उस रात अचानक

लेखिका- नीता दानी

पूर्व कथा

सुखसुविधा के हर साजोसामान के साथ प्रशांत और गुंजन खुशहाल जिंदगी जी रहे थे. इच्छा थी तो उन्हें एक संतान की. अचानक एक रात घर से बाहर टहलने के दौरान गुंजन का अपहरण हो जाता है. अपहरणकर्ता फिरौती में भारी रकम की मांग करते हैं. उधर, एक दिन अनजान महिला बंधी गुंजन की रस्सी खोल उसे अपहरणकर्ताओं के चंगुल से छुटकारा दिला देती है. रात बीतने का एक प्रहर अभी शेष है कि घंटी टनटनाती है. परेशान प्रशांत डरडर कर दरवाजा खोलता है, गुंजन को देख आश्चर्यमिश्रित हर्ष से उस का चेहरा खिल जाता है और डरीसहमी गुंजन पति के चौड़े सीने से लग रोतीबिसूरती बोलती है,

‘‘प्रशांत, अपहरणकर्ताओं ने मेरे खूबसूरत कंगन और कानों के कीमती टौप्स निकाल लिए…’’  गुंजन की सकुशल वापसी से सासससुर खुश थे. सास को बहू के गहनों की चिंता सता रही थी जबकि गुंजन को गहनों से अधिक अपनी घरवापसी प्रिय लग रही थी. वहीं, प्रशांत का बदलाबदला व्यवहार उसे बेचैन कर रहा था. वह गुंजन से कुछ खिंचाखिंचा रह रहा था. अपहरणकर्ताओं को फिरौती पहुंचाए बिना ही गुंजन का घर वापस आ जाना उसे अस्वाभाविक लग रहा था. ‘सिर्फ जेवर ले कर ही अपहरणकर्ता खुश हो गए…क्या गुंजन उन के पास सहीसलामत रही होगी?’

ये भी पढ़ें- रिश्ते की बुआ

गुंजन के प्रति प्रशांत के प्यार की गरमाहट समाप्त होती जा रही थी. प्रशांत द्वारा उपेक्षित गुंजन दुखी और निराश रहने लगती है. इसी बीच, एक दिन आफिस में काम के दौरान गुंजन को उबकाई का एहसास हुआ और वह उलटी के लिए टायलेट की ओर भागी. अस्वस्थ महसूस करने पर वह आफिस से छुट्टी ले कर सीधे डाक्टर के पास गई. लेडी डाक्टर ने उसे गर्भवती होने की खुशखबरी दी. खुशी से दीवानी गुंजन यह खुशखबरी प्रशांत को सुनाने को आतुर हो जाती है. ‘अब प्रशांत का व्यवहार अच्छा हो जाएगा. यह जान कर कि वह पिता बनने वाला है, खुश होगा,’ मन ही मन ऐसा सोचती गुंजन घर पहुंचती है…अब आगे…

गतांक से आगे…

गुंजन की आशा के विपरीत प्रशांत पिता बनने की बात जान कर स्तब्ध रह गया. उस के विचित्र हावभाव उस के भीतर छिपी बेचैनी को बयान कर रहे थे.‘‘तुम तो कहती थीं कि उन बदमाशों ने तुम्हारे साथ कोई बदतमीजी नहीं की… तो फिर…’’ कह कर उस ने गुंजन का हाथ जोर से झटक दिया था और फिर अंटशंट बकना शुरू कर दिया था. प्रशांत ने गुंजन से और अधिक दूरी बना ली थी. वह पति के समीप जाने को होती तो प्रशांत गुंजन पर कठोर नजर फेंक कर उस के समीप से हट जाता. और एक दिन प्रशांत के मन में छिपी बेचैनी उस के अधरों तक आ ही गई जब उस ने कड़े लहजे में कहा,  ‘उन डकैतों का बच्चा यहां इस घर में नहीं पलेगा.’

ये भी पढ़ें- अधूरे प्यार की टीस

गुंजन यह सुन कर अवाक् रह गई थी. पत्नी से दूरी बनाता प्रशांत इन दिनों किसी अन्य स्त्री के समीप जा रहा था. गुंजन दिल पर पत्थर रख चुपचाप बरदाश्त कर रही थी.

प्रशांत के मन में चल रही उथलपुथल का वाणी से खुलासा आज हो गया था. वह गुंजन के साथ संबंध तोड़ देना चाहता था. प्रशांत की इच्छा को अपनी नियति मान गुंजन छटपटा कर रह गई थी और आखिर में उसे मायके लौट आना पड़ा था.

समय गुजरता गया और वह एक स्वस्थ व सुंदर शिशु की मां बन गई. पुत्र को आंचल में समेट फूली नहीं समाई थी. किंतु प्रशांत की अनुपस्थिति एक टीस बन कर उसे तड़पा गई थी.

इस के कुछ माह बाद ही प्रशांत ने गुंजन को तलाक दे दिया और फिर दोनों नदी की 2 धाराओं की तरह अपनीअपनी राह बह चले.

रात्रि को प्राय: गुंजन को प्रशांत की यादें सतातीं और वह उस के साथ के लिए तड़प उठती तो कभी मन में प्रतिहिंसा की ज्वाला भड़क उठती.

समय सरकता जा रहा था. गुंजन अपनी नौकरी और पुत्र की परवरिश में व्यस्त थी. नौकरी में उस की लगन और काम के प्रति निष्ठा से उसे तरक्की मिलती जा रही थी.

पुत्र अभिराम भी दिन पर दिन बड़ा हो रहा था और उस के नैननक्श और चेहरा हूबहू अपने पिता प्रशांत पर जा रहे थे.

बेटे का चेहरा देख गुंजन के मन में उम्मीद का दीया जल उठता कि काश, प्रशांत एक बार अपने बेटे को देख लेता तो उस का संदेह पल भर में ही दूर हो जाता.

किंतु प्रशांत से संपर्क टूटे तो अरसा बीत चुका था.

ये भी पढ़ें- आंधी से बवंडर की ओर

मेधावी अभिराम स्कूलकालेज और विश्वविद्यालय की हर परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास करता इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष में आ गया था. उच्च श्रेणी के इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ाई करता अभिराम स्कालर था.

उस के कालेज में छात्रों की प्लेसमेंट के लिए विभिन्न बहुराष्ट्रीय कंपनियां आनी शुरू हो गई थीं. कंपनियों के रिकू्रट आफिसर, मानव संसाधन अधिकारी और प्रबंध निदेशक की टीम सभी छात्रों की लिखित परीक्षा और साक्षात्कार लेने के लिए छात्रों के चयन में जुटने शुरू हो गए थे.

अभिराम भी किसी उच्च स्तरीय कंपनी में नौकरी पाने के लिए परीक्षा की तैयारी में व्यस्त था. रात में सोने से पहले उस ने अपनी मां गुंजन से कहा था, ‘‘मम्मी, कल सुबह मुझे कालेज 7 बजे से पहले पहुंचना है और रात को भी देर हो जाएगी घर वापस आने में…पता नहीं कब तक इंटरव्यू चलते रहें.’’

अगले दिन अभिराम लिखित परीक्षा देने में व्यस्त हो गया और एक के बाद एक चरण पार करता हुआ वह अब साक्षात्कार के लिए अपना नाम पुकारे जाने की प्रतीक्षा में था.

अपना नंबर आया जान कर अभिराम ने आत्मविश्वास के साथ कमरे में प्रवेश किया. इंटरव्यू लेने के लिए 6 सदस्यों की टीम भीतर मौजूद थी.

सभी की दृष्टि अभिराम के चेहरे पर जमी थी. अभिराम को अपलक निहारते और ‘प्रबंध निदेशक’ के चेहरे की समानता को देख टीम के दूसरे सदस्य चकित थे.

अभिराम कुछ असहज हो उठा. उस के माथे पर पसीने की बूंदें चमक उठी थीं.

‘‘तुम्हारा नाम अभिराम प्रशांत दीक्षित है…क्या तुम्हारे 2 नाम हैं?’’ एच.आर. अधिकारी उस के बायोडाटा को देख बोला.

‘‘सर, मेरा नाम अभिराम और पिता का नाम प्रशांत दीक्षित है.’’

ये भी पढ़ें- पिताजी

रिकू्रट अफसर एकदूसरे को हैरानी से देख रहे थे. मानो कह रहे हों कि चेहरे के साथसाथ नाम में भी समानता है. हमारे एम.डी. का नाम भी प्रशांत दीक्षित है.

‘‘क्या करते हैं तुम्हारे पिता?’’ प्रबंध निदेशक ने अभिराम की फाइल को सरसरी नजर से देखते हुए पूछा.

‘‘सर, अपने पिता के बारे में मैं अधिक नहीं जानता,’’ इतना कह कर अभिराम सकपका गया फिर संभल कर बोला, ‘‘सर, मेरे मातापिता वर्षों पहले एकदूसरे से अलग हो गए थे. मैं अपने पिता के बारे में कुछ नहीं जानता क्योंकि होश संभालने के बाद उन्हें कभी देखा ही नहीं.’’

‘‘तुम्हारी मां?’’ एम.डी. दीक्षित के सवाल में जिज्ञासा थी. किंतु व्यक्तिगत प्रश्न पूछने पर एच.आर. अधिकारी और रिकू्रट अफसर ने शिष्टतापूर्ण आपत्ति जताई, ‘‘सर, व्यक्तिगत प्रश्न का नौकरी से क्या लेनादेना. छात्र की योग्यता से संबंधित प्रश्न पूछने ही बेहतर होंगे,’’ एम.डी. के कान में फुसफुसाते एच.आर. ने कहा.

‘‘मुझे कुछ नहीं पूछना. आप लोग जो चाहें पूछ लें.’’

प्रबंध निदेशक ने टीम से आग्रह किया और स्वयं उठ कर रेस्ट रूम में चले गए.

अभिराम ने सभी प्रश्नों का शालीनता से जवाब दिया और धन्यवाद तथा अभिवादन करता बाहर आ गया था.

टीम के सभी सदस्य प्रबंध निदेशक से सवाल कर रहे थे, ‘‘सर, यह लड़का क्या आप की रिश्तेदारी में है? इस की शक्लसूरत और उपनाम आप से मेल खाते हैं.’’

‘‘हमें तो यों आभास हो रहा था कि आप का युवा संस्करण ही हमारे समक्ष बैठा था,’’ मानव संसाधन अधिकारी ने मुसकराते हुए कहा.

सहायक टीम की बातें सुन प्रबंध निदेशक दीक्षित के तेजस्वी चेहरे का ओज बुझ गया था, लेकिन अभिराम का चयन एक प्रथम श्रेणी की बहुराष्ट्रीय कंपनी में हो गया था और अपने मित्रों के साथ वह खुशी के उन पलों का आनंद ले रहा था.

मम्मी को पहले खबर दे दूं. यह सोच कर अभिराम ने तुरंत फोन कर मां को अपने चयन की सूचना दी.

‘‘मम्मी, हम सब दोस्त सेलीबे्रट कर रहे हैं. आप खाना खा लेना,’’ उस का स्वर अचानक थम गया क्योंकि सामने एम.डी. दीक्षित खड़े थे.

वह अपलक अपनी प्रतिमूर्ति को देख रहे थे. मन में कई सारे सवाल उठ रहे थे पर उन में इतनी शक्ति नहीं थी कि वे अभिराम से कुछ पूछते, अत: बिना कुछ कहे वे अपने रूम की ओर बढ़ गए. पूरे दिन की थकावट के बाद भी नींद उन की आंखों से कोसों दूर थी. रात भर करवटें बदलते रहे.

अगले दिन सुबह अभिराम के घर जाने के लिए निकल पड़े थे. घर का पता अभिराम की बायोडाटा फाइल से नोट कर लिया था.

रास्ते भर विचारों में लीन रहे. उन की 2 बेटियां हैं लेकिन पुत्र की इच्छा उन्हें बेचैन किए रखती है. अभिराम को देख कर उन की इच्छा और अधिक बलवती हो उठी है.

अभिराम के घर पहुंच कर प्रशांत दीक्षित ने दरवाजे पर लगी घंटी को कांपते हाथों से बजा दिया था पर यह करते समय उन के कदम लड़खड़ा गए थे. दरवाजा गुंजन ने खोला था. दोनों एकदूसरे को अपलक देखते रह गए थे. प्रशांत के अधर कांपे किंतु बोल नहीं फूट सके.

गुंजन की आंखों में आश्चर्यमिश्रित हर्ष के भाव थे. शायद अपनी वर्षों की अभिलाषा के पूरे होने के मौके की यह खुशी थी.

कब से गुंजन को प्रशांत के पदचापों की प्रतीक्षा थी. कब से उस की राह देखती यही सोचती आई थी कि एक बार प्रशांत से अवश्य उस का सामना हो जाए.

बिना किसी भूमिका के उस के अधरों पर प्रश्न आ गया, ‘‘आज यहां की याद कैसे आ गई?’’

गुंजन के स्वर में छिपे व्यंग्य को समझ प्रशांत सकपका गया था.

‘‘कल मैं अपने बेटे से मिला. अभिराम को देख कर मेरा सिर गर्व से ऊंचा हो गया. कितना होनहार है मेरा बेटा,’’ प्रशांत भावावेश में बोल रहा था.

‘‘आप का पुत्र? आज वह आप का पुत्र कैसे हो गया?’’ गुंजन का स्वर ऊंचा हो गया था.

अतीत में जिस पुरुष को कसमें खाखा कर मैं विश्वास दिलाती रह गई थी अपने गर्भ में पल रहे शिशु के पिता होने का और वह निर्दयी विश्वास नहीं कर सका था. संदेह के कीड़े ने उस का विवेक हर लिया था. वह आज कैसे उसे अपना बेटा कह सकता है.

गुंजन के मन में तभी से पति के प्रति कहीं न कहीं प्रतिहिंसा की ज्वाला धधक रही थी और आज प्रशांत के मुख से पुत्रमोह की बातें सुन, गुंजन के तनबदन में आग लग गई थी.

‘‘अभिराम, सिर्फ और सिर्फ मेरा पुत्र है, मैं ही उस की मां हूं और मैं ही पिता भी हूं.’’

आज वह प्रशांत के सामने भावनाओं में बह कर दुर्बल हरगिज नहीं बनना चाहती थी. आज वह अपने मन की भड़ास निकाल लेना चाहती थी.

‘‘आप बहुत पहले ही अपने संदेह और बेबुनियाद शक के कारण अपनी पत्नी और अजन्मे शिशु को त्याग चुके हैं. अब वह सिर्फ मेरा पुत्र है.

‘‘बेहतर होगा अब आप यहां से चले जाएं और हमें हमारे हाल पर छोड़ दें. अब अभिराम बड़ा हो गया है. आप की सचाई जान कर उसे बहुत दुख होगा. आप का अपना एक परिवार है, उसे संभालिए.’’

‘‘मुझे माफ कर दो, गुंजन,’’ प्रशांत के स्वर में पश्चात्ताप और निराशा स्पष्ट थी.

‘‘मैं कौन होती हूं क्षमा करने वाली,’’ धीमे स्वर में बोली गुंजन अचानक उग्र हो उठी, ‘‘अगर आप के बेटे की शक्लसूरत आप पर न होती तो क्या वह आप का बेटा न होता. जरूरी नहीं कि बच्चों की शक्लसूरत हूबहू मातापिता से मिलने लगे. तो क्या ऐसी स्थिति में उन के जन्म पर संदेह करना होगा?

‘‘कुदरत ने मेरी सचाई को सही साबित करने के लिए ही शायद मेरे बेटे के चेहरे को हूबहू उस के पिता से मिला दिया है. किंतु प्रशांत दीक्षित, तलाक के बाद अब हमारे रास्ते अलग हैं. आप जा सकते हैं.’’

प्रशांत निढाल सा लड़खड़ाते कदमों को जबरदस्ती खींचता घर से बाहर आ गया था.

ये भी पढ़ें- कैक्टस के फूल

प्रशांत के विदा होते ही गुंजन की आंखों से आंसू बह निकले थे. जिस पति को देखने, मिलने के लिए वह वर्षों से बेचैन थी वही आज उस के सामने खड़ा गिड़गिड़ा रहा था. किंतु आज उस के प्रति गुंजन की भावनाएं वर्षों पहले वाली नहीं थीं.

गुंजन के भीतर धधकती वर्षों की प्रतिहिंसा की ज्वाला धीरेधीरे शांत हो चली थी. शायद उसे अपनी बेगुनाही का सुबूत मिल गया था.

पुनर्जन्म

‘‘आप को मालूम है मां, दीदी का प्रोमोशन के बाद भी जन कल्याण मंत्रालय से स्थानांतरण क्यों नहीं किया जा रहा, क्योंकि दीदी को व्यक्ति की पहचान है. वे बड़ी आसानी से पहचान लेती हैं कि किस समाजसेवी संस्था के लोग समाज का भला करने वाले हैं और कौन अपना. फिर आप लोग इतनी पारखी नजर वाली दीदी की जिंदगी का फैसला बगैर उन्हें भावी वर से मिलवाए खुद कैसे कर सकती हैं?’’ ऋचा ने तल्ख स्वर से पूछा, ‘‘पहले दीदी के अनुरूप सुव्यवस्थित 2 लोगों को आप ने इसलिए नकार दिया कि वे दुहाजू हैं और अब जब एक कुंआरा मिल रहा है तो आप इसलिए मना कर रही हैं कि उस में जरूर कुछ कमी होगी जो अब तक कुंआरा है. आखिर आप चाहती क्या हैं?’’

‘‘शिखा की भलाई और क्या?’’ मां भी चिढ़े स्वर में बोलीं.

‘‘मगर यह कैसी भलाई है, मां कि बस, वर का विवरण देखते ही आप और यश भैया ऐलान कर दें कि यह शिखा के उपयुक्त नहीं है. आप ने हर तरह से उपयुक्त उस कुंआरे आदमी के बारे में यह पता लगाने की कोशिश नहीं की कि उस की अब तक शादी न करने की क्या वजह है?’’

‘‘शादी के बाद यह कुछ ज्यादा नहीं बोलने लगी है, मां?’’ यश ने व्यंग्य से पूछा.

‘‘कम तो खैर मैं कभी भी नहीं बोलती थी, भैया. बस, शादी के बाद सही बोलने की हिम्मत आ गई है,’’ ऋचा व्यंग्य से मुसकराई.

‘‘बोलने की ही हिम्मत आई है, सोचने की नहीं,’’ यश ने कटाक्ष किया, ‘‘सीधी सी बात है, 35 साल तक कुंआरा रहने वाला आदमी दिलजला होगा…’’

‘‘फिर तो वह दीदी के लिए सर्वथा उपयुक्त है,’’ ऋचा ने बात काटी, ‘‘क्योंकि दीदी भी अपने बैचमेट सूरज के साथ दिल जला कर मसूरी की सर्द वादियों में अपने प्रणय की आग लगा चुकी हैं.’’

‘‘तुम तो शादी के बाद बेशर्म भी हो गई हो ऋचा, कैसे अपने परिवार और कैरियर के प्रति संप्रीत दीदी पर इतना घिनौना आरोप लगा रही हो?’’ यश की पत्नी शशि ने पूछा.

‘‘यह आरोप नहीं हकीकत है, भाभी. दीदी की सगाई उन के बैचमेट सूरज से होने वाली थी लेकिन उस से एक सप्ताह पहले ही पापा को हार्ट अटैक पड़ गया. पापा जब आईसीयू में थे तो मैं ने दीदी को फोन पर कहते सुना था, ‘पापा अगर बच भी गए तो सामान्य जीवन नहीं जी पाएंगे, इसलिए बड़ी और कमाऊ होने के नाते परिवार के भरणपोषण की जिम्मेदारी मेरी है. सो, जब तक यश आईएएस प्रतियोगिता में उत्तीर्ण न हो जाए और ऋचा डाक्टर न बन जाए, मैं शादी नहीं कर सकती, सूरज. इस सब में कई साल लग जाएंगे, सो बेहतर होगा कि तुम मुझे भूल जाओ.’

‘‘उस के बाद दीदी ने दृढ़ता से शादी करने से मना कर दिया, रिश्तेदारों ने भी उन का साथ दिया क्योंकि अपाहिज पापा की तीमारदारी का खर्च तो उन के परिवार का कमाऊ सदस्य ही उठा सकता था और वह सिर्फ दीदी थीं. पापा ने अंतिम सांस लेने से पहले दीदी से वचन लिया था कि यश भैया और मेरे व्यवस्थित होने के बाद वे अपनी शादी के लिए मना नहीं करेंगी. आप को पता ही है कि मैं ने डब्लूएचओ की स्कालरशिप छोड़ कर अरुण से शादी क्यों की, ताकि दीदी पापा की अंतिम इच्छा पूरी कर सकें.’’

‘‘हमारे लिए उस के पापा की अंतिम इच्छा से बढ़ कर शिखा की अपनी इच्छा और भलाई जरूरी है,’’ मां ने तटस्थता से कहा.

‘‘पापा की अंतिम इच्छा पूरी करना दीदी की इच्छाओं में से एक है,’’ ऋचा बोली, ‘‘रहा भलाई का सवाल तो आप लोग केवल उपयुक्त घरवर सुझाइए, उस के अपने अनुरूप या अनुकूल होने का फैसला दीदी को करने दीजिए.’’

‘‘और अगर हम ने ऐसा नहीं किया न मां तो यह दीदी की परम हितैषिणी स्वयं दीदी के लिए घरवर ढूंढ़ने निकल पड़ेगी,’’ यश व्यंग्य से हंसा.

‘‘बिलकुल सही समझा आप ने, भैया. इस से पहले कि मैं और अरुण अमेरिका जाएं मैं चाहूंगी कि दीदी का भी अपना घरसंसार हो. आज मैं जो हूं दीदी की मेहनत और त्याग के कारण. सच कहिए, अगर दीदी न होतीं तो आप लोग मेरी डाक्टरी की पढ़ाई का खर्च उठा सकते थे?’’ ऋचा ने तल्ख स्वर में पूछा, ‘‘आप के लिए तो पापा की मृत्यु मेहनत से बचने का बहाना बन गई भैया. बगैर यह परवा किए कि पापा का सपना आप को आईएएस अधिकारी बनाना था, आप ने उन की जगह अनुकंपा में मिल रही बैंक की नौकरी ले ली क्योंकि आप पढ़ना नहीं चाहते थे. मां भी आप से मेहनत करवाना नहीं चाहतीं. और फिर पापा के समय की आनबान बनाए रखने को आईएएस अफसर दीदी तो थीं ही. नहीं तो आप के बजाय यह नौकरी मां भी कर सकती थीं, आप पढ़ाई और दीदी शादी.’’

‘‘ये गड़े मुर्दे उखाड़ कर तू कहना क्या चाहती है?’’ मां ने झल्लाए स्वर में पूछा.

‘‘यही कि पुत्रमोह में दीदी के साथ अब और अन्याय मत कीजिए. भइया की गृहस्थी चलाने के बजाय उन्हें अब अपना घरसंसार बसाने दीजिए. फिलहाल उस डाक्टर का विवरण मुझे दे दीजिए. मैं उस के बारे में पता लगाती हूं,’’ ऋचा ने उठते हुए कहा.

‘‘वह हम लगा लेंगे मगर आप चली कहां, अभी बैठो न,’’ शशि ने आग्रह किया.

‘‘अस्पताल जाने का समय हो गया है, भाभी,’’ कह कर ऋचा चल पड़ी. मां और यश ने रोका भी नहीं जबकि मां को मालूम था कि आज उस की छुट्टी है.

ऋचा सीधे शिखा के आफिस गई.

‘‘आप से कुछ जरूरी बात करनी है, दीदी. अगर आप अभी व्यस्त हैं तो मैं इंतजार कर लेती हूं,’’ उस ने बगैर किसी भूमिका के कहा.

‘‘अभी मैं एक मीटिंग में जा रही हूं, घंटे भर तक तो वह चलेगी ही. तू ऐसा कर, घर चली जा. मैं मीटिंग खत्म होते ही आ आऊंगी.’’

‘‘घर से तो आ ही रही हूं. आप ऐसा करिए मेरे घर आ जाइए, अरुण की रात 10 बजे तक ड्यूटी है, वह जब तक आएंगे हमारी बात खत्म हो जाएगी.’’

‘‘ऐसी क्या बात है ऋचा, जो मां और अरुण के सामने नहीं हो सकती?’’

‘‘बहनों की बात बहनों में ही रहने दो न दीदी.’’

‘‘अच्छी बात है,’’ शिखा मुसकराई, ‘‘मीटिंग खत्म होते ही तेरे घर पहुंचती हूं.’’

उसे लगा कि ऋचा अमेरिका जाने से पहले कुछ खास खरीदने के लिए उस की सिफारिश चाहती होगी. मीटिंग खत्म होते ही वह ऋचा के घर आ गई.

‘‘अब बता, क्या बात है?’’ शिखा ने चाय पीने के बाद पूछा.

‘‘मैं चाहती हूं दीदी कि मेरे और अरुण के अमेरिका जाने से पहले आप पापा को दिया हुआ अपना वचन कि जिम्मेदारियां पूरी होते ही आप शादी कर लेंगी, पूरा कर लें,’’ ऋचा ने बगैर किसी भूमिका के कहा, ‘‘वैसे आप की जिम्मेदारी तो मेरे डाक्टर बनते ही पूरी हो गई थी फिर भी आप मेरी शादी करवाना चाहती थीं, सो मैं ने वह भी कर ली…’’

‘‘लेकिन मेरी जिम्मेदारियां तो खत्म नहीं हुईं, बहन,’’ शिखा ने बात काटी, ‘‘यश अपना परिवार ही नहीं संभाल पाता है तो मां को कैसे संभालेगा?’’

‘‘यानी न कभी जिम्मेदारियां पूरी होंगी और न पापा की अंतिम इच्छा. जीने वालों के लिए ही नहीं दिवंगत आत्मा के प्रति भी आप का कुछ कर्तव्य है, दीदी.’’

शिखा ने एक उसांस ली.

‘‘मैं ने यह वचन पापा को ही नहीं सूरज को भी दिया था ऋचा, और जो उस ने मेरे लिए किया है उस के बाद उसे दिया हुआ वचन पूरा करना भी मेरा फर्ज बनता है लेकिन महज वचन के कारण जिम्मेदारियों से मुंह तो नहीं मोड़ सकती.’’

‘‘मां के लिए पापा की पेंशन काफी है, दीदी, और जरूरत पड़ने पर पैसे से मैं और आप दोनों ही उन की मदद कर सकते हैं, उन्हें अपने पास रख सकते हैं. यश का परिवार उस की निजी समस्या है, मेहनत करें तो दोनों मियांबीवी अच्छाखासा कमा सकते हैं, उन के लिए आप को परेशान होने की जरूरत नहीं है,’’ ऋचा ने आवेश से कहा और फिर हिचकते हुए पूछा, ‘‘माफ करना, दीदी, मगर मुझे याद नहीं आ रहा कि सूरज ने आप के लिए क्या किया?’’

‘‘मुझे रुसवाई से बचाने के लिए सूरज ने मेहनत से मिली आईएएस की नौकरी छोड़ दी क्योंकि हमारे सभी साथियों को हमारी प्रेमकहानी और होने वाली सगाई के बारे में मालूम था. एक ही विभाग में होने के कारण गाहेबगाहे मुलाकात होती और अफवाहें भी उड़तीं, सो मुझे इस सब से बचाने के लिए सूरज नौकरी छोड़ कर जाने कहां चला गया.’’

‘‘आप ने उसे तलाशने की कोशिश नहीं की?’’

‘‘उस के किएकराए यानी त्याग पर पानी फेरने के लिए?’’

‘‘यह बात भी ठीक है. देखिए दीदी, जब आप वचनबद्ध हुई थीं तब आप की जिम्मेदारी केवल भैया और मेरी पढ़ाई पूरी करवाने तक सीमित थी, लेकिन आप ने हमारी शादियां भी करवा दीं. अब उस के बाद की जिम्मेदारियां आप के वचन की परिधि से बाहर हैं और अब आप का फर्ज केवल अपना वचन निभाना है. बहुत जी लीं दूसरों के लिए और यादों के सहारे, अब अपने लिए जी कर देखिए दीदी, कुछ नए यादगार क्षण संजोने की कोशिश करिए.’’

‘‘कहती तो तू ठीक है…’’

‘‘तो फिर आज से ही इंटरनेट पर अपने मनपसंद जीवनसाथी की तलाश शुरू कर दीजिए. मां तो पुत्रमोह में आप की शादी करवाएंगी नहीं.’’

‘‘यही सब सोच कर तो मैं शादी नहीं करना चाहती, लेकिन तेरा यह कहना भी ठीक है कि पैसे से तो उन लोगों की मदद हमेशा की जा सकती है.’’

‘‘मैं आप को इंटरनेट पर उपलब्ध…’’

‘‘थोड़ा सब्र कर, ऋचा,’’ शिखा ने बात काटी, ‘‘उस से पहले मुझे स्वयं को किसी नितांत अजनबी के साथ जीने के लिए मानसिक रूप से तैयार करना होगा और मुझे यह भी मालूम नहीं है कि मेरी उस से क्या अपेक्षाएं होंगी या व्यक्तिगत जीवन में मेरी अपनी मान्यताएं क्या हैं? इन सब के लिए चिंतन की आवश्यकता है.’’

‘‘और उस के लिए एकांत की, जो आप को दफ्तर और घर की जिम्मेदारियों के चलते तो मिलने से रहा. आप लंबी छुट्टी ले कर या तो सुदूर पहाडि़यों में या समुद्रतट पर एकांतवास कीजिए.’’

‘‘सुझाव तो अच्छा है, सोचूंगी.’’

‘‘मगर आज ही रात को,’’ ऋचा ने जिद की.

शिखा ने सोचा जरूर लेकिन अपनी पिछली जिंदगी के बारे में. पापा बैंक अधिकारी थे लेकिन चाहते थे कि उन के बच्चे उन से बढ़ कर भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी बनें. शिखा का तो प्रथम प्रयास में ही चयन हो गया. ऋचा ने हाईस्कूल में ही बता दिया था कि उस की रुचि जीव विज्ञान में है और वह डाक्टर बनेगी. पापा ने सहर्ष अनुमति दे दी थी. मां के लाड़ले यश का दिल पढ़ाई में नहीं लगता था फिर भी पापा के डर से पढ़ रहा था लेकिन पापा के जाते ही उस ने पढ़ाई छोड़ कर अनुकंपा में मिली बैंक की नौकरी कर ली.

मां ने भी उस का यह कह कर साथ दिया कि वह तेरा हाथ बटाना चाह रहा है शिखा, बैंक की प्रतियोगी परीक्षाएं दे कर तरक्की भी करता रहेगा, लेकिन हाथ बटाने के बजाय यश ने अपना भार भी उस पर डाल दिया था. जहां उस की नियुक्ति होती थी, वहीं यश भी अपना तबादला करवा लेता था आईएएस अफसर बहन का रोब डाल कर. तरक्की पाने की न तो लालसा थी और न ही जरूरत, क्योंकि शिखा को मिलने वाली सब सुविधाओं का उपभोग तो वही करता था.

यश और उस के परिवार की जरूरतों के लिए मां शिखा को उसी स्वर में याद दिलाया करती थीं जिस में वह कभी पापा से घर के बच्चों की जरूरतें पूरी करने को कहती थीं यानी मां के खयाल में यश का परिवार शिखा का उत्तरदायित्व था. शिखा को इस से कुछ एतराज भी नहीं था. उस की अपनी इच्छाएं तो सूरज से बिछुड़ने के साथ ही खत्म हो गई थीं. उसे यश या उस के परिवार से कोई शिकायत भी नहीं थी, बस, बीचबीच में पापा के अंतिम शब्द, ‘जब ये दोनों अपने घरपरिवार में व्यवस्थित हो जाएंगे तो तू अकेली क्या करेगी, बेटी? जिन सपनों की तू ने आज आहुति दी है उन्हें पुनर्जीवित कर के फिर जीएगी तो मेरी भटकती आत्मा को शांति मिल जाएगी. जिस तरह तू मेरी जिम्मेदारियां निभाने को कटिबद्ध है, उसी तरह मेरी अंतिम इच्छा पूरी करने को भी रहना,’ याद आ कर कचोट जाते थे.

ऐसा ही कुछ सूरज ने भी कहा था, ‘जिस तरह अपने परिवार के प्रति तुम्हारा फर्ज तुम्हें शादी करने से रोक रहा है उसी तरह अपने मातापिता की इच्छा के विरुद्ध कुछ साल तक तुम्हारी जिम्मेदारियां पूरी होने के इंतजार में शादी न करने के फैसले पर मैं चाह कर भी अडिग नहीं रह पा रहा. कैसे जी पाऊंगा किसी और के साथ, नहीं जानता, लेकिन फिलहाल दफ्तर और घर के दायित्व निभाने में मेरा और तुम्हारा समय कट ही जाया करेगा लेकिन जब तुम दायित्व मुक्त हो जाओगी तब क्या करोगी, शिखा? मैं यह सोचसोच कर विह्वल हो जाया करूंगा कि तुम अकेली क्या कर रही होगी.’

‘फुरसत से तुम्हारी यादों के सहारे जी रही हूंगी और क्या?’

‘जीने के लिए यादों के सहारे के अलावा किसी अपने के सहारे की भी जरूरत होती है. मैं तो खैर सहारे के लिए नहीं मांबाप की जिद से मजबूर हो कर शादी कर रहा हूं लेकिन तुम जीवन की सांध्यवेला में अकेली मत रहना. मेरे सुकून के लिए शादी कर लेना.’

यश के परिवार के रहते अकेली होने का तो सवाल ही नहीं था लेकिन घर में अपनेपन की ऊष्मा ऋचा के जाते ही खत्म हो गई थी और रह गया था फरमाइशों और शिकायतों का अंतहीन सिलसिला. शिकायत करते हुए यश और मां को अपनी फरमाइश की तारीख तो याद रहती थी लेकिन यह पूछना नहीं कि शिखा किस वजह से वह काम नहीं कर सकी.

वैसे भी लगातार काम करतेकरते वह काफी थक चुकी थी और छुट्टियां भी जमा थीं सो उस ने सोचा कि कुछ दिन को कहीं घूम ही आएं. उस की सचिव माधवी मेनन जबतब केरल की तारीफ करती रहती थी, ‘तनमन को शांति और स्फूर्ति से भरना हो तो कभी भी केरल जाने पर ऐसा लगेगा कि आप का पुनर्जन्म हो गया है.’

अगले रोज उस ने माधवी से पूछा कि वह काम की थकान उतारने को कुछ दिन शोरशराबे से दूर प्रकृति के किसी सुरम्य स्थान पर रहना चाहती है, सो कहां जाए?

‘‘वैसे तो केरल में ऐसी जगहों की भरमार है,’’ माधवी ने उत्साह से बताया, ‘‘लेकिन आप को त्रिचूर का अथरियापल्ली वाटरफाल बहुत पसंद आएगा. वहां वन विभाग का सभी सुखसुविधाओं से युक्त गेस्ट हाउस भी है. तिरुअनंतपुरम के अपने आफिस वाले त्रिचूर के जिलाध्यक्ष से कह कर आप के रहने का प्रबंध करवा देंगे.’’

‘‘लेकिन वहां तक जाना कैसे होगा?’’

‘‘तिरुअनंतपुरम तक प्लेन से, उस के बाद आप को एअरपोर्ट से अथरियापल्ली तक पहुंचाने की जिम्मेदारी अपने आफिस वालों की होगी. आप अपने जाने की तारीख तय करिए, बाकी सब व्यवस्था मुझ पर छोड़ दीजिए.’’

लंच ब्रेक में ऋचा का फोन आया.

‘‘हां भई, छुट्टी के लिए आवेदन कर दिया है केरल जाने को,’’ शिखा ने उसे सब बताया.

‘‘लेकिन घर वालों के लिए आप छुट्टी पर नहीं टूर पर जा रही हैं दीदी, वरना सभी आप के साथ केरल घूमने चल पड़ेंगे,’’ ऋचा ने आगाह किया.

ऋचा का कहना ठीक था. सब तैयारी हो जाने से एक रोज पहले उस ने सब को बताया कि वह केरल जा रही है.

‘‘केरल घूमने तो हम सब भी चलेंगे,’’ शशि ने कहा.

‘‘मैं केरल प्लेन से जा रही हूं सरकारी गाड़ी से नहीं, जिस में बैठ कर तुम सब मेरे साथ टूर पर चल पड़ते हो.’’

‘‘हम क्या प्लेन में नहीं बैठ सकते?’’ यश ने पूछा.

‘‘जरूर बैठ सकते हो मगर टिकट ले कर और फिलहाल मेरा तो कल सुबह 9 बजे का टिकट कट चुका है,’’ कह कर शिखा अपने कमरे में चली गई.

अगली सुबह सब के सामने ड्राइवर को कुछ फाइलें पकड़ाते हुए उस ने कहा, ‘‘मुझे एअरपोर्ट छोड़ कर, मेहरा साहब के घर चले जाना, ये 2 फाइलें उन्हें दे देना और ये 2 आफिस में माधवी मेनन को.’’

प्लेन में अपनी बराबर की सीट पर बैठी युवती से यह सुन कर कि वह एक प्रकाशन संस्थान में काम करती है और एक लेखक के पास एक किताब की प्रस्तावना पर विचारविमर्श करने जा रही है, शिखा ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘अपने यहां लेखकों को कब से इतना सम्मान मिलने लगा?’’

‘‘मैडम, आप शायद नहीं जानतीं,’’ युवती खिसिया कर बोली, ‘‘बेस्ट सेलर के लेखक के लिए कुछ भी करना पड़ता है. ये महानुभाव केरल से बाहर आने को तैयार नहीं होते, सो बात करने के लिए हमें ही यहां आना पड़ता है.’’

इस से पहले कि शिखा पूछती कि वे महानुभाव हैं कौन, युवती ने उस का परिचय पूछ लिया और यह जानने पर कि वह आईएएस अधिकारी है और एकांत- वास करने के लिए अथरियापल्ली जा रही है, बड़ी प्रभावित हुई और उस के बारे में अधिक से अधिक पूछने लगी. शिखा ने उसे अपना कार्ड दे दिया.

माधवी का कहना ठीक था. अथरियापल्ली वाटरफाल वैसी ही जगह थी जैसी वह चाहती थी. गेस्ट हाउस में भी हर तरह का आराम था. बगैर अपने बारे में सोचे वह अभी प्रकृति की छटा और निरंतर बदलते रंग निहारने का आनंद ले रही थी कि अगली सुबह ही सूरज को देख कर हैरान रह गई.

‘‘तुम…यहां?’’ वह इतना ही कह सकी.

‘‘हां, मैं,’’ सूरज हंसा, ‘‘वैसे तो कहीं आताजाता नहीं, लेकिन यह जान कर कि तुम यहां हो, तुम से मिलने का लोभ संवरण न कर सका.’’

‘‘लेकिन तुम्हें किस ने बताया कि मैं यहां हूं?’’

‘‘पल्लवी यानी उस युवती ने जो कल तुम्हारे साथ प्लेन में थी,’’ सूरज ने सामने पत्थर पर बैठते हुए कहा, ‘‘असल में मैं उस के प्रकाशन संस्थान के लिए आईएएस प्रतियोगिता के लिए उपयोगी किताबें लिखता हूं. पल्लवी चाहती है कि प्रतियोगिता में सफल होने के बाद सफलता बनाए रखने के लिए क्या करें, इस विषय पर मैं कुछ लिखूं तो मैं ने कहा कि मुझे नौकरी छोड़े कई साल हो चुके हैं और आज के प्रशासन के बारे में अधिक जानकारी नहीं है तो उस ने तुम्हारे बारे में बताया और कहा कि आप से मिल कर आजकल के हालात के बारे में जानकारी ले लूं. पल्लवी को तो तुम्हारे एकांतवास में खलल न डालने को मना कर दिया लेकिन खुद को आने से न रोक सका. ऐसे हैरानी से क्या देख रही हो, मैं सूरज ही हूं, शिखा.’’

‘‘उस में तो कोई शक नहीं है लेकिन तुम और लेखन. यकीन नहीं होता, सूरज.’’

‘‘यकीन न होने लायक ही तो अब तक मेरी जिंदगी में होता रहा है, शिखा,’’ सूरज उसांस ले कर बोला, ‘‘पुराने परिवेश से कटने के लिए मैं ने तिरुअनंतपुरम यूनिवर्सिटी में प्रवक्ता की नौकरी कर ली थी और वक्त काटने के लिए आईएएस प्रतियोगी परीक्षा देने वाले विद्यार्थियों को पढ़ाया करता था. उन के सफल होने पर इतने विद्यार्थी आने लगे कि मुझे नौकरी छोड़ कर कोचिंग क्लास खोलनी पड़ी. मेरे एक शिष्य ने मेरे दिए क्लास नोट्स का संकलन कर प्रकाशन करवा दिया, वह बहुत ही लोकप्रिय हुआ और प्रकाशक इस विषय की और किताबों के लिए मेरे पीछे पड़ गए और इस तरह मैं सफल लेखक बन गया. अब तो पढ़ाना भी छोड़ दिया है. बस, लिखता हूं.’’

‘‘लिखने भर से घर का खर्च चल जाता है?’’

‘‘बड़े आराम से. अकेले आदमी का ज्यादा खर्च भी नहीं होता.’’

‘‘यानी तुम ने मातापिता की खुशी की खातिर शादी नहीं की?’’

‘‘शादी करने से मना भी नहीं किया,’’ सूरज हंसा, ‘‘जो लोग मुझे अपना दामाद बनाने के लिए हाथ बांधे पापा के आगेपीछे घूमते थे, वे तो मेरी नौकरी छोड़ते ही बरसात की धूप की तरह गायब हो गए, जो लोग प्रवक्ता को लड़की देने के लिए तैयार थे वे मांपापा की कसौटी पर खरे नहीं उतरे. उन की तलाश अभी भी जारी है लेकिन सुदूर केरल में बसे लेखक को कौन दिल्ली वाला लड़की देगा? और तुम बताओ यह एकांतवास किसलिए? संन्यासवन्यास लेने का इरादा है?’’

शिखा हंस पड़ी, ‘‘असलियत तो इस के विपरीत है, सूरज,’’ और उस ने ऋचा के सुझाव के बारे में विस्तार से बताया.

‘‘दूसरे शब्दों में कहें तो मांपापा की तलाश खत्म हो गई,’’ सूरज हंसा, ‘‘वैसे तो मैं यहां से वापस जाने वाला नहीं था लेकिन तुम्हारे साथ कहीं भी चल सकता हूं.’’

‘‘मैं भी यहां आ सकती हूं, सूरज, लेकिन क्या गुजरे कल को आज बनाना संभव होगा?’’

‘‘अगर तुम मुझे जिलाना और खुद जिंदा होना चाहो तो…’’

शिखा के मोबाइल की घंटी बजी. यश का फोन था.

‘‘दीदी, गुरमेल सिंह जब परसों दोपहर तक गाड़ी ले कर नहीं आया तो मैं ने उस के मोबाइल पर उसे आने के लिए फोन किया, लेकिन उस ने कहा कि वह मेहरा साहब की ड्यूटी में है और उन के कहने पर ही हमारे यहां आ सकता है, सो मैं ने उन से बात करनी चाही. परसों तो मेहरा साहब से बात नहीं हो सकी, वे मीटिंग में थे. कल बड़ी मुश्किल से शाम को मिले तो बोले कि वे इस विषय में कुछ नहीं कह सकते. बेहतर है कि मैं माधवी से बात करूं. माधवी कहती है कि छुट्टी पर गए किसी भी अधिकारी को गाड़ी उस के कार्यभार संभालने वाले अधिकारी को दी जाती है और परिवार के लिए गाड़ी भेजने का नियम तो नहीं है लेकिन शिखा मैडम कहेंगी तो भिजवा देंगे. आप तुरंत माधवी को फोन कीजिए गाड़ी भिजवाने को.’’

‘‘जब परिवार के लिए गाड़ी भेजने का नियम नहीं है तो मैं उस का उल्लंघन करने को कैसे कह सकती हूं?’’ शिखा ने रुखाई से कहा.

‘‘चाहे गाड़ी के बगैर परिवार को कितनी भी परेशानी हो रही हो?’’

‘‘इतनी ही परेशानी है तो खुद ही गाड़ी का इंतजाम कर ले न भाई मेरे…’’

‘‘यह आप को हो क्या गया है दीदी? आप मां से बात कीजिए…’’

मां एकदम बरस पड़ीं, ‘‘यह क्या लापरवाही है, शिखा? हमारे लिए बगैर गाड़ीड्राइवर का इंतजाम किए, टूर का बहाना बना कर तुम छुट्टी मनाने निकल गई हो, शर्म नहीं आती?’’

शिखा तड़प उठी.

‘‘मैं ने कब कहा था मां कि मैं टूर पर जा रही हूं और काम की थकान उतारने को छुट्टी मनाने में शर्म कैसी? अगर गाड़ी के बगैर आप को दिक्कत हो रही है तो यश से कहिए, इंतजाम करे, परिवार के प्रति उस का भी तो कुछ दायित्व है.’’

‘‘यह तुझे क्या हो गया है, शिखा? यश कह रहा है, तू एकदम बदल गई है…’’

‘‘यश ठीक कह रहा है, मां,’’ शिखा ने बात काटी, ‘‘मेरा पुनर्जन्म हो रहा है, उस में आप को कुछ तकलीफ तो झेलनी ही पड़ेगी.’’

और वह सूरज की फैली बांहों में सिमट गई.

तिकोनी डायरी

भाग-1

नागेश की डायरी

कई दिनों से मैं बहुत बेचैन हूं. जीवन के इस भाटे में मुझे प्रेम का ज्वार चढ़ रहा है. बूढ़े पेड़ में प्रेम रूपी नई कोंपलें आ रही हैं. मैं अपने मन को समझाने का भरपूर प्रयत्न करता हूं पर समझा नहीं पाता. घर में पत्नी, पुत्र और एक पुत्री है. बहू और पोती का भरापूरा परिवार है, पर मेरा मन इन सब से दूर कहीं और भटकने लगा है.

शहर मेरे लिए नया नहीं है. पर नियुक्ति पर पहली बार आया हूं. परिवार पीछे पटना में छूट गया है. यहां पर अकेला हूं और ट्रांजिट हौस्टल में रहता हूं. दिन में कई बार परिवार वालों से फोन पर बात होती है. शाम को कई मित्र आ जाते हैं. पीनापिलाना चलता है. दुखी होने का कोई कारण नहीं है मेरे पास, पर इस मन का मैं क्या करूं, जो वेगपूर्ण वायु की भांति भागभाग कर उस के पास चला जाता है.

वह अभीअभी मेरे कार्यालय में आई है. स्टेनो है. मेरा उस से कोई सीधा नाता नहीं है. हालांकि मैं कार्यालय प्रमुख हूं. मेरे ही हाथों उस का नियुक्तिपत्र जारी हुआ है…केवल 3 मास के लिए. स्थायी नियुक्तियों पर रोक लगी होने के कारण 3-3 महीने के लिए क्लर्कों और स्टेनो की भर्तियां कर के आफिस का काम चलाना पड़ता है. कोई अधिक सक्षम हो तो 3 महीने का विस्तार दिया जा सकता है.

उस लड़की को देखते ही मेरे शरीर में सनसनी दौड़ जाती है. खून में उबाल आने लगता है. बुझता हुआ दीया तेजी से जलने लगता है. ऐसी लड़कियां लाखों में न सही, हजारों में एक पैदा होती हैं. उस के किसी एक अंग की प्रशंसा करना दूसरे की तौहीन करना होगा.

पहली नजर में वह मेरे दिल में प्रवेश कर गई थी. मेरे पास अपना स्टाफ था, जिस में मेरी पी.ए. तथा व्यक्तिगत कार्यों के लिए अर्दली था. कार्यालय के हर काम के लिए अलगअलग कर्मचारी थे. मजबूरन मुझे उस लड़की को अनुराग के साथ काम करने की आज्ञा देनी पड़ी.

ये भी पढ़ें : क्या आप का बिल चुका सकती हूं

मुझे जलन होती है. कार्यालय प्रमुख होने के नाते उस लड़की पर मेरा अधिकार होना चाहिए था, पर वह मेरे मातहत अधिकारी के साथ काम रही थी. मुझ से यह सहन नहीं होता था. मैं जबतब अनुराग के कमरे में चला जाता था. मेरे बगल में ही उस का कमरा था. उन दोनों को आमनेसामने बैठा देखता हूं तो सीने पर सांप लोट जाता है. मन करता है, अनुराग के कमरे में आग लगा दूं और लड़की को उठा कर अपने कमरे में ले जाऊं.

अनुराग उस लड़की को चाहे डिक्टेशन दे रहा हो या कोई अन्य काम समझा रहा हो, मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता. तब थोड़ी देर बैठ कर मैं अपने को तसल्ली देता हूं. फिर उठतेउठते कहता हूं, ‘‘नीहारिका, जरा कमरे में आओ. थोड़ा काम है.’’

मैं जानता हूं, मेरे पास कोई आवश्यक कार्य नहीं. अगर है भी तो मेरी पी.ए. खाली बैठी है. उस से काम करवा सकता हूं. पर नीहारिका को अपने पास बुलाने का एक ही तरीका था कि मैं झूठमूठ उस से व्यर्थ की टाइपिंग का काम करवाऊं. मैं कोई पुरानी फाइल निकाल कर उसे देता कि उस का मैटर टाइप करे. वह कंप्यूटर में टाइप करती रहती और मैं उसे देखता रहता. इसी बहाने बातचीत का मौका मिल जाता.

नीहारिका के घरपरिवार के बारे में जानकारी ले कर अपने अधिकारों का बड़प्पन दिखा कर उसे प्रभावित करने लगा. लड़की हंसमुख ही नहीं, वाचाल भी थी. वह जल्द ही मेरे प्रभाव में आ गई. मैं ने दोस्ती का प्रस्ताव रखा, उस ने झट से मान लिया. मेरा मनमयूर नाच उठा. मुझ से हाथ मिलाया तो शरीर झनझना कर रह गया. कहां 20 साल की उफनती जवानी, कहां 57 साल का बूढ़ा पेड़, जिस की शाखाओं पर अब पक्षी भी बैठने से कतराने लगे थे.

नीहारिका से मैं कितना भी झूठझूठ काम करवाऊं पर उसे अनुराग के पास भी जाना पड़ता था. मुझे डर है कि लड़की कमसिन है, जीवन के रास्तों का उसे कुछ ज्ञान नहीं है. कहीं अनुराग के चक्कर में न आ जाए. वह एक कवि और लेखक है. मृदुल स्वभाव का है. उस की वाणी में ओज है. वह खुद न चाहे तब भी लड़की उस के सौम्य व्यक्तित्व से प्रभावित हो सकती थी.

क्या मैं उन दोनों को अलग कर सकता हूं?

ये भी पढ़ें : यह कैसी विडंबना

अनुराग की डायरी

नीहारिका ने मेरी रातों की नींद और दिन का चैन छीन लिया है. वह इतनी हसीन है कि बड़े से बड़ा कवि उस की सुंदरता की व्याख्या नहीं कर सकता है. गोरा आकर्षक रंग, सुंदर नाक और उस पर चमकती हुई सोने की नथ, कानों में गोलगोल छल्ले, रस भरे होंठ, दहकते हुए गाल, पतलीलंबी गर्दन और पतला-छरहरा शरीर, कमर का कहीं पता नहीं, सुडौल नितंब और मटकते हुए कूल्हे, पुष्ट जांघों से ले कर उस के सुडौल पैरों, सिर से ले कर कमर और कूल्हों तक कहीं भी कोई कमी नजर नहीं आती थी.

वह मेरी स्टेनो है और हम कितनी सारी बातें करते हैं? कितनी जल्दी खुल गई है वह मेरे साथ…व्यक्तिगत और अंतरंग बातें तक कर लेती है. बड़े चाव से मेरी बातें सुनती है. खुद भी बहुत बातें करती है. उसे अच्छा लगता है, जब मैं ध्यान से उस की बातें सुनता हूं और उन पर अपनी टिप्पणी देता हूं. जब उस की बातें खत्म हो जाती हैं तो वह खोदखोद कर मेरे बारे में पूछने लगती है.

बहुत जल्दी मुझे पता लग गया कि वह मन से कवयित्री है. पता चला, उस ने स्कूलकालेज की पत्रिकाओं के लिए कविताएं लिखी थीं. मैं ने उस से दिखाने के लिए कहा. पुराने कागजों में लिखी हुई कुछ कविताएं उस ने दिखाईं. कविताएं अच्छी थीं. उन में भाव थे, परंतु छंद कमजोर थे. मैं ने उन में आवश्यक सुधार किए और उसे प्रोत्साहित कर के एक प्रतिष्ठित पत्रिका में प्रकाशनार्थ भेज दिया. कविता छप गई तो वह हृदय से मेरा आभार मानने लगी. उस का झुकाव मेरी तरफ हो गया.

शीघ्र ही मैं ने मन की बात उस पर जाहिर कर दी. वस्तुत: इस की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि बातोंबातों में ही हम दोनों ने अपनी भावनाएं एकदूसरे पर प्रकट कर दी थीं. उस ने मेरे प्यार को स्वीकार कर के मुझे धन्य कर दिया.

काम से समय मिलता तो हम व्यक्तिगत बातों में मशगूल हो जाते परंतु हमारी खुशियां शायद हमारे ही बौस को नागवार गुजर रही थीं. दिन में कम से कम 5-6 बार मेरे कमरे में आ जाते, ‘‘क्या हो रहा है?’’ और बिना वजह बैठे रहते, ‘‘अनुराग, चाय पिलाओ,’’ चाय आने और पीने में 2-3 मिनट तो लगते नहीं. इस के अलावा वह नीहारिका से साधिकार कहते, ‘‘मेरे कमरे से सिगरेट और माचिस ले आओ.’’

मेरा मन घृणा और वितृष्णा से भर जाता, परंतु कुछ कह नहीं सकता था. वे मेरे बौस थे. नीहारिका भी अस्थायी नौकरी पर थी. मन मार कर सिगरेट और माचिस ले आती. वह मन में कैसा महसूस करती थी, मुझे नहीं मालूम क्योंकि जब भी वह सिगरेट ले कर आती, हंसती रहती थी, जैसे इस काम में उसे मजा आ रहा हो.

एक छोटी उम्र की लड़की से ऐसा काम करवाना मेरी नजरों में न केवल अनुचित था, बल्कि निकृष्ट और घृणित कार्य था. उन का अर्दली पास ही गैलरी में बैठा रहता है. यह काम उस से भी करवा सकते थे पर वे नीहारिका पर अपना अधिकार जताना चाहते थे. उसे बताना चाहते थे कि उस की नौकरी उन के ही हाथ में है.

सिगरेट का बदबूदार धुआं घंटों मेरे कमरे में फैला रहता और वह परवेज मुशर्रफ की तरह बूट पटकते हुए नीहारिका को आदेश देते मेरे कमरे से निकल जाते कि तुम मेरे कमरे में आओ.

मैं मन मार कर रह जाता हूं. गुस्से को चाय की आखिरी घूंट के साथ पी कर थूक देता हूं. कुछ परिस्थितियां ऐसी होती हैं, जिन पर मनुष्य का वश नहीं रहता. लेकिन मैं कभीकभी महसूस करता हूं कि नीहारिका को नागेश के आधिकारिक बरताव पर कोई खेद या गुस्सा नहीं आता था.

नीहारिका कभी भी इस बात की शिकायत नहीं करती थी कि उन की ज्यादतियों की वजह से वह परेशान या क्षुब्ध थी. वह सदैव प्रसन्नचित्त रहती थी. कभीकभी बस नागेश के सिगरेट पीने पर विरोध प्रकट करती थी. उस ने बताया था कि उस के कहने पर ही नागेश ने तब अपने कमरे में सिगरेट पीनी बंद कर दी, जब वह उन के कमरे में काम कर रही होती थी.

मुझे अच्छा नहीं लगता है कि घड़ीघड़ी भर बाद नागेश मेरे कमरे में आएं और बारबार बुला कर नीहारिका को ले जाएं. इस से मेरे काम में कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ता था पर मैं चाहता था कि नीहारिका जब तक आफिस में रहे मेरी नजरों के सामने रहे.

ये भी पढ़ें : सातवें आसमान की जमीन

नीहारिका की डायरी

मैं अजीब कशमकश में हूं…कई दिनों से मैं दुविधा के बीच हिचकोले खा रही हूं. समझ में नहीं आता…मैं क्या करूं? कौन सा रास्ता अपनाऊं? मैं 2 पुरुषों के प्यार के बीच फंस गई हूं. इस में कहीं न कहीं गलती मेरी है. मैं बहुत जल्दी पुरुषों के साथ घुलमिल जाती हूं. अपनी अंतरंग बातों और भावनाओं का आदानप्रदान कर लेती हूं. उसी का परिणाम मुझे भुगतना पड़ रहा है. हर चलताफिरता व्यक्ति मेरे पीछे पड़ जाता है. वह समझता है कि मैं एक ऐसी चिडि़या हूं जो आसानी से उन के प्रेमजाल में फंस जाऊंगी.

इस दफ्तर में आए हुए मुझे 1 महीना ही हुआ और 2 व्यक्ति मेरे प्रेम में गिरफ्तार हो चुके हैं. एक अपने शासकीय अधिकार से मुझे प्रभावित करने में लगा है. वह हर मुमकिन कोशिश करता है कि मैं उस के प्रभुत्व में आ जाऊं. दूसरा सौम्य और शिष्ट है. वह गुणी और विद्वान है. कवि और लेखक है. उस की बातों में विलक्षणता और विद्वत्ता का समावेश होता है. वह मुझे प्रभावित करने के लिए ऐसी बातें नहीं करता है.

पहला जहां अपने कर्मों का गुणगान करता रहता है. बड़ीबड़ी बातें करता है और यह जताने का प्रयत्न करता है कि वह बहुत बड़ा अधिकारी है. उस के अंतर्गत काम करने वालों का भविष्य उस के हाथ में है. वह जिसे चाहे बना सकता है और जिसे चाहे पल में बिगाड़ दे. अपने अधिकारों से वह सम्मान पाने की लालसा करता है. वहीं दूसरी ओर अनुराग अपने व्यक्तित्व से मुझे प्रभावित कर चुका है.

ये भी पढ़ें : यह दोस्ती हम नहीं झेलेंगे

नागेश से मुझे भय लगता है, अत: उस की किसी बात का मैं विरोध नहीं कर पाती. मुझे पता है कि मेरी किसी बात से अगर वह नाखुश हुआ तो मुझे नौकरी से निकालने में उसे एक पल न लगेगा. ऐसा उस ने संकेत भी दिया है. वह गंदे चुटकुले सुनाता और खुद ही उन पर जोरजोर से हंसता है. अपने भूतकाल की सत्यअसत्य कहानियां ऐसे सुनाता है जैसे उस ने अपने जीवन में बहुत महान कार्य किए हैं और उस के कार्यों में अच्छे संदेश निहित हैं.

मेरे मन में उस के प्रति कोई लगाव या चाहत नहीं है. वह स्वयं मेरे पीछे पागल है. मेरे मन में उस के प्रति कोई कोमल भाव नहीं है. वह कहीं से मुझे अपना नहीं लगता. मेरी हंसी और खुलेपन से उसे गलतफहमी हो गई है. तभी तो एक दिन बोला, ‘‘तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो. शायद मैं तुम्हें चाहने लगा हूं. क्या तुम मुझ से दोस्ती करोगी?’’

मेरे घर की आर्थिक दशा अच्छी नहीं है. घर में 3 बहनों में मैं सब से बड़ी हूं. घर के पास ही गली में पिताजी की किराने की दुकान है. बहुत ज्यादा कमाई नहीं होती है. बी.ए. करने के बाद इस दफ्तर में पहली अस्थायी नौकरी लगी है. अस्थायी ही सही, परंतु आर्थिक दृष्टि से मेरे परिवार को कुछ संबल मिल रहा है. अभी तो पहली तनख्वाह भी नहीं मिली थी. ऐसे में काम छोड़ना मुझे गवारा नहीं था.

मन को कड़ा कर के सोचा कि नागेश कोई जबरदस्ती तो कर नहीं सकता. मैं उस से बच कर रहूंगी. ऊपरी तौर पर दोस्ती स्वीकार कर लूंगी, तो कुछ बुरा नहीं है. अत: मैं ने हां कह दिया. उस ने तुरंत मेरा दायां हाथ लपक लिया और दोस्ती के नाम पर सहलाने लगा. उस ने जब जोर से मेरी हथेली दबाई तो मैं ने उफ कर के खींच लिया. वह हा…हा…कर के हंस पड़ा, जैसे पौराणिक कथाओं का कोई दैत्य हंस रहा हो.

‘‘बहुत कोमल हाथ है,’’ वह मस्त होता हुआ बोला तो मैं सिहर कर रह गई.

दूसरी तरफ अनुराग है…शांत और शिष्ट. हम साथ काम करते हैं परंतु आज तक उस ने कभी मेरा हाथ तक छूने की कोशिश नहीं की. वह केवल प्यारीप्यारी बातें करता है. दिल ही दिल में मैं उसे प्यार करने लगी हूं. कुछ ऐसे ही भाव उस के भी मन में है. हम दोनों ने अभी तक इन्हें शब्दों का रूप नहीं दिया है. उस की आवश्यकता भी नहीं है. जब दो दिल खामोशी से एकदूसरे के मन की बात कह देते हैं तो मुंह खोलने की क्या जरूरत.

हमारे प्यार के बीच में नागेश रूपी महिषासुर न जाने कहां से आ गया. मुझे उसे झेलना ही है, जब तक इस दफ्तर में नौकरी करनी है. उस की हर ज्यादती मैं अनुराग से बता भी नहीं सकती. उस के दिल को चोट पहुंचेगी.

ये भी पढ़ें : पन्नूराम का पश्चात्ताप

नागेश के कमरे से वापस आने पर मैं हमेशा अनुराग के सामने हंसती- मुसकराती रहती थी, जिस से उस को कोई शक न हो. यह तो मेरा दिल ही जानता था कि नागेश कितनी गंदीगंदी बातें मुझ से करता था.

अनुराग मुझ से पूछता भी था कि नागेश क्या बातें करता है? क्या काम करवाता है? परंतु मैं उसे इधरउधर की बातें बता कर संतुष्ट कर देती. वह फिर ज्यादा नहीं पूछता. मुझे लगता, अनुराग मेरी बातों से संतुष्ट तो नहीं है, पर वह किसी बात को तूल देने का आदी भी नहीं था.

अब धीरेधीरे मैं समझने लगी हूं कि 2 पुरुषों को संभाल पाना किसी नारी के लिए संभव नहीं है.

नागेश को मेरी भावनाओं या भलाई से कुछ लेनादेना नहीं. वह केवल अपना स्वार्थ देखता है. अपनी मानसिक संतुष्टि के लिए मुझे अपने सामने बिठा कर रखता है. मुझे उस की नीयत पर शक है. हठात एक दिन बोला, ‘‘मेरे घर चलोगी? पास में ही है. बहुत अच्छा सजा रखा है. कोई औरत भी इतना अच्छा घर नहीं सजा सकती. तुम देखोगी तो दंग रह जाओगी.’’ मैं वाकई दंग रह गई. उस का मुंह ताकती रही…क्या कह रहा है? उस की आंखों में वासना के लाल डोरे तैर रहे थे. मैं अंदर तक कांप गई. उस की बात का जवाब नहीं दिया.

‘‘बोलो, चलोगी न? मैं अकेला रहता हूं. कोई डरने वाली बात नहीं है,’’ वह अधिकारपूर्ण बोला.

मैं ने टालने के लिए कह दिया, ‘‘सर, कभी मौका आया तो चलूंगी.’’

वह एक मूर्ख दैत्य की तरह हंस पड़ा. -क्रमश:

सातवें आसमान की जमीन

ड्राइंगरूम में हो रहे शोर से परेशान हो कर किचन में काम कर रही बड़ी दी वहीं से चिल्लाईं, ‘‘अरे तुम लोगों को यह क्या हो गया है. थोड़ी देर शांति से नहीं रह सकते? और यह नंदा, यह तो पागल हो गई है.’’

‘‘अरे दीदी मौका ही ऐसा है. इस मौके पर हम भला कैसे शांत रह सकते हैं. सुप्रिया दीदी टीवी पर आने वाली हैं, वह भी अपने मनपसंद हीरो के साथ, मात्र उन्हीं की पसंद के क्यों. अरे सभी के मनपसंद हीरो के साथ. अब भी आप शांत रहने के लिए कहेंगी.’’ नंदा ने कहा.

सब के सब नंदा को ताकने लगे. किसी की कुछ समझ में नहीं आ रहा था. सुप्रिया को ऐसा क्या मिल गया और कौन सा हीरो इस के लिए निमंत्रण कार्ड ले कर आया है, यह सब पता लगाना घर वालों के लिए आसान नहीं था. और नंदा तो इस तरह उत्साह में थी कि घर वालों को कुछ बताने के बजाए इस अजीबोगरीब खबर को फोन से दोस्तों को बताने में लगी थी.

नंदा की इस शरारत पर बड़ी दी ने खीझ कर उसे पकड़ते हुए कहा, ‘‘तेरा यह कौन सा नया नाटक है, कुछ बता तो सही.’’

‘‘बड़ी दी, सुप्रिया दीदी एक कांटेस्ट जीत गई हैं. ईनाम में उसे अपने फेवरिट हीरो के साथ टीवी पर आना है. अब तो समझ में आ गया कि नहीं?’’ नंदा ने स्पष्ट किया.

ये भी पढ़ें : वसंत लौट गया

‘‘तुम्हारा मतलब सुप्रिया टीवी पर अपने ड्रीम बौय के साथ, फैंटास्टिक.’’ संदीप ने किताब बंद करते हुए नंदा की बात का समर्थन किया. नंदा ने आगे कहा, ‘‘भैया इतना ही नहीं, वह हीरो, सुप्रिया दीदी के लिए परफोर्म करेगा, गाना गाएगा. डांस करेगा. अब और क्या चाहिए? पर है कहां अपनी गोल्डन गर्ल?’’

‘‘नहा रही है लकी गर्ल, लेकिन उस ने तो मुझ से कुछ बताया ही नहीं, पर बाकी लोग तो हैं. सुप्रिया दीदी को लग रहा होगा, पता नहीं किसे बुरा लग जाए. इसीलिए किसी से कुछ कहने की जरूरत नहीं है. और जीतना तो एक सपना था. उसे कहां पता था कि सच हो जाएगा.’’

तभी परदे के पीछे से सुप्रिया आती दिखाई दी. अपार आनंद में डूबी सुप्रिया के चेहरे पर अजीब तरह की चमक थी. नंदा ने दौड़ कर सुप्रिया को बांहों में भर लिया, ‘‘सुप्रिया दी…लकी…लकी गर्ल.’’

दोनों एकदूसरे का हाथ पकड़ कर नाचने लगीं. थक गईं तो निढाल हो कर सोफे पर गिर पड़ीं. इस बीच किसी को भी एक भी शब्द बोलने का मौका नहीं मिला. दोनों के सोफे पर बैठते ही बड़ी दी बोलीं, ‘‘यह क्या पागलपन है, सुप्रिया, घर में किसी को कुछ बताए बगैर तुम कांटेस्ट के फाइनल तक पहुंच गईं. चलो जो किया, ठीक किया. अमित को इस बारे में बताया है?’’

सुप्रिया आंखों से मधुर मुसकान मुसकराईं, उस के बजाए नंदा बोली, ‘‘बड़ी दी, इस तरह के काम कोई पूछ कर करता है? मान लीजिए आप से पूछने आती तो आप कांटेस्ट में हिस्सा लेने देतीं? दीदी अब छोड़ो इसे टीवी पर देखने के लिए तैयार हो जाइए. कमर कस कर तैयारी शुरू कर दीजिए.’’

‘‘तैयारी किस बात की. कोई ब्याह थोड़े ही करने जा रही हैं,’’ वह थोड़ा नाराज हो कर बोलीं, ‘‘आजकल के बच्चे भी न पागल… नादान…’’

‘‘दीदी, ब्याह क्या, यह तो उस से भी जबरदस्त है. लाखों दिलों की धड़कन, चार्मिंग, अमेजिंग लवर बौय अपनी सुप्रिया के साथ…’’

नंदा की बात पूरी होती, उस के पहले ही शैल, सुकुमार और नेहा का झुंड आ पहुंचा. इस के बाद तो जो हंगामा मचा. कान तक पहुंचने वाला शब्द भी ठीक से सुनाई नहीं दे रहा था. बड़ी दी, भैयाभाभी और घर के अन्य लोग परेशान थे. हवा रंगबिरंगी और सुगंधित हो गई थी. कौन सी डे्रस, कैसी हेयरस्टाइल, स्किनकेयर, फुटवेयर, परफ्यूम, डायमंड या पर्ल, गोल्ड या सिलवर… बातों की पतंगें उड़ती रहीं और सुप्रिया उन पर सवार विचारों में डूबी थी कि जीवन इतना भी सुंदर और अद्भुत हो सकता है.

वह असाधारण और अविस्मरणीय घटना घटी और विलीन हो गई. वह दृश्य देखते समय सुप्रिया के मित्रों में जो उत्तेजना थी, उस का वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता. फिर भी इस पागल उत्साह में बड़ी दीदी ने थोड़ा अवरोध जरूर पैदा किया था. इस के बावजूद उन्होंने सभी को आइस्क्रीम खिलाई थी. सुप्रिया की ठसक देख कर सभी ने अनुभव किया कि अमित कितना भाग्यशाली है. उस की अनुपस्थिति थोड़ा खल जरूर रही थी. पता नहीं, चेन्नै में उस ने यह प्रोग्राम देखा या नहीं. सुप्रिया ने उसे कांटेस्ट की बात बताई भी थी या नहीं?

सुप्रिया के राजकुमार ने अपनी अत्यंत लोकप्रिय फिल्म का प्रसिद्ध गाना पेश किया था. उस ने उस का हाथ पकड़ कर डांस भी किया. एक प्रेमी की तरह चाहत भरी नजरों से उसे निहारा भी और घुटनों के बल बैठ कर उसे गुलाब भी दिया.

ये भी पढ़ें : शोकसभा

‘‘इस समय आप को कैसा लग रहा है?’’ कार्यक्रम खत्म होने पर कार्यक्रम प्रस्तुत करने वाले ने पूछा था. खुशी में पागल हो कर उछल रही सुप्रिया कुछ पल तो बोल ही नहीं सकी. उस आनंद में उस की आंखों की पलकें तक नहीं झपक रही थीं. खुशी में आंसू आ जाते हैं. इस के बारे में उस ने पढ़ा और सुना था. पर सचमुच वह क्या होता है. उस दिन उसे पता चला. सातवां आसमान मतलब यही था, आउट आफ दिस वर्ल्ड. दिल से अनुभव किया था उस ने. उसे ऐसा भाग्य मिला. इस के लिए उस ने उस अदृश्य शक्ति को हाथ जोड़े और इसी के साथ तालियों की गड़गड़ाहट…

मेघधनुष लुप्त हो गया. सुप्रिया ने यह सप्तरंगी सपना समेट कर यादों के पिटारे में रख लिया कि जब मन हो पिटारा खोल कर देख लेगी. आखिर सुप्रिया पूरी तरह जमीन पर आ गई. इस की मुख्य वजह चेन्नै से अमित वापस आ गया था. आते ही उस ने फोन कर के यात्रा और अपने काम की सफलता की कहानी सुना कर पूछा, ‘‘तुम्हारा क्या हाल है, कुछ नया सुनाओ?’’

‘‘कुछ खास नहीं, बस चल रहा है.’’

‘‘नथिंग एक्साइटिंग?’’

‘‘कुछ नहीं, यहां क्या एक्साइटिंग हो सकता है. बस सब पहले की तरह…’’ सुप्रिया ने कहा. कांटेस्ट जीतने की परीकथा उस के होंठों तक आ कर लौट गई. शायद मन में कुछ खटक रहा था.

‘थाटलेस और मीनिंगलेस… चीप इंटरटेनमेंट…’ अमित टीवी के ज्यादातर प्रोग्रामों के लिए यही कहता था. जबकि उस की इस मान्यता का सुप्रिया से कोई लेनादेना नहीं था.

‘‘क्यों कोई लेनादेना नहीं है. उस के साथ शादी करने जा रही है. पूछ तो सही उस से कि उस ने तेरे कार्यक्रम की डीवीडी देखी थी या नहीं? वह देखना चाहता है या नहीं? दुनिया ने उस प्रोग्राम को देखा है. ऐसा भी नहीं कि उसे पता न हो. तब इस में उस से छिपाना क्या?’’ नंदा ने पूछा.

देखा जाए, तो एक तरह से उस का कहना ठीक भी था. सुप्रिया बारबार खुद से पूछती थी कि आखिर उस ने अमित से इस विषय पर बात क्यों नहीं की? किसी न किसी ने तो उसे बताया ही होगा. यह कोई छोटीमोटी बात नहीं थी. चारों ओर चर्चा थी. फिर यह कौन सी चोरी की बात है, जो उस से छिपाई जाए. पर अमित ने भी तो उस से इस बारे में कुछ नहीं पूछा.

सुप्रिया ने सब को पार्टी दी. सभी इकट्ठे हुए. बड़ी दी ने सब का स्वागत किया. क्योंकि मम्मीपापा के बाद इस समय घर में वही सब से बड़ी थीं. धमालमस्ती में उन्होंने कोई रुकावट नहीं डाली थी. अमित को भी आना था, इसलिए सुप्रिया पूरी एकाग्रता से तैयार हुई थी.

‘‘गौर्जियस?’’

उस दिन उस के प्रिय अभिनेता ने भी यही शब्द कहा था और उस समय सुप्रिया को जो सुख प्राप्त हुआ था, वह उसे अभी अमित तक पहुंचा नहीं सकी थी. अमित उस स्वप्नलोक जैसा कहां था. यह तो देखने की बात है, वर्णन करने की नहीं. नंदा तो जैसे मौका ही खोज रही थी. अन्य दोस्त भी कहां पीछे रहते.

सभी ने उसे छेड़ते हुए कहा, ‘‘यार अमित, यू रियली मिस्ड समथिंग. क्या ठसक थी सुप्रिया की. वह जैसे सचमुच प्रेम कर रहा हो और प्रपोज कर रहा हो… इस तरह घुटने के बल बैठ कर… मान गए यार.’’

‘‘अरे इन एक्टरों के लिए तो यह रोज का खेल है. दिन में दस बार प्रपोज करते हैं ये. यही अभिनय करना तो उन का काम है. यह उन के लिए बहुत आसान है.’’

‘‘सुप्रिया की आंखों में आंखें डाल कर अपलक ताक रहा था और बैकग्राउंड में वह गाना बज रहा था… कि तुम बन गए हो मेरे खुदा…ही वाज सो इंटेंस, सो इमोशनल, माई गौड. अमित, तुम देखते तो पता चलता. उस सब को शब्दों में नहीं व्यक्त किया जा सकता.’’

‘‘इस का मतलब अमित ने उसप्रोग्राम की डीवीडी नहीं देखी. इसे जलन हो रही होगी.’’ रौल ने कहा.

‘‘नो यंगमैन, जलन किस बात की. मुझे इन नाटकों में जरा भी रुचि नहीं है. यह सब दिखावा है. इस सब के लिए मेरे पास जरा भी समय नहीं है.’’

अमित की इन बातों पर सुप्रिया एकदम से उदास हो गई. उस का चेहरा एकदम से उतर गया.

‘‘अमित, तुम जिसे पल भर का नाटक कह रहे हो, उसी पल भर के नाटक में सुप्रिया किस तरह आनंद समाधि में समा गई थी, इस से पूछो. इस का हाथ पकड़ कर जब उस ने अपने होंठों से लगाया तो यह सहम सी गई. सच है न सुप्रिया?’’

सुप्रिया ने हां में सिर हिलाया.

नंदा ने उस के सिर पर ठपकी मार कर कहा, ‘‘चिंता में क्यों पड़ गई, अमित तुझे खा नहीं जाएगा. यह कोई 18वीं सदी का मेलपिग नहीं है.’’

अमित ने नंदा के कंधे पर हाथ रख कर कहा, ‘‘थैंक्यू.’’

सुप्रिया उस समय बड़ी दी को याद कर रही थी. उन्होंने कहा, ‘‘लड़की के व्यवस्थित होने तक तमाम चीजों का ध्यान रखना पड़ता है. हर चीज बतानी पड़ती है. कांटेस्ट में भाग लिया है, इस में क्या बताना. भूल हो गई, कह देना. पर यह झूठ है. कांटेस्ट में हिस्सा लेने के लिए किसी ने जबरदस्ती तो नहीं की थी. अपनी मरजी से हिस्सा लिया था और जीतने की इच्छा के साथ. यह भी सच है कि जीतने की तीव्र इच्छा थी जीत का नशा भी चढ़ा था, इस में कोई झूठ भी नहीं, अब बचाव में कुछ कहना भी नहीं. जो अच्छा लगा, व किया. कोई अपराध तो नहीं किया. साथ रहना है तो यह स्पष्टता होनी ही चाहिए.’’

मन नहीं था, फिर भी सुप्रिया अमित के साथ इंडिया गेट आ गई थी. अब आ ही गई तो इस बारे में क्या सोचना, आने से पहले ही उस ने काफी सोचविचार कर तय कर लिया था कि उसे अपनी बात किस तरह कहनी है. इस के बावजूद काफी गुणाभाग और सुधार कर उस ने कहा, ‘‘अमित, तुम्हें मेरा यह निर्णय खराब तो नहीं लगा?’’

ये भी पढ़ें : यह दोस्ती हम नहीं झेलेंगे

‘‘खराब, किस बारे में?’’

‘‘वही टीवी और कांटेस्ट वाली बात.’’

‘‘छोड़ो न, डोंट टाक रबिश, तुम्हें यह पूछना पड़े, इस का मतलब तुम ने मुझे अभी जानापहचाना नहीं.’’

‘‘ऐसा नहीं है अमित, तुम मुझे मूडलेस लगते हो. तुम ने मुझ से कांटेस्ट की कोई बात तक नहीं की. घर में किसी ने प्रोग्राम देखा हो और किसी को कुछ न अच्छा लगा हो.’’

‘‘तुम्हें पता है मेरे यहां कोई रुढि़वादी या पुरानी सोच वाला नहीं है.’’

‘‘भले ही पुराने विचारों वाला नहीं है. पर कुछ न अच्छा लगा हो.’’

‘‘नहीं ऐसी कोई बात नहीं है.’’

अमित ने दोनों हाथ ऊपर की ओर कर के सूरज की ओर देखते हुए कहा, ‘‘सूर्यास्त देख कर चलना है न?’’

सुप्रिया थोड़ा खीझ कर बोली, ‘‘सूर्यास्त को छोड़ो, तुम अपनी बात करो. चेन्नै से आने के बाद तुम काफी गंभीर हो गए हो. ऐसा क्यों?’’

‘‘नथिंग पार्टिक्युलर. तुम्हें ऐसे ही लग रहा है. तुम्हें इस चिंतित अनुभव के बाद तुम्हें सब कुछ डल और लाइफलेस लग रहा है.’’

‘‘अब आए न लाइन पर. सो यू डिड नाट लाइक इट. सही कहा जा सकता है.’’

‘‘तुम्हें जो अच्छा लगा. तुम ने वह किया. इस में मुझे अच्छा या खराब लगने का कोई सवाल ही नहीं उठता. हमारे संबंधों के बीच अब ये बातें नहीं आनी चाहिए.’’

‘‘सवाल है न. कुछ दिनों बाद हमें साथ जीना है. इसलिए यह महत्त्वपूर्ण है.’’

‘‘तुम बेकार में पीछे पड़ी हो, फारगेट इट. कोई दूसरी बात करते हैं. कुछ खाते हैं.’’

‘‘अमित, तुम बात बदलने की कोशिश मत करो. मैं आज तुम्हारा पीछा छोड़ने वाली नहीं. चलो, दूसरी तरह से बात करती हूं. तुम ने डीवीडी क्यों नहीं देखी? वैसे तो तुम मुझ में बहुत रुचि लेते हो, भले ही इस बात को तुम चीप इंटरटेनमेंट मानते हो, इस के बाद भी तुम्हें मेरा प्रोग्राम देखना चाहिए था. मेरा प्रोग्राम देखने का तुम्हारा मन क्यों नहीं हुआ? मेरी खातिर तुम्हारे पास इतना समय भी नहीं है?’’

‘‘इस में समय की बात नहीं है. तुम्हें पता है, मुझे ऐसावैसा देखना पसंद नहीं है.’’

‘‘ऐसावैसा मतलब? अमित ऊपर देख कर चलने की जरूरत नहीं है और जिसे तुम चीप कह रहे हो, उसी तरह के अन्य प्रोग्राम तुम देखते हो. यह जो तुम क्रिकेट देखते हो, वह क्या है.’’

‘‘जाने दो न सुप्रिया, बेकार की बहस कर के क्यों शाम खराब कर रही हो.’’

‘‘शाम खराब हो रही है, भले हो खराब. आज मैं यह जान कर रहूंगी कि आखिर तुम्हारे मन में मेरे प्रति क्या है. सचसच बता दो. बात खत्म.’’

अमित ने एक लंबी सांस ली. शाम को पंक्षी अपने बसेरे की ओर जाने लगे थे. उस ने सुप्रिया की आंखों में आंखें डाल कर कहा, ‘‘तुम ने कांटेस्ट में हिस्सा लिया, तुम्हारी मरजी. ठीक है न?’’

‘‘एकदम ठीक.’’

‘‘तुम्हें जीतना था, जिस की मुख्य वजह यह थी कि जीतने पर तुम्हारा फेवरिट हीरो तुम्हारे साथ परफोर्म करता. सच है न?’’

‘‘एकदम सच.’’

‘‘तुम जीतीं और तुम्हारा सपना पूरा हुआ, जिस से तुम्हें खुशी हुई. यह स्वाभाविक भी है. आई एम राइट?’’

‘‘एकदम सही, पर यह क्या मुझे गोलगोल घुमा रहे हो. मुद्दे की बात करो न. शाम हो रही है, मुझे घर भी जाना है. दीदी की तबीयत ठीक नहीं है. उन्हें आराम की जरूरत है.’’

‘‘चलो मुद्दे की बात करते हैं. वह अभिनेता, जो इस जीवन में कभी नहीं मिलने वाला तुम से झूठमूठ में प्रपोज किया, तुम से मिलने को आतुर हो इस तरह का नाटक किया, मात्र नाटक, इस झूठमूठ के नाटक में तुम मारे खुशी के रो पड़ीं. सचमुच में रो पड़ीं. तुम्हारी खुशी कोई एक्टिंग नहीं थी. सच कह रहा हूं न?’’

‘‘हां, मैं एकदम भावविभोर हो गई थी. वह खुशी… इट वाज जस्ट टू मच. अकल्पनीय आनंद की अनुभूति हुई थी मुझे.’’

‘‘तुम ने जो कहा, यह सब… अब याद करो, मैं ने तुम्हें प्रपोज किया, अंगूठी पहनाई, गुलाब दिया, हाथ में हाथ लिया, मेरे लिए तुम्हारी आंखें कभी भी एक बार भी प्यार में नहीं छलकीं. सो आई वाज जस्ट थिंकिंग कि यह सब क्या है? सचमुच, मैं यही सोचते हुए यहां आया था. तब से यही सोचे जा रहा हूं. खैर, चलो अब चलते हैं.’

: शवीरेंद्र बहादुर सिंह

निशान

पूर्व कथा

हर मातापिता की तरह सुरेश और सरला भी अपनी बेटी मासूमी को धूमधाम से विदा कर ससुराल भेजना चाहते हैं. 2 भाइयों की इकलौती बहन मासूमी खूबसूरत होने के साथ घर के कामों में दक्ष है. उस के रिश्ते भी खूब आते लेकिन जब शादी की बात पक्की होने को आती, उसे दौरे पड़ जाते. वह चीख उठती और रिश्ता जुड़ने से पहले टूट जाता. एक दिन मौसी ने मासूमी से उस के दिल की बात जाननी चाही तो वह बोली, ‘मौसी, आप ने ऐसा सोचा भी कैसे…’ वहीं, मासूमी को कई बार विवाह की महत्ता का एहसास होता रहा. वह सोचने लगी कि उसे भी शादी कर घर बसा लेना चाहिए. 28 साल की हो चुकी मासूमी का नया रिश्ता आया तो सभी ने सोचा कि यह रिश्ता चूंकि काफी समय बाद आया है, लड़का अच्छा पढ़ालिखा व उच्च पद पर है और मासूमी ज्यादा समझदार भी हो गई है, अत: वह इस रिश्ते को हरी झंडी दे देगी लेकिन मासूमी को लगा कि वह विवाह का रिश्ता संभालने में असफल रहेगी. उधर वह अपने पापा से बेहद डरीसहमी रहती थी. स्कूल से घर आते ही उस का पहला प्रश्न होता, ‘मां, पापा तो नहीं आ गए, राकेश भैया स्कूल गए थे या नहीं, दोनों भाइयों में झगड़ा तो नहीं हुआ?’ सरला उसे परेशानी में देख कहती, ‘तू क्यों इन चिंताओं में डूबी रहती है? अरे, घर है तो लड़ाईझगड़े भी होंगे.’ इसी असमंजस में फंसी मासूमी स्कूल से कालेज में आ गई थी और आज फिर वह दिन आ गया था जो किसी आने वाले तूफान का संकेत दे रहा था…

अब आगे…

हमेशा की तरह इस बार भी शादी के लिए आए रिश्ते को मासूमी ने ठुकरा दिया तो पिता सुरेशजी ने उस से उस की परेशानी स्पष्ट करने को कहा. तब मासूमी ने जो बताया, उसे जान कर वे सन्न रह गए.

गतांक से आगे…

भाई राकेश का मुकदमा मां की अदालत में था. मांपिताजी दोनों की चुप्पी आने वाले तूफान का संकेत दे रही थी. किसी भी क्षण झगड़ा होने वाला था. इसलिए मासूमी फिर पिता की ओर बढ़ कर बोली, ‘‘पापा, आप हाथमुंह धोएं, मैं चाय बनाती हूं.’’

ये भी पढ़ें : वसंत लौट गया

रसोई में जा कर भी मासूमी का मस्तिष्क उलझा रहा. पापा काम से थकेहारे आते हैं. ये बातें तो बाद में भी हो सकती हैं. भाई राकेशप्रकाश भी अब बड़े हैं, उन्हें अपनी जिम्मेदारियां समझनी चाहिए. समय से घर आना व पढ़ना चाहिए पर दोनों कुछ खयाल ही नहीं रखते. मासूमी अकसर पिता का पक्ष लेती. इस के पीछे छिपा कारण यह था कि वह मां को गुस्से से बचाना चाहती थी लेकिन सरला को शिकायत होती कि वह सबकुछ जानते हुए भी पिता का पक्ष लेती है.

पिता चाय की प्याली ले कमरे में चले गए और मासूमी से पूछा, ‘‘तुम्हारी मां को क्या हुआ?’’

‘‘कुछ नहीं, क्यों? आप से कुछ कहा?’’ मासूमी ने अनजान बन कर पूछा.

‘‘नहीं, कहा तो नहीं पर लग रहा है कुछ गड़बड़ है. जाओ, बुला कर लाओ मां को,’’ उन्होंने आदेश देने के अंदाज में मासूमी से कहा तो उस का दिल अनजानी आशंका से धड़क उठा.

दरवाजे पर खड़ी मां तमतमाए चेहरे से उसे देख कर बोलीं, ‘‘रसोई में जाओ और खाने की तैयारी करो.’’

‘‘जी,’’ कह मासूमी बाहर निकल गई पर उस के पैर कांपने लगे थे. हमेशा यही होता था. जब घर में कलह होती तो उसे रसोई में जाने का आदेश मिल जाता था. और फिर वह पल आ गया जिस से उस का मन हमेशा कांपता था. अंदर मां पापा से कह रही थीं :

‘‘देखिए, आज मैं आप से ऐसी बात कहने वाली हूं जिस में आप की, बच्चों की व इस घर की भलाई है. यह समझ लीजिए कि घर के इस माहौल ने मासूमी की जिंदगी पर गहरा असर डाला है. हमेशा एक तानाशाह बन कर घर पर राज किया है. मुझे बराबरी का दर्जा देना तो दूर, आप ने हमेशा अपने पैर की जूती समझा है. मैं ने फिर भी कुछ नहीं कहा. मासूमी भी मुझे ही चुप कराती है, क्योंकि वह लड़ाईझगड़े से डरती है लेकिन अब मामला दोनों लड़कों का है. अब राकेश ने भी कह दिया है कि पापा हमें दूसरों के सामने बेइज्जत न करें. संभालिए खुद को वरना कल प्रकाश घर से भागा था अब कहीं राकेश भी…’’

‘‘कर चुकीं बकवास. खबरदार, अब एक शब्द भी आगे बोला तो,’’ अंगारों सी लाल आंखें लिए मुट्ठियां भींचे सुरेश की कड़क आवाज दूर तक जा रही थी, ‘‘कान खोल कर सुन लो, बच्चों को बिगाड़ने में सिर्फ तुम्हारा हाथ है. तुम्हारे कारण ही वे इतनी हिम्मत करते हैं. कहां है वह उल्लू का पट्ठा, मेरे सामने कहता तो खाल खींच देता उस सूअर की औलाद की.’’

‘‘गाली देने से झूठ, सच नहीं हो जाता. तुम्हें बदलते वक्त का अंदाजा नहीं. बच्चों के साथ कदम नहीं मिला सकते तो उन का रास्ता मत रोको,’’ सरला भी तैश में आ गई थीं.

जिस बात से दूर रखने के लिए सरला ने मासूमी को रसोई में भेजा था वे सारी बातें दीवारों की हदें पार कर उस के कानों में गूंज रही थीं.

ये भी पढ़ें : शोकसभा

सुरेश मर्दों वाले अंदाज में सरला की कमजोरियों को गिनवा रहे थे और दोनों बेटे मां की बेइज्जती पर दुख से पहलू बदल रहे थे तो मासूमी दोनों भाइयों को फटकार रही थी :

‘‘लो, पड़ गया चैन. एक दिन भी घर में शांति नहीं रहने देते. रोज कोई न कोई हंगामा होता है. रोज के झगड़ों से मेरी जान निकल जाती है. इस से अच्छा है, मैं मर ही जाऊं. ऊपर से मौसी, बूआ रोज आ कर अपने पतियों की वीरगाथाएं सुनाती हैं कि वे उन से लड़ते हैं. क्या सारे पुरुष एक से होते हैं? उन्हें यही करना होता है तो वे शादियां ही क्यों करते हैं?’’

प्रकाश गुस्से से गुर्राया, ‘‘तुम चुप ही रहो. सारा दोष मांपिताजी का है. हर समय ये झगड़ते रहते हैं. पापा तो सारी उम्र हमें बच्चा ही समझते रहेंगे. जब मन में आया डांट दिया, जब मन आया गाली दे दी.’’

उधर मां की तेज आवाज आने पर मासूमी मां की ओर बढ़ी, ‘‘मां, रहने दो. आप ही चुप हो जाइए. आप को पता है कि पापा अपनी बात के आगे किसी की नहीं सुनते तो आप मत बोलिए.’’

‘‘तू हट जा. आज फैसला हो कर रहेगा. मुझे गुलाम समझ रखा है. बाप रौब जमाता है तो बेटे अलग मनमानी करते हैं. तेरा क्या है, शादी के बाद अपने घर चली जाएगी, पर मेरे सामने तो बुढ़ापा है. अगर तेरे पिता का यही हाल रहा तो क्या दामाद और बहुओं के सामने भी ऐसे ही गालियां खाती रहूंगी? नहीं, आज होने दे फैसला,’’ मां बुरी तरह हांफ रही थीं और मासूमी रो रही थी.

राकेश बोला, ‘‘क्यों रोती है? हम बच्चे तो नहीं कि हर बात को सही मान लें.’’

मासूमी चिल्लाई, ‘‘देखा प्रकाश, सारा झगड़ा इसी का शुरू किया है. बित्ते भर का है और मांबाप का मुकाबला कर रहा है.’’

‘‘चुप रह वरना एक कस कर पड़ेगा. पापा की चमची कहीं की,’’ राकेश लालपीला हो कर बोला.

प्रकाश भी तमक उठा, ‘‘दिमाग फिर गया है तुम लोगों का…उधर वे लड़ रहे हैं इधर तुम. कोई मानने को तैयार नहीं है.’’

‘‘आप माने थे…’’ राकेश ने पलट- वार किया तो प्रकाश उसे मारने दौड़ा.

उसी समय अंदर से कुछ टूटने की आवाजें आईं. मासूमी दौड़ कर अंदर गई तो देखा पिताजी हाथ में क्रिकेट का बैट लिए शो केस पर तड़ातड़ मार रहे हैं.

राकेश द्वारा पाकेटमनी जोड़ कर खरीदा गया सीडी प्लेयर और सारी सीडी जमीन पर पड़ी धूल चाट रही थीं…शोपीस टुकड़ेटुकड़े हो कर बिखरा पड़ा था.

मासूमी हाथ जोड़ कर बोली, ‘‘पापा, प्लीज, शांत हो जाएं.’’

लेकिन सुरेशजी की जबान को लगाम कहां थी, गालियों पर गालियां देते चीख रहे थे, ‘‘तू हट जा. एकएक को देख लूंगा. बहुत खिलाड़ी, गवैए बने फिरते हैं पर मैं ये नहीं होने दूंगा. इन को सीधा कर दूंगा या जान से मार डालूंगा.’’

प्रकाश का जवान खून भी उबाल खा गया, ‘‘हां, हां, मार डालिए. रोजरोज के झगड़ों से तो अच्छा ही है.’’

सरला और मासूमी ने मिल कर प्रकाश को बाहर धकेलना चाहा और राकेश ने बाप को पकड़ा पर कोई बस में नहीं आ रहा था.

मासूमी ने घबरा कर इधरउधर देखा तो बहुत सारी आंखें उन की खिड़कियों से झांक रही थीं और कान दरवाजे से चिपके हुए थे. बस, यही वह समय था जब मासूमी का सिर चकराने लगा. उसे लगा कि वह गहरे पाताल में धंसती जा रही है, जहां न उसे मां की बेबसी का होश था न पिता के गुस्से का और न भाइयों की बगावत का.

मासूमी को होश आया तो सारा माहौल बदला हुआ था. पिता सिर झुकाए सिरहाने बैठे थे, मां पल्लू से आंखें पोंछ रही थीं, भाई हाथपैर सहला रहे थे. पिता का गुस्सा तो साबुन के बुलबुलों की तरह बैठ गया था पर मां सरला आज मौके का फायदा उठा कर फिर बोल उठी थीं, ‘‘जवान बच्चों के लिए आप को अपनी आदतों और कड़वाहटों पर काबू पाना चाहिए. यह नहीं कि घर में घुसते ही हुक्म देना शुरू कर दें.’’

प्रकाश ने उन्हें चुप कराया, ‘‘मां, बस भी करो. देख नहीं रही हैं मासूमी की हालत.’’

सुरेशजी मासूमी की हालत देख खामोश और शर्मिंदा थे तो मांबेटों की तकरार चालू थी. सब एकदूसरे को दोष दे रहे थे. पिता का कहना था कि अगर बच्चों पर लगाम न कसो तो वे बेकाबू हो जाएंगे. बच्चों का कहना था, ‘‘पापा हमें हर बात पर बस डांटते हैं. घर से बाहर रहो तो घर में रहने का आदेश, घर पर रहो तो टोकाटाकी. गाने सुनें तो हमें भांड बनाने लगते हैं. दोस्तों के साथ खेलें तो उसे आवारागर्दी कहते हैं. हम तो यहां बस मां के कारण चुप हैं वरना…’’

सरला बेटों को चुप करा रही थीं, ‘‘चुप रहो, जवान हो गए हो तो इस का मतलब यह नहीं कि पिता के सामने जबान खोलो.’’

ये भी पढ़ें : यह दोस्ती हम नहीं झेलेंगे

सब मिल कर मासूमी को एहसास दिलाना चाह रहे थे कि कोई किसी का दुश्मन नहीं. हां, झगड़े तो होते ही रहते हैं. देखो, तुम्हें तकलीफ हुई तो सब तुम्हारी चिंता में बैठे हैं.

मां ने मासूमी के बाल सहलाए, ‘‘सब लड़झगड़ कर एक हो जाते हैं पर तुम बेकार में उसे दिल में पाल लेती हो…’’

मासूमी बिखर गई, ‘‘मां, आप को अच्छा लगे या बुरा पर सच यह है कि गलती आप की भी है. आप को यही लगता है कि पिताजी ने कभी आप की कद्र नहीं की लेकिन मैं जानती हूं कि पापा के मन में आप के लिए क्या है. आप घर नहीं होतीं तो आप को पूछते हैं. आप की बहुत सी बातों की सराहना निगाहों से करते हैं पर कहना नहीं आता उन्हें. लेकिन उन की तकलीफदेह बातों के कारण आप का ध्यान उन की इन बातों पर नहीं जाता. इसी कारण पापा पर गुस्सा आने पर आप बच्चों के सामने पापा की कमजोरियां गिनवाती हैं और फिर बच्चे उन को आप की पीठ पीछे बुराभला कहते हैं,’’ मासूमी बोल रही थी और सरला चोर सी बनी सब बातें सुन रही थीं.

सुरेशजी भी मासूमी की हालत से घबराए थे. हमेशा ही गुस्सा ठंडा होने पर वह एकदम बदल जाते. उन्हें बीवीबच्चों पर प्यार उमड़ आता था. आज भी यही हुआ. वे उठे और टूटा शोपीस, सीडी प्लेयर उठा कर गाड़ी में रखने लगे. टूटी सीडी के नाम, नंबर नोट करने लगे. मासूमी खामोशी से लेटी देख रही थी कि अब पापा बाजार जा कर सब नया सामान लाएंगे. आइसक्रीम, मिठाई से फ्रिज भर जाएगा. मां के लिए नई साड़ी, भाइयों को पाकेटमनी मिलेगी. प्यार से समझाएंगे कि बेटा, अभी तुम लोगों का ध्यान पढ़ने में लगना चाहिए. मैं तो चाहता हूं कि तुम लोग खाओपियो, हंसोबोलो.

पिताजी खुश होंगे तो सब के साथ बैठे दुनियाजहान की बातें करेंगे. मां भी चहकती फिरेंगी. बस, 2 दिन बाद ही जरा सी कोई बात होगी तो फिर हंगामा शुरू हो जाएगा. मासूमी का तो कालेज जाना भी बंद हो चुका था. यों वहां जाने पर भी हमेशा की तरह मन धड़कता था कि कहीं फिर दोनों भाइयों में, मांबाप में झगड़ा न हो गया हो. कहीं मौसी और बूआ अपनेअपने पतियों से झगड़ कर न आ बैठी हों. बस, यही हालात थे जिन के कारण मासूमी को पुरुषों से नफरत हो गई थी, जिस में उस के पिता, भाई, फूफा, मौसा सभी शामिल थे. सारे पुरुष उसे जल्लाद लगते थे, जो सिर्फ स्त्रियों पर अपना हक जता कर उन्हें नीचा दिखाना चाहते थे. इस से बचने के लिए वह इतना ही कर सकती थी कि मर्दों के साए से दूर रहे.

आज उस के भाई अच्छाखासा कमा कर परिवार वाले हो गए थे. एक मासूमी ही थी जिस के लिए सबकुछ बेकार हो चला था. अब यह रिश्ता फिर से हाथ आया था और मासूमी ने फिर से इनकार कर दिया था. इस बार सुरेशजी को गुस्सा तो बहुत आया फिर भी खुद पर काबू पा कर वे मासूमी को समझा रहे थे, ‘‘यह क्या नादानी है. तुम्हारी इतनी उम्र होने पर भी यह रिश्ता आया है. अब कहीं न कहीं तो समझौता करना ही पड़ेगा. खुशियां दरवाजे पर खड़ी हैं फिर तुम्हें क्या परेशानी है? या तो तुम्हें मुझे यह बात स्पष्ट समझानी होगी वरना मैं अपने हिसाब से जो करना है कर दूंगा.’’

कुछ समय मासूमी सिर झुकाए खड़ी रही फिर हिम्मत कर के बोली, ‘‘आप मुझ से जवाब मांग रहे हैं तो सुनिए पापा, मैं हार गई हूं खुद से लड़तेलड़ते. बहुत सोचने के बाद मुझे विश्वास हो गया है कि मैं मां जैसी हिम्मत व सब्र नहीं रखती. मैं नहीं चाहती कि मेरे पिता द्वारा जो व्यवहार मेरी मां से किया गया वही व्यवहार कोई और व्यक्ति मेरे साथ करे.

‘‘औरत होने के नाते मैं उस औरत के दुख को महसूस कर सकती हूं जो मेरी मां है. हो सकता है कि विवाह के बाद मैं भी व्यावहारिकता में जा कर सबकुछ सह लूं पर मैं इतिहास दोहराना नहीं चाहती. आप के, मां व परिवार के बीच होने वाले झगड़ों ने मेरे अस्तित्व को ही जैसे खोखला व कमजोर बना दिया है. मुझे नहीं लगता कि मैं अब किसी परिवार का हिस्सा बनने लायक हूं. एक अनजाना सा डर मुझे हर खुशी से दूर ही रखेगा. इसलिए आप मुझे माफ कर दें और रिश्ते के लिए मना कर दें.’’

इतना कह कर वह दोनों हाथों से मुंह छिपा कर फूटफूट कर रो दी और कमरे में भाग गई.

मासूमी की बात सुन कर सुरेशजी सन्न रह गए. उन्होंने सोचा भी नहीं था कि आएदिन घर में होने वाले झगड़े उन की बेटी की जिंदगी में ऐसा गहरा निशान छोड़ जाएंगे कि उस की जिंदगी की खुशियां ही छिन जाएंगी. जिंदगी के कटघरे में आज वे अपराधी बन सिर झुकाए खड़े थे.

: स्मिता जैन

यह दोस्ती हम नहीं झेलेंगे

रात को 8 से ऊपर का समय था. मेरे खास दोस्त रामहर्षजी की ड्यूटी समाप्त हो रही थी. रामहर्षजी पुलिस विभाग के अधिकारी हैं. डीवाईएसपी हैं. वे 4 सिपाहियों के साथ अपनी पुलिस जीप में बैठने को ही थे कि बगल से मैं निकला. मैं ने उन्हें देख लिया. उन्होंने भी मुझे देखा.

उन के नमस्कार के उत्तर में मैं ने उन्हें मुसकरा कर नमस्कार किया और बोला, ‘‘मैं रोज शाम को 7 साढ़े 7 बजे घूमने निकलता हूं. घूम भी लेता हूं और बाजार का कोई काम होता है तो उसे भी कर लेता हूं.’’

‘‘क्या घर चल रहे हैं?’’ रामहर्षजी ने पूछा.

मैं घर ही चल रहा था. सोचा कि गुदौलिया से आटोरिकशा से घर चला जाऊंगा पर जब रामहर्षजी ने कहा तो उन के कहने का यही तात्पर्य था कि जीप से चले चलिए. मैं आप को छोड़ते हुए चला जाऊंगा. उन के घर का रास्ता मेरे घर के सामने से ही जाता था.

ये भी पढ़ें- राशनकार्ड की महिमा

लोभ विवेक को नष्ट कर देता है. यही लोभ मेरे मन में जाग गया. नहीं तो पुलिस जीप में बैठने की क्या जरूरत थी. रामहर्षजी ने तो मित्रता के नाते ऐसा कहा था पर मुझे अस्वीकार कर देना चाहिए था.

यदि मैं पैदल भी जाता तो 20-25 मिनट से अधिक न लगते और लगभग 15 मिनट तो जीप ने भी लिए ही, क्योंकि सड़क पर भीड़ थी.

‘‘जाना तो घर ही है,’’ मैं ने जैसे प्रसन्नता प्रकट की.

‘‘तो जीप से ही चलिए. मैं भी घर ही चल रहा हूं. ड्यूटी खत्म हो गई है. आप को घर छोड़ दूंगा.’’

पुलिस की जीप में बैठने में एक बार संकोच हुआ, पर फिर जी कड़ा कर के बैठ गया. मैं अध्यापक हूं, इसलिए जी कड़ा करना पड़ा. अध्यापकी बड़ा अजीब काम है. सारा समाज अपराध करे पर जब अध्यापक अपराध करता है तो लोग कह बैठते हैं कि अध्यापक हो कर ऐसा किया. छि:-छि:. कोई यह नहीं कहता कि व्यापारी ने ऐसा किया, नेता ने ऐसा किया या अफसर ने ऐसा किया. अध्यापक से समाज सज्जनता की अधिक आशा करता है.

बात भी ठीक है. मैं इस से सहमत हूं. समाज को बनाने की जिम्मेदारी दूसरों की भी है पर अध्यापक की सब से ज्यादा है. दूसरों का आदर्श होना बाद में है, अध्यापक को पहले आदर्श होना चाहिए.

मैं जीप में बैठ गया. रामहर्षजी ड्राइवर की बगल में बैठे. बाद में 4 सिपाही बैठे. 2 सामने और 1-1 मेरी अगलबगल.

जीप चल पड़ी.

जैसे ही जीप थोड़ा आगे बढ़ी, मैं ने चारों तरफ देखा. अगलबगल में इक्का, रिकशा, तांगा और कारें आजा रही थीं. किनारों पर दाएंबाएं लोग पैदल आजा रहे थे.

जीप में मेरे सामने बैठे दोनों सिपाही डंडे लिए थे, जबकि अगलबगल में बैठे सिपाहियों के हाथों में बंदूकें थीं. मैं चुपचाप बैठा था.

ये भी पढ़ें- मैं नहीं जानती

एकाएक मेरे दिमाग में अजीब- अजीब से विचार आने लगे. मेरा दिमाग सोच रहा था, यदि किसी ने मुझे पुलिस की जीप में सिपाहियों के बीच में बैठे देख लिया तो क्या सोचेगा. क्या वह यह नहीं सोचेगा कि मैं ने कोई अपराध किया है और पुलिस मुझे पकड़ कर ले जा रही है. पुलिस शरीफ लोगों को नहीं पकड़ती, अपराधियों को पकड़ती है.

मेरा चेहरा भी ऐसा है जो उदासी भरा गंभीर सा बना रहता है, हंसने में मुझे कठिनाई होती है. लोग जिन बातों पर ठहाके लगाते हैं, मैं उन पर मुसकरा भी नहीं पाता. मेरा स्वभाव ही कुछ ऐसा है- मनहूसोें जैसा.

अपने अपराधी होने की बात जैसे ही मेरे मन में आई, मैं घबराने लगा. शरीर से पसीना छूटने लगा. मन में पछतावा होने लगा कि यह मैं ने क्या किया. 10 रुपए के लोभ में इतनी बड़ी गलती कर डाली. अब बीच में जीप कैसे छोड़ूं. यदि मैं कहूं भी कि मुझे यहीं उतार दीजिए तो मेरे मित्र रामहर्षजी क्या सोचेंगे. प्रेम और सज्जनता के नाते ही तो उन्होंने मुझे जीप में बैठा लिया था.

मेरी मानसिक परेशानी बढ़ती जा रही थी. बचने का कोई उपाय सूझ नहीं रहा था. एकतिहाई दूरी पार कर चुका था. यदि अब आटोरिकशा से जाता या पैदल जाता तो व्यावहारिक न होता. मुझे यह ठीक नहीं लगा कि इतनी आफत झेल लेने के बाद जीप से उतर पड़ूं.

जीप आगे बढ़ रही थी. तभी मेरे एक मित्र शांतिप्रसादजी मिले. उन्होंने मुझे जीप में देखा पर मैं ने ऐसा बहाना बनाया मानो मैं उन्हें देख नहीं रहा हूं. उन्होंने मुझे नमस्कार भी किया पर मैं ने उन के नमस्कार का उत्तर नहीं दिया.

नमस्कार करते समय शांतिप्रसादजी मुसकराए थे. तो क्या यह सोच कर कि पुलिस मुझे पकड़ कर ले जा रही है, लेकिन शांतिप्रसाद के स्वभाव को मैं जानता हूं. वे मेरी तकलीफ पर कभी हंस नहीं सकते, सहानुभूति ही दिखा सकते हैं. फिर भी मैं यह सोच कर परेशान हो रहा था कि शांति भाई मुझे पुलिस की जीप में बैठा देख कर न जाने क्या सोच रहे होंगे. यदि सचमुच उन्होंने मेरे बारे में गलत सोचा या यही सोचा कि पुलिस गलती से मुझे गिरफ्तार कर के ले जा रही है, तब भी वे बड़े दुखी होंगे.

ये भी पढ़ें- मां और मोबाइल

अब पुलिस की जीप में बैठना मेरे लिए मुश्किल हो रहा था. मैं बारबार पछता रहा था कि क्यों जरा से पैसे के लोभ में आ कर पुलिस की गाड़ी में बैठ गया. अब तक न जाने मुझे कितने लोग देख चुके होंगे और क्याक्या सोच रहे होंगे.

चलतेचलते एकाएक जीप रुक गई. रामहर्षजी उतरे और 2 ठेले वालों को भलाबुरा कहते हुए डांटा. ठेले वाले ठेला ले कर भागे. वास्तव में उन ठेले वालों से रास्ता जाम हो रहा था, पर मित्र महोदय ऐसी भद्दीभद्दी गालियां दे सकते हैं, यह सुन कर मैं आश्चर्य में पड़ गया. हालांकि दूसरे पुलिस वालों को मैं ने उस से भी भद्दी बातें कहते हुए सुना है, पर एक अध्यापक का मित्र ऐसी बातें करेगा, यह अजीब लगा. लग रहा था मैं ने बहुत बड़ी भूल की है. मैं कहां फंस गया, किस जगह आ गया. लोग क्या जानें कि डीवाईएसपी रामहर्षजी मेरे मित्र हैं. लोग तो यही जानेंगे कि रामहर्षजी पुलिस अधिकारी हैं और मैं किसी कारण जीप में बैठा हूं, शायद किसी अपराध के कारण.

जब जीप रुकी हुई थी और रामहर्षजी ठेले वालों को डांट रहे थे, राजकीय इंटर कालेज के अध्यापक शशिभूषण वर्मा बगल से निकले. उन्होंने मुझे पुलिस के साथ जीप में देखा तो रुक गए, ‘‘अरे, विशेश्वरजी, आप. क्या बात है? कोई घटना घटी क्या. मैं साथ चलूं?’’

इस समय मैं शशिभूषण को न देखने का बहाना नहीं कर सकता था. बोला, ‘‘जीप गुदौलिया से लौट रही थी. डीवाईएसपी साहब ने मुझे जीप में बैठा लिया कि आप को घर छोड़ देंगे. डीवाईएसपी साहब मेरे मित्र हैं.’’

फिर मैं ने हंस कर कहा, ‘‘मैं ने कोई अपराध नहीं किया है. आप चिंता मत करिए. मैं न थाने जा रहा हूं, न जेल,’’ यह सुन कर मेरे मित्र शशिभूषण भी हंस पड़े. सिपाहियों को भी हंसी आ गई.

रामहर्षजी सड़क की भीड़ को ठीकठाक कर के जीप में आ कर बैठ गए थे. ड्राइवर ने जीप स्टार्ट की. आगे फिर थोड़ी भीड़ मिली. पुलिस की गाड़ी देख कर भीड़ अपनेआप इधरउधर हो गई और जीप आगे बढ़ती चली गई.

मेरा घर अभी भी नहीं आया था जबकि कई लोग मुझे मिल चुके थे. मैं चाह रहा था कि घर आए और मुझे पुलिस जीप से मुक्ति मिले. अब तक मैं काफी परेशान हो चुका था.

आखिर घर आया. जीप दरवाजे पर रुकी. मेरा छोटा बेटा पुलिस को देख कर डरता है. वह घर में भागा और दादी को पुलिस के आने की सूचना दी.

ये भी पढ़ें- रुपहली चमक

मां, दौड़ीदौड़ी बाहर आईं. मैं तब तक जीप से उतर कर दरवाजे पर आ गया था. उन्होंने घबरा कर पूछा, ‘‘क्या बात है. तुम पुलिस की जीप में क्यों बैठे थे? किसी से झगड़ा तो नहीं हुआ. मारपीट तो नहीं हो गई. कहीं चोट तो नहीं लगी है. फिर तो सिपाही घर नहीं आएंगे?’’

‘‘मां, तुम तो यों ही डर रही हो,’’ मैं ने मां को सारी बात बताई.

वे बोलीं, ‘‘मैं तो डर ही गई थी. आजकल पुलिस बिना बात लोगोें को परेशान करती है. अखबार में मैं रोज ऐसी घटनाएं पढ़ती रहती हूं. गुंडेबदमाशों का तो पुलिस कुछ कर नहीं पाती और भले लोगों को सताती है.’’

‘‘अरे, नहीं मां, रामहर्षजी ऐसे आदमी नहीं हैं. वे मेरे बड़े अच्छे मित्र हैं. तभी तो उन्होंने मुझे जीप में बैठा लिया था. वे कभी किसी को बेमतलब परेशान नहीं करते.’’

‘‘चलो, ठीक है,’’ बात समाप्त हो गई.

घर आ कर मैं ने कपड़े बदले, हाथमुंह धोया और बैठक में बैठ कर चाय पीने लगा.

‘‘टन…टन…टन…’’ घंटी बजी. मैं ने दरवाजा खोला.

‘‘आइए, आइए, आज कहां भूल पड़े,’’ मैं ने हंस कर रामपाल सिंह से कहा. रामपाल सिंह मेरे फुफेरे भाई हैं.

बैठक में आ कर कुरसी पर बैठते ही रामपाल सिंह बोले, ‘‘भाई, मैं तो घबरा कर आया हूं. लड़के ने तुम को नई सड़क पर पुलिस जीप से जाते देखा था. पुलिस बगल में बैठी थी. क्या बात थी. तुम्हें पुलिस क्यों ले जा रही थी? मैं यही जानने आया हूं्.’’

मैं ने रामपाल सिंह को सारा किस्सा बताया. फिर यह कहा, ‘‘मुझे पुलिस जीप में बैठा देख कर न जाने किसकिस ने क्याक्या सोचा होगा और न जाने कौनकौन परेशान हुआ होगा.’’

‘‘तब आप को पुलिस जीप में नहीं बैठना चाहिए था. जिस ने देखा होगा, उसे ही भ्रम हुआ होगा. हमलोग अध्यापक हैं,’’ वे बोले.

‘‘आप ठीक कहते हैं भाई साहब, मुझे अपने किए पर बहुत दुख हुआ. आज मैं ने यही अनुभव किया. आज मैं ने कान पकड़ लिए हैं. ऐसा नहीं होगा कि फिर कभी किसी पुलिस जीप में बैठूं.’’

मैं अभी बात कर ही रहा था कि हमारे एक पड़ोसी घबराए हुए आए और मेरा हालचाल पूछने लगे. चाय फिर से आ गई थी और तीनों चाय पी रहे थे. पुलिस जीप में बैठने की बात मैं अपने पड़ोसी को भी बता रहा था. मेरी बात पड़ोसी सुन कर खूब हंसे.

ये भी पढ़ें- हथेली पर आत्मसम्मान

मैं पुलिस जीप में क्या बैठा, एक आफत ही मोल ले ली. एक बूढ़ी महिला मेरी मां से इसी बारे में पूछने आईं, एक पड़ोसिन ने श्रीमतीजी से पूछा और एक महाशय ने रात के 11 बजे फोन कर के बगल वाले घर में बुलाया, क्योंकि मेरे घर में फोन नहीं है. मैं मोबाइल रखता हूं जिस का नंबर उन के पास नहीं था. फोन पर उन्होंने पूरी जानकारी ली.

2 व्यक्ति दूसरे दिन भी मेरा हालचाल लेने आए, ‘‘भाई साहब, हम तो डर ही गए थे इस बात को सुन कर.’’

तीसरे दिन दोपहर को एक महाशय जानकारी लेने आए और कालेज में प्रिंसिपल ने पूरी जानकारी ली.

यद्यपि इस घटना ने यह सिद्ध कर दिया कि शहर में मेरे प्रति लोगों की बड़ी अच्छी धारणा है तथा मेरे शुभचिंतकों की संख्या काफी अधिक है, पर अब मैं ने 2 प्रतिज्ञाएं भी की हैं, पहली, कि मैं कभी लोभ नहीं करूंगा और दूसरी, कि कभी पुलिस की जीप में नहीं बैठूंगा. पहली प्रतिज्ञा में कभी गड़बड़ी हो भी जाए, पर दूसरी प्रतिज्ञा का तो आजीवन पालन करूंगा.

रामहर्षजी गुदौलिया में बाद में भी मिले हैं और उन्होंने जीप में बैठने का प्रेमपूर्वक आग्रह भी किया है, पर मैं किसी न किसी बहाने टाल गया. जरा से लोभ के लिए अब प्रतिज्ञा तोड़ कर परेशानी में न पड़ने की कसम जो खा रखी है.

मां और मोबाइल

‘‘मेरा मोबाइल कहां है? कितनी बार कहा है कि मेरी चीजें इधरउधर मत किया करो पर तुम सुनती कहां हो,’’ आफिस जाने की हड़बड़ी में मानस अपनी पत्नी रोमा पर बरस पड़े थे.

‘‘आप की और आप के बेटे राहुल के कार्यालय और स्कूल जाने की तैयारी में सुबह से मैं चकरघिन्नी की तरह नाच रही हूं, मेरे पास कहां समय है किसी को फोन करने का जो मैं आप का मोबाइल लूंगी,’’ रोमा खीझपूर्ण स्वर में बोली थी.

‘‘तो कहां गया मोबाइल? पता नहीं यह घर है या भूलभुलैया. कभी कोई सामान यथास्थान नहीं मिलता.’’

‘‘क्यों शोर मचा रहे हो, पापा? मोबाइल तो दादी मां के पास है. मैं ने उन्हें मोबाइल के साथ छत पर जाते देखा था,’’ राहुल ने मानो बड़े राज की बात बताई थी.

‘‘तो जा, ले कर आ…नहीं तो हम दोनों को दफ्तर व स्कूल पहुंचने में देर हो जाएगी…’’

पर मानस का वाक्य पूरा हो पाता उस से पहले ही राहुल की दादी यानी वैदेहीजी सीढि़यों से नीचे आती हुई नजर आई थीं.

‘‘अरे, तनु, मेरे ऐसे भाग्य कहां. हर घर में तो श्रवण कुमार जन्म लेता नहीं,’’ वे अपने ही वार्त्तालाप में डूबी हुई थीं.

‘‘मां, मुझे देर हो रही है,’’ मानस अधीर स्वर में बोले थे.

‘‘पता है, इसीलिए नीचे आ रही हूं. तान्या से बात करनी है तो कर ले.’’

‘‘मैं बाद में बात कर लूंगा. अभी तो मुझे मेरा मोबाइल दे दो.’’

‘‘मुझे तो जब भी किसी को फोन करना होता है तो तुम जल्दी में रहते हो. कितनी बार कहा है कि मुझे भी एक मोबाइल ला दो, पर मेरी सुनता ही कौन है. एक वह श्रवण कुमार था जिस ने मातापिता को कंधे पर बिठा कर सारे तीर्थों की सैर कराई थी और एक मेरा बेटा है,’’ वैदेहीजी देर तक रोंआसे स्वर में प्रलाप करती रही थीं पर मानस मोबाइल ले कर कब का जा चुका था.

‘‘मोबाइल को ले कर क्यों दुखी होती हैं मांजी. लैंडलाइन फोन तो घर में है न. मेरा मोबाइल भी है घर में. मैं भी तो उसी पर बातें करती हूं,’’ रोमा ने मांजी को समझाना चाहा था.

‘‘तुम कुछ भी करो बहू, पर मैं इस तरह मन मार कर नहीं रह सकती. मैं किसी पर आश्रित नहीं हूं. पैंशन मिलती है मुझे,’’ वैदेही ने अपना क्रोध रोमा पर उतारा था पर कुछ ही देर में सब भूल कर घर को सजासंवार कर रोमा को स्नानगृह में गया देख कर उन्होंने पुन: अपनी बेटी तान्या का नंबर मिलाया था.

‘‘हैलो…तान्या, मैं ने तुम से जैसा करने को कहा था तुम ने किया या नहीं?’’ वे छूटते ही बोली थीं.

‘‘वैदेही बहन, मैं आप की बेटी तान्या नहीं उस की सास अलका बोल रही हूं.’’

‘‘ओह, अच्छा,’’ वे एकाएक हड़बड़ा गई थीं.

‘‘तान्या कहां है?’’ किसी प्रकार उन के मुख से निकला था.

‘‘नहा रही है. कोई संदेश हो तो दे दीजिए. मैं उसे बता दूंगी.’’

‘‘कोई खास बात नहीं है, मैं कुछ देर बाद दोबारा फोन कर लूंगी,’’ वैदेही ने हड़बड़ा कर फोन रख दिया था. पर दूसरी ओर से आती खनकदार हंसी ने उन्हें सहमा दिया था.

‘कहीं छोकरी ने बता तो नहीं दिया सबकुछ? तान्या दुनियादारी में बिलकुल कच्ची है. ऊपर से यह फोन. स्थिर फोन में यही तो बुराई है. घरपरिवार को तो क्या सारे महल्ले को पता चल जाता है कि कहां कैसी खिचड़ी पक रही है. मोबाइल फोन की बात ही कुछ और है…किसी भी कोने में बैठ कर बातें कर लो.’ उन की विचारधारा अविरल जलधारा की भांति बह रही थी कि अचानक फोन की घंटी बज उठी थी.

‘‘हैलो मां, मैं तान्या. मां ने बताया कि जब मैं स्नानघर में थी तो आप का फोन आया था. कोई खास बात थी क्या?’’

‘‘खास बात तो कितने दिनों से कर रही हूं पर तुम्हें समझ में आए तब न. अरे, जरा अक्ल से काम लो और निकाल बाहर करो बुढि़या को. जब देखो तब तुम्हारे यहां पड़ी रहती है. कब तक उस की गुलामी करती रहोगी?’’

‘‘धीरे बोलो मां, कहीं मांजी ने सुन लिया तो बुरा मानेंगी.’’

‘‘फोन पर हम दोनों के बीच हुई बात को कैसे सुनेगी वह?’’

‘‘छोड़ो यह सब, शनिवाररविवार को आप से मिलने आऊंगी तब विस्तार से बात करेंगे. जो जैसा चल रहा है चलने दो. क्यों अपना खून जलाती हो.’’

‘‘मैं तो तेरे भले के लिए ही कहती हूं पर तुम लोगों को बुरा लगता है तो आगे से नहीं कहूंगी,’’ वैदेही रोंआसे स्वर में बोली थीं.

‘‘मां, क्यों मन छोटा करती हो. हम सब आप का बड़ा सम्मान करते हैं. यथाशक्ति आप की सलाह मानने का प्रयत्न करते हैं पर यदि आप की सलाह हमारा अहित करे तो परेशानी हो जाती है.’’

‘‘लो और सुनो, अब तुम्हें मेरी बातों से परेशानी भी होने लगी. ठीक है, आज से कुछ नहीं कहूंगी,’’ वैदेही ने क्रोध में फोन पटक दिया था और मुंह फुला कर बैठ गई थीं.

‘‘क्या हुआ, मांजी, सब ठीक तो है?’’ उन्हें दुखी देख कर रोमा ने प्रश्न किया.

‘‘क्यों? तुम्हें कैसे लगा कि सब ठीक नहीं है?’’ वैदेही ने प्रश्न के उत्तर में प्रश्न ही पूछ लिया.

‘‘आप का मूड देख कर.’’

‘‘मैं सब समझती हूं. छिप कर मेरी बातें सुनते हो तुम लोग. इसीलिए तो मोबाइल लेना चाहती हूं मैं.’’

‘‘मैं ने आज तक कभी किसी का फोन वार्त्तालाप नहीं सुना. आप को दुखी देख कर पूछ लिया था. आगे से ध्यान रखूंगी,’’ रोमा तीखे स्वर में बोली और अपने काम में व्यस्त हो गई.

वैदेही बेचैनी से तान्या के आने की प्रतीक्षा करती रही कि कब तान्या आए और कब वे उस से बात कर के अपना मन हलका करें पर जब सांझ ढलने लगी और तान्या नहीं आई तो उन का धीरज जवाब देने लगा. मानस सुबह से अपने मोबाइल से इस तरह चिपका था कि उन्हें तान्या से बात करने का अवसर ही नहीं मिल रहा था.

‘‘मुझे अपनी सहेली नीता के यहां जाना है, मांजी. मैं सुबह से तान्या दीदी की प्रतीक्षा में बैठी हूं पर लगता है कि आज वे नहीं आएंगी. आप कहें तो मैं थोड़ी देर के लिए नीता के घर हो आऊं. उस का बेटा बीमार है,’’ रोमा ने आ कर वैदेही से अनुनय की तो वे मना न कर सकीं.

रोमा को घर से निकले 10 मिनट भी नहीं बीते होंगे कि तान्या ने कौलबेल बजाई.

‘‘लो, अब समय मिला है तुम्हें मां से मिलने आने का? सुबह से दरवाजे पर टकटकी लगाए बैठी हूं. आंखें भी पथरा गईं.’’

‘‘इस में टकटकी लगा कर बैठने की क्या बात थी, मां?’’ मानस बोल पड़ा, ‘‘आप मुझ से कहतीं मैं तान्या दीदी से फोन कर के पूछ लेता कि वे कब तक आएंगी.’’

‘‘लो और सुनो, सुबह से पता नहीं किसकिस से बात कर रहा है तेरा भाई. सारे काम फोन कान से चिपकाए हुए कर रहा है. बस, सामने बैठी मां से बात करने का समय नहीं है इस के पास.’’

‘‘क्या कह रही हो मां. मैं तो सदासर्वदा आप की सेवा में मौजूद रहता हूं. फिर राहुल है, रोमा है जितनी इच्छा हो उतनी बात करो,’’ मानस हंसा.

‘‘2 बेटों, 2 बेटियों का भरापूरा परिवार है मेरा पर मेरी सुध लेने वाला कोई नहीं है. यहां आए 2 सप्ताह हो गए मुझे, तान्या को आज आने का समय मिला है.’’

‘‘मेरा बस चले तो दिनरात आप के पास बैठी रहूं. पर आजकल बैंक में काम बहुत बढ़ गया है. मार्च का महीना है न. ऊपर से घर मेहमानों से भरा पड़ा है. 3-4 नौकरों के होने पर भी अपने किए बिना कुछ नहीं होता,’’ तान्या ने सफाई दी थी.

‘‘इसीलिए कहती हूं अपने सासससुर से पीछा छुड़ाओ. सारे संबंधी उन से ही मिलने तो आते हैं.’’

‘‘क्या कह रही हो मां, कहीं मांजी ने सुन लिया तो गजब हो जाएगा. बहुत बुरा मानेंगी.’’

‘‘पता नहीं तुम्हें कैसे शीशे में उतार लिया है उन्होंने. और 2 बेटे भी तो हैं, वहां क्यों नहीं जा कर रहतीं?’’

‘‘जौय और जोषिता को मांजी ने बचपन से पाल कर बड़ा किया है. अब तो स्थिति यह है कि बच्चे उन के बिना रह ही नहीं पाते. दोचार दिन के लिए भी कहीं जाती हैं तो बच्चे बीमार पड़ जाते हैं.’’

‘‘तुम्हें और तुम्हारे बच्चों को कठपुतली बना कर रखा है उन्होंने. जैसा चाहते हैं वैसा नचाते हैं दोनों. सारा वेतन रखवा लेते हैं. दुनिया भर का काम करवाते हैं. यह दिन देखने के लिए ही इतना पढ़ायालिखाया था तुम्हें?’’

‘‘किसी ने जबरदस्ती मेरा वेतन कभी नहीं छीना है मां. उन के हाथ में वेतन रखने से वे लोग भी प्रसन्न हो जाते हैं और मेरे सासससुर भी वह पैसा अपनी जेब में नहीं रख लेते बल्कि उन्हें हमारे पर ही खर्च कर देते हैं. जो बचता है उसे निवेश कर देते हैं. ’’

‘‘पर अपना पैसा उन के हाथ में दे कर उन की दया पर जीवित रहना कहां की समझदारी है?’’

‘‘मां, आप क्यों तान्या दीदी के घर के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करती हैं,’’ इतनी देर से चुप बैठा मानस बोला था.

‘‘अरे, वाह, अपनी बेटी के हितों की रक्षा मैं नहीं करूंगी तो कौन करेगा. पर मेरी बेटी तो समझ कर भी अनजान बनी हुई है.’’

‘‘मां, मैं आप के सुझावों का बहुत आदर करती हूं पर साथ ही घर की सुखशांति का विचार भी करना पड़ता है.’’

‘‘वही तो मैं कह रहा हूं. अपनी समस्याएं क्या कम हैं, जो आप तान्या दीदी की समस्याएं सुलझाने लगीं? और मां, आप ने तो दीदी के आते ही अपने सुझावों की बमबारी शुरू कर दी. न चाय, न पानी…कुछ तो सोचा होता,’’ मानस ने मां को याद दिलाया.

‘‘रोमा अभी तक लौटी नहीं जबकि उसे पता था कि तान्या आने वाली है. फोन करो कि जल्दी से घर आ जाए.’’

‘‘फोन करने की जरूरत नहीं है. वह स्वयं ही आ जाएगी. उस की मां आई हुई हैं, उन से मिलने गई है.’’

‘‘मां आई हुई हैं? मुझ से तो कह कर गई है कि नीता का बेटा बीमार है. उसे देखने जा रही है.’’

‘‘उसे भी देखने गई है. कई दिनों से सोच रही थी पर जा नहीं पा रही थी. नीता के घर के पास रोमा के दूर के रिश्ते के मामाजी रहते हैं. वे बीमार हैं और रोमा की मम्मी उन्हें देखने आई हुई हैं.’’

‘‘ठीक है, सब समझ में आ गया. मां से मिलने जा रही हूं यह भी तो कह कर जा सकती थी, झूठ बोल कर जाने की क्या आवश्यकता थी. रोमा अपना फोन तो ले कर गई है?’’

‘‘हां, ले गई है.’’

‘‘ला, अपना फोन दे तो मैं उस से बात करूंगी.’’

‘‘क्या बात करेंगी आप? वह अपनेआप आ जाएगी,’’ मानस ने तर्क दिया.

‘‘फोन कर दूंगी तो जल्दी आ जाएगी. तान्या आई है तो खाना खा कर ही जाएगी न…’’

‘‘आप चिंता न करें मां, मैं खाना नहीं खाऊंगी. आप को जो खाना है मैं बना देती हूं,’’ तान्या ने उन्हें बीच में ही टोक दिया.

‘‘फोन तो दे मानस, रोमा से बात करनी है,’’ वैदेही जिद पर अड़ी थीं.

‘‘एक शर्त पर मोबाइल दूंगा कि आप रोमा से कुछ नहीं कहेंगी. बेचारी कभीकभार घर से बाहर निकलती है. दिनभर घर के काम में जुटी रहती है.’’

‘‘ठीक है, रोमा को कुछ नहीं कहूंगी, उस की मां से बात करूंगी. कहूंगी आ कर मिल जाएं. बहुत लंबे समय से मिले नहीं हम दोनों.’’

मां को फोन थमा कर मानस और तान्या रसोईघर में जा घुसे थे.

‘‘हैलो रोमा, तुम नीता के बीमार बेटे से मिलने की बात कह कर गई थीं. सौदामिनी बहन के आने की बात तो साफ गोल कर गईं तुम,’’ वैदेही बोलीं.

‘‘नहीं मांजी, ऐसा कुछ नहीं था. मुझे लगा, आप नाराज होंगी,’’ रोमा सकपका गई.

‘‘लो भला, मांबेटी के मिलने से भला मैं क्यों नाराज होने लगी? सौदामिनी बहन को फोन दो जरा. उन से बात किए हुए तो महीनों बीत गए,’’ वैदेहीजी का अप्रत्याशित रूप से मीठा स्वर सुन कर रोमा का धैर्य जवाब देने लगा था. उस ने तुरंत फोन अपनी मां सौदामिनी को थमा दिया था.

‘‘नमस्ते, सौदामिनी बहन. आप तो हमें भूल ही गईं,’’ उन्होंने उलाहना दिया.

‘‘आप को भला कैसे भूल सकती हूं दीदी, पर दुनिया भर के पचड़ों से समय ही नहीं मिलता.’’

‘‘तो यहां तक आ कर क्या हम से मिले बिना चली जाओगी? मेरा तो सब से मिलने को मन तरसता रहता है. इसीलिए बच्चों से कहती हूं एक मोबाइल ला दो, कम से कम सब से बात कर के मन हलका कर लूंगी.’’

रसोईघर में भोजन का प्रबंध करते मानस और तान्या हंस पड़े थे, ‘‘मां फिर मोबाइल पुराण ले कर बैठ गईं, लगता है उन्हें मोबाइल ला कर देना ही पड़ेगा.’’

‘‘मैं ने भी कई बार सोचा पर डरती हूं अपना मोबाइल मिलते ही वे हम भाईबहनों का तो क्या, अपने खानेपीने का होश भी खो बैठेंगी.’’

‘‘मुझे दूसरा ही डर है. फोन पर ऊलजलूल बात कर के कहीं कोई नया बखेड़ा न खड़ा कर दें.’’

‘‘जो भी करें, उन की मर्जी है. पर लगता है कि अपने अकेलेपन से जूझने का इन्होंने नया ढंग ढूंढ़ निकाला है.’’

‘‘चलो, तान्या दीदी, आज ही मां के लिए मोबाइल खरीद लाते हैं. इन का इस तरह फोन के लिए बारबार आग्रह करना अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘चाय तैयार है. चाय पी कर चलते हैं, भोजन लौट कर करेंगे,’’ तान्या ने स्वीकृति दी थी.

‘‘मैं रोमा और जीजाजी दोनों को फोन कर के सूचित कर देता हूं कि हम कुछ समय के लिए बाहर जा रहे हैं.’’

‘‘कहां जा रहे हो तुम दोनों?’’ वैदेही ने अपना दूरभाष वार्त्तालाप समाप्त करते हुए पूछा.

‘‘हम दोनों नहीं, हम तीनों. चाय पियो और तैयार हो जाओ, आवश्यक कार्य है,’’ मानस ने उन का कौतूहल शांत करने का प्रयत्न किया.

वे उन्हें मोबाइल की दुकान पर ले गए तो उन की प्रसन्नता की सीमा न रही. मानो कोई मुंह में लड्डू ठूंस दे और उस का स्वाद पूछे.

वैदेहीजी के चेहरे पर ऐसे भाव थे जैसे लंबे समय से अपने मनपसंद खिलौने के लिए मचलते बच्चे को उस का मनपसंद खिलौना मिल गया हो.

उन्होंने अपनी पसंद का अच्छा सा मोबाइल खरीदा जिस से अच्छे छायाचित्र खींचे जा सकते थे. घर के पते आदि का सुबूत देने के बाद उन के फोन का नंबर मिला तो उन का चेहरा खिल उठा.

‘‘आप को अपना फोन प्रयोग में लाने के लिए 24 घंटे तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी,’’ सेल्समैन ने बताया तो वे बिफर उठीं.

‘‘यह कौन सी दुकान पर ले आए हो तुम लोग मुझे? इन्हें तो फोन चालू करने में ही 24 घंटे लगते हैं.’’

‘‘कोई बात नहीं है, मां जहां आप ने इतने दिनों तक प्रतीक्षा की है एक दिन और सही,’’ तान्या ने समझाना चाहा.

‘‘तुम नहीं समझोगी. मेरे लिए तो एक क्षण भी एक युग की भांति हो गया है,’’ उन्होंने उत्तर दिया.

घर पहुंचते ही फोन को डब्बे से निकाल कर उस के ऊपर मोमबत्ती जलाई गई. फिर बुला कर सब में मिठाई बांटी, मानो मोबाइल का जन्म उन्हीं के हाथों हुआ था और उस के चालू होने की प्रतीक्षा की जाने लगी.

यह कार्यक्रम चल ही रहा था कि रोमा, सौदामिनी और अपने मामा आलोक बाबू के साथ आ पहुंची.

वैदेही का नया फोन आना ही सब से बड़ा समाचार था. उन्होंने डब्बे से निकाल कर सब को अपना नया मोबाइल फोन दिखाया.

‘‘कितना सुंदर फोन है,’’ राहुल तो देखते ही पुलक उठा.

‘‘दादी मां, मुझे भी दिया करोगी न अपना मोबाइल?’’

‘‘कभीकभी, वह भी मेरी अनुमति ले कर. छोटे बच्चों पर नजर रखनी पड़ती है न सौदामिनी बहन.’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं,’’ सौदामिनी ने सिर हिला दिया था.

‘‘सच कहूं, तो आज कलेजा ठंडा हो गया. यों तो राहुल को छोड़ कर सब के पास अपनेअपने मोबाइल हैं. पर अपनी चीज अपनी ही होती है. आयु हो गई है तो क्या हुआ, मैं ने तो साफ कह दिया कि मुझे तो अपना मोबाइल फोन चाहिए ही. मैं क्या किसी पर आश्रित हूं? मुझे पैंशन मिलती है,’’ वे देर तक सौदामिनी से फोन के बारे में बातें करती रही थीं.

कुछ देर बाद सौदामिनी और आलोक बाबू ने जाने की अनुमति मांगी थी.

‘‘आप ने फोन किया तो लगा कि यहां तक आ कर आप से मिले बिना जाना ठीक नहीं होगा,’’ सौदामिनी बोलीं.

‘‘यही तो लाभ है मोबाइल फोन का. अपनों को अपनों से जोड़े रखता है,’’ वैदेही ने उत्तर दिया.

‘‘चिंता मत करना. अब मेरे पास अपना फोन है. मैं हालचाल लेती रहूंगी.’’

‘‘मैं भी आप को फोन करती रहूंगी. आप का नंबर ले लिया है मैं ने,’’ सौदामिनी ने आश्वासन दिया था.

हाथ में अपना मोबाइल फोन आते ही वैदेही का तो मानो कायाकल्प ही हो गया. उन का मोबाइल अब केवल वार्त्तालाप का साधन नहीं है. उन के परिचितों, संबंधियों और दोस्तों के जवान बेटेबेटियों का सारा विवरण उन के मोबाइल में कैद है. वे चलताफिरता मैरिज ब्यूरो बन गई हैं. पहचान का दायरा इतना विस्तृत हो गया है कि किसी का भी कच्चा चिट्ठा निकलवाना हो तो लोग उन की ही शरण में आते हैं.

‘‘इस बुढ़ापे में भी अपने पांवों पर खड़ी हूं मैं. साथ में पैंशन भी मिलती है,’’ वे शान से कहती हैं. और एक राज की बात. उन के पास अब एक नहीं 5 मोबाइल फोन हैं जो पहले दूरभाष पर उन के लंबे वार्त्तालाप का उपहास करते थे अब उसी गुण के कारण उन का सम्मान करने लगे हैं.

मैं नहीं जानती

पूर्व कथा

दिल्ली से दूर नदी के एकांत होटल में दिव्या 1 सप्ताह गुजार देती है तो वहां उसे देवयानी मिल जाती है. वह बताती है कि अब वह यहीं रह रही है, सो वह उस से जिद करती है कि होटल में नहीं उस के घर में रहे लेकिन दिव्या उसे टाल देती है. वह होटल आ कर अतीत में खो जाती है. पीएच.डी. कर दिव्या कालेज में जौब करती है. जब वह एम.ए. प्रथम वर्ष की छात्रा थी, देवयानी का महेश के साथ विवाह हो गया था?. वह खुश थी. दिव्या की चाहत थी कि देवयानी की तरह उसे भी खुशमिजाज परिवार मिले. उसे मिला भी लेकिन वह सुख, शांति, प्यार, सम्मान नहीं. कामेश विवाह के 3 दिन बाद ही दिव्या को नौकरी न करने का अल्टीमेटम दे देता है.

कामेश समय पर घर आते नहीं, दिव्या प्रतीक्षा करतेकरते सो जाती. देर रात कामेश का स्पर्श उसे बिच्छू के डंक सा लगता. उस ने दिव्या की जरूरत को कभी समझा ही नहीं.

यह भी पढ़ें- मूव औन माई फुट

एक दिन दिव्या को देवयानी का फोन आता है कि कामेश का अंबाला ट्रांसफर हो गया है, वे अंबाला ट्रेन से जा रहे हैं. इसलिए मिलने दिल्ली रेलवे स्टेशन पर आ जाए. दिव्या और कामेश स्टेशन पहुंच कर मुलाकात करते हैं. दिव्या महेश और देवयानी से हंसहंस कर बातें करती है. कामेश दिव्या को ताना देता है कि ‘ऐसी खुश तो तुम कभी नहीं होतीं, जितनी महेश की बातें सुन कर हो रही हो.’ कामेश का यह ताना दिव्या को अच्छा नहीं लगा. अब आगे…

गतांक से आगे…

अंतिम भाग

भैया-भाभी के विवाह की 25वीं सालगिरह थी. बहुत बार कहने पर कामेश जाने को तैयार हुए. उस खुशी भरे माहौल में भी मैं घुटीघुटी सी रही. मुखौटा लगाए चेहरे पर मुसकान लाने का प्रयत्न करती रही कि कोई मेरी मनोस्थिति को भांप न ले…डरतीडरती रही. सांची की परीक्षा थी सो देवयानी नहीं आई. महेश अकेला आया था. मैं उस से बचती रही. मैं जानती थी कामेश की नजरें मेरा पीछा कर रही होंगी. मैं ऐसी स्थिति से खासकर बचना चाहती थी जो उन्हें ताने मारने का अवसर दे.

खुश रहना और खुशियां बांटना बुरा है क्या? महेश यही तो करता है. फंक्शन पार्टी में भी वह अपने खुलेपन और खुशमिजाज के कारण छाया रहा. हरेक के साथ अपनेपन से मिलता रहा, बातें करता रहा, हंसता रहा, हंसाता रहा. वहीं कामेश चुपचाप अपने में ही सीमित बैठे रहे. मैं भी उन के साथसाथ ही रही.

मैं कामेश का साथ चाहती थी. ये 2 दिन वे पूरी तरह से मेरे साथ थे. फिर भी खुश नहीं थी तो कामेश के कारण, उन की चुप्पी के कारण. सब से अलगथलग रहने के कारण. मैं चाहती थी वे सब के साथ मिल कर बैठें, उन से बात करें. एक बार धीरे से कहा भी लेकिन उन के उत्तर ने चुप करा दिया था. कहने लगे, ‘तुम्हारे भैयाभाभी के विवाह की सालगिरह है, तुम खुशियां मनाओ. मैं ने मना तो नहीं किया.’

यह भी पढ़ें- हम हैं राही प्यार के

यह कहना क्या कम था. फिर उन से मैं ने कुछ नहीं कहा.

आज पीछे मुड़ कर देखती हूं तो सोचती हूं, क्यों सहा मैं ने इतना कुछ. अब बंधन तोड़ कर चली आई हूं तो क्या इतने बरसों में कामेश की तानाशाही को नहीं तोड़ सकती थी. उन की हर गलत बात का जवाब क्यों नहीं दे पाई मैं. पढ़लिख कर भी रूढि़यों में बंधी रही, अपने अधिकारों से वंचित रही. बच्चों तक ने मुझे गंवार समझ लिया. मेरे त्याग, मेरी ममता को वे भी नहीं समझ पाए. उन के लिए, कामेश के लिए, एक जरूरत की वस्तु बन कर रह गई मैं.

मैं ने जीवन में क्या पाया? शून्यता, रीतापन, तृष्णा से भरा मन. सामने सागर बहता रहा और मैं प्यासी की प्यासी ही रही. उस का खारापन मुझे सालता रहा. शांत बहती नदी अच्छी लगती है लेकिन पानी की अधिकता से उफनती वही नदी किनारों को तोड़ विनाश का रूप धारण कर लेती है. सबकुछ बहा कर ले जाती है. मेरा मन भी जब तक शांत था, शांत था. भीतर ही भीतर सुप्त ज्वालामुखी पनपता रहा जिस ने एक न एक दिन मन की सीमाओं को तोड़ना ही था. उस ने एक दिन फटना था और वह फट गया. पानी किनारों को लांघ कर दूरदूर तक बहने लगा था.

निक्की की शादी के बाद मेरे जीवन में और सूनापन आ गया. अपनी खुशियां उस के चेहरे पर देखती थी. जो मैं नहीं पा सकी, चाहती थी वह पा ले. वह तो अपना जीवन पूरी तरह जी ले. उस की हर इच्छा को पूरा करती रही.

जिस दिन मुझे पता चला कि निक्की और विनीत एकदूसरे को चाहते हैं, मैं ने उन्हें एक करने की ठान ली थी. विनीत को घर पर बुला कर उस से बात की. उस के मातापिता के बारे में जानकारी ली. उसे समझाया कि यदि वह निक्की से सच में प्यार करता है तो उसे अपने मातापिता से बात करनी होगी. वह निक्की का रिश्ता मांगने हमारे घर आएंगे ताकि कामेश को पता न चले कि यह लवमैरिज है.

विनीत इस के लिए मान गया और फिर यह सब इस तरह से हो गया कि किसी को पता ही नहीं चला.

निक्की अपने घर में खुश थी. मैं भी उस की खुशी में अपनी खुशियां ढूंढ़ रही थी. देवयानी की बात हमेशा याद आती रही, ‘दीदी, हर पल में खुशी ढूंढ़ो…जो मिल जाए उस क्षण को जी भर कर जी लो. बड़ीबड़ी खुशियों की तलाश में छोटीछोटी खुशियां, जो हमारे चारों ओर बिखरती रहती हैं, हम उन्हें अनदेखा कर जाते हैं. वे हमारे हाथ से निकल जाती हैं और हम मुंह ताकते रह जाते हैं.’

यह भी पढ़ें- हम हैं राही प्यार के

ऐसा ही तो हुआ था मेरे साथ. मैं ने बड़ी खुशी की तलाश में छोटीछोटी खुशियों के अवसर भी खो दिए. अवसाद में डूबी रही. अपनी प्रतिभा, रचनात्मकता सब भूल गई. मैं ने उन की ओर ध्यान ही नहीं दिया और जीवन की डोर मेरे हाथ से छूटती गई.

निक्की की शादी के बाद मैं नए सिरे से अपने जीवन को पहचानने की कोशिश करने लगी थी. मैं निक्की और विनीत का विवाह करवा सकती हूं. कामेश को इस की भनक नहीं लगने दी तो अपने जीवन की इस ढलान पर ही सही, मैं आत्मतुष्टि के लिए कुछ क्यों नहीं कर सकती, खुशियां क्यों नहीं तलाश सकती भला.

मैं प्रयास करने भी लगी. ढेर सारी पुस्तकें मंगवा ली थीं. घरगृहस्थी के कामों से समय निकाल कर पढ़ती रहती. कुछकुछ लिखने भी लगी थी. खालीपन को भरने का इस से अच्छा रास्ता कोई और नहीं था लेकिन कई बार न चाहते हुए भी एक के बाद एक मुसीबत आ खड़ी होती है. मेरे साथ भी वही हुआ. कामेश ने एक दिन मेरी डायरी देख ली और मुझ पर बिफर पड़े थे.

चिल्ला कर बोले थे, ‘तुम मेरे साथ इतनी दुखी हो जो अपनी पीड़ा को इन कागजों पर उतार कर मुझे जलील करना चाहती हो. चाहती क्या हो तुम? मैं ने तुम्हें क्या नहीं दिया. किस बात की कमी है तुम्हें, आखिर दुनिया को क्या बताना चाहती हो तुम.’

जीवन भर चुप्पी साधे रहे और सारा आक्रोश एक ही दिन में निकाल दिया. डायरी के पन्नों को फाड़ कर आग में झोंक दिया. मैं हतप्रभ उन्हें देखती रही. कुछ कह नहीं सकी, पर मेरी आत्मा अंदर से चीख रही थी. मेरा रोमरोम कराह रहा था.

पता नहीं मुझ में इतनी शक्ति कहां से आ गई थी. अगली सुबह अर्णव, गौरव के चले जाने के बाद मैं ने एक नोट लिख कर टेबल पर रखा. अटैची में कुछ कपड़े रखे और घर से बाहर आ गई.

मैं जानती हूं, जो कुछ मैं ने किया है वह इस समस्या का हल नहीं है. पलायन करने से समस्याएं नहीं सुलझतीं. पर मेरे पास और कोई रास्ता नहीं था. भाग जाना चाहती थी, अपने ही घर से, दूर रहना चाहती थी. इसलिए सबकुछ छोड़ कर चली आई. 1 सप्ताह में ही मैं जैसे पूरा जी ली. बस, अब और बंधन नहीं. मुक्ति चाहिए मुझे.

यह भी पढ़ें- हम हैं राही प्यार के

ठक…ठक…ठक…दरवाजे पर दस्तक हुई तो मेरी तंद्रा टूटी. मैं अतीत से वर्तमान में आ सोचने लगी, बैरा होगा. उसे रुकने के लिए कहा. दोबारा दस्तक हुई, तो जा कर दरवाजा खोला. सामने देवयानी खड़ी थी.

‘‘इतनी सुबहसुबह, कोई और काम नहीं था तुम्हें.’’

‘‘आप भी दीदी, आप से ज्यादा और कोई काम हो सकता है भला. आप को लेने आई हूं. चलिए, जल्दी से सामान बांधिए.’’

‘‘नहीं, देवयानी, मैं यहां ठीक हूं. मिलने आ जाऊंगी.’’

‘‘ऐसा नहीं हो सकता, दीदी, मेरे रहते आप यहां नहीं रहेंगी. यह मेरा अंतिम फैसला है.’’

मेरे कुछ कहने से पहले ही देवयानी मेरा सामान एक जगह जमा करने लगी.

मैं उसे कैसे समझाती कि तुम्हारे घर जाने से मेरी समस्याएं और बढ़ जाएंगी. चैकआउट कर के मैं उस के साथ चल दी.

उस के घर जा कर भी मैं अनमनी सी रही. खाना खा कर सो गई. दोपहर बाद उठी तो ड्राइंगरूम से जानीपहचानी आवाज आ रही थी. झांक कर देखा तो कामेश सामने बैठे थे. उलटे पांव कमरे में आ गई. हृदय की धड़कन बढ़ गई. पता नहीं कामेश, देवयानी और महेश के सामने कैसा व्यवहार करेंगे. मेरा दिल डूबने लगा लेकिन मैं संभल गई. जब इतना कदम उठा लिया है तो उस का सामना करने का साहस भी होना चाहिए. पर कामेश को पता कैसे चला कि मैं यहां हूं. हो सकता है देवयानी ने बता दिया हो. कल शाम मुझे अकेला देख कर वह हैरान तो हो गई थी. मुझे विश्वास हो गया कि उसी का काम है. मुझे उस पर गुस्सा आने लगा. मुझे यहां से चले जाना चाहिए. सामान मेरा बंधा हुआ था. मैं बाहर जाने का रास्ता देखने लगी. तभी सामने कामेश आ गए. मैं मुंह मोड़ कर खड़ी हो गई. उस स्थिति का सामना करने के लिए तैयार थी, जो अभी आने वाली थी.

मैं ने महसूस किया. कामेश मेरे बिलकुल पीछे आ कर चुपचाप खड़े हो गए. मेरे कंधे पर हाथ रख कर कहने लगे, ‘‘अपने घर चलो दिव्या. तुम्हारे बिना घर घर ही नहीं लगता. तुम्हारे चले आने पर मुझे पता चला कि मैं तुम्हारे बिना अधूरा हूं. कहांकहां नहीं ढूंढ़ा तुम्हें. तुम्हें मुझ से कोई शिकायत थी तो कहा क्यों नहीं.’’

‘‘आप ने कभी मौका दिया मुझे. हमेशा ही मुझे चुप रहने को कहा. किस से शिकायत करती,’’ मैं ने पहली बार अपनी आवाज में गुस्सा लाते हुए कहा.

‘‘यह मेरी गलती थी. मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं, दिव्या. मैं ने सदैव अपने बारे में ही सोचा. तुम्हारे बारे में सोचा ही नहीं. तुम पर एकाधिकार समझा. व्यस्तता का लबादा ओढ़े, तुम से दूरदूर ही रहा. अपने अनुसार तुम को ढालने का प्रयत्न करता रहा. तुम्हारा अपना जीवन है, कभी सोचा ही नहीं. तुम चली आईं तो यह सब जाना. मैं ने जो अन्याय किया है मैं उस के लिए माफी मांगता हूं.’’

यह भी पढ़ें- दस्विदानिया

‘‘मैं कैसे विश्वास कर लूं कि आप जो कह रहे हैं वह सच है. सोच इतनी जल्दी तो नहीं बदल जाती.’’

‘‘तुम से दूर रह कर मेरी सोच बदल गई है दिव्या,’’ कहते हुए कामेश ने मेरा मुंह अपनी ओर फेर लिया. मैं ने उन की आंखों में तैरते हुए आंसू देखे. शायद वे आंसू पश्चात्ताप के थे. मैं धीरेधीरे पिघलने लगी थी.

कदम से कदम मिला कर चलने की चाह बलवती हो रही थी. ठगी जाऊंगी या कदम मिला कर चल सकूंगी, नहीं जानती. पर यह जो खुशी का क्षण आया है उसे नहीं जाने दूंगी.

राशनकार्ड की महिमा

रसोई गैस का सिलेंडर लेने के लिए राशनकार्ड जरूरी हो गया था. चूंकि जिंदा रहने के लिए भोजन अतिआवश्यक है, सो राजगोपालजी राशनकार्ड दफ्तर के चक्कर लगाने लगे. दफ्तर वालों ने आवेदन की औपचारिकता में उन्हें बुरी तरह उलझा दिया था. वे बिचौलियों के इर्दगिर्द घूमे, फिर भी काम न बना तो उन्होंने राशनकार्ड को ही अपने जीने का मकसद बना लिया और इसी धुन में लगे रहे.

‘‘साहब, सिलेंडर खाली हो गया है,’’ रसोईघर से रामकिशन के शब्द किसी फोन की घंटी की तरह मुझे चौंका गए.

हम ने एजेंसी को फोन खड़खड़ाया, ‘‘गैस सिलेंडर बुक करवाना है.’’

‘‘नंबर?’’ किसी मैडम की आवाज थी.

‘‘9242,’’ मैं ने भी ऐसे बोला जैसे फोन में नंबर पहले से ही फीड हो.

‘‘राजगोपालजी?’’

‘‘जी हां, देवीजी.’’

‘‘आप को अपना राशनकार्ड दिखाना होगा,’’ मधुर आवाज में मैडम बोलीं.

‘‘क…क्या?’’ हम हकलाए, ‘‘राशनकार्ड?’’

‘‘जी हां.’’

‘‘किस खुशी में?’’

‘‘बस, हमारी खुशी है. इसी खुशी में.’’

हम घबरा गए. यह तो नहले पे दहला मार रही है, ‘‘लेकिन वह तो मैं ने कभी बनवाया ही नहीं?’’

अब की बारी उन की थी, ‘‘क्या कहा?’’

‘‘हां. कभी बनवाया ही नहीं तो लाने का सवाल ही नहीं उठता.’’

‘‘कमाल है,’’ मैडमजी बोलीं, ‘‘अच्छा, ऐसा कीजिए, अपनी सिलेंडर बुक ले कर हमारी एजेंसी के दफ्तर में आ जाइए. पता जानते हैं न कि एजेंसी कहां है? बहुचरजी के पास.’’

‘‘जी हां, उस जगह को आबाद कर चुका हूं.’’

हम जब सिलेंडर बुक ले कर वहां पहुंचे तो मैडमजी ने हमेें घूरा और बोलीं, ‘‘आप ही राजगोपालजी हैं.’’

हम ने हां में गरदन हिलाई तो एक मोटा रजिस्टर हमारे सामने कर दिया गया.

‘‘इस में आप अपनी सिलेंडर बुक का नंबर लिखिए फिर यह भी लिखिए कि अगली बार राशनकार्ड दिखाऊंगा और यहां हस्ताक्षर कर दीजिए. इस बार हम आप का सिलेंडर बुक कर देते हैं लेकिन अगली बार राशनकार्ड दिखाना पड़ेगा.’’

‘‘लेकिन क्यों? यह सिलेंडर बुक देखिए. 1988 से मैं आप से सिलेंडर लेता आ रहा हूं तो अब की यह राशनकार्ड की आफत कैसे आ गई?’’

‘‘सर, ऊपर से आदेश आया है कि बिना राशनकार्ड देखे किसी को सिलेंडर न दिया जाए.’’

‘‘लेकिन मेरी समझ से तो राशन- कार्ड केवल गरीबों की मदद के लिए होता है ताकि उन्हें सरकारी रियायत से सस्ते खाद्य पदार्थ जैसे चावल, गेहूं, तेल, चीनी आदि मिल जाएं. मैं इस श्रेणी में नहीं आता. यहां बड़ौदा में कभी राशनकार्ड का उल्लेख नहीं हुआ. पासपोर्ट है, बिजली, टेलीफोन, हाउस टैक्स के बिल हैं, पैनकार्ड व ड्राइविंग लाइसेंस हैं. इन सब से ही हमारा काम चल जाता है.’’

‘‘अरे साहब, कई लोगों ने कईकई जाली कनेक्शन ले रखे हैं इसलिए सरकार को यह कदम उठाना पड़ा. कोई गैरकानूनी ढंग से तिपहिए में गैस लगा रहा है तो कोई मोटर में. कोई कईकई सिलेंडरों की ब्लैक कर रहा है.’’

‘‘अच्छा? तो हम बेचारे सीधेसादे पुरुष लोग पकड़ गए? कमाल है.’’

वे हंस पड़ीं.

‘‘यह तो बताइए कि यह कम्बख्त कार्ड बनता कहां है?’’

‘‘कुबेर भवन में.’’

‘‘ठीक,’’ कह कर हम ने स्कूटर दौड़ाया. बहू कुबेर भवन में ही 8वीं मंजिल पर काम करती है, यह सोच कर मन में तसल्ली मिली.

वैसे हमें अजनबियों से पूछताछ करने में कोई झिझक नहीं होती. अधिक से अधिक ‘न’ या ‘नहीं मालूम’ यही तो कोई कहेगा. झांपड़ तो नहीं मारेगा. और इसी बहाने कई बार नए मित्र भी बन जाते हैं.

जानकारी के बाद हम राशन कार्ड आफिस पहुंच गए. क्लर्क से आवेदनपत्र (फार्म) मांगा, मिल गया. फिर पूछा, ‘‘भैया, क्याक्या भरना है और क्याक्या प्रमाणपत्र इस के साथ देने हैं?’’

‘‘बिजली का बिल, पुराना राशन- कार्ड और उस में क्याक्या बदलना है, पता या प्राणियों की संख्या,’’ भैया एक सांस में बोल गया.

हम घबरा गए, ‘‘लेकिन मैं ने तो कभी राशनकार्ड बनवाया ही नहीं.’’

‘‘क्यों, कहां से आए हो?’’

‘‘बरेली, यू.पी. से.’’

‘‘तो वहां का राशनकार्ड लाओ,’’ भैया ने फरमाया.

‘‘अरे, वहां भी कभी बनवाया नहीं और वह तो बहुत पुरानी बात हो गई. बड़ौदा में 22 साल से रह रहा हूं. तो अब मैं बड़ौदा का ही रहने वाला हो गया.’’

उस ने हमें ऐसे घूरा जैसे हम कोई अजायबघर के जीव हों. फिर बोला, ‘‘तो फिर साहब से मिलो,’’ और दाईं तरफ इशारा किया.

हमारी भृकुटि तन गईं, ‘‘वहां तो कोई है ही नहीं?’’

‘‘साहब हर सोमवार को आते हैं और 11 से 2 बजे तक, तभी मिलो. आज गुरुवार है,’’ और हमें दरवाजा नापने का इशारा किया.

सोमवार को सवा 11 बजे पहुंचे तो देखा छोटे से दरवाजे के सामने करीब 60 लोग लाइन लगाए खड़े हैं. हम भी उन के पीछे खड़े हो गए. कुछ देर गिनती करते रहे और पाया कि एक प्राणी हर 4 मिनट में अंदर जाता है यानी हमारा नंबर 4 घंटे बाद आएगा. दिल टूट गया, कुछ तिकड़म लगाना पड़ेगा.

वहां से बाहर आए और मित्र सागरभाई को अपनी दुखभरी कहानी सुनाई. वे फोन पर बोले, ‘‘काटजू साहब, चिंता की कोई बात नहीं, सब पैसे बनाने के धंधे हैं. आप अपने कागज मुझे दे दीजिए. मैं अपने एक एजेंट मित्र से काम करवा दूंगा. 3 साल पहले मैं ने अपना भी राशनकार्ड ऐसे ही बनवाया था.’’

हम बड़े खुश हुए कि चलो, बला टली. मन ही मन कहा कि सागरभाई, दोस्त हो तो आप जैसा. जा कर उन्हें सब कागजों की एकएक प्रतिलिपि दे दी.

एक बात और, ‘एक हथियार काम न करे तो दूसरा तो काम करे,’ यह सोच कर अपने एक और मित्र गोबिंदभाई से भी संपर्क किया. उन्होंने तो अपने एक पुराने मामलतदार मित्र से मुलाकात भी करवा दी.

पटेल साहब बोले, ‘‘आप को कब तक राशनकार्र्ड चाहिए?’’

‘‘यही 8-10 दिन में.’’

वे बेफिक्री से बोले, ‘‘ठीक है, अपने सब कागजात दे दीजिएगा.’’

वापस लौटते समय गोबिंदभाई ने समझाया कि पटेल साहब को कुछ दक्षिणा भी देनी पड़ेगी और दक्षिणा समय पर निर्भर रहेगी, कम समय माने अधिक दक्षिणा. हम समझ गए, सिर हिला दिया.

2 दिन बाद हम ने फोन किया, ‘‘सागरभाई, मामला तय हो गया?’’

फोन पर रोनी आवाज सुनाई दी, ‘‘नहीं साहब, उस ने कहा है कि अब यह काम बहुत मुश्किल हो गया है. वह नहीं बनवा सकता. राशन विभाग के भाईलोग बहुत सख्त हो गए हैं, उस को घास भी नहीं डालते.’’

मन ही मन हम ने सागरभाई और उन के एजेंट को गाली देते हुए फोन रख दिया. यह दांव तो खाली गया.

अब हम पहुंचे पटेल साहब के यहां. उन की बहू घंटी सुनने पर बाहर निकली.

‘‘साहब हैं?’’ हम ने पूछा.

‘‘नहीं.’’

‘‘अरे, कहां गए?’’

‘‘भारगाम.’’

‘‘कब आएंगे?’’

‘‘5 दिन बाद.’’

हम ने फिर माथा पकड़ लिया. लगता है यह सोमवार भी गया. दर्देदिल लिए हुए गोबिंदभाई को मामला-ए-राशन कार्ड की रिपोर्ट दी. उन्होंने दिलासा दिया, ‘‘कोई बात नहीं काटजू साहब, 5 दिन बाद पटेल साहब आप का काम जरूर करवा देंगे.’’

हम ने घर की राह ली.

मंगलवार को फिर पटेल साहब के दर्शन हेतु निकल पड़े. अब की किस्मत से साहब घर पर ही थे.

‘‘साहब, मेरे राशनकार्ड का काम?’’

पटेल साहब ने दुखभरी मुद्रा बनाई, ‘‘काटजू साहब, 2-3 महीने लग जाएंगे. डिपार्टमेंट में कुछ अंदरूनी जांच चल रही है. मेरी समझ से आप खुद ही कार्ड के लिए जाएं तो ठीक होगा.’’

हम ने मन ही मन अपनेआप को कोसा और पटेल साहब को भी. बड़ा तीसमार खां बना फिरता था. कहता था, ‘कितने दिनों में कार्ड चाहिए?’ मेरे 2 सोमवारों का खून कर दिया. सोचा भीम और अर्जुन तो फेल हो गए, अब शेर की मांद में खुद ही जाना पड़ेगा और कोई चारा बचा ही नहीं था. चलो, इस को भी आजमा लिया जाए.

खैर, सोमवार को पौने 11 बजे राशनकार्ड के दफ्तर पहुंचे तो देखा लंबी लाइन लगी हुई है, जबकि दरवाजा बंद है, हम भी लाइन में लग गए. बुढ़ापे में समय की कोई तकलीफ नहीं और करना भी क्या है? हां, स्टैमिना अवश्य चाहिए, कहीं खड़ेखड़े दिल धड़कना न बंद कर दे.

गिनती की तो सामने 55 जवान व बूढ़े खड़े थे. अगर हरेक पर 3-3 मिनट लगता है तो ढाई या 3 घंटे लगेंगे. खैर, देखते हैं क्या होता है?

झोले से यह सोच कर किताब निकाली कि चलो, 2-3 अध्याय ही पढ़ लिए जाएं. वैसे भी हमारी आदत है कि जहां किसी काम के लिए बैठना या खड़े रहना पड़ेगा वहां हम कोई किताब जरूर ले जाते हैं, टाइम पास के लिए. अभी 3 पन्ने पढ़े ही थे कि दफ्तर खुला. आधे घंटे में 5 प्राणी अंदर घुसे. हम गम में डूब गए, अब क्या होगा? सामने वाले पुरुष ज्ञानी व दयालु निकले. पूछा तो उन्होंने सवाल किया, ‘‘आप को क्या करवाना है?’’

‘‘नया राशनकार्ड बनवाना है.’’

‘‘सौगंधपत्र बनवा लिया है?’’

‘‘यह क्या बला है.’’

वे हंसे (हमारे दुख पर), ‘‘अरे, ऐफिडेविट. इस के बिना कुछ नहीं होगा. आप इसे बनवा लीजिए.’’

‘‘बगल वाली इमारत में इस का दफ्तर है. वहां आवेदनपत्र भी मिल जाएगा और स्टैंपपेपर भी.’’

हम उस ओर भागे.

रास्ते में एक और सज्जन से पूछा, ‘‘सौगंधपत्र यहां कहां पर बनता है?’’

वे भी ज्ञानी व मार्गदर्शक निकले. बोले, ‘‘यहीं बनता था, किंतु गांधी- जयंती के बाद से अब नर्मदा भवन में बनता है.’’

वडोदरा शहर की खासीयत है कि सभी सरकारी आफिस, दोचार किलोमीटर के भीतर ही मिल जाते हैं. उन्हें धन्यवाद दे कर हम नर्मदा भवन भागे.

नर्मदा भवन में 3 देवियों ने हमारी बहुत सहायता की. एक सज्जन ने फार्म तो दे दिया किंतु कुबेर भवन जाने की सलाह दी. हम अब तक काफी अनुभव प्राप्त कर चुके थे. कुछ शंका हुई और पास खड़े चौकीदार की तरफ देखा. वह भी अनुभवप्राप्त प्राणी था उस ने अपने पास बुलाया फिर अंदर इशारा किया, ‘‘उस महिला से मिलो.’’

उस युवती ने फार्म भरवाया फिर बिजली बिल, पासपोर्ट की कापी इत्यादि नत्थी की और अंदर दाईं तरफ की मेज पर जाने को कहा.

वहां एक मुहर लगाई गई, रजिस्टर में कुछ लिखा गया और 11 नंबर का सिक्का दिया और कहा, ‘‘उस 11 नंबर के काउंटर पर जाइए, वहां आप का सब काम हो जाएगा.’’

11 नंबर काउंटर की कुमारी मुसकराई तो बड़ी भोली लगी. वह थी तो दुबलीपतली पर बहुत खूबसूरत थी. बोली, ‘‘कहिए?’’

‘‘पहले अपना नाम बताइए.’’

वह खिले चेहरे से बोली, ‘‘निकी.’’

‘‘आगे?’’

‘‘पाटिल.’’

‘‘कुछ खातीपीती नहीं हो क्या? देखो, हाथ की हड्डी भी उभरी हुई दिख रही है और उम्र तो 17 की होगी.’’

मुसकरा कर बोली, ‘‘अंकल, खाती बहुत हूं किंतु वजन नहीं बढ़ता, और 22 वर्ष की हूं.’’

‘‘पढ़ाई कितनी की, बी.कौम या 12वीं?’’

‘‘नहीं, कंप्यूटर साइंस में डिप्लोमा किया है.’’

‘‘और शादी?’’

उस ने सिर हिला दिया.

हम ने सोचा कि इसे अपने बेटे के लिए गांठ लें तो बहुत भाग्यवान समझेंगे.

अपने काम के बीच में बोल पड़ी, ‘‘क्या सोच रहे हैं, अंकल?’’

लगता है, हमारे मन के विचारों को उस ने पढ़ लिया था. सो बोला, ‘‘सोच रहा था कि तुम्हारी व मेरे बेटे की जोड़ी कैसी रहेगी? वह भी अविवाहित है. वैसे तुम मेरा काम पूरा करो नहीं तो बातों ही बातों में पूरा दिन बीत जाएगा.’’

उस ने कनखियों से हमें घूरा, आंखों से आश्चर्य जाहिर किया. सोचा होगा कि कैसे अंकल से पाला पड़ा है, काम के साथ रिश्ता भी ले आए. फिर कहा, ‘‘20 रुपए दीजिए, अंकल. यहां हस्ताक्षर कीजिए और सीधे खड़े रहिए. मुझे आप की फोटो खींचनी है, सौगंधपत्र पर जाएगी.’’

फोटो खींचने के बाद निकी ने भरा फार्म हमें थमाते हुए उप मामलतदार की तख्ती की तरफ इशारा किया कि वहां यह दे दीजिए. वे रजिस्टर में इसे दर्ज व हस्ताक्षर कर आप को दे देंगी.

उस को धन्यवाद दे हम आगे बढ़े.

कुछ ही देर में नर्मदा भवन का सारा काम समाप्त हुआ. सौगंधपत्र हमारे हाथ में था.

घड़ी में देखा तो साढ़े 12 बज चुके थे. सोचा, शायद आज ही काम बन जाए और हम कुबेर भवन जा पहुंचे.

देखा, भीड़ तो कम थी. करीब 20 प्राणी. हम भी उन्हीं में लग गए, 21वें. सामने एक जवान था. परिचय किया, ‘‘आप का नाम?’’

‘‘हितेनभाई.’’

हम ने कहा, ‘‘यार, जरा आगे जा कर पता लगा लो कि भीड़ कितनी रफ्तार से चल रही है और नए राशनकार्ड के लिए कुछ और झमेला यानी कुछ और कागजात तो नहीं चाहिए. मैं कतार में तुम्हारी जगह सुरक्षित रखता हूं.’’

हितेन मान गया और आगे दरियाफ्त कर के बदहवास हालत में वापस लौटा. बोला, ‘‘नया राशनकार्ड यहां नहीं भुतड़ी कचहरी में बनता है. यहां केवल पुराने कार्डों के नाम या बदले पते ठीक किए जाते हैं.’’

‘‘अच्छा, यह भूत की कचहरी है कहां?’’

‘‘मुझे नहीं मालूम.’’

हमारा यह वार्त्तालाप एक और सज्जन सुन रहे थे. बीच में आ गए, ‘‘मैं जानता हूं और मुझे भी वहीं जाना है. जुबली बाग यहां से करीब डेढ़ किलोमीटर दूर है.’’

हितेनभाई के पास मोटरसाइकिल थी, हमारे पास स्कूटर तो हम ने उस सज्जन से कहा, ‘‘चलिए, आप को ले चलते हैं. रास्ता बता दीजिएगा.’’

भुतड़ी कचहरी में केवल 4 लोग कतार में थे. हमारा नंबर आने पर अधिकारी बदतमीजी से बोला, ‘‘यह क्या है? आवेदनपत्र कहां है, ऐफिडेविट व मतदाता पहचानपत्र कहां है?’’

‘‘यह रहा आवेदनपत्र और यह ऐफिडेविट है. मतदाता पहचानपत्र खो गया.’’

‘‘उस के बिना कुछ नहीं होगा. वह लाओ. कहां से आए हो?’’

‘‘वैसे तो बरेली, यू.पी. का रहने वाला हूं लेकिन वडोदरा में 22 साल से रह रहा हूं. अभी तक राशनकार्ड की कभी कोई जरूरत नहीं पड़ी. इसलिए बनवाया नहीं था.’’

‘‘तो अब कौन सी जरूरत आन पड़ी है?’’

‘‘गैस सिलेंडर वाला राशनकार्ड दिखाने को कह रहा है.’’

उस ने हमारे सारे कागज वापस करते हुए कहा, ‘‘जाओ, मेरा समय बरबाद न करो. बाहर दाईं तरफ दरवाजे पर एक आदमी बैठा है. वह आप को सब समझा देगा कि क्याक्या लाना है.’’

हम निराश हो बाहर निकले. देखा हितेन भी मुंह लटकाए खड़ा था. उस को भी अधिकारी ने झिड़क दिया था. बाहर के आदमी से पूछा तो वह ज्ञानी निकला. हमारे कागजात देखे और सुझाव दिया.

‘‘यहां कुछ नहीं होगा. आप कुबेर भवन के नीचे कमरा नं. 23 में जाइए. वहीं सब काम होगा.’’

‘‘लेकिन वहां से तो हम आए हैं. और यहां उस अंदर के बाबू ने यह सब और मांग लिया. कहां से लाएंगे?’’

‘‘आप उन की परवा न कीजिए. जैसा मैं कहता हूं वैसा कीजिए.’’

वहां से हट कर हम उबल पड़े. ‘‘सच, हम भारतवासियों को एकदूसरे को तड़पाने व तड़पते देख खूब आनंद आता है. कभी कहते हैं यह लाओ, कभी कहते हैं वह लाओ.’’

हमारे समाज में पुरुषों को रोना वर्जित है, स्त्री होते तो दहाड़ मारमार कर रो लेते. गम में डूबे हुए जब कुबेर भवन पहुंचे तो देखा कमरा नंबर 23 बंद हो चुका था.

8वीं मंजिल पर बहू से जा कर मिले तो उस ने कहा, ‘‘पापा, अपने कागज मुझे दीजिए. मैं अपनी एक मित्र से पूछताछ करवाऊंगी. वह नीचे की पहली मंजिल पर काम करती है और ऐसे मामलों को निबटाती भी है.’’

हम बोले, ‘‘ठीक है, बेटी. कोशिश करो. 400-500 तक खर्च करने को मैं तैयार हूं.’’

2 दिन बाद बहू का फोन आया, ‘‘मैं अपनी दोस्त के साथ राशन अधिकारी से मिली थी. बड़ा बदतमीज आदमी है. पहले तो एकदम मना कर दिया. फिर जब मैं ने कहा कि मैं भी राज्य सरकार में काम करती हूं तब माना. उस का रेट 500 रुपए है. आप अगले सोमवार को आइएगा.’’

हम ने बहू को धन्यवाद दिया. विक्रम और बेताल की कहानी में विक्रम की तरह सोमवार को हम फिर दफ्तर पहुंचे. बहू को फोन मिलाया तो वह नीचे उतर कर आई और लाइन में हमें खड़े देख संतुष्ट हुई. बोली, ‘‘मेरी दोस्त की किसी करीबी रिश्तेदार की 2 दिन पहले मौत हो गई है. वह कई दिन नहीं आ पाएगी. अच्छा किया आप लाइन में लग गए.’’

कतार में करीब 25 लोग लगे थे. 40 मिनट में अपना नंबर आ गया. साहब के पास कागज का पुलिंदा रख चुपचाप खड़े हो गए. सब पन्नों पर उन्होंने एक निगाह डाली फिर कुछ कहे बिना हस्ताक्षर कर हमें बाहर की तरफ इशारा कर दिया.

बाहर गए. पावती पाने वालों की कतार लगी थी, यानी कागज व रुपए जमा कर रसीद लेना. इस कतार मेें हम घंटे भर तक धीरेधीरे सरकते रहे फिर आफिस के अंदर दाखिल हुए. 20 रुपए दिए, रसीद मिली और आदेश मिला कि 5 नवंबर को शाम 4 से 6 बजे के बीच कार्ड लेने आ जाना.

रसीद को पर्स में संभाल कर रखा (खरा सोना जो हो गया था) ऊपर भागे बहू को धन्यवाद देने. देखें, अब 5 नवंबर को क्याक्या गुल खिलते हैं.

5 नवंबर को राशनकार्ड मिल गया, आप को आश्चर्य हुआ न? हमें भी हो रहा है, आज तक.

 राज गोपाल काटजू  

अकाल्पनिक

रक्षाबंधन से एक रोज पहले ही मयंक को पहली तन्ख्वाह मिली थी. सो, पापामम्मी के उपहार के साथ ही उस ने मुंहबोली बहन चुन्नी दीदी के लिए सुंदर सी कलाई घड़ी खरीद ली.

‘‘सारे पैसे मेरे लिए इतनी महंगी घड़ी खरीदने में खर्च कर दिए या मम्मीपापा के लिए भी कुछ खरीदा,’’ चुन्नी ने घड़ी पहनने के बाद पूछा.

‘‘सब के लिए खरीदा है, दीदी, लेकिन अभी दिया नहीं है. शौपिंग करने और दोस्तों के साथ खाना खाने के बाद रात में बहुत देर से लौटा था. तब तक सब सो चुके थे. अभी मां ने जगा कर कहा कि आप आ गई हैं और राखी बांधने के लिए मेरा इंतजार कर रही हैं, फिर आप को जीजाजी के साथ उन की बहन के घर जाना है. सो, जल्दी से यहां आ गया, अब जा कर दूंगा.’’

‘‘अब तक तो तेरे पापा निकल गए होंगे राखी बंधवाने,’’ चुन्नी की मां ने कहा.

‘‘पापा तो कभी कहीं नहीं जाते राखी बंधवाने.’’

ये भी पढ़ें : भोर की एक नई किरण

‘‘तो उन के हाथ में राखी अपनेआप से बंध जाती है? हमेशा दिनभर तो राखी बांधे रहते हैं और उन्हीं की राखी देख कर तो तूने भी राखी बंधवाने की इतनी जिद की कि गीता बहन और अशोक जीजू को चुन्नी को तेरी बहन बनाना पड़ा.’’ चुन्नी की मम्मी श्यामा बोली.

‘‘तो इस में गलत क्या हुआ, श्यामा आंटी, इतनी अच्छी दीदी मिल गईं मुझे. अच्छा दीदी, आप को देर हो रही होगी, आप चलो, अगली बार आओ तो जरूर देखना कि मैं ने क्या कुछ खरीदा है, पहली तन्ख्वाह से,’’ मयंक ने कहा.

मयंक के साथ ही मांबेटी भी बाहर आ गईं. सामने के घर के बरामदे में खड़े अशोक की कलाई में राखी देख कर श्यामा बोली, ‘‘देख, बंधवा आए न तेरे पापा राखी.’’

‘‘इतनी जल्दी आप कहां से राखी बंधवा आए पापा?’’ मयंक ने हैरानी से पूछा.

‘‘पीछे वाले मंदिर के पुजारी बाबा से,’’ गीता फटाक से बोली.

मयंक को लगा कि अशोक ने कृतज्ञता से गीता की ओर देखा. ‘‘लेकिन पुजारी बाबा से क्यों?’’ मयंक ने पूछा.

ये भी पढ़ें : जिस्म का स्वाद

‘‘क्योंकि राखी के दिन अपनी बहन की याद में पुजारी बाबा को ही कुछ दे सकते हैं न,’’ गीता बोली. ‘‘तू नाश्ता करेगा कि श्यामा बहन ने खिला दिया?’’

‘‘खिला दिया और आप भी जो चाहो खिला देना मगर अभी तो देखो, मैं क्या लाया हूं आप के लिए,’’ मयंक लपक कर अपने कमरे में चला गया. लौटा तो उस के हाथ में उपहारों के पैकेट थे.

‘‘इस इलैक्ट्रिक शेवर ने तो हर महीने शेविंग का सामान खरीदने की आप की समस्या हल कर दी,’’ अपना हेयरड्रायर सहेजती हुई गीता बोली.

‘‘हां, लेकिन उस से बड़ी समस्या तो पुजारी बाबा का नाम ले कर तुम ने हल कर दी,’’ अशोक की बात सुन कर अपने कमरे में जाता मयंक ठिठक गया. उस ने मुड़ कर देखा, मम्मीपापा बहुत ही भावविह्वल हो कर एकदूसरे को देख रहे थे. उस ने टोकना ठीक नहीं समझा और चुपचाप अपने कमरे में चला गया. बात समझ में तो नहीं आई थी पर शीघ्र ही अपने नए खरीदे स्मार्टफोन में व्यस्त हो कर वह सब भूल गया.

एक रोज कंप्यूटर चेयरटेबल खरीदते  हुए शोरूम में बड़े आकर्षक  डबलबैड नजर आए. मम्मीपापा के कमरे में थे तो सिरहाने वाले पलंग मगर दोनों के बीच में छोटी मेज पर टेबललैंप और पत्रिकाएं वगैरा रखी रहती थीं. क्यों न मम्मीपापा के लिए आजकल के फैशन का डबलबैड और साइड टेबल खरीद ले. लेकिन डिजाइन पसंद करना मुश्किल हो गया. सो, उस ने मम्मीपापा को दिखाना बेहतर समझा. डबलबैड के ब्रोशर देखते ही गीता बौखला गई, ‘‘हमें हमारे पुराने पलंग ही पसंद हैं, हमें डबलवबल बैड नहीं चाहिए.’’

‘‘मगर मुझे तो घर में स्टाइलिश फर्नीचर चाहिए. आप लोग अपनी पसंद नहीं बताते तो न सही, मैं अपनी पसंद का बैडरूम सैट ले आऊंगा,’’ मयंक ने दृढ़स्वर में कहा.

गीता रोंआसी हो गई और सिटपिटाए से खड़े अशोक से बोली, ‘‘आप चुप क्यों हैं,

रोकिए न इसे डबलबैड लाने से. यह अगर डबलबैड ले आया तो हम में से एक को जमीन पर सोना पड़ेगा और आप जानते हैं कि जमीन पर से न आप आसानी से उठ सकते हैं और न मैं.’’

‘‘लेकिन किसी एक को जमीन पर सोने की मुसीबत क्या है?’’ मयंक ने झुंझला कर कहा, ‘‘पलंग इतना चौड़ा है कि आप दोनों के साथ मैं भी आराम से सो सकता हूं.’’

‘‘बात चौड़ाई की नहीं, खर्राटे लेने की मेरी आदत की है, मयंक. दूसरे पलंग पर भी तुम्हारी मां मेरे खर्राटे लेने की वजह से मुंहसिर लपेट कर सोती है. मेरे साथ एक कमरे में सोना तो उस की मजबूरी है, लेकिन एक पलंग पर सोना तो सजा हो जाएगी बेचारी के लिए. इतना जुल्म मत कर अपनी मां पर,’’ अशोक ने कातर स्वर में कहा.

ये भी पढ़ें – डर : क्यों मंजू के मन में नफरत जाग गई 

‘‘ठीक है, जैसी आप की मरजी,’’ कह कर मयंक मायूसी से अपने कमरे में चला गया और सोचने लगा कि बचपन में तो अकसर कभी मम्मी और कभी पापा के साथ सोता था और अभी कुछ महीने पहले अपने कमरे का एअरकंडीशनर खराब होने पर जब फर्श पर गद्दा डाल कर मम्मीपापा के कमरे में सोया था तो उसे तो पापा के खर्राटों की आवाज नहीं आई थी.

मम्मीपापा वैसे ही बहुत परेशान लग रहे थे, जिरह कर के उन्हें और व्यथित करना ठीक नहीं होगा. जान छिड़कते हैं उस पर मम्मीपापा. मम्मी के लिए तो उस की खुशी ही सबकुछ है. ऐसे में उसे भी उन की खुशी का खयाल रखना चाहिए. उस के दिमाग में एक खयाल कौंधा, अगर मम्मीपापा को आईपैड दिलवा दे तो वे फेसबुक पर अपने पुराने दोस्तों व रिश्तेदारों को ढूंढ़ कर बहुत खुश होंगे.

हिमाचल में रहने वाले मम्मीपापा घर वालों की मरजी के बगैर भाग कर शादी कर के, दोस्तों की मदद से अहमदाबाद में बस गए थे. न कभी स्वयं घर वालों से मिलने गए और न ही उन लोगों ने संपर्क करने की कोशिश की. वैसे तो मम्मीपापा एकदूसरे के साथ अपने घरसंसार में सर्वथा सुखी लगते थे, मयंक के सौफ्टवेयर इंजीनियर बन जाने के बाद पूरी तरह संतुष्ट भी. फिर भी गाहेबगाहे अपनों की याद तो आती ही होगी.

‘‘क्यों भूले अतीत को याद करवाना चाहता है?’’ गीता ने आईपैड देख कर चिढ़े स्वर में कहा, ‘‘मुझे गड़े मुर्दे उखाड़ने का शौक नहीं है.’’

‘‘शौक तो मुझे भी नहीं है लेकिन जब मयंक इतने चाव से आईपैड लाया है तो मैं भी उतने ही शौक से उस का उपयोग करूंगा,’’ अशोक ने कहा.

‘‘खुशी से करो, मगर मुझे कोई भूलाबिसरा चेहरा मत दिखाना,’’ गीता ने जैसे याचना की.

‘‘लगता है मम्मी को बहुत कटु अनुभव हुए हैं?’’ मयंक ने अशोक से पूछा.

‘‘हां बेटा, बहुत संत्रास झेला है बेचारी ने,’’ अशोक ने आह भर कर कहा.

‘‘और आप ने, पापा?’’

‘‘मैं ने जो भी किया, स्वेच्छा से किया, घर वाले जरूर छूटे लेकिन उन से भी अधिक स्नेहशील मित्र और सब से बढ़ कर तुम्हारे जैसा प्यारा बेटा मिल गया. सो, मुझे तो जिंदगी से कोई शिकायत नहीं है,’’ अशोक ने मुसकरा कर कहा.

कुछ समय बाद मयंक की, अपनी सहकर्मी सेजल मेहता में दिलचस्पी देख कर गीता और अशोक स्वयं मयंक के लिए सेजल का हाथ मांगने उस के घर गए.

‘‘भले ही हम हिमाचल के हैं पर वर्षों से यहां रह रहे हैं, मयंक का तो जन्म ही यहीं हुआ है. सो, हमारा रहनसहन आप लोगों जैसा ही है, सेजल को हमारे घर में कोई तकलीफ नहीं होगी, जयंतीभाई,’’ अशोक ने कहा.

‘‘सेजल की हमें फिक्र नहीं है, वह अपने को किसी भी परिवेश में ढाल सकती है,’’ जयंतीभाई मेहता ने कहा. ‘‘चिंता है तो बस उस के दादादादी की, अपनी परंपराओं को ले कर दोनों बहुत कट्टर हैं. हां, अगर शादी उन के बताए रीतिरिवाज के अनुसार होती है तो वे इस रिश्ते के लिए मना नहीं करेंगे.’’

‘‘वैसे तो हम कोई रीतिरिवाज नहीं करने वाले थे, पर सेजल की दादी की खुशी के लिए जैसा आप कहेंगे, कर लेंगे,’’ गीता ने सहजता से कहा, ‘‘आप बस जल्दी से शादी की तारीख तय कर के हमें बता दीजिए कि हमें क्या करना है.’’

सब सुनने के बाद मयंक ने कहा, ‘‘यह आप ने क्या कह दिया, मम्मी, अब तो उन के रिवाज के अनुसार, सेजल की मां, दादी, नानी सब को मेरी नाक पकड़ कर मेरा दम घोंटने का लाइसैंस मिल गया.’’

गीता हंसने लगी, ‘‘सेजल के परिवार से संबंध जोड़ने के बाद उन के तौरतरीकों और बुजुर्गों का सम्मान करना तुम्हारा ही नहीं, हमारा भी कर्तव्य है.’’

गीता बड़े उत्साह से शादी की तैयारियां करने लगी. अशोक भी उतने ही हर्षोल्लास से उस का साथ दे रहा था.

शादी से कुछ रोज पहले, मेहता दंपत्ती उन के घर आए.

ये भी पढ़ें – बहू : कैसे शांत हुई शाहिदा के बदन की गर्मी 

‘‘शादी से पहले हमारे यहां हवन करने का रिवाज है, जिस में आप का आना अनिवार्य है,’’ जयंतीभाई ने कहा, ‘‘आप को रविवार को जब भी आने में सुविधा हो, बता दें, हम उसी समय हवन का आयोजन कर लेंगे. वैसे हवन में अधिक समय नहीं लगेगा.’’

‘‘जितना लगेगा, लगने दीजिए और जो समय सेजल की दादी को हवन के लिए उपयुक्त लगता है, उसी समय  करिए,’’ गीता, अशोक के बोलने से पहले ही बोल पड़ी.

‘‘बा, मेरा मतलब है मां तो हमेशा हवन ब्रह्यबेला में यानी ब्रैकफास्ट से पहले ही करवाती हैं.’’ जयंतीभाई ने जल्दी से पत्नी की बात काटी, कहा, ‘‘ऐसा जरूरी नहीं है, भावना, गोधूलि बेला में भी हवन करते हैं.’’

‘‘सवाल करने का नहीं, बा के चाहने का है. सो, वे जिस समय चाहेंगी और जैसा करने को कहेंगी, हम सहर्ष वैसा ही करेंगे,’’ गीता ने आश्वासन दिया.

‘‘बस, हम दोनों के साथ बैठ कर आप को भी हवन करना होगा. बच्चों के मंगल भविष्य के लिए दोनों के मातापिता गठजोड़े में बैठ कर यह हवन करते हैं,’’ भावना ने कहा.

गीता के चेहरे का रंग उड़ गया और वह चाय लाने के बहाने रसोई में चली गई. जब वह चाय ले कर आई तो सहज हो चुकी थी. उस ने भावना से पूछा कि और कितनी रस्मों में वर के मातापिता को शामिल होना होगा?

‘‘वरमाला को छोड़ कर, छोटीमोटी सभी रस्मों में आप को और हमें बराबर शामिल होना पड़ेगा?’’ भावना हंसी, ‘‘अच्छा है न, कुछ देर को ही सही, भागदौड़ से तो छुट्टी मिलेगी.’’

‘‘दोनों पतिपत्नी का एकसाथ बैठना जरूरी होगा?’’ गीता ने पूछा.

‘‘रस्मों के लिए तो होता ही है,’’ भावना ने जवाब दिया.

‘‘वैसा तो हिमाचल में भी होता है,’’ अशोक ने जोड़ा, ‘‘अगर वरवधू के मातापिता में से एक न हो तो विवाह की रस्में किसी अन्य जोड़े चाचाचाची वगैरा से करवाई जाती हैं.’’

‘‘बहनबहनोई से भी करवा सकते हैं?’’ गीता ने पूछा.

‘‘हां, किसी से भी, जिसे वर या वधू का परिवार आदरणीय समझता हो,’’ भावना बोली.

मयंक को लगा कि गीता ने जैसे राहत की सांस ली है. मेहता दंपती के जाने के बाद गीता ने अशोक को बैडरूम में बुलाया और दरवाजा बंद कर लिया. मयंक को अटपटा तो लगा पर उस ने दरवाजा खटखटाना ठीक नहीं समझा. कुछ देर के बाद दोनों बाहर आ गए और गीता फोन पर नंबर मिलाने लगी.

‘‘हैलो, चुन्नी… हां, मैं ठीक हूं… अभी तुम और प्रमोदजी घर पर हो, हम

मिलना चाह रहे हैं, तुम्हारे भाई की शादी है. भई, बगैर मिले कैसे काम चलेगा… यह तो बड़ी अच्छी बात है… मगर कितनी भी देर हो जाए आना जरूर, बहुत जरूरी बात करनी है.’’ फोन रख कर गीता अशोक की ओर मुड़ी, ‘‘चुन्नी और प्रमोद दोस्तों के साथ बाहर खाना खाने जा रहे हैं, लौटते हुए यहां आएंगे.’’

‘‘ऐसी क्या जरूरी बात करनी है दीदी से जिस के लिए उन्हें आज ही आना पड़ेगा?’’ मयंक ने पूछा.

गीता और अशोक ने एकदूसरे की ओर देखा. ‘‘हम चाहते हैं कि तुम्हारे विवाह की सब रस्में तुम्हारी चुन्नी दीदी और प्रमोद जीजाजी निबाहें ताकि मैं और गीता मेहमानों की यथोचित आवभगत कर सकें,’’ अशोक ने कहा.

‘‘मेहमानों की देखभाल करने को मेरे बहुत दोस्त हैं और दीदीजीजा भी. आप दोनों की जो भूमिका है यानी मातापिता वाली, आप लोग बस वही निबाहेंगे,’’ मयंक ने दृढ़ स्वर में कहा.

‘‘उस में कई बार जमीन पर बैठना पड़ता है जो अपने से नहीं होता,’’ गीता ने कहा.

‘‘जमीन पर बैठना जरूरी नहीं है, चौकियां रखवा देंगे कुशन वाली.’’

‘‘ये करवा देंगे वो करवा देंगे से बेहतर है चुन्नी और प्रमोद से रस्में करवा ले,’’ गीता ने बात काटी. ‘‘तेरी चाहत देख कर हम बगैर तेरे कुछ कहे सेजल से तेरी शादी करवा रहे हैं न, अब तू चुपचाप जैसे हम चाहते हैं वैसे शादी करवा ले.’’

‘‘कमाल करती हैं आप भी, अपने मांबाप के रहते मुंहबोली बहनबहनोई से मातापिता वाली रस्में कैसे करवा लूं्?’’ मयंक ने झल्ला कर पूछा.

‘‘अरे बेटा, ये रस्मेंवस्में सेजल की दादी को खुश करने को हैं, हम कहां मानते हैं यह सब,’’ अशोक ने कहा.

‘‘अच्छा? पुजारी बाबा से राखी किसे खुश करने को बंधवाते हैं?’’ मयंक ने व्यंग्य से पूछा और आगे कहा, ‘‘मैं अब बच्चा नहीं रहा पापा, अच्छी तरह समझ रहा हूं कि आप दोनों मुझ से कुछ छिपा रहे हैं. आप को बताने को मजबूर नहीं करूंगा लेकिन एक बात समझ लीजिए, अपनों का हक मैं मुंहबोली बहन को कभी नहीं दूंगा.’’

‘‘अब बात जब अपनों और मुंहबोले रिश्ते पर आ गई है, गीता, तो हमें मयंक को असलियत भी बता देनी चाहिए,’’ अशोक मयंक की ओर मुड़ा, ‘‘मैं भी तुम्हारा अपना नहीं. मुंहबोला पापा, बल्कि मामा हूं. गीता मेरी मुंहबोली बहन है. मैं किसी पुजारी बाबा से नहीं, गीता से राखी बंधवाता हूं. पूरी कहानी सुनना चाहोगे?’’

स्तब्ध खड़े मयंक ने सहमति से सिर हिलाया.

‘‘मैं और गीता पड़ोसी थे. हमारी कोईर् बहन नहीं थी, इसलिए मैं और मेरा छोटा भाई गीता से राखी बंधवाते थे. अलग घरों में रहते हुए भी एक ही परिवार के सदस्य जैसे थे हम. जब मैं चंडीगढ़ में इंजीनियरिंग कर रहा था तो मेरे कहने पर और मेरे भरोसे गीता के घर वालों ने इसे भी चंडीगढ़ पढ़ने के लिए भेज दिया. वहां यह रहती तो गर्र्ल्स होस्टल में थी लेकिन लोकल गार्जियन होने के नाते मैं इसे छुट्टी वाले दिन बाहर ले जाता था.

‘‘मेरा रूममेट नाहर सिंह राजस्थान के किसी रजवाड़े परिवार से था, बहुत ही शालीन और सौम्य, इसलिए मैं ने गीता से उस का परिचय करवा दिया. कब और कैसे दोनों में प्यार हुआ, कब दोनों ने मंदिर में शादी कर के पतिपत्नी का रिश्ता बना लिया, मुझे नहीं मालूम. जब मैं एमबीए के लिए अहमदाबाद आया तो गीता एक सहेली के घर पर रह कर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रही थी. नाहर चंडीगढ़ में ही मार्केटिंग का कोर्स कर रहा था.

‘‘मुझे होस्टल में जगह नहीं मिली थी और मैं एक दोस्त के घर पर रहता था. अचानक गीता मुझे ढूंढ़ती हुई वहां आ गई. उस ने जो बताया उस का सारांश यह था कि उस ने और नाहर ने मंदिर में शादी कर ली थी और उस के गर्भवती होते ही नाहर उसे यह आश्वासन दे कर घर गया था कि वह इमोशनल ब्लैकमेल कर के अपनी मां को मना लेगा और फिर सबकुछ अशोक को बता कर अपने घर वालों को सूचित कर देना.

‘‘उसे गए कई सप्ताह हो गए थे और ढीले कपड़े पहनने के बावजूद भी बढ़ता पेट दिखने लगा था. दिल्ली में कुछ हफ्तों की कोचिंग लेने के बहाने उस ने घर से पैसे मंगवाए थे और मेरे पास आ गई थी. मैं और गीता नाहर को ढूंढ़ते हुए बीकानेर पहुंचे. नाहर का घर तो मिल गया मगर नाहर नहीं, वह अपने साले के साथ शिकार पर गया हुआ था. घर पर उस की पत्नी थी. सुंदर और सुसंस्कृत, पूछने पर कि नाहर की शादी कब हुई, उस ने बताया कि चंडीगढ़ जाने से पहले ही हो गईर् थी. नाहर के आने का इंतजार किए बगैर हम वापस अहमदाबाद आ गए.

‘‘समय अधिक हो जाने के कारण न तो गीता का गर्भपात हो सकता था और न ही वह घर जा सकती थी. मैं उस से शादी करने और बच्चे को अपना नाम देने को तैयार था. लेकिन न तो यह रिश्ता गीता और मेरे घर वालों को मंजूर होता न ही गीता अपने राखीभाई यानी मुझ को पति मानने को तैयार थी.

‘‘नाहर से गीता का परिचय मैं ने ही करवाया था, सो दोनों के बीच जो हुआ, उस के लिए कुछ हद तक मैं भी जिम्मेदार था. सो, मैं ने निर्णय लिया कि मैं गीता से शादी तो करूंगा, उस के बच्चे को अपना नाम भी दूंगा लेकिन भाईबहन के रिश्ते की गरिमा निबाहते हुए दुनिया के लिए हम पतिपत्नी होंगे, मगर एकदूसरे के लिए भाईबहन. इतने साल निष्ठापूर्वक भाईबहन का रिश्ता निबाहने के बाद गीता नहीं चाहती कि अब वह गठजोड़ा वगैरा करवा कर इस सात्विक रिश्ते को झुठलाए. मैं समझता हूं कि हमें उस की भावनाओं की कद्र करनी चाहिए.’’

‘‘जैसा आप कहें,’’ मयंक ने भर्राए स्वर में कहा, ‘‘आप ने जो किया है, पापा, वह अकाल्पनिक है, जो कोई सामान्य व्यक्ति नहीं महापुरुष ही कर सकता है.’’

कुछ देर बाद वह लौटा और बोला, ‘‘पापा, मैं सेजल की दादी से बता कर आता हूं. हम दोनों अदालत में शादी करेंगे और फिर शानदार रिसैप्शन आप दे सकते हैं. दादी को सेजल ने कैसे बताया, क्या बताया, मुझे नहीं मालूम. पर आप की बात सुन कर वह तुरंत तैयार हो गई.’’

गीता और अशोक ने एकदूसरे को देखा. उन के बेटे ने उन की इज्जत रख ली.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें