लौटते हुए: क्या विमल कर पाया रंजना से शादी

धनंजयजी का मन जाने का नहीं था, लेकिन सुप्रिया ने आग्रह के साथ कहा कि सुधांशु का नया मकान बना है और उस ने बहुत अनुरोध के साथ गृहप्रवेश के मौके पर हमें बुलाया है तो जाना चाहिए न. आखिर लड़के ने मेहनत कर के यह खुशी हासिल की है, अगर हम नहीं पहुंचे तो दीदी व जीजाजी को भी बुरा लगेगा…

‘‘पर तुम्हें तो पता ही है कि आजकल मेरी कमर में दर्द है, उस पर गरमी का मौसम है, ऐसे में घर से बाहर जाने का मन नहीं करता है.’’

‘‘हम ए.सी. डब्बे में चलेंगे…टिकट मंगवा लेते हैं,’’ सुप्रिया बोली.

‘‘ए.सी. में सफर करने से मेरी कमर का दर्द और बढ़ जाएगा.’’

‘‘तो तुम सेकंड स्लीपर में चलो, …मैं अपने लिए ए.सी. का टिकट मंगवा लेती हूं,’’ सुप्रिया हंसते हुए बोली.

सुप्रिया की बहन का लड़का सुधांशु पहले सरकारी नौकरी में था, पर बहुत महत्त्वाकांक्षी होने के चलते वहां उस का मन नहीं लगा. जब सुधांशु ने नौकरी छोड़ी तो सब को बुरा लगा. उस के पिता तो इतने नाराज हुए कि उन्होंने बोलना ही बंद कर दिया. तब वह अपने मौसामौसी के पास आ कर बोला था, ‘मौसाजी, पापा को आप ही समझाएं…आज जमाना तेजी से आगे बढ़ रहा है, ठीक है मैं उद्योग विभाग में हूं…पर हूं तो निरीक्षक ही, रिटायर होने तक अधिक से अधिक मैं अफसर हो जाऊंगा…पर मैं यह जानता हूं कि जिन की लोन फाइल बना रहा हूं वे तो मुझ से अधिक काबिल नहीं हैं. यहां तक कि उन्हें यह भी नहीं पता होता कि क्या काम करना है और उन की बैंक की तमाम औपचारिकताएं भी मैं ही जा कर पूरी करवाता हूं. जब मैं उन के लिए इतना काम करता हूं, तब मुझे क्या मिलता है, कुछ रुपए, क्या यही मेरा मेहनताना है, दुनिया इसे ऊपरी कमाई मानती है. मेरा इस से जी भर गया है, मैं अपने लिए क्या नहीं कर सकता?’

‘हां, क्यों नहीं, पर तुम पूंजी कहां से लाओगे?’ उस के मौसाजी ने पूछा था.

‘कुछ रुपए मेरे पास हैं, कुछ बाजार से लूंगा. लोगों का मुझ में विश्वास है, बाकी बैंक से ऋण लूंगा.’

‘पर बेटा, बैंक तो अमानत के लिए संपत्ति मांगेगा.’

‘हां, मेरे जो दोस्त साथ काम करना चाहते हैं वे मेरी जमानत देंगे,’ सुधांशु बोला था, ‘पर मौसीजी, मैं पापा से कुछ नहीं लूंगा. हां, अभी मैं जो पैसे घर में दे रहा था, वह नहीं दे पाऊंगा.’

धनंजयजी ने उस के चेहरे पर आई दृढ़ता को देखा था. उस का इरादा मजबूत था. वह दिनभर उन के पास रहा, फिर भोपाल चला गया था. रात को उन्होंने उस के पिता से बात की थी. वह आश्वस्त नहीं थे. वह भी सरकारी नौकरी में रह चुके थे, कहा था, ‘व्यवसाय या उद्योग में सुरक्षा नहीं है या तो बहुत मिल जाएगा या डूब जाएगा.’

खैर, समय कब ठहरा है…सुधांशु ने अपना व्यवसाय शुरू किया तो उस में उस की तरक्की होती ही गई. उस के उद्योग विभाग के संबंध सब जगह उस के काम आए थे. 2-3 साल में ही उस का व्यवसाय जम गया था. पहले वह धागे के काम में लगा था. फैक्टरियों से धागा खरीदता था और उसे कपड़ा बनाने वाली फैक्टरियों को भेजता था. इस में उसे अच्छा मुनाफा मिला. फिर उस ने रेडीमेड गारमेंट में हाथ डाल लिया. यहां भी उस का बाजार का अनुभव उस के काम आया. अब उस ने एक बड़ा सा मकान भोपाल के टी.टी. नगर में बनवा लिया है और उस का गृहप्रवेश का कार्यक्रम था… बारबार सुधांशु का फोन आ रहा था कि मौसीजी, आप को आना ही होगा और धनंजयजी ना नहीं कर पा रहे थे.

‘‘सुनो, भोपाल जा रहे हैं तो इंदौर भी हो आते हैं,’’ सुप्रिया बोली.

‘‘क्यों?’’

‘‘अपनी बेटी रंजना के लिए वहां से भी तो एक प्रस्ताव आया हुआ है. शारदा की मां बता रही थीं…लड़का नगर निगम में सिविल इंजीनियर है, देख भी आएंगे.’’

‘‘रंजना से पूछ तो लिया है न?’’ धनंजय ने पूछा.

‘‘उस से क्या पूछना, हमारी जिम्मेदारी है, बेटी हमारी है. हम जानबूझ कर उसे गड्ढे में नहीं धकेल सकते.’’

‘‘इस में बेटी को गड्ढे में धकेलने की बात कहां से आ गई,’’ धनंजयजी बोले.

‘‘तुम बात को भूल जाते हो…याद है, हम विमल के घर गए थे तो क्या हुआ था. सब के लिए चाय आई. विमल के चाय के प्याले में चम्मच रखी हुई थी. मैं चौंक गई और पूछा, ‘चम्मच क्यों?’ तो विमल बोला, ‘आंटी, मैं शुगर फ्री की चाय लेता हूं…मुझे शुगर तो नहीं है, पर पापा को और बाबा को यह बीमारी थी इसलिए एहतियात के तौर पर…शुगर फ्री लेता हूं, व्यायाम भी करता हूं, आप को रंजना ने नहीं बताया,’ ऐसा उस ने कहा था.’’

‘‘लड़की को बीमार लड़के को दे दो. अरे, अभी तो जवानी है, बाद में क्या होगा? यह बीमारी तो मौत के साथ ही जाती है. मैं ने रंजना को कह दिया था…भले ही विमल बहुत अच्छा है, तेरे साथ पढ़ालिखा है पर मैं जानबूझ कर यह जिंदा मक्खी नहीं निगल सकती.’’

पत्नी की बात को ‘हूं’ के साथ खत्म कर के धनंजयजी सोचने लगे, तभी यह भोपाल जाने को उत्सुक है, ताकि वहां से इंदौर जा कर रिश्ता पक्का कर सके. अचानक उन्हें अपनी बेटी रंजना के कहे शब्द याद आए, ‘पापा, चलो यह तो विमल ने पहले ही बता दिया…वह ईमानदार है, और वास्तव में उसे कोई बीमारी भी नहीं है, पर मान लें, आप ने कहीं और मेरी शादी कर दी और उस का एक्सीडेंट हो गया, उस का हाथ कट गया…तो आप मुझे तलाक दिलवाएंगे?’

तब वह बेटी का चेहरा देखते ही रह गए थे. उन्हें लगा सवाल वही है, जिस से सब बचना चाहते हैं. हम आने वाले समय को सदा ही रमणीय व अच्छाअच्छा ही देखना चाहते हैं, पर क्या सदा समय ऐसा ही होता है.

‘पापा…फिर तो जो मोर्चे पर जाते हैं, उन का तो विवाह ही नहीं होना चाहिए…उन के जीवन में तो सुरक्षा है ही नहीं,’ उस ने पूछा था.

‘पापा, मान लें, अभी तो कोई बीमारी नहीं है, लेकिन शादी के बाद पता लगता है कि कोई गंभीर बीमारी हो गई है, तो फिर आप क्या करेंगे?’

धनंजयजी ने तब बेटी के सवालों को बड़ी मुश्किल से रोका था. अंतिम सवाल बंदूक की गोली की तरह छूता उन के मन और मस्तिष्क को झकझोर गया था.

पर, सुप्रिया के पास तो एक ही उत्तर था. उसे नहीं करनी, नहीं करनी…वह अपनी जिद पर अडिग थी.

रंजना ने भोपाल जाने में कोई उत्सुकता नहीं दिखाई. वह जानती थी, मां वहां से इंदौर जाएंगी…वहां शारदा की मां का कोई दूर का भतीजा है, उस से बात चल रही है.

स्टेशन पर ही सुधांशु उन्हें लेने आ गया था.

‘‘अरे, बेटा तुम, हम तो टैक्सी में ही आ जाते,’’ धनंजयजी ने कहा.

‘‘नहीं, मौसाजी, मेरे होते आप टैक्सी से क्यों आएंगे और यह सबकुछ आप का ही है…आप नहीं आते तो कार्यक्रम का सारा मजा किरकिरा हो जाता,’’ सुधांशु बोला.

‘‘और मेहमान सब आ गए?’’ सुप्रिया ने पूछा.

‘‘हां, मौसी, मामा भी कल रात को आ गए. उदयपुर से ताऊजी, ताईजी भी आ गए हैं. घर में बहुत रौनक है.’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं, तुम सभी के लाड़ले हो और इतना बड़ा काम तुम ने शुरू किया है, सभी को तुम्हारी कामयाबी पर खुशी है, इसीलिए सभी आए हैं,’’ सुप्रिया ने चहकते हुए कहा.

‘‘हां, मौसी, बस आप का ही इंतजार था, आप भी आ गईं.’’

सुधांशु का मकान बहुत बड़ा था. उस ने 4 बेडरूम का बड़ा मकान बनवाया था. उस की पत्नी माधवी सजीधजी सब की खातिर कर रही थी. चारों ओर नौकर लगे हुए थे. बाहर जाने के लिए गाडि़यां थीं. शाम को उस की फैक्टरी पर जाने का कार्यक्रम था.

गृहप्रवेश का कार्यक्रम पूरा हुआ, मकान के लौन में तरहतरह की मिठाइयां, नमकीन, शीतल पेय सामने मेज पर रखे हुए थे पर सुधांशु के हाथ में बस, पानी का गिलास था.

‘‘अरे, सुधांशु, मुंह तो मीठा करो,’’ सुप्रिया बर्फी का एक टुकड़ा लेते हुए उस की तरफ बढ़ी.

‘‘नहीं, मौसी नहीं,’’ उस की पत्नी माधवी पीछे से बोली, ‘‘इन की शुगर फ्री की मिठाई मैं ला रही हूं.’’

‘‘क्या इसे भी…’’

‘‘हां,’’ सुधांशु बोला, ‘‘मौसी रातदिन की भागदौड़ में पता ही नहीं लगा कब बीमारी आ गई. एक दिन कुछ थकान सी लगी. तब जांच करवाई तो पता लगा शुगर की शुरुआत है, तभी से परहेज कर लिया है…दवा भी चलती है, पर मौसी, काम नहीं रुकता, जैसे मशीन चलती है, उस में टूटफूट होती रहती है, तेल, पानी देना पड़ता है, कभी पार्ट्स भी बदलते हैं, वही शरीर का हाल है, पर काम करते रहो तो बीमारी की याद भी नहीं आती है.’’

इतना कह कर सुधांशु खिलखिला कर हंस रहा था और तो और माधवी भी उस के साथ हंस रही थी. उस ने खाना खातेखाते पल्लवी से पूछा, ‘‘जीजी, सुधांशु को डायबिटीज हो गई, आप ने बताया ही नहीं.’’

‘‘सुप्रिया, इस को क्या बताना, क्या छिपाना…बच्चे दिनरात काम करते हैं. शरीर का ध्यान नहीं रखते…बीमारी हो जाती है. हां, दवा लो, परहेज करो. सब यथावत चलता रहता है. तुम तो मिठाई खाओ…खाना तो अच्छा बना है?’’

‘‘हां, जीजी.’’

‘‘हलवाई सुधांशु ने ही बुलवाया है. रतलाम से आया है. बहुत काम करता है. सुप्रिया, हम धनंजयजी के आभारी हैं. सुना है कि उन्होंने ही सुधांशु की सहायता की थी. आज इस ने पूरे घर को इज्जत दिलाई है. पचासों आदमी इस के यहां काम करते हैं…सरकारी नौकरी में तो यह एक साधारण इंस्पेक्टर रह जाता.’’

‘‘नहीं जीजी,…हमारा सुधांशु तो बहुत मेहनती है,’’ सुप्रिया ने टोका.

‘‘हां, पर…हिम्मत बढ़ाने वाला भी साथ होना चाहिए. तुम्हारे जीजा तो इस के नौकरी छोड़ने के पूरे विरोध में थे,’’ पल्लवी बोली.

‘‘अब…’’ सुप्रिया ने मुसकरा कर पूछा.

‘‘वह सामने देखो, कैसे सेठ की तरह सजेधजे बैठे हैं. सुबह होते ही तैयार हो कर सब से पहले फैक्टरी चले जाते हैं. सुधांशु तो यही कहता है कि अब काम करने से पापा की उम्र भी 10 साल कम हो गई है. दिन में 3 चक्कर लगाते हैं, वरना पहले कमरे से भी बाहर नहीं जाते थे.’’

रात का भोजन भी फैक्टरी के मैदान में बहुत जोरशोर से हुआ था. पूरी फैक्टरी को सजाया गया था. बहुत तेज रोशनी थी. शहर से म्यूजिक पार्टी भी आई थी.

धनंजयजी को बारबार अपनी बेटी रंजना की याद आ जाती कि वह भी साथ आ जाती तो कितना अच्छा रहता, पर सुप्रिया की जिद ने उसे भीतर से तोड़ दिया था.

सुबह इंदौर जाने का कार्यक्रम पूर्व में ही निर्धारित हुआ था. पर सुबह होते ही, धनंजयजी ने देखा कि सुप्रिया में इंदौर जाने की कोई उत्सुकता ही नहीं है, वह तो बस, अधिक से अधिक सुधांशु और माधवी के साथ रहना चाह रही थी.

आखिर जब उन से रहा नहीं गया तो शाम को पूछ ही लिया, ‘‘क्यों, इंदौर नहीं चलना क्या? वहां से फोन आया था और कार्यक्रम पूछ रहे थे.’’

सुप्रिया ने उन की बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया, वह यथावत अपने रिश्तेदारों से बातचीत में लगी रही.

सुबह ही सुप्रिया ने कहा था, ‘‘इंदौर फोन कर के उन्हें बता दो कि हम अभी नहीं आ पाएंगे.’’

‘‘क्यों?’’ धनंजयजी ने पूछा.

सुप्रिया ने सवाल को टालते हुए कहा, ‘‘शाम को सुधांशु की कार जबलपुर जा रही है. वहां से उस की फैक्टरी में जो नई मशीनें आई हैं, उस के इंजीनियर आएंगे. वह कह रहा था, आप उस से निकल जाएं, मौसाजी को आराम मिल जाएगा. पर कार में ए.सी. है.’’

‘‘तो?’’

‘‘तो तुम्हारी कमर में दर्द हो जाएगा,’’ उस ने हंसते हुए कहा.

धनंजयजी, पत्नी के इस बदले हुए मिजाज को समझ नहीं पा रहे थे.

रास्ते में उन्होंने पूछा, ‘‘इंदौर वालों को क्या कहना है, फिर फोन आया था.’’

‘‘सुनो, सुधांशु को पहले तो डायबिटीज नहीं थी.’’

‘‘हां.’’

‘‘अब देखो, शादी के बाद हो गई है, पर माधवी बिलकुल निश्ंिचत है. उसे तो इस की तनिक भी चिंता नहीं है. बस, सुधांशु के खाने और दवा का ध्यान दिन भर रखती है और रहती भी कितनी खुश है…उस ने सभी का इतना ध्यान रखा कि हम सोच भी नहीं सकते थे.’’

धनंजयजी मूकदर्शक की तरह पत्नी का चेहरा देखते रहे, तो वह फिर बोली, ‘‘सुनो, अपना विमल कौन सा बुरा है?’’

‘‘अपना विमल?’’ धनंजयजी ने टोका.

‘‘हां, रंजना ने जिस को शादी के लिए देखा है, गलती हमारी है जो हमारे सामने ईमानदारी से अपने परिवार का परिचय दे रहा है, बीमारी के खतरे से सचेत है, पूरा ध्यान रख रहा है. अरे, बीमारी बाद में हो जाती तो हम क्या कर पाते, वह तो…’’

‘‘यह तुम कह रही हो,’’ धनंजयजी ने बात काटते हुए कहा.

‘‘हां, गलती सब से होती है, मुझ से भी हुई है. यहां आ कर मुझे लगा, बच्चे हम से अधिक सही सोचते हैं,’’…पत्नी की इस सही सोच पर खुशी से उन्होंने पत्नी का हाथ अपने हाथ में ले कर धीरे से दबा दिया.

Valentine’s Day 2024- तड़पते इश्क की गूंज: अवनी क्यों पागल हो गई थी

आगरा के पक्की सराय एरिया की कालोनी में 2 बैडरूम के छोटेछोटे घर. जिन लोगों के परिवार छोटे होते हैं, उन के लिए तो ऐसे घर सही हैं, लेकिन जिन के परिवार में 8-8 लोग हों, वे भला कैसे गुजारा करें… सब बड़ा घर भी तो नहीं ले सकते. इतनी महंगाई में घर का रोजमर्रा का खर्च चलाएं या बड़ा घर खरीदें?

यही हालत अविनाश की भी है. उस का एक भरापूरा परिवार है, जिस में दादादादी, मांपापा, भैयाभाभी, एक छोटी बहन और वह खुद यानी घर में रहने वाले पूरे 8 जने और बैडरूम हैं 2.

एक रूम पर भैयाभाभी का और दूसरे रूम पर मांपापा का कब्जा था. कौमन हाल में दादादादी और छोटी बहन सोते थे. अब रह गया अविनाश, पर उस के लिए तो जगह ही नहीं बचती थी. मांपापा कहते थे कि वह उन के रूम में आ जाए, पर भला जवान बेटा अपने मांपापा के कमरे कैसे आ सकता था?

खैर, एक दिन अविनाश वहां सोया तो रात को कुछ खुसुरफुसुर की आवाजें सुनाई दीं. उसे लगा कि मांपापा धीरेधीरे कुछ बात कर रहे हैं.

खैर, बात तो कोई भी हो सकती है, प्यार की या परिवार की, लेकिन उस के बाद अविनाश को अपने मांपापा के कमरे में सोना सही नहीं लगा और अगले ही दिन उस ने जीवन मंडी रोड पर बनी अपनी फैक्टरी के मालिक से बात कर ली कि वह भी रात को फैक्टरी में रुक जाया करेगा, ताकि उस का घर से आनेजाने का समय बच जाए और उस बचे हुए समय में वह और ज्यादा मेहनत कर के ज्यादा काम कर सके. मालिक ने हां कर दी.

लेकिन बात कुछ और भी थी. अविनाश फैक्टरी में मेनेजर की पोस्ट पर काम करने वाली अवनी से प्यार करता था, इसीलिए उसे अवनी के बराबर खुद को खड़ा करना था, तभी तो वह अवनी का रिश्ता मांगने की हिम्मत करता.

दरअसल, यह तब की बात है जब अवनी और अविनाश राधा वल्लभ कालेज में एक ही क्लास में पढ़ते थे. चलिए, अब आप को थोड़ा फ्लैशबैक में ले कर चलते हैं.

अवनी एक ठीकठाक अमीर परिवार से थी. थोड़ा हलका सा सांवला रंग, मोटेमोटे नैन, तीखी नाक, लंबी सुराहीदार गरदन, लंबेघने काले बाल, कद 5 फुट, 4 इंच, होंठ पतले जैसे गुलाब की पंखुड़ियां हों, बड़े उभार मर्दों को न्योता देते हुए, कमर ऐसे लचकती कि कहने ही क्या. कुलमिला कर अवनी किसी का भी दिल धड़काने के लिए काफी थी.

जैसे ही अवनी की कार कालेज के अंदर आती तो जवां दिलों की धड़कनें थम जातीं. कोई उस की कार का दरवाजा खोलने दौड़ता, तो कोई जहां होता वहीं बुत बना केवल उसे देखता रहता.

अवनी पर हजारों जवां दिल फिदा थे, मगर वह किसी की तरफ भी ध्यान नहीं देती थी. कार पार्क कर के सीधा अपनी क्लास में और क्लास के बाद कार में बैठ घर की तरफ चल देती थी.

अब जानिए हमारे हीरो अविनाश के बारे में. साफ रंग, कद 5 फुट, 8 इंच, घुंघराले बाल, माथे पर हमेशा एक बालों की लट झूलती रहती, चौड़ा सीना, मजबूत बांहें, चाल राजकुमारों सी, एकदम हीरो. मगर वह एक पुरानी सी स्कूटी पर कालेज आताजाता था. साधारण परिवार का जो था.

कालेज इश्क एक ऐसा अखाड़ा होता है जहां किसी न किसी का किसी न किसी से पेंच लड़ ही जाता है, मगर ये 2 महान हस्तियां ही ऐसी थीं, जिन्हें अभी तक किसी से प्यार नहीं हुआ था.

अवनी प्यारमुहब्बत के झमेले में पड़ना नहीं चाहती थी और अविनाश घर के हालात से मजबूर था. जब तक वह पढ़लिख कर कुछ बन न जाए, तब तक किसी लड़की के बारे में उसे सोचना भी नहीं.

लेकिन इश्क कहां छोड़ता है जनाब, यह तो वह आग है जो बिन तेल, बिन दीयाबाती जलती है. आखिर इन दोनों को भी इस आग ने पकड़ लिया.

दरअसल, जहां से अविनाश के घर का रास्ता था, वहीं कहीं रास्ते में ही अवनी का घर भी था और वे दोनों कालेज से अमूमन एक ही समय पर निकलते थे.

एक दिन अचानक रास्ते में अवनी की कार खराब हो गई. उस पर बारिश का मौसम भी बना हुआ था. लाख रोकने पर कोई बस या आटोरिकशा नहीं रुका. इतने में अविनाश, जो अपनी स्कूटी से आ रहा था, उसे देख रुक गया और पूछा, “अवनी, क्या हुआ? आप यहां बीच रास्ते में… गाड़ी में कुछ प्रौब्लम आ गई क्या?”

“हां, मेरी कार अचानक बंद हो गई है और कोई बस या आटोरिकशा भी नहीं  रुक रहा.”

“परेशान न हों. मैं आप को घर छोड़ देता हूं, क्योंकि मौसम भी खराब है. लगता है कि थोड़ी देर में बारिश भी होने वाली है और यहां आसपास कोई कार मेकैनिक भी नहीं है. अगर आप को एतराज न हो तो आप मेरी स्कूटी पर बैठ जाएं.”

अवनी को कोई और रास्ता भी नजर नहीं आ रहा था, इसलिए वह अविनाश के पीछे स्कूटी पर बैठ गई. मगर जैसे ही उस ने अविनाश को पकड़ा, मानो दोनों ने किसी बिजली के तार को छू लिया हो. सनसनी सी बन कर एक लहर दौड़ गई बदन में, उस पर बारिश भी शुरू हो गई थी.

एक तो बारिश से भीगने पर बदन में कंपकंपाहट, उस पर आग और घी का मिलन, ज्वाला तो भड़कनी ही थी. तब से दोनों के दिलों में इश्क ने बसेरा कर लिया था, मगर मूक इश्क ने. न अवनी जबां से कुछ कह सकी, न अविनाश इश्क कुबूल कर सका.

इत्तिफाक देखिए, पढ़ाई खत्म होने के बाद दोनों की नौकरी एक ही जूता फैक्टरी में लग गई. हुआ यों कि अवनी के पापा की जीवन मंडी रोड एक जूता फैक्टरी के मालिक लवेश से अच्छी जानपहचान थी और इस वजह से उन की बेटी अवनी को मैनेजर का पद मिल गया था.

इधर अविनाश को बहुत मेहनत के बाद किसी जानकार की सिफारिश से जीवन मंडी रोड की उसी फैक्टरी में काम मिल गया. उस ने आते ही अवनी को देखा तो हैरान रह गया. एकदूसरे को सामने देख कर दोनों का प्यार दोबारा हिलोरें लेने लगा.

एक दिन अविनाश जब फैक्टरी से छुट्टी के बाद घर जा रहा था, तो रास्ते में देखा कि अवनी कार रोके खड़ी थी.

“मैडम, क्या हुआ? कार खराब हो गई क्या? क्या मैं आप की कुछ मदद कर सकता हूं?”

इतना सुनते ही अवनी कार से निकली और अविनाश के गले लग कर खूब रोई.

“अरे अवनी, क्या हुआ? सब ठीक तो है न? जल्दी बताओ, मुझे चिंता हो रही है,” अविनाश ने पूछा.

“अविनाश, तुम्हें अगर मेरी जरा भी परवाह होती तो इतने पत्थरदिल न बनते, मेरे प्यार से अनजान न रहते. क्या तुम्हारा मेरा रिश्ता इस एक नौकरी की वजह से इतना बदल गया कि तुम मुझे औफिस के बाहर भी मैडम ही कहो. क्या मैं तुम्हारे लायक नहीं…”

“नहीं अवनी तुम नहीं, बल्कि मैं तुम्हारे लायक नहीं हूं, इसी वजह से मैं तुम से दूर रहता हूं. मैं जानता हूं कि हम दोनों एकदूसरे से प्यार करते हैं, मगर हमारा मिलन मुमकिन नहीं है. तुम एशोआराम में पली हो और मैं एक मामूली सा इनसान. तुम्हारे परिवार वाले इस रिश्ते के लिए नहीं मानेंगे.”

“लेकिन मैं तो तुम्हें अपना मान चुकी हूं,” यह कहते हुए अवनी ने अविनाश के होंठों पर अपने होंठ रख दिए. उस छुअन की आग से दोनों के तन जल उठे, मगर जल्दी ही वे संभल गए, क्योंकि दोनों को यह भी डर था कहीं कोई देख न ले. पर अगले दिन वे दोनों फैक्टरी से जल्दी छुट्टी ले कर ताजमहल देखने गए.

“हम इस प्यार की अनमिट निशानी के सामने एकदूसरे को अपनाते हैं और कसम खाते हैं कि जीएंगे तो साथसाथ, मरेंगे तो साथसाथ,” अविनाश ने ताजमहल को देखते हुए अवनी से कहा.

दोनों के जवां दिल धड़क रहे थे, मिलन को तड़प रहे थे. अब दूर रहना मुहाल हो रहा था. वे दोनों वहां से बाहर आए और किसी सुनसान जगह की ओर चल दिए. ज्वालामुखी जो अंदर दहक रहा था, वह न जाने उन्हें किस ओर ले जा रहा था, उन्हें खुद इस बात का अंदाजा नहीं था.

एक जगह पर अवनी ने जैसे ही गाड़ी रोकी, अविनाश पिघल पड़ा उस पर मोम के जैसे और लपेट लिया उसे अपने अंदर. अवनी भी अविनाश की बांहों की गिरफ्त में आने को छटपटा रही थी.

बस, एक जलजला काफी था दोनों को इश्क के दरिया में डुबाने के लिए और वे डूब भी गए. एक कुंआरी ने अपना कुंआरापन न्योछावर कर दिया अपने प्यार पर. मन से तो पहले ही उस के सामने बिछी हुई थी, आज तन से भी बिछ गई.

जब सब बह गया तब होश आया. दोनों सोचने लगे कि अब आगे न जाने क्या होगा, क्योंकि यह तो अवनी भी जानती थी कि उस के पिता इस रिश्ते के लिए नहीं मानेंगे.

अविनाश‌ ने अवनी को भरोसा दिलाया कि जब तक वह कुछ बन नहीं जाता है, तब तक वे नहीं मिलेंगे.

अवनी ने अगले ही दिन नौकरी छोड़ दी. अविनाश फैक्टरी में नए से नए डिजाइन के जूते बनाता था और वे काफी पसंद भी किए जाते थे. अब उस ने और ज्यादा लगन और मेहनत से काम करना शुरू कर दिया था.

एक दिन अविनाश रात को फैक्टरी में ही कोई नया डिजाइन सोच रहा था कि उसे हाजत ‌हुई, मगर जैसे ही वह बाहर निकला, तो देखा कि फैक्टरी में चारों ओर धुआं ही धुआं था. उस ने जल्दी से दूसरे कमरे में सोए हुए मजदूर और चौकीदार को आवाज लगाई, पर दरवाजा अंदर से बंद होने की वजह से इतनी जल्दी आग के फैल गई कि उन का बाहर निकलना मुश्किल हो गया.

शोर मचाने पर आसपास के लोग आए और दमकल की गाड़ियां भी बुलाई गईं, मगर अंदर जाना मुश्किल था, इसलिए फैक्टरी की दीवार तोड़ कर ही दमकल की गाड़ियां अंदर जा सकीं. मगर जब तक गाड़ियां अंदर गईं तब तक सबकुछ जल कर राख हो चुका था. उन तीनों की लाशें भी कंकाल के रूप में मिलीं.

अवनी ने यह सुना तो पागल सी हो गई. बहुत इलाज करवाया मगर वह अविनाश को भूल नहीं पाई. उस ने आगरा के पागलखाने में दीवारों पर ‘अविनाशअविनाश’ लिखा हुआ था. पागलखाने की दीवारों में इश्क की तड़प की गूंज सुनाई देती थी. अकसर रातों को अवनी के चीखने की आवाजें आती थीं, “कोई मेरे अविनाश को बचा लो या मुझे भी उसी आग में जला दो…”

 

भीगा मन: कैसा था कबीर का हाल

कबीर बारबार घड़ी की ओर देख रहा था. अभी तक उस का ड्राइवर नहीं आया था. जब ड्राइवर आया तो कबीर उस पर बरस पड़ा, ‘‘तुम लोगों को वक्त की कोई कीमत ही नहीं है. कहां रह गए थे?’’

‘‘साहब, घर में पानी भर गया था, वही निकालने में देर हो गई.’’ ‘‘अरे यार, तुम लोगों की यही मुसीबत है. चार बूंदें गिरती नहीं हैं कि तुम्हारा रोना शुरू हो जाता है… पानी… पानी… अब चलो,’’ कार में बैठते हुए कबीर ने कहा.

बरसात के महीने में मुंबई यों बेबस हो जाती है, जैसे कोई गरीब औरत भीगी फटी धोती में खुद को बारिश से बचाने की कोशिश कर रही हो. भरसक कोशिश, मगर सब बेकार… थक कर खड़ी हो जाती है एक जगह और इंतजार करती है बारिश के थमने का.

कार ने रफ्तार पकड़ी और दिनभर का थकामांदा कबीर सीट पर सिर टिका कर बैठ गया. हलकीहलकी बारिश हो रही थी और सड़क पर लोग अपनी रोजमर्रा की जिंदगी से जूझ रहे थे. अनगिनत छाते, पर बचाने में नाकाम. हवा के झोंकों से पानी सब को भिगो गया था.

कबीर ने घड़ी की ओर देखा. 6 बजे थे. सड़क पर भीड़ बढ़ती जा रही थी. ट्रैफिक धीमा पड़ गया था. लोग बेवजह हौर्न बजा रहे थे मानो हौर्न बजाने से ट्रैफिक हट जाएगा. पर वे हौर्न बजा कर अपने बेबस होने की खीज निकाल लेते थे.

ड्राइवर ने कबीर से पूछा, ‘‘रेडियो चला दूं साहब?’’ ‘‘क्या… हां, चला दो. लगता है कि आज घर पहुंचने में काफी देर हो जाएगी,’’ कबीर ने कहा.

‘‘हां साहब… बहुत दूर तक जाम लगा है.’’ ‘‘तुम्हारा घर कहां है?’’

‘‘साहब, मैं अंधेरी में रहता हूं.’’ ‘‘अच्छा… अच्छा…’’ कबीर ने सिर हिलाते हुए कहा.

रेडियो पर गाना बज उठा, ‘रिमझिम गिरे सावन…’ बारिश तेज हो गई थी और सड़क पर पानी भरने लगा था. हर आदमी जल्दी घर पहुंचना चाहता था. गाना बंद हुआ तो रेडियो पर लोगों को घर से न निकलने की हिदायत दी गई.

कबीर ने घड़ी देखी. 7 बजे थे. घर अभी भी 15-20 किलोमीटर दूर था. ट्रैफिक धीरेधीरे सरकने लगा तो कबीर ने राहत की सांस ली. मिनरल वाटर की बोतल खोली और दो घूंट पानी पीया.

धीरेधीरे 20 मिनट बीत गए. बारिश अब बहुत तेज हो गई थी. बौछार के तेज थपेड़े कार की खिड़की से टकराने लगे थे. सड़क पर पानी का लैवल बढ़ता ही जा रहा था. बाहर सब धुंधला हो गया था. सामने विंड शील्ड पर जब वाइपर गुजरता तो थोड़ाबहुत दिखाई देता. हाहाकार सा मचा हुआ था. सड़क ने जैसे नदी का रूप ले लिया था. ‘‘साहब, पानी बहुत बढ़ गया है. हमें कार से बाहर निकल जाना चाहिए.’’

‘‘क्या बात कर रहे हो… बाहर हालत देखी है…’’ ‘‘हां साहब, पर अब पानी कार के अंदर आने लगा है.’’

कबीर ने नीचे देखा तो उस के जूते पानी में डूबे हुए थे. उस ने इधरउधर देखा. कोई चारा न था. वह फिर भी कुछ देर बैठा रहा. ‘‘साहब चलिए, वरना दरवाजा खुलना भी मुश्किल हो जाएगा.’’

‘‘हां, चलो.’’ कबीर ने दरवाजा खोला ही था कि तेज बारिश के थपेड़े मुंह पर लगे. उस की बेशकीमती घड़ी और सूट तरबतर हो गए. उस ने चश्मा निकाल कर सिर झटका और चश्मा पोंछा. ‘‘साहब, छाता ले लीजिए,’’ ड्राइवर ने कहा.

‘‘नहीं, रहने दो,’’ कहते हुए कबीर ने चारों ओर देखा. सारा शहर पानी में डूबा हुआ था. कचरा चारों ओर तैर रहा था. इस रास्ते से गुजरते हुए उस ने न जाने कितने लोगों को शौच करते देखा था और आज वह उसी पानी में खड़ा है. उसे उबकाई सी आने लगी थी. इसी सोच में डूबा कबीर जैसे कदम बढ़ाना ही भूल गया था. ‘‘साहब चलिए…’’ ड्राइवर ने कहा.

कबीर ने कभी ऐसे हालात का सामना नहीं किया था. उस के बंगले की खिड़की से तो बारिश हमेशा खूबसूरत ही लगी थी. कबीर धीरेधीरे पानी को चीरता हुआ आगे बढ़ने लगा. कदम बहुत भारी लग रहे थे. चारों ओर लोग ही लोग… घबराए हुए, अपना घर बचाते, सामान उठाए.

एक मां चीखचीख कर बिफरी सी हालत में इधरउधर भाग रही थी. उस का बच्चा कहीं खो गया था. उसे अब न बारिश की परवाह थी, न अपनी जान की. कबीर ने ड्राइवर की तरफ देखा.

‘‘साहब, हर साल यही होता है. किसी का बच्चा… किसी की मां ले जाती है यह बारिश… ये खुले नाले… मेनहोल…’’ ‘‘क्या करें…’’ कह कर कबीर ने कदम आगे बढ़ाया तो मानो पैर के नीचे जमीन ही न थी और जब पैर जमीन पर पड़ा तो उस की चीख निकल गई.

‘‘साहब…’’ ड्राइवर भी चीख उठा और कबीर का हाथ थाम लिया. कबीर का पैर गहरे गड्ढे में गिरा था और कहीं लोहे के पाइपों के बीच फंस गया था.

ड्राइवर ने पैर निकालने की कोशिश की तो कबीर की चीख निकल गई. शायद हड्डी टूट गई थी.

‘‘साहब, आप घबराइए मत…’’ ड्राइवर ने हिम्मत बंधाते हुए कहा, ‘‘मेरा घर नजदीक ही है. मैं अभी किसी को ले कर आता हूं.’’ कबीर बहुत ज्यादा तकलीफ में उसी गंदे पानी में गरदन तक डूबा बैठा रहा. कुछ देर बाद उसे दूर से ड्राइवर भाग कर आता दिखाई दिया. कबीर को बेहोशी सी आने लगी थी और उस ने आंखें बंद कर लीं.

होश आया तो कबीर एक छोटे से कमरे में था जो घुटनों तक पानी से भरा था. एक मचान बना कर बिस्तर लगाया हुआ था जिस पर वह लेटा हुआ था. ड्राइवर की पत्नी चाय का गिलास लिए खड़ी थी. ‘‘साहब, चाय पी लीजिए. जैसे ही पानी कुछ कम होगा, हम आप को अस्पताल ले जाएंगे,’’ ड्राइवर ने कहा.

चाय तिपाई पर रख कर वे दोनों रात के खाने का इंतजाम करने चले गए. कबीर कमरे में अकेला पड़ा सोच रहा था, ‘कुदरत का बरताव सब के साथ समान है… क्या अमीर, क्या गरीब, सब को एक जगह ला कर खड़ा कर देती है… और ये लोग… कितनी जद्दोजेहद भरी है इन की जिंदगी. दिनरात इन्हीं मुसीबतों से जूझते रहते हैं. आलीशान बंगलों में रहने वालों को इस से कोई सरोकार नहीं होता. कैसे हो? कभी इस जद्दोजेहद को अनुभव ही नहीं किया…’

कबीर आत्मग्लानि से भर उठा था. यह उस की जिंदगी का वह पल था जब उस ने जाना कि सबकुछ क्षणिक है. इनसानियत ही सब से बड़ी दौलत है. बारिश ने उस के तन को ही नहीं, बल्कि मन को भी भिगो दिया था. कबीर फूटफूट कर रो रहा था. उस के मन से अमीरीगरीबी का फर्क जो मिट गया था.

Valentine’s Day 2024 – वादियों का प्यार: कैसे बन गई शक की दीवार

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जिंदगी की उजली भोर- भाग 3

‘‘जब मुझे पता लगा, मैं गांव गया. बूआ भी आईं, काफी बहस हुई. पापा ने अपना पक्ष रखा, बीवी की बीमारी, उन के कहीं न आनेजाने की वजह से वे भी बहुत अकेले हो गए थे. जिंदगी बेरंग और वीरान लगती थी. एक तरह से अम्मी का साथ न के बराबर था. ऐसे में रोशनी से हुई उन की मुलाकात.

‘‘जरूरत और हालात ने दोनों को करीब कर दिया. उस का भी कोई न था, परेशान थी. वह प्रोग्राम में गाने गा कर जिंदगी बसर कर रही थी. दोनों की उम्र में फर्क होने के बाद भी आपस में अच्छा तालमेल हो गया तो शादी ही बेहतर थी.

‘‘पापा अपनी जगह सही थे. यह भी ठीक था कि बीमारी से अम्मी चिड़चिड़ी और रूखी हो गई थीं. वे किसी से मिलना नहीं चाहती थीं. पर अम्मी का गम भी ठीक था. जो हो गया उसे तो निभाना था. बूआ का बेटा बाहर पढ़ने गया था. बूआ अकसर अम्मी के पास रहतीं. पापा दोनों घरों का बराबरी से खयाल रखते. लेकिन अम्मी अंदर ही अंदर घुल रही थीं. जल्दी ही वे सारे दुखों से छुटकारा पा गईं. मैं एक हफ्ता रुक कर वापस आ गया.

‘‘पापा रोशनी को घर ले आए. बूआ और गांव के मिलने वाले पापा से नाराज से थे. मगर रोशनी ने पापा व घर को अच्छे से संभाल लिया. वह मेरा भी बहुत खयाल रखती. रोशनी बहुत कम बोलती. एक अनकही उदासी उस की आंखों में तैरती रहती. मुझ से उम्र में वह 5-6 साल ही बड़ी होगी पर उस में शोखी व चंचलता जरा भी न थी. इसी तरह 1 साल गुजर गया.

‘‘एमबीए के बाद मुझे अहमदाबाद में अच्छी नौकरी मिल गई. अकसर गांव चला जाता. एक बार मैं ने रोशनी में बड़ा फर्क देखा, वह खूब हंसती, मुसकराती, गुनगुनाती, जैसे घर में रौनक उतर आई. पापा भी खूब खुश दिखते. फिर मैं 3-4 माह गांव न जा सका. फिर तुम से शादी तय हो गई. मैं शादी के लिए गांव गया. पर बहुत सन्नाटा था. बस, पापा और बाबू ही घर पर थे. पापा बेहद मायूस टूटेबिखरे से थे. घर में रोशनी नहीं थी. दिनभर पापा चुपचुप रहे. रात जब मेरे पास बैठे तो उदासी से बोले, ‘रोशनी चली गई. मैं ने ही उसे जाने दिया. वह और उस का सहपाठी अजहर बहुत पहले से एकदूसरे को चाहते थे. पर अजहर के मांबाप उस से शादी करने के लिए नहीं माने. वह नाराज हो कर बाहर चला गया. आखिर मांबाप इकलौते बेटे की जुदाई सहतेसहते थक गए. उसे वापस बुलाया और रोशनी से शादी पर राजी हो गए. अजहर आ कर मुझ से मिला, सारी बात बताई. मैं रोशनी की खुशी चाहता था. सारी जिंदगी उसे बांध कर रखने का कोई फायदा न था.

‘‘‘मुझे पता था कि उस ने अकेलेपन और एक सहारा  पाने की मजबूरी में मुझ से शादी की थी. मुझ से शादी के बाद भी वह बुझीबुझी ही रहती थी. बस, जब अजहर ने उसे आने के बारे में बताया तब ही उस के चेहरे पर हंसी खिल उठी. फिर मेरी व उस की उम्र में फर्क भी मुझे ये फैसला करने पर मजबूर कर रहा था. मैं ने उसे अजहर के साथ जाने दिया. बस, एक दुख है, उस की कोख में मेरा अंश पल रहा था. मैं ने उस से वादा किया, बच्चा होने के बाद मैं तलाक दे दूंगा. फिर वह अजहर से शादी कर ले. उसे यह यकीन दिलाया कि बच्चे की पूरी जिम्मेदारी मैं उठाऊंगा. अब बेटा, यह जिम्मेदारी मैं तुम्हें सौंपता हूं कि रोशनी की शादी के पहले तुम उस से बच्चा ले लेना और उस की परवरिश तुम ही करना.  यह मेरी ख्वाहिश और इल्तजा है.’

‘‘रूना, मैं ने उन्हें वचन दिया था कि यह जिम्मेदारी मैं जरूर पूरी करूंगा. अभी तक अजहर ने रोशनी को अलग फ्लैट में बड़ौदा में रखा है. वहीं उस ने बच्ची को जन्म दिया. पापा ने तलाक दे दिया. बस, वह बच्ची के जरा बड़े होने का इंतजार कर रही है ताकि वह बच्ची को हमें सौंप कर अजहर से शादी कर के नई जिंदगी शुरू कर सके. मैं बच्ची के सिलसिले में ही रोशनी से मिलने जाता था. उस की जरूरत का सामान दिला देता था. अजहर ने अपने घर में रोशनी की शादी और बच्ची के बारे में नहीं बताया है. जब हम इस बच्ची को ले आएंगे तो वे दोनों नवसारी जा कर शादी के बंधन में बंध जाएंगे.’’

यह सब सुन कर वह खुशी से भर उठी और इतना समझदार और जिम्मेदार पति पा कर उसे बहुत गर्व हुआ. उसे याद आया, सीमा ने उसे बताया था कि बड़ौदा मौल में समीर एक खूबसूरत औरत के साथ था. तो वह औरत रोशनी थी. अच्छा हुआ, उस ने इस बात को ले कर कोई बवाल नहीं मचाया.

समीर ने रूना का हाथ थाम कर प्यार से कहा, ‘‘रूना, मेरी इच्छा है कि हम रोशनी की बच्ची को अपने पास ला कर अपनी बेटी बना कर रखेंगे, इस में तुम्हारी इजाजत की जरूरत है.’’ समीर ने बड़ी उम्मीदभरी नजरों से रूना को देखा, रूना ने मुसकरा कर कहा, ‘‘मां खोने का दुख मैं उठा चुकी हूं. मैं बच्ची को ला कर बहुत प्यार दूंगी, अपनी बेटी बना कर रखूंगी. मैं बहुत खुशनसीब हूं कि मुझे आप जैसा शौहर मिला. आप एक बेमिसाल बेटे, एक चाहने वाले शौहर और एक जिम्मेदार भाई हैं. हम कल ही जा कर बच्ची को ले आएंगे. मैं उस का नाम ‘सवेरा’ रखूंगी क्योंकि वह हमारी जिंदगी में एक उजली भोर की तरह आई है.’’

समीर ने खुश हो कर रूना का माथा चूम लिया. उसे सुकून महसूस हुआ कि उस ने पापा से किया वादा पूरा किया. समीर और रूना के चेहरे आने वाली खुशी के खयाल से दमक रहे थे.

Valentine’s Day 2024- बारिश की बूंद: उस रात आखिर क्या हुआ

मेरी शक्लसूरत कुछ ऐसी थी कि 2-4 लड़कियों के दिल में गुदगुदी जरूर पैदा कर देती थी. कालेज की कुछ लड़कियां मुझे देखते हुए आपस में फब्तियां कसतीं, ‘देख अर्चना, कितना भोला है. हमें देख कर अपनी नजरें नीची कर के एक ओर जाने लगता है, जैसे हमारी हवा भी न लगने पाए. डरता है कि कहीं हम लोग उसे पकड़ न लें.’

‘हाय, कितना हैंडसम है. जी चाहता है कि अकेले में उस से लिपट जाऊं.’

‘ऐसा मत करना, वरना दूसरे लड़के भी तुम को ही लिपटाने लगेंगे.’

धीरेधीरे समय बीतने लगा था. मैं ने ऐसा कोई सबक नहीं पढ़ा था, जिस में हवस की आग धधकती हो. मैं जिस्म का पुजारी न था, लेकिन खूबसूरती जरूर पसंद करने लगा था.

एक दिन उस ने खूब सजधज कर चारबत्ती के पास मेरी साइकिल के अगले पहिए से अपनी साइकिल का पिछला पहिया भिड़ा दिया था. शायद वह मुझ से आगे निकलना चाहती थी.

उस ने अपनी साइकिल एक ओर खड़ी की और मेरे पास आ कर बोली, ‘माफ कीजिए, मुझ से गलती हो गई.’

यह सुन कर मेरे दिल की धड़कनें इतनी तेज हो गईं, मानो ब्लडप्रैशर बढ़ गया हो. फिर उस ने जब अपनी गोरी हथेली से मेरी कलाई को पकड़ा, तो मैं उस में खोता चला गया.

दूसरे दिन वह दोबारा मुझे चौराहे पर मिली. उस ने अपना नाम अंबाली बताया. मेरा दिल अब उस की ओर खिंचता जा रहा था.

प्यार की आग जलती है, तो दोनों ओर बराबर लग जाती है. धीरेधीरे वक्त गुजरता गया. इस बीच हमारी मुहब्बत रंग लाई.

एक दिन हम दोनों एक ही साइकिल पर शहर से दूर मस्ती में झूमते हुए आगे बढ़ते जा रहे थे. आकाश में बादलों की दौड़ शुरू हो चुकी थी. मौसम सुहावना था. हर जगह हरियाली बिछी थी.

अचानक आसमान में काले बादल उमड़ने लगे, जिसे देख कर मैं परेशान होने लगा.

मुझे अपनी उतनी फिक्र नहीं थी, जितना मैं अंबाली के लिए परेशान हो उठा था, क्योंकि कभी भी तेज बारिश शुरू हो सकती थी.

मैं ने अंबाली से कहा, ‘‘आओ, अब घर लौट चलें.’’

‘‘जल्दी क्या है? बारिश हो गई, तो भीगने में ज्यादा मजा आएगा.’’

‘‘अगर बारिश हो गई, तो इस कच्ची और सुनसान सड़क पर कहीं रुकने का ठिकाना नहीं मिलेगा.’’

‘‘पास में ही एक गांव दिखाई पड़ रहा है. चलो, वहीं चल कर रुकते हैं.’’

‘‘गांव देखने में नजदीक जरूर है, लेकिन उधर जाने के लिए कोई सड़क नहीं है. पतली पगडंडी पर पैदल चलना होगा.’’

‘‘अब तो जो परेशानियां सामने आएंगी, बरदाश्त करनी ही पड़ेंगी,’’ अंबाली ने हंसते हुए कहा.

हम ने अपनी चाल तेज तो कर दी, लेकिन गांव की पतली पगडंडी पर चलना उतना आसान न था. अभी हम लोग सोच ही रहे थे कि एकाएक मूसलाधार बारिश होने लगी.

कुछ दूरी पर घासफूस की एक झोंपड़ी दिखाई दी. हम लोग उस ओर दौड़ पड़े. वहां पहुंचने पर उस में एक टूटाफूटा तख्त दिखाई पड़ा, लेकिन वहां कोई नहीं था.

हम दोनों भीग चुके थे. झोंपड़ी में शरण ले कर सोचा कि कुछ आराम मिलेगा, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ.

अंबाली ठंड से बुरी तरह कांपने लगी. जब उस के दांत किटकिटाने लगे, तो वह बोली, ‘‘मैं इस ठंड को बरदाश्त नहीं कर पाऊंगी.’’

‘‘कोई दूसरा उपाय भी तो नहीं है.’’

‘‘तुम मुझे अपने आगोश में ले लो. अपने सीने में छिपा लो, तुम्हारे जिस्म की गरमी से कुछ राहत मिलेगी,’’ अंबाली ने कहा.

‘‘अंबाली, हमारा प्यार अपनी जगह है, जिस पर मैं धब्बा नहीं लगने दूंगा, लेकिन तुम्हारी हिफाजत तो करनी होगी,’’ कह कर मैं ने अपनी कमीज उतार दी और उसे अपने सीने से चिपका लिया.

जब अंबाली मेरी मजबूत बांहों और चौड़े सीने में जकड़ गई, तो उस के होंठ जैसे मेरे होंठों से मिलने के लिए बेताब होने लगे थे.

मैं ने उस के पीछे अपनी दोनों हथेलियों को एकदूसरे पर रगड़ कर गरम किया और उस की पीठ सहलाने लगा, ताकि उस का पूरा बदन गरमी महसूस करे. तब मुझे ऐसा लगा, जैसे गुलाब की कोमल पंखुडि़यों पर ओस गिरी हो. मेरी उंगलियां फिसलने लगी थीं.

आधे घंटे के बाद बारिश कम होने लगी थी.

अंबाली मेरी बांहों में पूरी तरह नींद के आगोश में जा चुकी थी. मैं ने उसे जगाना ठीक नहीं समझा.

एक घंटे बाद मैं ने उसे जगाया, तब तक बारिश बंद हो चुकी थी.

अंबाली ने अलग हो कर अपने कुरते की चेन चढ़ाई और मुसकराते हुए पूछा, ‘‘तुम ने मेरे साथ कोई शैतानी तो नहीं की?’’

मैं हंसा और बोला, ‘‘हां, मैं ने तुम्हारे होंठों पर पड़ी बारिश की बूंदों को चूम कर सुखा दिया था.’’

‘‘धत्त…’’ थोड़ा रुक कर वह कहने लगी, ‘‘तुम्हारा सहारा पा कर मुझे नई जिंदगी मिली. ऐसा मन हो रहा था कि जिंदगीभर इसी तरह तुम्हारे सीने से लगी रहूं.’’

‘‘हमारा प्यार अभी बड़ी नाजुक हालत में है. अगर हमारे प्यार की जरा सी भी भनक किसी के कान में पड़ गई, तो हमारी मुहब्बत खतरे में तो पड़ ही जाएगी और हमारी जिंदगी भी दूभर हो जाएगी,’’ मैं ने कहा.

‘‘जानते हो, मैं तुम्हारे आगोश में सुधबुध भूल कर सपनों की दुनिया में पहुंच गई थी. मेरी शादी धूमधाम से तुम्हारे साथ हुई और विदाई के बाद मैं तुम्हारे घर पहुंची. वहां भी खूब सजावट थी.

‘‘रात हुई. मुझे फूलों से सजे हुए कमरे में पलंग पर बैठा दिया गया. तुम अंदर आए, दरवाजा बंद किया और मेरे पास बैठे.

‘‘हम दोनों ने वह पूरी रात बातें करते हुए और प्यार करने में गुजार दी,’’ इतना कह कर वह खामोश हो गई.

‘‘फिर क्या हुआ?’’ मैं ने पूछा.

‘‘हवा का एक बवंडर आया और मेरा सपना टूट गया. मैं ने महसूस किया कि मैं तुम्हारी बांहों में हूं. मेरा जिस्म तुम्हारे सीने में समाया था,’’ इतना कहतेकहते वह मुझ से चिपक गई.

‘‘अंबाली, बारिश बंद हो चुकी है. अंधेरा घिरने लगा है. अब हमें अपने घर पहुंचने में बहुत देर हो जाएगी. तुम्हारे घर वाले चिंता कर रहे होंगे. कहीं हमारा राज न खुल जाए.’’

‘‘तुम ठीक कहते हो. हमें चलना ही होगा.’’

कुछ दिन कई वजहों से हम दोनों नहीं मिल सके. लेकिन एक शाम अंबाली मेरे पास सहमी हुई आई. मैं ने उस के चेहरे को देखते हुए पूछा, ‘‘आज तुम बहुत उदास हो?’’

‘‘आज मेरा मन बहुत भारी है. मैं तुम्हारे बिना कैसे जी सकूंगी, कहीं मैं खुदकुशी न कर बैठूं, क्योंकि उस के सिवा कोई रास्ता नहीं सूझता,’’ कह कर अंबाली रो पड़ी.

‘‘ऐसा क्या हुआ?’’

‘‘मेरे घर वालों को हमारे प्यार के बारे में मालूम हो गया. अब मेरी शादी तय हो चुकी है. लड़का पढ़ालिखा रईस घराने का है. अगले महीने की तारीख भी तय कर ली गई. अब मुझे बाहर निकलने की इजाजत भी नहीं मिलेगी,’’ अंबाली रोते हुए बोली.

‘‘तुम्हारे घर वाले जो कर रहे हैं, वह तुम्हारे भविष्य के लिए ठीक होगा. मेरा तुम्हारा कोई मुकाबला नहीं. उन के अरमानों पर जुल्म मत करना. हमारा प्यार आज तक पवित्र है, जिस में कोई दाग नहीं लगा. समझ लो कि हम दोनों ने कोई सपना देखा था.’’

‘‘यह कैसे होगा?’’

‘‘अपनेआप को एडजस्ट करना ही पड़ेगा.’’

‘‘मेरे लिए कई रिश्ते आए, पर मैं ने किसी को पसंद नहीं किया. उस के बाद मैं तुम्हें अपना दिल दे बैठी, अब तुम मुझे भूल जाने के लिए कहते हो. मैं तुम्हें बेहद प्यार करती हूं, मेरा प्यार मत छीनो. मैं तुम्हें भुला नहीं पाऊंगी. क्या तुम मुझे तड़पते देखते रहोगे? मैं तुम्हें हर कीमत पर हासिल करना चाहूंगी.’’

कुछ दिन हम लोग अपना दुखी मन ले कर समय बिताते रहे. किसी काम को करने की इच्छा नहीं होती थी. अंबाली की मां से उस की हालत देखी नहीं गई. वह एकलौती लाडली थी. उन्होंने अपने पति को बहुत समझाया.

अंबाली के पिता ने एक दिन हमारे यहां संदेशा भेजा, ‘आप लोग किसी दूसरे किराए के मकान में दूर चले जाइए, ताकि दोनों लड़केलड़की का भविष्य खराब न हो.’

हमें दूसरे मकान में शिफ्ट होना पड़ा. 3 महीने तक हम एकदूसरे से नहीं मिले. चौथे महीने अंबाली के पिता मेरे पिता से मिलने आए और साथ में मिठाई भी लाए थे.

बाद में उन्होंने कहा, ‘‘रिश्ता वहीं होगा, जहां अंबाली चाहेगी, इसलिए 2 साल में उस की पढ़ाई पूरी हो जाने पर विचार होगा. आप लोग दूर चले आए. हम दोनों की इज्जत नीलाम होने से बच गई, वरना ये आजकल के लड़केलड़की मांबाप की नाक कटा देते हैं.’’

मेरे पिता ने उन की बातों को सुना और हंस कर टाल दिया.

एक साल बीत जाने पर मेरा चुनाव एक सरकारी पद पर हो गया और मेरी बहाली दूसरे शहर में हो गई. मेरी शादी के कई रिश्ते आने लगे और मैं बहाने बना कर टालता रहा.

आखिर में मेरे पिता ने झुंझला कर कहा, ‘‘अब हम लोग खुद लड़की देखेंगे, क्योंकि तुम्हें कोई लड़की पसंद नहीं आती. अगर तुम ने हमारी पसंद को ठुकरा दिया, तो हम लोग तुम्हें अकेला छोड़ कर चले जाएंगे.’’

मुझे उन के सामने झुकना पड़ा और कहा, ‘‘आप लोग जैसा ठीक समझें, वैसा करें. मुझे कोई एतराज नहीं होगा.’’

शादी की जोरशोर से तैयारियां होने लगीं, लेकिन मुझे कोई दिलचस्पी न थी.

बरात धूमधाम से एक बड़े होटल में घुसी, जहां बताया गया कि लड़की के पिता बीमार होने के चलते द्वारचार पर नहीं पहुंच सके. उन के भाई बरात का स्वागत करेंगे.

लड़की को लाल घाघराचोली में सजा कर स्टेज तक लाया गया, पर उस के चेहरे से आंचल नहीं हटाया गया था.

लड़की ने मेरे गले में जयमाल डाली और मैं ने उस के गले में. तब लोग शोर करने लगे, ‘अब तो लड़की का घूंघट खोल दिया जाए, ताकि लोग उस की खूबसूरती देख सकें.’

लड़की का घूंघट हटाया गया, जिसे देख कर मैं हैरान रह गया. उस की आंखों से आंसू बह रहे थे, मानो उसे जबरदस्ती बांधा गया था.

मैं ने एक उंगली से उस की ठुड्डी को ऊपर किया. उस की नजरें मुझ से टकराईं, तो वह बेहोश होतेहोते बची.

सुहागरात में अंबाली ने मेरे आगोश में समा कर अपनी खुशी का इजहार किया. उस का प्यार जिंदा रह गया. मैं ने उस के गुलाबी गाल पर अपने होंठ रख कर प्यार से कहा, ‘‘अंबाली, तुम्हारे गालों पर अभी तक बारिश की बूंदें मोतियों जैसी चमक रही हैं. थोड़ा मुझे अपने होंठों से चूम लेने दो.’’

यह सुन कर अंबाली खिलखिला कर हंस पड़ी, जैसे वह कली से फूल बन गई हो.

Valentine’s Day 2024 – वहां आकाश और है: आकाश और मानसी के बीच कौन-सा रिश्ता था

अचानक शुरू हुई रिमझिम ने मौसम खुशगवार कर दिया था. मानसी ने एक नजर खिड़की के बाहर डाली. पेड़पौधों पर झरझर गिरता पानी उन का रूप संवार रहा था. इस मदमाते मौसम में मानसी का मन हुआ कि इस रिमझिम में वह भी अपना तनमन भिगो ले.

मगर उस की दिनचर्या ने उसे रोकना चाहा. मानो कह रही हो हमें छोड़ कर कहां चली. पहले हम से तो रूबरू हो लो.

रोज वही ढाक के तीन पात. मैं ऊब गई हूं इन सब से. सुबहशाम बंधन ही बंधन. कभी तन के, कभी मन के. जाओ मैं अभी नहीं मिलूंगी तुम से. मन ही मन निश्चय कर मानसी ने कामकाज छोड़ कर बारिश में भीगने का मन बना लिया.

क्षितिज औफिस जा चुका था और मानसी घर में अकेली थी. जब तक क्षितिज घर पर रहता था वह कुछ न कुछ हलचल मचाए रखता था और अपने साथसाथ मानसी को भी उसी में उलझाए रखता था. हालांकि मानसी को इस बात से कोई आपत्ति नहीं थी और वह सहर्ष क्षितिज का साथ निभाती थी. फिर भी वह क्षितिज के औफिस जाते ही स्वयं को बंधनमुक्त महसूस करती थी और मनमानी करने को मचल उठती थी.

इस समय भी मानसी एक स्वच्छंद पंछी की तरह उड़ने को तैयार थी. उस ने बालों से कल्चर निकाल उन्हें खुला लहराने के लिए छोड़ दिया जो क्षितिज को बिलकुल पसंद नहीं था. अपने मोबाइल को स्पीकर से अटैच कर मनपसंद फिल्मी संगीत लगा दिया जो क्षितिज की नजरों में बिलकुल बेकार और फूहड़ था.

अत: जब तक वह घर में रहता था, नहीं बजाया जा सकता था. यानी अब मानसी अपनी आजादी के सुख को पूरी तरह भोग रही थी.

अब बारी थी मौसम का आनंद उठाने की. उस के लिए वह बारिश में भीगने के लिए आंगन में जाने ही वाली थी कि दरवाजा खटखटाने की आवाज आई.

इस भरी बरसात में कौन हो सकता है. पोस्टमैन के आने में तो अभी देरी है. धोबी नहीं हो सकता. दूध वाला भी नहीं. तो फिर कौन है? सोचतीसोचती मानसी दरवाजे तक जा पहुंची.

दरवाजे पर वह व्यक्ति था जिस की वह कल्पना भी नहीं कर सकती थी.

‘‘आइए,’’ उस ने दरवाजा खोलते हुए कुछ संकोच से कहा और फिर जैसे ही वह आगंतुक अंदर आने को हुआ बोली, ‘‘पर वे तो औफिस चले गए हैं.’’

‘‘हां, मुझे पता है. मैं ने उन की गाड़ी निकलते देख ली थी,’’ आगंतुक जोकि उन के महल्ले का ही था ने अंदर आ कर सोफे पर बैठते हुए कहा.

यह सुन कर मानसी मन ही मन बड़बड़ाई कि जब देख ही लिया था तो फिर क्यों चले आए हो… वह मन ही मन आकाश के बेवक्त यहां आने पर कु्रद्ध थी, क्योंकि उन के आने से उस का बारिश में भीगने का बनाबनाया प्रोग्राम चौपट हो रहा था. मगर मन मार कर वह भी वहीं सोफे पर बैठ गई.

शिष्टाचारवश मानसी ने बातचीत का सिलसिला शुरू किया, ‘‘कैसे हैं आप? काफी दिनों बाद नजर आए.’’

‘‘जैसा कि आप देख ही रहीं… बिलकुल ठीक हूं. काम पर जाने के लिए निकला ही था कि बरसात शुरू हो गई. सोचा यहीं रुक जाऊं. इस बहाने आप से मुलाकात भी हो जाएगी.’’

‘‘ठीक किया जो चले आए. अपना ही घर है. चायकौफी क्या लेंगे आप?’’

‘‘जो भी आप पिला दें. आप का साथ और आप के हाथ हर चीज मंजूर है,’’ आकाश ने मुसकरा कर कहा तो मानसी का बिगड़ा मूड कुछ हद तक सामान्य हो गया, क्योंकि उस मुस्कराहट में अपनापन था.

मानसी जल्दी 2 कप चाय बना लाई. चाय के दौरान भी कुछ औपचारिक बातें होती रहीं. इसी बीच बूंदाबांदी कम हो गई.

‘‘आप की इजाजत हो तो अब मैं चलूं?’’ फिर आकाश के चेहरे पर वही मुसकराहट थी.

‘‘जी,’’ मानसी ने कहा, ‘‘फिर कभी फुरसत से आइएगा भाभीजी के साथ.’’

‘‘अवश्य यदि वह आना चाहेगी तो उसे भी ले आऊंगा. आप तो जानती ही हैं कि उसे कहीं आनाजाना पसंद नहीं,’’ कहतेकहते आकाश के चेहरे पर उदासी छा गई.

मानसी को लगा कि उस ने आकाश की दुखती रग पर हाथ रख दिया हो, क्योंकि वह जानती थी कि आकाश की पत्नी मानसिक रूप से अस्वस्थ है और इसी कारण लोगों से बात करने में हिचकिचाती है.

‘‘क्या मैं अंदर आ सकता हूं?’’ अगले दिन भी जब उसी मुसकराहट के साथ आकाश ने पूछा तो जवाब में मानसी भी मुसकरा दी और दरवाजा खोल दिया.

‘‘चाय या कौफी?’’

‘‘कुछ नहीं… औपचारिकता करने की आवश्यकता नहीं. आज भी तुम से दो घड़ी बात करने की इच्छा हुई तो फिर चला आया.’’

‘‘अच्छा किया. मैं भी बोर ही हो रही थी,’’ मानसी जानती थी कि उन्हें यह बताने की आवश्यकता नहीं थी कि क्षितिज कहां है, क्योंकि निश्चय ही वे जानते थे कि वे घर पर नहीं हैं.

इस तरह आकाश के आनेजाने का सिलसिला शुरू हो गया वरना इस महल्ले में किसी के घर आनेजाने का रिवाज कम ही था. यहां अधिकांश स्त्रियां नौकरीपेशा थीं या फिर छोटे बालबच्चों वाली. एक वही अपवाद थी जो न तो कोई जौब करती थी और न ही छोटे बच्चों वाली थी.

मानसी का एकमात्र बेटा 10वीं कक्षा में बोर्डिंग स्कूल में पढ़ता था. अपने अकेलेपन से जूझती मानसी को अकसर अपने लिए एक मित्र की आवश्यकता महसूस होती थी और अब वह आवश्यकता आकाश के आने से पूरी होने लगी थी, क्योंकि वे घरगृहस्थी की बातों से ले कर फिल्मों, राजनीति, साहित्य सभी तरह की चर्चा कर लेते थे.

आकाश लगभग रोज ही आफिस जाने से पूर्व मानसी से मिलते हुए जाते थे और अब स्थिति यह थी कि मानसी क्षितिज के जाते ही आकाश के आने का इंतजार करने लग जाती थी.

एक दिन जब आकाश नहीं आए तो अगले दिन उन के आते ही मानसी ने पूछा, ‘‘क्या हुआ, कल क्यों नहीं आए? मैं ने कितना इंतजार किया.’’

आकाश ने हैरानी से मानसी की ओर देखा और फिर बोले, ‘‘क्या मतलब? मैं ने रोज आने का वादा ही कब किया है?’’

‘‘सभी वादे किए नहीं जाते… कुछ स्वयं ही हो जाते हैं. अब मुझे आप के रोज आने की आदत जो हो गई है.’’

‘‘आदत या मुहब्बत?’’ आकाश ने मुसकरा कर पूछा तो मानसी चौंकी, उस ने देखा कि आज उन की मुसकराहट अन्य दिनों से कुछ अलग है.

मानसी सकपका गई. पर फिर उसे लगा कि शायद वे मजाक कर रहे हैं. अपनी सकपकाहट से अनभिज्ञता का उपक्रम करते हुए वह सदा की भांति बोली, ‘‘बैठिए, आज क्षितिज का जन्मदिन है. मैं ने केक बनाया है. अभी ले कर आती हूं.’’

‘‘तुम ने मेरी बात का जवाब नहीं दिया.’’ आकाश फिर बोले तो उसे बात की गंभीरता का एहसास हुआ.

‘‘क्या जवाब देती.’’

‘‘कह दो कि तुम मेरा इंतजार इसलिए करती हो कि तुम मुझे पसंद करती हो.’’

‘‘हां दोनों ही बातें सही हैं.’’

‘‘यानी मुहब्बत है.’’

‘‘नहीं, मित्रता.’’

‘‘एक ही बात है. स्त्री और पुरुष की मित्रता को यही नाम दिया जाता है,’’ आकाश ने मानसी की ओर हाथ बढ़ाते हुए कहा.

‘‘हां दिया जाता है,’’ मानसी ने हाथ को हटाते हुए कहा, ‘‘क्योंकि साधारण स्त्रीपुरुष मित्रता का अर्थ इसी रूप में जानते हैं और मित्रता के नाम पर वही करते हैं जो मुहब्बत में होता है.’’

‘‘हम भी तो साधारण स्त्रीपुरुष ही हैं.’’

‘‘हां हैं, परंतु मेरी सोच कुछ अलग है.’’

‘‘सोच या डर?’’

‘‘डर किस बात का?’’

‘‘क्षितिज का. तुम डरती हो कि कहीं उसे पता चल गया तो?’’

‘‘नहीं, प्यार, वफा और समर्पण को डर नहीं कहते. सच तो यह है कि क्षितिज तो अपने काम में इतना व्यस्त है कि मैं उस के पीछे क्या करती हूं, वह नहीं जानता और यदि मैं न चाहूं तो वह कभी जान भी नहीं पाएगा.’’

‘‘फिर अड़चन क्या है?’’

‘‘अड़चन मानसिकता की है, विचारधारा की है.’’

‘‘मानसिकता बदली जा सकती है.’’

‘‘हां, यदि आवश्यकता हो तो… परंतु मैं इस की आवश्यकता नहीं समझती.’’

‘‘इस में बुराई ही क्या है?’’

‘‘बुराई है… आकाश, आप नहीं जानते हमारे समाज में स्त्रीपुरुष की दोस्ती को उपेक्षा की दृष्टि से देखने का यही मुख्य कारण है. जानते हो एक स्त्री और पुरुष बहुत अच्छे मित्र हो सकते हैं, क्योंकि उन के सोचने का दृष्टिकोण अलग होता है. इस से विचारों में विभिन्नता आती है. ऐसे में बातचीत का आनंद आता है, परंतु ऐसा नहीं होता.’’

‘‘अकसर एक स्त्री और पुरुष अच्छे मित्र बनने के बजाय प्रेमी बन कर रह जाते हैं और फिर कई बार हालात के वशीभूत हो कर एक ऐसी अंतहीन दिशा में बहने लगते हैं जिस की कोई मंजिल नहीं होती.’’

‘‘परंतु यह स्वाभाविक है, प्राकृतिक है, इसे क्यों और कैसे रोका जाए?’’

‘‘अपने हित के लिए ठीक उसी प्रकार जैसे हम ने अन्य प्राकृतिक चीजों, जिन से हमें नुकसान हो सकता है, पर नियंत्रण पा लिया है.’’

‘‘यानी तुम्हारा इनकार है,’’ ऐसा लगता था आकाश कुछ बुझ से गए थे.

‘‘इस में इनकार या इकरार का प्रश्न ही कहां है? मुझे आप की मित्रता पर अभी भी कोई आपति नहीं है बशर्ते आप मुझ से अन्य कोई अपेक्षा न रखें.’’

‘‘दोनों बातों का समानांतर चलना बहुत मुश्किल है.’’

‘‘जानती हूं फिर भी कोशिश कीजिएगा.’’

‘‘चलता हूं.’’

‘‘कल आओगे?’’

‘‘कुछ कह नहीं सकता.’’

सुबह के 10 बजे हैं. क्षितिज औफिस चला गया है पर आकाश अभी तक नहीं आए. मानसी को फिर से अकेलापन महसूस होने लगा है.

‘लगता है आकाश आज नहीं आएंगे. शायद मेरा व्यवहार उन के लिए अप्रत्याशित था, उन्हें मेरी बातें अवश्य बुरी लगी होंगी. काश वे मुझे समझ पाते,’ सोच मानसी ने म्यूजिक औन कर दिया और फिर सोफे पर बैठ कर एक पत्रिका के पन्ने पलटने लगीं.

सहसा किसी ने दरवाजा खटखटाया. मानसी दरवाजे की ओर लपकी. देखा दरवाजे पर सदा की तरह मुसकराते हुए आकाश ही थे. मानसी ने भी मुसकरा कर दरवाजा खोल दिया. उस ने आकाश की ओर देखा. आज उन की वही पुरानी चिरपरिचित मुसकान फिर लौट आई थी.

इसी के साथ आज मानसी को विश्वास हो गया कि अब समाज में स्त्रीपुरुष के रिश्ते की उड़ान को नई दिशाएं अवश्य मिल जाएंगी, क्योंकि उन्हें वहां एक आकाश और मिल गया है.

इतना बहुत है: जिंदगी के पन्ने पलटती एक औरत

घर के कामों से फारिग होने के बाद आराम से बैठ कर मैं ने नई पत्रिका के कुछ पन्ने ही पलटे थे कि मन सुखद आश्चर्य से पुलकित हो उठा. दरअसल, मेरी कहानी छपी थी. अब तक मेरी कई कहानियां  छप चुकी थीं, लेकिन आज भी पत्रिका में अपना नाम और कहानी देख कर मन उतना ही खुश होता है जितना पहली  रचना के छपने पर हुआ था. अपने हाथ से लिखी, जानीपहचानी रचना को किसी पत्रिका में छपी हुई पढ़ने में क्या और कैसा अकथनीय सुख मिलता है, समझा नहीं पाऊंगी. हमेशा की तरह मेरा मन हुआ कि मेरे पति आलोक, औफिस से आ कर इसे पढ़ें और अपनी राय दें. घर से बाहर बहुत से लोग मेरी रचनाओं की तारीफ करते नहीं थकते, लेकिन मेरा मन और कान तो अपने जीवन के सब से महत्त्वपूर्ण व्यक्ति और रिश्ते के मुंह से तारीफ सुनने के लिए तरसते हैं.

पर आलोक को साहित्य में रुचि नहीं है. शुरू में कई बार मेरे आग्रह करने पर उन्होंने कभी कोई रचना पढ़ी भी है तो राय इतनी बचकानी दी कि मैं मन ही मन बहुत आहत हो कर झुंझलाई थी, मन हुआ था कि उन के हाथ से रचना छीन लूं और कहूं, ‘तुम रहने ही दो, साहित्य पढ़ना और समझना तुम्हारे वश के बाहर की बात है.’

यह जीवन की एक विडंबना ही तो है कि कभीकभी जो बात अपने नहीं समझ पाते, पराए लोग उसी बात को कितनी आसानी से समझ लेते हैं. मेरा साहित्यप्रेमी मन आलोक की इस साहित्य की समझ पर जबतब आहत होता रहा है और अब मैं इस विषय पर उन से कोई आशा नहीं रखती.

कौन्वैंट में पढ़ेलिखे मेरे युवा बच्चे तनु और राहुल की भी सोच कुछ अलग ही है. पर हां, तनु ने हमेशा मेरे लेखन को प्रोत्साहित किया है. कई बार उस ने कहानियां लिखने का आइडिया भी दिया है. शुरूशुरू में तनु मेरा लिखा पढ़ा करती थी पर अब व्यस्त है. राहुल का साफसाफ कहना है, ‘मौम, आप की हिंदी मुझे ज्यादा समझ नहीं आती. मुझे हिंदी पढ़ने में ज्यादा समय लगता है.’ मैं कहती हूं, ‘ठीक है, कोई बात नहीं,’ पर दिल में कुछ तो चुभता ही है न.

10 साल हो गए हैं लिखते हुए. कोरियर से आई, टेबल पर रखी हुई पत्रिका को देख कर ज्यादा से ज्यादा कभी कोई आतेजाते नजर डाल कर बस इतना ही पूछ लेता है, ‘कुछ छपा है क्या?’ मैं ‘हां’ में सिर हिलाती हूं. ‘गुड’ कह कर बात वहीं खत्म हो जाती है. आलोक को रुचि नहीं है, बच्चों को हिंदी मुश्किल लगती है. मैं किस मन से वह पत्रिका अपने बुकश्ैल्फ  में रखती हूं, किसे बताऊं. हर बार सोचती हूं उम्मीदें इंसान को दुखी ही तो करती हैं लेकिन अपनों की प्रतिक्रिया पर उदास होने का सिलसिला जारी है.

मैं ने पत्रिका पढ़ कर रखी ही थी कि याद आया, परसों मेरा जन्मदिन है. मैं हैरान हुई जब दिल में जरा भी उत्साह महसूस नहीं हुआ. ऐसा क्यों हुआ, मैं तो अपने जन्मदिन पर बच्चों की तरह खुश होती रहती हूं. अपने विचारों में डूबतीउतरती मैं फिर दैनिक कार्यों में व्यस्त हो गई. जन्मदिन भी आ गया और दिन इस बार रविवार ही था. सुबह तीनों ने मुझे बधाई दी. गिफ्ट्स दिए. फिर हम लंच करने बाहर गए. 3 बजे के करीब हम घर वापस आए. मैं जैसे ही कपड़े बदलने लगी, आलोक ने कहा, ‘‘अच्छी लग रही हो, अभी चेंज मत करो.’’

‘‘थोड़ा लेटने का मन है, शाम को फिर बदल लूंगी.’’

‘‘नहीं मौम, आज नो रैस्ट,’’ तनु और राहुल भी शुरू हो गए.

मैं ने कहा, ‘‘अच्छा ठीक है, फिर कौफी बना लेती हूं.’’

तनु ने फौरन कहा, ‘‘अभी तो लंच किया है मौम, थोड़ी देर बाद पीना.’’

मैं हैरान हुई. पर चुप रही. तनु और राहुल थोड़ा बिखरा हुआ घर ठीक करने लगे. मैं और हैरान हुई, पूछा, ‘‘क्या हुआ?’’ कोई कुछ नहीं बोला. फिर दरवाजे की घंटी बजी तो राहुल ने कहा, ‘‘मौम, हम देख लेंगे, आप बैडरूम में जाओ प्लीज.’’

अब, मैं सरप्राइज का कुछ अंदाजा लगाते हुए बैडरूम में चली गई. आलोक आ कर कहने लगे, ‘‘अब इस रूम से तभी निकलना जब बच्चे आवाज दें.’’

मैं ‘अच्छा’ कह कर चुपचाप तकिए का सहारा ले कर अधलेटी सी अंदाजे लगाती रही. थोड़ीथोड़ी देर में दरवाजे की घंटी बजती रही. बाहर से कोई आवाज नहीं आ रही थी. 4 बजे बच्चों ने आवाज दी, ‘‘मौम, बाहर आ जाओ.’’

मैं ड्राइंगरूम में पहुंची. मेरी घनिष्ठ सहेलियां नीरा, मंजू, नेहा, प्रीति और अनीता सजीधजी चुपचाप सोफे पर बैठी मुसकरा रही थीं. सभी ने मुझे गले लगाते हुए बधाई दी. उन से गले मिलते हुए मेरी नजर डाइनिंग टेबल पर ट्रे में सजे नाश्ते की प्लेटों पर भी पड़ी.

‘‘अच्छा सरप्राइज है,’’ मेरे यह कहने पर तनु ने कहा, ‘‘मौम, सरप्राइज तो यह है’’ और मेरा चेहरा सैंटर टेबल पर रखे हुए केक की तरफ किया और अब तक के अपने जीवन के सब से खूबसूरत उपहार को देख कर मिश्रित भाव लिए मेरी आंखों से आंसू झरझर बहते चले गए. मेरे मुंह से कोई आवाज ही नहीं निकली. भावनाओं के अतिरेक से मेरा गला रुंध गया. मैं तनु के गले लग कर खुशी के मारे रो पड़ी.

केक पर एक तरफ 10 साल पहले छपी मेरी पहली कहानी और दूसरी तरफ लेटेस्ट कहानी का प्रिंट वाला फौंडेंट था, बीच में डायरी और पैन का फौंडेंट था. कहानी के शीर्षक और पन्ने में छपे अक्षर इतने स्पष्ट थे कि आंखें केक से हट ही नहीं रही थीं. मैं सुधबुध खो कर केक निहारने में व्यस्त थी. मेरी सहेलियां मेरे परिवार के इस भावपूर्ण उपहार को देख कर वाहवाह कर उठीं. प्रीति ने कहा भी, ‘‘कितनी मेहनत से तैयार करवाया है आप लोगों ने यह केक, मेरी फैमिली तो कभी यह सब सोच भी नहीं सकती.’’ सब ने खुलेदिल से तारीफ की, और केक कैसे, कहां बना, पूछती रहीं. फूडफूड चैनल के एक स्टार शैफ को और्डर दिया गया था.

मैं भर्राए गले से बोली, ‘‘यह मेरे जीवन का सब से खूबसूरत गिफ्ट है.’’  अनीता ने कहा, ‘‘अब आंसू पोंछो और केक काटो.’’

‘‘इस केक को काटने का तो मन ही नहीं हो रहा है, कैसे काटूं?’’

नीरा ने कहा, ‘‘रुको, पहले इस केक की फोटो ले लूं. घर में सब को दिखाना है. क्या पता मेरे बच्चे भी कुछ ऐसा आइडिया सोच लें.’’

सब हंसने लगे, जितनी फोटो केक की खींची गईं, उन से आधी ही लोगों की नहीं खींची गईं.

केक काट कर सब को खिलाते हुए मेरे मन में तो यही चल रहा था, कितना मुश्किल रहा होगा मेरी अलमारी से पहली और लेटेस्ट कहानी ढूंढ़ना? इस का मतलब तीनों को पता था कि सब से बाद में कौन सी पत्रिका आई थी. और पहली कहानी का नाम भी याद था. मेरे लिए तो यही बहुत बड़ी बात थी.

मैं क्यों कुछ दिनों से उलझीउलझी थी, अपराधबोध सा भर गया मेरे मन में. आज अपने पति और बच्चों का यह प्रयास मेरे दिल को छू गया था. क्या हुआ अगर घर में कोई मेरे शब्दों, कहानियों को नहीं समझ पाता पर तीनों मुझे प्यार तो करते हैं न. आज उन के इस उपहार की उष्मा ने मेरे मन में कई दिनों से छाई उदासी को दूर कर दिया था. तीनों मुझे समझते हैं, प्यार करते हैं, यही प्यारभरी सचाई है और मेरे लिए इतना बहुत है.

जिंदगी की उजली भोर- भाग 1

समीर को बाहर गए 4 दिन हो गए थे. वैसे यह कोई नई बात न थी. वह अकसर टूर पर बाहर जाता था. रूना तनहा रहने की आदी थी. फ्लैट्स के रिहायशी जीवन में सब से बड़ा फायदा यही है कि अकेले रहते हुए भी अकेलेपन का एहसास नहीं होता.

कल शाम रूना की प्यारी सहेली सीमा आई थी. वह एक कंपनी में जौब करती है. उस से देर तक बातें होती रहीं. समीर का जिक्र आने पर रूना ने कहा कि वह मुंबई गया है, कल आ जाएगा.

‘मुंबई’ शब्द सुनते ही सीमा कुछ उलझन में नजर आने लगी और एकदम चुप हो गई. रूना के बहुत पूछने पर वह बोली, ‘‘रूना, तुम मेरी छोटी बहन की तरह हो. मैं तुम से कुछ छिपाऊंगी नहीं. कल मैं बड़ौदा गई थी. मैं एक शौपिंग मौल में थी. ग्राउंडफ्लोर पर समीर के साथ एक खूबसूरत औरत को देख कर चौंक पड़ी. दोनों हंसतेमुसकराते शौपिंग कर रहे थे. क्योंकि तुम ने बताया कि वह मुंबई गया है, इसलिए हैरान रह गई.’’

यह सुन कर रूना एकदम परेशान हो गई क्योंकि समीर ने उस से मुंबई जाने की ही बात कही थी और रोज ही मोबाइल पर बात होती थी. अगर उस का प्रोग्राम बदला था तो वह उसे फोन पर बता सकता था.

सीमा ने उस का उदास चेहरा देख कर उसे तसल्ली दी, ‘‘रूना, परेशान न हो, शायद कोई वजह होगी. अभी समीर से कुछ न कहना. कहीं बात बिगड़ न जाए. रिश्ते शीशे की तरह नाजुक होते हैं, जरा सी चोट से दरक जाते हैं. कुछ इंतजार करो.’’

रूना का दिल जैसे डूब रहा था, समीर ने झूठ क्यों बोला? वह तो उस से बहुत प्यार करता था, उस का बहुत खयाल रखता था. आज सीमा की बात सुन के वह अतीत में खो गई…

मातापिता की मौत उस के बचपन में ही हो गई थी. चाचाचाची ने उसे पाला. उन के बच्चों के साथ वह बड़ी हुई. यों तो चाची का व्यवहार बुरा न था पर उन्हें एक अनचाहे बोझ का एहसास जरूर था. समीर ने उसे किसी शादी में देखा था. कुछ दिनों के बाद उस के चाचा के किसी दोस्त के जरिए उस के लिए रिश्ता आया. ज्यादा छानबीन करने की न किसी को फुरसत थी न जरूरत समझी. सब से बड़ी बात यह थी कि समीर सीधीसादी बिना किसी दहेज के शादी करना चाहता था.

चाची ने शादी 1 महीने के अंदर ही कर दी. चाचा ने अपनी बिसात के मुताबिक थोड़ा जेवर भी दिया. बरात में 10-15 लोग थे. समीर के पापा, एक रिश्ते की बूआ, उन का बेटाबहू और कुछ दोस्त.

वह ब्याह कर समीर के गांव गई. वहां एक छोटा सा कार्यक्रम हुआ. उस में रिश्तेदार व गांव के कुछ लोग शामिल हुए. बूआ वगैरह दूसरे दिन चली गईं. घर में पापा और एक पुराना नौकर बाबू था. घर में अजब सा सन्नाटा, जैसे सब लोग रुकेरुके हों, ऊपरी दिल से मिल रहे हों. वैसे, बूआ ने बहुत खयाल रखा, तोहफे में कंगन दिए पर अनकहा संकोच था. ऐसा लगता था जैसे कोई अनचाही घटना घट गई हो. पापा शानदार पर्सनैलिटी वाले, स्मार्ट मगर कम बोलने वाले थे. उस से वे बहुत स्नेह से मिले. उसे लगा शायद गांव और घर का माहौल ही कुछ ऐसा है कि सभी अपनेअपने दायरों में बंद हैं, कोई किसी से खुलता नहीं. एक हफ्ता वहां रह कर वे दोनों अहमदाबाद आ गए. यहां आते ही उस की सारी शिकायतें दूर हो गईं. समीर खूब हंसताबोलता, छुट्टी के दिन घुमाने ले जाता. अकसर शाम का खाना वे बाहर ही खा लेते. वह उस की छोटीछोटी बातों का खयाल रखता. एक ही दुख था कि उस का मायका नाममात्र था, ससुराल भी ऐसी ही मिली जहां सिवा पापा के कोई न था. शादी को 1 साल से ज्यादा हो गया था पर वह  3 बार ही गांव जा सकी. 2 बार पापा अहमदाबाद आ कर रह कर गए.

एक दिन पापा की तबीयत खराब होने का फोन आया. दोनों आननफानन गांव पहुंचे. पापा बहुत कमजोर हो गए थे. गांव का डाक्टर उन का इलाज कर रहा था. उन्हें दिल की बीमारी थी. समीर ने तय किया कि दूसरे दिन उन्हें अहमदाबाद ले जाएंगे. अहमदाबाद के डाक्टर से टाइम भी ले लिया. दिनभर दोनों पापा के साथ रहे, हलकीफुलकी बातें करते रहे. उन की तबीयत काफी अच्छी रही. रूना ने मजेदार परहेजी खाना बनाया. रात को समीर सोने चला गया. रूना पापा के पास बैठी उन से बातें कर रही थी कि एकाएक उन्हें घबराहट होने लगी. सीने में दर्द भी होने लगा. उस का हाथ थाम कर उन्होंने कातर स्वर में कहा, ‘बेटी, जो हमारे सामने होता है वही सच नहीं होता और जो छिपा है उस की भी वजह होती है. मैं तुम से…’ फिर उन की आवाज लड़खड़ाने लगी. उस ने जोर से समीर को आवाज दी, वह दौड़ा आया, दवा दी, उन का सीना सहलाने लगा. फिर उस ने डाक्टर को फोन कर दिया. पापा थोड़ा संभले, धीरेधीरे समीर से कहने लगे, ‘बेटा, सारी जिम्मेदारियां अच्छे से निभाना और तुम मुझे…मुझे…’

बस, उस के बाद वे हमेशा के लिए चुप हो गए. डाक्टर ने आ कर मौत की पुष्टि कर दी. समीर ने बड़े धैर्य से यह गम सहा और सुबह उन के आखिरी सफर की तैयारी शुरू कर दी. बूआ, बेटाबहू के साथ आ गईं. कुछ रिश्तेदार भी आ गए. गांव के लोग भी थे. शाम को पापा को दफना दिया गया. 2 दिन बाद बूआ और रिश्तेदार चले गए. गांव के लोग मौकेमौके से आ जाते. 10 दिन बाद वे दोनों लौट आए.

वक्त गुजरने लगा. अब समीर पहले से ज्यादा उस का खयाल रखता. कभी चाचाचाची का जिक्र होता तो वह उदास हो जाती. ज्यादा न पढ़ सकने का दुख उसे हमेशा सताता रहता. लेकिन समीर उसे हमेशा समझाता व दिलासा देता. जब कभी वह उस के मांपापा के बारे में जानना चाहती, वह बात बदल देता. बस यह पता चला कि समीर अपने मांबाप की इकलौती औलाद है. 3 साल पहले मां बीमारी से चल बसीं. पढ़ाई अहमदाबाद में और उसे यहीं नौकरी मिल गई. शादी के बाद फ्लैट ले कर यहीं सैट हो गया.

रूना को ज्यादा कुरेदने की आदत न थी. जिंदगी खुशीखुशी बीत रही थी. कभीकभी उसे बच्चे की किलकारी की कमी खलती. वह अकसर सोचती, काश उस के जल्द बच्चा हो जाए तो उस का अकेलापन दूर हो जाएगा. उस की प्यार की तरसी हुई जिंदगी में बच्चा एक खुशी ले कर आएगा. उम्मीद की डोर थामे अपनेआप में मगन, वह इस खुशी का इंतजार कर रही थी.

आस्था : कुंभ में स्नान करने का क्या मिला फल

रात के 8 बज चुके थे. पुष्पेंद्रजी अभी तक घर नहीं पहुंचे थे. पत्नी बारबार घड़ी की तरफ बेचैनी से देख रही थीं. सोच रही थीं कि रोज शाम 6 बजे के पाबंद पतिदेव को आज क्या हो गया? इतनी देर तो कभी नहीं होती… तभी उन्हें सहसा याद आया कि सुबह उन्होंने गरज कर यही कहा था कि आज कुंभ के लिए कन्फर्म टिकट ले कर ही आना है.

इतने में बाहर गाड़ी के आने की आवाज कानों में पड़ी. गाड़ी की आवाज से पत्नी भलीभांति परिचित थीं और श्रीमानजी के आने का संकेत उन्हें मिल चुका था.

पुष्पी ने खीजते हुए ऊंची आवाज में कहा, ‘‘आज भी रिजर्वेशन करा लाए या मुंह लटका कर चले आए?’’

शांत स्वभाव के पुष्पेंद्रजी ने कहा, ‘‘एजेंट से कह आया हूं कि टिकट के इंतजाम में कितने भी रुपए लगें, करवा देना, वरना घर पहुंच कर मेरी खैर नहीं.’’

यह सुन कर पत्नी ने कुछ राहत की सांस ली और यह सोच कर मुसकराईं, ‘चलो, मेरा कुछ तो इन पर असर है.’

सारा मामला कुंभ स्नान से जुड़ा हुआ था. उज्जैन में कुंभ शुरू होने वाला था. पत्नी चाहती थीं कि 14 को ही पहुंच कर कुंभ के पहले स्नान का लाभ ले लिया जाए.

चाय पी कर पुष्पेंद्रजी अखबार पकड़ने ही वाले थे कि फोन की घंटी बज उठी. सोच के मुताबिक फोन एजेंट का ही था. उस ने कहा, ‘सर, रिजर्वेशन तो हो गया है, लेकिन भक्तों की भीड़ के चलते 14 तारीख के बजाय 20 तारीख के टिकट मिले हैं, वे भी हर टिकट के एक हजार रुपए ज्यादा देने पर.’पुष्पेंद्रजी के लिए यह हैरानी की बात थी कि टिकट की कीमत है 8 सौ रुपए और ऐक्स्ट्रा हजार रुपए. उन्हें समझ नहीं आया कि हजार रुपए ज्यादा देने के लिए रोएं या टिकट मिलने की खुशी मनाएं. फिर उन्हें लगा कि एक पति को आदर्श पति का दर्जा हासिल करने के लिए पत्नी की मांगों को सिरआंखों पर रखना पड़ता है. फिर यहां तो धार्मिक आस्था का भी सवाल है.

पुष्पेंद्रजी गाड़ी उठा कर टिकट लाने चले गए और थोड़ी देर बाद उन्होंने टिकटों को पत्नी के सुपुर्द कर राहत की सांस ली. पर यह क्या, 20 तारीख के टिकट देख कर पुष्पेंद्रजी की पत्नी बिफर पड़ीं. घर का सारा माहौल अशांत हो गया.

14 तारीख के बजाय 20 तारीख के टिकट श्रीमतीजी को गंवारा नहीं थे. सो, गुस्से में उन्होंने कहा, ‘‘अगर आप खुद टिकट लेने जाते, तो यह नौबत नहीं आती. अपना काम खुद करना चाहिए, एजेंटों  के भरोसे रहोगे, तो काम ऐसा ही होगा. आखिरकार दफ्तर में करते ही क्या हो, सिवा अपना और दूसरों का टिफिन खाने के?’’

पुष्पेंद्रजी शांत स्वभाव के जरूर थे, पर वे नटखट भी कम नहीं थे. उन्हें भी कभीकभी सांप की पूंछ पर पैर रखने में मजा आता था.

उन्होंने पत्नी के गले में प्यार से बांहें डाल कर कहा, ‘‘टिकट का रिजर्वेशन क्या मेरे ससुरजी के हाथ में है, जो हमारी मरजी से टिकट देगा. फिर प्राणप्यारी, अगर 14 की जगह 20 को स्नान कर लेंगे, तो न हमें पाप लगेगा और न ही हमारे पुण्य में कोई कमी हो जाएगी.’’

यह सुन कर पुष्पी ने आंखें लाल कीं, तो पुष्पेंद्रजी ने नजरें नीचे कीं.

पुष्पेंद्रजी के बड़े भाई गजेंद्रजी थे. खाने की चीजों के प्रति अटूट लालसा के चलते बचपन से ही लोग उन्हें प्यार से गजेंद्र कहने लगे थे. गजेंद्रजी आकार में गज के समान थे, तो उन की पत्नी गौरी की जबान गज भर की थी.

धार्मिकता के एकदम महीन कपड़े उन्होंने भी पहन रखे थे. भक्ति व धार्मिक कामों में दोनों देवरानीजेठानी एक से बढ़ कर एक थीं. इस मुद्दे पर किसी दूसरे को बोलने का हक नहीं था.

कुलमिला कर कहा जाए, तो धार्मिक नजरिए से उन का घर एक मंदिर था, दोनों भाइयों की पत्नियां पुजारिन थीं और बाकी सदस्य भक्त थे.

घर में धार्मिकता व पत्नीभक्ति का आलम यह था कि पत्नी के पदचिह्नों पर चलना पतियों के लिए जरूरी परंपरा थी.

इस की मजबूत नींव उन के पूज्य दादाजी व पिताजी ने पहले ही रख दी थी. पत्नीभक्ति की परंपरा उन तक ही नहीं सिमटी थी, बल्कि उन के दोनों बेटों ने भी इसी राह पर चलने का व्रत ले रखा था.

आखिरकार 20 तारीख आ ही गई. घर पर चौकीदार को छोड़ कर सारा परिवार कुंभ स्नान के लिए निकल पड़ा.

कुंभ की भीड़ का यह नजारा था कि मुट्ठीभर रेत फेंकने पर वह नीचे न गिर कर लोगों के सिर पर ही गिरती. इन हालात में वहां ठहरने का इंतजाम करना आसान नहीं था. हर कारोबारी इस कुंभ में इतना कमा लेना चाहता था कि उस का मुनाफा आगे आने वाले कुंभ तक चले.

पंडे तो अपनेआप को भगवान का एजेंट बता र थे. वे इस बात का यकीन दिलाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे कि उन के बिना भगवान तक पहुंचा ही नहीं जा सकता.

होटल, खानेपाने की चीजें व पूजा से संबंधित हरसामान, आभूषण वगैरह कई गुना ज्यादा दामों पर बेचे जा रहे थे. खरीदने वालों में भी कम जोश नहीं था. भले ही घर में झगड़ा कर के आए हों या जमीन गिरवी रख कर आए हों, लेकिन पुण्य कमाने की होड़ में कोई भी पीछे नहीं रहना चाहता था.

पुष्पेंद्रजी ने कुछ बुजुर्गों से उन के आने की वजह पूछी, तो उन्होंने कहा कि अगले 12 सालों तक उन के रहने की गारंटी नहीं है, इसीलिए वे तनमनधन से इसी कुंभ में स्नान कर के पुण्य कमाने आए हैं.

पुष्पेंद्रजी ने कहा कि लंबी जिंदगी की गारंटी व सारी इच्छाएं पूरी होने के लिए तो यहां आए हो, फिर कहते हो कि गारंटी नहीं है.

इस का मतलब है कि आप को कुंभ स्नान व भगवान में विश्वास नहीं है. मामला विश्वास और अविश्वास के बीच झूल रहा था. होटल वाले एक दिन के लिए  10 हजार रुपयों की मांग कर रहे थे. अमीर गजेंद्रजी को भी एक बार सोचना पड़ गया. उन्होंने महिला मंडली से कहा कि एक दिन स्नान कर के लौट आएंगे, लेकिन पत्नियों की भक्ति फिर आड़े आ गई.

दोनों ने एक आवाज में कहा कि इतनी दूर आने के बाद पति के साथ कम से कम 3 स्नान जरूरी हैं, नहीं तो सारा पुण्य मिट्टी में मिल जाएगा.

दूसरे दिन सब सुबहसुबह उठ गए और पंडे को खोजने की सोच रहे थे कि उन की इच्छा तुरंत पूरी हो गई, क्योंकि पंडे ने खुद ही उन्हें खोज लिया था.

पंडे ने सारे विधिविधान से स्नान और पूजा करने का ठेका 20 हजार रुपए में ले लिया. परिवार के सभी सदस्यों ने पंडे का साथ दिया, क्योंकि जीवन में अच्छे दिन जो आने वाले थे. नदी पर फैली गंदगी और पानी का रंग देख कर तो पुष्पेंद्रजी का मन कसैला हो गया.

उन्होंने गंदा पानी देख कर कहा कि इस में डुबकी लगा कर पुण्य कमाने की तुलना में पाप क्या बुरा है? पुण्य मिलेगा या नहीं, पर बीमारियों का आना तय है.

पंडे ने कुछ मंत्र पढ़ कर पतिपत्नी को एकदूसरे का हाथ पकड़ कर डुबकी लगाने व भगवान से अगले 7 जन्मों में भी पतिपत्नी बने रहने का वरदान मांगने को कहा.

गजेंद्रपुष्पेंद्रजी ने बुदबुदाते हुए कहा कि यही जन्म इन के साथ भारी पड़ रहा है और पंडा है कि 1-2, नहीं पूरे 7 जन्मों तक मारने पर तुला है.

पुष्पेंद्रजी ने मजाक भरे लहजे में पंडे से पूछा, ‘‘भैया, आप ने अपनी पत्नी के साथ अभी तक डुबकी लगाई है कि नहीं? क्योंकि धार्मिकता का पूरा ठेका आप ने ही ले रखा है.’’

पंडा भी घुटापिटा था. उस ने भी उसी अंदाज में जवाब दिया, ‘‘डुबकी मैं भी रोज लगाता हूं, लेकिन अपनी पत्नी के साथ नहीं.’’

3 दिन जैसेतैसे कटे. होटल खाली कर जैसे ही स्टेशन पहुंचे, पता चला कि आगे मालगाड़ी पटरी से उतर गई है और 2 दिन तक गाडि़यां नहीं चलेंगी.

यह सुन कर दोनों भाइयों में पहाड़ टूट पड़ा, क्योंकि उन की हालत धोबी के कुत्ते जैसे हो गई, घर का न घाट का. भाइयों ने चिढ़ते हुए महिला मंडली पर आक्रामक मुद्रा में कहा कि लो, यहीं से अच्छे दिन शुरू हो गए.

सारा परिवार 2 दिन तक ठसाठस भरी धर्मशाला में रुका. धर्मशाला की भीड़ में गौरी की 2 तोले की सोने की चैन गायब हो गई. लेकिन उस ने डर और उलाहने की वजह से किसी को नहीं बताया.

2 दिन बाद वे सभी गाड़ी में चढ़े, तो पता चला कि रिजर्वेशन का डब्बा नहीं लग पाया और सब को जनरल डब्बे में सफर करना पड़ेगा. जनरल डब्बे की बात सुन कर गजेंद्रजी के होश उड़ गए, क्योंकि पिछले 20 सालों से उन्होंने हवाईजहाज या रेलगाड़ी में एयरकंडीशंड क्लास से कम में सफर नहीं किया था.

वे आधी दूर ही पहुंचे थे कि पड़ोसी का फोन आया कि सिक्योरिटी गार्ड घर का सामान ले कर चंपत हो गया है. यह सुन कर पुष्पेंद्रजी ने अपने बाल नोच कर कहा, ‘‘जिंदगी में इस से ज्यादा और बुराई क्या हो सकती है. जिस सिक्योरिटी गार्ड के भरोसे अपने घर को रखा, वही चोर निकला. और हम सब यहां अच्छाई बटोरने आए थे.’’

कुंभ स्नान के बाद उन्हें यह तीसरा झटका लग चुका था. पता नहीं, आगे और क्याक्या होगा. घर पहुंचे, तो पोतों ने कहा कि शरीर में जबरदस्त खुजली हो रही है.

पुष्पेंद्रजी ने मन ही मन कहा कि बेटा, मुझे भी माली व जिस्मानी खुजली हो रही है. गंदे व कीचड़ वाले पानी में नहाने पर खुजली नहीं होगी, तो क्या काया कंचन की हो जाएगी. फर्क यही है कि तुम कह रहे हो, लेकिन मैं बता नहीं पा रहा हूं.

पुण्य कमाने के चक्कर में अब तक डेढ़ लाख रुपए से ज्यादा ही खर्च हो चुके थे. उन्होंने कहा कि इतने रुपए में पूरा परिवार घर में ही सालभर बोतलबंद पानी में डुबकी लगा सकता था, पर पत्नियों की धार्मिक आस्था का भी जवाब नहीं था.

उन्होंने कहा कि दुख मत मनाइए, ये सब दुर्घटनाएं पिछले कुंभ में स्नान न करने का फल हैं. इस बार के स्नान का फल आने वाले समय में जरूर मिलेगा, सब्र रखिए. यह सुन कर दोनों भाई हैरानी से एकदूसरे का चेहरा देखने लगे.

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