कड़वी गोली- भाग 3

‘‘समय तो आप के पास अपने बाप के लिए भी नहीं है, कुत्ता तो बहुत दूर की चीज है बेटे. रही बात तमीज की तो वह महेश भैया ने तुम दोनों को भी बहुत सिखाई थी. यह तो जानवर है. बेचारा मालिक के वियोग में भूखा रह सकता है या भौंक सकता है फिर भी दुम हिला कर स्वागत तो कर सकता है. तुम से तो वह भी नहीं हुआ…जिन के पास जबान भी है और हाथपैर भी. घंटे भर से हम देख रहे हैं मुझे तो तुम दोनों में से कोई अपने पिता के लिए एक कप चाय लाता भी दिखाई नहीं दिया.’’

मीना बोली तो बड़ा बेटा अजय स्तब्ध रह गया. कुछ कहता तभी टोक दिया मीना ने, ‘‘तुम्हारे पास समय नहीं कोई बात नहीं. महेश नौकर रख कर अपना गुजारा कर लेंगे. कम से कम उन की तनख्वाह तो तुम उन के पास छोड़ दो…बाप की तनख्वाह तो तुम दोनों भाइयों ने आधीआधी बांट ली, कभी यह भी सोचा है कि वह बचे हुए 2 हजार रुपयों में कैसे खाना खाते हैं? दवा भी ले पाते हैं कि नहीं? फोन तक कटवा दिया उन का, क्यों? क्या उन का कोई अपना जानने वाला नहीं जिस के साथ वह सुखदुख बांट सकें. क्या जीते जी मर जाए तुम्हारा बाप?’’

मीना की ऊंची आवाज सुन छोटा बेटा विजय और उस की पत्नी भी अपने कमरे से बाहर चले आए.

‘‘तुम दोनों की मां आज जिंदा होतीं तो अपने पति की यह दुर्गति नहीं होने देतीं. हम क्या करें? हमारी सीमा तो सीमित है न बेटे. तुम मेरे बच्चे होते तो कान मरोड़ कर पूछती, लेकिन क्या करूं मैं तुम्हारी मां नहीं हूं न.’’

रोने लगी थी मीना. महेश और उस के परिवार के लिए अकसर रो दिया करती है. कभी उन की खुशी में कभी उन की पीड़ा में.

‘‘कभी कपड़े देखे हैं विजय तुम ने अपने पापा के. हजारों रुपए अपनी कमीजों पर तुम खर्च कर देते हो. कभी देखा है इतनी गरमी में उन के पास कोई ढंग की सूती कमीज भी है…

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‘‘आफिस के सामने वाले ढाबे पर दोपहर का खाना खाते हैं. क्या तुम दोनों की बीवियां वक्त पर ससुर को टिफिन नहीं दे सकतीं. अरे, सुबह नहीं तो कम से कम दोपहर तक पहुंचाने का इंतजाम ही करवा दो.

‘‘बहुएं तो दूसरे घरों से आई हैं. हो सकता है इन के घर में मांबाप का ऐसा ही आदर होता हो. कम से कम तुम तो अपने पिता की कद्र करना अपनी पत्नियों को सिखाओ. क्या मैं ने यही संस्कार दिए थे तुम लोगों को? ऐसा ही सिखाया था न?’’

दोनों भाई चुप थे और उन की बीवियां तटस्थ थीं. अजयविजय आगे कुछ कहते कि मीना ने पुन: कहा, ‘‘बेटा, अपने बाप को लावारिस मत समझना. अभी तुम जैसे 2-4 वह और भी पाल सकते हैं. नहीं संभाले जाते तो यह घर छोड़ कर चले जाओ, अजय तुम अपने फ्लैट में और विजय तुम किराए के घर में. अपनीअपनी किस्तें खुद दो वरना आज ही महेश फ्लैट और गाड़ी बेचने को तैयार हैं…इन्हीं के नाम हैं न दोनों चीजें.’’

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महेश चुपचाप आंखें मूंदे पड़े थे. जाहिर था उसी के शब्द मीना के होंठों से फूट रहे थे.

‘‘मीना, अब बस भी करो. आओ, चलें.’’

आतेआते दोनों बच्चों का कंधा थपक दिया. मुझ से आंखें मिलीं तो ऐसा लगा मानो वही पुराने अजयविजय सामने खड़े हों जो स्कूल में की गई किसी शरारत पर टीचर की सजा से बचने के लिए मेरे या मीना के पास चले आते थे. आंखें मूंद कर मैं ने आश्वासन दिया.

‘‘कोई बात नहीं बेटा, जब जागे तभी सवेरा. संभालो अपने पापा को…’’

डबडबा गई थीं दोनों की आंखें. मानो अपनी भूल का एहसास पहली बार उन्हें हुआ हो. मैं कहता था न कि हमारे बच्चे संस्कारहीन नहीं हैं. हां, जवानी के जोश में बस जरा सा यह सत्य भूल गए हैं कि उन्हें जवान बनाने में इसी बुढ़ापे का खून और पसीना लगा है और यही बुढ़ापा बांहें पसारे उन का भी इंतजार कर रहा है.

कहा था न मैंने कि उन का प्यार कहीं सो सा गया है. उसी प्यार को जरा सा झिंझोड़ कर जगा दिया था मीना ने. सच ही कहा था मैं ने, रो पड़े थे दोनों और साथसाथ मीना भी. जरा सा चैन आ गया मन को, अंतत: सब अच्छा ही होगा, यह सोच मैं ने और मीना ने उन के घर से विदा ली. क्या करते हम, कभीकभी मर्ज को ठीक करने के लिए मरीज को कड़वी गोली भी देनी पड़ती है.

कड़वी गोली- भाग 1

लेखक- सुधा गुप्ता

बरामदे का पिछला कोना गंदा देख कर मीना बड़बड़ा रही है. दोष किसी इनसान का नहीं, एक छोटे से पंछी का है जिसे पंजाब में ‘घुग्गी’ कहते हैं. किस्सा इतना सा है कि सामने कोने में ‘घुग्गी’ के एक जोड़े ने अपना छोटा सा घोंसला बना रखा है जिस में उन के कुछ नवजात बच्चे रहते  हैं. अभी उन्हें अपने मांबाप की सुरक्षा की बेहद जरूरत है.

नरमादा दोनों किसी को भी उस कोने में नहीं जाने देना चाहते क्योंकि उन्हें लगता है कि हम उन के बच्चे चुरा लेंगे या उन्हें कोई नुकसान पहुंचाएंगे. काम वाली बाई सफाई करने गई तो चोंच से उस के सिर के बाल ही खींच ले गए. इस के बाद से उस ने तो उधर जाना ही छोड़ दिया. मीना घूंघट निकाल कर उधर गई तो उस के सिर पर घुग्गी के जोड़े ने चोंच मार दी.

‘‘इन्हें किसी भी तरह यहां से हटाइए,’’ मीना गुस्से में बोली, ‘‘अजीब गुंडागर्दी है. अपने ही घर में इन्होंने हमारा चलनाफिरना हराम कर रखा है.’’

‘‘मीना, इन की हिम्मत और ममता तो देखो, हमारा घर इन नन्हेनन्हे पंछियों के शब्दकोष में कहां है. यह तो बस, कितनी मेहनत से अपने बच्चे पाल रहे हैं. यहां तक कि रात को भी सोते नहीं. याद है, उस रोज रात के 12 बजे जब मैं स्कूटर रखने उधर गया था तो भी दोनों मेरे बाल खींच ले गए थे.’’

रात 12 बजे का जिक्र आया तो याद आया कि मीना को महेश के बारे में बताना तो मैं भूल ही गया. महेश का फोन न मिल पाने के कारण हम पतिपत्नी परेशान जो थे.

‘‘सुनो मीना, महेश का फोन तो कटा पड़ा है. बच्चों ने बिल ही जमा नहीं कराया. कहते हैं सब के पास मोबाइल है तो इस लैंडलाइन की क्या जरूरत है…’’

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बुरी तरह चौंक गई थी मीना. ‘‘मोबाइल तो बच्चों के पास है न, महेश अपनी बातचीत कैसे करेंगे? वैसे भी महेश आजकल अपनेआप में ही सिमटते जा रहे हैं. पिछले 2 माह से दोपहर का खाना भी दफ्तर के बाहर वाले ढाबे से खा रहे हैं क्योंकि सुबहसुबह खाना  बना कर देना बहुओं के बस का नहीं है.’’

मीना के बदलते तेवर देख कर मैं ने गरदन झुका ली. 18 साल पहले जब महेश की पत्नी का देहांत हुआ था तब दोनों बेटे छोटे थे, उम्र रही होगी 8 और 10 साल. आज दोनों अच्छे पद पर कार्यरत हैं, दोनों का अपनाअपना परिवार है. बस, महेश ही लावारिस से हैं, कभी इधर तो कभी उधर.

एक दिन मैं ने पूछा था, ‘तुम अपनी जरूरतों के बारे में कब सोचोगे, महेश?’

‘मेरी जरूरतें अब हैं ही कितनी?’

‘क्यों? जिंदा हो न अभी, सांस चल रही है न?’

‘चल तो रही है, अब मेरे चाहने से बंद भी तो नहीं होती कम्बख्त.’

यह सुन कर मैं अवाक् रह गया था. बहुत मेहनत से पाला है महेश ने अपनी संतान को. कभी अच्छा नहीं पहना, अच्छा नहीं खाया. बस, जो कमाया बच्चों पर लगा दिया. पत्नी नहीं थी न, क्या करता, मां भी बनता रहा बच्चों की और पिता भी.

माना, ममता के बिना संतान पाली नहीं जा सकती, फिर भी एक सीमा तो होनी चाहिए न, हर रिश्ते में एक मर्यादा, एक उचित तालमेल होना चाहिए. उन का सम्मान न हो तो दर्द होगा ही.

महेश ने अपना फोन कटा ही रहने दिया. इस पर मुझे और भी गुस्सा आता कि बच्चों को कुछ कहता क्यों नहीं. फोन पर तो बात हो नहीं पा रही थी. 2 दिन सैर पर भी नहीं आया तो मैं उस के घर ही चला गया. पता चला साहब बीमार हैं. इस हालत में अकेला घर पर पड़ा था क्योंकि दोनों बहुएं अपनेअपने मायके गई थीं.

‘‘हर शनिवार उन का रात का खाना अपनेअपने मायके में होता है.’’

‘‘तो तुम कहां खाते हो? बीमारी में भी तुम्हें उन की ही वकालत सूझ रही है. फोन ठीक होता तो कम से कम मुझे ही बता देते, मैं ही मीना से खिचड़ी बनवा लाता…’’

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महेश चुप रहा और उस का पालतू कुत्ता सूं सूं करता उस के पैरों के पास बैठा रहा.

‘‘यार, इसे फ्रिज में से निकाल कर डबलरोटी ही डाल देना,’’ महेश बोला, ‘‘बेचारा मेरी तरह भूखा है. मुझ से खाया नहीं जा रहा और इसे किसी ने कुछ दिया नहीं.’’

‘‘क्यों? अब यह भी फालतू हो गया है क्या?’’ मैं व्यंग्य में बोल पड़ा, ‘‘10 साल पहले जब लाए थे तब तो आप लोगों को मेरा इसे कुत्ता कहना भी बुरा लगता था, तब यह आप का सिल्की था और आज इस का भी रेशम उतर गया लगता है.’’

‘‘हो गए होंगे इस के भी दिन पूरे,’’ महेश उदास मन से बोला, ‘‘कुत्ते की उम्र 10 साल से ज्यादा तो नहीं होती न भाई.’’

‘‘तुम अपनी उम्र का बताओ महेश, तुम्हें तो अभी 20-25 साल और जीना है. जीना कब शुरू करोगे, इस बारे में कुछ सोचा है? इस तरह तो अपने प्रति जो तुम्हारा रवैया है उस से तुम जल्दी ही मर जाओगे.’’

कभीकभी मुझे यह सोच कर हैरानी होती है कि महेश किस मिट्टी का बना है. उसे कभी कोई तकलीफ भी होती है या नहीं. जब पत्नी चल बसी तब नाते- रिश्तेदारों ने बहुत समझाया था कि दूसरी शादी कर लो.

तब महेश का सीधा सपाट उत्तर होता था, ‘मैं अपने बच्चों को रुलाना नहीं चाहता. 2 बच्चे हैं, शादी कर ली तो आने वाली पत्नी अपनी संतान भी चाहेगी और मैं 2 से ज्यादा बच्चे नहीं चाहता. इसलिए आप सब मुझे माफ कर दीजिए.’

महेश का यह सीधा सपाट उत्तर था. हमारे भी 2 बच्चे थे. मीना ने साथ दिया. इस सत्य से मैं इनकार नहीं कर सकता क्योंकि यदि वह न चाहती तो शायद मैं भी चाह कर कुछ नहीं कर पाता.

एक तरह से महेश, मैं और मीना, तीनों ने मिल कर 4 बच्चों को पाला. महेश के बच्चे कबकब मीना के भी बच्चे रहे समझ पाना मुश्किल था. मैं यह भी नहीं कहता महेश के बच्चे उस से प्यार नहीं करते, प्यार कहीं सो सा गया है, कहीं दब सा गया है कुछ ऐसा लगता है. सदा पिता से लेतेलेते  वे यह भूल ही गए हैं कि उन्हें पिता को कुछ देना भी है. छोटे बेटे ने पिता के नाम पर गाड़ी खरीदी जिस की किश्त पिता चुकाता है और बड़े ने पिता के नाम पर घर खरीदा है जिस की किश्त भी पिता की तनख्वाह से ही जाती है.

‘‘कुल मिला कर 2 हजार रुपए तुम्हारे हाथ आते हैं. उस में तुम्हारा दोपहर का खाना, कपड़ा, दवा, टेलीफोन का बिल कैसे पूरा होगा, क्या बच्चे यह सब- कुछ सोचते हैं? अगर नहीं सोचते तो उन्हें सोचना पड़ेगा, महेश.

दिल वर्सेस दौलत: भाग 3

लेखिका- रेणु गुप्ता

इस के साथ लाली की मां ने पति को वहां से जबरन उठने के लिए विवश कर दिया और फिर बेटी से बोलीं, ‘यह क्या बेवकूफी है, लाली? यह तेरा प्यार पप्पी लव से ज्यादा और कुछ नहीं. अगर तू ने मेरी बात नहीं मानी तो सच कह रही हूं, मैं तु झ से सारे रिश्ते तोड़ लूंगी. न मैं तेरी मां, न तू मेरी बेटी. जिंदगीभर तेरी शक्ल नहीं देखूंगी. सम झ लेना, मैं तेरे लिए मर गई.’ यह कह कर लाली की मां अतीव क्रोध में पांव पटकते हुए कमरे से बाहर चली गईं.

मां का यह विकट क्रोध देख लाली सम झ गई थी कि अब अगर कुदरत भी साक्षात आ जाए तो उन्हें इस रिश्ते के लिए मनाना टेढ़ी खीर होगा. मां के इस हठ से वह बेहद परेशान हो उठी. उस का अंतर्मन कह रहा था कि उसे अबीर जैसा सुल झा हुआ, सम झदार लड़का इस जिंदगी में दोबारा मिलना असंभव होगा. आज के समय में उस जैसे सैंसिबल, डीसैंट लड़के बिरले ही मिलते हैं. अबीर जैसे लड़के को खोना उस की जिंदगी की सब से बड़ी भूल होगी.

लेकिन मां का क्या करे वह? वे एक बार जो ठान लेती हैं वह उसे कर के ही रहती हैं. वह बचपन से देखती आई है, उन की जिद के सामने आज तक कोई नहीं जीत पाया. तो ऐसी हालत में वह क्या करे? पिछली मुलाकात में ही तो अबीर के साथ जीनेमरने की कसमें खाई थीं उस ने. दोनों ने एकदूसरे के प्रति अपनी प्रेमिल भावनाएं व्यक्त की थीं.

पिछली बार अबीर के उस के कहे गए प्रेमसिक्त स्वर उस के कानों में गूंजने लगे, ‘लाली माय लव, तुम ने मेरी आधीअधूरी जिंदगी को कंप्लीट कर दिया. दुलहन बन जल्दी से मेरे घर आ जाओ. अब तुम्हारे बिना रहना शीयर टौर्चर लग रहा है.’

क्या करूं क्या न करूं, यह सोचतेसोचते अतीव तनाव से उस के स्नायु तन आए और आंखें सावनभादों के बादलों जैसे बरसने लगीं. अनायास वह अपने मोबाइल स्क्रीन पर अबीर की फोटो देखने लगी और उसे चूम कर अपने सीने से लगा उस ने अपनी आंखें मूंद लीं.

तभी मम्मा उस का दरवाजा पीटने लगीं… ‘‘लाली, दरवाजा खोल बेटा.’’

उस ने दरवाजा खोला. मम्मा कमरे में धड़धड़ाती हुई आईं और उस से बोलीं, ‘‘मैं ने अबीर के पापा को इस रिश्ते के लिए मना कर दिया है. सारा टंटा ही खत्म. हां, अब अबीर का फोनवोन आए, तो उस से तु झे कुछ कहने की कोई जरूरत नहीं. वह कुछ कहे, तो उसे रिश्ते के लिए साफ इनकार कर देना और कुछ ज्यादा बात करने की जरूरत नहीं. ले देख, यह एक और लड़के का बायोडाटा आया है तेरे लिए. लड़का खूब हैंडसम है. नामी एमएनसी में सीनियर कंसल्टैंट है. 40 लाख रुपए से ऊपर का ऐनुअल पैकेज है लड़के का. मेरी बिट्टो राज करेगी राज. लड़के वालों की दिल्ली में कई प्रौपर्टीज हैं. रुतबे, दौलत, स्टेटस में हमारी टक्कर का परिवार है. बता, इस लड़के से फोन पर कब बात करेगी?’’

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‘‘मम्मा, फिलहाल मेरे सामने किसी लड़के का नाम भी मत लेना. अगर आप ने मेरे साथ जबरदस्ती की तो मैं दीदी के यहां लंदन चली जाऊंगी. याद रखिएगा, मैं भी आप की बेटी हूं.’’ यह कहते हुए लाली ने मां के कमरे से निकलते ही दरवाजा धड़ाक से बंद कर लिया.

मन में विचारों की उठापटक चल रही थी. अबीर उसे आसमान का चांद लग रहा था जो अब उस की पहुंच से बेहद दूर जा चुका था. क्या करे क्या न करे, कुछ सम झ नहीं आ रहा था.

सारा दिन उस ने खुद से जू झते हुए बेपनाह मायूसी के गहरे कुएं में बिताया. सां झ का धुंधलका होने को आया. वह मन ही मन मना रही थी, काश, कुछ चमत्कार हो जाए और मां किसी तरह इस रिश्ते के लिए मान जाएं. तभी व्हाट्सऐप पर अबीर का मैसेज आया, ‘‘तुम से मिलना चाहता हूं. कब आऊं?’’

उस ने जवाब में लिखा, ‘जल्दी’ और एक आंसू बहाती इमोजी भी मैसेज के साथ उसे पोस्ट कर दी. अबीर का अगला मैसेज एक लाल धड़कते दिल के साथ आया, ‘‘कल सुबह पहुंच रहा हूं. एयरपोर्ट पर मिलना.’’

लाली की वह रात आंखों ही आंखों में कटी. अगली सुबह वह मां को एक बहाना बना एयरपोर्ट के लिए रवाना हो गई.

क्यूपिड के तीर से बंधे दोनों प्रेमी एकदूसरे को देख खुद पर काबू न रख पाए और दोनों की आंखों से आंसू बहने लगे. कुछ ही क्षणों में दोनों संयत हो गए और लाली ने उन दोनों के रिश्ते को ले कर मां के औब्जेक्शंस को विस्तार से अबीर को बताया.

अबीर और लाली दोनों ने इस मुद्दे को ले कर तसल्ली से, संजीदगी से विचार किया और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि अब जो कुछ करना है उन दोनों को ही करना होगा.

‘‘लाली, इन परिस्थितियों में अब तुम बताओ कि क्या करना है? तुम्हारी मां हमारी शादी के खिलाफ मोरचाबंदी कर के बैठी हैं. उन्होंने साफसाफ लफ्जों में इस के लिए मेरे पापा से इनकार कर दिया है. तो इस स्थिति में अब मैं किस मुंह से उन से अपनी शादी के लिए कहूं?’’ अबीर ने कहा.

‘‘हां, यह तो तुम सही कह रहे हो. चलो, मैं अपने पापा से इस बारे में बात करती हूं. फिर मैं तुम्हें बताती हूं.’’

‘‘ठीक है, ओके, चलता हूं. बस, यह याद रखना मैं तुम्हें बहुत चाहता हूं. शायद खुद से भी ज्यादा. अब तुम्हारे बिना मेरा कोई वजूद नहीं.’’

लाली ने अपनी पनीली हो आई आंखों से अबीर की तरफ एक फ्लाइंग किस उछाल दिया और फुसफुसाई, ‘हैप्पी एंड सेफ जर्नी माय लव, टेक केयर.’’

लाली एयरपोर्ट से सीधे अपने पापा के औफिस जा पहुंची और उस ने उन्हें वस्तुस्थिति से अवगत कराया. उस की बातें सुन पापा ने कहा, ‘‘अगर तुम और अबीर इस विषय में निर्णय ले ही चुके हो तो मैं तुम दोनों के साथ हूं. मैं कल ही अबीर के घर जा कर तुम्हारी मां के इनकार के लिए उन से माफी मांगता हूं और तुम दोनों की शादी की बात पक्की कर देता हूं. इस के बाद ही मैं तुम्हारी मां को अपने ढंग से सम झा लूंगा. निश्चिंत रहो लाली, इस बार तुम्हारी मां को तुम्हारी बात माननी ही पड़ेगी.’’

लाली के पिता ने लाली से किए वादे को पूरा किया. अबीर के घर जा कर उन्होंने अपनी पत्नी के इनकार के लिए उन से हाथ जोड़ कर बच्चों की खुशी का हवाला देते हुए काफी मिन्नतें कर माफी मांगी और उन दोनों की शादी पक्की करने के लिए मिन्नतें कीं.

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इस पर अबीर के पिता ने उन से कहा, ‘‘भाईसाहब, अबीर के ही मुंह से सुना कि आप लोगों को हमारे इस 2 बैडरूम के फ्लैट को ले कर कुछ उल झन है कि शादी के बाद आप की बेटी इस में कहां रहेगी? आप की परेशानी जायज है, भाईसाहब. तो, मेरा खयाल है कि शादी के बाद दोनों एक अलग फ्लैट में रहें. आखिर बच्चों को भी प्राइवेसी चाहिए होगी. यही उन के लिए सब से अच्छा और व्यावहारिक रहेगा. क्या कहते हैं आप?’’

‘‘बिलकुल ठीक है, जैसा आप उचित सम झें.’’

‘‘तो फिर, दोनों की बात पक्की?’’

‘‘जी बिलकुल,’’ अबीर के पिता ने लाली के पिता को मिठाई खिलाते हुए कहा.

बेटी की शादी उस की इच्छा के अनुरूप तय कर, घर आ कर लाली के पिता ने पत्नी को लाली और अबीर की खुशी के लिए उन की शादी के लिए मान जाने के लिए कहा. लाली ने तो साफसाफ लफ्जों में उन से कह दिया, ‘‘इस बार अगर आप हम दोनों की शादी के लिए नहीं माने तो मैं और अबीर कोर्ट मैरिज कर लेंगे.’’ और लाली की यह धमकी इस बार काम कर गई. विवश लाली की मां को बेटी और पति के सामने घुटने टेकने पड़े.

आखिरकार, दिल वर्सेस दौलत की जंग में दिल जीत गया और दौलत को मुंह की खानी पड़ी.

मुट्ठी भर प्यार- भाग 1

लेखक-सुधा गोयल

मैं उन से एक शब्द भी नहीं बोल पाई. बोल ही कहां पाती…सूचना ही इतनी अप्रत्याशित थी. सुन कर जैसे यकीन ही नहीं आया और जब तक यकीन हुआ फोन कट चुका था. इतना भी नहीं पूछ पाई कि यह सब कैसे और कब हुआ. वे मानें या न मानें पर यह सच है कि जितना हम बूआ के प्यार को तरसे हैं उतनी ही हमारी कमी बूआजी ने भी महसूस की होगी. हमारे संबंधों में लक्ष्मण रेखाएं मम्मीपापा ने खींच दीं. इस में हम दोनों बहनें कहां दोषी हैं. कहते हैं कि मांबाप के कर्मों की सजा उन के बच्चों को भोगनी पड़ती है. सो भोग रहे हैं, कारण चाहे कुछ भी हों. कितनाकितना सामान बूआजी हम दोनों बहनों के लिए ले कर आती थीं. बूआजी के कोई बेटी नहीं थी और हमारा कोई भाई नहीं था. पापा के लिए भी जो कुछ थीं बस, बूआजी ही थीं. अत: अकेली बूआजी हर रक्षाबंधन पर दौड़ी चली आतीं. उमंग और नमन भैया के हम से राखी बंधवातीं और राखी बंधाई में भैया हमें सुंदर ड्रेसें देते, साथ में होतीं मैचिंग क्लिप, रूमाल, चूडि़यां, टौफी और चौकलेट.

हम बूआजी के आगेपीछे घूमते. बूआजी अपने साथ बाजार ले जातीं, आइसक्रीम खिलातीं, कोक पिलातीं, ढेरों सामान से लदे जब हम घर में घुसते तो दादीमां बूआजी को डांटतीं, ‘इतना खर्च करने की क्या जरूरत थी? इन दोनों के पास इतना सामान है, खिलौने हैं, पर इन का मन भरता ही नहीं.’

बूआजी हंस कर कहतीं, ‘मम्मी, अब घर में शैतानी करने को ये ही 2 बच्चियां हैं. घर कैसा गुलजार रहता है. ये हमारा बूआभतीजी का मामला है, कोई बीच में नहीं बोलेगा.’

थोडे़ बड़े हुए तो मुट्ठी में बंद सितारे बिखर गए. बूआजी को बुलाना तो दूर पापाजी ने उन का नाम तक लेने पर पाबंदी लगा दी. बूआजी आतीं, भैया आते तो हम चोरीचोरी उन से मिलते. वह प्यार करतीं तो उन की आंखें नम हो आतीं.

पापामम्मी ने कभी बूआजी को अपने घर नहीं बुलाया. भैया से भी नहीं बोले, जबकि बूआजी हम पर अब भी जान छिड़कती थीं. राखियां खुल गईं. रिश्ते बेमानी हो गए. कैसे इंतजार करूं कि कभी बूआजी बुलाएंगी और कहेंगी, ‘धरा और तान्या, तुम अपनी बूआजी को कैसे भूल गईं? कभी अपनी बूआ के घर आओ न.’

कैसे कहतीं बूआजी? उन के आगे रिश्तों का एक जंगल उग आया था और उस के पार बूआजी आ नहीं सकती थीं. जाने ऐसे कितने जंगल रिश्तों के बीच उग आए जो वक्तबेवक्त खरोंच कर लहूलुहान करते रहे. बूआजी के एक फोन से कितना कुछ सोच गई मैं.

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मैं अतीत से बाहर आ कर अपने कर्तव्य की ओर उन्मुख हुई. तान्या को मैं ने फौरन फोन मिलाया तो वह बोली, ‘‘दीदी, फिलहाल मैं नहीं निकल पाऊंगी. बंगलौर से वहां पहुंचने में 2 दिन तो लग ही जाएंगे. फ्लाइट का भी कोई भरोसा नहीं, टिकट मिले न मिले. फिर ईशान भी यहां नहीं हैं. मैं तेरहवीं पर पहुंचूंगी. प्लीज, आप निकल जाइए,’’ फिर थोड़ा रुक कर पूछने लगीं, ‘‘दीदी, आप को खबर किस ने दी? कैसे हुआ ये सब?’’ पूछतेपूछते रो दी तानी.

‘‘तानी, मुझे कुछ भी पता नहीं. बस, बूआजी का फोन आया था. कितना प्यार करती थीं हमें दादी. तानी, क्या मेरा जाना मम्मीपापा को अच्छा लगेगा? क्या मम्मीपापा भी उन्हें अंतिम प्रणाम करेंगे?’’

‘‘नहीं, दीदी, यह समय रिश्तों को तोलने का नहीं है. मम्मीपापा अपने रिश्ते आप जानें. हमें तो अपनी दादी के करीब उन के अंतिम क्षणों में जाना चाहिए. दादी को अंतिम प्रणाम के लिए मेरी ओर से कुछ फूल जरूर चढ़ा देना.’’

मैं ने हर्ष के आफिस फोन मिलाया और उन्हें भी इस दुखद समाचार से अवगत कराया.

‘‘तुम तैयार रहना, धरा. मैं 15 मिनट में पहुंच रहा हूं.’’

फोन रख मैं ने अलमारी खोली और तैयार होने के लिए साड़ी निकालने लगी. तभी दादी की दी हुई कांजीवरम की साड़ी पर नजर पड़ी. मैं ने साड़ी छुई तो लगा दादी को छू रही हूं. उन का प्यार मुझे सहला गया. दादी की दी हुई एकएक चीज पर मैं हाथ फिरा कर देखने लगी. इतना प्यार इन चीजों पर इस से पहले मुझे कभी नहीं आया था.

आंखें बहे जा रही थीं. दादी की दी हुई सोने की चेन, अंगूठी, टौप्स को देने का उन का ढंग याद आ गया. लौटते समय दादी चुपचाप मुट्ठी में थमा देतीं. उन के देने का यही ढंग रहा. अपना मुट्ठी भर प्यार मुट्ठी में ही दिया.

हर्ष को भी जब चाहे कुछ न कुछ मुट्ठी में थमा ही देतीं. 1-2 बार हर्ष ने मना करना चाहा तो बोलीं, ‘‘हर्ष बेटा, इतना सा भी अधिकार तुम मुझे देना नहीं चाहते. तुम्हें कुछ दे कर मुझे सुकून मिलता है,’’ और इतना कहतेकहते उन की आंखें भर आई थीं.

तभी से हर्ष दादी से मिले रुपयों पर एक छोटा सा फूल बना कर संभाल कर रख देते और मुझे भी सख्त हिदायत थी कि मैं भी दादी से मिले रुपए खर्च न करूं.

मुझे नहीं पता कि मम्मीपापा का झगड़ा दादादादी से किस बात पर हुआ. बस, धुंधली सी याद है. उस समय मैं 6 साल की थी. पापादादी मां से खूब लड़ेझगड़े थे और उसी के बाद अपना सामान ऊपर की मंजिल में ले जा कर रहने लगे थे.

इस के बाद ही मम्मीपापा ने दादी और दादा के पास जाने पर रोक लगा दी. यदि हमें उन से कुछ लेते देख लेते तो छीन कर कूड़े की टोकरी में फेंक देते और दादी को खूब खरीखोटी सुनाते. दादी ने कभी उन की बात का जवाब नहीं दिया.

जब पापा कहीं चले जाते और मम्मी आराम करने लगतीं तो हम यानी मैं और तानी चुपके से नीचे उतर जातीं. दादी हमें कलेजे से लगा लेतीं और खाने के लिए हमारी पसंद की चीजें देतीं. बाजार जातीं तो हमारे लिए पेस्ट्री अवश्य लातीं जिसे पापामम्मी की नजरें बचा कर स्कूल जाते समय हमें थमा देतीं.

मम्मी पापा से शिकायत करतीं. पापा चांटे लगाते और कान पकड़ कर प्रामिस लेते कि अब नीचे नहीं जाएंगे. और हम डर कर प्रामिस कर लेतीं लेकिन उन के घर से निकलते ही मैं और तानी आंखोंआंखों में इशारा करतीं और खेलने का बहाना कर दादी के पास पहुंच जाते. दादी हमें खूब प्यार करतीं और समझातीं, ‘‘अच्छे बच्चे अपने मम्मीपापा का कहना मानते हैं.’’

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मुट्ठी भर प्यार- भाग 3

‘दादाजी, हमें आप की और दादी की याद आ रही है. हमें न तो कोई अपने साथ बाजार ले कर जाता है, न चीज दिलाता है. नानी कहानी भी नहीं सुनातीं. बस, सारा दिन हनी व सनी के साथ लगी रहती हैं. हम क्या करें दादाजी?’

दादाजी रास्ता सुझाते, ‘बेटा, धरा और तानी सुनो, तुम अपने पापा को फोन लगाओ और उन से कहो कि हम आप को बहुत मिस कर रहे हैं. आप आ कर ले जाओ.’

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दादाजी की यह तरकीब काम कर जाती. हम रोरो कर पापा से ले जाने के लिए कहते और अगले दिन पापा हमें ले आते. हम दोनों लौट कर दादी और दादाजी से ऐसे लिपट जाते जैसे कब के बिछुड़े हों.

पापा ने हमें पढ़ने के लिए बाहर भेज दिया. हम लौटते तो दादाजी और दादी को इंतजार करते पाते. उन की अलमारी हमारे लिए सौगातों से भरी रहती. हाईस्कूल पास करने के बाद दादाजी ने मुझे घड़ी दी थी.

हम बड़े हुए तो पता चला कि दादाजी केवल पेंशन पर गुजारा करते हैं. हमारा मन कहता कि हमें अब उन से उपहार नहीं लेने चाहिए, लेकिन जब दादी हमारी मुट्ठियों में रुपए ठूंस देतीं तो हम इनकार न कर पाते. होस्टल जाते समय लड्डूमठरी के डब्बे साथ रखना दादी कभी न भूलतीं.

दोनों बहनों का कर्णछेदन एकसाथ हुआ तो दादी ने छोटेछोटे कर्णफूल अपने हाथ से हमारे कानों में पहनाए. और जब मेरी शादी पक्की हुई तो दादी हर्ष को देखने के लिए कितना तड़पीं. जब नहीं रहा गया तो मुझे बुला कर बोली थीं, ‘धरा बेटा, अपना दूल्हा मुझे नहीं दिखाएगी.’

‘अभी दिखाती हूं, दादी,’ कह कर एक छलांग में ऊपर पहुंच कर हर्ष का फोटो अलमारी से निकाल दादी की हथेली पर रख दिया था. दादी कभी मुझे तो कभी फोटो को देखतीं, जैसे दोनों का मिलान कर रही हों. फिर बोली, ‘हर्ष बहुत सुंदर है बिलकुल तेरे अनुरूप. दोनों में खूब निभेगी.’

मैं ने हर्ष को मोबाइल मिलाया और बोली, ‘हर्ष, दादी तुम से मिलना चाहती हैं, शाम तक पहुंचो.’

शाम को हर्ष दादी के पैर छू रहा था.

मेरी शादी मैरिज होम से हुई. शादी में पापा ने दादादादी को बुलाया नहीं तो वे गए भी नहीं. विवाह के बाद मैं अड़ गई कि मेरी विदाई घर से होगी. विवश हो मेरी बात उन्हें रखनी पड़ी. मुझे तो अपने दादाजी और दादी का आशीर्वाद लेना था. दुलहन वेश में उन्हें अपनी धरा को देखना था. उन से किया वादा कैसे टालती.

मेरी विदाई के समय दादाजी और दादी उसी प्रकार बाहरी दरवाजे पर खड़े थे जैसे स्कूल जाते समय खड़े रहते थे. मैं दौड़ कर दादी से लिपट गई. दादाजी के पांव छूने झुकी तो उन्होंने बीच में ही रोक कर गले से लगा लिया. दादी ने सोने का हार मेरी मुट्ठी में थमा दिया और सोने की एक गिन्नी हर्ष की मुट्ठी में.

जब भी मायके जाती, दादी से सौगात में मिले कभी रिंग, कभी टौप्स, कभी साड़ी मुट्ठी में दबाए लौटती. दादी ने मुझे ही नहीं तानी को भी खूब दिया. उन्होंने हम दोनों बहनों को कभी खाली हाथ नहीं आने दिया. कैसे आने देतीं, उन का मन प्यार से लबालब भरा था. वह खाली होना जानती ही न थीं. उन के पास जो कुछ अपना था सब हम पर लुटा रही थीं. मम्मीपापा देखते रह जाते. हम ने उन की बातों को कभी अहमियत नहीं दी, बल्कि मूक विरोध ही करते रहे.

‘‘अरे धरा, तुम अभी तक तैयार नहीं हुईं. अलमारी पकड़े  क्या सोच रही हो?’’ हर्ष बोले तो मैं जैसे सोते से जागी.

‘‘हर्ष, मेरी दादी चली गईं, मुट्ठी भरा प्यार चला गया. अब कौन मेरी और तुम्हारी मुट्ठियों में सौगात ठूंसेगा? कौन आशीर्वाद देगा? मैं दादी को निर्जीव कैसे देख पाऊंगी,’’ हर्ष के कंधे पर सिर रख कर रोने लगी.

मैं जब हर्ष के साथ वहां पहुंची तो लगभग सभी रिश्तेदार आ चुके थे. दादी के पास बूआजी तथा अन्य महिलाएं बैठी थीं. मैं बूआजी को देख लिपट कर फूटफूट कर रो पड़ी. रोतेरोते ही पूछा, ‘‘बूआजी, मम्मीपापा?’’

बूआजी ने ‘न’ में गरदन हिला दी. मैं दनदनाती हुई ऊपर जा पहुंची. मेरा रोदन क्षोभ और क्रोध बन कर फूट पड़ा, ‘‘आप दोनों को मम्मीपापा कहते हुए आज मुझे शर्म आ रही है. पापा, आप ने तो अपनी मां के दूध की इज्जत भी नहीं रखी. एक मां ने आप को 9 महीने अपनी कोख में रखा, आज उसी का ऋण आप चुका देते और मम्मी, जिस मां ने अपना कोख जाया आप के आंचल से बांध दिया, अपना भविष्य, अपनी उम्मीदें आप को सौंप दीं, उन्हीं के पुत्र के कारण आज आप मां का दरजा पा सकीं. एक औरत हो कर औरत का दिल नहीं समझ सकीं. आप आज भी उन्हीं के घर में रह रही हैं. कितने कृतघ्न हैं आप दोनों.

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‘‘पापा, क्या आप अपनी देह से उस खून और मज्जा को नोच कर फेंक सकते हैं जो आप को उन्होंने दिया है. उन का दिया नाम आप ने आज तक क्यों नहीं मिटाया? आप की अपनी क्या पहचान है? यह देह भी उन्हीं के कारण धारण किए हुए हो. यदि आप अपना फर्ज नहीं निभाओगे तो क्या दादी यों ही पड़ी रहेंगी. आप सोचते होंगे कि इस घड़ी में दादाजी आप की खुशामद करेंगे. नहीं, उमंग भैया किस दिन काम आएंगे.

‘‘यदि आज आप दोनों ने अपना फर्ज पूरा नहीं किया तो इस भरे समाज में मैं आप का त्याग कर दूंगी और दादाजी को अपने साथ ले जाऊंगी’’

चौंक पडे़ दोनों. सोचने लगे, तो ऐसी नहीं थी, आज क्या हुआ इसे.

‘‘सुनो धरा, तुम्हें यहां नहीं आना चाहिए था.’’

‘‘क्यों नहीं आती? मेरी दादी गई हैं. उन्हें अंतिम प्रणाम करने का मेरा अधिकार कोई नहीं छीन सकता. आप लोग भी नहीं.’’

‘‘होश में आओ, धरा.’’

‘‘अभी तक होश में नहीं थी पापा, आज पहली बार होश आया है, और अब सोना नहीं चाहती. आज उस मुट्ठी भर प्यार की कसम, आप दोनों नीचे आ रहे हैं या नहीं?’’

धारा की आवाज में चेतावनी की आग थी. विवश हो दोनों को नीचे जाना ही पड़ा.

मुट्ठी भर प्यार- भाग 2

तानी गुस्से से कहती, ‘‘वह आप के पास नहीं आने देते. हम तो यहां जरूर आएंगे. क्या आप हमारे दादादादी नहीं हो? क्या आप के बच्चे आप की बात मानते हैं जो हम मानें?’’

दादी के पास हमारे इस सवाल का कोई उत्तर नहीं होता था.

दादी के एक तरफ मैं लेटती दूसरी तरफ तानी और बीच में वह लेटतीं. वह रोज हमें नई कहानियां सुनातीं. स्कूल की बातें सुनातीं और जब पापा छोटे थे तब की ढेर सारी बातें बतातीं. हमें बड़ा आनंद आता.

दादाजी की जेब की तलाशी में कभी चुइंगम, कभी जैली और कभी टौफी मिल जाती, क्योंकि दादाजी जानते थे कि बच्चों को जेबों की तलाशी लेनी है और उन्हें निराश नहीं होने देना है. उन के मतलब का कुछ तो मिलना चाहिए.

दादी झगड़ती हुई दादाजी से कहतीं, ‘तुम ने टौफी, चाकलेट खिलाखिला कर इन की आदतें खराब कर दी हैं. ये तानी तो सारा दिन चीज मांगती रहती है. देखते नहीं बच्चों के सारे दांत खराब हो रहे हैं.’

दादाजी चुपचाप सुनते और मुसकराते रहते.

तानी दादी की नकल करती हुई घुटनों पर हाथ रख कर उन की तरह कराहती. कभी पलंग पर चढ़ कर बिस्तर गंदा करती.

‘तानी, तू कहना नहीं मानेगी तो तेरी मैडम से शिकायत करूंगी,’ दादी झिड़कती हुई कहतीं.

‘मैडम मुझ से कुछ कहेंगी ही नहीं क्योंकि वह मुझे प्यार करती हैं,’ तानी कहती जाती और दादी को चिढ़ाती जाती. दादी उसे पकड़ लेतीं और गाल चूम कर कहती, ‘प्यार तो तुझे मैं भी बहुत करती हूं.’

सर्दियों के दिनों में दादी हमारी जेबों में बादाम, काजू, किशमिश, पिस्ता, रेवड़ी, मूंगफली कुछ भी भर देतीं. स्कूल बस में हम दोनों बहनें खुद भी खातीं और अपने दोस्तों को भी खिलातीं.

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तानी और मुझे साड़ी बांधने का बड़ा शौक था. हम दादी की अलमारी में से साड़ी निकालतीं और खूब अच्छी सी पिनअप कर के साड़ी बांधतीं हम शीशे में अपने को देख कर खूब खुश होते.

‘दादी, हमारे कान कब छिदेंगे? हम टौप्स कब पहनेंगे?’

‘तुम थोड़ी और बड़ी हो जाओ, मेरे कंधे तक आ जाओ तो तुम्हारे कान छिदवा दूंगी और तुम्हारे लिए सोने की बाली भी खरीद दूंगी.’

दादी की बातों से हम आश्वस्त हो जातीं और रोज अपनी लंबाई दादी के पास खड़ी हो कर नापतीं.

एक बार दादाजी और दादी मथुरा घूमने गए. वहां से हमारे लिए जरीगोटे वाले लहंगे ले कर आए. हम लहंगे पहन कर, टेप चला कर खूब देर तक नाचतीं और वह दोनों तालियां बजाते.

‘दादी, ऊपर छत पर चलो, खेलेंगे.’

‘मेरे घुटने दुखते हैं. कैसे चढ़ पाऊंगी?’

‘दादी, आप को चढ़ना नहीं पड़ेगा. हम आप को ऊपर ले जाएंगी.’

‘वह कैसे, बिटिया?’ उन्हें आश्चर्य होता.

‘एक तरफ से दीदी हाथ पकड़ेगी, एक तरफ से मैं. बस, आप ऊपर पहुंच जाओगी.’ तानी के ऐसे लाड़ भरे उत्तर पर दादी उसे गोद में बिठा कर चूम लेतीं.

दादी का कोई भी बालपेन तानी न छोड़ती. वह कहीं भी छिपा कर रखतीं तानी निकाल कर ले जाती. दादी डांटतीं, तब तो दे जाती. लेकिन जैसे ही उन की नजर बचती, बालपेन फिर गायब हो जाती. वह अपने बालपेन के साथ हमारे लिए भी खरीद कर लातीं, पर दादी के हाथ में जो कलम होती हमें वही अच्छी लगती.

हम उन दोनों के साथ कैरम व लूडो खेलतीं. खूब चीटिंग करतीं. दादी देख लेतीं और कहतीं कि चीटिंग करोगी तो नहीं खेलूंगी. हम कान पकड़ कर सौरी बोलतीं. दादाजी, इतनी अच्छी तरह स्ट्रोक मारते कि एकसाथ 4-4 गोटियां निकालते.

‘हाय, दादाजी, इस बार भी आप ही जीतेंगे,’ माथे पर हाथ मार कर मैं कहती, तभी तान्या दादाजी की गोटी उठा कर खाने में डाल देती.

‘चीटिंगचीटिंग दादी,’ कहतीं.

‘ओह दादी, अब खेलने भी दो. बच्चे तो ऐसे ही खेलेंगे न,’ सभी तानी की प्यारी सी बात पर हंस पड़ते.

‘दादी, आप के घुटने दबाऊं. देखो, दर्द अभी कैसे भागता है?’ तानी अपने छोटेछोटे हाथों से उन के घुटने सहलाती. वह गद्गद हो उठतीं.

‘अरे, बिटिया, तू ने तो सचमुच मेरा दर्द भगा दिया.’

तानी की आंखें चमक उठतीं, ‘मैं कहती न थी कि आप को ठीक कर दूंगी, अब आप काम मत करना. मैं आप का सारा काम कर दूंगी,’ और तानी झाड़न उठा कर कुरसीमेज साफ करने लगती.

‘दादी, आप के लिए चाय बनाऊं?’ पूछतेपूछते तानी रसोई में पहुंच जाती.

लाइटर उठा कर गैस जलाने की कोशिश करती.

दादी वहीं से आवाज लगातीं, ‘चाय रहने दे, तानी. एक गिलास पानी दे जा और दवा का डब्बा भी.’

तानी पानी लाती और अपने हाथ से दादी के मुंह में दवा डालती.

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एक बार मैं किसी शादी में गई थी. वहां बच्चों का झूला लगा था. मैं भी बच्चों के साथ झूलने लगी. पता नहीं कैसे झूले में मेरा पैर फंस गया. मुश्किल से सब ने खींच कर मेरा पैर निकाला. बहुत दर्द हुआ. पांव सूज गया. चला भी नहीं जा रहा था. मैं रोतेरोते पापामम्मी के साथ घर आई. पापा ने मुझे दादी के पास जाने नहीं दिया. जब पापामम्मी गए तब मैं चुपके से दीवार पकड़ कर सीढि़यों पर बैठबैठ कर नीचे उतरी. दादी के पास जा कर रोने लगी.

उन्होंने मेरा पैर देखा. मुझे बिस्तर पर लिटाया. पैर पर मूव की मालिश की. हीटर जला कर सिंकाई की और गोली खाने को दी. थोड़ी देर बाद दादी की प्यार भरी थपकियों ने मुझे उन की गोद में सुला दिया. कितनी भी कड़वी दवा हम दादी के हाथों हंसतेहंसते खा लेती थीं.

मेरा या तानी का जन्मदिन आता तो दादी पूछतीं, ‘क्या चाहिए तुम दोनों को?’

हम अपनी ढेरों फरमाइशें उन के सामने रखते. वह हमारी फरमाइशों में से एकएक चीज हमें ला देतीं और हम पूरा दिन दादी का दिया गिफ्ट अपने से अलग न करतीं.

बचपन इसी प्रकार गुजरता रहा.

नानी के यहां जाने पर हमारा मन ही न लगता. हम चाहती थीं कि हम दादी के पास रह जाएं, पर मम्मी हमें खींच कर ले जातीं. हम वहां जा कर दादाजी को फोन मिलाते, ‘दादाजी, हमारा मन नहीं लग रहा, आप आ कर ले जाइए.’

‘सारे बच्चे नानी के यहां खुशीखुशी जाते हैं. नानी खूब प्यार करती हैं, पर तुम्हारा मन क्यों नहीं लग रहा?’ दादाजी समझाते हुए पूछते.

Serial Story – मुट्ठी भर प्यार

Serial Story – भटका मन वापस आया

भटका मन वापस आया – भाग 5

पिछले अंक में आप ने पढ़ा था : मलय अकेला आगरा में रहता था. उस की पत्नी अनुराधा अपने बूढ़े सासससुर के साथ गांव में रहती थी, पर वह आगरा जाने को बेताब थी. वहां आगरा में मलय एक लड़की अर्पणा के नजदीक हो गया था. अर्पणा के जन्मदिन की पार्टी थी. अनुराधा ने मलय को फोन किया. फोन अर्पणा ने उठाया. अब पढि़ए आगे…

‘अच्छा, अब समझी. आप की शादी में मैं नहीं आ सकी थी, इसलिए आप से भेंट नहीं हुई. मलय आप को यहां कभी लाया भी नहीं. मैं उस की कलीग अर्पणा बोल रही हूं. आज मेरा जन्मदिन था. अभी वह मेरे यहां ही है. जरा बाथरूम में गया है. आता है तो आप को फोन करने के लिए बोलती हूं. वैसे, आप कैसी हैं?’ अर्पणा ने अनुराधा से पूछा.

‘‘अच्छी हूं. आप को जन्मदिन की बधाई. बाथरूम से लौटने पर मलय से फोन करने के लिए जरूर कहिएगा,’’ अनुराधा बोली.

‘जी जरूर,’ अर्पणा ने कहा और इस के कुछ देर बाद डिस्चार्ज हो कर फोन स्विच औफ हो गया.

बर्थडे फंक्शन के बाद खानेपीने का दौर शुरू हुआ, तो अर्पणा उसी में उलझ गई. उसे याद ही न रहा कि मलय को फोन के बारे में बताना था.

स्विच औफ हो जाने से अनुराधा के फोन के बारे में उसे पता ही न चला. उस के फोन का चार्जर न होने के चलते वह अपना मोबाइल भी चार्ज न कर पाया.

उधर अनुराधा ने मलय द्वारा फोन न करने पर फिर से फोन किया, पर जब उस का फोन स्विच औफ बताने लगा, तब उस की घबराहट और भी बढ़ गई. कई तरह के शक उस के मन में पैदा  होने लगे.

जल्दी में अनुराधा उस लड़की का नाम भी पूछना भूल गई थी, जिस ने मलय का फोन रिसीव किया था.

‘पता नहीं, कौन थी वह…? उस का जन्मदिन था भी या झूठ बोल रही थी. दाल में कुछ काला तो नहीं. आखिर मलय ने इस के बाद फोन स्विच औफ क्यों कर दिया? ऐसा तो नहीं कि मलय का उस लड़की से नाजायज रिश्ता हो और उस ने जानबूझ कर मोबाइल स्विच औफ कर दिया हो?

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‘आखिर इतनी देर तक जाड़े की रात में मलय को उस लड़की के घर जाने की क्या जरूरत पड़ गई? अगर वह लड़की सच भी कहती हो, तब भी इतनी रात को बर्थडे में रहने की क्या जरूरत? इस मौसम में रात 9 बजे तक बर्थडे फंक्शन खत्म हो ही जाता है.’

अनुराधा ने सोचा कि अब वह दूसरे दिन सुबह फोन करेगी. वह सोने की कोशिश करने लगी, लेकिन उसे नींद नहीं आ रही थी. मन बेचैन था.

ऐसा तो होना ही था. आखिर मलय उस का पति था. पति रात में किसी अनजान औरत के घर में हो, तो नईनवेली पत्नी के दिल पर क्या बीतेगी?

अब अनुराधा के मन में यह भी बात घर करने लगी कि यह सब उस के मलय से दूर रहने का नतीजा है. अगर वह मलय के साथ रहती तो ऐसा नहीं होता. उस ने सोचा कि अब उसे आगरा जाना ही होगा. सासससुर की सेवा के लिए वह अपने कैरियर का नुकसान तो कर ही रही थी, अब अपनी शादीशुदा जिंदगी को दांव पर नहीं लगा सकती.

किसी तरह रात कटी. सुबह उठते ही अनुराधा ने मलय को फोन लगाया. उस समय मलय गहरी नींद में सो रहा था. उस ने अर्पणा के घर से आते ही फोन को चार्ज में लगा दिया था, लेकिन उसे औन करना भूल गया था, इसलिए अभी भी मोबाइल स्विच औफ बता रहा था.

अब तो अनुराधा का शक पक्का होने लगा. जरूर मलय उस लड़की के साथ रात बिता रहा होगा और कोई उन्हें डिस्टर्ब न करे, इसलिए फोन को स्विच औफ कर दिया होगा.

यह तो सच था कि मलय की दोस्ती अर्पणा से बढ़ रही थी और यह भी सही था कि इस को हवा देने का काम अनुराधा का उस के साथ न रहना था, लेकिन यह बिलकुल गलत था कि मलय ने जानबूझ कर अपना मोबाइल स्विच औफ कर दिया था और वह अर्पणा के घर रात में था.

अब मलय फोन रिसीव करता और इस बारे में सफाई भी देता तो अनुराधा शायद उस की बात का यकीन नहीं करती.

हुआ भी यही. जब मलय जगा और उस ने अनुराधा को बताने की कोशिश की कि वह मोबाइल डिस्चार्ज होने के चलते रात में उस से बात नहीं कर पाया, तो उस ने उस की बात पर बिलकुल भी यकीन नहीं किया और बोली कि वह भी अब आगरा आएगी और सासससुर के लिए कोई न कोई इंतजाम जरूर कर देगी.

मलय उस को मना नहीं कर पाया. हां, इतना जरूर कहा कि वह अगले हफ्ते घर आ रहा है, फिर इस बारे में बात करेगा.

जब मलय ने कह दिया कि वह अगले हफ्ते घर आ रहा है, तब अनुराधा को इस बीच आगरा जाने की कोई जरूरत नहीं थी.

सासससुर गांव छोड़ना नहीं चाहते थे और गांव छोड़ना उन के लिए मुफीद भी नहीं था. अनुराधा जानती थी कि  ऐसा करने से दोनों की जिंदगी आसान न रहेगी.

उन्हीं के पड़ोस में एक अधेड़ विधवा माधवी रहती थी. उसे परिवार वालों ने छोड़ दिया था. वह कम उम्र में ही विधवा हो गई थी और घर वाले समझते थे कि उस के घर में आने के बाद से ही उस के पति की तबीयत खराब रहने लगी थी और आखिर में वह बीमारी से ही मर गया, जबकि सचाई यह थी कि उसे दिल की बीमारी थी, जिस का समय पर उचित ढंग से इलाज न होने के चलते उस की मौत हुई थी.

माधवी अकसर अनुराधा के घर आती थी और उस के काम में हाथ बंटाती थी. अनुराधा के सासससुर भी उस का बहुत खयाल रखते थे और उस को खाना खिलाने के लिए अनुराधा से कहते थे. उस की पैसे से मदद भी किया करते थे.

अनुराधा ने माधवी से बात की, तो वह सासससुर की सेवा और देखभाल करने के लिए तैयार हो गई. इस तरह अनुराधा ने मलय के आने से पहले ही उस की गैरहाजिरी में सासससुर की देखभाल का इंतजाम कर दिया.

अब अनुराधा तय कर चुकी थी कि वह मलय के पास आगरा जाएगी.

अपने वादे के मुताबिक मलय घर आया. अनुराधा के मन में उस के प्रति कई सवाल थे, लेकिन जब तय समय पर मलय आ गया और उसे उम्मीद बंध गई कि अब वह भी उस के साथ आगरा जाएगी, तब उस का डर खत्म हो गया.

अनुराधा ने सासससुर के रहने का इंतजाम तो कर दिया था, लेकिन मलय उसे आगरा ले जाने के पक्ष में नहीं था. उस का कहना था कि माधवी उस के मांबाबूजी का वैसा ध्यान न रख पाएगी, जैसा उन्हें इस उम्र में जरूरत है. लेकिन अनुराधा ने जिद पकड़ ली, तो उसे आगरा ले जाने के लिए तैयार होना  ही पड़ा.

सासससुर की जिम्मेदारी माधवी पर डाल दी गई. यह तय हुआ कि उसे हर महीने एक तय रकम दे दी जाएगी. माधवी को इस से ज्यादा चाहिए भी क्या था. रहने का ठौर और खाने का इंतजाम तो यहां था ही, हर महीने खर्चे के लिए कुछ पैसे भी, और वह भी जब तक माधवी चाहे.

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अनुराधा आज पहली बार आगरा आई थी. मलय जिस घर में रहता था, वह एक बिजी महल्ले में था और उस के बैंक से काफी दूरी पर था.

गांव में रहने की आदी अनुराधा को यह भीड़भाड़ वाला महल्ला काफी दमघोंटू लगा. उसे समझ नहीं आया कि बैंक से इतनी दूरी पर मलय ने यह मकान किराए पर क्यों लिया है.

जब अनुराधा ने इस बारे में मलय से पूछा, तो उस ने यह कह कर टाल दिया कि बैंक के नजदीक कोई ढंग का किराए का मकान नहीं मिला, लेकिन इस बात पर अनुराधा को यकीन नहीं हुआ, क्योंकि मलय का बैंक किसी पौश इलाके में नहीं था, जहां किराए पर कोई मकान ही न मिले या इतना महंगा हो कि उस का किराया वह दे न पाए.

पर इस की वजह का पता उसे तब लगा, जब उसी शाम अर्पणा उस से मिलने आई.

‘‘जानती हो भाभी, आज जब तुम्हारे बारे में मलय ने बताया तो तुम से मिलने चली आई. मेरी नानी का एक मकान इसी महल्ले में है. नाना आगरा में ही पहले बिजली महकमे में थे. उन्होंने एक बनाबनाया मकान इसी महल्ले में बड़े ही सस्ते में खरीद लिया था. जब तक नाना जिंदा रहे, उन्होंने आगरा नहीं छोड़ा.

‘‘कई सालों तक रहने के चलते इस शहर से उन का लगाव ही नहीं हो गया था, बल्कि कई लोगों से पारिवारिक संबंध भी बन गए थे.

‘‘नानाजी हमेशा कहते थे कि अपनी जिंदगी की शाम हमेशा परिचितों के बीच ही बितानी चाहिए, वरना अकेलेपन का दंश हमेशा झेलना पड़ेगा.

‘‘लेकिन, नानाजी के मरने के बाद नानी कोलकाता चली गईं, क्योंकि वहीं मामाजी एक कालेज में प्रोफैसर थे. इस के बाद मेरी नौकरी यहीं लग गई, तो मैं उन के ही मकान में रहने लगी,’’ अर्पणा एक ही सांस में सबकुछ कह गई.

‘‘अच्छा तो उस दिन शायद मेरा फोन तुम ने ही रिसीव किया था, जन्मदिन था न तुम्हारा?’’

‘‘हां भाभी, तुम ठीक कहती हो, उस दिन मेरा ही जन्मदिन था. तुम से पहले कभी भेंट नहीं हुई थी, इसलिए तुम मेरी आवाज नहीं पहचान पाई थीं.’’

‘‘तुम से मिल कर खुशी हुई. लेकिन अर्पणा, तुम्हारा तो यहां मकान है, पर मलय इतनी घनी और दमघोंटू जगह में क्यों रहता है?’’

अर्पणा मुसकराई और बोली, ‘‘इसलिए भाभी कि हम दोनों कालेज में एकसाथ पढ़ते थे. यहां रहने से हम लोगों का आपस में मिलनाजुलना होता है और अब तो मैं मलय की ही मोटरसाइकिल से बैंक जाती हूं.’’

यह सुन कर अनुराधा को अच्छा नहीं लगा. अब अच्छा लग भी कैसे सकता था. कौन पत्नी यह चाहेगी कि उस का पति किसी जवान और खूबसूरत लड़की को अपनी मोटरसाइकिल पर बैठा कर रोज औफिस ले जाए.

यह सुन कर अनुराधा के दिल पर सांप लोट गया, फिर भी वह बनावटी मुसकराहट चेहरे पर लाते हुए बोली, ‘‘अच्छा है, जब अगलबगल ही मकान हैं और दोनों को एक ही औफिस में जाना है, तो एकसाथ जाने में कोई हर्ज नहीं है.’’

लेकिन, अंदर से अनुराधा को मलय पर गुस्सा आ रहा था. यह कोई बात हुई… एक तो बैंक से इतनी दूर किराए का मकान लिया, ऊपर से एक कुंआरी लड़की को लिफ्ट भी देने लगा. क्या अर्पणा उसे पीछे से पकड़ कर नहीं बैठती होगी? लोग क्या कहते होंगे? लेकिन उसे तो मजा मिल रहा है, इस के लिए उसे शर्म क्यों आएगी?

अर्पणा के जाने के बाद अनुराधा ने मलय से पूछा, ‘‘तुम्हारा अर्पणा से क्या संबंध है?’’

‘‘अचानक यह सवाल क्यों पूछ रही हो? पहले तो ऐसा कभी नहीं पूछा?’’ मलय अनुराधा के अचानक हुए इस हमले से घबरा गया.

‘‘इसलिए कि तुम इस महल्ले में सिर्फ अर्पणा के चलते रहते हो. जानते हो, यहां बहुत गंदगी है, फिर भी बैंक से इतनी दूर रहने की क्या वजह है? तुम उसे रोज अपनी मोटरसाइकिल से बैंक ले जाते हो. न तुम्हें अपनी सेहत का खयाल है, न बदनामी का,’’ अनुराधा चाहते हुए भी अपनी भावनाओं को न रोक पाई.

‘‘तुम बहुत ही  ज्यादा गलतफहमी की शिकार हो. ऐसी कोई बात नहीं है. बैंक के नजदीक कोई किराए का अच्छा सा मकान नहीं मिल रहा था.’’

‘‘तुम्हारे बैंक का कोई साथी बैंक के अगलबगल नहीं रहता क्या…?’’

‘‘रहता है, लेकिन किसी का मकान अच्छा नहीं है,’’ मलय ने बहाना बनाने की कोशिश की, पर उस की बात भरोसा करने लायक नहीं थी.

अब अनुराधा क्या कहती और कहती भी तो इस से मलय पर क्या फर्क पड़ता, लेकिन उसे यह बात तो समझ में आ ही गई थी कि मलय और अर्पणा के बीच कोई न कोई संबंध जरूर है.

अर्पणा और मलय का संबंध ऐसे ही नहीं बना था और यह 1-2 दिन में नहीं बना था. इस के पीछे हालात भी कम दोषी नहीं थे. हालात ऐसे बने कि अनुराधा को मलय को अकेला छोड़ कर गांव में रहना पड़ा और इस बीच कुंआरी होने के चलते अर्पणा मलय से चिपकती चली गई.

मलय के अकेले होने का फायदा अर्पणा ने बखूबी उठाया और उसी की नजदीकियों के चलते मलय ने अनुराधा को कभी आगरा लाने पर जोर नहीं दिया.

मलय को क्या फर्क पड़ता. उसे गांव आने पर उस की जिस्मानी भूख मिट ही जाती थी. आगरा में रोमांस करने के लिए अर्पणा थी ही, मारी तो अनुराधा जा रही थी. मशीन बन कर रह गई थी वह.

गांव में रातदिन सासससुर की सेवा का फर्ज अनुराधा पर थोप कर मलय निश्चिंत हो गया था. सासससुर भी अनुराधा के सामने ही किसी के आने पर बहू की तारीफ के पुल बांध कर उस के त्याग की जैसे कीमत चुका देना चाहते थे. अनुराधा की भावनाओं का खयाल न मलय को था, न सासससुर को.

अब आगरा में अनुराधा का कोई नहीं था. उसे अकेले ही सारे फैसले लेने थे. सब से पहले तो किसी भी हालत में मलय को अर्पणा से अलग करना था.

इस की शुरुआत क्वार्टर बदलने से करनी थी और इस के लिए मलय तो कोशिश करता नहीं, इसलिए अनुराधा ने उस के साथ औफिस जाने का फैसला किया, ताकि खुद ही उस इलाके में कोई अच्छा सा मकान खोज सके.

शुरू में तो मलय अनुराधा के इस प्रस्ताव से बहुत खीझा. वह बोला, ‘‘तुम बैंक में जा कर क्या करोगी,’’ लेकिन जब अनुराधा ने कहा कि एक बार वह उस के बैंक को देखना चाहती है, पता नहीं कब क्या जरूरत पड़ जाए, तो वह इनकार न कर सका.

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मलय ने फोन कर के अर्पणा को बताया, ‘‘मैं अनुराधा के साथ बैंक जाऊंगा, इसलिए तुम किसी आटोरिकशा से बैंक चली जाना.’’

‘अरे यार, यह बात पहले ही बता देते. इस समय मुझे आटोरिकशा के लिए एक किलोमीटर पैदल जाना पड़ेगा.’

‘‘आज थोड़ी तकलीफ उठा लो. पता नहीं, अनुराधा को क्या हो गया है, मुझ पर तुम्हारे साथ संबंधों को ले कर शक करने लगी है,’’ मलय छत पर जा कर बोला. वह नहीं चाहता था कि अनुराधा उस की बातें सुन ले.

अनुराधा ने भी मलय को यह नहीं बताया था कि वह उस के साथ इसलिए जा रही है, ताकि उस के बैंक के आसपास कोई किराए का मकान खोज सके.

अनुराधा बैंक पहुंच कर बोली कि वह अगलबगल कोई किराए का मकान खोजने जा रही है, तब मलय घबराया. वह बोला, ‘‘इस के लिए तुम्हें यहां आने की क्या जरूरत थी. मैं यह काम खुद भी कर सकता था. अगर तुम्हें इसी काम के लिए आना था, तो रविवार तक का इंतजार करना चाहिए था. मैं भी तुम्हारा साथ देता. क्या अनजान जगह में अकेले तुम्हें गलीगली मकान के लिए भटकना अच्छा लगता है?’’

तब अनुराधा को लगा कि उस ने मलय पर अविश्वास कर और उस से झूठ बोल कर गलत किया है. वह शर्मिंदगी से भर उठी. उस ने कहा, ‘‘मैं थोड़ी देर के लिए अर्पणा को साथ ले लेती हूं.’’

‘‘देखो अनुराधा, यह बैंक है. यहां स्टाफ की ऐसे भी कमी है. अगर तुम अर्पणा को साथ ले जाओगी, तो यहां का अकाउंट सैक्शन कौन संभालेगा? बैंक में कस्टमर तुरंत हल्ला मचाना शुरू कर देंगे.’’

उस दिन चाह कर भी अनुराधा  बैंक से बाहर नहीं निकल पाई और दिनभर बैठेबैठे बोर होती रही. बैंक में उस का अर्पणा के अलावा किसी से परिचय नहीं था, इसलिए वह उसी के पास बैठी रही.

अर्पणा काम में इतनी बिजी थी कि उसे उस से भी बात करने की फुरसत नहीं थी, फिर भी उस ने उस का काफी खयाल रखा.

मलय अनुराधा के इस बरताव से काफी दुखी था. अर्पणा भी अब जान गई थी कि अनुराधा मलय को उस से अलग करने के लिए उस के साथ बैंक तक आई थी, पर उस ने अपने मन की बात उस से नहीं की.

अर्पणा के इस अच्छे बदलाव ने अनुराधा के मन में उस के प्रति विचार को बदल दिया. अब उसे इस बात का अफसोस था कि उसी के कारण अर्पणा को उस दिन आटोरिकशा से आना पड़ा. अब बैंक से घर लौटने का समय हो रहा था. अनुराधा उस समय अर्पणा के टेबल के पास बैठी थी. मलय किसी जरूरी काम से चीफ ब्रांच मैनेजर के चैंबर में गया हुआ था.

तभी अर्पणा मुसकरा कर बोली, ‘‘मैं कल से अपनी स्कूटी से बैंक आऊंगी. अब तो आप खुश हैं?’’

यह सुन कर अनुराधा को लगा, जैसे किसी ने चाबुक मार कर पीठ पर नीला कर दिया हो. उस से इस का जवाब देते नहीं बना. तभी मलय आता हुआ दिखाई दिया.

‘‘अभी मुझे कुछ काम है, इसलिए घर लौटने में देरी होगी. तुम अर्पणा के साथ घर लौट जाओ,’’ मलय ने अनुराधा से कहा.

‘‘चलो भाभी, इसी बहाने तुम मेरा भी मकान देख लोगी,’’ अर्पणा ने खुशी जाहिर करते हुए कहा.

‘‘लेकिन अर्पणा, मैं तुम से एक बात बताना भूल गई थी. वह कोने में बैठी हुई जो दुबली सी लड़की दिखाई पड़ रही है न, उस से मैं दोपहर में मिली थी. वह बहुत कम उम्र की लग रही थी और मलय के साथ तुम भी काम में लगी थी, तब उस के पास चली गई थी. उस समय वह अपने केबिन में अकेली थी. मैं उस से जानना चाह रही थी कि वह इतनी कम उम्र में सर्विस में कैसे आ गई.

‘‘मैं ने जब उस को अपना परिचय दिया, तब वह बहुत खुश हुई और औफिस के बाद चाय पर अपने घर चलने का न्योता दिया. जब मैं ने उस से किराए के मकान के बारे में पूछा, तब वह बोली कि उस के मकान में 2 कमरे खाली हैं. अब हमें 2 कमरे से ज्यादा की जरूरत तो है नहीं, क्यों न चल कर बात कर लूं.’’

‘‘हां शायद तुम लूसी के बारे में बात कर रही हो. वह ईसाई है और यहां से थोड़ी ही दूरी पर उस के किसी रिश्तेदार का मकान है, वह वहीं रहती है.’’

अभी वे दोनों बातें कर ही रही थीं कि लूसी आ गई. अब वह भी घर जाने की तैयारी कर रही थी.

‘‘आप भैया को भी साथ ले लीजिएगा भाभी. मैं ने अपने रिश्तेदार से बात कर ली है, वे उस फ्लैट को किराए पर देने के लिए तैयार हैं. अभी आप मेरे साथ चल कर देख लीजिए. आप को मकान पसंद आएगा,’’ लूसी मुसकराते हुए बोली

‘‘लेकिन आज तो मुझे बैंक से निकलने में देर हो जाएगी,’’ मलय ने कहा, तो अनुराधा बोली, ‘‘उस से क्या फर्क पड़ता है. आज होटल में डिनर कर लेंगे. रोजरोज इतनी दूर आने से तो फुरसत मिलेगी.’’

मलय ने कहा, ‘‘तुम लूसी के साथ बैठो, मैं थोड़ी देर में अपना काम निबटा कर आता हूं,’’ और वह अपने केबिन में चला गया.

तभी अर्पणा ने कहा, ‘‘आज डिनर मेरे यहां रहेगा भाभी. मैं घर जा कर इस का इंतजाम करती हूं, जब तक तुम लोग लौटोगे, डिनर तैयार मिलेगा.’’

‘‘ठीक है,’’ अनुराधा ने कहा. सुबह जिस अर्पणा को ले कर उसे चिंता सता रही थी, वह भी अब नहीं रही. जिस तरह अर्पणा उस का सहयोग कर रही थी, उस से तो यही लग रहा था कि वह बेवजह उस के और मलय के संबंधों को ले कर इतनी चिंतित थी.

अर्पणा आटोरिकशा से घर लौट गई और डिनर की तैयारी में जुट गई.

इधर मलय ने अपना काम झटपट निबटाया और मोटरसाइकिल को बैंक परिसर में ही गार्ड के हवाले कर अनुराधा और लूसी के साथ उस के मकान पर पहुंचा.

लूसी वहां अपनी मां के साथ रहती थी. उस के पिता एक बीमारी में गुजर गए थे. एक बहन थी जिस की शादी हो गई थी. चेन्नई में उन का एक पुश्तैनी घर था, जिसे उस की मां ने बेच कर रुपए बैंक में जमा करा दिए थे.

अब उस की मां उसी पैसे से आगरा में ही एक फ्लैट खरीदने का मन बना रही थी, लेकिन लूसी का कहना था कि बैंक से उसे बहुत ही कम ब्याज पर लोन मिल जाएगा, इसलिए अब फ्लैट लूसी के नाम से लोन ले कर खरीदने का मन था. ईएमआई बैंक में जमा पैसे के ब्याज से देना था.

मलय लूसी से काफी सीनियर था, इसलिए लूसी उस की काफी इज्जत कर रही थी. आज तो उस की पत्नी भी आई थी. मकान मालिक लूसी का रिश्तेदार ही था, इसलिए मलय को किराए पर मकान देने के लिए राजी करने में उन्हें दिक्कत नहीं हुई.

मलय और अनुराधा को मकान बहुत पसंद आया. यह न हवादार था, बल्कि काफी साफसुथरा भी था. किराए का एडवांस दे कर और चायनाश्ता करने के बाद मलय और अनुराधा सीधे अर्पणा के घर पहुंचे, क्योंकि अब काफी समय हो गया था और अपने क्वार्टर जा कर लौटने में काफी रात हो जाती.

‘‘अगर आप फ्रेश होना चाहते हो तो हो लो, डिनर तैयार है,’’ अर्पणा बोली, तो अनुराधा बाथरूम में चली गई.

मलय ने कहा, ‘‘मुझे बाथरूम जाने की जरूरत नहीं है.’’

‘‘मकान ठीक लगा?’’ अर्पणा ने पूछा.

‘‘हां, कमरे तो 2 ही हैं, लेकिन बड़ेबड़े हैं, हवादार भी.’’

‘‘अच्छा है, भाभी की चिंता खत्म हुई.’’

‘‘लेकिन, अब तुम्हें परेशानी हो गई.’’

अर्पणा कुछ न बोली. तभी अनुराधा आ गई. खाने की मेज पर तीनों बैठे.

‘‘कब तक नए मकान में शिफ्ट होना है?’’ अर्पणा ने पूछा.

‘‘अगले हफ्ते तक. इस बीच मकान में सफाई का काम करवाऊंगा, क्योंकि पिछले 6 महीने से मकान बंद था और पिछले किराएदार ने उस में जगहजगह कीलें गाड़ रखी?हैं. बाथरूम और किचन दोनों गंदे हैं.’’

‘‘जब तक हम नए मकान में शिफ्ट नहीं हो जाते, अर्पणा को अपने साथ ही ले जाना मलय,’’ अनुराधा ने कहा, तो मलय चुप हो गया.

‘‘पर, अब मैं खुद ही मलय के साथ न जाऊंगी भाभी,’’ अर्पणा ने कहा, तो अनुराधा को कुछ कहते न बना. सच तो यही था कि उसी के चलते मलय को दूसरा मकान लेना पड़ा था, वरना जैसे चल रहा था, वैसे ही चलने देती वह, लेकिन औरत सबकुछ बरदाश्त कर सकती है किसी पराई औरत की अपनी शादीशुदा जिंदगी में दखलअंदाजी नहीं.

‘‘भाभी, अब तुम मलय को संभालो. उसे तुम्हारे प्यार की जरूरत है. मैं तुम्हारी जिंदगी में दखल देना नहीं चाहती.

‘‘अब मैं अपने दिल की बात छिपाऊं, तो तुम्हारे प्रति नाइंसाफी होगी. यह सच है कि मैं मलय से प्यार करने लगी थी. कई बार दिमाग हमें सलाह देता है, क्या करना चाहिए, क्या नहीं, हिदायत देता है, लेकिन दिल उसे अनसुना कर देता है, लेकिन भाभी, जीवन सिर्फ भावनाओं से नहीं चलता. मैं भूल गई थी अपनी हैसियत को, बेवजह मलय की जिंदगी में दखल दे रही थी. माफ कर देना मुझे,’’ यह कहते हुए अर्पणा रो पड़ी.

‘‘ऐसा कुछ भी गलत नहीं हुआ था अर्पणा, जिन हालात में मलय और तुम रह रहे थे, उन में ऐसा होना कोई अजूबा नहीं था. पर मैं भी क्या करती, सासससुर को गांव में बिना किसी सही इंतजाम के छोड़ भी तो नहीं सकती थी.

‘‘एक बार जिद कर यहां आना चाहती थी, लेकिन जानती हो, दिल ने मेरी बात नहीं सुनी और मैं ने अपना विचार बदल दिया.

‘‘पर, बर्थडे के दिन जब मलय के बदले तुम ने फोन रिसीव किया था, तब मैं रातभर न सो पाई. मन किसी डर से बेचैन था और उसी दिन मैं सासससुर की देखभाल के लिए किसी को खोजने लगी.

‘‘और जब कल मैं यहां आई और जाना कि मलय तुम्हें मोटरसाइकिल से बैंक ले जाता है और तुम्हारा साथ पाने के लिए ही वह इतनी दूर इस दमघोंटू महल्ले में रहता है, तब मुझे सच ही बरदाश्त नहीं हुआ और मैं ने तुरंत तय कर लिया कि मलय को इस महल्ले से बाहर निकालना है.’’

‘‘और तुम अपने मिशन में कामयाब हो गई,’’ कह कर मलय मुसकराया.

कुछ तनावग्रस्त हो रहे वातावरण में हलकापन आ गया और जब अर्पणा के आंसू अनुराधा ने अपने रूमाल से पोंछे तब दोनों के दिल स्नेह से भर गए.

जब मलय और अनुराधा अर्पणा से विदा लेने लगे, तब दोनों ने एकदूसरे को गले लगाया. भटका मन अब वापस आ गया था.

अ‘‘इसलिए कि तुम इस महल्ले में सिर्फ अर्पणा के चलते रहते हो. जानते हो, यहां बहुत गंदगी है, फिर भी बैंक से इतनी दूर रहने की क्या वजह है? तुम उसे रोज अपनी मोटरसाइकिल से बैंक ले जाते हो. न तुम्हें अपनी सेहत का खयाल है, न बदनामी का,’’ अनुराधा न चाहते हुए भी अपनी भावनाओं को न रोक पाई.

‘‘तुम गलतफहमी की शिकार हो. ऐसी कोई बात नहीं है. बैंक के नजदीक कोई किराए का अच्छा सा मकान नहीं मिल रहा था.’’

‘‘तुम्हारे बैंक का कोई साथी बैंक के अगलबगल नहीं रहता क्या…?’’

‘‘रहता है, लेकिन किसी का मकान अच्छा नहीं है,’’ मलय ने बहाना बनाने की कोशिश की, लेकिन उस की बात भरोसा करने लायक नहीं थी.

अब अनुराधा क्या कहती और कहती भी तो इस से मलय पर क्या फर्क पड़ता, लेकिन उसे यह बात तो समझ में आ ही गई थी कि मलय और अर्पणा के बीच कोई न कोई संबंध जरूर है.

अर्पणा और मलय का संबंध ऐसे ही नहीं बना था और यह 1-2 दिन में नहीं बना था. इस के पीछे हालात भी कम दोषी नहीं थे. हालात ऐसे बने कि अनुराधा को मलय को अकेला छोड़ कर गांव में रहना पड़ा और इस बीच कुंआरी होने के चलते अर्पणा मलय से चिपकती चली गई.

मलय के अकेले होने का फायदा अर्पणा ने बखूबी उठाया और उसी की नजदीकियों के चलते मलय ने अनुराधा को कभी आगरा लाने पर जोर नहीं दिया.

मलय को क्या फर्क पड़ता. उसे गांव आने पर उस की जिस्मानी भूख मिट ही जाती थी. आगरा में रोमांस करने के लिए अर्पणा थी ही, मारी तो अनुराधा जा रही थी. मशीन बन कर रह गई थी वह.

गांव में रातदिन सासससुर की सेवा का फर्ज अनुराधा पर थोप कर मलय निश्चिंत हो गया था. सासससुर भी अनुराधा के सामने ही किसी के आने पर बहू की तारीफ के पुल बांध कर उस के त्याग की जैसे कीमत चुका देना चाहते थे. अनुराधा की भावनाओं का खयाल न मलय को था, न सासससुर को.

अब आगरा में अनुराधा का कोई नहीं था. उसे अकेले ही सारे फैसले लेने थे. सब से पहले तो किसी भी हालत में मलय को अर्पणा से अलग करना था.

इस की शुरुआत क्वार्टर बदलने से करनी थी और इस के लिए मलय तो कोशिश करता नहीं, इसलिए अनुराधा ने उस के साथ औफिस जाने का फैसला किया, ताकि खुद ही उस इलाके में कोई अच्छा सा मकान खोज सके.

शुरू में तो मलय अनुराधा के इस प्रस्ताव से बहुत खीझा. वह बोला, ‘‘तुम बैंक में जा कर क्या करोगी,’’ लेकिन जब अनुराधा ने कहा कि एक बार वह उस के बैंक को देखना चाहती है, पता नहीं कब क्या जरूरत पड़ जाए, तो वह इनकार न कर सका.

मलय ने फोन कर अर्पणा को बताया, ‘‘मैं अनुराधा के साथ बैंक जाऊंगा, इसलिए तुम किसी आटोरिकशा से बैंक चली जाना.’’

‘अरे यार, यह बात पहले ही बता देते. इस समय मुझे आटोरिकशा के लिए एक किलोमीटर पैदल जाना पड़ेगा.’

‘‘आज थोड़ा कष्ट उठा लो, पता नहीं अनुराधा को क्या हो गया है, मुझ पर तुम्हारे साथ संबंधों को ले कर शक करने लगी है,’’ मलय छत पर जा कर बोला. वह नहीं चाहता था कि अनुराधा उस की बातें सुन ले.

अनुराधा ने भी मलय को यह नहीं बताया था कि वह उस के साथ इसलिए जा रही है, ताकि उस के बैंक के आसपास कोई किराए का मकान खोज सके.

अनुराधा बैंक पहुंच कर बोली कि वह अगलबगल कोई किराए का मकान खोजने जा रही है, तब मलय घबराया. वह बोला, ‘‘इस के लिए तुम्हें यहां आने की क्या जरूरत थी. मैं यह काम खुद भी कर सकता था. अगर तुम्हें इसी काम के लिए आना था तो रविवार तक का इंतजार करना चाहिए था. मैं भी तुम्हारा साथ देता. क्या अनजान जगह में अकेले तुम्हें गलीगली मकान के लिए भटकना अच्छा लगता है?’’

तब अनुराधा को लगा कि उस ने मलय पर अविश्वास कर और उस से झूठ बोल कर गलत किया है. वह शर्मिंदगी से भर उठी. उस ने कहा, ‘‘मैं थोड़ी देर के लिए अर्पणा को साथ ले लेती हूं.’’

‘‘देखो अनुराधा, यह बैंक है. यहां स्टाफ की ऐसे भी कमी है. अगर तुम अर्पणा को साथ ले जाओगी तो यहां का अकाउंट सैक्शन कौन संभालेगा? बैंक में कस्टमर तुरंत हल्ला मचाना शुरू कर देंगे.’’

उस दिन चाह कर भी अनुराधा बैंक से बाहर नहीं निकल पाई और दिनभर बैठेबैठे बोर होती रही. बैंक में उस का अर्पणा के अलावा किसी से परिचय नहीं था, इसलिए वह उसी के पास बैठी रही.

अर्पणा काम में इतनी बिजी थी कि उसे उस से भी बात करने की फुरसत नहीं थी, फिर भी उस ने उस का काफी खयाल रखा.

मलय अनुराधा के इस बरताव से काफी दुखी था. अर्पणा भी अब जान गई थी कि अनुराधा मलय को उस से अलग करने के लिए उस के साथ बैंक तक आई थी, पर उस ने अपने मन की बात उस से नहीं की.

अर्पणा के इस अच्छे बदलाव ने अनुराधा के मन में उस के प्रति विचार को बदल दिया. अब उसे इस बात का अफसोस था कि उसी के कारण अर्पणा को उस दिन आटोरिकशा से आना पड़ा. अब बैंक से घर लौटने का समय हो रहा था. अनुराधा उस समय अर्पणा के टेबल के पास बैठी थी. मलय किसी जरूरी काम से चीफ ब्रांच मैनेजर के चैंबर में गया हुआ था.

तभी अर्पणा मुसकरा कर बोली, ‘‘मैं कल से अपनी स्कूटी से बैंक आऊंगी. अब तो आप खुश हैं?’’

यह सुन कर अनुराधा को लगा, जैसे किसी ने चाबुक मार कर पीठ पर नीला कर दिया हो. उस से इस का जवाब देते नहीं बना. तभी मलय आता हुआ दिखाई दिया.

‘‘अभी मुझे कुछ काम है, इसलिए घर लौटने में देरी होगी. तुम अर्पणा के साथ घर लौट जाओ,’’ मलय ने अनुराधा से कहा.

‘‘चलो भाभी, इसी बहाने तुम मेरा भी मकान देख लोगी,’’ अर्पणा ने खुशी जाहिर करते हुए कहा.

‘‘लेकिन अर्पणा, मैं तुम से एक बात बताना भूल गई थी. वह कोने में बैठी हुई जो दुबली सी लड़की दिखाई पड़ रही है न, उस से मैं दोपहर में मिली थी. वह बहुत कम उम्र की लग रही थी और मलय के साथ तुम भी काम में लगी थी, तब उस के पास चली गई थी. उस समय वह अपने केबिन में अकेली थी. मैं उस से जानना चाह रही थी कि वह इतनी कम उम्र में सर्विस में कैसे आ गई.

‘‘मैं ने जब उस को अपना परिचय दिया, तब वह बहुत खुश हुई और औफिस के बाद चाय पर अपने घर चलने का न्योता दिया. जब मैं ने उस से किराए के मकान के बारे में पूछा, तब वह बोली कि उस के मकान में 2 कमरे खाली हैं. अब हमें 2 कमरे से ज्यादा की जरूरत तो है नहीं, क्यों न चल कर बात कर लूं.’’

‘‘हां शायद तुम लूसी के बारे में बात कर रही हो. वह ईसाई है और यहां से थोड़ी ही दूरी पर उस के किसी रिश्तेदार का मकान है, वह वहीं रहती है.’’

अभी वे दोनों बातें कर ही रही थीं कि लूसी आ गई. अब वह भी घर जाने की तैयारी कर रही थी.

‘‘आप भैया को भी साथ ले लीजिएगा भाभी. मैं ने अपने रिश्तेदार से बात कर ली है, वे उस फ्लैट को किराए पर देने के लिए तैयार हैं. अभी आप मेरे साथ चल कर देख लीजिए. आप को मकान पसंद आएगा,’’ लूसी मुसकराते हुए बोली.

भटका मन वापस आया – भाग 1

‘‘जरा रुको बहू,’’ सासूजी की आवाज पर अनुराधा रुक गई. सारा जरूरी सामान उस ने रात को ही पैक कर लिया था.

आगरा जाने के लिए सुबह में ट्रेन थी. इस छोटे से स्टेशन पर ट्रेनों का स्टोपेज बहुत कम था. अगर यह ट्रेन छूट गई, तो फिर शाम को मिलती और आगरा पहुंचने पर उसे रात हो जाती.

आगरा के जिस महल्ले में अनुराधा का पति मलय रहता था, उस के बारे में उसे बहुत कम पता था. मलय का टैलीफोन नंबर तो उसे मालूम था, लेकिन वह उस की इच्छा के खिलाफ वहां जा रही थी, इसलिए वह उसे स्टेशन लेने आएगा या नहीं, उसे नहीं पता था.

अनुराधा ने रात में फोन पर मलय को बता दिया था कि अब वह सासससुर के साथ गांव में नहीं रह सकती, क्योंकि उसे कंपीटिशन की तैयारी करनी है और यहां उस का सारा समय सासससुर की देखभाल में ही लग जाता है. उसे पढ़ने का मौका ही नहीं मिलता.

अनुराधा की बात सुन कर मलय चुप हो गया था. उस ने कहा था कि दूसरे दिन वह सुबह वाली ट्रेन पकड़ लेगी. आगरा पहुंचने पर वह उसे फोन करेगी. वह उसे स्टेशन पर आ कर रिसीव कर लेगा.

मलय की चुप्पी ने अनुराधा को असमंजस में डाल दिया था. लेकिन उस ने तय कर लिया था कि अब वह गांव में नहीं रहेगी.

शादी के पहले अनुराधा ने सोचा था कि दिल्ली में रह कर जूडिशियरी सर्विस के लिए इम्तिहान की तैयारी करेगी. जज बनना उस का सपना था और इसीलिए उस ने बीएचयू के ला फैकल्टी से एलएलबी किया था. अभी जूडिशियरी की तैयारी करने के लिए दिल्ली आई ही थी कि पिताजी ने मलय से उस की शादी तय कर दी.

मलय आगरा में एक बैंक में बैंक मैनेजर था. उस समय उस की शादी को ले कर उस के मातापिता काफी चिंतित रहते थे, क्योंकि गांव में ज्यादा उम्र हो जाने पर लोग तरहतरह की बातें करने लगते हैं.

अभी मलय उम्र 27 साल थी, लेकिन गांव के रिवाज के मुताबिक अब यह ज्यादा हो गई थी, इसलिए उस ने शादी का कोई विरोध नहीं किया था.

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मलय एकलौता बेटा था और उस के मातापिता काफी बूढ़े हो गए थे, जिन की देखभाल करने वाला कोई नहीं था.

पिताजी गांव छोड़ना नहीं चाहते थे. उन्हें आगरा में उस का क्वार्टर जेल लगता था. वहां उन का कोई हमउम्र भी नहीं था, इसलिए उन की किसी से बातचीत होती नहीं थी. शहर का अकेलापन उन्हें जानलेवा लगता था.

मलय को बैंक में बहुत काम रहता था, इसलिए वह रात में देर से घर लौटता था, इसलिए जिद कर के वे गांव में ही रहने लगे थे.

मां से अब खाना बनता न था और गांव में कोई नौकरानी मिलती नहीं थी, इसलिए शादी के बाद मलय ने अनुराधा को मातापिता की सेवा और देखभाल के लिए गांव में ही छोड़ दिया था.

इस का अनुराधा ने ही नहीं, बल्कि उस के मांबाबूजी ने भी विरोध किया था. आखिर अपनी बेटी की शादी उन्होंने मलय से केवल सासससुर की सेवा के लिए तो नहीं की थी.

कई सालों की दौड़धूप के बाद उन्होंने मलय से अनुराधा का रिश्ता तय किया था. इस के लिए मलय के पिता को अच्छाखासा तिलक दिया था. कई लोगों से सिफारिश कराई थी, तब जा कर रिश्ता पक्का हुआ था.

उन्हें उस का बात डर था कि कहीं बूढ़े सासससुर की सेवा के लिए मलय उसे गांव में ही न रख दे, लेकिन कइयों ने उन के डर को यह कह कर बेबुनियाद ठहराया था कि मलय इतना बेवकूफ तो नहीं है कि शादी के तुरंत बाद नईनवेली पत्नी को बूढ़े सासससुर के साथ छोड़ कर अकेले आगरा में रहेगा, जबकि उसे मालूम है कि अनुराधा बीएचयू से ला ग्रेजुएट है और उस का सपना जज बनने का है.

अब किस के मांबाप बूढ़े नहीं होते, केवल इस आधार पर तो शादी रद्द नहीं की जा सकती. फिर कौन सासससुर ऐसा होगा, जो अपने फायदे के लिए बहू के कैरियर और बेटे की शादीशुदा जिंदगी बरबाद करेगा.

‘‘जी मांजी,’’ आराधना ने सास की तरफ मुखातिब होते हुए कहा.

‘‘बहू, तुम ने मलय को फोन कर दिया है न, अकेली हो, इतना सामान ले कर जाने में तुम्हें दिक्कत तो नहीं होगी न?’’ सासूजी कुछ चिंतित नजर आ रही थीं.

वे प्राइमरी स्कूल में टीचर थीं. अभी पिछले साल ही रिटायर हुई थीं, लेकिन घुटनों में दर्द के चलते कठिनाई से चलती थीं. वहीं अनुराधा के ससुर स्थानीय ब्लौक में क्लर्क थे. उन्हें रिटायर हुए 5 साल हो गए थे, लेकिन उन्हें दमा की बीमारी थी और थोड़ा सा चलने में उन की सांस फूलने लगती थी. साथ ही, कम उम्र में ही उन्हें डायबिटीज की बीमारी हो गई थी. उन्हें नियमित रूप से दवा लेनी पड़ती थी, जिस को समय पर देना अनुराधा के ही जिम्मे था. वह देर से जागते थे और अभी भी सो रहे थे.

चलते वक्त अनुराधा ने ससुरजी से इजाजत नहीं ली थी, क्योंकि उन्हें वह इतनी सुबह जगाना नहीं चाहती थी. सासूजी की आदत सुबह उठने की थी, इसलिए चलने के पहले अनुराधा ने उन का पैर छूते हुए सिर्फ इतना कहा था कि वह मलय के पास आगरा जाना चाहती है, क्योंकि जूडिशियरी का इम्तिहान है. वह गांव में पढ़ नहीं पा रही है.

अनुराधा को सासूजी से इस तरह के जवाब की उम्मीद न थी. वह तो सोच रही थी कि वे उसे घर छोड़ कर न जाने के लिए कहेंगी. उस के सामने गिड़गिड़ाएंगी, अपने घुटनों के दर्द और ससुरजी के सांस और डायबिटीज की बीमारी का वास्ता देंगी कि उस के न रहने पर घर कौन संभालेगा, उस के ससुरजी को समय पर दवा कौन देगा, उन की देखभाल कौन करेगा, लेकिन सासूजी ने तो उस से ऐसा कुछ नहीं कहा. उलटे वे उस की महफूज यात्रा के बारे में सोचने लगी थीं.

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तो क्या सासूजी को अनुराधा की गैरहाजिरी में घर में होने वाली दिक्कतों की चिंता नहीं है? उन्हें अपने और ससुरजी की देखभाल की फिक्र नहीं सता रही है?

अनुराधा तो रातभर इसी चिंता में मरे जा रही थी कि सुबह में चलते वक्त सासूजी ने उस से रुकने के लिए कहा तो वह क्या कह कर अपना बचाव करेगी. मन को ऐसे ही चंचल नहीं कहा जाता. उस के मन में कई बातें एकसाथ आई थीं कि जो वह कह रही है, वह क्या यही है? मलय की इच्छा के खिलाफ बूढ़े, बीमार और लाचार सासससुर को अकेले उन के अपने रहमोकरम पर छोड़ कर इस तरह घर छोड़ना क्या ठीक था? अगर वे उस के मातापिता होते तो क्या वह ऐसा ही करती? क्या सासससुर की जगह मातापिता से कम होती है? लेकिन तुरंत उस के मन में एक दूसरा बवंडर चलने लगा था. स्वार्थ और अपने निजी हित की रक्षा का बवंडर, अंदर से एक उबाल सा आया था.

सासससुर ने तो अपनी जिंदगी जी ली है. अब वे अपनी जिंदगी के आखिरी पड़ाव पर हैं, जहां जिंदगी ढलते सूरज की तरह होती है, उन्होंने अपने अरमान पूरे कर लिए हैं. पर अनुराधा का तो जिंदगी का सफर अभी शुरू ही हुआ है और सारे अरमान पूरे करने बाकी हैं. यह तो सासससुर को खुद मलय से कहना चाहिए था कि वह उसे भी अपने साथ लेता जाए.

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