कौन जाने: निशा को कैसे पता चली जिंदगी की कीमत

कितनी चिंता रहती थी वीना को अपने घर की, बच्चों की. लेकिन न वह, न कोई और जानता था कि जिस कल की वह चिंता कर रही है वह कल उस के सामने आएगा ही नहीं. घर में मरघट सी चुप्पी थी. सबकुछ समाप्त हो चुका था. अभी कुछ पल पहले जो थी, अब वो नहीं थी. कुछ भी तो नहीं हुआ था, उसे. बस, जरा सा दिल घबराया और कहानी खत्म.

‘‘क्या हो गया बीना को?’’

‘‘अरे, अभी तो भलीचंगी थी?’’

सब के होंठों पर यही वाक्य थे.

जाने वाली मेरी प्यारी सखी थी और एक बहुत अच्छी इनसान भी. न कोई तकलीफ, न कोई बीमारी. कल शाम ही तो हम बाजार से लंबीचौड़ी खरीदारी कर के लौटे थे.

बीना के बच्चे मुझे देख दहाड़े मार कर रोने लगे. बस, गले से लगे बच्चों को मैं मात्र थपक ही रही थी, शब्द कहां थे मेरे पास. जो उन्होंने खो दिया था उस की भरपाई मेरे शब्द भला कैसे कर सकते थे?

इनसान कितना खोखला, कितना गरीब है कि जरूरत पड़ने पर शब्द भी हाथ छुड़ा लेते हैं. ऐसा नहीं कि सांत्वना देने वाले के पास सदा ही शब्दों का अभाव होता है, मगर यह भी सच है कि जहां रिश्ता ज्यादा गहरा हो वहां शब्द मौन ही रहते हैं, क्योंकि पीड़ा और व्यथा नापीतोली जो नहीं होती.

‘‘हाय री बीना, तू क्यों चली गई? तेरी जगह मुझे मौत आ जाती. मुझ बुढि़या की जरूरत नहीं थी यहां…मेरे बेटे का घर उजाड़ कर कहां चली गई री बीना…अरे, बेचारा न आगे का रहा न पीछे का. इस उम्र में इसे अब कौन लड़की देगा?’’

दोनों बच्चे अभीअभी आईं अपनी दादी का यह विलाप सुन कर स्तब्ध रह गए. कभी मेरा मुंह देखते और कभी अपने पिता का. छोटा भाई और उस की पत्नी भी साथ थे. वो भी क्या कहते. बच्चे चाचाचाची से मिल कर बिलखने लगे. शव को नहलाने का समय आ गया. सभी कमरे से बाहर चले गए. कपड़ा हटाया तो मेरी संपूर्ण चेतना हिल गई. बीना उन्हीं कपड़ों में थीं जो कल बाजार जाते हुए पहने थी.

‘अरे, इस नई साड़ी की बारी ही नहीं आ रही…आज चाहे बारिश आए या आंधी, अब तुम यह मत कह देना कि इतनी सुंदर साड़ी मत पहनो कहीं रिकशे में न फंस जाए…गाड़ी हमारे पास है नहीं और इन के साथ जाने का कहीं कोई प्रोग्राम नहीं बनता.

‘मेरे तो प्राण इस साड़ी में ही अटके हैं. आज मुझे यही पहननी है.’

हंस दी थी मैं. सिल्क की गुलाबी साड़ी पहन कर इतनी लंबीचौड़ी खरीदारी में उस के खराब होने के पूरेपूरे आसार थे.

‘भई, मरजी है तुम्हारी.’

‘नहीं पहनूं क्या?’ अगले पल बीना खुद ही बोली थी, ‘वैसे तो मुझे इसे नहीं पहनना चाहिए…चौड़े बाजार में तो कीचड़ भी बहुत होता है, कहीं कोई दाग लग गया तो…’

‘कोई सिंथेटिक साड़ी पहन लो न बाबा, क्यों इतनी सुंदर साड़ी का सत्यानास करने पर तुली हो…अगले हफ्ते मेरे घर किटी पार्टी है और उस में तुम मेहमान बन कर आने वाली हो, तब इसे पहन लेना.’

‘तब तो तुम्हारी रसोई मुझे संभालनी होगी, घीतेल का दाग लग गया तो.’

किस्सा यह कि गुलाबी साड़ी न पहन कर बीना ने वही साड़ी पहन ली थी जो अभी उस के शव पर थी. सच में गुलाबी साड़ी वह नहीं पहन पाई. दाहसंस्कार हो गया और धीरेधीरे चौथा और फिर तेरहवीं भी. मैं हर रोज वहां जाती रही. बीना द्वारा संजोया घर उस के बिना सूना और उदास था. ऐसा लगता जैसे कोई चुपचाप उठ कर चला गया है और उम्मीद सी लगती कि अभी रसोई से निकल कर बीना चली आएगी, बच्चों को चायनाश्ता पूछेगी, पढ़ने को कहेगी, टीवी बंद करने को कहेगी.

क्याक्या चिंता रहती थी बीना को, पल भर को भी अपना घर छोड़ना उसे कठिन लगता था. कहती कि मेरे बिना सब अस्तव्यस्त हो जाता है, और अब देखो, कितना समय हो गया, वहीं है वह घर और चल रहा है उस के बिना भी.

एक शाम बीना के पति हमारे घर चले आए. परेशान थे. कुछ रुपयों की जरूरत आ पड़ी थी उन्हें. बीना के मरने पर और उस के बाद आयागया इतना रहा कि पूरी तनख्वाह और कुछ उन के पास जो होगा सब समाप्त हो चुका था. अभी नई तनख्वाह आने में समय था.

मेरे पति ने मेरी तरफ देखा, सहसा मुझे याद आया कि अभी कुछ दिन पहले ही बीना ने मुझे बताया था कि उस के पास 20 हजार रुपए जमा हो चुके हैं जिन्हें वह बैंक में फिक्स डिपाजिट करना चाहती है. रो पड़ी मैं बीना की कही हुई बातों को याद कर, ‘मुझे किसी के आगे हाथ फैलाना अच्छा नहीं लगता. कम है तो कम खा लो न, सब्जी के पैसे नहीं हैं तो नमक से सूखी रोटी खा कर ऊपर से पानी पी लो. कितने लोग हैं जो रात में बिना रोटी खाए ही सो जाते हैं. कम से कम हमारी हालत उन से तो अच्छी है न.’

जमीन से जुड़ी थी बीना. मेरे लिए उस के पति की आंखों की पीड़ा असहनीय हो रही थी. घर कैसे चलता है उन्होंने कभी मुड़ कर भी नहीं देखा था.

‘‘क्या सोच रही हो निशा?’’ मेरे पति ने कंधे पर हथेली रख मुझे झकझोरा. आंखें पोंछ ली मैं ने.

‘‘रुपए हैं आप के घर में भाई साहब, पूरे 20 हजार रुपए बीना ने जमा कर रखे थे. वह कभी किसी से कुछ मांगना नहीं चाहती थी न. शायद इसीलिए सब पहले से जमा कर रखा था उस ने. आप उस की अलमारी में देखिए, वहीं होंगे 20 हजार रुपए.’’

बीना के पति चीखचीख कर रोने लगे थे. पूरे 25 साल साथ रह कर भी वह अपनी पत्नी को उतना नहीं जान पाए थे जितना मैं पराई हो कर जानती थी. मेरे पति ने उन्हें किसी तरह संभाला, किसी तरह पानी पिला कर गले का आवेग शांत किया.

‘‘अभी कुछ दिन पहले ही सारा सामान मुझे और बेटे को दिखा रही थी. मैं ने पूछा था कि तुम कहीं जा रही हो क्या जो हम दोनों को सब समझा रही हो तो कहने लगी कि क्या पता मर ही जाऊं. कोई यह तो न कहे कि मरने वाली कंगली ही मर गई.

‘‘तब मुझे क्या पता था कि उस के कहे शब्द सच ही हो जाएंगे. उस के मरने के बाद भी मुझे कहीं नहीं जाना पड़ा. अपने दाहसंस्कार और कफन तक का सामान भी संजो रखा था उस ने.’’

बीना के पति तो चले गए और मैं किंकर्तव्यविमूढ़ सी सोचती रही. जीवन कितना छोटा और क्षणिक है. अभी मैं हूं  पर क्षण भर बाद भी रहूंगी या नहीं, कौन जाने. आज मेरी जबान चल रही है, आज मैं अच्छाबुरा, कड़वामीठा अपनी जीभ से टपका रही हूं, कौन जाने क्षण भर बाद मैं रहूं न रहूं. कौन जाने मेरे कौन से शब्द आखिरी शब्द हो जाने वाले हैं. मेरे द्वारा किया गया कौन सा कर्म आखिरी कर्म बन जाने वाला है, कौन जाने.

मौत एक शाश्वत सचाई है और इसे गाली जैसा न मान अगर कड़वे सत्य सा मान लूं तो हो सकता है मैं कोई भी अन्याय, कोई भी पाप करने से बच जाऊं. यही सच हर प्राणी पर लागू होता है. मैं आज हूं, कल रहूं न रहूं कौन जाने.

मेरे जीवन में भी ऐसी कुछ घटनाएं घटी हैं जिन्हें मैं कभी भूल नहीं पाती हूं. मेरे साथ चाहेअनचाहे जुड़े कुछ रिश्ते जो सदा कांटे से चुभते रहे हैं. कुछ ऐसे नाते जिन्होंने सदा अपमान ही किया है.

उन के शब्द मन में आक्रोश से उबलते रहते हैं, जिन से मिल कर सदा तनाव से भरती रही हूं. एकाएक सोचने लगी हूं कि मेरा जीवन इतना भी सस्ता नहीं है, जिसे तनाव और घृणा की भेंट चढ़ा दूं. कुदरत ने अच्छा पति, अच्छी संतान दी है जिस के लिए मैं उस की आभारी हूं.

इतना सब है तो थोड़ी सी कड़वाहट को झटक देना क्यों न श्रेयस्कर मान लूं.  क्यों न हाथ झाड़ दूं तनाव से. क्यों न स्वयं को आक्रोश और तनाव से मुक्त कर लूं. जो मिला है उसी का सुख क्यों न मनाऊं, क्यों व्यर्थ पीड़ा में अपने सुखचैन का नाश करूं.

प्रकृति ने इतनी नेमतें प्रदान की हैं  तो क्यों न जरा सी कड़वाहट भी सिरआंखों पर ले लूं, क्यों न क्षमा कर दूं उन्हें, जिन्होंने मुझ से कभी प्यार ही नहीं किया. और मैं ने उन्हें तत्काल क्षमा कर दिया, बिना एक भी क्षण गंवाए, क्योंकि जीवन क्षणिक है न. मैं अभी हूं, क्षण भर बाद रहूं न रहूं, ‘कौन जाने.’

निगाहों से आजादी कहां : क्या थी रामकली की मजबूरी

‘‘अरे रामकली, कहां से आ रही है?’’ सामने से आती हुई चंपा ने जब उस का रास्ता रोक कर पूछा तब रामकली ने देखा कि यह तो वही चंपा है जो किसी जमाने में उस की पक्की सहेली थी. दोनों ने ही साथसाथ तगारी उठाई थी. सुखदुख की साथी थीं. फुरसत के पलों में घंटों घरगृहस्थी की बातें किया करती थीं.

ठेकेदार की जिस साइट पर भी वे काम करने जाती थीं, साथसाथ जाती थीं. उन की दोस्ती देख कर वहां की दूसरी मजदूर औरतें जला करती थीं, मगर एक दिन उस ने काम छोड़ दिया. तब उन की दोस्ती टूट गई. एक समय ऐसा आया जब उन का मिलना छूट गया.

रामकली को चुप देख कर चंपा फिर बोली, ‘‘अरे, तेरा ध्यान किधर है रामकली? मैं पूछ रही हूं कि तू कहां से आ रही है? आजकल तू मिलती क्यों नहीं?’’

रामकली ने सवाल का जवाब न देते हुए चंपा से सवाल पूछते हुए कहा, ‘‘पहले तू बता, क्या कर रही है?’’

‘‘मैं तो घरों में बरतन मांजने का काम कर रही हूं. और तू क्या कर रही है?’’

‘‘वही मेहनतमजदूरी.’’

‘‘धत तेरे की, आखिर पुराना धंधा छूटा नहीं.’’

‘‘कैसे छोड़ सकती हूं, अब तो ये हाथ लोहे के हो गए हैं.’’

‘‘मगर, इस वक्त तू कहां से आ रही है?’’

‘‘कहां से आऊंगी, मजदूरी कर के आ रही हूं.’’

‘‘कोई दूसरा काम क्यों नहीं पकड़ लेती?’’

‘‘कौन सा काम पकड़ूं, कोई मिले तब न.’’

‘‘मैं तुझे काम दिलवा सकती हूं.’’

‘‘कौन सा काम?’’

‘‘मेहरी का काम कर सकेगी?’’

‘‘नेकी और पूछपूछ.’’

‘‘तो चल तहसीलदार के बंगले पर. वहां उन की मेमसाहब को किसी बाई की जरूरत थी. मुझ से उस ने कहा भी था.’’

‘‘तो चल,’’ कह कर रामकली चंपा के साथ हो ली. वैसे भी वह अब मजदूरी करना नहीं चाहती थी. एक तो यह हड्डीतोड़ काम था. फिर न जाने कितने मर्दों की काम वासना का शिकार बनो. कई मजदूर तो तगारी देते समय उस का हाथ छू लेते हैं, फिर गंदी नजरों से देखते हैं. कई ठेकेदार ऐसे भी हैं जो उसे हमबिस्तर बनाना चाहते हैं.

एक अकेली औरत की जिंदगी में कई तरह के झंझंट हैं. उस का पति कन्हैया कमजोर है. जहां भी वह काम करता है, वहां से छोड़ देता है. भूखे मरने की नौबत आ गई तब मजबूरी में आकर उसे मजदूरी करनी पड़ी.

जब पहली बार रामकली उस ठेकेदार के पास मजदूरी मांगने गई थी, तब वह वासना भरी आंखों से बोला था, ‘‘तुझे मजदूरी करने की क्या जरूरत पड़ गई?’’

‘‘ठेकेदार साहब, पेट का राक्षस रोज खाना मांगता है?’’ गुजारिश करते हुए वह बोली थी.

‘‘इस के लिए मजदूरी करने की क्या जरूरत है?’’

‘‘जरूरत है तभी तो आप के पास आई हूं.’’

‘‘यहां हड्डीतोड़ काम करना पड़ेगा. कर लोगी?’’

‘‘मंजूर है ठेकेदार साहब. काम पर रख लो?’’

‘‘अरे, तुझे तो यह हड्डीतोड़ काम करने की जरूरत भी नहीं है,’’ सलाह देते हुए ठेकेदार बोला था, ‘‘तेरे पास वह चीज है, मजदूरी से ज्यादा कमा सकती है.’’

‘‘आप क्या कहना चाहते हैं ठेकेदार साहब.’’

‘‘मैं यह कहना चाहता हूं कि अभी तुम्हारी जवानी है, किसी कोठे पर बैठ जाओ, बिना मेहनत के पैसा ही पैसा मिलेगा,’’ कह कर ठेकेदार ने भद्दी

हंसी हंस कर उसे वासना भरी आंखों से देखा था.

तब वह नाराज हो कर बोली थी, ‘‘काम देना नहीं चाहते हो तो मत दो. मगर लाचार औरत का मजाक तो मत उड़ाओ,’’ इतना कह कर वह ठेकेदार पर थूक कर चली आई थी.

फिर कहांकहां न भटकी. जो भी ठेकेदार मिला, उस के साथ वह और चंपा काम करती थीं. दोनों का काम अच्छा था, इसलिए दोनों का रोब था. तब कोई मर्द उन की तरफ आंख उठा कर नहीं देखा करता था.

मगर जैसे ही चंपा ने काम पर आना बंद किया, फिर काम करते हुए उस के आसपास मर्द मंडराने लगे. वह भी उन से हंस कर बात करने लगी. कोई मजदूर तगारी पकड़ाते हुए उस का हाथ पकड़ लेता, तब वह भी कुछ नहीं कहती है. किसी से हंस कर बात कर लेती है तब वह समझता है कि रामकली उस के पास आ रही है.

कई बार रामकली ने सोचा कि यह हाड़तोड़ मजदूरी छोड़ कर कोई दूसरा काम करे. मगर सब तरफ से हाथपैर मारने के बाद भी उसे ऐसा कोई काम नहीं मिला. जहां भी उस ने काम किया, वहां मर्दों की वहशी निगाहों से वह बच नहीं पाई थी. खुद को किसी के आगे सौंपा तो नहीं, मगर वह उसी माहौल में ढल गई.

‘‘ऐ रामकली, कहां खो गई?’’ जब चंपा ने बोल कर उस का ध्यान भंग किया तब वह पुरानी यादों से वर्तमान में लौटी. चंपा आगे बोली, ‘‘तू कहां खो गई थी?’’

‘‘देख रामवती, तहसीलदार का बंगला आ गया. मेमसाहब के सामने मुंह लटकाए मत खड़ी रहना. जो वे पूछें, फटाफट जवाब दे देना,’’ समझाते हुए चंपा बोली.

रामकली ने गरदन हिला कर हामी भर दी.

दोनों गेट पार कर लौन में पहुंचीं. मेमसाहब बगीचे में पानी देते हुए मिल गईं. चंपा को देख कर वे बोलीं, ‘‘कहो चंपा, किसलिए आई हो?’’

‘‘मेमसाहब, आप ने कहा था, घर का काम करने के लिए बाई की जरूरत थी. इस रामकली को लेकर आई हूं,’’ कह कर रामकली की तरफ इशारा करते हुए चंपा बोली.

मेमसाहब ने रामकली को देखा. रामकली भी उन्हें देख कर मुसकराई.

‘‘तुम ईमानदारी से काम करोगी?’’ मेमसाहब ने पूछा.

‘‘हां, मेमसाहब.’’

‘‘रोज आएगी?’’

‘‘हां, मेमसाहब.’’

‘‘कोई चीज चुरा कर तो नहीं भागोगी?’’

‘‘नहीं मेमसाहब. पापी पेट का सवाल है, चोरी का काम कैसे कर सकूंगी…’’

‘‘फिर भी नीयत बदलने में देर नहीं लगती है.’’

‘‘नहीं मेमसाहब, हम गरीब जरूर हैं मगर चोर नहीं हैं.’’

चंपा मोरचा संभालते हुए बोली, ‘‘आप अपने मन से यह डर निकाल दीजिए.’’

‘‘ठीक है चंपा. इसे तू लाई है इसलिए तेरी सिफारिश पर इसे रख रही हूं,’’ मेमसाहब पिघलते हुए बोलीं, ‘‘मगर, किसी तरह की कोई शिकायत नहीं मिलनी चाहिए.’’

‘‘आप को जरा सी भी शिकायत नहीं मिलेगी,’’ हाथ जोड़ते हुए रामकली बोली, ‘‘आप मुझ पर भरोसा रखें.’’

फिर पैसों का खुलासा कर उसे काम बता दिया गया. मगर 8 दिन का काम देख कर मेमसाहब उस पर खुश हो गईं. वह रोजाना आने लगी. उस ने मेमसाहब का विश्वास जीत लिया.

मेमसाहब के बंगले में आने के बाद उसे लगा, उस ने कई मर्दों की निगाहों से छुटकारा पा लिया है. मगर यह केवल रामकली का भरम था. यहां भी उसे मर्द की निगाह से छुटकारा नहीं मिला. तहसीलदार की वासना भरी आंखें यहां भी उस का पीछा नहीं छोड़ रही थीं.

मर्द चाहे मजदूर हो या अफसर, औरत के प्रति वही वासना की निगाह हर समय उस पर लगी रहती थी. बस फर्क इतना था जहां मजदूर खुला निमंत्रण देते थे, वहां तहसीलदार अपने पद का ध्यान रखते हुए खामोश रह कर निमंत्रण देते थे.

ऐसे ही उस दिन तहसीलदार मेमसाहब के सामने उस की तारीफ करते हुए बोले, ‘‘रामकली बहुत अच्छी मेहरी मिली है, काम भी ईमानदारी से करती है और समय भी ज्यादा देती है,’’ कह कर तहसीलदार साहब ने वासना भरी नजर से उस की तरफ देखा.

तब मेमसाहब बोलीं, ‘‘हां, रामकली बहुत मेहनती है.’’

‘‘हां, बहुत मेहनत करती है,’’ तहसीलदार भी हां में हां मिलाते हुए बोले, ‘‘अब हमें छोड़ कर तो नहीं जाओगी रामकली?’’

‘‘साहब, पापी पेट का सवाल है, मगर…’’

‘‘मगर, क्या रामकली?’’ रामकली को रुकते देख तहसीलदार साहब बोले.

‘‘आप चले जाओगे तब आप जैसे साहब और मेमसाहब कहां मिलेंगे.’’

‘‘अरे, हम कहां जाएंगे. हम यहीं रहेंगे,’’ तहसीलदार साहब बोले.

‘‘अरे, आप ट्रांसफर हो कर दूसरे शहर में चले जाएंगे,’’ रामकली ने जब तहसीलदार पर नजर गड़ाई, तो देखा कि उन की नजरें ब्लाउज से झांकते उभार पर थीं. कभीकभी ऐसे में जान कर के वह अपना आंचल गिरा देती ताकि उस के उभारों को वे जी भर कर देख लें.

तब तहसीलदार साहब बोले, ‘‘ठीक कहती हो रामकली, मेरा प्रमोशन होने वाला है.’’

उस दिन बात आईगई हो गई. तहसीलदार साहब उस से बात करने

का मौका ढूंढ़ते रहते हैं. मगर कभी उस पर हाथ नहीं लगाते हैं. रामकली को तो बस इसी बात का संतोष है कि औरत को मर्दों की निगाहों से छुटकारा नहीं मिलता है. मगर वह तब तक ही महफूज है, जब तक तहसीलदार की नौकरी इस शहर में है.

विक्की : कैसे सबका चहेता बन गया अक्खड़ विक्की

नई कामवाली निर्मला का कामकाज, रहनसहन, बोलचाल आदि सभी घरभर को ठीक लगा था. उस में उन्हें दोष बस यही लगा था कि वह अपने साथ अपने बेटे विक्की को भी लाती थी. निर्मला का 3-4 वर्षीय बेटा बहुत शैतान था. नन्ही सी जान होते हुए भी वह घरभर की नाक में दम कर देता था. गजब का चंचल था, एक मिनट भी चैन से नहीं रहता था. और कुछ नहीं तो मुंह ही चलाता रहता था. कुछ न कुछ बड़बड़ाता ही रहता था. टीवी या रेडियो पर जो संवाद या गाना आता था, उस को विक्की दोहराने लगता था. घर में कोई भी कुछ बोलता तो वह उस बात का कुछ भी जवाब दे देता. घर के जिस किसी भी प्राणी पर उस की नजर पड़ती, वह उस से बोले बिना नहीं रहता था. दादाजी को वह भी दादाजी, मां को मां, पिताजी को पिताजी एवं छोटे बच्चों को उन के नाम से या ‘दीदी’, ‘भैया’ आदि कह कर पुकारता रहता था. घर के पालतू कुत्ते सीजर को भी वह नाम ले कर बुलाता था.

जब आसपास कोई न होता तो विक्की अपने बस्ते में से किताब निकाल कर जोरजोर से पाठ पढ़ने लगता. फिर पढ़ने में मन न लगने पर अपनी मां से बतियाने लगता. मां जब डांट कर चुप करातीं तो कहने लगता, ‘‘मां विक्की को डांटती हैं… मां विक्की को डांटती हैं. मां की शिकायत पिताजी से करूंगा. मां बहुत खराब हैं.’’ इस बड़बड़ाहट से झुंझला कर उस की मां जब उसे जोर से डांटतीं तो विक्की कुछ देर के लिए चुप हो जाता. मगर थोड़ी देर बाद उस का मुंह फिर चलने लगता था. कभी वह मुंडेर पर आ बैठी चिडि़या को बुलाने लगता तो कभी पौधों से बातें करने लगता था. कहने का मतलब यह कि उस का मुंह सतत चलता ही रहता था. सिर्फ मुंह ही नहीं, विक्की के हाथपांव भी चलते थे. वह काम कर रही अपनी मां की आंख बचा कर घर में घुस जाता था. दादाजी के कमरे में घुस कर उन से पूछने लगता, ‘‘दादाजी, सो रहे हो? दिनभर सोते हो?’’

पिताजी को दाढ़ी बनाते देखते ही प्रश्न करता, ‘‘दाढ़ी बना रहे हो, पिताजी?’’ मां को जूड़ा बांधते देख उस का प्रश्न होता, ‘‘इतना बड़ा जूड़ा? मेरी मां का तो जरा सा जूड़ा है.’’ गुड्डी और मुन्ने को पढ़ते या खेलते देख वह उन के पास पहुंच कर कभी बोल पड़ता या ताली पीटने लगता. सीजर के कारण ही वह थोड़ा सहमासहमा रहता था, नहीं तो सारे घर में धमाल करता रहता. फिर भी कुत्ते को चकमा दे कर वह घर में घुस ही जाता था. सीजर यदि उस पर लपकता तो वह चीखता हुआ अपनी मां के पास भाग जाता. वहां पहुंच कर वह जाली वाले द्वार के पीछे से सीजर से बतियाता था. कहने का मतलब यह कि वह न तो एक स्थान पर बैठ पाता था, न उस का मुंह ही बंद होता था. उस का स्वर घर में गूंजता ही रहता था.

विक्की की इन शरारतों से तंग हो कर सभी ने उस की मां को आदेश दिया, ‘‘तुम इस बच्चे को यहां मत लाया करो.’’ निर्मला ने अपनी विवशता जाहिर करते हुए स्पष्ट शब्दों में हर किसी को कहा, ‘‘घर पर कोई संभालने वाला होता तो न लाती, मजबूरी में लाती हूं.’’ वैसे निर्मला ने पहले दिन ही बता दिया था, ‘‘मेरा घरवाला दिन निकलते ही काम पर जाता है. उस के अलावा घर में और कोई है नहीं, इसीलिए विक्की को साथ लाना पड़ता है. घर में किस के सहारे छोड़ूं. रिश्तेदार यदि पासपड़ोस में होते तो उन के यहां छोड़ आती. अगर एक दिन का मामला होता तो पड़ोसियों की मदद ले लेती, पर यह तो रोज का ही झमेला है, इसीलिए विक्की को साथ लाना पड़ता है. 3-4 साल की इस जरा सी जान को किसी के भरोसे छोड़ने का मन भी नहीं होता क्योंकि यह बड़ा शैतान है. एक पल चैन से नहीं बैठता. ‘‘एक रोज गलियों से निकल कर सड़क पर जा पहुंचा था. वहां ट्रक के नीचे आतेआते बचा. एक बार कुएं में झांकने पहुंच गया था. इस के कारण सब को परेशानी होती है. पर करूं क्या? यह मुआ मार से भी नहीं सुधरा. इस के पिता तो डांटतेफटकारते ही रहते हैं.’’

निर्मला की इस विवशता से भलीभांति परिचित होते हुए भी घरभर के सदस्य उस से कहते ही रहते, ‘‘तू कुछ भी कर के इस शैतान से हमें बचा.’’ बारबार के इन तकाजों से परेशान हो कर निर्मला उन लोगों से ही पूछ बैठती थी, ‘‘आप ही बताइए, मैं क्या करूं?’’

तब लेदे कर एक ही मार्ग सभी को सूझता था. वे यही सलाह देते थे, ‘‘तू पीछे वाले आंगन में ही इसे बंद रखा कर. घर में न घुसने दिया कर.’’ निर्मला को पता था कि यह सलाह निरर्थक है, क्योंकि बरतन, कपड़े, सफाई आदि काम करने में उसे लगभग दोढाई घंटे लग जाते थे. इतनी देर तक विक्की को वहां कैद रखना संभव नहीं था. कैद रखने पर भी उस का मुंह तो चलता ही रहता था. वह जाली वाले द्वार के पीछे खड़ाखड़ा शोर मचाता ही रहता और दरवाजा भड़भड़ाता रहता. घर के किसी भी प्राणी पर नजर पड़ते ही विक्की उसे पुकारने लगता. टैलीफोन की घंटी बजते ही ‘हैलोहैलो’ कहने लगता. दादाजी को जाप करते देख वह भी उन के सुर में सुर मिलाने लगता. सीजर को देखते ही उसे छेड़ कर भूंकने या गुर्राने पर विवश कर देता. तब दोनों में खासा दंगल सा छिड़ जाता. जाली के पीछे बड़े मजे से खड़ा विक्की क्रोध से उबलते सीजर का खूब मजा लेता रहता. उस के कहकहे फूटते रहते. तब उस की मां की गुहार मचती. वे काम छोड़ कर विक्की को डांट कर दरवाजे से दूर भगातीं. थोड़ी देर शांति हो जाती. किंतु कुछ देर बाद ही विक्की का ‘वन मैन शो’ फिर शुरू हो जाता.

रोज की इस परेशानी से क्षुब्ध हो कर सभी ने बारबार विचार किया कि निर्मला को काम से छुट्टी दे दें और कोई दूसरी कामवाली रख लें. किंतु उस की साफस्वच्छ छवि, उस के कामकाज का सलीका, विनम्र स्वभाव, वक्त की पाबंदी, कम से कम नागे करने की प्रवृत्ति जैसे गुणों के कारण वे ऐसा साहस न कर पाए. वैसे भी कामवालियों का उन का अभी तक का अनुभव अच्छा नहीं रहा था. किसी ने बरतनों में चिकनाई छोड़ी थी तो किसी ने घर को ढंग से बुहारा नहीं था. किसी ने कपड़ों का मैल नहीं छुड़ाया था तो किसी ने आएदिन नागे करकर के उन्हें परेशान किया था. कोई बारबार पेशगी मांगती रही थी तो कोई पेशगी में ली गई रकम ले कर भाग गई थी. ऐसे कई कटु अनुभव हुए थे उन लोगों को. लेकिन निर्मला के काम से सभी प्रसन्न थे. वह हाथ की भी सच्ची थी. कई बार उस ने नोट व गहने स्नानघर एवं शयनकक्ष से उठाउठा कर दिए थे. लेकिन विक्की के कारण सभी परेशान रहते थे. किंतु एक रोज अनपेक्षित हो गया. हुआ यों कि विक्की टैलीफोन कर रहे पिताजी के पास जा पहुंचा एवं अपनी बाल सुलभ हंसी के साथ बीचबीच में ‘हैलोहैलो’ कहने लगा.

पिताजी ने टैलीफोन पर बात जारी रखते हुए उसे संकेतों से दूर भगाने का प्रयास किया, मगर वह वहां से टला नहीं. मुसकराते हुए ‘हैलोहैलो’ कहता रहा. पिताजी ने सहायता के लिए चारों तरफ नजर दौड़ाई मगर कोई दिखा नहीं. इसी उधेड़बुन में वे चोंगे को आधा दबा कर ही विक्की पर चीखे. यह चीख टैलीफोन में चली गई. उस ओर उन के साहब थे. उन्होंने टैलीफोन बंद कर दिया. पिताजी ने फिर से फोन मिला कर साहब को सारा मामला समझाते हुए क्षमायाचना की. किंतु उन को लगा कि साहब के मन में गांठ पड़ गई है. इसी झुंझलाहट में पिताजी ने विक्की को एक चांटा मारा. उस की मां को उसी क्षण घर से जाने का आदेश दे दिया.

विक्की को पीटती हुई निर्मला बाहर हो गई. निर्मला ने आना बंद कर दिया. घरभर को नई परेशानियों ने आ घेरा. उस के स्थान पर आई नई कामवालियों से सभी को असंतोष रहने लगा. कोई बरतन में चिपकी चिकनाई की शिकायत करने लगा, किसी को गर्द व जालों की मौजूदगी खलने लगी तो किसी को उस की गंदी आदतें बुरी लगने लगीं. सब से बड़ी समस्या तो सीजर को ले कर हुई. वह नई कामवालियों से अपरिचित होने के कारण उन पर लपकता था. इसलिए उसे बांध कर रखना पड़ता था. 3 कामवालियां 3 कामों के लिए अलगअलग समय पर आती थीं. इसलिए उन के आते ही एक व्यक्ति को सीजर को बांधने की तत्परता दिखानी पड़ती थी. उधर सीजर को यह नई कैद खलने लगी थी, वह मुक्ति के लिए शोर मचाता था. सुबहशाम घरभर की शांति भंग होने लगी. काम भी संतोषप्रद नहीं था और मगजपच्ची भी करनी पड़ती थी.

इसीलिए निर्मला सभी को याद आने लगी. बातबात पर उस का उल्लेख होने लगा. जब देखो तब उस के काम, व्यवहार और आदतों आदि की तुलना नई कामवालियों से होने लगी. ऐसे क्षणों में पिताजी को पश्चात्ताप होता कि उन्होंने तैश में व्यर्थ ही निर्मला को भगा दिया. बच्चे तो चंचल होते ही हैं. उन्हें विक्की की चंचलता पर इस तरह क्रोधित नहीं होना चाहिए था. इसी पश्चात्ताप से क्षुब्ध हो कर पिताजी ने बारबार कहा, ‘‘निर्मला को बुलवा लो.’’ किंतु उन की इस आज्ञा का पालन कोई भी नहीं कर पाया. वैसे सभी मन से यह चाहते थे कि निर्मला फिर से यहां पर काम करने लग जाए. किंतु उसे बुलाना किसी को भी उचित नहीं लग रहा था. सभी की यह दलील थी कि इस तरह बुलाने से वह सिर पर चढ़ेगी. विक्की इस घर में खुल कर शैतानी करेगा. किंतु ऐसी दलीलें होते हुए भी सभी की यह कामना थी कि निर्मला किसी तरह लौट आए.

संयोग कुछ ऐसा हुआ कि 20-21 दिन बाद ही एक रोज दिन ढले छरहरी, सांवली, मंझोले कद की निर्मला द्वार पर आ खड़ी हुई. स्वच्छ धानी साड़ी वाली इस नारी ने आते ही मुख्यद्वार खोला, सीजर भूंकता हुआ उस की ओर लपका. उस समय केवल मां ही घर में थीं. उन्होंने दरवाजे की ओर नजर दौड़ाई. निर्मला के सामने सीजर पूंछ हिला रहा था. यह दृश्य देख कर मां को सुखद आश्चर्य हुआ. उस के साथ विक्की को न देख कर उन्हें आश्चर्य हुआ. इतने दिनों बाद आई निर्मला के तन पर अगली दोनों टांगें रख कर सीजर प्रेम प्रदर्शन कर रहा था. उस से जैसेतैसे छुटकारा पा कर वह मुसकराती हुई भीतर गई.

मां ने पूछा, ‘‘कैसी हो, निर्मला?’’

‘‘अच्छी हूं, मांजी,’’ उस ने सहज स्वर में कहा.

‘‘विक्की मजे में है?’’

‘‘जी हां, मजे में है.’’ इधरउधर की बातें होने लगीं. मां मन ही मन तौलती रहीं कि यह क्यों आई है. अच्छा हो, यदि यह यहां काम फिर से कर ले. तभी निर्मला ने सकुचाते हुए कहा, ‘‘मांजी, मेरा काम मुझे फिर से दे दो. विक्की को संभालने के लिए मैं ने अपनी सास को गांव से बुलवा लिया है. वह अब मेरे साथ नहीं आएगा.’’ मां को जैसे मुंहमांगी मुराद मिल गई. उन्होंने अपने हर्ष को छिपाते हुए संयत स्वर में कहा, ‘‘रखने को तो तुम्हें फिर से रख लें, मगर तुम्हारी सास का क्या भरोसा, वे यदि अपने गांव चली गईं तो फिर विक्की की समस्या हो जाएगी.’’

‘‘नहीं होगी, मांजी. मेरी सास अब यहीं रहेंगी, मैं पक्का वादा करा के उन्हें लाई हूं. मेरा सारा काम मुए विक्की के कारण छूट गया था. इसलिए यह पक्का इंतजाम करना पड़ा. आप बेफिक्र रहिए, आप को मेरा विक्की अब परेशान नहीं करेगा. मैं यहां उसे कभी नहीं लाऊंगी. आप तो मुझे बस काम देने की मेहरबानी कीजिए,’’ वह अनुनयभरे स्वर में बोली.

‘‘ठीक है, सोचेंगे,’’ मां ने नाटक किया.

‘‘सोचेंगे नहीं, मुझे काम देना ही होगा. मैं ने अपने घर की तरह यहां काम किया है.’’

‘‘इसीलिए तो कहा कि देखेंगे.’’

‘‘ऐसी गोलमोल बातें मत कीजिए, मांजी. मुझे कल से ही काम पर आने की मंजूरी दे दीजिए.’’

‘‘यह कैसे हो सकता है? तेरी जगह पर 3 औरतें हम ने रखी हैं. महीना पूरा होने पर उन्हें बंद करेंगे.’’

‘‘नहीं, कल 15 तारीख है, कल से ही उन्हें बंद कर दीजिए. मैं कल से ही काम संभाल लूंगी.’’ मां मन ही मन प्रसन्न हुईं कि चलो, घरभर की इच्छा पूरी हो जाएगी. किंतु अपने मन की यह बात जाहिर न करते हुए बोलीं, ‘‘गुड्डी के पिताजी से पूछ कर फैसला करूंगी. तू इतनी जल्दबाजी मत कर.’’ ‘‘जल्दबाजी बिना हमारा गुजारा कैसे होगा. इसलिए मैं तो कल से ही काम पर आ जाऊंगी,’’ यह कहते हुए निर्मला उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही चली गई. मां प्रसन्न हुईं कि मामला आसानी से निबट गया. निर्मला द्वारा काम संभालते ही घरभर का असंतोष दूर हो गया. विक्की के न आने से सभी को दोहरी प्रसन्नता हुई. किंतु कुछ दिनों बाद ही सभी को जैसे विक्की की याद आने लगी. वे लोग निर्मला से उस का हालचाल पूछने लगे. प्रश्न होने लगे, ‘विक्की को उस की दादी संभाल लेती है?’, ‘विक्की उन्हें परेशान तो करता होगा?’, ‘वे ज्यादा बूढ़ी होंगी, तब तो वह उन को चकमा दे कर बाहर निकल जाता होगा?’, ‘बुढि़या को वह शैतान बहुत तंग करता होगा?’, ‘कुएं के पास या सड़क पर वह फिर तो नहीं गया न?’ निर्मला इन प्रश्नों के उत्तर देती रहती थी. किंतु उस के जवाब से किसी को संतोष नहीं होता था. सभी का मन था कि विक्की कभी यहां आए तो उस से सारी बातें पूछें. उस के महीन स्वर को सुनने को जैसे सभी लालायित हो उठे थे. सांवले रंग के, प्रशस्त ललाट एवं बड़ीबड़ी आंखों वाले उस हाथभर ऊंचे बालक की छवि सभी के मनमस्तिष्क में तैरती रहती थी. उस की शरारतों की चर्चा करकर के सभी प्रसन्न होते थे.

एक रोज पिताजी ने निर्मला से कहा, ‘‘उस शैतान को किसी दिन लाना, उसे टैलीफोन सुनवाऊंगा.’’

दादाजी बोले, ‘‘एक बार जाप करवाऊंगा उस से.’’

मां बोलीं, ‘‘मेरे जूड़े की अब कोई तारीफ ही नहीं करता.’’

गुड्डी ने बताया, ‘‘उस के लिए मैं ने पहली कक्षा की किताब और पट्टी रखी हुई है.’’

मुन्ना बोला, ‘‘मैं उसे खिलौने दूंगा.’’ सभी ने अपनेअपने मन की बताई. केवल सीजर ही इस संदर्भ में न कह पाया. किंतु जिस रोज निर्मला विक्की को ले कर आई, उस रोज उस मूक पशु ने अपने मन की बात अपनी भाषा में कह दी. विक्की को देखते ही वह पहले झपटता था, किंतु अब उसे देखते ही वह दुम हिलाने लगा. सीजर को यों दुम हिलाते देख निर्मला अपने बेटे को ले कर आगे बढ़ी. सीजर तो जैसे प्रेम में बावला हो रहा था. उस ने दुम हिलातेहिलाते विक्की का मुंह चाट लिया तो वह डर के कारण रो पड़ा. यह देख सभी के ठहाके फूट पड़े. बड़े बच्चों वाले घर में नन्हे विक्की का यह रुदन मां को बड़ा भला लगा. वे भावविह्वल स्वर में बोलीं, ‘‘मुए सीजर ने यह अच्छा राग शुरू करा दिया.’’

ऊंची उड़ान : क्या थी आकाश की गलती

रात के 12 बजे फोन की घंटी बजी. उस समय आकाश और संगीता शर्मोहया भूल कर एकदूसरे से लिपट कर हमबिस्तर हो रहे थे.

दोबारा फोन की घंटी बजी. जब संगीता के कानों में घंटी की आवाज पड़ी, तो वह आकाश से बोली, ‘‘आकाश, तुम्हारा फोन बज रहा है.’’

‘‘बजने दो. मुझे डिस्टर्ब मत करो.’’

इस के बाद वे दोनों अपने काम में बिजी हो गए. कुछ समय बाद आकाश ने कहा, ‘‘बहुत मजा आया संगीता.’’

संगीता कुछ कहती, उस से पहले फोन की घंटी फिर बजी.

‘‘आकाश फोन…’’ संगीता बोली.

‘‘जाओ, तुम ही फोन उठा लो,’’ आकाश ने संगीता से कहा.

‘‘हैलो… कौन हो तुम? इतनी रात को बारबार फोन क्यों कर रहे हो?’’ संगीता ने पूछा.

‘क्यों… तुम दोनों के काम में रुकावट आ गई? मुझे मालूम है कि तुम सावंत की पत्नी हो, जो चंद रुपयों के लिए किसी का भी बिस्तर गरम करती हो,’ फोन पर किसी की आवाज आई.

‘‘क्या बकवास कर रही हो? कौन हो तुम?’’ संगीता ने पूछा.

‘बेशर्म औरत, आधी रात को जिस शादीशुदा मर्द के साथ तुम रंगरलियां मना रही हो, मैं उसी की पत्नी बोल रही हूं.’

यह सुन कर संगीता चौंक गई.

‘‘किस का फोन है? किस से बहस कर रही हो?’’ आकाश ने पूछा.

‘‘तुम्हारी पत्नी का फोन है…’’ संगीता इतना ही बोल पाई.

आकाश ने चौंकते हुए कहा, ‘‘क्या… कल्पना का फोन है? पहले क्यों नहीं बताया. लाओ, फोन दो… हैलो… कल्पना.’’

‘हैलो… मैं कल्पना…’ और कुछ बोलतेबोलते वह चुप हो गई.

आकाश चौंक पड़ा, ‘‘क्या बात है कल्पना? क्या हुआ? घर में सब ठीक है न? प्रतिमा और सुमन की तबीयत… जल्दी बताओ,’’ उस ने कई सवाल एकसाथ पूछ लिए.

कल्पना की सांस फूली सी लग रही थी. वह धीरे से बोली, ‘आप जल्दी से घर आइए. अब मुझ में इतनी हिम्मत नहीं कि फोन पर बता सकूं.’

‘‘ठीक है कल्पना, मैं सुबह होते ही घर पहुंचता हूं,’’ आकाश फोन रख कर सोच में डूब गया.

3 साल भी नहीं हुए थे आकाश को यहां आए हुए. अच्छी नौकरी और मुंहमांगी तनख्वाह ने आखिर उस के बरसों के बांध को तोड़ दिया था. पुरानी नौकरी के साथ पुराने शहर और घरपरिवार को छोड़ कर वह यहां आ बसा था.

पत्नी कल्पना ने कई बार समझाया, 2 जवान बेटियों के साथ भला वह नौकरीपेशा औरत कैसे संभाल पाएगी सब अकेले ही, लेकिन आकाश पर एक ही धुन सवार थी कि किसी भी तरह अमीर बनना है.

आकाश के हुनर की वहां कोई कद्र न थी. वह ज्यादातर समय घर पर ही बिता देता था. नौकरी करने वाली पत्नी को उस का घर से जुड़े रहना बड़ी राहत देता है.

बेटियों को स्कूल लाने व ले जाने की जिम्मेदारी आकाश की थी. साथसाथ सब्जीभाजी और राशन की जिम्मेदारी भी. कुलमिला कर एक खुशहाल परिवार था. लेकिन उस खुशहाल माहौल में पहला कंकड़ उसी दिन पड़ गया था, जिस दिन आकाश के पड़ोसी राजकुमार अपनी नई मोटरसाइकिल ले आए थे.

राजकुमार एक ठेकेदार था. हर साल लाखों रुपए का मुनाफा और मुनाफे के साथसाथ मशहूर हो गया था उस का नाम. राजकुमार की दौलत आकाश को अंदर ही अंदर कहीं चुभ गई थी.

एक दिन आकाश अपनी सारी जमापूंजी जोड़ने बैठा, ‘कल्पना… कल्पना… कहां हो तुम?’

‘कपड़े सुखा रही हूं.’

‘कपड़े सुखा कर जल्दी आओ. हां सुनो… आज तक मैं ने तुम्हें जितने भी रुपए रखने को दिए हैं, वो सब ले कर आओ.’

‘अब इन पैसों से क्या करने का इरादा है तुम्हारा? किसी के बहकावे में आ कर ज्यादा मुनाफा जोड़ने के चक्कर में नहीं आइएगा.’

‘अमीर बन कर ऐशोआराम में अपनी जिंदगी बिताना मेरा सपना है.’

‘मैं तुम से बहस नहीं करना चाहती. तो तुम ने अपने मन में ठान लिया है, वह सब करो. लेकिन अपनी हद में रह कर.’

आज आकाश एक कंपनी का एमडी है. गाड़ी, आलीशान घर, चपरासी सबकुछ है उस के पास. लेकिन इन सुविधाओं का मजा उठाने के लिए उस का परिवार साथ नहीं है. जिन के लिए यह सब किया, वे अपनी जिंदगी के नियमों को लांघ कर उस के पास रहने नहीं आ सकते, सिवा तीजत्योहार के.

आकाश ने शहर के कुछ लोगों से धीरेधीरे अपना मेलजोल बढ़ाया और वह एक बीयरबार में पार्टनर बन गया. वहां रुपयों की बारिश होने लगी.

आकाश अपनी सोच से बाहर निकला… आखिर घर में क्या दिक्कत हुई है, जो कल्पना उसे फोन पर बताने के लिए हिम्मत न कर सकी.

आकाश ने अपने महल्ले के एक करीबी दोस्त से वादा लिया था कि उस की गैरहाजिरी में वह उस के घर पर नजर रखेगा और बीवीबेटियों की खैरखबर लेता रहेगा. कहीं उस के दोस्त ने घर में कुछ गड़बड़ तो नहीं की होगी या बाहर का कोई?

दूसरे दिन आकाश घर पहुंचा. घर पर नौकरानी के सिवा कोई नहीं था. उस ने बताया, ‘‘साहब, कल्पना मैडम और प्रतिमा बेटी किसी डाक्टर के पास गए हुए हैं. वे लोग आते ही होंगे.’’

कुछ देर बाद कल्पना और प्रतिमा घर पहुंचे. आकाश ने पूछा, ‘‘कल्पना, घर में सुमन भी नहीं है और तुम दोनों किसी डाक्टर के पास गई थीं. तुम सब की तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘प्रतिमा, तू अपने कमरे में जा. मैं इस का चैकअप कराने गई थी,’’ कल्पना दुखी लहजे में बोली.

‘‘चैकअप कराने… क्यों?’’

‘‘सुनो इस की करतूत… कल 7 बजे जब मैं सब्जी लेने जा रही थी, तब मेरी नजर सोफे पर बैठी सुमन पर पड़ी. सिर पर हाथ रख कर देखा, तो उस को तेज बुखार था. डाक्टर के पास से लाई दवा सुमन को दी और उस के पास बैठेबैठे मेरी आंख लग गई.

‘‘आधी रात को मेरी नींद खुली. देखा तो सुमन का बुखार उतर गया था. सोचा, प्रतिमा को देखती चलूं. प्रतिमा अपने कमरे में तो थी, पर उस के साथ में था आप के दोस्त राजकुमार का बेटा. यह देख कर मेरे पैरों तले की जमीन खिसक गई.’’

‘‘राजकुमार का लड़का?’’ आकाश चिल्लाया.

‘‘रुको, अब दूसरों से लड़नाझगड़ना समझदारी की बात नहीं है. न ही किसी पराए पर आंख मूंद कर यकीन करना. सुमन और प्रतिमा मेरी एक बात नहीं सुनतीं. उलटा, तुम्हारी तरह मुझे डांट देती हैं. आजकल घर में जो कुछ भी हो रहा है, तुम्हारे बुरे काम का असर है. दोनों जवान बेटियां मेरे हाथ से निकल चुकी हैं. उन्हें सही राह पर लाना तुम्हारी जिम्मेदारी है.’’

आकाश सिर पकड़ कर बैठ गया. वह पछता रहा था कि अपने परिवार से दूर रहना, किसी पराए पर यकीन करना और जिंदगी में ऊंची उड़ान भरना कभीकभी बेवकूफी भरा काम भी हो सकता है.

अधूरा सा दिल : विरेश के दिल में क्या चुभ रहा था

‘‘आप को ऐक्साइटमैंट नहीं हो रही है क्या, मम्मा? मुझे तो आजकल नींद नहीं आ रही है, आय एम सो सुपर ऐक्साइटेड,’’ आरुषि बेहद उत्साहित थी. करुणा के मन में भी हलचल थी. हां, हलचल ही सही शब्द है इस भावना हेतु, उत्साह नहीं. एक धुकुरपुकुर सी लगी थी उस के भीतर. एक साधारण मध्यवर्गीय गृहिणी, जिस ने सारी उम्र पति की एक आमदनी में अपनी गृहस्थी को सुचारु रूप से चलाने में गुजार दी हो, आज सपरिवार विदेशयात्रा पर जा रही थी.

पिछले 8 महीनों से बेटा आरव विदेश में पढ़ रहा था. जीमैट में अच्छे स्कोर लाने के फलस्वरूप उस का दाखिला स्विट्जरलैंड के ग्लायन इंस्टिट्यूट औफ हायर एजुकेशन में हो गया था. शुरू से ही आरव की इच्छा थी कि वह एक रैस्तरां खोले. स्वादिष्ठ और नएनए तरह के व्यंजन खाने का शौक सभी को होता है, आरव को तो खाना बनाने में भी आनंद आता था.

आरव जब पढ़ाई कर थक जाता और कुछ देर का ब्रेक लेता, तब रसोई में अपनी मां का हाथ बंटाने लगता, कहता, ‘खाना बनाना मेरे लिए स्ट्रैसबस्टर है, मम्मा.’ फिर आगे की योजना बनाने लगता, ‘आजकल स्टार्टअप का जमाना है. मैं अपना रैस्तरां खोलूंगा.’

ग्लायन एक ऐसा शिक्षा संस्थान है जो होटल मैनेजमैंट में एमबीए तथा एमएससी की दोहरी डिगरी देता है. साथ ही, दूसरे वर्ष में इंटर्नशिप या नौकरी दिलवा देता है. जीमैट के परिणाम आने के बाद पूरे परिवार को होटल मैनेजमैंट की अच्छी शिक्षा के लिए संस्थानों में ग्लायन ही सब से अच्छा लगा और आरव चला गया था दूर देश अपने भविष्यनिर्माण की नींव रखने.

अगले वर्ष आरव अपनी इंटर्नशिप में व्यस्त होने वाला था. सो, उस ने जिद कर पूरे परिवार से कहा कि एक बार सब आ कर यहां घूम जाओ, यह एक अलग ही दुनिया है. यहां का विकास देख आप लोग हैरान हो जाओगे. उस के कथन ने आरुषि को कुछ ज्यादा ही उत्साहित कर दिया था.

रात को भोजन करने के बाद चहलकदमी करने निकले करुणा और विरेश इसी विषय पर बात करने लगे, ‘‘ठीक कह रहा है आरव, मौका मिल रहा है तो घूम आते हैं सभी.’’

‘‘पर इतना खर्च? आप अकेले कमाने वाले, उस पर अभी आरव की पढ़ाई, आरुषि की पढ़ाई और फिर शादियां…’’ करुणा जोड़गुना कर रही थी.

‘‘रहने का इंतजाम आरव के कमरे में हो जाएगा और फिर अधिक दिनों के लिए नहीं जाएंगे. आनाजाना समेत एक हफ्ते का ट्रिप बना लेते हैं. तुम चिंता मत करो, सब हो जाएगा,’’ विरेश ने कहा.

आज सब स्विट्जरलैंड के लिए रवाना होने वाले थे. कम करतेकरते भी बहुत सारा सामान हो गया था. क्या करते, वहां गरम कपड़े पूरे चाहिए, दवा बिना डाक्टर के परचे के वहां खरीदना आसान नहीं. सो, वह रखना भी जरूरी है. फिर बेटे के लिए कुछ न कुछ बना कर ले जाने का मन है. जो भी ले जाने की इजाजत है, वही सब रखा था ताकि एयरपोर्ट पर कोई टोकाटाकी न हो और वे बिना किसी अड़चन के पहुंच जाएं.

हवाईजहाज में खिड़की वाली सीट आरुषि ने लपक ली. उस के पास वाली सीट पर बैठी करुणा अफगानिस्तान के सुदूर फैले रेतीले पहाड़मैदान देखती रही. कभी बादलों का झुरमुट आ जाता तो लगता रुई में से गुजर रहे हैं, कभी धरती के आखिर तक फैले विशाल समुद्र को देख उसे लगता, हां, वाकईर् पृथ्वी गोल है. विरेश अकसर झपकी ले रहे थे, किंतु आरुषि सीट के सामने लगी स्क्रीन पर पिक्चर देखने में मगन थी. घंटों का सफर तय कर आखिर वो अपनी मंजिल पर पहुंच गए. ग्रीन चैनल से पार होते हुए वे अपने बेटे से मिले जो उन के इंतजार में बाहर खड़ा था. पूरे 8 महीनों बाद पूरा परिवार इकट्ठा हुआ था.

आरव का इंस्टिट्यूट कैंपस देख मन खुश हो गया. ग्लायन नामक गांव के बीच में इंस्टिट्यूट की शानदार इमारत पहाड़ की चोटी पर खड़ी थी. पहाड़ के नीचे बसा था मोंट्रियू शहर जहां सैलानी सालभर कुदरती छटा बटोरने आते रहते हैं. सच, यहां कुदरत की अदा जितनी मनमोहक थी, मौसम उतना ही सुहावना. वहीं फैली थी जिनीवा झील. उस का गहरा नीला पानी शांत बह रहा था. झील के उस पार स्विस तथा फ्रांसीसी एल्प्स के पहाड़ खड़े थे. घनी, हरी चादर ओढ़े ये पहाड़, बादलों के फीते अपनी चोटियों में बांधे हुए थे. इतना खूबसूरत नजारा देख मन एकबारगी धक सा कर गया.

हलकी धूप भी खिली हुई थी पर फिर भी विरेश, करुणा और आरुषि को ठंड लग रही थी. हालांकि यहां के निवासियों के लिए अभी पूरी सर्दी शुरू होने को थी. ‘‘आप को यहां ठंड लगेगी, दिन में 4-5 और रात में 5 डिगरी तक पारा जाने लगा है,’’ आरव ने बताया. फिर वह सब को कुछ खिलाने के लिए कैफेटेरिया ले गया. फ्रैश नाम के कैफेटेरिया में लंबी व सफेद मेजों पर बड़बड़े हरे व लाल कृत्रिम सेबों से सजावट की हुई थी. भोजन कर सब कमरे में आ गए. ‘‘वाह भैया, स्विट्जरलैंड की हौट चौकलेट खा व पेय पी कर मजा आ गया,’’ आरुषि चहक कर कहने लगी.

अगली सुबह सब घूमने निकल गए. आज कुछ समय मोंट्रियू में बिताया. साफसुथरीचौड़ी सड़कें, न गाडि़यों की भीड़ और न पोंपों का शोर. सड़क के दोनों ओर मकानों व होटलों की एकसार लाइन. कहीं छोटे फौआरे तो कहीं खूबसूरत नक्काशी किए हुए मकान, जगहजगह फोटो ख्ंिचवाते सब स्टेशन पहुंच गए.

‘‘स्विट्जरलैंड आए हो तो ट्रेन में बैठना तो बनता ही है,’’ हंसते हुए आरव सब को ट्रेन में इंटरलाकेन शहर ले जा रहा था. स्टेशन पहुंचते ही आरुषि पोज देने लगी, ‘‘भैया, वो ‘दिलवाले दुलहनिया ले जाएंगे’ वाले टे्रन पोज में मेरी फोटो खींचो न.’’ ट्रेन के अंदर प्रवेश करने पर दरवाजे खुद ही बंद हो गए. अंदर बहुत सफाई थी, आरामदेह कुशनदार सीटें थीं, किंतु यात्री एक भी न था. केवल यही परिवार पूरे कोच में बैठा था. कारण पूछने पर आरव ने बताया, ‘‘यही तो इन विकसित देशों की बात है. पूरा विकास है, किंतु भोगने के लिए लोग कम हैं.’’

रास्तेभर सब यूरोप की अनोखी वादियों के नजारे देखते आए. एकसार कटी हरी घास पूरे दिमाग में ताजा रंग भर रही थी. वादियों में दूरदूर बसा एकएक  घर, और हर घर तक पहुंचती सड़क. अकसर घरों के बाहर लकडि़यों के मोटेमोटे लट्ठों का अंबार लगा था और घर वालों की आवाजाही के लिए ट्रकनुमा गाडि़यां खड़ी थीं. ऊंचेऊंचे पहाड़ों पर गायबकरियां और भेड़ें हरीघास चर रही थीं.

यहां की गाय और भेंड़ों की सेहत देखते ही बनती है. दूर से ऐसा प्रतीत होता है जैसे किसी ने पूरे पहाड़ पर सफेद रंग के गुब्बारे बिखरा दिए हों, पर पास आने पर मालूम होता है कि ये भेंड़ें हैं जो घास चरने में मगन हैं. रास्ते में कई सुरंगें भी आईं. उन की लंबाई देख सभी हैरान रह गए. कुछ सुरंगें तो 11 किलोमीटर तक लंबी थीं.

ढाई घंटे का रेलसफर तय कर सब इंटरलाकेन पहुंचे. स्टेशन पर उतरते ही देखा कि मुख्य चौक के एक बड़े चबूतरे पर स्विस झंडे के साथ भारतीय झंडा भी लहरा रहा है. सभी के चेहरे राष्ट्रप्रेम से खिल उठे. सड़क पर आगे बढ़े तो आरव ने बताया कि यहां पार्क में बौलीवुड के एक फिल्म निर्मातानिर्देशक यश चोपड़ा की एक मूर्ति है. यश चोपड़ा को यहां का ब्रैंड ऐंबैसेडर बनाया गया था. उन्होंने यहां कई फिल्मों की शूटिंग की जिस से यहां के पर्यटन को काफी फायदा हुआ.

सड़क पर खुलेआम सैक्स शौप्स भी थीं. दुकानों के बाहर नग्न बालाओं की तसवीरें लगी थीं. परिवार साथ होने के कारण किसी ने भी उन की ओर सीधी नजर नहीं डाली, मगर तिरछी नजरों से सभी ने उस तरफ देखा. अंदर क्या था, इस का केवल अंदाजा ही लगाया जा सकता है. दोनों संस्कृतियों में कितना फर्क है. भारतीय संस्कृति में तो खुल कर सैक्स की बात भी नहीं कर सकते, जबकि वहां खुलेआम सैक्स शौप्स मौजूद हैं.

दोपहर में सब ने हूटर्स पब में खाना खाने का कार्यक्रम बनाया. यह पब अपनी सुंदर वेट्रैस और उन के आकर्षक नारंगी परिधानों के लिए विश्वप्रसिद्ध है. सब ने अपनीअपनी पसंद बता दी किंतु करुणा कहने लगी, ‘‘मैं ने तो नाश्ता ही इतना भरपेट किया था कि खास भूख नहीं है.’’

अगले दिन सभी गृंडेलवाल्ड शहर को निकल गए. ऐल्प्स पर्वतों की बर्फीली चोटियों में बसा, कहीं पिघली बर्फ के पानी से बनी नीली पारदर्शी झीलें तो कहीं ऊंचे ऐल्पाइन के पेड़ों से ढके पहाड़ों का मनोरम दृश्य, स्विट्जरलैंड वाकई यूरोप का अनोखा देश है.

गृंडेलवाल्ड एक बेहद शांत शहर है. सड़क के दोनों ओर दुकानें, दुकानों में सुसज्जित चमड़े की भारीभरकम जैकेट, दस्ताने, मफलर व कैप आदि. एक दुकान में तो भालू का संरक्षित शव खड़ा था. शहर में कई स्थानों पर गाय की मूर्तियां लगी हैं. सभी ने जगहजगह फोटो खिंचवाईं. फिर एक छोटे से मैदान में स्कीइंग करते पितापुत्र की मूर्ति देखी. उस के नीचे लिखा था, ‘गृंडेलवाल्ड को सर्दियों के खेल की विश्व की राजधानी कहा जाता है.’

भारत लौटने से एक दिन पहले आरव ने कोऔपरेटिव डिपार्टमैंटल स्टोर ले जा कर सभी को शौपिंग करवाई. आरुषि ने अपने और अपने मित्रों के लिए काफी सामान खरीद लिया, मसलन अपने लिए मेकअप किट व स्कार्फ, दोस्तों के लिए चौकलेट, आदि. विरेश ने अपने लिए कुछ टीशर्ट्स और दफ्तर में बांटने के लिए यहां के खास टी बिस्कुट, मफिन आदि ले लिए. करुणा ने केवल गृहस्थी में काम आने वाली चीजें लीं, जैसे आरुषि को पसंद आने वाला हौट चौकलेट पाउडर का पैकेट, यहां की प्रसिद्ध चीज का डब्बा, बढि़या क्वालिटी का मेवा, घर में आनेजाने वालों के लिए चौकलेट के पैकेट इत्यादि.

‘‘तुम ने अपने लिए तो कुछ लिया ही नहीं, लिपस्टिक या ब्लश ले लो या फिर कोई परफ्यूम,’’ विरेश के कहने पर करुणा कहने लगी, ‘‘मेरे पास सबकुछ है. अब केवल नाम के लिए क्या लूं?’’

शौपिंग में जितना मजा आता है, उतनी थकावट भी होती है. सो, सब एक कैफे की ओर चल दिए. इस बार यहां के पिज्जा खाने का प्रोग्राम था. आरव और आरुषि ने अपनी पसंद के पिज्जा और्डर कर दिए. करुणा की फिर वही घिसीपिटी प्रतिक्रिया थी कि मुझे कुछ नहीं चाहिए. शायद उसे यह आभास था कि उस की छोटीछोटी बचतों से उस की गृहस्थी थोड़ी और मजबूत हो पाएगी.

अकसर गृहिणियों को अपनी इच्छा की कटौती कर के लगता है कि उन्होंने भी बिना कमाए अपनी गृहस्थी में योगदान दिया. करुणा भी इसी मानसिकता में उलझी अकसर अपनी फरमाइशों का गला घोंटती आई थी. परंतु इस बार उस की यह बात विरेश को अखर गई. आखिर सब छुट्टी मनाने आए थे, सभी अपनी इच्छापूर्ति करने में लगे थे, तो ऐसे में केवल करुणा खुद की लगाम क्यों खींच रही है?

‘‘करुणा, हम यहां इतनी दूर जिंदगी में पहली बार सपरिवार विदेश छुट्टी मनाने आए हैं. जैसे हम सब के लिए यह एक यादगार अनुभव होगा वैसे ही तुम्हारे लिए भी होना चाहिए. मैं समझता हूं कि तुम अपनी छोटीछोटी कटौतियों से हमारी गृहस्थी का खर्च कुछ कम करना चाहती हो. पर प्लीज, ऐसा त्याग मत करो. मैं चाहता हूं कि तुम्हारी जिंदगी भी उतनी ही खुशहाल, उतनी ही आनंदमयी हो जितनी हम सब की है. हमारी गृहस्थी को केवल तुम्हारे ही त्याग की जरूरत नहीं है. अकसर अपनी इच्छाओं का गला रेतती औरतें मिजाज में कड़वी हो जाती हैं. मेरी तमन्ना है कि तुम पूरे दिल से जिंदगी को जियो. मुझे एक खुशमिजाज पत्नी चाहिए, न कि चिकचिक करती बीवी,’’ विरेश की ये बातें सीधे करुणा के दिल में दर्ज हो गईं.

‘‘ठीक ही तो कह रहे हैं,’’ अनचाहे ही उस के दिमाग में अपने परिवार की वृद्धाओं की यादें घूमने लगीं. सच, कटौती ने उन्हें चिड़चिड़ा बना छोड़ा था. फिर जब संतानें पैसों को अपनी इच्छापूर्ति में लगातीं तब वे कसमसा उठतीं

उन का जोड़ा हुआ पाईपाई पैसा ये फुजूलखर्ची में उड़ा रहे हैं. उस पर ज्यादती तो तब होती जब आगे वाली पीढि़यां पलट कर जवाब देतीं कि किस ने कहा था कटौती करने के लिए.

जिस काम में पूरा परिवार खुश हो रहा है, उस में बचत का पैबंद लगाना कहां उचित है? आज विरेश ने करुणा के दिल से कटौती और बेवजह के त्याग का भारी पत्थर सरका फेंका था.

लौटते समय भारतीय एयरपोर्ट पहुंच कर करुणा ने हौले से विरेश के कान में कहा, ‘‘सोच रही हूं ड्यूटीफ्री से एक पश्मीना शौल खरीद लूं अपने लिए.’’

‘‘ये हुई न बात,’’ विरेश के ठहाके पर आगे चल रहे दंपतियों का मुड़ कर देखना स्वाभाविक था.

मोड़ ऐसा भी: जब बहन ने ही छीन लिया शुभा का प्यार

मां मुझ से पहले ही अपने दफ्तर से आ चुकी थीं. वह रसोईघर में शायद चाय बना रही थीं. मैं अपना बैग रख कर सीधी रसोईघर में ही पहुंच गई. मां अनमनी थीं. ऐसा उन के चेहरे से साफ झलक रहा था. फिर कुछ अनचाहा घटा है, मैं ने अनुमान लगा लिया. लड़के वालों की ओर से हर बार निराशा ही उन के हाथ लगी है. मैं ने जानबूझ कर मां की उदासी का कारण न पूछा क्योंकि दुखती रग पर हाथ धरते ही वे अपना धैर्य खो बैठतीं और बाबूजी को याद कर के घंटों रोती रहतीं.

मां ने मेरी ओर बिना देखे ही चाय का प्याला आगे बढ़ा दिया, जिसे थामे मैं बरामदे में कुरसी पर आ बैठी. मां अपने कमरे में चली गई थीं. विषाद से मन भर उठा. पिछले 4 साल से मां मेरे लिए वर की खोज में लगी थीं, लेकिन अभी तक एक अदद लड़का नहीं जुटा पाई थीं कि बेटी के हाथ पीले कर संतोष की सांस लेतीं.

मां अंतर्जातीय विवाह के पक्ष में नहीं थीं. अपने ब्राह्मणत्व का दर्प उन्हें किसी मोड़ पर संधि की स्थिति में ही नहीं आने देता था. मेरी अच्छीखासी नौकरी और ठीकठाक रूपरंग होते हुए भी विवाह में विलंब होता जा रहा था. जो परिवार मां को अच्छा लगता वह हमें अपनाने से इनकार कर देता और जिन को हम पसंद आते, उन्हें मां अपनी बेटी देने से इनकार कर देतीं.

शहर बंद होने के कारण मैं सड़क पर खड़ीखड़ी बेजार हो चुकी थी. कोई रिकशा, बस, आटोरिकशा आदि नहीं चल रहा था. घर से मां ने वनिता की मोपेड भी नहीं लाने दी, हालांकि वनिता का कालेज बंद था. मुझे दफ्तर पहुंचना था, कई आवश्यक काम करने थे. न जाती तो व्यर्थ ही अफसर की कोपभाजन बनती. इधरउधर देखा, कोई जानपहचान का न दिखा. घड़ी पर निगाह गई तो पूरा 1 घंटा हो गया था खड़ेखड़े. मैं सामने ही देखे जा रही थी. अचानक स्कूटर पर एक नौजवान आता दिखा. वह पास आता गया तो पहचान के चिह्न उभर आए. ‘यह तो शायद उदयन…हां, वही था. मेरे साथ कालेज में पढ़ता था, वह भी मुझे पहचान गया. स्कूटर रेंगता हुआ मेरे पास रुक गया.

‘‘उदयन,’’ मैं ने धीरे से पुकारा.

‘‘शुभा…तुम यहां अकेली खड़ी क्या कर रही हो?’’

‘‘बस स्टाप पर क्या करते हैं? दफ्तर जाने के लिए खड़ी थी, लेकिन लगता नहीं कि आज जा पाऊंगी?’’

‘‘आज कितने अरसे बाद दिखी हो तुम, शहर बंद न होता तो शायद आज भी नहीं…’’ कह कर वह हंसने लगा.

‘‘और तुम…बिलकुल सही समय पर आए हो,’’ कह कर मैं उस के पीछे बैठने का संकेत पाते ही स्कूटर पर बैठ गई. रास्ते भर उदयन और मैं कालेज से निकलने के बाद का ब्योरा एकदूसरे को देते रहे. वह बीकौम कर के अपना व्यवसाय कर रहा था और मैं एमकौम कर के नौकरी करने लगी थी. मेरा दफ्तर आ चुका था. वह मुझे उतार कर अपने रास्ते चला गया.

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गोराचिट्टा, लंबी कदकाठी के सम्मोहक व्यक्तित्व का स्वामी उदयन कितने बरसों बाद मिला था. कालेज के समय कैसा दुबलापतला सरकंडे सा था. मैं उसे भूल कर दफ्तर के काम में उलझ गई. होश में तब आई जब छुट्टी का समय हुआ. ‘अब जाऊंगी कैसे घर लौट कर?’ सोचती हुई बाहर निकल ही रही थी कि सामने गुलमोहर के पेड़ तले स्कूटर लिए उदयन खड़ा दिखाई दिया. उस ने वहीं से आवाज दी, ‘‘शुभा…’’

‘‘तुम?’’ मैं आश्चर्य में पड़ी उस तक पहुंच गई.

‘‘तुम्हें काम था कोई यहां?’’

‘‘नहीं, तुम्हें लेने आया हूं. सोचा, छोड़ तो आया लेकिन घर जाओगी कैसे?’’

मैं आभार से भर उठी थी. उस दिन के बाद तो रोज ही आनाजाना साथ होने लगा. हम साथसाथ घूमते हुए दुनिया भर की बातें करते. एक दिन उदयन घर आया तो मां को  उस का विनम्र व्यवहार और सौम्य  व्यक्तित्व प्रभावित कर गए. छोटी बहन वनिता बड़े शरमीले स्वभाव की थी, वह तो उस के सामने आती ही न थी. वह आता और मुझ से बात कर के चला जाता. मैं वनिता को चाय बना कर लाने के लिए कहती, लेकिन वह न आती.

एक बात मैं कितने ही दिनों से महसूस कर रही थी. मुझे बारबार लगता कि जैसे उदयन कुछ कहना चाहता है, लेकिन कहतेकहते जाने क्या सोच कर रुक जाता है. किसी अनकही बात को ले कर बेचैन सा वह महीनों से मेरे साथ चल रहा था.

एक दिन उदयन मुझे स्कूटर से उतार कर चलने लगा तो मैं ने ही उसे घर में बुला लिया, ‘‘अंदर आओ, एक प्याला चाय पी कर जाना.’’ वह मासूम बालक सा मेरे पीछेपीछे चला आया. मां घर में नहीं थीं और वनिता भी कालेज से नहीं आई थी. सो चाय मैं ने बनाई. चाय के दौरान, ‘शुभा एक बात कहूं’ कहतेकहते ही उसे जोर से खांसी आ गई. गले में शायद कुछ फंस गया था. वह बुरी तरह खांसने लगा. मैं दौड़ कर गिलास में पानी ले आई और गिलास उस के होंठों से लगा कर उस की पीठ सहलाने लगी. खांसी का दौर समाप्त हुआ तो वह मुसकराने की कोशिश करने लगा. आंखों में खांसी के कारण आंसू भर आए थे.

‘‘उदयन, क्या कहने जा रहे थे तुम? अरे भई, ऐसी कौन सी बात थी जिस के कारण खांसी आने लगी?’’

सुन कर वह हंसने लगा, ‘‘शुभा…मैं तुम्हारे बिना नहीं रह…’’ अधूरा वाक्य छोड़ कर नीचे देखने लगा और मैं शरमा कर गंभीर हो उठी और लाज की लाली मेरे मुख पर दौड़ गई.

‘‘उदयन, यही बात कहने के लिए तो मैं न जाने कब से सोच रही थी,’’ धीरे से कह कर मैं ने उस के प्रेम निवेदन का उत्तर दे दिया था. दोनों अपनीअपनी जगह चुप बैठे रहे थे. लग रहा था, इन वाक्यों को कहने के लिए ही हम इतने दिनों से न जाने कितनी बातें बस ऐसे ही करे जा रहे थे. एकदूसरे से दृष्टि मिला पाना कैसा दूभर लग रहा था.

शाम खुशनुमा हो उठी थी और अनुपम सुनहरी आभा बिखेरती जीवन के हर पल पर उतर रही थी. मौसम का हर दिन रंगीन हो उठा था. मैं और उदयन पखेरुओं के से पंख लगाए प्रीति के गगन पर उड़ चले थे. हम लोग एक जाति के नहीं थे, लेकिन आपस में विवाह करने की प्रतिज्ञा कर चुके थे.

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झरझर बरसता सावन का महीना था. चारों ओर हरियाली नजर आ रही थी. पत्तों पर टपकती जल की बूंदें कैसी शरारती लगने लगती थीं. अकेले में गुनगुनाने को जी करता था. उदयन का साथ पा कर सारी सृष्टि इंद्रधनुषी हो उठती थी.

‘‘सोनपुर चलोगी…शुभा?’’ एक दिन उदयन ने पूछा था.

‘‘मेला दिखाने ले चलोगे?’’

‘‘हां.’’

मां हमारे साथ जा नहीं सकती थीं और अकेले उदयन के साथ मेरा जाना उन्हें मंजूर नहीं था. अत: मैं ने वनिता से अपने साथ चलने को कहा तो उस ने साफ इनकार कर दिया.

‘‘पगली, घर से कालेज और कालेज से घर…यही है न तेरी दिनचर्या. बाहर निकलेगी तो मन बहल जाएगा,’’ मैं ने उसे समझा कर तैयार कर लिया था. हम तीनों साथ ही गए थे. मैं बीच में बैठी थी, उदयन और वनिता मेरे इधरउधर बैठे थे, बस की सीट पर. इस यात्रा के बीच वनिता थोड़ाबहुत खुलने लगी थी. उदयन के साथ मेले की भीड़भाड़ में हम एकदूसरे का हाथ थामे घूमते रहे थे.

उदयन लगभग रोज ही हमारे घर आता था, लेकिन अब हमारी बातों के बीच वनिता भी होती. मैं सोचती थी कि उदयन बुरा मानेगा कि हर समय छोटी बहन को साथ रखती है. इसलिए मैं ने एक दिन वनिता को किसी काम के बहाने दीपा के घर भेज दिया था, लेकिन थोड़ी देर वनिता न दिखी तो उदयन ने पूछ ही लिया, ‘‘वनिता कहां है?’’

‘‘काम से गई है, दीपा के घर,’’ मैं ने अनजान बनते हुए कह दिया. उस दिन तो वह चला गया, लेकिन अब जब भी आता, वनिता से बातें करने को आतुर रहता. यदि वह सामने न आती तो उस के कमरे में पहुंच जाता. मैं ने उदयन से शीघ्र शादी करने को कहा था, लेकिन वह कहां माना था, ‘‘अभी क्या जल्दी है शुभा, मेरा काम ठीक से जम जाने दो…’’

‘‘कब करेंगे हम लोग शादी, उदयन?’’

‘‘बस, साल डेढ़साल का समय मुझे दे दो, शुभा.’’

मैं क्या कहती, चुप हो गई…मेरी भी तरक्की होने वाली थी. उस में तबादला भी हो सकता था. सोचा, शायद दोनों के ही हित में है. अब जब भी उदयन आता, वनिता उस से खूब खुल कर बातें करती. वह मजाक करता तो वह हंस कर उस का उत्तर देती थी. धीरेधीरे दोनों भोंडे मजाकों पर उतर आए. मुझ से सुना नहीं जाता था. आखिर कहना ही पड़ा मुझे, ‘‘उदयन, अपनी सीमा मत लांघो, उस लड़की से ऐसी बातें…’’

मेरी इस बात का असर तो हुआ था उदयन पर, लेकिन साली के रिश्ते की आड़ में उस ने अपने अनर्गल बोलों को छिपा दिया था. अब वह संयत हो कर बोलता था, फिर भी कहीं न कहीं से उस का अनुचित आशय झलक ही जाता. वनिता को मेरा यह मर्यादित व्यवहार करने का सुझाव अच्छा न लगा. मैं दिन पर दिन यही महसूस कर रही थी कि वनिता उदयन की ओर अदृश्य डोर से बंधी खिंची चली जा रही है. उदयन से कहा तो वह यही बोला था, ‘‘शुभा, यह तुम्हारा व्यर्थ का भ्रम है. ऐसा कुछ नहीं है जिस पर तुम्हें आपत्ति हो.’’

छुट्टी का दिन था, मां घर पर नहीं थीं. वनिता, दीपा के घर गई थी. अकेली ऊब चुकी थी मैं, सोचा कि घर की सफाई करनी चाहिए. हफ्ते भर तो व्यस्तता रहती है. मां की अलमारी साफ कर दी, फिर अपनी और फिर वनिता की. किताबें हटाईं ही थीं कि किसी पुस्तक से उदयन का फोटो मेरे पांव के पास आ गिरा. फोटो को देखते ही मेरा मन कैसी कंटीली झाड़ी में उलझ गया था कि निकालने के सब प्रयत्न व्यर्थ हो गए. लाख कोशिशों के बावजूद क्या मैं अपने मन को समझा पाई थी, पर मेरी आशंका गलत कहां थी? वनिता शाम को लौटी तो मैं ने उसे समझाने की चेष्टा की थी, ‘‘देख वनिता, क्यों उदयन के चक्कर में पड़ी है? वह शादी का वादा तो किसी और से कर चुका है.’’

जिस बहन के मुख से कभी बोल भी नहीं फूटते थे, आज वह यों दावानल उगलने लगेगी, ऐसा तो मैं ने सोचा भी नहीं था. वनिता गुस्से से फट पड़ी, ‘‘क्यों मेरे पीछे पड़ी हो दीदी, हर समय तुम इसी ताकझांक में लगी रहती हो कि मैं उदयन से बात तो नहीं कर रही हूं.’’

‘‘मैं क्यों ताकझांक करूंगी, मैं तो तुझे समझा रही हूं,’’ मैं ने धीरे से कहा.

‘‘क्या समझाना चाहती हो मुझे, बोलो?’’

क्या कहती मैं? चुप ही रही. सोचने लगी कि आज वनिता को क्या हो गया है. इस का मुख तो ‘दीदी, दीदी’ कहते थकता नहीं था, आज यह ऐसे सीधी पड़ गई.

‘‘देख वनिता, तुझे क्या मिल जाएगा उदयन को मुझ से छीन कर,’’ मैं ने सीधा प्रश्न किया था.

‘‘किस से? किस से छीन कर?’’ वह वितृष्णा से भर उठी थी, ‘‘मैं ने किसी से नहीं छीना उसे, वह मुझे मिला है. फिर तुम उदयन को क्यों नहीं रोकतीं? मैं बुलाती हूं क्या उसे?’’ उस ने तड़ाक से ये वाक्य मेरे मुख पर दे मारे. अंधे कुएं में धंसी जा रही थी मैं. मां बुलाती रहीं खाने के लिए, लेकिन मैं सुनना कहां चाहती थी कुछ… ‘‘मां, सिर में दर्द है,’’ कह कर किसी तरह उन से निजात पा गई थी, लेकिन वह मेरे बहानों को कहां अंगीकार कर पाई थीं.

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‘‘शुभा, क्या हुआ बेटी, कई दिन से तू उदास है.’’

मेरी रुलाई फूट पड़ी थी. रोती रही मैं और वे मेरा सिर दबाती रहीं. क्या कहती मां से? कैसे कहती कि मेरी छोटी बहन ने मेरे प्यार पर डाका डाला है…और क्या न्याय कर पातीं वे इस का. उन के लिए तो दोनों बेटियां बराबर थीं.

वनिता ने मेरे साथ बोलचाल बंद कर दी थी. उदयन ने भी घर आना छोड़ दिया था. हम दोनों बहनों की रस्साकशी से तंग आ कर वह किनारे हो गया था. मेरी रातों की नींद उड़ गई थी. अजीब हाल था मेरा. रुग्ण सी काया और संतप्त मन लिए बस जी रही थी मैं. दफ्तर में मन नहीं लगता था और घर में वनिता का गरूर भरा चेहरा देख कर कितने अनदेखे दंश खाए थे अपने मन पर, हिसाब नहीं था मेरे पास. तनाव भरे माहौल को मां टटोलने की कोशिश करती रहतीं, लेकिन उन्हें कौन बताता.

‘‘वनिता, तू ने मुझ से बोलना क्यों बंद कर रखा है?’’ एक दिन मैं हारी हुई आवाज में बोली थी. सोचा, शायद सुलह का कोई झरोखा मन के आरपार देखने को मिल जाए, समझानेबुझाने से वनिता रास्ते पर आ जाए क्योंकि मुझे लगता था कि मैं उदयन के बिना जी नहीं पाऊंगी.

‘‘क्या करोगी मुझ से बोल कर, मैं तो उदयन को छीन ले गई न तुम से.’’

‘‘क्या झूठ कह रही हूं?’’

‘‘बिलकुल सच कहती हो, लेकिन मेरा दोष कितना है इस में, यह तुम भी जानती हो,’’ उस का सपाट सा उत्तर मिल गया मुझे.

‘‘तो तू नहीं छोड़ेगी उसे?’’ मैं ने आखिरी प्रश्न किया था.

‘‘मुझे नहीं पता मैं क्या करूंगी?’’ कहती हुई वह घर से बाहर हो गई.

मैं ने इधरउधर देखा था, लेकिन वह कहीं नजर न आई. मुझे डर लगने लगा था. दौड़ कर मैं दीपा के घर पहुंची. वहां जा कर जान में जान आई क्योंकि वनिता वहीं थी.

‘‘तुम दोनों बहनों को क्या हो गया है? पागल हो गई हो उस लड़के के पीछे,’’ दीपा क्रोध में बोल रही थी. वह मुझे समझाती रही, ‘‘देखो शुभा, उदयन वनिता को चाहने लगा है और यह भी उसे प्यार करती है. ऐसी स्थिति में तू रोक कैसे सकती है इन्हें? पगली, तू कहां तक रोकबांध लगाएगी इन पर? यदि तू उदयन से विवाह भी कर लेगी तब भी इन का प्यार नहीं मिट पाएगा बल्कि और बढ़ जाएगा. जीवन भर तुझे अवमानना ही झेलनी पड़ेगी. तू क्यों उदयन के लिए परेशान है? वह तेरे प्रति ईमानदार ही होता तो यह विकट स्थिति आती आज?’’

रात भर जैसे कोई मेरे मन के कपाट खोलता रहा कि मृग मरीचिका के पीछे कहां तक दौड़ूंगी और कब तक? उदयन मेरे लिए एक सपना था जो आंख खुलते ही विलीन हो गया, कभी न दिखने के लिए.

एक दिन मां ने कहा, ‘‘बेटी, उदयन डेढ़ साल तक शादी नहीं करना चाहता था, अब तो डेढ़ साल भी बीत गया?’’ उन्होंने अंतर्जातीय विवाह की मान्यता देने के पश्चात चिंतित स्वर में पूछा था.

‘‘मां, अब करेगा शादी…वह वादा- खिलाफी नहीं करेगा.’’

शादी की तैयारियां होने लगी थीं. मैं ने दफ्तर से कर्ज ले लिया था. मां भी बैंक से अपनी जमापूंजी निकाल लाई थीं. कार्ड छपने की बारी थी. मां ने कार्ड का विवरण तैयार कर लिया था, ‘शुभा वेड्स उदयन.’

मैं ने मां के हाथ से वह कागज ले लिया. वह निरीह सी पूछने लगीं, ‘‘क्यों, अंगरेजी के बजाय हिंदी में कार्ड छपवाएगी?’’

‘‘नहीं, मां नहीं, आप ने तनिक सी गलती कर दी है…’’ ‘वनिता वेड्स उदयन’ लिख कर वह कागज मैं ने मां को लौटा दिया.

‘‘क्या…? यह क्या?’’ मां हक्की- बक्की रह गई थीं.

‘‘हां मां, यही…यही ठीक है. उदयन और वनिता की शादी होगी. मेरी मंजिल तो अभी बहुत दूर है. घबराते नहीं मां…’’ कह कर मैं ने मां की आंखों से बहते आंसू पोंछ डाले.

स्पेनिश मौस: क्या अमेरिका में रहने वाली गीता अपनी गृहस्थी बचा पाई?

‘‘आप यह नहीं सोचना कि मैं उन की बुराई कर रही हूं, पर…पर…जानती हैं क्या है, वे जरा…सामाजिक नहीं हैं.’’

उस महिला का रुकरुक कर बोला गया वह वाक्य, सोच कर, तोल कर रखे शब्द. ऋचा चौंक गई. लगा, इस सब के पीछे हो न हो एक बवंडर है. उस ने महिला की आंखों में झांकने का प्रयत्न किया, पर आंखों में कोई भाव नहीं थे, था तो एक अपारदर्शी खालीपन.

मुझे आश्चर्य होना स्वाभाविक था. उस महिला से परिचय हुए अभी एक सप्ताह भी नहीं हुआ था और उस से यह दूसरी मुलाकात थी. अभी तो वह ‘गीताजी’ और ‘ऋचाजी’ जैसे औपचारिक संबोधनों के बीच ही गोते खा रही थी कि गीता ने अपनी सफाई देते हुए यह कहा था, ‘‘माफ करना ऋचाजी, हम आप को टैलीफोन न कर सके. बात यह है कि हम…हम कुछ व्यस्त रहे.’’

ऋचा को इस वाक्य ने नहीं चौंकाया. वह जान गई कि अमेरिका में आते ही हम भारतीय व्यस्त हो जाने के आदी हो जाते हैं. भारत में होते हैं तो हम जब इच्छा हो, उठ कर परिचितों, प्रियजनों, मित्रों, संबंधियों के घर जा धमकते हैं. वहां हमारे पास एकदूसरे के लिए समय ही समय होता है. घंटों बैठे रहते हैं, नानुकर करतेकरते भी चायजलपान चलता है क्योंकि वहां ‘न’ का छिपा अर्थ ‘हां’ होता है. किंतु यहां सब अमेरिकन ढंग से व्यस्त हो जाते हैं. टैलीफोन कर के ही किसी के घर जाते हैं और चाय की इच्छा हो तो पूछने पर ‘हां’ ही करते हैं क्योंकि आप ने ‘न’ कहा तो फिर भारतीय भी यह नहीं कहेगा, ‘‘अजी, ले लो. एक कप से क्या फर्क पड़ेगा आप की नींद को,’’ बल्कि अमेरिकन ढंग से कंधे उचका कर कहेगा, ‘‘ठीक है, कोई बात नहीं,’’ और आप बिना चाय के घर.

अमेरिका आए ऋचा को अभी एक माह ही हुआ था. घर की याद आती थी. भारत याद आता था. यहां आने पर ही पता चलता है कि हमारे जीवन में कितनी विविधता है. दैनिक जीवन को चलाने के संघर्ष में ही व्यक्ति इतना डूब जाता है कि उसे कुछ हट कर जीवन पर नजर डालने का अवसर ही नहीं मिलता. यहां जीवन की हर छोटी से छोटी सुखसुविधा उपलब्ध है और फिर भी मन यहां की एकरसता से ऊब जाता है. अजीब एकाकीपन में घिरी ऋचा को जब एक अमेरिकन परिचिता ने ‘फार्म’ पर चलने की दावत दी तो वह फूली न समाई और वहीं गीता से परिचय हुआ था.

शहर से 20-25 किलोमीटर दूर स्थित इस ‘फार्म’ पर हर रविवार शाम को ‘गुडविल’ संस्था के 20-30 लोग आते थे, मिलते थे. कुछ जलपान हो जाता था और हफ्तेभर के लिए दिमाग तरोताजा हो जाता था. यह अनौपचारिक ‘मंडल’ था जिस में विविध देशों के लोगों को आने के लिए खास प्रेरित किया जाता था. सांस्कृतिक आदानप्रदान का एक छोटा सा प्रयास था यह.

यहीं उन गोरे चेहरों में ऋचा ने यह भारतीय चेहरा देखा और उस का मन हलका हो गया. वही गेहुआं रंग, काले घने बाल, माथे पर बिंदी और साड़ी का लहराता पल्ला. दोनों ने एकदूसरे की ओर देखा और अनायास दोनों चेहरों पर मुसकान थिरक गई. फिर परिचय, फिर अतापता, टैलीफोन नंबर का लेनदेन और छोटीमोटी, इधरउधर की बातें. कई दिनों बाद हिंदी में बातचीत कर अच्छा लगा.

तब गीता ने कहा था, ‘‘मैं टैलीफोन करूंगी.’’

और दूसरे सप्ताह मिली तो टैलीफोन न कर सकने का कारण बतातेबताते मन में लगी काई पर से जबान फिसल गई. उस के शब्द ऋचा ने पकड़ लिए, ‘‘वे सामाजिक नहीं हैं…’’ शब्द नहीं, मर्म को छूने वाली आवाज थी शायद, जो उसे चौंका गई. सामाजिक न होना कोई अपराध नहीं, स्वभाव है. गीता के पति सामाजिक नहीं हैं. फिर?

बातचीत का दौर चल रहा था. हरीहरी घास पर रंगबिरंगे कपड़े पहने लोग. लगा वातावरण में चटकीले रंग बिखर गए थे. ऋचा भी इधरउधर घूमघूम कर बातों में उलझी थी. अच्छा लग रहा था, दुनिया का नागरिक होने का आभास. ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की एक नन्ही झलक.

यहां मलयेशिया से आया एक परिवार था, कोई ब्राजील से, ये पतिपत्नी मैक्सिकन थे और वे कोस्टारिका के. सब अपनेअपने ढंग से अंगरेजी बोल रहे थे. कई ऋचा की भारतीय सिल्क साड़ी की प्रशंसा कर रहे थे तो कई बिंदी की ओर इशारा कर पूछ रहे थे कि यह क्या है? क्या यह जन्म से ही है आदि. कुल मिला कर ऐसा समां बंधा था कि ऋचा की हफ्तेभर की थकान मिट गई थी. तभी उस की नजर अकेली खड़ी गीता पर पड़ी. उस का पति बच्चों को संभालने के बहाने भीड़ से दूर चला गया था और उन्हें गाय दिखा रहा था.

ऋचा ने सोचा, ‘सचमुच ही गीता

का पति सामाजिक नहीं है. पर फिर यहां क्यों आते हैं? शायद गीता के कहने पर. किंतु गीता भी कुछ खास हिलीमिली नहीं इन लोगों से.’

‘‘अरे, आप अकेली क्यों खड़ी हैं?’’ कहती हुई ऋचा उस के पास जा खड़ी हुई.

‘‘यों ही, हर सप्ताह ही तो यहां आते हैं. क्या बातचीत करे कोई?’’ गीता ने दार्शनिक अंदाज से कहा.

‘‘हां, हो सकता है. आप तो काफी दिनों से आ रही हैं न?’’

‘‘हां.’’

‘‘तुम्हारे पति को अच्छा लगता है यहां? मेरा मतलब है भीड़ में, लोगों के बीच?’’

‘‘पता नहीं. कुछ कहते नहीं. हर इतवार आते जरूर हैं.’’

‘‘ओह, शायद तुम्हारे लिए,’’ ऋचा कब आप से तुम पर उतर आई वह जान न पाई.

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‘‘मेरे लिए, शायद?’’ और गीता के होंठों पर मुसकान ठहर गई, पर होंठों का वक्र बहुत कुछ कह गया. ऋचा को लगा, कदाचित उस ने किसी दुखती रग पर हाथ रख दिया था, अनजाने ही अपराधबोध से उस ने झट आंखें फेर लीं.

तभी गीता ने उस के कंधे पर हाथ रखा और कहा, ‘‘सच मानो, ऋचा. मैं तो यहां आना बंद ही करने वाली थी कि पिछली बार तुम मिल गईं. बड़ा सहारा सा लगा. इस बार बस, तुम्हारी वजह से आई हूं.’’

‘‘मेरी वजह से?’’

‘‘हां, सोचा दो बातें हो जाएंगी. वरना हमारे न कोई मित्र हैं, न घर आनेजाने वाले. सारा दिन घर में अकेले रह कर ऊब जाती हूं. शाम को कभी बाजार के लिए निकल जाते हैं पर अब तो इन बड़ीबड़ी दुकानों से भी मन ऊब गया है. वही चमकदमक, वही एक सी वस्तुएं, वही डब्बों में बंद सब्जियां, गत्तों के चिकने डब्बों में बंद सीरियल, चाहे कौर्नफ्लैक लो या ओटबार्न, क्या फर्क पड़ता है.’’

गीता अभी बहुत कुछ कहना चाहती थी पर अब चलने का समय हो गया था. उस के पति कार के पास खड़े थे. वह उठ खड़ी हुई. ऋचा को लगा, गीता मन को खोल कर घुटन निकाल दे तो उसे शायद राहत मिलेगी. इस परदेस में इनसान मन भी किस के सामने खोले?

वह अपनी भावुकता को छिपाती हुई बोली, ‘‘गीता, कभी मैं तुम्हारे घर आऊं तो? बुरा तो नहीं मानेंगे तुम्हारे पति?’’

‘‘नहीं. परंतु हां, वे कभी कार से लेने या छोड़ने नहीं आएंगे, जैसे आमतौर पर भारतीय करते हैं. इन से यह सामाजिक औपचारिकता नहीं निभती,’’ वह चलते- चलते बोली. फिर निकट आ गई और साड़ी का पल्ला संवारते हुए धीरे से बोली, ‘‘तभी तो नौकरी छूट गई.’’

और वह चली गई, ऋचा के शांत मन में कंकड़ फेंक कर उठने वाली लहरों के बीच ऋचा का मन कमल के पत्ते की भांति डोलने लगा.

इस परदेस में, अपने घर से, लोगों से, देश से हजारों मील दूर वैसे ही इनसान को घुटन होती है, निहायत अकेलापन लगता है. ऊपर से गीता जैसी स्त्री जिसे पति का भी सहारा न हो. कैसे जी रही होगी यह महिला?

अगली बार गीता मिली तो बहुत उदास थी. पिछले पूरे सप्ताह ऋचा अपने काम में लगी रही. गीता का ध्यान भी उसे कम ही आया. एक बार टैलीफोन पर कुछ मिनट बात हुई थी, बस. अब गीता को देख फिर से मन में प्रश्नों का बवंडर खड़ा हो गया.

इस बार गीता और अधिक खुल कर बोली. सारांश यही था कि पति नौकरी छोड़ कर बैठ गए हैं. कहते हैं भारत वापस चलेंगे. उन का यहां मन नहीं लगता.

‘‘तो ठीक है. वहां जा कर शायद ठीक हो जाएं,’’ ऋचा ने कहा.

गीता की अपारदर्शी आंखों में अचानक ही डर उभर आया.

ऋचा सिहर गई, ‘‘नहीं. ऐसा न कहो. वहां मैं और अकेली पड़ जाऊंगी. इन के सब वहां हैं. इन का पूरा मन वहीं है और मेरा यहां.’’

तब पता चला कि गीता के 2 भाई हैं जो अब इंगलैंड में ही रहते हैं, पहले यहां थे. मातापिता उन के पास हैं. बहन कनाडा में है.

‘‘हमारी शादियां होने तक तो हम सब भारत में थे. फिर एकएक कर के इधर आते गए. मैं सब से छोटी हूं. मेरी शादी के बाद मातापिता भी भाइयों के पास आ गए.’’

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गीता एक विचित्र परिस्थिति में थी. पति भारत जाना चाहते थे,वह रोकती थी. घर में क्लेश हो जाता. वे कहते कि अकेले जा कर आऊंगा तो भी गीता को मंजूर नहीं था क्योंकि उसे डर था कि मांबाप, भाईबहनों के बीच में से निकल कर वे नहीं आएंगे.

‘‘बच्चों की खातिर तो लौट आएंगे,’’ ऋचा ने समझाया.

‘‘बच्चों की खातिर? हुंह,’’ स्पष्ट था कि गीता को इस बात का भी भय था कि उन्हें बच्चों से भी लगाव नहीं है. ऋचा को अजीब लगा क्योंकि हर रविवार को बच्चों के साथ वे घंटों खेलते हैं, उन्हें प्यार से रखते हैं.

ऋचा कई बार सोचती, ‘आखिर कमी कहां रह गई है, वह तो सिर्फ गीता का दृष्टिकोण ही जान पाई है. उस के पति से बात नहीं हुई. वैसे गीता यह भी कहती है कि उस के पति बहुत योग्य व्यक्ति हैं और नामी कंप्यूटर वैज्ञानिक हैं. फिर यह सब क्या है?’

अब तो जब मिलो, गीता की वही शिकायत होती. पति ने फिलहाल अकेले भारत जाने की ठानी है. 3-4 महीने में वे चले जाएंगे. तत्पश्चात बच्चों की छुट्टियां होते ही वह जाएगी और फिर सब लौट आएंगे. पिछले 2 रविवारों को ऋचा फार्म पर गई नहीं थी. तीसरे रविवार गई तो गीता मिली. वही चिंतित चेहरा.

गीता के चेहरे पर भय की रेखाएं अब पूरी तरह अंकित थीं.

‘‘उन के बिना यहां…’’ गीता का वाक्य अभी अधूरा ही था कि ऋचा बोल पड़ी.

‘‘उन से इतना लगाव है तो लड़ती क्यों हो?’’

गीता चुप रही. फिर कुछ संभल कर बोली, ‘‘हमारा जीवन तो अस्तव्यस्त हो जाएगा न. बच्चों को स्कूल पहुंचाना, हर हफ्ते की ग्रौसरी शौपिंग, और भी तो गृहस्थी के झंझट होते हैं.’’

तभी गीता की परिचिता एक अमेरिकी महिला आ कर उस से कुछ कहने लगी. गीता का रंग उड़ गया. ऋचा ने उस की ओर देखा. गीता अंगरेजी में जवाब देने के प्रयास में हकला रही थी. ऋचा ने गीता की ओर से ध्यान हटा लिया और दूर एक पेड़ की ओर ध्यानमग्न हो देखने लगी. कुछ देर बाद अमेरिकन महिला चली गई. ऋचा को पता तब चला जब गीता ने उसे झकझोरा.

‘‘तुम ऋचा, दार्शनिक बनी पेड़ ताक रही हो. मैं इधर समस्याओं से घिरी हूं.’’

ऋचा ने उस की शिकायत सुनी- अनसुनी कर दी.

‘‘गीता, यह तुम्हारी अमेरिकी सहेली है. है न?’’

‘‘हां. नहीं. सच पूछो ऋचा, तो मैं कहां दोस्ती बढ़ाऊं? कैसे? अंगरेजी बोलना भी तो नहीं आता. मांबाप ने हिंदी स्कूलों में पढ़ाया.’’

‘‘ऐसा मत कहो,’’ ऋचा ने बीच में टोका, ‘‘अपनी भाषा के स्कूल में पढ़ना कोई गुनाह नहीं.’’

‘‘पर इस से मेरा हाल क्या हुआ, देख रही हो न?’’

‘‘यह स्कूल का दोष नहीं.’’

‘‘फिर?’’

‘‘दोष तुम्हारा है. अपने को समय व परिस्थिति के मुताबिक ढाल न सकना गुनाह है. बेबसी गुनाह है. दूसरे पर अवलंबित रहना गुनाह है. यही गुनाह औरत सदियों से करती चली आ रही है और पुरुषों को दोष देती चली आ रही है,’’ ऋचा तैश में बोलती चली गई. चेहरा तमतमाया हुआ था.

‘‘तुम कहना क्या चाहती हो, ऋचा?’’

‘‘बताती हूं. सामने पेड़ देख रही हो?’’

‘‘हां.’’

‘‘उन पेड़ों की टहनियों से ‘लेस’ की भांति नाजुक, हलके हरे रंग की बेल लटक रही है. है न?’’

‘‘हां. पर इन से मेरी समस्या का क्या ताल्लुक?’’

‘‘अमेरिका के दक्षिणी प्रांतों में ये बेलें प्रचुर मात्रा में मिलती हैं…’’

‘‘सुनो, ऋचा. इस वक्त मैं न कविता के मूड में हूं, न भूगोल सीखने के,’’ गीता लगभग चिढ़ गई थी.

ऋचा के चेहरे पर हलकी मुसकराहट उभर आई. फिर अपनी बात को जारी रखते हुए कहने लगी, ‘‘इन बेलों को ‘स्पेनिश मौस’ कहते हैं. इन की खासीयत यह है कि ये बेलें पेड़ से चिपक कर लटकती तो हैं पर उन पर अवलंबित नहीं हैं.’’

‘‘तो मैं क्या करूं इन बेलों का?’’

‘‘तुम्हें स्पेनिश मौस बनना है.’’

‘‘मुझे? स्पेनिश मौस?’’

‘‘हां, ‘अमर बेल’ नहीं, स्पेनिश मौस. ’’

‘‘पहेलियां न बुझाओ, ऋचा,’’ गीता का कंठ क्रोध और अपनी असहाय दशा से भर आया.

‘‘गीता, तुम्हारी समस्या की जड़ है तुम्हारी आश्रित रहने की प्रवृत्ति. पति पर निर्भर रहते हुए भी तुम्हें अपना अस्तित्व स्पेनिश मौस की भांति अलग रखना है. उन के साथ रहो, प्यार से रहो, पर उन्हें बैसाखी मत बनाओ. अपने पांव पर खड़ी हो.’’

‘‘कहना आसान है…’’ गीता कड़वाहट में कुछ कहने जा रही थी. पर ऋचा ने बात काट कर अपने ढंग से पूरी की, ‘‘और करना भी.’’

‘‘कैसे?’’

‘‘पहला कदम लेने भर की देर है.’’

‘‘तो पहला कदम लेना कौन सिखाएगा?’’

‘‘तुम्हारा अपना आत्मबल, उसे जगाओ.’’

‘‘कैसे जगाऊं?’’

‘‘तुम्हें अंगरेजी बोलनी आती है, जिस की यहां आवश्यकता है, बोलो?’’

‘‘नहीं?’’

‘‘कार चलानी आती है?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘यहां आए कितने वर्ष हो गए?’’

‘‘8.’’

‘‘अब तक क्यों नहीं सीखी?’’

‘‘विश्वास नहीं है अपने पर.’’

‘‘बस, यही है हमारी आम औरत की समस्या और यहीं से शुरू करना है तुम्हें. मदद मैं करूंगी,’’ ऋचा ने कहा.

गीता के चेहरे पर कुछ भाव उभरे, कुछ विलीन हो गए.

‘स्पेनिश मौस,’ वह बुदबुदाई. दूर पेड़ों पर स्पेनिश मौस के झालरनुमा गुच्छे लटक रहे थे. अनायास गीता को लगा कि अब तक उस ने नहीं जाना था कि स्पेनिश मौस की अपनी खूबसूरती है.

‘‘यह सुंदर बेल है ऋचा, है न?’’ आंखों में झिलमिलाते सपनों के बीच से वह बोली.

‘‘हां, गीता. पर स्पेनिश मौस बनना और अधिक सुंदर होगा.’’

केतकी: घर के बंटवारे में क्या होती है बहू की भूमिका?

‘‘दुलहन आ गई. नई बहू आ  गई,’’ कार के दरवाजे पर  रुकते ही शोर सा मच गया.

‘‘अजय की मां, जल्दी आओ,’’ किसी ने आवाज लगाई, ‘‘बहू का स्वागत करो, अरे भई, गीत गाओ.’’

अजय की मां राधा देवी ने बेटेबहू की अगवानी की. अजय जैसे ही आगे बढ़ने लगा कि घर का दरवाजा उस की बहन रेखा ने रोक लिया, ‘‘अरे भैया, आज भी क्या ऐसे ही अंदर चले जाओगे. पहले मेरा नेग दो.’’

‘‘एक चवन्नी से काम चल जाएगा,’’ अजय ने छेड़ा.

भाईबहन की नोकझोंक शुरू हो गई. सब औरतें भी रेखा की तरफदारी करती जा रही थीं.

केतकी ने धीरे से नजर उठा कर ससुराल के मकान का जायजा लिया. पुराने तरीके का मकान था. केतकी ने देखा, ऊपर की मंजिल पर कोने में खड़ी एक औरत और उस के साथ खड़े 2 बच्चे हसरत भरी निगाह से उस को ही देख रहे थे. आंख मिलते ही बड़ा लड़का मुसकरा दिया. वह औरत भी जैसे कुछ कहना चाह रही थी, लेकिन जबरन अपनेआप को रोक रखा था. तभी छोटी बच्ची ने कुछ कहा कि वह अपने दोनों बच्चों को ले कर अंदर चली गई.

तभी रेखा ने कहा, ‘‘अरे भाभी, अंदर चलो, भैया को जितनी जल्दी लग रही है, आप उतनी ही देर लगा रही हैं.’’ केतकी अजय के पीछेपीछे घर में प्रवेश कर गई.

करीब 15 दिन बीत गए. केतकी ने आतेजाते कई बार उस औरत को देखा जो देखते ही मुसकरा देती, पर बात नहीं करती थी. कभी केतकी बात करने की कोशिश करती तो वह जल्दीजल्दी ‘हां’, ‘ना’ में जवाब दे कर या हंस कर टाल जाती. केतकी की समझ में न आता कि माजरा क्या है.

लेकिन धीरेधीरे टुकड़ोंटुकड़ों में उसे जानकारी मिली कि वह औरत उस के पति अजय की चाची हैं, लेकिन जायदाद के झगड़े को ले कर उन में अब कोई संबंध नहीं है. जायदाद का बंटवारा देख कर केतकी को लगा कि उस के ससुर के हिस्से में एक कमरा ज्यादा ही है. फिर क्या चाचीजी इस कारण शादी में शामिल नहीं हुईं या उस के सासससुर ने ही उन को शादी में निमंत्रण नहीं दिया, ‘पता नहीं कौन कितना गलत है,’ उस ने सोचा.

एक दिन केतकी जब अपनी सास राधा के पास फुरसत में बैठी थी  तो उन्होंने पुरानी बातें बताते हुए कहा, ‘‘तुम्हें पता है, मैं इसी तरह चाव से एक दिन कमला को अपनी देवरानी नहीं, बहू बना कर लाई थी. मेरी सास तो बिस्तर से ही नहीं उठ सकती थीं. वे तो जैसे अपने छोटे बेटे की शादी देखने के लिए ही जिंदा थीं. शादी के बाद सिर्फ 1 माह ही तो निकाल पाईं. मैं ने सास की तरह ही इस की देखभाल की और देखा जाए तो देवर प्रकाश को मैं ने अपने बेटे की तरह ही पाला है. तुम्हारे पति अजय और प्रकाश में सिर्फ 7 साल का अंतर है. उस की पढ़ाईलिखाई, कामधंधा, शादीब्याह आदि सबकुछ मेरे प्रयासों से ही तो हुआ…फिर बेटे जैसा ही तो हुआ,’’ राधा ने केतकी की ओर समर्थन की आशा में देखते हुए कहा.

‘‘हां, बिलकुल,’’ केतकी ने आगे उत्सुकता दिखाई.

‘‘वैसे शुरू में तो कमला ने भी मुझे सास के बराबर आदरसम्मान दिया और प्रकाश ने तो कभी मुझे किसी बात का पलट कर जवाब नहीं दिया…’’ वे जैसे अतीत को अपनी आंखों के सामने देखने लगीं, ‘‘लेकिन बुरा हो इन महल्लेवालियों का, किसी का बनता घर किसी से नहीं देखा जाता न…और यह नादान कमला भी उन की बातों में आ कर बंटवारे की मांग कर बैठी,’’ राधा ने मुंह बनाते हुए कहा.

‘‘क्या बात हुई थी?’’ केतकी उत्सुकता दबा न पाई.

‘‘इस की शादी के बाद 3 साल तक तो ठीकठाक चलता रहा, लेकिन पता नहीं लोगों ने इस के मन में क्याक्या भर दिया कि धीरेधीरे इस ने घर के कामकाज से हाथ खींचना शुरू कर दिया. हर बात में हमारी उपेक्षा करने लगी. फिर एक दिन प्रकाश ने तुम्हारे ससुर से कहा, ‘भैया, मैं सोचता हूं कि अब मां और पिताजी तो रहे नहीं, हमें मकान का बंटवारा कर लेना चाहिए जिस से हम अपनी जरूरत के मुताबिक जो रद्दोबदल करवाना चाहें, करवा कर अपनेअपने तरीके से रह सकें.’

‘‘‘यह आज तुझे क्या सूझी? तुझे कोई कमी है क्या?’ प्रकाश को ऊपर से नीचे तक देखते हुए तुम्हारे ससुर ने कहा.

‘‘‘नहीं, यह बात नहीं, लेकिन बंटवारा आज नहीं तो कल होगा ही, होता आया है. अभी कर लेंगे तो आप भी निश्ंिचत हो कर अजय, विजय के लिए कमरे तैयार करवा पाएंगे. मैं अपना गोदाम और दफ्तर भी यहीं बनवाना चाहता हूं. इसलिए यदि ढंग से हिस्सा हो जाए तो…’

‘‘‘अच्छा, शायद तू अजय, विजय को अपने से अलग मानता है? लेकिन मैं तो नहीं मानता, मैं तो तुम तीनों का बराबर बंटवारा करूंगा और वह भी अभी नहीं…’

‘‘‘यह आप अन्याय कर रहे हैं, भैया,’ प्रकाश की आंखें भर आईं और वह चला गया.

‘‘बाद में काफी देर तक उन के कमरे से जोरजोर से बहस की आवाजें आती रहीं.

‘‘खैर, कुछ दिन बीते और फिर वही बात. अब बातबात में कमला भी कुछ कह देती. कामकाज में भी बराबरी करती. घर में तनाव रहने लगा. बात मरदों की बैठक से निकल कर औरतों में आ गई. घर में चैन से खानापीना मुश्किल होने लगा तो महल्ले और रिश्ते के 5 बुजुर्गों को बैठा कर फैसला करवाने की सोची. प्रकाश कहता कि मुझे आधा हिस्सा दो. हम कहते थे कि हम ने तुम्हें बेटे की तरह पाला है, तुम्हारी पढ़ाईलिखाई, शादीब्याह सभी किया, हम 3 हिस्से करेंगे.’’

‘‘लेकिन जब बंटवारा हो गया तो अब इस तरह संबंध न रखने की क्या तुक है?’’ केतकी ने पूछ ही लिया.

‘‘रोजरोज की किटकिट से मन खट्टा हो गया हमारा, इसलिए जब बंटवारा हो गया तो हम ने तय कर लिया कि उन से किसी तरह का संबंध नहीं रखेंगे,’’ राधा ने बात साफ करते हुए कहा.

‘‘लेकिन शादीब्याह, जन्म, मृत्यु में आनाजाना भी…?’’

‘‘अब यह उन की मरजी. अच्छा बताओ, तुम्हारी शादी में कामकाज के बाबत पूछना, शामिल होना क्या उन का कर्र्तव्य नहीं था, लेकिन प्रकाश तो शादी के 3 दिन पहले अपने धंधे के सिलसिले में बाहर चला गया था…जैसे उस के बिना काम ही नहीं चलेगा,’’ राधा ने अपने मन की भड़ास निकाली.

‘‘आप ने उन से आने को कहा तो होगा न?’’

‘‘अच्छा,’’ राधा ने मुंह बिचकाया, ‘‘जिसे मैं घर में लाई, उसे न्योता देने जाऊंगी? कल विजय की शादी में तुम को न्योता दूंगी, तब तुम आओगी?’’

केतकी को लगा, अब पुरानी बातों पर आया गुस्सा कहीं उस पर न निकले. वह धीरे से बोली, ‘‘मैं चाय का इंतजाम करती हूं.’’

केतकी सोचने लगी कि कभी चाची से बात कर के ही वास्तविक बात पता चलेगी. उस ने चाची व उन के बच्चों से संपर्क बढ़ाना शुरू किया. जब भी उन को देखती, 1-2 मिनट बात कर लेती. एक दिन तो कमला ने कहा भी, ‘‘तुम हम से बात करती हो, भैयाभाभी कहीं नाराज हो गए तो?’’

‘‘आप भी कैसी बात करती हैं, वे भला क्यों नाराज होंगे?’’ केतकी ने हंसते हुए कहा.

अब केतकी ने दृढ़ निश्चय कर लिया कि एकदूसरे के मन पर जमा मैल हटाना है. इसलिए एक दिन सास से बोली, ‘‘चाचीजी कह रही थीं कि आप कढ़ी बहुत बढि़या बनाती हैं. कभी मुझे भी खिलाइए न.’’

इसी तरह केतकी कमला से बात करती तो कहती, ‘‘मांजी कह रही थीं कि आप भरवां बैगन बहुत बढि़या बनाती हैं.’’

कहने की जरूरत नहीं कि ये बातें वह किसी और के मुंह से सुनती, पर सास को कहती तो चाची का नाम बताती और चाची से कहती तो सास का नाम बताती. वह जानती थी कि अपनी प्रशंसा किसे अच्छी नहीं लगती. फिर अगर वह अपने दुश्मन के मुंह से हो तो दुश्मनी भी कम हो जाती है.

इस तरह बातों के जरिए केतकी एकदूसरे के मन में बैठी गलतफहमी और वैमनस्य को दूर करने लगी. एक दिन तो उस को लगा कि उस ने गढ़ जीत लिया. हुआ क्या कि केतकी के नाम की चिट्ठी पिंकी ले कर आई और गैलरी से उस ने आवाज लगाई, ‘‘भाभीजी.’’

केतकी उस समय रसोई में थी. वहीं से बोली, ‘‘क्या बात है?’’

‘‘आप की चिट्ठी.’’

केतकी जैसे ही बाहर आने लगी, पिंकी गैलरी से चिट्ठी फेंक कर भाग गई. जब उस की सास ने यह देखा तो बरबस पुकार बैठी, ‘‘पिंकी…अंदर तो आ…’’

तब केतकी को आशा की किरण ही नजर नहीं आई, उसे विश्वास हो गया कि अब दिल्ली दूर नहीं है.  तभी राधा को बेटी की बातचीत के सिलसिले में पति और बेटी के साथ एक हफ्ते के लिए बनारस जाना था. केतकी को दिन चढ़े हुए थे. इसलिए उन्हें चिंता थी कि क्या करें. पहला बच्चा है, घर में कोई बुजुर्ग औरत होनी ही चाहिए. आखिरकार केतकी को सब तरह की हिदायतें दे कर वह रवाना हो गईं.

3-4 दिन आराम से निकले. एक दिन दोपहर के समय घर में अजय और विजय भी नहीं थे. ऐसे में केतकी परेशान सी कमला के पास आई. उस की हैरानपरेशान हालत देख कर कमला को कुछ खटका हुआ, ‘‘क्या बात है, ठीक तो हो…?’’

‘‘पता नहीं, बड़ी बेचैनी हो रही है. सिर घूम रहा है,’’ बड़ी मुश्किल से केतकी बोली.

‘‘लेट जाओ तुरंत, बिलकुल आराम से,’’ कहती हुई कमला नीचे पति को बुलाने चली गई.

कमला और प्रकाश उसे अस्पताल ले गए और भरती करा दिया. फिर अजय के दफ्तर फोन किया.

अजय ने आते ही पूछा, ‘‘क्या बात है?’’ वह बदहवास सा हो रहा था.

‘‘शायद चिंता से रक्तचाप बहुत बढ़ गया है,’’ कमला ने जवाब दिया.

‘‘मैं इस के पीहर से किसी को बुला लेता हूं. आप को बहुत तकलीफ होगी,’’ अजय ने कहा.

‘‘ऐसा है बेटे, तकलीफ के दिन हैं तो तकलीफ होगी ही…घबराने की कोई बात नहीं…सब ठीक हो जाएगा,’’ प्रकाश ने अजय के कंधे पर हाथ रख कर कहा, ‘‘बाकी जैसा तुम उचित समझो.’’

‘‘वैसे डाक्टर ने क्या कहा है?’’ अजय ने चाचा से पूछा.

‘‘रक्तचाप सामान्य हो रहा है. कोई विशेष बात नहीं है.’’

केतकी को 2 दिन अस्पताल में रहना पड़ा. फिर छुट्टी मिल गई, पर डाक्टर ने आराम करने की सख्त हिदायत दे दी.

घर आने पर सारा काम कमला ने संभाल लिया. केतकी इस बीच कमला का व्यवहार देख कर सोच रही थी कि गलती कहां है? कमला कभी भी उस के सासससुर के लिए कोई टिप्पणी नहीं करती थी.  लेकिन एक दिन केतकी ने बातोंबातों में कमला को उकसा ही दिया. उन्होंने बताया, ‘‘मैं ने बंटवारा कराया, यह सब कहते हैं, लेकिन क्या गलत कराया? माना उम्र में वे मेरे सासससुर के बराबर हैं. इन को पढ़ायालिखाया भी, लेकिन सासससुर तो नहीं हैं न? यदि ऐसा ही होता तो क्या तुम्हारी शादी में हम इतने बेगाने समझे जाते. फिर यदि मैं लड़ाकी ही होती तो क्या बंटवारे के समय लड़ती नहीं?

‘‘सब यही कहते हैं कि मैं ने तनाव पैदा किया, पर मैं ने यह तो नहीं कहा कि संबंध ही तोड़ दो. एकदूसरे के दुश्मन ही बन जाओ. अपनेअपने परिवार में हम आराम से रहें, एकदूसरे के काम आएं, लेकिन भैयाभाभी तो उस दिन के बाद से आज तक हम से क्या, इन बच्चों से भी नहीं बोले. यदि वे किसी बात पर अजय से नाराज हो जाएं तो क्या विजय की शादी में तुम्हें बुलाएंगे नहीं? ऐसे बेगानों जैसा व्यवहार करेंगे क्या? बस, यही फर्क होता है और होता आया है…उस के लिए मैं किसी को दोष नहीं देती. खैर, छोड़ो इस बात को…जो होना था, हो गया. बस, मैं तो यह चाहती हूं कि दोनों परिवारों में सदा मधुर संबंध बने रहें.’’

‘‘मांजी भी यही कहती हैं,’’ केतकी ने अपनेपन से कहा.

‘‘सच?’’ कमला ने आश्चर्य प्रकट किया.

‘‘हां.’’

‘‘फिर वे हम से बेगानों जैसा व्यवहार क्यों करती हैं?’’

‘‘वे बड़ी हैं न, अपना बड़प्पन बनाए रखना चाहती हैं. आप जानती ही हैं, वे उस दौर की हैं कि टूट जाएंगी, पर झुक नहीं सकतीं.’’

केतकी की बात सुन कर कमला कुछ सोचने लगी.  शाम तक राधा, रेखा और दुर्गाचरण आ गए. आ कर जब देखा कि केतकी बिस्तर पर पड़ी है तो राधा के हाथपांव फूल गए.

राधा ने सहमे स्वर में पूछा, ‘‘क्या हो गया?’’

‘‘कुछ नहीं, अब तो बिलकुल ठीक हूं, पर चाचीजी मुझे उठने ही नहीं देतीं,’’ केतकी ने कहा.

‘‘ठीक है…ठीक है…तुम आराम करो. अब सब मैं कर लूंगी,’’ राधा ने केतकी की बात अनसुनी करते हुए अपने सफर की बातें बतानी शुरू कर दीं.

तभी कमला ने कहा, ‘‘आप थक कर आए हैं. शाम का खाना मैं ही बना दूंगी.’’

‘‘रोज खाना कौन बनाती थी?’’ राधा ने जानना चाहा.

‘‘चाचीजी ने ही सब संभाल रखा था अभी तक तो…’’ अजय ने बताया.

‘‘अस्पताल में भी ये ही रहीं. एक मिनट भी भाभीजी को अकेला नहीं छोड़ा,’’ विजय ने बात आगे बढ़ाई.

‘‘तो फिर अब क्या पूछ रही हो?’’ दुर्गाचरण ने राधा की ओर सहमति की मुद्रा में देखते हुए कहा.

‘‘हां, और क्या, हम क्या पराए हैं जो अब हम को खाना नहीं खिलाओगी?’’ राधा ने कमला की ओर देख कर कहा.

‘‘जी…अच्छा,’’ कमला जाने लगी.

दुर्गाचरण और राधा ने एकदूसरे की   ओर देखा, फिर दुर्गाचरण ने    कहा, ‘‘अपना आखिर अपना ही होता है.’’

‘‘हम यह बात भूल गए थे.’’

तभी कमला कुछ पूछने आई तो राधा ने कहा, ‘‘हमें माफ करना बहू…’’

‘‘छि: भाभीजी…आप बड़ी हैं. कैसी बात करती हैं…’’

‘‘यह सही कह रही है, बहू, बड़े भी कभीकभी गलती करते हैं,’’ दुर्गाचरण बोले तो केतकी के होंठों पर मुसकान खिल उठी

नहले पर देहला : किस ने उछाला भाभी पर कीचड़

साक्षी ने जैसे ही दरवाजा खोला, वह चौंक कर दो कदम पीछे हट गई. सामने खड़ा टोनी बगैर कुछ कहे मुसकराता हुआ अंदर दाखिल हो गया.

‘‘तुम यहां पर…’’ साक्षी चौंकते हुए बोली.

‘‘क्या भूल गई अपने आशिक को?’’ टोनी ने बेशर्मी से कहा.

‘‘भूल जाओ उन बातों को. मेरी जिंदगी में जहर मत घोलो,’’ साक्षी रोंआसी हो कर बोली.

‘‘चिंता मत करो, मैं तुम्हें ज्यादा तंग नहीं करूंगा. लो यह देखो,’’ टोनी ने एक लिफाफा साक्षी को देते हुए कहा.

साक्षी ने लिफाफे से तसवीरें निकाल कर देखीं, तो उसे लगा मानो आसमान टूट पड़ा हो. उन तसवीरों में साक्षी और टोनी के सैक्सी पोज थे. यह अलग बात थी कि साक्षी ने टोनी के साथ कभी भी ऐसावैसा कुछ नहीं किया था.

‘‘यह सब क्या है?’’ साक्षी घबरा गई और डर कर बोली.

‘‘बस छोटा सा नजराना.’’

‘‘क्या चाहते हो तुम?’’ साक्षी ने कांपते हुए पूछा.

‘‘ज्यादा नहीं, बस एक लाख रुपए दे दो, फिर तुम्हारी छुट्टी,’’ टोनी बेशर्मी से बोला.

‘‘लेकिन ये फोटो तो   झूठे हैं. ऐसा तो मैं ने कभी नहीं किया था.’’

‘‘जानेमन, ये फोटो देख कर कोई भी इन्हें   झूठा नहीं बता सकता.’’

‘‘तुम इतने नीच होगे, यह मैं ने कभी नहीं सोचा था.’’

‘‘आजकल सिर्फ पैसे का जमाना है, जिस के लिए लोग अपना ईमान भी बेच देते हैं,’’ टोनी ने बेशर्मी से कहा.

साक्षी बुरी तरह घबरा गई. उसे यह भी डर था कि कहीं कोई आ न जाए. लेकिन वे दोनों यह नहीं जानते थे कि दो आंखें बराबर उन पर टिकी थीं.

साक्षी ने टोनी को भलाबुरा कह कर एक महीने का समय ले लिया. टोनी दरवाजा खोल कर बाहर निकल गया.

एकाएक साक्षी की रुलाई फूट पड़ी. वह लिफाफा अब भी उस के हाथ में था.

सहसा उन दो आंखों का मालिक दीपक कमरे में दाखिल हुआ और चुपचाप साक्षी के सामने जा खड़ा हुआ. उस ने हाथ बढ़ा कर वह लिफाफा ले लिया.

‘‘देवरजी, तुम…’’ साक्षी एकाएक उछल पड़ी.

‘‘जी…’’

‘‘यह लिफाफा मुझे दे दो प्लीज,’’ साक्षी कांप कर बोली.

‘‘चिंता मत करो भाभी, मैं सबकुछ जान चुका हूं.’’

‘‘लेकिन, ये तसवीरें झूठी हैं.’’

दीपक ने वे फोटो बिना देखे ही टुकड़ेटुकड़े कर दिए.

‘‘मैं सच कह रही हूं, यह सब   झूठ है,’’ साक्षी बोली.

‘‘कौन था वह कमीना, जिस ने हमारी भाभी पर कीचड़ उछालने की कोशिश की है?’’ दीपक ने पूछा.

‘‘लेकिन…’’

‘‘चिंता मत कीजिए भाभी. अगर उस कुत्ते से लड़ना होता तो उसे यहीं पकड़ लेता. लेकिन मैं नहीं चाहता कि आप की जरा भी बदनामी हो.’’

दीपक का सहारा पा कर साक्षी ने उसे हिचकते हुए बताया, ‘‘उस का नाम टोनी है. वह मेरी क्लास में पढ़ता था. उस से थोड़ीबहुत बोलचाल थी, लेकिन प्यार कतई नहीं था.’’

‘‘उस का पता भी बता दीजिए.’’

‘‘लेकिन तुम करना क्या चाहते हो?’’

‘‘मैं अपनी भाभी को बदनामी से बचाना चाहता हूं.’’

‘‘तुम उस का क्या करोगे?’’

‘‘उस का मुरब्बा तो बना नहीं सकता, लेकिन उस नीच का अचार जरूर बना डालूंगा.’’

‘‘तुम उस बदमाश के चक्कर में मत पड़ो. मुझे मेरे हाल पर ही छोड़ दो.’’

लेकिन दीपक के दबाव डालने पर साक्षी को टोनी का पता बताना ही पड़ा.

पता जानने के बाद दीपक तेज कदमों से बाहर निकल गया.

दीपक को टोनी का घर ढूंढ़ने में ज्यादा समय नहीं लगा. घर में ही टोनी की छोटी सी फोटोग्राफी की दुकान थी. दीपक ने पता किया कि टोनी की 3 बहनें हैं और मां विधवा हैं.

दीपक ने फोटो खिंचवाने के बहाने टोनी से दोस्ती कर ली और दिल खोल कर खर्च करने लगा. उस ने टोनी की एक बहन ज्योति को अपने प्यार के जाल में फंसा लिया.

एक दिन मौका पा कर दीपक और ज्योति पार्क में मिले और शाम तक मस्ती करते रहे.

उस दिन टोनी अपनी दुकान में अकेला बैठा था. तभी दीपक की मोटरसाइकिल वहां आ कर रुकी.

दीपक को देखते ही टोनी का चेहरा खिल उठा. उस ने खुश होते हुए कहा. ‘‘आओ दीपक, मैं तुम्हीं को याद कर रहा था.’’

‘‘तुम ने याद किया और हम हाजिर हैं. हुक्म करो,’’ दीपक ने स्टाइल से कहा.

‘‘बैठो यार, क्या कहूं शर्म आती है.’’

‘‘बेहिचक बोलो, क्या बात है?’’

‘‘क्या तुम मेरी कुछ मदद कर सकते हो?’’

‘‘बोलो तो सही, बात क्या?है?’’

‘‘मुझे 5 हजार रुपए की जरूरत है. कुछ खास काम है,’’ टोनी हिचकते हुए बोला.

‘‘बस इतनी सी बात, अभी ले कर आता हूं,’’ दीपक बोला और एक घंटे में ही उस ने 5 हजार की गड्डी ला कर टोनी को थमा दिया. टोनी दीपक के एहसान तले दब गया.

कुछ दिनों बाद ज्योति की हालत खराब होने लगी. उसे उलटियां होने लगीं. जांच करने के बाद डाक्टर ने बताया कि वह मां बनने वाली है.

यह सुन कर सब हैरान रह गए. ज्योति की मां ने रोना शुरू कर दिया. लेकिन टोनी गुस्से में ज्योति को मारने दौड़ पड़ा. ज्योति लपक कर बड़ी बहन के पीछे छिप गई.

‘‘बता कौन है वह कमीना, जिस के साथ तू ने मुंह काला किया?’’ टोनी ने सख्त लहजे में पूछा.

ज्योति सुबक रही थी. उस की मां और बहनें रोए जा रही थीं और टोनी गुस्से में न जाने क्याक्या बके जा रहा था. काफी दबाव डालने पर ज्योति ने दीपक का नाम बता दिया.

यह सुन कर सब हैरान रह गए. टोनी भी एकाएक ढीला पड़ गया.

दीपक को घर बुला कर बात की गई, लेकिन वह साफ मुकर गया और उस ने शादी करने से इनकार कर दिया.

एक पल के लिए टोनी को गुस्सा आ गया और वह गुर्रा कर बोला, ‘‘अगर मेरी बहन को बरबाद किया तो मैं तुम्हारा खून पी जाऊंगा.’’

‘‘तुम्हारा क्या खयाल है कि मैं ने चूडि़यां पहन रखी हैं?’’ दीपक सख्त लहजे में बोला.

‘‘तुम ने हम से किस जन्म का बदला लिया है,’’ टोनी की मां रोते हुए बोलीं.

‘‘आप जरा चुप रहिए मांजी, पहले इस खलीफा से निबट लूं,’’ दीपक ने कहा और टोनी को घूरने लगा.

टोनी ने पैतरा बदला और हाथbजोड़ कर बोला, ‘‘मैं तुम्हारे आगे हाथ जोड़ता हूं दीपक, मेरी बहन को बरबाद मत करो.’’

‘‘तुम किस गलतफहमी के शिकार हो रहे हो,’’ दीपक बोला.

‘‘देखो दीपक, मेरी बहन से शादी कर लो. तुम जो कहोगे, मैं करने के लिए तैयार हूं,’’ टोनी हार कर बोला.

‘‘तुम क्या कर सकते हो भला?’’

‘‘तुम जो कहोगे मैं वही करूंगा,’’ टोनी गिड़गिड़ा कर बोला.

‘‘अपनी इज्जत पर आंच आई तो कितना तड़प रहे हो. क्या दूसरों की इज्जत, इज्जत नहीं होती?’’ दीपक शांत हो कर बोला.

‘‘क्या मतलब है तुम्हारा?’’ टोनी बुरी तरह चौंका.

‘‘अपने गरीबान में झांक कर देखो टोनी, सब मालूम हो जाएगा,’’ एकाएक दीपक का लहजा बदल गया.

टोनी सबकुछ सम  झ गया. उस ने मां और बहनों को बाहर भेजना चाहा, लेकिन दीपक उन्हें रोक कर बोला, ‘‘अब डर क्यों रहे हो, घर के सभी लोगों को बताओ कि तुम कितनी मासूमों का बसाबसाया घर तबाह करने पर तुले हो.’’

‘‘तुम कौन हो?’’ टोनी हैरत से बोला.

‘‘तुम मेरी बात का फटाफट जवाब दो, वरना मैं चला,’’ दीपक जाने के लिए लपका.

‘‘लेकिन मैं ने किसी की जिंदगी बरबाद तो नहीं की,’’ टोनी अटकते हुए बोला.

‘‘मगर करने पर तो तुले हो.’’

‘‘यह सच है, लेकिन तुम ने आज मेरी आंखें खोल दीं दोस्त. आज मु  झे एहसास हुआ कि पैसे से कहीं ज्यादा इज्जत की अहमियत है,’’ टोनी बु  झी आवाज में बोला.

दीपक के होंठों पर मुसकराहट नाच उठी. ज्योति भी मुसकराने लगी.

‘‘अब क्या इरादा है प्यारे?’’ दीपक ने पूछा.

‘‘वह सब झूठ था. मैं कसम खाता हूं कि सारे फोटो और निगेटिव जला दूंगा,’’ टोनी ने कहा.

‘‘यह अच्छा काम अभी और सब के सामने करो,’’ दीपक ने कहा.

टोनी ने पैट्रोल डाल कर सारे गंदे फोटो और निगेटिव जला डाले और दीपक से बोला, ‘‘माफ करना दोस्त, मैं ने लालच में पड़ कर लखपति बनने का यह तरीका अपना लिया था.’’

‘‘माफी मुझ से नहीं पहले अपनी मां से मांगो, फिर मेरी मां से मांगना.’’

‘‘तुम्हारी मां…’’

‘‘हां, साक्षी यानी मेरी भाभी मां. वह माफ कर देंगी तो मैं भी तुम्हें माफ कर दूंगा,’’ दीपक बोला.

‘‘मंजूर है, लेकिन मेरी बहन?’’

‘‘इस का फैसला भी भाभी ही करेंगी.’’

साक्षी के पैर पकड़ कर माफी मांगते हुए टोनी बोला, ‘‘आज से आप मेरी बड़ी दीदी हैं. चला तो था चाल चलने, लेकिन आप के इस होशियार देवर ने ऐसी चाल चली कि नहले पे दहला मार कर मु  झे चित कर दिया. क्या इस नालायक को माफ कर सकेंगी?’’

साक्षी ने गर्व से देवर की ओर देखा और टोनी से कहा, ‘‘फिर कभी ऐसी जलील हरकत मत करना.’’

माफी मिलने के बाद टोनी ने साक्षी को अपनी बहन व दीपक का मामला बताया तो साक्षी ने दीपक को घूरते हुए पूछा, ‘‘दीपक, यह सब क्या?है?’’

‘‘यह भी एक नाटक है भाभी. आप ज्योति से ही पूछिए,’’ दीपक हंस कर बोला.

‘‘ज्योति, आखिर किस्सा क्या है?’’ टोनी ने पूछा.

‘‘भैया, मैं भी सबकुछ जान गई थी. आप को सही रास्ते पर लाने के लिए ही मैं ने व दीपक ने नाटक किया था और उस में डाक्टर को भी शामिल कर लिया था,’’ ज्योति ने हंसते हुए बताया.

‘‘चल, तू ने छोटी हो कर भी मुझे राह दिखा कर अच्छा किया. मैं तेरी शादी दीपक जैसे भले लड़के से करने के लिए तैयार हूं.’’nदीपक ने इजाजत मांगने के अंदाज में भाभी की ओर देखा.

साक्षी ने ज्योति को खींच कर अपने गले से लगा लिया. ज्योति की मां भी इस रिश्ते से बहुत खुश थीं.

दो चुटकी सिंदूर : सविता को अमित ने कैसे ठगा

‘‘ऐ सविता, तेरा चक्कर चल रहा है न अमित के साथ?’’ कुहनी मारते हुए सविता की सहेली नीतू ने पूछा.

सविता मुसकराते हुए बोली, ‘‘हां, सही है. और एक बात बताऊं… हम जल्दी ही शादी भी करने वाले हैं.’’

‘‘अमित से शादी कर के तो तू महलों की रानी बन जाएगी. अच्छा, वह सब छोड़. देख उधर, तेरा आशिक बैजू कैसे तुझे हसरत भरी नजरों से देख रहा है.’’

नीतू ने तो मजाक किया था, क्योंकि वह जानती थी कि बैजू को देखना तो क्या, सविता उस का नाम भी सुनना तक पसंद नहीं करती.

सविता चिढ़ उठी. वह कहने लगी, ‘‘तू जानती है कि बैजू मुझे जरा भी नहीं भाता. फिर भी तू क्यों मुझे उस के साथ जोड़ती रहती है?’’

‘‘अरे पगली, मैं तो मजाक कर रही थी. और तू है कि… अच्छा, अब से नहीं करूंगी… बस,’’ अपने दोनों कान पकड़ते हुए नीतू बोली.

‘‘पक्का न…’’ अपनी आंखें तरेरते हुए सविता बोली, ‘‘कहां मेरा अमित, इतना पैसे वाला और हैंडसम. और कहां यह निठल्ला बैजू.

‘‘सच कहती हूं नीतू, इसे देख कर मुझे घिन आती है. विमला चाची खटमर कर कमाती रहती हैं और यह कमकोढ़ी बैजू गांव के चौराहे पर बैठ कर पानखैनी चबाता रहता है. बोझ है यह धरती पर.’’

‘‘चुप… चुप… देख, विमला मौसी इधर ही आ रही हैं. अगर उन के कान में अपने बेटे के खिलाफ एक भी बात पड़ गई न, तो समझ ले हमारी खैर नहीं,’’ नीतू बोली.

सविता बोली, ‘‘पता है मुझे. यही वजह है कि यह बैजू निठल्ला रह गया.’’

विमला की जान अपने बेटे बैजू में ही बसती थी. दोनों मांबेटा ही एकदूसरे का सहारा थे.

बैजू जब 2 साल का था, तभी उस के पिता चल बसे थे. सिलाईकढ़ाई का काम कर के किसी तरह विमला ने अपने बेटे को पालपोस कर बड़ा किया था.

विमला के लाड़प्यार में बैजू इतना आलसी और निकम्मा बनता जा रहा था कि न तो उस का पढ़ाईलिखाई में मन लगता था और न ही किसी काम में. बस, गांव के लड़कों के साथ बैठकर हंसीमजाक करने में ही उसे मजा आता था.

लेकिन बैजू अपनी मां से प्यार बहुत करता था और यही विमला के लिए काफी था. गांव के लोग बैजू के बारे में कुछ न कुछ बोल ही देते थे, जिसे सुन कर विमला आगबबूला हो जाती थी.

एक दिन विमला की एक पड़ोसन ने सिर्फ इतना ही कहा था, ‘‘अब इस उम्र में अपनी देह कितना खटाएगी विमला, बेटे को बोल कि कुछ कमाएधमाए. कल को उस की शादी होगी, फिर बच्चे भी होंगे, तो क्या जिंदगीभर तू ही उस के परिवार को संभालती रहेगी?

‘‘यह तो सोच कि अगर तेरा बेटा कुछ कमाएगाधमाएगा नहीं, तो कौन देगा उसे अपनी बेटी?’’

विमला कहने लगी, ‘‘मैं हूं अभी अपने बेटे के लिए, तुम्हें ज्यादा चिंता करने की जरूरत नहीं है… समझी. बड़ी आई मेरे बेटे के बारे में सोचने वाली. देखना, इतनी सुंदर बहू लाऊंगी उस के लिए कि तुम सब जल कर खाक हो जाओगे.’’

सविता के पिता रामकृपाल डाकिया थे. घरघर जा कर चिट्ठियां बांटना उन का काम था, पर वे अपनी दोनों बेटियों को पढ़ालिखा कर काबिल बनाना चाहते थे. उन की दोनों बेटियां थीं भी पढ़ने में होशियार, लेकिन उन्हें यह पता नहीं था कि उन की बड़ी बेटी सविता अमित नाम के एक लड़के से प्यार करती है और वह उस से शादी के सपने भी देखने लगी है.

यह सच था कि सविता अमित से प्यार करती थी, पर अमित उस से नहीं, बल्कि उस के जिस्म से प्यार करता था. वह अकसर यह कह कर सविता के साथ जिस्मानी संबंध बनाने की जिद करता कि जल्द ही वह अपने मांबाप से दोनों की शादी की बात करेगा.

नादान सविता ने उस की बातों में आ कर अपना तन उसे सौंप दिया. जवानी के जोश में आ कर दोनों ने यह नहीं सोचा कि इस का नतीजा कितना बुरा हो सकता है और हुआ भी, जब सविता को पता चला कि वह अमित के बच्चे की मां बनने वाली है.

जब सविता ने यह बात अमित को बताई और शादी करने को कहा, तो वह कहने लगा, ‘‘क्या मैं तुम्हें बेवकूफ दिखता हूं, जो चली आई यह बताने कि तुम्हारे पेट में मेरा बच्चा है? अरे, जब तुम मेरे साथ सो सकती हो, तो न जाने और कितनों के साथ सोती होगी. यह उन्हीं में से एक का बच्चा होगा.’’

सविता के पेट से होने का घर में पता लगते ही कुहराम मच गया. अपनी इज्जत और सविता के भविष्य की खातिर उसे शहर ले जा कर घर वालों ने बच्चा गिरवा दिया और जल्द से जल्द कोई लड़का देख कर उस की शादी करने का विचार कर लिया.

एक अच्छा लड़का मिलते ही घर वालों ने सविता की शादी तय कर दी. लेकिन ऐसी बातें कहीं छिपती हैं भला.अभी शादी के फेरे होने बाकी थे कि लड़के के पिता ने ऊंची आवाज में कहा, ‘‘बंद करो… अब नहीं होगी यह शादी.’’

शादी में आए मेहमान और गांव के लोग हैरान रह गए. जब सारी बात का खुलासा हुआ, तो सारे गांव वाले सविता पर थूथू कर के वहां से चले गए.

सविता की मां तो गश खा कर गिर पड़ी थीं. रामकृपाल अपना सिर पीटते हुए कहने लगे, ‘‘अब क्या होगा… क्या मुंह दिखाएंगे हम गांव वालों को? कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा इस लड़की ने हमें. बताओ, अब कौन हाथ थामेगा इस का?’’

‘‘मैं थामूंगा सविता का हाथ,’’ अचानक किसी के मुंह से यह सुन कर रामकृपाल ने अचकचा कर पीछे मुड़ कर देखा, तो बैजू अपनी मां के साथ खड़ा था.

‘‘बैजू… तुम?’’ रामकृपाल ने बड़ी हैरानी से पूछा.

विमला कहने लगी, ‘‘हां भाई साहब, आप ने सही सुना है. मैं आप की बेटी को अपने घर की बहू बनाना चाहती हूं और वह इसलिए कि मेरा बैजू आप की बेटी से प्यार करता है.’’

रामकृपाल और उन की पत्नी को चुप और सहमा हुआ देख कर विमला आगे कहने लगी, ‘‘न… न आप गांव वालों की चिंता न करो, क्योंकि मेरे लिए मेरे बेटे की खुशी सब से ऊपर है, बाकी लोग क्या सोचेंगे, क्या कहेंगे, उस से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता है.’’

अब अंधे को क्या चाहिए दो आंखें ही न. उसी मंडप में सविता और बैजू का ब्याह हो गया.

जिस बैजू को देख कर सविता को उबकाई आती थी, उसे देखना तो क्या वह उस का नाम तक सुनना पसंद नहीं करती थी, आज वही बैजू उस की मांग का सिंदूर बन गया. सविता को तो अपनी सुहागरात एक काली रात की तरह दिख रही थी.

‘क्या मुंह दिखाऊंगी मैं अपनी सखियों को, क्या कहूंगी कि जिस बैजू को देखना तक गंवारा नहीं था मुझे, वही आज मेरा पति बन गया. नहीं… नहीं, ऐसा नहीं हो सकता, इतनी बड़ी नाइंसाफी मेरे साथ नहीं हो सकती,’ सोच कर ही वह बेचैन हो गई.

तभी किसी के आने की आहट से वह उठ खड़ी हुई. अपने सामने जब उस ने बैजू को खड़ा देखा, तो उस का पारा सातवें आसमान पर पहुंच गया.

बैजू के मुंह पर अपने हाथ की चूडि़यां निकालनिकाल कर फेंकते हुए सविता कहने लगी, ‘‘तुम ने मेरी मजबूरी का फायदा उठाया है. तुम्हें क्या लगता है कि दो चुटकी सिंदूर मेरी मांग में भर देने से तुम मेरे पति बन गए? नहीं, कोई नहीं हो तुम मेरे. नहीं रहूंगी एक पल भी इस घर में तुम्हारे साथ मैं… समझ लो.’’

बैजू चुपचाप सब सुनता रहा. एक तकिया ले कर उसी कमरे के एक कोने में जा कर सो गया.

सविता ने मन ही मन फैसला किया कि सुबह होते ही वह अपने घर चली जाएगी. तभी उसे अपने मातापिता की कही बातें याद आने लगीं, ‘अगर आज बैजू न होता, तो शायद हम मर जाते, क्योंकि तुम ने तो हमें जीने लायक छोड़ा ही नहीं था. हो सके, तो अब हमें बख्श देना बेटी, क्योंकि अभी तुम्हारी छोटी बहन की भी शादी करनी है हमें…’

कहां ठिकाना था अब उस का इस घर के सिवा? कहां जाएगी वह? बस, यह सोच कर सविता ने अपने बढ़ते कदम रोक लिए.सविता इस घर में पलपल मर रही थी. उसे अपनी ही जिंदगी नरक लगने लगी थी, लेकिन इस सब की जिम्मेदार भी तो वही थी.

कभीकभी सविता को लगता कि बैजू की पत्नी बन कर रहने से तो अच्छा है कि कहीं नदीनाले में डूब कर मर जाए, पर मरना भी तो इतना आसान नहीं होता है. मांबाप, नातेरिश्तेदार यहां तक कि सखीसहेलियां भी छूट गईं उस की. या यों कहें कि जानबूझ कर सब ने उस से नाता तोड़ लिया. बस, जिंदगी कट रही थी उस की.

सविता को उदास और सहमा हुआ देख कर हंसनेमुसकराने वाला बैजू भी उदास हो जाता था. वह सविता को खुश रखना चाहता था, पर उसे देखते ही वह ऐसे चिल्लाने लगती थी, जैसे कोई भूत देख लिया हो. इस घर में रह कर न तो वह एक बहू का फर्ज निभा रही थी और न ही पत्नी धर्म. उस ने शादी के दूसरे दिन ही अपनी मांग का सिंदूर पोंछ लिया था.

शादी हुए कई महीने बीत चुके थे, पर इतने महीनों में न तो सविता के मातापिता ने उस की कोई खैरखबर ली और न ही कभी उस से मिलने आए. क्याक्या सोच रखा था सविता ने अपने भविष्य को ले कर, पर पलभर में सब चकनाचूर हो गया था.

‘शादी के इतने महीनों के बाद भी भले ही सविता ने प्यार से मेरी तरफ एक बार भी न देखा हो, पर पत्नी तो वह मेरी ही है न. और यही बात मेरे लिए काफी है,’ यही सोचसोच कर बैजू खुश हो उठता था.

एक दिन न तो विमला घर पर थी और न ही बैजू. तभी अमित वहां आ धमका. उसे यों अचानक अपने घर आया देख सविता हैरान रह गई. वह गुस्से से तमतमाते हुए बोली, ‘‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई यहां आने की?’’

अमित कहने लगा, ‘‘अब इतना भी क्या गुस्सा? मैं तो यह देखने आया था कि तुम बैजू के साथ कितनी खुश हो? वैसे, तुम मुझे शाबाशी दे सकती हो. अरे, ऐसे क्या देख रही हो? सच ही तो कह रहा हूं कि आज मेरी वजह से ही तुम यहां इस घर में हो.’’

सविता हैरानी से बोली, ‘‘तुम्हारी वजह से… क्या मतलब?’’

‘‘अरे, मैं ने ही तो लड़के वालों को हमारे संबंधों के बारे में बताया था और यह भी कि तुम मेरे बच्चे की मां भी बनने वाली हो. सही नहीं किया क्या मैं ने?’’ अमित बोला.

सविता यह सुन कर हैरान रह गई. वह बोली, ‘‘तुम ने ऐसा क्यों किया? बोलो न? जानते हो, सिर्फ तुम्हारी वजह से आज मेरी जिंदगी नरक बन चुकी है. क्या बिगाड़ा था मैं ने तुम्हारा?

‘‘बड़ा याद आता है मुझे तेरा यह गोरा बदन,’’ सविता के बदन पर अपना हाथ फेरते हुए अमित कहने लगा, तो वह दूर हट गई.

अमित बोला, ‘‘सुनो, हमारे बीच जैसा पहले चल रहा था, चलने दो.’’

‘‘मतलब,’’ सविता ने पूछा.

‘‘हमारा जिस्मानी संबंध और क्या. मैं जानता हूं कि तुम मुझ से नाराज हो, पर मैं हर लड़की से शादी तो नहीं कर सकता न?’’ अमित बड़ी बेशर्मी से बोला.

‘‘मतलब, तुम्हारा संबंध कइयों के साथ रह चुका है?’’

‘‘छोड़ो वे सब पुरानी बातें. चलो, फिर से हम जिंदगी के मजे लेते हैं. वैसे भी अब तो तुम्हारी शादी हो चुकी है, इसलिए किसी को हम पर शक भी नहीं होगा,’’ कहता हुआ हद पार कर रहा था अमित.

सविता ने अमित के गाल पर एक जोर का तमाचा दे मारा और कहने लगी, ‘‘क्या तुम ने मुझे धंधे वाली समझ रखा है. माना कि मुझ से गलती हो गई तुम्हें पहचानने में, पर मैं ने तुम से प्यार किया था और तुम ने क्या किया?

‘‘अरे, तुम से अच्छा तो बैजू निकला, क्योंकि उस ने मुझे और मेरे परिवार को दुनिया की रुसवाइयों से बचाया. जाओ यहां से, निकल जाओ मेरे घर से, नहीं तो मैं पुलिस को बुलाती हूं,’’ कह कर सविता घर से बाहर जाने लगी कि तभी अमित ने उस का हाथ अपनी तरफ जोर से खींचा.

‘‘तेरी यह मजाल कि तू मुझ पर हाथ उठाए. पुलिस को बुलाएगी… अभी बताता हूं,’’ कह कर उस ने सविता को जमीन पर पटक दिया और खुद उस के ऊपर चढ़ गया.

खुद को लाचार पा कर सविता डर गई. उस ने अमित की पकड़ से खुद को छुड़ाने की पूरी कोशिश की, पर हार गई. मिन्नतें करते हुए वह कहने लगी, ‘‘मुझे छोड़ दो. ऐसा मत करो…’’

पर अमित तो अब हैवानियत पर उतारू हो चुका था. तभी अपनी पीठ पर भारीभरकम मुक्का पड़ने से वह चौंक उठा. पलट कर देखा, तो सामने बैजू खड़ा था.

‘‘तू…’’ बैजू बोला.

अमित हंसते हुए कहने लगा, ‘‘नामर्द कहीं के… चल हट.’’ इतना कह कर वह फिर सविता की तरफ लपका. इस बार बैजू ने उस के मुंह पर एक ऐसा जोर का मुक्का मारा कि उस का होंठ फट गया और खून निकल आया.

अपने बहते खून को देख अमित तमतमा गया और बोला, ‘‘तेरी इतनी मजाल कि तू मुझे मारे,’’ कह कर उस ने अपनी पिस्तौल निकाल ली और तान दी सविता पर.

अमित बोला, ‘‘आज तो इस के साथ मैं ही अपनी रातें रंगीन करूंगा.’’ पिस्तौल देख कर सविता की सिट्टीपिट्टी गुम हो गई.

बैजू भी दंग रह गया. वह कुछ देर रुका, फिर फुरती से यह कह कह अमित की तरफ लपका, ‘‘तेरी इतनी हिम्मत कि तू मेरी पत्नी पर गोली चलाए…’’ पर तब तक तो गोली पिस्तौल से निकल चुकी थी, जो बैजू के पेट में जा लगी.

बैजू के घर लड़ाईझगड़ा होते देख कर शायद किसी ने पुलिस को बुला लिया था. अमित वहां से भागता, उस से पहले ही वह पुलिस के हत्थे चढ़ गया. खून से लथपथ बैजू को तुरंत गांव वालों ने अस्पताल पहुंचाया. घंटों आपरेशन चला.

डाक्टर ने कहा, ‘‘गोली तो निकाल दी गई है, लेकिन जब तक मरीज को होश नहीं आ जाता, कुछ कहा नहीं जा सकता.’’

विमला का रोरो कर बुरा हाल था. गांव की औरतें उसे हिम्मत दे रही थीं, पर वे यह भी बोलने से नहीं चूक रही थीं कि बैजू की इस हालत की जिम्मेदार सविता है.

‘सच ही तो कह रहे हैं सब. बैजू की इस हालत की जिम्मेदार सिर्फ मैं ही हूं. जिस बैजू से मैं हमेशा नफरत करती रही, आज उसी ने अपनी जान पर खेल कर मेरी जान बचाई,’ अपने मन में ही बातें कर रही थी सविता.

तभी नर्स ने आ कर बताया कि बैजू को होश आ गया है. बैजू के पास जाते देख विमला ने सविता का हाथ पकड़ लिया और कहने लगी, ‘‘नहीं, तुम अंदर नहीं जाओगी. आज तुम्हारी वजह से ही मेरा बेटा यहां पड़ा है. तू मेरे बेटे के लिए काला साया है. गलती हो गई मुझ से, जो मैं ने तुझे अपने बेटे के लिए चुना…’’

‘‘आप सविता हैं न?’’ तभी नर्स ने आ कर पूछा. डबडबाई आंखों से वह बोली, ‘‘जी, मैं ही हूं.’’

‘‘अंदर जाइए, मरीज आप को पूछ रहे हैं.’’

नर्स के कहने से सविता चली तो गई, पर सास विमला के डर से वह दूर खड़ी बैजू को देखने लगी. उस की ऐसी हालत देख वह रो पड़ी. बैजू की नजरें, जो कब से सविता को ही ढूंढ़ रही थीं, देखते ही इशारों से उसे अपने पास बुलाया और धीरे से बोला, ‘‘कैसी हो सविता?’’

अपने आंसू पोंछते हुए सविता कहने लगी, ‘‘क्यों तुम ने मेरी खातिर खुद को जोखिम में डाला बैजू? मर जाने दिया होता मुझे. बोलो न, किस लिए मुझे बचाया?’’ कह कर वह वहां से जाने को पलटी ही थी कि बैजू ने उस का हाथ पकड़ लिया और बड़े गौर से उस की मांग में लगे सिंदूर को देखने लगा.

‘‘हां बैजू, यह सिंदूर मैं ने तुम्हारे ही नाम का लगाया है. आज से मैं सिर्फ और सिर्फ तुम्हारी हूं,’’ कह कर वह बैजू से लिपट गई.

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