गरीबों के बच्चों के साथ नाइंसाफी

एक तरफ तो सरकार ने लगभग पूरे देश में पढ़ाई को निजी हाथों में दे कर बेहद महंगा बना दिया और दूसरी तरफ गरीबों की हाय को बंद कराने के नाम पर उन्हें ईडब्लूएस कोटे में 25 फीसदी सीटें दिलवा दीं. निजी स्कूल इन सीटों पर बच्चों को नहीं लेना चाहते क्योंकि एक तो इन बच्चों से फीस नहीं मिलती और दूसरे इन फटेहाल बच्चों से ऊंचे घरों से आए बच्चों की शान घटती है.

क्योंकि ईडब्लूएस कोटा हर स्कूल में हैइसे लागू न करने के बहाने ढूंढ़े जाते हैं और पते को वैरीफाई करना उन में से एक है. मेधावी पर ?ाग्गीझोंपड़ी में रहने वाले बच्चों के पते पक्के नहीं होते. जिस ?ाग्गी में वे रहते हैंवह कब टूट जाएकब इलाके का दादा उन्हें निकाल फेंके या कब मां या बाप की नौकरी छूट जाए और उन्हें मकान बदलना पड़ेकहा नहीं जा सकता. सही पता न होना एक बहाना मिल गया है स्कूलों को इन ईडब्लूएस (इकोनौमिकली वीकर सैक्शन) बच्चों को एडमिशन न देने का.

असल में बात यह है कि कोई नेताकोई अफसरकोई स्कूल मालिक नहीं चाहता कि नीची जातियों के बच्चे उन के स्कूलों में आएं. वे एक तो उन जातियों से आते हैं जिन्हें अछूत माना जाता रहा है और दूसरे वे बातबात पर स्कूल के प्रोग्रामों के लिए पैसे नहीं दे सकते. संगमरमर के फर्श पर वे सीमेंट का पैच लगते हैं और सब को चुभते हैं. अमीर घरों के बच्चों को इन गरीब बच्चों को परेशान करने के लिए भी लगाया जाता है पर चूंकि दमखम में ये हट्टेकट्टे होते हैंकई बार उग्र हो उठते हैं और हंगामा खड़ा कर देते हैंतो पते का बहाना बड़ा मौजूं है.

दिल्ली सरकार ने एक मामले में कोर्ट को कहा कि पते के नाम पर स्कूल एडमिशन देने से इनकार या पहले दिया एडमिशन रद्द नहीं कर सकता पर स्कूल के वकील अड़े हुए हैं कि पता जांचने का हक उन के पास है. यह तो उन इक्केदुक्के मामलों में है जिन में एडमिशन न देने या कैंसिल करने पर गरीब बच्चे के मांबाप कोर्ट चले गए. आमतौर पर तो उन के पास न अक्ल होती हैन पैसे कि अदालत में जाया जा सकता है.

इन मांबाप को मालूम है कि अदालत तो फैसला देने में 4-5 साल लगा देती है और इतने में उन का बच्चा स्कूल की राह देखता हुआ जवान हो जाएगाइसलिए वे चुपचाप सरकारी स्कूल में चले जाते हैं या घर बैठ जाते हैं.

सरकारी स्कूल वह मशीन है जहां गरीबों के बच्चों को उन की सही औकात बताई जाती है. यहां अध्यापक पढ़ाने नहींकमाने आते हैं या जाति का जहर घोलने. यहां हर टीचर द्रोणाचार्य होता है जो एकलव्य को हुनर सीखने नहीं देना चाहता या वह पंडित होता है जिस ने शंबूक के वेद पढ़ने पर एतराज जताया था.

पहला मामला महाभारत का है और दूसरा रामायण का. दोनों ग्रंथों में हिंदुओं के तरहतरह के भगवान हैं और सरकारी स्कूलों के टीचर निजी स्कूलों के टीचरों की तरह इन धर्मग्रंथों के हुक्म की तामील ही करते हैं– कुछ भी हो जाएनीची जाति के लोगों के बच्चों को पढ़ने न दो. वे भगवा ?ांडा उठा लेंकांवड़ उठा लेंहिंदुत्व के नाम पर किसी का भी सिर फोड़ देंसही है पर पढ़ लेंछीछी घोर कलयुग.

आज का हिंदुत्व असल में मुसलमानों के खिलाफ नहीं दलितों और शूद्रों के खिलाफ है. हिंदुत्ववादी जानते हैं कि मुसलमान तो मदरसों के चक्कर में पढ़लिख नहीं रहे और वे दलितों व शूद्रों को भी पढ़ने नहीं देना चाहतेइसलिए स्कूलों ने पढ़ाने या एडमिशन न देने के रोज नएनए बहाने ढूंढ़ लिए हैं.  

15 August Special: तिरंगा फहराना आसान, पर रखरखाव मुश्किल

अटारी वाघा बौर्डर की चैक पोस्ट के नजदीक मार्च, 2017 को लगाए गए 360 फुट ऊंचे तिरंगे झंडे की अपनी अहमियत है. लेकिन इस के फट जाने और बारबार बदले जाने के चलते हो रहे लाखों रुपए के खर्च की खबरें सुर्खियों में रही हैं. इस तिरंगे झंडे की खूबी यह है कि यह दुनिया का 10वां सब से ऊंचा झंडा भी है, पर लंबे समय तक इस के नहीं दिखने के बीच कहा जाने लगा कि अफसरों ने तिरंगा लगाने से पहले तकनीकी चीजों का खयाल नहीं रखा. इस मामले में लापरवाही बरतने का एक आरोप भी अमृतसर इंप्रूवमैंट ट्रस्ट (एआईटी) ने लगाया और सरकार से गुजारिश की है कि वह इस मामले में जांच करे कि आखिर एक महीने में ही यह झंडा 3 बार कैसे फट गया, जबकि झंडे को 3 बार बदला भी गया?

याद रहे कि अटारी के तिरंगे से पहले देश के सब से ऊंचे तिरंगे के रूप में झारखंड की राजधानी रांची के पहाड़ी मंदिर पर 293 मीटर ऊंचे तिरंगे का नाम दर्ज था.

तिरंगे को एक खास आदर से देखा जाता है, लेकिन इधर कुछ अरसे में देश के अलगअलग हिस्सों में ऊंचा तिरंगा फहराने के सिलसिले में तिरंगे के फटने या झुकने की घटनाएं हुई हैं, उस से यह सवाल पैदा हो गया है कि देशभक्ति दिखाने के चक्कर में ऐसी घटनाएं कहीं इस राष्ट्रीय प्रतीक के असम्मान की वजह तो नहीं बन गई हैं?

देश में हर नागरिक को अब अपनी मनचाही जगह पर तिरंगा फहराने और उस के प्रति सम्मान जाहिर करने की आजादी मिली है. अब यह जरूरी नहीं रहा है कि तिरंगा सिर्फ सरकारी इमारतों पर फहराया जाए और किसी खास मौके पर यानी 26 जनवरी व 15 अगस्त को ही इसे लहरानेफहराने की छूट मिले.

यह आजादी देते समय निर्देशित किया गया था कि तिरंगे को फहराते वक्त कोई ऐसी घटना न घटे, जिस से कि उस का अपमान हो. अगर कहीं ऐसा होता है, तो सरकार के मंत्रियोंअफसरों तक को इस के लिए भलाबुरा कहा जाता है. पर कई बार तिरंगे के प्रति देशभक्ति दिखाने के चक्कर में ऐसा भी हुआ है, जब तिरंगे के असम्मान होने का खतरा पैदा हो गया.

जैसे, पिछले साल तेलंगाना सरकार ने नया राज्य बनने की दूसरी वर्षगांठ पर देश का दूसरा सब से ऊंचा तिरंगा झंडा हैदराबाद के हुसैन सागर नामक झील में बने संजीवैया पार्क में फहराया, तो वह 2 दिन बाद फट गया.

इस घटना के बाद वहां नया तिरंगा फहराने की कोशिश की गई, लेकिन वह भी तेज हवाओं के बीच टिक न सका.

इस तिरंगे की देखरेख का जिम्मा ग्रेटर हैदराबाद नगरनिगम को दिया गया था, लेकिन हर तेज हवाओं के साथ हर बार फट जाने वाले तिरंगे को बदलना उसे भारी पड़ रहा है.

ऐसा विशालकाय तिरंगा बनाने में एक लाख, 35 हजार रुपए का खर्च आ रहा है, जिसे उठाना नगरनिगम के लिए मुमकिन नहीं हो पा रहा है.

वैसे तो ऊंची जगह पर फहराए जाने वाले तिरंगे पौलिएस्टर से बनाए जाते हैं, ताकि तेज हवा में वे जल्दी फटे नहीं और बारिश में जल्दी गल न जाएं, लेकिन तेलंगाना वाले मामले में साबित हो रहा है कि वहां यह काम बिना रिसर्च के कर लिया गया था. गौरतलब है कि दिल्ली में भी बेहद ऊंचे खंभे पर तिरंगा फहराया गया है.

दिल्ली में कनाट प्लेस के बीचोंबीच ऐसा तिरंगा आम लोगों को अपनी देशभक्ति दिखाने का मौका देता है. यहां तिरंगे के इतनी जल्दी फट जाने की खबर नहीं मिली है. ऐसा इसलिए है, क्योंकि यहां ऊंचाई पर तिरंगा फहराने से पहले बाकायदा रिसर्च की गई थी.

कनाट प्लेस में इमारतों से घिरे इलाके में तिरंगा फहराया गया, जहां हवा सीधे नहीं आती है. ऐसे बंद इलाकों में तेज हवाएं तिरंगे को ज्यादा नुकसान नहीं पहुंचा पाती हैं, लेकिन इस की तुलना में हैदराबाद का हुसैन सागर इलाका काफी खुला हुआ है. वहां सागर से उठने वाली तेज हवाएं बड़ी आसानी से तिरंगे को चिथड़े में बदल डालती हैं.

तिरंगे के ऐसे अपमान की कुछ घटनाएं देश के दूसरे इलाकों में भी हुई हैं. झारखंड की राजधानी रांची में पहाड़ी मंदिर पर लगा तिरंगा आधा झुका हुआ पाया गया था, जिस से राज्य सरकार की किरकिरी हुई थी.

रांची में पहाड़ी मंदिर में लगे तिरंगे की ऊंचाई 66 फुट और चौड़ाई 99 फुट है. इस का वजन 60 किलोग्राम है और यह 293 मीटर ऊंचे खंभे पर फहराया जाता है.

गौरतलब है कि 23 जनवरी, 2016 के बाद जब झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास की मौजूदगी में रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने इसे देश के सब से बड़े तिरंगे के तौर पर फहराया था, लेकिन अप्रैल महीने में तिरंगे को खंभे के ऊपर ले जाने वाली पुली खराब हो गई, जिस के चलते तिरंगा आधा झुक गया. रांची जिला प्रशासन ने पुली ठीक करने के लिए भारतीय सेना से मदद मांगी.

ध्यान रहे कि आधा झुका झंडा शोक का प्रतीक है, ऐसे में रांची के मामले को तिरंगे के मानकों के उल्लंघन का मामला भी माना गया था.

तेलंगाना और झारखंड जैसी घटना पिछले साल छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में भी हो चुकी है. रायपुर के मरीन ड्राइव इलाके में देश का सब से ऊंचा तिरंगा फहराने का दावा 30 अप्रैल में किया गया था. लेकिन फहराए जाने के 20-22 दिन बाद यह फट गया और तब से चुपचाप उतार कर रख लिया गया.

एक दिन जब लोगों ने इस तिरंगे को खंभे से नदारद पाया, तो उन्होंने सोशल मीडिया पर तमाम सवाल उठाए.

सरकार को तिरंगे के रखरखाव में हो रही अनदेखी की घटनाओं को भी गंभीरता से लेना चाहिए. यह कहना सही नहीं कि मौसम की वजह से तिरंगा 2 दिन में ही फट गया, तो प्रशासन इस के लिए क्या कर सकता है.

मसला यह भी है कि अगर जनता समेत प्रशासन तिरंगा फहरा कर अपनी देशभक्ति का परिचय देना चाहता है, तो जरूरी है कि वे सब तिरंगे का सम्मान बनाए रखने के लिए उस के रखरखाव से जुड़े नियमकायदों का सख्ती से पालन भी करें.

देशभक्ति का मतलब तिरंगा फहरा देना या तिरंगा यात्रा कर लेना मात्र नहीं है, बल्कि उस की पूरी देखभाल भी जरूरी है. साफ है कि जिस तरह से हमें देश के सम्मान का खयाल है, उसी तरह तिरंगे के सम्मान की भी चिंता होनी चाहिए.

जबरन यौन संबंध बनाना पति का विशेषाधिकार नहीं

विवाह बाद पत्नी से जबरन सैक्स करने को बलात्कार कहा जाने वाला कानून बनाए जाने के खिलाफ जो बातें कही जा रही हैं वे सब धार्मिक नजरिए से कही जा रही हैं. इन का मकसद यह कहना है कि चूंकि हिंदू धर्म में विवाह एक पवित्र बंधन है, इसलिए वैवाहिक बलात्कार जैसी किसी बात के लिए यहां कोई जगह नहीं. जब से विवाहितों के बीच बलात्कार को ले कर चर्चा शुरू हुई तब से यह सवाल भी उठाया जा रहा है कि रोजमर्रा की इस बहुत ही सहज, सरल व सामान्य बात को ले कर इतना शोर मचाने का कोई औचित्य नहीं है.

कभी न कभी हर महिला अपने सुख के लिए नहीं, मात्र पति की यौन संतुष्टि के लिए बिस्तर पर बिछती है. शादी को ले कर उस ने जो सपना बुना होता है वह चूरचूर हो जाता है. कई नवविवाहित युवतियों का पहली रात का अनुभव बड़ा दर्दनाक होता है. इतना कि सैक्स उन के लिए आनंद का नहीं, बल्कि डर का विषय बन कर रह जाता है. कुछ इस डर को रोज झेलती हैं और फिर यह उन की आदत में शुमार हो जाता है.

दरअसल, इस तरह का मामला तब तकलीफदेह हो जाता है जब किसी महिला के पति का संभोग हिंसक यौन हमले का रूप ले लेता है और वह महिला महज यौन सामग्री के रूप में तबदील हो जाती है. वह असहाय हो जाती है. तब जाहिर है, आपसी परिचय और भरोसे की नींव हिल जाती है. कुछ मामलों में वजूद का आपसी टकराव ही ऐसे संबंध की सचाई बन कर रह जाता है. कुछ ज्यादा ही सोचता है. एक लड़की का बदन किस हद तक खुला रहना शोभनीय या अशोभनीय है या फिर किसी बच्ची के लड़की से युवती बनने के रास्ते में कौन से शारीरिक संबंध सामाजिक रूप से स्वीकृत हैं, इस सब के बारे में सामाजिक व धार्मिक फतवे जारी किए जाते हैं. जबकि इसी समाज में चाचा, मामा और यहां तक कि पिता और भाइयों द्वारा भी लड़कियां बलात्कार की शिकार हो रही हैं. तो क्या यह भी धर्म और संस्कृति का हिस्सा है? बहरहाल, अब एक और सांस्कृतिकसामाजिक फतवे को सरकारी स्वीकृति दिलाने की कोशिश की जा रही है और यह स्वीकृति है वैवाहिक संबंध में बलात्कार को ले कर. कहा जा रहा है कि धर्म के अनुसार हुए विवाह में बलात्कार की गुंजाइश नहीं है.

गौरतलब है कि निर्भया कांड के बाद वर्मा कमीशन द्वारा वैवाहिक बलात्कार को बलात्काररोधी कानून में शामिल करने की सिफारिश से हड़कंप मच गया. मोदी सरकार में मंत्री रहे हरिभाई पारथीभाई चौधरी ने साफसाफ शब्दों में कहा है कि वैवाहिक रिश्ते में बलात्कार जैसी कोई चीज हो ही नहीं सकती. इस के बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय ने साफ किया कि विधि आयोग ने बलात्कार संबंधी कानून में वैवाहिक बलात्कार को अपराध की सूची में शामिल नहीं किया है और न ही सरकार ऐसा करने की सोच रही है.

अंदेशा यह है कि इस से परिवारों के टूटने का खतरा बढ़ जाएगा. इस खतरे को टालने के लिए हमारा समाज पत्नियों की बलि लेने को तैयार है. तर्क यह भी कि भारतीय समाज में केवल विवाहित यौन संबंध को ही सामाजिक स्वीकृति मिली हुई है और इस पर पत्नी और पति दोनों का ही समान अधिकार है. अर्द्धनारीश्वर की अवधारणा भी तो भारत की धार्मिक संस्कृति का हिस्सा है. लेकिन ऐसा होता कहां है? ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि यौन संबंध बनाने में पत्नी की इच्छा न होने की स्थिति में क्या ऐसा करने का अधिकार अकेले पति को मिल जाता है? जबरन संबंध बनाने का अधिकार अकेले पति  का कैसे हो सकता है? पति द्वारा जबरन यौन संबंध बनाने को आखिर क्यों बलात्कार नहीं माना जाना चाहिए

आइए, जानें कि भारतीय कानून इस बारे में क्या कहता है. कोलकाता हाई कोर्ट के वकील भास्कर वैश्य का कहना है कि भारतीय कानून के तहत पति को केवल 2 तरह के मामलों में बलात्कारी कहा जा सकता है- पहला अगर पत्नी की उम्र 15 साल से कम हो और पति उस के साथ जबरन यौन संबंध बनाए तो कानून की नजर में यह बलात्कार है और दूसरा, पतिपत्नी के बीच तलाक का मामला चल रहा हो, कानूनी तौर पर पतिपत्नी के बीच विच्छेद यानी सैपरेशन चल रहा हो और पति पत्नी की रजामंदी के बगैर जबरन यौन संबंध बनाता है तो इसे भारतीय कानून में बलात्कार कहा गया है. इस के लिए सजा का प्रावधान भी है. हालांकि इन दोनों ही मामलों में पति को जो सजा सुनाई जा सकती है वह बलात्कार के लिए तय की गई सजा की तुलना में कम ही होती है.

विवाह की पवित्रता पर सवाल

सुनने में यह भी बड़ा अजीब लगता है कि विवाहित महिला कानून यौन संबंध के लिए पति को अपनी सहमति देने को बाध्य है यानी पत्नी यौन संबंध के लिए पति को मना नहीं कर सकती. कुल मिला कर यहां यही मानसिकता काम करती है कि चूंकि हमारे यहां विवाह को पवित्र रिश्ते की मान्यता प्राप्त है और इस का निहितार्थ संतान पैदा करना है, इसलिए पतिपत्नी के बीच यौन संबंध बलात्कार की सीमा से बाहर की चीज है. तब तो इस का अर्थ यही निकलता है कि यौन संबंध बनाने की पति की इच्छा के आगे पत्नी की अनिच्छा या उस की असहमति कानून की नजर में गौण है.

ऐसे में यह कहावत याद आती है कि मैरिज इज ए लीगल प्रौस्टिट्यूशन यानी पत्नी का शरीर रिस्पौंस करे या न करे पति के स्पर्श में प्रेम की छुअन का उसे एहसास मिले या न मिले पति की जैविक भूख ही सब से बड़ी चीज है. यह बात दीगर है कि जब प्रेमपूर्ण स्पर्श पर पति की जैविक भूख हावी हो जाती है तब यह स्थिति किसी भी पत्नी के लिए किसी अपमान से कम नहीं होती. जाहिर है, सभी विवाह पवित्र नहीं होते. हमारे समाज में बहुत सारी ऐसी महिलाएं हैं, जिन के मन में कभी न कभी यह सवाल उठाता है कि क्या वाकई सैक्स पत्नियों के लिए भी सुख का सबब हो सकता है? जिन के भी मन में यह सवाल आया, उन के लिए शादी कतई पवित्र रिश्ता नहीं हो सकता. रवींद्रनाथ ठाकुर ने भी अपने एक अधूरे उपन्यास ‘योगायोग’ में वैवाहिक बलात्कार का मुद्दा उठाया है. उन्होंने उपन्यास की नायिका कुमुदिनी के जरीए यही बताने की कोशिश की है कि सभी विवाह पवित्र नहीं होते. शादी के बाद पति मधुसूदन के साथ बिताई गई रात के बाद कुमुदिनी ने आखिर अपनी करीबी बुजुर्ग महिला से पूछ ही लिया कि क्या सभी पत्नियां अपने पति को प्यार करती हैं?

गौरतलब है कि यह उपन्यास 1927 में लिखा गया था. जाहिर है, वैवाहिक बलात्कार इस से पहले एक सामाजिक समस्या रही होगी और नारीवादी रवींद्रनाथ ठाकुर ने इस समस्या को अपने इस उपन्यास में बड़ी शिद्दत से उठाया है.

वैवाहिक बलात्कार और राजनेता

वैवाहिक बलात्कार पर यूनाइटेड नेशंस पौप्यूलेशन फंड का एक आंकड़ा कहता है कि भारत में विवाहित महिलाओं की कुल आबादी की तीनचौथाई यानी 75% महिलाएं अपने वैवाहिक जीवन में अकसर बलात्कार का शिकार होती हैं. मजेदार तथ्य यह है कि आज भी वैवाहिक बलात्कार के आंकड़े पूरी तरह से उपलब्ध नहीं हैं. अगर इस से संबंधित आंकड़े उपलब्ध होते तो समस्या की गंभीरता का अंदाजा लगाना और भी सहज होता, कभीकभार ही कोई मामला दर्ज होता है. विश्व के ज्यादातर देशों में वैवाहिक बलात्कार की गिनती दंडनीय अपराधों में होती है. यूनाइटेड नेशंस पौप्यूलेशन फंड के इस आंकड़े के आधार पर ही डीएमके सांसद कनीमोझी ने भी बलात्कार विरोधी कानून में बदलाव की मांग की थी. इसी मांग के जवाब में मोदी सरकार में तत्कालीन गृह राज्यमंत्री हरिभाई पारथी ने बयान दिया कि वैवाहिक बलात्कार की अवधारणा भारतीय संस्कृति, सामाजिक व्यवस्था, मूल्यबोध और धार्मिक आस्था के अनुरूप नहीं है.

जाहिर है, 16 दिसंबर, 2013 को दिल्ली में निर्भया कांड की जांच के लिए गठित किए गए वर्मा कमीशन की रिपोर्ट की हरिभाई पारथी ने अनदेखी कर के बयान दिया था. गौरतलब है कि वर्मा कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में वैवाहिक बलात्कार को भी बलात्कार विरोधी कानून में शामिल करने की सिफारिश की थी. हालांकि हमारा बलात्कार संबंधी कानून तो यही कहता है कि यौन संबंध बनाने में महिला की सहमति न हो तो उस की गिनती बलात्कार में होगी. लेकिन पति द्वारा बलात्कार को इस से जोड़ कर देखने में सरकार को भी गुरेज है.

शादी एकतरफा यौन संबंध की छूट नहीं

इस विषय पर आम चर्चा के दौरान मध्य कोलकाता में एक डाकघर में कार्यरत संचिता चक्रवर्ती बड़ी ही बेबाकी के साथ कहती हैं कि कानून की बात दरकिनार कर दें. जहां तक यौन संबंध में महिला की सहमति का सवाल है तो उस का निश्चित तौर पर अपना महत्त्व है, इस से इनकार नहीं किया जा सकता. विवाह का प्रमाणपत्र इस महत्त्व को कतई कम नहीं कर सकता. यौन संबंध में पतिपत्नी दोनों अगर बराबर के साझेदार हों तो वह सुख दोनों के लिए अवर्णनीय होगा. विवाह बंधन जबरन यौन संबंध का लाइसैंस किसी भी कीमत पर नहीं हो सकता.

संचिता कहती हैं कि मोदी सरकार में मंत्री के बयान की बात करें तो उस से तो यही लगता है कि उन के हिसाब से भारतीय संस्कृति में पत्नी की सहमति के बगैर यौन संबंध बनाने की पति को छूट है. भारत में विभिन्न संस्कृतियों के लोगों का वास है. तथाकथित भारतीय संस्कृति में विवाहित महिला पुरुष की बांदी है, भोग की वस्तु है. इसीलिए वैवाहिक बलात्कार उन की तथाकथित भारतीय संस्कृति में लागू नहीं होता. अमेरिका के शिकागो में एक अस्पताल में कार्यरत भारतीय मूल की सुष्मिता साहा का कहना है कि इस विषय को गंभीरता से लिया जाना चाहिए और वैवाहिक बलात्कार पर सख्त कानून होना ही चाहिए. आज भारत में जिस संस्कृति की दुहाई दी जा रही है, वही स्थिति कभी ब्रिटेन या न्यूयौर्क में थी. पर अब वहां वैवाहिक बलात्कार के बढ़ते मामलों को देखते हुए कड़े कानून बनाए गए हैं. फिर भारत में यह क्यों नहीं संभव हो सकता?

सुष्मिता कहती हैं, ‘‘जबरन यौन संबंध पति का विशेषाधिकार उसी तरह नहीं हो सकता, जिस तरह विवाह का प्रमाणपत्र यौन हिंसा की छूट नहीं देता. इसलिए वैवाहिक बलात्कार भी दरअसल दूसरे बलात्कार की ही तरह यौन हिंसा का ही एक मामला है, ऐसा न्यूयौर्क के अपील कोर्ट ने अपने बयान में कहा था. लेकिन अगर एक पत्नी के नजरिए से देखें तो वैवाहिक बलात्कार अन्य बलात्कार से इस माने में अलग है कि यहां यौन हिंसा को महिला का सब से करीबी व्यक्ति अंजाम देता है. यही बात किसी पत्नी को जीवन भर के लिए झकझोर देती है.

विवाह और यौन स्वायत्तता

भारतीय संस्कृति में पारंपरिक विवाह के तहत लड़कालड़की की पारिवारिकसामाजिक हैसियत को देखपरख कर वैवाहिक रिश्ते तय होते हैं. ऐसे रिश्ते में जाहिर है परस्पर प्रेम व मित्रता शुरुआत में नहीं होती है. हालांकि कुछ समय के बाद पतिपत्नी के बीच प्रेम का रिश्ता बन जाता है. पर ऐसे ज्यादातर विवाह एकतरफा यौन स्वायत्तता का मामला ही होते हैं. मोदी सरकार के मंत्री ने जिस भारतीय संस्कृति की बात की है उस में नारीजीवन की इसी सार्थकता का प्रचार सदियों से किया जाता रहा है और इस संस्कृति में औरत पुरुष के खानदान के लिए बच्चे पैदा करने का जरीया और पुरुष के लिए यौन उत्तेजना पैदा करने की खुराक मान ली गई है.हमारी परंपरा में लड़कियां अपने मातापिता को खुल कर सब कुछ कहां बता पाती हैं? खासतौर पर नई शादी का ‘लव बाइट’ आगे चल कर पति का ‘वायलैंट बाइट’ बन जाए तो शादी के नाम पर लड़की अकसर अपने भीतर ही भीतर घुट कर रह जाती है. माना ऐसा हर किसी के साथ नहीं होता है.

2013 में दिल्ली में पारंपरिक विवाह के बाद नवविवाहित जोड़ा हनीमून के लिए बैंकौक पहुंचा. हनीमून के दौरान लड़की के साथ उस के पति पुनीत ने क्रूरता की तमाम हदें पार कर के बलात्कार किया. लौट कर लड़की ने पुलिस में शिकायत दर्ज की. पुलिस ने दीनदयाल अस्पताल में लड़की की जांच करवाई तो बलात्कार की पुष्टि हुई. इस के बाद भारतीय दंड विधान की विभिन्न धाराओं के तहत मामला दायर किया. साफ है कि वैवाहिक बलात्कार पर हमारा कानून एकदम से खामोश भी नहीं है. इस के लिए भी हमारे यहां प्रावधान है. भारतीय दंड विधान की घरेलू हिंसा की धारा 498ए के तहत शारीरिक व मानसिक उत्पीड़न और क्रूरता के लिए सजा का प्रावधान है. इसी धारा के तहत वैवाहिक बलात्कार का निदान महिलाएं ढूंढ़ सकती हैं.

अन्य देशों की स्थिति

चूंकि विकास और सभ्यता एक निरंतर प्रक्रिया है, इसीलिए दुनिया के बहुत सारे देशों में वैवाहिक बलात्कार के लिए कोई कानून नहीं था. लेकिन विमन लिबरेशन ने महिलाओं को अपने अधिकार के लिए आवाज बुलंद करना सिखाया. लंबी लड़ाई के बाद सफलता भी मिली. दोयमदर्जे की स्थिति में बदलाव आया. कहा जाता है कि आज दुनिया के 80 देशों में वैवाहिक बलात्कार के लिए कानूनी प्रावधान हैं. बहरहाल, दुनिया में वैवाहिक बलात्कार को ले कर चर्चा ने तब पूरा जोर पकड़ा जब 1990 में डायना रसेल की एक किताब ‘रेप इन मैरिज’ प्रकाशित हुई. इस किताब में डायना रसेल ने समाज को अगाह करने की कोशिश की है कि वैवाहिक जीवन में बलात्कार को पति के विशेषाधिकार के रूप में देखा जाना पत्नी के लिए न केवल अपमानजनक है, बल्कि महिलाओं के लिए एक बड़ा खतरा भी है.

2012 में अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की आयुक्त भारतीय मूल की नवी पिल्लई ने कहा कि जब तक महिलाओं को उन के शरीर और मन पर पूरा अधिकार नहीं मिल जाता, जब तक पुरुष और महिला के बीच गैरबराबरी की खाई को पाटा नहीं जा सकता. महिला अधिकारों का उल्लंघन ज्यादातर उस के यौन संबंध और गर्भधारण से जुड़ा हुआ होता है. ये दोनों ही महिलाओं का निजी मामला है. कब, कैसे और किस के साथ वह यौन संबंध बनाए या कब, कैसे और किस से वह बच्चा पैदा करे, यह पूरी तरह से महिलाओं का अधिकार होना चाहिए. यह अधिकार हासिल कर के ही कोई महिला सम्मानित जीवन जी सकती है. 1991 में ब्रिटेन की संसद में वैवाहिक संबंध में बलात्कार का मामला उठाया गया था, जो आर बनाम आर के नाम से दुनिया भर में जाना जाता है. ब्रिटेन संसद के हाउस औफ लौर्ड्स में कहा गया कि चूंकि शादी के बाद पति और पत्नी दोनों समानरूप से जिम्मेदारियों का वहन करते हैं, इसलिए पति अगर पत्नी की सहमति के बिना यौन संबंध बनाता है तो अपराधी करार दिया जा सकता है. इस से पहले 1736 में ब्रिटेन की अदालत के न्यायाधीश हेल ने एक मामले की सुनवाई के बाद फैसला सुनाया था कि शादी के बाद सभी परिस्थितियों में पत्नी पति से यौन संबंध बनाने को बाध्य है. उस की शारीरिक स्थिति कैसी है या यौन संबंध बनाने के दौरान वह क्या और कैसा महसूस कर रही है, इन बातों के इसलिए कोई माने नहीं हैं, क्योंकि शादी का अर्थ ही यौन संबंध के लिए मौन सहमति है. हेल के इस फैसले को ब्रिटेन में 1949 से पहले कभी किसी चुनौती का सामना नहीं करना पड़ा. लेकिन 1949 में एक पति को पहली बार पत्नी के साथ बलात्कार का दोषी ठहराया गया.

ब्रिटेन के अलावा यूरोप के कई देशों में वैवाहिक बलात्कार दंडनीय अपराध है. अमेरिका, आस्ट्रेलिया और अफ्रीकी देशों में भी इस के लिए कानून बना कर इसे दंडनीय अपराध घोषित किया गया है. नेपाल के सुप्रीम कोर्ट ने भी पत्नी की रजामंदी के बगैर संभोग को बलात्कार करार दिया है. कोर्ट ने अपनी इस घोषणा का आधार हिंदू धर्म को ही बताते हुए कहा है कि हिंदू धर्म में पति और पत्नी की आपसी समझ को ही महत्त्व दिया गया है. इसलिए यौन संबंध बनाने में पति पत्नी की मरजी की अनदेखी नहीं कर सकता. अब जब गरीब राष्ट्र नेपाल घोषित रूप से भी हिंदू राष्ट्र है, वैवाहिक बलात्कार के लिए महिलाओं के पक्ष में कानून बना सकता है तो भारत में क्या दिक्कत है?

जानकारी: कमेरों का शानदार रोजगार

कुछ दिन पहले जब हमारे बाथरूम के वाशबेसिन में कुछ समस्या आई, तो नलसाज को बुलाया गया. नलसाज मतलब प्लंबर. उस ने आते ही कुछ मिनटों में वाशबेसिन ठीक कर दिया और अपने मेहनताने के तौर पर 100 रुपए ले लिए. सामान का खर्च अलग से था.

मैं ने उस प्लंबर से दिनभर की कमाई पूछी, तो वह हंसते हुए बोला कि अच्छाखासा कमा लेता है.मूल रूप से ओडिशा के रहने वाले उस प्लंबर कृपाशंकर ने मुझे एक और हैरानी से भरी बात बताई कि ओडिशा का केंद्रपाड़ा जिला नलसाजी यानी प्लंबिंग का हब है और वहां से देश के

70 फीसदी प्लंबर आते हैं. इतना ही नहीं, इस जिले के एक गांव पट्टामुंडाई में हर दूसरे घर में एक प्लंबर है. इस की वजह गांव पट्टामुंडाई में बना ‘स्टेट इंस्टीट्यूट औफ प्लंबिंग टैक्नोलौजी’ है.केंद्रपाड़ा के पट्टामुंडाई, औल, राजकनिका और राजनगर गांवों और उन के आसपास के कसबों में शानदार घर बने हुए हैं, जो प्लंबिंग की ही देन हैं. इन

गांवों के तकरीबन 1,00,000 लोग (यह तादाद ज्यादा भी हो सकती है) देशविदेश में बतौर प्लंबर का काम करते हैं.जहां एक तरफ देश के ज्यादातर नौजवान डाक्टर या इंजीनियर बनने के सपने देखते हैं, इस इलाके के नौजवान उम्दा प्लंबर बनने की सोचते हैं. पर ऐसा क्यों है? दरअसल, यहां के लोगों ने यह काम साल 1930 से सीखना शुरू किया था. तब कोलकाता में ब्रिटिश कंपनियों को प्लंबरों की जरूरत थी. केंद्रपाड़ा के कुछ नौजवानों को वहां नौकरी मिली.

1947 में देश के बंटवारे के समय जब कोलकाता के ज्यादातर प्लंबर पाकिस्तान चले गए, तो केंद्रपाड़ा के प्लंबरों के लिए यह एक सुनहरा मौका बन गया. इस के बाद दूसरे लोग भी काफी तादाद में यह काम सीखने लगे. आज हालात ये हैं कि अकेले पट्टामुंडाई गांव में 14 बैंकों की ब्रांच हैं.

इतना होने के बावजूद आज भी देश में ट्रेनिंग पाए प्लंबरों की बेहद कमी है. दूसरों से काम सीख कर यह रोजगार अपनाने वाले प्लंबर बहुत ज्यादा हैं और उन में से काफी तो माहिर हो चुके हैं, पर डिप्लोमा या सर्टिफिकेट कोर्स कर के इस फील्ड में आने वालों की बात ही अलग है, क्योंकि बड़े संस्थानों और विदेशों में तो उन्हें ही ज्यादा तरजीह दी जाती है, जबकि एक आम भारतीय तो यह भी शायद ही जानता होगा कि प्लंबिंग की ट्रेनिंग भी दी जाती है.

दिल्ली के झंडेवाला में बने फ्लैटेड फैक्टरीज कौंप्लैक्स ई-4 में दिल्ली सरकार की स्वरोजगार समिति के तहत प्लंबिंग का 6 महीने का पार्ट टाइम कोर्स कराया जाता है. इस के लिए 8वीं जमात पास होना जरूरी है और जनरल कैटेगरी वालों से 1,800 रुपए फीस ली जाती है. एससी और एसटी वर्ग से महज 600 रुपए फीस ली जाती है. यह फीस पूरे 6 महीने की है.

कोर्स पूरा करने के बाद सिक्योरिटी के 500 रुपए छात्र को वापस कर दिए जाते हैं. छात्रों को डीटीसी की एसी बस के आल रूट पास की भी सुविधा दी जाती है. यह कोर्स दिल्ली व एनसीआर वालों के लिए ही मुहैया है.

इस संस्थान से जुड़े छात्रों को प्लंबिंग की ट्रेनिंग देने वाले इंस्ट्रक्टर सुरेंद्र ने बताया, ‘‘प्लंबिंग का काम पानी से जुड़ा है, जो हमारी बुनियादी जरूरत है, इसलिए इसे सीखने वाला कभी भी बेरोजगार नहीं रह सकता. घर या कोई भी दूसरी इमारत बनाने के बाद लोग बिजली वगैरह के बिना तो रह सकते हैं, पर पानी के बिना उन का गुजारा नहीं हो सकता.

‘‘प्लंबर का काम घर की बुनियाद खुदने से शुरू हो जाता है और घर की पूरी फिनिशिंग होने तक चलता है, इसलिए एक कामयाब प्लंबर को इमारत का नक्शा पढ़ने की अच्छी समझ होनी चाहिए. उसे पानी की निकासी का हुनर आना चाहिए.

‘‘पर, एक कामयाब प्लंबर का सब से पहला गुण उस का अच्छा स्वभाव है. मीठा बोलना, ईमानदारी और अपने काम की अच्छी समझ उसे ग्राहक की नजर में ऊंचा उठाती है और उसे लगातार काम भी दिलवाती है.

‘‘प्लंबिंग का काम बड़ा टैक्निकल होता है, इसलिए प्लंबर का फोकस अपने काम पर रहना चाहिए. काम खत्म होने के बाद उसे अपने औजारों की अच्छी तरह सफाई करनी चाहिए, क्योंकि औजार ही प्लंबर की रोजीरोटी है. लिहाजा, उन की देखभाल बहुत जरूरी है.’’

सवाल उठता है कि किसी प्लंबर के बेसिक औजार कितने के आते हैं? इस बारे में सुरेंद्र ने बताया, ‘‘एक प्लंबर को जिन औजारों की सब से ज्यादा जरूरत पड़ती है, वे तकरीबन 3,000-4,000 रुपए तक में आ जाते हैं. पर कभी भी लोकल औजार नहीं खरीदने चाहिए.‘‘काम के दौरान कोई हादसा न हो, इस बात का खास खयाल रखना चाहिए. अपनी और ग्राहक की इमारत की सिक्योरिटी सब से ऊपर रखनी चाहिए.’’

नक्शा पढ़ना क्यों आना चाहिए? यह सवाल बड़ा अहम है और इस बारे में सुरेंद्र ने बताया, ‘‘नक्शा पढ़ कर प्लंबर को यह समझ में आता है कि रसोई किधर है और बाकी दूसरे कमरे और बाथरूम वगैरह कहां हैं. उसे सीवर की समझ होनी चाहिए और किस तरह ढलान देनी है, इस का भी पता चल जाता है.

‘‘नक्शा पढ़ने से प्लंबर ऐस्टीमेट लगा सकता है कि कितना और कैसा सामान आएगा. वह लागत का हिसाब भी लगा लेता है. आजकल प्लास्टिक की पाइप फिटिंग चलन में है, जो किफायती और मजबूत होती है.

‘‘कुलमिला कर कह सकते हैं कि प्लंबिंग का काम एक अच्छा रोजगार है, जो भविष्य में खत्म होता भी नहीं दिख रहा है. कामयाब प्लंबर देशविदेश में खूब पैसा कमा रहे हैं और इन की मांग बढ़ती ही जा रही है.’’प्लबिंग का कोर्स आईटीआई से भी कराया जाता है, जो देशभर के राज्यों में होता है. आईटीआई एक सरकारी संस्था है, जिस से हर गांवदेहात के लोग परिचित हैं. यहां से भी बहुत कम खर्च में एक साल का कोर्स कर के सरकारी नौकरी तक जाने के लिए रास्ते खुलते हैं.

आईटीआई से प्लंबिंग का कोर्स करने के लिए न्यूनतम योग्यता 10वीं पास है. कुछ प्राइवेट संस्थान कम समय का भी कोर्स कराते हैं. इस के अलावा किसी तजरबेकार नलसाज के साथ रह कर भी काम सीखा जा सकता है.

अंधविश्वासों का विश्वास करते लोग

मेरे एक परिचित का प्रिंटिंग प्रैस है. उन की मशीन का एक बहुमूल्य पार्ट गायब हो गया. मशीन के कमरे में जाने वाले बहुत थे, पर मशीन को मुख्यरूप से 3 ही कर्मचारी प्रयोग कर रहे थे. उन का प्रैस तीनों शिफ्ट चलता था. पूछताछ करने व धमकाने पर भी कर्मचारी अनजान बने थे. किन्ही कारणों से वे मामला पुलिस में देना नहीं चाहते थे. एकाएक उन को किसी ने एक बाबा का नाम बताया जो चोर कौन है यह भी बता देंगे और सामान भी दिला देंगे. वे अगले ही दिन बाबाजी के पास गए और उस के अगले ही दिन उन्होंने मुझे बताया कि वह पार्ट वहीं रखा मिल गया जहां से गायब हुआ था. वे बाबाजी का गुणगान कर रहे थे कि बिना कुछ कहे उन्होंने सब जान लिया. यहां तक कि कर्मचारियों के नाम भी बता दिए.

मुझे हैरानी हुई. मैं ने उन से विस्तार में बाबाजी से भेंट के बारे में पूछा. उन्होंने बताया कि उन्हें ले जा कर एक कमरे में बिठा दिया गया था. फिर बाबाजी के सहयोगी आए. उन्होंने उन की समस्या पूछी, फिर कागजकलम दे कर कहा कि अपनी समस्या इस कागज पर लिख दीजिए, उस के नीचे अपने इष्ट देव का नाम लिख दीजिए. फिर एक और कागज पर उस कमरे में जाने वाले सभी कर्मचारियों के नाम तथा उस के नीचे किसी फूल का नाम. फिर एक कागज पर जिन कर्मचारियों पर शक है उन के नाम तथा उस के नीचे एक फल का नाम लिखने को कहा.

फिर तीनों कागज अपनी जेब में रखने को कहा और बोले, ‘बाबाजी जब बुलाएंगे तब जाइएगा और जब कागज मांगें तो उन को दे दीजिएगा’. पर उन को हैरानी हुई जब बाबाजी ने कोई कागज नहीं मांगा, खुद ही समस्या बता दी और तीनों संदिग्ध कर्मचारियों के नाम भी बताए.

फिर उन्होंने कुछ देर ध्यान लगाया और फिर आंखें खोल कर कहा, ‘उन्होंने सब देख लिया है और किस ने चोरी की है और कहां ले गया है, यह भी देख रहा हूं. तुम जा कर कर्मचारियों को बोल दो कि बाबा ने सब देख लिया है और उन्होंने कहा है कि यदि परसों सुबह तक उस चोर कर्मचारी ने पार्ट वहीं नहीं रख दिया जहां से चुराया था तो वे परसों प्रैस में आएंगे और सब के सामने उस का नाम भी बता देंगे और सामान भी बरामद करवा देंगे. उस के बाद वह चाहे जेल जाए, चाहे पुलिस के डंडे खाए.’

यह सब सुन कर मैं ने अपने परिचित से कहा कि बाबा ने मनोवैज्ञानिक दांव खेला है और ऐसा भ्रम पैदा किया कि चोर ने चुपचाप सामान वहीं रख दिया. पर मेरे परिचित बोले कि उन्होंने मेरी समस्या और कर्मचारियों के नाम कैसे बता दिए?

मैं ने कुछ सोचते हुए उन से पूछा कि आप ने कागज पर नाम लिखा तो उन के सहयोगी ने देख लिया होगा. वे बोले कि नहीं, उस ने नहीं देखा. मैं ने कहा कि आप ने किसी मेज पर रख कर लिखा. वे बोले कि नहीं, मेज तो वहां थी ही नहीं. बाबाजी के शिष्य एक किताब लिए हुए थे. जब मैं लिखने के लिए कागज रखने के लिए कुछ ढूंढ़ रहा था तो उन्होंने वह किताब मुझे दे कर कहा, ‘इस पर रख कर लिख लो.’ मैं ने पूछा कि किताब कैसी थी. उन्होंने कहा कि पता नहीं, उस पर कवर चढ़ा था. अब सारा माजरा समझते मुझे देर न लगी.

मैं ने उन से कहा कि आप को जो किताब दी गई थी उस पर कवर चढ़ा था, उस के अंदर किताब पर एक सादा कागज लगा कर रखा गया था. उस सादे कागज पर एक कार्बनपेपर लगा दिया गया था. आप से जब समस्या व कर्मचारियों के नाम लिखवाए गए तब नीचे सादे कागज पर कार्बन की वजह से सब कौपी हो गया. नीचे, देवता, फल, फूल के नाम इसलिए लिखवाए गए कि किताब के अंदर के कागज के कवर पर लिखी कार्बन से उतरी प्रति पर लिस्टों को अलगअलग समझा जा सके.

वह व्यक्ति तो वहीं बैठा रहा, मगर किताब उस ने अंदर भिजवा दी. बाकी तो केवल मनोवैज्ञानिक दबाव डालने की बात थी. वे जानते थे कि आप चमत्कृत हो जाएंगे और कर्मचारियों को यह बताएंगे कि किस प्रकार आप के बिना कहे ही बाबाजी सब जान गए और कर्मचारियों के नाम भी बताए. आगे का काम उन की धमकी ने कर दिया.

दरअसल, हम में से बहुत से लोग पढ़ेलिखे हो कर भी इस प्रकार की छोटीछोटी तिकड़मों में विश्वास कर लेते हैं और किसी पाखंडी साधू, बाबा को सिद्धपुरुष मान बैठते हैं. कई लोग तो ऐसों के पीछे अपना तनमनधन सब लुटा बैठते हैं.

पकड़ी गई चोरी

ऐसी ही एक घटना मेरी किशोरवस्था की है. मेरे पिताजी भीमताल (जिला नैनीताल) में राजकीय नौर्मल स्कूल में प्रिंसिपल थे. एक बहुत ही प्रसिद्ध स्वनामधन्य बाबा जिन का लखनऊ में एक बड़ा मंदिर भी है, भीमताल आए. उन के आने से पहले ही छोटे से शहर में चहलपहल बढ़ गई थी. अनेक गाडि़यां, अनेक भक्त, दर्शनार्थियों की भीड़ उन के दर्शन के लिए जमा हो गई.

मेरे पिताजी आधुनिक विचारों के थे और वे इन सब समारोहों, अवसरों में नहीं जाते थे. उस दिन शाम को पिताजी व कुछ परिचित बैठे थे. एकाएक एक व्यक्ति आया, उस ने कहा, ‘बाबाजी ने राकेश को बुलाया है.’ यह मेरा नाम था. मैं उस वर्ष 9वीं कक्षा में था. मेरे पिताजी ने आगे पूछा तो उस ने कहा कि हमें कुछ पता नहीं है, हम तो आप को जानते भी नहीं. बाबाजी ने कहा कि यहां एक श्रीवास्तवजी प्रिंसिपल हैं. उन का लड़का राकेश मेरा बड़ा भक्त है. उस को बुला लाओ. सब लोग हैरान.

मुझे ले कर पिताजी, मां व कुछ परिचित भारी भीड़ के बीच बाबाजी के पास पहुंचे. बाबाजी ने मुझे अपने पास बिठाया और कुछकुछ अच्छी शिक्षाएं दीं और फिर पिताजी से कहा, ‘यह मेरा बड़ा भक्त है. इस का खयाल रखना. फिर मुझ से छोटे भाई का नाम ले कर पूछा कि वह नहीं आया. फिर कहा कि तुम 5 भाई हो. इसी प्रकार की कुछ और बातें कहीं और मुझे आशीर्वाद दे कर जाने को कहा.

सभी लोग बड़े हैरान थे. उस दिन घर में यही चर्चा चलती रही. भीमताल जैसे कसबे में यह बात जल्दी ही फैल गई कि किस प्रकार बाबाजी ने प्रिंसिपल साहब के लड़के को नाम ले कर बुला लिया और घर की भी बातें बताईं. बाबा तो अंतर्यामी हैं.

1-2 दिन बाद एक प्रशिक्षणार्थी शिक्षक पिताजी के पास किसी काम से आया. बातोंबातों ही में उस ने पूछा, ‘साहब, आप बाबाजी के पास गए थे.’ पिताजी को कुछ संदेह हुआ. उन्होंने उस से पूछा, ‘तुम गए थे क्या?’ वह बोला, ‘हां, मैं तो उन का बड़ा भक्त हूं. दर्शन करने गया था.’

पिताजी ने पूछा कि और कुछ बात हुई? उस ने कहा, ‘हां, मुझ से पूछ रहे थे कि तुम्हारे प्रिंसिपल कौन हैं, उन के परिवार में कौनकौन हैं, कितने बच्चे हैं, नाम क्या हैं. मुझे आप के बड़े दोनों बेटों के नाम याद थे, सो, मैं ने बता दिए थे.’

अब सब स्पष्ट हो गया

ऐसे ही एक अंतर्यामी बाबाजी थे जिन्होंने अपने शिष्यों के अलगअलग सांकेतिक नाम रखे थे, जैसे किसी का संतान, किसी का गृहविवाद, किसी का संपत्ति, किसी का मुकदमा. फरियादी को जिस कक्ष में बिठाया जाता था, उस में बाबाजी के कुछ अन्य शिष्य भी फरियादी बन कर बैठे रहते थे. बातोंबातों में लोगों से उन की तकलीफ जान लेते थे. फिर जब बाबाजी के पास किसी फरियादी को ले जाना होता था, तो यह व्यवस्था थी कि उन का वह शिष्य अंदर ले कर जाता जिस संबंध में समस्या होती थी. यानी अगर किसी को संतान की समस्या है तो जिस का सांकेतिक नाम संतान है वह उसे ले जाता था.

बाबाजी सामने आए फरियादी के साथ आए शिष्य के सांकेतिक नाम से तुरंत जान जाते थे कि समस्या किस बारे में है. वे भक्त को देख कर आंख बंद कर लेते. थोड़ी देर ध्यानमग्न हो कर बैठते, फिर आंखें खोल कर बड़े गंभीर शब्दों में कुछ इस प्रकार बोलते, ‘संतान, संतान की समस्या से तो सभी जूझ रहे हैं. कुछ पा कर, कुछ न पा कर. बोल, तू क्या चाहता है?’

भक्त चमत्कृत. बिना कहे बाबाजी ने सब जान लिया. बाबाजी पर उस का विश्वास जम जाता कि ऐसे चमत्कारी बाबा निश्चित ही उस की समस्या दूर करेंगे.

प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिकों, मानवशास्त्रियों जैसे रोंडा ब्रायन, जोसफ मर्फी आदि द्वारा अनेक पुस्तकों व व्याख्यानों के माध्यम से बताया गया है कि मनुष्य के मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाली विचारतरंगें भी विद्युत चुंबकीय तरंगें यानी इलैक्ट्रोमैग्नेटिक वेव्स होती हैं. वैज्ञानिकों द्वारा यह प्रतिस्थापित किया जा चुका है कि पूरा विश्व व प्रत्येक पदार्थ विद्युत चुंबकीय तरंगों से ही बना है. यदि हम किसी पदार्थ को सूक्ष्म से सूक्ष्मतर तोड़ते जाएं तो अणु, फिर परमाणु और अंत में पदार्थ नष्ट

हो जाएगा और विद्युत चुंबकीय तरंगें वातावरण में विस्तारित हो जाएंगी.

यही कारण है कि वैज्ञानिक इन विद्युत चुंबकीय तरंगों में उस पार्टिकल को ढूंढ़ रहे हैं जो बे्रन पार्टिकल या गौड पार्टिकल (ब्रह्मोस या हिग्स बोसान) है जो यह निश्चित करता है कि कब तरंग, पदार्थ के कण यानी पार्टिकल में बदल जाएगी.

इसी सिद्धांत पर यह विश्लेषण मैटाफिजिक्स के वैज्ञानिकों ने किया है कि मनुष्य का विचार जिस चीज पर सतत केंद्रित हो जाता है तथा उस की प्राप्ति का विश्वास हो जाता है, वह सृष्टि के मूल नियम आकर्षण के नियम (ला औफ अट्रैक्शन) के कारण उस की ओर आकर्षित होती है और उस लक्ष्य, वस्तु की प्राप्ति संभव हो जाती है.

मनचाहे फल की चाह में लुटते लोग

चार्ल्स हैवेल के अनुसार, ‘मनुष्य के प्रत्येक विचार की एक निश्चित आवृत्ति (फ्रीक्वैंसी) होती है. जब एक ही विचार बराबर आता रहता है तो व्यक्ति एक निश्चित फ्रीक्वैंसी लगातार सृष्टि में भेजता रहता है. यह एक चुंबकीय सिग्नल की तरह होती है जो समानांतर फ्रीक्वैंसी को ला औफ अट्रैक्शन द्वारा खींच कर ले आती है और हमारा अभीष्ट हम को प्राप्त हो जाता है’

एक उदाहरण से यह और भी अधिक स्पष्ट होगा. टीवी के भिन्नभिन्न चैनलों की अलगअलग फ्रीक्वैंसी होती है. हम टीवी के रिमोट से जो चैनल चुनते हैं वह उस की फ्रीक्वैंसी से ट्यून हो कर उसे टीवी स्क्रीन पर ले आती है.

फिल्म ‘ओम शांति ओम’ में शाहरुख  खान द्वारा बोला हुआ यह डायलौग इस तथ्य को बिलकुल स्पष्ट कर देता है, ‘जब हम पूरी शिद्दत से किसी चीज को चाहते हैं तो सारी कायनात उसे हम से मिलाने में लग जाती है.’

इस कारण, यदि किसी इच्छा या वस्तु की प्राप्ति पर निरंतर ध्यान बना रहे और मन में दृढ़विश्वास  हो कि यह तो प्राप्त होगी ही, तो उस के प्राप्ति की संभावना बहुत बढ़ जाती है.

ऊपर लिखे चमत्कारों से प्रभावित होने वाले भक्त के मन में यह विश्वास घर कर जाता है कि इतने चमत्कारी बाबाजी ने कहा है तो यह निश्चित ही हो कर रहेगा. प्रत्येक व्यक्ति की अपनी परिस्थितियां भी होती हैं परंतु फिर भी यह विश्वास काफी मामलों में मनचाहे फल की प्राप्ति करा देता है और लोग इसे बाबाजी का चमत्कार मान बैठते हैं.

वे यह नहीं समझ पाते कि वे खुद ही अपने लक्ष्य, उद्देश्य की प्राप्ति पर विश्वास रखते, बाबाजी पर विश्वास न कर स्वयं लक्ष्यप्राप्ति पर अडिग विश्वास बना कर अपने प्रयासों, उपक्रमों में लगे रहते तो भी उन को अभीष्ट प्राप्त होता ही.

एक और तथ्य जो विचारणीय है वह यह कि औसत के नियम (ला औफ एवरेजेस) के अनुसार भी जितने लोग ऐसे चमत्कारी बाबाओं के पास जाते हैं उन में लगभग 40-50 फीसदी को वैसे भी अभीष्ट फल मिल जाता है और लगभग आधे खाली हाथ भी रहते हैं.

ऐसा इसलिए भी होता है कि अधिकांश मनुष्य जिस प्रकार की फरियाद करते हैं उन में सामान्यतया पूरी हो सकने वाली मांगें भी रहती हैं, जैसे परीक्षा  में पास होना, मुकदमें में जीत, पुत्र की प्राप्ति आदि. जिस की मुराद स्वाभाविक रूप से भी पूरी हो जाती है वह उसे बाबाजी का चमत्कार मान बैठता है और उन के गुण गाता है. पर जिस की मुराद पूरी नहीं होती, उस का बाबाजी से मोह भंग हो जाता है. वह बाबाजी के पास फिर जाता नहीं. वहां पर मौजूद रहने वाली भीड़ में पुराने वही फरियादी उपस्थित रहते हैं जिन की इच्छा स्वाभाविक रूप से पूरी हो गई हो.

ऐसे में नए फरियादी व भक्त को ये लोग अपनी फलप्राप्ति के किस्से सुनासुना कर बाबाजी के प्रति और भी भरोसा जगाते रहते हैं. इन्हीं भक्तों की सौगातों, भेटों, चढ़ावों से बाबाजी की दुकान चलती है.

सकारात्मक सोच की जरूरत

हर जागरूक व्यक्ति को दूसरों को समझाने और खुद समझने की जरूरत है कि वास्तव में यह चमत्कार किसी बाबाजी का नहीं, केवल अपने खुद की पौजिटिव थिंकिंग यानी सकारात्मक सोच का है.

यदि आप बिना किसी प्रयास, उपक्रम के बैठेबैठे सबकुछ पाने की अभिलाषा रखते हैं तब तो फिर ऐसे बाबाओं, स्वामियों के पास जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं है. पर, आप अपने लक्ष्यउद्देश्य के प्रति पूरे मनोयोग व निष्ठा के साथ प्रयास करते हैं तथा लक्ष्य प्राप्ति का आप को दृढ़विश्वास है, सोतेजागते आप का विश्वास इस बात पर दृढ़ है कि यह लक्ष्य तो प्राप्त होगा ही, तो आप देखेंगे कि रास्ते बनने लगेंगे, मददगार सामने आने लगेंगे, अवसरों के द्वार खुलने लगेंगे और निश्चितरूप से सफलता आप के द्वार खड़ी होगी.

यहां शादी के लिए किया जाता है लड़की को किडनैप

हर देश और समाज में शादी की अलगअलग परंपराएं होती हैं और शादियों की इन परंपराओं और रस्मों में स्थानीय संस्कृति का बड़ा ही महत्त्व होता है. कई बार अजीबअजीब तरह की रस्में भी इन परंपराओं का हिस्सा बन जाती हैं. ऐसी ही एक अजीब परंपरा  इंडोनेशिया के सुम्बा द्वीप की है. यहां पर शादी के लिए युवती का अपहरण कर लिया जाता है. अपहरण के बाद उस के साथ शादी की जाती है.

सुम्बा द्वीप में शादी की इस अजीबोगरीब प्रथा को काविन टांगकाप कहा जाता  है. वैसे यह प्रथा अजीब तो है ही लेकिन इस के साथ ही विवादित भी ज्यादा है. इस प्रथा के अनुसार शादी के लिए इच्छुक व्यक्ति, उस के दोस्त या परिवार वाले बलपूर्वक किसी भी युवती का अपहरण कर लेते हैं. इस के बाद उस लड़की की शादी कर दी जाती है.

पिछले साल बीबीसी के माध्यम से ऐसी ही एक कहानी सामने आई थी जिस में युवती का शादी के लिए अपहरण कर लिया गया था, हालांकि ऐसा नहीं है कि इस प्रथा को ले कर पूरा सुम्बा समाज एक मत है, कई महिला अधिकार समूह लंबे समय से इस के खिलाफ अभियान चला रहे हैं और सरकार से रोक लगाने की मांग कर रहे हैं.

सरकार ने भी इस प्रथा को रोकने के लिए जरूरी कदम उठाए हैं लेकिन पिछले दिनों2 युवतियों के किडनैप होने की घटना का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल होने के बाद सरकार इसे ले कर सतर्क हो गई थी और इस पर सख्ती से रोक लगा दी थी. इस के बावजूद सुम्बा के कई हिस्सों में अभी भी यह प्रथा चल रही है.

शादी के लिए अपहरण की गई एक युवती ने अपने अपहरण की जो कहानी बताई वह मार्मिक और खौफनाक है. उस ने बताया कि कैसे वह कार के अंदर से अपने मातापिता को मैसेज करने में कामयाब रही.अपहर्त्ता उसे जहां ले कर जा रहे थे, उस घर में शादी की तैयारियां पहले ही हो चुकी थीं. वह घर उस के पिता के ही एक दूर के रिश्तेदार का था. युवती ने बताया कि वहां शादी की रस्मों के लिए तैयार महिलाएं भी उस का इंतजार कर रही थीं. उस के वहां पहुंचते ही महिलाओं ने गीत गाने शुरू कर दिए और फिर शादी के कार्यक्रम शुरू हो गए. सुम्बा सभ्यता पर 3 धर्मों की परंपराओं का पालन किया जाता है. यहां इसलाम और ईसाई धर्म के अलावा मारापू धर्म का भी पालन किया जाता है. कहते हैं कि इस में दुनिया को संतुलित रखने के लिए आत्माओं को बलियों से खुश करने की परंपरा है.

उस युवती ने बताया कि अपहर्त्ता उसे बारबार यही समझा रहे थे कि वह शादी के लिए मन से तैयार हो जाए. लेकिन महिला उस का विरोध करती रही. इस की वजह यह थी कि वह युवती किसी और से प्यार करती थी.

उस युवती  ने उस की एक बात न मानी. वह लगातार रोती रही. रोतेरोते उस का गला सूख गया और वह फर्श पर गिर गई. तब उस ने अपना सिर लकड़ी के एक बड़े पिलर पर मारा. वह चाहती थी कि इस से शायद उन लोगों को उस पर दया आ जाएगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ.अगले 6 दिन तक उसे एक तरह से एक घर में कैदी की तरह रखा गया. वह सारी रात रोती रहती थी. वह बिलकुल भी नहीं सोती थी. उसे ऐसा लग रहा था जैसे वह मर रही है. उस ने खानापीना बंद कर दिया था.

प्रथा के अनुसार यह भी मानना है कि यदि अपहरण की गई युवती खाना खा लेती है तो इस का मतलब यह होता है कि उस ने वह शादी स्वीकार कर ली है लेकिन उस युवती ने उनके घर खाना नहीं खाया. इतना ही नहीं उस ने बता दिया कि वह शादी करने के लिए राजी नहीं है.

दूसरी तरफ उस ने फोन द्वारा अपने घरवालों को जो सूचना दी थी उस के बाद घर वालों ने महिला समूह से संपर्क किया. और कहा कि वह उन की बेटी को उन के चंगुल से छुड़ाने की कोशिश करें. महिला अधिकार समूह पेरुआती ने पिछले 4 साल में महिलाओं के अपहरण की इस तरह की सरकार 7 घटनाओं को दर्ज कराया. समूह का मानना है कि इस तरह की और भी कई घटनाएं हुई होंगी. जो प्रकाश में नहीं आईं. लेकिन इनमें से केवल 3 युवतियां ही खुशकिस्मत निकलीं जो विरोध के कारण ऐसी शादी से बच निकलीं.

पेरुआती की स्थानीय प्रमुख बिंटांग पुष्पयोगा  कहती हैं कि वे शादियों में बनी रहती हैं क्योंकि उन के पास इस का कोई विकल्प नहीं होता. काविन टांगकाप कई दफा एक अरेंज मैरिज का ही रूप होता है. वे कहती हैं कि जो महिलाएं शादी तोड़ने का फैसला लेती हैं, उन्हें  बहुत समझाने की कोशिश की जाती है.

बहरहाल महिला अधिकार समूह के सहयोग से युवती को अपहर्त्ता के चंगुल से मुक्त कराया  और बाद में उस युवती के बौयफ्रैंड के साथ उस की शादी कर दी गई.

लड़कियों के लिए दोहरा मापदंड क्यों

मैं लड़की क्यों पैदा हुई? भाई के लिए टोकाटाकी नहीं? हर समय मुझे ही क्यों नसीहत दी जाती है? ये सब सवाल अधिकतर लड़कियों के मन में बगावत कर रहे होते हैं, मानसिक द्वंद्व चल रहा होता है और कई बार लड़कियां गलत कदम भी उठा लेती हैं.

दुनिया बहुत अलग है. जब लड़की कुछ गलत करती है तो सब लोग उस पर उंगली उठाते हैं. लड़की सोचने पर मजबूर हो जाती है कि उस ने क्या गलत किया, जो उसे लड़की के रूप में जन्म मिला. तुम लड़की हो, लड़कों से अच्छा नहीं कर सकती, लड़की की तरह रहो आदि. समाज यही सब कहता है. उन का समय भी अच्छा होगा जो खुद समाज में अपनी नई पहचान बनाती हैं, पर कुछ को तो घर से बाहर कदम रखते ही बहुत बड़ी सजा मिलती है.

अकसर खुद अपने घर के बड़े सुबह से शाम तक बस, यही नसीहत देते रहते हैं, ‘कभी किसी लड़के से मत बोलो,’ ‘वह तुम्हें बिगाड़ देगा,’ ‘तुम हमारी नाक कटा दोगी,’ वगैरा. लड़कियों को हमेशा ऐसी नसीहत दी जाती है और वह चुपचाप सब सहन कर लेती हैं. लड़की को कितनी मानसिक पीड़ा होती है, उसे कितना तनाव झेलना पड़ता है, शायद यह आप सोच भी नहीं सकते. आज भी अधिकांश घरों में लड़कियों पर ढेरों पाबंदियां हैं. यह क्या बलात्कार से कम है?

उत्तराखंड, काठगोदाम की ज्योति ने इस तरह की पाबंदियों से आजिज आ कर खुदकुशी कर ली, लेकिन आत्महत्या से पहले उस ने एक सुसाइड नोट लिखा जिसे पढ़ कर सब स्तब्ध रह गए. 7वीं क्लास की इस बच्ची ने नोट में लड़कियों के भीतर छिपा दर्द, लड़कालड़की के बीच भेदभाव व पाबंदियों को समाज के सामने रखने की मार्मिक कोशिश की थी. यह न सिर्फ सुसाइड नोट था, बल्कि समाज की रूढि़यों और लड़कियों की बंदिशों पर करारा तमाचा भी था. लड़की होेने के अभिशाप से ज्योति तो हमेशा के लिए बुझ गई, पर बहुत से सवाल खड़े कर गई.

आखिर क्यों मातापिता लड़की पर इतनी पाबंदियां लगाते हैं, जो उन्हें इस सोच के दायरे में रहने को मजबूर करती है और पता नहीं कब तक मजबूर करती रहेगी? इस सोच के जन्मदाता मातापिता हैं. कैसे, कब, कहां, कितना हंसना, रोना, गाना है यह सब मातापिता अपनी बेटियों को सिखाते हैं, लेकिन यही बातें वे बेटों को सिखाना भूल जाते हैं. जब भी घर में मेहमानों का आगमन होता है तो लड़की से पानी लाने को कहा जाएगा बेटे से नहीं. आखिर ऐसा क्यों?

जहां तक यह बात है कि लड़की कैसे कपड़े पहनती है़? किस समय बाहर जाती है? क्यों लड़कों से दोस्ती रखती है? क्यों जोरजोर से हंसती है? तो दरअसल, सामान्य इंसान के रूप में लड़की को स्वीकार किया जाना अभी बाकी है. आज के बदलते वैश्विक परिवेश में कोई लड़की क्या पहनती है, कैसे रह रही है, किस से मिल रही है आदि उस का पूर्णतया व्यक्तिगत मामला है और इस में हस्तक्षेप करने का, किसी को कोई अधिकार नहीं है.

ग्लैमर और फैशन

मौजूदा दौर में फैशन को ले कर मातापिता और खास कर लड़कियों में तनाव रहता है. मनोवैज्ञानिक डा. मानसी कहती हैं, ‘‘मातापिता को लड़कियों को तल्ख अंदाज के बजाय दोस्त की तरह समझाना चाहिए कि क्या सही है और क्या गलत.’’

सोच अच्छी रखें

जिंदगी के प्रति लड़कियों का रवैया उन की खुशियां तय करता है. चीजें आसानी से नहीं बदलतीं, लेकिन खुद को बदलना असहज लग सकता है.

अकसर मातापिता अपने विचारों का बोझ लड़कियां पर डाल देते हैं, जिस से वे भावनात्मक व मानसिक रूप से टूट जाती हैं और यही बिखराव उन्हें भ्रमित कर देता है. उन्हें यह समझ नहीं आता कि जिंदगी के विभिन्न कालचक्रों में कैसा रुख अख्तियार किया जाए. इस का दबाव उन के द्वारा कैरियर में लिए जाने वाले फैसलों में भी देखने को मिलता है.

क्लिनिकल साइकोलौजिस्ट डा. राणा कहते हैं, ‘‘जब मातापिता ही लड़कियों के लक्ष्यों का निर्धारण करने लगते हैं, तो लड़की का असमंजस की स्थिति में पड़ना लाजिमी है. पेरैंट्स यह नहीं समझते कि उन की बच्ची की क्षमता कितनी है. वे अपनी बच्ची को वही बनाने की कोशिश करते हैं जो उन्हें सही लगता है.

मनोवैज्ञानिक एम पी सिंह कहते हैं, ‘‘आज के दौर में उन के पास तमाम ऐसी लड़कियां आती हैं जो अपने मातापिता से संबंधों को ले कर मानसिक रूप से परेशान होती हैं. उन में से अधिकतर मांबाप की हर बात पर टोकाटाकी बरदाश्त नहीं कर पाती हैं. ऐसे में वे डिप्रैशन का शिकार हो जाती हैं. वे सोचने लगती हैं कि क्या वे कठपुतली हैं और दूसरों की उम्मीदों पर खरे उतरने में नाकाम हैं. ऐसे में दोनों के बीच विरोधाभास होता है. ऐसी स्थिति में पेरैंट्स की भूमिका काफी बढ़ जाती है. वे लड़की की मनोस्थिति को समझें और उस से दोस्त की तरह पेश आएं.’’

मातापिता कई बार कैरियर के चुनाव में भी लड़की के लिए एक बड़ी उलझन पैदा कर देते हैं. मनोवैज्ञनिक डा. राजीव मेहता कहते हैं, ‘‘मौजूदा समय में लड़कियों में इंडीविजुअलिटी बढ़ी है. ऐसे में कैरियर जैसे अहम फैसलों पर वे दखलंदाजी पसंद नहीं करतीं. वे कई बातों को नजरअंदाज कर देती हैं या फिर मातापिता की उम्मीदों के मुताबिक ही खुद को ढालने के प्रयास में अवसाद की स्थिति में आ जाती हैं.’’

डा. राजीव सवालिया लहजे में आगे कहते हैं कि बलात्कार से लोग क्या समझते हैं? बलात्कार, न सिर्फ शारीरिक बल्कि मानसिक भी होता है. लड़की को मेहरबानी कर जीने दें. उसे खुली हवा में सांस लेने दें. उसे अपनी जिंदगी के सपने पूरे करने दें. उस का मानसिक बलात्कार न होने दें.

हकीकत: विकास का बजता ढोल और मरते लोग

एक तरफ बिहार सरकार विकास का ढोल पीट रही है, वहीं दूसरी तरफ समस्तीपुर जिले के एक ही परिवार के 5 सदस्यों ने माली तंगी से ऊब कर फांसी लगा ली. मरने वालों में मनोज झा, उन की मां सीता देवी, पत्नी सुंदरमणि देवी, बेटे सत्यम और शिवम शामिल हैं. हर घटना की तरह इस कांड की भी जांच होगी. कोशिश की जाएगी कि इसे किसी तरह साबित कर दिया जाए कि यह सामूहिक खुदकुशी कांड कर्ज और माली तंगी की वजह से नहीं हुआ है. इस सिलसिले में शिक्षा और सामाजिक सरोकार से जुड़े प्रोफैसर राम अयोध्या सिंह ने बताया कि रातदिन अखबारों और अलगअलग मीडिया चैनलों के जरीए केंद्र की मोदी सरकार और बिहार की उन की सहयोगी नीतीश कुमार की सरकार अपने विकास के लंबेचौड़े दावे करती थकती नहीं.

इन के बड़बोलेपन का सिर्फ एक ही मतलब निकलता है कि भारत और बिहार विकास के मामले में दुनिया के सिरमौर हैं. भारत और बिहार के सभी बाशिंदे सुखचैन की जिंदगी बसर कर रहे हैं. एक तरफ केंद्र की मोदी सरकार धर्म और राष्ट्र की आड़ में पूरे देश को सांप्रदायिकता की आग में झोंक कर देश की सारी संपत्ति, संपदा और प्राकृतिक संसाधनों, उद्योगों और लोक उपक्रमों, कलकारखानों, कंपनियों और निगमों व आवागमन के साधनों को पूंजीपतियों और कारपोरेट घरानों के हवाले करने में जीजान से जुटी हुई है, तो दूसरी तरफ बिहार की नीतीश सरकार भी मोदी के पदचिह्नों पर चलते हुए विकास के नाम पर विनाश की गाथा लिख रही है.

पुल, पुलिया, सड़क और भवन निर्माण को छोड़ कर पूरे बिहार की खेती, वाणिज्य, व्यापार, उद्योग, शिक्षा और स्वास्थ्य, रोजगार के अवसर, पर्यटन और दूसरे सभी क्षेत्रों को बरबाद कर देने वाले नीतीश कुमार अपने बड़बोलेपन को किस आधार पर सही साबित करेंगे, जब बिहार के समस्तीपुर जिले के विद्यापतिनगर थाने में एक पूरे परिवार के 5 सदस्यों ने एकसाथ सामूहिक खुदकुशी कर अपनी जिंदगी खत्म कर दी. ये लोग गरीब थे और लाचार भी थे. गरीबी और लाचारी का दंश सहतेसहते इस कदर ऊब गए थे कि इन्होंने जीने की आस छोड़ कर जिंदगी को ही खत्म करना जरूरी समझा. क्या यह नीतीश कुमार के गाल पर औंधे विकास का तमाचा नहीं है,

जिस ने उन के विकास के सारे दावों की पोल पलभर में ही खोल कर रख दी है? जनता द्वारा निर्वाचित कोई भी सरकार क्या इतनी भी संवेदनहीन हो सकती है कि वह किसी इनसान की जिंदगी से ज्यादा अहम सड़क, पुल और पुलिया को समझे? क्या यही है राज्य के किसी मुख्यमंत्री की जनता के प्रति जिम्मेदारी और जनसमस्याओं के समाधान की उन की प्राथमिकता? दारू और बालू के गंदे खेल में बालू और दारू माफिया के संग मौज मारते हुए राज्य को विकास के झूठे सपने दिखा कर ठगने वाले नीतीश कुमार ने क्या अपनेआप को सिर्फ कुरसी तक ही सीमित नहीं कर लिया है? मुख्यमंत्री की कुरसी पर बैठे नीतीश कुमार के लिए कुरसी जनता की जिंदगी से ज्यादा खास हो गई है.

अशोक, चंद्रगुप्त मौर्य, आर्यभट्ट के माध्यम से बिहार के गौरवगान करने वाले और उसी प्राचीन बिहार की तरह आज के बिहार को बनाने का सपना दिखाने वाले नीतीश कुमार क्या यह भूल जाते हैं कि इतिहास को लौटाया नहीं जा सकता? न तो नरेंद्र मोदी प्राचीन भारत को लौटा सकते हैं और न ही वे प्राचीन बिहार को. प्राचीन गौरव का ढोल भले ही आप बजाते रहिए, पर वह लौटने वाला नहीं. इस के बजाय जरूरत है कुछ ऐसा नया करने की, जिस से बिहार की सामान्य जनता और उन की समस्याओं का निदान हो. किसी भी सरकार की सब से बड़ी जिम्मेदारी यह होती है कि वह जनता के लिए जीने के बेहतर हालात बनाए. एक ऐसी जिंदगी की गारंटी दे,

जिस पर वह गर्व कर सके. शिक्षा, स्वास्थ्य, मनोरंजन, खेलकूद, रोजगार की कमी और दम तोड़ती खेतीबारी से तिलतिल कर मरने वाले भी क्या जानेंगे कि जिंदगी क्या होती है? नीतीशजी, आप ने बिहार और बिहारियों को कहीं का नहीं छोड़ा है. अगर बिहार के बहुसंख्यक मेहनतकश लोग दूसरे राज्यों में जा कर कमाते नहीं और वहां से लाए पैसे से बिहार में अपने परिवार का पालनपोषण नहीं करते, तो आप भी अंदाजा लगा सकते हैं कि हालात तब कितने भयावह होते. आप ने बिहार को भ्रष्ट नौकरशाही, अफसर, माफिया, दलालों, ठेकेदारों और तस्करों के हाथों में सौंप दिया है. आप की सरकार भी उन की मरजी से ही चल रही है. क्या आप ने कभी ऐसी कल्पना भी की होगी कि किसी परिवार के सभी 5 सदस्य एकसाथ गरीबी और कर्ज की मार न सह सकने के चलते सामूहिक रूप से अपने प्राण त्याग दें? क्या आप ने उन के सामने आए उन हालात की कल्पना भी की होगी,

जिन हालात से मजबूर हो कर किसी परिवार ने अपनी इहलीला समाप्त कर दी हो? वैसे भी आप इंजीनियरिंग के छात्र रहे हैं और पूरी जिंदगी राजनीति की गंदी गलियों में विचरण करते रहे हैं, इसलिए आप से कभी भी यह उम्मीद नहीं की जा सकती है कि आप एक संवेदनशील इनसान की तरह बरताव करेंगे. समस्तीपुर की यह घटना कोई अपनेआप में अकेली घटना नहीं है. ऐसी घटनाएं रोजाना कहीं न कहीं घट रही हैं. हां, सभी घटनाएं सामने नहीं आ पाती हैं. लेकिन, अगर आप एक संवेदनशील इनसान हैं और थोड़ी सी भी इनसानियत बाकी है, तो अपनी जिम्मेदारी समझते हुए और कबूल करते हुए तत्काल अपने पद से इस्तीफा दे दें. यह राजनीतिक नैतिकता का न्यूनतम मानदंड है और आप तो खुद को राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण का चेला घोषित करते हुए बड़ी शान का अनुभव करते हैं. क्या राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण की शान के मुताबिक आप अपने पद से इस्तीफा देंगे?

मैं जानता हूं कि आप से यह काम नहीं होगा. वजह, आप का इतना बड़ा कलेजा नहीं है. आप लोगों ने राजनीति का ककहरा ही तिकड़म और अवसरवाद से सीखा है, न कि किसी आदर्श, संघर्ष और नैतिकता के चलते. आप जैसे लोगों के लिए राजनीति पेशा है, नौकरी है, रोजगार और व्यापार है, जिस के लिए नैतिकता, इनसानियत, मूल्यों, आदर्शों, सिद्धांतों और इनसानी संवेदनाओं का कोई मोल नहीं होता. क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि ऐसा ही कुछ किसी नेता, नौकरशाह, बड़े पूंजीपति, माफिया गिरोह, बड़े ठेकेदार या दलाल के परिवार के साथ हुआ होता, तो आप पर क्या बीतती? नीतीशजी, आप ने बिहार की जनता को दारू और बालू ही समझ रखा है,

इसलिए उन के लिए आप के पास कोई संवेदना नहीं है और न ही उन के प्रति आप का कोई फर्ज ही है. आप अपने कैबिनेट के मंत्रियों, दल के नेताओं, विधायकों, पार्षदों, सांसदों, नौकरशाहों और माफिया के साथ हर रोज जश्न मना रहे हैं. क्या उस जश्न में आप ने कभी आम लोगों की जिंदगी की पीड़ा को महसूस किया है? लाखों लोगों के परिवार आज भी कर्ज और पैसों की तंगी में रह कर अपनी जिंदगी को ढो रहे हैं. नीतीशजी, ऐसे परिवारों का सर्वे करा कर उन की जिंदगी के स्टैंडर्ड को ऊंचा उठाया जा सकता है, ताकि इन लोगों के परिवार खुदकुशी करने को मजबूर न हों.

मध्यमवर्गीय परिवार की चाह सरकारी नौकरी

देश के कई गरीब राज्यों में गरीब किसानों के घरों में जीने का मकसद एक ही होता रहा हैसेनाकी नौकरी. ब्रिटिश सरकार ने अपने राज के दौरान बड़ी भारी गिनती में हरियाणाबुंदेलखंडपंजाबमद्रास आदि से सैनिक गांवों से जमा किए थेउन्हें ट्रेनिंग दी थी और उन के बल पर दुनियाभर में अपना राज जमाया था. तब से सेना की नौकरी का फायदा देश के गरीब किसान घरों को मालूम है और सेना में होने वाली मौतों के खतरे के बावजूद लाखों जवान सेना में नौकरी पाने के लिए रिक्रूटमैंट सैंटरों में जमा होते रहे हैं.

भारतीय जनता पार्टी सरकार ने जैसे पढ़ाईरेलोंहवाईअड्डोंप्रैसअदालतोंसंसदविधानसभाओंजांच एजेंसियों का अपनी अधकचरी पौलिसियों से कचरा किया है वैसा ही कचरा सेना के साथ करने की योजना बनाई है जिस में 17.5 साल से 21 साल तक के जवानों को थलवायु और नौ सेना में

4 साल के लिए भरती किया जाएगा और 21 साल से 25 साल तक की उम्र में उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगाएक चैक पकड़ा कर जिस में एक कार तक नहीं खरीदी जा सकतीएक प्लौट तक नहीं मिल सकताएक दुकान तक नहीं खोली जा सकती.

4 साल तक इन अग्निवीरों को पकापकाया खानाबनीबनाई ड्रैसअच्छा मकानआर्मी ट्रकों में आनेजाने की सुविधा दे कर इन्हें समाज से काट कर बंदूकों की गोलियों से घेर कर रखा जाएगा और फिर उम्मीद की जाएगी कि ये उस देश में नौकरियां ढूंढ़ें जहां इन 4 सालों में इन के साथी अपनेअपने हुनर सीख चुके होंगेपढ़ाई की 2-3 बाधाएं दूर कर चुके होंगे या फिर व्यापार या किसानी में कुछ जानकार बन चुके होंगे. इन रिटायर्ड अग्निवीरों को 4 साल में सिर्फ परेड करनाअफसर का हुक्म माननाहथियार चलाना सिखाया जाएगा. ऐसी ट्रेनिंग जिस की देश को कोई जरूरत नहीं.

अगर देशभर के युवा सड़कों पर निकल कर इस नई भगवाई स्कीम को अपोज कर रहे हैं और वह कर रहे हैं जो किसान या मुसलमान करते तो उन पर बुलडोजर चलवा दिए जातेतो बड़ी बात नहीं. इस नई स्कीम से सरकार द्वारा लाखोंको चाहे हर साल सेना में नौकरी न मिलती पर उन के सपने तक चकनाचूर कर दिए. सेना की नौकरी मिलने पर भी उन का कल भरोसेमंद नहीं रहेगा और सैनिक होने पर जिंदगीभर पटरी पर रहने की उम्मीद चली जाएगी. सैनिकों से शादी करने के लिए आज लड़कियां विधवा होने के रिस्क के बावजूद तैयार हो जाती हैंक्योंकि सेनाकी नौकरी करने के बाद आर्थिक सुरक्षा मिलती रहती थी. अग्निवीरों को कोई पैंशन नहीं मिलेगीकोई हैल्थ कार्ड नहीं मिलेगाजिंदगी का कोई खूंटा नहीं रहेगा. लाखों लड़कियों के सपने भी चकनाचूर हो गए कि वे सैनिक से शादी कर के पक्की गृहस्थी बना सकेंगी.

अब शादी तो रिटायरड होने के बाद हो सकेगी और बिना पक्की नौकरी वाले को कौन लड़की अपनाएगीअगर बिहारउत्तर प्रदेशउत्तराखंडहिमाचल प्रदेशहरियाणाआंध्र प्रदेश के युवा सड़कों पर उतरे हैं तो कोई बड़ी बात नहीं क्योंकि जिन सपनों के महलों में वे रह रहे थेउन को एक ?ाटके में उन की भगवा सरकार ने चकनाचूर कर दिया. जिन्हें मुसलमानों के घर जलाने की ट्रेनिंग दी गई थीवे अब अपनी सरकार की रेलेंपोस्ट औफिस और भाजपा दफ्तर जला रहे हैं.

देश के सारे युवाओं को सेना में चाहे नौकरी नहीं मिलती पर उम्मीद तो रहती थी और अब वह भी गईक्योंकि 4 साल की नौकरी के लिए कौन मगजमारी करेगा?

 

घनी बस्ती में सैक्सी लुक: कितना दिखाएं और कितना छिपाएं

सब से ज्यादा कठनाई उन लड़कियों के सामने खड़ी होती है जो बनसंवर कर घर से निकलती हैं. उन पर ताक?ांक तो की ही जाती है, लड़कों की गंदी फब्तियों व छेड़छाड़ का शिकार भी उन्हें होना पड़ता है. क्या घनी बस्ती में ताक?ांक ज्यादा होती है? क्या ऐसी बस्ती में गहरी लिपस्टिक लगा कर निकला जा सकता है? क्या घनी बस्तियों में रहने वाली लड़कियों को घुटघुट कर जीना होगा? लड़के कमैंट करें तो कैसे जवाब दें? घनी बस्ती में घर वालों से अधिक बाहर वाले रखते हैं लड़की पर नजर? ‘जै सा देश वैसा भेष’ की कहावत के जरिए यह बताया जाता है कि समाज, वातावरण और सुविधा के अनुसार कपड़े पहनने चाहिए. मध्यवर्गीय परिवार अभी भी घनी बस्तियों में रहते हैं जहां पर घर के दरवाजे पर चारपहिया वाहन नहीं पहुंच पाता.

ऐसे में सब से बड़ी परेशानी उन लड़कियों को होती है जो फैशनेबल कपड़े पहनना चाहती हैं. उन के लिए यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि फैशनेबल कपड़े पहन कर ‘सैक्सी लुक’ कहां दिखाएं. लड़कियों को सब से अधिक गलियों में ही चलना पड़ता है. गलियों में ‘सैक्सी लुक’ दिखाने वाले कपड़े पहनने को अच्छा नहीं माना जाता है. ऐसे में सवाल उठता है कि कहां दिखाएं? ‘सैक्सी लुक’ वहां दिखाएं जहां जरूरी हो. गलियों में ‘सैक्सी लुक’ न दिखाएं. घनी बस्ती में रहती हैं तो सैक्सी लुक को वहां ही दिखाएं जहां जरूरी है, गली में नहीं. इस विचार के पीछे की वजह भी ‘जैसा देश वैसा भेष’ की कहावत वाली ही है. घनी बस्तियों में रहने वालों की मानसिकता अभी भी वही है कि

‘सैक्सी लुक’ को देख कर छींटाकशी होती है, सीटियां बज जाती हैं. कई बार इस से आगे बढ़ कर आपराधिक घटना भी घट जाती है, जिस की वजह से जाति और धर्म के ?ागड़े भी शुरू हो जाते हैं. शायद यही वजह है कि तर्क ऐसे दिए जाते हैं कि घनी बस्ती में सैक्सी लुक वहीं दिखाएं जहां जरूरी हो, गलियों में नहीं. यह एक तरह का प्रतिबंध है और कानून व्यवस्था पर सवाल भी है. रूढि़वादी समाज इन मुद्दों को छोड़ कर केवल लड़की से ही उम्मीद कर रहा है कि वह सुधर जाए, सावधानी बरते जिस से गलियों में लड़की के सैक्सी लुक देख कर अपराध करने की मानसिकता न बने. कई बार रेप के मामलों में भी यह तर्क दिया जाता है कि लड़की ने ही गलत पहनावा पहना था,

इस कारण रेप हो गया. यह तर्क पूरी तरह से सही नहीं है. कई बार रेप का शिकार वे लड़कियां हो जाती हैं जो बहुत ही शालीन कपड़े पहनती हैं. बच्चियों के साथ भी रेप और छेड़छाड़ की घटनाएं हो जाती हैं. बच्चों के साथ यौन अपराध कोई नया विषय नहीं है. क्या घनी बस्ती में ताक?ांक ज्यादा होती है? घनी बस्ती में ताकी ज्यादा होती है. इस की वजह यह है कि इस के अवसर यहां ज्यादा होते हैं. घर छोटे होते हैं. आपस में मिले होते हैं. घर के दरवाजे सीधे गली में खुलते हैं. खिड़कियों के खुले होने पर घर के अंदर तक दिख जाता है. घनी बस्ती में आमतौर पर खाली लड़के गलियों में ही खड़े होते हैं. जिन घरों में लड़कियां होती हैं वहां ज्यादा ही भीड़ लगी होती है. देररात तक गलियों में भीड़ रहती है. छींटाकशी और ताक?ांक के लिए केवल गलियों ही नहीं, छतों का भी पूरा इस्तेमाल होता है. गली के लड़कों को पता होता है कि किस घर की लड़की किस समय स्कूलकालेज या बाजार जाती है. कब उस के घर में कौन रहता है. उस का दोस्त कौन है. उस के भाई का दोस्त कौन है.

अगर छत पर सूखते लड़कियों के कपड़े हवा में उड़ कर गली या फिर दूसरे की छत पर पहुंच जाएं तो ही लड़कों के दिल खुश हो जाते हैं. आजकल किसी न किसी तरह से लड़कियों के मोबाइल नंबर हासिल कर लिए जाते हैं. इस के बाद उन से संपर्क करने का काम किया जाता है. गलियों में रहने वाले कई बार घरेलू मदद के बहाने भी करीब आने की कोशिश करते हैं. कई बार लड़की का पीछा तक होता है. लड़की से ताक?ांक का मकसद केवल उस के करीब आने का होता है. लखनऊ की रहने वाली मंतशा कहती है, ‘‘घनी बस्तियों में गली ही नहीं, छतें भी आपस में मिली होती हैं. रात में सोते समय सब से अधिक डर रहता है. कहीं कोई अपनी छत से फांद कर न आ जाए और छेड़खानी करने लगे.

छत पर धूप या हवा खाने जाओ तो लोग घूरते रहते हैं. छतों से ही कमैंट करते हैं. छतों पर इस तरह की घटनाएं बहुत होती हैं.’’ क्या ऐसी बस्ती में गहरी लिपस्टिक लगा कर निकला जा सकता है? गहरे रंग की लिपस्टिक को ले कर भी घनी बस्ती में रहने वालों की सोच अलग होती है. इस का प्रयोग करने वाली लड़कियों को फैशनेबल माना जाता है. घनी बस्ती में रहने वालों की सोच यह होती है कि ऐसी लड़कियां सहज और सरल होती हैं. छींटाकशी करने पर भी केवल सुन कर चली जाती हैं. जवाब नहीं देती हैं. इस वजह से लड़कियां भी गहरे रंग की लिपस्टिक लगाने से बचती हैं. ऐसी लड़कियों पर लड़के ज्यादा निगाह रखते हैं. घरपरिवार भी लड़कियों को यही सम?ाता है कि वह इस तरह लिपस्टिक लगा कर बाहर न जाया करे. नौबस्ता, लखनऊ की रहने वाली निशा कहती है, ‘‘हम लोग जब घर से बाहर निकलती हैं तो जाहिर सी बात है कि मेकअप कर के निकलते हैं.

दूसरों की तरह हमारा मन भी करता है कि हम भी सुंदर दिखें. घनी बस्ती और तंग गलियों में रहने वाले लड़कों के पास आवारागर्दी करने का समय अधिक होता है. वे हमारी ड्रैस और मेकअप पर भद्दे कमैंट करते हैं. इस को ले कर तमाम बार महल्ले में ?ागड़ा भी हो जाता है पर कोई सुधरने को तैयार नहीं.’’ क्या घनी बस्तियों में रहने वाली लड़कियों को घुटघुट कर जीना होगा? आज के दौर में घनी बस्ती में रहने वाली मध्य और कमजोर वर्ग की लड़कियां भी खुले आसमान में जीना चाहती हैं. उन को यह पता होता है कि फैशन की दुनिया क्या होती है. जब तक टिकटौक चल रहा था, बहुत सारी छोटे शहरों की लड़कियां अपने वीडियो बना कर उस पर पोस्ट कर रही थीं.

वहां वे अपने मन की मस्ती करती थीं. इस की वजह यह थी कि वहां टीकाटिप्पणी नहीं होती थी. वहां लोग वीडियो को देखते थे. तारीफ करते थे. उस में लड़की को भी खुशी मिलती थी. अच्छी बात यह थी कि लड़की को कोई पहचानता नहीं था, सो, उस के घरवालों को पता नहीं चलता था. टिकटौक के बंद होने के बाद अब फेसबुक और इंसटाग्राम की रील पर लड़कियां यह हुनर दिखाती हैं. सोशल मीडिया पर वे खुले आसमान पर उड़ती हैं. असल जीवन में उन को अपनी मनमरजी करने को नहीं मिलती. इस कारण यहां रहने वाली लड़कियां घुटघुट कर जीती हैं. लखनऊ के मडियांव इलाके की रहने वाली रूबी खान कहती है, ‘‘महल्ले में हमें बहुत संभल कर रहना पड़ता है.

घर के बाहर खुली हवा में निकलने से रोका जाता है. हम अपना गेट बंद कर के छोटेछोटे कमरों में रहने को मजबूर होते हैं. कालोनियों की तरह दिन या रात में टहलने नहीं जा सकते. बाहर जाने के लिए किसी न किसी बहाने का इंतजार करते रहते हैं.’’ लड़के कमैंट करें तो कैसे जवाब दें? घनी बस्ती में रहने वाली लड़कियां अब चुप नहीं रहती हैं. लड़कियों का एक वर्ग ऐसा बनने लगा है जो अब कमैंट करने वाले लड़कों को जवाब देने लगा है. इस के बाद भी लड़कियों का एक बड़ा वर्ग ऐसा है जो कमैंट को सुन कर चुप रहता है. लड़कियों को सम?ाना चाहिए कि वे कमैंट करने वाले लड़कों का जवाब उन के मुंह पर दें. अगर कोई नशे में है तो उस से भिड़ें नहीं, उस की शिकायत घर, परिवार और पुलिस में करें. एक बार पुलिस तक बात जाने के बाद लड़के ऐसी हरकत करने से बचने लगते हैं. लखनऊ की रहने वाली इकरा कहती है, ‘‘हमें ऐसे लड़कों के कमैंट का जवाब तो देना चाहिए.

लेकिन डर लगता है. ऐसा कई बार हो चुका है कि हम लोगों ने जब विरोध किया तो लड़के वालों के घर वालों ने हमारे ऊपर ही इल्जाम लगा कर हमें बेइज्जत करने का काम किया.’’ घनी बस्ती में घर वालों से अधिक बाहर वाले रखते हैं लड़की पर नजर कहते हैं कि घर की लड़की के चालचलन की जानकारी घर वालों तक को बाहर वालों से मिलती है. इस की वजह यही है कि घनी बस्ती में रहने वाली लड़की पर गलीमहल्ले के लोग ज्यादा नजर रखते हैं. इन में से तमाम लोग किसी न किसी बहाने उस के घर पर यह बात जरूर पहुंचा देते हैं कि लड़की कहां, किस के साथ है, क्या कर रही है. लड़कियां जहां भी घूमने जाती हैं तो उन का प्रयास होता है कि महल्ले वालों से उन की मुलाकात न हो. गलियों में होने लगा है परदा? एक दौर था जब लड़कियां परदा करने से मना करती थीं.

परदा करने वाले को प्रगतिशील विचारों का नहीं माना जाता था. अब दौर बदल गया है. आजकल लड़कियां खुद से परदा करने लगी हैं. इस की वजह तो गरमी से स्किन को बचाने को बताया जाता है लेकिन असल वजह घनी बस्ती में लोगों की नजर से बचने को माना जाता है. घनी बस्तियों में रहने वाली लड़कियां छींटाकशी से बचने के लिए परदा करने लगी हैं. अब स्कूलों में भी इसी वजह से लड़कियां परदा कर के जाने लगी हैं. गलियों से परदा कर के निकलती हैं. बाहर जाते ही वे परदा उतार देती हैं. इस वजह से गलियों में निकलने के लिए लड़कियां परदा करने लगी हैं.

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