Hindi Story : लालच – कहानी जोगवा और सुखिया की

Hindi Story : नीचे से ऊपर तक पानी में भीगे जोगवा को घर के भीतर घुसते देख कर सुखिया चिल्लाई, ‘‘बाहर देह पोंछ कर अंदर नहीं आ सकते थे? सीधे घर में घुस आए. यह भी नहीं सोचा कि घर का पूरा फर्श गीला हो जाएगा.’’

जोगवा को सुखिया की बात पर गुस्सा तो आया, पर उसे चुप रहने का इशारा कर के वह कोने में पड़े एक पीढ़े पर बैठ गया.

पलभर खोजी नजरों से चारों ओर देख कर जोगवा ने अपनी धोती थोड़ी ढीली की और उस की कमर में बंधा मिट्टी का लोंदा फर्श पर गिर पड़ा.

‘‘यह क्या है?’’ सुखिया ने धीमी आवाज में पूछा.

‘‘मालिक के कुएं में बालटी गिर गई थी. उसे निकालने के लिए जब मैं कुएं में उतरा, तो यह चीज हाथ लगी. मैं सब की नजरों से छिपा कर ले आया हूं,’’ जोगवा बोला.

मिट्टी के उस लोंदे को टटोल कर सुखिया ने पूछा, ‘‘पर यह है क्या?’’

जोगवा के चेहरे पर हलकी सी मुसकान फैल गई. उस ने कहा,  ‘‘तुम देखोगी, तो खुशी से पागल हो जाओगी… समझी?’’ इतना कह कर उस ने कोने में रखे घड़े के पानी से कीचड़ में लिपटी उस चीज को रगड़रगड़ कर साफ किया, तो उस के हाथ में एक पायल झलकने लगी.

‘‘अरे सुखिया, देख यह चांदी की है. कितनी मोटी और वजनदार है. असली चांदी की लगती है,’’ जोगवा अपनी खुशी संभाल नहीं पा रहा था.

चांदी की पायल देख कर सुखिया खुशी से झूम उठी. वह जोगवा का सिर सहलाते हुए बड़े प्यार से बोली, ‘‘क्या इस की जोड़ी नहीं थी?’’

‘‘पानी के अंदर तो लगा था कि कुछ और भी है, पर तब तक मेरा दम घुटने लगा और मैं पानी के अंदर से ऊपर आ गया,’’ जोगवा ने बताया.

सुखिया जोगवा की कमर में हाथ डाल कर बड़े प्यार से बोली, ‘‘सुनोजी, मेरा मन कहता है कि तुम इस की जोड़ी जरूर ला दोगे. देखो न, यह मेरे पैर में कितनी अच्छी लग रही है…’’ सुखिया पायल को एक पैर में पहन कर बोली, ‘‘मैं इसे पहन कर अपने मायके जाऊंगी और जो लोग तुम्हें भुक्खड़ कह कर खुश होते थे, तुम्हारा मजाक उड़ाते थे, उन्हें दिखा कर बताऊंगी कि मेरा घरवाला कंगाल नहीं है. इस से तुम्हारी इज्जत और भी बढ़ जाएगी.’’

‘‘ठीक है, मैं एक बार और कुएं में उतरूंगा. पर दिन के उजाले में नहीं, बल्कि रात के अंधेरे में… जब सारा गांव गहरी नींद में सोया होगा,’’ जोगवा बोला, तो सुखिया के होंठों पर हंसी फैल गई.

आखिरकार रात हो गई. सारा गांव सन्नाटे में डूबा हुआ था. गहरी नींद में सोए गांव को देख कर जोगवा घर से बाहर निकला. उस के पीछेपीछे सुखिया भी रस्सी ले कर निकली. दोनों धीरेधीरे मालिक के घर की ओर बढ़े.

कुएं के करीब पहुंचने पर दोनों ने पलभर रुक कर इधरउधर देखा. कहीं कुछ नहीं था. सुखिया ने कुएं में रस्सी डाल दी.

कुएं में उतरने से पहले जोगवा सुखिया से बोला कि वह रस्सी को अपनी कमर में लपेट ले, ताकि हाथ से अचानक छूटने का खतरा न रहे.

सुखिया ने वैसा ही किया. रस्सी के एक छोर को अपनी कमर से लपेट  कर उस ने दोनों हाथों से उसे कस कर पकड़ लिया.

जोगवा रस्सी के सहारे धीरेधीरे कुएं के अंधेरे में गुम हो गया. वह अथाह पानी में जोर लगा कर अंदर धंसता चला गया. कीचड़ से भरे तल को उस ने रौंद डाला. कंकड़पत्थर और न जाने क्याक्या उस के हाथ में आए, पर पायल जैसी कोई चीज हाथ न लगी.

जब जोगवा का दम घुटने लगा, तब जल्दीजल्दी हाथपैर मार कर वह पानी की सतह पर आया और कुएं का कुंडा पकड़ कर दम लेने लगा.

सुखिया को कुएं के भीतर से जोगवा के पानी के ऊपर उठने की आहट मिली, तो उस की बांछें खिल उठीं. वह रस्सी के हिलने का इंतजार करने लगी. लेकिन जब अंदर से कोई संकेत नहीं मिला, तब वह निराश हो गई.

कुछ देर दम भरने के बाद जोगवा फिर पानी में घुसा. इधर अंधेरे में कुछ दूरी पर कुत्तों के भूंकने की आवाजें सुनाई पड़ीं.

सुखिया का कलेजा कांप उठा. उस ने कुएं में झुक कर जोगवा को आवाज लगाई, पर कुएं से उसी की आवाज लौट आई. उस का जी घबराने लगा.

तभी अचानक मालिक के मकान का दरवाजा खुला. लालटेन की धीमी रोशनी कुएं के चबूतरे पर पड़ी.

‘‘कौन है? वहां कौन खड़ा है?’’ दरवाजे के पास से कड़कदार आवाज आई.

मालिक की आवाज सुन कर सुखिया का दिल दहल उठा. उस के हाथपैर कांपने लगा.

दहशत में न जाने कैसे सुखिया की कमरे से बंधी रस्सी छूट कर हाथ में आ गई और हाथ से छूट गई. जोगवा के ऊपर आने का सहारा कुएं के अंधेरे में गुम हो गया.

मालिक लालटेन ले कर कुएं तक आए. वहां उन्हें कोई दिखाई नहीं पड़ा. इधरउधर झांक कर वे लौट गए.

इधर जोगवा ने पानी से ऊपर आ कर जैसे ही रस्सी पकड़ कर दम लेना चाहा, तो रस्सी ऊपर से आ कर उस की देह में सांप की तरह लिपट गई.

रस्सी उस के लिए नागपाश बन गई और वह पानी में डूबनेउतराने लगा. हाथपैर मारना मुहाल हो गया. धीरेधीरे पानी में उठने वाला हिलोर शांत हो गया.

सुखिया अंधेरे में गिरतीपड़ती घर पहुंची. डर से उस का पूरा शरीर कांप रहा था. सांस धौंकनी की तरह चल रही थी. मालिक के हाथों जोगवा के पकड़े जाने के डर ने उसे रातभर सोने नहीं दिया.

पौ फटते ही मालिक के कुएं के  पास भीड़ जमा हो गई. सुखिया को किसी ने आ कर जब जोगवा के डूब जाने की खबर दी, तो वह पछाड़ खा कर गिर पड़ी.

गांव वालों ने जोगवा की लाश को कुएं से निकाल कर आंगन में रख दिया.

सुखिया रोतेरोते जब जोगवा की लाश के पास गई, तो उस की आंखें  उस के हाथ में दबी किसी चीज पर अटक गईं.

सुखिया ने जोगवा के हाथ को अपने हाथ में ले कर जब पायल की रुनझुन की आवाज सुनी, तो उस का कलेजा फट गया.

उस चीज को मुट्ठी में भींच कर सुखिया दहाड़ मार कर रोने लगी. उस के लालच ने जोगवा की जान ले ली थी.

Hindi Story : मुरदा – आखिर क्या हुआ उस लाश का

Hindi Story : भीड़ में से कोई चिल्लाया, ‘अरे जल्दी बुलाओ… 108 नंबर डायल करो… यह तो मर जाएगा…’

कुछ लोग वहां इकट्ठा हो गए थे. मैं ने अपनी गाड़ी के ब्रेक लगाए और लोगों से भीड़ की वजह पूछी, तो पता चला कि मामला सड़क हादसे का है.

मैं भी गाड़ी से उतर कर भीड़ में घुस कर देखने लगा. तकरीबन 50-55 साल का एक आदमी बुरी तरह घायल सड़क पर पड़ा तड़प रहा था.

लोग कह रहे थे कि वह कोई गरीब आदमी है, जो कुछ दिनों से इस इलाके में घूम रहा था. कोई कार वाला उसे टक्कर मार कर चला गया.

सब लोग इधरउधर की बातें कर रहे थे, पर जमीन पर पड़े उस आदमी के हक में कुछ भी नहीं हो रहा था. न अभी तक कोई एंबुलैस वहां आई थी, न ही पुलिस.

मैं ने फोन कर के पुलिस को बुलाया. हादसा हुए तकरीबन आधा घंटा बीत चुका था और उस आदमी का शरीर बेदम हुआ जा रहा था.

तभी सायरन बजाती एंबुलैंस वहां आ पहुंची और उसे अस्पताल ले जाने का इंतजाम हो गया.

एंबुलैंस में बैठे मुलाजिम ने किसी एक आदमी को उस घायल आदमी के साथ चलने के लिए कहा, लेकिन साथ जाने के लिए कोई तैयार न हुआ.

मुझे भी एक जरूरी मीटिंग में जाना था. उधर मन जज्बाती हुआ जा रहा था. मैं पसोपेश में था. मीटिंग में नहीं जाता, तो मुझे बहुत नुकसान होने वाला था. पर उस बेचारे आदमी के साथ नहीं जाता, तो बड़ा अफसोस रहता.

मैं ने मीटिंग में जाने का फैसला किया ही था कि पुलिस इंस्पैक्टर, जो मेरी ही दी गई खबर पर वहां पहुंचा था, ने मुझ से अस्पताल और थाने तक चलने की गुजारिश की. मुझ से टाला न गया. मैं ने अपनी गाड़ी वहीं खड़ी की और एंबुलैंस में बैठ गया.

अस्पताल पहुंचतेपहुंचते उस आदमी की मौत हो गई थी.

मरने वाले के हुलिएपहनावे से उस के धर्म का पता लगाना मुश्किल था. बढ़ी हुई दाढ़ी… दुबलापतला शरीर… थकाबुझा चेहरा… बस, यही सब उस की पहचान थी. उस की जेब से भी ऐसा कुछ न मिला, जिस से उस का नामपता मालूम हो पाता. अलबत्ता, 20 रुपए का एक गला हुआ सा नोट जरूर था.

अस्पताल ने तो उस आदमी को लेने से ही मना कर दिया. पुलिस भी अपनी जान छुड़ाना चाहती थी.

इंस्पैक्टर ने मेरी ओर देखते हुए कहा, ‘‘भाईसाहब, पंचनामा तो हम कर देते हैं, पर आप भी जानते हैं कि सरकारी इंतजाम में इस का अंतिम संस्कार करना कितना मुश्किल है. क्यों न आप ही अपने हाथों से यह पुण्य का काम लें और इस का अंतिम संस्कार करा दें?’’

‘‘क्यों नहीं… क्यों नहीं,’’ कहते हुए मैं ने हामी भर दी.

मन ही मन मैं ने इस काम पर आने वाले खर्च का ब्योरा भी तैयार कर लिया था. मेरे हिसाब से इस में कुछेक हजार रुपए का ही खर्चा था, जिसे मैं आसानी से उठा सकता था. सो, मैं इस काम के लिए तैयार हो गया.

इस तरह पुलिस और अस्पताल की जिम्मेदारी मैं ने अपने ही हाथों या कहें कि अपने कंधों पर डाल ली थी.

‘‘अब मुझे क्या करना होगा?’’ मैं ने इंस्पैक्टर से पूछा.

इंस्पैक्टर ने कहा कि मैं इस मुरदा शरीर को श्मशान घाट ले जाऊं. उन्होंने मुझे एक फोन नंबर भी दिया, जिस पर मैं ने बात की और यह सोच कर निश्चिंत हो गया कि अब सब जल्दी ही निबट जाएगा.

मेरे कहने पर ड्राइवर बताए हुए पते पर एंबुलैंस ले गया. श्मशान घाट पहुंचते ही मैं उस के संचालक से मिला और उस लाश के अंतिम संस्कार के लिए कहा.

पंचनामे में उस आदमी का कोई परिचय नहीं था, सिर्फ हुलिए का ही जिक्र था. संचालक ने मुझ से जब यह पूछा कि परची किस नाम से काटूं और कहा कि इस के आगे की जिम्मेदारी आप की होगी, तो मैं डर गया.

मैं ने उसे बताया, ‘‘यह मुरदा लावारिस है. मैं तो बस यह पुण्य का काम कर रहा हूं, ताकि इस की आत्मा को शांति मिल सके…’’

इस से आगे मैं कुछ बोलता, इस से पहले ही पीछे से आवाज आई, ‘‘भाई, यह लाश तो किसी मुसलिम की लगती है. इस की दाढ़ी है… इस का हुलिया कहता है कि यह मुसलिम है… इसे आग में जलाया नहीं जा सकता. बिना धर्म की पहचान किए हम यह काम नहीं करेंगे… आप इसे कब्रिस्तान ले जाइए.’’

यह बात सुनते ही वहां मौजूद तकरीबन सभी लोग एकराय हो गए.

समय बीतता जा रहा था. बहुत देर हो चुकी थी, इसलिए मैं ने भी उसे कब्रिस्तान ले जाना ही मुनासिब समझा.

मैं ने उन से कब्रिस्तान का पता पूछा और एंबुलैंस ड्राइवर से उस बेजान शरीर को नजदीक के कब्रिस्तान ले चलने को कहा.

मैं मन ही मन बहुत पछता रहा था. हर किसी ने इस मुसीबत से अपना पीछा छुड़ाया, फिर मैं ही क्यों यह बला मोल ले बैठा. खैर, अब ओखली में सिर दे ही दिया था, तो मूसल तो झेलना ही था.

कब्रिस्तान पहुंचते ही वहां मौजूद शख्स बोला, ‘‘पहले यह बताइए कि यह कौन सी मुसलिम बिरादरी का है? इस का नाम क्या है?’’

मैं सन्न था. यहां भी बिरादरी?

मैं ने उन्हें बताया, ‘‘मैं इन सब चीजों से नावाकिफ हूं और मेरा इस मुरदे से कोई वास्ता नहीं, सिवा इस के कि मैं इसे लावारिस नहीं छोड़ना चाहता.’’

पर इन सब बातों का उस आदमी पर कोई असर नहीं हुआ. मुझ से पीछा छुड़ाने के अंदाज में उस ने कहा, ‘‘भाईजान, मालूम हो कि यहां एक खास बिरादरी ही दफनाई जाती है, इसलिए पहले इस के बारे में मुकम्मल जानकारी हासिल कीजिए.’’

मैं ने हाथ जोड़ते हुए कहा, ‘‘यह मुरदा है और इसे मुसलिम बताया गया है. आप मेरी और इस बेजान की मदद कीजिए. आप को सवाब मिलेगा.’’

पर सवाब की चिंता किसे थी? उस आदमी ने लाश दफनाने से साफ मना कर दिया और इस तरह से एक बार फिर मुझे उस लाश को दूसरे कब्रिस्तान में ले जाने को मजबूर कर दिया गया.

इस बीच मुझे समाज की खेमेबाजी का चेहरा साफसाफ नजर आ गया था.

अब मैं दूसरे कब्रिस्तान पहुंच चुका था. वहां एक बुजुर्ग मिले. उन्हें मैं ने पूरा वाकिआ सुनाया. वे सभी बातें बड़े इतमीनान से सुन रहे थे और बस यही वह चीज थी, जो इस घड़ी मेरी हिम्मत बंधा रही थी, वरना रूह तो मेरी अब भी घबराई हुई थी.

जिस का डर था, वही हुआ. सबकुछ सुन कर आखिर में उन्होंने भी यही कहा, ‘‘मैं मजबूर हूं. अगर आदमी गैरमुसलिम हुआ और मेरे हाथों यह सुपुर्द ए खाक हो गया, तो यह मेरे लिए गुनाह होगा, इसलिए पहले मैं इस का शरीर जांच कर यह पुख्ता तो कर लूं कि यह मुसलिम है भी या नहीं.’’

उन्होंने जांच की और असहज हो कर मेरे पास आए. गहरी सांस छोड़ते हुए वे बोले, ‘‘माफी कीजिएगा जनाब, यह तो मुसलिम नहीं है.’’

उन के इन लफ्जों से मेरा सिर चकराने लगा था. एक तरफ रस्मों की कट्टरता पर गुस्सा आ रहा था, तो दूसरी तरफ अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मार कर इस पुण्य कमाने की इच्छा पर मैं खूब पछता रहा था.

कितने आडंबर में जीते हैं हम. एक मरे हुए आदमी के धर्म के प्रति भी इतनी कट्टरता? काश, हम आम जिंदगी में ऐसे आदर्शों का लेशमात्र भी अपना पाते.

मैं थकान और गुस्से से भर चुका था. उस मुरदा शरीर के साथ मैं सीधा पुलिस स्टेशन पहुंचा और अपना गुस्सा उस इंस्पैक्टर के सामने उगल दिया, जिस ने मुझे तकरीबन फुसला कर यह जिम्मेदारी सौंपी थी.

इंस्पैक्टर ने मेरे कंधे पर हाथ रखा और बोला, ‘‘एक ही दिन में थक गए आप? यहां तो यह हर रोज का तमाशा है. आप घर जाइए, इसे हम ही संभालेंगे.’’

मैं हैरान था कि यह खाकी वरदी सब्र और हिम्मत के रेशों से बनी है क्या? मैं माफी मांगते हुए वहां से विदा हुआ.

मैं अगले 2 दिन तक परेशान रहा कि उस लावारिस मुरदे का आखिर क्या हुआ होगा.

यह सोच कर मैं बेचैन होता रहा और तीसरे दिन फिर पुलिस स्टेशन पहुंच गया.

इंस्पैक्टर साहब मुझे देखते ही पहचान गए. शायद वे मेरी हालत और मेरी जरूरत समझ गए थे. उन्होंने अपने सिपाही की तरफ इशारा किया, ‘‘आप इन से जानकारी ले सकते हैं.’’

सिपाही ने बताया कि वह लाश अस्पताल के मुरदाघर में रखवा दी गई थी. उस ने एक कागज भी दिया, जिसे दिखा कर मुझे अस्पताल के मुरदाघर में जाने की इजाजत मिली.

मुरदाघर पहुंचने पर मैं ने देखा कि वहां ऐसी कई लाशें रखी थीं. उन सब के बीच मुझे अपने लाए हुए उस मुरदे को पहचानने में जरा भी समय नहीं लगा.

बदबू से भरे उस धुंधलके में वह मुरदा अभी भी एक मैली सी चादर की ओट में लावारिस ही पड़ा था. सरकारी नियम के हिसाब से उस लाश का उसी दिन दाह संस्कार किया जाना था. मैं तो यह भी पूछने की हिम्मत न कर पाया कि उसे दफनाया जाएगा या जलाया जाएगा.

मैं ठगा सा अपनी गाड़ी की तरफ चला जा रहा था.

Hindi Kahani : बहिष्कार – दीपक के किस बात से शर्मा जी के कान खड़े हो गये

Hindi Kahani : ‘‘महेश… अब उठ भी जाओ… यूनिवर्सिटी नहीं जाना है क्या?’’ दीपक ने पूछा.

‘‘उठ रहा हूं…’’ इतना कह कर महेश फिर से करवट बदल कर सो गया.

दीपक अखबार को एक तरफ फेंकते हुए तेजी से बढ़ा और महेश को तकरीबन झकझोरते हुए चीख पड़ा, ‘‘यार, तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है… रातभर क्या करते रहते हो…’’

‘‘ठीक है दीपक भाई, आप नाश्ता तैयार करो, तब तक मैं तैयार होता हूं,’’ महेश अंगड़ाई लेता हुआ बोला और जल्दी से बाथरूम की तरफ लपका.

आधा घंटे के अंदर ही दीपक ने नाश्ता तैयार कर लिया. महेश भी फ्रैश हो कर तैयार था.

‘‘यार दीपू, जल्दी से नाश्ता कर के क्लास के लिए चलो.’’

‘‘हां, मेरी वजह से ही देर हो रही है जैसे,’’ दीपक ने तंज मारा.

दीपक की झल्लाहट देख महेश को हंसी आ गई.

‘‘अच्छा ठीक है… कोई खास खबर,’’ महेश ने दीपक की तरफ सवाल उछाला.

दीपक ने कहा, ‘‘अब नेता लोग दलितों के घरों में जा कर भोजन करने लगे हैं.’’

‘‘क्या बोल रहा है यार… क्या यह सच?है…’’

‘‘जी हां, यह बिलकुल सच है,’’ कह कर दीपक लंबी सांस छोड़ते हुए खामोश हो गया, मानो यादों के झरोखों में जाने लगा हो. कमरे में एक अनजानी सी खामोशी पसर गई.

‘‘नाश्ता जल्दी खत्म करो,’’ कह कर महेश ने शांति भंग की.

अब नेताओं के बीच दलितों के घरों में भोजन करने के लिए रिकौर्ड बनाए जाने लगे हैं. वक्तवक्त की बात है. पहले दलितों के घर भोजन करना तो दूर की बात थी, उन को सुबह देखने से ही सारा दिन मनहूस हो जाता था. लेकिन राजनीति बड़ेबड़ों को घुटनों पर झुका देती है.

‘‘भाई, आप को क्या लगता है? क्या वाकई ऐसा हो रहा है या महज दिखावा है? ये सारे हथकंडे सिर्फ हम लोगों को अपनी तरफ जोड़ने के लिए हो रहे हैं, इन्हें दलितों से कोई हमदर्दी नहीं है. अगर हमदर्दी है तो बस वोट के लिए…’’

दीपक महेश को रोकते हुए बोला, ‘‘यार, हमेशा उलटी बातें ही क्यों सोचते हो? अब वक्त बदल रहा है. समाज अब पहले से ज्यादा पढ़ालिखा हो गया है, इसलिए बड़ेबड़े नेता दलितों के यहां जाते हैं, न कि सिर्फ वोट के लिए, समझे?’’

‘‘मैं तो समझ ही रहा हूं, आप क्यों ऐसे नेताओं का पक्ष ले रहे हैं. चुनाव खत्म तो दलितों के यहां खाने का रिवाज भी खत्म. फिर जब वोट की भूख होगी, खुद ही थाली में प्रकट हो जाएंगे, बुलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी.’’

दीपक बात को बीच में काटते हुए बोला, ‘‘सुन महेश, मुझे कल सुबह की ट्रेन से गांव जाना है.’’

‘‘क्यों? अचानक से… कौन सा ऐसा काम पड़ गया, जो कल जाने की बात कर रहा है? घर पर सब ठीक तो हैं न?’’ महेश ने सवाल दागे.

‘‘हां, सब ठीक हैं. बात यह है कि गांव के शर्माजी के यहां तेरहवीं है तो जाना जरूरी है.’’

महेश बोला, ‘‘दीपू, ये वही शर्माजी हैं जो नेतागीरी करते हैं.’’

‘‘सही पकड़े महेश बाबू,’’ मजाकिया अंदाज में दीपू ने हंस कर सिर हिलाया.

अगले दिन दीपक अपने गांव पहुंच गया. उसे देखते ही मां ने गले लगाने के लिए अपने दोनों हाथ बढ़ा दिए.

‘‘मां, पिताजी कहां हैं? वे घर पर दिख नहीं रहे?’’

‘‘अरे, वे तो शर्माजी के यहां काम कराने गए हैं. सुबह के ही निकले हैं. अब तक कोई अतापता नहीं है. क्या पता कुछ खाने को मिला भी है कि नहीं.’’

‘‘अरे अम्मां, क्यों परेशान हो रही हो? पिताजी कोई छोटे बच्चे थोड़ी हैं, जो अभी भूखे होंगे. फिर शर्माजी तो पिताजी को बहुत मानते हैं. अब उन की टैंशन छोड़ो और मेरी फिक्र करो. सुबह से मैं ने कुछ नहीं खाया है.’’

थोड़ी देर बाद मां ने बड़े ही प्यार से दीपक को खाना खिलाया. खाना खा कर थोड़ी देर आराम करने के बाद दीपक भी शर्माजी के यहां पिताजी का हाथ बंटाने के लिए चल पड़ा.

तकरीबन 15 मिनट चलने के बाद गांव के किनारे मैदान में बड़ा सा पंडाल दिख गया, जहां पर तेजी के साथ काम चल रहा था. पास जा कर देखा तो पिताजी मजदूरों को जल्दीजल्दी काम करने का निर्देश दे रहे थे.

तभी पिताजी की नजर दीपक पर पड़ी. दीपक ने जल्दी से पिताजी के पैर छू लिए.

पिताजी ने दीपक से हालचाल पूछा, ‘‘बेटा, पढ़ाई कैसी चल रही है? तुम्हें रहनेखाने की कोई तकलीफ तो नहीं है?’’

दीपक ने कहा, ‘‘बाबूजी, मेरी फिक्र छोडि़ए, यह बताइए कि आप की तबीयत अब कैसी है?’’

‘‘बेटा, मैं बिलकुल ठीक हूं.’’

दीपक ने इधरउधर देख कर पूछा, ‘‘सारा काम हो ही गया है, बस एकडेढ़ घंटे का काम बचा है,’’ इस पर पिता ओमप्रकाश ने हामी भरी. इस के बाद दोनों घर की तरफ चल पड़े.

रात को 8 बजे के बाद दीपक घर आया तो मां ने पूछा, ‘‘दीपू अभी तक कहां था, कब से तेरे बाबूजी इंतजार कर रहे हैं.’’

‘‘अरे मां, अब क्या बताऊं… गोलू के घर की तरफ चला गया था. वहां रमेश, जीतू, राजू भी आ गए तो बातों के आगे वक्त का पता ही नहीं चला.’’

मां बोलीं, ‘‘खैर, कोई बात नहीं. अब जल्दी से शर्माजी के यहां जा कर भोजन कर आ.’’

कुछ ही देर में गोलू के घर पहुंच कर दीपक ने उसे आवाज लगाई.

गोलू जोर से चिल्लाया, ‘‘रुकना भैया, अभी आया. बस, एक मिनट.’’

5 मिनट बाद गोलू हांफता हुआ आया तो दीपक ने कहा, ‘‘क्या यार, मेकअप कर रहा था क्या, जो इतना समय लगा दिया?’’

गोलू सांस छोड़ते हुए बोला, ‘‘दीपू भाई, वह क्या है कि छोटी कटोरी नहीं मिल रही थी. तू तो जानता है कि मुझे रायता कितना पसंद है तो…’’

‘‘पसंद है तो कटोरी का क्या काम है?’’ दीपक ने अचरज से पूछा.

गोलू थोड़ा गंभीर होते हुए बोला, ‘‘दीपक, क्या तुम्हें मालूम नहीं कि हम लोग हमेशा से ही ऊंची जाति वालों के यहां घर से ही अपने बरतन ले कर जाते हैं, तभी खाने को मिलता है.’’

‘‘हां पता है, लेकिन अब ये पुरानी बातें हो गई हैं. अब तो हर पार्टी के बड़ेबड़े नेता भी दलितों के यहां जा कर खाना खाते हैं.’’

गोलू ने बताया, ‘‘ऊंची जाति के लोगों के लिए पूजा और भोजन का इंतजाम बड़े पंडाल में है, ताकि छोटी जाति वालों को पूजापाठ की जगह से दूर बैठा कर खाना खिलाया जा सके, जिस से भगवान और ऊंची जाति वालों का धर्म खराब न हो.

‘‘दलितों को खाना अलग दूर बैठा कर खिलाया ही जाता है, इस पर यह शर्त होती है कि दलित अपने बरतन घरों से लाएं, जिस से उन के जूठे बरतन धोने का पाप ऊंची जाति वालों को न लगे,’’ इतना कहने के बाद गोलू चुप हो गया.

लेकिन दीपक की बांहें फड़कने लगीं, ‘‘आखिर इन लोगों ने हमें समझ क्या रखा है, क्या हम इनसान नहीं हैं.

‘‘सुन गोलू, मैं तो इस बेइज्जती के साथ खाना नहीं खाऊंगा, चाहे जो हो जाए,’’ दीपक की तेज आवाज सुन कर वहां कई लोग जमा होने लगे.

‘‘क्या बात है? क्यों गुस्सा कर रहे हो?’’ एक ने पूछा.

‘‘अरे चाचा, कोई छोटीमोटी बात नहीं है. आखिर हम लोग कब तक ऊंची जातियों के लोगों के जूते को सिर पर रख कर ढोते रहेंगे, क्या हम इनसान नहीं हैं? आखिर कब तक हम उन की जूठन पर जीते रहेंगे?’’

‘‘यह भीड़ यहां पर क्यों इकट्ठा है? यह सब क्या हो रहा है,’’ पिता ओमप्रकाश ने भीड़ को चीरते हुए दीपक से पूछा.

इस से पहले दीपक कुछ बोल पाता, बगल में खड़े चाचाजी बोल पड़े, ‘‘ओम भैया, तुम ने दीपू को कुछ ज्यादा ही पढ़ालिखा दिया है, जो दुनिया उलटने की बात कर रहा है. इसे जरा भी लाज नहीं आई कि जिन के बारे में यह बुराभला कह रहा है, वही हमारे भाग्य विधाता?हैं. अरे, जो कुछ हमारे वेदों और शास्त्रों में लिखा है, वही तो हम लोग कर रहे हैं.’’

‘‘चाचाजी…’’ दीपक चीखा, ‘‘यही तो सब से बड़ी समस्या है, जो आप लोग समझना नहीं चाहते. क्या आप को पता है कि ये ऊंची जाति के लोगों ने खुद ही इस तरह की बातें गढ़ ली हैं. जब कोई बच्चा पैदा होता है तो उस का कोई धर्म या मजहब नहीं होता, वह मां के पेट से कोई मजहब या काम सीख कर नहीं आता.

‘‘सुनिए चाचाजी, जब बच्चे जन्म लेते हैं तो वे सब आजाद होते हैं, लेकिन ये हमारी बदकिस्मती है कि धर्म के ठेकेदार अपने फायदे के लिए लोगों को धर्म के नाम पर, जाति के नाम पर, संप्रदाय के नाम पर, भाषा के नाम पर बांट देते हैं.

‘‘क्या आप लोगों को नहीं पता कि मेरे पिताजी ने मुझे पढ़ाया है. अगर वे भी यह सोच लेते कि दलितशूद्रों का पढ़ना मना है, तो क्या मैं यूनिवर्सिटी में पढ़ रहा होता?

‘‘इसी छुआछूत को मिटाने के लिए कई पढ़ेलिखे जागरूक दलितों ने कितने कष्ट उठाए, अगर वे पढ़ेलिखे नहीं होते तो क्यों उन्हें संविधान बनाने की जिम्मेदारी दी जाती?’’

एक आदमी ने कहा, ‘‘अरे दीपक, तू तो पढ़ालिखा है, मगर हम तो जमाने से यही देखते चले आ रहे हैं कि भोज में बरतन अपने घर से ले कर जाने पड़ते हैं. जैसा चल रहा है वैसा ही चलने दो?’’

‘‘नहीं दादा, हम से यह न होगा, जिसे खाना खिलाना होगा, वह हमें भी अपने साथ इज्जत से खिलाए, वरना हम किसी के खाने के भूखे नहीं हैं. अब बहुत हो गया जुल्म बरदाश्त करतेकरते. मैं इस तरह से खाना नहीं खाऊंगा.’’

दीपक की बातों से गोलू को जोश आ गया. उस ने भी अपने बरतन फेंक दिए. इस से हुआ यह कि गांव के ज्यादातर दलितों ने इस तरह से खाने का बहिष्कार कर दिया.

‘‘शर्माजी, गजब हो गया,’’ एक आदमी बोला.

‘‘क्या हुआ? क्या बात है? सब ठीक तो है?’’

‘‘कुछ ठीक नहीं है. बस्ती के सारे दलित बिना खाना खाए वापस अपने घरों को जा रहे हैं. लेकिन मुझे यह नहीं पता कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं.’’

शर्माजी ने जल्दी से दौड़ लगा दी. दौड़ते हुए ही वे आवाज लगाने लगे, ‘‘अरे क्या हुआ, क्या कोई बात हो गई है, आप लोग रुकिए तो…’’

भीड़ में सन्नाटा छा गया. अब शर्माजी को कोई क्या जवाब दे.

‘‘देखिए शर्माजी…’’ दीपक बोला, ‘‘हम सब आप लोगों की बड़ी इज्जत करते हैं.’’

‘‘अरे दीपक, यह भी कोई कहने की बात है,’’ शर्माजी ने बीच में ही दीपक को टोका.

‘‘बात यह है कि अब से हम लोग इस तरह आप लोगों के यहां किसी भी तरह का भोजन नहीं किया करेंगे, क्योंकि हमारी भी इज्जत है. हम भी आप की तरह इनसान हैं, तो आप हमारे लिए अलग से क्यों कायदेकानून बना रखे हैं?

‘‘जब वोट लेना होता है तो आप लोग ही दलितों के यहां खाने को ले कर होड़ मचाए रहते हैं. जब चुनाव हो जाता है तो दलित फिर से दलित हो जाता है.’’

शर्माजी को कोई जवाब नहीं सूझा. वे चुपचाप अपना सा मुंह लटकाए वहीं खड़े रहे.

Hindi Story : मोहभंग – गांव से क्यों हुआ प्रमोद का मोहभंग

Hindi Story : प्रमोद नयानया डाक्टर बना, तो सब ने उसे खूब बधाइयां दीं. उस की पोस्टिंग जिस आलू का तला गांव में हुई थी, वह पिछड़ा हुआ इलाका था. ‘‘तू कहे तो मंत्रीजी के पीए से बात करूं? ऐसे गांव में जा कर डाक्टरी करने का क्या फायदा, जहां बिजली नहीं रहती हो?’’ भूपेश ने प्रमोद से कहा, तो उस ने साफ इनकार कर दिया, ‘‘नहीं दोस्त, मैं नहीं चाहता कि सिफारिश के बल पर अपनी पोस्टिंग कहीं दूसरे शहर में करा कर खुदगर्ज बन जाऊं. सरकार ने मुझे आलू का तला गांव भेजा है, तो मेरा फर्ज बनता है कि वहां जा कर गांव वालों की सेवा करूं.’’

‘‘ठीक है, जैसी तेरी मरजी. वक्त का तकाजा तो यही है कि हाथपैर मार कर ढंग की जगह ले लेता और ठाट से डाक्टरी कर के चार पैसे कमाता,’’ भूपेश बोला. प्रमोद नहीं माना. उस की शादी

2 महीने पहले ही पूनम से हुई थी. ‘‘मैं हर हफ्ते घर आया करूंगा डार्लिंग. वहां गांव में तुम्हें ले जा कर मुसीबत में डालना मैं ने ठीक नहीं समझा,’’ प्रमोद ने अपनी बीवी को बांहों के घेरे में लेते हुए वादा किया कि वह दिन में एक बार उसे फोन जरूर करेगा.

‘‘ठीक है, जैसा तुम ठीक समझो. वैसे भी मैं ने अपनी जिंदगी के 20 साल शहर की सुखसुविधाओं के बीच गुजारे हैं. गांव में जा कर रहना तो दूर की बात है, मुझे तो उसे देखना भी भारी लगता है,’’ पूनम बोली. वाकई आलू का तला गांव काफी पिछड़ा हुआ लग रहा था. जिस समय प्रमोद वहां ड्यूटी जौइन करने पहुंचा, वहां बिजली नहीं थी. गरमी और पसीने से तरबतर हो रहे प्रमोद को वहीं पड़े गत्ते के टुकड़े से हवा खानी पड़ रही थी.

‘गांव में नया डाक्टर आया है,’ यह खबर आग की तरह फैल गई. गांव वाले डिस्पैंसरी के इर्दगिर्द जमा हो कर उस की तरफ ऐसे देख रहे थे, जैसे कोई अजूबा हो. प्रमोद का क्वार्टर वहीं डिस्पैंसरी के बगल में था, इसलिए वह काफी समय इलाज के लिए मुहैया रहता और फिर खाना खाने और सोने के लिए क्वार्टर में चला जाता.

दिनभर मरीजों को देखने के बाद प्रमोद काफी थक जाता था. थकान की वजह से खाना बनाने का काम उसे बहुत मुश्किल लगता था. लेकिन वह जैसेतैसे कुछ खापी कर सो जाता था. ‘‘डाक्टर साहब, यह इमरती है. यह सुबहशाम दोनों समय आप का खाना बना दिया करेगी और क्वार्टर की साफसफाई भी कर देगी,’’ एक दिन मुखियाजी प्रमोद के पास आए. उन के साथ 20-21 साल की एक दुबलीपतली लड़की भी थी.

‘‘इस की क्या जरूरत थी मुखियाजी, आप ने बेकार में कष्ट किया. पेट भरने लायक खाना बनाना आता है मुझे,’’ प्रमोद बोला. ‘‘इस में कष्ट कैसा डाक्टर साहब? आखिर आप इस गांव में हमारे मेहमान हैं. आप की सुखसुविधाओं का खयाल रखना हमारा फर्ज बनता है,’’ मुखियाजी ने हाथ जोड़ते हुए प्रमोद से कहा, तो वह मन ही मन गांव के लोगों का अपनापन देख कर खुश हो उठा.

अगले दिन से ही इमरती प्रमोद के घर काम करने के लिए आने लगी, तो उसे सहूलियत हो गई. वह घर का सारा काम करने लगी, तो प्रमोद को आगे की पढ़ाई के लिए समय मिलने लगा था. खाना भी वह अच्छा बनाती थी. थोड़े ही दिनों में प्रमोद को गांव की आबोहवा रास आ गई. सब लोग इज्जत की नजर से उसे देखते और मिलने पर बड़े अदब से पेश आते.

‘‘लोग बेकार में ही गांवों को बदनाम करते हैं. मुझे तो यहां किसी किस्म की तकलीफ नहीं है. मैं तो कहता हूं कि शहर के मुकाबले यहां की जिंदगी ज्यादा अच्छी है,’’ प्रमोद अपनी पत्नी पूनम से फोन पर कह रहा था. ‘‘आप गांव को इतना पसंद करने लगे हैं, कहीं वहां किसी पर दिल तो नहीं आ गया आप का?’’ उधर से पूनम के खिलखिलाने की आवाज आई.

‘‘न बाबा न, तुम औरतों के दिमाग में तो हर वक्त शक का कीड़ा ही घूमता रहता है. फिर जिस की बीवी तुम जैसी खूबसूरत हो, वह भला यहांवहां मुंह क्यों मारेगा?’’ प्रमोद बोला. एक दिन इमरती खाना बना रही थी. प्रमोद किताब पढ़ने में खोया हुआ था.

‘‘डाक्टर साहब, आप को अपनी बीवी से मिलने का मन नहीं करता? वे वहां और आप यहां? अकेले कैसे मन लगता है आप का?’’ सब्जी काटते हुए इमरती ने कनखियों से देखते हुए पूछा, तो प्रमोद चौंक गया. ‘‘तुम अपने काम से मतलब रखो इमरती. मुझे यह सब बिलकुल पसंद नहीं,’’ प्रमोद उस के हावभाव ताड़ कर बोला, तो इमरती हंस दी.

उस दिन के बाद से प्रमोद ज्यादा सावधान रहने लगा. उस ने सुन रखा था कि गांव की सीधीसादी दिखने वाली औरतें जरूरत से ज्यादा चालाक होती हैं, इसलिए वह इमरती को मुंह नहीं लगाता था.

उधर इमरती कुछ ज्यादा ही करीब आने की कोशिश में थी. अकसर झाड़ूपोंछा लगाते समय जानबूझ कर वह अपना पल्लू हटा देती थी, ताकि प्रमोद की नजरें इनायत हो सकें. ‘‘बारिश शुरू होने वाली है इमरती. तुम जल्द से अपना काम खत्म कर के घर चली जाओ,’’ उस शाम आसमान में घिरे बादल और बिजली चमकती देख प्रमोद ने उस से कहा.

इमरती ने हां में सिर हिलाया. वह जानती थी कि प्रमोद को खुली बातचीत पसंद नहीं है, इसलिए वह काम खत्म कर के क्वार्टर से निकलने लगी. तभी अचानक से तेज बारिश शुरू हो गई. इमरती पूरी तरह भीग गई. रास्ते में पानी बढ़ता देख कर वह उलटे पैर लौट आई. ‘‘दरवाजा खोलिए डाक्टर साहब, मुझे तेज ठंड लग रही है,’’ इमरती को गेट बजाते सुन कर मजबूरी में प्रमोद को दरवाजा खोलना पड़ा.

सामने इमरती खड़ी थी. पूरी तरह भीग चुकी थी वह. उस के कपड़े गीले हो कर शरीर से चिपके हुए थे. भीगे कपड़ों में वह गजब ढा रही थी. प्रमोद उसे इस हालत में खड़ा देखता ही रह गया.

‘‘भीतर आ कर कपड़े बदल लो, वरना बीमार पड़ जाओगी,’’ प्रमोद ने हौले से कह कर इमरती को भीतर किया और गेट बंद कर दिया. 20-21 साल की लड़की को इस हालत में देख कर प्रमोद अपनेआप पर काबू नहीं रख पा रहा था. जनाना कपड़े र्क्वाटर में नहीं थे.

प्रमोद ने उसे अपना तौलिया और लूंगी दे दी, ताकि वह कपड़े बदल सके. इसी दौरान इमरती ने जानबूझ कर ब्लाउज उतार दिया और कोने में खड़े हो कर कपड़े बदलने लगी.

इमरती जान गई कि लोहा गरम हो चुका है. वह उसी हालत में पास आई और ठंड का बहाना कर के प्रमोद से लिपट गई. प्रमोद भी सबकुछ भूल कर इमरती की देह के भंवर में फंस गया. वासना का उबार उतरा, तो इमरती बिना कुछ बोले चुपचाप चली गई. बारिश थम चुकी थी. प्रमोद को अपनेआप पर थोड़ी शर्म आ रही थी.

अगले दिन इमरती आई. न वह कुछ बोली और न प्रमोद कुछ कहने की हिम्मत जुटा पाया. इस तरह 2-3 महीने निकल गए. एक दिन इमरती आई, तो उलटी करती हुई वाश बेसिन की तरफ दौड़ी.

‘‘मैं मां बनने वाली हूं डाक्टर साहब. लगता है, उस रोज की गई गलती हम पर भारी पड़ गई,’’ इमरती बोली, ‘‘गांव वालों को पता चलेगा, तो वे मुझे और आप को जिंदा नहीं छोड़ेंगे.’’ ‘‘तुम्हें बच्चा गिराना होगा. मैं नहीं चाहता कि कोई बखेड़ा खड़ा हो,’’ प्रमोद भी घबरा गया. उसे गांव वालों का डर सताने लगा. साथ ही, बदनामी और नई नौकरी जाने का खतरा भी पूरा था.

‘‘मुखियाजी को हम दोनों के बीच हुए हादसे का पता चल गया है. वे बहुत गुस्से में हैं. उन्हें लगता है कि तुम ने मेरे साथ रेप कर के उन के विश्वास को तोड़ा है,’’ इमरती ने दांव चला, जो काम कर गया. प्रमोद और इमरती के बीच इस मामले को दबाने के लिए 50 हजार रुपए में सौदा तय हुआ.

शर्त रखी गई कि इमरती कह देगी कि बच्चा किसी और का है, प्रमोद का नहीं. फिर किसी दिन शहर जा कर चुपचाप उसे गिरा देगी. प्रमोद सौदे से खुश था कि चलो सस्ते में पीछा छूट गया. 1-2 महीने की तनख्वाह दे कर बदनामी से तो बचे. एक हादसा समझ कर प्रमोद इस घटना को भूल गया.

एक रोज एक शख्स डिस्पैंसरी आया. उस ने बताया कि इमरती बांझ औरत है. किसी जन्मजात कमी की वजह से वह कभी मां नहीं बन सकती. इस हकीकत का पता लगने पर उस के पति ने उसे छोड़ दिया. तब से वह झूठी कहानी बना कर पैसे वालों को अपने जाल में फंसाने का धंधा कर रही है. अब तक वह कइयों के साथ यह खेल खेल चुकी है.

‘‘और मुखियाजी? मेरे पास तो उसे वही लाए थे. वे क्या कहते हैं?’’ प्रमोद ने उस आदमी की बात सुन कर पूछा, तो वह हंसने लगा. ‘‘आप बहुत भोले हो डाक्टर साहब. वह कोई मुखिया नहीं, बल्कि एक नंबर का गुरुघंटाल है. इमरती उसी का मोहरा बन कर शिकार फांसती है और फिर दोनों आधेआधे पैसे बांट लेते हैं,’’ उस आदमी ने बताया.

प्रमोद का गांव से मोहभंग होने लगा था. बेईमानी और मक्कारी की हवा गांव तक पहुंच चुकी है. यह सबकुछ भोगने के बाद उस की सारी गलतफहमी दूर हो गई.

‘‘भूपेश, तुम जल्दी मंत्रीजी के पीए से मिलना और मेरी पोस्टिंग यहां से किसी अच्छी जगह करवाने की बात कर लेना,’’ प्रमोद ने अपने दोस्त भूपेश को फोन लगा कर कहा. आलू का तला गांव से उस का मन अब उचाट हो चुका था.

Hindi Story : बदला – मनीष क्यों ठगा-सा महसूस कर रहा था

Hindi Story : मनीष सुबह टहलने के लिए निकला था. उस के गांव के पिछवाड़े से रास्ता दूसरे गांव की ओर जाता था. उस रास्ते से अगले गांव की काफी दूरी थी. वह रास्ता गांव के विपरीत दिशा में था, इसलिए उधर सुनसान रहता था. मनीष को भीड़भाड़ से दूर वहां टहलना अच्छा लगता था. वह इस रास्ते पर दौड़ लगाता और कसरत करता था.

मनीष जैसे ही अपने घर से निकल कर गांव के आखिरी मोड़ पर पहुंचा, तो उस ने देखा कि सामने एक लड़की एक लड़के से गले लगी हुई. मनीष रुक गया था. दोनों को देख कर उस के जिस्म में सनसनाहट पैदा होने लगी थी. वह जैसे ही नजदीक पहुंचने वाला था, वह लड़की जल्दी से निकल कर पीछे की गली में गुम हो गई.

‘‘अरे, यह तो अंजलि थी,’’ वह मन ही मन बुदबुदाया. वही अंजलि, जिसे देख कर उस के मन में कभी तमन्ना मचलने लगती थी. उस के उभारों को देख कर मनीष का मन मचलने लगता था. आज उसे इस तरह देख कर वह अपनेआप को ठगा सा महसूस करने लगा था.

आज मनीष पूरे रास्ते इसी घटना के बारे में सोचता रहा. आज उस का टहलने में मन नहीं लग रहा था. वह कुछ दूर चल कर लौटने लगा था. वह जैसे ही घर पहुंचा कि गांव में शोर हुआ कि किसी की हत्या हुई है. लोग उधर ही जा रहे थे.

मनीष भी उसी रास्ते चल दिया था. वह हैरान हुआ, क्योंकि भीड़ तो वहीं जमा थी, जहां से अंजलि निकल कर भागी थी. एक पल को तो उसे लगा कि भीड़ को सब बता दे, पर वह चुप रहा.

सामने अंजलि अपने दरवाजे पर खड़ी मिल गई. शायद वह भी बाहर हो रही घटनाओं के संबंध में नजरें जमाई थी.

मनीष ने उसे धमकाते हुए कहा, ‘‘मैं ने सबकुछ देख लिया है. मैं चाहूं तो तुम सलाखों के पीछे चली जाओगी.’’

अंजलि ने हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाते हुए कहा, ‘‘अपना मुंह बंद रखना. मैं तुम्हारी अहसानमंद रहूंगी.’’

‘‘ठीक है. आज शाम 7 बजे झाड़ी के पीछे वाली जगह पर मिलना. मैं तुम्हारा इंतजार करूंगा.’’

‘‘अच्छा, लेकिन अभी जाओ और घटना पर नजर रखना.’’

मनीष वहां से चल दिया. घटनास्थल पर भीड़ इकट्ठा हो गई थी. कुछ देर बाद पुलिस भी आ गई थी. पुलिस ने हत्या के बारे में थोड़ीबहुत जानकारी ले कर लाश को पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया था. मनीष अपने घर लौट आया था.

मनीष अंदर से बहुत खुश था कि आज उस की मनोकामना पूरी होगी. फिर हत्या कैसे और क्यों की गई है,  इस का राज भी वह जान पाएगा. उस के मन में बेचैनी बढ़ती जा रही थी. आज काम में बिलकुल भी मन नहीं लग रहा था, इसलिए समय बिताने के लिए वह अपने कमरे में चला गया था.

मनीष तय समय पर घर से निकल गया था. जाड़े का मौसम होने के चलते अंधेरा पहले ही हो गया था.

मनीष तय जगह पर पहुंच चुका था, तभी उस की ओर एक परछाईं आती हुई नजर आई. मनीष थोड़ा सा डर गया था. परछाईं जैसेजैसे उस की ओर बढ़ रही थी, उस के मन से डर भी खत्म हो रहा था, क्योंकि वह कोई और नहीं बल्कि अंजलि थी.

अंजलि के आते ही मनीष ने उस के दोनों हाथों को अपने हाथों में थाम लिया था. कुछ पल के बाद उसे अपने आगोश में भरते हुए उस ने पूछा, ‘‘अंजलि, तुम ने जितेंद्र की हत्या क्यों की?’’

‘‘उस की हत्या मैं ने नहीं की है, उस ने मेरे साथ सिर्फ शारीरिक संबंध बनाए थे, जो तुम देख चुके हो.’’

‘‘हां, लेकिन हत्या किस ने की?’’

‘‘शायद मेरे जाने के बाद किसी ने हत्या कर दी हो. यही तो मुझे भी समझ में नहीं आ रहा है… और इसीलिए मैं डर रही थी और तुम्हारी बात मानने के लिए राजी हो गई,’’ अंजलि अपनी सफाई देते हुए बोली थी.

‘‘क्या उस की किसी से दुश्मनी रही होगी?’’ मनीष ने सवाल किया.

‘‘मुझे नहीं पता… अब तुम पता करो.’’

‘‘ठीक है, मैं पता करता हूं.’’

‘‘मुझे तो डर लग रहा है, कहीं मैं इस हत्या में फंस न जाऊं.’’

‘‘मेरी रानी, डरने की कोई बात नहीं है, मैं तुम्हारे साथ हूं. मैं तुम्हारी मदद करूंगा. बस, तुम मेरी जरूरतें पूरी करती रहो,’’ मनीष के हाथ उस की पीठ से फिसल कर उस के कोमल अंगों को छूने लगे थे.

थोड़ी सी नानुकुर के बाद जब मनीष का जोश ठंडा हुआ, तो उस ने अंजलि को अपनी पकड़ से आजाद कर दिया.

मनीष अगले सप्ताह रविवार को मिलने के लिए अंजलि से वादा किया था. अंजलि राजी हो गई थी. इधर अंजलि के मन का बोझ थोड़ा शांत हुआ कि वह मनीष को समझाने में कामयाब रही. मनीष को मुझ पर शक नहीं हुआ है. वह हत्यारे के बारे में पता करने में मदद करेगा.

अब अंजलि और मनीष के मिलने का सिलसिला जारी हो चुका था. मनीष एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाता था. अभी उस की शादी नहीं हुई थी. अंजलि महसूस कर रही थी कि मनीष दिल का बुरा नहीं है. उस की सिर्फ एक ही कमजोरी है. वह हुस्न का दीवाना है. कई बार अंजलि महसूस कर चुकी है कि आतेजाते मनीष उसे देखने की कोशिश करता था, लेकिन वह जानबूझकर शरीफ होने का नाटक करता था. इसीलिए औरों की तरह वह मेरा पीछा नहीं कर पाया था.

जितेंद्र की हत्या की जांच कई बार की गई, लेकिन यह पता नहीं चल पाया कि उस की हत्या किस ने की. पुलिस द्वारा जहरीली शराब पीने से मौत की पुष्टि कर तकरीबन उस की फाइल बंद कर दी गई थी. अब अंजलि भी समझ चुकी थी कि पुलिस की ओर से कोई डर नहीं है.

जितेंद्र की हत्या के बारे में गांव के लोगों की ज्यादा दिलचस्पी नहीं थी. इस के पीछे वजह यह थी कि वह लोगों की नजरों में अच्छा इनसान नहीं था. वह शराब तो पीता ही था, औरतों व लड़कियों को भी छेड़ता रहता था. बहुत से लोग उस के मरने पर खुश भी थे.

अंजलि तकरीबन एक साल से मनीष से मिल रही थी. कई बार मनीष उसे उपहार भी देता था. अब तो अंजलि का भी मनीष के बगैर मन नहीं लगता था.

एक दिन मनीष अंजलि को अपने गोद में ले कर उस के बालों से खेल रहा था. उस ने अपनी इच्छा जाहिर की, ‘‘क्यों न हम दोनों शादी कर लें? कब तक यों ही हम छिपछिप कर मिलते रहेंगे?’’

इस पर अंजलि बोली, ‘‘मुझे कोई एतराज नहीं है, पर मुझे अपनी मां से पूछना होगा.’’

‘‘तुम अपनी मां को जल्दी से राजी करो.’’

‘‘मां तो राजी हो जाएंगी, लेकिन यह बात मैं राज नहीं रखना चाहती हूं.’’

‘‘कौन सी बात?’’

‘‘यही कि जितेंद्र की हत्या किस ने की थी.’’

‘‘किस ने की थी?’’

‘‘मैं ने…’’

‘‘कैसे और क्यों?’’

‘‘3 साल पहले की बात है. मेरी एक बहन रिया भी थी. घर में मां और मेरी बहन समेत हम सभी काफी खुश थे. पिताजी के नहीं होने के चलते मेरी छोटी बहन रिया मौल में काम कर के अच्छा पैसा कमा लेती थी. उसी के पैसों से हमारा घर चल रहा था.

‘‘जब भी मेरी बहन घर से निकलती थी, जितेंद्र अपनी मोटरसाइकिल से उस का पीछा करता था. मना करने के बाद भी वह नहीं मानता था.

‘‘मेरी बहन रिया उस से प्यार करने लगी थी. जितेंद्र ने मेरी बहन से कई बार शारीरिक संबंध बनाए. बहन को विश्वास था कि जितेंद्र उस से शादी जरूर करेगा.

‘‘लेकिन, जितेंद्र धोखेबाज निकला. मेरी बहन रिया को जितेंद्र के बारे में पता चला कि वह कई लड़कियों की जिंदगी बरबाद कर चुका है. मेरी बहन पेट से हो गई थी. 5 महीने तक मेरी बहन शादी के लिए इंतजार करती रही. जितेंद्र केवल झांसा देता रहा.

‘‘आखिरकार जितेंद्र ने शादी करने से इनकार कर दिया था. उस का मेरी बहन से झगड़ा भी हुआ था.

‘‘मेरी बहन परेशान रहने लगी थी. उस ने मुझे सबकुछ बता दिया था. मैं बहन को ले कर अस्पताल गई थी. वहां मैं ने उस का बच्चा गिरवाया, पर वह कोमा में चली गई थी. उस का बच्चा तो मरा ही, मेरी बहन भी दुनिया छोड़ कर चली गई. उसी दिन मैं ने कसम खाई थी कि जितेंद्र का अंत मैं ही करूंगी.

‘‘इस बार मैं ने गोरा को फंसाया था. मैं भी उस से प्यार का खेल खेलती रही. उस ने कई बार मुझे हवस का शिकार बनाना चाहा, लेकिन मैं उस से अपनेआप को बचाती रही.

‘‘उस दिन जितेंद्र ने मुझे अपने गुसलखाने में बुलाया था. मैं सोच कर गई थी कि आज रात काम तमाम कर के आना है. मैं ने उस की शराब में जहर मिला दिया.

‘‘मैं उस की मौत को नजदीक से महसूस करना चाहती थी, इसलिए उस की हत्या करने के बाद मैं भी उस के साथ रातभर रही. वह तड़पतड़प कर मेरे सामने ही मरा था.

‘‘सुबह मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं. जानबूझ कर उस के शरीर से मैं लिपटी हुई थी, ताकि कोई देखे तो गोरा को जिंदा समझे. पकड़े जाने पर पुलिस को गुमराह किया जा सके. हत्या के बारे में शक किसी और पर हो. यही हुआ भी. तुम ने मुझे बेकुसूर समझा.

‘‘मैं शादी करने से पहले सबकुछ तुम्हें बता देना चाहती हूं, ताकि भविष्य में पता चलने पर तुम मुझे गलत न समझ सको. मैं ने अपनी बहन रिया की मौत का बदला ले लिया, इसलिए मुझे इस बात का कोई अफसोस नहीं है.’’

मनीष यह सुन कर हक्काबक्का था. उस के मन में थोड़ा डर भी हुआ, लेकिन जल्द ही अपनेआप को संभालते हुए बोला, ‘‘तुम ने ठीक ही किया. तुम ने उस को उचित सजा दी है. तुम्हारे ऊपर किसी तरह का इलजाम लगता भी तो मैं अपने ऊपर ले लेता, क्योंकि मैं अब तुम से प्यार करने लगा हूं.’’

अंजलि ने मनीष को अपनी बांहों में ले कर चूम लिया था. वह अपनेआप पर गर्व कर रही थी कि उस ने गलत इनसान को नहीं चुना है. फिर वह सुखद भविष्य के सपने देखने लगी थी. उन दोनों ने जल्दी ही शादी कर ली. अंजलि अब मनीष को अपना राजदार समझती थी.

Hindi Story : गणपति का जन्म – विकृत बच्चे को देख क्या हुआ

Hindi Story : फूलचंद ने फटा हुआ कंबल खींचखींच कर एकदूसरे के साथ सट कर सो रहे तीनों बच्चों को ठीक से ओढ़ाया और खुद राख के ढेर में तब्दील हो चुके अलाव को कुरेद कर गरमी पाने की नाकाम कोशिश करने लगा.

जाड़े की रात थी. ऊपर से 3 तरफ से खुला हुआ बरामदा. सांयसांय करती हवा हड्डियों को काटती चली जाती थी. गनीमत यही थी कि सिर पर छत थी.

अंदर कमरे में फूलचंद की बीवी सुरना प्रसव वेदना से तड़प रही थी. रहरह कर उस की चीखें रात के सन्नाटे को चीरती चली जाती थीं. पड़ोसी रामचरन की घरवाली और सुखिया दाई उसे ढाढ़स बंधा रही थीं.

मगर फूलचंद का ध्यान न तो सुरना की पीड़ा की ओर था, न ही उस के मन में आने वाले मेहमान के प्रति कोई उल्लास था. सच तो यह था कि अनचाहे बोझ को ले कर वह चिंतित ही था.

परिवार की माली हालत पहले से ही खस्ता थी. जब तक मिल चलती रही तब तक तो गनीमत थी. मगर पिछले 8 महीने से मिल में तालाबंदी चल रही थी और अब वह मजदूरी कर के किसी तरह परिवार का पेट पाल रहा था.

लेकिन रोज काम मिलने की कोई गारंटी न थी. कई बार फाकों की नौबत आ चुकी थी. कर्ज था कि बढ़ता ही जा रहा था. ऐसे में वह चौथा बच्चा फूलचंद को किसी नई मुसीबत से कम नजर नहीं आ रहा था. लेकिन समय के चक्र के आगे बड़ेबड़ों की नहीं चलती, फिर फूलचंद की तो क्या बिसात थी.

तभी सुरना की हृदय विदारक चीख उभरी और धीरेधीरे एक पस्त कराह में ढलती चली गई. फूलचंद ने भीतर की आवाजों पर कान लगाए. अंदर कुछ हलचल तो हो रही थी. मगर नवजात शिशु का रुदन सुनाई नहीं पड़ रहा था. अब फूलचंद को खटका हुआ, ‘क्या बात हो सकती है?’ कहीं कुछ अनहोनी तो नहीं हो गई? मगर पूछूं भी तो किस से? अंदर जा नहीं सकता.

फूलचंद मन मार कर बैठा रहा. अब तो दोनों औरतों में से ही कोई बाहर आती, तभी कुछ पता चल पाता. हां, सुरना की कराहें उसे कहीं न कहीं आश्वस्त जरूर कर रही थीं.

प्रतीक्षा की वे घडि़यां जैसे युगों लंबी होती चली गईं. काफी देर बाद सुखिया दाई बाहर निकली. फूलचंद ने डरतेडरते पूछा, ‘‘सब ठीक तो है न?’’

‘‘हां, लड़का हुआ है,’’ सुखिया ने निराश स्वर में बताया, ‘‘मगर…’’

‘‘क्यों, क्या हुआ?’’ फूलचंद व्यग्र हो उठा.

‘‘अब मैं क्या कहूं. तुम खुद ही जा कर देख लो.’’

इस के बाद सुखिया तो चली गई, लेकिन फूलचंद की उलझन और बढ़ गई, ‘ऐसी क्या बात है, जो सुखिया से नहीं बताई गई? कहीं बच्चा मरा हुआ तो नहीं? मगर यह बात तो सुखिया बता सकती थी.’

कुछ देर बाद रामचरन की घरवाली भी यह कह कर चली गई, ‘‘कोई दिक्कत आए तो बुला लेना.’’

अब फूलचंद के अंदर जाने में कोई रुकावट नहीं थी. वह धड़कते दिल से अंदर घुसा. सुरना अधमरी सी चारपाई पर पड़ी थी. बगल में शिशु भी लेटा था.

सुरना ने आंखें खोल कर देखा. मगर फूलचंद की कुछ पूछने की हिम्मत न हुई. हां, उस की आंखों में कौंधती जिज्ञासा सुरना से छिपी न रह सकी. उस ने शिशु के मुंह पर से कपड़ा हटा दिया और खुद आंखें मूंद लीं.

आंखें तो फूलचंद की भी एकबारगी खुद ब खुद मुंद गईं. सामने दृश्य ही ऐसा था. नवजात शिशु का चेहरा सामान्य शिशुओं जैसा न था. माथा अत्यंत संकरा और लगभग तिकोना था. आंखें छोटीछोटी और कनपटियों तक फटी हुई थीं. कान भी असामान्य रूप से लंबे थे. सब से विचित्र बात यह थी कि शिशु का ऊपरी होंठ था ही नहीं. हां, नाक अत्यधिक लंबी हो कर ऊपरी तालू से जा लगी थी.

फूलचंद जड़ सा खड़ा था, ‘यह कैसी माया है? हुआ ही था तो अच्छाभला होता. नहीं तो जन्म लेने की क्या जरूरत थी. मुझ पर हालात की मार पहले ही क्या कम थी, जो यह नई मुसीबत मेरे सिर आ पड़ी. क्या होगा इस बच्चे का? अपना यह कुरूप ले कर इस दुनिया में यह कैसे जिएगा? क्या होगा इस का भविष्य?’

फूलचंद ने डरतेडरते पूछा, ‘‘इस की आवाज?’’

‘‘पता नहीं,’’ सुरना ने कमजोर आवाज में बताया, ‘‘रोया तक नहीं.’’

‘हैं,’ फूलचंद ने सोचा, ‘क्या यह गूंगा भी होगा?’

सुरना पहले ही काफी दुखी प्रतीत हो रही थी. इसलिए फूलचंद ने और कोई सवाल न किया. बस, अपनेआप को कोसता रहा और बाहर सोए तीनों बच्चों को ला ला कर अंदर लिटाता रहा. फिर खुद भी उन्हीं के साथ सिकुड़ कर लेटा रहा.

मगर उस की आंखों में नींद का नामोनिशान नहीं था. रहरह कर नवजात शिशु का चेहरा आंखों के आगे नाचने लगता था. तरहतरह की आशंकाएं मन में उठ रही थीं. फूलचंद ने सुना था कि उस तरह के बच्चे कुछ दिनों के ही मेहमान होते हैं. मगर वह बच्चा अगर जी गया तो…?

इसी तरह की उलझनों में पड़े हुए फूलचंद ने बाकी रात आंखों में ही काट दी.

सुबह होतेहोते रामचरन की घरवाली के माध्यम से यह बात महल्ले भर में जंगल की आग की तरह फैल गई कि फूलचंद के यहां विचित्र बालक का जन्म हुआ है.

बस, फिर क्या था. तमाशबीन औरतों के झुंड के झुंड आने शुरू हो गए. उन का तांता टूटने का नाम ही नहीं लेता था. वह एक ऐसी मुसीबत थी जिस की फूलचंद ने कल्पना तक नहीं की थी. मगर चुप्पी साधे रहने के सिवा कोई दूसरा चारा भी नहीं था.

तभी तमाशबीन औरतों के एक झुंड के साथ भगवानदीन की मां राधा आई. उस ने सारा वातावरण ही बदल कर रख दिया. राधा ने बच्चे को देखते ही हाथ जोड़ कर प्रणाम किया. फिर जमीन पर बैठ कर माथा झुकाया और साथ आई औरतों को फटकार लगाई, ‘‘अरी, ऐसे दीदे फाड़फाड़ कर क्या देख रही हो? प्रणाम करो. यह तो साक्षात गणेशजी ने कृपा की है सुरना पर. इस की तो कोख धन्य हो गई.’’

साथ आई औरतें अभी तक तो राधा के क्रियाकलाप अचरज से देख रही थीं. किंतु उस की बात सुनते ही जैसे उन की भी आंखें खुलीं. सब ने शिशु को प्रणाम किया. सुरना की कोख को सराहा और हाथ में जो भी सिक्का था, वही चारपाई के सामने अर्पित करने के बाद जमीन पर माथा टेक दिया.

अब राधा बाहर फूलचंद के पास दौड़ी आई. वह थकान और चिंता के कारण बाहर चबूतरे पर घुटनों में सिर डाले बैठा था. राधा ने उसे झिंझोड़ कर उठाया, ‘‘अरे, क्या रोनी सूरत बनाए बैठा है यहां. तुझे तो खुश होना चाहिए, भैया. सुरना की कोख पर साक्षात ‘गणेशजी’ ने कृपा की है. तेरे तो दिन फिर गए. और देख, वह तो माया दिखाने आए हैं अपनी. वह रुकेंगे थोड़ा ही. जब तक हैं, खुशीखुशी उन की सेवा कर. हजारों वर्षों में किसीकिसी को ही ऐसा अवसर मिलता है.’’

फूलचंद चमत्कृत हो उठा, ‘‘यह बात तो मेरे दिमाग में आई ही नहीं थी, काकी.’’

‘‘अरे, तुम लोग ठहरे उम्र व अक्ल के कच्चे,’’ राधा ने बड़प्पन झाड़ा, ‘‘तुम्हें ये सब बातें कहां से सूझें. और हां, लोग दर्शन को आएंगे तो किसी को मना न करना, बेटा. उन पर कोई अकेले तेरा ही हक थोड़ा है. वह तो साक्षात ‘परमात्मा’ हैं, वह सब के हैं, समझा?’’

फूलचंद ने नादान बालक की तरह हामी भरी और लपक कर अंदर पहुंचा. दरअसल, अब वह शिशु को एक नई नजर से देखना चाहता था. मगर चारपाई के पास पड़े पैसों को देख कर वह एक बार फिर चक्कर खा गया. सुरना से पूछा, ‘‘यह क्या है?’’

‘‘वही लोग चढ़ा गए हैं,’’ सुरना ने बताया, ‘‘काकी कहती थीं, गणेशजी…’’

‘‘और नहीं तो क्या,’’ फूलचंद में जैसे नई जान पड़ने लगी थी, ‘‘न तो तेरी मति में यह बात आई, न ही मेरी. मगर हैं ये साक्षात गणेशजी ही.’’

‘‘हम लोग उन की माया क्या जान सकें. अपनी माया वही जानें.’’

फूलचंद को एकाएक शिशु की चिंता सताने लगी, ‘‘यह तो हिलताडुलता भी नहीं. देख सांस तो चलती है न?’’

सुरना ने कपड़ा हटा कर देखा. सांसें चल रही थीं.

फूलचंद को अब दूसरी चिंता हुई, ‘‘भला एकआध बार दूधवूध चटाया या नहीं?’’

सुरना ने तनिक दुखी स्वर में कहा, ‘‘दूध तो मुंह में दाब ही नहीं पाता.’’

‘‘ओह,’’ फूलचंद झल्लाया, ‘‘क्या इसे भूखा मारोगी? देखो, मैं रुई का फाहा बना कर देता हूं. तुम उसी से दूध इस के मुंह में टपका देना. गला सूखता होगा.’’

शिशु का गला सींचने का यह उपक्रम चल ही रहा था कि कुछ और लोग कथित गणेशजी के दर्शनार्थ आ पहुंचे. इस बार औरतों के अलावा मर्द भी आए थे. दूसरी खास बात यह थी कि कुछ लोगों के हाथों में फूल और फल भी थे. फूलचंद ने लपक कर प्रसन्न मन से सब का स्वागत किया, ‘‘आइए आइए, आप लोग भी दर्शन कीजिए.’’

दोपहर ढलतेढलते कथित गणेशजी के जन्म की खबर पासपड़ोस के महल्लों तक फैल गई. श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ने लगी. मिठाई, फल, मेवा, फूल आदि जो बन पाता, लिए चले आ रहे थे. उस के अलावा नकदी का चढ़ावा भी कम न था.

शाम को किसी पड़ोसी ने सलाह दी, ‘‘कुछ परचे छपवा कर बांट दिए जाएं, ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों को खबर हो जाए और वे दर्शन का लाभ प्राप्त कर सकें.’’

फूलचंद को वह सलाह जंची. पता नहीं, कब उस की भी यह दिली इच्छा हो आई थी कि जितने ज्यादा लोग दर्शन का लाभ उठा लें, उतना ही अच्छा.

आननफानन मजमून बनाया गया और एक पड़ोसी ने खुद आगे बढ़ कर परचे छपवा कर अगले ही दिन मुहैया कराने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली.

रात करीब 10 बजे दर्शनार्थियों का तांता टूटा. तब फूलचंद ने दर्शन बंद होने की घोषणा की. उस रात फूलचंद के परिवार ने बहुत दिनों बाद तृप्ति भर सुस्वाद भोजन का आनंद उठाया था. दूसरे दिन परचे बंटे और एक स्थानीय अखबार के प्रतिनिधि आ कर बच्चे की तसवीर खींच ले गए. अखबार में बच्चे की तसवीर और विचित्र बालक के जन्म की खबर छपते ही, शहर में जैसे आग सी लग गई. दूरदराज के महल्लों से भी लोग दर्शन के लिए टूट पड़े.

फूलचंद के घर के सामने मेला सा लग गया. पता नहीं, कहां से फूल आदि ले कर एक माली बैठ गया. उस के अलावा महल्ले के हलवाई को दम मारने की फुरसत न थी. उस भीड़ को व्यवस्थित ढंग से दर्शन कराने के लिए फूलचंद को अपने कमरे का दूसरा दरवाजा (जो अभी तक बंद रखा जा रहा था) खोलना पड़ा. अब लोग कतार बांधे एक दरवाजे से अंदर आते थे और दर्शन कर के दूसरे दरवाजे से बाहर निकल जाते थे.

फूलचंद और उस के बच्चे सुबहसुबह ही नहाधो कर साफसुथरे कपड़े पहन लेते और दर्शन की व्यवस्था में जुट जाते. घर में अब न तो पहले जैसा तनाव था, न ही कुढ़न. सभी जैसे उल्लास की लहरों में तैरते रहते थे.

फूलचंद थोड़ीथोड़ी देर बाद सुरना के पास आ कर उस के कान में शिशु को रुई के फाहे से दूध चटाते रहने की हिदायत देता रहता था. इस बहाने वह अपनेआप को आश्वस्त भी कर लेता था कि शिशु अभी जीवित है.

रात को भी वह कई बार शिशु को देखता और उस की सांसें चलती देख कर चैन से सो जाता. सब कुछ सामान्य ढंग से चल रहा था. कहीं कोई समस्या न थी. हां, एक समस्या यह जरूर पैदा हो गई थी कि चढ़ावे में चढ़ी मिठाई का क्या किया जाए. उसे उपभोग के लिए ज्यादा दिन बचाए रखना संभव न था. यों फूलचंद ने महल्ले में अत्यंत उदारतापूर्वक प्रसाद बांटा था. फिर भी मिठाई चुकने में न आती थी.

लेकिन उस समस्या का हल भी निकल आया. रात में मिठाई फूलचंद के यहां से उठा कर हलवाई के हाथों बेच दी जाती, फिर सुबह श्रद्धालुओं के हाथों में होती हुई दोबारा फूलचंद के यहां चढ़ा दी जाती.

छठे दिन भोर में ही सुरना ने फूलचंद को जगाया और घबराई हुई आवाज में कहा, ‘‘देखो, इस को क्या हो गया?’’

फूलचंद ने हड़बड़ा कर शिशु को उघाड़ दिया. झुक कर गौर से देखा. उस की सांसें बंद हो चुकी थीं. हताश हो कर सुरना की ओर देखा, ‘‘खेल खत्म हो गया.’’ सुरना की रुलाई खुद व खुद फूट पड़ी. मगर फूलचंद ने उसे रोका, ‘‘नहीं, रोनाधोना बंद करो. इस को ऐसे ही लेटा रहने दो. देखो, किसी से जिक्र न करना. थोड़ी देर में लोग दर्शन के लिए आने लगेंगे.’’

सुरना ने रोतेरोते ही कहा, ‘‘मगर यह तो…’’

‘‘तो क्या हुआ?’’ फूलचंद ने कहा, ‘‘यह तो वैसे भी न तो रोता था, न ही हिलताडुलता था. लोगों को क्या पता चलेगा? हां, शाम को कह देंगे कि भगवान ने माया समेट ली.’’ और फिर जैसे सुरना को समझाने के बहाने फूलचंद अपनेआप को भी समझाने लगा, ‘कोई हम ने तो भगवान से यह स्वरूप मांगा न था. यह तो उन्हीं की कृपा थी. शायद हमारी गरीबी ही दूर करने आए थे. आज दिन भर लोग और दर्शन कर लेंगे तो कुछ बुरा तो नहीं हो जाएगा.’

सुरना घुटनों पर माथा टेके सिसकती रही. फूलचंद ने फिर समझाया, ‘‘देखो, अब ज्यादा दुख न करो. ज्यादा दिन तो इसे वैसे भी नहीं जीना था. और जी जाता तो क्या होता इस का. उठो, तैयार हो कर रोज की तरह बैठ जाओ. लोग आने ही वाले हैं.’’ सुरना बिना कुछ बोले तैयार होने के लिए उठ गई. थोड़ी देर बाद ही वहां दर्शनार्थियों का तांता लगना शुरू हो गया और भेंट व प्रसाद के रूप में फूलों, मिठाइयों एवं सिक्कों के ढेर लगने लगे.

Hindi Story : भूत नहीं भरम

Hindi Story : सब की नजरें इमारत की ऊपरी मंजिल पर लगी हुई थीं. पूरी इमारत अंधेरे में डूबी हुई थी. सिर्फ बरामदों में कहींकहीं कोई एकाध धूल जमा बल्ब टिमटिमा रहा था.

लेकिन ऊपरी मंजिल के एक कमरे की लाइटें जली हुई थीं और वहां से अजीबअजीब सी आवाजें आ रही थीं, कभी किसी के रोने की आवाज आ रही थी, तो कभी किसी की गुर्राहट भरी आवाज सुनाई दे रही थी. कभी ऐसी आवाज सुनाई दे रही थी, जैसे किसी का गला घोंटा जा रहा हो.

काफी देर बाद अचानक कमरे की लाइटें बंद हो गईं और एक हलकी सी चीख सुनाई दी. उस के बाद भागते हुए कदमों की आहट, जो लगता था, सीढि़यों में ही कहीं गुम हो गई है.

यह इमारत इलाके के एक स्कूल  की थी, जहां पिछले दिनों एक बड़ा  ही दर्दनाक हादसा हो गया था. रात  को इमारत की ऊपरी मंजिल के जिस कमरे की लाइटें जली हुई थीं और  जहां से अजीबअजीब सी आवाजें  आ रही थीं, उस कमरे में स्कूल की  एक सीनियर क्लास बैठती थी.

एक दिन सुबहसुबह जैसे ही उस कमरे के छात्र अपनी क्लास में गए, वहां का कमरा अंदर से बंद था. छात्रों ने दरवाजा खटखटाया, पर बेकार.

थोड़ी देर बाद एक लड़के की नजर रोशनदान से अंदर पड़ी, तो उस की चीख निकल गई. वह ‘भूतभूत’ चिल्लाते हुए नीचे की तरफ दौड़ने लगा.

अध्यापकों के पूछने पर उस छात्र ने किसी तरह अपनी सांसों पर काबू करते हुए बताया, ‘‘सर, कमरे में पंखे से कोई लटका हुआ है.’’

बड़ी मुश्किल से किसी तरह दरवाजा खोला गया और पाया कि सचमुच पंखे से किसी की लाश लटकी हुई है.

इतने में जोशी सर भी वहां आ पहुंचे. उन्होंने लटकी हुई लाश को ध्यान से देखा और कहा, ‘‘इस की मौत हो चुकी है. इसे उतारना बेकार है. फौरन पुलिस को इस की सूचना दी जाए.’’

थोड़ी देर बाद पुलिस भी आ पहुंची. मामला एक सार्वजनिक संस्थान का था, इसलिए एसएचओ खुद भी आए.

लाश की तलाशी लेने पर जेब से कुछ कागजात और एक मुड़ातुड़ा खत भी मिला. खत एसएचओ ने खुद पढ़ा और उन की आंखों से मोटेमोटे आंसुओं की धार बहने लगी. जोशी सर ने खत अपने हाथ में ले लिया और उसे पढ़ने लगे.

खत में लिखा था, ‘मेरी मौत के लिए मैं खुद जिम्मेदार हूं. मैं एक अच्छा छात्र था. अध्यापकों को मुझ से बड़ी उम्मीदें थीं. मैं भी उन की उम्मीदों पर खरा उतरना चाहता था, इसीलिए मैं ने पढ़ाई जारी रखी. पर क्योंकि मैं एक गरीब परिवार का लड़का था, इसलिए मुझे काम की भी जरूरत थी, पर किसी ने मुझे कोई काम नहीं दिया. हमारे घर की हालत बड़ी खराब है.

‘मुझ से अपनी मां की उदासी नहीं देखी जाती. मुझे लगता है कि मेरी जिंदगी बेकार है, इसलिए अपनी इस जिंदगी को खत्म कर रहा हूं.’

मरने वाले का घर पास में ही था और उस की मां भी पहुंच चुकी थी, एकदम बेहाल.

इस घटना के ठीक एक हफ्ते बाद ये अजीबोगरीब वाकिआ पेश आने लगा. लोगों को यकीन हो गया था कि ये फांसी लगाने वाले लड़के का ही भूत है.

जोशी सर को जब यह बात पता चली, तो उन्होंने कहा, ‘‘भूतवूत कुछ नहीं होता. यह लोगों का वहम है.’’

जोशी सर ने स्टाफ के बाकी लोगों से पूछताछ की तो और भी हैरान कर देने वाली बातें सामने आईं.

सफाई वाले ने बताया, ‘‘सर, मैं जब भी उस कमरे में सफाई करने जाता हूं, तो कमरे में रखे डैस्क और कुरसियां अपनेआप इधरउधर होने लगती हैं.’’

स्कूल का चौकीदार भी वहीं बिल्डिंग की छत पर बनी एक कोठरी  में रहता था. उस ने बताया, ‘‘सर,  वह रोज आ कर मेरी कोठरी का  दरवाजा खटखटाता है और कई बार  तो सिटकनी भी खोल देता है.’’

इन सब बातों के बावजूद जोशी सर भूतप्रेत के वजूद को मानने को तैयार नहीं थे. उन्होंने फैसला किया कि वे एक रात वहीं रुक कर सारे मामले को देखेंगे. इस के लिए उन्होंने 3 और लोगों को भी तैयार कर लिया.

एक दिन वे चारों चुपचाप ऊपर की मंजिल के एक कमरे में छिप कर बैठ गए. साथ ही, उन्होंने टार्च, डंडे और दूसरा जरूरी सामान भी रख लिया.

जैसे ही अंधेरा हुआ, छत पर किसी के कूदने की आवाज आई और बरामदे में कदमों की हलकीहलकी पैरों की आवाज सुनाई दी. थोड़ी देर में कुछ गुर्राहट जैसी आवाजें भी आने लगीं.

जोशी सर और दूसरे सभी लोगों ने खिड़की से एकसाथ टार्च की रोशनी फेंकी तो देखा कि कुछ मोटीमोटी बिल्लियां थीं, जो दूसरी छत से कूद कर आई थीं और अब एकदूसरे पर गुर्रा रही थीं. तभी उस कमरे की लाइटें भी जल उठीं.

जोशी सर ने देखा कि लाइटें जलाने वाला और कोई नहीं, बल्कि चौकीदार ही था. रोशनी होते ही बिल्लियां कुछ सावधान सी हो गईं और उन का गुर्राना धीमा पड़ गया, जैसे किसी के हलक से हलकीहलकी चीखें निकल रही हों.

कुछ देर बाद सामने 2 आदमी दिखाई पड़े. उन के हाथों में कुछ चीजें भी थीं. जोशी सर दूसरे सभी लोगों के साथ बाहर आए और उन दोनों लोगों को पकड़ लिया. एक के हाथ में शराब की बोतल थी और दूसरे के हाथ में खानेपीने का सामान. तलाशी लेने पर उन की जेबों से ताश की गड्डियां और कुछ पैसे भी मिले.

सख्ती से पूछने पर उन्होंने बताया कि वे लोग शराब पीने और जुआ खेलने के लिए यहां आते हैं. एक बार किसी ने उन्हें यहां शराब पीते और जुआ खेलते देख लिया था, तो उस ने शिकायत करने की धमकी दी. इस वजह से उन का यहां आना बंद हो गया.

उस लड़के की मौत के बाद उन्होंने इस चीज का फायदा उठा कर यह अफवाह फैला दी कि यहां लड़के  का भूत आता है

और उत्पात मचाता है, जिस से यहां कोई आने की हिम्मत न करे और वे आराम से जुआ खेल सकें व खापी सकें.

इतने में पुलिस भी आ गई, क्योंकि जोशी सर के एक सहयोगी ने चुपके से पुलिस को फोन कर दिया था. वे जुआरी अब हवालात में थे.

लेखक- सीताराम गुप्ता

Hindi Story : फर्ज की याद

Hindi Story : जब से सुनील शर्मा इस दफ्तर में प्रमोशन ले कर आए हैं तब से वे कभी चपरासी गणेशी से पानी नहीं मंगाते हैं. वे खुद ही उठ कर पी आते हैं, चाहे मेज पर कितना भी काम हो.

गणेशी कई दिनों से सुनील शर्मा की इस आदत को देख रहा था. आज भी जब वे पानी पी कर अपनी मेज पर आ कर बैठे तब गणेशी आ कर बोला, ‘‘बाबूजी, एक बात कहूं…’’

‘‘कहो,’’ सुनील शर्मा ने नजर उठा कर गणेशी की तरफ देखा.

‘‘जब से आप आए हो, उठ कर पानी पीते हो.’’

‘‘हां, पीता हूं,’’ सुनील शर्मा ने सहजता से जवाब दिया.

‘‘आप मुझे आदेश दे दिया करें न, मैं पिला दिया करूंगा. आखिर मेरी ड्यूटी पानी पिलाने की ही है,’’ गणेशी ने सवालिया निगाहों से पूछा.

‘‘देखो गणेशी, मेरा उसूल है कि अपना काम खुद करना चाहिए,’’ सुनील शर्मा ने अपनी बात रखी.

‘‘ऐसी बात नहीं है बाबूजी, आप मेरे हाथ का पानी पीना नहीं चाहते हैं,’’ गणेशी ने यह कह कर गुस्से से सुनील शर्मा को देखा.

सुनील शर्मा तुरंत कोई जवाब नहीं दे पाए. गणेशी फिर बोला, ‘‘मगर, मैं सब जानता हूं बाबूजी, आप मेरे हाथ का पानी क्यों नहीं पीना चाहते हैं.’’

‘‘क्या जानते हो?’’

‘‘मैं अछूत हूं, इसलिए आप मेरा दिया पानी नहीं पीना चाहते हो.’’

‘‘ऐसी बात नहीं है गणेशीजी, मैं छुआछूत को नहीं मानता हूं.’’

‘‘फिर मुझ से पानी मंगा कर क्यों नहीं पीते हो?’’

‘‘देखो गणेशीजी, आप चपरासी हो. मैं जब से इस दफ्तर में आया हूं, किसी को आप ने अपनी मरजी से पानी नहीं पिलाया. जिस बाबू ने पानी पीने के लिए कहा तब कहीं जा कर आप ने पिलाया…’’ समझाते हुए सुनील शर्मा बोले, ‘‘इसी बात को मैं कई दिनों से देख रहा था, जबकि तुम्हारा यह फर्ज बनता है कि बाबुओं को बिना मांगे पानी पिलाना चाहिए.’’

‘‘बाबूजी, जब प्यास लगती है तभी तो पानी पिलाना चाहिए.’’

‘‘नहीं, यही तो आप गलती कर रहे हो. बिना मांगे पानी ले कर हर मेज पर पहुंच जाना चाहिए. यही एक चपरासी का फर्ज होता है…’’ समझाते हुए सुनील शर्मा बोले, ‘‘यही वजह है कि मैं खुद उठ कर पानी पीता हूं. आप ने आज तक अपनी मरजी से मुझे पानी नहीं पिलाया है.’’

‘‘अरे बाबूजी, आप ही पहले ऐसे आदमी हो वरना सभी बाबू मांग कर पानी पीते हैं. आप ही ऐसे हैं जो मुझे अछूत समझ कर पानी नहीं मंगाते हो,’’ गणेशी ने आरोप लगाते हुए कहा.

सुनील शर्मा सोच में डूब गए. गणेशी उन की बात का उलटा मतलब ले रहा है. वे कुछ और जवाब दें, इस से पहले ही साहब की घंटी बज उठी. गणेशी साहब के केबिन में चला गया.

सुनील शर्मा मन ही मन झुंझला उठे. पास की मेज पर बैठे मुकेश भाटी बोले, ‘‘शर्माजी, देख लिए गणेशी के तेवर. आप की बात का उस पर कोई असर नहीं पड़ा.’’

‘‘हां भाटीजी, असर तो नहीं पड़ा,’’ उन्होंने भी स्वीकार करते हुए कहा.

‘‘इसलिए मैं कहता हूं कि अपने उसूल छोड़ दो वरना यह आप पर छुआछूत बरतने का केस दायर कर देगा…’’ समझाते हुए मुकेश भाटी बोले, ‘‘फिर कचहरी के चक्कर काटते रहना क्योंकि कानून भी इस का ही पक्ष लेगा.’’

‘‘देखो भाटीजी, मैं तो उस को अपने फर्ज की याद दिला रहा था.’’

‘‘कोई जरूरत नहीं है शर्माजी. जिस को अपना फर्ज समझना ही नहीं है उसे याद दिलाना फुजूल है. उस से बहस कर के खुद का सिर फोड़ना है. फिर मेरा काम था समझाने का समझा दिया. आप अपने उसूलों पर ही रहना चाहते हो तो रहो. कल को कुछ हो जाए, तो फिर मुझे कुछ मत कहना,’’ कह कर मुकेश भाटी अपने काम में लग गए.

सुनील शर्मा के भीतर इन बातों को सुन कर हलचल मच गई. अब पहले वाला जमाना नहीं है. सरकार भी रिजर्वेशन के तहत सब महकमों में इन की भरती करती जा रही है, इसलिए चपरासी से ले कर अफसर तक ये ही मिलेंगे.

जिस परिवार में सुनील शर्मा का जन्म हुआ है, वह ब्राह्मण परिवार है. 1970 के पहले उन का ठेठ देहाती गांव था. छुआछूत का जोर था. किसी अछूत को छूना भी पाप समझा जाता था, इसलिए वे गांव में ही अलग बस्ती में रहते थे.

सुनील शर्मा के पिता गंगा सागर गांव में शादीब्याह कराने और कथा बांचने का काम करते थे. वे यह काम केवल ऊंची जाति वालों के यहां किया करते थे. निचली जाति के लोगों के यहां कर्मकांड के लिए वे मना कर दिया करते थे.

गांव की दलित बस्ती गंगा सागर से बहुत नाराज रहती थी. मगर वे कर कुछ नहीं पाते थे, क्योंकि उन की चलती ही नहीं थी.

जब कोई दलित किसी काम से गंगा सागर के पास आता था, तो वे उन्हें बाहर बिठा कर संस्कार करा देते थे. बदले में वे कुछ सिक्के देते थे, जिन्हें वे जमीन पर ही रखवा देते थे. तब यजमान मखौल उड़ा कर कहते थे, ‘पंडितजी, यह कैसा नियम. मेरे हाथ से नहीं लिया, मगर हाथ से अपवित्र सिक्के को आप ने ग्रहण कर लिया तो अपवित्र नहीं हुए.’

बदले में गंगा सागर संस्कृत में शुद्धीकरण के श्लोक पढ़ कर उसे शुद्धी का पाठ पढ़ा देते थे.

उस समय दलितों में कूटकूट कर अपढ़ता भरी थी. विरोध करने के बजाय वे सबकुछ सच मान लेते थे. गांव में कोई गंगा सागर को दलित दिख जाता, तो वे उस से बच कर निकलते थे.

मगर जैसेजैसे दिन बीतते रहे, छुआछूत की यह परंपरा शहरों में खत्म होने के साथसाथ गांवों में भी खत्म होने लगी थी. अब तो न के बराबर रही है. अब भी कुछ पुराने लोग हैं जो छुआछूत को मानते हैं क्योंकि वे उसी जमाने में जी रहे हैं.

सुनील शर्मा को आज नौकरी करते हुए 32 साल हो गए हैं. इन 32 सालों में उन्होंने बहुतकुछ देख लिया है. रिटायरमैंट में 3 साल बचे हैं. गणेशी जैसे कितने ही लोग हैं जो इस दलित अवसर को भुनाना चाहते हैं. इन को सामान्य वर्ग के प्रति हमेशा से नफरत थी, जो विष बीज बन कर वट वृक्ष

बन गई है. सरकार ने साल 1989 में इन के लिए जातिसूचक शब्द का इस्तेमाल करने पर बैन लगा दिया है, तब से ही इन के हौसले बढ़ने लगे हैं.

‘‘अरे शर्माजी, पानी पीयो,’’ इस आवाज से सुनील शर्मा की सारी विचारधारा भंग हो गई.

गणेशी गिलास लिए उन के सामने खड़ा था. उन्होंने गटागट पानी पी कर वापस उसे गिलास थमा दिया.

गणेशी बोला, ‘‘बाबूजी, आप ने मुझे मेरा फर्ज याद दिला दिया.’’

‘‘वह कैसे गणेशीजी?’’ हैरानी से सुनील शर्मा ने पूछा.

‘‘देखिए बाबूजी, अब तक जो मांगता था, उसे ही मैं पानी पिलाता था, मगर आप ने यह कह कर मेरी आंखें खोल दीं कि पानी तो हर मेज पर जा कर पिलाना चाहिए, इसलिए आज से ही मैं ने आप से शुरुआत की है.’’

‘‘यह तो बहुत अच्छा काम किया गणेशीजी. चलो, मेरी बात पर आप ने गौर तो किया.’’

‘‘हां बाबूजी, अब मुझे किसी को फर्ज की याद दिलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी,’’ कह कर गणेशी चला गया.

मगर सुनील शर्मा उस में अचानक आए इस बदलाव को देख कर हैरान थे.

Hindi Story : अनुभव – गरिमा के साथ परेश को क्या महसूस हुआ

Hindi Story : पहाड़ियों पर कार सरपट भागी जा रही थी. ड्राइवर को शायद घर पहुंचने की ज्यादा जल्दी थी, वरना सांप जैसे टेढ़ेमेढ़े रास्तों पर इस तरह कौन खतरा मोल लेता है? सूरज तेजी से डूबने वाला था. परेश का मन भी शायद सूरज की तरह ही बैठा हुआ था, लेकिन पहाड़ों की जिंदगी उसे बहुत सुकून देती आई थी. जब भी छुट्टी मिलती वह भागा चला जाता था.

परेश की जिंदगी बहुत अजीब थी. नाम, पैसा, शोहरत सब था लेकिन मन के अकेलेपन को दूर करने वाला साथी कोई नहीं था. पहाड़ों पर सूरज छिपते ही अंधेरा तेजी से पसरने लगता है. जल्दी ही रात जैसा माहौल छाने लगता है. अचानक एक मोड़ पर जैसे ही कार तेजी से घूमी, परेश की नजर घाटी की एक चट्टान पर पड़ी. एक लड़की वहां खड़ी थी. इस मौसम में अकेली लड़की की यह हालत परेश को खटक गई.

उस ने ड्राइवर को कार रोकने को कहा. ड्राइवर ने फौरन कार रोक दी. ‘चर्र… चर्र…’ की तेज आवाज पहाड़ों के शांत माहौल को चीर गई. ड्राइवर ने हैरानी से परेश की ओर देखा और पूछा, ‘‘क्या हुआ साहबजी?’’

परेश ने बिना कोई जवाब दिए कार का दरवाजा खोला और बिजली की रफ्तार से उस ओर भागा जहां वह लड़की खड़ी दिखी थी. परेश ज्यों ही वहां पहुंचा लड़की ने नीचे छलांग लगा दी. लेकिन परेश ने गजब की फुरती दिखाते हुए उसे नीचे गिरने से पहले ही पकड़ लिया.

परेश ने फौरन उस लड़की को पीछे खींचा. वह पलटी तो परेश की ओर अजीब सी नजरों से देखने लगी. ‘‘क्या कर रही थी?’’ परेश ने उस लड़की का हाथ पकड़े हुए पूछा.

‘‘कुछ नहीं…’’ लड़की बोली. ‘‘कहां जाना है? इस वक्त सुनसान इलाके में इतनी खतरनाक जगह… क्या करना चाहती थी?’’ परेश ने फिर गुस्से से पूछा.

‘‘अरे, मैं तो सैरसपाटे के लिए… बस यों ही… पैर फिसल गया शायद…’’ कहते हुए लड़की ने वाक्य अधूरा छोड़ दिया. परेश उस लड़की को अपनी कार की ओर ले आया. लड़की ने कोई विरोध भी नहीं किया. ड्राइवर उस लड़की को शक भरी नजरों से घूरने लगा. परेश की पूछताछ अभी भी जारी थी. थोड़ी देर बाद वह लड़की अपने मन का गुबार निकालने लगी.

परेश यह जान कर हैरान हुआ कि वह घर से भागी हुई थी और किसी भी कीमत पर वापस लौटने को तैयार नहीं थी. उस के अशांत मन का गुस्सा साफ झलक रहा था. ‘‘अब कहां ठहरी हो आप?’’ परेश ने पूछा.

‘‘मैं… अरे, मुझे मरना है, जीना ही नहीं, इसलिए ठहरने की क्या बात आई?’’ इतना कह कर वह लड़की खिलखिला कर हंस पड़ी. ‘‘यह क्या बात हुई. आप को पता है कि आप के मातापिता कितना परेशान होंगे…’’ परेश ने शांत लहजे में उसे समझाते हुए कहा.

‘‘मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता,’’ वह लड़की बेतकल्लुफ अंदाज से बोली. ‘‘मैं परेश… लेखक. यहां किताब पूरी करने आया हूं.’’

‘‘अच्छा, आप लेखक हैं? फिर तो मेरी कहानी भी जरूर लिखना… एक पागल लड़की, जिस ने किसी की खातिर खुद को मिटा दिया.’’ ‘‘आप ऐसी बातें न करें. जिंदगी बेशकीमती है, इसे खत्म करने का हक किसी को नहीं,’’ परेश ने कहा.

‘‘मेरा नाम है गरिमा सिंह… एक हिम्मती लड़की जिसे कोई नहीं हरा सकता, पर नकार जरूर दिया.’’ ‘‘आप ऐसा मत कहिए…’’ परेश अपनी बात पूरी करता उस से पहले ही गरिमा ने उस की बात काट दी, ‘‘आप मुझे यहीं उतार दीजिए…’’

‘‘मैं आप को अब कहीं नहीं जाने दूंगा. क्या आप मेरे साथ रहेंगी?’’ गरिमा ने पहले परेश की तरफ देखा, फिर अचकचा कर हंस पड़ी, ‘‘देख लीजिए, कोई नई कहानी न बन जाए?’’

परेश को शायद ऐसे सवाल की उम्मीद न थी. उस की सोच अचानक बदल गई. आखिर था तो वह भी मर्द ही. जोश को दबाते हुए वह बोला, ‘‘कोई नहीं जो कहानी बने, लेकिन अब अपने साथ और खिलवाड़ मत कीजिए.’’ ‘‘मरने वाला कभी किसी चीज से डरा है क्या सर…?’’ इस बार गरिमा की आवाज में गंभीरता झलक रही थी.

अचानक ड्राइवर ने कार रोकी. दोनों ने सवालिया नजरों से उसे देखा. कार में कोई खराबी आ गई थी जिसे वह ठीक करने में जुटा था. अब रात होने लगी थी. तभी ड्राइवर ने परेश को आवाज लगाई, ‘‘साहब, बाहर आइए.’’

परेश हैरानी से कार से बाहर निकला. ड्राइवर बोनट खोले इंजन को दुरुस्त करने में बिजी था. उस ने गरदन ऊपर उठाई और परेश के कान में फुसफुसा कर कहा, ‘‘साहबजी, कार को कुछ नहीं हुआ है. आप को एक बात बतानी थी, इसलिए यह ड्रामा किया.’’ ‘‘क्या?’’ परेश ने पूछा.

‘‘साहबजी, यह लड़की मुझे सही नहीं लग रही. आजकल पहाड़ों में… मुझे डर है कि कहीं आप के साथ कुछ गलत न हो जाए.’’ ‘‘अरे, तुम चिंता मत करो… मैं सब समझता हूं.’’

‘‘ठीक है साहब, आप की जैसी मरजी,’’ ड्राइवर ने लाचारी से कहा. ‘‘अच्छा, हमें ऐसी जगह ले चलो जहां भीड़भाड़ न हो,’’ परेश ने कहा.

सीजन नहीं होने से भीड़भाड़ नहीं थी. शहर से थोड़ा दूर एक बढि़या लोकेशन पर उन्हें ठहरने की शानदार जगह मिल गई. ड्राइवर उन्हें होटल में छोड़ कर वापस चला गया. कमरे में आते ही गरिमा का अल्हड़पन दिखने लगा था. अब ऐसा कुछ नहीं था जिस से लगे कि वह थोड़ी देर पहले जान देने जा रही थी.

रात के 9 बज रहे थे. डिनर आ गया था. गरिमा बाथरूम में थी. थोड़ी देर बाद परेश की ड्रैस पहन कर वह बाहर निकली तो एकदम तरोताजा लग रही थी. उस की खूबसूरती परेश को मदहोश करने लगी. डिनर निबट गया. एक बैड पर लेटे दोनों उस मुद्दे पर चर्चा कर रहे थे जिस की वजह से गरिमा इतनी परेशान थी.

गरिमा की कहानी बड़ी अजीब थी. कालेज के बाद उस ने जिस कंपनी में काम शुरू किया वहीं उस के बौस ने उसे प्यार के जाल में ऐसा फंसाया कि वह अभी तक उस भरम से बाहर नहीं निकल पा रही थी. अधेड़ उम्र का बौस उसे सब्जबाग दिखाता रहा और उस से खेलता रहा. जब गरिमा के मम्मीपापा को इस बात की भनक लगी तो उन्होंने उसे बहुत समझाया. सख्ती भी की लेकिन एक बार तीर कमान से निकल जाए तो फिर उसे वापस कमान में लौटाना मुमकिन नहीं होता. कुछ परवरिश में भी कमी रही. न पापा को फुरसत और न मम्मी को.

गरिमा को पुलिस का डर नहीं था. वह पहले भी 4 बार ऐसा कर चुकी थी, इसलिए उस के मातापिता अब पुलिस में शिकायत करा कर अपनी फजीहत नहीं कराना चाहते थे. गरिमा सो चुकी थी. परेश उस के बेहद करीब था. उस की सांसों की उठापटक एक अजीब सा नशा दे रही थी. आहिस्ता से उस का हाथ गरिमा की छाती पर चला गया. कोई विरोध नहीं हुआ. कुछ पल ऐसे ही बीत गए.

परेश कुछ और करता, उस से पहले ही गरिमा ने अचानक अपनी आंखें खोल दीं, ‘‘आप की क्या उम्र है सर?’’ ‘‘यही कोई 40 साल…’’ परेश ने जवाब दिया.

‘‘गुड, मैच्योर्ड पर्सन… अच्छा, एक बात बताओ… मैं कैसी लग रही हूं?’’ मुसकराते हुए गरिमा ने पूछा. ‘‘बहुत ज्यादा खूबसूरत,’’ परेश ने जोश में कहा.

इस में कोई शक नहीं था कि गरिमा की अल्हड़ जवानी, मासूमियत से लबरेज खूबसूरती सच में बड़ी दिलकश लग रही थी. ‘‘सच में…?’’

‘‘सच में आप बहुत खूबसूरत हैं,’’ परेश ने अपनी बात दोहराई. ‘‘लेकिन मैं खूबसूरत ही होती तो वह मुझे क्यों छोड़ता… दूध में से मक्खी की तरह निकाल बाहर किया उस ने…’’

‘‘प्लीज गरिमा, आप हकीकत को मान क्यों नहीं लेतीं? जो हुआ सही हुआ. पूरी जिंदगी पड़ी है आप की. वहां उस के साथ क्या फ्यूचर था, यह भी सोचो?’’ ‘‘इतना आसान नहीं है सर, किसी को भुला देना. प्यार किया है मैं ने…’’

‘‘मान लिया लेकिन तुम में समझ ही होती तो क्या ऐसे प्यार को अपनाती?’’ ‘‘सर, यह सही है कि हम में थोड़ा उम्र का फर्क था लेकिन उस के बीवीबच्चे थे, यह मुझे अब पता चला… धोखा किया उस ने मेरे साथ…’’

‘‘तो फिर तुम उसे अब क्यों याद कर रही हो? बुरा सपना बीत गया. अब तो वर्तमान में लौट आओ?’’ गरिमा ने कोई जवाब नहीं दिया. वह परेश के बहुत करीब लेटी थी. सच तो यह था कि परेश अब बहुत दुविधा में था.

गरिमा का हाथ परेश की छाती पर था. उस का इस तरह लिपटना उसे असहज कर रहा था. उस के अंदर शांत पड़ा मर्द जागने लगा. गरिमा के मासूम चेहरे पर कोई भाव नहीं थे. ‘‘क्या तुम्हें मुझ से डर नहीं लगता?’’ परेश ने पूछा.

‘‘नहीं, मुझे आप पर भरोसा है,’’ गरिमा ने शांत आवाज में जवाब दिया. ‘‘क्यों… मैं भी मर्द हूं… फिर?’’ परेश ने पूछा.

‘‘कोई नहीं सर… अब मैं इनसान और जानवर में फर्क करना सीख गई हूं.’’ गरिमा के जवाब से परेश को ग्लानि महसूस हुई. वह फौरन संभल गया. गरिमा क्या सोचेगी… हद है मर्द कितना नीचे गिर सकता है? परेश का मन उसे कचोटने लगा.

लेकिन गरिमा का अलसाया बदन परेश में भूचाल ला रहा था. गरिमा का खुलापन अजीब राज बन रहा था. वह समझ नहीं पा रहा था कि इस इम्तिहान में कैसे पास हो… गरिमा अब भी उस से लिपटी हुई थी. उस की आंखों में नींद की खुमारी झलक रही थी.

परेश सोच रहा था कि गरिमा का ऐसा बरताव उस के लिए न्योता था या अपनेपन में खोजता विश्वास… परेश की दुविधा ज्यादा देर नहीं चली. उस की हालत को समझ कर गरिमा बोली, ‘‘अगर आप इस समय मुझ से कुछ चाहते हैं तो मैं इनकार नहीं करूंगी… आप की मैं इज्जत करती हूं… आप ने मुझे आज नई जिंदगी दी है.’’

‘‘अरे नहीं, प्लीज… ऐसा कुछ भी नहीं… तुम दोस्त बन गई हो… बस यही बड़ा गिफ्ट है मेरे लिए,’’ सकपकाए परेश ने जवाब दिया. ‘‘उम्र में छोटी हूं सर लेकिन एक बात कहूंगी… शरीर का मिलन इनसान को दूर करता है और मन का मिलन हमेशा नजदीक, इसलिए फैसला आप पर है…’’

परेश को महसूस हुआ, सच में समझ उम्र की मुहताज नहीं होती. छोटे भी बड़ी बात कह और समझ सकते हैं. 2 दिन सैरसपाटे में बीत गए. परेश की किताब का काम शुरू ही न हो पाया, लेकिन गरिमा अब बिलकुल ठीक थी. वह वापस अपने घर लौटने को राजी हो गई थी. परेश ने फोन नंबर ले कर उस के पापा से बात की. घर से गुम हुई जवान लड़की की खबर पा कर गरिमा के मम्मीपापा ने सुकून की सांस ली.

परेश और गरिमा अब दोस्त बन गए थे. पक्के दोस्त, जिन में उम्र का फर्क तो था लेकिन आपसी समझ कहीं ज्यादा थी. परेश की मेहनत रंग लाई और गरिमा अपने घर वापस लौट गई. कुछ दिन बाद उस की शादी भी हो गई. अब वह अपनी गृहस्थी में खुश थी. परेश के लिए यह सुकून की बात थी. अकसर उस का फोन आ जाता, वही बिंदास, अल्हड़पन लेकिन अब सच में उस ने जिंदगी जीनी सीख ली थी. दिखावा नहीं बल्कि औरत की सच्ची गरिमा का अहसास और जिम्मेदारी उस में आ गई थी.

परेश सोचता था कि गरिमा को उस ने जीना सिखाया या गरिमा ने उसे? लेकिन यह सच था कि गरिमा जैसी अनोखी दोस्त परेश को औरत के मन की गहराइयों का अहसास करा गई.

Hindi Short Story : क्या जादू कर दिया

Hindi Short Story : चंपा इस गांव के बाशिंदे भवानीराम की बेटी थी. वे चंपा को कालेज पढ़ाना नहीं चाहते थे, मगर चंपा की इच्छा थी और उस के टीचरों के दबाव देने पर वे उसे पढ़ाने के लिए शहर भेजने को राजी हो गए.

जैसे ही चंपा का कालेज में दाखिला हुआ, उस की सहेलियों ने खुशियां मनाईं. वे सब चंपा को पढ़ाकू समझती थीं और उसे चाहती भी खूब थीं.

जब चंपा गांव के हायर सैकेंडरी स्कूल में पढ़ती थी, तब पूरी जमात में उस का दबदबा था. अगर कोई लड़का ऊंची आवाज में बोल देता था, तब वह उसे ऐसी नसीहत देती थी कि वह चुप हो जाता था. इसी वजह से वह अपनी सहेलियों की चहेती बनी हुई थी.

गांव में भी चंपा की धाक थी. कोई भी बदमाश लड़का उस से कुछ नहीं कहता था. कहने वाले दबी जबान में कहते थे कि यह चंपा नहीं, बल्कि ‘चंपालाल’ है.

अभी चंपा गली का नुक्कड़ पार कर ही रही थी कि दिनेश, जो गांव का एक आवारा लड़का था और शहर के कालेज में पढ़ता था, न जाने कब से उस के पीछेपीछे आ रहा था.

दिनेश उस का रास्ता रोकते हुए बोला, ‘‘कहां जा रही हो चंपा?’’

‘‘अपने घर,’’ हंसते हुए चंपा बोली.

‘‘कभी हमारे घर भी चलो,’’ उस के जिस्म को घूरते हुए दिनेश बोला.

‘‘तुम्हारे घर क्यों भला?’’ चंपा ने हैरानी से पूछा.

‘‘मेरा कहना मानोगी, तो मैं तुम्हें मालामाल कर दूंगा,’’ दिनेश ने लालच देते हुए कहा.

चंपा जानती थी कि दिनेश गांव के रईस मांगीलाल का बिगड़ैल बेटा है. उसे पैसों का खूब घमंड है, इसलिए सारा दिन गांव में आवारागर्दी करता है. लड़कियों को छेड़ना उस की आदत है. उस की करतूत जगजाहिर है, मगर अपनी इज्जत के डर से कोई भी गांव का आदमी उस के मुंह नहीं लगता है.

चंपा को चुप देख कर दिनेश बोला, ‘‘क्या सोच रही हो चंपा? मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया?’’

चंपा ने देखा कि जिस मोड़ पर वे दोनों खड़े थे, उस के आसपास जितने भी मर्दऔरत अपने घरों में बैठ कर बातें कर रहे थे, उन्होंने अपने दरवाजेखिड़कियां बंद कर ली थीं. दिनेश का डर उन के भीतर बैठा हुआ था. ऐसा लग रहा था कि कर्फ्यू लगा हुआ है.

दिनेश जब भी शहर से गांव में आता था और वहां की गलियों में घूमता था, तो उस के डर से सन्नाटा छा जाता था.

आज चंपा का उस से पहली बार सामना हुआ था, इसलिए उस ने भीतर ही भीतर उस से सामना करने के लिए अपने को तैयार कर लिया था.

‘‘चंपा, तू क्या सोचने लगी?’’ उसे चुप देख कर दिनेश ने फिर कहा, ‘‘तू ने जवाब नहीं दिया?’’

‘‘मैं ने जवाब दे तो दिया, शायद तुम ने सुना नहीं. बहरे हो क्या?’’

‘‘क्या कहा, मैं बहरा हूं? शायद तू मुझे जानती नहीं है?’’

‘‘अरे, तुझे तो सारा गांव जानता है,’’ चंपा ने कहा.

‘‘तब फिर क्यों तू दादागीरी कर रही है?’’

‘‘मैं एक लड़की हूं. मैं क्या दादागीरी करूंगी. गांव का दादा तो तू है,’’ चंपा उसी तरह से जवाब देते हुए बोली.

‘‘जैसा मैं ने सुना था, तू वैसी ही निकली. सुना है, कालेज में भी तू दादा बन कर रहती है?’’ दिनेश ने पूछा.

‘‘मैं ने पहले ही कहा, मैं क्या दादागीरी करूंगी. मगर अब लड़कियां इतनी कमजोर भी नहीं हैं कि हर कोई उन की कमजोरी का फायदा उठा सके,’’ कह कर चंपा ने अपने इरादे जाहिर कर दिए.

दिनेश कोई जवाब नहीं दे पाया. गली में पूरी तरह सन्नाटा था. मगर फिर भी लोग खिड़की खोल कर झांकने की कोशिश कर रहे थे. उन के भीतर एक डर बैठा हुआ था कि आज चंपा दिनेश के सामने आ गई है.

दिनेश बोला, ‘‘बहुत अकड़ कर बात कर रही है. मैं तेरी यह अकड़ निकाल दूंगा. चल, मेरे साथ. बहुत जवानी का जोश है तुझ में,’’ कह कर दिनेश ने चंपा का हाथ पकड़ लिया.

चंपा गुस्से में चीखते हुए बोली, ‘‘छोड़ दे मेरा हाथ. मैं वैसी लड़की नहीं हूं, जैसा तू समझ रहा है.’’

‘‘मैं एक बार जिस लड़की का हाथ पकड़ लेता हूं, फिर छोड़ता नहीं हूं,’’ दिनेश ने कहा.

‘‘ये फिल्मी डायलौग मत बोल. चुपचाप मेरा हाथ छोड़ दे.’’

‘‘यह तू नहीं, तेरी जवानी बोल रही है. चल मेरे साथ, जवानी का सारा जोश ठंडा कर देता हूं,’’ कह कर दिनेश उस को घसीट कर ले जाने लगा.

तब चंपा चिल्ला कर बोली, ‘‘मर्द है तो मर्द की तरह बात कर. यों कमरे में बंद कर के क्यों अपनी मर्दानगी दिखा रहा है. अगर तुझे अपनी मर्दानगी दिखानी है, तो यहीं दिखा. उतारूं कपड़े?’’ कहते हुए उस ने अपनी टीशर्ट उतार दी.

दिनेश थोड़ा ढीला पड़ गया. तब चंपा अपना हाथ छुड़ाते हुए बोली, ‘‘क्या सोच रहा है, और उतारूं कपड़े? बुझा ले अपनी प्यास,’’ कहते हुए उस ने टीशर्ट घुमा कर दिनेश को दे मारी.

‘‘मगर एक बात याद रख, गांव की किसी लड़की पर बुरी नजर नहीं रखनी चाहिए. लड़की कमजोर नहीं है. छोड़ दे बुरी नजर. फिर हर औरत को कमजोर भी मत समझ. इसलिए कहती हूं कि पैसों का घमंड छोड़ दे. यह एक दिन तुझे ले डूबेगा,’’ चंपा ने समझाते हुए कहा.

सारा महल्ला देखता रह गया. लोग बाहर निकल आए. लड़की के हाथों पिटे दिनेश का मुंह छोटा हो गया.

इतना कह कर चंपा वहां से चली गई.

दिनेश गुस्से से भरा वहीं खड़ा रह गया. आज एक लड़की से हार गया, जो उसे चुनौती दे गई. चुनौती भी ऐसी, जिसे वह पूरा नहीं कर सके. आज तक गांव वालों में से किसी की भी हिम्मत नहीं थी कि कोई उस के खिलाफ बोले, उसे चुनौती दे, मगर आज चंपा ने इस कदर उस को चुनौती दे डाली. वह उस का विरोध नहीं कर सका.

दिनेश ने जब गली की तरफ देखा, तो सभी मर्दऔरत दरवाजा खोल कर उसे हैरत भरी नजरों से देख रहे थे. वह उन से नजरें नहीं मिला सका और चुपचाप अपनी हवेली की तरफ चल दिया.

सारे गली वाले मानो एक ही सवाल अपनेआप से पूछ रहे थे कि चंपा ने दिनेश पर ऐसा क्या जादू किया, जो नीची गरदन कर के चला गया? सभी एकदूसरे से आंखों ही आंखों में इशारा कर रहे थे, मगर कुछ समझ नहीं पा रहे थे. सभी के दिमाग में एक ही बात बैठ चुकी थी कि चंपा की अब खैर नहीं. उस ने दिनेश से पंगा ले कर अपने ऊपर मुसीबत मोल ले ली है. वह गांव का बहुत बड़ा गुंडा है. पैसों के बल पर वह कुछ भी कर सकता है.

इस घटना से गांव में दहशत फैल गई. सभी गांव वाले खामोश हो गए.

अगले दिन चंपा कालेज पहुंची, तो हीरो बन गई थी. दिनेश की हिम्मत अब टूट चुकी थी.

चंपा कालेज नहीं छोड़ना चाहती थी, इसलिए उस ने भी हालात से समझौता कर लिया.

इस घटना के कुछ दिनों बाद दिनेश में बहुत बड़ा बदलाव दिखा. पहले वह हमेशा गुंडा बन कर रहा करता था, अपने को सब से बड़ा समझता था.

आमतौर पर अब वह चंपा के साथ कैंटीन में चाय पीता दिखता. वह अपने दोस्तों से कहता, ‘‘यह रही टीशर्ट… मार चंपा.’’

यह सुन कर चंपा शर्म से लाल हो जाती.

दिनेश शरीफ हो चुका था. गांव की किसी लड़की या किसी बहू को अब वह बुरी नजर से नहीं देखता था. उस पर चंपा ने उस दिन ऐसा क्या जादू कर दिया, यह आज तक राज बना हुआ था.

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