चलो एक बार फिर से : अमित का नेहा के लिए प्यार

‘कुछ तो था हमारे दरमियां… आज भी तुम्हें देख कर दिल की बस्ती में हलचल हो गई है…’

नेहा को देखते ही यह शायरी अमित के होठों पर खुद ब खुद आ गई थी. वही खुले लंबे बाल, बड़ीबड़ी झील सी गहरी आंखें, माथे पर लंबी सी बिंदिया और आंखों में कितने ही सवाल…अपनी साड़ी का पल्लू संभालती हुई नेहा मुड़ी तभी दोनों की नजरें टकरा गई थीं.

अमित एकटक उसे ही निहारता रह गया. नेहा की आंखों ने भी पल भर में उसे पहचान लिया था. अमित कुछ कहना चाहता था मगर नेहा ने खुद को संभाला और निगाहें फेर लीं.

अमित को लगा जैसे एक पल में मिली हुई खुशी अगले ही पल छिन गई हो. नेहा ने चोर नजरों से फिर उसे देखा. अमित अबतक उसी की तरफ देख रहा था.

“हैलो नेहा” अमित से रहा नहीं गया और वह उस के पास पहुंच गया.

“हैलो कैसे हो ?” धीमे स्वर में नेहा ने पूछा.

“जैसा छोड़ कर गई थीं.” अमित ने जवाब दिया तो नेहा ने एक भरपूर निगाह उस पर डाली और हौले से मुस्कुराती हुई बोली, “ऐसा तो नहीं लगता. थोड़े तंदुरुस्त हो गए हो.”

“अच्छा” अमित हंस पड़ा.

दोनों करीब 4 साल बाद एकदूसरे से मिले थे. 4 साल पहले ऐसे ही स्टेशन पर नेहा को गाड़ी में बिठा कर अमित ने विदा किया था. नेहा उस की जिंदगी से दूर जा रही थी. अमित उसे रोकना चाहता था मगर दोनों का ईगो आड़े आ गया था. वह गई तो मायके थी पर दोनों को ही पता था कि वह हमेशा के लिए जा रही है. लौट कर नहीं आएगी और फिर 2 महीने के अंदर ही तलाक के कागजात अमित के पास पहुंच गए. एक लंबी अदालती कार्यवाही के बाद दोनों की जिंदगी के रास्ते अलग हो गए.

“चाय पीओगी या कॉफी ?” पुरानी यादों का साया परे करते हुए अमित ने पूछा था.

“हां कॉफी पी लूंगी. तुम तो चाय पियोगे न. बट आई विल प्रेफर कॉफी.”

“ऑफकोर्स. अभी लाता हूं.”

नेहा अमित को जाता हुआ पीछे से देर तक देखती रही. तलाक के बाद उस ने शादी कर ली थी पर अमित अब तक अकेला था. वह नेहा को अपने दिलोदिमाग से निकाल नहीं सका था. शायद यही हालत नेहा की भी थी. मगर शादी के बाद प्राथमिकताएं बदल जाती हैं और वैसा ही नेहा के साथ भी हुआ था.

“और बताओ कैसी हो? सब कैसा चल रहा है? ”

अमित चाय और कॉफी ले आया था. नेहा के पास बैठते हुए उस ने पूछा तो एक लंबी सांस ले कर नेहा बोली,” सब ठीक ही चल रहा है. बस आजकल अपनी तबीयत को ले कर थोड़ी परेशान रहती हूं.”

“क्यों क्या हुआ तुम्हें?” चिंतित स्वर में अमित ने पूछा.

“कुछ नहीं बस अस्थमा से थोड़ी प्रॉब्लम हो रही है. सांस की तकलीफ रहती है.”

“आजकल तो वैसे भी कोरोना फैल रहा है. तुम्हें तो फिर अपना खास ख्याल रखना चाहिए.”

“हां वह तो रखती हूं. बस 2 दिन का देहरादून में काम है और फिर वापस नागपुर लौटना है. सुजय अभी नागपुर में ही शिफ्टेड है न.”

“अच्छा. मैं भी दिल्ली काम से आया था. मुझे भी वापस कोटा जाना है.*

“मेरी ट्रेन सुबह 6.40 की है. अमित जरा तुम देखो न, ट्रेन कब आएगी? स्टेशन मास्टर से पूछ कर बताओ न जरा. ट्रेन टाइम पर है या लेट है?”

“हां अभी पूछता हूं.” कह कर अमित चला गया.

पूछताछ करने पर पता चला कि लॉकडाउन हो गया है और इस वजह से ट्रेनें रद्द हो गई हैं. नेहा घबरा गई.
“अब क्या होगा ट्रेन कब चलेगी?”

“देखो नेहा. अभी तो यही पता चल रहा है कि 31 मार्च तक ट्रेनें रद्द कर दी गई हैं. सब कुछ बंद है. लौकडाउन में ट्रेनों के परिचालन पर पाबंदी लग गई है.”

“अरे अब मैं कहां जाऊंगी? ऐसा कैसे हो गया? होटल खुले हैं या नहीं?”

नेहा घबरा गई थी. उसे शांत कराते हुए अमित बोला,” नेहा परेशान मत हो. मेरे कजिन ब्रदर का घर है यहां. वह आजकल मुंबई में जॉब कर रहा है. इसलिए घर की चाबी मुझे दी हुई है. मुझे अक्सर यहां आना पड़ता है तो मैं उसी घर में ठहर जाता हूं. डोंट वरी. तुम भी मेरे साथ चलो. अभी तुम्हें वहीं ठहरा देता हूं. इतना तो विश्वास कर ही सकती हो मुझ पर. ”

“ओके डन. चलो.” नेहा अमित के साथ चल दी.

अमित उसे ले कर कजिन के घर पहुंचा. एक बेडरूम के इस घर में बाहर बड़ी सी बालकनी और झूला भी था. अच्छाखासा लौन था. गलियारे में सुंदर पेड़पौधे भी लगे हुए थे. घर छोटा मगर काफी खूबसूरत था.

अमित के घर पहुंच कर नेहा ने सारी बातें अपने वर्तमान पति यानि सुजय को बता दीं. परेशानी के वक्त पुराने पति की मदद लेने और उस के घर पर ठहरने के फैसले को सुजय ने पॉजिटिव वे में लिया और उस के सुरक्षित होने की खबर पर खुशी जाहिर की.

“गुड. थैंक्स अमित.” नेहा ने घर का मुआयना करते हुए कहा

” चलो तुम फ्रेश हो जाओ. मैं खाना बनाता हूं. तुम मेरी गेस्ट हो ना.”

“अच्छा तो अब तुम बनाओगे खाना? जब हम साथ थे तब तो कभी किचन में झांकते भी नहीं थे.”

“वक्त और परिस्थितियां बहुत कुछ सिखा देती हैं नेहा मैडम. आप हमारे हाथ का खाना खा कर देखना. उंगलियां चाटती रह जाओगी.”

“क्या बात है. बातें बनाना तो तुम्हें खूब आता है.” न चाहते हुए भी नेहा की जुबान पर पुरानी यादों की तल्खी आ ही गई थी.

तुरंत बात सुधारती हुई बोली,” वैसे अमित काफी अच्छे बदलाव नजर आ रहे हैं तुम में.”

“थैंक्यू” अमित मुस्कुरा कर काम में लग गया. वाकई उस ने बहुत स्वादिष्ट खाना बनाया था.

नेहा ने स्वाद से खाना खाया. थोड़ी देर बातचीत करते हुए पुरानी यादें ताजा करने के बाद सोने की बारी आई. बेडरूम एक ही था. अमित ने बेड की तरफ इशारा करते हुए कहा,” नेहा तुम आराम से सो जाओ यहां.”

“तुम कहां सोओगे?”

“मेरा क्या है? मैं बैठक में सोफे पर एडजस्ट हो जाऊंगा.”

“ओके”

नेहा आराम से बैड पर लुढ़क गई. बहुत नींद आ रही थी उसे. थकी हुई भी थी फिर भी रात भर करवटें बदलती रही. मन के आंगन में पुरानी यादें, कुछ कड़वी और कुछ मीठी, घेरा डाले जो बैठी थीं. अमित का भी यही हाल था. सुबह 8 बजे नेहा की नींद टूटी. बाहर आई तो देखा कि अमित नहाधो कर नाश्ता बना रहा है.

“क्या बात है. आई एम इंप्रैस्ड. पूरी गृहिणी बन गए हो.”

“घरवाली छोड़ कर चली जाए तो यही हाल होता है मैडम जी.”

अमित ने माहौल को हल्का बनाते हुए कहा. नेहा लौन में टहलने लगी तभी अमित चाय ले कर आ गया. नेहा ने चाय पीते हुए कहा,” अमित मुझे अजीब लग रहा है. सारे काम तुम कर रहे हो. देखो कहे देती हूं. दोपहर का खाना मैं बनाऊंगी और रात का भी. तुम केवल बर्तन साफ कर देना.”

“जैसी आप की आज्ञा मोहतरमा.” हंसते हुए अमित बोला.

इस तरह दोनों मिल कर लौकडाउन के इस समय में एकदूसरे की सहायता करते हुए वक्त बिताने लगते हैं. अमित जितना संभव होता सारे काम खुद करता. उसे नेहा की तबीयत को ले कर चिंता रहती थी. झाड़ू पौंछा या सफाई का काम नेहा को छूने भी नहीं देता.

एक दिन सुबहसुबह नेहा की तबीयत ज्यादा ही खराब हो गई. नेहा ने बताया कि उस का इनहेलर नहीं मिल रहा है. अमित उसी वक्त बाजार भागा. बड़ी मशक्कत के बाद उसे एक मेडिकल शॉप खुली मिली. वहीं से इनहेलर और जरूरी दवाइयां खरीद कर भागाभागा घर लौटा. इस समय एकएक पल महत्वपूर्ण था. नेहा की तबीयत काफी बिगड़ रही थी. मगर समय पर इनहेलर मिल जाने से वह बेहतर महसूस करने लगी.

तब तक अमित ने जल्दी से एक बाउल में पानी गर्म किया और उस में लैवेंडर ऑयल की 5-6 बूंदें डालीं. इसे वह नेहा के पास ले आया और 5 -10 मिनट तक स्टीम लेने को कहा. इस से नेहा को काफी आराम मिला.

अब अमित ने एक गिलास गर्म पानी में शहद मिला कर उसे धीरेधीरे पीने को कहा. कुल मिला कर नेहा की तबीयत में काफी सुधार आ गया. अमित ने प्यार से नेहा का माथा सहलाते हुए कहा,” आज के बाद तुम्हें रोज शहद या हल्दी डाल कर गर्म पानी पीना है. इस से तुम्हें आराम मिलेगा.”

उस दिन नेहा को महसूस हुआ कि अमित वाकई उस से प्यार करता है और अलग हो कर भी वह दिल से उस से जुड़ा हुआ है. यह बात उस ने शिद्दत से महसूस की.

वह अमित के पास आ कर बैठ गई और उस के हाथों को थामते हुए बोली,” मैं अपना अतीत पूरी तरह भूल जाना चाहती हूं. आज से मैं केवल तुम्हारे साथ बिताए हुए ये खूबसूरत और प्यारे लम्हे याद रखूंगी. रियली आई मीन इट.”

“नेहा कौन कहता है कि एक्स हसबैंडवाइफ दोस्त नहीं हो सकते. अब तुम तो जिंदगी में आगे बढ़ चुकी हो. हमारा पुराना रिश्ता तो अब जुड़ नहीं सकता. फिर भी दोस्ती का एक नया रिश्ता तो हम बना ही सकते हैं न.”

उस दिन पहली बार दोनों गले लग कर खुशी के आंसू रोए थे.

अगले दिन सुबह नेहा एक फूल ले कर अमित के पास पहुंची.

“यह क्या है?” वह अचकचाया.

“फूल है गुलाब का.”

” वह तो है मगर इस नाचीज पर आज इतनी मेहरबान क्यों?”

“क्यों कि आज ही हम पहली दफा मिले थे. ईडियट भूल गए तुम?” शरारत से देखते हुए नेहा बोली.

“ओह याद आया. रियली मैं सरप्राइज्ड हूं. तुम्हें आज का दिन याद रह गया?”

“हां चलो, आज का दिन कुछ खास मनाते हैं.”

“फाइन ”

फिर दोनों ने मिल कर घर में एक शानदार डेट ऑर्गेनाइज की. घर को फूलों से सजाया. बरामदे में टेबल और कुर्सी लगा कर दोनों ने लंच किया. एकदूसरे की पसंद के कपड़े पहने. लंच में एकदूसरे की पसंद की चीजें ही ऑर्डर कीं गई. एक आर्डर करता और दूसरा किचन से सामान ले कर आता. दोनों ने पहली मुलाकात याद करते हुए एकदूसरे के लिए गाने गाए. शायरियां सुनाईं. गिफ्ट का आदानप्रदान किया. मजेदार बातें कीं और फिर एक खुशनुमा शाम का वादा कर एकदूसरे से विदा ली.

यह सब दोनों ने इतने मजे लेते हुए और फ्रेंडली अप्रोच के साथ किया कि उन के लिए यह डेट यादगार बन गई.

रात में नेहा ने अमित को अपने पास ही सो जाने का न्योता दिया और बोली,” आज मैं एक खूबसूरत भूल करना चाहती हूं . बस केवल आज के लिए अपने हस्बैंड को चीट करूंगी अपने दोस्त की खातिर.”

“तुम तो बड़ी पाप पुण्य की बातें करती थीं कि विवाह के बाद परपुरुष को देखने पर भी नर्क मिलता है या सती सावित्री ही आदर्श होती है वगैरह-वगैरह.” अमित बोला.

नेहा मुंह बिचकाकर बोली, “वे सब पाखंड तो मैं अपनी मौसी से सीख कर आई थी. पता  है उन्होंने मां को ही चूना लगा डाला था. उनका पैसा एक ऐसी जमीन में लगवा दिया था जो थी ही नहीं और सिर्फ कागज थे. बचपन से हम समझते थे कि वे सुबह तीन घंटे पूजा करतीं हैं तो सही ही होंगीं. उन्होंने मां का वह कागजी हिस्सा भी बेच कर पैसे बेटे बहू को दे दिए. मां बहुत रोई थीं. तब से मैंने फैसला कर लिया कि इस झूठ फरेब में नहीं पड़ूंगी और अपनी शर्तों पर अपनी समझ से जिऊंगी.”

“काश तुम्हें यह समझ पहले होती” कहता हुआ अमित कपड़े फेंकते हुए नेहा के साथ बिस्तर पर लेट गया.

दोनों की जिंदगी में लौकडाउन का वह पूरा दिन उम्र भर के लिए यादगार बन गया था. पुरानी गलतफहमियां और कड़वाहट दूर हो गई थीं. एकदूसरे के ऊपर अधिकार न होते हुए भी वे एकदूसरे के लिए कुछ भी करने को तैयार थे. एक अलग सा कंफर्ट लेवल था जिस ने तकलीफ के उन दिनों को भी नए रंग में रंग दिया था.

सबक: क्यों शिखा की शादीशुदा जिंदगी में जहर घोल रही थी बचपन की दोस्त

अपनेमंगेतर रवि के दोस्त मयंक की सगाई के मौके पर शिखा पहली बार नेहा से मिली थी. कुछ ही देर में नेहा के मुंह से उस ने बहुत सी ऐसी बातें सुनीं, जिन से साफ जाहिर हो गया कि वह उसे फूटी आंख नहीं भा रही थी.

शिखा को पता था कि वह अच्छी डांसर नहीं है, लेकिन उसे डांस करने में बहुत मजा आता था. रवि के साथ कुछ देर डांस करने के बाद जब वह अपनी परिचित महिलाओं के पास गपशप करने पहुंची, तब नेहा ने बुरा सा मुंह बना कर टिप्पणी की, ‘‘डांस में जोश के साथसाथ ग्रेस भी नजर आनी चाहिए, नहीं तो इंसान जंगली सा नजर आता है.’’

फिर कुछ देर बाद उस ने शिखा की फिगर को निशाना बनाते हुए कहा, ‘‘शिखा, तुम मेरी बात का बुरा मत मानना, पर आजकल जो जीरो साइज का फैशन चल रहा है, वह मेरी समझ से तो बाहर है. फैशन अपनी जगह है पर प्रेमी या पति के हिस्से में प्यार करते हुए सिर्फ हड्डियों का ढांचा आए, यह उस बेचारे के साथ नाइंसाफी होगी या नहीं?’’

नेहा की इस बात को सुन कर सब औरतें खूब हंसी. शिखा ने कुछ तीखा जवाब देने से खुद को रोक लिया. अपने दिमाग पर बहुत जोर डालने के बाद भी शिखा की समझ में नहीं आया कि नेहा क्यों उस के साथ ऐसा गलत सा व्यवहार कर रही है.

शिखा ने एकांत में जा कर आखिरकार रवि से पूछ ही लिया, ‘‘अतीत में तुम्हारे नेहा से कैसे संबंध रहे हैं?’’

‘‘ठीक रहे हैं, पर तुम यह सवाल क्यों पूछ रही हो?’’ उन्होंने ध्यान से शिखा के चेहरे को पढ़ना शुरू कर दिया.

‘‘क्योंकि मुझे लग रहा है कि नेहा जानबूझ कर मेरे साथ बेढंगा सा व्यवहार कर रही है. चूंकि आज हम पहली बार मिले हैं, इसलिए मेरी किसी गलती के कारण उस के यों नाराज नजर आने का सवाल ही नहीं उठता. आर यू श्योर कि किसी पुरानी अनबन के कारण वह आप से नाराज नहीं चल रही है?’’

‘‘नहीं, मेरे साथ कभी उस का झगड़ा नहीं हुआ है.’’

‘‘फिर क्या कारण हो सकता है, जो वह मुझ से इतनी खुंदक खा रही है?’’

‘‘इंसान का मूड सौ कारणों से खराब हो जाता है. तुम बेकार की टैंशन क्यों ले रही हो, यार? चलो, तुम्हें टिक्की खिलाता हूं.’’

‘‘वह मेरा पार्टी का सारा मजा किरकिरा कर रही है.’’

‘‘तो चलो उस से झगड़ा कर लेते हैं,’’ रवि कुछ चिड़ उठे थे.

‘‘तुम नाराज मत होओ. मैं उस की बातों पर ध्यान देना बंद कर देती हूं,’’ उस का मूड ठीक करने को शिखा फौरन मुसकरा उठी.

‘‘यह हुई न समझदारी की बात,’’ रवि ने प्यार से उस का गाल थपथपाया और फिर हाथ पकड़ कर टिक्की वाले स्टाल की तरफ बढ़ चला.

शिखा नेहा के गलत व्यवहार के बारे में सबकुछ भूल ही जाती अगर उस ने  कुछ देर बाद उन दोनों को बाहर बगीचे में बहुत उत्तेजित व परेशान अंदाज में बातें करते खिड़की से न देख लिया होता.

वह उन की आवाजें तो नहीं सुन सकती थी पर उन के हावभाव से अंदाज लगाया कि रवि उसे कुछ समझने की कोशिश कर रहा था और वह बड़ी अकड़ से अपनी बात कह रही थी. उत्तेजित लहजे में बोलते हुए नेहा रवि के ऊपर हावी होती नजर आ रही थी, इस बात ने शिखा के मन में खलबली सी मचा दी.

अपने मन की चिंता को काबू में रखते हुए वह मयंक के पास पहुंची और गंभीर लहजे में बोली, ‘‘आप मुझे 1 बात सचसच बताओगे, मयंक भैया?’’

‘‘बिलकुल बताऊंगा,’’ मयंक ने मुसकरा कर जवाब दिया.

‘‘आप तो जानते ही हो कि मैं रवि को अपनी जान से ज्यादा चाहती हूं.’’

‘‘यह मुझे अच्छी तरह से मालूम है.’’

‘‘नेहा से आज मैं पहली दफा मिली हूं. वह मुझ से अकारण क्यों चिड़ी हुई है और बातबात में मुझे सब के सामने शर्मिंदा करने की कोशिश क्यों कर रही है, मेरे इन सवालों का जवाब तुम दो, प्लीज.’’

शिखा को बहुत संजीदा देख मयंक ने कोई कहानी गढ़ने का इरादा त्याग दिया. वह शांत खड़ी हो कर उन के बोलने का इंतजार कर रही थी.

कुछ देर बाद उस ने धीमी आवाज में शिखा को बताया, ‘‘नेहा कालेज में हमारे साथ पढ़ती थी. रवि और वह कभी एकदूसरे को बहुत चाहते थे. फिर उस के मातापिता की रजामंदी न होने से वे शादी नहीं कर पाए थे.

‘‘अमीर पिता की बेटी नेहा की शादी भी बड़े अच्छे घर में हुई है, पर अपने पति के साथ उस के संबंध अच्छे नहीं चल रहे हैं. लेकिन तुम किसी बात की चिंता मत करो. मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं कि रवि के मन में अब उस के लिए कोई आकर्षण मौजूद नहीं है.’’

‘‘लेकिन नेहा के मन में रवि के लिए अभी भी आकर्षण मौजूद है, नहीं तो मैं उस की आंखों में क्यों चुभती?’’ नेहा के मन में गुस्सा बढ़ने लगा था.

‘‘मुझे एक बात बताओ. रवि के प्यार के ऊपर तुम्हें पूरा विश्वास है न?’’

‘‘अपने से ज्यादा विश्वास करती हूं मैं उन पर, लेकिन…’’

‘‘लेकिन को गोली मारो और मुझे बताओ कि जब रवि के प्यार पर तुम्हें पूरा विश्वास है, तो फिक्र किस बात की कर रही हो?’’

‘‘जो बीज भविष्य में बड़ी सिरदर्दी का पेड़ बनने की संभावना रखता हो, क्या उसे शुरू में ही नष्ट कर देना समझदारी नहीं होगी?’’

‘‘यह बात तो ठीक है, पर तुम करने क्या जा रही हो?’’

‘‘तुम्हारी पार्टी में कोई बखेड़ा खड़ा नहीं करूंगी, देवरजी. मैं नेहा को ऐसा सबक सिखाना चाहती हूं कि वह भविष्य में कभी मुझ से पंगे लेने की जुर्रत न करे. तुम तो बस मेरा परिचय उस के पति से करा दो, प्लीज.’’

शिखा की बात को सुन मयंक की आंखों से चिंता के भाव तो कम नहीं हुए पर वो नेहा के पति विवेक के साथ उस का परिचय कराने को साथ चल पड़ा था.

आकर्षक युवतियों के लिए पुरुषों के मन को प्रभावित करना ज्यादा मुश्किल नहीं होता है. शिखा ने विवेक की जिंदगी के बारे में जानने को थोड़ी सी दिलचस्पी दिखाई, तो बहुत जल्दी वो दोनों बहुत अच्छे मित्रों की तरह से हंसनेबोलने लगे थे.

‘‘मेरे पति कहीं नजर नहीं आ रहे हैं और मेरा दिल आइसक्रीम खाने को कर रहा है,’’ करीब 15 मिनट की जानपहचान के बाद शिखा की इस इच्छा को सुनते ही विवेक की आंखों में जो चमक पैदा हुई वह इस बात का प्रतीक थी कि उस का जादू विवेक पर पूरी तरह से चल गया है.

‘‘अगर तुम्हें ठीक लगे तो मेरे साथ आइसक्रीम खाने चलो,’’ उस ने फौरन साथ चलने का प्रस्ताव शिखा के सामने रख दिया.

‘‘आप चलोगे मेरे साथ?’’

‘‘बड़ी खुशी से.’’

‘‘यों मेरे साथ अकेले बाहर घूमने जाने से कहीं आप की पत्नी नाराज तो नहीं हो जाएंगी?’’ यह पूछते हुए शिखा बड़ी अदा से मुसकराई.

‘‘उसे मैं ने इतना सिर नहीं चढ़ाया हुआ है कि इतनी छोटी बात को ले कर मुझ से झगड़ा करे.’’

‘‘फिर भी हमें बिना मतलब किसी का दिल नहीं दुखाना चाहिए. आप बाहर मेरी कार नंबर 4678 के पास मेरा इंतजार करोगे, प्लीज. मैं 2 मिनट के बाद बाहर आती हूं.’’

‘‘जैसी तुम्हारी मरजी,’’ कह हौल के मुख्य द्वार की तरफ चल पड़ा.

विवेक  जैसे ही शिखा की नजरों से ओझल हुआ तो वह तेज चाल से कुछ दूर  खड़ी नेहा से मिलने चल पड़ी.

पास पहुंच कर शिखा ने उस का हाथ पकड़ा और उसे उस की सहेलियों से कुछ दूर ले आई. फिर उस के कान के पास मुंह ले जा कर उस ने हैरान नजर आ रही नेहा को कठोर लहजे में धमकी दी, ‘‘मुझे तुम्हारे और रवि के बीच कालेज में रहे पुराने इश्क के चक्कर के बारे में सबकुछ पता लग गया है. तुम अभी भी उस के साथ चक्कर चालू रखना चाहती हो, यह भी मुझे पता है. आज तुम ने सब के सामने जो मुझे बेइज्जत करने की बारबार कोशिश करी है, उस के लिए मैं तुम्हें सजा जरूर दूंगी.’’

‘‘मैं विवेक के साथ बाहर घूमने जा रही हूं और रास्ते में उसे तुम्हारी चरित्रहीनता के बारे में सब बता कर उस की नजरों में तुम्हारी छवि बिलकुल खराब कर दूंगी. तुम तो मेरे और रवि के बीच कबाब में क्या हड्डी बनती, मैं ही तुम्हारे विवाहित जीवन की सारी खुशियां नष्ट कर देती हूं,’’ उसे धमकी देने के बाद शिखा गुस्से से कांपने का अभिनय करती हुई मुख्य दरवाजे की तरफ चल पड़ी.

नेहा ने शिखा को घबराहट और डर से कांपती आवाज में पुकार कर रोकने की कोशिश करी, पर उस ने मुड़ कर नहीं देखा.

हौल से बाहर आ कर शिखा दाईं तरफ कुछ फुट दूर एक झड़ी के पीछे छिप कर बैठ गई. वहां से उसे दरवाजा साफ नजर आ रहा था.

रवि और नेहा मुश्किल से 2 मिनट बाद बेहद घबराए हुए दरवाजे से बाहर आए. जब शिखा या विवेक उन्हें कहीं नहीं नजर आए, तो वे आपस में बातें करने लगे.

‘‘शिखा तो कहीं दिखाई नहीं दे रही है,’’ रवि बहुत परेशान नजर आ रहा था.

‘‘उसे ढूंढ़ कर विवेक से बातें करने से रोको, नहीं तो वह मुझे कभी चैन से जीने नहीं देगा,’’ नेहा की आवाज डर के मारे कांप रही थी.

‘‘जब वह कहीं दिखाई ही नहीं दे रही है, तो मैं उसे रोकूं कैसे?’’ विवेक चिड़ उठा.

‘‘तुम ने उसे हमारे प्रेम के बारे में कुछ बताया ही क्यों?’’

‘‘मैं पागल हूं जो उसे तुम्हारे बारे में कुछ बताऊंगा?’’

‘‘फिर उस ने मुझ से क्या यह झूठ बोला है कि वह हमारे बारे में सबकुछ जान गई है?’’

‘‘हो सकता है किसी और ने उसे सब बता दिया हो, पर मुझे यह बताओ कि तुम आज बेकार ही उस के साथ चिड़ और नाराजगी से भरा गलत व्यवहार कर उसे क्यों छेड़ रही थी?’’

‘‘क्योंकि यह सच है कि वह घमंडी लड़की तुम्हारी भावी जीवनसंगिनी के रूप में मुझे रत्तीभर पसंद नहीं आई है.’’

‘‘तुम्हें अपनी यह राय अपने तक रखनी चाहिए थी. तुम्हारेमेरे बीच जो प्यार का रिश्ता हमेशा के लिए खत्म हो चुका है, उस के आधार पर तुम्हें किसी कमअक्ल स्त्री की तरह शिखा से खुंदक नहीं खानी चाहिए थी,’’ रवि ने उसे फौरन डांटा तो मेरे मन ने इसे रवि की नेहा में कोई दिलचस्पी न होने का सुबूत मान कर बड़ी राहत महसूस करी.

‘‘तुम उसे रोकने के बजाय मुझे लैक्चर मत दो, तुम्हें पता नहीं कि विवेक का गुस्सा कितना तेज है. शिखा की बातें सुनने के बाद वह गुस्सैल इंसान मुझे ताने देदे कर मार डालेगा. कितनी पागल और बेवकूफ है यह शिखा. उस के लिए ये सब खेल होगा, पर मेरी तो जिंदगी बरबाद हो जाएगी.’’

वह अचानक रोने लगी तो मैं ने उन के सामने आने का यही मौका उचित समझ.

अपने छिपने की जगह से बाहर आते हुए ही मैं ने नेहा को सख्त लहजे में चेतावनी देनी शुरू कर दी, ‘‘अगर तुम में थोड़ी सी भी बुद्धि है तो आज की इस घटना को, अपने मन के डर और इस वक्त अपनी आंखों से बहते इन आंसुओं को कभी मत भूलना. रवि की बातों से यह साफ जाहिर हो रहा है कि उसे तुम से किसी तरह का कोई वास्ता नहीं रखना है. तुम भी कभी उस के साथ गलत नीयत के साथ मुलाकात करने की कोशिश मत करना. तुम मेरी कुछ बातें इस वक्त कान खोल कर सुन लो. जो बीत गया है उसे भूलो और वर्तमान की तुलना अतीत से कर अपना मन मत दुखाओ. रवि और मैं कुछ ही दिनों बाद शादी कर के नई शुरुआत करने जा रहे हैं. अपने विवाहित जीवन के दुखों को दूर करने के लिए अगर तुम ने मेरे रवि को गुमराह कर हमारे रास्ते में दिक्कत खड़ी करने की कभी कोशिश करी, तो बहुत पछताओगी.’’

मेरी चेतावनी के जवाब में बहुत डरी हुई नेहा के मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला. कुछ देर पहले उस में नजर आ रही सारी अकड़ छूमंतर हो गई थी.

मैं ने बड़े अधिकार से रवि का हाथ पकड़ा और उसे साथ ले कर अंदर हौल की तरफ चल पड़ी. मुझे पक्का विश्वास था कि नेहा भविष्य में मेरे भावी जीवनसाथी के साथ किसी तरह का संपर्क बनाने की जुर्रत कभी नहीं करेगी.

आजादी: राधिका का आखिर क्या था कुसूर

फैमिली कोर्ट की सीढि़यां उतरते हुए पीछे से आती हुई आवाज सुन कर वह ठिठक कर वहीं रुक गई. उस ने पीछे मुड़ कर देखा. वहां होते कोलाहल के बीच लोगों की भीड़ को चीरता हुआ नीरज उस की तरफ तेज कदमों से चला आ रहा था.

‘‘थैंक्स राधिका,’’ उस के नजदीक पहुंच नीरज ने अपने मुंह से जब आभार के दो शब्द निकाले तो राधिका का चेहरा एक अनचाही पीड़ा के दर्द से तन गया. उस ने नीरज के चेहरे पर नजर डाली. उस की आंखों में उसे मुक्ति की चमक दिखाई दे रही थी. अभी चंद मिनटों पहले ही तो एक साइन कर वह एक रिश्ते के भार को टेबल पर रखे कागज पर छोड़ आगे बढ़ गई थी.

‘‘थैंक्स राधिका टू डू फेवर. मुझे तो डर था कि कहीं तुम सभी के सामने सचाई जाहिर कर मुझे जीने लायक भी न छोड़ोगी,’’ राधिका को चुप पा कर नीरज ने आगे कहा.

राधिका ने एक बार फिर ध्यान से नीरज के चेहरे को देखा और बिना कुछ कहे आगे बढ़ गई. फैमिली कोर्ट के बाहर से रिकशा ले कर वह सीधे औफिस ही पहुंच गई. उस के मन में था कि औफिस के कामों में अपने को व्यस्त रख कर मन में उठ रही टीस को वह कम कर पाएगी. लेकिन वहां पहुंच कर भी उस का मन किसी भी काम में नहीं लगा. उस ने घड़ी पर नजर डाली. एक बज रहा था. औफिस में आए उसे अभी एक घंटा ही हुआ था. अपनी तबीयत ठीक न होने का बहाना कर उस ने हाफडे लीव को फुल डे सिकलीव में कन्वर्ट करवा लिया और औफिस से निकल कर सीधे घर जाने के लिए रिकशा पकड़ लिया.

सोसाइटी कंपाउंड में प्रवेश कर उस ने लिफ्ट का बटन दबाया, पर सहसा याद आया कि आज सुबह से बिजली बंद है और शाम 5 बजे के बाद ही सप्लाई वापस चालू होगी. बुझे मन से वह सीढि़यां चढ़ कर तीसरी मंजिल पर आई. फ्लैट नंबर सी-302 का ताला खोल कर अंदर से दरवाजा बंद कर वह सीधे जा कर बिस्तर पर पसर गई.

कुछ देर पहले बरस कर थम चुकी बारिश की वजह से वातावरण में ठंडक छा गई थी. लेकिन उस का मन अंदर से एक आग की तपिश से जला जा रहा था. नेहा अपने बौस के साथ बिजनैस टूर पर गई हुई थी और कल सुबह से पहले नहीं आने वाली थी वरना मन में उठ रही टीस उस के संग बांट कर अपने को कुछ हलका कर लेती. बैडरूम में उसे घबराहट होने लगी, तो वह उठ कर हौल में आ कर सोफे पर सिर टिका कर बैठ गई. उस की आंखों के आगे जिंदगी के पिछले 4 साल घूमने लगे…

‘चलो अच्छा ही है 2 दोस्तों के बच्चे अब शादी की गांठ से बंध जाएंगे तो दोस्ती अब रिश्तेदारी में बदल कर और पक्की हो जाएगी,’ राधिका के नीरज से शादी के लिए हां कहते ही जैसे पूरे घर में खुशियां छा गई थीं. राधिका के पिता ने अपने दोस्त का मुंह मीठा करवाया और गले से लगा लिया.

राधिका ने अपने सामने बैठे नीरज को चोरीछिपे नजरें उठा कर देखा. वह शरमाता हुआ नीची नजरें किए हुए चुपचाप बैठा था. न्यूजर्सी से अपनी पढ़ाई पूरी कर अभी कुछ महीने पहले ही आया नीरज शायद यहां के माहौल में अपनेआप को फिर से पूरी तरह से एडजस्ट नहीं कर पाया. यही सोच कर राधिका उस वक्त उस के चेहरे के भाव नहीं पढ़ पाई. अपने पापा के दोस्त दीनानाथजी को वह बचपन से जानती थी लेकिन नीरज से उस की मुलाकात इस रिश्ते की नींव बनने से पहले कभीकभी ही हुई थी. 12वीं पास करने के बाद नीरज 5 साल के लिए स्टूडैंट वीजा पर न्यूजर्सी चला गया था और जब वापस आया तो पहली ही मुलाकात में चंद घंटों की बातों के बाद उन की शादी का फैसला हो गया.

‘‘नीरज, मैं तुम्हें पसंद तो हूं न?’’ बगीचे में नीरज का हाथ थाम कर चलती राधिका ने पूछा.

‘‘हां. लेकिन क्यों ऐसा पूछ रही हो?’’ उस की बात का जवाब देते हुए नीरज ने पूछा.

‘बस ऐसे ही. अगले महीने हमारी शादी होने वाली है. पर तुम्हारे चेहरे पर कोई उत्साह न देख कर मुझे डर सा लगता है. कहीं तुम ने किसी दबाव में आ कर तो इस शादी के लिए हां नहीं की न?’ पास ही लगी बैंच पर बैठते हुए राधिका ने नीरज को देखा.

‘वैल. अपना बिजनैस सैट करने की थोड़ी टैंशन है. इसी उलझन में रहता हूं कि कहीं शादी का यह फैसला जल्दी तो नहीं ले लिया,’ कहते हुए नीरज ने अपनी पैंट की जेब से रूमाल निकाला और माथे पर उभर आई पसीने की बूंदों को पोंछ डाला.

‘इस में टैंशन लेने वाली बात ही क्या है? शादी तो समय पर हो ही जानी चाहिए. वैसे भी, जीने के लिए पैसा नहीं, अपने लोगों के पास होने की जरूरत होती है,’ कहती हुई राधिका ने नीरज के कंधे पर अपना सिर टिका दिया.

‘बात तो सच है तुम्हारी पर फिर भी हर वक्त एक डर सा बना रहता है,’ नीरज ने अपने हाथ में अभी भी रूमाल पकड़ रखा था.

‘छोड़ो भी अब यह डर और कोई रोमांटिक बात करो न मुझ से,’ कहती हुई राधिका ने आसपास नजर दौड़ाई. बगीचे में अधिकांश जोड़े अपनी ही मस्ती में खोए हुए थे. सहसा राधिका नीरज के और करीब आ गई और उस के हाथ की उंगलियां उस की छाती पर हरकत करने लगीं.

‘यह क्या हरकत है राधिका?’ कहते हुए नीरज ने एक झटके से राधिका को अपने से दूर कर दिया और अपनी जगह से खड़ा हो गया. राधिका के लिए नीरज का यह व्यवहार अप्रत्याशित था. वह नीरज की इस हरकत से सहम गई. तभी दरवाजे की घंटी बज उठी. राधिका अपनी यादों से बाहर निकल कर खड़ी हुई और दरवाजा खोला.

‘‘नेहा प्रधान हैं?’’

दरवाजे पर कूरियर वाला खड़ा था. ‘‘जी, इस वक्त वह घर पर नहीं है. लाइए मैं साइन कर देती हूं,’’ राधिका ने पैकेट लेने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाया.

पैकेट दे कर कूरियर वाला चला गया. दरवाजा बंद करती हुई राधिका ने पैकेट को देख कर उस के अंदर कोई पुस्तक होने का अंदाजा लगाया. नेहा अकसर कोई न कोई पुस्तक मंगाती रहती थी. उस ने पैकेट टेबल पर रख दिया और वापस सोफे पर बैठ गई.

4 वर्षों का साथ आज यों ही एक झटके में तो नहीं टूट गया था. उस के पीछे की भूमिका तो शायद शादी के पहले से ही बन चुकी थी. पर नीरज का मौन राधिका की जिंदगी भी दांव पर लगा गया. नीरज के बारे में और सोचते हुए उस का चेहरा तन गया.

‘नीरज,  तुम्हारे मन में आखिर चल क्या रहा है? हमारी शादी हुए एक महीने से ज्यादा हो गया और 10 दिनों के अच्छेखासे हनीमून के बाद भी तुम्हारे चेहरे पर नईनई शादी वाली खुशी नदारद सी है. बात क्या है? मुझ से तो खुल कर कहो,’ पूरे हनीमून के दौरान राधिका ने महसूस किया कि नीरज हमेशा उस से एक सीमित अंतर बना कर रह रहा है. रात के हसीन पल भी उसे रोमांचित नहीं कर पा रहे थे. वह, बस, शादी के बाद की रातों को एक जिम्मेदारी मान कर जैसेतैसे निभा ही रहा था. हनीमून से लौट कर आने के बाद राधिका के चेहरे पर अतृप्ति के भाव छाए हुए थे.

‘कुछ नहीं राधिका. मुझे लगता है हम ने शादी करने में जल्दबाजी कर दी है,’ राधिका की बात सुन कर नीरज इतना ही बोल पाया.

‘जनाब, अब ये सब बातें सोचने का समय बीत चुका है. बेहतर होगा हम मिल कर अपनी शादी का जश्न पूरे मन से मनाएं,’ राधिका ने नीरज की बात सुन कर कहा.

‘तुम नहीं समझ पाओगी राधिका और मैं तुम्हें अपनी समस्या समझ भी नहीं पाऊंगा,’ कह कर नीरज राधिका की प्रतिक्रिया की परवा किए बिना ही कमरे से बाहर चला गया.

अकेले बैठी हुई राधिका का मन बारबार पिछली बातों में जा कर अटक रहा था. लाइट भी नहीं थी जो टीवी औन कर अपना मन बहला पाती. तभी उस के मन में कुछ कौंधा और उस ने नेहा के नाम से अभी आया पैकेट खोल लिया. उस के हाथों में किसी नवोदित लेखक की पुस्तक थी. पुस्तक के कवर पर एक स्त्री की एक पुरुष के साथ हाथों में हाथ डाले हुए मनमोहक छवि थी और उस के ऊपर पुस्तक का शीर्षक छपा हुआ था- ‘उस के हिस्से का प्यार’. कहानियों की इस पुस्तक की विषय सूची पर नजर डालते हुए उस ने एक के बाद एक कुछ कहानियां पढ़नी शुरू कर दीं. बच्चे के यौन उत्पीड़न और फिर उस को ले कर वैवाहिक जीवन में आने वाली समस्या को ले कर लिखी गई एक कहानी पढ़ कर वह फिर से नीरज की यादों में खो गई.

उस दिन नीरज बेहद खुश था. वह घर खाने पर अपने किसी विदेशी दोस्त को ले कर आया था.

‘राधिका, 2 दिनों पहले मैं अपने जिस दोस्त की बात कर रहा था वह यह माइक है. न्यूजर्सी में हम दोनों रूममेट थे और साथ ही पढ़ते थे,’ नीरज ने राधिका को माइक का परिचय देते हुए कहा.

राधिका ने अपने पति की बाजू में खड़े उस श्वेतवर्णी स्निग्ध त्वचा वाले लंबे व छरहरे युवक पर नजर डाली. राधिका को पहली ही नजर में नीरज का यह दोस्त बिलकुल पसंद नहीं आया. उस का क्लीनशेव्ड नाजुक चेहरा और उस पर सिर पर थोड़े लंबे बालों को बांध कर बनाई गई छोटी सी चोटी देख कर राधिका को आश्चर्य हो रहा था कि ऐसा लड़का नीरज का दोस्त कैसे हो सकता है. नीरज तो खुद अपने पहनावे और लुक को ले कर काफी कौन्शियस रहता है. उस वक्त इस बात को नजरअंदाज कर वह इस बात पर ज्यादा कुछ न सोचते हुए खाना बनाने में जुट गई.

उसी रात नीरज ने जब राधिका से सीधेसीधे तलाक लेने की बात छेड़ी तो राधिका के पैरोंतले जमीन खिसक गई.

‘लेकिन बात क्या हुई नीरज? न हमारे बीच कोई झगड़ा है न कोई परेशानी. सबकुछ तो बराबर चल रहा है. कहीं तुम्हारा किसी के संग अफेयर तो…’ रिश्तों को बांधे रखने की दुहाई देते हुए सहसा उस का मन एक आशंका से भर गया.

‘अफेयर ही समझ लो. अब तुम से मैं आगे कुछ और नहीं छिपाऊंगा,’ कहते हुए नीरज चुप हो गया. राधिका ने नीरज के चेहरे को देखते हुए उस की आंखों में अजीब सी मदहोशी महसूस की.

‘तुम कहना क्या चाहते हो नीरज?’ राधिका नीरज की अधूरी छोड़ी बात पूरी सुनना चाहती थी. उस के बाद नीरज ने जो कुछ उस से कहा, उन में से आधी बात तो वह ठीक से सुन ही नहीं पाई.

‘तुम्हारे संग मेरी शादी मेरे लिए एक जुआ ही थी. मैं अपनी सारी जिंदगी इसी तरह कशमकश में गुजार देता पर अब यह कुछ नामुमकिन सा लगता है राधिका. बेहतर होगा हम अपनेअपने रास्ते अलगअलग ही तय करें,’ नीरज से शादी टूटने से पहले कहे गए आखिरी वाक्य उस के दिमाग में बारबार कौंधने लगे.

राधिका ने कमरे की लाइट बंद कर दी और चुपचाप लेट कर सारी रात अपनी बरबादी पर आंसू बहाती रही.

अब एक ही घर में नीरज के साथ रहते हुए वह अपनेआप को एक अजनबी महसूस कर रही थी. अपने मन की बात राधिका को जता कर जैसे नीरज के मन का भार हलका हो चुका था लेकिन राधिका जैसे मन पर एक अनचाहा भार ले कर जी रही थी. जब उस के मन का भार असहनीय हो गया तो वह नीरज के घर की दहलीज छोड़ कर अपने पिता के घर आ गई.

फिर जो हुआ वह आज के दिन में परिणत हो कर उस के सामने खड़ा था. कानूनी तौर पर वह भले ही नीरज से अलग हो चुकी थी लेकिन नीरज की सचाई और उस के द्वारा दी गई अनचाही पीड़ा अब भी उस के मन के कोने में कैद थी जिसे वह चाह कर भी किसी से बयान नहीं कर सकती थी. घर में बैठेबैठे अकेले घुटन होने से वह घर लौक कर बाहर निकल गई और एमजी रोड पर स्थित मौल में दिल बहलाने के लिए चक्कर लगाने लगी.

रात देर से नींद आने की वजह से सुबह उस की नींद देर से ही खुली. वैसे भी आज उस का वीकली औफ होने से औफिस जाने का कोई झंझट न था. उस ने उठ कर समाचार सुनने के लिए टीवी औन ही किया था कि डोरबेल बज उठी.

‘‘हाय राधिका. हाऊ आर यू?’’ दरवाजा खोलते ही नेहा राधिका से लिपट गई.

‘‘मैं ठीक हूं. तेरा टूर कैसा रहा?’’ राधिका के चेहरे पर एक फीकी सी मुसकान तैर गई.

‘‘बौस के साथ टूर हमेशा ही मजेदार रहता है. वैसे भी अब जिंदगी ऐसे मोड़ तक पहुंच गई है जहां से वापस लौटना संभव ही नहीं. यह टूर तो एक बहाना होता है एकांत पाने का,’’ कहती हुई नेहा सोफे पर पसर गई.

राधिका ने रिमोट उठा कर चुपचाप न्यूज चैनल शुरू कर दिया.

‘‘सुन, कल तेरी आखिरी सुनवाई थी न फैमिली कोर्ट में. क्या फैसला आया?’’ नेहा ने राधिका को अपने पास खींचते हुए उस से पूछा.

‘‘फैसला तो पहले से ही तय था. बस, साइन ही करने तो जाना था,’’ राधिका ने बुझेमन से जवाब दिया.

‘‘लेकिन तू ने अभी तक नहीं बताया कि आखिर ऐसा क्या हुआ जो तू ने नीरज से अलग होने का फैसला ले लिया?’’ पिछले एक साल से साथ रहने के बावजूद राधिका ने अपनी जिंदगी का एक अधूरा सच नेहा से अब तक छिपाए रखा था.

‘भारत की न्याय प्रणाली में एक ऐतिहासिक फैसला सैक्शन 377 के तहत अब गे और लैस्बियन संबंध वैध.’

तभी टीवी स्क्रीन पर आती ब्रैकिंग न्यूज देख कर राधिका असहज हो गई.

‘‘स्ट्रैंज,’’ नेहा ने न्यूज पर अपनी छोटी सी प्रतिक्रिया जताते हुए राधिका से फिर से पूछा, ‘‘तू ने बताया नहीं राधिका? कुछ कारण तो रहा होगा न?’’

‘‘बस, समझ ले कल उसे एक अनचाहे रिश्ते से कानूनीतौर पर मुक्ति मिली और आज उस मुक्ति की खुशी मनाने का मौका भी उसी कानून ने उसे दे दिया,’’ राधिका की नजरें अभी भी टीवी स्क्रीन पर जमी हुई थीं. लेकिन नेहा उस की नम हो चुकी आंखों में तैर रही खामोशी को पढ़ चुकी थी.

जातपांत : निर्मला से क्यों नाराज था उसका परिवार

निर्मला अपने पति राजन के साथ जिद कर के अपनी दादी के श्राद्ध में मायके आई थी. हालांकि राजन ने उसे बारबार यही कहा था कि बिन बुलाए वहां जाना ठीक नहीं है, फिर भी वह नहीं मानी और अपना हक समझते हुए वहां पहुंच ही गई.

निर्मला ने सोचा था कि दुख की इस घड़ी में वहां पहुंचने पर परिवार के सभी लोग गिलेशिकवे भूल कर उसे अपना लेंगे और दादी की मौत का दुख जताएंगे. पर उस का ऐसा सोचना गलत साबित हुआ.

सभी ने निर्मला को देख कर भी नजरअंदाज कर दिया, मानो वह कोई अजनबी हो.

इस के बावजूद भी निर्मला को उम्मीद थी कि परिवार वाले भले ही उसे नजरअंदाज करें, मां ऐसा नहीं कर सकतीं.

तभी निर्मला ने राजन की तरफ इस तरह देखा, मानो वह मां के पास जाने की उस से इजाजत ले रही हो. फिर वह अकेली ही मां की तरफ बढ़ गई.

उस समय निर्मला की मां औरतों के हुजूम में आगे बैठी हुई थीं. जब मां ने निर्मला को अपने करीब आते देखा, तो वे उठ कर तेजी से दूसरे कमरे में चली गईं.

मां के पीछेपीछे निर्मला भी वहां पहुंच गई और प्यार से बोली, ‘‘मां, यह सब कैसे हुआ? क्या दादी बहुत दिनों से बीमार थीं?’’

‘‘तुम से मतलब? आखिर तुम पूछने वाली होती कौन हो? चली जाओ यहां से. फिर कभी भूल कर भी इस घर की तरफ मत देखना, नहीं तो तुम मेरा मरा हुआ मुंह देखोगी,’’ गुस्से से चीखते हुए उस की मां बोलीं.

‘‘ऐसा न कहो, मां. नहीं तो मैं अनाथ हो जाऊंगी. आखिर तुम्हारा ही तो सहारा है मुझे. मां हो कर भी तुम मेरे मन की भावना को नहीं समझोगी, तो और कौन समझेगा?’’ रोते हुए निर्मला बोली.

‘‘नहीं समझना है मुझे. कुछ नहीं समझना,’’ चीखते हुए उस की मां ने कहा.

‘‘क्यों नहीं समझना है, मां? तुम्हें समझना ही पड़ेगा. अपनी बेटी के दुख को महसूस करना ही पड़ेगा. आखिर मेरा इतना ही कुसूर था न कि मैं ने राजन से सच्चा प्यार किया? उस से शादी की, जो हमारी बिरादरी का नहीं है?

‘‘लेकिन मां, तुम मुझे गौर से देखो कि मैं राजन के साथ कितनी खुश हूं. मुझे किसी बात का दुख नहीं है,’’ खुशी जताते हुए निर्मला ने कहा.

‘‘मुझे कुछ नहीं देखना है और न ही सुनना है, बस. तुम अभी और इसी समय उस राजन को ले कर यहां से चली जाओ, ताकि तुम्हारी दादी का श्राद्ध शांति से पूरा हो सके,’’ मां बोलीं.

‘‘हम यहां से चले जाएंगे, मां, रहने के लिए नहीं आए हैं. केवल दादी के श्राद्ध में आए हैं. बस, उसे पूरा हो जाने दो. क्योंकि दादी से मेरा और मुझ से उन का कितना गहरा लगाव था, यह तुम अच्छी तरह से जानती हो. मेरे बिना तो वे कुछ भी नहीं खातीपीती थीं,’’ सुबकते हुए निर्मला ने कहा.

‘‘इसीलिए तो तुम उस कलमुंहे राजन के साथ भाग गई और कोर्ट में जा कर शादी कर ली. तब तुम्हें दादी का इतना खयाल नहीं था, जबकि उन्होंने तुम्हारी याद में अपनी जान दे दी?’’

‘‘मुझे दादी का बहुत खयाल था, मां. परंतु मैं क्या करती, आप सभी तो मुझ से खफा थे. डर के चलते मैं नहीं आ सकी,’’ रोते हुए निर्मला ने कहा.

‘‘बड़ी आई डर वाली. जब इतना ही डर था, तो घर से कदम बाहर निकालते समय हजार बार सोचती? फिर भी कुछ नहीं सोचा.

‘‘अरे, क्या अपनी बिरादरी में लड़कों की कमी हो गई थी, जो उस नाशपीटे राजन के साथ भाग गई?’’ तीखी आवाज में उस की मां ने कहा.

मां के सवालों का जवाब देने के बजाय निर्मला ने कहा, ‘‘मां, मुझे जी भर कर कोस लो, लेकिन उन्हें कुछ न कहो, क्योंकि अब वे मेरे पति हैं.’’

‘‘तुम तो ऐसे कह रही हो, जैसे दुनिया में केवल एक तुम ही पति वाली हो, बाकी सब दिखावे वाली हैं,’’ खिल्ली उड़ाते हुए उस की मां बोलीं.

‘‘मां, मेरी अच्छी मां, तुम तो मुझे ऐसा न कहो. हर मांबाप का सपना होता है कि मेरी बेटी अच्छे घर में ब्याहे, सुखशांति से रहे. उन्हीं में से मैं एक हूं.

‘‘तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि मैं ने अपने जीवनसाथी का खुद ही चुनाव कर तुम लोगों की परेशानी को दूर किया है. इस के बावजूद भी सभी की तरह तुम भी मुझे नजरअंदाज कर रही हो?’’ दुखी हो कर निर्मला ने कहा.

‘‘हां, तुम इसी काबिल हो, इसीलिए नहीं मिलेगा अब तुम्हें वह लाड़प्यार और अपनापन, जो कभी यहां मिला करता था…’’

निर्मला की मां की बातें अभी पूरी भी नहीं हो पाई थीं कि पिता, भाई, बहन व भाभी सभी वहां आ गए और गुस्से से निर्मला को घूरने लगे.

तभी उस के पिता दयाशंकर ने गुस्से में कहा, ‘‘कलंकिनी, मुझे तो तेरा नाम लेते हुए भी नफरत हो रही है. आखिर तुम ने मेरे घर में कदम रखने की हिम्मत कैसे की?’’

‘‘ऐसा न कहिए, पापा. आखिर इस घर से मेरा भी तो कोई रिश्ता है? उसी रिश्ते के वास्ते तो मैं यहां आई हूं. मुझे और मेरे पति को अपना लीजिए, पापा,’’ रोतेगिड़गिड़ाते हुए निर्मला ने कहा.

‘‘खबरदार, जो मुझे पापा कहा. तेरा पापा तो उसी दिन मर गया था, जिस दिन तू इस घर को छोड़ कर गई थी. रहा सवाल अपनाने का, तो यह हक अब तुम खो चुकी हो.’’

‘‘नहीं, पापा नहीं. ऐसा न कहो और ठंडे दिमाग से सोचो कि प्यार करना क्या कोई जुर्म है?

‘‘आखिर मैं भी तो बालिग हूं. जब मैं अपना भलाबुरा सोचसमझ सकती हूं, तो फिर मुझे फैसला लेने का हक क्यों नहीं है? और फिर चाहे बातें भविष्य की हों या जीवनसाथी चुनने की, लड़कियों को यह हक जरूर मिलना चाहिए,’’ थोड़ा खुश हो कर निर्मला ने कहा.

‘‘तू मुझे हक के बारे में समझा रही है? अगर तू इतनी ही समझदार होती, तो अपनी ही जाति के लड़के से शादी करती, न कि किसी दूसरी जाति के लड़के से,’’ निर्मला के पिता ने कहा.

‘‘दूसरी जाति के लड़के क्या इनसान नहीं होते? क्या उन में समझदारी नहीं होती? इस की मिसाल तो राजन ही हैं, जिन्होंने मुझे जिंदगी की सारी खुशियां दे रखी हैं, कोई कमी महसूस नहीं होने दी है उन्होंने. मैं इस तरह के जातपांत के भेदभाव को नहीं मानती, जो एक इनसान को दूसरे इनसान से अलग करता हो, आपस में दूरियां बढ़ाता हो…

‘‘मैं केवल इनसानियत की जात को जानती व मानती हूं,’’ निर्मला बोलती चली गई.

‘‘बस करो अपनी यह बकवास और उस राजन के साथ यहां से चलती बनो,’’ इस बार चीखते हुए निर्मला का भाई विशाल बोला.

‘‘भैया, मुझे जो चाहो कह लो, मैं सब बरदाश्त कर लूंगी. लेकिन उन के बारे में कुछ भी नहीं सुन सकती. क्योंकि एक पत्नी अपने सामने पति की बेइज्जती कभी बरदाश्त नहीं कर सकती.’’

‘‘अच्छा, तब तो मुझे तुम्हारे पति की बेइज्जती करनी ही होगी, वह भी तुम्हारे सामने,’’ नजरें तिरछी करते हुए विशाल बोला.

‘‘क्या…? यह तुम कह रहे हो? जबकि तुम भी किसी के पति हो और तुम्हारी पत्नी तुम्हारे सामने खड़ी है. महाभारत मचा दूंगी मैं यहां. तुम क्या समझते हो अपनेआप को कि वे तुम से कमजोर हैं?

‘‘वे जूडोकराटे में ब्लैकबैल्ट हैं और साथ ही पुलिस में भी हैं. उन से टकराना तुम्हें महंगा पड़ेगा, भैया.

‘‘हां, मैं यदि चाहूं, तो तुम्हारी पत्नी के सामने तुम्हारी बेइज्जती जरूर करवा सकती हूं, ताकि तुम बेइज्जती के दर्द को महसूस कर सको.

‘‘लेकिन, मैं इतनी बेवकूफ भी नहीं हूं कि तुम्हारी तरह कुछ करने से पहले कुछ सोचसमझ न सकूं. औरत हूं, इसलिए औरत का दर्द समझती हूं. लिहाजा, ऐसा कुछ नहीं करना चाहूंगी, जिस से कि भाभी के मन में दुख हो.’’

निर्मला की बातें सुन कर उस की भाभी सुबक पड़ी और उस ने आगे बढ़ कर निर्मला को गले लगा लिया.

‘‘माधुरी, यह तुम क्या कर रही हो? दूर हटो उस से. इस से हमारा कोई रिश्ता नहीं है,’’ चीखते हुए विशाल बोला.

‘‘रिश्ता है क्यों नहीं? खून का रिश्ता है हमारा, इसलिए अपनी बहन को अपना लीजिए. इस ने ठीक ही कहा है कि जातपांत कुछ नहीं होता. होती है तो केवल इनसानियत, और इनसानियत का रिश्ता,’’ निर्मला की तरफदारी लेते हुए उस की भाभी माधुरी ने कहा, मानो वह भी इनसानियत के रिश्ते को ही अहमियत दे रही हो.

लेकिन माधुरी की बातें सुन कर विशाल बौखला गया. वह गुस्से से बोला, ‘‘माधुरी, लगता है इस के साथसाथ तुम्हारा भी दिमाग खराब हो गया है, कहीं…’’

अभी विशाल अपनी बातें पूरी भी नहीं कर पाया था कि तभी वहां राजन आ गया और सूझबूझ का परिचय देते हुए गंभीरता से बोला, ‘‘निर्मला, अब चलो यहां से. बहुत हो चुकी तुम्हारी बेइज्जती. मैं अब और सहन नहीं कर सकता.

‘‘मैं ने सबकुछ सुन लिया है और जान लिया है कि ये लोग ऐसे पत्थरदिल इनसान हैं, जो जातपांत का ढोंग रच कर समाज को गंदा करते हैं.’’

‘‘आप बिलकुल ठीक कहते हैं. अब मुझे समझ में आया कि मैं ने यहां आ कर कितनी बड़ी भूल की है?

‘‘ले चलिए मुझे. अब एक पल भी मैं यहां रुकना नहीं चाहूंगी,’’ उठते हुए निर्मला बोली और अपने पति राजन का हाथ थाम कर घर से बाहर जाने लगी.

उस की छोटी बहन उर्मिला ने दौड़ कर निर्मला का हाथ थाम लिया और सिसकते हुए बोली, ‘‘दीदी, मत जाओ. मुझे छोड़ कर मत जाओ.’’

‘‘पगली, मैं कहां तुम्हें छोड़ कर जा रही हूं? हां, जातपांत और उन बुरे रिवाजों को छोड़ कर जा रही हूं, जिसे मां, पापा व भैया ने अपनी मुट्ठियों में जकड़ रखा है.

‘‘मैं यहां नहीं आऊंगी तो क्या हुआ, तुम तो अपनी दीदी के घर आ सकती हो?’’ निर्मला बोली.

‘‘जरूर आऊंगी दीदी,’’ उर्मिला ने खुश हो कर कहा.

‘‘मैं इंतजार करूंगी,’’प्यार से उस के सिर पर अपना हाथ फेरते हुए निर्मला ने कहा और अपने पति राजन के साथ घर से बाहर निकल गई.

ख्वाब : प्रभा को क्यों थी फैशन से नफरत

कम्मो ने जब दोनों हाथ जोड़ कर होंठों पर भीनीभीनी हंसी बिखेरते हुए नमस्कार किया, तो जवाब देने के बजाय मैं उस के जिस्म को अपनी ललचाई आंखों से देखता ही रह गया.

‘‘चाय लीजिए,’’ कह कर वह दरवाजे पर झूलते रेशमी परदे को एक किनारे सरका कर कमरे में चली गई.

मेरे बदन में अजीब सी सिहरन पैदा हो गई. उस की सुरीली, मीठी आवाज सुन कर मेरे कानों में जैसे घंटियां बजने लगीं. चाय खत्म कर के मैखाने से निकले दीवानों की तरह अपने बेकाबू दिल को काबू में रखते हुए और अपनी जिंदगी को कोसते हुए मैं घर की तरफ चल दिया.

मैं ने सोचा, ‘काश, मेरी बीवी भी कम्मो जैसी नाजनखरे वाली चंचल और हसीन होती तो जीने का मजा कुछ और ही होता.’

‘मोहन ने क्लर्क होते हुए भी पहली बीवी को छोड़ कर अपनी मनपसंद लड़की से शादी की है. मैं तो कैशियर होते हुए भी पहली ही बीवी को अपना जीवनसाथी मान कर, समाज के सड़ेगले रिवाजों के दलदल में फंस कर जिंदगी की हकीकत से मुंह मोड़ चुका हूं.’

मेरी बीवी प्रभा को आजकल के फैशन से सख्त नफरत थी. वह थोड़े ही खर्च में अपना काम चला लेती. कहती, ‘‘अमीर बन कर गरीबी के दिनों को बिसारना नहीं चाहिए.’’

‘लेकिन, वक्त के साथ जिस में बदलाव नहीं आया, उस की भी कोई जिंदगी है,’ मैं रास्तेभर यही सोचता रहा.

प्रभा के लिए मेरे दिल में नफरत भर गई थी, इसलिए ठान लिया कि अब नई हसीन बीवी ला कर ही रहूंगा. मैं यह सब सोचसोच कर खुशी से झूमने लगा.

घर पहुंचने पर प्रभा जब पानी ले कर आ गई, तो मैं बंदूक से निकली गोली की तरह उस पर बरसने लगा. पर वह शांत बनी रही.

मैं बिस्तर पर जा कर लेट गया, तो उस ने मेरा पैर पकड़ते हुए पूछा, ‘‘तबीयत तो ठीक है न, जिस्म कुछ गरम लग रहा है?’’

मैं ने बिजली की तरह तड़कते हुए कहा, ‘‘तो क्या तुम समझती हो कि मैं ठंडा हो गया हूं?

‘‘तुम तो चाहती ही हो कि जल्दी से साथ छूटे और मौजमस्ती से जिंदगी गुजारूं. पैंशन तो मिलेगी ही.’’

शाम को जब प्रभा खाना ले कर आ गई, तो मैं ने बुराभला कहते हुए थाली फेंक दी, ‘‘तुम्हारे हाथ का बनाया हुआ खाना हम नहीं खाएंगे.’’

इस पर प्रभा दूसरे कमरे में जा कर रोने लगी. उस के दिल को जो चोट पहुंची थी, मुझे उस की कोई परवाह नहीं थी. मेरे दिल में बस एक ही धुन थी, नई हसीन बीवी लाने की. सोचतेसोचते न जाने कब नींद आ गई…

इसे संयोग ही समझिए कि मेरा तबादला शिवापुर हो गया. वहां पहुंच कर मैं ने अपने कुंआरे होने की खबर सब के कानों में डाल दी. कुछ ही दिनों के बाद मेरी शादी के लिए लौटरी के टिकट खरीदने वालों की तरह तमाम लोग तरहतरह से कोशिशें करने लगे. कोई अपनी लड़की की तसवीर दिखा कर खुश करने की कोशिश करता, तो कोई चाय पर बुलाता.

आखिरकार अपनी चाहत के मुताबिक एक खूबसूरत शशि नाम की कुंआरी लड़की को मैं ने अपनी बीवी बनाने का इरादा कर ही लिया. जल्दी ही शादी कर के शशि को अपने घर ले आया. शशि को पा कर जैसे मैं उड़नखटोले पर झूलने लगा.

दूसरे दिन शशि ने मुझ से लिपटते हुए कहा, ‘‘हमारी इच्छा है कि हम लोग शिमला चल कर किसी अच्छे से होटल में कुछ दिन खूब मौजमस्ती करें. आप का क्या इरादा है?’’

शशि जिन प्यारीप्यारी अदाओं के साथ अपनी बात कह रही थी, उस से मेरा सिर अपनेआप उस के कदमों में झुक गया. 15 दिनों तक शिमला में हम ने खूब रंगरलियां मनाईं.

शिमला से लौटने के बाद शशि ने कहा, ‘‘कोई अच्छा सा मकान ले लीजिए… इस में मेरा दम घुटता है.’’

मैं ने कुछ दिन पुराने घर में रहने के लिए कहा, तो वह नाराज हो गई. मरता क्या न करता. मजबूर हो कर एक अच्छा सा मकान किराए पर ले लिया.

एक दिन अचानक मेरी तबीयत खराब हो गई. जब मैं आराम करने के लिए घर आया, तो वहां ताला लटक रहा था. घंटेभर बाद 2 आटोरिकशा घर के बाहर आ कर रुके और उन में से शशि के साथ 5 और औरतें भी उतरीं.

मैं ने सवालिया निगाहों से शशि की ओर देखा, तो वह बोली, ‘‘मेरी सहेलियां आ गई थीं… इन्हीं को ले कर फिल्म देखने चली गई थी. घर बैठेबैठे जान निकल जाती है,’’ कहते हुए वह सहेलियों की खातिरदारी में जुट गई.

मैं चुप हो गया. उसी रात मैं बीमार हो गया. कमरे में पलंग पर पड़ापड़ा बुखार से तड़पता रहा. फिर प्रभा की सेवा को याद कर के मैं रो पड़ा. वह मेरे आने की आहट पाते ही सेवा की तैयारी में जुट जाती थी. अब सेवासत्कार की कौन कहे, शशि के हाथ से एक गिलास पानी के लिए भी तरस गया था. उस को तो घूमनेफिरने और दोस्तों की खातिरदारी से ही फुरसत नहीं थी.

रातभर मैं अपनी भूल पर पछताता रहा. सुबह के 8 बज गए, लेकिन शशि बिस्तर पर अभी करवटें बदल रही थी. मैं बुखार की तपिश में जल रहा था, पर करता भी क्या? मैं तो नकली नोट की तरह अपनी पहचान भी खो चुका था.

तूफान से टूटे फल की तरह मेरा मुरझाया चेहरा जब दफ्तर के लोगों ने देखा तो खूब मजाक किया. पर मैं अपनी ही कमजोरी समझ कर सिर नीचा किए अपने काम में जुट गया.

जब शादी हो गई तो बच्चे होना कोई हैरानी की बात नहीं, यानी एक प्यारा सा बेटा पा कर मैं खुशी से झूम उठा. पर, मेरे मन में एक बड़ी मुश्किल पैदा हो गई थी, क्योंकि शशि बच्चे की देखभाल नहीं करती थी. यहां तक कि उसे अपना दूध भी नहीं पिलाती थी. कहती, ‘‘बच्चे को अपना दूध पिलाने से मां में कमजोरी आ जाती है.’’

शशि के इस बुरे बरताव से मैं दुखी हो गया. उस का यह नजरिया मेरे जिस्म में जहर घोल रहा था. मैं ने उसे खूब जलीकटी सुनाई, तो उस ने मेरी खूब बेइज्जती की. मैं अपनी गलती महसूस कर रहा था. झगड़ा बढ़ जाने पर वह सामान ले कर जाने लगी, तो मैं ने कहा, ‘‘अपने लाड़ले के लिए तो रुक जाओ.’’

पर शशि ने जातेजाते कहा, ‘‘तुम्हारे लाड़ले से मेरा कोई वास्ता नहीं… अब मैं चली. तुम्हारे जैसे लोग मेरे पैरों की धूल चूमने के लिए मेरे आगेपीछे भंवरे की तरह मंडराते हैं.’’

मेरे पास कोई जवाब नहीं था. मेरा सबकुछ लुट चुका था. अब मौडर्न बीवी का नशा भी उतर चुका था.

मैं प्रभा का नाम ले कर जोर से चीख पड़ा…

तभी प्रभा मेरे सिर को सहलाती हुई दुखभरी आवाज में बोली, ‘‘क्या हो गया है?’’

‘‘प्रभा तुम… तुम यहीं हो?’’ मेरी बात सुन कर उस की आंखों से झरझर आंसू बहने लगे. शायद मुझे नींद आने के बाद रातभर जाग कर वह मेरी सेवा करती रही थी. मेरा सोया प्यार फिर से जाग उठा और मैं ने प्रभा को गले लगा लिया. फिर आंखें मलते हुए मैं ने कहा, ‘‘मैं एक बुरा ख्वाब देख रहा था.’’

सुबह हो चुकी थी. अचानक दरवाजा खटखटाने की आवाज आई. दरवाजा खोला तो मोहन बाबू को सामने पाया. मैं ने हैरानी से पूछा, ‘‘सुबहसुबह कैसे आना हुआ?’’

मोहन बाबू ने भरी आंखों से पूछा, ‘‘कम्मो यहां तो नहीं आई? शायद वह मुझे छोड़ कर कहीं चली गई है…’’

अपारदर्शी सच: किस रास्ते पर चलने लगी तनुजा

रात के 11 बज चुके थे. तनुजा की आंखें नींद और इंतजार से बोझिल हो रही थीं. बच्चे सो चुके थे. मम्मीजी और मनीष लिविंगरूम में बैठे टीवी देख रहे थे. तनुजा का मन हो रहा था कि मनीष को आवाज दे कर बुला ले, लेकिन मम्मी की उपस्थिति के लिहाज के चलते उसे ठीक नहीं लगा. पानी पीने के लिए किचन में जाते हुए उस ने मनीष को देखा पर उन का ध्यान नहीं गया. पानी पी कर भी अतृप्त सी वह वापस कमरे में आ गई.

बिस्तर पर बैठ कर उस ने एक नजर कमरे पर डाली. उस ने और मनीष ने एकदूसरे की पसंदनापसंद का खयाल रख कर इस कमरे को सजाया था.

हलके नीले रंग की दीवारों में से एक पर खूबसूरत पहाड़ी, नदी से गिरते झरने और पेड़ों की पृष्ठभूमि से सजी पूरी दीवार के आकार का वालपेपर. खिड़कियों पर दीवारों से तालमेल बिठाते नैट के परदे, फर्श से छत तक की अलमारियां, तरहतरह के सौंदर्य प्रसाधनों से भरी अंडाकार कांच की ड्रैसिंगटेबल, बिस्तर पर साटन की रौयल ब्लू चादर और टेबल पर सजा महकते रजनीगंधा के फूलों का गुलदस्ता. उसे लगा, सभी मनीष का इंतजार कर रहे हैं.

तनुजा की आंख खुली, तब दिन चढ़ आया था. उस का इंतजार अभी भी बदन में कसमसा रहा था. मनीष दोनों हाथ बांधे बगल में खर्राटे ले कर सो रहे थे. उस का मन हुआ, उन दोनों बांहों को खुद ही खोल कर उन में समा जाए और कसमसाते इंतजार को मंजिल तक पहुंचा दे. लेकिन घड़ी ने इस की इजाजत नहीं दी. फुरफुराते एहसासों को जूड़े में लपेटते वह बाथरूम चली गई.

बेटे ऋषि व बेटी अनु की तैयारी करते, सब का नाश्ताटिफिन तैयार करते, भागतेदौड़ते खुद की औफिस की तैयारी करते हुए भी रहरह कर एहसास कसमसाते रहे. उस ने आंखें बंद कर जज्बातों को जज्ब करने की कोशिश की, तभी सासुमां किचन में आ गईं. वह सकपका गई. उस ने झटके से आंखें खोल लीं और खुद को व्यस्त दिखाने के लिए पास पड़ा चाकू उठा लिया पर सब्जी तो कट चुकी थी, फिर उस ने करछुल उठा लिया और उसे खाली कड़ाही में चलाने लगी. सासुमां ने चश्मे की ओट से उसे ध्यान से देखा.

कड़ाही उस के हाथ से छूट गई और फर्श पर चक्कर काटती खाली कड़ाही जैसे उस के जलते एहसास उस के जेहन में घूमने लगे और वह चाह कर भी उन्हें थाम नहीं पाई.

एक कोमल स्पर्श उस के कंधों पर हुआ. 2 अनुभवी आंखों में उस के लिए संवेदना थी. वह शर्मिंदा हुई उन आंखों से, खुद को नियंत्रित न कर पाने से, अपने यों बिखर जाने से. उस ने होंठ दबा कर अपनी रुलाई रोकी और तेजी से अपने कमरे में चली गई.

बहुत कोशिश करने के बावजूद उस की रुलाई नहीं रुकी, बाथरूम में शायद जी भर रो सके. जातेजाते उस की नजर घड़ी पर पड़ी. समय उस के हाथ में न था रोने का. तैयार होतेहोते तनुजा ने सोते हुए मनीष को देखा. उस की बेचैनी से बेखबर मनीष गहरी नींद में थे.

तैयार हो कर उस ने खुद को शीशे में निहारा और खुद पर ही मुग्ध हो गई. कौन कह सकता है कि वह कालेज में पढ़ने वाले बच्चों की मां है? कसी हुई देह, गोल चेहरे पर छोटी मगर तीखी नाक, लंबी पतली गरदन, सुडौल कमर के गिर्द लिपटी साड़ी से झांकते बल. इक्कादुक्का झांकते सफेद बालों को फैशनेबल अंदाज में हाईलाइट करवा कर करीने से छिपा लिया है उस ने. सब से बढ़ कर है जीवन के इस पड़ाव का आनंद लेती, जीवन के हिलोरों को महसूस करते मन की अंगड़ाइयों को जाहिर करती उस की खूबसूरत आंखें. अब बच्चे बड़े हो कर अपने जीवन की दिशा तय कर चुके हैं और मनीष अपने कैरियर की बुलंदियों पर हैं. वह खुद भी एक मुकाम हासिल कर चुकी है. भविष्य के प्रति एक आश्वस्ति है जो उस के चेहरे, आंखों, चालढाल से छलकती है.

मनीष उठ चुके थे. रात के अधूरे इंतजार के आक्रोश को परे धकेल एक मीठी सी मुसकान के साथ उस ने गुडमौर्निंग कहा. मनीष ने एक मोहक नजर उस पर डाली और उठ कर उसे बांहों में भर लिया. रीढ़ में फुरफुरी सी दौड़ गई. कसमसाती इच्छाएं मजबूत बांहों का सहारा पा कर कुलबुलाने लगीं. मनीष की आंखों में झांकते हुए तपते होंठों को उस के होंठों के पास ले जाते शरारत से उस ने पूछा, ‘‘इरादा क्या है?’’ मनीष जैसे चौंक गए, पकड़ ढीली हुई, उस के माथे पर चुंबन अंकित करते, घड़ी की ओर देखते हुए कहा, ‘‘इरादा तो नेक ही है, तुम्हारे औफिस का टाइम हो गया है, तुम निकल जाना.’’ और वे बाथरूम की तरफ बढ़ गए.

जलते होंठों की तपन को ठंडा करने के लिए आंसू छलक पड़े तनुजा के. कुछ देर वह ऐसे ही खड़ी रही उपेक्षित, अवांछित. फिर मन की खिन्नता को परे धकेल, चेहरे पर पाउडर की एक और परत चढ़ा, लिपस्टिक की रगड़ से होंठों को धिक्कार कर वह कमरे से बाहर निकल गई.

करीब सालभर पहले तक सब सामान्य था. मनीष और तनुजा जिंदगी के उस मुकाम पर थे जहां हर तरह से इतमीनान था. अपनी जिंदगी में एकदूसरे की अहमियत समझतेमहसूस करते एकदूसरे के प्यार में खोए रहते.

इस निश्चितता में प्यार का उछाह भी अपने चरम पर था. लगता, जैसे दूसरा हनीमून मना रहे हों जिस में अब उत्सुकता की जगह एकदूसरे को संपूर्ण जान लेने की तसल्ली थी. मनीष अपने दम भर उसे प्यार करते और वह पूरी शिद्दत से उन का साथ देती. फिर अचानक यों ही मनीष जल्दी थकने लगे तो उसी ने पूरा चैकअप करवाने पर जोर दिया.

सबकुछ सामान्य था पर कुछ तो असामान्य था जो पकड़ में नहीं आया था. वह उन का और ध्यान रखने लगी. खाना, फल, दूध, मेवे के साथ ही उन की मेहनत तक का. उस की इच्छाएं उफान पर थीं पर मनीष के मूड के अनुसार वह अपने पर काबू रखती. उस की इच्छा देखते मनीष भी अपनी तरफ से पूरी कोशिश करते लेकिन वह अतृप्त ही रह जाती.

हालांकि उस ने कभी शब्दों में शिकायत दर्ज नहीं की, लेकिन उस की झुंझलाहट, मुंह फेर कर सो जाना, तकिए में मुंह दबा कर ली गई सिसकियां मनीष को आहत और शर्मिंदा करती गईं. धीरेधीरे वे उन अंतरंग पलों को टालने लगे. तनुजा कमरे में आती तो मनीष कभी तबीयत खराब होने का बहाना बनाते, कभी बिजी होने की बात कर लैपटौप ले कर बैठ जाते.

कुछकुछ समझते हुए भी उसे शक हुआ कि कहीं मनीष का किसी और से कोई चक्कर तो नहीं है? ऐसा कैसे हो सकता है जो व्यक्ति शाम होते ही उस के आसपास मंडराने लगता था वह अचानक उस से दूर कैसे होने लगा? लेकिन उस ने यह भी महसूस किया कि मनीष

अब भी उस से प्यार करते हैं. उस की छोटीछोटी खुशियां जैसे सप्ताहांत में सिनेमा, शौपिंग, आउटिंग सबकुछ वैसा ही तो था. किसी और से चक्कर होता तो उसे और बच्चों को इतना समय वे कैसे देते? औफिस से सीधे घर आते हैं, कहीं टूर पर जाते नहीं.

शक का कीड़ा जब कुलबुलाता है तब मन जितना उस के न होने की दलीलें देता है उतना उस के होने की तलाश करता. कभी नजर बचा कर डायरी में लिखे नंबर, तो कभी मोबाइल के मैसेज भी तनुजा ने खंगाल डाले पर शक करने जैसा कुछ नहीं मिला.

उस ने कईकई बार खुद को आईने में निहारा, अंगों की कसावट को जांचा, बातोंबातों में अपनी सहेलियों से खुद के बारे में पड़ताल की और पार्टियों, सोशल गैदरिंग में दूसरे पुरुषों की नजर से भी खुद को परखा. कहीं कोई बदलाव, कोई कमी नजर नहीं आई. आज भी जब पूरी तरह से तैयार होती है तो देखने वालों की नजर एक बार उस की ओर उठती जरूरी है.

हर ऐसे मौकों पर कसौटी पर खरा उतरने का दर्प उसे कुछ और उत्तेजित कर गया. उस की आकांक्षाएं कसमसाने लगीं. वह मनीष से अंतरंगता को बेचैन होने लगी और मनीष उन पलों को टालने के लिए कभी काम में, कभी बच्चों और टीवी में व्यस्त होने लगे.

अधूरेपन की बेचैनी दिनोंदिन घनी होती जा रही थी. उस दिन एक कलीग को अपनी ओर देखता पा कर तनुजा के अंदर कुछ कुलबुलाने लगा, फुरफुरी सी उठने लगी. एक विचार उस के दिलोदिमाग में दौड़ कर उसे कंपकंपा गया. छी, यह क्या सोचने लगी हूं मैं? मैं ऐसा कभी नहीं कर सकती. मेरे मन में यह विचार आया भी कैसे? मनीष और मैं एकदूसरे से प्यार करते हैं, प्यार का मतलब सिर्फ यही तो नहीं है. कितना धिक्कारा था तनुजा ने खुद को लेकिन वह विचार बारबार कौंध जाता, काम करते हाथ ठिठक जाते, मन में उठती हिलोरें पूरे शरीर को उत्तेजित करती रहीं.

अतृप्त इच्छाएं, हर निगाह में खुद के प्रति आकर्षण और उस आकर्षण को किस अंजाम तक पहुंचाया जा सकता है, वह यह सोचने लगी. संस्कारों के अंकुश और नैसर्गिक प्यास की कशमकश में उलझी वह खोईखोई सी रहने लगी.

उस दिन दोपहर तक बादल घिर आए थे. खाना खा कर वह गुदगुदे कंबल में मनीष के साथ एकदूसरे की बांहों में लिपटे हुए कोई रोमांटिक फिल्म देखना चाहती थी. उस ने मनीष को इशारा भी किया जिसे अनदेखा कर मनीष ने बच्चों के साथ बाहर जाने का प्रोग्राम बना लिया. वे नासमझ बन तनुजा से नजरें चुराते रहे, उस के घुटते दिल को नजरअंदाज करते रहे. वह चिढ़ गई. उस ने जाने से मना कर दिया, खुद को कमरे में बंद कर लिया और सारा दिन अकेले कमरे में रोती रही.

तनुजा ने पत्रपत्रिकाएं, इंटरनैट सब खंगाल डाले. पुरुषों से जुड़ी सैक्स समस्याओं की तमाम जानकारियां पढ़ डालीं. परेशानी कहां है, यह तो समझ आ गया लेकिन समाधान? समाधान निकालने के लिए मनीष से बात करना जरूरी था. बिना उन के सहयोग के कोई समाधान संभव ही नहीं था. बात करना इतना आसान तो नहीं था.

शब्दों को तोलमोल कर बात करना, एक कड़वे सच को प्रकट करना इस तरह कि वह कड़वा न लगे, एक ऐसी सचाई के बारे में बात करना जिसे मनीष पहले से जानते हैं कि तनुजा इसे नहीं जानती और अब उन्हें बताना कि वह भी इसे जानती है, यह सब बताते हुए भी कोई आक्षेप, कोई इलजाम न लगे, दिल तोड़ने वाली बात पर दिल न टूटे, अतिरिक्त प्यारदेखभाल के रैपर में लिपटी शर्मिंदगी को यों सामने रखना कि वह शर्मिंदा न करे, बेहद कठिन काम था.

दिन निकलते गए. कसमसाहटें बढ़ती गईं. अतृप्त प्यास बुझाने के लिए वह रोज नए मौकेरास्ते तलाशती रही. समाज, परिवार और बच्चे उस पर अंकुश लगाते रहे. तनुजा खुद ही सोचती कि क्या इस एक कमी को इस कदर खुद पर हावी होने देना चाहिए? तो कभी खुद ही इस जरूरी जरूरत के बारे में सोचती जिस के पूरा न होने पर बेचैन होना गलत भी तो नहीं. अगर मनीष अतृप्त रहते तो क्या ऐसा संयम रख पाते? नहीं, मनीष उसे कभी धोखा नहीं देते या शायद उसे कभी पता ही नहीं चलने देते.

निशा उस की अच्छी सहेली थी. उस से तनुजा की कशमकश छिपी न रह सकी. तनुजा को दिल का बोझ हलका करने को एक साथी तो मिला जिस से सहानुभूति के रूप में फौरीतौर पर राहत मिल जाती थी. निशा उसे समझाती तो थी पर क्या वह समझना चाहती है, वह खुद भी नहीं समझ पाती थी. उस ने कई बार इशारे में उसे विकल्प तलाशने को कहा तो कई बार इस के खतरे से आगाह भी किया. कई बार तनुजा की जरूरत की अहमितयत बताई तो कई बार समाज, संस्कार के महत्त्व को भी समझाया. तनुजा की बेचैनी ने उस के मन में भी हलचल मचाई और उस ने खुद ही खोजबीन कर के कुछ रास्ते सुझाए.

धड़कते दिल और डगमगाते कदमों से तनुजा ने उस होटल की लौबी में प्रवेश किया था. साड़ी के पल्लू को कस कर लपेटे वह खुद को छिपाना चाह रही थी पर कितनी कामयाब थी, नहीं जानती. रिसैप्शन पर बड़ी मुश्किल से रूम नंबर बता पाई थी. कितनी मुश्किल से अपने दिल को समझा कर वह खुद को यहां तक ले कर आई थी. खुद को लाख मनाने और समझाने पर भी एक व्यक्ति के रूप में खुद को देख पाना एक स्त्री के लिए कितना कठिन होता है, यह जान रही थी.

अपनी इच्छाओं को एक दायरे से बाहर जा कर पूरा करना कितना मुश्किल होता है, लिफ्ट से कमरे तक जाते यही विचार उस के दिमाग को मथ रहे थे. कमरे की घंटी बजा कर दरवाजा खुलने तक 30 सैकंड में 30 बार उस ने भाग जाना चाहा. दिल बुरी तरह धड़क रहा था. दरवाजा खुला, उस ने एक बार आसपास देखा और कमरे के अंदर हो गई. एक अनजबी आवाज में अपना नाम सुनना भी बड़ा अजीब था. फुरफुराते एहसास उस की रीढ़ को झुनझुना रहे थे. बावजूद इस के, सामने देख पाना मुश्किल था. वह कमरे में रखे एक सोफे पर बैठ गई, उसे अपने दिमाग में मनीष का चेहरा दिखाई देने लगा.

क्या वह ठीक कर रही? इस में गलत क्या है? आखिर मैं भी एक इंसान हूं. अपनी इच्छाएं, अपनी जरूरतें पूरी करने का हक है मुझे. मनीष को पता चला तो?

कैसे पता चलेगा, शहर के इस दूसरे कोने में घरऔफिस से दसियों किलोमीटर दूर कुछ हुआ है, इस की भनक तक इतनी दूर नहीं लगेगी. इस के बाद क्या वह खुद से नजरें मिला पाएगी? यह सब सोच कर उस की रीढ़ की वह सनसनाहट ठंडी पड़ गई, उठ कर भाग जाने का मन हुआ. वह इतनी स्वार्थी नहीं हो सकती. मनीष, मम्मी, बच्चे, जानपहचान वाले, रिश्तेदार सब की नजरों में वह नहीं गिर सकती.

वेटर 2 कौफी रख गया. कौफी की भाप के उस पार 2 आंखें उसे देख रही थीं. उन आंखों की कामुकता में उस के एहसास फिर फुरफुराने लगे. उस ने अपने चेहरे से हो कर गरदन, वक्ष पर घूमती उन निगाहों को महसूस किया. उस के हाथ पर एक स्पर्श उस के सर्वांग को थरथरा गया. उस ने आंखें बंद कर लीं. वह स्पर्श ऊपर और ऊपर चढ़ते बाहों से हो कर गरदन के खुले भाग पर मचलने लगा. उस की अतृप्त कामनाएं सिर उठाने लगीं. अब वह सिर्फ एक स्त्री थी हर दायरे से परे, खुद की कैद से दूर, अपनी जरूरतों को समझने वाली, उन्हें पूरा करने की हिम्मत रखने वाली.

सहीगलत की परिभाषाओं से परे अपनी आदिम इच्छाओं को पूरा करने को तत्पर वह दुनिया के अंतिम कोने तक जा सकने को तैयार, उस में डूब जाने को बेचैन. तभी वह स्पर्श हट गया, अतृप्त खालीपन के झटके से उस ने आंखें खोल दीं. आवाज आई, ‘कौफी पीजिए.’

कामुकता से मुसकराती 2 आंखें देख उसे एक तीव्र वितृष्णा हुई खुद से, खुद के कमजोर होने से और उन 2 आंखों से. होटल के उस कमरे में अकेले उस अपरिचित के साथ यह क्या करने जा रही थी वह? वह झटके से उठी और कमरे से बाहर निकल गई. लगभग दौड़ते हुए वह होटल से बाहर आई और सामने से आती टैक्सी को हाथ दे कर उस में बैठ गई. तनुजा बुरी तरह हांफ रही थी. वह उस रास्ते पर चलने की हिम्मत नहीं जुटा पाई.

दोनों ओर स्थितियां चरम पर थीं. दोनों ही अंदर से टूटने लगे थे. ऐसे ही जिए जाने की कल्पना भयावह थी. उस रात तनुजा की सिसकियां सुन मनीष ने उसे सीने से लगा लिया. उस का गला रुंध गया, आंसू बह निकले. ‘‘मैं तुम्हारा दोषी हूं तनु, मेरे कारण…’’

तनु ने उस के होंठों पर अपनी हथेली रख दी, ‘‘ऐसा मत कहो, लेकिन मैं करूं क्या? बहुत कोशिश करती हूं लेकिन बरदाश्त नहीं कर पाती.’’

‘‘मैं तुम्हारी बेचैनी समझता हूं, तनु,’’ मनीष ने करवट ले कर तनुजा का चेहरा अपने हाथों में ले लिया, ‘‘तुम चाहो तो किसी और के साथ…’’ बाकी के शब्द एक बड़ी हिचकी में घुल गए.

वह बात जो अब तक विचारों में तनुजा को उकसाती थी और जिसे हकीकत में करने की हिम्मत वह जुटा नहीं पाई थी, वह मनीष के मुंह से निकल कर वितृष्णा पैदा कर गई.

तनुजा का मन घिना गया. उस ने खुद ऐसा कैसे सोचा, इस बात से ही नफरत हुई. मनीष उस से इतना प्यार करते हैं, उस की खुशी के लिए इतनी बड़ी बात सोच सकते हैं, कह सकते हैं लेकिन क्या वह ऐसा कर पाएगी? क्या ऐसा करना ठीक होगा? नहीं, कतई नहीं. उस ने दृढ़ता से खुद से कहा.

जो सच अब तक संकोच और शर्मिंदगी का आवरण ओढ़े अपारदर्शी बन कर उन के बीच खड़ा था, आज वह आवरण फेंक उन के बीच था और दोनों उस के आरपार एकदूसरे की आंखों में देख रहे थे. अब समाधान उन के सामने था. वे उस के बारे में बात कर सकते थे. उन्होंने देर तक एकदूसरे से बातें कीं और अरसे बाद एकदूसरे की बांहों में सो गए एक नई सुबह मेें उठने के लिए.

बट स्टिल आई लव हिम

‘‘बटस्टिल आई लव हिम, बट स्टिल आई लव हिम, बट आई…’’  मंजू के ये शब्द तीर की तरह मेरे कानों में चुभ रहे थे. मैं यह सोच कर हैरान थी कि शहर की जानीमानी डाक्टर मंजू सिंह, जो प्रतिदिन न जाने कितने लोगों के दुखदर्द मिटाती है, खुद कितने गहरे दर्द में डूबी है और उस से उबरना भी नहीं चाहती है. पुरानी यादों के पन्ने

1-1 कर के मेरी आंखों के सामने फड़फड़ाने लगे…

हम दोनों बचपन की गहरी सखियां, एक ही महल्ले में रहती थीं तथा ही कक्षा में पढ़ती थीं. हमारी मित्रता उस दिन हुई जब बस में एक बड़ी दीदी ने मुझे सीट से उठा दिया और स्वयं उस पर बैठ गई.

यह देख मंजू उन से भिड़ गई, ‘‘दीदी, आप ने उस की सीट ले ली. वह इतना भारी बैग टांग कर कैसे खड़ी रहेगी?’’

दीदी के धमकाने पर उस ने कंडक्टर से शिकायत कर के मुझे मेरी सीट दिलवा कर ही दम लिया और फिर हम मित्रता की डोर से ऐसे बंधे जो समय के साथ और मजबूत हो गई.

इस घटना के बाद से हम बच्चों के बीच मंजू दबंग गर्ल के नाम से मशहूर हो गई. वह स्कूल की हर गतिविधि में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेती. उस की संगत के प्रभाव से मुझे भी

कुछ अवसर प्राप्त हो जाते थे. अपने नैसर्गिक सौंदर्य, नेतृत्व क्षमता, अभिनय कौशल व वाकपटुता से वह सब की चहेती थी. जो उस से ईर्ष्या करते थे, वे भी मन ही मन उस की प्रशंसा करते थे.

फर्स्ट ईयर तक पहुंचतेपहुंचते न जाने कितने लड़के उस पर जान छिड़कने लगे. हर कोई उसे अपनी गर्लफ्रैंड बनाने के लिए आतुर रहता पर वह किसी को घास नहीं डालती.

मैं उसे छेड़ती, ‘‘मंजू, क्या तुझे कोई

भी पसंद नहीं आता? किसी का तो दिल रख लिया कर.’’

वह मुझे समझाती, ‘‘प्यारव्यार के लिए तो सारी जिंदगी पड़ी है, मुझे तो पापा की तरह प्रसिद्ध डाक्टर बनना है.’’

हम दोनों साथसाथ पढ़ते. कभी वह मेरे घर आ जाती, कभी मैं उस के घर चली जाती. हम दोनों को संयोगवश एक ही मैडिकल कालेज में प्रवेश भी मिल गया. वहां पहुंचते ही वह सभी शिक्षकों व जूनियरसीनियर विद्यार्थियों की लाडली बन गई.

कालेज के वार्षिकोत्सव में मंजू राधा बनी और सुधीर कृष्ण. सुधीर में न जाने कैसा सम्मोहन था कि मंजू उस की ओर खिंचती चली गई. मैं उस का प्यार व समय बंट जाने पर स्वयं को जितना अकेला महसूस कर रही थी, उस से अधिक चिंता मुझे इस बात की थी कि जब उस के घर वालों को पता चलेगा तो क्या होगा. सुधीर यादव था और वह परंपरावादी क्षत्रिय परिवार की.

जब तक कालेज में थे किसी को कुछ नहीं पता चला पर एमबीबीएस पूरा होने के बाद जब उस के विवाह की चर्चा शुरू हुई तब मंजू ने डरतेडरते मां को सुधीर के बारे में बताया. उस के बाद तो मानों घर में विस्फोट हो गया. सब ने उसे समझाने का बहुत प्रयास किया पर उस ने दृढ़तापूर्वक अपना निर्णय सुना दिया कि वह शादी करेगी तो सिर्फ सुधीर से वरना जीवन भर विवाह नहीं करेगी.

सारे प्रयास विफल होने के बाद उस के पापा ने एक सादे विवाह समारोह में उसे बिदा कर उस से सदा के लिए मुंह मोड़ लिया. मां कभीकभी हालचाल पूछ लेती थी. मैं भी एक एनआरआई से विवाह होने के बाद आस्ट्रेलिया चली गई पर हम सदैव फेसबुक, व्हाट्सऐप से संपर्क में बने रहते.

मैं जब भी इंडिया आती उस से जरूर मिलती. वह भी 2 बार आस्ट्रेलिया घूमने आई.

15 वर्ष कब बीत गए पता ही नहीं चला. जब मैं इंडिया आई तो हर बार की तरह इस बार भी मां व परिवार के अन्य लोगों से मिलने के बाद कानपुर से सीधे मुंबई उस के पास पहुंची. मंजू और सुधीर के स्वागत में इस बार पहले जैसा उत्साह व गर्मजोशी नजर नहीं आई. सुधीर आवश्यक काम बता कर बाहर चला गया तो मनीष भी अपने कुछ जानपहचान वालों से मिलने चले गए.

उस के चेहरे पर छाई उदासीनता का कारण जानने के लिए जब मैं ने उसे कुरेदा तो थोड़ी नानुकुर के बाद उस के सब्र का बांध टूट गया. वह मेरे गले लग फफकफफक कर बच्चों की तरह रो पड़ी.

थोड़ा दिल हलका होने के बाद उस ने मुझे बताया, ‘‘सुधीर का उस के नर्सिंगहोम की एक नर्स के साथ अफेयर चल रहा है. पहले तो पूछने पर कहता था कि मैं बेवजह उस पर शक करती हूं पर अब वह ढीठ हो गया है. कहता है कि, तुम्हें जो करना है कर लो, जहां जाना है जाओ, पर मैं उसे नहीं छोड़ सकता.’’

यह सुन कर तो जैसे मुझ पर वज्रपात ही हो गया. मुझे कालेज का वह जमाना याद

आ गया कि कैसे सुधीर मंजू से दोस्ती करने के लिए दीवानों की तरह उस के पीछेपीछे घूमता रहता था और किस प्रकार से मंजू ने सब का विरोध सह कर उस से विवाह किया था.

मैं ने उसे समझाया कि यदि वह शहर का प्रतिष्ठित चाइल्ड स्पैशलिस्ट है तो तू भी प्रसिद्ध गाइनोकोलौजिस्ट. तू पढ़ीलिखी, आत्मनिर्भर नारी है, तेरी समाज में अलग पहचान है, तू अपनी

व अपने बच्चों की देखभाल करने में सक्षम है.

तू ऐसे बेवफा, चरित्रहीन इंसान को छोड़ क्यों

नहीं देती?

वह रोते हुए बोली, ‘‘मम्मीपापा से दूर हो कर मैं ने जीवन में अपनों के प्यार एवं संरक्षण का महत्त्व जाना. आज भी मेरा मन मायके जाने को तरसता है. मायके के दरवाजे मेरे लिए बंद नहीं हैं, पर मेरी भूल मेरे स्नेह पर ज्यादा भारी पड़ती है. पापा के आशीर्वाद के लिए उठे हाथ मेरे सिर तक पहुंचतेपहुंचते रुक जाते हैं. मां के आलिंगन में भी वह गरमाहट महसूस नहीं होती जो प्रांजू को गले लगाते समय होती है. अपना घर अब मुझे अपना नहीं लगता. तुझे याद है न पापा ने कैसे धूमधाम से प्रांजू की शादी की थी.

घर व संपत्ति का बंटवारा करते समय मां ने मुझे बुलाया और कहा, ‘‘पापा अपनी संपत्ति तुम दोनों बहनों के बीच बांटना चाहते हैं, आ जाओ.’’

मैं ने मां से कहा, ‘‘मुझे कुछ नहीं चाहिए. बस मुझे अपना आशीर्वाद दे दो. पर मां के बहुत जोर देने पर मैं कानपुर चली गई. वहां पहुंच कर देखा पापा ने वह नर्सिंगहोम, जिस में वे अपनी जगह सदा अपनी डाक्टर बेटी को बैठा हुआ देखना चाहते थे, वह घर जिस से मेरी यादें जुड़ी थीं, सब प्रांजू व देवेश के नाम कर दिया था. मुझे उन्होंने कैश, जेवर व प्लाट्स दिए थे. यह देख मैं अपने कमरे की दीवारों से चिपक कर फूटफूट कर रोई थी. मन में आया कि कह दूं कि पापा मुझे कुछ नहीं चाहिए. बस आप मेरे पहले वाले पापा बन कर मुझे गले लगा लो, अपनी मंजू को माफ कर दो.

‘‘जड़ से विच्छिन्न शाखा के समान स्वयं को अकेला महसूस कर रही थी. फिर सोचा दोष तो मेरा ही है. मैं ने ही उन के मानसम्मान, भरोसे और सपनों को धूमिल किया था. भौतिक संपदा तो उन्होंने बराबर बांटी पर स्नेह नहीं. श्वेता, तू नहीं जानती कि अपनों से अलग होना व उन की उपेक्षा सहना कितनी पीड़ा पहुंचाता है.

‘‘सुधीर मुझ से प्यार नहीं करता, वह मेरे साथ रहना भी नहीं चाहता पर मैं उस के बिना नहीं रह सकती. आई हैव लौस्ट माई लव बट स्टिल आई लव हिम, बट स्टिल आई लव हिम. उस के बिना मैं जी नहीं पाऊंगी. उसे अपने बच्चों के साथ हंसताखेलता देख कर, उन की परवाह करते देख कर ही मैं खुश हो लेती हूं. अपना न होते हुए भी अपना होने के एहसास के साथ जी लेती हूं,’’ कहने के बाद वह मेरे कांधे पर सिर रख कर बच्चों की तरह फूटफूट कर रोने लगी.

हम ने सुधीर को समझाने की कोशिश की पर वह न समझा. मैं दुखी मन से अपने घर लौट आई, पर उस के ये शब्द अब भी मेरे कानों को पिघला रहे हैं, ‘‘बट स्टिल आई लव हिम, बट स्टिल आई लव हिम…’’

आभास: शारदा को कैसे हुआ गलती का एहसास

‘‘ओ  ह मम्मी, भावुक मत बनो, समझने की कोशिश करो,’’ दूसरी तरफ की आवाज सुनते ही शारदा के हाथ से टेलीफोन का चोंगा छूट कर अधर में झूल गया. कानों में जैसे पिघलता सीसा पड़ गया. दिल दहला देने वाली एक दारुण चीख दीवारों और खिड़कियों को पार करती हुई पड़ोसियों के घरों से जा टकराई. सब चौंक पड़े और चीख की दिशा की ओर दौड़ पड़े.

‘‘क्या हुआ, बहनजी?’’ किसी पड़ोसी ने पूछा तो शारदा ने कुरसी की ओर इशारा किया.

‘‘अरे…कैसे हुआ यह सब?’’

‘‘कब हुआ?’’ सभी चकित से रह गए.

‘‘अभीअभी आए थे,’’ शारदा ने रोतेरोते कहा, ‘‘अखबार ले कर बैठे थे. मैं चाय का प्याला रख कर गई. थोड़ी देर में चाय का प्याला उठाने आई तो देखा चाय वैसी ही पड़ी है, ‘अखबार हाथ में है. सो रहे हो क्या?’ मैं ने पूछा, पर कोई जवाब नहीं, ‘चाय तो पी लो’, मैं ने फिर कहा मगर बोले ही नहीं. मैं ने कंधा पकड़ कर झिंझोड़ा तो गरदन एक तरफ ढुलक गई. मैं घबरा गई.’’

‘‘डाक्टर को दिखाया?’’

‘‘डाक्टर को ही तो दिखा कर आए थे,’’ शारदा ने रोते हुए बताया, ‘‘1-2 दिन से कह रहे थे कि तबीयत कुछ ठीक नहीं है, कुछ अजीब सा महसूस हो रहा है. डाक्टर के पास गए तो उस ने ईसीजी वगैरह किया और कहा कि सीढि़यां नहीं चढ़ना, आप को हार्ट प्रौब्लम है.

‘‘घर आ कर मुझ से बोले, ‘ये डाक्टर लोग तो ऐसे ही डरा देते हैं, कहता है, हार्ट प्रौब्लम है. सीढि़यां नहीं चढ़ना, भला सीढि़यां चढ़ कर नहीं आऊंगा तो क्या उड़ कर आऊंगा घर. हुआ क्या है मुझे? भलाचंगा तो हूं. लाओ, चाय लाओ. अखबार भी नहीं देखा आज तो.’

‘‘अखबार ले कर बैठे ही थे, बस, मैं चाय का प्याला रख कर गई, इतनी ही देर में सबकुछ खत्म…’’ शारदा बिलख पड़ीं.

‘‘बेटे को फोन किया?’’ पड़ोसी महेशजी ने झूलता हुआ चोंगा क्रेडल पर रखते हुए पूछा.

‘‘हां, किया था.’’

‘‘कब तक पहुंच रहा है?’’

‘‘वह नहीं आ रहा,’’ शारदा फिर बिलख पड़ीं, ‘‘कह रहा था आना बहुत मुश्किल है, यहां इतनी आसानी से छुट्टी नहीं मिलती. दूसरे, उस की पत्नी डैनी वहां अकेली नहीं रह सकती. यहां वह आना नहीं चाहती क्योंकि यहां दंगे बहुत हो रहे हैं. मुसलमान, ईसाई कोई भी सुरक्षित नहीं यहां. कोई मार दे तो मुसीबत. बिजलीघर में कर दो सब, वहां किसी की जरूरत नहीं, सबकुछ अपनेआप ही हो जाएगा.’’

‘‘और कोई रिश्तेदार है यहां?’’

‘‘हां, एक बहन है,’’ शारदा ने बताया.

‘‘अरे, हां, याद आया. परसों ही तो मिल कर आए थे सुहासजी उन से. कह रहे थे कि यहां मेरी दीदी है, उन से ही मिल कर आ रहा हूं. आप उन का पता बता दें तो हम उन्हें खबर कर दें,’’ शर्मा जी ने कहा.

वहां फौरन एक आदमी दौड़ाया गया. सब ने मिल कर सुहास के पार्थिव शरीर को जमीन पर लिटा दिया. आसपास की और महिलाएं भी आ गईं जो शारदा को सांत्वना देने लगीं.

तभी रोतीबिलखती सुधा दीदी आ पहुंचीं.

‘‘हाय रे, भाई रे…क्या हुआ तुझे, परसों ही तो मेरे पास आया था. भलाचंगा था. यह क्या हो गया तुझे एक ही दिन में. जाना तो मुझे था, चला तू गया, मेरे से पहले ही सबकुछ छोड़छाड़ कर…हाय रे, यह क्या हो गया तुझे…’’

बहुत ही मुश्किल से सब ने उन्हें संभाला. उन्होंने अपनी तीनों बहनों, सरोज, ऊषा, मंजूषा व अन्य सब रिश्तेदारों के पते बता दिए. फौरन सब को सूचना दे दी गई. थोड़ी ही देर में सब आ पहुंचे.

काफी देर तक कुहराम मचा रहा, फिर सब शांत हो गए पर शारदा रोए ही जा रही थीं.

सुधा दीदी कितनी ही देर तक शारदा के चेहरे की ओर एकटक देखती रहीं. शारदा के चेहरे पर 22 वर्ष पुराना मां का चेहरा उभर आया, जब बाबूजी गुजरे थे और उन्होंने बंगलौर फोन किया था, ‘बाबूजी नहीें रहे, फौरन आ जाओ.’

‘पर ये तो दौरे पर गए हुए हैं, कैसे आ सकते हैं एकदम सब?’ शारदा ने बेरुखी से कहा था.

‘तुम उस के दफ्तर फोन करो, वह बुला देंगे.’

‘किया था पर उन्हें कुछ मालूम नहीं कि वह कहां हैं.’

‘ऐसा कैसे है, दफ्तर वालों को तो सब पता रहता है कि कौन कहां है.’

‘वहां रहता होगा पता, यहां नहीं,’ शारदा ने तीखे स्वर में कहा था.

‘मुझे दफ्तर का फोन नंबर दो, मैं वहां कांटेक्ट कर लूंगी.’

‘मेरे पास नहीं है नंबर…’ कह कर शारदा ने रिसीवर पटक दिया था.

ऐसे समय में भी शारदा ऐसा व्यवहार करेगी, कोई सपने में भी नहीं सोच सकता था. आखिरकार चाचाजी ने ही सब क्रियाकर्म किए. इस ने जैसा किया वैसा ही अब इस के आगे आया.

यह तो शुरू से ही परिवार से कटीकटी रही थी. हम 4 बहनें थीं, भाई एक ही था, बस. कितना चाव था इस का सब को कि बहू आएगी घर में, रौनक होगी. सब के साथ मिलजुल कर बैठेगी.

अम्मां तो इसे जमीन पर पैर ही ना रखने दें, हर समय ऊषा, मंजूषा से कहती रहतीं, ‘जा, अपनी भाभी के लिए हलवा बना कर ले जा…हलवाई के यहां से गरमगरम पूरियां ले आओ नाश्ते के लिए… भाभी से पूछ ले, ठंडा लेगी या गरम…भाभी के नहाने की तैयारी कर दे… गुसलखाना अच्छी तरह साफ कर देना…’

शाम को कभी गरमगरम इमरती मंगातीं तो कभी समोसे मंगातीं, ‘जा अपनी भाभी के लिए ले जा,’ पर भाभी की तो भौं तनी ही रहतीं हरदम.

एक दिन बिफर ही पड़ीं दोनों, ‘हम नहीं जाएंगी भाभी के पास. झिड़क पड़ती हैं, कहती हैं ‘कुछ नहीं चाहिए मुझे, ले जाओ यह सब…’

सरोज ने मां से 1-2 बार कहा भी, ‘क्या जरूरत है इतना सिर चढ़ाने की, रहने दो स्वाभाविक तरीके से. अपनेआप खाएपीएगी जब भूख लगेगी, तुम क्यों चिंता करती हो बेकार…’

‘अरे, कौन सी 5-7 बहुएं आएंगी. एक ही तो है, उसी पर अपना लाड़चाव पूरा कर लूं.’

पर इस ने तो उन के लाड़चाव की कभी कद्र ही न जानी, न ही ननदें कभी सुहाईं. आते ही यह तो अलग रहना चाहती थी. इत्तिफाकन सुहास की बदली हो गई और बंगलौर चली गई, सब से दूर…

ऊषा, मंजूषा की शादियों में आई थी बिलकुल मेहमान की तरह.

न किसी से बोलनाचालना, न किसी कामधंधे से ही मतलब. कमरे में ही बैठी रही थी अलगथलग सब से, गुमसुम बिलकुल…और अभी भी ऐसी बैठी है जैसे पहचानती ही न हो. चलो, नहीं तो न सही, हमें क्या, हम तो अपने भाई की आखिरी सूरत देखने आए थे…देख ली…अब हम काहे को आएंगे यहां…

‘‘राम नाम सत्य है…राम नाम सत्य है…’’ की आवाज से दीदी की तंद्रा टूटी. अर्थी उठ गई. हाहाकार मच गया. सब अरथी के पीछेपीछे चल पड़े. आज मां के घर का यह संपर्क भी खत्म हो गया.

औरत कितनी भी बड़ी उम्र की हो जाए, मां के घर का मोह कभी नहीं टूटता, नियति ने आज वह भी तुड़वा दिया. कैसा इंतजार रहता था राखीटीके का, सुबह ही आ जाता था और सारा दिन हंसाहंसा कर पेट दुखा देता था. ये तीनों भी यहां आ जाती थीं मेरे पास ही.

अरथी के पीछेपीछे चलते हुए वह फिर फूट पड़ीं, ‘‘अब कहां आनाजाना होगा यहां…जिस के लिए आते थे, वही नहीं रहा…अब रखा ही क्या है यहां…’’

अचानक उन की नजर शारदा पर पड़ी, जो अरथी के पीछेपीछे जा रही थी. उस के चेहरे पर मेकअप की जगह अवसाद छाया हुआ था, आंखों का आईलाइनर आंसुओं से धुल चुका था. होंठों पर लिपस्टिक की जगह पपड़ी जमी थी. ‘सैट’ किए बाल बुरी तरह बिखर कर रह गए थे, मुड़ीतुड़ी सफेद साड़ी, बिना बिंदी के सूना माथा, सूनी मांग…रूखे केश और उजड़े वेश में उस का इस तरह वैधव्य रूप देख कर दीदी का दिल बुरी तरह दहल उठा. रंगत ही बदल गई इस की तो जरा सी देर में. कैसी सजीसजाई दुलहन के वेश में आई थी 35 साल पहले, कितना सजाती थी खुद को और आज…आज सुहास के बिना कैसी हो गई. आज रहा ही कौन इस का दुनिया में.

मांबाप तो बाबूजी से पहले चल बसे थे, एक बहन थी वह शादी के दोढाई साल बाद अपने साल भर के बेटे को ले कर ऐसी बाजार गई, सो आज तक नहीं लौटी. एक भाई है, वह किसी माफिया गिरोह से जुड़ा है. कभी जेल में, कभी बाहर. एक ही एक बेटा है, वह भी इस दुख की घड़ी में मुंह फेर कर बैठ गया. उन्हें उस पर बहुत तरस आया, ‘बेचारी, कैसी खड़ी की खड़ी रह गई.’

अरथी को गाड़ी में रख दिया गया. गाड़ी धीरेधीरे चलने लगी और कुछ ही देर में आंखों से ओझल हो गई.

गाड़ी के जाने के बाद शारदा का मन बेहद अवसादग्रस्त हो गया.

जब हम दुख में होते हैं तो अपनों का सान्निध्य सब से अधिक चाहते हैं, पर ऐसे दुखद समय में भी अपनों का सान्निध्य न मिले तो मन बुरी तरह टूट जाता है. अकेलापन, बेबसी बुरी तरह मन को सालने लगती है.

यही हाल उस समय शारदा का हो रहा था. बारबार उसे अपने बेटे की याद आ रही थी कि काश, इस घड़ी में वह उस के पास होता. उसे गले लगा कर रो लेती. कुछ शांति मिलती, कितनी अकेली है आज वह, न मांबाप, न भाईर्बहन. कोई भी तो नहीं आज उस का जो आ कर उस के दुख में खड़ा हो. नीचे धरती, ऊपर आसमान, कोई सहारा देने वाला नहीं.

बेटे के शब्द बारबार कानों से टकरा कर उस के दिल को बुरी तरह कचोट रहे थे, जिसे जिंदगी भर अपने से ज्यादा चाहा, जिस के कारण उम्र भर किसी की परवा नहीं की, उसी ने आज ऐसे दुर्दिनों में किनारा कर लिया, मां के लिए जरा सा भी दर्द नहीं. बाप के जाने का जरा भी गम नहीं, जैसे कुछ हुआ ही न हो.

कैसी पत्थर दिल औलाद है. जब अपनी पेटजाई औलाद ही अपनी न बनी तो और कौन बनेगा अपना. सासननदें तो भला कब हुईं किसी की, वे तो उम्र भर उस के और सुहास के बीच दीवार ही बनी रहीं. सुहास तो सदा अपनी मांबहनों में ही रमा रहा. उस की तो कभी परवा ही नहीं की. इस कारण सदैव सुहास और उस के बीच दूरी ही बनी रही.

अब भी तो देखो, एक शब्द भी नहीं कहा किसी ने…सुहास के सामने ही कभी अपनी न बनी, तो अब क्या होगी भला. कैसे रहेगी वह अकेली जीवन भर?  न जाने कितनी पहाड़ सी उम्र पड़ी है, कैसे कटेगी? किस के सहारे कटेगी? उसे अपने पर काबू नहीं हो पा रहा था.

दूसरी ओर बेटे की बेरुखी साल रही थी. उसे लगा जैसे वह एक गहरे मझधार में फंसी बारबार डूबउतरा रही है. कोई उसे सहारा देने वाला नहीं कि किनारे आ जाए. क्या करे, कैसे करे?

उस ने तो कभी सोचा भी न था कि ऐसा बुरा समय भी देखना पड़ेगा. वह वहीें सीढि़यों की दीवार का सहारा ले कर बिलख पड़ी जोरजोर से.

सामने से उसे सुधा दीदी, सरोज, ऊषा, मंजूषा आती दिखाई दीं. उन्होंने उसे चारों ओर से घेर लिया और सांत्वना देने लगीं, ‘‘चुप कर शारदा, बहुत रो चुकी. वह तो सारी उम्र का रोना दे गया. कब तक रोएगी…’’ कहतेकहते सुधा दीदी स्वयं रो पड़ीं और तीनों बहनें भी शारदा के गले लग फफक पड़ीं, सब का दुख समान था. अत: जीवन भर का सारा वैमनस्य पल भर में ही आंसुओं में धुल गया.

‘‘हाय, क्या हाल हो गया भाभी का,’’ ऊषा, मंजूषा ने उस के गले लगते हुए कहा.

‘‘मैं क्या करूं, दीदी? कैसे करूं? कहां जाऊं?’’ शारदा ने बिलखते हुए कहा.

‘‘तू धीरज रख, शारदा, जाने वाला तो चला गया, अब लौट कर तो आएगा नहीं,’’ सुधा दीदी ने उसे प्यार से सीने से लगाते हुए कहा.

‘‘पर मैं अकेली कैसे रहूंगी, सारी उम्र पड़ी है. वह तो मुझे धोखा दे गए बीच में ही.’’

‘‘कौन कहता है तू अकेली है, वह नहीं रहा तो क्या, हम 4 तो हैं तेरे साथ. तुझे ऐसे अकेले थोड़े ही छोडे़ंगे. चलो, घर में चलो.’’

वे चारों शारदा को घर में ले आईं, ऊषा, मंजूषा ने सारा घर धो डाला. सरोज ने उस के नहाने की तैयारी कर दी. तब तक सुधा दीदी उस के पास बैठी उस के आंसू पोंछती रहीं.

थोड़ी ही देर में सब नहा लिए, ऊषा, मंजूषा चाय बना लाईं. नहा कर, चाय पी कर शारदा का मन कुछ शांत हुआ. उस वक्त शारदा को वे चारों अपने किसी घनिष्ठ से कम नहीं लग रही थीं, जिन्होंने उसे ऐसे दुख में संभाला.

उसे लगा, जिन्हें उस ने सदा अपने और सुहास के बीच दीवार समझा, असल में वह दीवार नहीं थी, वह तो उस के मन का वहम था. उस के मन के शीशे पर जमी ईर्ष्या की गर्द थी. आज वह वहम की दीवार गहन दुख ने तोड़ दी. मन के शीशे पर जमी ईर्ष्या की गर्द आंसुओं में धुल गई.

बेटा नहीं आया तो क्या, उस की 4-4 ननदें तो हैं, उस के दुख को बांटने वाली. वे चारों उसे अपनी सगी बहन से भी ज्यादा लग रही थीं, आज दुख की घड़ी में वे ही चारों अपनी लग रही थीं. आज पहली बार उस के मन में उन चारों ननदों के प्रति अपनत्व का आभास हुआ.

घबराना क्या: जिंदगी जीने का क्या यह सही फलसफा था

‘‘देखो बेटा, यह जीवन इतना लचीला भी नहीं है कि हम जिधर चाहें इसे मोड़ लें और यह मुड़ भी जाए. कुछ ऐसा है जिसे मोड़ा जा सकता है और कुछ ऐसा भी है जिसे मोड़ा नहीं जा सकता. मोड़ना क्या मोड़ने के बारे में सोचना ही सब से बड़ा भुलावा देने जैसा है, क्योंकि हमारे हाथ ही कुछ नहीं है. हम सोच सकते हैं कि कल यह करेंगे पर कर भी पाएंगे इस की कोई गारंटी नहीं है.

‘‘कल क्या होगा हम नहीं जानते मगर कल हम क्या करना चाहेंगे यह कार्यक्रम बनाना तो हमारे हाथ में है न. इसलिए जो हाथ में है उसे कर लो, जो नहीं है उस की तरफ से आंखें मूंद लो. जब जो होगा देखा जाएगा. ‘‘कुछ भी निश्चित नहीं होता तो कल का सोचना भी क्यों?

‘‘यह भी तो निश्चित नहीं है न कि जो सोचोगे वह नहीं ही होगा. वह हो भी सकता है और नहीं भी. पूरी लगन और फ र्ज मेहनत से अपना कर्म निभाना तो हमारे हाथ में है न. इसलिए साफ नीयत और ईमानदारी से काम करते रहो. अगर समय ने कोई राह आप को देनी है तो मिलेगी जरूर. और एक दूसरा सत्य याद रखो कि प्रकृति ईमानदार और सच्चे इनसान का साथ हमेशा देती है. अगर तुम्हारा मन साफ है तो संयोग ऐसा ही बनेगा जिस में तुम्हारा अनिष्ट कभी नहीं होगा. मुसीबतें भी इनसान पर ही आती हैं और हर मुसीबत के बाद आप को लगता है आप पहले से ज्यादा मजबूत हो गए हैं. इसलिए बेटा, घबरा कर अपना दिमाग खराब मत करो.’’

ताऊजी की ये बातें मेरा दिमाग खराब कर देने को काफी लग रही थीं कि कल क्या होगा इस की चिंता मत करो, आज क्या है उस के बारे में सोचो. कल मेरा इंटरव्यू है. उस के बारे में कैसे न सोचूं. कल का न सोचूं तो आज उस की तैयारी भी नहीं न कर पाऊंगा. परेशान हूं मैं, हाथपैर फूल रहे हैं मेरे. ताऊजी के जमाने में इतनी परेशानियां कहां थीं. उन के जमाने में इतनी स्पर्धा कहां थी. आज का सच यह है कि ठंडे दिमाग से पढ़ाई करो. मन में कोई दुविधा मत पालो. अपनेआप पर भरोसा रखो उसी में तुम्हारा कल्याण होगा.

‘‘क्या कल्याण होगा? नौकरी किसी और को मिल जाएगी,’’ स्वत: मेरे होंठों से निकल गया. ‘‘तुम्हें कैसे पता कि नौकरी किसी और को मिल जाएगी. तुम अंतरयामी कब से हो गए. ‘‘किसे क्या मिलने वाला है उसी में क्यों उलझे पड़े हो. अपना समय और ताकत इस तरह बरबाद मत करो, पढ़ने में समय क्यों नहीं खर्च कर रहे?’’ इतना कहते हुए ताऊजी ने एक हलकी सी चपत मेरे सिर पर लगा दी.

‘‘कब से यही कथा दोहरा रहे हो. मिल जाएगी किसी और को नौकरी तो मिल जाए. क्या उस से दुनिया में आग लग जाएगी और सबकुछ भस्म हो जाएगा. ज्यादा से ज्यादा क्या होगा, कुछ भी तो नहीं. यही दुनिया होगी और यही हम होंगे. संसार इसी तरह चलेगा. किसी दूसरी नौकरी का मौका मिलेगा. यहां नहीं तो कहीं और सही.’’

‘‘आप इतनी आसानी से ऐसी बातें कैसे कर सकते हैं, ताऊजी. अगर मैं कल सफल न हो पाया तो…’’ ‘‘तो क्या होगा? वही तो समझा रहा हूं. जीवन का अंत तो नहीं हो जाएगा, दो हाथ तुम्हारे पास हैं. हिम्मत और ईमानदारी से अगर तुम ओतप्रोत हो तो क्या फर्क पड़ता है. मनचाहा अवश्य मिल जाएगा.’’

‘‘क्या सचमुच?’’ क्षण भर को लगा, कितना आसान है सब. ताऊजी जैसा कह रहे हैं वैसा ही अगर सच में जीवन का फलसफा हो तो वास्तव में दुविधा कैसी, कैसी परेशानी. जो हमारा है वह हम से कोई छीन नहीं सकता. मेहनती हूं, ईमानदार हूं. मेरे पास अपनी योग्यता प्रमाणित करने का एक यही तो रास्ता है न कि मैं पूरी तरह इंटरव्यू की तैयारी करूं. जो मैं कर सकता हूं उसी को पूरा जोर लगा कर कर डालूं, न कि इस दुविधा में समय बरबाद कर डालूं कि अगर किसी और को नौकरी मिल गई तो मेरा क्या होगा?

ताऊजी की बातें मुझे अब शीशे की तरह पारदर्शी लगने लगीं. दूसरी शाम आ गई. 24 घंटे बीत चुके और मेरा इंटरव्यू हो गया. अपनी तरफ से मैं ने सब किया जो भी मेरी क्षमता में था. मेरे मन में कहीं कोई मलाल न था कि अगर इस से भी अच्छा हो पाता तो ज्यादा अच्छा होता. गरमी की शाम जब उमस गहरा गई तो सभी बाहर बालकनी में आ बैठे. ताऊजी ने पुन: चुसकी ली :

‘‘हमारे जमाने में आंगन हुआ करते थे. आज आंगन की जगह बालकनी ने ले ली है. हर दौर की समस्या अलगअलग होती है. हर दौर का समाधान भी अलगअलग होता है. ऐसा नहीं कि हमारे जमाने में हमारा जीवन आसान था. अपनी मां से पूछो जब मिट्टी के तेल का स्टोव जलाने में कितना समय लगता था. आज चुटकी बजाते ही गैस का चूल्हा जला लो. मसाला चुटकी में पीस लो आज. हमारी पत्नी पत्थर की कूंडी और डंडे से मसाला पीसा करती थी. अकसर मसाले की छींट आंख में चली जाती थी…क्यों राघव, याद है न.’’

ताऊजी ने मेरे पापा से पूछा और दोनों हंसने लगे. चाय परोसती मां ने भी नजरें झुका ली थीं. ‘‘क्यों शोभा, तुम ने क्या अपने बेटे को बताया नहीं कि उस के मांबाप को किस ने मिलाया था. अरे, इसी डंडेकूंडे ने. मसाले की छींट तुम्हारी मां की आंख में चली गई थी और तुम्हारा बाप पानी का गिलास लिए पीछे भागा था.’’

‘‘मेरी मां आप के घर कैसे चली आई थीं?’’ ‘‘तुम्हारी बूआ की सहेली थीं न. दोनों कपड़े बदलबदल कर पहना करती थीं. कदकाठी भी एक जैसी थी. राघव नौकरी पर रहता था. काफी समय बाद घर आया और अभी आंगन में पैर ही रखा था कि तुम्हारी मां को आंख पर हाथ रख कर भागते देखा. समझ गया, मसाला आंख में चला गया होगा. सो तुम्हारी बूआ समझ झट से पानी ले कर पीछे भागा. मुंह धुलाया, तौलिया ला कर मुंह पोंछा और जब शक्ल देखी तो हक्काबक्का. तभी सामने तुम्हारी बूआ को भी देख लिया. गलती हो गई है समझ तो गया पर क्या करता.’’

‘‘फिर?’’ सहसा पूछा मैं ने. ताऊजी हंसने लगे थे. पापा भी मुसकरा रहे थे और मेरी मां भी. ‘‘फिर क्या बेटा, कभीकभी गलती हो जाना बड़ा सुखद होता है. राघव बेचारा परेशान. जानबूझ कर तो इस की बांह नहीं पकड़ी थी न और न ही गरदन पकड़ कर जबरदस्ती जो मुंह पोंछा था उस में इस का कोई दोष था. तुम्हारी मां अब तक यही समझ रही थी कि तुम्हारी बूआ उस की आंखें धुला रही है.’’ हंसने लगे पापा भी.

‘‘यह भी सोचने लगी थी कि एकाएक उस के हाथ इतने सख्त कैसे हो गए हैं. बारबार कहने लगी, ‘इतनी जोर से क्यों पकड़ रही है. धीरेधीरे पानी डाल,’ और मैं सोचूं कि मेरी बहन की आवाज बदलीबदली सी क्यों है?’’ पहली बार अपने मातापिता के मिलन के बारे में जान पाया मैं उस दिन. आज भी मेरे पिता का स्वभाव बड़ा स्नेहमयी है. किसी की पीड़ा उन से देखी नहीं जाती. बूआ से आज भी बहुत प्यार करते हैं. बूआ की आंख में मसाले की छींट का पड़ जाना उन्हें पीड़ा पहुंचा गया होगा. बस, हाथ का सामान फेंक उन की ओर लपके होंगे. ताऊजी से आगे की कहानी जाननी चाही तो बड़ी गहरी सी मुसकान लिए मेरी मां को ताकने लगे.

‘‘बड़ी प्यारी बच्ची थी तुम्हारी मां. इसी एक घटना ने ऐसी डोरी बांधी कि बस, सभी इन दोनों को जोड़ने की सोचने लगे.’’ ‘‘आप दोनों की दोस्ती हो गई थी क्या उस के बाद?’’ सहज सवाल था मेरा जिस पर पापा ने गरदन हिला दी. ‘‘नहीं तो, दोस्ती जैसा कुछ नहीं था. कभी नजर आ जाती तो नमस्ते, रामराम हो जाती थी.’’ ‘‘आप के जमाने में इतना धीरे क्यों था सब?’’

‘‘धीरे था तो गहरा भी था. जरा सी घटना अगर घट जाती थी तो वह रुक कर सोचने का समय तो देती थी. आज तुम्हारे जमाने में क्या किसी के पास रुक कर सोचने का समय है? इतनी गहरी कोई भावना जाती ही कब है जिसे निकाल बाहर करना तुम्हें मुश्किल लगे. रिश्तों में इतनी आत्मीयता अब है कहां?’’ पुराना जमाना था. लोग घर के बर्तनों से भी उतना ही मोह पाल लेते थे. हमारी दादी मरती मर गईं पर उन्होंने अपने दहेज की पीतल की टूटी सुराही नहीं फेंकी. आज डिस्पोजेबल बर्तन लाओ, खाना खाओ, कूड़ा बाहर फेंक दो. वही हाल दोस्ती में है भई, जल्दी से ‘हां’ करो नहीं तो और भी हैं लाइन में. तू नहीं तो और सही और नहीं तो और सही.

‘‘जेट का जमाना है. इनसान जल्दी- जल्दी सब जी लेना चाहता है और इसी जल्दी में वह जीना ही भूल गया है. न उसे खुश रहना याद रहा है और न ही उसे यही याद रहता है कि उस ने किस पल किस से क्या नाता बांधा था. रिश्तों में गहराई नहीं रही. स्वार्थ रिश्तों पर हावी होता जा रहा है. जहां आप का काम बन गया वहीं आप ने वह संबंध कूड़ेदान में फेंक दिया.’’

ताऊजी ने बात शुरू की तो कहते ही चले गए, ‘‘मैं यह नहीं कहता कि दादी की तरह घर को कूड़ेदान ही बना दो, जहां घर अजायबघर ही लगने लगे. पुरानी चीजों को बदल कर नई चीजों को जगह देनी चाहिए. जीवन में एक उचित संतुलन होना चाहिए. नई चीजों को स्वीकारो, पुरानी का भी सम्मान करो. इतना तेज भी मत भागो कि पीछे क्याक्या छूट गया याद ही न रहे और इतना धीरे भी मत चलो कि सभी साथ छोड़ कर आगे निकल जाएं. इतने बेचैन भी मत हो जाओ कि ऐसा लगे जो करना है आज ही कर लो कल का क्या भरोसा आए न आए और निकम्मे हो कर भी इतना न पसर जाओ कि कल किस ने देखा है कौन कल के लिए आज सोचे.

‘‘तुम्हारे पापा की शादी हुई. शोभा हमारे घर चली आई. इस ने भी कोई ज्यादा सुख नहीं पाया. हमारी मां बीमार थीं, दमा की मरीज थीं और उसी साल मेरी पत्नी को ऐसा भयानक पीलिया हुआ कि एक ही साल में दोनों चली गईं. इस जरा सी बच्ची पर पूरा घर ही आश्रित हो गया. ‘‘इस से पूछो, इस ने कैसेकैसे सब संभाला होगा. जरा सोचो इस ने अपना चाहा कब जिया. जैसेजैसे हालात मुड़ते गए यह बेचारी भी मुड़ती गई. मेरी छोटी भाभी है न यह, पर कभी लगा ही नहीं. सदा मेरी मां बन कर रही यह बच्ची. जरा सी उम्र में इस ने कब कैसे सभी को संभालना सीखा होगा, पूछो इस से.

‘‘मेरे दोनों बच्चे कब इसे अपनी मां समझने लगे मुझे पता ही नहीं चला. तुम्हारे दादा और हम तीनों बापबेटे इसे कभी कहीं जाने ही नहीं देते थे क्योंकि हम अंधे हो जाते थे इस के बिना. इस का भी मन होता होगा न अपनी मां के घर जाने का. 18-20 साल की बच्ची क्या इतनी सयानी हो जाती है कि हर मौजमस्ती से कट जाए.’’ ताऊजी कहतेकहते रो पड़े. मेरे पापा और मां गरदन झुकाए चुपचाप बैठे रहे. सहसा हंसने लगे ताऊजी. एक फीकी हंसी, ‘‘आज याद आता है तो बहुत आत्मग्लानि होती है. पूरे 10 साल यह दोनों पतिपत्नी मेरे परिवार को पालते रहे. अपनी संतान का तब सोचा जब मेरे दोनों बच्चे 15-15 साल के हो गए. कबकब अपना मन मारा होगा इन्होंने, सोच सकते हो तुम?’’

मन भर आया मेरा भी. ताऊजी चश्मा उतार आंखें पोंछने लगे. ताऊजी के दोनों बेटे आज बच्चों वाले हैं. मुझ से बहुत स्नेह करते हैं और मां को तो सिरआंखों पर बिठाते हैं. बहुत मान करते हैं मेरी मां का. ‘‘क्या जीवन वास्तव में आसान होता है, बताना मुझे. नहीं होता न. मुश्किलें तो सब के साथ लगी हैं. प्रकृति ने सब का हिस्सा निश्चित कर रखा है. हमारा हिस्सा हमें मिलेगा जरूर. नौकरी के इंटरव्यू पर ही तुम इतना घबरा रहे थे. कल पहाड़ जैसे जीवन का सामना कैसे करोगे?’’ सुनता रहा मैं सब.

सच ही कह रहे हैं ताऊजी. मेरा बचपन तो सरलसुगम है और जवानी आराम से भरपूर. क्या स्वस्थ तरीके से बिना घबराए, ठंडे मन से मैं अपनी नौकरी के अलगअलग साक्षात्कार की तैयारी नहीं कर सकता? आखिर घबराने जैसा इस में है ही क्या? कल का कल देखा जाएगा पर ऐसी भी क्या बेचैनी कि जो सुखसुविधा आज मेरे पास है उस का सुख भी नकार कर सिर्फ कल की ही चिंता में घुलता रहूं. क्यों जीना ही भूल जाऊं?

जो मेरा है वह मुझे मिलेगा जरूर. मैं ईमानदार हूं, मेहनती हूं प्रकृति मेरा साथ अवश्य देगी. सच कहते हैं ताऊजी, आखिर घबराने जैसा इस में है ही क्या? कल क्या होगा देख लेंगे न. हम हैं तो, कुछ न कुछ तो कर ही लेंगे.

घोंसला: सारा ने क्यों शादी से किया था इंकार

साराआज खुशी से झम रही थी. खुश हो भी क्यों न पुणे की एक बहुत बड़ी फर्म में उस की नौकरी जो लग गई थी. अपनी गोलगोल आंखें घुमाते हुए वह अपनी मम्मी से बोली, ‘‘मैं कहती थी न कि मेरी उड़ान कोई नहीं रोक सकता.’’

‘‘पापा ने पढ़ने के लिए मुझे मुजफ्फरनगर से बाहर नहीं जाने दिया पर अब इतनी अच्छी नौकरी मिली है कि वह मुझे रोक नहीं सकते हैं.’’

सारा थी 23 वर्ष की खूबसूरत नवयुवती, जिंदगी से भरपूर, गोरा रंग, गोलगोल आंखें, छोटी सी नाक और गुलाबी होंठ, होंठों के बीच काला तिल सारा को और अधिक आकर्षक बना देता था. उसे खुले आकाश में उड़ने का शौक था. वह अकेले रहना चाहती थी और जीवन को अपने तरीके से जीना चाहती थी.

जब भी सारा के पापा कहते, ‘‘हमें तुम से जिंदगी का अधिक अनुभव है इसलिए हमारा कहा मानो.’’

सारा फट से कहती, ‘‘पापा मैं अपने अनुभवों से कुछ सीखना चाहती हूं.’’

सारा के पापा उसे पुणे भेजना नहीं चाहते थे पर सारा की दलीलों के आगे उन की एक न चली.

फिर सारा की मम्मी ने भी समझया, ‘‘इतनी अच्छी नौकरी है, आजकल अच्छी नौकरी वाली लड़कियों की शादी आराम से हो जाती है.

फिर सारा के पापा ने हथियार डाल दिए थे. ढेर सारी नसीहतें दे कर सारा के पापा वापस मुजफ्फरनगर आ गए थे.

सारा को शुरुआत में थोड़ी दिक्कत हुई थी परंतु धीरधीरे वह पुणे की लाइफ की अभ्यस्त हो गई थी.

यहां पर मुजफ्फरनगर की तरह न टोकाटाकी थी न ही ताकाझंकी. सारा को आधुनिक कपड़े पहनने का बहुत शौक था जिसे सारा अब पूरा कर पाई थी. वह स्वच्छंद तितली की तरह जिंदगी बिता रही थी. दफ्तर में ही सारा की मुलाकात मोहित से हुई थी. मोहित का ट्रांसफर दिल्ली से पुणे हुआ था.

मोहित को सारा पहली नजर में ही भा गई थी. सारा और मोहित अकसर वीकैंड पर बाहर घूमने जाते थे. परंतु सारा को हरहाल में रात 9 बजे तक अपने होस्टल वापस जाना ही पड़ता था.

फिर एक दिन मोहित ने यों ही सारा से कहा, ‘‘सारा, तुम मेरे फ्लैट में शिफ्ट क्यों नहीं हो जाती हो. चिकचिक से छुटकारा भी मिल जाएगा और हमें यों ही हर वीकैंड पर बंजारों की तरह घूमना नहीं पड़ेगा. सब से बड़ी बात तुम्हारा होस्टल का खर्च भी बच जाएगा.’’

सारा छूटते ही बोली, ‘‘पागल हो क्या, ऐसे कैसे रह सकती हूं तुम्हारे साथ? मतलब मेरातुम्हारा रिश्ता ही क्या है?’’

मोहित बोला, ‘‘रहने दो बाबा, मैं तो भूल ही गया था कि तुम तो गांव की गंवार हो. छोटे शहर के लोगों की मानसिकता कहां बदल सकती हैं चाहे वह कितने ही आधुनिक कपड़े पहन लें.’’

सारा मोहित की बात सुन कर एकदम चुप हो गईं. अगले कुछ दिनों तक मोहित सारा से खिंचाखिंचा रहा.

एक दिन सारा ने मोहित से पूछा, ‘‘मोहित, आखिर मेरी गलती क्या हैं?’’

मोहित बोला, ‘‘तुम्हारा मुझ पर अविश्वास.’’

‘‘बात अविश्वास की नहीं है मोहित, मेरे परिवार को अगर पता चल जाएगा तो वे मेरी नौकरी भी छुड़वा देंगे.’’

‘‘तुम्हें अगर रहना है तो बताओ बाकी सब मैं हैंडल कर लूंगा.’’

घर पर पापा के मिलिटरी राज के कारण सारा का आज तक कोई बौयफ्रैंड नहीं बन पाया था, इसलिए वह यह सुनहरा मौका हाथ से नहीं छोड़ना चाहती थी. अत: 1 एक हफ्ते बाद मोहित के साथ शिफ्ट कर गई. घर पर सारा ने बोल दिया कि उस ने एक लड़की के साथ अलग से फ्लैट ले लिया है क्योंकि उसे होस्टल में बहुत असुविधा होती थी.

यह बात सुनते ही सारा के मम्मीपापा ने जाने के लिए सामान बांध लिया था. वे देखना चाहते थे कि उन की लाड़ली कैसे अकेले रहती होगी.

सारा घबरा कर मोहित से बोली, ‘‘अब क्या करेंगे?’’

मोहित हंसते हुए बोला, ‘‘अरे देखो मैं कैसा चक्कर चलाता हूं,’’

अगले रोज मोहित अपनी एक दोस्त शैली को ले कर आ गया और बोला, ‘‘तुम्हारे मम्मीपापा के सामने मैं शैली के बड़े भाई के रूप में उपस्थित रहूंगा.’’

सारा के मम्मीपापा आए और फिर मोहित के नाटक पर मोहित हो कर चले गए.

सारा के मम्मीपापा के सामने मोहित शैली के बड़े भाई के रूप में मिलने आता. सारा के मम्मीपापा को अब तसल्ली हो गई थी और वे निश्तिंत हो कर वापस अपने घर चले गए.

सारा और मोहित एकसाथ रहने लगे थे. सारा को मोहित का साथ भाता था परंतु अंदर ही अंदर उसे अपने मम्मीपापा से झठ बोलना भी कचोटता रहता था. एक दिन सारा ने मोहित से कहा, ‘‘मोहित, तुम मुझे पसंद करते हो क्या?’’

मोहित बोला, ‘‘अपनी जान से भी ज्यादा?’’

सारा बोली, ‘‘मोहित तुम और मैं क्या इस रिश्ते को नाम नहीं दे सकते हैं?’’

मोहित चिढ़ते हुए बोला,’’ यार मुझे माफ करो, मैं ने पहले ही कहा था कि हम एक दोस्त की तरह ही रहेंगे. मैं तुम पर कोई बंधन नहीं लगाना चाहता हूं और न ही तुम मुझ पर लगाया करो. और तुम यह बात क्यों भूल जाती हो कि मेरे घर पर रहने के कारण तुम्हारी कितनी बचत हो रही है और भी कई फायदे भी हैं,’’ कहते हुए मोहित ने अपनी आंख दबा दी.

सारा को मोहित का यह सस्ता मजाक बिलकुल पसंद नहीं आया. 2 दिन तक मोहित और सारा के बीच तनाव बना रहा परंतु फिर से मोहित ने हमेशा की तरह सारा को मना लिया. सारा भी अब इस नए लाइफस्टाइल की अभ्यस्त हो चुकी थी.

सारा जब मुजफ्फरनगर से पुणे आई थी तो उस के बड़ेबड़े सपने थे परंतु अब न जाने क्यों उस के सब सपने मोहित के इर्दगिर्द सिमट कर रह गए थे.

आज सारा बेहद परेशान थी. उस के पीरियड्स की डेट मिस हो गई थी. जब उस ने मोहित को यह बात बताई तो वह बोला, ‘‘सारा ऐसे कैसे हो सकता है हम ने तो सारे प्रीकौशंस लिए थे?’’

‘‘तुम मुझ पर शक कर रहे हो?’’

‘‘नहीं बाबा कल टैस्ट कर लेना.’’

सारा को जो डर था वही हुआ. प्रैगनैंसी किट की टैस्ट रिपोर्ट देख कर सारा के हाथपैर ठंडे पड़ गए.

मोहित उसे संभालते हुए बोला, ‘‘सारा टैंशन मत लो कल डाक्टर के पास चलेंगे.’’

अगले दिन डाक्टर के पास जा कर जब उन्होंने अपनी समस्या बताई तो डाक्टर बोली, ‘‘पहली बार अबौर्शन कराने की सलाह मैं नहीं दूंगी… आगे आप की मरजी.’’

घर आ कर सारा मोहित की खुशामद करने लगी, ‘‘मोहित, प्लीज शादी कर लेते हैं. यह हमारे प्यार की निशानी है.’’

मोहित चिढ़ते हुए बोला, ‘‘सारा, प्लीज फोर्स मत करो… यह शादी मेरे लिए शादी नहीं बल्कि एक फंदा बनेगी.’’

सारा फिर चुप हो गई थी. अगले दिन चुपचाप जब सारा तैयार हो कर जाने लगी तो मोहित भी साथ हो लिया.

रास्ते में मोहित बोला, ‘‘सारा, मुझे मालूम है तुम मुझ से गुस्सा हो पर ऐसा कुछ

जल्दबाजी में मत करो जिस से बाद में हम

दोनों को घुटन महसूस हो. देखो इस रिश्ते में

हम दोनों का फायदा ही फायदा है और शादी के लिए मैं मना कहां कर रहा हूं, पर अभी नहीं कर सकता हूं.’’

डाक्टर से सारा और मोहित ने बोल दिया था कि कुछ निजी कारणों से वे अभी बच्चा नहीं कर सकते हैं.

डाक्टर ने उन्हें अबौर्शन के लिए 2 दिन बाद आने के लिए कहा. मोहित ने जब पूरा खर्च पूछा तो डाक्टर ने कहा, ‘‘25 से 30 हजार रुपए.’’

घर आ कर मोहित ने पूरा हिसाब लगाया, ‘‘सारा तुम्हें तो 3-4 दिन बैड रैस्ट भी करना होगी जिस कारण तुम्हें लीव विदआउट पे लेनी पड़ेगी. तुम्हारा अधिक नुकसान होगी, इसलिए इस अबौर्शन का 50% खर्चा मैं उठा लूंगा.’’

सारा छत को टकटकी लगाए देख रही थी. बारबार उसे ग्लानि हो रही थी कि वह एक जीव हत्या करेगी. बारबार सारा के मन में खयाल आ रहा था कि अगर उस की और मोहित की शादी हो गई होती तो भी मोहित ऐसे ही 50% खर्चा देता. सारा ने रात में एक बार फिर मोहित से बात करने की कोशिश करी, मगर उस ने बात को वहीं समाप्त कर दिया.

मोहित बोला, ‘‘तुम्हें वैसे तो बराबरी चाहिए, मगर अब फीमेल कार्ड खेल रही हो. यह गलती दोनों की है तो 50% भुगतान कर तो रहा हूं और यह बात तुम क्यों भूल जाती हो कि तुम्हारा वैसे ही क्या खर्चा होता है. यह घर मेरा है जिस में तुम बिना किराए दिए रहती हो.’’

मोहित की बात सुन कर सारा का मन खट्टा हो गया.

जब से सारा अबौर्शन करा कर लौटी थी वह मोहित के साथ हंसतीबोलती जरूर थी, मगर उस के अंदर बहुत कुछ बदल गया था. पहले जो सारा मोहित को ले कर बहुत केयरिंग और पजैसिव थी अब उस ने मोहित से एक डिस्टैंस बना लिया था.

शुरूशुरू में तो मोहित को सारा का बदला व्यवहार अच्छा लग रहा था परंतु बाद में उसे सारा का वह अपनापन बेहद याद आने लगा.

पहले मोहित जब औफिस से घर आता था तो सारा उस के साथ ही चाय लेती थी परंतु आजकल अधिकतर वह गायब ही रहती थी.

एक दिन संडे को मोहित ने कहा, ‘‘सारा कल मैं ने अपने कुछ दोस्त लंच पर बुलाए हैं.’’

सारा लापरवाही से बोली, ‘‘तो मैं क्या

करूं, तुम्हारे दोस्त हैं तुम उन्हें लंच पर बुलाओ या डिनर पर.’’

‘‘अरे यार हम एकसाथ एक घर में रहते हैं… ऐसा क्यों बोल रही हो.’’

सारा मुसकराते हुए बोली, ‘‘बेबी, इस घोंसले की दीवारें आजाद हैं… जो जब चाहे उड़ सकता है. कोई तुम्हारी पत्नी थोड़े ही हूं जो तुम्हारे दोस्तों को ऐंटरटेन करूं.’’

मोहित मायूस होते हुए बोला, ‘‘एक दोस्त के नाते भी नहीं?’’

‘‘कल तुम्हारी इस दोस्त को अपने दोस्तों के साथ बाहर जाना है.’’

मोहित आगे कुछ नहीं बोल पाया.

सारा ने अब तक अपनी जिंदगी मोहित

के इर्दगिर्द ही सीमित कर रखी थी. जैसे ही उस

ने बाहर कदम बढ़ाए तो सारा को लगा कि वह कुएं के मेढक की तरह अब तक मोहित के

साथ बनी हुई थी. इस कुएं के बाहर तो बहुत

बड़ा समंदर है. सारा अब इस समंदर की सारी सीपियों और मोतियों को अनुभव करना

चाहती थी.

एक दिन डिनर करते हुए सारा मोहित से बोली, ‘‘मोहित, तुम्हें पता नहीं है तुम कितने अच्छे हो.’’

मोहित मन ही मन खुश हो उठा. उसे लगा कि अब सारा शायद फिर से प्यार का इकरार करेगी.

मगर सारा मोहित की आशा के विपरीत बोली, ‘‘अच्छा हुआ तुम ने शादी करने से मना कर दिया. मुझे उस समय बुरा अवश्य लगा परंतु अगर हम शादी कर लेते तो मैं इस कुएं में ही सड़ती रहती.’’

अगले माह मोहित को कंपनी के काम से बैंगलुरु जाना था. उसे न जाने क्यों अब सारा का यह स्वच्छंद व्यवहार अच्छा नहीं लगता था. उस ने मन ही मन तय कर लिया था कि अगले माह सारा के जन्मदिन पर वह उसे प्रोपोज कर देगा और फिर परिवार वालों की सहमति से अगले साल तक विवाह के बंधन में बंध जाएंगे.

बैंगलुरु पहुंचने के बाद भी मोहित ही सारा को मैसेज करता रहता था परंतु चैट पर बकबक करने वाली सारा अब बस हांहूं के मैसेज तक सीमित हो गई थी.

जब मोहित बैंगलुरु से वापस पुणे पहुंचा तो देखा सारा वहां नही थी. उस ने फोन लगाया तो सारा की चहकती आवाज आई, ‘‘अरे यार मैं गोवा में हूं, बहुत मजा आ रहा है.’’

इस से पहले कि मोहित कुछ बोलता सारा ने झट से फोन काट दिया.

3 दिन बाद जब सारा वापस आई तो मोहित बोला, ‘‘बिना बताए ही चली गईं, एक बार पूछा भी नही.’’

सारा बोली, ‘‘तुम मना कर देते क्या?’’

मोहित झेंपते हुए बोला, ‘‘मेरा मतलब यह नहीं था.’’

मोहित को उस के एक नजदीकी दोस्त ने बताया था कि सारा अर्पित नाम के लड़के के साथ गोवा गई थी. मोहित को यह सुन कर बुरा लगा था, मगर उसे समझ नहीं आ रहा था कि सारा से क्या बात करे? उस ने खुद ही अपने और सारा के बीच यह खाई बनाई थी.

मोहित सारा को दोबारा से अपने करीब लाने के लिए सारे ट्रिक्स अपना चुका था परंतु अब सारा पानी पर तेल की तरह फिसल गई थी.

अगले हफ्ते सारा का जन्मदिन था. मोहित ने मन ही मन उसे सरप्राइज देने की सोच रखी थी. तभी उस रात अचानक मोहित को तेज बुखार हो गया. सारा ने उस की खूब अच्छे से देखभाल करी. 5 दिन बाद जब मोहित पूरी तरह से ठीक हो गया तो उसे विश्वास हो गया कि सारा उसे छोड़ कर कहीं नहीं जाएगी. मोहित ने सारा के लिए हीरे की अंगूठी खरीद ली. कल सारा का जन्मदिन था. मोहित शाम को जल्दी आ गया था. उस ने औनलाइन केक बुक कर रखा था.

न जाने क्यों आज उसे सारा का बेसब्री से इंतजार था.

जैसे ही सारा घर आई तो मोहित ने उस के लिए चाय बनाई. सारा ने मुसकराते हुए चाय का कप पकड़ा और कहा, ‘‘क्या इरादा है जनाब का?’’

मोहित बोला, ‘‘कल तुम्हारा जन्मदिन है, मैं तुम्हें स्पैशल फील कराना चाहता हूं.’’

‘‘वह तो तुम्हें मेरे घर आ कर करना पड़ेगा.’’

‘‘तुम क्या अपने घर जा रही हो जन्मदिन पर.’’

‘‘मैं ने अपने औफिस के पास एक छोटा सा फ्लैट ले लिया है. मैं अपना जन्मदिन वहीं मनाना चाहती हूं. अब मैं अपना खर्च खुद उठाना चाहती हूं… यह निर्णय मुझे बहुत पहले ही ले लेना चाहिए था.’’

मोहित बोला, ‘‘मुझे मालूम है तुम मुझ से अब तक अबौर्शन की बात से नाराज हो. यार मेरी गलती थी कि मैं ने तुम से तब शादी करने के लिए मना कर दिया था.’’

‘‘अरे नहीं तुम सही थे, मजबूरी में अगर तुम मुझ से शादी कर भी लेते तो हम दोनों हमेशा दुखी रहते.’’

‘‘सारा मैं तुम से प्यार करता हूं और तुम से शादी करना चाहता हूं.’’

‘‘मोहित पर मैं तुम से आकर्षित थी… अगर प्यार होता तो शायद आज मैं अलग रहने का फैसला नहीं लेती.’’

सारा सामान पैक कर रही थी. मोहित के अहम को ठेस लग गई थी, इसलिए उस ने अपना आखिरी दांव खेला, ‘‘तुम्हारे नए बौयफ्रैंड को पता है कि तुम ने अबौर्शन करवाया था. अगर तुम्हारे घर वालों को यह बात पता चल जाएगी तो सोचो उन्हें कैसा लगेगा? मैं तुम पर विश्वास करता हूं, इसलिए मैं तुम से शादी करने को अभी भी तैयार हूं.’’

‘‘पर मोहित मैं तैयार नहीं हूं. बहुत अच्छा हुआ कि इस बहाने ही सही मुझे तुम्हारे विचार पता चल गए. और रही बात मेरे परिवार की, तो वे कभी नहीं चाहेंगे कि मैं तुम जैसे लंपट इंसान से विवाह करूं. मोहित तुम्हारा यह घोंसला आजादी के तिनकों से नहीं वरन स्वार्थ के तिनकों से बुना हुआ है. अगर एक दोस्त के नाते कभी मेरे घर आना चाहो तो अवश्य आ सकते हो,’’ कहते हुए सारा ने अपने नए घोंसले का पता टेबल पर रखा और एक स्वच्छंद चिडि़या की तरह खुले आकाश में विचरण करने के लिए उड़ गई.

सारा ने अब निश्चय कर लिया था कि वह अपनी मेहनत और हिम्मत के तिनकों से अपना घोंसला स्वयं बनाएगी. तिनकातिनका जोड़ कर बनाएगी अब वह अपना घोंसला… आज की नारी में हिम्मत, मेहनत और खुद पर विश्वास का हौसला.

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