नन्हा मेहमान: क्या दोबारा मिला खोया डौगी

‘‘मम्मी… मम्मी,’’ चिल्लाता 10 वर्षीय ऋषभ तेजी से मकान की दूसरी मंजिल में पहुंच गया. उस के पीछेपीछे 8 वर्षीय छोटी बहन मान्या भी खुशीखुशी अपनी स्कर्ट को संभालती चली आ रही थी.

अल्मोड़ा शहर की ऊंचीनीची, घुमावदार सड़कों से बच्चे रोज ही लगभग 2 किलोमीटर पैदल चल कर अपने मित्रों के संग कौंवैंट स्कूल आतेजाते हैं. सभी बच्चे हंसतेबोलते कब स्कूल से घर और घर से स्कूल पहुंच जाते, उन्हें इस का एहसास ही नहीं होता, जबकि पीठ में बस्ते का भार भी रहता. रितिका भी दोपहर तक बच्चों के घर पहुंचने के दौरान अपने सारे काम निबटा लेती. बच्चों को खिलापिला कर होमवर्क करने को बैठा देती. तभी दो घड़ी अपनी आंख   झपका पाती.

आज ऋ षभ की आवाज सुन कर कमरे से निकल बरामदे में आ गईं. मन में अनेक आशंकाओं ने इतनी देर में जन्म भी ले लिया. सड़क दुर्घटना, हादसा और भी तमाम खयालात दिमाग में दौड़ गए.

‘‘यह देखो मैं क्या लाया?’’ शरारती ऋ षभ ने अपने हाथों में थामे हुए लगभग 2 महीने के पिल्ले को   झुलाते हुए कहा.

मान्या अपनी मम्मी के मनोभावों को पढ़ने में लगी हुई थी. उसे मम्मी खुश दिखती तो वह अपना योगदान भी जाहिर करती, नहीं तो सारा ठीकरा ऋ षभ के सिर फोड़ देती.

‘‘सड़क से पिल्ला क्यों उठा कर लाए? अभी इस की मां आती होगी, जब तुम्हें काटेगी तभी तुम सुधरोगे,’’ रितिका गुस्से से बोली.

‘‘सड़क का नहीं है मम्मी, हमारे स्कूल में जो आया हैं, उन्होंने दिया है. ये स्कूल में पैदा हुए हैं. आयाजी ने कहा है जिन्हें पालने हैं वे ले जाएं. स्कूल में तो पहले ही 4 भोटिया डौग हैं,’’ ऋ षभ ने सफाई देते हुए उसे फर्श पर रख दिया. पिल्ला सहम कर कोने में बैठ गया और अपने भविष्य के फैसले का इंतजार करने लगा.

‘‘चलो हाथमुंह धोलो, खाना खाओ. इसे कल स्कूल वापस ले जाना. हम नहीं रखेंगे. तुम्हारे पापा को कुत्तेबिल्ले बिलकुल पसंद नहीं हैं.’’

‘‘पर पापा के घर में गाय तो है न, दादी गाय पालती हैं,’’ मान्या बीच में बोली.

‘‘गाय दूध देती है,’’ रितिका ने तर्क दिया.

‘‘कुत्ता भौंक कर चौकीदारी करता है,’’ मान्या का तर्क सुन कर ऋ षभ की आंखों में चमक आ गई.

‘‘मु  झे इस पिल्ले पर कोई एतराज नहीं है, मगर तुम्हारे पापा डांटेंगे तो मेरे पास मत आना.’’

मम्मी की बात सुन कर दोनों के मुंह उतर गए.

रितिका पुराने प्लास्टिक के कटोरे में दूध में ब्रैड के टुकड़े डाल कर ले आई, जिसे देख कर पिल्ला लपक कर कटोरी के बगल में खड़ा हो गया. ऋ षभ और मान्या की तरफ ऐसे देखने लगा मानो उन से इजाजत ले रहा हो और अगले ही पल कटोरे पर टूट पड़ा. कटोरे को पूरा चाट कर खुशी से अपनी दुम हिलाने लगा.

‘‘आंटी, आंटी…’ की तेज आवाज नीचे आंगन से आ रही थी. रितिका ने ऊपर बरामदे से नीचे   झांका. नीचे आगन से ऋ षभ की उम्र की 2 लड़कियां स्कूल ड्रैस पहने खड़ी थी.

‘‘क्या हुआ बेटा?’’ रितिका ने उन दोनों को पहले कभी नहीं देखा था.

‘‘आंटी ऋ षभ हमारा पिल्ला ले कर भाग आया,’’ उन दोनों में से एक ने कहा.

‘‘  झूठ… इसे आयाजी ने मु  झे दिया था,’’ ऋषभ ने सफाई दी.

‘‘मम्मी यह पिल्ला स्कूल से ही लाया गया है. रास्ते में हम चारों ने इसे बारीबारी गोद में पकड़ा था. जब घर पास आने लगा तो तृप्ति इसे अपने घर ले जाने लगी तो भैया इसे अपनी गोद में ले कर भागता हुआ घर आ गया,’’ मान्या ने स्पष्टीकरण दिया.

‘‘आंटी ऋ षभ ने पहले कहा था कि तुम चाहो तो अपने घर ले जा सकती हो, लेकिन वह बाद में भाग गया,’’ वह फिर बोली.

रितिका को कुछ सम  झ ही नहीं आया कि वह किसे क्या सम  झाए.

‘‘मैं तो अब इसे किसी को भी नहीं दूंगा. मैं ने इस पर बहुत खर्चा कर दिया है,’’ ऋ षभ ने फैसला सुनाया.

‘‘क्या खर्चा किया?’’ उस ने नीचे से पूछा.

‘‘एक कटोरा दूध और ब्रैड मैं इसे खिला चुका हूं. अब यह मेरा है,’’ ऋषभ ने जिद पकड़ ली.

‘‘सुनो बेटा, आज तुम इसे यही रहने दो. घर जा कर अपनी मम्मी से पूछ लेना कि वे पिल्ले को घर में रख लेंगी. वे अगर सहमत होंगी तो मैं यह पिल्ला तुम्हें दे दूंगी. यहां तो ऋषभ के पापा इसे नहीं रखने देंगे. कल तुम्हें लेना होगा तो बता देना वरना वापस स्कूल चला जाएगा,’’ रितिका ने सम  झाया तो दोनों लड़कियों ने सहमति में सिर हिला दिया और वापस चली गईं.

‘‘खबरदार यह पिल्ला घर के अंदर नहीं आना चाहिए. इसे यही बरामदे में गद्दी डाल कर रख दो. तुम दोनों अंदर आ जाओ.’’

रितिका की बात सुन कर ऋषभ ने उसे पतली डोरी से दरवाजे से बांध दिया. उस के पास गद्दी बिछा कर कटोरे में पानी भर दिया. भोजन के बाद दोनों अपना होमवर्क करने लगे. बाहर पिल्ला लगातार कूंकूं करने लगा. दोनों बच्चे अपनी मम्मी का मुंह ताकते कि शायद वे रहम खा कर उसे अंदर आने दें, मगर रितिका ने उन्हें अपनी पढ़ाई पर ध्यान देने को कहा. कुछ देर बाद पिल्ले ने कूंकूं करना बंद कर दिया.

होमवर्क खत्म होते ही दोनों लपक कर बरामदे में आ गए, ‘मम्मीमम्मी’ इस बार मान्या और ऋ षभ दोनों एकसाथ पुकार रहे थे.

रितिका को   झपकी सी आ गई थी. शोर सुन कर वह तुरंत बाहर को लपकी.

‘‘मम्मी हमारा पिल्ला खो गया,’’ दोनों रोआंसे स्वर में एकसाथ बोले. पिल्ले के गले से बंधी डोरी की गांठ खुली पड़ी थी. डोरी की गांठ ढीली थी, जो पिल्ले की जोरआजमाइश करने के कारण खुल गई थी.

‘‘यहीं कहीं होगा, मेजकुरसी के नीचे देखो.’’

‘‘सीढि़यों से नीचे तो नहीं गया?’’ ऋ षभ ने शंका जताई.

रितिका ने सीढि़यों की तरफ देखा. सीढि़यां नीचे सड़क को जाती हैं.

‘‘मम्मी कहीं वह किसी गाड़ी के नीचे न आ जाए,’’ मान्या को चिंता हुई.

‘‘मु  झे नहीं लगता कि वह सीढि़यां उतर पायेगा, लेकिन अगर बरामदे में नहीं है तो नीचे आंगन में देखो.

वह अखरोट और नारंगी के पौधे के नीचे जो   झाडि़यां हैं हो सकता है उन में छिपा हो.’’

रितिका के ऐसा कहते ही वे दोनों सीढि़यों से नीचे को दौड़ पड़े. उन के पीछे रितिका भी उतर कर आ गई.

उसे भी मन ही मन अफसोस हो रहा था कि काश वह उसे कमरे के अंदर अपनी आंखों के सामने ही रखती.

नीचे की मंजिल में रहने वाले किराएदार के बच्चे भी पिल्ला खोजो अभियान में  शामिल हो गए 2 घंटे बीत गए. सूर्य के ढलने के साथ ही अंधेरा छाने लगा तो रितिका बच्चों को ऊपर ले आई. बच्चों के चेहरे पर छाई उदासी से उस का मन दुखी हो गया. बच्चों को बहलाते हुए बोली, ‘‘अब तुम्हारे पापा के घर लौटने का समय हो गया है. पिल्ले की बात मत करना. अच्छा हुआ वह खुद चला गया.’’

दोनों बच्चे टीवी के आगे बैठ कर कार्टून देखने लगे. मन ही मन वे बेहद दुखी हो रहे थे.

पापा ने घर आने के कुछ देर बाद उन से पूछा, ‘‘होमवर्क कंप्लीट कर लिया?’’

‘‘हां पापा,’’ मान्या ने तुरंत जवाब दिया.

‘‘आज क्या मिला होमवर्क में?’’ प्रकाश ने पूछा.

‘‘पापा आज केवल मैथ्स और इंग्लिश में रिटेन होमवर्क मिला था. ओरल भी सब याद कर लिया है,’’ मान्या अपनी कौपी निकाल कर पापा को दिखाने लगी.

‘‘पापा इंग्लिश में ऐस्से लिखना था- माई पैट एनिमल’’ मान्या रोआंसी हो कर बोली.

‘‘तो क्या नहीं लिखा अभी तक?’’ प्रकाश ने पूछा.

‘‘लिख लिया माई पैट डौग,’’ मान्या का गला रुंध गया. उसे पिल्ला याद आ गया.

‘‘पापा मेरा भी होमवक चैक कर लीजिए,’’ ऋषभ भी अपनी कौपी उठा लाया. उस ने मान्या को वहां से चले जाने का इशारा किया. मान्या अपनी कौपी उठा कर रसोई में अपनी मम्मी के पास आ गई.

मम्मी रात के भोजन की तैयारी में व्यस्त थी. मान्या को देख कर बोली, ‘‘भूख लगी है मान्या? बस 5 मिनट रुको.’’

‘‘नहीं मेरा कुछ भी खाने का मन नहीं है. वह पिल्ला अंधेरे में कितना डर रहा होगा न. मम्मी आज आप ने डौग के ऊपर निबंध लिखवाया. मु  झे पूरा याद भी हो गया पिल्ले की वजह से. उस की लैग्स, उस की टेल, उस की आईज.’’

रितिका ने पलट कर मान्या के बालों को प्यार से सहला दिया. रात को  सोते समय दोनों बच्चे रितिका के पास आ गए.

‘‘जाओ तुम दोनों अपनेअपने कमरे में,’’ रितिका ने कहा.

आज दोनों बच्चों को नींद नहीं आ रही थी. उन को उदास देख कर रितिका ने कहा, ‘‘आज मैं तुम्हें एक सच्ची कहानी सुनाती हूं.’’

‘‘किस की कहानी है?’’ ऋ षभ ने पूछा.

‘‘कुत्ते और बिल्ली की,’’ रितिका ने कहा.

‘‘हां मैं सम  झ गया आप अपनी बिल्ली और मामाजी के कुत्ते की कहानी सुनाएंगी. मैं ने उन दोनों के साथ में बैठे हुए फोटो देखा है,’’ ऋ षभ ने कहा.

‘‘हां मैं ने भी देखा है. दोनों एक ही पोज में कालीन पर बैठे हुए हैं,’’ मान्या बोली.

‘‘सुनो कुत्ते और बिल्ली के हमारे घर में आने की कहानी,’’ रितिका हंस कर बोली.

जुलाई का महीना था. बाहर बारिश हो रही थी. सड़कों के गड्ढे भी पानी से भर गए थे. तभी म्याऊंम्याऊं करती आवाज ने सब का ध्यान आकर्षित कर लिया. नन्हे से भीगे हुए बिल्ली के बच्चे को देख कर मैं अपने को रोक न सकी. उसे कपड़े से पकड़ कर अंदर ले आई. सब ने सोचा बारिश बंद हो जाएगी तो चला जाएगा. मगर वह नहीं गया. हमारे ही घर में रहने लगा. हां कभीकभी घर से घंटों गायब भी रहता, मगर शाम तक लौट आता.’’

‘‘मम्मी मामाजी के डौग शेरू से उस की लड़ाई नहीं हुई?’’ मान्या बोली.

‘‘नहीं जब मेरी पूसी 1 साल की हो गई उन्हीं दिनों हम शेरू को रोड से उठा कर घर लाए थे. वह तो पूसी से डरता था. पूसी अपना अधिकार सम  झती थी. उस के ऊपर खूब गुर्राती. बाद में उस के साथ खेलने लगी. दोनों में दोस्ती हो गई. जब शेरू का आकार पूसी से बड़ा भी हो गया वह तब भी पूसी से डरता था. अब उस बेचारे को क्या मालूम कि वह कुत्ता है और बिल्ली को उस से डरना चाहिए. वह अपनी पूरी जिंदगी बिल्ली से डरता रहा,’’ रितिका बोली.

यह सुन कर दोनों बच्चे हंसने लगे.

‘‘चलो बच्चों देर हो गई जा कर सो जाओ,’’ पापा अपना लैपटौप बंद कर बोले. बच्चे तुरंत उठ कर चले गए.

आधी रात को खटरपटर सुन कर प्रकाश की नींद खुल गई. उस ने कमरे की बत्ती जलाई और इधरउधर देखने लगा.

रितिका ने पूछा, ‘‘क्या हो गया?’’

‘‘मु  झे बहुत देर से कुछ आवाजें सुनाई दे रही हैं.’’

‘‘कैसी आवाजें? वह चोर के छिपे होने की आशंका से घबराई और उठ कर बैठ गई.’’

तभी बैड के नीचे से पिल्ला निकल कर  कूंकूं करने लगा. उसे देख कर प्रकाश को   झटका लगा.

‘‘यह पिल्ला कहां से अंदर आ गया?’’ वह आश्चर्य से चीख पड़ा.

बच्चे पापा की आवाज सुन कर भागते हुए आ गए. पिल्ले ने उन्हें देख कर दुम हिलानी शुरू कर दी.

‘‘पापा इसे हम स्कूल से ले कर आए थे. मगर यह हमें शाम को नहीं मिला. हम ने सोचा यह खो गया है,’’ ऋषभ ने बताया.

‘‘पापा लगता है यह शैतान तो चुपके से अंदर आ गया और आप के बैड के नीचे सो गया मान्या ने कहा,’’ मान्या ने कहा.

‘‘हां बेचारा चिल्लाचिल्ला के थक गया होगा,’’ ऋषभ ने कहा.

‘‘कल बच्चे इसे स्कूल छोड़ आएंगे,’’ रितिका ने सफाई दी.

‘‘पापा क्या हम इसे पाल नहीं सकते?’’ मान्या ने पूछा.

प्रकाश ने एक पल अपने बच्चों के आशंकित चेहरों को देखा फिर हामी भर दी.

‘‘थैंक्स पापा. मैं इस का नाम ब्रूनो रखूंगी,’’ मान्या बोली.

‘‘नहीं इस का नाम शेरू होगा,’’ ऋ षभ ने कहा.

जो पिल्ले को घुमाने ले जाएगा, उस की पौटी साफ करेगा उसी को नाम रखने का अधिकार होगा,’

’ रितिका की बात सुन कर ऋ षभ और मान्या एकदूसरे का मुंह देखने लगे.

मिलन: क्या थी डॉक्टर की कहानी

मैं जब सुबहसुबह तैयार हो कर कालेज के लिए निकलती, तो वह मुझे सड़क पर जरूर मिल जाता था. वह गोराचिट्टा और बांका जवान था. उस की हलके रंग की नई मोटरसाइकिल सड़क के एक ओर खड़ी रहती और वह खुद उस पर बैठा या नजदीक ही चहलकदमी करता दिखाई देता.

जब कभी वह उस जगह से गायब मिलता, मैं उसे इधरउधर गरदन घुमा कर ढूंढ़ने को मजबूर हो जाती. तब वह कभी चाय की दुकान में चाय पी रहा होता, तो कभी पान वाले के पास और कभी गुलाब की झाड़ी के पास हाथों में गुलाब लिए खड़ा दिखाई देता. उस की नजर मुझ पर ही लगी होती और जब मैं उस की ओर देखती, तो वह अपनी नजर दूसरी ओर घुमा लेता.

हम लोग एक बस्ती के पक्के मकान में रहते थे, जिस में हर तरह के लोग रहते थे. कुछ ओबीसी कहलाते, कुछ एससी, कुछ अल्पसंख्यक. पिछले कुछ सालों से कुछ गुंडेटाइप लोगों ने हमें भी सताना शुरू कर दिया था, इसलिए मैं बड़े संकोच से घर से निकलती थी.  सच पूछो तो मुझे भी उसे देखना अच्छा लगता था. डर लगता था कि कहीं यह उन गुंडों में न हो, जो आजकल हर जगह आतंक फैलाए हुए हैं और चुनावों व त्योहारों में आगे बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते हैं.

मैं जब तक उसे देख न लेती, दिल को चैन नहीं मिलता था. कई दिनों तक यह सिलसिला चलता रहा. उस के बाद उस ने मुझे ‘नमस्ते’ करना शुरू कर दिया. मैं भी डरडर कर मुसकरा कर जवाब देने लगी थी. एक दिन मेरे छोटे भाई मदन के पेट में अचानक दर्द उठा, तो मैं उसे पास के एक डाक्टर के क्लिनिक पर ले गई. वहां बोर्ड लगा था- डा. रमेश.  जैसे ही मैं कमरे में गई तो यह देख कर चौंकी कि कुरसी पर वही मोटरसाइकिल वाला नौजवान बैठा हुआ था.

वह भी मुझे देख कर हैरान रह गया और बोला, ‘‘आप… आइए, बैठिए…’’ हम कुरसियों पर बैठ गए, तो वह आगे बोला, ‘‘कैसे आना हुआ?’’ मैं ने कहा, ‘‘यह मेरा छोटा भाई है मदन. इस के पेट में सुबह से दर्द हो रहा है.’’ उस ने मदन को बिस्तर पर लिटाया और 5-7 मिनट तक उस की जांच की, फिर बोला ‘‘कोई बड़ी बात नहीं है. कभीकभी ऐसा हो जाता है. मैं दवाएं दे देता हूं. आप इन्हें देते रहिए. सब ठीक हो जाएगा.’’ हम दवाएं ले कर घर आ गए. जल्दी ही मदन बिलकुल ठीक हो गया.

अगले दिन जब मैं कालेज से क्लिनिक गई, तो डाक्टर रमेश मुझे कहीं दिखाई नहीं दिए. मैं ने सोचा कि चलो इस आंखमिचौली के खेल का खात्मा हो गया.  एक दिन कालेज में हमारे सभी पीरियड खाली थे, मैं इसलिए बाजार घूमने निकल पड़ी. वहीं पर डाक्टर रमेश मिल गए. मैं ने मुसकराते हुए पूछा, ‘‘आज आप कहां थे?’’ वे बोले, ‘‘मदन कैसा है?’’

‘‘अब बिलकुल ठीक है.’’

वे कुछ देर सोचते रहे, फिर बोले,

‘‘क्या आप मेरे साथ एक प्याला चाय पी सकती हैं?’’

‘‘जरूर, मुझे खुशी होगी.’’

हम दोनों एक रैस्टोरैंट में चले गए और एक जगह बैठ गए. उन्होंने मेरी ओर देखते हुए कहा, ‘‘आप का नाम ‘निशा’ है?’’ ‘‘आप कैसे जानते हैं…?’’

मैं ने हैरानी से पूछा. वे हंसे, फिर बोले, ‘‘आप ने अपनी किताब पर जो लिख रखा है. वैसे, सब से पहले मेरी छोटी बहन मधु ने बताया था, जो आप के कालेज में पढ़ती है.’’

‘‘अच्छा, तो आप मधु के भाई हैं…’’ मैं मधु को जानती थी. वह मुझ से एक क्लास पीछे थी. ‘‘क्या हर रोज इस आंखमिचौली का भेद बता सकेंगे आप…?’’ मैं ने जानना चाहा. बैरा चाय रख गया था और हम चाय पीने लगे थे. डाक्टर रमेश धीरे से बोले, ‘‘बहुत दिनों से मैं इस भेद को खोलना चाहता था, पर हिम्मत नहीं बटोर सका. आज मौका मिला है,

पर सोचता हूं कि आप कहीं बुरा न मान जाएं.’’ मैं चौंक कर उन की नीली आंखों में झांकने लगी, फिर मैं ने संभल कर कहा, ‘‘जो आप कहना चाहते हैं, साफसाफ कहिए.’’ ‘‘बात यह है निशाजी, जब से मैं ने आप को देखा है, मैं आप को चाहने लगा हूं. मैं आप को अपनी पत्नी बनाना चाहता हूं. क्या आप मेरा जिंदगीभर साथ दे सकती हैं?’’ मेरी धड़कनें तेज हो गई थीं. मैं कुछ पल चुप रही. फिर बोली, ‘‘देखो, इस बारे में मैं ने अभी कुछ सोचा ही नहीं है.

एक तो मेरी डाक्टरी की पढ़ाई का आखिरी साल है और इम्तिहान सिर पर हैं. दूसरे, इस मामले में मातापिता की मंजूरी लेना भी जरूरी है.’’ ‘‘अगर आप की मंजूरी मिल जाएगी, तो बाकी सभी की भी मिल जाएगी और हमारे रास्ते में कोई रुकावट नहीं आएगी,’’ उन्होंने मेरी राय जाननी चाही. मैं मुसकरा उठी थी. मेरे सभी परचे बहुत अच्छे हुए थे. जब नतीजा आया तो कालेज में मेरा नंबर चौथा था. डाक्टर रमेश ने आ कर मुझे बधाई दी और कहने लगे,

‘‘बस निशा, अब तुम अपने मातापिता को भी अपना फैसला बता दो. तुम्हारी नौकरी के लिए भागदौड़ मैं करता हूं.’’

मदन, जो मुझ से 2 साल छोटा था और इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ रहा था, उसे मैं ने एक दिन अपने दिल की बात बताई. सुन कर वह बहुत खुश हुआ, क्योंकि वह भी कई बार डाक्टर रमेश से मिल चुका था. फिर मदन ने ही मातापिता से बात की और वे भी मान गए. कुछ दिनों के बाद पिताजी ने डाक्टर रमेश को चाय पर बुलाया. शादी के बारे में बात चल पड़ी.  बातचीत के दौरान पिताजी कहने लगे, ‘‘देखो रमेश, हम जाति से हरिजन हैं और आप ब्राह्मण… क्या आप की बिरादरी एक हरिजन लड़की को अपनी बहू बनाने को तैयार होगी?

‘‘क्या आप को समाज के गुस्से का सामना नहीं करना पड़ेगा? यह ठीक है कि सरकारी नौकरी मिलने की वजह से हमारा खानपान अच्छा है और अहम यह है कि निशा पढ़ने में बेहद होशियार है, पर आजकल तुम जानते ही हो कि ऊंचीनीची जातियों में विचारों में भी दिक्कतें आने लगी हैं. सरकार मुंह से नहीं कहती, पर जो लोग हल्ला करते हैं, उन्हें हर तरह की छूट दे रखी है. निशा को मैडिकल कालेज में बड़ी दिक्कतें आती हैं. कम ही लोग उस के दोस्त बनते हैं.’’

‘‘मैं जातबिरादरी के ढोंग को नहीं मानता…’’ डाक्टर रमेश बोल उठे थे, ‘‘मुझे किसी की परवाह नहीं है. हम इस बुराई को खत्म करने के लिए आगे बढ़ेंगे और हमारी शादी इस दिशा में एक सही कदम साबित होगी.’’  डाक्टर रमेश इस तरह की बहुत सी बातें करते हैं. ऊंची जाति का होने पर भी उन्होंने इसीलिए हमारे जैसे लोगों की बस्ती में क्लिनिक खोला, ताकि कोई बीमारी से न मरे. हम डाक्टर रमेश की बातों को सुन कर बहुत खुश हुए थे.

इस से अगले ही महीने डाक्टर रमेश से मेरी शादी एक कोर्ट में हो गई. उन्होंने गांव से अपने मातापिता और कुछ दोस्तों को भी बुलाया था.  शहर आने से पहले हमारा परिवार भी गांव में ही रहता था. हमारे गांव से उन के गांव की दूरी केवल 5 किलोमीटर ही थी. चूंकि शादी कोर्ट में की थी, उन के मातापिता को एकदम पता नहीं चल पाया कि हमारी जाति क्या है.

पर डाक्टर रमेश के मातापिता को शादी के बाद पता लग गया कि हम हरिजन हैं, तो वे कुछ गुस्सा हो गए. वे दूसरे ही दिन गांव लौट गए. फिर क्या था, उन के पूरे गांव में जंगल की आग की तरह यह खबर फैल गई. शादी के बाद जब पहली बार हम गांव गए,

तो मातापिता बहुत नाराज थे, पर महेश के पैसे और डाक्टर की डिगरी के आगे ज्यादा बोल नहीं पाई. हमें देख एक बुजुर्ग दूसरे से कहने लगा, ‘‘देखो भाई, क्या जमाना हो गया है. छोटी जाति के लोग हमारे पास जीहुजूरी करते थे, आंगन में जूते उतार कर चलते थे, अब उन्हीं लोगों की लड़कियां हमारे लड़कों को फंसा कर शादियां करने लगी हैं. हमारी इज्जत तो मिट्टी में मिल गई…’’

दूसरे बूढ़े ने ताना मारा, ‘‘अरे रमेश, क्या तुझे अपनी बिरादरी में कोई लड़की नहीं मिली?’’ रमेश चुप रहे, पर मैं जानती थी कि यह कैसा समाज इनसानों के बीच दीवारों को हटाने की जगह और बना रहा है. आखिर यह ऊंचनीच का भेदभाव कब तक जारी रहेगा? रमेश मुझे समझाने लगे, ‘‘निशा, तुम इन लोगों की बातों का बुरा मत मानना. गांव वाले अनपढ़ और गंवार हैं, जो समझाने पर भी नहीं समझते. अब तो ये लोग ह्वाट्सएप वगैरह पर खूब जातिवाद फैलाते हैं. इस का तो मुकाबला करना ही होगा. जब लोगों में समझ आएगी, तभी समाज में धीरेधीरे बदलाव आएगा.’

’ हम कुछ दिन बाद शहर आ गए. कुछ ही महीने गुजरे थे कि मुझे डाक्टर की डिगरी मिल गई. हम दोनों अब एक ही सरकारी अस्पताल में काम करने लगे. फिर डेढ़ साल बाद हमारी बदली हमारे गांव के पास के एक अस्पताल में हो गई. अपने इलाके के लोगों की सेवा करने में हमें बड़ी खुशी होती थी. गांव में रमेश के एक पक्के दोस्त घनश्याम, जो स्कूल में मास्टर थे, के घर बेटे ने जन्म लिया. इस खुशी में उन्होंने एक बहुत बड़ा भोज किया.

जब खाने का समय आया और चावल परोसे जाने लगे तो हम भी पत्तलें ले कर गांव वालों के साथ बैठ गए. पर यह क्या. पूरे के पूरे गांव वाले पत्तलों में अपनाअपना खाना छोड़ कर उठ खड़े हुए और कानाफूसी करते सुनाई दिए, ‘हम किसी हरिजन के छुए अन्न को नहीं खाएंगे. इन्हें बुलाया ही क्यों…?’ मैं हैरान रह गई. मैं ने सोचा भी नहीं था कि हमारे आने से इतना बड़ा भूचाल आ जाएगा. उधर रमेश, घनश्याम और 2-3 समझदार लोग गांव वालों को समझाने लगे. पर सब बेकार. उस अन्न को पशुपक्षियों के आगे और नदी में मछलियों के लिए फेंक दिया गया.

उस दिन से मैं इतनी शर्मिंदा और दुखी हुई कि दोबारा कभी गांव में न जाने का पक्का इरादा कर लिया. तभी कोविड पैर पसारने लगा था. लोगों को सांस की तकलीफ बढ़ने लगी. 2-3 दिनों में ही पूरा अस्पताल भर गया. कोविड बीमारी ने हमारे गांव को भी अपनी चपेट में ले लिया. पंचायतघर और स्कूल के कमरों ने भी अस्पताल का रूप ले लिया. डाक्टर कम और मरीज ज्यादा और डाक्टरों को भी डर लगना कि उन की सेहत न बिगड़ जाए.

मम्मीपापा को हम अपने पास ले आए. हम ने तन, मन से गांव वालों की मदद की. गांव के कई लोग जो अस्पताल देर से पहुंचे, मौत के मुंह में चले गए. उन की लाशों को आग के हवाले किया. जिन की हालत ज्यादा खराब थी, उन्हें शहर के बड़े अस्पतालों में भेजने का इंतजाम किया. औक्सीजन सिलैंडरों का इंतजाम किया. हम से जो बन पड़ा किया.

मैं और महेश दोनों  20-20 घंटे काम करते. बीच में मुश्किल से कुरसी पर बैठेबैठे सुस्ताते. गांव के लोगों की देखभाल मैं खुद करती थी. उन्हें अपने हाथों से खाना खिलाती थी. जब लोग कुछ ठीक हो गए, तो एक दिन खाना खिलाते समय मैं ने एक बूढ़े को छेड़ ही दिया, ‘‘ताऊजी, आप सभी ने उस दिन मेरे छुए अन्न को खाने से मना कर दिया था, पर आज…’’ उन की गरदन झुक गई. वे कहने लगे, ‘‘बेटी, हम बहुत शर्मिंदा हैं और आप से माफी मांगते हैं. हम सब बराबर हैं.

कोई छोटा या बड़ा नहीं है. अब हमें यह बात समझ आ गई है.’’ दूसरा आदमी बोल उठा, ‘‘बेटी, तुम तो हमारे लिए जिंदगी बन कर आई हो…’’ मुझे उन की बातें सुन कर संतोष हुआ. महामारी पर काबू पाने में तकरीबन 2-3 महीने लगे.

इस बीच गांव के सभी लोग दिनरात हमारी तारीफ ही करते रहते थे. एक दिन दोपहर को मैं और मधु आपस में बातें कर रही थीं कि अचानक वह बोली, ‘‘भाभीजी, मैं पिछले कई दिनों से आप से एक बात कहना चाहती हूं, पर हिम्मत नहीं जुटा पा रही…’’

‘‘जरूर बोलो, अगर मैं तुम्हारे किसी काम आ सकी तो मुझे खुशी होगी,’’ मैं ने उस की पीठ थपथपाते हुए कहा. ‘‘बात यह है कि…’’ वह आगे कुछ न कह सकी.

‘‘अरे, इतनी शरमा क्यों रही हैं?’’ ‘‘भाभीजी, मैं ने अपने लिए जीवनसाथी चुन लिया है.’’ ‘‘अच्छा, वह कौन है भला…?’’ मैं ने चहक कर पूछा. ‘‘मदन.’’ ‘‘क्या?’’ मैं उछल पड़ी, ‘‘सच?’’

‘‘हां भाभीजी, ‘‘वह बोली, ‘‘मदन ने ही मुझे आप से अपना फैसला सुनाने के लिए कहा था. हम दोनों एकदूसरे को बहुत पसंद करते हैं.’’ मैं ने भरी आंखों से मधु को सीने से लगा लिया और सोचने लगी, ‘अगर जवान लड़केलड़कियां आगे आएं तो यह छुआछूत और भेदभाव की दीवार जरूर मिटाई जा सकती है. काश, हमारे गांव की तरह पूरे देश से इस बुराई  का खात्मा हो पाता, तो देश तेजी से तरक्की करता.’

बेटियां : क्या श्वेता बन पाई उस बूढ़ी औरत का सहारा

‘‘ओफ्फो, आज तो हद हो गई…चाय तक पीने का समय नहीं मिला,’’ यह कहतेकहते डाक्टर कुमार ने अपने चेहरे से मास्क और गले से स्टेथोस्कोप उतार कर मेज पर रख दिया.

सुबह से लगी मरीजों की भीड़ को खत्म कर वह बहुत थक गए थे. कुरसी पर बैठेबैठे ही अपनी आंखें मूंद कर वह थकान मिटाने की कोशिश करने लगे.

अभी कुछ मिनट ही बीते होंगे कि टेलीफोन की घंटी बज उठी. घंटी की आवाज सुन कर डाक्टर कुमार को लगा यह फोन उन्हें अधिक देर तक आराम करने नहीं देगा.

‘‘नंदू, देखो तो जरा, किस का फोन है?’’

वार्डब्वाय नंदू ने जा कर फोन सुना और फौरन वापस आ कर बोला, ‘‘सर, आप के लिए लेबर रूम से काल है.’’

आराम का खयाल छोड़ कर डाक्टर कुमार कुरसी से उठे और फोन पर बात करने लगे.

‘‘आक्सीजन लगाओ… मैं अभी पहुंचता हूं्…’’ और इसी के साथ फोन रखते हुए कुमार लंबेलंबे कदम भरते लेबर रूम की तरफ  चल पड़े.

लेबर रूम पहुंच कर डाक्टर कुमार ने देखा कि नवजात शिशु की हालत बेहद नाजुक है. उस ने नर्स से पूछा कि बच्चे को मां का दूध दिया गया था या नहीं.

‘‘सर,’’ नर्स ने बताया, ‘‘इस के मांबाप तो इसे इसी हालत में छोड़ कर चले गए हैं.’’

‘‘व्हाट’’ आश्चर्य से डाक्टर कुमार के मुंह से निकला, ‘‘एक नवजात बच्चे को छोड़ कर वह कैसे चले गए?’’

‘‘लड़की है न सर, पता चला है कि उन्हें लड़का ही चाहिए था.’’

‘‘अपने ही बच्चे के साथ यह कैसी घृणा,’’ कुमार ने समझ लिया कि गुस्सा करने और डांटडपट का अब कोई फायदा नहीं, इसलिए वह बच्ची की जान बचाने की कोशिश में जुट गए.

कृत्रिम श्वांस पर छोड़ कर और कुछ इंजेक्शन दे कर डाक्टर कुमार ने नर्स को कुछ जरूरी हिदायतें दीं और अपने कमरे में वापस लौट आए.

डाक्टर को देखते ही नंदू ने एक मरीज का कार्ड उन के हाथ में थमाया और बोला, ‘‘एक एक्सीडेंट का केस है सर.’’

डाक्टर कुमार ने देखा कि बूढ़ी औरत को काफी चोट आई थी. उन की जांच करने के बाद डाक्टर कुमार ने नर्स को मरहमपट्टी करने को कहा तथा कुछ दवाइयां लिख दीं.

होश आने पर वृद्ध महिला ने बताया कि कोई कार वाला उन्हें टक्कर मार गया था.

‘‘माताजी, आप के घर वाले?’’ डाक्टर कुमार ने पूछा.

‘‘सिर्फ एक बेटी है डाक्टर साहब, वही लाई है यहां तक मुझे,’’ बुढ़िया ने बताया.

डाक्टर कुमार ने देखा कि एक दुबलीपतली, शर्मीली सी लड़की है, मगर उस की आंखों से गजब का आत्म- विश्वास झलक रहा है. उस ने बूढ़ी औरत के सिर पर हाथ फेरते हुए तसल्ली दी और कहा, ‘‘मां, फिक्र मत करो…मैं हूं न…और अब तो आप ठीक हैं.’’

वृद्ध महिला ने कुछ हिम्मत जुटा कर कहा, ‘‘श्वेता, मुझे जरा बिठा दो, उलटी सी आ रही है.’’

इस से डाक्टर कुमार को पता चला कि उस दुबलीपतली लड़की का नाम श्वेता है. उन्होंने श्वेता के साथ मिल कर उस की मां को बिठाया. अभी वह पूरी तरह बैठ भी नहीं पाई थी कि एक जोर की उबकाई के साथ उन्होंने उलटी कर दी और श्वेता की गुलाबी पोशाक उस से सन गई.

मां शर्मसार सी होती हुई बोलीं, ‘‘माफ करना बेटी…मैं ने तो तुम्हें भी….’’

उन की बात बीच में काटती हुई श्वेता बोली, ‘‘यह तो मेरा सौभाग्य है मां कि आप की सेवा का मुझे मौका मिल रहा है.’’

श्वेता के कहे शब्द डाक्टर कुमार को सोच के किसी गहरे समुद्र में डुबोए चले जा रहे थे.

‘‘डाक्टर साहब, कोई गहरी चोट तो नहीं है न,’’ श्वेता ने रूमाल से अपने कपड़े साफ करते हुए पूछा.

‘‘वैसे तो कोई सीरियस बात नहीं है फिर भी इन्हें 5-6 दिन देखरेख के लिए अस्पताल में रखना पड़ेगा. खून काफी बह गया है. खर्चा तकरीबन….’’

‘‘डाक्टर साहब, आप उस की चिंता न करें…’’ श्वेता ने उन की बात बीच में काटी.

‘‘कहां से करेंगी आप इंतजाम?’’ दिलचस्प अंदाज में डाक्टर ने पूछा.

‘‘नौकरी करती हूं…कुछ जमा कर रखा है, कुछ जुटा लूंगी. आखिर, मेरे सिवा मां का इस दुनिया में है ही कौन?’’ यह सुन कर डाक्टर कुमार निश्चिंत हो गए. श्वेता की मां को वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया.

इधर डाक्टर ने लेबररूम में फोन किया तो पता चला कि नवजात बच्ची की हालत में कोई सुधार नहीं है. वह फिर बेचैन से हो उठे. वह इस सच को भी जानते थे कि बनावटी फीड में वह कमाल कहां जो मां के दूध में होता है.

डाक्टर कुमार दोपहर को खाने के लिए आए तो अपने दोनों मरीजों के बारे में ही सोचते रहे. बेचैनी में वह अपनी थकान भी भूल गए थे.

शाम को डाक्टर कुमार वार्ड का राउंड लेने पहुंचे तो देखा कि श्वेता अपनी मां को व्हील चेयर में बिठा कर सैर करा रही थी.

‘‘दोपहर को समय पर खाना खाया था मांजी ने?’’ डाक्टर कुमार ने श्वेता से मां के बारे में पूछा.

‘‘यस सर, जी भर कर खाया था. महीना दो महीना मां को यहां रहना पड़ जाए तो खूब मोटी हो कर जाएंगी,’’ श्वेता पहली बार कुछ खुल कर बोली. डाक्टर कुमार भी आज दिन में पहली बार हंसे थे.

वार्ड का राउंड ले कर डाक्टर कुमार अपने कमरे में आ गए. नंदू गायब था. डाक्टर कुमार का अंदाजा सही निकला. नंदू फोन सुन रहा था.

‘‘जल्दी आइए सर,’’ सुन कर डाक्टर ने झट से जा कर रिसीवर पकड़ा, तो लेबर रूम से नर्स की आवाज को वह साफ पहचान गए.

‘‘ओ… नो’’, धप्प से फोन रख दिया डाक्टर कुमार ने.

नवजात बच्ची बच न पाई थी. डाक्टर कुमार को लगा कि यदि उस बच्ची के मांबाप मिल जाते तो वह उन्हें घसीटता हुआ श्वेता के पास ले जाता और ‘बेटी’ की परिभाषा समझाता. वह छटपटा से उठे. कमरे में आए तो बैठा न गया. खिड़की से परदा उठा कर वह बाहर देखने लगे.

सहसा डाक्टर कुमार ने देखा कि लेबर रूम से 2 वार्डब्वाय उस बच्ची को कपड़े में लपेट कर बाहर ले जा रहे थे… मूर्ति बने कुमार उस करुणामय दृश्य को देखते रह गए. यों तो कितने ही मरीजों को उन्होंने अपनी आंखों के सामने दुनिया छोड़ते हुए देखा था लेकिन आज उस बच्ची को यों जाता देख उन की आंखों से पीड़ा और बेबसी के आंसू छलक आए.

डाक्टर कुमार को लग रहा था कि जैसे किसी मासूम और बेकुसूर श्वेता को गला घोंट कर मार डाला गया हो.

नया सवेरा: आखिर सेठजी ने भोला को क्यों माफ नहीं किया

सेठ चमन लाल का कपड़े का व्यापार बढ़ता जा रहा था, इसलिए उन्हें एक अकाउंटेंट की आवश्यकता थी. इस के लिए अखबार में विज्ञापन निकाला गया था. इस पद के लिए दर्जनों लोग आ चुके थे, लेकिन उन के पास इतना समय नहीं था कि स्वयं बैठ कर योग्य उम्मीदवार का चयन कर सकें, इसलिए यह जिम्मेवारी वे अपनी पत्नी रंजना देवी को दिए थे.

रंजना देवी आए हुए उम्मीदवारों से कई तरह के सवाल पूछ कर जांचने की कोशिश की, लेकिन रंजना देवी की उम्मीदों के तराजू पर सिर्फ भोला ही खरा निकला था. क्योंकि भोला का ध्यान सवालों पर कम, रंजना के ब्लाउज के ऊपर से दिख रहे उभारों को निहारने में ज्यादा था, जिसे रंजना भांप चुकी थी. सवालों के जवाब देते समय उस ने यह भी जतला दिया था कि रंजना जो कहेंगी, वह कभी भी करने से मना नहीं करेगा.

रंजना जानती थी कि ऐसे कामों के लिए वैसे व्यक्ति को रखना ठीक है जो उन के पति के साथसाथ उस का भी आज्ञापालक हो. भोला बिलकुल वैसा ही था, जैसा रंजना चाहती थी. भोला देखने में आकर्षक और सुंदर नौजवान था.

जब कभी सेठजी 1-2 दिन के लिए किसी काम के सिलसिले में बाहर चले जाते थे, तो भोला ही उन का कारोबार संभालता था. भोला उन के लेनदेन का हिसाब तो सटीक रखता ही था, लेकिन वह रंजना के कई कामों को चुटकी में निबटा देता था. इसीलिए सेठजी का सब से प्रिय कर्मचारी में से एक था.

सेठजी घर में नौकर नहीं रखना चाहते थे क्योंकि वह दुनियादारी जानते थे. उन का मानना था कि आजकल नौकर लोग घर पर विश्वास जमा कर डाका डाल देते हैं. मालिक की हत्या तक कर डालते हैं. इसी डर की वजह से वे घर के लिए कोई नौकर नहीं रख पाए थे.

इस जरूरत को भी भोला पूरा कर देता था. जब कभी भी रंजना भोला को किसी काम के लिए कहती, वह खुशीखुशी कर देता था. यही कारण था कि वह सेठजी का भी विश्वासी हो चुका था. अकसर उसे ही किसी भी काम के लिए घर पर भेजते रहते थे. वह तुरंत हाजिर हो जाता था. वह किसी भी काम को करने में नानुकर नहीं करता था. इसी स्वभाव के कारण वह सेठजी के साथ रंजना का भी दुलारा बन गया था.

एक दिन सेठजी दुकान बढ़ा कर घर लौट रहे थे, तो उन की मोबाइल की घंटी बजी थी. सेठजी ने जब फोन उठाया, तो उन्हें मालूम हुआ कि मुंबई में व्यापारियों का बहुत बड़ा सम्मेलन होने वाला है. उस में शामिल होने के लिए उन्हें जाना पड़ेगा. वे जिन कंपनियों के माल बेचते थे, उस कंपनी के मालिक ने इन को खास आमंत्रित किया था. भला ऐसे अवसर को कोई व्यापारी कैसे हाथ से जाने दे सकता था. उन्होंने घर आते ही प्रसन्नतापूर्वक अपनी पत्नी रंजना देवी से कहा, ‘‘रंजना, आज मुझे मुंबई निकलना पड़ेगा.‘‘

‘‘क्यों?‘‘

‘‘क्योंकि मंुबई में बड़ेबड़े व्यापारियों का खास सम्मेलन होने वाला है. खुशी की बात यह है कि मुंबई की नामी कंपनी के मालिक रतनभाईजी ने मुझे खास निमंत्रण भेजा है. हो सकता है, उन से मुझे नया कौंट्रैक्ट मिल जाए,‘‘ यह सुन कर रंजना मन ही मन मुसकराई.

‘‘आप जल्दी से खाना खा लीजिए,‘‘ रंजना ने टेबल पर खाना लगाते हुए कहा.

‘‘अरे हां, कल से दुकान को भोला को ही संभालना पड़ेगा. लेकिन एक समस्या है, रंजना?‘‘ खाना खाते हुए उन्होंने अपनी पत्नी को समझाने की कोशिश की.

‘‘क्या समस्या है?‘‘ रंजना ने अपने पति से सवाल किया.

‘‘समस्या यह है कि भोला तो दुकान संभालने के लिए तैयार ही नहीं था. कहने लगा कि आप के बिना इतने दिनों तक दुकान कैसे चला पाऊंगा. मैं ने उस को समझा दिया है कि रंजना भी इस काम में मदद कर देंगी.‘‘

‘‘आप बेफिक्र हो कर जाइए. मैं भोला को दुकान संभालने में मदद कर दूंगी,‘‘ उन की पत्नी ने उन्हें आश्वस्त करते हुए जवाब दिया.

सेठजी को रात में ट्रेन से ही निकलना था, इसलिए उन्होंने भोला को भी बुला लिया था. वह उन की गाड़ी से स्टेशन छोड़ देगा. इधर सेठ भी जल्दीजल्दी जाने की तैयारी कर रहे थे. तभी भोला भी आ गया था.

भोला हर काम में दक्ष था. सेठजी की गाड़ी को भी वही चलाता था, क्योंकि सेठजी ज्यादा से ज्यादा भोला जैसे सीधेसादे कर्मचारी से काम लेना चाहते थे, इसीलिए उन्होंने गाड़ी का ड्राइवर अलग से नहीं रखा था.

रंजना मन ही मन बहुत खुश थी कि आज भोला उस के घर पर ही रुकेगा. दरअसल, रंजना जब से सेठजी के घर आई थी, उस ने सेठजी को पैसे के पीछे ज्यादा भागते देखा था. रंजना के लिए सभी सुखसुविधाएं तो घर में थीं, लेकिन एक कमी थी तो सेठजी की. जब भी इस की इच्छाएं जगती, तो सेठजी के थके होने के कारण वह अपने अरमानों को दबा लेती थी. अंदर ही अंदर वह कुढ़ती रहती थी.

जब से रंजना देवी ने भोला को काम पर रखा था, अधूरी इच्छाएं मचलने लगी थीं. वह अवसर की तलाश में थी. पति की गैरमौजूदगी में आज अरमान पूरे होने वाले थे.

इधर भोला भी चाहता था कि आज रंजना और उस के बीच दूरियां मिट जाएं, क्योंकि वह रंजना के व्यवहार से समझ चुका था. वह जब कभी भी सेठजी के घर जाता था, रंजना के अंदरूनी अंगों को ताड़ने की कोशिश करता था. वह रंजना के मौन समर्थन को भी समझ गया था. लेकिन सेठजी के यहां नौकरी जाने के डर से वह आगे नहीं बढ़ पाया था. इस बात का अहसास रंजना को भी था.

भोला जैसे ही घर में दाखिल हुआ, वे दोनों जल्दी ही एकदूसरे की बांहों में समा गए थे. भोला उस के कोमल अंगों से खेलने लगा था. आज रंजना भी कई महीनों बाद देहसुख की प्राप्ति कर रही थी.

कुछ दिन बाद ही सेठजी सम्मेलन से लौट आए थे. अब भोला का दुकान से ज्यादा घर के कामों में मन लग रहा था. वह किसी न किसी बहाने घर के कामों के लिए मौके की तलाश में रहता था. जब कभी भी सेठजी घर के कामों के लिए कहते, वह जल्दी ही तैयार हो जाता था.

इधर जब भी भोला और उन की पत्नी को मौका मिलता, प्यार के खेल में शामिल हो जाते. अब दोनों को किसी प्रकार की रुकावट पसंद नहीं थी. किसी भी हाल में एकदूसरे से अलग नहीं रहना चाह रहे थे. इसलिए वेे सही मौके की तलाश में थे.

इधर भोला का मन काम में नहीं लग रहा था. पहले की तरह इस का ध्यान दुकान पर नहीं रहता था. सेठजी भी भोला के बदले हुए रूप से परेशान थे. उन्हें भी लग रहा था कि कहीं ना कहीं गड़बड़ है. वे जब भी भोला को गलत काम पर डांटतेफटकारते, वह ढीठ की तरह एक कान से सुनता और दूसरे कान से निकाल देता था.

वे चाह कर भी उसे नहीं हटा पा रहे थे, क्योंकि वे किसी भी सूरत में अपनी पत्नी को नाराज नहीं करना चाह रहे थे. जब भी वे भोला को हटाने की बात करते, उन की पत्नी ढाल बन कर खड़ी हो जाती थी. वह घर की जिम्मेवारियों की दुहाई देने लगती थी. भोला घर और उन के व्यापार के लिए कितना महत्वपूर्ण था. यह बात उन्हें भी पता थी.

एक दिन सेठजी काफी बीमार पड़ गए. उन्हें अस्पताल में भरती करना पड़ा. उन की बीमारी काफी गंभीर थी. इसलिए उन की देखभाल पत्नी और भोला ही कर रहा था. भोला ही उन की पत्नी को अस्पताल ले कर जाता और ले कर आता था. उन की बीमारी काफी लंबे समय तक रह गई.

इघर भोला और रंजना मौका देख अपने अरमान पूरा करते. क्योंकि दोनों को रोकनेटोकने वाला कोई नहीं था. एक दिन भोला ने रंजना को बांहों में लेते हुए कहा, ‘‘आखिर कब तक हम लोग सेठजी से छुप कर मिलते रहेंगे?‘‘

‘‘और आखिर उपाय भी क्या है?‘‘ रंजना ने उस की बांहों में समाते हुए सवाल किया था.

‘‘यही कि हम दोनों को यहां से भाग जाना चाहिए. हमें अलग दुनिया बसा लेनी चाहिए,‘‘ यही बातें रंजना के मन में भी चल रही थीं. वह ऐसा करने के लिए पहले से तैयार थी.

दोनों ने मिल कर सब से पहले खाते से कुछ रुपए निकाले. रंजना ने अपने कीमती गहने समेटे और अपना घर छोड़ भोला के साथ स्टेशन आ गई. फिर दोनों मिल कर एक अनजान रास्ते पर चल पड़े थे. लेकिन मंजिल का कोई अतापता नहीं था.

कई दिनों तक जब सेठजी से कोई अस्पताल में मिलने नहीं पहुंचा, तो सेठजी को शक हुआ. कुछ दिन बाद वे घर पर स्वस्थ हो कर लौटे तो पता चला कि भोला और उन की पत्नी मिल कर अकाउंट खाली कर चुके हैं. दरअसल, उन की पत्नी के साथ ही उन का जौइंट अकाउंट था. सेठजी के न रहने पर बिजनेस के लिए वह पत्नी से ही चेक पर साइन करवाता रहता था. दोनों ने मिल कर बैंक से सारे पैसे निकाल लिए थे. साथ ही, उन की पत्नी के कीमती गहने भी गायब थे.

अब सेठजी पछता रहे थे. उन्हें बेहद अफसोस हो रहा था कि वे अपनी पत्नी को भी नहीं समझ पाए. उन का घर पत्नी के बिना बहुत सूना लग रहा था. घर जैसे काटने को दौड़ रहा था. वे समझ नहीं पा रहे थे कि क्या किया जाए.

वे कई महीने बाद धीरेधीरे अपने व्यापार को दूसरे शहर में शिफ्ट करने के लिए सोचने लगे. उन्हें याद आया कि कुछ दिन पहले से ही अपने राज्य की राजधानी में घर खरीदने की सोच रहे थे. पहले उन का विचार था कि उस घर को वहां किराए पर लगा दिया जाएगा. कुछ कमरे अपने लिए बंद रख छोड़ा जाएगा, क्योंकि व्यापार के सिलसिले में कई शहरों में जाना पड़ता था. उन की इच्छा थी कि उन का कुछ दूसरे बड़े शहरों में अपना घर होना ही चाहिए.

जल्दी ही सेठजी ने घर बेचने वाले दलालों से बात की. एक मकान देखने के लिए बुलाया गया. मकान अच्छा था. व्यापार के लिहाज से शहर भी बहुत अच्छा था. उन की राय थी कि इस शहर में आ जाने के बाद पुरानी बातें भूल जाएंगे. फिर नए सिरे से जिंदगी शुरू की जा सकती है. यही सोच कर घर खरीद लिया गया. नए शहर में दुकान के लिए इधरउधर दौड़ रहे थे. भागदौड़ के चलते उन्हें होटलों में ही खाना पड़ता था.

एक दिन सेठजी काफी थके हुए थे. होटल में खाना खाने के बाद चाय की चुसकी ले रहे थे, तभी उन की नजर होटल के किचन में बरतन धोती एक महिला पर गई. वह महिला बरतन धोने में व्यस्त थी.

सेठजी की नजर जैसे ही उस महिला के चेहरे पर गई, उन की हैरानी का ठिकाना नहीं रहा. वह कोई और नहीं, बल्कि उन की पत्नी रंजना देवी थी. जैसे ही रंजना उस होटल से बरतन धो कर बाहर निकली, तभी सेठ चमन लाल उस के पीछेपीछे चलने लगे थे. रंजना अपनी धुन में चली जा रही थी. पीछे से सेठजी ने पुकारा, ‘‘रंजना…‘‘

रंजना ने पीछे मुड़ कर देखा था. वह कुछ क्षण सेठ चमन लाल को देखते रह गई थी. तभी उस की आंखों में अंधेरा छा गया था. वह गिरने वाली थी. सेठजी ने उसे संभाला. होश आने पर उसे अपने नए घर ले आए.

सेठजी ने रंजना से भोला के बारे में पूछा, तो उस ने बताया, ‘‘भोला के साथ वह कुछ दिन होटल में रही. लेकिन वह मुझे छोड़ कर पैसे और गहने ले कर भाग गया. आज तक नहीं लौटा वह.

‘‘पेट की भूख मिटाने के लिए वह आसपास के ढाबे और होटलों में बरतन धोने लगी. वह जहांतहां फुटपाथ पर ही सो कर अपना जीवन व्यतीत कर रही थी. अब वह किस मुंह से आप के पास लौटती.

आज बरतन धो कर निकल रही थी तो पता नहीं आप ने कहां से देख लिया. उस ने सेठजी से अपने किए करतूतों के लिए माफी मांगी और जाने की अनुमति चाही. सेठजी ने उसे गले लगा लिया और बोले, ‘‘रंजना, तुम्हें गलत रास्ते पर जाने देने के लिए दोषी मैं भी उतना ही हूं. अगर मैं तुम्हें भरपूर प्यार देता तो शायद तुम भी गलत राह पर नहीं जाती.

दरअसल, मैं भी पैसे के पीछे ज्यादा भागने लगा था, इसलिए तुम्हारे ऊपर मेरा ध्यान बिलकुल नहीं था. अब तो मुझे तुम से माफी मांगनी चाहिए.

ऐसा कहते हुए दोनों ने एकदूसरे को माफ कर गले लगा लिया था. रंजना को लग रहा था, आज उस के लिए नया सवेरा हुआ है.

मलमल की चादर : वैदही और नीरज का क्या रिश्ता था

आज फिर बरसात हो रही है. वर्षा ऋतु जैसी दूसरी ऋतु नहीं. विस्तृत फैले नभ में मेघों का खेल. कभी एकदूसरे के पीछे चलना तो कभी मुठभेड़. कभी छींटे तो कभी मूसलाधार बौछार. किंतु नभ और नीर की यह आंखमिचौली तभी सुहाती है जब चित्त प्रसन्न होता है. मन चंगा तो कठौती में गंगा. और मन ही हताश, निराश, घायल हो तब…? वैदेही ने कमरे की खिड़की की चिटकनी चढ़ाई और फिर बिस्तर पर पसर गई.

उस की दृष्टि में कितना बेरंग मौसम था, घुटा हुआ. पता नहीं मौसम की उदासी उस के दिल पर छाई थी या दिल की उदासी मौसम पर. जैसे बादलों से नीर की नहीं, दर्द की बौछार हो रही हो. वैदेही ने शौल को अपने क्षीणकाय कंधों पर कस कर लपेट लिया.

शाम ढलने को थी. बाहर फैला कुहरा मन में दबे पांव उतर कर वहां भी धुंधलका कर रहा था. यही कुहरा कब डूबती शाम का घनेरा बन कमरे में फैल गया, पता ही नहीं चला. लेटेलेटे वैदेही की टांगें कांपने लगीं. पता नहीं यह उस के तन की कमजोरी थी या मन की. उठ कर चलने की हिम्मत भी नहीं हो रही थी उस की. शौल को खींच कर अपनी टांगों तक ले आई वह.

अचानक कमरे की बत्ती जली. नीरज थे. कुछ रोष जताते हुए बोले, ‘‘कमरे की बत्ती तो जला लेतीं.’’ फिर स्वयं ही अपना स्वर संभाल लिया, ‘‘मैं तुम्हारे लिए बंसी की दुकान से समोसे लाया था. गरमागरम हैं. चलो, उठो, चाय बना दो. मैं हाथमुंह धो आता हूं, फिर साथ खाएंगे.’’

एक वह जमाना था जब वैदेही और नीरज में इसी चटरमटर खाने को ले कर बहस छिड़ी रहती थी. वैदेही का चहेता जंकफूड नीरज की आंख की किरकिरी हुआ करता था. उन्हें तो बस स्वास्थ्यवर्धक भोजन का जनून था. लेकिन आज उन के कृत्य के पीछे का आशय समझने पर वह मन ही मन चिढ़ गई. वह समझ रही थी कि समोसे उस के खानेपीने के शौक को पूरा करने के लिए नहीं थे बल्कि यह एक मदद थी, नीरज की एक और कोशिश वैदेही को जिंदगी में लौटा लाने की. पर वह कैसे पहले की तरह हंसेबोले?

वैदेही तो जीना ही भूल गई थी जब डाक्टर ने बताया था कि उसे कैंसर है. कैंसर…पहले इस चिंता में उस का साथ निभाने को सभी थे. केवल वही नहीं, उस का पूरा परिवार झुलस रहा था इस पीड़ाग्नि में. वैदेही का मन शारीरिक पीड़ा के साथ मानसिक ग्लानि के कारण और भी झुलस उठता था कि सभी को दुखतकलीफ देने के लिए उस का शरीर जिम्मेदार था. बारीबारी कभी सास, कभी मां, कभी मौसी, सभी आई थीं उस की 2 वर्र्ष पुरानी गृहस्थी संभालने को. नीरज तो थे ही. लेकिन वही जानती थी कि सब से नजरें मिलाना कितना कठिन होता था उस के लिए. हर दृष्टि में  ‘मत जाओ छोड़ कर’ का भाव उग्र होता. तो क्या वह अपनी इच्छा से कर रही थी? सभी जरूरत से अधिक कोशिशें कर रहे थे. शायद कोई भी उसे खुश रखने का आखिरी मौका हाथ से खोना नहीं चाहता था.

अब तक उस की जिंदगी मलमल की चादर सी रही थी. हर कोई रश्क करता, और वह शान से इस मलमल की चादर को ओढ़े इठलाती फिरती. लेकिन पिछले 8 महीनों में इस मलमल की चादर में कैंसर का पैबंद लग गया था. इस की खूबसूरती बिगड़ चुकी थी. अब इसे दूसरे तो क्या, स्वयं वैदेही भी ओढ़ना नहीं चाहती थी. आजकल आईना उसे डराता था. हर बार उस की अपनी छवि उसे एक झटका देती.

‘‘धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा. देखो न, तुम्हारे बाल फिर से आने लगे हैं. और आजकल तो इस तरह के छोटे कटे बाल लेटेस्ट फैशन भी हैं. क्या कहते हैं इस हेयरस्टाइल को…हां, याद आया, क्रौप कट,’’ आईने से नजरें चुराती वैदेही को कनखियों से देख नीरज ने कहा.

क्यों समझ जाते हैं नीरज उस के दिल की हर बात, हर डर, हर शंका? क्यों करते हैं वे उस से इतना प्यार? आखिर 2 वर्ष ही तो बीते हैं इन्हें साथ में. वैदेही के मन में जो बातें ठंडे छींटे जैसी लगनी चाहिए थीं, वे भी शूल सरीखी चुभती थीं.

समोसे और चाय के बाद नीरज टीवी देखने लगे. वैदेही को भी अपने साथ बैठा लिया. डाक्टरों के पिछले परीक्षण ने यह सिद्ध कर दिया था कि अब वैदेही इस बीमारी के चंगुल से मुक्त है. सभी ने राहत की सांस ली थी और फिर अपनीअपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गए थे. रिश्तेदार अपनेअपने घर लौट गए थे. नीरज सारा दिन दफ्तर में व्यस्त रहते. लेकिन शाम को अब भी समय से घर लौट आते थे. डाक्टरी राय के अनुसार, नीरज हर मुमकिन प्रयास करते रहते वैदेही में सकारात्मक विचार फूंकने की.

परंतु कैंसर ने न केवल वैदेही के शरीर पर बल्कि उस के दिमाग पर भी असर कर दिया था. सभी समझाते कि अकेले उदासीन बैठे रहना सर्वथा अनुचित है. बाहर निकला करो, लोगों से मिलाजुला करो. लेकिन वह जब भी घर के दरवाजे तक पहुंचती, उस का अवचेतन मन उसे देहरी के भीतर धकेल देता. घर की चारदीवारी जैसे सिकुड़ गई थी. मन में अजीब सी छटपटाहट बढ़ने लगी थी. दिल बहलाने को कुछ देर सड़क पर टहलने के इरादे से गई. मगर यह इतना आसान नहीं था. सड़क पर पहुंचते ही लगा जैसे सारा वातावरण इस स्थिति को घूरने को एकत्रित हो गया हो. आसमान में उस के अधूरे मन सा अधूरा चांद, आसपास के उदास पत्थर, फूलपत्ते, गहराती रात…सभी उस के अंदर की पीड़ा को और गहरा रहे थे. इस अकेली ठंडी सांध्य में वैदेही घर लौट कर बिस्तर पर निढाल हो लेट गई. दिल कसमसा उठा. नयनों के पोरों से बहते अश्रुओं ने अब कान के पास के बाल भी गीले कर दिए थे.

उस की सूरत से उस की मनोस्थिति को भांप कर नीरज बोले, ‘‘वैदू, आगे की जिंदगी की ओर देखो. अभी हमारी गृहस्थी नई है, उग रही है. आगे इस में नूतन पुष्प खिलेंगे. क्या तुम भविष्य के बारे में कभी भी सकारात्मक नहीं होगी?’’

पर वैदेही आंखें मूंदे पड़ी रही. एक बार फिर वह वही सब नहीं सुनना चाहती थी. उस को नहीं मानना कि उस के कारण सभी के सकारात्मक स्वप्न धूमिल हो रहे हैं. अन्य सभी की भांति वह यह मानने को तैयार नहीं थी कि अब वह पूरी तरह स्वस्थ है. कैंसर के बारे में उस ने जो कुछ भी पढ़ासुना था, उस से यही जाना था कि कैंसर एक ढीठ, जिद्दी बीमारी है. यदि उस के अंदर अब भी इस का कोई अंश पनप रहा हो तो? मन में यह बात आ ही जाती.

अगली सुबह वैदेही रसोई में गई तो पाया कि नीरज ने पहले ही चाय का पानी चढ़ा दिया था. प्रश्नसूचक नजरों के उत्तर में वे बोले, ‘‘आज शाम मेरे कालेज का जिगरी दोस्त व उस की पत्नी आएंगे. तुम दिन में आराम करो ताकि शाम को फ्रैश फील करो. और हां, कोई अच्छी सी साड़ी पहन लेना.’’

दिन फिर उसी खिन्नता में गुजरा. किंतु सूर्यास्त के समय वैदेही को नीरज का उत्साह देख मन ही मन हंसी आई. भागभाग कर घर साफसुथरा किया, रैस्तरां से मंगवाई खानेपीने की वस्तुओं को करीने से डाइनिंग टेबल पर सजाया.

वैदेही अपने कक्ष में जा साड़ी पहन कर जैसे ही बिंदी लगाने को आईने की ओर मुड़ी, सिर पर छोटेछोटे केश देख फिर हतोत्साहित हो गई. क्या फायदा अच्छी साड़ी, इत्र या सजने का जब शक्ल से ही वह… तभी दरवाजे पर बजी घंटी के कारण उसे कक्ष से बाहर आना पड़ा.

‘‘इन से मिलो, ये है मेरा लंगोटिया यार, सुमित, और ये हैं साक्षी भाभी,’’ कहते हुए नीरज ने वैदेही का परिचय मेहमानों से करवाया. हलकी मुसकान लिए वैदेही ने हाथ जोड़ दिए किंतु उस की अपेक्षा से परे साक्षी ने आगे बढ़ फौरन उसे गले से लगा लिया. ‘‘इन दोनों को अपना शादीशुदा गम हलका करने दो, हम बैठ कर इन की खूब चुगली करते हैं,’’ साक्षी हंस कर कहने लगी.

लग ही नहीं रहा था कि पहली बार मिल रहे हैं. इतनी घनिष्ठता से मिले दोनों मियांबीवी कि उन के घर में अचानक रौनक आ गई. धूमिल से वातावरण में मानो उल्लास की किरणें फूट पड़ीं. साक्षी पुरानी बिसरी सखी समान बातचीत में मगन हो गई थी. वैदेही भी आज खुद को अपने पुराने अवतार में पा कर खुश थी.

दोनों की गपबाजी चल रही थी कि नीरज लगभग भागते हुए उस के पास आए और बोले, ‘‘वैदेही, सुमित को पिछले वर्ष कैंसर हुआ था, अभी बताया इस ने.’’ इस अप्रत्याशित बात से वैदेही का मुंह खुला रह गया. बस, विस्फारित नेत्रों से कभी सुमित, तो कभी साक्षी को ताकने लगी.

‘‘अरे यार, वह बात तो कब की खत्म हो गई. अब मैं भलाचंगा हूं, तंदुरुस्त तेरे सामने खड़ा हूं.’’

‘‘हां भैया, अब ये बिलकुल ठीक हैं. और इस का परिणाम यहां है,’’ अपनी कोख की ओर इशारा करते हुए साक्षी के कपोल रक्ताभ हो उठे. नीरज और वैदेही ने अचरजभाव से एकदूसरे को देखा, फिर फौरन संभलते हुए अपने मित्रों को आने वाली खुशी हेतु बधाई दी.

‘‘दरअसल, कैंसर एक ऐसी बीमारी है जो आज आम सी बनती जा रही है. बस, डर है तो यही कि उस का इलाज थोड़ा कठिन है. परंतु समय रहते ज्ञात हो जाने पर इलाज भी भली प्रकार संभव है. अब मुझे ही देख लो. स्थिति का आभास होते ही पूरा इलाज करवाया और फिर जब डाक्टर ने क्लीनचिट दे दी तो एक बार फिर जिंदगी को भरपूर जीना आरंभ कर डाला,’’ सुमित के स्वर से कोई नहीं भांप सकता था कि वे एक जानलेवा बीमारी से लड़ कर आए हैं.

‘‘हमारा मानना तो यह है कि यह जीवन एक बार मिलता है. यदि इस में थोड़ी हलचल हो भी जाए तो कोशिश कर इसे फिर पटरी पर ले आना चाहिए. शरीर है तो हारीबीमारी लगी ही रहेगी, उस में हताश हो कर तो नहीं बैठा जा सकता न? जो समय मिले, उसे भरपूर जियो.’’

साक्षी ने अपनी बात सुमित की बात से जोड़ी. ‘‘अरे यार, वह कौन सा डायलौग था ‘आनंद’ मूवी का जो अपने कालेज में बोला करते थे…हां, जिंदगी बड़ी होनी चाहिए, लंबी नहीं, हा हा…’’ और सचमुच वे सब हंसने लगे.

नीरज हंसे, वैदेही हंसी. सारा वातावरण, जो अब तक वैदेही को केवल घायल किए रहता था, अचानक बेहद खुशनुमा हो गया था. वैदेही के चक्षु खुल गए थे, वह देख पा रही थी कि उस ने अपनी और अपनों की जिंदगी के साथ क्या कर रखा था अब तक.

सुमित और साक्षी के लौटने के बाद वैदेही ने अलमारी के कोने से अपनी लाल नाइटी निकाली. उसे भी आगे बढ़ना था अब नए सपने सजाने थे. अपनी मलमल की चादर को आखिर कब तक तह कर अलमारी में छिपाए रखेगी जबकि पैबंद तो कब का छूट कर गिर चुका था.

चावल पर लिखे अक्षर : जब हार गई सीमा

दशहरे की छुट्टियों के कारण पूरे 1 महीने के लिए वर्किंग वूमेन होस्टल खाली हो गया था. सभी लड़कियां हंसतीमुसकराती अपनेअपने घर चली गई थीं. बस सलमा, रुखसाना व नगमा ही बची थीं. मैं उदास थी. बारबार मां की याद आ रही थी. बचपन में सभी त्योहार मुझे अच्छे लगते थे. दशहरे में पिताजी मुझे स्कूटर पर आगे खड़ा कर रामलीला व दुर्गापूजा दिखाने ले जाते. दीवाली के दिन मां नाना प्रकार के पकवान बनातीं, पिताजी घर सजाते. शाम को धूमधाम से गणेशलक्ष्मी पूजन होता. फिर पापा ढेर सारे पटाखे चलाते. मैं पटाखों से डरती थी. बस, फुल झड़ियां ही घुमाती रहती. उस रात जगमगाता हुआ शहर कितना अच्छा लगता था. दीवाली के दिन यह शहर भी जगमगाएगा पर मेरे मन में तब भी अंधेरा होगा. 10 वर्ष की थी मैं जब मां का देहांत हो गया. तब से कोई भी त्योहार, त्योहार नहीं लगा. सलमा वगैरह पूछती हैं कि मैं अपने घर क्यों नहीं जाती? अब मैं उन्हें कैसे कहूं कि मेरा कोई घर ही नहीं.

मन उलझने लगा तो सोचा, कमरे की सफाई कर के ही मन बहलाऊं. सफाई के क्रम में एक पुराने संदूक को खोला तो सुनहरे डब्बे में बंद एक शीशी मिली. छोटी और पतली शीशी, जिस के अंदर एक सींक और रुई के बीच चावल का एक दाना चमक रहा था, जिस पर लिखा था, ‘नोरा, आई लव यू.’ मैं ने उस शीशी को चूम लिया और अतीत में डूबती चली गई. यह उपहार मुझे अनवर ने दिया था. दिल्ली के प्रगति मैदान में एक छोटी सी दुकान है, जहां एक लड़की छोटी से छोटी चीजों पर कलाकृतियां बनाती है. अनवर ने उसी से इस चावल पर अपने प्रेम का प्रथम संदेश लिखवाया था.

अनवर मेरे सौतेले बडे़ भाई के मित्र थे, अकसर घर आया करते थे. पिताजी की लंबी बीमारी, फिर मृत्यु के समय उन्होंने हमारी बहुत मदद की थी. भाई उन पर बहुत विश्वास करता था. वह उस के मित्र, भाई, राजदार सब थे पर भाई का व्यवहार मुझ से ठीक न था. कारण यह था कि पिताजी ने अपनी आधी संपत्ति मेरे नाम लिख दी थी. वह चाहता था कि जल्दी से जल्दी मेरी शादी कर के बाकी संपत्ति पर अधिकार कर ले. पर मैं आगे पढ़ना चाहती थी.

एक दिन इसी बात को ले कर उस ने मुझे काफी बुराभला कहा. मैं ने गुस्से में सल्फास की गोलियां खा लीं पर संयोग से अनवर आ गए. वह तत्काल मुझे अस्पताल ले गए. भाई तो पुलिस केस के डर से मेरे साथ आया तक नहीं. जहर के प्रभाव से मेरा बुरा हाल था. लगता था जैसे पूरे शरीर में आग लग गई हो. कलेजे को जैसे कोई निचोड़ रहा हो. उफ , इतनी तड़प, इतनी पीड़ा. मौत जैसे सामने खड़ी थी और जब डाक्टर ने जहर निकालने  के लिए नलियों का प्रयोग किया तो मैं लगभग बेहोश हो गई.

जब होश आया तो देखा अनवर मेरे सिरहाने उदास बैठे हुए हैं. मुझे होश में देख कर उन्होंने अपना ठंडा हाथ मेरे तपते माथे पर रख दिया. आह, ऐसा लगा किसी ने मेरी सारी पीड़ा खींच ली हो. मेरी आंखों से आंसू बहने लगे तो उन की भी आंखें नम हो आईं. बोले, ‘पगली, रोती क्यों है? उस जालिम की बात पर जान दे रही थी? इतनी सस्ती है तेरी जान? इतनी बहादुर लड़की और यह हरकत…?’

मैं ने रोतेरोेते कहा, ‘मैं अकेली पड़ गई हूं, कोई मेरे साथ नहीं है. मैं क्या करूं?’

वह बोले, ‘आज से यह बात मत कहना, मैं हूं न, तुम्हारा साथ दूंगा. बस, आज से इन प्यारी आंखों में आंसू न आने पाएं. समझीं, वरना मारूंगा.’

मैं रोतेरोते हंस पड़ी थी.

अनवर ने भाई को राजी कर मेरा एम.ए. में दाखिला करा दिया. फिर तो मेरी दुनिया  ही बदल गई. अनवर घर में मुझ से कम बातें करते पर जब बाहर मिलते तो खूब चुटकुले सुना कर हंसाते. धीरेधीरे वह मेरी जिंदगी की एक ऐसी जरूरत बनते जा रहे थे कि जिस दिन वह नहीं मिलते मुझे सूनासूना सा लगता था.

एक दिन मैं अपने घर में पड़ोसी के बच्चे के साथ खेल रही थी. जब वह बेईमानी करता तो मैं उसे चूम लेती. तभी अनवर आ गए और हमारे खेल में शामिल हो गए. जब मैं ने बच्चे को चूमा तो उन्होंने भी अपना दायां गाल मेरी तरफ बढ़ा दिया. मैं ने शरारत से उन्हें भी चूम लिया. जब उन्होंने अपने होंठ मेरी तरफ बढ़ाए तो मैं शरमा गई पर उन की आंखों का चुंबकीय आकर्षण मुझे खींचने लगा और अगले ही पल हमारे अधर एक हो चुके थे. एक अजीब सा थरथराता, कोमल, स्निग्ध, मीठा, नया एहसास, अनोखा सुख, होंठों की शिराओं से उतर कर विद्युत तरंगें बन रक्त के साथ प्रवाहित होने लगा. देह एक मद्धिम आंच में तपने लगी और सितार के कसे तारों से मानो संगीत बजने लगा. तभी भाई की चीखती आवाज से हमारा सम्मोहन टूट गया. अनवर भौचक्के से खड़े हो गए थे. भाई की लाललाल आंखों ने बता दिया कि हम कुछ गलत कर रहे थे.

‘क्या कर रही थी तू बेशर्म, मैं जान से मार डालूंगा तुम्हें,’ उस ने मुझे मारने के लिए हाथ उठाया तो अनवर ने उस का हाथ थाम लिया.

‘इस की कोई गलती नहीं. जो कुछ दंड देना हो मुझे दो.’

भाई चीखा, ‘कमीने, मैं ने तुझे अपना दोस्त समझा और तू…जा, चला जा…फिर कभी मुंह मत दिखाना. मैं गद्दारों से दोस्ती नहीं रखता.’

अनवर आहत दृष्टि से कुछ क्षण भाई को देखते रहे. कल तक वह उस के लिए आदर्श थे, मित्र थे और आज इस पल इतने बुरे हो गए. उन्होंने लंबी सांस ली और धीरेधीरे बाहर चले गए.

मेरा मन तड़पने लगा. यह क्या हो गया? अनवर अब कभी नहीं आएंगे. मैं ने क्यों चूम लिया उन्हें? वह बच्चे नहीं हैं? अब क्या होगा? उन के बिना मैं कैसे जी सकूंगी? मैं अपनेआप में इस प्रकार गुम थी कि भाई क्या कह रहा है, मुझे सुनाई ही नहीं दे रहा था.

उस घटना के कई दिन बाद अनवर मिले और मुझे बताया कि भाई उन्हें घर से ले कर आफिस तक बदनाम कर रहा है. उन के हिंदू मकान मालिक ने उन से कह दिया कि जल्द मकान खाली करो. आफिस में भी काम करना मुश्किल हो रहा है. सब उन्हें अजीब  निगाहों से घूरते हुए मुसकराते हैं, मानो वह कह रहे हों, ‘बड़ा शरीफ बनता था?’ सब से बड़ा गुनाह तो उन का मुसलमान होना बना दिया गया है. मुझे भाई पर क्रोध आने लगा.

अनवर बेहद सुलझे हुए, शरीफ, समझदार व ईमानदार इनसान के रूप में प्रसिद्ध थे. कहीं अनवर बदनामी के डर से कुछ कर  न बैठें, यही सोच कर मैं ने दुखी स्वर में कहा, ‘यह सब मेरी नासमझी के कारण हुआ, मुझे माफ कर दें.’ वह प्यार से बोले, ‘नहीं पगली, इस में तुम्हारा कोई दोष नहीं, दोष उमर का है. मैं ने ही कब सोचा था कि तुम से’…वाक्य अधूरा था पर मुझे लगा खुशबू का एक झोंका मेरे मन को छू कर गुजर गया है, मन तितली बन कर उस सुगंध की तलाश में उड़ने लगा.

अचानक उन्होंने चुप्पी तोड़ी, ‘सीमा, मुझ से शादी करोगी?’ यह क्या, मैं अपनेआप को आकाश के रंगबिरंगे बादलों के बीच दौड़तेभागते, खिल- खिलाते देख रही हूं. ‘सीमा, बोलो सीमा, क्या दोगी मेरा साथ?’ मैं सम्मोहित व्यक्ति की तरह सिर हिलाने लगी.

वह बोले, ‘मैं दिल्ली जा रहा हूं, वहीं नौकरी ढूंढ़ लूंगा…यहां तो हम चैन से जी नहीं पाएंगे.’

अनवर जब दिल्ली से लौटे थे तो मुझे चावल पर लिखा यह प्रेम संदेश देते हुए बोले थे, ‘आज से तुम नोरा हो…सिर्फ मेरी नोरा’…और सच  उस दिन से मैं नोरा बन कर जीने लगी थी.

अनवर देर कर रहे थे. उधर भाई की ज्यादतियां बढ़ती जा रही थीं. वह सब के सामने मुझे अपमानित करने लगा था. उस का प्रिय विषय ‘मुसलिम बुराई पुराण’ था. इतिहास और वर्तमान से छांटछांट उस ने मुसलमानों की गद्दारियों के किस्से एकत्र कर लिए थे और उन्हें वह रस लेले कर सुनाता. मुझे पता था कि यह सब मुझे जलाने के लिए कर रहा था. भाई जितनी उन की बुराई करता, उतनी ही मैं उन के नजदीक होती जा रही थी. हम अकसर मिलते. कभीकभी तो पूरे दिन हम टैंपो से शहर का चक्कर लगाते ताकि देर तक साथ रह सकें. अजीब दिन थे, दहशत और मोहब्बत से भरे हुए. उन की एक नजर, एक मुसकराहट, एक बोल, एक स्पर्श कितना महत्त्वपूर्ण हो उठा था मेरे लिए.

वह अपने प्रेमपत्र कभी मेरे घर के पिछवाडे़ कूडे़ की टंकी के नीचे तो कभी बिजली के खंभे के पास ईंटों के नीचे दबा जाते.

मैं कूड़ा फेंकने के बहाने जा कर उन्हें निकाल लाती. वे पत्र मेरे लिए दुनिया के सर्वश्रेष्ठ प्रेमपत्र होते थे.

उन्हें मेरा सतरंगी दुपट्टा विशेष प्रिय था, जिसे ओढ़ कर मैं शाम को छत पर टहलती और वह दूर सड़क से गुजरते हुए फोन पर विशेष संकेत दे कर अपनी बेचैनी जाहिर करते. भाई घूरघूर कर मुझे देखता और मैं मन ही मन रोमांचकारी खुशी से भर उठती.

एक दिन जब मैं विश्वविद्यालय से घर पहुंची तो ड्राइंग रूम से भाई के जोरजोर से बोलने की आवाज सुनाई दी. अंदर जा कर देखा तो धक से रह गई. अनवर सिर झुकाए खडे़ थे. अनवर को यह क्या सूझा? आखिर वही पागलपन कर बैठे न, कितना मना किया था मैं ने? पर ये मर्द अपनी ही बात चलाते हैं. इतना आसान तो नहीं है जातिधर्म का भेदभाव मिट जाना? चले आए भाई से मेरा हाथ मांगने, उफ, न जाने क्याक्या कहा होगा भाई ने उन्हें. भाई मुझे देख कर और भी शेर हो गया. उन का हाथ पकड़ कर बाहर की तरफ धकेलते हुए गालियां बकने लगा. मैं किंकर्तव्यविमूढ़ थी. बाहर कालोनी के कुछ लोग भी जमा हो गए थे. मैं तमाशा बनने के डर से कमरे में बंद हो गई. रात भर तड़पती रही.

दूसरे दिन शाम को किसी ने मेरे कमरे का दरवाजा खटखटाया. खोल कर देखा तो अनवर के एक मित्र थे. किसी भावी आशंका से मेरा मन कांप उठा. वह बोले, ‘अनवर ने काफी मात्रा में जहर खा लिया है और मेडिकल कालिज में मौत से लड़ रहा है. बारबार नोरानोरा पुकार रहा है. जल्दी चलिए.’ मैं घबरा गई. मैं ने जल्दी से पैरों में चप्पल डालीं और सीढ़ियां उतरने लगी. देखा तो आखिरी सीढ़ी पर भाई खड़ा था. मैं ठिठक गई. फिर साहस कर बोली, ‘मुझे जाने दो, बस, एक बार देखना चाहती हूं उन्हें.’

‘नहीं, तुम नहीं जाओगी, मरता है तो मर जाने दो, साला अपने पाप का प्रायश्चित्त कर रहा है.’

‘प्लीज, भाई, चाहो तो तुम भी साथ चलो, बस, एक बार मिल कर आ जाऊंगी.’

‘कदापि नहीं, उस गद्दार का मुंह भी देखना पाप है.’

‘भाई, एक बार मेरी प्रार्थना सुन लो, फिर तुम जो चाहोगे वही करूंगी. अपने हिस्से की जायदाद भी तुम्हारे नाम कर दूंगी.’

‘सच? तो यह लो कागज, इस पर हस्ताक्षर कर दो.’ उस ने जेब से न जाने कब का तैयार दस्तावेज निकाल कर मेरे सामने लहरा दिया. मेरा मन घृणा से भर उठा. जी तो चाहा कागज के टुकडे़ कर के उस के मुंह पर दे मारूं पर इस समय अनवर की जिंदगी का सवाल था. समय बिलकुल नहीं था और बाहर कालोनी वाले जुटने लगे थे. मैं ने भाई के हाथ से पेन ले कर उस दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर दिए और तेजी से लोगों के बीच से रास्ता बनाती अनवर के मित्र के स्कूटर पर बैठ गई.

जातेजाते भाई के कुछ शब्द कान में पडे़, ‘देख रहे हैं न आप लोग, यह अपनी मर्जी से जा रही है. कल कोई यह न कहे, सौतेले भाई ने घर से निकाल दिया. विधर्मी की मोहब्बत ने इसे पागल कर दिया है. अब मैं इसे कभी घर में घुसने नहीं दूंगा. मेरे खानदान का नाम और धर्म सब भ्रष्ट कर दिया है इस कुलकलंकिनी ने.’

स्कूटर मेडिकल कालिज की तरफ बढ़ा जा रहा था. मेरी आंखों में आंसू छलछला आए, ‘तो यह…यह है मां के घर से मेरी विदाई.’ अनवर खतरे से बाहर आ चुके थे. उन्हें होश आ गया पर मुझे देखते ही वह थरथरा उठे, ‘तुम…तुम कैसे आ गईं? जाओ, लौट जाओ, कहीं पुलिस…’ मैं ने अनवर का हाथ दबा कर कहा, ‘आप चिंता न करें, कुछ नहीं होगा.’ पर अनवर का भय कम नहीं हो रहा था. वह उसी तरह थरथराते रहे और मुझे वापस जाने को कहते रहे. मैं उन्हें कैसे समझाती कि मैं सबकुछ छोड़ आई हूं, अब मेरी वापसी कभी नहीं होगी.

वह नीमबेहोशी में थे. जहर ने उन के दिमाग पर बुरा असर डाला था. उन को चिंतामुक्त करने के लिए मैं बाहर इमली के पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर बैठ गई. बीचबीच में जा कर उन के पास पडे़ स्टूल पर बैठ जाती और निद्रामग्न उन के चेहरे को देखती रहती और सोचती, ‘किस्मत ने मुझे किस मोड़ पर ला कर खड़ा कर दिया है?’ आगे का रास्ता सुझाई नहीं पड़ रहा था.

पक्षी चहचहाने लगे तो पता चला कि सुबह हो चुकी है. मैं अनवर के सिरहाने बैठ कर उन का सिर सहलाने लगी. उन्होंने आंखें खोल दीं और मुसकराए. उन की मुसकराहट ने मेरे रात भर के तनाव को धो दिया. मारे खुशी के मेरी आंखें नम हो आईं.

‘सच ही सुबह हो गई है क्या?’ मैं ने उन की तरफ शिकायती नजरों से देखा, ‘तुम ने ऐसा क्यों किया अनवर, क्यों…मुझे छोड़ कर पलायन करना चाहते थे. एक बार भी नहीं सोचा कि मेरा क्या होगा?’

उन्होंने शायद मेरी आंखें पढ़ ली थीं. कमजोर स्वर में बोले, ‘मैं ने बहुत सोचा और अंत में इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि ये मजहबी लोग हमें कहीं भी साथ जीने नहीं देंगे. इन के दिलों में एकदूसरे के लिए इतनी घृणा है कि हमारा प्रेम कम पड़ जाएगा. नोरा, तुम ने सुना होगा, बाबरी मसजिद गिरा दी गई है. चारों तरफ दंगेफसाद, आगजनी, उफ, इतनी जानें जा रही हैं पर इन की खून की प्यास नहीं बुझ रही है. तब सोचा, तुम्हें पाने का एक ही उपाय है, तुम्हारे भाई से तुम्हारा हाथ मांग लूं. आखिर वह मेरा पुराना मित्र है, शायद इनसानियत की कोई किरण उस में शेष हो, पर नहीं.’ अनवर की आंखों से आंसू टपक पडे़.

मेरे मन में हाहाकार मचा हुआ था. एक पहाड़ को टूटते देख रही थी मैं. मैं बोली, पर हमें हारना नहीं है अनवर. जैसे भी जीने दिया जाएगा हम जीएंगे. यह हमारा अधिकार है. तुम ठीक हो जाओ फिर सोचेंगे कि हमें क्या करना है. मैं यहां से वर्किंग वूमन होस्टल चली जाऊंगी…’ बात अधूरी रह गई. उसी समय कुछ लोग वहां आ कर खडे़ हो गए. उन की वेशभूषा ने बता दिया कि वे अनवर के रिश्तेदार हैं. वे लोग मुझे ऐसी नजरों से देख रहे थे कि मैं कट कर रह गई. अनवर ने मुझे चले जाने का संकेत किया. मैं वहां से सीधे बस अड्डे आ गई.

महीनों गुजर गए. अनवर का कोई समाचार नहीं मिला. न जाने उन के रिश्तेदार उन्हें कहां ले गए थे. मेरे पास सब्र के सिवा कोई रास्ता न था. एक दिन अचानक उन का खत मिला. मैं ने कांपते हाथों से उसे खोला. लिखा था, ‘नोरा, मुझे माफ करना. मैं तुम्हारा साथ न निभा सका. मुझे सब अपनी शर्तों पर जीने को कहते हैं. मैं कमजोर पड़ गया हूं. तुम सबल हो, समर्थ हो, अपना रास्ता खोज लोगी. मैं तुम से बहुत दूर जा रहा हूं, शायद कभी न लौटने के लिए.’

छनाक की आवाज से मेरी तंद्रा टूटी तो देखा वह पतली शीशी हाथ से छूट कर टूट गई पर चावल का वह दाना साबुत था और उस पर लिखे अक्षर उसी ताजगी से चमक रहे थे.

निर्णय आपका: सास से परेशान दामाद की कहानी

संसार में शायद मुझ से अधिक कोई बदनसीब नहीं होगा. विवाह में सब को दहेज में गाड़ी, सोफा, फ्रिज मिलता है, सुंदर पत्नी घर आती है, लेकिन हमारे साथ ऐसा नहीं हुआ. हमारा विवाह हुआ, पत्नी भी आई और दहेज में सास मिल गई.

हम ने सोचा 1-2 दिन की परेशानी होगी सो भोग लो, किंतु हमारी सोच एकदम गलत साबित हुई. हमें पत्नीजी ने बताया कि आप की सास को यहां का हवापानी काफी जम गया है सो वह अब यहीं रहेंगी. यहां की जलवायु से उन का ब्लड प्रेशर भी सामान्य हो गया है.

हम ने सुना तो हमारा ब्लड प्रेशर बढ़ गया, लेकिन यदि विरोध करते तो तलाक की नौबत आ जाती. हो सकता है ससुराल पक्ष के व्यक्ति दहेज लेने का, प्रताड़ना का मुकदमा ठोंक देते. इसलिए मन मार कर हम ने यह सोच कर कि आज का दौर एक पर एक फ्री का है, सास को भी स्वीकार कर लिया.

2-3 माह तक दिल पर पत्थर रख कर हम अपनी सास को सहन करते रहे, लेकिन सोचा कि आखिर यह छाती पर पत्थर रख कर हम कब तक जीवित रह पाएंगे? सो हम ने पत्नीजी से सास की पसंद एवं नापसंद वस्तुओं को जान लिया. हमारी सास को कुत्ते, बिल्ली से सख्त नफरत थी. बचपन में उन की मां का स्वर्गवास कुतिया के काटने से हुआ था. पिताजी का नरकवास बिल्ली के पंजा मारने से हुआ था. हम ने भी मन ही मन ठान लिया कि कुत्ता, बिल्ली जल्दी से लाएंगे ताकि सासूजी प्रस्थान कर जाएं और हम अपनी जिंदगी को सुचारु रूप से चला सकें.

हम ने अपने अभिन्न मित्र मटरू से अपनी समस्या बताई और वह महल्ले से एक खजिया कुत्ते का पिल्ला और एक मरियल बिल्ली को ले आए. हम उन्हें खुशीखुशी झोले में डाल कर अपने घर ले आए. हमारी पत्नी ने देखा तो दहाड़ मार कर पीछे हट गई. सासूमां ने बेटी की दहाड़ सुनी तो दौड़ती आईं. हमारे झोले से खजिया कुत्ता एवं बिल्ली को देखा. हम खुश हो गए कि अब तो हमारी सास आधे घंटे बाद घर छोड़ कर प्रस्थान कर जाएंगी लेकिन मनुष्य जो सोचता है वह कब पूरा होता है?

सास ने उन 2 निरीह प्राणियों को देखा तो चच्चच् कर के वहीं जमीन पर बैठ गईं और हमारी ओर बड़ी दया की नजरों से देख कर कहा, ‘‘सच में दामाद हो तो तुम जैसा.’’

‘‘क्यों, ऐसा हम ने क्या कर दिया सासूमां?’’ हम ने प्रसन्नता को मन में छिपाते हुए पूछा.

‘‘अरे, दामादजी, तुम इन निरीह प्राणियों को ऐसी स्थिति में उठा लाए, ये काम बिरले व्यक्ति ही कर सकते हैं. मैं पहले जानवरों से बहुत नफरत करती थी, लेकिन जब से जानवरों की रक्षा करने वाली संस्था की सदस्य बनी हूं तब से  मेरा दृष्टिकोण ही बदल गया. तुम खड़े क्यों हो…आटोरिकशा लाओ?’’ सासूजी ने आदेश दिया.

‘‘आटोरिकशा किसलिए?’’

‘‘अस्पताल चलना है.’’

‘‘क्यों? यह (पत्नीजी उठ बैठी थीं) तो ठीकठाक हैं?’’ हम ने भोलेपन से कहा.

‘‘दामादजी, इन कुत्तेबिल्ली के बच्चों को ले कर चलना है, जल्दी करो,’’ सासूमां ने आर्डर दिया. हम दिल पर पत्थर रख कर चले गए. आगे की घटना बड़ी छोटी है.

आटोरिकशा आया, उस के रुपए हम ने दिए. वेटनरी डाक्टर को दिखाया उस के रुपए हम ने दिए. जानवरों के लिए 1 हजार रुपए की दवा खरीदी वह रुपए देतेदेते हमें चक्कर आने लगे थे. कुल जमा 1,500 रुपयों पर हमें हमारे दोस्त मटरू ने उतार दिया था. घर ला कर उन जानवरों के लिए दूध, ब्रेड की व्यवस्था भी की, और जब ओवर बजट होने लगा तो एक रात चुपके से हम ने दोनों को थैली में बंद कर के मटरू के?घर में छोड़ दिया.

हमारी सास जब सुबह उठीं तो बड़ी दुखी थीं कि पालतू जानवर कहां चले गए? हमारा दुर्भाग्य देखो कि मटरू स्कूटर से सुबह ही आ धमका, ‘‘अरे, गोपाल, ये दोनों मेरे घर आ गए थे. मैं इन्हें ले आया हूं,’’ कह कर उस ने मुझे शादी के तोहफे की तरह कुत्ते का पिल्ला और बिल्ली दी. सासूमां खुशी से झूम उठीं. हम मन ही मन कुढ़ कर रह गए. आखिर किस से अपने मन की व्यथा कहते?

कुत्ते का पिल्ला ठीक हो गया था. उस की खुराक भी हमारी सास की खुराक की तरह बढ़ रही थी. हम खून के आंसू रो रहे थे. सास को जमे 6 माह हो चुके थे. पत्नी थीं कि उन्हें घर भेजने का नाम ही नहीं ले रही थीं.

हम अपने दोस्त मटरू के पास गए. उस के सामने खूब रोएधोए. उसे हमारी दशा पर दया आ गई. उस ने मुझे एक प्लान बताया जिसे सुन कर हम खुश हो गए. उस प्लान में एक ही गड़बड़ी थी कि श्रीमती को ले कर मुझे बाहर जाना था, लेकिन वह सास के बिना माफ करना, अपनी मां के बिना जाने को तैयार ही नहीं होती थीं.

हम ने अपने मित्र मटरू को वचन दिया कि उस की दी गई तारीख को केवल सास ही घर में रहेंगी. मैं और पत्नी सिनेमा देखने जाएंगे. इन 3-4 घंटों में वह काम निबटा कर सब ठीक कर लेगा.

हम ने मौका देख कर पत्नी की प्रशंसा की, उस के साथ कुछ पल तन्हातन्हा गुजारने की मनोकामना प्रकट की. वह थोड़ा लजाई, थोड़ा घबराई, मां की याद भी आई, लेकिन हमारे प्यार ने जोर मारा और वह तैयार हो गई कि मैं और वह शाम को फिल्म देखने चलेंगे.

हालांकि सासूमां को अकेला छोड़ कर जाने पर उन्होंने आपत्ति प्रकट की लेकिन पत्नी ने उन्हें समझाया कि टिक्कू कुत्ता, दीयापक बिल्ली है इसलिए अकेलापन खलेगा नहीं. बुझे मन से उन्होंने भी जाने की इजाजत दे दी.

हम ने खट से मटरू को मोबाइल से यह खबर दे दी कि हम शाम को निकल रहे हैं, देर से लौटेंगे. रात 10 से 1 के बीच सासूमां का काम निबटा ले. मटरू भी तैयार हो गया?था. हम भी खुश थे कि चलो, बला टलेगी, लेकिन पति हमेशा से ही बदकिस्मत पैदा होता है.

प्लान यह था कि मटरू रात में साढ़े 10 बजे के बीच घर में प्रवेश करेगा और मुंह पर कपड़ा बांध कर सासूमां को डरा कर चोरी कर लेगा. सासूमां डर के मारे या तो भाग जाएंगी या हमारे घर से हमेशा के लिए बायबाय कर लेंगी.

हम पत्नी को 4 घंटे की एक फिल्म दिखलाने शहर से बाहर ले गए. रात 10 बजे फिल्म छूटी. हम ने भोजन किया. फोन से मटरू को खबर भी कर दी कि जल्दी से अपने आपरेशन को अंजाम दे. हमारी पत्नी अपनी मां को ले कर काफी चिंतित थी. हम ने आटोरिकशा वाले को पटा कर 50 रुपए अधिक दिए ताकि वह घर पर लंबे रास्ते से धीमी गति से पहुंचे.

रात साढ़े 12 बजे जब हम अपने घर पहुंचे तो घर के बाहर भीड़ जमा थी. पुलिस की एक वैन खड़ी थी. चंद पुलिस वाले भी थे. हमारा माथा ठनका कि मटरू ने कहीं जल्दबाजी में सासूमां का मर्डर तो नहीं कर दिया?

हम जब आटोरिकशा से उतरे तो महल्ले के निवासी काफी घबराए थे. पत्नी अपनी मां की याद में रोने  लगी तभी अंदर से सासूमां पुलिस इंस्पेक्टर के साथ बाहर हंसतीखिलखिलाती निकलीं. उन्हें हंसते देख हमारा माथा ठनका कि भैया आज मटरू पकड़ा गया और हमारा प्लान ओपन हुआ. बस, तलाक के साथसाथ पूरा महल्ला थूथू करेगा सो अलग. सब कहेंगे, ‘‘ऐसे टुच्चे दोस्त हैं जो ऐसी सलाह देते हैं.’’

हम शर्म से जमीन में गड़ गए. मन ही मन विचार किया, कभी ऐसा गंदा प्लान नहीं बनाएंगे. अचानक हमारे कान में मटरू की आवाज सुनाई पड़ी. देखा कि वह तो भीड़ में खड़ा तमाशा देख रहा है. अब हमारी बारी चक्कर खा कर गिरने की आ गई थी.

हम हिम्मत कर के आगे बढ़े तो देखते हैं कि पुलिस एक चोर को पकड़ कर बाहर आ रही थी. हमें देख कर सासूमां ने कहा, ‘‘लो दामादजी, इसे पकड़ ही लिया, पूरा शहर इस की चोरियों से परेशान था.’’

पुलिस इंस्पेक्टर ने हमें बधाई दी और कहा, ‘‘आप की सास वाकई बड़ी हिम्मती हैं. इन्होंने एक शातिर चोर को पकड़वाया है. इन्हें सरकार से इनाम तो मिलेगा ही लेकिन हमें आज आप के भाग्य पर ईर्ष्या हो रही है कि ऐसी सास हमारे भाग्य में क्यों नहीं थी?’’ हम ने सुना तो गद्गद हो गए. हमारी पत्नी ने लपक कर अपनी मां को गले से लगा लिया.

किस्सा यों हुआ कि हमारे मटरू दोस्त को आने में देर हो गई थी. उस की जगह उस रात अचानक असली चोर घुस आया. सासूमां ने पुराना घी खाया था, सो बिना घबराए अपने कुत्ते के साथ उसे धोबी पछाड़ दे दी. महल्ले वालों को आवाज दे कर बुलाया, पुलिस आ गई. इस तरह सासूमां ने एक शातिर चोर को पकड़ लिया. अगले दिन समाचारपत्रों में फोटो सहित सासूमां का समाचार छपा हुआ था.

अब आप ही विचार करें, ऐसी प्रसिद्ध सासूमां को कौन घर से जाने को कहेगा? आप ही निर्णय करें कि हम भाग्यशाली हैं या दुर्भाग्यशाली? आप जो भी निर्णय लें लेकिन हमारी सासूमां जरूर सौभाग्यशाली हैं जिन्हें ऐसा दामाद मिला…

जेएनयू इलैक्शन और बोल्ड लवस्टोरी

दिल्ली पढ़ाई का गढ़ है. यहां की जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के तो कहने ही क्या. साल 1969 में बनी इस मजबूत लाल इमारत में किसी छात्र का दाखिला होना अपनेआप में बड़ी बात है. निर्मला सीतारमण, एस. जयशंकर, मेनका गांधी, नेपाल से बाबूराम भट्टाराई, लीबिया से अली जैदान, अमिताभ कांत, आलोक जोशी, सुभाषिनी शंकर, दीपक रावत, मनु महाराज जैसे न जाने कितने दिग्गजों ने कभी न कभी यहीं से पढ़ाई की है.

बिहार की मालती कुमारी भी जिंदगी में कुछ कर दिखाने के मकसद से इसी यूनिवर्सिटी से जर्नलिज्म की पढ़ाई कर रही है. मालती अपने नाम की तरह महकता फूल है. गोरा रंग, बड़ी आंखें, कंधों तक कटे बाल, 5 फुट, 6 इंच कद, लंबी टांगें… मतलब जो लड़का एक बार देख ले, तो फिर आहें भरता रह जाए.

मालती कुमारी को अपने हुस्न पर नाज है और वह है भी बड़ी बिंदास. सिगरेट पीती है, चायकौफी की चसोड़ी है, बोलने में झिझकती नहीं और जब मुसकराती है, तो ‘तेजाब’ की माधुरी दीक्षित लगती है.

आज मालती ने टौर्न जींस, ह्वाइट टीशर्ट पहनी है. पैरों में कोल्हापुरी चप्पल. हाथ में मोबाइल और जब वह क्लास में घुसी तो देखा कि आज कहां बैठना है.

कुछ लड़कों ने इशारों में साथ बैठने के लिए औफर दिया, पर मालती तो मालती है, ऐसे किसी के भाव कैसे बढ़ा दे.

मालती ने नजर दौड़ाई और एक लड़के पर उस की आंखें जम गईं. लड़का क्या, तूफान था. एकदम ‘गली बौय’

का रणवीर सिंह. 6 फुट लंबा, गठा हुआ बदन, केसरी रंग का कुरता और जींस, पैरों में पुराने पर ब्रांडेड शू.मालती उस लड़के के पास जा कर बोली, ‘‘मे आई…’’

उस लड़के ने आज पहली बार मालती को देखा था और बस देखता

ही रह गया. उस के मुंह से निकला, ‘‘श्योर…’’

मालती उस लड़के के बगल में बैठ कर हाथ आगे बढ़ाते हुए बोली, ‘‘मालती…’’

उस लड़के ने हाथ मिलाते हुए कहा, ‘‘ओह, तभी इतना महक रही हो.’’

‘‘लाइन मार रहे हो. वह भी बिना नाम बताए. गजब का हौसला है,’’ मालती ने मुंह बनाते हुए कहा.

‘‘बंदे को अभिषेक दीक्षित कहते हैं,’’ उस लड़के ने स्टाइल मारते हुए कहा.

‘‘अच्छा, ब्राह्मण पुत्र हो… और मैं दलित पुत्री,’’ मालती ने बेबाकी से कहा.

‘‘दोस्ती में कैसी जातपांत. दिल मिलने चाहिए और बाद में…’’ अभिषेक ने मालती को कुहनी मारते हुए कहा.

‘‘ज्यादा इतराओ मत. मुझे पाने के लिए कई तरह के पापड़ बेलने पड़ेंगे,’’ मालती बोली.

‘‘अजी, हम तो आप के लिए पापड़ क्या पूरियां भी बेल लेंगे.’’

‘‘अच्छा चलो, मेरा एक काम कर दो. मुझे नोट्स दिलवा दो कहीं से, फिर देखते हैं कि पूरी बेलने में माहिर हो या पापड़. कहीं मेरा झापड़ न मिल जाए तुम्हें,’’ मालती ने हंसते हुए कहा.

‘‘नोट्स देने पर मुझे क्या मिलेगा?’’ अभिषेक ने कहा.

‘‘डार्लिंग, मैं तुम्हारे साथ चाय और सुट्टे की डेट पर चल लूंगी. अगर मुझे तुम और तुम्हारे नोट्स पसंद आए, तो फिर किसी बोल्ड डेट पर चल पड़ेंगे,’’ मालती ने अपने बालों पर हाथ फिराते हुए कहा.

थोड़ी देर में वे दोनों गंगा ढाबे पर थे. अभिषेक ने अपने एक दोस्त को नोट्स लाने भेज दिया. दोनों ने चाय का और्डर दिया और 1-1 सिगरेट सुलगा ली. मालती सिगरेट पीने में माहिर थी, तगड़ी सुट्टेबाज.

‘‘एक महीने बाद यूनिवर्सिटी में इलैक्शन हैं. तुम किस साइड हो?’’ मालती ने सिगरेट का कश खींचते हुए पूछा.

‘‘मैं तो एबीवीपी का कट्टर कार्यकर्ता हूं. इस लाल इमारत में रामराज लाना है,’’ अभिषेक ने घमंडी अंदाज में कहा.

‘‘ओह, तुम तो भगवाधारी निकले.  अंधभक्त कार्यकर्ता. अब हम दोनों की कैसे जमेगी, क्योंकि मैं हूं वामपंथी

और तुम ठहरे दक्षिणापंथी… माफ

करना दक्षिणपंथी,’’ मालती ने ताना फेंक कर मारा.

‘‘ओ मालती देवी, हमारे बीच में अचानक भगवा और लाल सलाम कहां से आ गया,’’ अभिषेक ने यह बात कह तो दी थी, पर उस के अहम को शायद ठेस पहुंची थी, क्योंकि एक दलित लड़की ने उसे दक्षिणापंथी जो कह दिया था, पर उस ने अपने चेहरे के हावभाव से जाहिर नहीं होने दिया.

इतने में अभिषेक का दोस्त नोट्स ले आया.

‘‘तुम ने मुझे नोट्स तो दिए और हमारी चाय और सुट्टे की डेट भी हो गई. अब आगे…?’’ मालती ने पूछा.

‘‘तुम्हारा कमरा या मेरा कमरा?’’ अभिषेक ने डायरैक्ट सवाल किया.

‘‘बता दूंगी, पर ज्यादा उम्मीद मत रखना.’’

फिर वे दोनों कई बार मिले. एक दिन अभिषेक ने अगली डेट की याद दिलाई, तो मालती ने कहा, ‘‘आज रात को 9 बजे तुम्हारे कमरे में… और हां, प्रोटैक्शन लाना मत भूलना. मुझे गोलीवोली नहीं खानी है,’’ मालती ने आंख मारते हुए कहा.

इधर मालती और अभिषेक की गुटरगूं चल रही थी, उधर छात्र संघ के चुनाव का ऐलान हो गया था. छात्र बड़े दिनों से चुनाव कराने की मांग कर रहे थे.

इसी सिलसिले में नोटिफिकेशन जारी किया गया कि 22 मार्च को जेएनयूएसयू के चुनाव होंगे और 24 मार्च को नतीजे का ऐलान होगा.

11 मार्च, 2024 को एक अस्थायी वोटिंग लिस्ट जारी की जाएगी. उस लिस्ट में सुधार 12 मार्च को सुबह 9 बजे से शाम 5 बजे के बीच शुरू होगा.

बता दें कि जेएनयू छात्रसंघ का पिछला चुनाव साल 2019 में हुआ था, जिस में लैफ्ट गुट की उम्मीदवार आइशी घोष ने चुनाव जीता था. उस के बाद कोरोना की वजह से चुनाव रद्द हुआ था. अब 4 साल बाद छात्रसंघ चुनाव होने पर सभी दलों के छात्र दल जोश में आ गए.

रात को मालती अभिषेक के रूम में पहुंच गई थी. होस्टल के रखवालों को हवा तक नहीं लगने दी. पिंक शौर्ट और ब्लैक राउंड नैक स्लीवलैस टीशर्ट में वह कमाल की लग रही थी. शायद वह नहा कर आई थी. उस के गीले बाल उसे और ज्यादा खूबसूरत बना रहे थे.

अभिषेक हरे रंग की बनियान और भूरे रंग के पाजामा में था. वह बहुत ज्यादा हैंडसम लग रहा था. एलैक्सा पर किसी इंगलिश गाने की मादक धुन बज रही थी. उस ने मालती को देखते ही कहा, ‘‘पहले से ही इतनी खूबसूरत थी या मुझे देख कर यह निखार आया है?’’

‘‘वैरी फनी…’’ कहते हुए मालती

ने सिगरेट सुलगाई और बिस्तर पर अधलेटी हो गई. फिर कश लगा कर सिगरेट अभिषेक को दे कर बोली, ‘‘इलैक्शन का क्या सीन है… राम राज लाओगे या मैं लाल सलाम का नारा बुलंद करूं…’’

अभिषेक सिगरेट ले कर मालती के करीब बैठ गया और बोला, ‘‘एबीवीपी ओनली. उमेश चंद्र अजमीरा से मेरी अच्छी बातचीत है. अध्यक्ष तो वही बनेगा. इस बार लैफ्ट वालों का सूपड़ा साफ है.’’

‘‘धीरज धरो मेरे ब्राह्मण पुत्र. इस बार नया इतिहास बनेगा. जेएनयू को एक दलित अध्यक्ष मिलेगा. मुझे धनंजय पर पूरा भरोसा है. वह बिहार के गया जिले से है और अपने परिवार में 6 भाईबहनों में सब से छोटा भी. वह स्कूल औफ आर्ट्स ऐंड एस्थैटिक्स से पीएचडी कर रहा है,’’ मालती ने कहा.

‘‘तुम भी क्या इलैक्शन की बात ले कर बैठ गई हो. रात अपनी रफ्तार से भाग रही है और हम लाल और भगवा झंडे में उलझे हुए हैं,’’ कहते हुए अभिषेक ने मालती का हाथ पकड़ लिया.

मालती ने बिस्तर पर लेटे हुए एक अंगड़ाई ली और अभिषेक को अपने ऊपर खींच लिया. दोनों की गरम सांसें एकदूसरे के चेहरे से टकरा रही थीं.

अभिषेक ने मालती के चेहरे पर आए बालों को हटाते हुए उस के होंठों को चूम लिया. मालती एकदम से सुर्ख लाल हो गई. उस के कान गरम हो गए. उस ने भी अभिषेक को कस कर भींच लिया.

अब तो अभिषेक उतावला सा हो गया. उस ने मालती की टीशर्ट उतार दी और उसे देखने लगा.

मालती थोड़ा शरमा गई, फिर एकदम से बोली, ‘‘प्रोटैक्शन कहां है जनाब? मुझे प्रैग्नैंट नहीं होना है.’’

अभिषेक को एकदम से ध्यान आया कि कंडोम का पैकेट तो अलमारी में रखा है. वह फटाफट उठा, अलमारी से कंडोम लाया और मालती पर छा गया. थोड़ी ही देर में वे दोनों इश्क की खुमारी में खो गए.

खुमारी तो यूनिवर्सिटी का इलैक्शन लड़ने वालों पर भी छा रही थी. हर गुट की रणनीतियां बनने लगीं. आल इंडिया स्टूडैंट्स एसोसिएशन (एआईएसए) के धनंजय ने अध्यक्ष पद की बहस के दौरान कई अहम मुद्दे उठाए. कैंपस एरिया में लड़कियों की सिक्योरिटी, पानी की कमी, बुनियादी ढांचे की कमी, छात्रवृत्ति में बढ़ोतरी और फंड में कटौती पर उन्होंने जम कर बोला.

इस के अलावा धनंजय ने फीस बढ़ने पर भी चिंता जाहिर की. उन्होंने देशद्रोह के आरोप में हिरासत में लिए गए छात्र नेताओं को रिहा करने की मांग भी की.

दूसरी ओर, तेलंगाना के वारंगल जिले के रहने वाले उमेश चंद्र अजमीरा एबीवीपी की तरफ से अध्यक्ष पद के दावेदार बने. वे आदिवासी बंजारा (अनुसूचित जनजाति) समुदाय की बैकग्राउंड से आते हैं और जेएनयू में स्कूल औफ इंटरनैशनल स्टडीज में शोधार्थी हैं.

उमेश चंद्र अजमीरा ने अपने संबोधन में कहा कि इन वामियों की फरेब, मक्कारी और नाकामियों से जेएनयू के छात्र परेशान हो चुके हैं और इस बार विद्यार्थी परिषद पूरे बहुमत से चारों सीटों को जीत रही है.

जिस तरह पिछली 22 जनवरी को भगवान राम के भव्य राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के साथ संपूर्ण देश ने 500 साल के संघर्ष के माध्यम से अन्याय पर विजय प्राप्त की, वैसे ही आने वाली

22 मार्च को जेएनयू के छात्र एबीवीपी के पूरे पैनल को अपना मत डाल कर वामपंथ पर विजय प्राप्त करेंगे.

‘‘तुम दक्षिणापंथी भी न हर बात में राम को ले आते हो. जेएनयू के कैंपस में राम का क्या काम,’’ गंगा ढाबे पर चाय पीते हुए मालती ने अभिषेक से कहा.

‘‘ओ अभिषेक, यह मालती कुछ ज्यादा ही बकवास कर रही है. यहां

कोटे से घुस जाते हैं और फिर बातें ऐसी बनाते हैं कि ये ही आज के अंबेडकर हैं,’’ अभिषेक के एक दोस्त दीपक अग्रवाल ने मालती की बात पर गुस्सा होते हुए कहा.

‘‘मौडर्न कपड़े पहनने से कोई लड़की मौडर्न नहीं बन जाती है. अपनी हैसियत में रह,’’ एक और लड़के ने अपनी भड़ास निकाली.

मालती की यह बात चुभी तो अभिषेक को भी थी, पर वह बात को संभालते हुए बोला, ‘‘देखो, सब को अपनी बात रखने का हक है. मालती को हम इलैक्शन में हरा कर जवाब देंगे.’’

‘‘ओए दीपक, मैं भले ही कोटे से हूं, पर पढ़ाई में तुझ से कम नहीं हूं. तुम्हारे भाईबंधु तो अपने बाप के पैसे के दम पर चले जाते हैं विदेश में पढ़ने. और तुझे क्या लगता है, विदेश में या देश की बड़ी यूनिवर्सिटी में जाने का ठेका क्या तुम लोगों ने ही ले रखा है.

‘‘पता भी है कि विदेशी यूनिवर्सिटी में दाखिले के लिए दी जाने वाली सरकारी स्कौलरशिप पाने वाले दलित छात्रों की तादाद के मामले में महाराष्ट्र देश में अव्वल रहा है.

‘‘फरवरी, 2018 तक अनुसूचित जाति के 72 छात्रों को नैशनल ओवरसीज स्कौलरशिप स्कीम का फायदा मिला था, जिन में से 40 छात्र तो अकेले महाराष्ट्र के थे.

‘‘मैं मिडिल क्लास दलित फैमिली से जरूर हूं, पर पढ़ना मेरा जुनून है. अरे यार अभिषेक, तू ने कैसे नमूने पाल रखे हैं. ला, एक सिगरेट पिला. दिमाग की दही कर दी.

‘‘और हां, इस गलतफहमी में मत रहना कि तेरीमेरी बातचीत है, तो तेरे कहने पर मैं एबीवीपी वालों पर ठप्पा लगा दूंगी. डेट मारना अलग चीज है और वोट देना अलग,’’ गुस्से में तमतमाई मालती ने चिल्लाते हुए कहा.

अभिषेक के दोनों दोस्त चुप हो गए. उन का मन तो कर रहा था कि इसे यहां से चलता कर दे, पर अभिषेक का लिहाज था, तो चुप रहे. वैसे भी आज मालती लाल रंग के क्रौप टौप और

ब्लैक जींस में मस्त लग रही थी. उन्हें भी लगा कि इलैक्शन तो जीत ही लेंगे, पर अभी तो नैन सुख ले ही लें.

इधर इलैक्शन जोर पकड़ रहा था, उधर अभिषेक और मालती के बीच सुट्टे, चाय और इश्क का तड़का खूब लग रहा था.

मालती और अभिषेक भले ही अलगअलग गुटों का प्रचार कर रहे थे, पर रात को सोते एक ही बिस्तर पर थे.

चुनाव से एक रात पहले मालती अभिषेक के ही रूम में थी. वह बोली, ‘‘डार्लिंग, आज तो बहुत ज्यादा थक गई हूं, थोड़ी देर पैर दबा दो न.’’

अभिषेक मुसकराया और उस ने बड़े प्यार से मालती के दोनों पैरों की मालिश की.

सिगरेट का कश लगाते हुए मालती ने पूछा, ‘‘किस का चांस ज्यादा है? धनंजय या उमेश?’’

अभिषेक ने मालती की गोद में लेटते हुए कहा, ‘‘कोई भी जीते, मुझे कोई खास फर्क नहीं पड़ता. तुम और मैं साथ हैं, यही बड़ी बात है. वैसे, हमारी इस डेटिंग का फ्यूचर क्या है?’’

‘‘फ्यूचर से तुम्हारा मतलब हमारी शादी से है?’’

‘‘हां, कह सकती हो.’’

‘‘पर यार, अभी तो हमें अपने कैरियर पर फोकस करना है. पहले सैटल हो जाते हैं और अगर तब तक हमारा ब्रेकअप नहीं हुआ तो सोचेंगे शादी के बारे में. वैसे, मुझे कोई दिक्कत नहीं है,’’ मालती ने अभिषेक के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा.

मालती का यह कहना अभिषेक को बहुत अच्छा लगा. वह जानता था कि मालती हर बात में उस से इक्कीस है और उस का साथ कभी नहीं छोड़ेगी. वह उस से सच्ची मुहब्बत करने लगा था. उस ने भावुक हो कर मालती को गले से लगा लिया. वे दोनों कुछ देर ऐसे ही लेटे रहे, फिर कब एकदूसरे में समा गए, पता ही नहीं चला.

22 मार्च की सुबह ही ढोल की थाप के साथ ‘जय भीम’, ‘भारत माता की जय’ और ‘लाल सलाम’ के नारे के साथ ही जेएनयू कैंपस में माहौल गरम होने लगा था. 11 बजे के बाद बड़ी तादाद में छात्र वोटिंग सैंटरों पर जमा होने लगे थे.

जेएनयूएसयू के केंद्रीय पैनल के लिए कुल 19 उम्मीदवार मैदान में थे, जबकि स्कूल काउंसलर के लिए

42 लोगों ने दांव लगाया था. छात्र संघ अध्यक्ष पद के लिए 8 उम्मीदवारों के बीच मुकाबला था.

अभिषेक और मालती समेत 7,700 से ज्यादा रजिस्टर्ड वोटरों ने अपना वोट डाला था. इस बार रिकौर्ड 73 फीसदी वोटिंग हुई थी. वोटिंग के लिए अलगअलग स्टडी सैंटरों में कुल

17 वोटिंग सैंटर बनाए गए थे. वोटिंग शाम के 7 बजे तक चली थी.

और फिर आया वह ऐतिहासिक दिन. 24 मार्च, 2024. वोटों की गिनती शुरू हुई. लैफ्ट गुटों और एबीवीपी में शुरुआती दौर में कांटे की टक्कर दिखाई दी, पर फिर जैसेजैसे दिन ढलता गया, लाल सलाम का गुट भगवाधारियों पर भारी पड़ता गया.

इस चुनाव के लिए लैफ्ट की सभी पार्टियों ने गठबंधन किया था. अध्यक्ष पद के लिए आल इंडिया स्टूडैंट एसोसिएशन के धनंजय की जीत हुई. उन्हें 2,598 वोट मिले. दूसरे नंबर पर रहे एबीवीपी के उमेश चंद्र अजमीरा. उन को कुल 1,667 वोट मिले.

उपाध्यक्ष पद पर भी लैफ्ट गुट के स्टूडैंट फैडरेशन औफ इंडिया को जीत मिली. अभिजीत घोष को कुल 2,409 वोट मिले थे. वहीं दूसरे नंबर पर रही एबीवीपी की दीपिका शर्मा को 1,482 वोट मिले.

महासचिव पद के लिए प्रियांशी आर्या को जीत मिली. वे बिरसा अंबेडकर फुले स्टूडैंट्स यूनियन की उम्मीदवार थीं. उन्हें लैफ्ट गठबंधन का समर्थन हासिल था. दूसरे नंबर पर रहे एबीवीपी के अर्जुन आनंद. प्रियांशी आर्या को 2,887 और अर्जुन आनंद को 1,961 वोट मिले.

संयुक्त सचिव पद पर एआईएसएफ के उम्मीदवार मोहम्मद साजिद को जीत मिली. उन्हें कुल 2,574 वोट मिले थे, जबकि एबीवीपी के गोविंद दांगी को 2,066 वोट मिले.

जब चुनाव का नतीजा आया, तब मालती और अभिषेक एकसाथ ही थे. अभिषेक ने मालती को बधाई दी और उसे गले लगा लिया. वह बोला, ‘‘तुम सही साबित हुई. इतने साल बाद जेएनयू को एक दलित अध्यक्ष मिला है. उम्मीद है कि धनंजय ने छात्रों से जो वादे किए हैं, वे उन्हें पूरा करेंगे.’’

मालती ने अभिषेक को चूम लिया और बोली, ‘‘यार, सुट्टा मारने का मन कर रहा है. चलें? मुझे आज मसाज करानी है और तुम मना नहीं करोगे.’’

अभिषेक यह सुन कर हंसने लगा. उस ने मालती के बालों में हाथ फेरा और बोला, ‘‘राजनीति में लैफ्ट और राइट का लफड़ा तो चलता ही रहेगा, पर हम दोनों की जोड़ी नहीं टूटनी चाहिए. क्यों दलित पुत्री? आज चाय तुम पिलाना.’’

मालती बोली, ‘‘पक्का, मेरे ब्राह्मण पुत्र,’’ और वे दोनों गंगा ढाबे की तरफ चल दिए.

ध्रुवा: क्या आकाश के माता-पिता को वापस मिला बेटा

हर मातापिता की तरह आकाश के मातापिता ने भी अपने 25 वर्षीय बेटे की शादी के ढेर सारे सपने संजो रखे थे जिन्हें आकाश के एक फैसले ने मिट्टी में मिला दिया था.

“बेटा आकाश, मिश्रा जी हमारे जवाब के इंतज़ार में हैं, उन की बेटी सुकन्या एमबीए कर के,” मां इंद्रा देवी ने बात शुरू ही की थी कि “मां, आप ने सोच भी कैसे लिया कि मैं ध्रुवा को भूल जाऊंगा, उस का और मेरा साथ आज का नहीं, जन्मजन्मांतर का है. कभी तभी तो सोचिए न मां, कि इतनी भीड़भरी दुनिया में वही क्यों मिली मुझे,” आकाश ने मां की बात को बीच में ही काटा.

“इस में सोचने वाली तो कोई बात ही नहीं. तुम पैसे वाले हो, देखने में स्मार्ट हो. इस से ज्यादा एक लड़की को और क्या चाहिए. उस ने सोचसमझ कर तुम पर डोरा डाला है,” मां इंद्रा देवी ने क्रोधित होते हुए कहा.

“मां, मैं गया था उस के पीछे. उस ने तो महीनों तक मुड़ कर भी नहीं देखा था मेरी ओर,” आकाश हारना नहीं चाहता था, उसे हर हाल में अपने प्यार की जीत चाहिए थी.

“हां, तो तुम्हें कोई अपनी बिरादरी की नहीं मिली. वही एक हूर की परी है दुनिया में,” मां अब भी अपनी संस्कृति, रीतिरिवाज का मोरचा संभाले बोली.”

“जो होना था वह हो चुका. कल उस के मातापिता आ रहे हैं आप लोगों से मिलने के लिए और मैं नहीं चाहता आने वाले समय की बुनियाद में थोड़ी सी भी खटास शामिल हो,” आकाश ने दृढ़ निश्चय लेते हुए कहा.

“कल क्लाइंट के साथ मेरी इंपौर्टेंट मीटिंग है,” आकाश के पिता ने अपनी नाराजगी को अमलीजामा पहनाने की कोशिश की.

“और मेरी महिला समिति की किटी पार्टी है,” मां ने मोबाइल में आंखें गड़ाए कहा.

“समझ गया, आप लोग किसी भी हाल में ध्रुवा को नहीं अपनाने वाले. लेकिन मैं भी कह देता हूं आने वाली परिस्थिति के जिम्मेदार आप लोग ही होंगे,” आकाश का चेहरा गुस्से से तमतमा रहा था. अपनी बात कह कर आकाश कमरे से निकल गया.

मातापिता की रजामंदी न मिलने से खीझा हुआ तो वह पहले से ही था, रहीसही कसर दोस्त मनीष के कोरोना पौजिटिव होने की खबर ने पूरी कर दी जिस के संसर्ग में वह भी पिछले कई दिनों से रह रहा था. लेकिन फिलहाल समस्या यह थी कि वह ध्रुवा से क्या कहेगा… रोज उस के सामने अपने मातापिता के खुले विचारों वाले होने के सौ किस्से सुनाया करता था और आज जब सही में खुले विचार से बेटे की खुशियां समेटने की बारी आई तो वे मुकर गए थे.

यही सब सोचता उन कड़ियों को जोड़ने लगा जहां से इस सारे अफसाने की शुरुआत हुई थी. असम राज्य के शिवसागर जिला अपनी खूबसूरती के साथसाथ कई और संस्कृतियों को भी अपनी गोद में उसी प्रकार बढ़नेपनपने देता है जैसे कि वे वहीं की हों. वहीं के एक कौन्वैंट स्कूल में आकाश पढ़ता था. हिंदी फिल्मों के शौकीन आकाश ने गर्लफ्रैंड बनाने के कई प्रयास किए पर हर बार नाकामयाब रहा. उसी समय ध्रुवा ने उसी स्कूल में दाखिला लिया. वैसे तो ध्रुवा के मातापिता की कहीं से औकात न थीं इतने बड़े स्कूल में पढ़ाने की लेकिन ध्रुवा इतनी अच्छी पेंटिंग करती थी कि उसे उस स्कूल के लिए स्कौलरशिप मिली थी और यहीं से शुरुआत हुई थी उन दोनों के प्रेम कहानी की. हुआ यों था कि एक दिन ध्रुवा को कक्षा में डांट पड़ रही थी. ‘ओहो, ध्रुवा, तुम ने फिर होमवर्क नहीं किया,’ राधिका मैम ने उस की कौपी डैस्क पर पटकते हुए कहा. 10वीं कक्षा के सभी विद्यार्थियों की नजर ध्रुवा पर गई- गोरा सा मुखड़ा, बड़ीबड़ी कजरारी आंखें, हलके गुलाबी रंग के होंठ.

‘बोलो, बोलती क्यों नहीं,’ राधिका मैम ने फिर धमकाया.

‘मैडम, मुझे मैथ्स अच्छी नहीं लगती. वैसे भी ए प्लस बी होलस्कवैर का इस्तेमाल जीवन के किस मोड़ पर होता है, मुझे बताएं जरा,’ ध्रुवा ने मासूमियत से उत्तर दिया.

‘बस ध्रुवा, एक तो तुम ने होमवर्क नहीं किया, ऊपर से बड़ीबड़ी बातें…’

‘मैडम, आप ने कभी रंगों के साथ खेला है. उन्हें कागज या कपड़ों पर उकेरा है…’ ध्रुवा अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाई थी कि छुट्टी की घंटी बज गई और सभी कक्षा से बाहर निकल गए.

ध्रुवा का मासूम, सुंदर सा चेहरा, बेबाक हो कर बोलना और नुमाइश में लगी ध्रुवा की पेंटिंग जिस की खूब तारीफ हो रही थी. इन सारी बातों ने आकाश के मन को मोह लिया था.

आकाश चौधरी ध्रुवा की कक्षा का हैड बौय था. कसरती बदन, ऊंचा मस्तक, घुंघराले बालों वाला यह लड़का लड़कियों के बीच हमेशा चर्चा का विषय बना रहता. दरअसल, आकाश हमेशा से स्कूल टौपर भी था.

‘आप को मैथ्स अच्छी नहीं लगती?’ एक दिन ध्रुवा को लाइब्रेरी में अकेला पा कर आकाश ने पूछा.

‘क्या आप रंगों की भाषा जानते हैं? ध्रुवा ने चिढ़ कर जवाब दिया जैसे किसी ने उस की दुखती रग पर हाथ रख दिया हो.

उसी का तो मैं दीवाना हो गया हूं, आकाश के मन की आवाज थी जो उस के मन में ही दब कर रह गई. पहली मुलाकात में भला कैसे कह सकता है इतनी सारी बातें.

‘आप की पेंटिंग देखी हैं मैं ने, बहुत अच्छा बनाती हैं आप,’ संयोग से मिले अंतरंग पलों को भला कैसे जाने दे सकता था आकाश.

‘क्या फायदा मैथ्स में तो फिसड्डी हूं न,’ ध्रुवा ने होंठों को टेढ़ा करते हुए कहा.

‘आप कहें तो मैं आप की मदद कर सकता हूं,’ आकाश ने अपनी ओर से पहल करते हुए कहा.

‘सच्ची, फिर ठीक है,’ ध्रुवा लगभग उछल पड़ी थी.

स्कूल का टौपर लड़का उस की मदद करना चाह रहा था. इस से अच्छी बात क्या हो सकती थी भला.

इस तरह अपनीअपनी ख्वाहिशों को जरूरतों का नाम दे कर दोनों जीवन के उस राह पर चलने लगे जिसे ज्ञानी लोग बकवास और साधारण लोग पवित्र प्रेम का दर्जा देते हैं. और इस तरह धीरेधीरे दोनों का प्यार परवान चढ़ने लगा.

शुरुआत में तो मुलाकातें छोटी होती थीं पर सपने बड़े होते थे. फिर एक शाम की सिंदूरी बेला में अपने प्यार को सचाई का जामा पहनाने की कोशिश में आकाश का पुरुषत्व हावी हो बैठा जिसे ध्रुवा ने भी नादानी में स्वीकार कर लिया और नदी का अस्तित्व सागर में विलीन हो गया.

इस समर्पण के सिलसिले को रोकने की कोशिश दोनों में से किसी ने न की. नतीजा यह निकला कि ध्रुवा अपनी पढ़ाई भी संपन्न न कर पाई. उसे अपने गर्भवती होने का पता लग चुका. उस ने आकाश को बताने में तनिक भी देरी न की. साधारणतया ऐसी परिस्थितियों में लड़का चिल्लाता है, मुकर जाता है या भागने की कोशिश करता है लेकिन आकाश चौधरी ने इस खुशी को उतने ही प्रसन्नता से स्वीकार किया जितना शायद वह विवाह के बाद स्वीकार करता.

कमी इतनी ही थी की ध्रुवा के मांग में उस के नाम का सिंदूर नहीं था. लोक, समाज की तो जैसे आकाश को परवा ही न थी. उसे, बस, इतना लग रहा था वह पिता बनने वाला है और वह उस जिम्मेदारी को निभाने के लिए पूर्णरूप से तैयार है. ध्रुवा से वह सचमुच प्यार करता था.

आकाश के पिता महेश चौधरी कंप्यूटर कंपनी के मालिक थे जिस का इकलौता वारिस आकाश ही था. अपने पिता के व्यवसाय को उसे आगे ले जाना है, यह बात उसे बचपन से ही घुट्टी की तरह पिलाई गई थी और उस ने भी उसे स्वीकार कर लिया था और व्यवसाय को आगे बढ़ाने के लिए मेहनत भी करता था. आज जब उस ने अपने मातापिता के सामने ध्रुवा से विवाह करने का प्रस्ताव रखा तो मातापिता ने जातिवाद को ऊपर रखते हुए इस विवाह से साफ इनकार कर दिया.

अब चिंता की लकीरें आकाश के माथे पर खिंचने लगी थीं क्योंकि इकलौता बेटा होने की वजह से उसे लगता था वह जो चाहेगा मातापिता उस के लिए सहर्ष इजाजत दे देंगे लेकिन मातापिता ने साफ इनकार कर दिया. फिर भी उस ने कदम पीछे नहीं किया. देरसवेर मातापिता मान जाएंगे, यह सोच कर कुछ दोस्तों की मदद से शादी करने का फैसला ले लिया और मन ही मन ध्रुवा को दुलहन के जोड़े में देख मुसकराने लगा.

24 मार्च की शाम को आकाश ने ध्रुवा को फोन किया, ‘बस, कल भर की देरी है, फिर हम दोनों और हमारा मुन्ना…’

ध्रुवा ने बीच में टोका, ‘मुन्ना क्यों, मुन्नी…’

‘चलो ठीक है मुन्नी, फिर हम तीनों एकसाथ होंगे. मैं तुम्हें हर वह खुशी देने की कोशिश करूंगा जिस की चाहत तुम ने सपने में भी की होगी,’ आकाश बोला.

मुझे यकीन है तुम पर, आकाश,’ ध्रुव तो निहाल हुई जा रही थी.

‘ध्रुवा, तुम्हें मुझ पर यकीन तो है न,’ कहतेकहते आकाश एकदो बार खांसने लगा.

‘अपनेआप से ज्यादा,’ ध्रुवा ने मोबाइल को चूमते हुए कहा जैसे वह मोबाइल को नहीं, अपने उस विश्वास को चूम रही थी जो नैटवर्क के दूसरे छोर पर खांस रहा था.

अचानक से आकाश की खांसी बढ़ने लगी, वह बोला, ‘अभी रखता हूं, फिर बाद में बात करते हैं.’

‘ठीक है, थोड़ा पानी पी लो, खांसी ठीक हो जाएगी,’ ध्रुवा ने कहा.

एक सप्ताह पहले से ही 25 मार्च, 2020 का दिन शादी के लिए तय किया गया. शिवसागर का औडिटोरियम बड़ा ही भव्य और विशालकाय है जिस में दोनों सात फेरे लेने वाले थे. सबकुछ योजना के मुताबिक चल रहा था. लेकिन नियति ने अपनी अलग नीति बनाई थी जिस के बारे में किसी को कुछ पता न था.

रात होतेहोते आकाश की खांसी बढ़ने लगी और शरीर तपने लगा. रात के 12 बजतेबजते आकाश को अस्पताल ले जाने की नौबत आ गई. ऐसे में ध्रुवा को खबर देने की जरूरत किसी ने महसूस न की.

अस्पताल पहुंच कर पता चला आकाश कोरोना पौजीटिव है और उसे औक्सीजन की सख्त जरूरत है. मातापिता का रोरो कर बुरा हाल था. उन्होंने इलाज में कोई कसर न छोड़ी. वैंटिलेटर पर भी रखा गया लेकिन बहुत देर हो चुकी थी. अगले दिन शाम के 4 बजतेबजते आकाश ने आखिरी सांस ले ली और मातापिता के सामने उन की दुनिया उजड़ गई. सबकुछ इतनी जल्दी हो गया कि किसी को यकीन नहीं हो रहा था.

जिस वक्त सात फेरे लेने का समय था उस वक्त उस के पिता उसे मुखाग्नि दे रहे थे.

आखिर एक दोस्त की मदद से ध्रुवा तक खबर पहुंची जो सुबह से औडिटोरियम में इंतजार कर रही थी. आकाश के मोबाइल पर कई बार कौल की जो आकाश के घर में बैड के साइड की टेबल पर रखा था. अब ध्रुवा को काटो तो खून नहीं, अब क्या होगा उस का. चारों तरफ सबकुछ बंद. घर जाने तक की गुंजाइश न थी. शादी के बाद जिस घर जाने की बात थी, अब वह रहा नहीं. पेट में 3 महीने का बच्चा लिए अंधेरे रास्ते से गुजर रही थी. दहाड़े मार कर आकाश का नाम लेले कर रोए जा रही थी. पर कोई सुनने वाला न था. पागलों की तरह अपने शरीर से कपड़े, गहने नोचनोच कर फेंक रही थी.

सवाल था, जाए तो कहां जाए? इसी कशमकश में चली जा रही थी. रात अपने घर के सीढ़ियों पर गुजारी. मातापिता अलग नाराज थे. सुबह हुई तो मां ने स्थिति जान कर थोड़ी सहानुभूति दिखाई. लौकडाउन की वजह से सबकुछ बंद हो चुका था. गर्भपात कराने की भी गुंजाइश नहीं रह गई थी. ऐसे में अब उसे एक ही रास्ता सूझ रहा था जिस रास्ते से गुजर कर वह आकाश के पास पहुंच सकती थी. उस ने दिल पर पत्थर रख कर वही रास्ता चुन लिया. बस, सही तरीका अपना कर अंजाम देना चाहती थी.

कहते हैं, मृत्यु जब तक बांहें न फैलाए तब तक कोई अपनी मरजी से उस की आगोश में नहीं जा सकता और वही हुआ. हर कोशिश नाकाम रही. अकेली जान होती, तो रोचिल्ला कर रह लेती. लेकिन उस की कोख में आकाश की निशानी पल रही थी और उस के साथ वह कोई नाइंसाफी नहीं होने देना चाहती थी. अगली सुबह उस ने थोड़ी हिम्मत जुटाई. दृढ़ निश्चय किया और मातापिता को साथ ले कर आकाश के घर पहुंची. निकलते समय बैग में जीवन को

खत्म करने की सामग्री रखना न भूली. वाचमैन ने गेट पर ही रोक दिया. ध्रुवा जो ठान कर आई थी, उसे अंजाम दिए बगैर वापस जाना नहीं चाहती थी.

उस ने एक कागज़ के टुकड़े पर लिखा, ‘मां, आप अपना इकलौता बेटा खो चुकी हैं, कम से कम उस की आखिरी निशानी को तो बचा लीजिए.’

आकाश के मातापिता, जो बेटे को खो कर अपने लिए जीने की वजह खो चुके थे, उस कागज के टुकड़े को पढ़ते ही दौड़ कर बाहर आए. कहने के लिए शब्द नहीं थे. सभी के आंसुओं ने अपनीअपनी बात कही. इंदिरा देवी का जातिवाद बेटे को खो कर खामोश हो चुका था. ध्रुवा को घर के अंदर लेते वक्त सभी ने आकाश को अपने आसपास महसूस किया जैसे उन का बेटा लौट आया हो.

अपने पराए, पराए अपने

पार्किंग में कार खड़ी कर के मैं दफ्तर की ओर बढ़ ही रहा था कि इतने में तेजी से चलते हुए वह आई और ‘भाई साहब’ कहते हुए मेरा रास्ता रोक कर खड़ी हो गई. उस की गोद में दोढ़ाई साल की एक बच्ची भी थी. एक पल को तो मैं सकपका गया कि कौन है यह? यहां तो दूरदराज के रिश्ते की भी मेरी कोई बहन नहीं रहती. मैं अपने दिमाग पर जोर डालने लगा.

मुझे उलझन में देख कर वह बोली, ‘‘क्या आप मुझे पहचान नहीं पा रहे हैं? मैं लाजवंती हूं. आप की बहन लाजो. मैं तो आप को देखते ही पहचान गई थी.’’ मैं ने खुशी के मारे उस औरत की पीठ थपथपाते हुए कहा, ‘‘अरी, तू है चुड़ैल.’’

मैं बचपन में उसे लाड़ से इसी नाम से पुकारता था. सो बोला, ‘‘भला पहचानूंगा कैसे? कहां तू बित्ती भर की थी, फ्रौक पहनती थी और अब तो तू एक बेटी की मां बन गई है.’’

मेरी बातों से उस की आंखें भर आईं. मुझे दफ्तर के लिए देर हो रही थी, इस के बावजूद मैं ने उसे घर ले चलना ही ठीक समझा. वह कार में मेरी साथ वाली सीट पर आ बैठी. रास्ते में मैं ने गौर किया कि वह साधारण थी. सूती साड़ी पहने हुए थी. मामूली से गहने भी उस के शरीर पर नहीं थे. सैंडल भी कई जगह से मरम्मत किए हुए थे.

बातचीत का सिलसिला जारी रखने के लिए मैं सब का हालचाल पूछता रहा, मगर उस के पति और ससुराल के बारे में कुछ न पूछ सका. लाजवंती को मैं बचपन से जानता था. वह मेरे पिताजी के एक खास दोस्त की सब से छोटी बेटी थी. दोनों परिवारों में बहुत मेलजोल था.

हम सब भाईबहन उस के पिताजी को चाचाजी कहते थे और वे सब मेरे पिताजी को ताऊजी. अम्मां व चाची में खूब बनती थी. दोनों घरों के मर्द जब दफ्तर चले जाते तब अम्मां व चाची अपनी सिलाईबुनाई ले कर बैठ जातीं और घंटों बतियाती रहतीं.

हम बच्चों के लिए कोई बंधन नहीं था. हम सब बेरोकटोक एकदूसरे के घरों में धमाचौकड़ी मचाते हुए खोतेपीते रहते. पिताजी ने हाई ब्लडप्रैशर की वजह से मांस खाना व शराब पीना बिलकुल छोड़ दिया था. वैसे भी वे इन चीजों के ज्यादा शौकीन नहीं थे, लेकिन चाचाजी खानेपीने के बेहद शौकीन थे.

अकसर उन की फरमाइश पर हमारे यहां दावत हुआ करती. इस पर अम्मां कभीकभी पिताजी पर झल्ला भी जाती थीं कि जब खुद नहीं खाते तो दूसरों के लिए क्यों इतना झंझट कराते हो. तब पिताजी उन्हें समझा देते, ‘क्या करें बेचारे पंडित हैं न. अपने घर में तो दाल गलती नहीं, हमारे यहां ही खा लेते हैं. तुम्हें भी तो वे अपनी सगी भाभी की तरह ही मानते हैं.’

मेरे पिताजी ऐक्साइज इंस्पैक्टर थे और चाचाजी ऐजूकेशन इंस्पैक्टर. चाचाजी मजाक में पिताजी से कहते, ‘यार, कैसे कायस्थ हो तुम… अगर मैं तुम्हारी जगह होता तो पानी की जगह शराब ही पीता.’ तब पिताजी हंसते हुए जवाब देते, ‘लेकिन गंजे को खुदा नाखून देता ही कहां है…’

इसी तरह दिन हंसीखुशी से बीत रहे थे कि अचानक न जाने क्या हुआ कि चाचाजी नौकरी से सस्पैंड हो गए. कई महीनों तक जांच होती रही. उन पर बेईमानी करने का आरोप लगा था. एक दिन वे बरखास्त कर दिए गए. बेचारी चाची पर तो जैसे मुसीबतों का पहाड़ ही टूट पड़ा. 2 बड़ी लड़कियों की तो शादी हो चुकी थी, पर 3 बच्चे अभी भी छोटे थे. सुरेंद्र 8वीं, वीरेंद्र 5वीं व लाजो चौथी जमात में पढ़ रही थी.

चाचाजी ने जोकुछ कमाया था, वह जी खोल कर मौजमस्ती में खर्च कर दिया था. आड़े समय के लिए चाचाजी ने कुछ भी नहीं जोड़ा था. चाचाजी को बहुत मुश्किल से नगरनिगम में एक छोटी सी नौकरी मिली. जैसेतैसे पेट भरने का जुगाड़ तो हुआ, लेकिन दिन मुश्किल से बीत रहे थे. वे लोग बढि़या क्वार्टर के बजाय अब छोटे से किराए के मकान में रहने लगे. चाची को चौकाबरतन से ले कर घर का सारा काम करना पड़ता था.

लाड़प्यार में पले हुए बच्चे अब जराजरा सी चीजों के लिए तरसते थे. दोस्ती के नाते पिताजी उस परिवार की ज्यादा से ज्यादा माली मदद करते रहते थे.

समय बीतता गया. चाचाजी के दोनों लड़के पढ़ने में तेज थे. बड़े लड़के को बीए करने के बाद बैंक में नौकरी मिल गई और छोटे बेटे का मैडिकल कालेज में दाखिला हो गया. मगर लाजो का मन पढ़ाई में नहीं लगा. वह अकसर बीमार रहती थी. वह बेहद चिड़चिड़ी और जिद्दी भी हो गई थी और मुश्किल से 8वीं जमात ही पास कर पाई.

फिर पिताजी का तबादला बिलासपुर हो गया. मैं भी फोरैस्ट अफसर की ट्रेनिंग के लिए देहरादून चला गया. कुछ अरसे के लिए हमारा उन से संपर्क टूट सा गया. फिर न पिताजी रहे और न चाचाजी. हम लोग अपनीअपनी दुनिया में मशगूल हो गए. कई सालों के बाद ही इंदौर वापस आना हुआ था.

शाम को जब मैं दफ्तर से घर पहुंचा तो देखा कि लाजो सब से घुलमिल चुकी थी. मेरे दोनों बच्चे ‘बूआबूआ’ कह कर उसे घेरे बैठे थे और उस की बेटी को गोद में लेने के लिए उन में होड़ मची थी. मेरी एकलौती बहन 2 साल पहले एक हादसे में मर गई थी, इसलिए मेरी बीवी उमा भी ननद पा कर खुश हुई.

खाना खाने के बाद हम लोग उसे छोड़ने गए. नंदानगर में एक चालनुमा मकान के आगे उस ने कार रुकवाई. मैं ने चाचीजी के पैर छुए, पर वे मुझे पहचान न पाईं. तब लाजो ने मुझे ढूंढ़ निकालने की कहानी बड़े जोश से सुनाई. चाचीजी मुझे छाती से लगा कर खुश हो गईं और रुंधे गले से बोलीं, ‘‘अच्छा हुआ बेटा, जो तुम मिल गए. मुझे तो रातदिन लाजो की फिक्र खाए जाती है. दामाद नालायक निकला वरना इस की यह हालत क्यों होती.

क सहन करते बना, यह वहीं रही. फिर यहां चली आई. दोनों भाइयों को तो यह फूटी आंख नहीं सुहाती. अब मैं करूं तो क्या करूं? जवान लड़की को बेसहारा छोड़ते भी तो नहीं बनता. ‘‘बेटा, इसे कहीं नौकरी पर लगवा दो तो मुझे चैन मिले.’’

सुरेंद्र भी इसी शहर में रहता था. अब वह बैंक मैनेजर था. एक दिन मैं उस के घर गया. उस ने मेरी बहुत खातिरदारी की, लेकिन वह लाजो की मदद के नाम पर टस से मस नहीं हुआ. लाजवंती का जिक्र आते ही वह बोला, ‘‘उस का नाम मत लीजिए भाई साहब. वह बहुत तेज जबान की है. वह अपने पति को छोड़ आई है.

‘‘हम ने तो सबकुछ देख कर ही उस की शादी की थी. उस में ससुराल वालों के साथ निभाने का ढंग नहीं है. माना कि दामाद को शराब पीने की लत है, पर घर में और लोग भी तो हैं. उन के सहारे भी तो रह सकती थी वह… घर छोड़ने की क्या जरूरत थी?’’ सुरेंद्र की बातें सुन कर मैं अपना सा मुंह ले कर लौट आया.

मैं बड़ी मुश्किल से लाजो को एक गांव में ग्रामसेविका की नौकरी दिला सका था. चाचीजी कुछ दिन उस के पास रह कर वापस आ गईं और अपने बेटों के साथ रहने लगीं.

मेरा जगहजगह तबादला होता रहा और तकरीबन 15 साल बाद ही अपने शहर वापस आना हुआ. एक दिन रास्ते में लाजो के छोटे भाई वीरेंद्र ने मुझे पहचान लिया. वह जोर दे कर मुझे अपने घर ले गया. उस ने शहर में क्लिनिक खोल लिया था और उस की प्रैक्टिस भी अच्छी चल रही थी.

लाजो का जिक्र आने पर उस ने बताया कि उस की तो काफी पहले मौत हो गई. यह सुनते ही मुझे धक्का लगा. उस का बचपन और पिछली घटनाएं मेरे दिमाग में घूमने लगीं. लेकिन एक बात बड़ी अजीब लग रही थी कि मौत की खबर सुनाते हुए वीरेंद्र के चेहरे पर गम का कहीं कोई निशान नहीं था. मैं चाचीजी से मिलने के लिए बेताब हो उठा. वे एक कमरे में मैलेकुचैले बिस्तर पर पड़ी हुई थीं. अब वे बहुत कमजोर हो गई थीं और मुश्किल से ही उठ पाती थीं. आंखों की रोशनी भी तकरीबन खत्म हो चुकी थी.

मैं ने अपना नाम बताया तभी वे पहचान सकीं. मैं लाजो की मौत पर दुख जाहिर करने के लिए कुछ बोलने ही वाला था कि उन्होंने हाथ पकड़ कर मुझे अपने नजदीक बैठा लिया. वे मेरे कान में मुंह लगा कर धीरे से बोलीं, ‘‘लाजो मरी नहीं है बेटा. वह तो इसी शहर में है. ये लोग उस के मरने की झूठी खबर फैला रहे हैं. तुम ने जिस गांव में उस की नौकरी लगवा दी थी, वहीं एक ठाकुर साहब भी रहते थे. उन की बीवी 2 छोटेछोटे बच्चे छोड़ कर मर गई. गांव वालों ने लाजो की शादी उन से करा दी.

‘‘लाजो के अब 2 बेटे भी हैं. वैसे, अब वह बहुत सुखी है, लेकिन एक बार उसे अपनी आंखों से देख लेती तो चैन से मरती. ‘‘एक दिन लाजो आई थी तो वीरेंद्र की बीवी ने उसे घर में घुसने तक नहीं दिया. वह दरवाजे पर खड़ी रोती रही. जातेजाते वीरेंद्र से बोली थी कि भैया, मुझे अम्मां से तो मिल लेने दो. लेकिन ये लोग बिलकुल नहीं माने.’’

लाजो की यादों में डूब कर चाचीजी की आंखों से आंसू बहने लगे थे. वे रोतेरोते आगे बोलीं, ‘‘बताओ बेटा, उस ने क्या गलत किया? उसे भी तो कोई सहारा चाहिए था. सगे भाई हो कर इन दोनों ने उस की कोई मदद नहीं की बल्कि दरदर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दिया. तुम्हीं ने उस की नौकरी लगवाई थी…’’

तभी मैं ने महसूस किया कि सब की नजरें हम पर लगी हुई हैं. मैं उस जगह से फौरन हट जाना चाहता था, जहां अपने भी परायों से बदतर हो गए थे. मैं ने मन ही मन तय कर लिया था कि लाजो को ढूंढ़ निकालना है और उसे एक भाई जरूर देना है.

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