी आरती का थाल सजाओ… भइया, भाभी ले कर घर आए हैं.’’ ‘‘भाभी…क्या कह रही है तू. वह ऐसा कैसे कर सकता है. मुझे बिना बताए इतना बड़ा फैसला…ऐसा करते हुए एक बार भी मेरा खयाल नहीं आया. क्या तू भी इस में शामिल है?’’

मां ने बौखला कर कहा. ‘‘हां, मैं भी…मां अगर अपना सम्मान बनाए रखना चाहती हो तो खुशीखुशी बहू का स्वागत करो. मैं आरती का थाल सजाती हूं और हां, तुरंत होटल ‘नटराज’ के लिए निकलना है, कोर्टमैरिज हो चुकी है पर समाज की मुहर लगाने के लिए वहां हमें रिसेप्शन के साथ विवाह की रस्में भी पूरी करनी हैं, कार्ड बंट चुके हैं, थोड़ी देर में मेहमान भी आने प्रारंभ हो जाएंगे. यहां कोई हंगामा न हो इसलिए समीर दीप को ले कर सीधे होटल चले गए हैं,’’ जितनी तेजी से संजना का मुंह चल रहा था उतनी तेजी से उस के हाथ भी.

‘‘पर लड़की कौन है, उस का परिवार कैसा है?’’ क्रोध पर काबू पाते हुए मां ने पूछा. ‘‘लड़की से तुम मिल चुकी हो. भैया के साथ ही काम करती है.’’ ‘‘क्या यह विशाखा….’’ ‘‘मां तुम्हें चपटी नाक वाली नजर आई होगी पर मुझे वह बहुत ही सुलझी और व्यावहारिक लड़की लगी और सब से बड़ी बात वह भैया की पसंद है.’’ ‘‘शादी से पहले हर लड़की सुलझी नजर आती है.’’ ‘‘मां, अगर अब भी तुम ने अपना रवैया नहीं बदला तो मेरी बात याद रखना, घाटे में तुम्हीं रहोगी. बच्चे बड़ों से सिर्फ आशीर्वाद चाहते हैं, उस के बदले में बड़ों को सम्मान देते हैं. अगर उन्हें आशीर्वाद की जगह ताने और उलाहने मिलते रहे तो बड़े भी उन से सम्मान की आशा न रखें. वैसे भी तुम्हारे रुख के कारण ही हमें अनचाहे तरीके से फैसला लेना पड़ा और तो और, विशाखा के मातापिता को बड़ी कठिनाई से इस सब के लिए तैयार कर पाए हैं. अब चलो,’’

कहते हुए संजना का स्वर कठोर हो गया था. वह आरती का थाल लिए तेजी से बाहर की ओर चल दी. कहनेसुनने के लिए कुछ रह ही नहीं गया था. पंछी के पर निकल चुके हैं और वह अब बिना किसी की सहायता से उड़ना भी सीख चुका है. बहेलिया अगर चाहे भी तो उसे बांध कर नहीं रख सकता. सोच कर मां ने संजना का अनुसरण किया. संजना बाहर आई तो देखा दरवाजे पर विनय विशाखा के साथ खड़ा है. आरती का थाल संजना मां के हाथ में पकड़ा कर बोली, ‘‘भैया, पहले मेरी मुट्ठी गरम करो तब अंदर आने दूंगी.’’ विनय से मोटा सा लिफाफा पा कर ही वह हटी तथा मां की तरफ मुखातिब हो कर बोली, ‘‘मां, अब तुम्हारी बारी.’’

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‘पूरी जादूगरनी निकली, अभी से मेरे बेटे को फांस लिया, आगे न जाने क्याक्या होगा,’ मन ही मन बुदबुदाई तभी अंतर्मन ने उसे झकझोरा. अब अपना और कितना अपमान करवाएगी सपना. आगे बढ़, खुशियां तेरे द्वार खड़ी हैं, खुशीखुशी स्वागत कर. उन्होंने संजना के हाथ से थाल लिया तथा आरती उतारते हुए बोलीं, ‘‘अच्छा सरप्राइज दिया तुम लोगों ने, मुझे हवा भी नहीं लगने दी. अगर तुझे इसी से विवाह करना था तो मुझ से कहते, क्या मैं मना कर देती? संजना इस में कुछ मीठा तो रखा ही नहीं है अब बिना मुंह मीठा करवाए कैसे बहू को गृहप्रवेश करवाऊं. आज मीठा तो कुछ भी घर में नहीं है. जा थोड़ा सा गुड़ ले आ.’’

विनय और संजना ने एकदूसरे को देखा. मां में आए परिवर्तन ने उन्हें सुखद आश्चर्य से भर दिया. ‘‘अब खड़ी ही रहेगी या लाएगी भी.’’ संजना गुड़ लाने अंदर गई, विनय और विशाखा मां के चरणों में झुक गए.

पिताजी : नीला को कब अहसास हुआ, ‘प्यारे’ पिताजी के दर्शन हो गए – भाग 1

वीणा समझ नहीं पा रही थीं कि पतिपरमेश्वर हर समय वहशी रवैया क्यों अपनाए रहते हैं. नीला भी पिताजी की डांटडपट से सहमी रहती. समय गुजरता रहा कि एक दिन वे वीणा से अपने को सच्चा पत्नीव्रता जताते नजर आए. और तब नीला को पत्थर दिल नहीं ‘प्यारे’ पिताजी के दर्शन हो गए.

‘‘जब देखो सब ‘सोते’ रहते हैं, यहां किसी को आदत ही नहीं है सुबह उठने की. मैं घूमफिर कर आ गया. नहाधो कर तैयार भी हो गया, पर इन का सोना नहीं छूटता. पता नहीं कब सुधरेंगे ये लोग. उठते क्यों नहीं हो?’’ कहते हुए पिताजी ने छोटे भाई पंकज की चादर खींची. पर उस ने पलट कर चादर ओढ़ ली. हम तीनों बहनें तो पिताजी के चिल्लाने की पहली आवाज से ही हड़बड़ा कर उठ बैठी थीं.

सुबह के साढ़े 6 बजे का समय था. रोज की तरह पिताजी के चीखनेचिल्लाने की आवाज ने ही हमारी नींद खोली थी. हालांकि पिताजी के जोरजोर से पूजा करने की आवाज से हम जाग जाते थे, पर साढ़े 5 बजे कौन जागे, यही सोच कर हम सोए रहते.

पिताजी की तो आदत थी साढ़े 4 बजे जागने की. हम अगर 11 बजे तक जागे रहते तो डांट पड़ती थी कि सोते क्यों नहीं हो, तभी तो सुबह उठते नहीं हो. बंद करो टीवी नहीं तो तोड़ दूंगा. पर आज तो मम्मी भी सो रही थीं. हम भी हैरानगी से मम्मी का पलंग देख रहे थे. मम्मी थोड़ा हिलीं तो जरूर थीं, पर उठी नहीं.

पिताजी दूर से ही चिल्लाए, ‘‘तू भी क्या बच्चों के साथ देर रात तक टीवी देखती रही थी? उठती क्यों नहीं है, मुझे नाश्ता दे,’’ कहते हुए पिताजी हमेशा की तरह रसोई के सामने वाले बरामदे में चटाई बिछा कर बैठ गए. सामने भले ही डायनिंग टेबल रखी हुई थी पर पिताजी ने उसे कभी पसंद नहीं किया. वे ऐसे ही आराम से जमीन पर बैठ कर खाना खाना पसंद करते थे. मम्मी भले ही 55 की हो गई थीं पर पिताजी के लिए नाश्ता मम्मी ही बनाती थीं.

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बड़ी भाभी अपने पति के लिए काम कर लें, यही गनीमत थी. वैसे भी उन की रसोई अलग ही थी. पिताजी उन से किसी काम की नहीं कहते थे. पिताजी के 2 बार बोलने पर भी जब मम्मी नहीं उठीं तो मैं तेजी से मम्मी के पास गई, मम्मी को हिलाया, ‘‘मम्मीजी, पिताजी नाश्ता मांग…अरे, मम्मी को तो बहुत तेज बुखार है,’’ मेरी बात सुनते ही विनीता दीदी फौरन रसोई में पिताजी का नाश्ता तैयार करने चली गईं. हम सब को पता है कि पिताजी के खाने, उठनेबैठने, घूमने जाने का समय तय है. अगर नाश्ते का वक्त निकल गया तो लाख मनाते रहेंगे पर वे नाश्ता नहीं करेंगे. उस के बाद दोपहर के खाने के समय ही खाएंगे, भले ही वे बीमार हो जाएं.

विनीता दीदी ने फटाफट परांठे बना कर दूध गरम कर पिताजी को परोस दिया. पिताजी ने नाश्ता करते समय कनखियों से मम्मी को देखा तो, पर बिना कुछ बोले ही नाश्ता कर के उठ गए और अपने कमरे में जा कर एक किताब उठा कर पढ़ने लगे. मम्मी की एक शिकायत भरी नजर उन की तरफ उठी पर वे कुछ बोली नहीं. न ही पिताजी ने कुछ कहा.

मम्मी को बहुत तेज बुखार था. मैं पिताजी को फिर मम्मी का हाल बताने उन के कमरे में गई तो वे बोले, ‘‘नीला, अपनी मां को अंगरेजी गोलियां मत खिलाना, तुलसी का काढ़ा बना कर दे दो, अभी बुखार उतर जाएगा,’’ पर वे उठ कर मम्मी का हाल पूछने नहीं आए.

मुझे पिताजी की यही आदत बुरी लगती है. क्यों वे मम्मी की कद्र नहीं करते? मम्मी सारा दिन घर के कामों में उलझी रहती हैं. पिताजी का हर काम वे खुद करती हैं. अगर पिताजी बीमार पड़ जाएं या उन्हें जरा सा भी सिरदर्द हो तो मम्मी हर 10 मिनट में पिताजी को देखने उन के कमरे मेें जाती हैं. मैं ने अपनी जिंदगी में हमेशा मम्मी को उन की सेवा करते और डांट खाते ही देखा है. मम्मी कभी पलट कर जवाब नहीं देतीं. अपने बारे में कभी शिकायत भी नहीं करतीं. एक बार मुझे गुस्सा भी आया कि मम्मी, आप पिताजी को पलट कर जवाब क्यों नहीं दे देतीं, तो वे मेरा चेहरा देखने लगी थीं.

‘ऐसे पलट कर पति को जवाब नहीं देना चाहिए. तेरी नानी ने भी कभी नहीं दिया. तेरी ताई और चाची जवाब देती थीं इसलिए कोई भी रिश्तेदार उन्हें पसंद नहीं करता. कोई उन के घर नहीं जाना चाहता.’

मुझे गुस्सा आया, ‘इस से हमें क्या फायदा है? जिस का दिल करता है वही मुंह उठाए यहां चला आता है. जैसे हमारे घर खजाने भरे हों.’

मम्मी हंस पड़ीं, ‘तो हमारे पास कौन से खजाने भरे हैं लुटाने के लिए. कभी देखा है कि मैं ने किसी पर खजाने लुटाए हों. जो है बस, यही सबकुछ है.’

‘पर पिताजी तो किसी के भी सामने आप को डांट देते हैं. मुझे अच्छा नहीं लगता. कितनी बेइज्जती कर देते हैं वे आप की.’

मम्मी ने प्यार से मुझे देखा, ‘तुम लोग करते हो न मुझ से प्यार, क्या यह कम है?’

उस समय मेरा मन किया कि फिल्मी हीरोइनों की तरह फौरन मम्मी के गले लग जाऊं, पर ऐसा कर नहीं सकी. शायद कहीं पिताजी का स्वभाव जो कहीं न कहीं मेरे भीतर भी था, वही मेरे आड़े आ गया.

मैं पिताजी के कमरे से फौरन मम्मी के पास आ गई. क्या एक बार पिताजी चल कर मम्मी का हाल पूछने नहीं जा सकते थे? फिर सोचा अच्छा है, न ही जाएं. जा कर भी क्या करेंगे? बोलेंगे, तू भी वीना लेटने के बहाने ढूंढ़ती है. जरा सा सिरदर्द है, अभी ठीक हो जाएगा. और फिर मस्त हो कर किताबें पढ़ने लगेंगे जबकि वे भी जानते हैं कि मम्मी को नखरे दिखाने की जरा भी आदत नहीं है. जब तक शरीर जवाब न दे जाए वे बिस्तर पर नहीं लेटतीं. कभी मैं सोचती, काश, मेरी मम्मी पिताजी की इस किताब की जगह होतीं. मैं विनीता दीदी को पिताजी की बात बताने जा रही थी, तभी देखा कि वे काढ़ा छान रही हैं. विनीता दीदी ने शायद पहले ही पिताजी की बात सुन ली थी. वे तुलसी का काढ़ा ले कर मम्मी को देने चली गईं.

दोपहर हो गई, फिर शाम और फिर रात, पर मम्मी का बुखार कम होने का नाम ही नहीं ले रहा था. रात को डाक्टर बुलाना पड़ा. उस ने बुखार उतारने का इंजेक्शन लगा दिया और अस्पताल ले जाने के लिए कह कर चला गया.

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अस्पताल का नाम सुनते ही मेरे तो हाथपांव ही फूल गए. मैं ने लोगों के घरों में तो देखासुना था कि फलां आदमी बीमार हो गया कि उसे अस्पताल ले जाना पड़ा. पूरा घर उथलपुथल हो गया. मुझे  समझ में नहीं आता था कि एक आदमी के अस्पताल जाने से घर उथलपुथल कैसे हो जाता है?

सुबहसुबह ही पंकज और मोहन भैया मम्मी को अस्पताल ले गए. मैं अनजाने डर से अधमरी ही हो गई. विनीता दीदी मुझे ढाढ़स बंधाती रहीं कि कुछ नहीं होगा, तू घबरा मत. मम्मी जल्दी ही चैकअप करवा कर लौट आएंगी. पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. चैकअप तो हुआ पर मम्मी को डाक्टर ने अस्पताल में ही दाखिल कर लिया. घर आ कर दोनों भाइयों ने पिताजी को बताया तो भी पिताजी को न तो कोई खास हैरानगी हुई और न ही उन के चेहरे पर कोई परेशानी उभरी. मैं पिताजी के पत्थर दिल को देखती रह गई. मुझ से न तो खाना खाया जा रहा था न ही किसी काम में मन लग रहा था.

पिताजी : नीला को कब अहसास हुआ, ‘प्यारे’ पिताजी के दर्शन हो गए – भाग 2

विनीता दीदी ने डाक्टर के कहे अनुसार मम्मी के लिए पतली सी खिचड़ी बनाई, चाय बनाई, भैया के लिए खाना बनाया और पैक कर के मोहन भैया को वापस अस्पताल भेज दिया. पिताजी घर पर ही बैठे रहे. विनीता दीदी ने पूरे घर के लिए खाना बनाया और खिलाया. मैं घर के काम में उन का हाथ बंटाती रही.

कालेज जाने का मन नहीं किया. एक बार पिताजी से डर भी लगा कि जरूर डांटेंगे कि कालेज क्यों नहीं गई. छोटी बहन पूर्वी तो स्कूल चली गई थी. पिताजी की नजर मुझ पर पड़ी, उन के बिना बोले ही मैं ने दीदी को कहा, ‘‘आज मेरा मन कालेज जाने का नहीं है. आप मुझे कुछ मत कहना,’’ कहते ही मैं दूसरे कमरे में चली गई. दीदी ने मुझे हैरानगी से देखा पर पिताजी की तरफ नजर पड़ते ही वे समझ गईं कि मैं क्यों ऐसा बोल रही हूं. पिताजी भी कुछ नहीं बोले.

स्कूल से लौट कर पूर्वी को मम्मी के अस्पताल दाखिल होने का पता चला तो वह रोने लगी. मेरा भी मन कर रहा था कि उस के साथ रोने लगूं, पर यह सोच कर आंसू पी गई कि पिताजी डांटेंगे कि क्या तुम सब पागल हो गए हो जो रो रहे हो. बीमार ही तो हुई है, एकदो दिन में ठीक हो जाएगी.

मम्मी कभी इतनी बीमार तो पड़ी ही नहीं थीं कि उन्हें अस्पताल जाना पड़ता. पिताजी अपने कमरे में किताब पढ़तेपढ़ते दोपहर को सो गए, फिर शाम को पार्क में सैर करने निकल गए. पंकज भैया की प्राइवेट नौकरी थी इसलिए आफिस में खबर करनी थी. मोहन भैया की सरकारी नौकरी थी. सो उन्होंने फोन कर के आफिस में बता दिया था.

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विनीता दीदी भी आफिस नहीं गईं. उन्होंने भी फोन कर दिया था. पिताजी ने तो भैया के कहने से कब से काम करना छोड़ दिया था. विनीता दीदी मुझे रात की रसोई का काम समझा कर मम्मी के पास अस्पताल चली गईं.

अब घर पर मैं, पिताजी और पूर्वी थे. पंकज भैया भी आफिस से सीधे अस्पताल चले गए. बड़े भैया जगदीश और भाभी तो अलग ही थे. वे हम लोगों से कम ही वास्ता रखते थे, ऐसे में उन्हें कोई काम कहा ही नहीं जा सकता था. पापा बोलते थे कि जगदीश जोरू का गुलाम हो गया है, वह किसी काम का नहीं अब.

दीदी कभीकभी पिताजी को सुना दिया करती थीं कि अगर पति अपनी पत्नी का हर कहना मानता है तो इस में हर्ज ही क्या है? इस पर पिताजी कहते, ‘ऐसा आदमी कमजोर होता है. मैं उसे मर्द नहीं मानता.’ वैसे भी बड़े भैया के बदले हुए स्वार्थभाव को देख कर उन का होना न होना एक बराबर ही था.

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मैं ने खाना बनाया, पूर्वी मेरी सहायता करती रही. पिताजी पार्क से आ कर चुपचाप कमरे में बैठे किताब पढ़ते रहे. कुछ नहीं बोले. शाम की चाय के साथ क्या खाएंगे, इस के जवाब में उन्होंने कोई मांग नहीं की.

भैया के आते ही पिताजी बिना कुछ बोले भैया के सामने बैठ गए. भैया ने बताया कि डाक्टर ने चैकअप किया है उस की परसों रिपोर्ट आएगी, तभी पता चल पाएगा कि असल बीमारी क्या है. यानी कि कम से कम 2 दिन तो और मम्मी को अस्पताल में रहना ही होगा. मेरी हवाइयां उड़ने लगीं. पंकज मेरी सूरत भांप गया, बोला, ‘‘तू क्यों घबरा रही है. वहां मम्मी को अच्छी तरह रखा हुआ है. डाक्टर जानपहचान की मिल गई थीं. उन्होंने एक नर्स को खासतौर पर मम्मी की तबीयत देखने के लिए हिदायत दे दी है. अलग से कमरा भी दिलवा दिया है.’’

मैं ने पिताजी के चेहरे पर आश्वासन की लकीरें देखीं पर फिर तुरंत गायब होते भी देखीं. एक?दो दिन बीते. पता चला मम्मी को ‘यूरिन इन्फेक्शन’ हो गया है. डाक्टर ने कहा कि पूरा उपचार करना होगा, एक सप्ताह तो लगेगा ही. पूरे घर का रुटीन ही गड़बड़ा गया. कौन अस्पताल भाग रहा है, कौन मम्मी के पास बैठ रहा है, कौन रात को मम्मी के पास रहेगा, कौन घर संभालेगा. कुछ समझ में नहीं आ रहा था. जिस को जो काम दिख जाता वह कर लेता था.

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जो मोहन भैया कभी एक गिलास पानी उठा कर नहीं पीते थे वे सुबहसुबह मम्मी के लिए चाय बना कर थर्मस में डाल कर भागते दिखते. पूर्वी को किचन की एबीसीडी नहीं पता थी मगर वह बैठ कर सब्जी काट रही होती, कभी दाल चढ़ा रही होती, कभी दूध गरम कर रही होती.

पिताजी : नीला को कब अहसास हुआ, ‘प्यारे’ पिताजी के दर्शन हो गए – भाग 3

पिताजी का तो सारा रुटीन ही बदल गया था. वे सुबह उठते, सैर कर के आते तो सब के लिए चाय बना देते. फिर बिना चिल्लाए सब को उठाते और बिना नाश्ते की मांग किए ही अस्पताल चले जाते. एक बार तो अच्छा लगा कि पिताजी मम्मी के पास जा रहे हैं पर फिर यह सोच कर डर लगा कि कहीं अस्पताल में जा कर भी तो मम्मी को डांटते नहीं हैं कि तू दवा क्यों नहीं पी रही, तू उठ कर बैठने की कोशिश क्यों नहीं करती. तू अपने आप हिला कर ताकि जल्दी ठीक हो. सौ सवाल थे जेहन में पर जवाब एक का भी नहीं मिल पाता था. मुझे कभीकभी यह भी समझ में नहीं आता था कि मैं मम्मी को ले कर इतनी परेशान क्यों होती हूं? क्यों लगता है कि पिताजी उन्हें डांटें नहीं, उन्हें परेशान न करें. मैं मन ही मन पिताजी से नाराज हूं या आतंकित हूं, यह भी समझ में नहीं आता था.

मैं तो पूरी तरह घरेलू महिला ही बन गई थी. पूरे घर की सफाई, कपड़े और रसोई का काम. रात अस्पताल में रह कर दीदी सुबह लौटतीं तो उन के आने से पहले अधिकतर काम मैं निबटा चुकी होती थी. वे भी मुझे देख कर हैरान होतीं. दीदी रात की जगी होतीं तो नाश्ता करते ही बिस्तर पर सो जातीं. थोड़ा काम करवा पातीं कि फिर से उन के अस्पताल जाने का वक्त हो जाता.

दोनों भाई बारीबारी से छुट्टी ले रहे थे. एकदो बार तो यों भी हुआ कि पिताजी रात को करवटें बदलते रहे और उन की नींद सुबह खुली ही नहीं. वे भी 6 बजे हमारे साथ जागे. मुझे यही लगा कि पिताजी को आदत है हर समय मम्मी को डांटते रहने की. अब मम्मी सामने नहीं हैं तो परेशान हो रहे हैं कि किसे डांटूं. हमें डांटतेडांटते भी चुप हो जाते.

उस दिन शाम को पिताजी घर लौटे तो बोले, ‘‘नीला, कितने दिन हो गए तेरी मां को अस्पताल गए हुए?’’ मैं ने बिना उन्हें देखे चाय देते हुए जवाब दिया, ‘‘10 दिन तो हो ही गए हैं.’’

पिताजी बोले, ‘‘तेरा मन नहीं किया अपनी मां से मिलने को?’’

मैं इतने दिनों से मम्मी की कमी महसूस कर रही थी पर बोल नहीं पा रही थी. पिताजी की इस बात से मेरे मन के भीतर कुछ उबाल सा उठने लगा. इस से पहले कि मैं कोई जवाब देती, पिताजी सपाट शब्दों में फिर बोले, ‘‘तेरी मां तुझे याद कर रही थी.’’ मैं भीतर के उबाल को रोक नहीं पाई, तेजी से रसोई में जा कर काम करतेकरते रोने लगी.

‘आप को क्या पता कि मैं कितनी परेशान हूं, हर पल मम्मी के घर आने की खबर का इंतजार कर रही हूं. वहां जाऊंगी और देखूंगी कि आप फिर मम्मी को ही हर बात के लिए दोष दे रहे हो, उन्हें डांट रहे हो तो और भी दुख होगा. वैसे भी आप को क्या फर्क पड़ता है कि मम्मी घर पर रहें या अस्पताल में.

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‘अस्पताल में जा कर भी क्या करते होंगे, मुझे पता है? आप से दो शब्द तो प्रेम के बोले नहीं जाते, मम्मी को टेंशन ही देते होंगे, तभी मम्मी 10 दिन अस्पताल में रहने के बावजूद अभी तक ठीक नहीं हो पाई हैं. हम बच्चों से पूछिए जिन्हें हर पल मां चाहिए. भले ही वे हमारे लिए कोई काम करें या न करें. मम्मी भी मुझे याद कर रही हैं. सभी तो मम्मी से मिलने अस्पताल चले गए, एक मैं ही नहीं गई.’ मैं रोतेरोते मन ही मन हर पल पिताजी को कोसती रही.

सोचतेसोचते मेरे हाथ से दूध भरा पतीला फिसल कर जमीन पर गिर गया. पूरी रसोई दूध से नहा गई और मैं यह सोच कर घबरा गई कि पिताजी अभी जोर से डांटेंगे और चिल्लाएंगे. सोचा ही था कि पिताजी हाथ में चाय का कप लिए सामने आ गए. पूर्वी और मोहन भैया भी आ गए.

पिताजी चुपचाप खड़े रहे. मोहन भैया घबरा कर बोले, ‘‘तेरे ऊपर तो गरम दूध नहीं गिरा?’’ मैं कसमसाई, ‘‘नहीं, पर सारा दूध गिर गया.’’ पूर्वी पोछा लेने दौड़ी. पिताजी ने बहुत ही शांत स्वर में कहा, ‘‘मोहन, बाजार से और दूध ले आओ,’’ और वापस अपने कमरे में चले गए. मैं पिताजी की पीठ ही देखती रह गई. मोहन भैया भी शांति से बोले, ‘‘तू अपना ध्यान रखना, कहीं जला न बैठना, मैं और दूध ले आता हूं.’’ पता नहीं क्यों फिर मम्मी की याद आ गई और मैं रोने लगी.

अगले दिन विनीता दीदी ने भी कहा कि आज रात तू मम्मी के पास रहना, मम्मी याद कर रही थीं. वैसे भी मेरी रात की नींद पूरी नहीं हो पा रही, कहीं मैं भी बीमार न हो जाऊं. मेरा मन भी मम्मी से मिलने का हो रहा था. मैं जानबूझ कर ज्यादा देर से जाना चाहती थी ताकि पिताजी अपने समय से निकल कर घर आ जाएं और मैं मम्मी के गले लग कर खूब रो सकूं. सब दिनों की कसर पूरी हो जाए.

मैं अस्पताल के आंगन में बिना वजह आधा घंटा बरबाद कर के मम्मी के स्पेशल वार्ड में पहुंची कि अब तो पिताजी निकल ही गए होंगे, पर जैसे ही अंदर जाने लगी पिताजी की आवाज सुनाई दी तो मेरे कदम वहीं रुक गए.

‘‘वीना, तू कह तो रही है मुझे जाने के लिए, लेकिन मेरा मन नहीं मानता कि तुझे अकेला छोड़ कर जाऊं. तेरे बिना मुझे घर काटने को दौड़ता है. मुझे तेरे बिना जीने की आदत नहीं है,’’ पिताजी का स्वर रोंआसा था.

‘‘आप तो इतने मजबूत दिल के हो, फिर क्यों रो रहे हो?’’

‘‘हां, हूं मजबूत दिल का, दुनिया के सामने अपनी कमजोरी दिखा नहीं सकता, मर्द हूं न, लेकिन मेरा दिल जानता है कि पत्थर बनना कितना मुश्किल होता है. तू जल्दी से ठीक हो जा, अब बरदाश्त नहीं हो रहा मुझे से,’’ पिताजी बच्चों की तरह फफक रहे थे.

‘‘आप ऐसे रोएंगे तो बच्चों को कौन संभालेगा. जाइए न. बच्चे भी तो घर पर अकेले होंगे,’’ मम्मी का स्वर भी रोंआसा था.

‘‘तू हाथ मत छुड़ा. अगर अस्पताल वाले मुझे इजाजत देते रात भर यहां रहने की तो दिनरात तेरी सेवा कर के तुझे साथ ले कर ही घर जाता. बच्चे भी तुझ पर गए हैं. मुझ से बोलते नहीं, पर सब तेरे घर आने का ही इंतजार कर रहे हैं. कोई अब शोर नहीं मचाता, न ही कोई टीवी देखता है,’’ पिताजी के शब्द आंसुओं में फिसलने लगे थे. मम्मी भी उसी में पिघल रही थीं.

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आंसुओं से मेरी भी आंखें धुंधला गई थीं. मुझे कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. पिताजी के पत्थर दिल के पीछे प्रेम की अमृतधारा का इतना बड़ा झरना बह रहा है, यह तो मैं कभी देख ही नहीं पाई. मैं ने तो अपनी मम्मीपापा को एकसाथ बिस्तर पर हाथ में हाथ डाले बैठे नहीं देखा था लेकिन आज जो मेरे कानों ने मुझे नजारा दिखाया वह मेरी आंखें भी देखना चाह रही थीं. प्यार से लबालब भरे पिताजी की इस सूरत को देखने के लिए मैं तेजी से वार्ड में प्रवेश कर गई.

मेरे सामने आते ही पिताजी ने मम्मी के हाथ से अपना हाथ तेजी से हटा लिया. मैं एकदम मम्मी के गले लग कर जोर से रो पड़ी. मम्मी भी रो पड़ी थीं, ‘‘पागल है, रो क्यों रही है? मैं तो एकदो दिन में आ रही हूं.’’

वे नहीं जानती थीं कि मेरे इन आंसुओं में पिताजी की ओर से मेरा हर रोष धुल गया था. मैं ने पिताजी को कनखियों से देखा. पिताजी का चेहरा आंसुओं से खाली था पर अब मुझे वहां पत्थर दिल नहीं ‘प्यारे’ पिताजी दिख रहे थे, जो हमसब को खासतौर पर मम्मी को, बहुतबहुत प्यार करते थे.

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