Short Story: मजाक – प्यार का एहसास

Short Story, लेखिका- सुनीता चंद्रा

मैं अकेली पत्नी बेचारी, मुझे धुन चढ़ी कि प्रेम का एहसास पाऊं. इस एहसास को पाने के लिए मैं ने क्याक्या नहीं किया. अब आप पूछेंगे कि मुझे यह धुन चढ़ी क्यों? तो हुआ यों कि मैं बाल धो कर सजसंवर कर अपनी बालकनी में खड़ी थी तो युवकयुवती मेरी बालकनी के नीचे खड़े बातें कर रहे थे. अब कोई इतनी जोरजोर से बातें करेगा, तो मैं कान तो बंद नहीं कर सकती. बातें कुछ रोमांटिक थीं तो मैं भी ध्यान से सुनने लगी.

युवती कह रही थी कि भई, यह प्यार का एहसास भी क्या एहसास है, सबकुछ भुला देता है. सब नयानया लग रहा है. अपने पराए हो जाते हैं और जिसे कुछ दिन पहले मिले उस के लिए दुनिया भी छोड़ देने को तैयार…

अब मैं उन्हें सुनना छोड़ कर प्यार का एहसास क्या होता है, यह सोचने लग गई. भई, इतने साल हो गए मुझे क्यों नहीं यह एहसास हुआ अभी तक? अब मैं ने भी ठाना कि यह एहसास तो कर के ही रहूंगी.

अब मैं सजसंवर कर शाम को पति के आने का इंतजार करने लगी. पति आए और मैं झट से पेड़ की लता की माफिक उन से लिपट गई. पति बेचारे घबरा कर दूर हटे. मैं बेचारी प्यार के एहसास से महरूम उलटे पति के पसीने से तरबतर शरीर से आती बदबू से चकरा गई. मैं ने झट से अच्छा सा अपना मनपसंद परफ्यूम नथुनों से लगाया और सोचा, कोई बात नहीं, किला तो फतह कर के ही रहूंगी.

मैं ने अगले दिन रात के खाने में अच्छेअच्छे व्यंजन बनाए और फिर से पति का इंताजर करने लगी. पतिदेव आए, लेकिन साथ में ढेर सारे दोस्तों को ले कर और दरवाजे से ही आवाज लगाई, ‘‘अरे भई, देखो मेरे साथ कौनकौन आया है… ये सब आज तुम्हारे हाथों का बना खाना खा कर जाएंगे.’’

मैं अब अकेली पत्नी बेचारी. लंबी सांस भर कर रह गई. खैर, खाना बनाया गया. सब ने खाना खा कर खूब तारीफ की, डकार मारी और देर शाम तक खूब मस्ती की और फिर चले गए. मैं फिर प्यार के एहसास से कोसों दूर उलटे किचन में चारों तरफ बिखरे जूठे बरतन देख परेशान हो उठी.

अगले दिन मैं ने तय किया कि कुछ शौपिंग की जाए पति के साथ जा कर. हो सकता है वहीं कुछ प्यार का एहसास हो जाए. अब पतिदेव से कहा, ‘‘शाम को शौपिंग के लिए जाना है. कुछ जरूरी सामान लेना है. आप के साथ ही चलूंगी, इसलिए जल्दी आ जाना.’’

अभी महीने की शुरुआत थी, नईनई तनख्वाह आई थी हाथ में. सो उसे समेटा और अपनी जमापूंजी भी ली और चल पड़ी शौपिंग करने. मैं बड़े प्यार से इन की बांहो में बांह डाल कर पूरे बाजार से कुछ न कुछ खरीदती रही.

बाद में घर आ कर अपनी खरीदारी को देखा. मैं जो खरीद कर लाई थी उस की तो बिलकुल भी जरूरत नहीं थी. सोचा अब घर का बाकी खर्च कैसे चलेगा पर अगले ही पल मन को समझा लिया कि कोई बात नहीं. प्यार का एहसास तो करना ही था. फिर कुछ दिन शांत हो कर सोचा कि ऐसा क्या करूं कि मुझे भी प्यार का एहसास हो जाए. फिर एक आइडिया आया. पति के औफिस जाते ही एक बड़ा सा फूलों का गुलदस्ता पति के औफिस भेजा और एक प्यारा सा कार्ड भी. उस पर भी न जाने क्याक्या लिख डाला. फिर यह सोच कर बेसब्री से पति का इंतजार करने लगी कि वे आ कर जरूर अपनी खुशी का इजहार करेंगे और मुझे फिर प्रेम का एहसास हो ही जाएगा.

मगर यह क्या. पति आए, न कोई बात, न चेहरे पर कोई मुसकान, उलटे रोनी सूरत.

मैं ने पूछा, ‘‘क्या हुआ?’’

बोले, ‘‘पता नहीं किस ने आज औफिस में गुलदस्ता भेजा और साथ में एक कार्ड भी. कार्ड पर भी न जाने क्याक्या लिखा था. मेरे सपनों का राजा, मेरे जानू, वगैरहवगैरह.

‘‘2-4 बातें बौस के बारे में भी लिखी थीं कि खड़ूस? तुम से ओवरटाइम करवाता है, फालतू के काम भी लेता है. इसलिए मेरे लिए तुम्हारे पास वक्त ही नहीं है… और भी न जाने क्याक्या…

‘‘मेरे बौस मेरी मेज पर गुलदस्ता देख उस में से कार्ड निकाल कर सब के सामने चिल्लाचिल्ला कर पढ़ने लगे. शुक्र है उस पर भेजने वाले का नाम नहीं था, वरना आज मेरी नौकरी चली जाती.’’

अब मैं रोंआसी हो गई. यह देख पतिदेव बोले, ‘‘भई, तुम क्यों उदास होती हो? मेरी नौकरी थोड़ी ही चली गई है. फिर वह गुलदस्ता तुम ने थोड़े ही भेजा था.’’

मैं संभल कर कुछ देर बाद धीरे से बोली, ‘‘वह मैं ने ही भेजा था. मैं अपना नाम लिखना भूल गई थी.’’

इतना सुनना था कि वे चिल्लाने के लिए तत्पर हुए, पर

फिर शांत हो कर पूछा तो मैं ने सब उगल दिया.

सुन कर जोर से हंसे और बोले, ‘‘तो यह बात है. तभी मैं सोचूं कि तुम यह कैसा व्यवहार कर रही हो. मैं ने तो सोच लिया था कि तुम्हें डाक्टर के पास ले जाना पड़ेगा.’’

वे और भी न जाने क्याक्या बोलते रहे और मैं प्यार का एहसास पाने के अगले नुसखे के बारे में सोच रही हूं. पाठको, आप को भी यदि कोई उपाय सूझे तो मुझे जरूर लिखना.

Hindi Story: जुगाड़ – आखिर वह लड़की अमित से क्या चाहती थी?

Hindi Story, लेखक- अमित कुमार अम्बष्ट ‘आमिली’

मैं ठीक 10 बजे पूर्व निर्धारित स्थान पर पहुंच गया था. वह दूर से आती हुई दिखी. मैं ने मन ही मन में कहा ‘जुगाड़’ आ गई. हम ने फिर साथ में रिकशा लिया. इस बार मैं पहले की अपेक्षा अधिक चिपक कर बैठा शायद उसे आजमाना चाहता था.

मैंने फर्राटे से दौड़ते, हौर्न का शोर मचाते वाहनों के बीच दबे कदमों से चौराहा पार किया.

बीच चौराहे पर अंबेडकर की प्रतिमा जैसे हाथ खड़ी कर सब को स्टेशन की ओर जाने का संकेत कर रही हो. कैसरबाग, अमीनाबाद एक सवारी की रट लगाते वाहनचालक. दिन के 10 बजे लखनऊ के चारबाग चौराहे की हालत ऐसी ही होती है. भीड़ का एक हजूम, भागतेदौड़ते लोग, न जाने कितनी जल्दी है उन्हें मंजिल तक पहुंचने की.

मैं ने रिकशावाले से पूछा, ‘‘लाटूश रोड के कितने लोगे?’’

‘‘कहां जाना है लाटूश रोड में?’’ उस ने प्रश्न किया.

मैं ने कहा, ‘अमीनाबाद चौक से दोचार कदम आगे.’

‘एक सवारी के 8 रुपए और एक और बैठा लूं, तो 5 रुपए लगेंगे?’

मैं ने कहा, ‘अगर कोई मिलता है तो बैठा लो.’

अभी रिकशावाले ने पैडल पर पांव डाले ही थे कि आसमानी शमीज और सफेद सलवार धारण किए एक लड़की ने पूछा, ‘भैया, अमीनाबाद का क्या लोगे?’

‘5 रुपए,’ उस ने उत्तर दिया और वह लड़की आ कर मेरे साथ रिकशे पर बैठ गई.

गर मैं कहूं कि उस के मेरे साथ बैठने से मु झे कोई फर्क नहीं पड़ा तो शायद यह  झूठ होगा. विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. चाहे वह स्त्री का पुरुष के प्रति हो या पुरुष का स्त्री के प्रति. मैं भी इस से अछूता नहीं था. कई बार हम अपनी पत्नी या फिर प्रेमिका से कहते हैं, ‘मैं तुम्हारे सिवा किसी और को नहीं देखता. जबकि, हमें पता है कि हम  झूठ बोल रहे हैं उस से जिस से वास्तव में हम बेहद प्रेम करते हैं. हर इंसान को खुद से प्यार करने वाले का संपूर्ण समर्पण बेहद सुकून देता है चाहे वह स्त्री का पुरुष के प्रति हो या पुरुष का स्त्री के प्रति.

हम जैसे आम लोगों के लिए इस चुंबकीय आकर्षण से बचना संभव नहीं. बस, हम आकर्षण की दिशा बदल सकते हैं. किसी लड़की को बहन स्वीकार करना भी उतना ही बड़ा आकर्षण है जितना किसी स्त्री में प्रेयसी ढूंढ़ना. फर्क सिर्फ रिश्तों का है क्योंकि दोनों में ही प्रेम है. हां, दोनों ही प्रेम के आयाम भले भिन्न हों पर मेरी दृष्टि से बहन का रिश्ता जितना शुद्ध है उतना ही पवित्र प्रेमिका का रिश्ता भी है. शायद मैं भावना में बह गया.

उस लड़की की ड्रैस देख कर मैं सम झ चुका था कि वह किसी कालेज की छात्रा है और इस से पहले मैं अपनी जबान खोलता, उस ने मु झ से पूछा, ‘‘आप कहीं नौकरी करते हैं?’’

बड़ा ही सहज मगर दूरगामी प्रश्न था क्योंकि इस के उत्तर के साथ ही वह मु झे और मेरी शैक्षिक योग्यता को अपने मूल्यों के तराजू पर तौलने वाली थी.

मैं ने जोशीले अंदाज में कहा, ‘‘मैं ने एमबीए किया है और जरमनी की एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के लिए काम करता हूं. मैं कविताएं और आलेख भी लिखता हूं जिन में से कुछ विभिन्न पत्रपत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं.’’ मैं ने शेखी बघारी मगर मेरे हृदय में आत्मविश्वास के भाव थे.

फिर उस ने पूछा, ‘‘तुम्हारी सैलरी कितनी है?’’

मैं ने कहा, ‘‘20 हजार रुपए.’’

उस ने पूछा, ‘‘कुल कितना मिल  जाता है.’’

मैं ने उत्तर दिया, ‘‘तकरीबन 25-30 हजार रुपए हो जाता है.’’

इस बार मैं थोड़ा असहज था क्योंकि मैं  झूठ बोल रहा था. फिर भी मैं ने अपने चेहरे का भाव छिपाने का हर संभव प्रयास किया. मु झे पता नहीं कि उस ने मु झ पर भरोसा किया या नहीं.

उस ने मु झ से अपने बारे में बताते हुए कहा, ‘‘मैं ने आईटी में एमबीए किया है. किंतु नौकरी नहीं मिली. अब बीएड कर रही हूं. शिक्षा का क्षेत्र महिलाओं के लिए बहुत उपयुक्त है.’’

उस ने साथ में तर्क दिया और मैं ने स्वीकृति में सिर हिलाया. उस ने आगे पूछा, ‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’

मैं ने कहा, ‘‘अमित.’’

फिर उस ने चहक कर कहा, ‘‘मेरे भाई का नाम भी अमित है.’’

इस बार मु झे लगा जैसे वह जानबू झ कर मेरे करीब आने की कोशिश कर रही हो. उस ने फिर प्रश्न किया, ‘‘तुम रहने वाले कहां के हो?’’

मैं ने कहा, ‘‘बिहार.’’

उस ने इस बार चौंक कर कहा, ‘‘बिहार, फिर हाथ मिलाओ, मैं भी बिहार की हूं.’’

इस बार मु झे उस का उत्तर थोड़ा संदेहास्पद लगा. मैं ने धीरे से उस के हाथ पर अपना हाथ रख दिया. लेकिन यह पकड़ वैसी नहीं थी जिस आत्मविश्वास से मैं ‘मिली’ (मेरी प्रेमिका) का हाथ पकड़ता था. मैं ने जासूस की तरह उस से सवाल किया, ‘‘बिहार में कहां की रहने वाली हो?’’

उस ने कहा. ‘‘गया.’’

इस बार मु झे लगा जैसे वह सच कह रही हो. मैं ने कहा, ‘‘मैं हाजीपुर का रहने वाला हूं.’’

उस ने अनभिज्ञता से कहा, ‘‘हाजीपुर?’’

मैं ने कहा, ‘‘हां, वही जहां से माननीय रामविलास पासवानजी सांसद का चुनाव जीतते रहे  हैं.’’ मनुष्य भी अजीब प्राणी है. जब वह कमजोर पड़ता है, सभी उस से दूरी बना लेते हैं और जैसे ही वह शक्तिशाली हो जाता है लौह चुंबक की भांति, अनजानों को भी अपनी ओर समेट लेता है. इसलिए मैं ने भी रामविलासजी से अपना रिश्ता जोड़ा.

अब उस ने मेरा मोबाइल नंबर मांगा और मैं ने उस का. फिर मैं औफिस के पास रिकशे से उतर गया. उस ने कहा, ‘‘अगर कभी चाहो तो मेरे घर आओ. मु झे मिलना हुआ तो मैं इस औफिस में आ जाऊंगी.’’

मैं ने असहज भाव से उसे देखा, रिकशे वाले को अपने हिस्से के पैसे दिए. फिर औफिस के अंदर चला गया. हृदय में अजीब सा द्वंद्व था. मैं ने सब से पहले इस घटना की चर्चा अपने औफिस की महिला सहकर्मियों से की. सुनते ही सब के सब साथ हंस पड़ीं, साथ मैं भी हंसा. किंतु उन सब की हंसी में एक रहस्य था जो उस लड़की के चरित्र की ओर इशारा कर रहा था और मैं असमंजस की हालत में था.

दिन खत्म हुआ. घर पहुंचा. अजीब सी मनोस्थिति थी. इस घटना का जिक्र मैं ने अपने रूमपार्टनर विकास से किया. उस ने जोर दे कर पूछा, ‘‘उस ने तेरा हाथ छुआ?’’

‘‘मैं ने कहा, ‘‘हां.’’

‘‘तु झे अपने घर भी बुलाया है?’’

‘‘हां.’’

‘‘अपना मोबाइल नंबर भी दिया है. फिर तो वह साली जुगाड़ है. मु झे उस का मोबाइल नंबर देना,’’ उस ने कहा.

पता नहीं क्यों लेकिन मैं उस की बात टाल गया और मैं ने उसे मोबाइल नंबर नहीं दिया. जुगाड़ का अभिप्राय मैं अच्छी तरह से सम झ सकता था. पता नहीं क्यों, हम सब दोहरी जिंदगी जीते हैं, चाहे हम और हमारा समाज नारी स्वतंत्रता की कितनी ही बड़ीबड़़ी बातें सार्वजनिक स्थल पर कर ले पर सब ‘ढाक के तीन पात’ अपने हमाम में सब नंगे.

यों देखें, तो हाथ का पकड़ा जाना एक साधारण सी घटना थी. पर न जाने क्यों हम सब को लगा कि इस में कुछ असामान्य था और यह सिर्फ इसलिए क्योंकि वह एक लड़की थी.

क्या हम सचमुच 21वीं शताब्दी के दौर में हैं? मेरे लिए यह एक यक्ष प्रश्न था क्योंकि उन सब की सोच में मैं भी शामिल था.

मैं 2 दिनों तक उस के फोन आने का इंतजार करता रहा. पर कोई कौल नहीं आई. अकसर लड़कियों की जबान से सुना है, ‘लड़के एक नंबर के कुत्ते होते हैं’ और मैं इस से कभी इनकार नहीं करता. मन में अजीब सा कुतूहल था. तीसरे दिन मैं ने उस का नंबर मिलाया.

मैं ने कहा, ‘‘मैं अमित बोल रहा हूं. हम लाटूश रोड पर मिले थे.’’

उस ने कहा, ‘‘हां अमित, कैसे हो?’’

मैं ने कहा, ‘‘मैं ठीक हूं. तुम कैसी हो?’’

‘‘मैं भी ठीक हूं.’’

इस से पहले मैं कुछ पूछता, उस ने फिर सवाल दागना शुरू किया, ‘‘तुम कमरे में अकेले रहते हो?’’

मेरा उत्तर ‘हां’ था. मैं फिर  झूठ बोल रहा था मगर इस बार मु झे अपने चेहरे के भाव छिपाने की जरूरत न पड़ी क्योंकि दूरभाष पर आप हमेशा आधीअधूरी बात ही करते हैं. आप वे बातें सुन तो सकते हो जो सामने वाला कह रहा होता है किंतु आप उस के चेहरे पर लिखे शब्दों को पढ़ नहीं सकते.

उस ने सवाल किया, ‘‘तुम ने अब तक शादी क्यों नहीं की?’’

मैं ने महसूस किया कि जैसे वह मु झे खोलने का प्रयास कर रही हो. मैं ने अनमने ढंग से कहा, ‘‘हो जाएगी, मम्मीपापा देख

रहे हैं.’’

उस के प्रश्न का सिलसिला अभी थमा नहीं था, ‘‘अमित तुम्हारी उम्र कितनी है?’’

मैं ने कहा, ‘‘26 प्लस.’’

उस ने कहा, ‘‘अमित, तुम्हें शादी की शारीरिक जरूरत महसूस नहीं होती?’’

इस से पहले मैं हां या न कुछ भी उत्तर दे पाता, उस ने आगे कहना शुरू किया, ‘‘मैं तुम लड़कों का मनोविज्ञान बहुत अच्छे से सम झती हूं. सोचते होगे, पहले सैटल हो जाओ. खूब पैसे कमा लो, फिर किसी परी जैसी लड़की से शादी करोगे. अमित, मु झे लगता है ये सब करतेकरते कब जिंदगी निकल जाती है, हमें पता भी नहीं चलता. जिंदगी जैसी है, जितनी है, उसे बस जी लेनी चाहिए.’’

अब मु झे विकास की बातों पर भरोसा होने लगा था. मु झे लगा जैसे वह मु झे आमंत्रण दे रही हो और इस से पहले कुछ कह पाता, उस ने फिर सवाल दागा, ‘‘तुम खाना कहां खाते हो?’’

मैं ने कहा, ‘खुद ही बनाता हूं.’

‘‘अमित, तुम किसी कामवाली को क्यों नहीं रख लेते. काम से थक जाते होगे,’’ उस ने हंसते हुए आगे कहा, ‘‘किसी जवान लड़की को मत रख लेना. किसी उम्रदराज या किसी छोटे लड़के को रख लो, तुम्हारी मदद करेगा.’’

मैं ने जानबू झ कर उसे कुरेदा, ‘‘जवान लड़की क्यों नहीं?’’

उस ने कहा, ‘‘यह लखनऊ है,  दिल्ली नहीं.’’

इस बार मु झे लगा जैसे वह मेरी भावनाओं को छेड़ने का प्रयास कर रही हो. सवाल अभी खत्म नहीं हुए थे. अगला प्रश्न फिर सामने था.

‘‘तुम ने कभी किसी से प्यार किया है?’’

मैं ने कहा, ‘‘लड़कियां दोस्त बहुत हैं मगर कोई रिश्ता अब तक प्यार तक नहीं पहुंचा.’’ इस बार मु झे खुद पर हंसी आई.

‘‘अमित, तुम ने बताया था कि तुम कविताएं लिखते हो.’’

मेरे पास बस यही मौका था. मैं ने कहा, ‘अगर कविता सुननी हो तो मु झ से मिलो. मु झे खुद नहीं पता था कि मैं ने उसे क्यों बुलाया क्योंकि यह शारीरिक आकर्षण कतई नहीं था. अगर वह मु झे अपना संपूर्ण समर्पण कर भी देती तो भी मैं शायद उस के लिए न जाता. यह शायद इसलिए क्योंकि एक पुरुष एक साधारण स्त्री से भी बेहद कमजोर होता है. लेकिन, उस के बारे में जानने की जिज्ञासा जरूर थी.

उस ने कहा, ‘‘मु झे प्रेम वाली कविताएं अच्छी लगती हैं.’’

मैं ने उत्तर दिया, ‘‘मैं रोमांटिक कविता ही लिखता हूं.’’ और फिर अगले दिन चारबाग चौराहे पर मिलना तय हुआ.

मैं ठीक 10 बजे पूर्व निर्धारित स्थान पर पहुंच गया. वह दूर से आती हुई दिखी. मैं ने मन ही मन में कहा जुगाड़ आ गई. हम ने फिर साथ में रिकशा लिया. इस बार मैं पहले की अपेक्षा अधिक चिपक कर बैठा.

मैं ने पूछा, ‘‘कैसी हो?’’

उस ने कहा, ‘‘बस, ठीक. अमित, तुम ने कहा था कि तुम अपनी कविता सुनाओगे.’’

मैं ने उसे अपनी एक छोटी सी कविता सुनाई. इस बार मैं उस के चेहरे पर उभरे शब्दों को पढ़ सकता था.

उस ने कहना प्रारंभ किया, ‘‘अमित, कविताओं की कोंपलें हृदय के भीतर से निकलती हैं. पहले हम अपनी भावनाओं को कोरे कागज पर उकेरते हैं, फिर धीरेधीरे उसे जीने लगते हैं. शायद, मैं गलत होऊं मगर मु झे लगता है हर लिखने वाले का दिल आईने की तरह बिलकुल साफ होता है. पता नहीं क्यों मैं उस दिन तुम से मिली तो तुम पर विश्वास करने को दिल चाहा और मैं ने तुम्हें अपना मोबाइल नंबर दे दिया.

‘‘अमित, पता नहीं इस अंधी दौड़ में हम कहां जा रहे हैं. पैसापैसा और पैसा, जिंदगी बस इस में सिमट कर रह गई है. पर मेरे लिए प्यार महत्त्वपूर्ण है.’’

उस ने मेरा हाथ फिर खींच कर अपने हाथों में लिया. हमारी मानसिकता संकीर्ण होती जा रही है. हम जो हैं वह दिखना नहीं चाहते और जो नहीं हैं, चाहते हैं बस वही दिखे. अजीब सी सचाई थी उस की आंखों में.

‘‘अमित, अगर मु झे कोई तुम्हारे साथ इस तरह बैठे देखे तो पता नहीं क्या सोचेगा और मैं उन्हें रोक भी नहीं सकती क्योंकि बहुत कम ऐसे लोग हैं जो व्यवस्थित सोचते हैं या इस की कोशिश करते हैं. मगर यह जरूरी नहीं है कि हम रोज मिलें क्योंकि  2 अच्छे लोगों का बिखर जाना अच्छा होता है ताकि वे 2 अलगअलग दिशाओं में अच्छाइयां फैला सकें.’’

मैंने एक भरपूर दृष्टि उस के चेहरे पर डाली और खुद से प्रश्न किया, क्या सचमुच मैं एक अच्छा आदमी हूं? अचानक रिकशे वाले ने कहा, ‘‘अमीनाबाद आ गया.’’ हमारे बीच का वार्त्तालाप थम सा गया.

वह हंसी और कहना शुरू किया, ‘‘अमित अपना खयाल रखो, बिलकुल दुबलेपतले हो. खाने का ध्यान रखा करो और हां, जल्दी शादी कर लो. लेकिन, मु झे बुलाना मत भूलना.’’

उस के चेहरे पर आदेश का भाव था. मैं रिकशे से उतरा. इस बार मैं ने उस का हाथ उसी आत्मविश्वास से पकड़ा जैसे मैं किसी परममित्र या अपनी प्रेमिका का पकड़ता था क्योंकि इस बार मेरे आकर्षण को दिशा मिल चुकी थी. उस का रिकशा धीरेधीरे आगे बढ़ने लगा. मैं वहीं खड़ा तब तक उसे देखता रहा जब तक वह मेरी आंखों से ओझल नहीं हो गई.

Hindi Story: चौराहे की काली

Hindi Story: ‘‘मेरी बीवी बहुत बीमार है पंडितजी…’’ धर्म सिंह ने पंडित से कहा, ‘‘न जाने क्यों उस पर दवाओं का असर नहीं होता है. जब वह मुझे घूर कर देखती है तो मैं डर जाता हूं.’’ ‘‘तुम्हारी बीवी कब से बीमार है?’’ पंडित ने पूछा.

‘‘महीनेभर से.’’ ‘‘पहले तुम मुझे अपनी बीवी से मिलवाओ तभी मैं यह बता पाऊंगा कि वह बीमार है या उस पर किसी भूत का साया है.’’

‘‘मैं अपनी बीवी को कल सुबह ही दिखा दूंगा,’’ इतना कह कर धर्म सिंह चला गया. पंडित भूतप्रेत के नाम पर लोगों को बेवकूफ बना कर पैसे ऐंठता था. इसी धंधे से उस ने अपना घर भर रखा था.

अगली सुबह धर्म सिंह के घर पहुंच कर पंडित ने कहा, ‘‘अरे भाई धर्म सिंह, तुम ने कल कहा था कि तुम्हारी बीवी बीमार है. जरा उसे दिखाओ तो सही…’’ धर्म सिंह अपनी बीवी सुमन को अंदर से ले आया और उसे एक कुरसी पर बैठा दिया.

पंडित ने उसे देखते ही पैसा ऐंठने का अच्छा हिसाबकिताब बना लिया. सुमन के बाल बिखरे हुए और कपड़े काफी गंदे थे. उस की आंखें लाल थीं और गालों पर पीलापन छाया था. जो भी उस के सामने जाता, वह उसे ऐसे देखती मानो खा जाएगी.

पंडित सुमन की आंखें देख कर बोला, ‘‘अरे धर्म सिंह, मैं देख रहा हूं कि तुम्हारी बीवी पर बड़े भूत का साया है.’’ ‘‘कैसा भूत पंडितजी?’’ धर्म सिंह ने हैरानी से पूछा.

‘‘तुम नहीं समझ पाओगे कि इस पर किस किस्म का भूत है,’’ पंडित बोला. ‘‘क्या भूतों की भी किस्में होती हैं?’’

‘‘क्यों नहीं. कुछ भूत सीधे होते हैं, कुछ अडि़यल, पर तुम्हारी बीवी पर…’’ पंडित बोलतेबोलते रुक गया. ‘‘क्या बात है पंडितजी… जरा साफसाफ बताइए.’’

‘‘यही कि तुम्हारी बीवी पर सीधेसादे भूत का साया नहीं है. इस पर ऐसे भूत का साया है जो इनसान की जान ले कर ही जाता?है,’’ पंडित ने हाथ की उंगली उठा कर जवाब दिया. ‘‘फिर तो पंडितजी मुझे यह बताइए कि इस का हल क्या है?’’ धर्म सिंह कुछ सोचते हुए बोला.

पंडित ने हाथ में पानी ले कर कुछ बुदबुदाते हुए सुमन पर फेंका और बोला, ‘‘बता तू कौन है? यहां क्या करने आया है? क्या तू इसे ले कर जाएगा? मगर मेरे होते हुए तू ऐसा कुछ नहीं कर सकता.’’ ‘‘पंडितजी, आप किस से बातें कर रहे हैं?’’ धर्म सिंह ने पूछा.

‘‘भूत से, जो तेरी बीवी पर चिपटा है,’’ होंठों से उंगली सटा कर पंडित ने धीरे से कहा. ‘‘क्या भूत बोलता है?’’ धर्म सिंह ने सवाल किया.

‘‘हां, भूत बोलता है, पर सिर्फ हम से, आम आदमी से नहीं.’’ ‘‘तो क्या कहता है यह भूत?’’

‘‘धर्म सिंह, भूत कहता है कि वह भेंट चाहता है.’’ ‘‘कैसी भेंट?’’ यह सुन कर धर्म सिंह चकरा गया.

‘‘मुरगे की,’’ पंडित ने कहा. ‘‘पर हम लोग तो शाकाहारी हैं.’’

‘‘तुम नहीं चढ़ा सकते तो मुझे दे देना. मैं चढ़ा दूंगा,’’ पंडित ने रास्ता सुझाया. ‘‘पंडितजी, मुझे एक बात बताओ?’’

‘‘पूछो, क्या बात है?’’ ‘‘मेरी बीवी पर कौन सी किस्म का भूत है?’’

पंडित ने सुमन की तरफ उंगली उठाते हुए कहा, ‘‘इस पर ‘चौराहे की काली’ का असर है.’’ ‘‘क्या… ‘चौराहे की काली’,’’ धर्म सिंह की आंखें डर के मारे फैल गईं, ‘‘मेहरबानी कर के कोई इलाज बताएं पंडितजी.’’

‘‘जरूर. वह काली कहती है कि तुझे एक मुरगा, एक नारियल, 101 रुपए, बिंदी, टीका, कपड़ा और सिंदूर रात को 12 बजे चौराहे पर रख कर आना पड़ेगा.’’ ‘‘इतना सारा सामान पंडितजी?’’ धर्म सिंह ने कहा.

‘‘हां, अगर ऐसा नहीं हुआ तो तेरी बीवी गई काम से,’’ पंडित तपाक से बोला. ‘‘जी अच्छा पंडितजी, पर इतना सामान और वह भी रात के समय, यह मेरे बस की बात नहीं है,’’ धर्म सिंह ने कहा.

‘‘तेरे बस की बात नहीं है तो मैं रख आऊंगा…’’ पंडित ने कहा, ‘‘शाम को सारा सामान लेते आना. मैं शाम को आऊंगा.’’ धर्म सिंह तैयारी करने में लग गया. हालांकि उस ने बीवी को डाक्टर से दवा भी दिला दी, पर वह पंडित को भी मौका देना चाहता था इसीलिए चौराहे पर जाने से मना कर दिया.

रात को पंडित पूरा सामान ले कर चौराहे पर रखने के लिए चल दिया. हवा के झोंके, झींगुरों का शोर और उल्लुओं की डरावनी आवाजें रात के सन्नाटे को चीर रही थीं.

पंडित जैसे ही चौराहे से 30 फुट की दूरी पर पहुंचा, उसी समय वहां 15-16 फुट ऊंची मीनार सी मूर्ति नजर आने लगी. वह कभी छोटी हो जाती तो कभी बड़ी. उस में से घुंघरू की खनखनाती आवाज भी आ रही थी. पंडित यह सब देख कर बुरी तरह घबरा गया. हिम्मत कर के उस ने पूछा, ‘‘क… क… कौन है तू?’’

‘‘मैं चौराहे की काली हूं,’’ मीनार से घुंघरूओं की झंकार के साथ एक डरावनी आवाज निकली. ‘‘तू… तू… क्या चाहती है?’’

‘‘मैं तुझे खाना चाहती हूं,’’ मीनार में से फिर आवाज आई. ‘‘क… क… क्यों? मेरी क्या गलती है?’’ पंडित ने डरते हुए पूछा.

‘‘क्योंकि तू ने लोगों से बहुत पैसा ऐंठा है. अब मैं तेरे खून से अपनी प्यास बुझाऊंगी,’’ कहतेकहते काली धीरेधीरे नजदीक आ रही थी. पंडित के हाथों से सामान तो पहले ही छूट चुका था. ज्यों ही उस ने मुड़

कर पीछे की तरफ भागना चाहा, उस का पैर धोती में अटक गया और वह

गिर पड़ा. जब पंडित को होश आया तो उस ने अपनेआप को बिस्तर पर पाया. वह उस समय भी चिल्लाने लगा, ‘‘बचाओ… बचाओ… चौराहे की काली मुझे खा जाएगी…’’

‘‘कौन खा जाएगी? कैसी काली पंडितजी?’’ पंडित के कानों में धर्म सिंह की आवाज गूंजी. पंडित ने आंखें खोलीं तो अपने सामने धर्म सिंह व गांव के तमाम लोगों को खड़ा पाया. पंडित फिर बोला, ‘‘चौराहे की काली.’’

‘‘नहीं पंडितजी, आप बिना वजह ही डर गए हैं. वह काली नहीं थी,’’ धर्म सिंह ने पंडित को थपथपाते हुए कहा. ‘‘तो फिर कौन थी वह?’’

‘‘वहां मैं था पंडितजी, आप तो यों ही डर रहे हैं,’’ धर्म सिंह ने कहा. ‘‘पर वह तो… कभी छोटी तो कभी बड़ी और घुंघरुओं की आवाज…’’ पंडित बड़बड़ाया, ‘‘न… न… नहीं, तुम नहीं हो सकते.’’

‘‘क्यों नहीं हो सकता? मैं वही नजारा फिर दिखा सकता हूं,’’ इतना कह कर धर्म सिंह काला कपड़ा लगा लंबा बांस, जिस में घुंघरू लगे थे, ले आया. उस ने बांस से कपड़ा कभी ऊंचा उठाया तो कभी नीचा किया और खुद को बीच में छिपा लिया. तब जा कर पंडित को यकीन हुआ कि वह काली नहीं थी.

धर्म सिंह ने पंडित से कहा, ‘‘इस दुनिया में न तो भूत हैं और न ही चुड़ैल. यह सारा चक्कर तो सरासर मक्कारी और फरेब का है.”

Social Story: यह कैसा बदला

Social Story: मृदुल को अब अहसास हो रहा था कि बदले की आग ने उसे ही झुलसा कर रख दिया है… और फिर बदला भी कैसा? उस के साथ किसी और ने अपराध किया और उस ने किसी और से बदला लिया. उसे ऐसा फैसला नहीं लेना चाहिए था.

पुलिस मृदुल के पीछे पड़ी हुई थी और यकीनन उसे पकड़ लेगी. उस के 2 साथियों को पुलिस ने पकड़ भी लिया था. क्या करे क्या न करे, उस की समझ में नहीं आ रहा था.

तकरीबन 3 महीने पहले तक मृदुल की जिंदगी काफी अच्छी चल रही थी. वह एक एयर कंपनी में पायलट था. वह थाईलैंड में रहता था और अच्छी जिंदगी जी रहा था. वैसे तो तकरीबन हर देश में उसे जाना होता था, पर ज्यादातर वह भारत और यूरोप ही जाता था.

काफी खर्च कर के मृदुल ने पायलट का कोर्स किया था. नौकरी भी मिल गई थी. 2-3 सालों तक उस ने नौकरी की, पर कोरोना महामारी के चलते सब से ज्यादा असर अगर किसी कारोबार पर पड़ा था तो, वह थी एयर इंडस्ट्री. कई देशों ने दूसरे देशों से आवाजाही बंद कर दी थी. यहां तक कि घरेलू उड़ान भी रद्द हो गई थी. ऐसे हालात में कई पायलटों को कंपनियों ने अलविदा कह दिया था और उन में से एक वह भी था.

महामारी ने सिर्फ इतना कहर ही मृदुल के ऊपर नहीं बरपाया था. एक दिन वह थाईलैंड में अपने फ्लैट में बैठा भविष्य के बारे में सोच रहा था कि अचानक कुछ लोग उस के घर में आए. वे सरकारी वरदी में थे. उन्होंने उसे बताया कि वे कस्टम महकमे से हैं और उस के घर की तलाशी लेने आए हैं.

जब तक मृदुल कुछ समझ पाता, उस के मोबाइल फोन, लैपटॉप, पर्स वगैरह को उन्होंने अपने कब्जे में ले लिया. उन में से कुछ लोग इस घटना का वीडियो भी बना रहे थे.

“पुलिस स्टेशन…” एक ने कहा और मृदुल को घसीटते हुए गाड़ी में बिठाया वे और पुलिस स्टेशन की ओर ले चले, पर कुछ दूर जाने के बाद उन लोगों ने मृदुल को एक टैक्सी में बिठाया और टैक्सी वाले को वहां की भाषा में कुछ कह कर थाईलैंड की करंसी कुछ ‘बाट’ दिए. मृदुल हक्काबक्का था. कुछ ही देर में टैक्सी वाले ने उसे उस के फ्लैट के नजदीक ही छोड़ दिया.

“पुलिस स्टेशन?” मृदुल ने ड्राइवर से पूछा.

“नो पुलिस स्टेशन…” ड्राइवर ने कहा और चलता बना.

मृदुल समझ गया कि उसे अपराधियों ने ठग लिया है. नजदीकी पुलिस स्टेशन में जा कर उस ने रिपोर्ट लिखवा दी और दुखी मन से उस ने थाईलैंड छोड़ मुंबई में रहने की योजना बना ली.

भारत सरकार हर देश से अपने नागरिकों को लाने का इंतजाम कर रही थी और उसी के तहत मृदुल भी वापस आ गया.

थाईलैंड में हुए कांड को मृदुल भूल तो नहीं पाया था, पर जख्म कुछ कम जरूर हो गए थे. एक दिन वह मुंबई में भटक रहा था कि उस की नजर यूंग नाम के एक थाई बाशिंदे पर नजर पड़ी. थाईलैंड में यूंग उस के फ्लैट के नजदीक ही रहता था और सुबह की सैर के लिए नजदीकी पार्क में आया करता था. अकसर यूंग से उस की बात होती थी.

यूंग को देख मृदुल ने टोकना चाहा, पर एकाएक उस के मन में खयाल आया कि जिस तरह उसे थाईलैंड में ठगा गया था, वैसे ही वह यूंग को ठग सकता है. पर अगर वह यूंग के पास जाएगा तो वह उसे पहचान लेगा, यह सोच उस ने दूरी बना कर उस का पीछा किया और उस का फ्लैट कहां है, इस की जानकारी ले ली.

मृदुल ने सब से पहले यूंग पर निगरानी रखना शुरू कर दिया. उस ने देखा कि वह किसी लड़की के साथ वह रहता है. लगता था कि वह यूंग की गर्लफ्रैंड है. उन के घर से आनेजाने के समय पर भी वह निगाह रख रहा था. वह चाहता था कि जब यूंग घर में अकेला हो, तभी उस के ऊपर धावा बोला जाए.

यूग की गर्लफ्रैंड अमूमन सुबह 9 बजे घर से निकलती थी और शाम 6 बजे वापस आती थी. इस बीच ही काम को अंजाम देना उचित रहेगा, मृदुल ने सोचा.

मृदुल खुद यूंग के पास जा नहीं सकता था, क्योंकि वह उसे पहचान जाता. जिस तरह यूंग के देश वालों ने उसे ठगा है उसी तरह मृदुल भी उसे अपने देश में ठगेगा. पर कैसे? कस्टम डिपार्टमैंट की ओर से कुछ अफसर यूंग के पास जाएंगे और जो समान उस के पास होगा उसे छीन लेंगे. पर कस्टम डिपार्टमैंट के आदमी वह लाए कहां से?

एकाएक मृदुल को अपने क्लब का ध्यान आया जहां कई बाउंसर रहते थे. 1-2 से उस की जानपहचान भी थी. एक दिन समय निकाल कर वह एक बाउंसर के पास गया और बोला, “भाई, एक छोटा सा काम है, पर उसे आप जैसे बाहुबली ही कर सकते हैं.”

“क्या काम है बताओ?” खुद को बाहुबली कहलाने में उस बाउंसर को फख्र महसूस हुआ.

“कस्टम डिपार्टमैंट का अफसर बन कर एक थाई बाशिंदे को लपेटना है,” मृदुल ने कहा.

“पुलिसथाने के चक्कर में नहीं पड़ेंगे हम,” उस बाउंसर ने साफ माना किया.

“क्या पुलिस का चक्कर… उस थाई के समझ में कुछ आएगा तब न? वह न तो हमारा नाम जानता है, न हमें पहचानता है. क्या बताएगा पुलिस को.. और पुलिस भी आप लोगों से पंगा नहीं लेना चाहेगी. फिर जो कुछ भी मिलेगा उस में आधा हिस्सा आप लोगों का,” मृदुल ने उसे समझाया.

“आप लोगों का मतलब? और कौन रहेगा इस में?” बाउंसर ने पूछा.

“भाई, कस्टम डिपार्टमैंट की ओर से जाओगे, तो कम से कम 4-5 आदमी तो होने चाहिए,” मृदुल ने समझाया.

“अगर उस के पास एक लाख मिले भी तो 5 आदमियों में क्या मिलेगा? क्यों इतना बड़ा रिस्क लें हम?” बाउंसर ने एतराज जताया.

“कैसे जानते हो कि एक लाख ही मिलेगा… अरे, उस का मोबाइल, आईपैड, पर्स, जेवर सभी कुछ मिला कर कई लाख हो जाएंगे,” मृदुल ने समझाया.

कुछ नानुकर के बाद वह बाउंसर राजी हो गया और अपने कुछ और साथी बाउंसरों को भी राजी कर लिया.

वे सब दोपहर के 2 बजे यूंग की हाउसिंग सोसाइटी में कस्टम अफसर बन कर पहुंच गए. सरकारी अफसर समझ कर सिक्योरिटी गार्ड ने भी उन्हें नहीं रोका.

वे यूंग के फ्लैट के दरवाजे पर गए और डोरबैल का बटन दबाया. यूंग डोरबैल की आवाज सुनते ही बाहर निकाला. इस से पहले कि वह कुछ समझ पाता, वे चारों उस के घर में धड़ाधड़ घुस गए. उन्होंने उस का मोबाइल फोन छीन लिया. साथ ही पास में रखे आईपैड, कंप्यूटर, पर्स वगैरह को भी छीन लिया. 2 लोग अंदर जा कर तलाशी लेने लगे और बाकी 2 वीडियो बनाने लगे.

आननफानन में सामान बटोर कर यूंग को थाने चलने को कहा गया. जैसे ही वह बाहर निकला उसे एक आटोरिकशा में बिठा दिया गया और ड्राइवर को नजदीक की किसी जगह पर छोड़ने को कह दिया.

मृदुल के प्लान के मुताबिक, जैसा उस के साथ थाईलैंड में हुआ था, सबकुछ वैसा ही हो गया. पर यूंग ने तुरंत पुलिस स्टेशन में इस की खबर कर दी और पुलिस ने वीडियो फुटेज की मदद से सभी बाउंसरों को पकड़ लिया. इस की जानकारी मृदुल को आज के अखबार से मिली थी.

अब क्या करे, मृदुल समझ ही नहीं पा रहा था. एकाएक उस के मोबाइल की घंटी बज उठी. स्क्रीन पर उस बाउंसर का नाम फ्लैश हो रहा था, जिसे पुलिस गिरफ्तार कर चुकी थी. इस का मतलब पुलिस ने बाउंसर के मोबाइल से उसे फोन किया है. उस ने कांपते हाथों से मोबाइल को स्विच औफ किया और चेहरे पर आए पसीने को पोंछा.

मृदुल जानता था कि आज नहीं तो कल पुलिस की गिरफ्त में उसे आना ही है. यह कैसा बदला लिया था उस ने यूंग से. बदले की इस आग ने तो उसे ही झुलसा दिया था. अब पछताने के सिवा उस के पास कोई चारा नहीं था.

Short Story: बरसात की एक रात

Short Story, लेखक- राजीव रोहित

थोड़ी देर पहले तक बरसात अपने शबाब पर था. रात के आठ साढ़े आठ बजनेवाले थे. अब बारिश की रफ्तार थोड़ी धीमी हो रही थी.

वे दोनों बस स्टॉप की एक शेड के नीचे खड़े थे.बहुत देर से एक भी बस नहीं आयी थी. आम कहानी के नायक और नायिका की तरह…! लड़की का जिक्र पहले…तो लड़की बेहद खूबसूरत..

चेहरे पर परिपक्वता भी स्पष्ट नजर आ रही थी. बारिश की बूंदे उसके चेहरे को सुंदरता और गरिमा दोनों प्रदान कर रही थीं.

फिलहाल परिस्थिति के अनुसार चेहरे पर चिंता छायी हुई थी. जो  उसकी उदासी को दर्शाने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती थी.

सबसे खास बात यह कि वह गौर से बस स्टॉप पर खड़े एकमात्र सहयात्री पुरुष को देखे जा रही थी. सहयात्री पुरुष युवावस्था से थोड़ा बहुत आगे बढ़ चुका प्रतीत हो रहा था.

कपड़े उसने किसी युवा के समान ही चुस्त दुरुस्त पहन रखे थे.चेहरा एकदम साफ सुथरा. चिकना या चॉकलेटी कहें तो ज्यादा बेहतर होगा.बालों की शैली में दिलीप साहब, अमित जी और शाहरूख का बेमिसाल गठजोड़ दिखाई दे रहा था.गोरे चिट्टे भी थे.कुल मिलाकर उनके और उनके दोस्तों के हिसाब से उनके चेहरे में युवा तत्व अभी भी नजर आते थे.

लड़की वो भी अकेली…दुर्लभ संयोग था. उनके होंठो पर बरबस रफी साहब की मीठी आवाज में कभी ‘जिंदगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात’ गीत आ जा रहा था तो कभी किशोर दा का प्यारा सा मदहोश करनेवाला गीत ‘एक लड़की भीगी भागी सी’…उनकी आंखों से बरस पड़ने को तड़प रहा था.

उनका हृदय कभी या खुदा ये बरसात की रात कभी खत्म न हो.ताकि बन जाये एक नया खूबसूरत सा  रिश्ता !

लड़की अब भी उन्हें गौर से देखे जा रही थी. उनका दिल बेचैन हो रहा था.

‘क्या वो बात करना चाहती है?

‘क्या वो उन पर फिदा हो गयी है?’

‘क्या सचमुच एक नया रिश्ता बन जायेगा आज की रात?’

‘दोस्त उसे यूं ही नहीं कहते कि भाई किस चक्की का आटा खाते हो?

‘उम्र का पता ही नहीं चलता.‘

‘भाभी बहुत किस्मतवाली है.‘

‘विवाह पश्चात प्रेम संबंध क्या उचित होगा?’

‘लोग क्या कहेंगे?’

”पत्नी का तो दिल ही टूट जाएगा.गुस्से में कहीं तलाक का नोटिस भेज देगी तो फिर क्या होगा?

‘पता नहीं, प्रत्येक महीने में कितना हरजाना भरना पड़ेगा?’

‘समाज की  नजरों से गिरकर  वो कैसे जियेंगे?

इतना सोचेंगे तो मिल चुका जीवन में आनंद!

जो होगा वो देखा जाएगा.

इश्क और जंग में सब  जायज है.

इतिहास के पन्नों पर पहुँच गए.

दुनिया की जितनी मशहूर प्रेम कथाएँ हैं. उनमें किसी में भी मिलन-योग नहीं है.

तो क्या हुआ प्रेम-योग तो है.

फिल्मों में ऐसे ही नहीं दिखाते !पहली नजर में प्रेम…!

इस उधेड्बुन में फंसे थे कि  उनके कानों में मिश्री की डली में घुली आवाज पड़ी.

“क्या दो मिनट आपसे बात कर सकती हूँ ? आखिर चीर-प्रतीक्षित कामना पूर्ण हुई.

“हाँ-हाँ कहिए न?”

“जी मेरे मोबाईल की बैटरी डाउन हो गई है.क्या आपका फोन इस्तेमाल कर सकती हूँ.

घर  में जरा फोन करना था.“

“हाँ-हाँ, क्यों नहीं?घरवालों को चिंता तो हो ही रही होगी. बारिश का मौसम है. समय  भी

ज्यादा होता जा रहा है.“ उन्होने  फोन निकालकर उसे बड़े प्यार से दिया.

ऐसा करते समय उनका हाथ उसकी हथेलियों से छू  गया. इतना मखमली  स्पर्श…!

“थैंक्स.“ उसने फोन अपने हाथों में लिया.

“ जरा मेरा बैग पकड़िए न. अगर आप बुरा न मानें तो. उसमें रखी हुई डायरी में नंबर है.  “

कहते हुये उसने .बैग से डायरी निकालनी है.

‘घर का नंबर तो सबको याद रहता है. इसका अर्थ है यह भी चाहती है कि बातचीत का सिलसिला आगे बढ़े.

उन्होने बैग बड़ी नजाकत से पकड़ा.

उसने अंदर से एक छोटी सी प्यारी सी डायरी निकाली.

“पापा ने नंबर कल ही बदला है. इसलिए याद नहीं है. “ उसने मुस्कुराकर कहा.

‘अरे वाह! आने दो. उसके पापा से दोस्ती कर लूँगा. फिर घर तक पहुंचाना आसान हो जाएगा.‘

“हैलो पापा, मैं यहाँ बस स्टॉप पर एक घंटे से खड़ी हूँ.आप जल्दी आ जाओ. मैं एक भाई साहब के फोन से कर रही हूँ.मैं लोकेशन भेजती हूँ.“

‘ भाई साहब कहा… भैया नहीं… अंकल नहीं…धन्यवाद शहजादी.‘ उन्होने संतोष  की सांस ली.

“लीजिये. आपका  बहुत-बहुत शुक्रिया.आप इधर ही जॉब करते हैं?”

“ जी हा. और आप?”

“ मैं तो गलत नंबर की बस पकड़ने के कारण इधर आकर फंस गई. “

“ अच्छा हुआ. “ उनके मुंह से निकाल पड़ा.

“ कुछ कहा आपने?”

“ जी  नहीं.ये मेरा कार्ड है. रख लीजिये. कभी आपके काम आ सकूँ तो मुझे अच्छा लगेगा.“

“ मेरे पास कार्ड तो नहीं है. पर आपको नंबर देती हूं.नाम शालिनी लिखिएगा.

बड़े मनोयोग से उन्होने नाम और नंबर मोबाईल में फीड किया.

“ कहाँ  काम करते हैं आप?”

“ कार्ड में है. सेंट्रल गवर्नमेंट के ऑडिट डिपार्टमेन्ट में सीनियर ऑफिसर हूँ. “

“ बहुत बढ़िया.मेरे पापा भी…!”

उसकी बात अधूरी रह गई.

एक मोटर साईकिल आकर वहाँ रुकी.

मोटरसाईकिल सवार का हेलमेट उठाना था कि उनके लिए मानों कयामत आ गई.

“ अरे शर्मा जी आप! अच्छा हुआ. मैं तो घबरा रहा था कि पता नहीं कैसा आदमी है?

बेटी, ये शर्मा जी हैं. हमारे डिपार्टमेन्ट में हैं. दूसरे सेक्शन में बैठते हैं. शर्मा जी, कभी आइये न हमारे घर पर.

बिटिया बहुत अच्छी चाय बनाती है.“वो बड़े उत्साह में बोले जा रहे थे.

“ जी अच्छा . उन्होने मरी हुई आवाज में कहा.

लड़की की आँखों में अब शोख़ी और शरारत दोनों झलक रही थीं.

वो मोटर साईकिल में पीछे  बैठ गई.

“थैंक  यू अंकल … बाय अंकल.“

मोटरसाईकिल आगे बढ़ गई.

‘क्या दो बार अंकल कहना जरूरी था?उनका दिल भर आया था.

बड़ा अफसोस हो रहा था. सारे अरमान धरे के धरे रह गए.

चल खुसरो घर आपने.

बरसात भी अब पूरी तरह थम चुकी थी.

Family Story: सच्चाई – आखिर क्यों मां नहीं बनना चाहती थी सिमरन?

Family Story: पड़ोस में आते ही अशोक दंपती ने 9 वर्षीय सपना को अपने 5 वर्षीय बेटे सचिन की दीदी बना दिया था. ‘‘तुम सचिन की बड़ी दीदी हो. इसलिए तुम्हीं इस की आसपास के बच्चों से दोस्ती कराना और स्कूल में भी इस का ध्यान रखा करना.’’ सपना को भी गोलमटोल सचिन अच्छा लगा था. उस की मम्मी तो यह कह कर कि गिरा देगी, छोटे भाई को गोद में भी नहीं उठाने देती थीं. समय बीतता रहा.

दोनों परिवारों में और बच्चे भी आ गए. मगर सपना और सचिन का स्नेह एकदूसरे के प्रति वैसा ही रहा. सचिन इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए मणिपाल चला गया. सपना को अपने ही शहर में मैडिकल कालेज में दाखिला मिल गया था. फिर एक सहपाठी से शादी के बाद वह स्थानीय अस्पताल में काम करने लगी थी. हालांकि सचिन के पापा का वहां से तबादला हो चुका था. फिर भी वह मौका मिलते ही सपना से मिलने आ जाता था. सऊदी अरब में नौकरी पर जाने के बाद भी उस ने फोन और ईमेल द्वारा संपर्क बनाए रखा. इसी बीच सपना और उस के पति सलिल को भी विदेश जाने का मौका मिल गया. जब वे लौट कर आए तो सचिन भी सऊदी अरब से लौट कर एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी कर रहा था.

‘‘बहुत दिन लगा दिए लौटने में दीदी? मैं तो यहां इस आस से आया था कि यहां आप अपनी मिल जाएंगी. मम्मीपापा तो जबलपुर में ही बस गए हैं और आप भी यहां से चली गईं. इतने साल सऊदी अरब में अकेला रहा और फिर यहां भी कोई अपना नहीं. बेजार हो गया हूं अकेलेपन से,’’ सचिन ने शिकायत की. ‘‘कुंआरों की तो साथिन ही बेजारी है साले साहब,’’ सलिल हंसा, ‘‘ढलती जवानी में अकेलेपन का स्थायी इलाज शादी है.’’

‘‘सलिल का कहना ठीक है सचिन. तूने अब तक शादी क्यों नहीं की?’’ सपना ने पूछा.

‘‘सऊदी अरब में और फिर यहां अकेले रहते हुए शादी कैसे करता दीदी? खैर, अब आप आ गई हैं तो लगता है शादी हो ही जाएगी.’’

‘‘लगने वाली क्या बात है, शादी तो अब होनी ही चाहिए… और यहां अकेले का क्या मतलब हुआ? शादी जबलपुर में करवा कर यहां आ कर रिसैप्शन दे देता किसी होटल में.’’

‘‘जबलपुर वाले मेरी उम्र की वजह से न अपनी पसंद का रिश्ता ढूंढ़ पा रहे हैं और न ही मेरी पसंद को पसंद कर रहे हैं,’’ सचिन ने हताश स्वर में कहा, ‘‘अब आप समझा सको तो मम्मीपापा को समझाओ या फिर स्वयं ही बड़ी बहन की तरह यह जिम्मेदारी निभा दो.’’ ‘‘मगर चाचीचाचाजी को ऐतराज क्यों है? तेरी पसंद विजातीय या पहले से शादीशुदा बालबच्चों वाली है?’’ सपना ने पूछा.

‘‘नहीं दीदी, स्वजातीय और अविवाहित है और उसे भविष्य में भी संतान नहीं चाहिए. यही बात मम्मीपापा को मंजूर नहीं है.’’

‘‘मगर उसे संतान क्यों नहीं चाहिए और अभी तक वह अविवाहित क्यों है?’’ सपना ने शंकित स्वर में पूछा. ‘‘क्योंकि सिमरन इकलौती संतान है. उस ने पढ़ाई पूरी की ही थी कि पिता को कैंसर हो गया और फिर मां को लकवा. बहुत इलाज के बाद भी दोनों को ही बचा नहीं सकी. मेरे साथ ही पढ़ती थी मणिपाल में और अब काम भी करती है. मुझ से शादी तो करना चाहती है, लेकिन अपनी संतान न होने वाली शर्त के साथ.’’

‘‘मगर उस की यह शर्त या जिद क्यों है?’’

‘‘यह मैं ने नहीं पूछा न पूछूंगा. वह बताना तो चाहती थी, मगर मुझे उस के अतीत में कोई दिलचस्पी नहीं है. मैं तो उसे सुखद भविष्य देना चाहता हूं. उस ने मुझे बताया था कि मातापिता के इलाज के लिए पैसा कमाने के लिए उस ने बहुत मेहनत की, लेकिन ऐसा कुछ नहीं किया, जिस के लिए कभी किसी से या स्वयं से लज्जित होना पड़े. शर्त की कोई अनैतिक वजह नहीं है और वैसे भी दीदी प्यार का यह मतलब यह तो नहीं है कि उस में आप की प्राइवेसी ही न रहे? मेरे बच्चे होने न होने से मम्मीपापा को क्या फर्क पड़ता है? जतिन और श्रेया ने बना तो दिया है उन्हें दादादादी और नानानानी. फूलफल तो रही है उन की वंशबेल,’’ फिर कुछ हिचकते हुए बोला, ‘‘और फिर गोद लेने या सैरोगेसी का विकल्प तो है ही.’’

‘‘इस विषय में बात की सिमरन से?’’ सलिल ने पूछा. ‘‘उसी ने यह सुझाव दिया था कि अगर घर वालों को तुम्हारा ही बच्चा चाहिए तो सैरोगेसी द्वारा दिलवा दो, मुझे ऐतराज नहीं होगा. इस के बावजूद मम्मीपापा नहीं मान रहे. आप कुछ करिए न,’’ सचिन ने कहा, ‘‘आप जानती हैं दीदी, प्यार अंधा होता है और खासकर बड़ी उम्र का प्यार पहला ही नहीं अंतिम भी होता है.’’

‘‘सिमरन का भी पहला प्यार ही है?’’ सपना ने पूछा. सचिन ने सहमति में सिर हिलाया, ‘‘हां दीदी, पसंद तो हम एकदूसरे को पहली नजर से ही करने लगे थे पर संयम और शालीनता से. सोचा था पढ़ाई खत्म करने के बाद सब को बताएंगे, लेकिन उस से पहले ही उस के पापा बीमार हो गए और सिमरन ने मुझ से संपर्क तक रखने से इनकार कर दिया. मगर यहां रहते हुए तो यह मुमकिन नहीं था. अत: मैं सऊदी अरब चला गया. एक दोस्त से सिमरन के मातापिता के न रहने की खबर सुन कर उसी की कंपनी में नौकरी लगने के बाद ही वापस आया हूं.’’ ‘‘ऐसी बात है तो फिर तो तुम्हारी मदद करनी ही होगी साले साहब. जब तक अपना नर्सिंगहोम नहीं खुलता तब तक तुम्हारे पास समय है सपना. उस समय का सदुपयोग तुम सचिन की शादी करवाने में करो,’’ सलिल ने कहा.

‘‘ठीक है, आज फोन पर बात करूंगी चाचीजी से और जरूरत पड़ी तो जबलपुर भी चली जाऊंगी, लेकिन उस से पहले सचिन मुझे सिमरन से तो मिलवा,’’ सपना ने कहा. ‘‘आज तो देर हो गई है, कल ले चलूंगा आप को उस के घर. मगर उस से पहले आप मम्मी से बात कर लेना,’’ कह कर सचिन चला गया. सपना ने अशोक दंपती को फोन किया. ‘‘कमाल है सपना, तुझे डाक्टर हो कर भी इस रिश्ते से ऐतराज नहीं है?  तुझे नहीं लगता ऐसी शर्त रखने वाली लड़की जरूर किसी मानसिक या शारीरिक रोग से ग्रस्त होगी?’’ चाची के इस प्रश्न से सपना सकते में आ गई.

‘‘हो सकता है चाची…कल मैं उस से मिल कर पता लगाने की कोशिश करती हूं,’’ उस ने खिसियाए स्वर में कह कर फोन रख दिया.

‘‘हम ने तो इस संभावना के बारे में सोचा ही नहीं था,’’ सब सुनने के बाद सलिल ने कहा. ‘‘अगर ऐसा कुछ है तो हम उस का इलाज करवा सकते हैं. आजकल कोई रोग असाध्य नहीं है, लेकिन अभी यह सब सचिन को मत बताना वरना अपने मम्मीपापा से और भी ज्यादा चिढ़ जाएगा.’’

‘‘उन का ऐतराज भी सही है सलिल, किसी व्याधि या पूर्वाग्रस्त लड़की से कौन अभिभावक अपने बेटे का विवाह करना चाहेगा? बगैर सचिन या सिमरन को कुछ बताए हमें बड़ी होशियारी से असलियत का पता लगाना होगा,’’ सपना ने कहा. ‘‘सिमरन के घर जाने के बजाय उस से पहले कहीं मिलना बेहतर रहेगा. ऐसा करो तुम कल लंचब्रेक में सचिन के औफिस चली जाओ. कह देना किसी काम से इधर आई थी, सोचा लंच तुम्हारे साथ कर लूं. वैसे तो वह स्वयं ही सिमरन को बुलाएगा और अगर न बुलाए तो तुम आग्रह कर के बुलवा लेना,’’ सलिल ने सुझाव दिया. अगले दिन सपना सचिन के औफिस में पहुंची ही थी कि सचिन लिफ्ट से एक लंबी, सांवली मगर आकर्षक युवती के साथ निकलता दिखाई दिया.

‘‘अरे दीदी, आप यहां? खैरियत तो है?’’ सचिन ने चौंक कर पूछा.

‘‘सब ठीक है, इस तरफ किसी काम से आई थी. अत: मिलने चली आई. कहीं जा रहे हो क्या?’’

‘‘सिमरन को लंच पर ले जा रहा था. शाम का प्रोग्राम बनाने के लिए…आप भी हमारे साथ लंच के लिए चलिए न दीदी,’’ सचिन बोला.

‘‘चलो, लेकिन किसी अच्छी जगह यानी जहां बैठ कर इतमीनान से बात कर सकें.’’

‘‘तब तो बराबर वाली बिल्डिंग की ‘अंगीठी’ का फैमिलीरूम ठीक रहेगा,’’ सिमरन बोली. चंद ही मिनट में वे बढि़या रेस्तरां पहुंच गए. ‘बहुत बढि़या आइडिया है यहां आने का सिमरन. पार्किंग और आनेजाने में व्यर्थ होने वाला समय बच गया,’’ सपना ने कहा. ‘‘सिमरन के सुझाव हमेशा बढि़या और सटीक होते हैं दीदी.’’

‘‘फिर तो इसे जल्दी से परिवार में लाना पड़ेगा सब का थिंक टैंक बनाने के लिए.’’ सचिन ने मुसकरा कर सिमरन की ओर देखा. सपना को लगा कि मुसकराहट के साथ ही सिमरन के चेहरे पर एक उदासी की लहर भी उभरी जिसे छिपाने के लिए उस ने बात बदल कर सपना से उस के विदेश प्रवास के बारे में पूछना शुरू कर दिया. ‘‘मेरा विदेश वृतांत तो खत्म हुआ, अब तुम अपने बारे में बताओ सिमरन.’’ ‘‘मेरे बारे में तो जो भी बताने लायक है वह सचिन ने बता ही दिया होगा दीदी. वैसे भी कुछ खास नहीं है बताने को. सचिन की सहपाठिन थी, अब सहकर्मी हूं और नेहरू नगर में रहती हूं.’’

‘‘अपने पापा के शौक से बनाए घर में जो लाख परेशानियां आने के बावजूद इस ने बेचा नहीं,’’ सचिन ने जोड़ा, ‘‘अकेली रहती है वहां.’’

‘‘डर नहीं लगता?’’

‘‘नहीं दीदी, डर तो अपना साथी है,’’ सिमरन हंसी. ‘‘आई सी…इस ने तेरे बचपन के नाम डरपोक को छोटा कर दिया है सचिन.’’ सिमरन खिलखिला कर हंस पड़ी, ‘‘नहीं दीदी, इस ने बताया ही नहीं कि इस का नाम डरपोक था. किस से डरता था यह दीदी?’’ ‘‘बताने की क्या जरूरत है जब रातदिन इस के साथ रहोगी तो अपनेआप ही पता चल जाएगा,’’ सपना हंसी. ‘‘रातदिन साथ रहने की संभावना तो बहुत कम है, मैं मम्मीजी की भावनाओं को आहत कर के सचिन से शादी नहीं कर सकती,’’ सिमरन की आंखों में उदासी, मगर स्वर में दृढ़ता थी. सपना ने घड़ी देखी फिर बोली, ‘‘अभी न तो समय है और न ही सही जगह जहां इस विषय पर बहस कर सकें. जब तक मेरा नर्सिंगहोम तैयार नहीं हो जाता, मैं तो फुरसत में ही हूं, तुम्हारे पास जब समय हो तो बताना. तब इतमीनान से इस विषय पर चर्चा करेंगे और कोई हल ढूंढ़ेंगे.’’

‘‘आज शाम को आप और जीजाजी चल रहे हैं न इस के घर?’’ सचिन ने पूछा.

‘‘अभी यहां से मैं नर्सिंगहोम जाऊंगी यह देखने कि काम कैसा चल रहा है, फिर घर जा कर दोबारा बाहर जाने की हिम्मत नहीं होगी और फिर आज मिल तो लिए ही हैं.’’

‘‘आप मिली हैं न, जीजाजी से भी तो मिलवाना है इसे,’’ सचिन बोला, ‘‘आप घर पर ही आराम करिए, मैं सिमरन को ले कर वहीं आ जाऊंगा.’’

‘‘इस से अच्छा और क्या होगा, जरूर आओ,’’ सपना मुसकराई, ‘‘खाना हमारे साथ ही खाना.’’ शाम को सचिन और सिमरन आ गए. सलिल की चुटकियों से शीघ्र ही वातावरण अनौपचारिक हो गया. जब किसी काम से सपना किचन में गई तो सचिन उस के पीछेपीछे आया.

‘‘आप ने मम्मी से बात की दीदी?’’

‘‘हां, हालचाल पूछ लिया सब का.’’

‘‘बस हालचाल ही पूछा? जो बात करनी थी वह नहीं की? आप को हो क्या गया है दीदी?’’ सचिन ने झल्ला कर पूछा. ‘‘तजरबा, सही समय पर सही बात करने का. सिमरन कहीं भागी नहीं जा रही है, शादी करेगी तो तेरे से ही. जहां इतने साल सब्र किया है थोड़ा और कर ले.’’ ‘‘इस के सिवा और कर भी क्या सकता हूं,’’ सचिन ने उसांस ले कर कहा. इस के बाद सपना ने सिमरन से और भी आत्मीयता से बातचीत शुरू कर दी. यह सुन कर कि सचिन औफिस के काम से मुंबई जा रहा है, सपना उस शाम सिमरन के घर चली गई. उस का घर बहुत ही सुंदर था. लगता था बनवाने वाले ने बहुत ही शौक से बनवाया था. ‘‘बहुत अच्छा किया तुम ने यह घर न बेच कर सिमरन. जाहिर है, शादी के बाद भी यहीं रहना चाहोगी. सचिन तैयार है इस के लिए?’’ ‘‘सचिन तो बगैर किसी शर्त के मेरी हर बात मानने को तैयार है, लेकिन मैं बगैर उस के मम्मीपापा की रजामंदी के शादी नहीं कर सकती. मांबाप से उन के बेटे को विमुख कभी नहीं करूंगी. प्रेम तो विवेकहीन और अव्यावहारिक होता है दीदी. उस के लिए सचिन को अपनों को नहीं छोड़ने दूंगी.’’

‘‘यह तो बहुत ही अच्छी बात है सिमरन. चाचाचाचीजी यानी सचिन के मम्मीपापा भी बहुत अच्छे हैं. अगर उन्हें ठीक से समझाया जाए यानी तुम्हारी शर्त का कारण बताया जाए तो वे भी सहर्ष मान जाएंगे. लेकिन सचिन ने उन्हें कारण बताया ही नहीं है.’’ ‘‘बताता तो तब न जब उसे खुद मालूम होता. मैं ने उसे कई बार बताने की कोशिश की, लेकिन वह सुनना ही नहीं चाहता. कहता है कि जब मेरे साथ हो तो भविष्य के सुनहरे सपने देखो, अतीत की बात मत करो. मुझे भी अतीत याद रखने का कोई शौक नहीं है दीदी, मगर अतीत से या जीवन से जुड़े कुछ तथ्य ऐसे भी होते हैं जिन्हें चाह कर भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, उन के साथ जीना मजबूरी होती है.’’ ‘‘अगर चाहो तो उस मजबूरी को मुझ से बांट सकती हो सिमरन,’’ सपना ने धीरे से कहा. ‘‘मैं भी यही सोच रही थी दीदी,’’ सिमरन ने जैसे राहत की सांस ली, ‘‘अकसर देर से जाने और बारबार छुट्टी लेने के कारण न नौकरी पर ध्यान दे पा रही थी न पापा के इलाज पर, अत: मैं नौकरी छोड़ कर पापा को इलाज के लिए मुंबई ले गई थी. वहां पैसा कमाने के लिए वैक्यूम क्लीनर बेचने से ले कर अस्पताल की कैंटीन, साफसफाई और बेबी सिटिंग तक के सभी काम लिए. फिर मम्मीपापा के ऐतराज के बावजूद पैसा कमाने के लिए 2 बार सैरोगेट मदर बनी. तब तो मैं ने एक मशीन की भांति बच्चों को जन्म दे कर पैसे देने वालों को पकड़ा दिया था, लेकिन अब सोचती हूं कि जब मेरे अपने बच्चे होंगे तो उन्हें पालते हुए मुझे जरूर उन बच्चों की याद आ सकती है, जिन्हें मैं ने अजनबियों पर छोड़ दिया था. हो सकता है कि विचलित या व्यथित भी हो जाऊं और ऐसा होना सचिन और उस के बच्चे के प्रति अन्याय होगा. अत: इस से बेहतर है कि यह स्थिति ही न आने दूं यानी बच्चा ही पैदा न करूं. वैसे भी मेरी उम्र अब इस के उपयुक्त नहीं है. आप चाहें तो यह सब सचिन और उस के परिवार को बता सकती हैं. उन की कोई भी प्रतिक्रिया मुझे स्वीकार होगी.’’

‘‘ठीक है सिमरन, मैं मौका देख कर सब से बात करूंगी,’’ सपना ने सिमरन को आश्वासन दिया. सिमरन ने जो कहा था उसे नकारा नहीं जा सकता था. उस की भावनाओं का खयाल रखना जरूरी था. सचिन के साथ तो खैर कोई समस्या नहीं थी, उसे तो सिमरन हर हाल में ही स्वीकार थी, लेकिन उस के घर वालों से आज की सचाई यानी सैरोगेट मदर बन चुकी बहू को स्वीकार करवाना आसान नहीं था. उन लोगों को तो सिमरन की बड़ी उम्र बच्चे पैदा करने के उपयुक्त नहीं है कि दलील दे कर समझाना होगा. सचिन के प्यार के लिए इतने से कपट का सहारा लेना तो बनता ही है.

Romantic Story: प्रेम की सूरत

Romantic Story, कहानी- धीरज राणा भायला

उसका कद लंबा था. अभिनेत्रियों जैसे नयन और रंग जैसे दूध और गुलाब का मिश्रण. वह लोगों की अपने इर्दगिर्द घूमती नजरों की परवा किए बिना बाजार में शौपिंग कर रही थी. उस के दोनों हाथ बैगों से भरे थे.

पिछले आधे घंटे में उस के पापा का 4 बार फोन आ चुका था और हर बार वह बस इतना बोलती, ‘‘पापा, बस 10 मिनट और.’’

आखिरकार वह बाजार की गली से बाहर मेन रोड पर खड़ी गाड़ी के पास पहुंची और सामान गाड़ी की डिकी में रखने लगी.

मौल से शौपिंग करने के बाद प्रीति थक गई थी. लंबी, पतली प्रीति देखने में बेहद खूबसूरत थी. उस का गोरा रंग उसे और मोहक बना देता था. उस के लंबे बाल बड़े सलीके से उस के मुंह पर गिर रहे थे.

उसी वक्त एक मोटरसाइकिल उस के करीब आ कर रुकी.

बाइकसवार ने जैसे ही हैल्मैट उतारा, वह चिल्लाई, ‘‘अब क्या लेने आए हो? अब तो मैं शौपिंग कर भी चुकी. 2 घंटे पहले फोन किया था. मैं कपड़े तुम्हारी पसंद के लेना चाहती थी मगर सब सत्यानाश कर दिया.’’

‘‘आ ही तो रहा था, मगर जैसे ही औफिस से निकला, बौस गेट पर आ धमका. उस को पता चल जाता तो डिसमिस कर देता. छिप कर आना पड़ता है, और रही बात पसंद की, वह तो हम दोनों की एकजैसी ही है.’’

‘‘राहुल, कब तक बहकाते रहोगे? प्रेम की बड़ीबड़ी बातें करते हो और जब भी तुम्हारी जरूरत पड़ी, बेवक्त ही मिले,’’ वह आगे बोली, ‘‘सरप्राइज भी तो देना था तुम्हें.’’

‘‘कैसा सरप्राइज?’’

‘‘मुझे देखने लड़के वाले आ रहे हैं?’’

सुनते ही राहुल के चेहरे का रंग जैसे उड़ गया. उस ने हाथ में थामा हैल्मैट बाइक के ऊपर रखा और प्रीति के पास जा कर उस का हाथ थाम कर बोला, ‘‘प्रीति, मजाक की भी हद होती है. लेट क्या हो गया, तुम तो जान लेने पर ही आ गईं.’’

‘‘क्या करूं, तुम्हारे बिना किसी काम में दिल जो नहीं लगता? जाने कितने लड़कों में नुक्स निकाल कर अभी तक तुम्हारे इंतजार में बैठी हूं. मगर कब तक?’’

‘‘बस, एक साल और, बहन की शादी हो जाए, फिर ले जाऊंगा तुम को दुलहन बना कर.’’

प्रीति ने गहरी सांस ली. उस ने धीरे से राहुल की पकड़ से अपना हाथ आजाद किया और गाड़ी में बैठ कर चल दी. जिस गति पर गाड़ी दौड़ रही थी उसी गति से पुरानी यादें प्रीति के दिमाग में आजा रही थीं.

राहुल 4 साल पहले अचानक से उस के जीवन में आया था तब, जब उस ने कालेज में दाखिला लिया था. कालेज की रैगिंग प्रथा से उस की जान बचाने वाला राहुल ही था. राहुल की इस दरियादिली ने प्रीति के दिल में राहुल के लिए एक अलग जगह बना दी थी. वे दोनों अकसर एकसाथ रहने लगे. कालेज कैंटीन तो ऐसी जगह थी जहां खाली समय में दोनों रोज घंटों बातें करते रहते. महीनों तक उन में से किसी ने उस प्रेम का इजहार न किया जो पता नहीं कब दोस्ती से प्रेम में बदल गया था. राहुल कुछ था भी ऐसा कि उस की दिलकश अंदाज में की गईं बातें सब को उस का दीवाना बना देती थीं. प्रीति तो उसे पहले दिन ही अपना दिल दे बैठी थी.

एक दिन दोनों कैंटीन में साथ बैठे बातें कर रहे थे कि राहुल ने कहा, ‘‘2 महीने बाद परीक्षा हो जाएगी और मैं चला जाऊंगा.’’

‘‘कहां?’’ प्रीति खोई सी बोली.

‘‘घर और कहां? आखिरी साल है मेरा. परीक्षा के बाद तो जाना ही होगा.’’

‘‘मेरा क्या होगा?’’ पहली बार प्रीति ने राहुल का हाथ थाम कर पूछा. राहुल ने भी दोनों हाथों से उस का हाथ थाम लिया.

प्रीति की नजर झुक गई थी. उस ने अप्रत्यक्ष रूप से प्रेम का इजहार जो कर दिया था. फिर परीक्षा हो गई और साथ जीनेमरने का वादा कर राहुल ने कालेज छोड़ दिया. अब जब भी दोनों को समय मिलता, किसी पार्क या होटल में मिल लेते.

कभीकभी राहुल काम से छुट्टी ले कर उसे सिनेमा दिखाने ले जाता. कालेज आने और जाने तक तो दोनों साथ ही रहते. जिंदगी बड़ी हंसीखुशी गुजर रही थी. इस बीच, एक दिन उस के पापा ने खबर दी कि उस के लिए एक रिश्ता आया है. लड़का सरकारी डाक्टर था. लेकिन प्रीति ने लड़के को बिना देखे ही रिजैक्ट कर दिया था. उस के बाद तो यह सिलसिला चल पड़ा.

हर महीने रिश्ते वाले आते और प्रीति कोई न कोई बहाना बना कर मना कर देती.

एक दिन पापा ने मम्मी से कह कर पुछवाया कि वह किसी लड़के को पसंद करती हो, तो बता दे. लेकिन, प्रीति ने राहुल का जिक्र नहीं किया क्योंकि वह एक प्राइवेट कंपनी में छोटा सा मुलाजिम जो था.

प्रीति खयालों में इस कदर खोई थी कि उसे पता ही न चला कि कब गाड़ी गलत रास्ते पर चली गई. उस ने आसपास गौर से देखा, बहुत दूर निकल आई थी. खुलाखुला सा रोड संकरी गली में कब तबदील हो गया, उसे तो आभास ही न हुआ. किसी से रास्ता पूछने की गरज में उस ने इधरउधर नजर दौड़ाई तो कुछ फासले पर 2 लड़के सिगरेट फूंकते दिखे. उस ने गाड़ी वहीं रोक दी और पैदल उन के पास पहुंची. दिन था इसलिए उसे जरा भी भय महसूस न हुआ, मगर अपनी ओर आते उन लड़कों के बदलते हावभाव देख कर गलती का एहसास हुआ.

‘‘मोहननगर जाना था, रास्ता भटक गई हूं. प्लीज हैल्प,’’ प्रीति ने विनयपूर्ण लहजे में कहा.

प्रीति उन लड़कों की आंखों में बिल्ली के जैसे भाव देख कर सिहर उठी. दोपहर का वक्त था और कालोनी की सड़कें सुनसान पड़ी थीं. तसल्ली यह कि दिन ही तो है.

एक लड़का सिगरेट फेंक कर आगे बढ़ा और अपने शिकार पर झपट पड़ने जैसे भाव छिपाता सहानुभूतिपूर्ण लहजे में बोला, ‘‘आगे से राइट टर्न ले कर फिर लैफ्ट ले कर मेन रोड आ जाएगा, वहां से सीधे मोहननगर चली जाओगी.’’ उन लड़कों का आभार जता कर प्रीति गाड़ी में बैठ कर बताई दिशा में चल दी.

वह सोच रही थी कि कितने सज्जन थे वे लड़के और वह खामखां डर रही थी. आगे मोड़ घूमते ही सड़क इतनी तंग हो गई कि बराबर में साइकिल तक की जगह न थी. शुक्र था कि आवाजाही नहीं थी. पता नहीं कालोनी में कोई रहता भी था या नहीं.

फिर सामने वह मोड़ दिखा जिस के बाद मेन रोड आ जाना था. प्रीति ने राहत की सांस ली. फिर जैसे ही गाड़ी मोड़ पर दाएं मुड़ी, प्रीति का गला खुश्क हो गया और पैडल पर रखे पांव में कंपन होने लगा.

मोड़ घूमते ही सड़क 4 कदम आगे एक मकान के दरवाजे पर बंद थी.

उस ने पलभर कुछ सोच कर गाड़ी को रिवर्स करने के लिए पीछे गरदन घुमाई तो पीछे मोटरसाइकिल खड़ी दिखी. उस ने हौर्न बजाया, लेकिन कोई नहीं था. अचानक बगल से किसी ने दरवाजा खोल कर उस के मुंह पर हाथ रखा और अगले पल चेतना लुप्त हो गई.

आंख खुली तो उस ने खुद को अस्पताल के बैड पर पड़े पाया. उस का सारा शरीर ऐसे दुख रहा था जैसे उस के शरीर के ऊपर से कोई भारी वाहन गुजर गया हो.

धीरेधीरे चेतना लौटी तो उसे याद आने लगा कि वह किसी अनजान जगह किन्हीं अनजान बांहों के शिकंजे में फंस गई थी. आगे जो उस के साथ बीती उस की कल्पना मात्र से वह सिहर उठी.

तभी मां के हाथ का स्पर्श अपने माथे पर महसूस कर आंखें छलछला आईं.

‘‘मत रो, बेटी. जो हुआ वह एक दुर्घटना थी. हम चाहते हैं कि तू इस बात को भुला कर नई जिंदगी की शुरुआत करे,’’ कहतेकहते मां जोर से सिसकने लगी.

प्रीति अब होश में थी. जैसेजैसे उसे अपने साथ बीती घटना याद आती वैसेवैसे उस का दिल बैठता जाता. जीवन की सारी उम्मीदें, सारे सपने छोटी सी घटना की भेंट चढ़ गए थे. बस, बाकी बची थी तो एक शून्यता जिस के सहारे इतना बड़ा जीवन बिताना किसी तप से कम न था.

3 दिनों बाद अस्पताल से घर लौट आई. जो लोग उस के रिश्ते की बात करते थे, उसे देखने तक न आए. संकेत साफ था.

दिनभर प्रीति घर से बाहर न निकलती. अंधेरा घिर आता जब टैरेस पर खड़े हो कर बाहर की दुनिया को नजर भर कर देखती.

एक सुबह वह कमरे में लेटी थी. पापा और मम्मी बाहर बैठे वस्तुस्थिति पर विलाप करते गुमसुम बैठे थे. उस ने सुना, दरवाजे पर दस्तक हुई थी.

पिछले 10 दिनों में पहली बार था कि कोई उस घर में आया था.

पता नहीं किस ने दरवाजा खोला होगा. बाहर कोई वार्त्तालाप भी न हुआ, जिस से प्रीति अनुमान लगाती कि कौन आया था.

फिर कमरे में कोई दाखिल हुआ तो वह सिमट कर उठ बैठी. उस ने डरतेझिझकते सिर उठाया. राहुल उस के करीब खड़ा था हाथ में प्रीति की पसंद के फूल थामे. पीछे दरवाजे पर मम्मीपापा खामोश जड़वत खड़े थे.

राहुल ने फूल प्रीति के करीब बैड पर रख दिए और एक किनारे पर बैठ गया.

‘‘मैं काम के सिलसिले में शहर से बाहर था. कल ही लौटा हूं. काश कि मैं बाहर न गया होता? ऐसा हम अकसर सोचते हैं, हम सोचते हैं कि हम हर जगह रह कर किसी भी अनहोनी को होने से रोक देंगे. यह सोचना अपनेआप को दिलासा देने की कोशिश के सिवा कुछ नहीं. एक घटना जीवन की दशा और दिशा दोनों को बदल देती है लेकिन जिधर भी दिशा मिले, चलते जाना है, यही जीवन है. मैं काफी मुसीबतों के दौर से गुजरा हूं. अब कुछ कमा रहा हूं और इस मुकाम पर हूं कि जीवन को ले कर सपने बुन सकूं. मैं सपने बुनता हूं और उन सपनों में हमेशा तुम रही हो, प्रीति. मैं चाहता हूं कि वे सपने जस के तस रहें, जिन में हंसतीमुसकराती प्रीति हो. ऐसी मायूस और हारी हुई नहीं,’’ कहतेकहते राहुल भावुक हो गया. उस ने प्रीति का हाथ थाम लिया.

एक पल के लिए प्रीति को कुछ समझ न आया कि क्या प्रतिक्रिया दे. लेकिन राहुल के बेइंतहा प्रेम को देख कर उस की आंखें भर आईं. वह राहुल से लिपट कर रो पड़ी. दिल में दबी उम्मीदों के ऊपर पड़ी पश्चात्ताप की बर्फ आंसुओं के रूप में बह रही थी.

Social Story: आदमी औरत का फर्क 

Social Story, लेखक-  डॉ. अनीता एम. कुमार

नियत समय पर घड़ी का अलार्म बज उठा. आवाज सुन कर मधु चौंक पड़ी. देर रात तक घर का सब काम निबटा कर वह सोने के लिए गई थी लेकिन अलार्म बजा है तो अब उसे उठना ही होगा क्योंकि थोड़ा भी आलस किया तो बच्चों की स्कूल बस मिस हो जाएगी.

मधु अनमनी सी बिस्तर से बाहर निकली और मशीनी ढंग से रोजमर्रा के कामों में जुट गई. तब तक उस की काम वाली बाई भी आ पहुंची थी. उस ने रसोई का काम संभाल लिया और मधु 9 साल के रोहन और 11 साल की स्वाति को बिस्तर से उठा कर स्कूल भेजने की तैयारी में जुट गई.

उसी समय बच्चों के पापा का फोन आ गया. बच्चों ने मां की हबड़दबड़ की शिकायत की और मधु को सुनील का उलाहना सुनना पड़ा कि वह थोड़ा जल्दी क्यों नहीं उठ जाती ताकि बच्चों को प्यार से उठा कर आराम से तैयार कर सके.

मधु हैरान थी कि कुछ न करते हुए भी सुनील बच्चों के अच्छे पापा बने हुए हैं और वह सबकुछ करते हुए भी बच्चों की गंदी मम्मी बन गई है. कभीकभी तो मधु को अपने पति सुनील से बेहद ईर्ष्या होती.

सुनील सेना में कार्यरत था. वह अपने परिवार का बड़ा बेटा था. पिता की मौत के बाद मां और 4 छोटे भाईबहनों की पूरी जिम्मेदारी उसी के कंधों पर थी. चूंकि सुनील का सारा परिवार दूसरे शहर में रहता था अत: छुट्टी मिलने पर उस का ज्यादातर समय और पैसा उन की जरूरतें पूरी करने में ही जाता था, ऐसे में मधु अपनी नौकरी छोड़ने की बात सोच भी नहीं सकती थी.

सुबह से रात तक की भागदौड़ के बीच पिसती मधु अपने इस जीवन से कभीकभी बुरी तरह खीज उठती पर बच्चों की जिद और उन की अनंत मांगें उस के धैर्य की परीक्षा लेती रहतीं. दिन भर आफिस में कड़ी मेहनत के बाद शाम को बच्चों को स्कूल  से लेना, फिर बाजार के तमाम जरूरी काम निबटाते हुए घर लौटना और शाम का नाश्ता, रात का खाना बनातेबनाते बच्चों को होमवर्क कराना, इस के बाद भी अगर कहीं किसी बच्चे के नंबर कम आए तो सुनील उसे दुनिया भर की जलीकटी सुनाता.

सुनील के कहे शब्द मधु के कानों में लावा बन कर दहकते रहते. मधु को लगता कि वह एक ऐसी असहाय मकड़ी है जो स्वयं अपने ही बुने तानेबाने में बुरी तरह उलझ कर रह गई है. ऐसे में वह खुद को बहुत ही असहाय पाती. उसे लगता, जैसे उस के हाथपांव शिथिल होते जा रहे हैं और सांस लेने में भी उसे कठिनाई हो रही है पर अपने बच्चों की पुकार पर वह जैसेतैसे स्वयं को समेट फिर से उठ खड़ी होती.

बच्चों को तैयार कर मधु जब तक उन्हें ले कर बस स्टाप पर पहुंची, स्कूल बस जाने को तैयार खड़ी थी. बच्चों को बस में बिठा कर उस ने राहत की सांस ली और तेज कदम बढ़ाती वापस घर आ पहुंची.

घर आ कर मधु खुद दफ्तर जाने के लिए तैयार हुई. नाश्ता व लंच दोनों पैक कर के रख लिए कि समय से आफिस  पहुंच कर वहीं नाश्ता  कर लेगी. बैग उठा कर वह चलने को हुई कि फोन की घंटी बज उठी.

फोन पर सुनील की मां थीं जो आज के दिन को खास बताती हुई उसे याद से गाय के लिए आटे का पेड़ा ले जाने का निर्देश दे रही थीं. उन का कहना था कि आज के दिन गाय को आटे का पेड़ा खिलाना पति के लिए शुभ होता है. तुम दफ्तर जाते समय रास्ते में किसी गाय को आटे का बना पेड़ा खिला देना.

फोन रख कर मधु ने फ्रिज खोला. डोंगे में से आटा निकाला और उस का पेड़ा बना कर कागज में लपेट कर साथ ले लिया. उसे पता था कि अगर सुनील को एक छींक भी आ गई तो सास उस का जीना दूभर कर देंगी.

घर को ताला लगा मधु गाड़ी स्टार्ट कर दफ्तर के लिए चल दी. घर से दफ्तर की दूरी कुल 7 किलोमीटर थी पर सड़क पर भीड़ के चलते आफिस पहुंचने में 1 घंटा लगता था. रास्ते में गाय मिलने की संभावना भी थी, इसलिए उस ने आटे का पेड़ा अपने पास ही रख लिया था.

गाड़ी चलाते समय मधु की नजरें सड़क  पर टिकी थीं पर उस का दिमाग आफिस के बारे में सोच रहा था. आफिस में अकसर बौस को उस से शिकायत रहती कि चाहे कितना भी जरूरी काम क्यों न हो, न तो वह कभी शाम को देर तक रुक पाती है और न ही कभी छुट्टी के दिन आ पाती है. इसलिए वह कभी भी अपने बौस की गुड लिस्ट में नहीं रही. तारीफ के हकदार हमेशा उस के सहयोगी ही रहते हैं, फिर भले ही वह आफिस टाइम में कितनी ही मेहनत क्यों न कर ले.

मधु पूरी रफ्तार से गाड़ी दौड़ा रही थी कि अचानक उस के आगे वाली 3-4 गाडि़यां जोर से ब्रेक लगने की आवाज के साथ एकदूसरे में भिड़ती हुई रुक गईं. उस ने भी अपनी गाड़ी को झटके से ब्रेक लगाए तो अगली गाड़ी से टक्कर होतेहोते बची. उस का दिल जोर से धड़क उठा.

मधु ने गाड़ी से बाहर नजर दौड़ाई तो आगे 3-4 गाडि़यां एकदूसरे से भिड़ी पड़ी थीं. वहीं गाडि़यों के एक तरफ  एक मोटरसाइकिल उलट गई थी और उस का चालक एक तरफ खड़ा  बड़ी मुश्किल से अपना हैलमेट उतार रहा था.

हैलमेट उतारने के बाद मधु ने जब उस का चेहरा देखा तो दहशत से पीली पड़ गई. सारा चेहरा खून से लथपथ था.

सड़क के बीचोंबीच 2 गायें इस हादसे से बेखबर खड़ी सड़क पर बिखरा सामान खाने में जुटी थीं. जैसे ही गाडि़यों के चालकों ने मोटरसाइकिल चालक की ऐसी दुर्दशा देखी, उन्होंने अपनी गाडि़यों के नुकसान की परवा न करते हुए ऐसे रफ्तार पकड़ी कि जैसे उन के पीछे पुलिस लगी हो.

मधु की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे. आज एक बेहद जरूरी मीटिंग थी और बौस ने खासतौर से उसे लेट न होने की हिदायत दी थी लेकिन अब जो स्थिति उस के सामने थी उस में उस का दिल एक युवक को यों छोड़ कर  आगे बढ़ जाने को तैयार नहीं था.

मधु ने अपनी गाड़ी सड़क  के किनारे लगाई और उस घायल व्यक्ति के पास जा पहुंची. वह युवक अब भी अपने खून से भीगे चेहरे को रूमाल से साफ कर रहा था. मगर  बालों से रिसरिस कर खून चेहरे को भिगो रहा था.

मधु ने पास जा कर उस युवक से घबराए स्वर में पूछा, ‘‘क्या मैं आप की कोई मदद कर सकती हूं?’’

युवक ने दर्द से कराहते हुए बड़ी मुश्किल से आंखें खोलीं तो उस की आंखों में जो भाव मधु ने देखे उसे देख कर वह डर गई.  उस ने भर्राए स्वर में मधु से कहा, ‘‘ओह, तो अब तुम मेरी मदद करना चाहती हो ? तुम्हीं  ने वह खाने के सामान से भरा लिफाफा  चलती गाड़ी से उन गायों की तरफ फेंका था न?’’

मधु चौंक उठी, ‘‘कौन सा खाने का लिफाफा?’’

युवक भर्राए स्वर में बोला, ‘‘वही खाने का लिफाफा जिसे देख कर सड़क के किनारे  खड़ी गायें एकाएक सड़क के बीच दौड़ पड़ीं और यह हादसा हो गया.’’

अब मधु की समझ में सारा किस्सा आ गया. तेज गति से सड़क पर जाते वाहनों के आगे एकाएक गायोें का भाग कर आना, वाहनों का अपनी रफ्तार पर काबू पाने के असफल प्रयास में एकदूसरे से भिड़ना और किन्हीं 2 कारों के बीच फंस कर उलट गई मोटरसाइकिल के इस सवार का इस कदर घायल होना.

यह सब समझ में आने के साथ ही मधु को यह भी एहसास हुआ कि वह युवक उसे ही इस हादसे का जिम्मेदार समझ रहा है. वह इस बात से अनजान है कि मधु की गाड़ी तो सब से पीछे थी.

मधु का सर्वांग भय से कांप उठा. फिर भी अपने भय पर काबू पाते हुए वह उस युवक से बोली, ‘‘देखिए, आप गलत समझ रहे हैं. मैं तो अपनी…’’

वह युवक दर्द से कराहते हुए जोर से चिल्लाया, ‘‘गलत मैं नहीं, तुम हो, तुम…यह कोई तरीका है गाय को खिलाने का…’’ इतना कह युवक ने अपनी खून से भीगी कमीज की जेब से अपना सैलफोन निकाला. मधु को लगा कि वह शायद पुलिस को बुलाने की फिराक में है. उस की आंखों के आगे अपने बौस का चेहरा घूम गया, जिस से उसे किसी तरह की मदद की कोई उम्मीद नहीं थी. उस की आंखों के आगे अपने नन्हे  बच्चों के चेहरे घूम गए, जो उस के थोड़ी भी देर करने पर डरेडरे एकदूसरे का हाथ थामे सड़क पर नजर गड़ाए स्कूल के गेट के पास उस के इंतजार में खडे़ रहते थे.

मधु ने हथियार डाल दिए. उस घायल युवक की नजरों से बचती वह भारी कदमों से अपनी गाड़ी तक पहुंची… कांपते हाथों से गाड़ी स्टार्ट की और अपने रास्ते पर चल दी. लेकिन जातेजाते भी वह यही सोच रही थी कि कोई भला इनसान उस व्यक्ति की मदद के लिए रुक जाए.

आफिस पहुंचते ही बौस ने उसे जलती आंखों से देख कर व्यंग्य बाण छोड़ा, ‘‘आ गईं हर हाइनेस, बड़ी मेहरबानी की आज आप ने हम पर, इतनी जल्दी पहुंच कर. अब जरा पानी पी कर मेरे डाक्यूमेंट्स तैयार कर दें, हमें मीटिंग में पहुंचने के लिए तुरंत निकलना है.’’

मधु अपनी अस्तव्यस्त सांसों के बीच अपने मन के भाव दबाए मीटिंग की तैयारी में जुट गई. सारा दिन दफ्तर के कामों की भागदौड़ में कैसे और कब बीत गया, पता ही नहीं चला. शाम को वक्त पर काम निबटा कर वह बच्चों के स्कूल पहुंची. उस का मन कर रहा था कि आज वह कहीं और न जा कर सीधी घर पहुंच जाए. पर दोनों बच्चों ने बाजार से अपनीअपनी खरीदारी की लिस्ट पहले से ही बना रखी थी.

हार कर मधु ने गाड़ी बाजार की तरफ मोड़ दी. तभी रोहन ने कागज में लिपटे आटे के पेड़े को हाथ में ले कर पूछा, ‘‘ममा, यह क्या है?’’

मधु चौंक कर बोली, ‘‘ओह, यह यहीं रह गया…यह आटे का पेड़ा है बेटा, तुम्हारी दादी ने कहा था कि सुबह इसे गाय को खिला देना.’’

‘‘तो फिर आप ने अभी तक इसे गाय को खिलाया क्यों नहीं?’’ स्वाति ने पूछा.

‘‘वह, बस ऐसे ही, कोई गाय दिखी ही नहीं…’’ मधु ने बात को टालते हुए कहा.

तभी गाड़ी एक स्पीड बे्रकर से टकरा कर जोर से उछल गई तो रोहन चिल्लाया, ‘‘ममा, क्या कर रही हैं आप?’’

‘‘ममा, गाड़ी ध्यान से चलाइए,’’ स्वाति बोली.

‘‘सौरी बेटा,’’ मधु के स्वर में बेबसी थी. वह चौकन्नी हो कर गाड़ी चलाने लगी. बाजार का सारा काम निबटाने के बाद उस ने बच्चों के लिए बर्गर पैक करवा लिए. घर जा कर खाना बनाने की हिम्मत उस में नहीं बची थी. घर पहुंच कर उस ने बच्चों को नहाने के लिए भेजा और खुद सुबह की तैयारी में जुट गई.

बच्चों को खिलापिला कर मधु ने उन का होमवर्क जैसेतैसे पूरा कराया और फिर खुद दर्द की एक गोली और एक कप गरम दूध ले कर बिस्तर पर निढाल हो गिर पड़ी तो उस का सारा बदन दर्द से टूट रहा था और आंखें आंसुओं से तरबतर थीं.

रोहन और स्वाति अपनी मां का यह हाल देख कर दंग रह गए. ऐसे तो उन्होंने पहले कभी अपनी मां को नहीं देखा था. दोनों बच्चे मां के पास सिमट आए.

‘‘ममा, क्या हुआ? आप रो क्यों रही हैं?’’ रोहन बोला.

‘‘ममा, क्या बात हुई है? क्या आप मुझे नहीं बताओगे?’’ स्वाति ने पूछा.

मधु को लगा कि कोई तो उस का अपना है, जिस से वह अपने मन की बात कह सकती है. अपनी सिसकियों पर जैसेतैसे नियंत्रण कर उस ने रुंधे कंठ से बच्चों को सुबह की दुर्घटना के बारे मेें संक्षेप में बता दिया.

‘‘कितनी बेवकूफ औरत थी वह, उसे गाय को ऐसे खिलाना चाहिए था क्या?’’ रोहन बोला.

‘‘हो सकता है बेटा, उसे भी उस की सास ने ऐसा करने को कहा हो जैसे तुम्हारी दादी ने मुझ से कहा था,’’ मधु ने फीकी हंसी के साथ कहा. वह बच्चों का मन उस घटना की गंभीरता से हटाना चाहती थी ताकि जिस डर और दहशत से वह स्वयं अभी तक कांप रही है, उस का असर बच्चों के मासूम मन पर न पडे़.

‘‘ममा, आप उस आदमी को ऐसी हालत में छोड़ कर चली कैसे गईं? आप कम से कम उसे अस्पताल तो पहुंचा देतीं और फिर आफिस चली जातीं,’’ रोहन के स्वर में हैरानी थी.

‘‘बेटा, मैं अकेली औरत भला क्या करती? दूसरा कोई तो रुक तक नहीं रहा था,’’ मधु ने अपनी सफाई देनी चाही.

‘‘क्या ममा, वैसे तो आप मुझे आदमीऔरत की बराबरी की बातें समझाते नहीं थकतीं लेकिन जब कुछ करने की बात आई तो आप अपने को औरत होने की दुहाई देने लगीं? आप की इस लापरवाही से क्या पता अब तक वह युवक मर भी गया हो,’’ स्वाति ने कहा.

अब मधु को एहसास हो चला था कि उस की बेटी बड़ी हो गई है.

‘‘ममा, आज की इस घटना को भूल कर प्लीज, आप अब लाइट बंद कीजिए और सो जाइए. सुबह जल्दी उठना है,’’ स्वाति ने कहा तो मधु हड़बड़ा कर उठ बैठी और कमरे की बत्ती बंद कर खुद बाथरूम में मुंह धोने चली गई.

दोनों बच्चे अपनेअपने बेड पर सो गए. मधु ने बाथरूम का दरवाजा बंद कर अपना चेहरा जब आईने में देखा तो उस पर सवालिया निशान पड़ रहे थे. उसे लगा, उस का ही नहीं यहां हर औरत का चेहरा एक सवालिया निशान है. औरत चाहे खुद को कितनी भी सबल समझे, पढ़लिख जाए, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो जाए पर रहती है वह औरत ही. दोहरीतिहरी जिम्मेदारियों के बोझ तले दबी, बेसहारा…औरत कुछ भी कर ले, कहीं भी पहुंच जाए, रहेगी तो औरत ही न. फिर पुरुषों से मुकाबले और समानता का दंभ और पाखंड क्यों?

मधु को लगा कि स्त्री, पुरुष की हथेली पर रखा वह कोमल फूल है जिसे पुरुष जब चाहे सहलाए और जब चाहे मसल दे. स्त्री के जन्मजात गुणों में उस की कोमलता, संवेदनशीलता, शारीरिक दुर्बलता ही तो उस के सब से बडे़ शत्रु हैं. इन से निजात पाने के लिए तो उसे अपने स्त्रीत्व का ही त्याग करना होगा.

मधु अब तक शरीर और मन दोनों से बुरी तरह थक चुकी थी. उसे लगा, आज तक वह अपने बच्चों को जो स्त्रीपुरुष की समानता के सिद्धांत समझाती आई है वह वास्तव में नितांत खोखले और बेबुनियाद हैं. उसे अपनी बेटी को इन गलतफहमियों से दूर ही रखना होगा और स्त्री हो कर अपनी सारी कमियों और कमजोरियों को स्वीकार करते हुए समाज में अपनी जगह बनाने के लिए सक्षम बनाना होगा. यह काम मुश्किल जरूर है, पर नामुमकिन नहीं.

रात बहुत हो चुकी थी. दोनों बच्चे गहरी नींद में सो रहे थे. मधु ने एकएक कर दोनों बच्चों का माथा सहलाया. स्वाति को प्यार करते हुए न जाने क्यों मधु की आंखों में पहली बार गर्व का स्थान नमी ने ले लिया. उस ने एक बार फिर झुक कर अपनी मासूम बेटी का माथा चूमा और फिर औरत की रचना कर उसे सृष्टि की जननी का महान दर्जा देने वाले को धन्यवाद देते हुए व्यंग्य से मुसकरा दी. अब उस की पलकें नींद से भारी हो रही थीं और उस के अवचेतन मन में एक नई सुबह का खौफ था, जब उसे उठ कर नए सिरे से संघर्ष करना था और नई तरह की स्थितियों से जूझते हुए स्वयं को हर पग पर चुनौतियों का सामना करना था.

Romantic Story: प्यार एक एहसास

Romantic Story: पिता की 13वीं से लौटी ही थी सीमा. 15 दिन के लंबे अंतराल के बाद उस ने लैपटौप खोल कर फेसबुक को लौग इन किया. फ्रैंड रिक्वैस्ट पर क्लिक करते ही जो नाम उभर कर आया उसे देख कर बुरी तरह चौंक गई.

‘‘अरे, यह तो शैलेश है,’’ उस के मुंह से बेसाख्ता निकल गया. समय के इतने लंबे अंतराल ने उस की याद पर धूल की मोटी चादर बिछा दी थी. लैपटौप के सामने बैठेबैठे ही सीमा की आंखों के आगे शैलेश के साथ बिताए दिन परतदरपरत खुलते चले गए.

दोनों ही दिल्ली के एक कालेज में स्नातक की पढ़ाई कर रहे थे. शैलेश पढ़ने में अव्वल था. वह बहुत अच्छा गायक भी था. कालेज के हर सांस्कृतिक कार्यक्रम में वह बढ़चढ़ कर भाग लेता था. सीमा की आवाज भी बहुत अच्छी थी. दोनों कई बार डुएट भी गाते थे, इसलिए अकसर दोनों का कक्षा के बाहर मिलना हो जाता था.

एक बार सीमा को बुखार आ गया. वह 10 दिन कालेज नहीं आई तो शैलेश पता पूछता हुआ उस के घर उस का हालचाल पूछने आ गया. परीक्षा बहुत करीब थी, इसलिए उस को अपने नोट्स दे कर उस की परीक्षा की तैयारी करने में मदद की. सीमा ने पाया कि वह एक बहुत अच्छा इनसान भी है. धीरेधीरे उन की नजदीकियां बढ़ने लगीं. कालेज में खाली

समय में दोनों साथसाथ दिखाई देने लगे. दोनों को ही एकदूसरे का साथ अच्छा लगने लगा था. 1 भी दिन नहीं मिलते तो बेचैन हो जाते. दोनों के हावभाव से आपस में मूक प्रेमनिवेदन हो चुका था. इस की कालेज में भी चर्चा होने लगी.

यह किशोरवय उम्र ही ऐसी है, जब कोई प्रशंसनीय दृष्टि से निहारते हुए अपनी मूक भाषा में प्रेमनिवेदन करता है, तो दिल में अवर्णनीय मीठा सा एहसास होता है, जिस से चेहरे पर एक अलग सा नूर झलकने लगता है. सारी दुनिया बड़ी खूबसूरत लगने लगती है. चिलचिलाती गरमी की दुपहरी में भी पेड़ के नीचे बैठ कर उस से बातें करना चांदनी रात का एहसास देता है.

लोग उन्हें अजीब नजरों से देख रहे हैं, इस की ओर से भी वे बेपरवाह होते हैं. जब खुली आंखों से भविष्य के सपने तो बुनते हैं, लेकिन पूरे होने या न होने की चिंता नहीं होती. एकदूसरे की पसंदनापसंद का बहुत ध्यान रखा जाता है. बारिश के मौसम में भीग कर गुनगुनाते हुए नाचने का मन करता है. दोनों की यह स्थिति थी.

पढ़ाई पूरी होते ही शैलेश अपने घर बनारस चला गया, यह वादा कर के कि वह बराबर उस से पत्र द्वारा संपर्क में रहेगा. साल भर पत्रों का आदानप्रदान चला, फिर उस के पत्र आने बंद हो गए. सीमा ने कई पत्र डाले, लेकिन उत्तर नहीं आया. उस जमाने में न तो मोबाइल थे न ही इंटरनैट. धीरेधीरे सीमा ने परिस्थितियों से समझौता कर लिया और कर भी क्या सकती थी?

सीमा पढ़ीलिखी थी तथा आधुनिक परिवार से थी. शुरू से ही उस की आदत रही थी कि वह किसी भी रिश्ते में एकतरफा चाहत कभी नहीं रखती. जब कभी उसे एहसास होता कि उस का किसी के जीवन में अस्तित्व नहीं रह गया है तो स्वयं भी उस को अपने दिल से निकाल देती थी. इसी कारण धीरेधीरे उस के मनमस्तिष्क से  शैलेश निकलता चला गया. सिर्फ उस का नाम उस के जेहन में रह गया था. जब भी ‘वह’ नाम सुनती तो एक धुंधला सा चेहरा उस की आंखों के सामने तैर जाता था, इस से अधिक और कुछ नहीं.

समय निर्बाध गति से बीतता गया. उस का विवाह हो गया और 2 प्यारेप्यारे बच्चों की मां भी बन गई. पति सुनील अच्छा था, लेकिन उस से मानसिक सुख उसे कभी नहीं मिला. वह अपने व्यापार में इतना व्यस्त रहता कि सीमा के लिए उस के पास समय ही नहीं था. वह पैसे से ही उसे खुश रखना चाहता था.

15 साल के अंतराल पर फेसबुक पर शैलेश से संपर्क होने पर सीमा के मन में उथलपुथल मच गई और अंत में वर्तमान परिस्थितियां देखते हुए रिक्वैस्ट ऐक्सैप्ट न करने में ही भलाई लगी.

अभी इस बात को 4 दिन ही बीते होंगे कि  उस का मैसेज आ गया. किसी ने सच ही कहा है कि कोई अगर किसी को शिद्दत से चाहे तो सारी कायनात उन्हें मिलाने की साजिश करने लगती है और ऐसा ही हुआ. इस बार वह अपने को रोक नहीं पाई. मन में उस के बारे में जानने की उत्सुकता जागी. मैसेज का सिलसिला चलने लगा, जिस से पता लगा कि वह पुणे में अपने परिवार के साथ रहता है. फिर मोबाइल नंबरों का आदानप्रदान हुआ.

इस के बाद प्राय: बात होने लगी. उन का मूक प्रेम मुखर हो उठा था. पहली बार शैलेश की आवाज फोन पर सुन कर कि कैसी हो नवयौवना सी उस के दिल की स्थिति हो गई थी. उस का कंठ भावातिरेक से अवरुद्ध हो गया था.

उस ने सकुचाते हुए कहा, ‘‘अच्छी हूं. तुम्हें मैं अभी तक याद हूं?’’

‘‘मैं भूला ही कब था,’’ जब उस ने प्रत्युत्तर में कहा तो, उस के दिल की धड़कनें बढ़ गईं.

उस ने पूछा, ‘‘फिर पत्र लिखना क्यों छोड़ दिया?’’

‘‘तुम्हारा एक पत्र मां के हाथ लग गया था, तो उन्होंने भविष्य में

तुम्हारामेरा संपर्क में रहने का दरवाजा ही बंद कर दिया और मुझे अपना वास्ता दे दिया था. उन का इकलौता बेटा था, क्या करता.’’

उस ने सीमा से कभी भविष्य में साथ रहने का वादा तो किया नहीं था, इसलिए वह शिकायत भी करती तो क्या करती. एक ऐसा व्यक्ति जिस ने अपने प्रेम को भाषा के द्वारा कभी अभिव्यक्त नहीं किया था, उस का उसे शब्दों का जामा पहनाना उस के लिए किसी सुखद सपने का वास्तविकता में परिणत होने से कम नहीं था. यदि वह उस से बात नहीं करती तो इतनी मोहक बातों से वंचित रह जाती.

समय का अंतराल परिस्थितियां बदल देता है, शारीरिक परिवर्तन करता है, लेकिन मन अछूता ही रह जाता है. कहते हैं हर इनसान के अंदर बचपना होता है, जो किसी भी उम्र में उचित समय देख कर बाहर आ जाता है.

उन की बातें दोस्ती की परिधि में तो कतई नहीं थीं. हां मर्यादा का भी उल्लंघन कभी नहीं किया. शैलेश की बातें उसे बहुत रोमांचित करती थीं. बातों से लगा ही नहीं कि वे इतने सालों बाद मिले हैं. फोन से बातें करते हुए उन्होंने उन पुराने दिनों को याद कर के भरपूर जीया. कुछ शैलेश ने याद दिलाईं जो वह भूल गई थी, कुछ उस ने याद दिलाई. ऐसे लग रहा था जैसेकि वे उन दिनों को दोबारा जी रहे हैं.

15 सालों में किस के साथ क्या हुआ वह भी शेयर किया. आरंभ में इस तरह बात करना उसे अटपटा अवश्य लगता था, संस्कारगत थोड़ा अपराधबोध भी होता था और यह सोच कर भी परेशान होती थी कि इस तरह कितने दिन रिश्ता निभेगा.

इसी ऊहापोह में 5-6 महीने बीत गए. दोनों ही चाहते थे कि यह रिश्ता बोझ न बन जाए. यह तो निश्चित हो गया था कि आग लगी थी दोनों तरफ बराबर. पहले यह आग तपिश देती थी, लेकिन धीरेधीरे यही आग मन को ठंडक तथा सुकून देने लगी. उन की रस भरी बातें उन दोनों के ही मन को गुदगुदा जाती थीं.

एक बार शैलेश ने एक गाने की लाइन बोली, ‘‘तुम होतीं तो ऐसा होता, तुम यह कहतीं…’’

उस की बात काटते हुए सीमा बोली, ‘‘और तुम होते तो कैसा होता…’’

कभी सीमा चुटकी लेती, ‘‘चलो भाग चलते हैं…’’

शैलेश कहता, ‘‘भाग कर जाएंगे कहां?’’

एक दिन शैलेश ने सीमा को बताया कि औफिस के काम से वह बहुत जल्दी दिल्ली आने वाला है. आएगा तो वह उस से और उस के परिवार से अवश्य मिलेगा. यह सुन कर उस का मनमयूर नाच उठा. फिर कड़वी सचाई से रूबरू होते ही सोच में पड़ गई कि अब सीमा किसी और की हो चुकी है.

क्या इस स्थिति में उस का शैलेश से मिलना उचित होगा? फिर अपने सवाल का उत्तर देते हुए बुदबुदाई कि ऊंह, तो क्या हुआ? समय बहुत बदल गया है, एक दोस्त की तरह मिलने में बुराई ही क्या है… सुनील की परवाह तो मैं तब करूं जब वह भी मेरी परवाह करता हो. खुश रहने के लिए मुझ भी तो कोई सहारा चाहिए. देखूं तो सही इतने सालों में उस में कितना बदलाव आया है. अब वह शैलेश के आने की सूचना की प्रतीक्षा करने लगी थी.’’

अंत में वह दिन भी आ पहुंचा, जिस का वह बेसब्री से इंतजार कर रही थी. सुनील बिजनैस टूअर पर गया हुआ था. दोनों बच्चे स्कूल गए हुए थे. उन्होंने कनाट प्लेस के कौफी हाउस में मिलने का समय निश्चित किया. वह शैलेश से अकेले घर में मिल कर कोई भी मौका ऐसा नहीं आने देना चाहती थी कि बाद में उसे आत्मग्लानि हो.

उसे लग रहा था कि इतने दिन बाद उस को देख कर कहीं वह भावनाओं में बह कर कोई गलत कदम न उठा ले, जिस की उस के संस्कार उसे आज्ञा नहीं देते थे. शैलेश को देख कर उसे लगा ही नहीं कि वह उस से इतने लंबे अंतराल के बाद मिल रही है. वह बिलकुल नहीं बदला था. बस थोड़ी सी बालों में सफेदी झलक रही थी. आज भी वह उसे बहुत अपना सा लग रहा था. बातों का सिलसिला इतना लंबा चला कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था.

इधरउधर की बातें करते हुए जब शैलेश ने सीमा से कहा कि उसे अपने वैवाहिक जीवन से कोई शिकायत नहीं है, लेकिन उस की जगह कोई नहीं ले सकता तो उसे अपनेआप पर बहुत गर्व हुआ.

अचानक शैलेश को कुछ याद आया. उस ने पूछा, ‘‘अरे हां, तुम्हारे गाने के शौक का क्या हाल है?’’

बात बीच में काटते हुए सीमा ने उत्तर दिया, ‘‘क्या हाल होगा. मुझे समय ही नहीं मिलता. सुनील तो बिजनैस टूअर पर रहते हैं और न ही उन को इस सब का शौक है.’’

‘‘अरे, उन को शौक नहीं है तो क्या हुआ, तुम इतनी आश्रित क्यों हो उन पर? कोशिश और लगन से क्या नहीं हो सकता? बच्चों के स्कूल जाने के बाद समय तो निकाला जा सकता है.’’

सीमा को लगा काश, सुनील भी उस को इसी तरह प्रोत्साहित करता. उस ने तो कभी उस की आवाज की प्रशंसा भी नहीं की. खैर, देर आए दुरुस्त आए. उस ने मन ही मन निश्चय किया कि वह अपनी इस कला को लोगों के सामने उजागर करेगी.

उस को चुप देख कर शैलेश ने कहा, ‘‘चलो, हम दोनों मिल कर एक अलबम तैयार करते हैं. सहकर्मियों की तरह तो मिल सकते हैं न. इस विषय पर फोन पर बात करेंगे.’’

सीमा को लगा उस के अकेलेपन की समस्या का हल मिल गया. दिल से वह शैलेश के सामने नतमस्तक हो गई थी.

फिर से बिछड़ने का समय आ गया था. लेकिन इस बार शरीर अलग हुए थे केवल, कभी न बिछड़ने वाला एक खूबसूरत एहसास हमेशा के लिए उस के पास रह गया था, जिस ने उस की जिंदगी को इंद्रधनुषी रंग दे कर नई दिशा दे दी थी. इस एहसास के सहारे कि वह इतने सालों बाद भी शैलेश की यादों में बसी है. वह शैलेश का सामीप्य हर समय महसूस करती थी. दूरी अब बेमानी हो गई थी.

एक कवि ने प्रेम की बहुत अच्छी परिभाषा देते हुए कहा है कि सिर्फ एहसास है यह रूह से महसूस करो. कहते हैं प्यार कभी दोस्ती में नहीं बदल सकता और यदि बदलता है तो उस से अच्छी दोस्ती नहीं हो सकती. इस दोस्ती का अलग ही आनंद है. सीमा को बहुत ही प्यारा दोस्त मिला.

Hindi Story: नवंबर का महीना – सोनाली किसी और की हो गई

Hindi Story: नवंबर का महीना, सर्द हवा, एक मोटी किताब को सीने से चिपका, हलके हरे ओवरकोट में तुम सीढि़यों से उतर रही थी. इधरउधर नजर दौड़ाई, पर जब कोई नहीं दिखा तो मजबूरन तुम ने पूछा था, ‘कौफी पीने चलें?’

तुम्हें इतना पता था कि मैं तुम्हारी क्लास में ही पढ़ता हूं और मुझे पता था कि तुम्हारा नाम सोनाली राय है. तुम बंगाल के एक जानेमाने वकील अनिरुद्ध राय की इकलौती बेटी हो. तुम लाल रंग की स्कूटी से कालेज आती हो और क्लास के अमीरजादे भी तुम पर उतने ही मरते हैं, जितने हम जैसे मिडल क्लास के लड़के जिन्हें सिगरेट, शराब, लड़की और पार्टी से दूर रहने की नसीहत हर महीने दी जाती है. उन का एकमात्र सपना होता है, मांबाप के सपनों को पूरा करना. ये तुम जैसी युवतियों से बात करने से इसलिए हिचकते हैं, क्योंकि हायहैलो के बाद की अंगरेजी बोलना इन्हें भारी पड़ता है.

तुम रास्ते भर बोलती रही और मैं सुनता रहा. तुम ने मौका ही नहीं दिया मुझे बोलने का. तुम मिश्रा सर, नसरीन मैम की बकबक, वीणा मैम के समाचार पढ़ने जैसा लैक्चर और न जाने कितनी कहानियां तेजी से सुना गई थीं और मैं बस मुसकराते हुए तुम्हारे चेहरे पर आए हर भाव को पढ़ रहा था. तुम्हारे होंठों के ऊपर काला तिल था, जिस पर मैं कुछ कविताएं सोच रहा था, तब तक तुम्हारी कौफी और मेरी चाय आ गई.

तुम ने पूछा था, ‘तुम कौफी क्यों नहीं पीते?’

मैं ने मुसकराते हुए कहा, ‘चाय की आदत कभी छूटी नहीं.’ तुम यह सुन कर काफी जोर से हंसी थी.

‘शायरी भी करते हो.’ मैं झेप गया.

तुम इतने समय से कुछ भूल रही थी, मेरा नाम पूछना, क्योंकि मैं तुम्हारी आवाज में अपने नाम को सुनना चाह रहा था, तुम ने तब भी नहीं पूछा था.

हम दोनों उठ कर चल दिए थे, कैंपस से विश्वविद्यालय मैट्रो स्टेशन की ओर…

बात करते हुए तुम ने कहा था, ‘सज्जाद, पता है, मैं अकसर सपना देखती थी कि मैं फोटोग्राफर बनूंगी. पूरी दुनिया का चक्कर लगाऊंगी और सारे खूबसूरत नजारे अपने कैमरे में कैद करूंगी, लेकिन आज मैं मील, मार्क्स और लेनिन की किताबों में उलझी हुई हूं. कभी जी करता है तो ब्रेख्त पढ़ लेती हूं, तो कभी कामू को…’

हम अकसर जो चाहते हैं, वैसा नहीं होता है और शायद अनिश्चितता ही जीवन को खूबसूरत बनाती है, अकसर सबकुछ पहले से तय हो तो जिंदगी से रोमांच खत्म हो जाएगा. हम उम्र से पहले बूढ़े हो जाएंगे, जो बस यही सोचते हैं, उन के लिए मरना ही एकमात्र लक्ष्य है.

‘सज्जाद, तुम ने क्या पौलिटिकल साइंस अपनी मरजी से चुना,’ तुम ने पूछा था.

‘हां,’ मैं ने कहा. नहीं कहने का कोई मतलब नहीं था उस समय. मैं खुद को बताने से ज्यादा, तुम्हें जानना चाह रहा था.

‘और हां, मेरा नाम सज्जाद नहीं, आदित्य है, आदित्य यादव,’ मैं ने जोर देते हुए कहा.

‘ओह, तो तुम लालू यादव के परिवार से तो नहीं हो?’

‘बिलकुल नहीं, पता नहीं क्यों बिहार का हर यादव लालू यादव का रिश्तेदार लगता है लोगों को.’

कुछ पल के लिए दोनों चुप हो गए. कई कदम चल चुके थे. मैं ने चुप्पी तोड़ते हुए पूछा, ‘वैसे यह सज्जाद है कौन?’

‘कोई नहीं, बस गलती से बोल गई थी.’

तुम्हारे चेहरे के भाव बदल गए थे.

‘कहां रहते हो तुम?’

हम बात करतेकरते मानसरोवर होस्टल आ गए थे, मैं ने इशारा किया, ‘यहीं.’

मैट्रो स्टेशन पास ही था, तुम से विदा लेने के लिए हाथ बढ़ाया.

मैं ने पूछा, ‘यह निशान कैसा?’

‘अरे, वह कल खाना बनाने वाली नहीं आई तो खुद रोटी बनाते समय हाथ जल गया. अभी आदत नहीं है न.’ मैं ने हाथ मिलाया. ओवरकोट की गरमी अब भी उस के हाथों में थी.

इस खूबसूरत एहसास के साथ मैं सो नहीं पाया था, सुबह जल्दी उठ कर तुम से ढेर सारी बातें करनी थी.

मैं कालेज गया था अगले दिन. कालेज में इस बात की चर्चा जरूर होने वाली थी, क्योंकि हम दोनों को साथ घूमते क्लास के लड़केलड़कियों ने देख लिया था. उस दिन तुम नहीं आई थी. मुझे हर सैकंड बोझिल लग रहा था. तुम ने कालेज छोड़ दिया था.

2 वर्षों बाद दिखी थी, उसी नवंबर महीने में कनाट प्लेस के इंडियन कौफी हाउस की सीढि़यों से उतरते हुए.

मेरा मन जब भी उदास होता है, मैं निकल पड़ता था, इंडियन कौफी हाउस. दिल्ली की शोरभरी जगहों में एक यही जगह थी जहां मैं सुकून से उलझनों को जी सकता था और कल्पनाओं को नई उड़ान देता.

हलकी मुसकराहट के साथ तुम मिली थीं उस दिन, कोई तुम्हारे साथ था. तुम पहले जैसे चहक नहीं रही थीं. एक चुप्पी थी तुम्हारे चेहरे पर.

तुम्हारा इस तरह मिलना मुझे परेशान कर रहा था. तुम बस, उदास मुसकराहट के साथ मिलोगी और बिना कुछ बात किए सीढि़यों से उतर जाओगी, यह बात मुझे अंदर तक कचोट रही थी. इसी उधेड़बुन में सीढि़यां चढ़ते मुझे एक पर्स मिला. खोल कर देखा तो किसी अंजुमन शेख का था, बुटीक सैंटर, साउथ ऐक्सटेंशन का पता था, दिए हुए नंबर पर कौल किया तो स्विच औफ था.

तुम्हारे बारे में सोचतेसोचते रात के 8 बज गए थे. अचानक याद आया कि किसी का पर्स मेरे पास है, जिस में 12 सौ रुपए और डैबिट कार्ड है. मैं ने फिर एक बार कौल लगाई, इस बार रिंग जा रही थी.

‘हैलो,’ एक खूबसूरत आवाज सुनाई दी.

‘जी, आप का पर्स मुझे इंडियन कौफी हाउस की सीढि़यों पर गिरा मिला. आप बताएं इसे कहां आ कर लौटा दूं.’

‘आदित्य बोल रहे हो,’ उधर से आवाज आई.

‘सोनाली तुम,’ मैं आश्चर्यचकित था.

‘कैसी हो तुम और यह अंजुमन शेख का कार्ड? तुम हो कहां? तुम ने कालेज क्यों छोड़ दिया?’ मैं उस से सारे सवालों का जवाब जान लेना चाहता था, क्योंकि मुझे कल पर भरोसा नहीं था.

तुम ने बस इतना कहा था, ‘कल कौफी हाउस में मिलो 11 बजे.’

अगले दिन मैं ने कौफी हाउस में तुम्हें आते हुए देखा. 2 वर्ष पहले उस हरे ओवरकोट में सोनाली मिली थी, सपनों की दुनिया में जीने वाली सोनाली, बेरंग जिंदगी में रंग भरने वाली सोनाली. पर 2 वर्षों में तुम बदल गई थीं, तुम सोनाली नहीं थी. तुम एक हताश, उदास, सहमी अंजुमन शेख थी, जिस ने 2 वर्षों पहले घर छोड़ कर अपने प्रेमी सज्जाद से शादी कर ली थी. वही सज्जाद जिस के बारे में तुम ने मुझ से छिपाया था.

जिस से प्रेम करो, उस के साथ यदि जिंदगी का हर पल जीने को मिले, तो इस से खूबसूरत और क्या हो सकता है. इस गैरमजहबी प्रेमविवाह में निश्चित ही तुम ने बहुतकुछ झेला होगा पर प्रेम सारे जख्मों को भर देता है, लेकिन तुम्हारे और सज्जाद के बीच आए रिश्तों की कड़वाहट वक्त के साथ बदतर हो रही थी.

शादी के बाद प्रेम ने बंधन का रूप ले लिया था. आधिपत्य के बोझ तले रिश्ते बोझिल हो रहे थे. तुम तो दुनिया का चक्कर लगाने वाली युवती थी, तुम रिश्तों को जीना चाहती थी. उन्हें ढोना नहीं चाहती थी. जिसे तुम प्रेम समझ रही थी, वह घुटन बन गया था.

तुम सबकुछ कहती चली गई थीं और मैं तुम्हारे चेहरे पर उठते हर भाव को वैसे ही पढ़ना चाह रहा था, जैसे पहली बार पढ़ा था.

तुम ने सज्जाद के लिए अपना नाम बदला था, अपनी कल्पनाएं बदलीं. तुम ने खुद को बदल दिया था. प्रेम में खुद को बदलना सही है या गलत, नहीं मालूम, पर खुद को बदल कर तुम ने प्रेम भी तो नहीं पाया था.

वक्त हो गया था फिर एक बार तुम्हारे जाने का, ‘सज्जाद घर पहुंचने वाला होगा, तुम ने कहा था.’

तुम ने पर्स लिया और हाथ आगे बढ़ा कर बाय कहा. मैं ने जल्दी से तुम्हारा हाथ थामा, वही 2 वर्षों पुराने ओवरकोट की गरमी महसूस करने को. तुम्हारे हाथ के पुराने जख्म तो भर गए थे, लेकिन नए जख्मों ने जगह ले ली थी.

इस बीच, हमारी फोन पर बातें होती रहीं, राजीव चौक और नेहरू प्लेस पर 2 बार मुलाकातें हुईं.

सबकुछ सहज था तुम्हारी जिंदगी में, लेकिन मैं असहज था. इस बीच मैं लिखता भी रहा था, तुम्हें कविताएं भी भेजता था, पढ़ कर तुम रोती थीं, कभी हंसती भी थीं.

एक दिन तुम्हारा मैसेज आया था, ‘मुझ से बात नहीं हो पाएगी अब.’

मैं ने एकदम कौलबैक किया, रा नंबर ब्लौक हो चुका था. तुम्हारा फेसबुक एकाउंट चैक किया तो वह डिलीट हो चुका था. मैं घबरा गया था, तुम्हारे साउथ ऐक्स वाले बुटीक पर फोन किया तो पता चला कि तुम एक हफ्ते से वहां नहीं गई हो. इसी बीच मेरा नया उपन्यास ‘नवंबर की डायरी’ बाजार में छप कर आ चुका था. मैं सभाओं और गोष्ठियों में जाने में व्यस्त हो गया, पर तुम्हारा खयाल मन में हमेशा बना रहा.

समय करवटें ले रहा था. सूरज रोज डूबता था, रोज उगता था. धीरेधीरे 1 साल गुजर गया. शाम के 7 बज रहे थे. मैं कमरे में अपनी नई कहानी ‘सोना’ के बारे में सोच रहा था.

तब तक दरवाजे की घंटी बजी.

दरवाजा खोला तो देखा कोई युवती मेरी ओर पीठ किए खड़ी है.

मैं ने कहा, ‘जी…’

वह जैसे ही मुड़ी, मैं आश्चर्यचकित रह गया. वह सोनाली थी.

हम दोनों गले लग गए. मैं ने सीने से लगाए हुए पूछा, ‘तुम्हें मेरा पता कैसे मिला?’

‘तुम्हारा उपन्यास पढ़ा, ‘नवंबर की डायरी’ उस के पीछे तुम्हारा नंबर और पता भी था.’

आदित्य तुम ने सही लिखा है इस उपन्यास में, ‘जिन रिश्तों में विश्वास की जगह  हो, उन का टूट जाना ही बेहतर है. मैं ने सज्जाद को तलाक दे दिया था. हमारी फेसबुक चैट सज्जाद ने पढ़ ली थी. फिर यहीं से बचे रिश्ते भी टूटते चले गए थे.

तुम मेरे अस्तव्यस्त घर को देख रही थी, अस्तव्यस्त सिर्फ घर ही नहीं था, मैं भी था. जिसे तुम्हें सजाना और संवारना था, पता नहीं तुम इस के लिए तैयार थीं या नहीं.

तभी तुम ने कहा, ‘ये किताबें इतनी बिखरी हुई क्यों हैं? मैं सजा दूं?’ मुसकरा दिया था मैं.

रात के 9 बज गए थे. हम दोनों किचन में डिनर तैयार कर रहे थे. तुम ने कहा कि खिड़की बंद कर दो, सर्द हवा आ रही है. मैं ने महसूस किया नवंबर का महीना आ चुका था.

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