जब से सुनील शर्मा इस दफ्तर में प्रमोशन ले कर आए हैं तब से वे कभी चपरासी गणेशी से पानी नहीं मंगाते हैं. वे खुद ही उठ कर पी आते हैं, चाहे मेज पर कितना भी काम हो.
गणेशी कई दिनों से सुनील शर्मा की इस आदत को देख रहा था. आज भी जब वे पानी पी कर अपनी मेज पर आ कर बैठे तब गणेशी आ कर बोला, ‘‘बाबूजी, एक बात कहूं...’’
‘‘कहो,’’ सुनील शर्मा ने नजर उठा कर गणेशी की तरफ देखा.
‘‘जब से आप आए हो, उठ कर पानी पीते हो.’’
‘‘हां, पीता हूं,’’ सुनील शर्मा ने सहजता से जवाब दिया.
‘‘आप मुझे आदेश दे दिया करें न, मैं पिला दिया करूंगा. आखिर मेरी ड्यूटी पानी पिलाने की ही है,’’ गणेशी ने सवालिया निगाहों से पूछा.
‘‘देखो गणेशी, मेरा उसूल है कि अपना काम खुद करना चाहिए,’’ सुनील शर्मा ने अपनी बात रखी.
‘‘ऐसी बात नहीं है बाबूजी, आप मेरे हाथ का पानी पीना नहीं चाहते हैं,’’ गणेशी ने यह कह कर गुस्से से सुनील शर्मा को देखा.
सुनील शर्मा तुरंत कोई जवाब नहीं दे पाए. गणेशी फिर बोला, ‘‘मगर, मैं सब जानता हूं बाबूजी, आप मेरे हाथ का पानी क्यों नहीं पीना चाहते हैं.’’
‘‘क्या जानते हो?’’
‘‘मैं अछूत हूं, इसलिए आप मेरा दिया पानी नहीं पीना चाहते हो.’’
‘‘ऐसी बात नहीं है गणेशीजी, मैं छुआछूत को नहीं मानता हूं.’’
‘‘फिर मुझ से पानी मंगा कर क्यों नहीं पीते हो?’’
‘‘देखो गणेशीजी, आप चपरासी हो. मैं जब से इस दफ्तर में आया हूं, किसी को आप ने अपनी मरजी से पानी नहीं पिलाया. जिस बाबू ने पानी पीने के लिए कहा तब कहीं जा कर आप ने पिलाया...’’ समझाते हुए सुनील शर्मा बोले, ‘‘इसी बात को मैं कई दिनों से देख रहा था, जबकि तुम्हारा यह फर्ज बनता है कि बाबुओं को बिना मांगे पानी पिलाना चाहिए.’’