चरित्र- भाग 2

वह मणिकांत को छोटे भाई की तरह स्नेह करने लगी थी. मणिकांत के मुंह से भी अब उस के लिए मैडम की जगह दीदी संबोधन निकलने लगा था जिसे सुन कर मधु का मन बड़ी बहन के बड़प्पन से फूल उठता. सुमित भी खुश था क्योंकि अब उस के देर से लौटने पर भी मधु खुशी मन से उस का स्वागत करती थी. वरना पहले तो वह शिकायतों का अंबार लगा देती थी. लेकिन आश्चर्य की बात थी कि इतने लंबे समय में भी सुमित और मणिकांत का अभी तक आमनासामना नहीं हुआ था. कारण, एक तो वह छुट्टी वाले दिन नहीं आता था. दूसरे, वह कभी देर रात तक नहीं रुकता था.

सुमित को मणिकांत से मिलवाने के लिए मधु ने एक रविवार मणिकांत को लंच के समय आने को कहा. नियत समय पर मणिकांत तो पहुंच गया लेकिन आफिस से जरूरी फोन आ जाने के कारण सुमित उस के आने से पहले ही निकल गए. देर तक इंतजार कर आखिर मणिकांत बिना मिले ही चला गया जिस का मधु को भी बहुत अफसोस रहा.

इस घटना के कुछ दिन बाद मधु एक दिन कालिज पहुंची तो उसे लगा कि आज कालिज की फिजा कुछ बदली- बदली सी है. विद्यार्थी से ले कर साथी अध्यापक तक उसे विचित्र नजरों से घूर रहे थे. किसी अनहोनी की आशंका से पीडि़त मधु स्टाफरूम में जा कर बैठी ही थी कि एक चपरासी ने आ कर सूचित किया कि मैडम, प्रिंसिपल साहब आप को बुला रहे हैं. अनमनी सी वह चुपचाप उस के पीछेपीछे चल दी.

‘‘मुझे समझ नहीं आ रहा है कि आप जैसी जिम्मेदार और गंभीर व्यक्तित्व वाली प्रवक्ता ने इतना घटिया कदम क्यों उठाया?’’ बिना किसी भूमिका के प्रिंसिपल ने अपनी बात कह दी.

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‘‘जी?’’ मधु बौखला उठी, ‘‘आप कहना क्या चाहते हैं?’’

‘‘कालिज के एक अदने से चपरासी मणिकांत के संग नाजायज संबंध रखते हुए आप को शरम नहीं आई? विद्यार्थियों के सम्मुख यह कैसा आदर्श प्रस्तुत कर रही हैं आप?’’

‘‘आप होश में तो हैं? इतना गंदा आरोप लगाने से पहले आप ने कुछ सोचा तो होता,’’ क्रोध के आवेश में मधु थरथर कांप रही थी.

‘‘पूरी तहकीकात करने के बाद ही मैं आप से रूबरू हुआ हूं. आप के साथी अध्यापकों और विद्यार्थियों ने कई बार आप दोनों को अकेले बातचीत करते भी देखा है.’’

‘‘क्या किसी से बात करना गुनाह है?’’

‘‘आप के पड़ोसियों ने भी पूछताछ में बताया है कि वह अकसर आप के यहां आता है और आप के पति की गैरमौजूदगी में काफी वक्त वहां गुजारता है.’’

‘‘हां, तो इस से आप जो आरोप लगा रहे हैं वह तो सिद्ध नहीं होता. मणि मेरे छोटे भाई की तरह है और हम दोनों बहनभाई की तरह ही एकदूसरे का खयाल रखते हैं,’’ मधु गुस्से में बोली, ‘‘आप मणिकांत को बुलवाइए. अभी दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा.’’

‘‘वह आज कालिज नहीं आया है. घर पर भी नहीं मिला. शायद भेद खुल जाने के भय से शहर छोड़ कर भाग गया है.’’

‘‘जब कोई भेद है ही नहीं तो खुलेगा क्या? हमारा रिश्ता शीशे की तरह पाकसाफ है. मेरे पति को भी मुझ पर पूरा विश्वास है. आज तक हमारे संबंधों को ले कर उन्होंने कभी कोई शक नहीं किया.’’

प्रिंसिपल मधु को ऐसे देखने लगे मानो सामने कोई पागल खड़ा हो.

‘‘क्या आप नहीं जानतीं कि आप पर चरित्रहीन होने का आरोप आप के पति ने ही लगाया है?’’

‘‘क्या?’’ मधु के लिए यह दूसरा बड़ा आघात था.

‘‘वह आप से तलाक चाहते हैं,’’ प्रिंसिपल साहब बोले, ‘‘इसी बारे में साक्ष्य जुटाने सुमितजी कल कालिज आए थे. आप तब तक घर जा चुकी थीं. उन्होंने मणिकांत से आप के अवैध संबंधों के बारे में पूछताछ की. आप की चरित्रहीनता विद्यार्थियों पर गलत प्रभाव डाले, इस से पहले मैं चाहूंगा कि आप त्यागपत्र दे दें.’’

मधु किंकर्तव्यविमूढ़ बैठी रही. उसे गहरा मानसिक आघात लगा था.

‘‘मैं आप की मनोदशा समझ रहा हूं पर मजबूर हूं. अब आप जा सकती हैं.’’

लड़खड़ाते कदमों से मधु कैसे कालिज से निकली और कैसे घर पहुंची उसे खुद होश न था. उस की दुनिया उजड़ चुकी थी. अपने केबिन में बैठ कर कंपनी की उन्नति के लिए स्ट्रेटजी रचने वाला उस का पति उस के खिलाफ इतनी बड़ी स्ट्रेटजी रचता रहा और उसे भनक तक नहीं लगी. लेकिन सुमित ने यह सब किया क्यों? क्या मणिकांत उसी का आदमी था? सोचसोच कर मधु का भेजा घूम रहा था.

लाइब्रेरी और आफिस आदि में फोन से पूछताछ करने पर मधु को पता चला कि किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के सुमित साहब ने उसे कालिज लाइब्रेरी में लगवाया था. मधु का अगला दिन भी आंसू बहाने और तहकीकात करने में बीत गया. न मणिकांत मिला और न सुमित ही घर लौटे. सुमित के मोबाइल पर घंटी जाती रहती और फिर फोन कट जाता.

मधु की भूखप्यास गायब हो चुकी थी. आंखों से नींद उड़ चुकी थी. वह छत की ओर टकटकी लगाए लेटी थी. तभी दरवाजे पर ठकठक हुई.

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‘जरूर सुमित होंगे,’ सोच कर मधु ने लपक कर दरवाजा खोला. लेकिन सामने मणिकांत को देख वह एकबारगी स्तब्ध रह गई. फिर उस का कालर पकड़ कर 2-3 थप्पड़ जमा दिए.

New Year 2022- नई जिंदगी- भाग 2: क्यों सुमित्रा डरी थी

लेखक-अरुणा त्रिपाठी

कल्पना ड्यूटी से आने के बाद औंधेमुंह बिस्तर पर लेट गई. छोटी बहन खाना खाने के लिए 2 बार बुलाने आई पर हर बार उसे डांट कर भगा दिया. सुमित्रा खुद आईं और बेटी की पीठ पर हाथ फेरते हुए बडे़ प्यार से पूछा, ‘‘क्या बात है बेटी, खाना ठंडा हो रहा है?’’

कल्पना उठ कर बैठ गई. उस के रोंआसे चेहरे को देख कर सुमित्रा भांप गई कि जरूर कुछ गड़बड़ है. उन्होंने पुचकारते हुए कहा, ‘‘बहादुर बच्चे दुखी नहीं होते. जरूर कुछ आफिस में किसी से कहासुनी हो गई होगी, क्यों?’’

‘‘वह चपरासी, दो टके का आदमी मुझ से कहता है कि मेरी औकात क्या है…’’ कल्पना रो पड़ी.

‘‘वजह?’’ सुमित्रा ने धीरे से पूछा.

‘‘यह सब इस कारण क्योंकि वह मुझ से ज्यादा तनख्वाह पाता है. एक सिपाही की कुछ हैसियत नहीं होती, मां.’’

‘‘ज्यादा तनख्वाह पाता है तो उस की उम्र भी तुम से दोगुनी होगी. इस में इतनी हीनभावना पालने की क्या जरूरत…’’

मां के कहे को अनसुना करते हुए कल्पना बीच में बोली, ‘‘सारे दिन हाथ में डंडा घुमाओ या फिर सलाम ठोंको. इस के अलावा सिपाही का कोई काम नहीं. किसी ताकतवर अपराधी को पकड़ लो तो उलटे आफत. किसी की शिकायत अधिकारी से करने जाओ तो वह ऐसे देखता है मानो वह बहुत बड़ा एहसान कर रहा हो और फिर इस की भी कीमत मांगता है. तुम से क्या बताऊं, मां, इन अधिकारियों के कारण ही तो मैं…’’

आवेश में कहतेकहते कल्पना की जबान एकदम से रुक गई फिर चिंतित स्वर में बोली, ‘‘जीनेखाने की कीमत चुकानी पड़ती है. तुम जाओ मां, मैं आज कुछ भी नहीं खाऊंगी. मुझे भूख नहीं है.’’

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कहते हैं न कि चोर जब तक पकड़ा नहीं जाता चोर नहीं कहलाता. लोग गलत काम करने से उतना नहीं डरते जितना समाज में होने वाली बदनामी से डरते हैं. समाज के सामने यदि सबकुछ ढकाछिपा है तो सब ठीक. अपनी नजर में अपनी इज्जत की कोई परवा नहीं करता. सुमित्रा अपनी बेटी के दफ्तर व वहां के काम के ढंग से वाकिफ थीं इसलिए उन्होंने निष्कर्ष यही निकाला कि बेटी सयानी है, उस की जितनी जल्दी हो सके शादी कर देनी चाहिए.

सुमित्रा को अब किसी सहारे की जरूरत नहीं थी क्योंकि उन की अपनी दुकान अच्छी चलने लगी थी. बेटी अपने घर चली जाए तो वह एक जिम्मेदारी से छुटकारा पा सकें, यही सोच कर उन्होंने कुछ लोगों से कल्पना के विवाह की चर्चा की. चूंकि घर की आर्थिक स्थिति ठीक होने के बाद वे भी अब सुखदुख के साथी बने खडे़ थे जो तंगी के समय उस के घर की ओर देखते भी नहीं थे. अब खतरा नहीं था कि सुमित्रा अपना दुखड़ा सुना कर उन से अपने लिए कुछ उम्मीद कर सकती हैं. अब कुछ देने की स्थिति में भी वह थीं.

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सुमित्रा के बडे़ भाई एक रिश्ता ले कर आए थे. अच्छे खातापीता परिवार था. जमीनजायदाद काफी थी. लड़के के पिता कसबे के प्रतिष्ठित व्यक्तियों में थे और उन की राजनीतिक पहुंच थी. कल्पना की सुंदरता से प्रभावित हो कर वह यह शादी 1 रुपए में करना चाहते थे. दहेज न ले कर वह चाहते थे लाखों लोगों की वाहवाही व प्रचार, क्योंकि उन की नजर अगले विधानसभा चुनाव पर टिकी थी और सुमित्रा जैसी विधवा दर्जी की सिपाही बेटी के साथ अपने बेरोजगार बेटे का विवाह कर वह न केवल एक विधवा बेसहारा को धन्य कर देना चाहते थे बल्कि उस पूरे इलाके में वाहवाही पाना चाहते थे.

कल्पना का विवाह हो गया. सुमित्रा ने राहत की सांस ली. बेटी के पांव पूज वह अपने को धन्य मान रही थीं. बेटी को विदा करते समय सभी बड़ीबूढ़ी व खुद सुमित्रा उसे समझा रही थीं कि अब वही तुम्हारा घर है. सुख मिले या दुख सब चुपचाप सहना. मां के घर से बेटी की डोली उठती है और पति के घर से अर्थी.

कल्पना की सुहागरात थी. फूलों से महकते कमरे में एक विशेष मादकता बिखरी थी. वह डरीसहमी सेज पर बैठी थी. तमाम कुशंकाओं से उस का जी घबरा रहा था. एक तरफ खुशी तो दूसरी तरफ भय से शरीर में विचित्र संवेदना हो रही थी. नईनवेली दुलहन जैसी उत्तेजना के स्थान पर आशंकित उस का मन उस सेज से उठ कर भाग जाने को कर रहा था. वह अजीब पसोपेश में पड़ी थी कि उस के पति प्रमेश ने कमरे में प्रवेश किया. वह बिस्तर पर सिकुड़ कर बैठ गई और उस का दिल जोर से धड़कने लगा. चेहरे पर रक्तप्रवाह बढ़ जाने से वह रक्तिम हो उठा था. इतने खूबसूरत तराशे चेहरे पर पसीने की बूंदें फफोलों की तरह जान पड़ रही थीं.

प्रमेश ने जैसे ही घूंघट उठाया और दोनों की नजरें मिलीं वह सकते में आ गया. उस का हाथ पीछे हट गया. उस ने कल्पना को परे ढकेलते हुए कहा, ‘‘ऐसा लगता है हम पहले भी कहीं मिल चुके  हैं.’’

‘‘मुझे याद नहीं,’’ कल्पना ने धीमे स्वर में कहा.

क्रोध के मारे प्रमेश की मांसपेशियां तन गईं. उस के माथे पर बल पड़ गए और होंठ व नथुने फड़कने लगे. शरीर कांपने से वह उत्तेजित हो कर बोला, ‘‘तुम झूठ बोल रही हो, तुम्हें सब अच्छी तरह से याद है.’’

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कल्पना को जिस बात का भय था वही हुआ. प्रमेश के हावभाव को देखते हुए वह अब अपने को संयत कर चुकी थी. आने वाले आंधी, तूफान व बाढ़ से सामना करने की शक्ति उस में आ गई थी. वह इस सच को जान गई थी कि अब उसे सच के धरातल पर सबकुछ सहना, झेलना व पाना था.

New Year 2022: नई जिंदगी- भाग 4: क्यों सुमित्रा डरी थी

लेखक- अरुणा त्रिपाठी

कल्पना किंकर्तव्यविमूढ़ हो थोड़ी देर खड़ी सोचती रही कि संभव है प्रमेश उसे माफ कर दे. एक नई ईमानदार जिंदगी जीने का संकल्प ले एकदूसरे के दोषों को भुला दे तो दूसरे की निगाह में गिरने से भी बच जाएंगे और उसे तो नवजीवन ही मिल जाएगा. वह सारा जीवन प्रमेश की दासी बन कर काट देगी. इसी मनमंथन में डूबी थी कि बाहर नातेरिश्तेदारों की हलचल सुनाई पड़ने लगी.

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कल्पना के मामा रस्मोरिवाज के अनुसार उसे विदा करा ले गए. घर पहुंच कर कल्पना के मामा सुमित्रा से बोले, ‘‘दीदी, कल्पना ने तो सब का मन मोह लिया है. सब ने बडे़ प्रेम से इसे विदा किया. मेरे स्वागत- सत्कार में भी कोई कमी नहीं रखी. पैसे का घमंड उन्हें छू नहीं सका है. क्यों कल्पना बेटी, मैं गलत तो नहीं कह रहा?’’

कल्पना मानो नींद से जागी हो. वह अपने ही खयालों में डूबी थी. बनावटी हंसी हंस कर बोली, ‘‘हां मामाजी, आप सही कह रहे हैं.’’

इतना सुनना था कि सुमित्रा ने तो पूरे महल्ले में उस की ससुराल के बखान में खूब गीत गाए. जो कोई बेटी से मिलने आता उसी से आगे बढ़ कर वह बतातीं :

‘‘देखो, इतना बड़ा घर, जमीन- जायदाद पर घमंड छू नहीं गया है इस के ससुराल वालों को. मेरी बेटी को रानी की तरह सम्मान देते हैं. मुझ बेवा का उन्हें आशीर्वाद लगे कि वे दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करें. चौधरीजी जबजब चुनाव लड़ें तबतब जीतें.’’

महल्ले में कभी कोई हंस कर कह देता, ‘‘कल्पना जैसी सुंदर लड़की पूरे महल्ले में नहीं है. इस का रूपरंग इसे इतने बडे़ घर में ले गया. इस मामले में चौधरीजी की तारीफ तो करनी ही पडे़गी क्योंकि दहेज के आगे लड़की के रूपगुण की कद्र आज के जमाने में कौन करता है. यह तो उन का बड़प्पन है.’’

छोटे भाईबहनों की जिद पर उस दिन कल्पना उन्हें घुमाने ले गई थी. एक दुकान पर आइसक्रीम खरीद रही थी कि पीछे से किसी ने उस की आंखों को हथेली से

ढांप कर उस से

पूछा, ‘‘पहचानो तो जानें?’’

यह सुरीली आवाज ज्यों ही कल्पना के कानों में पड़ी वह हंसते हुए बोली, ‘‘अच्छा, हाथ हटाओ. मैं ने तुम्हें पहचान लिया. तुम मधु हो.’’

मधु ने हाथ हटा लिया और खिल- खिला पड़ी.

‘‘आओ कल्पना, आइसक्रीम ले कर सामने वाले पार्क में बैठते हैं,’’ मधु ने कहा तो वे सब पार्क की ओर बढ़ गए.

कोमल हरी घास पर बैठते दोनों ने थोड़ी राहत की सांस ली. बच्चे पार्क में लगे झूले की तरफ बढ़ गए. मधु और कल्पना अकेले रह गईं.

मधु ने कल्पना के कंधों पर हाथ रख कर पूछा, ‘‘तुम खुश तो हो न?’’

‘‘हां,’’ कल्पना ने उपेक्षा से कहा.

‘‘इस संक्षिप्त उत्तर से मुझे यही लगता है कि तुम कुछ छिपा रही हो.’’

‘‘छिपाऊंगी भला क्यों,’’ हंसते हुए कल्पना बोली, ‘‘हो सकता है कि देखने वालों को खुश न लगती हूं क्योंकि नए लोगों के बीच में अपने को एडजस्ट करने में समय तो लगेगा ही. कहां हम साधारण लोग और कहां वे पैसे वाले.’’

मधु ने एक लंबी सांस खींची और कहा, ‘‘देखो कल्पना, समाज में आज भी औरत और पुरुष के लिए अलगअलग मापदंड हैं. जो चीज आदमी के लिए गर्व की बात हो सकती है वही औरत के लिए अवांछनीय…’’

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क्षण भर को कल्पना कांप गई. वह जान गई कि मधु क्या कहना चाहती है. उस ने प्रत्यक्ष यही दर्शाया कि उसे अपने वैवाहिक संबंधों की चर्चा में कोई दिलचस्पी नहीं है. प्रमेश उस का पति है और वह उस की निंदा नहीं सुनना चाह रही थी. किंतु मधु उस की परेशानी समझ कर भी उसे सबकुछ बताने के लिए बेचैन थी इसीलिए कल्पना का हाथ मजबूती से पकड़ कर मधु बोली, ‘‘मैं तेरी सहेली हूं. तेरे दिल का हाल मुझ से छिपा नहीं है. प्रमेश नशे में धुत मुझे कल जिस होटल के कमरे में मिला था बस, तेरे ऊपर गालियों की बौछार कर रहा था. कह रहा था कि सुंदरता के जाल में बिना सोचेसमझे फंस गया. सोसाइटी में उस के परिवार की एक इमेज है, इस कारण परिवार वाले चुप हैं. पापा के मंत्री बनते ही कल्पना नाम का कांटा मैं अपने जीवन से निकाल फेंकूंगा और एक आजाद पंछी की तरह आकाश में उड़ता रहूंगा.’’

‘‘यह सुन कर मैं ने अनजान बनते हुए पूछा, ‘कल्पना कौन है?’ तो प्रमेश बोला, ‘तुम्हारी तरह एक कालगर्ल.’’’

क्षणभर को कल्पना का चेहरा स्याह हो गया. ढकीछिपी बात सामने वाले पर उजागर हो जाए तो व्यक्ति अपने को कटे पत्ते सा महसूस करने लगता है. यही हाल कल्पना का था. घर लौटी तो उस के चेहरे की बदली रंगत को देख सुमित्रा ने पूछा, ‘‘क्या बात है…घूमने गई थी खुश होने के लिए या उदास होने को? तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘हां मां,’’ एक लंबी सांस खींच कुछ सोचते हुए बोली, ‘‘मां, मैं ने नौकरी छोड़ कर ठीक नहीं किया.’’

सुमित्रा कल्पना के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए बोलीं, ‘‘बेटी, तुम इतने बडे़ घर में ब्याही गई हो, तुम्हें अब क्या जरूरत है नौकरी की. मेरी दुकान भी अच्छीखासी चलती है. खाने व जीने भर को खूब मिल जाता है.’’

‘‘मां, मरे को गंगा किनारे फूंक कर लोग कथा सुनते हैं. तुम ने भी मुझे विदा कर यही किया होगा,’’ झुंझला कर कल्पना जाने क्या सोच यह कह गई.

‘‘यह क्या अंटसंट बक रही है? सभी बेटी विदा कर जो करते हैं वह मैं ने भी किया है तो इस में गलत क्या है?’’

कल्पना प्रथा व रीतिरिवाज पर बहुत कुछ बोलना चाह रही थी क्योंकि उस के भीतर एक झुंझलाहट थी जिसे वह किसी से बांट नहीं सकती थी पर बेटी को चुप देख कर मां बोलीं, ‘‘तुम्हारे ओवरटाइम को ले कर मैं आज बता रही हूं कि बहुत सशंकित थी पर आज लगता है कि मेरी शंका गलत थी और मेरी बेटी अपनी जगह सही थी.’’

यह सुन कर कल्पना भीतर तक हिल गई. उस का चेहरा सफेद पड़ गया. अगले ही क्षण अपने को संभालते हुए उस ने बात बदल दी. यह सोच कर कि कहीं मां अपनी शंका उजागर कर उस के मुंह पर कीचड़ के काले धब्बे न देख लें.

3 माह गुजर गए. कल्पना को विदा कराने कोई नहीं आया. महल्ले की छींटाकशी व कानाफूसी जब सुमित्रा के कानों तक पहुंची तो उन्होंने खुद कल्पना के ससुराल फोन किया. फोन चौधरीजी ने खुद उठाया.

वह बोलीं, ‘‘भाई साहब प्रणाम. 3 महीने हो गए कल्पना को मायके आए. बेटी मां के घर पर बोझ नहीं होती पर विवाह के बाद वह अपने घर ही शोभा देती है.’’

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चौधरीजी ने बड़ी विनम्रता से कहा, ‘‘बहनजी, प्रमेश तो साल भर के लिए ट्रेनिंग पर गया है. सोचा, बहू का मन अकेले क्या लगेगा?’’

‘‘पर लोग तो तरहतरह की बातें कर रहे हैं.’’

‘‘जनताजनार्दन की बात है तो कुछ सोचना पडे़गा.’’

‘‘आप कहें चौधरीजी तो कल्पना के मामा खुद ही छोड़ जाएं,’’ शीघ्रता से सुमित्रा बोलीं.

चौधरीजी ने ‘ठीक है’ कह कर फोन काट दिया.

कल्पना ससुराल वापस आ गई. वातावरण काफी बदला हुआ था. रिश्तेदार जा चुके थे. घर की औरतें उसे अछूत समझ कर न बात करतीं न ढंग से उस की बात का उत्तर देतीं. खाना बनाने से ले कर बरतन साफ करने तक का सारा काम कल्पना  को अकेले करना पड़ता था. दिन भर की थकी जब वह अपने कमरे में जाती तो मरणासन्न हो जाती पर उसे काम करने में एक संतोष, एक आशा की किरण दिखाई दे रही थी. हो न हो उस की सेवा सभी के दिलों को जीत ले और वह उसे माफ कर दें.

विधानसभा के चुनाव की तारीख घोषित हो चुकी थी. चौधरीजी के घर गहमागहमी शुरू हो गई थी. तमाम नेता बैठक में विचारविमर्श कर रहे थे कि आज की राजनीति में सबकुछ अनिश्चित है. मतदाता विस्मय से बदलते परिदृश्यों को देख रहा है. थोडे़थोडे़ समय में होने वाले चुनावों में उस का विश्वास नहीं रहा. अब की बार कोई नया मुद्दा होना चाहिए जो लोगों के दिलों में उतर जाएं. फिर कुछ नेता चौधरीजी की ओर मुखातिब हो कर बोले, ‘‘क्या रखा जाए मुद्दा, चौधरीजी.’’

‘‘हमारा नारा होगा, ‘समर्थ, गरीब कन्याओं को वधू बनाएं, नई रोशनी घर में लाएं.’’’ चौधरीजी सीना तान कर बोले, ‘‘इस का असर जादू की तरह होगा. दुर्बल समुदाय का वोट हमारी पार्टी की झोली में गिरेगा क्योंकि यह सत्य पर आधारित है. आप लोगों को तो पता ही है मैं ने अपने बेटे की शादी….’’

चौधरी की बात पूरी होने से पहले एकसाथ कई आवाजें हवा में गूंजीं.

‘‘जीहां, जीहां. आप के बेटे ने तो बिना ननुकर किए आप की पसंद को अपनी पसंद बना लिया…नहीं तो आजकल के लड़के बिना देखे, बात किए राजी कहां होते हैं.’’

चौधरीजी इस पर टीकाटिप्पणी करने के बजाय आगे बोले, ‘‘अन्य सभी राजनीतिक दलों के बारे में यह जान लिया गया है कि वे जो कहते हैं वह करते नहीं हैं. हर राजनीतिक पार्टी झूठ और वचन भंग के दलदल में धंसती पाई गई है. हमारे संकल्पों में एक तरह की फौलादी ताकत दिखाई पड़ती है. भारतीय स्वयं कमजोर हैं पर सचाई की कद्र करते हैं.’’

चुनाव का दिन भी आ गया. चौधरीजी का नारा हट कर था. घिसेपिटे नारे जाति, धर्म, भ्रष्टाचार से बिलकुल अलग. लोग भी घिसेपिटे नारे पुराने रेकार्डों की तरह सुन कर थक गए थे. एक नया नारा ‘उद्धार’ अपने नए आकर्षण के साथ लोगों के दिलों में उतर गया. नौजवानों में एक नई लहर दौड़ गई और वोट चौधरीजी के पक्ष में खूब गिरे.

New Year 2022: नई जिंदगी- भाग 5: क्यों सुमित्रा डरी थी

राजनीति में एक परंपरा सी बन गई है. आकर्षक नारा दे कर जीतो और उस के बाद उस नारे का खून कर दो. चौधरीजी के विचार इस से इतर न थे. परंपरा का निर्वाह करना वह बखूबी जानते थे. राजनीति का चस्का ही ऐसा होता है कि कुरसी के लिए लोग अपनी बीवीबच्चों तक को दांव पर लगा देते हैं. स्वार्थ और लोभ राजनीति को कठोर व बेशर्म बना देते हैं.

इधर चौधरीजी चुनाव जीते उधर योजना के अनुसार कल्पना को खत्म करने के लिए कई हथकंडे अपनाए गए. पर हर बार वह साफ बच गई. उसे खरोंच तक न लगी. चौधरीजी का परिवार तो यही सोचता कि पता नहीं कौन सा रहस्यमयी चमत्कार हो जाता है जो वह बच जाती है पर हकीकत तो यह थी कि पुलिस में सालों नौकरी कर कल्पना यह तो जान ही गई थी कि उस के खिलाफ घर में षड्यंत्र रचा गया है अत: वह अपना हर कदम फूंकफूंक कर रखती थी.

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एक बार उस को छत पर सूख रहे कपड़ोें को लाने भेजा गया और पीछे सीढि़यों पर मोबिल आयल डाल दिया गया पर वह कपड़ों का गट्ठर सुरक्षित ले कर उतर आई. यहां भी कल्पना की सूझबूझ काम आई. इसी प्रकार टांड़ पर आगे 10 लिटर का भारी कूकर रख बाहर से एग्जास्ट फैन के छेद से डंडे द्वारा कुकर को जोर से ठेला गया ताकि सीधे नीचे खड़ी कल्पना के सिर पर गिरे जो उस समय रोटी बना रही थी पर जैसे ही डंडे को कुकर की तरफ बढ़ते उस ने देखा अपने हाथ की लोई गिरा कर उसे उठाने के लिए वह आगे सरक गई. इतने में कुकर ठीक उसी जगह गिरा जहां वह खड़ी थी.

कल्पना ने इस घटना पर सब के सामने यही जाहिर किया कि कुकर गिरने के पीछे बिल्ली की करतूत है, क्योंकि एक दिन रात में उस ने ज्यों रसोई की बत्ती जलाई थी कि ऊपर से यही कुकर गिरा था. ऊपर नजर डाली तो मोटी बिल्ली थी जो उसी छेद से भाग गई थी. इस के बाद खुद मेज पर चढ़ कर कल्पना ने उस कुकर को आगे से हटा कर पीछे दीवार के सहारे लगा दिया था.

दरअसल, घर के लोग कल्पना को कुछ इस तरह जान से मारना चाह रहे थे कि उन की बदनामी न हो. ऐसा लगे कि वह कोई हादसा था और उस हादसे के बाद चौधरीजी मन ही मन सोच रहे थे कि वह कल्पना की प्रतिमा गांव के चौराहे पर लगवा देंगे और उस प्रतिमा का अनावरण उस की मां से करा देंगे. वोट तो जो उन के पक्ष में पड़ने थे वह पड़ ही गए हैं. अब दुर्घटना की खबर मिलते ही एक कुशल एक्टर की भूमिका थोड़ी देर जनता के सामने करनी है और इसी का रिहर्सल मन ही मन वह करने लगे.

अपने खयालों में खोए चौधरीजी यह भूल गए कि वह रफ्तार से सड़क पर गाड़ी चला रहे हैं. सामने से आता एक ट्रक चौधरीजी की गाड़ी पर अनियंत्रित हो कर टक्कर मार गया.

आग की तरह उन की दुर्घटना की खबर चारों ओर फैल गई. चौधरीजी काफी घायल हो गए थे. उन का दाहिना टखना इतनी बुरी तरह कुचल गया था कि उसे काटना डाक्टरों की मजबूरी बन गई थी. बड़ी मुश्किल से उन्हें होश आया था. होश आने पर उन्होंने देखा कि उन के हाथों पर प्लास्टर चढ़ा है और घर पर उन्हें कम से कम 6 माह तक विश्राम करना था.

शुरुआत में तो बेटे, पत्नी और परिवार के दूसरे लोगों ने उन की देखभाल की पर धीरेधीरे सभी अपने रोजमर्रा के कामों में मशगूल हो गए क्योंकि घर पर बैठना किसी को रास नहीं आ रहा था.

चौधरी की मजबूरी थी बिस्तर पर पडे़ रहना. घर पर नर्स, नौकर व कल्पना ही बचते थे. चौधरीजी का मलमूत्र बाहर फेंकने में नर्स नखरे दिखाती थी. जमादार कभी आता कभी नहीं आता. ऐसे में कल्पना चुपचाप पौट बाहर ले कर जाती और फिर साफ कर वापस उन की चारपाई के नीचे रख देती.

चौधरीजी की पत्नी सजसंवर कर पर्स लटका जब घर से निकलतीं तो ऐसा लगता मानो उन के न जाने से बाहर का कामकाज सब ठप हो जाएगा.

कहते हैं कि विपरीत परिस्थिति में लोगों के ज्ञानचक्षु काम करने लगते हैं. उस की तार्किक शक्ति बढ़ जाती है. सभी बातें दर्पण की तरह उसे साफ दिखाई पड़ने लगती हैं. वह अपने को भी जानने लगता है और आसपास के वातावरण की सचाई को भी पहचानने लगता है. इनसान मीठी चुपड़ी बातों से अनुकूल समय में धोखा खा सकता है पर विषम दशा में मन सिर्फ सच को देखता है. कोई धोखा कोई बातें अपना जादू चलाने में सफल नहीं होतीं.

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चौधरीजी को पत्नी, बेटे सब स्वार्थी जान पड़ रहे थे. सब मतलब के यार जिन्हें सिर्फ उन से मिलने वाले लाभ से सरोकार था. बस, कोई अपना समय उन के पास बैठ कर बरबाद नहीं करना चाहता था. सभी का सुबह घर से निकलने के पहले मानो हाजिरी देना जरूरी हो, उन के कमरे में आते और कभी नर्स को कभी कल्पना को निर्देश दे कर चले जाते ताकि सुनने वाले को ऐसा लगे कि उन्हें कितनी चिंता है.

चौधरीजी इस झूठे दिखावे से भीतर से दुखी तो होते थे पर इसे भी वह अपने कर्मों का दंड मानने लगे थे. अब वह पहले वाले चौधरी नहीं थे. मौत के मुंह से क्या निकले उन की पूरी काया ही पलट गई थी. बाहर भोलीभाली जनता को ठगने वाला यदि अपने ही लोगों से ठगा जाए तो क्या बुराई है. जो फसल बोई है उसे काटना तो पडे़गा ही न. यह सोच सबकुछ जानसमझ कर भी वह परिवार वालों के सामने अनजान बने रहते.

इस भीड़ में कल्पना द्वारा की गई सच्ची सेवा व उन के प्रति उस की निष्ठा अपनी अलग पहचान बना गई. जो देखभाल चौधरीजी की घर पर कल्पना ने की उस से वह द्रवित हुए बिना न रह सके. एक दिन सब के जाने के बाद बिस्तर पर पडे़ चौधरीजी ने अपने दोनों हाथ जोड़ कल्पना से कहा, ‘‘बेटी, मुझे माफ कर दो.’’

उन के बोलने में प्रायश्चित की पीड़ा थी. वह समझ रहे थे कि इस लड़की पर क्याक्या अत्याचार नहीं किए गए पर उस ने उफ् तक न किया. क्या यह जानती न होगी कि घर भर के लोग उस के साथ क्या खेल रच रहे हैं.

कल्पना जान कर भी अनजान बनते हुए बोली, ‘‘आप मेरे पिता समान हैं. मुझ से माफी मांग कर शर्मिंदा न कीजिए.’’

चौधरीजी मन ही मन अपने को धिक्कारने लगे. क्या उन का निखट्टू बेटा दूध का धुला है. आवारा आज भी ऐयाशी करता है. उस के पास उन की बनाई जायदाद के अलावा अपना क्या है? आज घर से निकाल दिया जाए तो दानेदाने को तरसे. उस की क्या मजबूरी है जो ऐयाशी करता है.

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सारे दिन आवारा घूमने के अलावा उस को आता भी क्या है. इस त्यागमयी सुंदर पत्नी को छोड़ने की कल्पना भी कैसे कर सकता है. यह तो उस निठल्ले को भी धीरेधीरे राह पर ले आएगी. ऐसी कार्यकुशल पत्नी पा कर तो उसे धन्य हो जाना चाहिए. किसी मजबूरी में उठा गलत कदम यदि अपनी सही राह पकड़ ले तो दूसरों का पथप्रदर्शक बन सकता है. वह कल्पना के साथ अब अपने जीते जी अन्याय न होने देंगे. सोचतेसोचते चौधरी की आंख लग गई. उन का चेहरा तनावमुक्त था.

आप कौन हैं सलाह देने वाले

आप कौन हैं सलाह देने वाले- भाग 2

मैं और मीना उस दुकान पर से उतर आए और जल्दी ही पूरा प्रसंग भूल भी गए. पता नहीं क्यों जब भी कहीं कुछ असंगत नजर आता है मैं स्वयं को रोक नहीं पाती और अकसर मेरे पति मेरी इस आदत पर नाराज हो जाते हैं.

‘‘तुम दादीअम्मां हो क्या सब की. जहां कुछ गलत नजर आता है समझाने लगती हो. सामने वाला चाहे बुरा ही मान जाए.’’

‘‘मान जाए बुरा, मेरा क्या जाता है. अगर समझदार होगा तो अपना भला ही करेगा और अगर नहीं तो उस का नुकसान वही भोगेगा. मैं तो आंखें रहते अंधी नहीं न बन सकती.’’

अकसर ऐसा होता है न कि हमारी नजर वह नहीं देख पाती जो सामने वाली आंख देख लेती है और कभीकभी हम वह भांप लेते हैं जिसे सामने वाला नहीं समझ पाता. क्या अपना अहं आहत होने से बचा लूं और सामने वाला मुसीबत में चला जाए? प्रकृति ने बुद्धि दी है तो उसे झूठे अहं की बलि चढ़ जाने दूं?

‘‘क्या प्रकृति ने सिर्फ तुम्हें ही बुद्धि दी है?’’

‘‘मैं आप से भी बहस नहीं करना चाहती. मैं किसी का नुकसान होता देख चुप नहीं रह सकती, बस. प्रकृति ने बुद्धि  तो आप को भी दी है जिस से आप बहस करना तो पसंद करते हैं लेकिन मेरी बात समझना नहीं चाहते.’’

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मैं अकसर खीज उठती हूं. कभीकभी लगने भी लगता है कि शायद मैं गलत हूं. कभी किसी को कुछ समझाऊंगी नहीं मगर जब समय आता है मैं खुद को रोक नहीं पाती हूं.

अभी उस दिन प्रेस वाली कपड़े लेने आई तो एक बड़ी सी गठरी सिर पर रखे थी. अपने कपड़ों की गठरी उसे थमाते हुए सहसा उस के पेट पर नजर पड़ी. लगा, कुछ है. खुद को रोक ही नहीं पाई मैं. बोली, ‘‘क्यों भई, कौन सा महीना चल रहा है?’’

‘‘नहीं तो, बीबीजी…’’

‘‘अरे, बीबीजी से क्यों छिपा रही है? पेट में बच्चा और शरीर पर इतना बोझ लिए घूम रही है. अपनी सुध ले, अपने आदमी से कहना, तुझ से इतना काम न कराए.’’

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टुकुरटुकुर देखती रही वह मुझे. फिर फीकी सी हंसी हंस पड़ी.

‘‘पूरी कालोनी घूमती हूं, किसी ने इतना नहीं समझाया और न ही किसी को मेरा पेट नजर आया तो आप को कैसे नजर आ गया?’’

पता नहीं लोग देख कर भी क्यों अंधे बन जाते हैं या हमारी संवेदनाएं ही मर गई हैं कि हमें किसी की पीड़ा, किसी का दर्द दिखाई नहीं देता. ऐसी हालत में तो लोग गायभैंस पर भी तरस खा लेते हैं यह तो फिर भी जीतीजागती औरत है. कुछ दिन बाद ही पता चला, उस के घर बेटी ने जन्म लिया. धन्य हो देवी. 9 महीने का गर्भ कितनी सहजता से छिपा रही थी वह प्रेस वाली.

मैं ने हैरानी व्यक्त की तो पति हंसते हुए बोले, ‘‘अब क्या जच्चाबच्चा को देखने जाने का भी इरादा है?’’

‘‘वह तो है ही. सुना है पीछे किसी खाली पड़ी कोठी में रहती है. आज शाम जाऊंगी और कुछ गरम कपड़े पड़े हैं, उन्हें दे आऊंगी. सर्दी बढ़ रही है न, उस के काम आ जाएंगे.’’

‘‘नमस्कार हो देवी,’’ दोनों हाथ जोड़ मेरे पति ने अपने कार्यालय की राह पकड़ी.

मुझे समझ में नहीं आया, मैं कहां गलत थी. मैं क्या करूं कि मेरे पति भी मुझे समझने का प्रयास करें.

कुछ दिन बाद एक और समस्या मेरे सामने चली आई. इन के एक सहयोगी हैं जो अकसर परिवार सहित हमारे घर आते हैं. 1-2 मुलाकातों में तो मुझे पता नहीं चला लेकिन अब पता चल रहा है कि जब भी वह हमारे घर आते हैं, 1 घंटे में लगभग 4-5 बार बाथरूम जाते हैं. बारबार चाय भी मांगते हैं.

बाथरूम जाना या चाय मांगना मेरी समस्या नहीं है, समस्या यह है कि उन के जाने के बाद हमारा बाथरूम चींटियों से भर जाता है. सफेद बरतन एकदम काला हो जाता है. हो न हो इन्हें शुगर हो. पति से अपने मन की बात बता कर पूछ लिया कि क्या उन से इस बारे में बात करूं?

‘‘खबरदार, हर बात की एक सीमा होती है. किसी के फटे में टांग मत डाला करो. मैं ने कह दिया न.’’

‘‘एक बार तो पूछ लो,’’ मन नहीं माना तो पति से जोर दे कर बोली, ‘‘शुगर के मरीज को अकसर पता नहीं चलता कि उसे शुगर है और बहुत ज्यादा शुगर बढ़ जाए तभी पेशाब में आती है. क्या पता उन्हें पता ही न हो कि उन्हें शुगर हो चुकी है.’’

‘‘कोई जरूरत नहीं है और तुम ज्यादा डाक्टरी मत झाड़ो. दुनिया में एक तुम ही समझदार नहीं हो.’’

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‘‘उन्हें कुछ हो गया तो… देखो उन के छोटेछोटे बच्चे हैं और कुछ हो गया तो क्या होगा? क्या उम्र भर हम खुद को क्षमा कर पाएंगे?’’

बेटे ने तो नजरें झुका लीं पर बाप बड़े गौर से मेरा चेहरा देखने लगा.

‘‘मेरे पिताजी भी इसी स्टूल पर पूरे 50 साल बैठे थे उन की पीठ तो नहीं दुखी थी.’’

‘‘उन की नहीं दुखी होगी क्योंकि वह समय और था, खानापीना शुद्ध हुआ करता था. आज हम हवा तक ताजा नहीं ले पाते. खाने की तो बात ही छोडि़ए. हमारे जीने का तरीका वह कहां है जो आप के पिताजी का था. मुझे डर है आप का बेटा ज्यादा दिन इस ऊंचे स्टूल पर बैठ कर काम नहीं कर पाएगा. इसलिए आप इस स्टूल की जगह पर कोई आरामदायक कुरसी रखिए.’’

अपने पति से जिद कर मैं एक दिन जबरदस्ती उन के घर चली गई. बातोंबातों में मैं ने उन के बाथरूम में जाने की इच्छा व्यक्त की.

‘‘क्या बताऊं, दीदी, हमारा बाथरूम साफ होता ही नहीं. इतनी चींटी हैं कि क्या कहूं इतना फिनाइल डालती हूं कि पूछो मत.’’

‘‘आप के घर में किसी को शुगर तो नहीं है न?’’

‘‘नहीं तो, आप ऐसा क्यों पूछ रही हैं?’’

अवाक् रह गई थी वह. धीरे से अपनी बात कह दी मैं ने. रो पड़ी वह. मैं ने कहा तो मानो उसे भी लगने लगा कि शायद घर में किसी को शुगर है.

आप कौन हैं सलाह देने वाले- भाग 3

‘‘हां, तभी रातरात भर सो नहीं पाते हैं. हर समय टांगें दबाने को कहते हैं. बारबार पानी पीते हैं… और कमजोर भी हो रहे हैं. दीदी, कभी खयाल ही नहीं आया मुझे. हमारे तो खानदान में कहीं किसी को शुगर नहीं है.’’

उसी पल मेरे पति उन को साथ ले कर डाक्टर के पास गए. रक्त और पेशाब की जांच की. डाक्टर मुंहबाए उसे देखने लगा.

‘‘इतनी ज्यादा शुगर…आप जिंदा हैं मैं तो इसी पर हैरान हूं.’’

वही हो गया न जिस का मुझे डर था. उसी क्षण से उन का इलाज शुरू हो गया. मेरे पति उस दिन के बाद से मुझ से नजरें चुराने से लगे.

‘‘आप न बतातीं तो शायद मैं सोयासोया ही सो जाता…आप ने मुझे बचा लिया, दीदी,’’ लगभग मेरे पैर ही छूने लगे वह.

‘‘बस…बस…अब दीदी कहा है तो तुम्हारा नाम ही लूंगी…देखो, अपना पूरापूरा खयाल रखना. सदा सुखी रहो,’’ मैं उसे आशीर्वाद के रूप में बोली और अपने पति का चेहरा देखा तो हंसने लगे.

‘‘जय हो देवी, अब प्रसन्न हो न भई, तुम्हारा इलाज हफ्ता भर पहले भी शुरू हो सकता था अगर मैं देवीजी की बात मान लेता. आज भी यह जिद कर के लाई थीं. मेरा ही दोष रहा जो इन का कहा नहीं माना.’’

उस रात मैं चैन की नींद सोई थी. एक बार भी ऐसा नहीं लगा कि उन पर मैं कोई कृपा, कोई एहसान कर के लौटी हूं. बस, इतना ही लग रहा था कि अपने भीतर बैठे अपने चेतन को चिंतामुक्त कर आई हूं. कहीं न कहीं अपनी जिम्मेदारी निभा आई हूं.

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अगले दिन सुबहसुबह दरवाजे पर एक व्यक्ति को खड़ा देखा तो समझ नहीं पाई कि इन्हें कहां देखा है. शायद पति के जानकार होंगे. उन्हें भीतर बिठाया. पता चला, पति से नहीं मुझ से मिलने आए हैं.

‘‘कौन हैं यह? मैं तो इन्हें नहीं जानती,’’ पति से पूछा.

‘‘कह रहे हैं कि वह तुम्हें अच्छी तरह पहचानते हैं और तुम्हारा धन्यवाद करने आए हैं.’’

‘‘मेरा धन्यवाद कैसा?’’ मैं कुछ याद करते हुए पति से बोली, ‘‘हां, कहीं देखा तो लग रहा है लेकिन याद नहीं आ रहा,’’ रसोई का काम छोड़ मैं हाथ पोंछती हुई ड्राइंगरूम में चली आई. प्रश्नसूचक भाव से उन्हें देखा.

‘‘बहनजी, आप ने पहचाना नहीं. चौक पर मेरी दुकान है. कुछ समय पहले आप और आप की एक सखी मेरी दुकान के बाहर…’’

‘‘अरे हां, याद आया. मैं और मीना मिले थे न,’’ पति को बताया मैं ने.

‘‘कहिए, मेरा कैसा धन्यवाद?’’

‘‘उस दिन आप ने मेरे बेटे से कहा था न कि वह ऊंचे स्टूल पर न बैठे. दरअसल, उसी सुबह वह पीठ दर्द की वजह से 7 दिन अस्पताल रह कर ही लौटा था. डाक्टरों ने भी मुझे समझाया था कि उस स्टूल की वजह से ही सारी समस्या है.’’

‘‘हां तो समस्या क्या है? आप कुरसी नहीं खरीद सकते क्या?’’

‘‘कुरसी तो लड़का 6 महीने पहले ही ले आया था, जो गोदाम में पड़ी सड़ रही है. मैं ही जिद पर अड़ा था कि वह स्टूल वहां से न हटाया जाए. वह मेरे पिताजी का स्टूल है और मुझे वहम ही नहीं विश्वास भी है कि जब तक वह स्टूल वहां है तब तक ही मेरी दुकान सुरक्षित है. जिस दिन स्टूल हट गया लक्ष्मी भी हम से रूठ जाएगी.’’

हम दोनों अवाक् से उस आदमी का मुंह देखते रहे.

‘‘मेरा बच्चा रोतापीटता रहा, मेरी बहू मेरे आगे हाथपैर जोड़ती रही लेकिन मैं नहीं माना. साफसाफ कह दिया कि चाहो तो घर छोड़ कर चले आओ, दुकान छोड़ दो पर वह स्टूल तो वहीं रहेगा.

‘‘मैं तो सोचता रहा कि लड़का बहाना कर रहा होगा. अकसर बच्चे पुरानी चीज पसंद नहीं न करते. सोचा डाक्टर भी जानपहचान के हैं, उन से कहलवाना चाहता होगा लेकिन आप तो जानपहचान की न थीं. और उस दिन जब आप ने कहा तो लगा मेरा बच्चा सच ही रोता होगा.

‘‘एक दिन मेरा बच्चा ही किसी काम का न रहा तो मैं लक्ष्मी का भी क्या करूंगा? पिताजी की निशानी को छाती से लगाए बैठा हूं और उसी का सर्वनाश कर रहा हूं जिस का मैं भी पिता हूं. मेरा बच्चा अपने बुढ़ापे में मेरी जिद याद कर के मुझे याद करना भी पसंद नहीं करेगा. क्या मैं अपने बेटे को पीठदर्द विरासत में दे कर मरूंगा.

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‘‘उसी शाम मैं ने वह स्टूल उठवा कर कुरसी वहां पर रखवा दी. मेरे बेटे का पीठदर्द लगभग ठीक है और घर में भी शांति है वरना बहू भी हर पल चिढ़ीचिढ़ी सी रहती थी. आप की वजह से मेरा घर बच गया वरना उस स्टूल की जिद से तो मैं अपना घर ही तोड़ बैठता.’’

मिठाई का एक डब्बा सामने मेज पर रखा था. उस पर एक कार्ड था. धन्यवाद का संदेश उन महाशय के बेटे ने मुझे भेजा था. क्या कहती मैं? भला मैं ने क्या किया था जो उन का धन्यवाद लेती?

‘‘आप की वह सहेली एक दिन बाजार से गुजरी तो मैं ने रोक कर आप का पता ले लिया. फोन कर के भी आप का धन्यवाद कर सकता था. फिर सोचा मैं स्वयं ही जाऊंगा. अपने बेटे के सामने तो मैं ने अपनी गलती नहीं मानी लेकिन आप के सामने स्वीकार करना चाहता हूं, अन्याय किया है मैं ने अपनी संतान के साथ… पता नहीं हम बड़े सदा बच्चों को ही दोष क्यों देते रहते हैं? कहीं हम भी गलत हैं, मानते ही नहीं. हमारे चरित्र में पता नहीं क्यों इतनी सख्ती आ जाती है कि टूट जाना तो पसंद करते हैं पर झुकना नहीं चाहते. मैं स्वीकार करना चाहता हूं, विशेषकर जब बुढ़ापा आ जाए, मनुष्य को अपने व्यवहार में लचीलापन लाना चाहिए. क्यों, है न बहनजी?’’

‘‘जी, आप ठीक कह रहे हैं. मैं भी 2 बेटों की मां हूं. शायद बुढ़ापा गहरातेगहराते आप जैसी हो जाऊं. इसलिए आज से ही प्रयास करना शुरू कर दूंगी,’’ और हंस पड़ी थी मैं. पुन: धन्यवाद कर के वह महाशय चले गए.

पति मेरा चेहरा देखते हुए कहने लगे, ‘‘ठीक कहती हो तुम, जहां कुछ कहने की जरूरत हो वहां अवश्य कह देना चाहिए. सामने वाला मान ले उस की इच्छा न माने तो भी उस की इच्छा… कम से कम हम तो एक नैतिक जिम्मेदारी से स्वयं को मुक्त कर सकते हैं न, जो हमारी अपनी चेतना के प्रति होती है. लेकिन सोचने का प्रश्न एक यह भी है कि आज कौन है जो किसी की सुनना पसंद करता है. और आज कौन इतना संवेदनशील है जो दूसरे की तकलीफ पर रात भर जागता है और अपने पति से झगड़ा भी करता है.’’

पति का इशारा मेरी ओर है, मैं समझ रही थी. सच ही तो कह रहे हैं वह, आज कौन है जो किसी की सुनना या किसी को कुछ समझाना पसंद करता है?

आप कौन हैं सलाह देने वाले- भाग 1

लेखक- सुधा गुप्ता

उस दिन बाजार में भीड़भाड़ कुछ कम थी. मुझे देखते ही मीना सड़क के किनारे खींच ले गई और न जाने कितना सब याद करती रही. हम दोनों कुछ बच्चों की, कुछ घर की और कुछ अपनी कहतेसुनते रहे. ‘‘आप की बहुत याद आती थी मुझे,’’ मीना बोली, ‘‘आप से बहुत कुछ सीखा था मैं ने…याद है जब एक रात मेरी तबीयत बहुत खराब हो गई थी तब आप ने कैसे संभाला था मुझे.’’ ‘‘मैं बीमार पड़ जाती तो क्या तुम न संभालतीं मुझे. जीवन तो इसी का नाम है. इतना तो होना ही चाहिए कि मरने के बाद कोई हमें याद करे…आज तुम किसी का करो कल कोई तुम्हारा भी करेगा.’’

मेरा हाथ कस कर पकड़े थी मीना. उम्र में मुझ से छोटी थी इसलिए मैं सदा उस का नाम लेती थी. वास्तव में कुछ बहुत ज्यादा खट्टा था मीना के जीवन में जिस में मैं उस के साथ थी.

‘‘याद है दीदी, वह लड़की नीता, जिस ने बुटीक खोला था. अरे, जिस ने आप से सिलाई सीखी थी. बड़ी दुआएं देती है आप को. कहती है, आप ने उस की जिंदगी बना दी.’’

याद आया मुझे. उस के पति का काम कुछ अच्छा नहीं था इसलिए मेरी एक क्लब मेंबर ने उसे मेरे पास भेजा था. लगभग 2 महीने उस ने मुझ से सिलाई सीखी थी. उस का काम चला या नहीं मुझे पता नहीं, क्योंकि उसी दौरान पति का तबादला हो गया था. वह औरत जब आखिरी बार मेरे पास आई थी तो हाथों में कुछ रुपए थे. बड़े संकोच से उस ने मेरी तरफ यह कहते हुए बढ़ाए थे:

‘दीदी, मैं ने आप का बहुत समय लिया है. यह कुछ रुपए रख लीजिए.’

‘बस, तुम्हारा काम चल जाए तो मुझे मेरे समय का मोल मिल जाएगा,’ यह कहते हुए मैं ने उस का हाथ हटा दिया था.

सहसा कितना सब याद आने लगा. मीना कितना सब सुनाती रही. समय भी तो काफी बीत चुका न अंबाला छोड़े. 6 साल कम थोड़े ही होते हैं.

‘‘तुम अपना पता और फोन नंबर दो न,’’ कह कर मीना झट से उस दुकान में चली गई जिस के आगे हम दोनों घंटे भर से खड़ी थीं.

‘‘भैया, जरा कलमकागज देना.’’

दुकानदार हंस कर बोला, ‘‘लगता है, बहनजी कई साल बाद आपस में मिली हैं. घंटे भर से मैं आप की बातें सुन रहा हूं. आप दोनों यहां अंदर बेंच पर बैठ जाइए न.’’

क्षण भर को हम दोनों एकदूसरे का मुंह देखने लगीं. क्या हम इतना ऊंचाऊंचा बोल रही थीं. क्या बुढ़ापा आतेआते हमें असभ्य भी बना गया है? मन में उठे इन विचारों को दबाते हुए मैं बोली, ‘‘क्याक्या सुना आप ने, भैयाजी. हम तो पता नहीं क्याक्या बकती रहीं.’’

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‘‘बकती नहीं रहीं बल्कि आप की बातों से समझ में आता है कि जीवन का अच्छाखासा निचोड़ निकाल रखा है आप ने.’’

‘‘क्या निचोड़ नजर आया आप को, भाई साहब,’’ सहसा मैं भी मीना के पीछेपीछे दुकान के अंदर चली गई तो वह अपने स्टूल पर से उठ कर खड़ा हो गया.

‘‘आइए, बहनजी. अरे, छोटू…जा, जा कर 2 चाय ला.’’

पल भर में लगा हम बहुत पुराने दोस्त हैं. अब इस उम्र तक पहुंचतेपहुंचते नजर पढ़ना तो आ ही गया है मुझे. सहसा मेरी नजर उस स्टूल पर पड़ी जिस पर वह दुकानदार बैठा था. एक सवा फुट के आकार वाले स्टूल पर वह भारीभरकम शरीर का आदमी कैसे बैठ पाता होगा यही सोचने लगी. इतनी बड़ी दुकान है, क्या आरामदायक कोई कुरसी नहीं रख सकता यह दुकानदार? तभी एक लंबेचौड़े लड़के ने दुकान में प्रवेश किया. मीना कागज पर अपने घर का पता और फोन नंबर लिखती रही और मैं उस ऊंचे और कमचौड़े स्टूल को ही देखती रही जिस पर अब उस का बेटा बैठने जा रहा था.

‘‘नहीं भैयाजी, चाय मत मंगाना,’’ मीना मना करते हुए बोली, ‘‘वैसे भी हम बहुत देर से आप के कान पका रहे हैं.’’

‘‘बेटा, तुम इस इतने ऊंचे स्टूल पर क्या आराम से बैठ पाते हो? कम से कम 12 घंटे तो तुम्हारी दुकान खुलती ही होगी?’’ मेरे होंठों से सहसा यह निकल गया और इस के उत्तर में वह दुकानदार और उस का बेटा एकदूसरे का चेहरा पढ़ने लगे.

‘‘तुम्हारी तो कदकाठी भी अच्छी- खासी है. एक 6 फुट का आदमी अगर इस ऊंचे और छोटे से स्टूल पर बैठ कर काम करेगा तो रीढ़ की हड्डी का सत्यानाश हो जाएगा…शरीर से बड़ी कोई दौलत नहीं होती. इसे सहेजसंभाल कर इस्तेमाल करोगे तो वर्षों तुम्हारा साथ देगा.’’

Serial Story- कड़वी गोली

कड़वी गोली- भाग 2

‘‘यह कुत्ता भी आज तुम्हारे परिवार में फालतू है क्योंकि घर में तुम्हारे पोतेपोतियां हैं जो एक जानवर के साथ असुरक्षित हैं. कल कुत्ता तुम्हारी जरूरत था क्योंकि बच्चे अकेले थे. दोनों बच्चे तुम्हारे साथ किस बदतमीजी से पेश आते हैं तुम्हें पता ही नहीं चलता, कोई भी बाहर का व्यक्ति झट समझ जाता है कि तुम्हारे बच्चे तुम्हारी इज्जत नहीं कर रहे और तुम कबूतर की तरह आंखें बंद किए बैठे हो. महेश, अपनी सुधि लेना सीखो. याद रखो, मां भी बच्चे को बिना रोए दूध नहीं पिलाती. तकलीफ हो तो रोना भी पड़ता है और रोना भी चाहिए. इन्हें वह भाषा समझाओ जो समझ में आए.’’

‘‘मैं क्या करूं? कभी अपने लिए कुछ मांगा ही नहीं.’’

‘‘तुम क्यों मांगो, अभी तो 20 हजार हर महीने तुम इन पर खर्च कर रहे हो. अभी तो देने वालों की फेहरिस्त में तुम्हारा नाम आता है. तुम्हें अपने लिए चाहिए ही क्या, समय पर दो वक्त का खाना और धुले हुए साफ कपड़े. जरा सी इज्जत और जरा सा प्यार. बदले में अपना सब दे चुके हो बच्चों को और दे रहे हो.’’

‘‘अब कुछ नहीं हो सकता मेरा.’’

‘‘चाहो तो सब हो सकता है. तुम जरा सी हिम्मत तो जुटाओ.’’

वास्तव में उस दिन महेश बेचैन था और उस की पीड़ा हम भी पूरी ईमानदारी से सह रहे थे. बिना कुछ भी कहे पलपल हम महेश के साथ ही तो थे. एक अधिकार था मीना के पास भी, मां की तरह ममत्व लुटाया था मीना ने भी बच्चों पर.

‘‘जी चाहता है कान मरोड़ दूं दोनों के,’’ मीना ने गुस्सा होते हुए कहा, ‘‘आज किसी लायक हो गए तो पिता की जरूरतों का अर्थ ही नहीं रहा उन के मन में.’’

‘‘पहल महेश को करने दो मीना, यह उस की अपनी जंग है.’’

‘‘इस में जंग वाली क्या बात हुई?’’

‘‘जंग का अर्थ सिर्फ 2 देशों के बीच लड़ाई ही तो नहीं होता, विचारों के बीच जब तालमेल न हो तब भी तो मन के भीतर एक घमासान चलता रहता है न. उस के घर का मसला है, उसी को निबटने दो.’’

किसी तरह मीना को समझा- बुझा कर मैं ने शांत तो कर दिया लेकिन खुद असहज ही रहा. अकसर सोचता, महेश बेचारे ने गलती भी तो कोई  नहीं की. एक अच्छा पिता और एक समर्पित पति बनना तो कोई अपराध नहीं है. महेश ने जब दूसरी शादी न करने का फैसला लिया था तब उस का वह फैसला उचित था. आज यदि वह अकेला है तो हम सोचते हैं कि उस का निर्णय गलत था, तब शादी कर लेता तो कम से कम आज अकेला तो न होता.

अकसर जीवन में ऐसा ही होता है. कल का सत्य, आज का सत्य रहता ही नहीं. उस पल की जरूरत वह थी, आज की जरूरत यह है. हम कभी कल के फीते से आज को तो नहीं नाप सकते न.

संयोग ऐसा बना कि कुछ दिन बाद, सुबहसुबह मैं उठा तो पाया कि बरामदे का वह कोना साफसुथरा है जहां घुग्गी ने घोंसला बना रखा था. बाई पोंछा लगा रही थी.

‘‘बच्चे उड़ गए साहब,’’ बाई ने बताया, ‘‘वह देखिए, उधर…’’

2 छोटेछोटे चिडि़या के आकार के नन्हेनन्हे जीव इधरउधर फुदक रहे थे और नरमादा उन की खुली चोंच में दाना डाल रहे थे.

‘‘अरे मीना, आओ तो, देखो न कितने प्यारे बच्चे हैं. जरा भाग कर आना.’’

मीना आई और सहसा कुछ ऐसा कह गई जो मेरे अंतरमन को चुभ सा गया.

‘‘हम इनसानों से तो यह परिंदे अच्छे, देखना 4 दिन बाद जब बच्चों को खुद दाना चुगना आ जाएगा तो यह नरमादा इन्हें आजाद छोड़ देंगे. हमारी तरह यह नहीं चाहेंगे कि ये सदा हम से ही चिपके रहें. हम सब की यही तो त्रासदी है कि हम चाहते हैं कि बच्चे सदा हमारी उंगली ही पकड़ कर चलें. हम सोचना ही नहीं चाहते कि बच्चों से अपना हाथ छुड़ा लें.’’

‘‘क्योंकि इनसान को बुढ़ापे में संतान की जरूरत पड़ती है जो इन पक्षियों को शायद नहीं पड़ती. मीना, इनसान सामाजिक प्राणी है और वह परिवार से, समाज से जुड़ कर जीना चाहता है.’’

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मीना बड़बड़ा कर वहीं धम से बैठ गई. मैं मीना को पिछले 30 सालों से जानता हूं. अन्याय साथ वाले घर में होता हो तो अपने घर बैठे इस का खून उबलता रहता है. महेश के बारे में ही सोच रही होगी. एक बेनाम सा रिश्ता है मीना का भी महेश के साथ. वह मेरा मित्र है और यह मेरी पत्नी, दोनों का रिश्ता भला क्या बनता है? कुछ भी तो नहीं, लेकिन यह भी एक सत्य है कि मीना महेश के लिए बहुत कुछ है, भाभी, बहन, मित्र और कभीकभी मां भी.

‘‘महेश को अपने घर ला रही हूं मैं, ऊपर का कमरा खाली करा कर सब साफसफाई करा दी है. बहुत हो चुका खेलतमाशा…बेशर्मी की भी हद होती है. अस्पताल से सीधे यहीं ला रही हूं, सुना आप ने…’’

मुझ में काटो तो खून नहीं रहा. अस्पताल से सीधा? तो क्या महेश अस्पताल में है? याद आया…मैं तो 2 दिन से यहां था ही नहीं, कार्यालय के काम से दिल्ली गया था. देर रात लौटा था और अब सुबहसुबह यह सब. पता चला महेश के शरीर में शुगर की बहुत कमी हो गई थी जिस वजह से उसे कार्यालय में ही चक्कर आ गया था और दफ्तर के लोगों उसे अस्पताल पहुंचा दिया था.

‘‘नहीं मीना, यह हमारी सीमा में नहीं आता. घर तो उस का वही है, कोई बात नहीं, आज देखते हैं अस्पताल से तो वह अपने ही घर जाएगा.’’

उस दिन मैं दफ्तर से आधे दिन का अवकाश ले कर उसे अस्पताल से उस के घर ले गया. दोनों बेटे जल्दी में थे और बहुएं बच्चों में व्यस्त थीं. सहसा तभी उन का कुत्ता छोटे बच्चे पर झपट पड़ा, शायद वह भूखा था. उस के हाथ का बिस्कुट छिटक कर परे जा गिरा. महेश के पीछे उस ने 2 दिन कुछ खाया नहीं होगा क्योंकि महेश के बिना वह कुछ भी खाता नहीं. महेश को देखते ही उस की भूख जाग उठी और बिस्कुट लपक लिया.

‘‘पापा, आप ने इसे ढंग से पाला नहीं. न कोई टे्रनिंग दी है न तमीज सिखाई है. 2 दिन से लगातार भौंकभौंक कर हम सब का दिमाग खा गया है. न खाता है न पीता है और हमारे पास इस के लिए समय नहीं है.’’

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