Social Story: आदमी औरत का फर्क 

Social Story, लेखक-  डॉ. अनीता एम. कुमार

नियत समय पर घड़ी का अलार्म बज उठा. आवाज सुन कर मधु चौंक पड़ी. देर रात तक घर का सब काम निबटा कर वह सोने के लिए गई थी लेकिन अलार्म बजा है तो अब उसे उठना ही होगा क्योंकि थोड़ा भी आलस किया तो बच्चों की स्कूल बस मिस हो जाएगी.

मधु अनमनी सी बिस्तर से बाहर निकली और मशीनी ढंग से रोजमर्रा के कामों में जुट गई. तब तक उस की काम वाली बाई भी आ पहुंची थी. उस ने रसोई का काम संभाल लिया और मधु 9 साल के रोहन और 11 साल की स्वाति को बिस्तर से उठा कर स्कूल भेजने की तैयारी में जुट गई.

उसी समय बच्चों के पापा का फोन आ गया. बच्चों ने मां की हबड़दबड़ की शिकायत की और मधु को सुनील का उलाहना सुनना पड़ा कि वह थोड़ा जल्दी क्यों नहीं उठ जाती ताकि बच्चों को प्यार से उठा कर आराम से तैयार कर सके.

मधु हैरान थी कि कुछ न करते हुए भी सुनील बच्चों के अच्छे पापा बने हुए हैं और वह सबकुछ करते हुए भी बच्चों की गंदी मम्मी बन गई है. कभीकभी तो मधु को अपने पति सुनील से बेहद ईर्ष्या होती.

सुनील सेना में कार्यरत था. वह अपने परिवार का बड़ा बेटा था. पिता की मौत के बाद मां और 4 छोटे भाईबहनों की पूरी जिम्मेदारी उसी के कंधों पर थी. चूंकि सुनील का सारा परिवार दूसरे शहर में रहता था अत: छुट्टी मिलने पर उस का ज्यादातर समय और पैसा उन की जरूरतें पूरी करने में ही जाता था, ऐसे में मधु अपनी नौकरी छोड़ने की बात सोच भी नहीं सकती थी.

सुबह से रात तक की भागदौड़ के बीच पिसती मधु अपने इस जीवन से कभीकभी बुरी तरह खीज उठती पर बच्चों की जिद और उन की अनंत मांगें उस के धैर्य की परीक्षा लेती रहतीं. दिन भर आफिस में कड़ी मेहनत के बाद शाम को बच्चों को स्कूल  से लेना, फिर बाजार के तमाम जरूरी काम निबटाते हुए घर लौटना और शाम का नाश्ता, रात का खाना बनातेबनाते बच्चों को होमवर्क कराना, इस के बाद भी अगर कहीं किसी बच्चे के नंबर कम आए तो सुनील उसे दुनिया भर की जलीकटी सुनाता.

सुनील के कहे शब्द मधु के कानों में लावा बन कर दहकते रहते. मधु को लगता कि वह एक ऐसी असहाय मकड़ी है जो स्वयं अपने ही बुने तानेबाने में बुरी तरह उलझ कर रह गई है. ऐसे में वह खुद को बहुत ही असहाय पाती. उसे लगता, जैसे उस के हाथपांव शिथिल होते जा रहे हैं और सांस लेने में भी उसे कठिनाई हो रही है पर अपने बच्चों की पुकार पर वह जैसेतैसे स्वयं को समेट फिर से उठ खड़ी होती.

बच्चों को तैयार कर मधु जब तक उन्हें ले कर बस स्टाप पर पहुंची, स्कूल बस जाने को तैयार खड़ी थी. बच्चों को बस में बिठा कर उस ने राहत की सांस ली और तेज कदम बढ़ाती वापस घर आ पहुंची.

घर आ कर मधु खुद दफ्तर जाने के लिए तैयार हुई. नाश्ता व लंच दोनों पैक कर के रख लिए कि समय से आफिस  पहुंच कर वहीं नाश्ता  कर लेगी. बैग उठा कर वह चलने को हुई कि फोन की घंटी बज उठी.

फोन पर सुनील की मां थीं जो आज के दिन को खास बताती हुई उसे याद से गाय के लिए आटे का पेड़ा ले जाने का निर्देश दे रही थीं. उन का कहना था कि आज के दिन गाय को आटे का पेड़ा खिलाना पति के लिए शुभ होता है. तुम दफ्तर जाते समय रास्ते में किसी गाय को आटे का बना पेड़ा खिला देना.

फोन रख कर मधु ने फ्रिज खोला. डोंगे में से आटा निकाला और उस का पेड़ा बना कर कागज में लपेट कर साथ ले लिया. उसे पता था कि अगर सुनील को एक छींक भी आ गई तो सास उस का जीना दूभर कर देंगी.

घर को ताला लगा मधु गाड़ी स्टार्ट कर दफ्तर के लिए चल दी. घर से दफ्तर की दूरी कुल 7 किलोमीटर थी पर सड़क पर भीड़ के चलते आफिस पहुंचने में 1 घंटा लगता था. रास्ते में गाय मिलने की संभावना भी थी, इसलिए उस ने आटे का पेड़ा अपने पास ही रख लिया था.

गाड़ी चलाते समय मधु की नजरें सड़क  पर टिकी थीं पर उस का दिमाग आफिस के बारे में सोच रहा था. आफिस में अकसर बौस को उस से शिकायत रहती कि चाहे कितना भी जरूरी काम क्यों न हो, न तो वह कभी शाम को देर तक रुक पाती है और न ही कभी छुट्टी के दिन आ पाती है. इसलिए वह कभी भी अपने बौस की गुड लिस्ट में नहीं रही. तारीफ के हकदार हमेशा उस के सहयोगी ही रहते हैं, फिर भले ही वह आफिस टाइम में कितनी ही मेहनत क्यों न कर ले.

मधु पूरी रफ्तार से गाड़ी दौड़ा रही थी कि अचानक उस के आगे वाली 3-4 गाडि़यां जोर से ब्रेक लगने की आवाज के साथ एकदूसरे में भिड़ती हुई रुक गईं. उस ने भी अपनी गाड़ी को झटके से ब्रेक लगाए तो अगली गाड़ी से टक्कर होतेहोते बची. उस का दिल जोर से धड़क उठा.

मधु ने गाड़ी से बाहर नजर दौड़ाई तो आगे 3-4 गाडि़यां एकदूसरे से भिड़ी पड़ी थीं. वहीं गाडि़यों के एक तरफ  एक मोटरसाइकिल उलट गई थी और उस का चालक एक तरफ खड़ा  बड़ी मुश्किल से अपना हैलमेट उतार रहा था.

हैलमेट उतारने के बाद मधु ने जब उस का चेहरा देखा तो दहशत से पीली पड़ गई. सारा चेहरा खून से लथपथ था.

सड़क के बीचोंबीच 2 गायें इस हादसे से बेखबर खड़ी सड़क पर बिखरा सामान खाने में जुटी थीं. जैसे ही गाडि़यों के चालकों ने मोटरसाइकिल चालक की ऐसी दुर्दशा देखी, उन्होंने अपनी गाडि़यों के नुकसान की परवा न करते हुए ऐसे रफ्तार पकड़ी कि जैसे उन के पीछे पुलिस लगी हो.

मधु की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे. आज एक बेहद जरूरी मीटिंग थी और बौस ने खासतौर से उसे लेट न होने की हिदायत दी थी लेकिन अब जो स्थिति उस के सामने थी उस में उस का दिल एक युवक को यों छोड़ कर  आगे बढ़ जाने को तैयार नहीं था.

मधु ने अपनी गाड़ी सड़क  के किनारे लगाई और उस घायल व्यक्ति के पास जा पहुंची. वह युवक अब भी अपने खून से भीगे चेहरे को रूमाल से साफ कर रहा था. मगर  बालों से रिसरिस कर खून चेहरे को भिगो रहा था.

मधु ने पास जा कर उस युवक से घबराए स्वर में पूछा, ‘‘क्या मैं आप की कोई मदद कर सकती हूं?’’

युवक ने दर्द से कराहते हुए बड़ी मुश्किल से आंखें खोलीं तो उस की आंखों में जो भाव मधु ने देखे उसे देख कर वह डर गई.  उस ने भर्राए स्वर में मधु से कहा, ‘‘ओह, तो अब तुम मेरी मदद करना चाहती हो ? तुम्हीं  ने वह खाने के सामान से भरा लिफाफा  चलती गाड़ी से उन गायों की तरफ फेंका था न?’’

मधु चौंक उठी, ‘‘कौन सा खाने का लिफाफा?’’

युवक भर्राए स्वर में बोला, ‘‘वही खाने का लिफाफा जिसे देख कर सड़क के किनारे  खड़ी गायें एकाएक सड़क के बीच दौड़ पड़ीं और यह हादसा हो गया.’’

अब मधु की समझ में सारा किस्सा आ गया. तेज गति से सड़क पर जाते वाहनों के आगे एकाएक गायोें का भाग कर आना, वाहनों का अपनी रफ्तार पर काबू पाने के असफल प्रयास में एकदूसरे से भिड़ना और किन्हीं 2 कारों के बीच फंस कर उलट गई मोटरसाइकिल के इस सवार का इस कदर घायल होना.

यह सब समझ में आने के साथ ही मधु को यह भी एहसास हुआ कि वह युवक उसे ही इस हादसे का जिम्मेदार समझ रहा है. वह इस बात से अनजान है कि मधु की गाड़ी तो सब से पीछे थी.

मधु का सर्वांग भय से कांप उठा. फिर भी अपने भय पर काबू पाते हुए वह उस युवक से बोली, ‘‘देखिए, आप गलत समझ रहे हैं. मैं तो अपनी…’’

वह युवक दर्द से कराहते हुए जोर से चिल्लाया, ‘‘गलत मैं नहीं, तुम हो, तुम…यह कोई तरीका है गाय को खिलाने का…’’ इतना कह युवक ने अपनी खून से भीगी कमीज की जेब से अपना सैलफोन निकाला. मधु को लगा कि वह शायद पुलिस को बुलाने की फिराक में है. उस की आंखों के आगे अपने बौस का चेहरा घूम गया, जिस से उसे किसी तरह की मदद की कोई उम्मीद नहीं थी. उस की आंखों के आगे अपने नन्हे  बच्चों के चेहरे घूम गए, जो उस के थोड़ी भी देर करने पर डरेडरे एकदूसरे का हाथ थामे सड़क पर नजर गड़ाए स्कूल के गेट के पास उस के इंतजार में खडे़ रहते थे.

मधु ने हथियार डाल दिए. उस घायल युवक की नजरों से बचती वह भारी कदमों से अपनी गाड़ी तक पहुंची… कांपते हाथों से गाड़ी स्टार्ट की और अपने रास्ते पर चल दी. लेकिन जातेजाते भी वह यही सोच रही थी कि कोई भला इनसान उस व्यक्ति की मदद के लिए रुक जाए.

आफिस पहुंचते ही बौस ने उसे जलती आंखों से देख कर व्यंग्य बाण छोड़ा, ‘‘आ गईं हर हाइनेस, बड़ी मेहरबानी की आज आप ने हम पर, इतनी जल्दी पहुंच कर. अब जरा पानी पी कर मेरे डाक्यूमेंट्स तैयार कर दें, हमें मीटिंग में पहुंचने के लिए तुरंत निकलना है.’’

मधु अपनी अस्तव्यस्त सांसों के बीच अपने मन के भाव दबाए मीटिंग की तैयारी में जुट गई. सारा दिन दफ्तर के कामों की भागदौड़ में कैसे और कब बीत गया, पता ही नहीं चला. शाम को वक्त पर काम निबटा कर वह बच्चों के स्कूल पहुंची. उस का मन कर रहा था कि आज वह कहीं और न जा कर सीधी घर पहुंच जाए. पर दोनों बच्चों ने बाजार से अपनीअपनी खरीदारी की लिस्ट पहले से ही बना रखी थी.

हार कर मधु ने गाड़ी बाजार की तरफ मोड़ दी. तभी रोहन ने कागज में लिपटे आटे के पेड़े को हाथ में ले कर पूछा, ‘‘ममा, यह क्या है?’’

मधु चौंक कर बोली, ‘‘ओह, यह यहीं रह गया…यह आटे का पेड़ा है बेटा, तुम्हारी दादी ने कहा था कि सुबह इसे गाय को खिला देना.’’

‘‘तो फिर आप ने अभी तक इसे गाय को खिलाया क्यों नहीं?’’ स्वाति ने पूछा.

‘‘वह, बस ऐसे ही, कोई गाय दिखी ही नहीं…’’ मधु ने बात को टालते हुए कहा.

तभी गाड़ी एक स्पीड बे्रकर से टकरा कर जोर से उछल गई तो रोहन चिल्लाया, ‘‘ममा, क्या कर रही हैं आप?’’

‘‘ममा, गाड़ी ध्यान से चलाइए,’’ स्वाति बोली.

‘‘सौरी बेटा,’’ मधु के स्वर में बेबसी थी. वह चौकन्नी हो कर गाड़ी चलाने लगी. बाजार का सारा काम निबटाने के बाद उस ने बच्चों के लिए बर्गर पैक करवा लिए. घर जा कर खाना बनाने की हिम्मत उस में नहीं बची थी. घर पहुंच कर उस ने बच्चों को नहाने के लिए भेजा और खुद सुबह की तैयारी में जुट गई.

बच्चों को खिलापिला कर मधु ने उन का होमवर्क जैसेतैसे पूरा कराया और फिर खुद दर्द की एक गोली और एक कप गरम दूध ले कर बिस्तर पर निढाल हो गिर पड़ी तो उस का सारा बदन दर्द से टूट रहा था और आंखें आंसुओं से तरबतर थीं.

रोहन और स्वाति अपनी मां का यह हाल देख कर दंग रह गए. ऐसे तो उन्होंने पहले कभी अपनी मां को नहीं देखा था. दोनों बच्चे मां के पास सिमट आए.

‘‘ममा, क्या हुआ? आप रो क्यों रही हैं?’’ रोहन बोला.

‘‘ममा, क्या बात हुई है? क्या आप मुझे नहीं बताओगे?’’ स्वाति ने पूछा.

मधु को लगा कि कोई तो उस का अपना है, जिस से वह अपने मन की बात कह सकती है. अपनी सिसकियों पर जैसेतैसे नियंत्रण कर उस ने रुंधे कंठ से बच्चों को सुबह की दुर्घटना के बारे मेें संक्षेप में बता दिया.

‘‘कितनी बेवकूफ औरत थी वह, उसे गाय को ऐसे खिलाना चाहिए था क्या?’’ रोहन बोला.

‘‘हो सकता है बेटा, उसे भी उस की सास ने ऐसा करने को कहा हो जैसे तुम्हारी दादी ने मुझ से कहा था,’’ मधु ने फीकी हंसी के साथ कहा. वह बच्चों का मन उस घटना की गंभीरता से हटाना चाहती थी ताकि जिस डर और दहशत से वह स्वयं अभी तक कांप रही है, उस का असर बच्चों के मासूम मन पर न पडे़.

‘‘ममा, आप उस आदमी को ऐसी हालत में छोड़ कर चली कैसे गईं? आप कम से कम उसे अस्पताल तो पहुंचा देतीं और फिर आफिस चली जातीं,’’ रोहन के स्वर में हैरानी थी.

‘‘बेटा, मैं अकेली औरत भला क्या करती? दूसरा कोई तो रुक तक नहीं रहा था,’’ मधु ने अपनी सफाई देनी चाही.

‘‘क्या ममा, वैसे तो आप मुझे आदमीऔरत की बराबरी की बातें समझाते नहीं थकतीं लेकिन जब कुछ करने की बात आई तो आप अपने को औरत होने की दुहाई देने लगीं? आप की इस लापरवाही से क्या पता अब तक वह युवक मर भी गया हो,’’ स्वाति ने कहा.

अब मधु को एहसास हो चला था कि उस की बेटी बड़ी हो गई है.

‘‘ममा, आज की इस घटना को भूल कर प्लीज, आप अब लाइट बंद कीजिए और सो जाइए. सुबह जल्दी उठना है,’’ स्वाति ने कहा तो मधु हड़बड़ा कर उठ बैठी और कमरे की बत्ती बंद कर खुद बाथरूम में मुंह धोने चली गई.

दोनों बच्चे अपनेअपने बेड पर सो गए. मधु ने बाथरूम का दरवाजा बंद कर अपना चेहरा जब आईने में देखा तो उस पर सवालिया निशान पड़ रहे थे. उसे लगा, उस का ही नहीं यहां हर औरत का चेहरा एक सवालिया निशान है. औरत चाहे खुद को कितनी भी सबल समझे, पढ़लिख जाए, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो जाए पर रहती है वह औरत ही. दोहरीतिहरी जिम्मेदारियों के बोझ तले दबी, बेसहारा…औरत कुछ भी कर ले, कहीं भी पहुंच जाए, रहेगी तो औरत ही न. फिर पुरुषों से मुकाबले और समानता का दंभ और पाखंड क्यों?

मधु को लगा कि स्त्री, पुरुष की हथेली पर रखा वह कोमल फूल है जिसे पुरुष जब चाहे सहलाए और जब चाहे मसल दे. स्त्री के जन्मजात गुणों में उस की कोमलता, संवेदनशीलता, शारीरिक दुर्बलता ही तो उस के सब से बडे़ शत्रु हैं. इन से निजात पाने के लिए तो उसे अपने स्त्रीत्व का ही त्याग करना होगा.

मधु अब तक शरीर और मन दोनों से बुरी तरह थक चुकी थी. उसे लगा, आज तक वह अपने बच्चों को जो स्त्रीपुरुष की समानता के सिद्धांत समझाती आई है वह वास्तव में नितांत खोखले और बेबुनियाद हैं. उसे अपनी बेटी को इन गलतफहमियों से दूर ही रखना होगा और स्त्री हो कर अपनी सारी कमियों और कमजोरियों को स्वीकार करते हुए समाज में अपनी जगह बनाने के लिए सक्षम बनाना होगा. यह काम मुश्किल जरूर है, पर नामुमकिन नहीं.

रात बहुत हो चुकी थी. दोनों बच्चे गहरी नींद में सो रहे थे. मधु ने एकएक कर दोनों बच्चों का माथा सहलाया. स्वाति को प्यार करते हुए न जाने क्यों मधु की आंखों में पहली बार गर्व का स्थान नमी ने ले लिया. उस ने एक बार फिर झुक कर अपनी मासूम बेटी का माथा चूमा और फिर औरत की रचना कर उसे सृष्टि की जननी का महान दर्जा देने वाले को धन्यवाद देते हुए व्यंग्य से मुसकरा दी. अब उस की पलकें नींद से भारी हो रही थीं और उस के अवचेतन मन में एक नई सुबह का खौफ था, जब उसे उठ कर नए सिरे से संघर्ष करना था और नई तरह की स्थितियों से जूझते हुए स्वयं को हर पग पर चुनौतियों का सामना करना था.

Romantic Story: प्यार एक एहसास

Romantic Story: पिता की 13वीं से लौटी ही थी सीमा. 15 दिन के लंबे अंतराल के बाद उस ने लैपटौप खोल कर फेसबुक को लौग इन किया. फ्रैंड रिक्वैस्ट पर क्लिक करते ही जो नाम उभर कर आया उसे देख कर बुरी तरह चौंक गई.

‘‘अरे, यह तो शैलेश है,’’ उस के मुंह से बेसाख्ता निकल गया. समय के इतने लंबे अंतराल ने उस की याद पर धूल की मोटी चादर बिछा दी थी. लैपटौप के सामने बैठेबैठे ही सीमा की आंखों के आगे शैलेश के साथ बिताए दिन परतदरपरत खुलते चले गए.

दोनों ही दिल्ली के एक कालेज में स्नातक की पढ़ाई कर रहे थे. शैलेश पढ़ने में अव्वल था. वह बहुत अच्छा गायक भी था. कालेज के हर सांस्कृतिक कार्यक्रम में वह बढ़चढ़ कर भाग लेता था. सीमा की आवाज भी बहुत अच्छी थी. दोनों कई बार डुएट भी गाते थे, इसलिए अकसर दोनों का कक्षा के बाहर मिलना हो जाता था.

एक बार सीमा को बुखार आ गया. वह 10 दिन कालेज नहीं आई तो शैलेश पता पूछता हुआ उस के घर उस का हालचाल पूछने आ गया. परीक्षा बहुत करीब थी, इसलिए उस को अपने नोट्स दे कर उस की परीक्षा की तैयारी करने में मदद की. सीमा ने पाया कि वह एक बहुत अच्छा इनसान भी है. धीरेधीरे उन की नजदीकियां बढ़ने लगीं. कालेज में खाली

समय में दोनों साथसाथ दिखाई देने लगे. दोनों को ही एकदूसरे का साथ अच्छा लगने लगा था. 1 भी दिन नहीं मिलते तो बेचैन हो जाते. दोनों के हावभाव से आपस में मूक प्रेमनिवेदन हो चुका था. इस की कालेज में भी चर्चा होने लगी.

यह किशोरवय उम्र ही ऐसी है, जब कोई प्रशंसनीय दृष्टि से निहारते हुए अपनी मूक भाषा में प्रेमनिवेदन करता है, तो दिल में अवर्णनीय मीठा सा एहसास होता है, जिस से चेहरे पर एक अलग सा नूर झलकने लगता है. सारी दुनिया बड़ी खूबसूरत लगने लगती है. चिलचिलाती गरमी की दुपहरी में भी पेड़ के नीचे बैठ कर उस से बातें करना चांदनी रात का एहसास देता है.

लोग उन्हें अजीब नजरों से देख रहे हैं, इस की ओर से भी वे बेपरवाह होते हैं. जब खुली आंखों से भविष्य के सपने तो बुनते हैं, लेकिन पूरे होने या न होने की चिंता नहीं होती. एकदूसरे की पसंदनापसंद का बहुत ध्यान रखा जाता है. बारिश के मौसम में भीग कर गुनगुनाते हुए नाचने का मन करता है. दोनों की यह स्थिति थी.

पढ़ाई पूरी होते ही शैलेश अपने घर बनारस चला गया, यह वादा कर के कि वह बराबर उस से पत्र द्वारा संपर्क में रहेगा. साल भर पत्रों का आदानप्रदान चला, फिर उस के पत्र आने बंद हो गए. सीमा ने कई पत्र डाले, लेकिन उत्तर नहीं आया. उस जमाने में न तो मोबाइल थे न ही इंटरनैट. धीरेधीरे सीमा ने परिस्थितियों से समझौता कर लिया और कर भी क्या सकती थी?

सीमा पढ़ीलिखी थी तथा आधुनिक परिवार से थी. शुरू से ही उस की आदत रही थी कि वह किसी भी रिश्ते में एकतरफा चाहत कभी नहीं रखती. जब कभी उसे एहसास होता कि उस का किसी के जीवन में अस्तित्व नहीं रह गया है तो स्वयं भी उस को अपने दिल से निकाल देती थी. इसी कारण धीरेधीरे उस के मनमस्तिष्क से  शैलेश निकलता चला गया. सिर्फ उस का नाम उस के जेहन में रह गया था. जब भी ‘वह’ नाम सुनती तो एक धुंधला सा चेहरा उस की आंखों के सामने तैर जाता था, इस से अधिक और कुछ नहीं.

समय निर्बाध गति से बीतता गया. उस का विवाह हो गया और 2 प्यारेप्यारे बच्चों की मां भी बन गई. पति सुनील अच्छा था, लेकिन उस से मानसिक सुख उसे कभी नहीं मिला. वह अपने व्यापार में इतना व्यस्त रहता कि सीमा के लिए उस के पास समय ही नहीं था. वह पैसे से ही उसे खुश रखना चाहता था.

15 साल के अंतराल पर फेसबुक पर शैलेश से संपर्क होने पर सीमा के मन में उथलपुथल मच गई और अंत में वर्तमान परिस्थितियां देखते हुए रिक्वैस्ट ऐक्सैप्ट न करने में ही भलाई लगी.

अभी इस बात को 4 दिन ही बीते होंगे कि  उस का मैसेज आ गया. किसी ने सच ही कहा है कि कोई अगर किसी को शिद्दत से चाहे तो सारी कायनात उन्हें मिलाने की साजिश करने लगती है और ऐसा ही हुआ. इस बार वह अपने को रोक नहीं पाई. मन में उस के बारे में जानने की उत्सुकता जागी. मैसेज का सिलसिला चलने लगा, जिस से पता लगा कि वह पुणे में अपने परिवार के साथ रहता है. फिर मोबाइल नंबरों का आदानप्रदान हुआ.

इस के बाद प्राय: बात होने लगी. उन का मूक प्रेम मुखर हो उठा था. पहली बार शैलेश की आवाज फोन पर सुन कर कि कैसी हो नवयौवना सी उस के दिल की स्थिति हो गई थी. उस का कंठ भावातिरेक से अवरुद्ध हो गया था.

उस ने सकुचाते हुए कहा, ‘‘अच्छी हूं. तुम्हें मैं अभी तक याद हूं?’’

‘‘मैं भूला ही कब था,’’ जब उस ने प्रत्युत्तर में कहा तो, उस के दिल की धड़कनें बढ़ गईं.

उस ने पूछा, ‘‘फिर पत्र लिखना क्यों छोड़ दिया?’’

‘‘तुम्हारा एक पत्र मां के हाथ लग गया था, तो उन्होंने भविष्य में

तुम्हारामेरा संपर्क में रहने का दरवाजा ही बंद कर दिया और मुझे अपना वास्ता दे दिया था. उन का इकलौता बेटा था, क्या करता.’’

उस ने सीमा से कभी भविष्य में साथ रहने का वादा तो किया नहीं था, इसलिए वह शिकायत भी करती तो क्या करती. एक ऐसा व्यक्ति जिस ने अपने प्रेम को भाषा के द्वारा कभी अभिव्यक्त नहीं किया था, उस का उसे शब्दों का जामा पहनाना उस के लिए किसी सुखद सपने का वास्तविकता में परिणत होने से कम नहीं था. यदि वह उस से बात नहीं करती तो इतनी मोहक बातों से वंचित रह जाती.

समय का अंतराल परिस्थितियां बदल देता है, शारीरिक परिवर्तन करता है, लेकिन मन अछूता ही रह जाता है. कहते हैं हर इनसान के अंदर बचपना होता है, जो किसी भी उम्र में उचित समय देख कर बाहर आ जाता है.

उन की बातें दोस्ती की परिधि में तो कतई नहीं थीं. हां मर्यादा का भी उल्लंघन कभी नहीं किया. शैलेश की बातें उसे बहुत रोमांचित करती थीं. बातों से लगा ही नहीं कि वे इतने सालों बाद मिले हैं. फोन से बातें करते हुए उन्होंने उन पुराने दिनों को याद कर के भरपूर जीया. कुछ शैलेश ने याद दिलाईं जो वह भूल गई थी, कुछ उस ने याद दिलाई. ऐसे लग रहा था जैसेकि वे उन दिनों को दोबारा जी रहे हैं.

15 सालों में किस के साथ क्या हुआ वह भी शेयर किया. आरंभ में इस तरह बात करना उसे अटपटा अवश्य लगता था, संस्कारगत थोड़ा अपराधबोध भी होता था और यह सोच कर भी परेशान होती थी कि इस तरह कितने दिन रिश्ता निभेगा.

इसी ऊहापोह में 5-6 महीने बीत गए. दोनों ही चाहते थे कि यह रिश्ता बोझ न बन जाए. यह तो निश्चित हो गया था कि आग लगी थी दोनों तरफ बराबर. पहले यह आग तपिश देती थी, लेकिन धीरेधीरे यही आग मन को ठंडक तथा सुकून देने लगी. उन की रस भरी बातें उन दोनों के ही मन को गुदगुदा जाती थीं.

एक बार शैलेश ने एक गाने की लाइन बोली, ‘‘तुम होतीं तो ऐसा होता, तुम यह कहतीं…’’

उस की बात काटते हुए सीमा बोली, ‘‘और तुम होते तो कैसा होता…’’

कभी सीमा चुटकी लेती, ‘‘चलो भाग चलते हैं…’’

शैलेश कहता, ‘‘भाग कर जाएंगे कहां?’’

एक दिन शैलेश ने सीमा को बताया कि औफिस के काम से वह बहुत जल्दी दिल्ली आने वाला है. आएगा तो वह उस से और उस के परिवार से अवश्य मिलेगा. यह सुन कर उस का मनमयूर नाच उठा. फिर कड़वी सचाई से रूबरू होते ही सोच में पड़ गई कि अब सीमा किसी और की हो चुकी है.

क्या इस स्थिति में उस का शैलेश से मिलना उचित होगा? फिर अपने सवाल का उत्तर देते हुए बुदबुदाई कि ऊंह, तो क्या हुआ? समय बहुत बदल गया है, एक दोस्त की तरह मिलने में बुराई ही क्या है… सुनील की परवाह तो मैं तब करूं जब वह भी मेरी परवाह करता हो. खुश रहने के लिए मुझ भी तो कोई सहारा चाहिए. देखूं तो सही इतने सालों में उस में कितना बदलाव आया है. अब वह शैलेश के आने की सूचना की प्रतीक्षा करने लगी थी.’’

अंत में वह दिन भी आ पहुंचा, जिस का वह बेसब्री से इंतजार कर रही थी. सुनील बिजनैस टूअर पर गया हुआ था. दोनों बच्चे स्कूल गए हुए थे. उन्होंने कनाट प्लेस के कौफी हाउस में मिलने का समय निश्चित किया. वह शैलेश से अकेले घर में मिल कर कोई भी मौका ऐसा नहीं आने देना चाहती थी कि बाद में उसे आत्मग्लानि हो.

उसे लग रहा था कि इतने दिन बाद उस को देख कर कहीं वह भावनाओं में बह कर कोई गलत कदम न उठा ले, जिस की उस के संस्कार उसे आज्ञा नहीं देते थे. शैलेश को देख कर उसे लगा ही नहीं कि वह उस से इतने लंबे अंतराल के बाद मिल रही है. वह बिलकुल नहीं बदला था. बस थोड़ी सी बालों में सफेदी झलक रही थी. आज भी वह उसे बहुत अपना सा लग रहा था. बातों का सिलसिला इतना लंबा चला कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था.

इधरउधर की बातें करते हुए जब शैलेश ने सीमा से कहा कि उसे अपने वैवाहिक जीवन से कोई शिकायत नहीं है, लेकिन उस की जगह कोई नहीं ले सकता तो उसे अपनेआप पर बहुत गर्व हुआ.

अचानक शैलेश को कुछ याद आया. उस ने पूछा, ‘‘अरे हां, तुम्हारे गाने के शौक का क्या हाल है?’’

बात बीच में काटते हुए सीमा ने उत्तर दिया, ‘‘क्या हाल होगा. मुझे समय ही नहीं मिलता. सुनील तो बिजनैस टूअर पर रहते हैं और न ही उन को इस सब का शौक है.’’

‘‘अरे, उन को शौक नहीं है तो क्या हुआ, तुम इतनी आश्रित क्यों हो उन पर? कोशिश और लगन से क्या नहीं हो सकता? बच्चों के स्कूल जाने के बाद समय तो निकाला जा सकता है.’’

सीमा को लगा काश, सुनील भी उस को इसी तरह प्रोत्साहित करता. उस ने तो कभी उस की आवाज की प्रशंसा भी नहीं की. खैर, देर आए दुरुस्त आए. उस ने मन ही मन निश्चय किया कि वह अपनी इस कला को लोगों के सामने उजागर करेगी.

उस को चुप देख कर शैलेश ने कहा, ‘‘चलो, हम दोनों मिल कर एक अलबम तैयार करते हैं. सहकर्मियों की तरह तो मिल सकते हैं न. इस विषय पर फोन पर बात करेंगे.’’

सीमा को लगा उस के अकेलेपन की समस्या का हल मिल गया. दिल से वह शैलेश के सामने नतमस्तक हो गई थी.

फिर से बिछड़ने का समय आ गया था. लेकिन इस बार शरीर अलग हुए थे केवल, कभी न बिछड़ने वाला एक खूबसूरत एहसास हमेशा के लिए उस के पास रह गया था, जिस ने उस की जिंदगी को इंद्रधनुषी रंग दे कर नई दिशा दे दी थी. इस एहसास के सहारे कि वह इतने सालों बाद भी शैलेश की यादों में बसी है. वह शैलेश का सामीप्य हर समय महसूस करती थी. दूरी अब बेमानी हो गई थी.

एक कवि ने प्रेम की बहुत अच्छी परिभाषा देते हुए कहा है कि सिर्फ एहसास है यह रूह से महसूस करो. कहते हैं प्यार कभी दोस्ती में नहीं बदल सकता और यदि बदलता है तो उस से अच्छी दोस्ती नहीं हो सकती. इस दोस्ती का अलग ही आनंद है. सीमा को बहुत ही प्यारा दोस्त मिला.

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Hindi Story: नवंबर का महीना, सर्द हवा, एक मोटी किताब को सीने से चिपका, हलके हरे ओवरकोट में तुम सीढि़यों से उतर रही थी. इधरउधर नजर दौड़ाई, पर जब कोई नहीं दिखा तो मजबूरन तुम ने पूछा था, ‘कौफी पीने चलें?’

तुम्हें इतना पता था कि मैं तुम्हारी क्लास में ही पढ़ता हूं और मुझे पता था कि तुम्हारा नाम सोनाली राय है. तुम बंगाल के एक जानेमाने वकील अनिरुद्ध राय की इकलौती बेटी हो. तुम लाल रंग की स्कूटी से कालेज आती हो और क्लास के अमीरजादे भी तुम पर उतने ही मरते हैं, जितने हम जैसे मिडल क्लास के लड़के जिन्हें सिगरेट, शराब, लड़की और पार्टी से दूर रहने की नसीहत हर महीने दी जाती है. उन का एकमात्र सपना होता है, मांबाप के सपनों को पूरा करना. ये तुम जैसी युवतियों से बात करने से इसलिए हिचकते हैं, क्योंकि हायहैलो के बाद की अंगरेजी बोलना इन्हें भारी पड़ता है.

तुम रास्ते भर बोलती रही और मैं सुनता रहा. तुम ने मौका ही नहीं दिया मुझे बोलने का. तुम मिश्रा सर, नसरीन मैम की बकबक, वीणा मैम के समाचार पढ़ने जैसा लैक्चर और न जाने कितनी कहानियां तेजी से सुना गई थीं और मैं बस मुसकराते हुए तुम्हारे चेहरे पर आए हर भाव को पढ़ रहा था. तुम्हारे होंठों के ऊपर काला तिल था, जिस पर मैं कुछ कविताएं सोच रहा था, तब तक तुम्हारी कौफी और मेरी चाय आ गई.

तुम ने पूछा था, ‘तुम कौफी क्यों नहीं पीते?’

मैं ने मुसकराते हुए कहा, ‘चाय की आदत कभी छूटी नहीं.’ तुम यह सुन कर काफी जोर से हंसी थी.

‘शायरी भी करते हो.’ मैं झेप गया.

तुम इतने समय से कुछ भूल रही थी, मेरा नाम पूछना, क्योंकि मैं तुम्हारी आवाज में अपने नाम को सुनना चाह रहा था, तुम ने तब भी नहीं पूछा था.

हम दोनों उठ कर चल दिए थे, कैंपस से विश्वविद्यालय मैट्रो स्टेशन की ओर…

बात करते हुए तुम ने कहा था, ‘सज्जाद, पता है, मैं अकसर सपना देखती थी कि मैं फोटोग्राफर बनूंगी. पूरी दुनिया का चक्कर लगाऊंगी और सारे खूबसूरत नजारे अपने कैमरे में कैद करूंगी, लेकिन आज मैं मील, मार्क्स और लेनिन की किताबों में उलझी हुई हूं. कभी जी करता है तो ब्रेख्त पढ़ लेती हूं, तो कभी कामू को…’

हम अकसर जो चाहते हैं, वैसा नहीं होता है और शायद अनिश्चितता ही जीवन को खूबसूरत बनाती है, अकसर सबकुछ पहले से तय हो तो जिंदगी से रोमांच खत्म हो जाएगा. हम उम्र से पहले बूढ़े हो जाएंगे, जो बस यही सोचते हैं, उन के लिए मरना ही एकमात्र लक्ष्य है.

‘सज्जाद, तुम ने क्या पौलिटिकल साइंस अपनी मरजी से चुना,’ तुम ने पूछा था.

‘हां,’ मैं ने कहा. नहीं कहने का कोई मतलब नहीं था उस समय. मैं खुद को बताने से ज्यादा, तुम्हें जानना चाह रहा था.

‘और हां, मेरा नाम सज्जाद नहीं, आदित्य है, आदित्य यादव,’ मैं ने जोर देते हुए कहा.

‘ओह, तो तुम लालू यादव के परिवार से तो नहीं हो?’

‘बिलकुल नहीं, पता नहीं क्यों बिहार का हर यादव लालू यादव का रिश्तेदार लगता है लोगों को.’

कुछ पल के लिए दोनों चुप हो गए. कई कदम चल चुके थे. मैं ने चुप्पी तोड़ते हुए पूछा, ‘वैसे यह सज्जाद है कौन?’

‘कोई नहीं, बस गलती से बोल गई थी.’

तुम्हारे चेहरे के भाव बदल गए थे.

‘कहां रहते हो तुम?’

हम बात करतेकरते मानसरोवर होस्टल आ गए थे, मैं ने इशारा किया, ‘यहीं.’

मैट्रो स्टेशन पास ही था, तुम से विदा लेने के लिए हाथ बढ़ाया.

मैं ने पूछा, ‘यह निशान कैसा?’

‘अरे, वह कल खाना बनाने वाली नहीं आई तो खुद रोटी बनाते समय हाथ जल गया. अभी आदत नहीं है न.’ मैं ने हाथ मिलाया. ओवरकोट की गरमी अब भी उस के हाथों में थी.

इस खूबसूरत एहसास के साथ मैं सो नहीं पाया था, सुबह जल्दी उठ कर तुम से ढेर सारी बातें करनी थी.

मैं कालेज गया था अगले दिन. कालेज में इस बात की चर्चा जरूर होने वाली थी, क्योंकि हम दोनों को साथ घूमते क्लास के लड़केलड़कियों ने देख लिया था. उस दिन तुम नहीं आई थी. मुझे हर सैकंड बोझिल लग रहा था. तुम ने कालेज छोड़ दिया था.

2 वर्षों बाद दिखी थी, उसी नवंबर महीने में कनाट प्लेस के इंडियन कौफी हाउस की सीढि़यों से उतरते हुए.

मेरा मन जब भी उदास होता है, मैं निकल पड़ता था, इंडियन कौफी हाउस. दिल्ली की शोरभरी जगहों में एक यही जगह थी जहां मैं सुकून से उलझनों को जी सकता था और कल्पनाओं को नई उड़ान देता.

हलकी मुसकराहट के साथ तुम मिली थीं उस दिन, कोई तुम्हारे साथ था. तुम पहले जैसे चहक नहीं रही थीं. एक चुप्पी थी तुम्हारे चेहरे पर.

तुम्हारा इस तरह मिलना मुझे परेशान कर रहा था. तुम बस, उदास मुसकराहट के साथ मिलोगी और बिना कुछ बात किए सीढि़यों से उतर जाओगी, यह बात मुझे अंदर तक कचोट रही थी. इसी उधेड़बुन में सीढि़यां चढ़ते मुझे एक पर्स मिला. खोल कर देखा तो किसी अंजुमन शेख का था, बुटीक सैंटर, साउथ ऐक्सटेंशन का पता था, दिए हुए नंबर पर कौल किया तो स्विच औफ था.

तुम्हारे बारे में सोचतेसोचते रात के 8 बज गए थे. अचानक याद आया कि किसी का पर्स मेरे पास है, जिस में 12 सौ रुपए और डैबिट कार्ड है. मैं ने फिर एक बार कौल लगाई, इस बार रिंग जा रही थी.

‘हैलो,’ एक खूबसूरत आवाज सुनाई दी.

‘जी, आप का पर्स मुझे इंडियन कौफी हाउस की सीढि़यों पर गिरा मिला. आप बताएं इसे कहां आ कर लौटा दूं.’

‘आदित्य बोल रहे हो,’ उधर से आवाज आई.

‘सोनाली तुम,’ मैं आश्चर्यचकित था.

‘कैसी हो तुम और यह अंजुमन शेख का कार्ड? तुम हो कहां? तुम ने कालेज क्यों छोड़ दिया?’ मैं उस से सारे सवालों का जवाब जान लेना चाहता था, क्योंकि मुझे कल पर भरोसा नहीं था.

तुम ने बस इतना कहा था, ‘कल कौफी हाउस में मिलो 11 बजे.’

अगले दिन मैं ने कौफी हाउस में तुम्हें आते हुए देखा. 2 वर्ष पहले उस हरे ओवरकोट में सोनाली मिली थी, सपनों की दुनिया में जीने वाली सोनाली, बेरंग जिंदगी में रंग भरने वाली सोनाली. पर 2 वर्षों में तुम बदल गई थीं, तुम सोनाली नहीं थी. तुम एक हताश, उदास, सहमी अंजुमन शेख थी, जिस ने 2 वर्षों पहले घर छोड़ कर अपने प्रेमी सज्जाद से शादी कर ली थी. वही सज्जाद जिस के बारे में तुम ने मुझ से छिपाया था.

जिस से प्रेम करो, उस के साथ यदि जिंदगी का हर पल जीने को मिले, तो इस से खूबसूरत और क्या हो सकता है. इस गैरमजहबी प्रेमविवाह में निश्चित ही तुम ने बहुतकुछ झेला होगा पर प्रेम सारे जख्मों को भर देता है, लेकिन तुम्हारे और सज्जाद के बीच आए रिश्तों की कड़वाहट वक्त के साथ बदतर हो रही थी.

शादी के बाद प्रेम ने बंधन का रूप ले लिया था. आधिपत्य के बोझ तले रिश्ते बोझिल हो रहे थे. तुम तो दुनिया का चक्कर लगाने वाली युवती थी, तुम रिश्तों को जीना चाहती थी. उन्हें ढोना नहीं चाहती थी. जिसे तुम प्रेम समझ रही थी, वह घुटन बन गया था.

तुम सबकुछ कहती चली गई थीं और मैं तुम्हारे चेहरे पर उठते हर भाव को वैसे ही पढ़ना चाह रहा था, जैसे पहली बार पढ़ा था.

तुम ने सज्जाद के लिए अपना नाम बदला था, अपनी कल्पनाएं बदलीं. तुम ने खुद को बदल दिया था. प्रेम में खुद को बदलना सही है या गलत, नहीं मालूम, पर खुद को बदल कर तुम ने प्रेम भी तो नहीं पाया था.

वक्त हो गया था फिर एक बार तुम्हारे जाने का, ‘सज्जाद घर पहुंचने वाला होगा, तुम ने कहा था.’

तुम ने पर्स लिया और हाथ आगे बढ़ा कर बाय कहा. मैं ने जल्दी से तुम्हारा हाथ थामा, वही 2 वर्षों पुराने ओवरकोट की गरमी महसूस करने को. तुम्हारे हाथ के पुराने जख्म तो भर गए थे, लेकिन नए जख्मों ने जगह ले ली थी.

इस बीच, हमारी फोन पर बातें होती रहीं, राजीव चौक और नेहरू प्लेस पर 2 बार मुलाकातें हुईं.

सबकुछ सहज था तुम्हारी जिंदगी में, लेकिन मैं असहज था. इस बीच मैं लिखता भी रहा था, तुम्हें कविताएं भी भेजता था, पढ़ कर तुम रोती थीं, कभी हंसती भी थीं.

एक दिन तुम्हारा मैसेज आया था, ‘मुझ से बात नहीं हो पाएगी अब.’

मैं ने एकदम कौलबैक किया, रा नंबर ब्लौक हो चुका था. तुम्हारा फेसबुक एकाउंट चैक किया तो वह डिलीट हो चुका था. मैं घबरा गया था, तुम्हारे साउथ ऐक्स वाले बुटीक पर फोन किया तो पता चला कि तुम एक हफ्ते से वहां नहीं गई हो. इसी बीच मेरा नया उपन्यास ‘नवंबर की डायरी’ बाजार में छप कर आ चुका था. मैं सभाओं और गोष्ठियों में जाने में व्यस्त हो गया, पर तुम्हारा खयाल मन में हमेशा बना रहा.

समय करवटें ले रहा था. सूरज रोज डूबता था, रोज उगता था. धीरेधीरे 1 साल गुजर गया. शाम के 7 बज रहे थे. मैं कमरे में अपनी नई कहानी ‘सोना’ के बारे में सोच रहा था.

तब तक दरवाजे की घंटी बजी.

दरवाजा खोला तो देखा कोई युवती मेरी ओर पीठ किए खड़ी है.

मैं ने कहा, ‘जी…’

वह जैसे ही मुड़ी, मैं आश्चर्यचकित रह गया. वह सोनाली थी.

हम दोनों गले लग गए. मैं ने सीने से लगाए हुए पूछा, ‘तुम्हें मेरा पता कैसे मिला?’

‘तुम्हारा उपन्यास पढ़ा, ‘नवंबर की डायरी’ उस के पीछे तुम्हारा नंबर और पता भी था.’

आदित्य तुम ने सही लिखा है इस उपन्यास में, ‘जिन रिश्तों में विश्वास की जगह  हो, उन का टूट जाना ही बेहतर है. मैं ने सज्जाद को तलाक दे दिया था. हमारी फेसबुक चैट सज्जाद ने पढ़ ली थी. फिर यहीं से बचे रिश्ते भी टूटते चले गए थे.

तुम मेरे अस्तव्यस्त घर को देख रही थी, अस्तव्यस्त सिर्फ घर ही नहीं था, मैं भी था. जिसे तुम्हें सजाना और संवारना था, पता नहीं तुम इस के लिए तैयार थीं या नहीं.

तभी तुम ने कहा, ‘ये किताबें इतनी बिखरी हुई क्यों हैं? मैं सजा दूं?’ मुसकरा दिया था मैं.

रात के 9 बज गए थे. हम दोनों किचन में डिनर तैयार कर रहे थे. तुम ने कहा कि खिड़की बंद कर दो, सर्द हवा आ रही है. मैं ने महसूस किया नवंबर का महीना आ चुका था.

Social Story: आखिर कब तक और क्यों

Social Story: ‘‘क्या बात है लक्ष्मी, आज तो बड़ी देर हो गई आने में?’’ सुधा ने खीज कर अपनी कामवाली से पूछा.

‘‘क्या बताऊं मेमसाहब आप को कि मुझे क्यों देरी हो गई आने में… आप तो अपने कामों में ही लगी रहती हैं. पता भी है मनोज साहब के घर में कैसी आफत आ गई है? उन की बेटी रिचा के साथ कुछ ऐसावैसा हो गया है… बड़ी शांत, बड़े अच्छे तौरतरीकों वाली है.’’

लक्ष्मी से रिचा के बारे में जान कर सुधा का मन खराब हो गया. बारबार उस का मासूम चेहरा उस के जेहन में उभर कर मन को बेधने लगा कि पता नहीं लड़की के साथ क्या हुआ? फिर भी अपनेआप पर काबू पाते हुए लक्ष्मी के धाराप्रवाह बोलने पर विराम लगाती हुई वह बोली, ‘‘अरे कुछ नहीं हुआ है. खेलते वक्त चोट लग गई होगी… दौड़ती भी तो कितनी तेज है,’’ कह कर सुधा ने लक्ष्मी को चुप करा दिया, पर उस के मन में शांति कहां थी…

कालेज से अवकाश प्राप्त कर लेने के बाद सुधा बिल्डिंग के बच्चों की मैथ्स और साइंस की कठिनाइयों को सुलझाने में मदद करती रही है. हिंदी में भी मदद कर उन्हें अचंभित कर देती है. किस के लिए कौन सी लाइन ठीक रहेगी. बच्चे ही नहीं उन के मातापिता भी उसी के निर्णय को मान्यता देते हैं. फिर रिचा तो उस की सब से होनहार विद्यार्थी है.

‘‘आंटी, मैं भी भैया लोगों की तरह कंप्यूटर इंजीनियर बनना चाहती हूं. उन की तरह आप मेरा मार्गदर्शन करेंगी न?’’

सुधा के हां कहते ही वह बच्चों की तरह उस के गले लग जाती थी. लक्ष्मी के जाते ही सारे कामों को जल्दी से निबटा कर वह अनामिका के पास गई. उस ने रिचा के बारे में जो कुछ भी बताया उसे सुन कर सुधा कांप उठी. कल सुबह रिचा अपने सहपाठियों के साथ पिकनिक मनाने गंगा पार गई थी. खानेपीने के बाद जब सभी गानेबजाने में लग गए तो वह गंगा किनारे घूमती हुई अपने साथियों से दूर निकल गई. बड़ी देर तक जब रिचा नहीं लौटी तो उस के साथी उसे ढूंढ़ने निकले. कुछ ही दूरी पर झाडि़यों की ओट में बेहोश रिचा को देख सभी के होश गुम हो गए. किसी तरह उसे नर्सिंगहोम में भरती करा कर उस के घर वालों को खबर की. घर वाले तुरंत नर्सिंगहोम पहुंचे.

अनामिका ने जो कुछ भी बताया उसे सुन कर सुधा स्तब्ध रह गई. अब वह असमंजस में थी कि वह रिचा को देखने जाए या नहीं. फिर अनमनी सी हो कर उस ने गाड़ी निकाली और नर्सिंगहोम चल पड़ी, जहां रिचा भरती थी. वहां पहुंच तो गई पर मारे आशंका के उस के कदम आगे बढ़ ही नहीं रहे थे. किसी तरह अपने पैरों को घिसटती हुई उस के वार्ड की ओर चल पड़ी. वहां पहुंचते ही रिचा के पिता से उस का सामना हुआ. इस हादसे ने रात भर में ही उन की उम्र को10 साल बढ़ा दिया था. उसे देखते ही वे रो पड़े तो सुधा भी अपने आंसुओं को नहीं रोक पाई. ऐसी घटनाएं पूरे परिवार को झुलसा देती हैं. बड़ी हिम्मत कर वह कमरे में अभी जा ही पाई थी कि रिचा की मां उस से लिपट कर बेतहासा रोने लगीं. पथराई आंखों से जैसे आंसू नहीं खून गिर रहा हो.

रिचा को नींद का इंजैक्शन दे कर सुला दिया गया था. उस के नुचे चेहरे को देखते ही सुधा ने आंखों से छलकते आंसुओं को पी लिया. फिर रिचा की मां अरुणा के हाथों को सहलाते हुए अपने धड़कते दिल पर काबू पाते हुए कल की दुर्घटना के बारे में पूछा, ‘‘क्या कहूं सुधा, कल घर से तो खुशीखुशी सभी के साथ निकली थी. हम ने भी नहीं रोका जब इतने बच्चे जा रहे हैं तो फिर डर किस बात का… गंगा के उस पार जाने की न जाने कब से उस की इच्छा थी. इतने बड़े सर्वनाश की कल्पना हम ने कभी नहीं की थी.’’

‘‘मैं अभी आई,’’ कह कर सुधा उस लेडी डाक्टर के पास गई, जो रिचा का इलाज कर रही थी. सुधा ने उन से आग्रह किया कि इस घटना की जानकारी वे किसी भी तरह मीडिया को न दें, क्योंकि इस से कुछ होगा नहीं, उलटे रिचा बदनाम हो जाएगी. फिर पुलिस के जो अधिकारी इस की घटना जांचपड़ताल कर रहे हैं, उन की जानकारी डाक्टर से लेते हुए सुधा उन से मिलने के लिए निकल गई. यह भी एक तरह से अच्छा संयोग रहा कि वे घर पर थे और उस से अच्छी तरह मिले. धैर्यपूर्वक उस की सारी बातें सुनीं वरना आज के समय में इतनी सज्जनता दुर्लभ है.

‘‘सर, हमारे समाज में बलात्कार पीडि़ता को बदनामी एवं जिल्लत की किनकिन गलियों से गुजरना पड़ता है, उस से तो आप वाकिफ ही होंगे… इतने बड़े शहर में किस की हैवानियत है यह, यह तो पता लगने से रहा… मान लीजिए अगर पता लग जाने पर अपराधी पकड़ा भी जाता है तो जरा सोचिए रिचा को क्या पहले वाला जीवन वापस मिल जाएगा? उसे जिल्लत और बदनामी के कटघरों में खड़ा कर के बारंबार मानसिक रूप से बलात्कार किया जाएगा, जो उस के जीवन को बद से बदतर कर देगा. कृपया इसे दुर्घटना का रूप दे कर इस केस को यहीं खारिज कर के उसे जीने का एक अवसर दीजिए.’’

सुधा की बातों की गहराई को समझते हुए पुलिस अधिकारी ने पूर्ण सहयोग का आश्वासन दिया. वहां से आश्वस्त हो कर सुधा फिर नर्सिंगहोम पहुंची और रिचा के परिवार से भी रोनाधोना बंद कर इस आघात से उबरने का आग्रह किया.

शायद रिचा को होश आ चुका था. सुधा की आवाज सुनते ही उस ने आंखें खोल दीं. किसी हलाल होते मेमने की तरह चीख कर वह सुधा से लिपट गई. सुधा ने किसी तरह स्वयं पर काबू पाते हुए रिचा को अपने सीने से लगा लिया. फिर उस की पीठ को सहलाते हुए कहा, ‘‘धैर्य रख मेरी बच्ची… जो हुआ उस से बुरा तो कुछ और हो ही नहीं सकता, लेकिन इस से जीवन समाप्त थोड़े हो जाता है? इस से उबरने के लिए तुम्हें बहुत बड़ी शक्ति की आवश्यकता है मेरी बच्ची… उसे यों बेहाल हो कर चीखने में जाया नहीं करना है… जितना रोओगी, चीखोगी, चिल्लाओगी उतना ही यह निर्दयी दुनिया तुम्हें रुलाएगी, व्यंग्यवाणों से तुझे बेध कर जीने नहीं देगी.’’

‘‘आंटी, मेरा मर जाना ठीक है… अब मैं किसी से भी नजरें नहीं मिला सकती… सारा दोष मेरा है. मैं गई ही क्यों? सभी मिल कर मुझ पर हसेंगे… मेरा शरीर इतना दूषित हो गया है कि इसे ढोते हुए मैं जिंदा नहीं रह सकती.’’

फिर चैकअप के लिए आई लेडी डाक्टर से गिड़गिड़ा कर कहने लगी, ‘‘जहर दे कर मुझे मार डालिए डाक्टर… इस गंदे शरीर के साथ मैं नहीं जी सकती. अगर आप ने मुझे मौत नहीं दी तो मैं इसे स्वयं समाप्त कर दूंगी,’’ रिचा पागल की तरह चीखती हुई बैड पर छटपटा रही थी.

‘‘ऐसा नहीं कहते… तुम ने बहुत बहादुरी से सामना किया है… मैं कहती हूं तुम्हें कुछ नहीं हुआ है,’’ डाक्टर की इस बात पर रिचा ने पथराई आंखों से उन्हें घूरा.बड़ी देर तक सुधा रिचा के पास बैठी उसे ऊंचनीच समझाते हुए दिलाशा देती रही लेकिन वह यों ही रोतीचिल्लाती रही. उसे नींद का इंजैक्शन दे कर सुलाना पड़ा. रिचा के सो जाने के बाद सुधा अरुण को हर तरह से समझाते हुए धैर्य से काम लेने को कहते हुए चली गई. किसी तरह ड्राइव कर के घर पहुंची. रास्ते भर वह रिचा के बारे में ही सोचती रही. घर पहुंचते ही वह सोफे पर ढेर हो गई. उस में इतनी भी ताकत नहीं थी कि वह अपने लिए कुछ कर सके.

रिचा के साथ घटी दुर्घटना ने उसे 5 दशक पीछे धकेल दिया. अतीत की सारी खिड़कियां1-1 कर खुलती चली गईं…

12 साल की अबोध सुधा के साथ कुछ ऐसा हुआ था कि वह तत्काल उम्र की अनगिनत दहलीजें फांद गई थी. कितनी उमंग एवं उत्साह के साथ वह अपनी मौसेरी बहन की शादी में गई थी. तब शादी की रस्मों में सारी रात गुजर जाती थी. उसे नींद आ रही थी तो उस की मां ने उसे कमरे में ले जा कर सुला दिया. अचानक नींद में ही उस का दम घुटने लगा तो उस की आंखें खुल गईं. अपने ऊपर किसी को देख उस ने चीखना चाहा पर चीख नहीं सकी. वह वहशी अपनी हथेली से उस के मुंह को दबा कर बड़ी निर्ममता से उसे क्षतविक्षत करता रहा.

अर्धबेहोशी की हालत में न जाने वह कितनी देर तक कराहती रही और फिर बेहोश हो गई. जब होश आया तो दर्द से सारा बदन टूट रहा था. बगल में बैठी मां पर उस की नजर पड़ी तो पिछले दिन आए उस तूफान को याद कर किसी तरह उठ कर मां से लिपट कर चीख पड़ी. मां ने उस के मुंह पर हाथ रख कर गले के अंदर ही उस की आवाज को रोक दिया और आंसुओं के समंदर को पीती रही. बेटी की बिदाई के बाद ही उस की मौसी उस के सर्वनाश की गाथा से अवगत हुई तो अपने माथे को पीट लिया. जब शक की उंगली उन की ननद के 18 वर्षीय बेटे की ओर उठी तो उन्होंने घबरा कर मां के पैर पकड़ लिए. उन्होंने भी मां को यही समझाया कि चुप रहना ही उस के भविष्य के लिए हितकर होगा.

हफ्ते भर बाद जब वह अपने घर लौटी तो बाबूजी के बारबार पूछने के बावजूद भी अपनी उदासी एवं डर का कारण उन्हें बताने का साहस नहीं कर सकी. हर पल नाचने, गाने, चहकने वाली सुधा कहीं खो गई थी. हमेशा डरीसहमी रहती थी.

आखिर उस की बड़ी बहन ने एक दिन पूछ ही लिया, ‘‘बताओ न मां, वहां सुधा के साथ हुआ क्या जो इस की ऐसी हालत हो गई है? आप हम से कुछ छिपा रही हैं?’’

सुधा उस समय बाथरूम में थी. अत: मां उस रात की हैवानियत की सारी व्यथा बताते हुए फूट पड़ी. बाहर का दरवाजा अंदर से बंद नहीं था. बाबूजी भैया के साथ बाजार से लौट आए थे. मां को इस का आभास तक नहीं हुआ. सारी वारदात से बाबूजी और भैया दोनों अवगत हो चुके थे और मारे क्रोध के दोनों लाल हो रहे थे. सब कुछ अपने तक छिपा कर रख लेने के लिए बाबूजी ने मां को बहुत धिक्कारा. सुधा बाथरूम से निकली तो बाबूजी ने उसे सीने से लगा लिया.

बलात्कार किसी एक के साथ होता है पर मानसिक रूप से इस जघन्य कुकृत्य का शिकार पूरा परिवार होता है. अपनी तेजस्विनी बेटी की बरबादी पर वे अंदर से टूट चुके थे, लेकिन उस के मनोबल को बनाए रखने का प्रयास करते रहे.

सुधा ने बाहर वालों से मिलना या कहीं जाना एकदम छोड़ दिया था. लेकिन पढ़ाई को अपना जनून बना लिया था. भौतिकशास्त्र में बीएसी औनर्स में टौप करने के 2 साल बाद एमएससी में जब उस ने टौप किया तो मारे खुशी के बाबूजी के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. 2 महीने बाद उसी यूनिवर्सिटी में लैक्चरर बन गई. सभी कुछ ठीक चल रहा था. लेकिन शादी से उस के इनकार ने बाबूजी को तोड़ दिया था. एक से बढ़ कर एक रिश्ते आ रहे थे, लेकिन सुधा शादी न करने के फैसले पर अटल रही. भैया और दीदी की शादी किसी तरह देख सकी अन्यथा किसी की बारात जाते देख कर उसे कंपकंपी होने लगती थी.

सुधा के लिए जैसा घरवर बाबूजी सोच रहे थे वे सारी बातें उन के परम दोस्त के बेटे रवि में थी. उस से शादी कर लेने में अपनी इच्छा जाहिर करते हुए वे गिड़गिड़ा उठे तो फिर सुधा मना नहीं कर सकी. खूब धूमधाम से उस की शादी हुई पर वह कई वर्षों बाद भी बच्चे का सुख रवि को दे सकी. वह तो रवि की महानता थी कि इतने दिनों तक उसे सहन करते रहे अन्यथा उन की जगह कोई और होता तो कब का खोटे सिक्के की तरह उसे मायके फेंक आया होता.

रवि के जरा सा स्पर्श करते ही मारे डर के उस का सारा बदन कांपने लगता था. उस की ऐसी हालत का सबब जब कहीं से भी नहीं जान सके तो मनोचिकित्सकों के पास उस का लंबा इलाज चला. तब कहीं जा कर वह सामान्य हो सकी थी. रवि कोई वेवकूफ नहीं थे जो कुछ नहीं समझते. बिना बताए ही उस के अतीत को वे जान चुके थे. यह बात और थी कि उन्होंने उस के जख्म को कुरेदने की कभी कोशिश नहीं की.

2 बेटों की मां बनी सुधा ने उन्हें इस तरह संस्कारित किया कि बड़े हो कर वे सदा ही मर्यादित रहे. अपने ढंग से उन की शादी की और समय के साथ 2 पोते एवं 2 पोतियों की दादी बनी.

जीवन से गुजरा वह दर्दनाक मोड़ भूले नहीं भूलता. अतीत भयावह समंदर में डूबतेउतराते वह 12 वर्षीय सुधा बन कर विलख उठी. मन ही मन उस ने एक निर्णय लिया, लेकिन आंसुओं को बहने दिया. दूसरे दिन रिचा की पसंद का खाना ले कर कुछ जल्दी ही नर्सिंगहोम जा पहुंची. समझाबुझा कर मनोज दंपती को घर भेज दिया. 2 दिन से वहीं बैठे बेटी की दशा देख कर पागल हो रहे थे. किसी से भी कुछ नहीं कहने को सुधा ने उन्हें हिदायत भी दे दी. फिर एक दृढ़ निश्चय के साथ रिचा के सिरहाने जा बैठी.

सुधा को देखते ही रिचा का प्रलाप शुरू हो गया, ‘‘अब मैं जीना नहीं चाहती. किसी को कैसे मुंह दिखाऊंगी?’’

सुधा ने उसे पुचकारते हुए कहा, ‘‘तुम्हारे साथ जो कुछ भी हुआ वह कोई नई बात नहीं है. सदियों से स्त्रियां पुरुषों की आदम भूख की शिकार होती रही हैं और होती रहेंगी. कोई स्त्री दावे से कह तो दे कि जिंदगी में वह कभी यौनिक छेड़छाड़ की शिकार नहीं हुई है. अगर कोई कहती है तो वह झूठ होगा. यह पुरुष नाम का भयानक जीव तो अपनी आंखों से ही बलात्कार कर देता है. आज तुम्हें मैं अपने जीवन के उस भयानक सत्य से अवगत कराने जा रही हूं, जिस से आज तक मेरा परिवार अनजान है, जिसे सुन कर शायद तुम्हारी जिजिविषा जाग उठे,’’ कहते हुए सुधा ने रिचा के समक्ष अपने काले अतीत को खोल दिया. रिचा अवाक टकटकी बांधे सुधा को निहारती रह गई. उस के चेहरे पर अनेक रंग बिखर गए, बोली, ‘‘तो क्या आंटी मैं पहले जैसा जी सकूंगी?’’

‘‘एकदम मेरी बच्ची… ऐसी घटनाओं से हमारे सारे धार्मिक ग्रंथ भरे पड़े हैं… पुरुषों की बात कौन करे… अपना वंश चलाने के लिए स्वयं स्त्रियों ने स्त्रियों का बलात्कार करवाया है. कोई शरीर गंदा नहीं होता. जब इन सारे कुकर्मों के बाद भी पुरुषों का कौमार्य अक्षत रह जाता है तो फिर स्त्रियां क्यों जूठी हो जाती हैं.

‘‘इस दोहरी मानसिकता के बल पर ही तो धर्म और समाज स्त्रियों पर हर तरह का अत्याचार करता है. सारी वर्जनाएं केवल लड़कियों के लिए ही क्यों? लड़के छुट्टे सांड़ की तरह होेंगे तो ऐसी वारदातें होती रहेंगी. अगर हर मां अपने बेटों को संस्कारी बना कर रखे तो ऐसी घटनाएं समाज में घटित ही न हों. पापपुण्य के लेखेजोखे को छोड़ते हुए हमें आगे बढ़ कर समाज को ऐसी घृणित सोच को बदलने के लिए बाध्य करना है. जो हुआ उसे बुरा सपना समझ कर भूल जाओ और कल तुम यहां से अपने घर जा रही हो. सभी की नजरों का सामना इस तरह से करना है मानो कुछ भी अनिष्ट घटित नहीं हुआ है. देखो मैं ने कितनी खूबसूरती से जीवन जीया है.’’

रिचा के चेहरे पर जीवन की लाली बिखरते देख सुधा संतुष्ट हो उठी. उस के अंतर्मन में जमा वर्षों की असीम वेदना का हिम रिचा के चेहरे की लाली के ताप से पिघल कर आंखों में मचल रहा था. अतीत के गरल को उलीच कर वह भी तो फूल सी हलकी हो गई थी.

Romantic Story: धागा प्रेम का – रंभा-आशुतोष का वैवाहिक जीवन

Romantic story: आज सलोनी विदा हो गई. एअरपोर्ट से लौट कर रंभा दी ड्राइंगरूम में ही सोफे पर निढाल सी लेट गईं. 1 महीने की गहमागहमी, भागमभाग के बाद आज घर बिलकुल सूनासूना सा लग रहा था. बेटी की विदाई से निकल रहे आंसुओं के सैलाब को रोकने में रंभा दी की बंद पलकें नाकाम थीं. मन था कि आंसुओं से भीग कर नर्म हुई उन यादों को कुरेदे जा रहा था, जिन्हें 25 साल पहले दफना कर रंभा दी ने अपने सुखद वर्तमान का महल खड़ा किया था.

मुंगेर के सब से प्रतिष्ठित, धनाढ्य मधुसूदन परिवार को भला कौन नहीं जानता था. घर के प्रमुख मधुसूदन शहर के ख्यातिप्राप्त वकील थे. वृद्धावस्था में भी उन के यहां मुवक्किलों का तांता लगा रहता था. वे अब तक खानदानी इज्जत को सहेजे हुए थे. लेकिन उन्हीं के इकलौते रंभा के पिता शंभुनाथ कुल की मर्यादा के साथसाथ धनदौलत को भी दारू में उड़ा रहे थे. उन्हें संभालने की तमाम कोशिशें नाकाम हो चुकी थीं. पिता ने किसी तरह वकालत की डिगरी भी दिलवा दी थी ताकि अपने साथ बैठा कर कुछ सिखा सकें. लेकिन दिनरात नशे में धुत्त लड़खड़ाती आवाज वाले वकील को कौन पूछता?

बहू भी समझदार नहीं थी. पति या बच्चों को संभालने के बजाय दिनरात अपने को कोसती, कलह करती. ऐसे वातावरण में बच्चों को क्या संस्कार मिलेंगे या उन का क्या भविष्य होगा, यह दादाजी समझ रहे थे. पोते की तो नहीं, क्योंकि वह लड़का था, दादाजी को चिंता अपनी रूपसी, चंचल पोती रंभा की थी. उसे वे गैरजिम्मेदार मातापिता के भरोसे नहीं छोड़ना चाहते थे. इसी कारण मैट्रिक की परीक्षा देते ही मात्र 18 साल की उम्र में रंभा की शादी करवा दी.

आशुतोषजी का पटना में फर्नीचर का एक बहुत बड़ा शोरूम था. अपने परिवार में वे अकेले लड़के थे. उन की दोनों बहनों की शादी हो चुकी थी. मां का देहांत जब ये सब छोटे ही थे तब ही हो गया था. बच्चों की परवरिश उन की बालविधवा चाची ने की थी.

शादी के बाद रंभा भी पटना आ गईं. रिजल्ट निकलने के बाद उन का आगे की पढ़ाई के लिए दाखिला पटना में ही हो गया. आशुतोषजी और रंभा में उम्र के साथसाथ स्वभाव में भी काफी अंतर था. जहां रंभा चंचल, बातूनी और मौजमस्ती करने वाली थीं, वहीं आशुतोषजी शांत और गंभीर स्वभाव के थे. वे पूरा दिन दुकान पर ही रहते. फिर भी रंभा दी को कोई शिकायत नहीं थी.

नया बड़ा शहर, कालेज का खुला माहौल, नईनई सहेलियां, नई उमंगें, नई तरंगें. रंभा दी आजाद पक्षी की तरह मौजमस्ती में डूबी रहतीं. कोई रोकनेटोकने वाला था नहीं. उन दिनों चाचीसास आई हुई थीं. फिर भी उन की उच्छृंखलता कायम थी. एक रात करीब 9 बजे रंभा फिल्म देख कर लौटीं. आशुतोषजी रात 11 बजे के बाद ही घर लौटते थे, लेकिन उस दिन समय पर रंभा दी के घर नहीं पहुंचने पर चाची ने घबरा कर उन्हें बुला लिया था. वे बाहर बरामदे में ही चाची के साथ बैठे मिले.

‘‘कहां से आ रही हो?’’ उन की आवाज में गुस्सा साफ झलक रहा था.

‘‘क्लास थोड़ी देर से खत्म हुई,’’ रंभा दी ने जवाब दिया.

‘‘मैं 5 बजे कालेज गया था. कालेज तो बंद था?’’

अपने एक झूठ को छिपाने के लिए रंभा दी ने दूसरी कहानी गढ़ी, ‘‘लौटते वक्त सीमा दीदी के यहां चली गई थी.’’ सीमा दी आशुतोषजी के दोस्त की पत्नी थीं जो रंभा दी के कालेज में ही पढ़ती थीं.

आशुतोषजी गुस्से से हाथ में पकड़ा हुआ गिलास रंभा की तरफ जोर से फेंक कर चिल्लाए, ‘‘कुछ तो शर्म करो… सीमा और अरुण अभीअभी यहां से गए हैं… घर में पूरा दिन चाची अकेली रहती हैं… कालेज जाने तक तो ठीक है… उस के बाद गुलछर्रे उड़ाती रहती हो. अपने घर के संस्कार दिखा रही हो?’’

आशुतोषजी आपे से बाहर हो गए थे. उन का गुस्सा वाजिब भी था. शादी को 1 साल हो गया था. उन्होंने रंभा दी को किसी बात के लिए कभी नहीं टोका. लेकिन आज मां तुल्य चाची के सामने उन्हें रंभा दी की आदतों के कारण शर्मिंदा होना पड़ा था.

रंभा दी का गुस्सा भी 7वें आसमान पर था. एक तो नादान उम्र उस पर दूसरे के सामने हुई बेइज्जती के कारण वे रात भर सुलगती रहीं.

सुबह बिना किसी को बताए मायके आ गईं. घर में किसी ने कुछ पूछा भी नहीं. देखने, समझने, समझाने वाले दादाजी तो पोती की विदाई के 6 महीने बाद ही दुनिया से विदा हो गए थे.

आशुतोषजी ने जरूर फोन कर के उन के पहुंचने का समाचार जान लिया. फिर कभी फोन नहीं किया. 3-4 दिनों के बाद रंभा दी ने मां से उस घटना का जिक्र किया. लेकिन मां उन्हें समझाने के बजाय और उकसाने लगीं, ‘‘क्या समझाते हैं… हाथ उठा दिया… केस ठोंक देंगे तब पता चलेगा.’’ शायद अपने दुखद दांपत्य के कारण बेटी के प्रति भी वे कू्रर हो गई थीं. उन की ममता जोड़ने के बजाय तोड़ने का काम कर रही थी. रंभा दी अपनी विगत जिंदगी की कहानी अकसर टुकड़ोंटुकड़ों में बताती रहतीं, ‘‘मुझे आज भी जब अपनी नादानियां याद आती हैं तो अपने से ज्यादा मां पर क्रोध आता है. मेरे 5 अनमोल साल मां के कारण मुझ से छिन गए. लेकिन शायद मेरा कुछ भला ही होना था…’’ और वे फिर यादों में खो जातीं…

इंटर की परीक्षा करीब थी. वे अपनी पढ़ाई का नुकसान नहीं चाहती थीं, इसलिए परीक्षा देने पटना में दूर के एक मामा के यहां गईं. वहां मामा के दानव जैसे 2 बेटे अपनी तीखी निगाहों से अकसर उन का पीछा करते रहते. उन की नजरें उन के शरीर का ऐसे मुआयना करतीं कि लगता वे वस्त्रविहीन हो गई हैं. एक रात अपनी कमर के पास किसी का स्पर्श पा कर वे घबरा कर बैठ गईं. एक छाया को उन्होंने दौड़ते हुए बाहर जाते देखा. उस दिन के बाद से वे दरवाजा बंद कर के सोतीं. किसी तरह परीक्षा दे कर वे वापस आ गईं.

मां की अव्यावहारिक सलाह पर एक बार फिर वे अपनी मौसी की लड़की के यहां दिल्ली गईं. उन्होंने सोचा था कि फैशन डिजाइनिंग का कोर्स कर के बुटीक वगैरह खोल लेंगी. लेकिन वहां जाने पर बहन को अपने 2 छोटेछोटे बच्चों के लिए मुफ्त की आया मिल गई. वे अकसर उन्हें रंभा दी के भरोसे छोड़ कर पार्टियों में व्यस्त रहतीं. बच्चों के साथ रंभा को अच्छा तो लगता था, लेकिन यहां आने का उन का एक मकसद था. एक दिन रंभा ने मौसी की लड़की के पति से पूछा, ‘‘सुशांतजी, थोड़ा कोर्स वगैरह का पता करवाइए, ऐसे कब तक बैठी रहूंगी.’’

बहन उस वक्त घर में नहीं थी. बहनोई मुसकराते हुए बोले, ‘‘अरे, आराम से रहिए न… यहां किसी चीज की कमी है क्या? किसी चीज की कमी हो तो हम से कहिएगा, हम पूरी कर देंगे.’’

उन की बातों के लिजलिजे एहसास से रंभा को घिन आने लगी कि उन के यहां पत्नी की बड़ी बहन को बहुत आदर की नजरों से देखते हैं… उन के लिए ऐसी सोच? फिर रंभा दी दृढ़ निश्चय कर के वापस मायके आ गईं.

मायके की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी. पिताजी का लिवर खराब हो गया था. उन के इलाज के लिए भी पैसे नहीं थे. रंभा के बारे में सोचने की किसी को फुरसत नहीं थी. रंभा ने अपने सारे गहने बेच कर पैसे बैंक में जमा करवाए और फिर बी.ए. में दाखिला ले लिया. एम.ए. करने के बाद रंभा की उसी कालेज में नौकरी लग गई.

5 साल का समय बीत चुका था. पिताजी का देहांत हो गया था. भाई भी पिता के रास्ते चल रहा था. घर तक बिकने की नौबत आ गई थी. आमदनी का एक मात्र जरीया रंभा ही थीं. अब भाई की नजर रंभा की ससुराल की संपत्ति पर थी. वह रंभा पर दबाव डाल रहा था कि तलाक ले लो. अच्छीखासी रकम मिल जाएगी. लेकिन अब तक की जिंदगी से रंभा ने जान लिया था कि तलाक के बाद उसे पैसे भले ही मिल जाएं, लेकिन वह इज्जत, वह सम्मान, वह आधार नहीं मिल पाएगा जिस पर सिर टिका कर वे आगे की जिंदगी बिता सकें.

आशुतोषजी के बारे में भी पता चलता रहता. वे अपना सारा ध्यान अपने व्यवसाय को बढ़ाने में लगाए हुए थे. उन की जिंदगी में रंभा की जगह किसी ने नहीं भरी थी. भाई के तलाक के लिए बढ़ते दबाव से तंग आ कर एक दिन बहुत हिम्मत कर के रंभा ने उन्हें फोन मिलाया, ‘‘हैलो.’’

‘‘हैलो, कौन?’’

आशुतोषजी की आवाज सुन कर रंभा की सांसों की गति बढ़ गई. लेकिन आवाज गुम हो गई.

हैलो, हैलो…’’ उन्होंने फिर पूछा, ‘‘कौन? रंभा.’’

‘‘हां… कैसे हैं? उन की दबी सी आवाज निकली.’’

‘‘5 साल, 8 महीने, 25 दिन, 20 घंटों के बाद आज कैसे याद किया? उन की बातें रंभा के कानों में अमृत के समान घुलती जा रही थीं.’’

‘‘आप क्या चाहते हैं?’’ रंभा ने प्रश्न किया.

‘‘तुम क्या चाहती हो?’’ उन्होंने प्रतिप्रश्न किया.

‘‘मैं तलाक नहीं चाहती.’’

‘‘तो लौट आओ, मैं तुम्हारा इंतजार कर रहा हूं.’’ और सचमुच दूसरे दिन बिना किसी को बताए जैसे रंभा अपने घर लौट गईं. फिर साहिल पैदा हुआ और फिर सलोनी.

रंभा दी मुंगेर के जिस कालेज में इकोनौमिक्स की विभागाध्यक्ष और सहप्राचार्या थीं, उसी कालेज में मैं हिंदी की प्राध्यापिका थी. उम्र और स्वभाव में अंतर के बावजूद हम दोनों की दोस्ती मशहूर थी.

रंभा दी को पूरा कालेज हिटलर के नाम से जानता था. आभूषण और शृंगारविहीन कठोर चेहरा, भिंचे हुए होंठ, बड़ीबड़ी आंखों को ढकता बड़ा सा चश्मा. बेहद रोबीला व्यक्तित्व था. जैसा व्यक्तित्व था वैसी ही आवाज. बिना माइक के भी जब बोलतीं तो परिसर के दूसरे सिरे तक साफ सुनाई देता.

लेकिन रंभा दी की सारी कठोरता कक्षा में पढ़ाते वक्त बालसुलभ कोमलता में बदल जाती. अर्थशास्त्र जैसे जटिल विषय को भी वे अपने पढ़ाने की अद्भुत कला से सरल बना देतीं. कला संकाय की लड़कियों में शायद इसी कारण इकोनौमिक्स लेने की होड़ लगी रहती थी. हर साल इस विषय की टौपर हमारे कालेज की ही छात्रा होती थी.

मैं तब भी रंभा दी के विगत जीवन की तुलना वर्तमान से करती तो हैरान हो जाती कि कितना प्यार, तालमेल है उन के परिवार में. अगर रंभा दी किसी काम के लिए बस नजर उठा कर आशुतोषजी की तरफ देखतीं तो वे उन की बात समझ कर जब तक नजर घुमाते साहिल उसे करने को दौड़ता. तब तक तो सलोनी उस काम को कर चुकी होती.

दोनों बच्चे रूपरंग में मां पर गए थे. सलोनी थोड़ी सांवली थी, लेकिन तीखे नैननक्श और छरहरी काया के कारण बहुत आकर्षक लगती थी. वह एम.एससी. की परीक्षा दे चुकी थी. साहिल एम.बी.ए. कर के बैंगलुरु में एक अच्छी फर्म में मैनेजर के पद पर नियुक्त था. उस ने एक सिंधी लड़की को पसंद किया था. मातापिता की मंजूरी उसे मिल चुकी थी मगर वह सलोनी की शादी के बाद अपनी शादी करना चाहता था.

लेकिन सलोनी शादी के नाम से ही बिदक जाती थी. शायद अपनी मां के शुरुआती वैवाहिक जीवन के कारण उस का शादी से मन उचट गया था.

फिर एक दिन रंभा दी ने ही समझाया, ‘‘बेटी, शादी में कोई शर्त नहीं होती. शादी एक ऐसा पवित्र बंधन है जिस में तुम जितना बंधोगी उतना मुक्त होती जाओगी… जितना झुकोगी उतना ऊपर उठती जाओगी. शुरू में हम दोनों अपनेअपने अहं के कारण अड़े रहे तो खुशियां हम से दूर रहीं. फिर जहां एक झुका दूसरे ने उसे थाम के उठा लिया, सिरमाथे पर बैठा लिया. बस शादी की सफलता की यही कुंजी है. जहां अहं की दीवार गिरी, प्रेम का सोता फूट पड़ता है.’’

धीरेधीरे सलोनी आश्वस्त हुई और आज 7 फेरे लेने जा रही थी. सुबह से रंभा दी का 4-5 बार फोन आ चुका था, ‘‘सुभि, देख न सलोनी तो पार्लर जाने को बिलकुल तैयार नहीं है. अरे, शादी है कोई वादविवाद प्रतियोगिता नहीं कि सलवारकमीज पहनी और स्टेज पर चढ़ गई. तू ही जरा जल्दी आ कर उस का हलका मेकअप कर दे.’’

5 बज गए थे. साहिल गेट के पास खड़ा हो कर सजावट वाले को कुछ निर्देश दे रहा था. जब से शादी तय हुई थी वह एक जिम्मेदार व्यक्ति की तरह घरबाहर दोनों के सारे काम संभाल रहा था. मुझे देख कर वह हंसता हुआ बोला, ‘‘शुक्र है मौसी आप आ गईं. मां अंदर बेचैन हुए जा रही हैं.’’

मैं हंसते हुए घर में दाखिल हुई. पूरा घर मेहमानों से भरा था. किसी रस्म की तैयारी चल रही थी. मुझे देखते ही रंभा दी तुरंत मेरे पास आ गईं. मैं ठगी सी उन्हें निहार रही थी. पीली बंधेज की साड़ी, पूरे हाथों में लाल चूडि़यां, पैरों में आलता, कानों में झुमके, गले में लटकी चेन और मांग में सिंदूर. मैं तो उन्हें पहचान ही नहीं पाई.

‘‘रंभा दी, कहीं समधी तुम्हारे साथ ही फेरे लेने की जिद न कर बैठें,’’ मैं ने छेड़ा.

‘‘आशुतोषजी पीली धोती में मंडप में बैठे कुछ कर रहे थे. यह सुन कर ठठा कर हंस पड़े. फिर रंभा दी की तरफ प्यार से देखते हुए कहा, ‘‘आज कहीं, बेटी और बीवी दोनों को विदा न करना पड़ जाए.’’

रंभा दीदी शर्म से लाल हो गईं. मुझे खींचते हुए सलोनी के कमरे में ले गईं. शाम कोजब सलोनी सजधज कर तैयार हुई तो मांबाप, भाई सब उसे निहार कर निहाल हो गए. रंभा दी ने उसे सीने से लगा लिया. मैं ने सलोनी को चेताया, ‘‘खबरदार जो 1 भी आंसू टपकाया वरना मेरी सारी मेहनत बेकार हो जाएगी.’’

सलोनी धीमे से हंस दी. लेकिन आंखों ने मोती बिखेर ही दिए. रंभा दी ने हौले से उसे अपने आंचल में समेट लिया.

स्टेज पर पूरे परिवार का ग्रुप फोटो लिया जा रहा था. रंभा दी के परिवार की 4 मनकों की माला में आज दामाद के रूप में 1 और मनका जुड़ गया था.

उन लोगों को देख कर मुझे एक बार रंभा दी की कही बात याद आ गई. कालेज के सालाना जलसे में समाज में बढ़ रही तलाक की घटनाओं पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा था कि प्रेम का धागा मत तोड़ो, अगर टूटे तो फिर से जोड़ो.

आज उन्हें और उन के परिवार को देख कर यह बात सिद्ध भी हो रही थी. रंभा दी के प्रेम का धागा एक बार टूटने के बावजूद फिर जुड़ा और इतनी दृढ़ता से जुड़ा कि गांठ की बात तो दूर उस की कोई निशानी भी शेष नहीं है. उन के सच्चे, निष्कपट प्यार की ऊष्मा में इतनी ऊर्जा थी जिस ने सभी गांठों को पिघला कर धागे को और चिकना और सुदृढ़ कर दिया.

Social Story: बहकते कदम – क्या अनीश के चगुंल से निकल सकी प्रिया

Social Story, लेखिका- मीनू त्रिपाठी

‘देख प्रिया, तू ऐसा वैसा कुछ करने की सोचना भी मत, अनीश अच्छा लड़का नहीं है, अभी भी समय है संभल जा.’ प्रज्ञा दीदी के शब्द मानो पटरी पर दौड़ती रेलगाड़ी का पीछा कर रहे थे. भय, आशंका, उत्तेजना के बीच हिचकोले लेता मन अतीत को कभी आगे तो कभी पीछे धकेल देता था. कुछ देर पहले रोमांचकारी सपनीले भविष्य में खोया मन जाने क्यों अज्ञात भय से घिर गया था. मम्मीपापा की लाडली बेटी और प्रज्ञा दीदी की चहेती बहन घर से भाग गई है, यह सब को धीरेधीरे पता चल ही जाएगा.

अलसुबह आंख खुलते ही मम्मी चाय का प्याला ले कर जगाने आ जाएगी, क्या पता रात को ही सब जान गए हों? कितना समझाया था प्रज्ञा दीदी ने कि इस उम्र में लिया गया एक भी गलत फैसला हमारे जीवन को बिखेर सकता है. जितना दीदी समझाने का प्रयास करतीं उतनी ही दृढ़ता से बिंदास प्रिया दो कदम अनीश की ओर बढ़ा देती.

‘‘प्रिया, अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे, ये प्यारव्यार के चक्कर में पड़ कर अपने भविष्य से मत खेल.’’

‘‘दीदी, अब तो अनीश ही मेरी जिंदगी है. मैं ने उसे दिल से चाहा है, वह जीवनभर मेरा साथ निभाएगा,’’ प्रिया के ये फिल्मी संवाद सुन प्रज्ञा अपना सिर पकड़ लेती.

‘‘क्या हम तुझे नहीं चाहते और अगर तुझे अपने प्यार पर इतना ही भरोसा है तो एक बार पापा से बात कर उसे सब से मिलवा तो सही.’’

एक अनजाने अविश्वास के तहत जाने क्यों प्रिया पापा से बात करने की हिम्मत न जुटा पाई. उस वक्त अनीश द्वारा घर से भाग कर शादी करने का रास्ता उसे रोमांच भरा दिखाई दिया.

अनीश के केयरिंग स्वभाव पर वह उस दिन फिदा हो गई, जब प्रज्ञा दीदी के जोर डालने पर उस ने अनीश को मम्मीपापा से मिलने को कहा, तो उस ने भावावेश में प्रिया को गले लगा लिया और कहा वह अपने प्यार को खोने का रिस्क नहीं उठा सकता है, बस, उसी रात गली के उस पार इंतजार करते अनीश के साथ वह आ गई, घर छोड़ कर आते समय प्रिया का मनोबल चरम पर था. रास्ते में अनीश ने बताया कि वे लोग बेंगलुरु जा रहे हैं, जहां वे कुछ दिन उस के एक दोस्त के घर पर ठहरेंगे और 7 महीने बाद प्रिया के बालिग होने पर शादी करेंगे.

रास्ते भर वह प्रिया को समझाता रहा कि इस दौरान उसे किसी से संपर्क नहीं रखना है, इस मामले में यहां का कानून बेहद सख्त है. विचारों में डूबतीउतराती प्रिया कब नींद के आगोश में चली गई उसे पता ही नहीं चला. अचानक एक स्टेशन पर गहमागहमी के बीच उस की नींद खुली, उस ने देखा तो अनीश अपनी सीट पर नहीं था. बिंदास और मजबूत इरादों वाली प्रिया का हलक सूख गया था. आवेग से उस की आंखें भर आईं, माथे पर पसीने की बूंदें चुहचुहा आई थीं, अकेलेपन के एहसास ने उसे घेर लिया, तभी वह अपना मोबाइल खोजने लगी, पूरा पर्स खंगाल डाला पर कहीं मोबाइल नहीं दिखा.

‘‘आप मोबाइल तो नहीं ढूंढ़ रही हैं?’’ एक आवाज ने उसे चौंका दिया. सामने देखा तो एक युवती बैठी किताब पढ़ रही थी, ‘‘आप ने मुझ से कुछ कहा क्या?’’

‘‘मुझे लगा आप अपना मोबाइल ढूंढ़ रही हैं.’’

‘‘हां, आप ने देखा क्या?’’

प्रिया ने पूछा तो वह बोली, ‘‘तुम्हारे साथ जो लड़का है वह तुम्हारा भाई है क्या ?’’

उस का प्रश्न प्रिया को रुचिकर नहीं लगा. तभी उस युवती ने आगे खुलासा किया, ‘‘तुम्हारा मोबाइल तुम्हारे साथ जो लड़का था वह ले गया है.’’

कातर दृष्टि से इधरउधर देखती प्रिया को उस ने बताया कि वह दूसरे कंपार्टमेंट में बैठा ताश खेल रहा है. प्रिया यह सुन शर्म से गड़ गई. उसे अनीश पर बहुत गुस्सा आया.

‘‘कृपया आप मेरा सामान देखिएगा, मैं वाशरूम जा रही हूं,’’ प्रिया तेजी से निकली. तभी अंधेरे में किसी की आवाज पर उस के पांव वहीं ठिठक गए, दरवाजे के पास खड़ा अनीश मोबाइल पर किसी से कह रहा था, ‘‘बस, ऐसी ही बेवकूफ लड़कियों से तो रोजीरोटी चल रही है हमारी, उस का मोबाइल ले लिया है, 15-20 हजार का तो होगा ही. डर भी था कहीं घर वालों से संपर्क न कर बैठे, मैं बिना बात की मुसीबत मोल नहीं लेना चाहता. अभी पूछा तो नहीं है, पर घर से कुछ न कुछ तो ले कर जरूर आई होगी, घर जो बसाना है मेरे साथ,’’ उस के ये शब्द ठहाकों के साथ हवा में तैर गए.

‘‘और हां सुन, तू सारा इंतजाम रखना, मेरी जिम्मेदारी केवल वहां तक छोड़ने की है आगे तू संभालना, बस, फिल्म मस्त बननी चाहिए.’’

इस वार्त्ता को सुन कर प्रिया का खून बर्फ की तरह जम चुका था, उस के पांव स्थिर न रह पाए. वह गिरने वाली थी कि किसी ने उसे संभाला, वह कैसे अपनी सीट तक आई उसे पता ही नहीं चला, दो घूंट पानी पीने के कुछ क्षण बाद उस ने आंखें खोलीं तो अपने कंपार्टमैंट में बैठी युवती का चिरपरिचित चेहरा दिखा.

‘‘तुम ठीक तो हो न?’’ उस ने जैसे ही पूछा प्रिया की आंखों से अश्रुधारा बहने लगी, उस युवती ने अपने साथ आए शख्स को बाहर भेज दिया और कूपे को अंदर से बंद कर दिया.

‘‘क्या हुआ? साथ आया लड़का बौयफ्रैंड है न तुम्हारा?’’ उस युवती की बात सुन प्रिया फफक पड़ी.

‘‘देखो, वह लड़का ठीक नहीं है. यह शायद तुम्हें भी पता चल गया होगा. मैं जानती हूं कि तुम दोनों घर से भाग कर आए हो.’’

प्रिया ने आश्चर्य और शंकित नजरों से उसे देखा तो वह बोली, ‘‘मेरा नाम सरन्या है. तुम मुझ पर भरोसा कर सकती हो. वैसे तुम्हारे पास और कोई चारा भी नहीं है.’’ युवती की बातों में सचाई थी. वैसे भी अनीश का जो बीभत्स चेहरा वह अभीअभी देख कर आई थी, उसे देख कर तो उस की रूह कांप उठी थी.

‘‘देखो, जो गलत कदम तुम ने उठाया है, जिन कांटों में तुम उलझी हो उस से निकलने के लिए तुम्हें साहस जुटाना पड़ेगा.’’ सरन्या की बातों का प्रभाव प्रिया पर पड़ा. कुछ देर में ही वह संभल गई.

‘‘प्रिया नाम है न तुम्हारा? अपने पापा का नंबर दो मुझे.’’ उस ने अधिकार से कहा तो प्रिया ने पापा का नंबर बता दिया. वह युवती बात करने के लिए बाहर चली गई.

अब तक प्रिया स्थिति का सामना करने को तैयार हो गई थी. कुछ देर में वह वापस आई और बोली, ‘‘मैं ने तुम्हारे पापा से बात कर ली है, वह अगली फ्लाइट से बेंगलुरु पहुंच रहे हैं. अब तुम्हें क्या करना है यह ध्यान से सुनो.’’ वह प्रिया को कुछ बताते हुए अपने साथ आए युवक से बोली, ‘‘मैडम के साथ जो व्यक्ति आया है उसे बताओ कि ये उसे बुला रही हैं और हां, अर्जुन कुछ देर तुम बाहर ही रहना.’’

कुछ देर बाद ही अनीश आ गया तो प्रिया उस से शिकायती लहजे में बोली, ‘‘तुम कहां चले गए थे, अनीश? मैं कितना डर गई थी मालूम है तुम्हें.’’

अनीश उस की बात सुन कर तुरंत बोला, ‘‘मैं तुम्हें छोड़ कर भले कहां जाऊंगा.’’ प्रिया ने कूपे की लाइट जला दी. उसे कुछ देर पहले जिस अनीश की आंखों में प्यार का समुद्र नजर आ रहा था अब उन में मक्कारी दिखाई दे रही थी. अब वह अपनी खुली आंखों से देख रही थी कि किस तरह सतर्कतापूर्वक अनीश इधरउधर देख रहा था. तभी प्यार से प्रिया ने उस से कहा, ‘‘मैं तुम्हें एक खुशखबरी देना चाहती हूं.’’

‘‘क्या?’’ भौचक्का सा वह बोला तो प्रिया ने कहा, ‘‘जानते हो पापा हमारी शादी के लिए राजी हो गए हैं और वे भी बेंगलुरु पहुंच रहे हैं.’’ प्रिया के इस खुलासे से अनीश का तो रंग ही उड़ गया, वह अचानक बिफर गया, ‘‘बेवकूफ लड़की, मैं ने मना किया था कि कहीं फोन मत करना.’’

तभी मानो उसे कुछ याद आया हो, न चाहते हुए भी उस के मुंह से निकला, ‘‘तुम्हारा मोबाइल तो…’’ ‘‘मैं जानती हूं वह तो तुम्हारे पास है.’’ इस से पहले कि अनीश कुछ और पूछता प्रिया अपना आपा खो चुकी थी. उस का हाथ पूरे वेग से लहराया और अनीश के गाल पर तेज आवाज के साथ झन्नाटेदार चांटा पड़ा. क्रोध और अपमान से उस का बदन कांप रहा था. अनीश का सारा खून निचुड़ गया था. शोरशराबे की आवाज बाहर तक चली गई थी. लोगों ने अंदर झांकना शुरू कर दिया था. उतनी देर में टीटीई भी आ गया. उस ने पूछा कि क्या माजरा है? तो बड़े इत्मीनान से वह युवती उठ कर आई और बोली, ‘‘ये मेरी रिश्तेदार हैं, दरअसल यह हमारे साथ बैठा एक यात्री है. हमें लगता है कि इस ने हमारा मोबाइल चुराया है. आप पुलिस बुलाइए.’’ अनीश के चेहरे की हवाइयां उड़ने लगी थीं.

’’देखिए मैडम, यह फर्स्ट क्लास का डब्बा है, आप इस में बैठे यात्री पर इस तरह का इलजाम नहीं लगा सकतीं.’’ टीटीई के बोलने पर अर्जुन बोला, ‘‘मैं भी इन को यही समझा रहा हूं कि पुलिस के झंझट में पड़ने से पहले खुद तसल्ली कर लो,’’

इतना कहते ही उसने अनीश की जेबें खंगालते हुए प्रिया का मोबाइल निकाल लिया. अनीश सकते में था, पासा यों पलट जाएगा, उसने तो स्वप्न में भी नहीं सोचा था. तुरतफुरत रेलवे के 2 पुलिस कांस्टेबल आए तो उस युवती ने अपना पहचानपत्र दिखाया. ‘एसीपी सरन्या’ पढ़ कर दोनों ने उसे एक करारा सेल्यूट बजाया तो टीटीई सहित प्रिया भी अचंभे में पड़ गई. टीटीई हंस कर बोला, ‘‘क्या बेटा, चोरी भी की तो पुलिस वालों की?’’

एसीपी सरन्या ने अर्जुन से कहा, ‘‘इंस्पेक्टर अर्जुन, आप इस के साथ अगले स्टेशन पर उतर जाइए, मैं बताती हूं आप को आगे क्या करना है और हां, जरा इसे समझाना और खुद भी ध्यान रखना कि इस लड़की का नाम बीच में न आए, ’’ हंगामे के बीच अनीश को अगले स्टेशन पर उतार लिया गया.

ट्रेन में सवार यात्री इस पर अपनीअपनी टिप्पणी देने में मशगूल थे. प्रिया अपमान और शर्मिंदगी से भरी देर तक रोती रही. तभी सरन्या ने सांत्वनाभरा हाथ उस की पीठ पर फेरा, तो वह सरन्या के गले लग गई और बोली, ‘‘आप ने मुझे बचा लिया, आप का यह एहसान मैं कभी नहीं भूलूंगी.’’

उस की बात पर सरन्या हंस पड़ी और बोली, ‘‘कैसे नहीं बचाती तुम्हें, यह तो वही बात हुई कि एक डाक्टर के सामने किसी ने खुदकुशी करने की कोशिश की. जान तो उस की बचनी ही थी, यह मेरी पहली नियुक्ति है आईपीएस औफिसर के रूप में, तुम ने तो मुझे शुरू में ही इतना बड़ा केस दिला दिया है. मैं तो तुम्हें देख कर ही समझ गई थी कि तुम घर से भाग कर आई हो. ट्रेन में चढ़ते वक्त तो तुम किसी दूसरी ही दुनिया में थीं. किसी और का तुम्हें होश ही कहां था, अलबत्ता वह लड़का जरूरत से ज्यादा सतर्क था.’’

‘‘दूसरों को औब्जर्व करना मेरी हौबी है, उसे देख कर ही मैं समझ गई थी कि वह लड़का ठीक नहीं है. जब मैं ने चुपके से उसे तुम्हारे पर्स से मोबाइल निकालते और पैसे चेक करते देखा तो मुझे बड़ा अजीब लगा. जब वह बाहर गया तो मैं ने अर्जुन से बात कर के उस  पर नजर रखने को कहा, इसीलिए जब तुम वाशरूम गईर् तो तुम्हारे पीछेपीछे मैं भी आई थी. मुझे पता था कि कहीं कुछ गड़बड़ है, पर मेरी समझ में यह नहीं आ रहा है कि तुम्हारे जैसी पढ़ीलिखी लड़की आज के जमाने में ऐसी मूर्खता कैसे कर सकती है.

‘‘जरा सोचो, अगर वह अपनी योजना में कामयाब हो जाता तो क्या होता. तुम ठीक समय पर संभल गई अन्यथा उस दलदल में फंसने के बाद जिंदगी दूभर हो जाती.

प्रिया सब सोच कर एकबारगी फिर से सिहर उठी. ‘‘मैं अब घर जा कर सब से नजरें कैसे मिलाऊंगी,’’ कुछ खोई हुई सी वह बोली.

‘‘देखो प्रिया, सवाल यह नहीं है कि तुम सब से कैसे नजरें मिलाओगी, यह सोचो कि तुम अपने वजूद से कैसे नजरें मिलाओगी जिसे तुम ने इतने बड़े जोखिम में यों ही डाल दिया, खुद से नजरें मिलाने के लिए तो तुम्हें अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ेगा, तुम्हारा कर्म ही तुम्हारी अग्नि परीक्षा होगी. अब यह तुम पर निर्भर करता है कि तुम किस तरह से खुद को और अपने भविष्य को संवार कर अपने परिवार के सदस्यों को यह खुशी दो जिस से तुम्हारा यह सफर न तुम्हें और न कभी तुम्हारे परिवार को याद आए.’’

सरन्या की बातों का असर प्रिया की चुप्पी में दिखा, मन ही मन वह आत्ममंथन करती रही. मानसिक रूप से थकी प्रिया कब सो गई पता ही नहीं चला, किसी के स्नेह भरे स्पर्श से आंखें खुलीं, सामने पापा को देख वह छोटी बच्ची की तरह उन से लिपटी, साथ आई प्रज्ञा भी रो पड़ी.

‘‘आप का यह एहसान हम कैसे चुका पाएंगे,’’ पापा सरन्या से बोल रहे थे.

‘‘पापा, आप मुझे कभी माफ कर पाएंगे क्या?’’

उन दोनों की बात सुन कर सरन्या ने प्रिया के पापा से कहा, ‘‘अगर आप वाकई एहसान उतारना चाहते हैं तो मुझ से वादा कीजिए कि आप अपनी बेटी पर भरोसा कायम रखते हुए इस की उड़ान को पंख देंगे, इस सफर को भूलते हुए, आगे की जिंदगी में इस का साथ देंगे, न कि इस सफर का बारबार उल्लेख कर इस की आगे की जिंदगी को दूभर बनाएंगे.’’

‘‘मैं वादा करता हूं कि प्रिया की आज की भूल का जिक्र कर के हम इस के मनोबल को नहीं गिरने देंगे, आज के बाद हम में से कोई भी प्रिया से इस बारे में कोई बात नहीं करेगा.’’

‘‘पापा, आप की बेटी आप का सिर कभी झुकने नहीं देगी, मैं भी सरन्या दीदी जैसा बन कर दिखाऊंगी.’’ सरन्या के व्यक्त्तित्व के प्रभाव से प्रभावित प्रिया पापा का साथ पा कर पूरे आत्मविश्वास से बोली, तो पापा और प्रज्ञा ने उसे प्यार से थाम लिया. सरन्या समझ गई कि अब सही माने में प्रिया भंवर से बाहर निकल चुकी है. उस के होंठों पर तसल्ली भरी स्मितरेखा थी.

Family Story: पीयूषा – क्या विधवा मिताली की गृहस्थी दोबारा बस पाई?

Family Story, लेखिका: Sandhya

रविवार का दिन था. छुट्टी होने के कारण मैं इतमीनान से अपने कमरे में अखबार पढ़ रहा था, तो अचानक चाचाजी पर नजर पड़ी. वे सामने उदास व शांत खड़े हुए थे. मैं ने बैठने का आग्रह करते हुए कहा, ‘‘क्या बात है चाचाजी, परेशान से लग रहे हैं? तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘मैं ठीक हूं बेटा, तुम से कुछ कहना चाहता हूं,’’ बैठने के बाद चाचाजी ने धीरे से कहा. मैं ने अखबार एक ओर रखते हुए कहा, ‘‘तो कहिए न चाचाजी.’’ लेकिन चाचाजी शांत ही बैठे रहे. मैं ने आग्रह करते हुए कहा, ‘‘क्या बात है चाचाजी? जो दिल में है बेझिझक कह दीजिए. आप का कथन मेरे लिए आदेश है,’’ चाचाजी की चुप्पी दरअसल मेरी बैचेनी बढ़ा रही थी. ‘‘बेटा पवन, तू ने कभी भी मेरी बात नहीं टाली है. आज भी इसी उम्मीद से तेरे पास आया हूं. तेरी चाची का और मेरा विचार है कि तू मिताली से शादी कर ले. उसे सहारा दे दे. बेचारी कम उम्र में विधवा हो गई है और दुनिया में एकदम अकेली है. मायके में उस का कोई नहीं है. हम बूढ़ाबूढ़ी का क्या भरोसा, तब वह अकेली कहां जाएगी…,’’ चाचाजी ने धीरेधीरे अपनी बात रखी. उन की आंखें सजल हो उठी थीं, गला भर आया था. मैं किंकर्तव्यविमूढ़ सा चाचाजी की बातें सुन रहा था और क्या कहूं समझ नहीं पा रहा था. मेरे समक्ष एक ओर चाचाचाची का निर्णय था, तो दूसरी ओर मेरा प्यार जो पनप चुका था.

मुझे लग रहा था कि यह बात सच है कि जीवनपथ का अगला मोड़ क्या और कैसा होगा कोई नहीं जानता. आज जीवनपथ का ऐसा मोड़ मेरे समक्ष आ खड़ा हुआ था, जिस में मुझे अपने परिवार के प्रति अपने कर्तव्य एवं अपने प्यार में से किसी एक का चुनाव करना था.

मेरे जीवनपथ का प्रथम पड़ाव बचपन शुरू में काफी खुशहाल था. मैं अपने मातापिता की इकलौती संतान हूं. पापा बैंक में मैनेजर थे और मां कुशल गृहिणी. चूंकि पापा घर के बड़े बेटे थे और मां अच्छे स्वभाव की महिला थीं, इसलिए मेरी वृद्धा दादी हमारे साथ ही रहती थीं. मुझे मांबाप के साथ दादी का भी भरपूर स्नेहप्यार मिलता रहा. पटना के सब से अच्छे स्कूल में मेरा दाखिला करवाया गया था. पढ़ाई में मेरी विशेष दिलचस्पी थी और शुरू से ही मैं मेधावी रहा, इसलिए अच्छे अंक लाता था. पढ़ाई के साथसाथ खेलकूद, गायन आदि में भी मेरी विशेष रुचि थी. मुझे मांपापा का पूरा प्रोत्साहन मिलता रहा, इसलिए सभी क्षेत्रों में अच्छा कर मैं परिवार एवं स्कूल की आंखों का तारा बना रहा. मेरे जीवनपथ में अचानक ही अत्यंत कठिन और पथरीला मोड़ आ खड़ा हुआ. मैं उस समय कक्षा 8 में पढ़ता था. मांपापा का अचानक रोड ऐक्सीडैंट में देहांत हो गया. मेरे पास इस दुख को सहने की न तो बुद्धि थी न ही हिम्मत. मैं हताश और हारा हुआ सा सिर्फ रोता रहता था.

उस कठिन समय में दादी ने मुझे ढाढ़स बंधाया और अपने छोटे बेटे यानी मेरे चाचाजी के घर मुझे ले आईं. मैं चाचा चाची के साथ जमशेदपुर में रहने लगा. उन का इकलौता बेटा पीयूष था. वह मुझ से 2 साल छोटा था. चाचाजी ने उसी के स्कूल में मेरा नाम लिखवा दिया. मैं वहां भी अच्छे अंकों से पास होने लगा.

चाचाचाची मेरी रहने, खानेपीने, पढ़नेलिखने आदि सभी व्यवस्था देखते, लेकिन मेरे और पीयूष के प्रति उन के व्यवहार में थोड़ा फर्क रहता. जैसे चाची मुझ से नजरें बचा कर पीयूष को कुछ स्पैशल खाने को देतीं. लेकिन पीयूष मेरे लाख मना करने पर भी उसे मुझ से शेयर करता. मैं चाचाचाची के सारे भेदभाव नजरअंदाज कर तहे दिल से उन का आभार मानता कि उन्होंने मुझ बेसहारा को सहारा तो दिया ही अच्छे स्कूल में मेरा नाम भी लिखवाया. मेरी दादी जब तक रहीं मुझ पर विशेष ध्यान देती रहीं, किंतु वे मांपापा के आकस्मिक निधन से अंदर तक टूट चुकी थीं. उन के जाने के 2 वर्ष बाद वे भी चल बसीं.

चाचाचाची पीयूष की उच्च शिक्षा हेतु अकसर चर्चा करते किंतु मेरे संबंध में ऐसी कोई जिज्ञासा नहीं व्यक्त करते. मैं ने 12वीं की परीक्षा उच्च अंकों से पास की. फिर बी.कौम. करने के बाद बैंक परीक्षा में उत्तीर्ण हो कर मैं सरकारी बैंक में पी.ओ. बन गया. इत्तफाक से मेरी नियुक्ति जमशेदपुर में ही हुई, तो मैं चाचाचाची के साथ ही रहा. वैसे भी मेरी दिली इच्छा यही थी कि मैं चाचाचाची के साथ रह कर उन्हें सहयोग दूं क्योंकि दोनों को ही बढ़ती उम्र के साथसाथ स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं भी होने लगी थीं.

पीयूष ने बैंगलुरु से एम.बी.ए. किया. वहीं उस का एक मल्टीनैशनल कंपनी में सिलैक्शन हो गया. हम सभी उस की खुशी से खुश थे. उसे जल्दी ही अपनी जूनियर मिताली से प्यार हो गया, तो चाचाचाची ने उस की पसंद को सहर्ष स्वीकार करते हुए धूमधाम से उस का विवाह कर दिया. शादी के बाद पीयूष और मिताली बैंगलुरु लौट गए. पीयूष की शादी के बाद मेरा मन कुछ ज्यादा ही खालीपन महसूस करने लगा. उसी दौरान कविता ने कब इस में जगह बना ली मुझे पता ही नहीं चला. कविता मेरी ही बस से आतीजाती थी. सुंदर, सुशील, सभ्य कविता विशाल हृदय मालूम होती, क्योंकि हमेशा ही सब की सहायता हेतु तत्पर दिखाई देती. कभी किसी अंधे को सड़क पार करवाती, तो कभी किसी बच्चे की सहायता करती. बस में वृद्ध या गर्भवती महिला को तुरंत अपनी सीट औफर कर देती. मुझे उस की ये सब बातें बहुत अच्छी लगती थीं, क्योंकि वे मेरे स्वभाव से मेल खाती थीं. हम दोनों में छोटीछोटी बातें होने लगीं.

धीरेधीरे हम एकदूसरे के लिए जगह रख, साथ ही जानेआने लगे. दोनों को एकदूसरे का साथ अच्छा लगता. मैं उस के प्रति आकर्षण महसूस करता किंतु चाह कर भी उस के सामने व्यक्त नहीं कर पाता. उस की दशा भी मेरे समान ही महसूस होती, क्योंकि उस की आंखों में चाहत, समर्पण दिखाई देता. किंतु शर्मोहया का बंधन उसे भी जकड़े हुए था.

मैं अपने विवाह हेतु चाची से चर्चा करना चाहता किंतु झिझक महसूस होती. कई बार पीयूष की मदद लेने का विचार आता किंतु वह अपनी नौकरी एवं गृहस्थी में ऐसा व्यस्त और मस्त था कि उस से चर्चा करने का अवसर ही नहीं मिल पाता. इस के अलावा उस का हमारे पास आना भी बहुत कम एवं सीमित समय के लिए हो पाता. उस दौरान मेरा संकोची स्वभाव कुछ व्यक्त नहीं कर पाता. मिताली के गर्भवती होने पर चाची उसे लंबी छुट्टी दिलवा कर अपने साथ ले आईं. 5 माह का गर्भ हो चुका था.

चाची बड़ी लगन एवं जिम्मेदारी से उस की देखभाल करतीं, तो नए मेहमान के आगमन की खुशी से घर में हर समय त्योहार जैसा माहौल बना रहता. मैं अपने संकोची स्वभाव के कारण मिताली से थोड़ा दूरदूर ही रहता. हम दोनों में कभीकभी ही कुछ बात होती. जीवन अपनी गति से चल रहा था कि अचानक पीयूष का रोड ऐक्सीडैंट में देहांत हो गया. घर में मानो कुहराम मच गया. चाचाचाची का रोरो कर बुरा हाल था. मिताली तो पत्थर की मूर्ति सी बन गई. एकदम शांत, गमगीन. मैं स्वयं के साथसाथ सभी को संभालने की असफल कोशिश में लगा रहता. मिताली को समझाते हुए कहता कि मिताली कम से कम बच्चे के बारे में तो सोचो उस पर बुरा प्रभाव पड़ेगा, तो वह आंसू पोंछते हुए सुबकने लगती. पीयूष के जाने बाद हम सभी का जीवन रंगहीन, उमंगहीन हो गया था. हम सभी यंत्रवत अपनाअपना काम करते और एकदूसरे से नजरें चुराते हुए मालूम होते.

जीवनयात्रा की टेढ़ीमेढ़ी डगर मेरे मनमस्तिष्क में हलचल मचा रही थी. चाचाजी मिताली से विवाह करने की बात पर मेरा जवाब सुनना चाह रहे थे. वे मेरी सहमति की आस लगाए बैठे थे और मुझे ऐसा महसूस हो रहा था कि मेरा गुजरा कल आज मिताली के साथ में मेरे समक्ष आ खड़ा हुआ है. कल जब मैं अपने मातापिता से बिछुड़ कर चाचाचाची के समक्ष सहारे की उम्मीद लिए आ खड़ा हुआ था, यदि उस समय उन्होंने सहारा नहीं दिया होता तो मेरा जाने क्या होता. सत्य है इतिहास स्वयं को दोहराता है. वैसे चाचाजी यदि मेरी जान भी मांग लेते तो बिना सोचेविचारे मैं सहर्ष दे देता, किंतु चाचाजी ने मिताली से विवाह का प्रस्ताव रख मुझे असमंजस में डाल दिया था. मैं ने धीरे से कहा, ‘‘चाचाजी, मिताली को मैं ने हमेशा अपनी छोटी बहन माना है. ऐसे में भला मैं उस से शादी कैसे कर सकता हूं?’’

‘‘बेटा, तुम निराश करोगे तो हम कहां जाएंगे,’’ कहते हुए चाचाजी रो पड़े. मैं ने उन्हें संभालते हुए कहा, ‘‘चाचाजी, स्वयं को संभालिए. यों निराश होने से समस्या का समाधान कैसे निकलेगा? मैं नहीं जानता था कि आप लोग मिताली के पुनर्विवाह हेतु विचार कर रहे हैं. दरअसल, मेरा मित्र पंकज अपने विधुर भैया प्रसुन्न के लिए मुझ से मिताली का हाथ मांग रहा था, किंतु मैं उस के प्रस्ताव पर उस पर बिफर पड़ा था कि अभी बेचारी पीयूष के गम से उबर भी नहीं पाई है, उस का बच्चा मिताली के गर्भ में है, ऐसे में उस से मैं कहीं और शादी करने के लिए कैसे बोल सकता हूं. ‘‘उस ने मुझे समझाते हुए कहा था कि दोस्त गंभीरता से विचार कर. जो हुआ बहुत बुरा हुआ किंतु वह हो चुका है, तो अब उस से निकलने का उपाय सोचना होगा. मेरी भाभी बेटे के जन्म के साथ चल बसीं. आज बेटा डेढ़ वर्ष का हो गया है.

मेरी मां बेटे प्रखर का पालनपोषण करती हैं किंतु वे बूढ़ी और बीमार हैं. भैया दूसरी शादी के लिए इसलिए इनकार कर देते हैं कि अगर उन की दूसरी पत्नी उन के जान से प्यारे प्रखर के साथ बुरा व्यवहार करेगी तो वे बरदाश्त नहीं कर पाएंगे. वही सिचुएशन मिताली के समक्ष भी आ खड़ी हुई है. लेकिन वह बेचारी जिंदगी किस सहारे निकालेगी?

‘‘उस ने मुझे विस्तार से समझाते हुए कहा कि देख दोस्त मेरे भैया और मिताली दोनों संयोगवश अपने जीवनसाथियों से बिछुड़ आधेअधूरे रह गए हैं. हम दोनों को मिला कर उन के जीवन को सरस एवं सफल बनाएं, यही सर्वथा उचित होगा. मैं ने बहुत चिंतनमनन के बाद तेरे समक्ष यह प्रस्ताव रखा है. दोनों एकदूसरे के बच्चे को अपना कर जीवनसाथी बन जाएं, इसी में दोनों का सुख है. जो घटित हुआ उसे तो बदला नहीं जा सकता, किंतु उन का भविष्य तो अवश्य सुधारा जा सकता है. ‘‘गंभीरता से विचार करने पर मुझे भी पंकज का प्रस्ताव उचित लगा, किंतु आप लोगों से इस के बारे में चर्चा करने का साहस मुझ में न था. आज आप ने चर्चा की तो कहने का साहस जुटा पाया.’’

चाचाजी मेरी बातें शांति से सुन रहे थे और समझ भी रहे थे, क्योंकि अब वे संतुष्ट नजर आ रहे थे. चाचीजी जो अब तक परदे की ओट से हमारी बातें सुन रही थीं, लपक कर हमारे सामने आ खड़ी हुईं और अधीरता से बोलीं, ‘‘बेटा, कैसे हैं पंकज के भैया? क्या करते हैं? उम्र क्या है उन की और क्या तू उन से मिला है? वगैरहवगैरह.’’

मैं ने उन को पलंग पर बैठाते हुए कहा, ‘‘चाचीजी, पहले आप इतमीनान से बैठिए. मैं सब बताता हूं. बड़े नेक और संस्कारवान इनसान हैं. सरकारी स्कूल में शिक्षक हैं और मेरी ही उम्र के होंगे, क्योंकि पंकज से 2 साल ही बड़े हैं. पंकज मुझ से लगभग 2 साल ही छोटा है. वैसे आप लोग पहले उन से मिल लीजिए, उस के बाद निर्णय लीजिएगा. मैं तो मिताली को देख कर चिंतित हो जाता हूं. समझ नहीं पाता हूं कि वह इस बात के लिए तैयार होगी या नहीं. अभी बेहद गुमसुम व गमगीन रहती है.’’

‘‘बेटा, तू चिंता न कर. उसे विवाह के लिए हम सभी को प्रोत्साहित करना होगा. विवाह होने से वह स्वयं को सुरक्षित महसूस करेगी जिस का प्रभाव गर्भ पर भी सकारात्मक पड़ेगा. बेटा, वह अभी स्वयं को अकेली एवं असुरक्षित महसूस करती होगी. एक औरत होने के नाते मैं उस की भावनाएं समझ सकती हूं. यदि उसे सहारा मिल जाएगा तब उसे दुनिया और जीवन प्रकाशवान लगने लगेगा. हम सब के सहयोग और प्रोत्साहन से वह सामान्य जीवन के प्रति अग्रसर हो जाएगी,’’ चाची ने समझाते हुए कहा. फिर चाची 2 मिनट बाद बोलीं, ‘‘बेटा पवन मिताली की शादी के बाद हम तेरी शादी भी कर देना चाहते हैं.’’

‘‘ठीक है चाची, लेकिन अभी हमें सिर्फ मिताली के संबंध में ही सोचना चाहिए. कच्ची उम्र में बड़ी विपदा उस पर आ पड़ी है.’’ ‘‘हां बेटा, बहुत दुख लगता है उसे यों मूर्त बना देख कर, लेकिन तेरी जिम्मेदारी भी पूरी कर देना चाहती हूं. कोई नजर में हो तो बता देना,’’ कहते हुए चाची ने स्नेह से मेरा सिर सहला दिया. मैं कविता को याद कर अहिस्ता से मुसकरा दिया. प्रसुन्न भैया के साथ मिताली की शादी कर दी गई. उन के प्यार, संरक्षण एवं हम सभी के स्नेह, सहयोग एवं प्रोत्साहन से मिताली ने स्वयं को संभाल लिया. समय से उस ने प्यारी सी बेटी को जन्म दिया, तो हम सभी को सारा संसार गुलजार महसूस होने लगा. सब से बड़ी बात तो यह हुई कि अब मिताली खुश रहने लगी. बच्ची के नामकरण हेतु घर में चर्चा होने लगी, तो मैं ने कहा, ‘‘प्रसुन्न भैया, आप ने बेटे का नाम प्रखर बहुत प्यारा एवं सारगर्भित रखा है. उसी तरह बेटी का नाम भी आप ही बताएं.’’

प्रसुन्न भैया 2 पल सोच कर मुसकराते हुए बोले, ‘‘मेरी बेटी का नाम होगा पीयूषा, जो है तो पीयूष की निशानी किंतु दुनिया उसे मेरी निशानी के रूप में पहचानेगी.’’ फिर प्यार से उन्होंने मिताली की ओर देखा. मिताली उन्हें आदर और प्यार से देखने लगी मानों कह रही हो कि आप को पा कर मैं धन्य हो गई.

Social Story: जिस्म की सफेदी

Social Story: लखनऊ के हजरतगंज इलाके के एक शानदार कौंप्लैक्स में बने अपने  औफिस में बैठा हुआ सुषेन दीवार पर लगे आईने में अपने चेहरे को देख रहा था. चेहरे की सफेदी को काली दाढ़ी ने काफी हद तक घेर रखा था. उस सफेदी के नीचे दबी हुई महीन नसें भी वह आईने में साफ देख सकता था.

इनसान की चमड़ी भी उस की जिंदगी में कितनी अहमियत रखती है… काली चमड़ी… गोरी चमड़ी… मोटी चमड़ी… महीन चमड़ी… खूबसूरत और बदसूरत चमड़ी…

खूबसूरत… हां… सुषेन भी तो खूबसूरत था… बांका और सजीला नौजवान… सुषेन 20 साल पहले की यादों में डूबने लगा था.

कालेज में बीएससी करते समय बहुत सी लड़कियां सुषेन की दीवानी थीं, क्योंकि वह दिखने में तो हैंडसम था ही, साथ ही साथ विज्ञान के प्रैक्टिकल करने में भी उसे महारत हासिल थी.

पर सुषेन के दिल में तो किसी और ही लड़की का राज था और वह लड़की थी एमएससी फाइनल में पढ़ने वाली सुरभि.

सुरभि और सुषेन दोनों अकसर लाइब्रेरी में मिलते थे और वहीं दोनों की आंखें मिलीं, बातें हुईं और 2 जवान दिलों में प्यार होते देर नहीं लगी. दोनों ने महसूस किया कि वे एकदूसरे को जाननेपहचानने लगे हैं और दोनों के विचार भी आपस में मिलते हैं. यकीनन वे एकदूसरे के लिए बने हैं, इसलिए सुषेन और सुरभि ने एकदूसरे से शादी का वादा भी कर डाला.

सुरभि के घर वालों को इस रिश्ते से कोई परेशानी नहीं थी और सुषेन ने भी बगैर यह सोचे ही हामी भर दी थी कि क्या उस के घर वाले उस से उम्र में 2 साल बड़ी लड़की से शादी करने की इजाजत देंगे?

और वही हुआ भी. सुषेन के घर वालों को उस की उम्र से बड़ी लड़की से शादी कर लेने पर घोर एतराज हुआ, पर शायद सुषेन मन ही मन ठान चुका था कि उसे अपने आगे की जिंदगी कैसे और किस के साथ गुजारनी है,
इसलिए उस ने पहले अपनी पढ़ाई पूरी की और फिर नौकरी लगने के बाद सुरभि के साथ ब्याह भी रचा लिया.

सुषेन और सुरभि के ब्याह में सुषेन के घर से कोई नहीं आया था. मतलब साफ था कि उस ने घर वालों से बगावत कर के यह शादी की थी और इसी के साथ ही सुषेन के घर वालों ने उसे अपनी जायदाद से बेदखल कर दिया था.

सुरभि को पाने के लिए सुषेन ने अपना सबकुछ खो दिया था और इतनी पढ़ीलिखी और समझदार पत्नी पा कर वह मन ही मन बहुत खुश भी था. दोनों अपने जिंदगी मन भर कर जी लेना चाहते थे और इस के लिए उन्होंने कोई कमी नहीं छोड़ी थी.

सुरभि खुश थी और सुषेन भी, पर अचानक उन की खुशियों को तब ग्रहण लग गया जब एक दिन शेव करते समय सुषेन को अपने होंठों के किनारे एक छोटा सा सफेद दाग दिखाई दिया.

सभी की तरह सुषेन ने भी यह सोच कर अनदेखा कर दिया कि शायद ज्यादा सिगरेट पीने की वजह से होंठ कुछ सफेद हो गया होगा, पर उस की चिंता कुछ महीनों बाद बढ़ गई, क्योंकि वह छोटा सा दाग अब न केवल बड़ा हो गया था, बल्कि उसी तरह के चकत्ते शरीर में और जगह भी हो गए थे.

“तो क्या मुझे सफेद दाग हो गया है?” सुषेन मन ही मन शक से बुदबुदा उठा था. ड़ाक्टर को दिखाया तो उस का डर सही निकला. सुषेन को सफेद दाग नामक बीमारी हो गई थी.

डाक्टर ने सुषेन से तनाव नहीं लेने को कहा और बताया कि यह बीमारी धीरेधीरे ही ठीक होती है, इसलिए बताए मुताबिक दवा खाते रहें. पर नियम से लगातार दवा खाने के बाद भी सुषेन के शरीर पर सफेद दाग फैलते ही गए.

‘आखिर मुझे सफेद दाग जैसी बीमारी कैसे हो गई, क्योंकि मैं तो बहुत साफसफाई से रहता हूं… जल्दी किसी से हाथ नहीं मिलाता और अगर मिलाना भी पड़ जाए तो तुरंत हाथों को सैनेटाइज़ करता हूं… फिर भी… मुझे… कैसे?… क्यों…’ वगैरह सवाल सुषेन के दिमाग में घूम रहे थे.

“लोग मुझे देख कर नजरें चुरा लेते हैं… मेरी सूरत की तरफ कोई देखना भी नहीं चाहता है… मैं क्या करूं?” एक दिन सुषेन ने अपने खास दोस्त राघव से कहा.

राघव ने उसे एक बाबा का पता बताया और कहा, “वे बाबा तुम्हारे बदन पर भभूत मलेंगे और कुछ तंत्रमंत्र… और बस तू भलाचंगा हो जाएगा.”

सुषेन बिना देर किए उस बाबा के पास पहुंचा. बाबा ने सुषेन को ऊपर से नीचे तक देखा और बोला, “यह सफेद दाग की बीमारी है जो पिछले जन्म के पाप कर्मों से ही पनपती है. तू ने जरूर किसी सफेद खाल वाले बेजबान जानवर को सताया होगा, इसीलिए तेरा खून खराब हो चुका है और तेरी खाल का रंग भी सफेद हो गया है.

“हमें तेरे खून को साफ करने के लिए सोनेचांदी की भस्म का लेप तेरे पूरे बदन पर लगाना होगा और सोने को गला कर उस का काढ़ा तुझे पिलाना होगा, तब कहीं जा कर यह बीमारी सही हो पाएगी, पर…”

“पर क्या बाबा?” सुषेन ने पूछा.

“क्या है कि इलाज थोड़ा महंगा होगा, इसलिए कुछ एडवांस भी जमा करना पड़ेगा तुझे,” बाबा ने कहा.

“कितना भी महंगा इलाज हो बाबा, आप बस मुझे ठीक कर दो. मैं तो समाज में बैठने लायक नहीं रह गया हूं. आप इलाज शुरू कीजिए, मैं पैसे का इंतजाम करता हूं,” यह कहते हुए सुषेन बहुत जोश में लग रहा था.

बाबा ने इलाज का खर्चा 50,000 रुपए बताया था और 25,000 रुपए पहले ही जमा करा लिए थे.

बाबा ने इलाज शुरू किया. सुषेन को कई तरह के काढ़े पिलाए गए, शरीर के ऊपर भभूत भी मली गई, पर उन सब चीजों से उसे फायदा मिलने के बजाय नुकसान ही होता गया.

धीरेधीरे सुषेन हर तरफ से इलाज करा कर हार गया था. पाखंडी तांत्रिकों, झोलाछाप डाक्टरों, मुल्लेमौलवियों सब ने सुषेन को बस लूटा ही था. अब कहीं न कहीं सुषेन भी यह मान चुका था कि इस बीमारी का कोई इलाज नहीं है.

सुषेन एक तरफ तो इस बीमारी के चलते दिमागी तौर पर परेशान रहता था, दूसरी तरफ सामाजिक बहिष्कार ने उसे दुखी कर रखा था और तीसरी तरफ उसे यह भी लगने लगा था कि सुरभि की नजरों में अब उस के लिए प्यार की जगह तिरस्कार आता जा रहा है. अब वह पहले की तरह उस के पास नहीं बैठती थी और रात में उस के सोने के बाद वह अकसर सोफे पर चली जाती है और उसे शारीरिक संबंध भी नहीं बनाने देती है.

सुषेन को एहसास होने लगा था कि सुरभि अब उसे छोड़ देगी. सुरभि से इस बारे में पूछने पर उस का बड़ा सहज सा जवाब आया था, “हां.”

सुषेन के कानों में बहुतकुछ सनसनाता सा चला गया. उस ने जो सुना था, उस पर उसे भरोसा नहीं हो रहा था.

“बुरा मत मानना पर अब तुम्हें यह लाइलाज बीमारी हो गई है. तुम्हें तो इसी के साथ जीना होगा, पर मैं अभी जवान और खूबसूरत हूं. अपने पिछले जन्म के कर्मों का कियाधरा तुम भुगतो… मैं भला उस में क्यों पिसूं? मेरी और तुम्हारी राह आज से अलग है. मैं ने वकील से बात कर ली है. आपसी रजामंदी रहेगी तो तलाक आसानी से हो जाएगा…” और सुरभि ने बड़ी आसानी से इतनी बड़ी बात कह दी.

दोनों में तलाक हो गया. सुरभि कहां गई, यह जानने में सुषेन को कोई दिलचस्पी नहीं थी. वह अब मन ही मन घुटने लगा था. तनाव हमेशा उस के दिमाग और चेहरे को घेरे रहता. खुदकुशी तक करने का विचार आया, पर सुषेन को लगा कि यह तो सरासर बुजदिली होगी.

सुषेन ने अपनेआप को संभाला तो थोड़ा सहारा उसे रमोला ने भी दिया, जो उस के साथ ही काम करती थी. रमोला यह भी जानती थी कि अगर इस समय सुषेन को सहारा नहीं दिया गया तो वह कुछ भी कर सकता है.

“सुषेनजी, क्या आज आप मुझे मेरे घर तक छोड़ सकते हैं? अंधेरा ज्यादा हो गया है और आजकल शहर में अकेली औरत का निकलना सही नहीं है,” एक दिन रमोला ने सुषेन से कहा.

“क्यों नहीं… बिलकुल छोड़ दूंगा… बस, 15 मिनट और रुक जाइए, फिर साथ ही निकलते हैं,” सुषेन ने हामी भरते हुए कहा.

दरअसल, रमोला एक तलाकशुदा औरत थी. उस के पति ने सांवला रंग होने के चलते उस से तलाक ले लिया था और अब वह अकेली ही जिंदगी काट रही थी.

जब सुषेन अपनी मोटरसाइकिल पर रमोला को उस के घर छोड़ने जा रहा था, तब उस ने महसूस किया कि रमोला उस से कुछ ज्यादा ही सट कर बैठी है. पहले तो सुषेन को लगा कि यह अनजाने में भी हो सकता है, पर जब लगातार रमोला ने अपने गदराए जिस्म को सुषेन के बदन से सटाए रखा तो वह समझ गया कि रमोला को मर्दाना जिस्म की जरूरत है.

“अंदर आ कर एक कप चाय तो पी लीजिए,” रमोला ने कहा तो सुषेन भी मना नहीं कर सका.

वे दोनों अंदर आए ही थे कि बारिश शुरू हो गई. रमोला किचन में चाय बनाने चली गई. सुषेन को रमोला का यह लगाव बहुत सुहा रहा था.

“रमोलाजी, आप मुझे अपने घर के कप में चाय पिला रही हैं. क्या आप को मुझ से कोई परहेज नहीं है? मेरा मतलब है कि मेरे इन सफेद दाग की वजह से?”

“नहीं सुषेनजी, मैं ने आप को आज से पहले भी देखा है. आज भी आप इतने हैंडसम हैं, जितना पहले थे.”

यह सुन कर सुषेन को बहुत अच्छा लगा और वह रमोला की तरफ खिंचता चला गया. रमोला भी मन ही मन सुषेन को पसंद करती थी, जिस का नतीजा यह हुआ कि उन दोनों में जिस्मानी संबंध बन गए. जब एक बार दोनों ने एकदूसरे के जिस्म को भोगा तो फिर प्यार का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ कि दोनों के बीच अकसर संबंध बनने लगे.

बाद में उन दोनों ने इस रिश्ते को एक नाम देने की सोची और आपस में शादी कर ली. दोनों एक दूसरे के साथ जिंदगी बिता कर बहुत खुश थे, पर सुषेन के मन में कहीं न कहीं अपनी बीमारी को ले कर निराशा भी थी, क्योंकि समाज में उसे एक छूत की बीमारी माना जाता था और उस ने महसूस किया कि देश में ऐसे न जाने कितने लड़केलड़कियां हैं, जिन की शादी इस बीमारी के चलते नहीं हो पाती है.

लिहाजा, सुषेन और रमोला ने इस दिशा में कुछ ठोस काम करने की सोची और अपने खर्चे पर ऐसी 2 लड़कियों की शादी कराई, जिन की शादी में अड़चनें आ रही थीं. इस काम में कुछ समाजसेवी संस्थाओं ने भी उन की पैसे से मदद की थी.

आज जीतोड़ मेहनत कर के उन्होंने देश में अपनी एक पहचान बना ली है और इस काम को ढंग से करने के लिए उन के पास एक शानदार औफिस भी है.

आज सुरभि को सुषेन की जिंदगी से गए पूरे 25 साल हो गए थे. सुषेन अपने औफिस में बैठा हुआ काम में बिजी था कि उस के चपरासी ने बताया, “सर, कोई आप से मिलना चाहता है.”

सुषेन ने अंदर बुलवाने को कहा. थोड़ी देर में एक औरत एक आदमी के साथ अंदर आई. उन के साथ शायद उन की भी बेटी थी.

25 साल का समय लंबा जरूर होता है पर इतना लंबा भी नहीं कि आप उसे पहचान न सकें, जिस से शादी करने के लिए आप ने अपने घर वालों से बगावत कर दी थी. यह सुरभि थी. सुषेन उसे देखते ही पहचान गया था.

“जी, बात यह है कि मेरी बेटी को सफेद दाग की बीमारी है और इसी वजह से उस की शादी में अड़चन आ रही है,” वह आदमी बोला.

‘तो यह सुरभि का पति है. इस का मतलब है कि मुझे छोड़ते ही सुरभि ने इस आदमी से शादी कर ली थी और यह लड़की भी इसी आदमी की है, क्योंकि मुझे तो सुरभि ने अपने पास ही फटकने नहीं दिया था,’ सुषेन के मन में यह सब चल रहा था.

“जी, ठीक है. आप अपनी बेटी का नाम और उस के फोटो हमारे पास जमा करवा दीजिए. हमारी तरफ से जो भी मदद होगी, वह आप को दी जाएगी,” सुषेन ने सुरभि को देखते हुए कहा जो उस की घनी दाढ़ी के बीच छिपे चेहरे को पहचान लेने के बाद भी अनजान बनने की कोशिश कर रही थी.

Family Story: हृदयहीन – एक मध्यमवर्गीय परिवार की दिलचस्प कहानी

Family Story: ड्राइंगरूम में मम्मीपापा के साथ पड़ोस में रहने वाले अशोक अंकल और एक अनजान दंपती को देख कर दिव्या का चौंकना स्वाभाविक था.

‘‘लगता है बिटिया ने मुझे पहचाना नहीं,’’ अनजान सज्जन हंसे.

दिव्या ने उन्हें गौर से देखा, उसे पहचानते देर नहीं लगी कि ये तो उमेश चंद्र थे जो चंद घंटे पहले उस के होटल में अपनी बेटी की शादी के लिए हौल बुक कराने आए थे. उन्होंने बातचीत के दौरान उस से घरपरिवार के बारे में पूछा था. दिव्या ने उन की सज्जनता के प्रभाव में काफी कुछ बता दिया था. घर का पता सुनते ही उन्होंने कहा था कि स्टार टावर्स में तो उन के एक मित्र अशोक मित्तल भी रहते हैं और दिव्या ने बताया था कि वे उस के पापा के भी अच्छे दोस्त हैं.

‘‘सौरी अंकल, सोचा नहीं था कि आप से यहां और इतनी जल्दी मुलाकात होगी.’’

‘‘अब तो मुलाकातों का यह सिल- सिला चलता ही रहेगा बिटिया, अभी चलते हैं, फिर आएंगे,’’ उमेश चंद्र उठ खड़े हुए.

‘‘फिर भी आ जाइएगा अंकल, मगर अभी तो बैठिए,’’ दिव्या आग्रह करते हुए बोली, ‘‘आंटी से तो मेरा परिचय कराया ही नहीं.’’

‘‘परिचय क्या, आंटी तो तुम्हारी पूरी जन्मपत्री ले चुकी हैं. क्यों? यह आराम से जयाजी और उदयजी से सुनना, अभी हमें जाने दो, घर पर बच्चे इंतजार कर रहे हैं.’’

उन के जाने के बाद दिव्या ने देखा, मेज पर परिवार की कई तसवीरें बिखरी हुई थीं.

‘‘यह सब क्या है, मम्मी?’’

‘‘सब तेरा अपना कियाधरा है दिव्या, मम्मी का कोई कसूर नहीं है,’’ उदय ने कहा.

‘‘मेरा कियाधरा? मैं ने क्या किया है?’’ दिव्या ने झुंझला कर पूछा.

‘‘उमेश चंद्र से बेहद शालीनता और विनम्रता से बातें…’’

‘‘वह तो मेरी नौकरी का हिस्सा है मम्मी,’’ दिव्या ने बात काटी, ‘‘मुझे तनख्वाह ही उसी की मिलती है और अभी जो रुकने को कहा वह आप का सिखाया शिष्टाचार है. खैर, वे यहां आए किस खुशी में थे?’’

‘‘अपने इकलौते इंजीनियर बेटे देवेश के लिए तेरा हाथ मांगने.’’

‘‘और आप ने फौरन देने का वादा कर दिया?’’ दिव्या चिल्लाई.

‘‘वह लड़का देखने के बाद तेरी मरजी पूछ कर करेंगे, फिलहाल मिलने और लड़का देखने में हमें कुछ आपत्तिजनक नहीं लगा,’’ उदय ने कहा, ‘‘अगर लड़का अच्छा नहीं लगा तो मना कर देंगे.’’

दिव्या ने गहरी सांस ली.

‘‘वह तो आप शायद नहीं करेंगे, क्योंकि देवेश विनम्र और आकर्षक है, कल आया था हमारे होटल में हौल देखने.’’

‘‘हौल के साथ ही उस ने तुझे भी पसंद कर लिया और आज बात करने के लिए बाप को भेज दिया,’’ जया हंसीं.

‘‘उस ने शायद मुझे देखा भी न हो क्योंकि उस ने आते ही मेरे सहकर्मी विकास से बात की थी. वह केवल बैंक्वेट हौल को देखने और उस का किराया पता करने आया था और विकास से जरूरी जानकारी ले कर तभी चला गया था. उस समय मैं विकास की बराबर वाली सीट पर बैठी थी. इसलिए मेरा उसे देखना या उस की बात सुनना स्वाभाविक था.’’

‘‘यानी लड़का तुझे पसंद आया?’’

‘‘आप भी कमाल करती हैं, मम्मी. होटल में मेरे साथ एक से बढ़ कर एक स्मार्ट लोग काम करते हैं, पांचसितारा होटल में आने वाले सभी शालीन ही लगते हैं और मैं सब को पसंद करने लग गई तो हो गई छुट्टी. एक बात और, प्रोबेशन पीरियड में आप मेरी शादी की बात सोच भी कैसे सकती हैं?’’

‘‘तेरे पापा ने तो उमेश चंद्र को यह भी बताया था कि अपने बेटे सौरभ की गैरहाजिरी में वे बेटी की शादी की सोच भी नहीं सकते और सौरभ अगले साल के अंत से पहले नहीं आ सकता तो उन्होंने कहा कि उन्हें भी कोई जल्दी नहीं है.’’

‘‘पूरी बात बताओ न जया, उमेश चंद्र ने साफ कहा कि बेटी की शादी करने के तुरंत बाद बेटे की शादी करने लायक उन की हैसियत नहीं है लेकिन लड़की अच्छी लगी, इसलिए बात करने चले आए इस उम्मीद से कि शायद हम कुछ समय बाद शादी करने के लिए मान जाएं. हमें वे सुलझे हुए लोग लगे इसलिए हम ने उन्हें सपरिवार बुलाया है. लड़के की सुविधानुसार आएंगे वे किसी दिन.’’

‘‘यह भी बता दिया न कि मुझे उन के लड़के की सुविधानुसार जब चाहे तब छुट्टी नहीं मिलेगी?’’

‘‘अपनी छुट्टी का दिन और घर आने का समय तो तू स्वयं ही उन्हें बता चुकी है,’’ जया और उदय हंसने लगे.

दिव्या मुंह बनाती हुई अपने कमरे में चली गई.

अगले सप्ताह उमेश चंद्र पत्नी और बेटीबेटे के साथ आए. दिव्या को पापा से सहमत होना पड़ा कि सुलझे हुए लोग हैं. देवेश ने उस से साफ कहा कि वह दहेज में कुछ नहीं लेगा और दिव्या को अपने शौक उस की या अपनी सीमित आय में ही पूरे करने होंगे. इकलौता बेटा है इसलिए मातापिता के प्रति उस के कुछ दायित्व हैं. उन्हें छोड़ कर न तो वह ज्यादा पैसे के लालच में विदेश जाएगा और न ही तरक्की के लिए किसी दूसरे शहर में. दिव्या को इसी शहर में उस के मातापिता के साथ रहना पड़ेगा. दोनों ही शर्तें दिव्या को मंजूर थीं क्योंकि उस के मातापिता भी यह शहर छोड़ कर जाने वाले नहीं थे. यहां रहते हुए वह बराबर उन का खयाल भी रख सकेगी और देवेश का संयुक्त परिवार होने से जरूरत पड़ने पर मम्मीपापा के पास आ कर रहने में भी आसानी रहेगी. जल्दी ही दोनों की सगाई हो गई. सगाई के बावजूद देवेश का व्यवहार बहुत सौम्य और शालीन था. वह दिव्या को फोन करता था, उस से मिलने आता और घुमाने भी ले जाता था लेकिन दिव्या की सुविधानुसार. उस का कहना था कि प्रोबेशन पीरियड पूरे कैरियर की नींव है. अगर वह पुख्ता हो गई तो बुलंदियों को छूना मुश्किल नहीं होगा. दिव्या का भी यही सपना था, होटल की सर्वोच्च कुरसी पर बैठना. देवेश जैसे समझदार जीवनसाथी के साथ अब यह मुश्किल नहीं लग रहा था.

दिव्या के प्रोबेशन पीरियड पूरे होने से कुछ रोज पहले सीढि़यों से गिरने के कारण जया के दाहिने कंधे की हड्डी कई जगह से टूट गई. कई घंटे के औपरेशन के बाद कंधे को जोड़ तो दिया गया लेकिन डाक्टर ने उन्हें आराम और एहतियात बरतने को कहा था. मां के फ्रैक्चर की खबर सुनते ही दिव्या की बड़ी बहन विजया भी आ गई थी, उस के रहते दिव्या काम पर जाती रही लेकिन विजया अपना घर और बच्चे छोड़ कर कितने रोज तक रुक सकती थी. जया तो पूरी तरह से विजया पर आश्रित थीं. उन्हें सहारा दे कर उठानाबैठाना, यहां तक कि एक खास अवस्था में लिटाना तक पड़ता था. पापा कितनी छुट्टी लेते और फिर मां और घर दोनों की देखभाल उन के बस की बात नहीं थी. दिव्या को छुट्टी तो नहीं मिल सकती थी लेकिन प्रोबेशन पीरियड पूरा होते ही वह नौकरी छोड़ सकती थी, इसलिए उस ने वही किया. मम्मीपापा ने तो नौकरी छोड़ने के लिए मना किया था लेकिन दिव्या के यह कहने पर कि नौकरी तो कभी भी दोबारा मिल जाएगी लेकिन तीमारदारी में थोड़ी सी कोताही हो गई तो मम्मी हमेशा के लिए अपाहिज हो जाएंगी, वे गद्गद हो गए. सौरभ और विजया ने भी उस की बहुत तारीफ की और आभार माना लेकिन देवेश यह सुनते ही कि उस ने नौकरी छोड़ दी है, बुरी तरह भड़क गया.

‘‘किस ने कहा था तुम्हें लगीलगाई बढि़या नौकरी छोड़ने के लिए?’’

‘‘मेरी अंतरात्मा ने, अपनी मम्मी के प्रति जो मेरा कर्तव्यबोध है, उस ने.’’

‘‘कर्तव्य केवल तुम्हारा ही है? तुम्हारे बहनभाई या पापा का नहीं?’’

‘‘विजया दीदी घर और बच्चे छोड़ कर जितना रुक सकती थीं, रुक गईं, सौरभ भैया स्कौलरशिप पर पीएचडी कर रहे हैं इसलिए बीच में छोड़ कर नहीं आ सकते लेकिन पार्ट टाइम जौब कर के पैसा भेज रहे हैं…’’

‘‘तो उस पैसे से तुम्हारे पापा मम्मी के लिए ट्रेंड नर्स क्यों नहीं रखते?’’ देवेश ने बात काटी.

‘‘नर्स तो है ही देवेश लेकिन उस पर नजर रखने और मम्मी का मनोबल बनाए रखने के लिए परिवार के किसी सदस्य का हरदम उन के साथ रहना जरूरी है और फिलहाल यह काम मैं ही कर सकती हूं.’’

‘‘पांचसितारा होटल की नौकरी छोड़ कर? नौकरी छोड़ने से पहले किसी से पूछा तो होता?’’

‘‘जरूर पूछती अगर कोई गलत काम कर रही होती तो. मम्मी के बिलकुल ठीक होने के बाद फिर नौकरी तलाश कर लूंगी. वैसे यह होटल भी दोबारा जौइन कर सकती हूं.’’

‘‘लेकिन उसी पोजीशन और तनख्वाह पर, जिस पर तुम कल तक थीं,’’ देवेश ने तल्ख स्वर में कहा, ‘‘अगर 6 महीने के बाद भी जौइन किया तो लौंग रन में जानती हो कितने का नुकसान होगा?’’

दिव्या का मन एक अजीब से अवसाद से भर उठा. कमाल का आदमी है, मानवीय संवेदनाओं को पैसे से तौल रहा है. लेकिन वह कुछ बोली नहीं, मम्मी के आईसीयू में रहने के दौरान देवेश बराबर पापा के साथ रहा था और उन्हें सौरभ की कमी महसूस नहीं होने दी थी. उस के घर वाले भी परिवार की तरह उन सब के लिए खाना लाते थे, जया को तसल्ली दिया करते थे.

उदय और जया बहुत खुश थे कि दिव्या को इतना अच्छा घरवर मिला है. दिव्या को लगा कि नौकरी में अनुभव होने के कारण शायद देवेश को मालूम होगा कि नौकरी में वरीयता की क्या अहमियत है मगर दिव्या की वरीयता तो मम्मी की संतुष्टि और सेहत थी. देवेश रोज ही शाम को जया को देखने आया करता था लेकिन उस रोज के बाद वह नहीं आया और न ही उस ने फोन किया. 2-3 रोज के बाद जया ने पूछा कि देवेश क्यों नहीं आ रहा है तो दिव्या ने उन्हें टालने को कह दिया कि काम में व्यस्त है. जया को तसल्ली नहीं हुई और अगले रोज उन्होंने स्वयं देवेश को फोन किया.

‘‘क्या बात है बेटा, तुम घर आ नहीं रहे, बहुत व्यस्त हो काम में?’’

‘‘काम छोड़ कर दिव्या बैठ तो गई है आप के सिरहाने,’’ देवेश ने तल्ख स्वर में कहा.

‘‘हां बेटा, रातदिन साए की तरह मेरे साथ रहती है. तभी कह रही हूं कि तुम आ जाओगे तो उस का ध्यान बंटेगा, हंसबोल लेगी तुम से.’’

‘‘उस के हंसनेबोलने की तो आप को फिक्र है लेकिन उस के कैरियर की नहीं, अभी भी देर नहीं हुई है, उसे समझा कर भेज दीजिए काम पर,’’ देवेश के स्वर में व्यंग्य था या आदेश, जया समझ नहीं सकीं.

‘‘देवेश को शायद दिव्या का नौकरी छोड़ना पसंद नहीं आया,’’ जया ने शाम को उदय के घर लौटने पर कहा.

‘‘शायद क्या, बिलकुल पसंद नहीं आया,’’ दिव्या बोली, ‘‘सुनते ही बौखला गया और लगा उलटासीधा बोलने.’’

‘‘कुछ ऐसा ही हाल उस के पिताजी का भी हुआ था,’’ उदय ने हंस कर कहा, ‘‘वे भी बौखला कर कहने लगे कि दुनिया में बहुत से लोग बाएं हाथ से सब काम करते हैं, जयाजी भी करना सीख लेंगी. उस के लिए दिव्या का कैरियर क्यों खराब कर रहे हैं? सोचा नहीं था कि उमेश चंद्रजी जैसे सज्जन व्यक्ति ऐसी बेहूदा बात कर सकते हैं.’’

‘‘जब उन्हें पसंद नहीं है तो तेरा काम पर लौटना ही मुनासिब होगा, दिव्या,’’ जया ने चिंतित स्वर में कहा.

‘‘काम पर तो लौटना है ही और जरूर लौटूंगी, मम्मी, लेकिन तब जब आप बिलकुल ठीक हो जाएंगी यानी मुझे अपने हाथ से बनाए परांठे खिला कर काम पर भेजेंगी.’’

‘‘और अगर मैं इस काबिल न हुई तो?’’

‘‘क्यों नहीं होगी?’’ दिव्या ने जिरह की, ‘‘औपरेशन से हड्डियां बिलकुल सही बैठा दी गई हैं. बस, अब इंतजार है उन के जुड़ने का और वे भी सही जुड़ जाएंगी अगर आप फालतू में हिलेंगीडुलेंगी नहीं और उस की चौकसी करने को मैं हूं ही.’’

‘‘ससुराल वालों की नाराजगी की कीमत पर?’’

‘‘वे अभी मेरे ससुराल वाले नहीं हैं, मम्मी. और न ही फिलहाल उन्हें मेरे व्यक्तिगत मामलों में हस्तक्षेप करने का हक है.’’

‘‘यह तो तू ठीक कह रही है बेटी,’’ पापा ने बात काटी, ‘‘नौकरी करना या छोड़ना एक नितांत व्यक्तिगत मामला है, खासकर उन लड़कियों के लिए जो शौक के लिए नौकरी करती हैं, पैसों के लिए नहीं.’’

‘‘यही नहीं पापा, बात भावनाओं को समझने की भी तो है. जो लोग हमारे हालात और मजबूरियों को नहीं समझ रहे, वे सज्जनता का मुखौटा लगाए संवेदनहीन लोग नहीं हैं क्या?’’ दिव्या ने पूछा.

‘‘जहां पैसे का सवाल हो बेटा वहां मध्यम वर्ग के लोग भावुक होने के बजाय अकसर व्यावहारिक हो जाते हैं.’’

‘‘लेकिन अभी तो पैसा उन की जेब से नहीं जा रहा. दूसरी बात यह कि उन्होंने आप को बताया था कि अपने काम के प्रति मेरी निष्ठा से प्रभावित हो कर वे आप से मेरा हाथ मांगने आए थे, फिर अब अपने कर्तव्य या मां के प्रति मेरी निष्ठा से उन्हें तकलीफ क्यों हो रही है?’’ दिव्या ने फिर पूछा.

‘‘कभी मौका देख कर देवेश से पूछ लेना,’’ उदय ने टालने के स्वर में कहा लेकिन उमेश चंद्र और देवेश का व्यवहार उन्हें भी सामान्य नहीं लगा था और वे भी जानना चाहते थे कि कहीं उन लोगों ने दिव्या के रूपगुण की अपेक्षा उस की तगड़ी तनख्वाह से प्रभावित हो कर तो रिश्ता नहीं किया था? उस के बाद देवेश या उमेश चंद्र ने फोन नहीं किया. जया चाहती थीं कि उन से संपर्क किया जाए मगर दिव्या नहीं मानी.

‘‘परेशानी हमारे घर में है मम्मी, इसलिए उन लोगों को हमारी खैरखबर पूछनी चाहिए और अगर वे लोग मेरी नौकरी छोड़ने से नाराज हैं तो भूल जाइए कि मैं उन की खुशी के लिए आप के ठीक होने से पहले नौकरी जौइन करूंगी, इसलिए बेहतर है कि हम अभी चुप रहें,’’ दिव्या ने दृढ़ स्वर में कहा. जया और उदय दिव्या से सहमत तो थे लेकिन फिर भी उन्हें यह सब ठीक नहीं लग रहा था और वे किसी तरह उन लोगों का हालचाल जानना चाहते थे. इसलिए उदय एक रोज अशोक मित्तल से मिलने के लिए उन के घर गए. कुछ देर अशोक से इधरउधर की बातें करने के बाद उन्होंने उमेश चंद्र का जिक्र छेड़ा.

‘‘यार क्या बताऊं, कंधा तो भाभीजी का टूटा मगर उम्मीदें और दिल उमेश के परिवार के टूट गए,’’ अशोक ने गहरी सांस ले कर कहा, ‘‘असल में अपने मध्यम वर्ग को आदर्शवादी बनना रास नहीं आता. ईमानदारी से नौकरी करते हुए उमेश ने बच्चों को हैसियत से बढ़ कर उच्च शिक्षा दिलवाई, लड़की की शादी में खर्च भी दिल खोल कर किया और यह फैसला भी किया कि लड़के की शादी में दहेज नहीं लेगा, किसी अच्छी नौकरी वाली लड़की को ही बहू बनाएगा. देवेश भी अपने व्यवसाय के प्रति समर्पित लड़की से ही शादी करना चाहता था ताकि घर में मां की सत्ता बरकरार रहे और बीवी की तगड़ी तनख्वाह भी आती रहे. दिव्या से मिलने के बाद परिवार को अपना सपना साकार होता लगा लेकिन भाभीजी ने अपने कंधे के साथ ही उन का सपना भी चकनाचूर कर दिया. भाभीजी का कंधा तो खैर सही इलाज से जुड़ गया है मगर उमेश के परिवार के सपने जुड़ने में समय लगेगा.’’

‘‘वह क्यों?’’

‘‘क्योंकि देवेश को एक स्ट्रिक्टली कैरियर माइंडिड लड़की चाहिए. हालांकि इस बीच उसे दिव्या से प्यार भी हो गया है लेकिन उसे लगता है कि दिव्या अपने कैरियर के प्रति नहीं, घरपरिवार के प्रति अधिक समर्पित है. घरपरिवार में तो परेशानियां आती ही रहेंगी, खासकर बालबच्चे होने के बाद. इसलिए दिव्या जबतब छुट्टी ले कर या तो अपनी तरक्की के अवसर खराब किया करेगी या नौकरी छोड़ दिया करेगी…’’

‘‘और यह देवेश की तिकड़मी योजनाओं के अनुकूल नहीं है,’’ उदय ने बात काटी.

‘‘बिलकुल. मैं ने समझाया है कि यह कोई ऐसी गंभीर समस्या नहीं है, प्रभुत्व वाले पद पर पहुंचने के बाद हर कोई प्रैक्टिकल हो जाता है, दिव्या भी हो जाएगी. वह मेरी इस बात से तो सहमत है.’’

‘देवेश हो सकता है सहमत हो लेकिन दिव्या जैसी संवेदनशील लड़की प्रैक्टिकल होते हुए भी कभी भी देवेश जैसे हृदयहीन व्यक्ति के तिकड़मी विचारों से सहमत नहीं होगी और न ही तालमेल बिठा पाएगी,’ उदय ने घर लौटते हुए सोचा, ‘और इस के लिए मैं और जया कभी भी उस पर दबाव नहीं डालेंगे.’

Social Story: रुक के देखे न कभी पैर के छाले हमने

Social Story: 31 मार्च, 2020. धूप इतनी तेज थी कि चमकती सड़क पर आंखें चुंधिया रही थीं. कोरोना की मार से पहले भूख की मार के डर से मजदूर अपनेअपने घरगांव लौटने के लिए बेचैन हो उठे. ट्रेनबस समेत तमाम सवारियां बंद होने के चलते वे पैदल ही चल पड़े.

जुबैर, नाजिया और उन के तीनों बच्चे. रामभरोसे, उस की पत्नी कलावती, रामभरोसे का छोटा भाई कन्हैया और उन की 65 साल की बूढ़ी मां सरस्वती. कुलमिला कर 9 लोगों का जत्था दिल्ली से चंपारण के लिए पैदल चल रहा था.

सड़कों के चौड़ीकरण ने किनारे खड़े तमाम पेड़ों को निगल लिया था. हाईवे पर पसीना बहाते, गमछे और आंचल की छांव तले कदम से कदम मिलाते ये लोग चले जा रहे थे. मीलों चलने के बाद एक घना पेड़ नजर आया, जहां उन्हें आराम करने का मौका मिला.

दिल्ली से चंपारण की दूरी 1,000 किलोमीटर से ऊपर होगी, लेकिन मौत के सामने यह दूरी इन्हें कम लग रही थी.

लौकडाउन का ऐलान होते ही कारखाना बंद कर के मालिक ने जगह खाली करने का फरमान सुना दिया था. बीमारी की भयावहता को देखते हुए सरकार ने दुकान, होटल, ट्रेन, बस, टैंपोरिकशा सब बंद कर दिया, ताकि कम्यूनिटी इंफैक्शन को रोका जा सके.

सफर का दूसरा दिन. सहारनपुर से इन का काफिला निकला. शाजेब और शहाब अपनी मां नाजिया की उंगली थामें चल रहे थे, जबकि सूफिया अपने अब्बु जुबैर के कंधे पर सवार थी. साथ में सामान से भरे 2 बैग भी जुबेर के कंधों से लटक रहे थे.

रामभरोसे के लिए सब से भारी बोझ उस की मां सरस्वती थी. एक तो बूढ़ी, ऊपर से बीमार. वह बेचारी भी हांफतेकांपते कदमों से चलने को मजबूर थी.

बहरहाल, सब ने अपनेअपने सामान पेड़ के नीचे रखे और बैठ कर सुस्ताने लगे. कलावती ने फटी हुई चादर बिछाई तो कन्हैया दौड़ कर चापाकल से पानी ले आया. शाजेब और शहाब कुछ खाने की जिद करने लगे.

नाजिया के पास बिसकुट के 2 पैकेट बचे थे, जो उस ने 5 रुपए के बदले 10-10 रुपए में खरीदे थे. 2 बिसकुट के पैकेट और 4 बच्चे… शाजेब, शहाब, सूफिया और कन्हैया. हालात के शिकार बच्चों ने उसी में मिलबांट कर खाया और बड़े लोगों ने सिर्फ पानी से प्यास बुझाई, फिर आगे चल दिए.

अचानक लौकडाउन होने के चलते सेठ ने 1000-1000 रुपए दे कर उन्हें टरका दिया था. दोनों परिवार एक ही गांव के थे. रामभरोसे के पास अब महज 680 रुपए और जुबैर के पास 820 रुपए बचे थे.

रास्ते में एक जगह मकई के भुट्टे खरीद कर सभी ने पेट की आग को शांत किया और सफर जारी रखा. बच्चे और बूढ़े में दम ही कितना होता है, इसलिए हर 4-5 किलोमीटर पर उन्हें रुकना पड़ता, ठहरना पड़ता. जगहजगह पुलिस वालों के सवालों का जवाब देना पड़ता और कहींकहीं लाठियां भी खानी पड़तीं.

रात होने लगी. अनजान शहर में खोजतेखोजते मुश्किल से एक रैनबसेरा मिला, लेकिन पुलिस वालों ने वहां भी ठहरने से रोक दिया. मजबूरन वहां से आगे बढ़े और कुछ दूर चल कर सड़क के किनारे सो रहे मजदूरों की कतार में प्लास्टिक बिछा कर सो गए.

भूख से अंतड़ियां कुलबुला रही थीं, इसलिए नींद नहीं आ रही थी. पैर के छाले अलग ऊधम मचा रहे थे और गरम बिछौना बनी सड़क अलग मुंह चिढ़ा रही थी.

रात के 2 बज रहे होंगे कि रामभरोसे की पत्नी कलावती को शक हुआ कि उस की सास सरस्वती देवी की सांसें बंद हो चुकी हैं. उस ने ‘अम्मांअम्मां’ कह कर जगाना चाहा, पर वह तो नहीं जागी, लेकिन बाकी सभी लोग जाग गए.

सब के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं. बुढ़िया मर चुकी थी और उन के लिए बहुत बड़ी समस्या छोड़ चुकी थी. वह कोरोना से मरी, थकान से मरी या बीमारी से मरी, इस से मतलब नहीं था, मतलब इस से था कि वह अपने साथ सब को ले कर मरी थी, इसलिए सब ने सरस्वती देवी की लाश को छोड़ कर चुपचाप निकल जाने में ही भलाई समझी.

सब तो जाने लगे, लेकिन 8 साल का कन्हैया अपनी मां को छोड़ कर जाने के लिए तैयार नहीं था. मां की लाश से लिपट कर वह जोरजोर से रो रहा था. सब ने समझाया कि चिल्लाना बंद करो वरना कोरोना के चक्कर में सब पकड़े जाएंगे. न सवारी है, न लाश ढोने का माद्दा, और न ही अंतिम संस्कार के लिए पैसे हैं. लाश का अंतिम संस्कार तो सरकार कर ही देगी, फिर मरने वाले के साथ इतने लोगों की जान सांसत में डालने का क्या मतलब.

फिर भी कन्हैया मानने के लिए तैयार नहीं था। बच्चा था, मासूम था, मां की याद उस के दिल में अभी भी बरकरार थी. दुनिया के पैतरेबाजी से अनजान था, इसलिए मां को लाश मानने के लिए तैयार नहीं था.

रामभरोसे ने कहा, “रे कन्हैया, मां हम दोनों की थी, पर तू बात क्यों नहीं समझता है, अब इस को घसीट कर तो ले नहीं जा सकते.”

कलावती ने कहा, “छोड़ दो इस को भी, अपनी माई के साथ यहीं सड़ता रहेगा.”

रामभरोसे ने ‘चटाक’ से एक थप्पड़ कलावती के गाल पर जमाते हुए कहा, “बच्चा है… समझा रहे हैं… तुम्हारी मां थोड़ी है… उस की मां है तो रोएगा ही… तुम क्यों भचरभचर कर रही हो.”

आखिरकार सब ने मिल कर कन्हैया को लाश से खींच कर अलग किया और उसे घसीटते हुए ले चले.

चौथे दिन लखनऊ पहुंचे. अब दोनों परिवारों के पास महज 300-300 रुपए बच रहे थे, जबकि सफर खासा लंबा था. पैर के छालों ने रुलाना छोड़ दिया और समझा दिया कि वे उन के हमसफर हैं, जो साथसाथ चलेंगे.

रात दर रात खुले आसमान में सोतेजागते जुबैर के दोनों बेटों को निमोनिया हो गया. नाजिया छाती पीटने लगी, ‘हायहाय’ करने लगी. न कोई मददगार, न डाक्टर, न दवा. बच्चे निमोनिया से जितना हांफते, नाजिया उतना ही तड़पती.

जैसेतैसे वे लोग एक सरकारी अस्पताल पहुंचे. कोरोना के डर से अस्पताल वालों ने मरीजों को दूसरे राज्य का बता कर इलाज करने से मना कर दिया.

अनजान जगह, सड़कों पर लोग नहीं, जेब में पैसे नहीं, हर तरफ मरघट जैसा सन्नाटा. भागतेभागते एक प्राइवेट क्लिनिक पहुंचे, जहां छिपछिपा कर इलाज चल रहा था.

डाक्टर ने 5,000 रुपए का खर्च बताया. उन लोगों के पास कुल जमा 600 रुपए बचे थे. डाक्टर ने इनकार कर दिया. सब एकदूसरे का मुंह ताकने लगे.

जुबैर ने कहा, “डाक्टर साहब, हम पर रहम करें, हम हालात के मारे हुए लोग हैं.”

डाक्टर ने अपने कंपाउंडर से उन्हें बाहर निकालने का इशारा किया. लेकिन, बच्चों की मां अभी जिंदा थी, उस के कानों में सोने की बाली थी. नाजिया ने उन्हें उतार कर डाक्टर के सामने रख दिया.

डाक्टर ने मन ही मन दोनों बाली को तोला और इलाज शुरू कर दिया.

इलाज से एक बच्चा बच गया तो दूसरा नहीं रहा. नाजिया गम से निढाल हो गई. एक मां के लिए उस की औलाद से बढ़ कर कुछ नही होता. नाजिया कभी कोरोना को कोसती, कभी सरकार को कोसती तो कभी अपनी गरीबी को.

बच्चे की लाश को रास्ते में दफना कर वे लोग फिर से आगे बढ़े. 9 में से 2 लोग साथ छोड़ चुके थे और बच गए थे 7 जाने, जबकि मंजिल अभी काफी दूर थी.

छठे दिन वे सब गोंडा पहुंचे. अपनों से बिछड़ने का गम अलग, कोरोना की मार अलग और भूख से बेहाल अलग. मजलूम इनसान अपनी बेबसी से लड़े, कोरोना से लड़े या भूख से लड़े… पैर के छाले और मुंह के छाले आपस में होड़ करने लगे, एकदूसरे को चिढ़ाने लगे, इनसान की मजबूरी पर मुसकराने लगे.

रास्ते में एक जगह लंगर चल रहा था. यह देख कर सब के चेहरे खिल उठे. सुख हो या दुख, भूख तो अपनी जगह हर हाल में बरकरार रहती है. सब ने पेट भर कर खाना खाया. जब पेट भरा तब गम कुछ हलका हुआ, फिर एक टाइम का खाना भी साथ में बांध लिया और आराम करने की गरज से रेलवे स्टेशन की ओर चल पड़े.

जैसे ही गोंडा जंक्शन पहुंचे आरपीएफ वाले लाठीडंडा ले कर आ धमके. काफी गुजारिश के बाद उन्हें रात गुजारने की मोहलत मिली. जब पेट भरा हो और ऊपर से जिस्म पर थकावट भी तारी हो तो नींद बहुत अच्छी आती है, इसलिए सब लोग घोड़े बेच कर सो गए.

अगली सुबह एक और मुसीबत सामने खड़ी थी. उन के सारे सामान चोरी हो चुके थे. बैग में रखे कपड़ेलत्ते, मोबाइल चार्जर, आईडी कार्ड, आधारकार्ड सबकुछ गायब.

“अब घर कैसे जाएंगे…” यह कलावती की फरियाद थी, जबकि नाजिया के आंसू तो कब के सूख चुके थे. कन्हैया कभीकभी दोनों औरतों की मनोदशा देख कर रोने लगता, फिर अपनेआप चुप भी हो जाता.

जुबैर और रामभरोसे को हर हाल में अपनी माटी को गले लगाना था. वे किस से अपना दुखड़ा रोते। बस किसी तरह वे लोग अपने गांव पहुंच जाना चाहते थे. अभी रास्ता आधा बचा था, जबकि जेब खाली हो चुकी थी.

फिर चलतेचलते सुबह से दोपहर और दोपहर से शाम हो गई. पैर नौनौ मन के हो गए, जो उठाए नहीं उठ रहे थे. होंठों पर भूख से पपड़ी पड़ चुकी थी. पेट धंस कर पीठ में समा चुके थे.

बसस्टैंड पर भीड़ देख कर वे लोग रुक गए. पास पहुंचे तो देखा कि कुछ लोग खाने के पैकेट बांट रहे हैं, शायद एनजीओ वाले थे. खाने के पैकेट देख कर सब के चेहरे खिल उठे. सभी लाइन में लग गए और अपनी बारी का इंतजार करने लगे.

अगला ठहराव गोरखपुर में था जहां से चंपारण की दूरी महज 150 किलोमीटर थी. मांबाप के नाजों में पली नाजिया अब बेदम हो चुकी थी. उस के पैरों के छाले घाव बन कर तड़पा रहे थे. बुखार से उस का सारा बदन तप रहा था. उस के दोनों बच्चे अपनी अम्मी का मुंह ताक रहे थे, लेकिन अम्मी में इतनी भी ताकत नहीं बची थी कि वह अपने बच्चों को दुलार सके, पुचकार सके, उन के चेहरों पर हाथ फेर सके.

जुबैर अपनेआप को कोस रहा था और सारी मुसीबत की जड़ खुद को मान रहा था. एक बच्चा खो चुका था अब बीवी भी हाथ से निकलती नजर आ रही थी.

मेहनतकश कलावती भी अब हार मान चुकी थी. उस से भी चला नहीं जा रहा था, फिर भी वह नाजिया के बच्चों की देखभाल कर रही थी.

दूर हाईवे के किनारे खड़ी एंबुलैंस को देख कर कुछ उम्मीद नजर आई. रामभरोसे लपक कर ड्राइवर के पास गया और बातें करने लगा. रामभरोसे ने इशारे से कन्हैया को बुलाया. जुबैर चुपचाप यह सबकुछ देख रहा था.

कन्हैया ने आ कर जुबैर को बताया, “ड्राइवर 7,000 रुपए में घर पहुंचाने को तैयार हुआ है. क्या कहते हो? पैसे घर चल कर देने हैं.”

‘घर पर कर्ज ले कर भाड़ा दे देंगे,’ यह सोच कर जुबैर फौरन तैयार हो गया.

फिर एंबुलैंस का ड्राइवर सभी अधमरे इनसानों को लाद कर, मुसकराते, सीटी बजाते हुए चंपारण के लिए चल पड़ा. यह आज का उस का दूसरा भाड़ा था.

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