Valentine’s Special- आउटसोर्सिंग: भाग 2

‘तुम्हारा साहस कैसे हुआ मुझ से ऐसी बात कहने का? मैं कोई ऐसीवैसी लड़की नहीं हूं. 2 वर्षों में भी यदि तुम मेरी कमजोरियों और खूबियों को नहीं जान पाए तो भाड़ में जाओ, मेरी बला से,’ मुग्धा पूरी शक्ति लगा कर चीखी थी.

‘इस में इतना नाराज होने की क्या बात है, मुझे कोई जल्दी नहीं है, सोचसमझ लो. अपने मातापिता से सलाहमशविरा कर लो. मैं चोरीछिपे कोई काम करने में विश्वास नहीं करता. आज के अत्याधुनिक मातापिता भी इस में कोई बुराई नहीं देखते. वे भी तो अपने बच्चों को सुखी देखना चाहते हैं.’

‘किसी से विचारविनिमय करने की आवश्यकता नहीं है. मैं स्वयं इस तरह साथ रहने को तैयार नहीं हूं,’ मुग्धा पैर पटकती चली गई थी.

उधर, काम में उस की व्यस्तता बढ़ती ही जा रही थी. किसी और से मेलजोल बढ़ाने का न तो उस के पास समय था और न ही इच्छा. इसलिए जब मां ने उस के विवाह की बात उठाई तो उस ने सारा भार मातापिता के कंधों पर डालने में ही अपनी भलाई समझी.

मुग्धा करवटें बदलतेबदलते कब सो गई, पता भी न चला. प्रात: जब वह उठी तो मन से स्वस्थ थी.

मुग्धा ने अपनी ओर से तुरुप का पत्ता चल दिया था. उस ने सोचा था कि अब कोई उसे विवाह से संबंधित प्रश्न कर के परेशान नहीं करेगा.

पर शीघ्र ही उसे पता चल गया कि उस का विचार कितना गलत था.

मानिनी और राजवंशीजी भला कब चुप बैठने वाले थे. उन्होंने युद्धस्तर पर वर खोजो अभियान प्रारंभ कर दिया था. दोनों पतिपत्नी में मानो नवीन ऊर्जा का संचार हो गया था.

मित्रों, संबंधियों, परिचितों से संपर्क साधा गया. समाचारपत्रों, इंटरनैट का सहारा लिया गया और आननफानन विवाह प्रस्तावों का अंबार लग गया.

ये भी पढ़ें- इतना बहुत है: जिंदगी के पन्ने पलटती एक औरत

वर खोजो अभियान का पता चलते ही मुग्धा के बड़े भाईबहन दौड़े आए.

‘‘क्यों आप अपना पैसा और समय दोनों बरबाद कर रहे हैं. मुग्धा जैसी लड़की आप के द्वारा चुने गए वर से कभी विवाह नहीं करेगी,’’ मुग्धा के सब से बड़े भाई मानस ने तर्क दिया था.

‘‘इस समस्या का समाधान तो तुम मुग्धा से मिल कर ही कर सकते हो. हम ने उस की सहमति से ही यह कार्य प्रारंभ किया है,’’ राजवंशीजी का उत्तर था.

मुग्धा के औफिस से आते ही तीनों भाईबहनों ने उसे घेर लिया था, ‘‘यह क्या मजाक है? तुम अपने लिए एक वर भी स्वयं नहीं ढूंढ़ सकतीं?’’ मुग्धा की बहन मानवी ने प्रश्न किया था.

‘‘मैं बहुत व्यस्त हूं, दीदी. वर खोजो अभियान के लिए समय नहीं है. मम्मीपापा शीघ्र विवाह करने पर जोर दे रहे थे तो मैं ने यह कार्य उन्हीं के कंधों पर डाल दिया. कुछ गलत किया क्या मैं ने?’’

‘‘बिलकुल पूरी तरह गलत किया है तुम ने. बिना किसी को जानेसमझे केवल मांपापा के कहने से तुम विवाह कर लोगी? यह एक दिन का नहीं, पूरे जीवन का प्रश्न है यह भी सोचा है तुम ने,’’ उस के बड़े भैया मानस बोले थे.

‘‘मुझे लगा मम्मीपापा हमारे हितैषी हैं. जिस प्रकार वे इस प्रकरण में सारी छानबीन कर रहे हैं, मैं तो कभी नहीं कर पाती.’’

‘‘क्या छानबीन करेंगे वे, धनदौलत पढ़ाईलिखाई, शक्लसूरत, पारिवारिक पृष्ठभूमि इस से अधिक क्या देखेंगे वे. इस से भी बड़ी कुछ बातें होती हैं,’’ छोटे भैया, जो अब तक चुप थे, गुरुगंभीर वाणी में बोले थे.

‘‘आप शायद ठीक कह रहे हैं पर आप तीनों के वैवाहिक जीवन की भी कुछ जानकारी है मुझे. मानस भैया को नियम से हर माह प्लेटें, प्याले खरीदने पड़ते हैं. नीरजा भाभी को उन्हें फेंकने और तोड़ने का ज्यादा ही शौक है. तन्वी भाभी और अवनीश जीजाजी…’’

‘‘रहने दो, हम यहां अपने वैवाहिक जीवन की कमजोरियां सुनने नहीं, तुम्हें सावधान करने आए हैं. अपने जीवन के साथ यह जुआ क्यों खेल रही हो तुम?’’  मानवी थोड़े ऊंचे स्वर में बोली.

‘‘यह जीवन जुआ ही तो है. हमारा कोई भी निर्णय गलत या सही हो सकता है, इसीलिए मैं ने अपने विवाह की आउटसोर्सिंग करने का निर्णय लिया है,’’ मुग्धा ने मानो अंतिम निर्णय सुना दिया था.

‘‘जैसी तुम्हारी मरजी. जब विवाह निश्चित हो जाए तो हमें बुलाना मत भूलना,’’ तीनों व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोल कर अपनी दुनिया में लौट गए थे.

इधर, मानिनी और राजवंशीजी की चिंता बढ़ती ही जा रही थी. 3 माह बाद ही मुग्धा को आयरलैंड जाना था और एक माह बीतने पर भी कहीं बात बनती नजर नहीं आ रही थी.

ये भी पढ़ें- Serial Story- पछतावा: भाग 2

यों उन के पास प्रस्तावों का अंबार लग गया था पर उन में से उन के काम के 4-5 ही थे. लड़के वालों को मुग्धा से मिलवाने और अन्य औपचारिकताओं का प्रबंध करते हुए उन के पसीने छूटने लगे थे पर बात कहीं बनती नजर नहीं आ रही थी.

उस दिन प्रतिदिन की तरह मुग्धा अपने औफिस गई हुई थी. राजवंशीजी जाड़े की धूप में समाचारपत्र में डूबे हुए थे कि द्वार की घंटी बजी.

राजवंशीजी ने द्वार खोला तो सामने एक सुदर्शन युवक खड़ा था. वे तो उसे देखते ही चकरा गए.

‘‘अरे बेटे तुम? अचानक इस तरह न कोई चिट्ठी न समाचार? अपने मातापिता को नहीं लाए तुम?’’

‘‘जी उन के आने का तो कोई कार्यक्रम ही नहीं था. मां ने आप के लिए कुछ मिठाई आदि भेजी है.’’

‘‘इस की क्या आवश्यकता थी, बेटा? तुम्हारी माताजी भी कमाल करती हैं. आओ, बैठो, मैं अभी आया,’’ युवक को वहीं बिठा कर वे लपक कर अंदर गए थे.

‘‘जल्दी आओ, जनार्दन आया है,’’ वे मानिनी से हड़बड़ा कर बोले थे.

‘‘कौन जनार्दन?’’ मानिनी ने प्रश्न किया था.

‘‘लो, अब यह भी मुझे बताना पड़ेगा? याद नहीं मुग्धा के लिए प्रस्ताव आया था. विदेशी तेल कंपनी में बड़ा अफसर है. याद आया? उन्होंने फोटो भी भेजा था,’’ राजवंशी ने याद दिलाया.

मानिनी ने राजवंशीजी की बात पर विशेष ध्यान नहीं दिया. वे लपक कर ड्राइंगरूम में पहुंचीं, सौम्यसुदर्शन युवक को देख कर उन की बाछें खिल गईं.

युवक ने उन्हें देखते ही अभिवादन किया. उत्तर में मानिनी ने प्रश्नों की बौछार ही कर डाली, ‘‘कैसे आए? घर ढूंढ़ने में कष्ट तो नहीं हुआ? तुम्हारे मातापिता क्यों नहीं आए? वे भी आ जाते तो अच्छा होता, आदिआदि.’’

ये भी पढ़ें- Short Story: प्यार और दौलत

युवक ने बड़ी शालीनता से हर प्रश्न का उत्तर दिया. मानिनी उस की हर भावभंगिमा का बड़ी बारीकी से निरीक्षण कर रही थीं. मन ही मन वे उसे मुग्धा के साथ बिठा कर जोड़ी की जांचपरख भी कर चुकी थीं.

इसी बीच राजवंशीजी जा कर ढेर सारी मिठाईनमकीन आदि खरीद लाए थे. मानिनी ने शीघ्र ही चायनाश्ते का प्रबंध कर दिया था.

Valentine’s Special- आउटसोर्सिंग: भाग 3

‘इतना सबकुछ? अंकल, आप को इतनी औपचारिकता की क्या आवश्यकता थी,’ युवक मेज पर फैली सामग्री को देख कर चौंक गया था.

‘‘बेटे, ये सब हमारे शहर की विशेष मिठाइयां हैं. ये खास कचौडि़यां हमारे शहर की विशेषता है,’’ मानिनी प्लेट में ढेर सी सामग्री डालते हुए बोली थीं.

‘‘मेरी मां ठीक ही कहती हैं, हम दोनों परिवारों के बीच जो प्यार है वह शायद ही कहीं देखने को मिले,’’ युवक प्लेट थामते हुए बोला. मानिनी उलझन में पड़ गईं पर शीघ्र ही उन्होंने संशय को दूर झटका और घर आए अतिथि पर ध्यान केंद्रित कर दिया.

‘‘अच्छा, आंटी, अब मैं चलूंगा. आप दोनों से मिल कर बहुत अच्छा लगा.’’

‘‘अरे, हम ने मुग्धा को फोन किया है, वह आती ही होगी. उस से मिले बिना तुम कैसे जा सकते हो?’’

‘‘उस की क्या आवश्यकता थी? आप ने व्यर्थ ही मुग्धाजी को परेशान किया.’’

‘‘इस में कैसी परेशानी? तुम कौन सा रोज आते हो,’’ राजवंशीजी मुसकराए.

तभी मुग्धा की कार आ कर रुकी. मानिनी और राजवंशीजी लपक कर बाहर पहुंचे. मानिनी उसे पीछे के द्वार से अंदर ले गईं.

‘‘जल्दी से तैयार हो जा. यह जींस टौप बदल कर अच्छा सा सूट पहन ले, बाल खुले छोड़ दे.’’

‘‘क्या कह रही हो मम्मी. किसी से मिलने के लिए इतना सजनेसंवरने की क्या आवश्यकता है?’’

‘‘किसी से नहीं जनार्दन से मिलना है. तू क्या सोचती है बिना बताए वह तुझ से मिलने क्यों आया है?’’

‘‘मुझे क्या पता, मम्मी. मैं आप का फोन मिलते ही दौड़ी चली आई. मुझे लगा किसी की तबीयत अचानक बिगड़ गई है.’’

ये भी पढ़ें- Valentine’s Special- मौन स्वीकृति: भाग 1

‘‘तबीयत बिगड़े हमारे दुश्मनों की. मैं जनार्दन के पास जा रही हूं. तुम जल्दी तैयार हो कर आ जाओ,’’ मानिनी फिर ड्राइंगरूम में जा बैठीं.

मुग्धा तैयार हो कर आई तो दोनों पतिपत्नी बाहर चले गए. दोनों एकदूसरे को जानसमझ लें तो बात आगे बढ़े. वे इस तरह घबराए हुए थे मानो साक्षात्कार देने जा रहे हों.

ये भी पढ़ें- पछतावा: रतन की गिरफ्तारी क्यों हुई?

मुग्धा ड्राइंगरूम में बैठे युवक को अपलक ताकती रह गई.

‘‘आप का चेहरा बड़ा जानापहचाना सा लग रहा है. क्या हम पहले कभी मिल चुके हैं?’’ चायनाश्ते की मेज पर रखी केतली से कप में चाय डालते हुए मुग्धा ने प्रश्न किया.

‘‘जी हां, मैं रूपनगर से आया हूं, कुणाल बाबू मेरे पिता हैं,’’ चाय का कप थामते हुए वह युवक बोला.

‘‘कुणाल बाबू यानी दया इंटर कालेज के पिं्रसिपल?’’

‘‘जी हां, मैं उन का बेटा राजीव हूं. यहां अपने वीसा आदि के लिए आया हूं. मां ने आप लोगों के लिए कुछ मिठाई अपने हाथ से बना कर भेजी है.’’

‘‘अर्थात तुम जनार्दन नहीं राजीव हो. मम्मीपापा तुम्हें न जाने क्या समझ बैठे,’’ मुग्धा खिलखिला कर हंसी तो हंसती ही चली गई. राजीव भी उस की हंसी में उस का साथ दे रहा था.

‘‘मैं सब समझ गया. इसीलिए मेरी इतनी खातिरदारी हुई है.’’

‘‘तुम जनार्दन नहीं हो न सही, खातिर तो राजीव की भी होनी चाहिए. तुम ने हमारे यहां आने का समय निकाला यही क्या कम है?’’ कुछ देर में हंसी थमी तो मुग्धा ने कृतज्ञता व्यक्त की.

‘‘आप और मानस मेरी दीदी के विवाह में आए थे. हम ने खूब मस्ती की थी. उस बात को 7-8 वर्ष बीत गए.’’

‘‘तुम से मिल कर अच्छा लगा, आजकल क्या कर रहे हो. तब तो तुम आईआईटी से इंजीनियरिंग कर रहे थे?’’

‘‘जी, उस के बाद एमबीए किया. अब एक मल्टीनैशनल कंपनी में नौकरी मिल गई है. बीच में 3-4 वर्ष एक प्राइवेट कंपनी में था.’’

‘‘क्या बात है. तुम ने तो कुणाल सर का सिर ऊंचा कर दिया,’’ मुग्धा प्रशंसात्मक स्वर में बोली.

‘‘आप से एक बात कहनी थी मुग्धाजी.’’

‘‘कहो न, क्या बात है?’’

‘‘क्या मैं आप के जीवन का जनार्दन नहीं बन सकता? मैं ने तो जब से अपनी दीदी के विवाह में आप को देखा है, केवल आप के ही स्वप्न देखता रहा हूं.’’

ये भी पढ़ें- शौकीन: आखिर प्रभा अपनी बहन से क्या छिपा रही थी?

मुग्धा राजीव को अपलक निहारती रह गई.

पलभर में ही न जाने कितनी आकृतियां बनीं और बिगड़ गईं. दोनों ने आंखों ही आंखों में मानो मौन स्वीकृति दे दी थी.

मानिनी और राजवंशीजी तो सबकुछ जान कर हैरान रह गए. उन्हें कोई अंतर नहीं पड़ा कि वह जनार्दन नहीं राजीव था. दोनों ने एकदूसरे को पसंद कर लिया था, यही बहुत था.

अगले ही दिन कुणाल बाबू सपत्नीक आ पहुंचे थे. राजवंशीजी और मानिनी सभी आमंत्रित अतिथियों को रस लेले कर सुना रहे थे कि कैसे मुग्धा का भावी वर स्वयं ही उन के दर पर आ खड़ा हुआ था.

पछतावा: रतन की गिरफ्तारी क्यों हुई?

Valentine’s Special- कड़ी: क्या इस कहानी में भी कोई कड़ी थी?

Valentine’s Special- कड़ी: भाग 3

अपूर्वा को यह संभव नहीं लगता क्योंकि उसे और आलोक को अभी तक तो एकदूसरे से कोई ऐसा लगाव है नहीं कि वह ग्रीनकार्ड वापस कर के भारत आ जाए. और अब जब उसे विवेक पसंद आ गया है तो वह कोशिश भी नहीं करेगी. हमें जबरदस्ती ही करनी पड़ेगी दोनों औरतों के साथ.’’

‘‘देखिए धर साहब, अपनी इज्जत तो सभी को प्यारी होती है खासकर अभिजात्य वर्ग की महिलाओं को अपने सोशल सर्किल में,’’ निखिल ने नम्रता से कहा, ‘‘जबरदस्ती करने से तो वे बुरी तरह बिलबिला जाएंगी और उन के ताल्लुकात अपूर्वा और विवेक के साथ हमेशा के लिए बिगड़ सकते हैं.’’

‘‘अपूर्वा और विवेक से ही नहीं, मेरे और केशव नारायण से भी बिगड़ेंगे लेकिन इन सब फालतू बातों से डर कर हम बच्चों की जिंदगी तो खराब नहीं कर सकते न?’’

ये भी पढ़ें- आठवां फेरा : मैरिज सर्टिफिकेट की क्यों पड़ी जरूरत

‘‘कुछ खराब करने की जरूरत नहीं है, धर साहब. धैर्य और चतुराई से बात बन सकती है,’’ निखिल ने कहा, ‘‘मैं यह प्रतियोगिता जीतने की खुशी के बहाने आप को सपरिवार क्लब में डिनर पर आमंत्रित करूंगा और अपनी ससुराल वालों को भी. फिर देखिए मैं क्या करता हूं.’’

जस्टिस धर ने अविश्वास से उस की ओर देखा. निखिल ने धीरेधीरे उन्हें अपनी योजना बताई. जस्टिस धर ने मुसकरा कर उस का हाथ दबा दिया.

निखिल का निमंत्रण सुकन्या ने खुशी से स्वीकार कर लिया. क्लब में बैठने की व्यवस्था देख कर उस ने निखिल से पूछा कि कितने लोगों को बुलाया है?

‘‘केवल जस्टिस धरणीधर के परिवार को?’’

‘‘उन्हें ही क्यों?’’ सुकन्या ने चौंक कर पूछा.

‘‘क्योंकि जस्टिस धर ने मैच जीतने की खुशी में मुझ से दावत मांगी थी. सो, बस, उन्हें बुला लिया और लोगों को बगैर मांगे छोटी सी बात के लिए दावत देना अच्छा नहीं लगता न,’’ निखिल ने समझाने के स्वर में कहा.

तभी धर परिवार आ गया. विवेक और अपूर्वा बड़ी बेतकल्लुफी से एकदूसरे से मिले और फिर बराबर की कुरसियों पर बैठ गए, जस्टिस धर ने आश्चर्य व्यक्त किया, ‘‘तुम एकदूसरे को जानते हो?’’

‘‘जी पापा, बहुत अच्छी तरह से,’’ अपूर्वा ने कहा, ‘‘हम दोनों रोज सुबह टैनिस खेलते हैं.’’

‘‘और तकरीबन 24 घंटे बराबर की कुरसियों पर बैठे रहे हैं अमेरिका से लौटते हुए,’’ विवेक ने कहा.

‘‘शीलाजी, आप ने शादी से पहले कुछ समय अपने साथ गुजारने को बेटी को दिल्ली बुला ही लिया?’’ सुकन्या ने पूछा.

‘‘नहीं आंटी, मैं खुद ही आई हूं,’’ अपूर्वा बोली, ‘‘मम्मी तो अभी भी वापस जाने को कह रही हैं लेकिन मैं नहीं जाने वाली. मुझे अमेरिका पसंद ही नहीं है.’’

‘‘लेकिन तुम्हारी सगाई तो अमेरिका में हो चुकी है,’’ सुकन्या बोली.

‘‘सगाईवगाई कुछ नहीं हुई है,’’ जस्टिस धर बोले, ‘‘बस, हम ने लड़का पसंद किया और उस के मांबाप ने हमारी लड़की. लड़का फिलहाल किसी प्रोजैक्ट पर काम कर रहा है और जब तक प्रोजैक्ट पूरा न हो जाए वह सगाईशादी के चक्कर में पड़ कर ध्यान बंटाना नहीं चाहता. एक तरह से अच्छा ही है क्योंकि उस के प्रोजैक्ट के पूरे होने से पहले ही मेरी बेटी को एहसास हो गया है कि वह कितनी भी कोशिश कर ले उसे अमेरिका पसंद नहीं आ सकता.’’

‘‘विवेक की तरह,’’ केशव नारायण ने कहा, ‘‘इस के मामा ने इसे वहां व्यवस्थित करने में बहुत मदद की थी, नौकरी भी अच्छी मिल गई थी लेकिन जैसे ही यहां अच्छा औफर मिला, यह वापस चला आया.’’

‘‘सुव्यवस्थित होना या अच्छी नौकरी मिलना ही सबकुछ नहीं होता, अंकल,’’ अपूर्वा बोली, ‘‘जिंदगी में सकून या आत्मतुष्टि भी बहुत जरूरी है जो वहां नहीं मिल सकती.’’

‘‘यह तो बिलकुल विवेक की भाषा बोल रही है,’’ निकिता ने कहा.

‘‘भाषा चाहे मेरे वाली हो, विचार इस के अपने हैं,’’ विवेक बोला.

‘‘यानी तुम दोनों हमखयाल हो?’’ निखिल ने पूछा.

‘‘जी, जीजाजी, हमारे कई शौक और अन्य कई विषयों पर एक से विचार हैं.’’

‘‘यह तो बड़ी अच्छी बात है,’’ निखिल शीला और सुकन्या की ओर मुड़ा, ‘‘आप इन दोनों की शादी क्यों नहीं कर देतीं.’’

‘‘क्या बच्चों वाली बातें कर रहे हो निखिल?’’ सुकन्या ने चिढ़े स्वर में कहा, ‘‘ब्याहशादी में बहुतकुछ देखा जाता है. क्यों शीलाजी?’’

‘‘आप ठीक कहती हैं, सिर्फ मिजाज का मिलना ही काफी नहीं होता,’’ शीला ने हां में हां मिलाई.

‘‘और क्या देखा जाता है?’’ निखिल ने चिढ़े स्वर में पूछा. ‘‘कुल गोत्र, पारिवारिक स्तर, और योग्यता वगैरा, वे तो दोनों के ही खुली किताब की तरह सामने हैं बगैर किसी खामी के…’’

‘‘फिर भी यह रिश्ता नहीं हो सकता,’’ सुकन्या और शीला एकसाथ बोलीं.

‘‘क्योंकि इस पर वरवधू की माताओं के महिला क्लब के सदस्यों की स्वीकृति की मुहर नहीं लगी है,’’ जस्टिस धर ने कहा.

ये भी पढ़ें- परवरिश : सोचने पर क्यों विवश हुई सुजाता

‘‘यह तो आप ने बिलकुल सही फरमाया, जज साहब,’’ केशव नारायण ठहाका लगा कर हंसे, ‘‘वही मुहर तो सुकन्या और शीलाजी की मानप्रतिष्ठा का प्रतीक है.’’ दोनों महिलाओं ने आग्नेय नेत्रों से अपनेअपने पतियों को देखा, इस से पहले कि वे कुछ बोलतीं, निखिल बोल पड़ा, ‘‘उन की मुहर मैं लगवा दूंगा, उन्हें एक बढि़या सी दावत दे कर जिस में विवेक और अपूर्वा सब के पांव छू कर आशीर्वाद के रूप में स्वीकृति प्राप्त कर लेंगे.’’

‘‘आइडिया तो बहुत अच्छा है, निखिल, लेकिन कन्या और वर की माताओं की समस्या का हल नहीं है,’’ जस्टिस धर ने उसांस ले कर कहा, ‘‘असल में शीला ने सब को बताया हुआ है कि उस का होने वाला दामाद अमेरिका में रहता है.’’

‘‘यह बात तो है,’’ निखिल कुछ सोचते हुए बोला, ‘‘आप ने सब को लड़के का नाम वगैरा बताया है आंटी?’’

‘‘नहीं, बस इतना ही बताया था कि अमेरिका में अनिल के पड़ोस में रहता है. हमें अच्छा लगा और हम ने अपूर्वा के लिए पसंद कर लिया.’’

‘‘उस के मांबाप के बारे में बताया था?’’

‘‘कुछ नहीं. किसी ने पूछा भी नहीं.’’

‘‘तो फिर तो समस्या हल हो गई, साले साहब भी तो अमेरिका से ही लौटे हैं, इन्हें अनिल का पड़ोसी बना दीजिए न. आप ने तो विवेक का अमेरिका का एड्रैस अपनी सहेलियों को नहीं दिया हुआ न, मां?’’ निखिल ने सुकन्या से पूछा.

‘‘हमारी सहेलियों को यह सब पूछने की फुरसत नहीं है, निखिल. लेकिन वे इतनी बेवकूफ भी नहीं हैं कि तुम्हारी बचकानी बातें सुन कर यह मान लें कि विवेक वही लड़का है जो शीलाजी अमेरिका में पसंद कर के आई थीं,’’ सुकन्या ने झल्ला कर कहा, ‘‘वे मुझ से पूछेंगी नहीं कि मैं ने यह, बात उन सब को क्यों नहीं बताई?’’

‘‘क्योंकि आप नहीं चाहती थीं कि जब तक सगाईशादी की तारीख पक्की न हो, वे सब आप दोनों को समधिन बना कर क्लब के अनौपचारिक माहौल और आप के रिश्तों को खराब करें,’’ निखिल बोला.

‘‘यह बात तो निखिलजी ठीक कह रहे हैं, सुकन्या और पिछली मीटिंग में ही किसी के पूछने पर कि आप ने विवेक के लिए कोई लड़की पसंद की या नहीं. आप ने कहा था कि लड़की तो पसंद है लेकिन जिस से शादी करनी है उसे तो फुरसत मिले. विवेक आजकल बहुत व्यस्त है,’’ शीला ने कुछ सोचते हुए कहा.

‘‘तो अगली मीटिंग में कह दीजिएगा कि विवेक को फुरसत मिल गई है और फलां तारीख को उस की सगाई है. अगली मीटिंग से पहले तारीख तय कर लीजिए,’’ निखिल ने कहा.

‘‘वह तो हमें अभी तय कर लेनी चाहिए, क्यों धर साहब?’’ केशव नारायण ने पूछा.

‘‘जी हां, इस से पहले कि कोई और शंका उठे.’’

‘‘तो ठीक है आप लोग तारीख तय करिए, हम लोग पीने के लिए कोई बढि़या चीज ले कर आते हैं,’’ निखिल उठ खड़ा हुआ. ‘‘चलो विवेक, अपूर्वा और निक्की तुम भी आ जाओ.’’

ये भी पढ़ें- रीते हाथ : सपनों के पीछे भागती उमा

‘‘कमाल कर दिया जीजाजी आप ने भी,’’ विवेक ने कुछ दूर जाने के बाद कहा. ‘‘समझ नहीं पा रहा आप को जादूगर कहूं या जीनियस?’’

‘‘जीनियसवीनियस कुछ नहीं, साले साहब,’’ निखिल मुसकराया, ‘‘मैं तो महज एक अदना सी कड़ी हूं आप दोनों का रिश्ता जोड़ने वाली.’’

‘‘अदना नहीं, अनमोल कड़ी, जीजाजी,’’ अपूर्वा विह्वल स्वर में बोली.

Valentine’s Special- कड़ी: भाग 2

घर जाने के बाद विवेक का फोन आया कि मां बहुत बिगड़ीं कि अगर वह कह कर भी लड़की देखने नहीं गईं तो उन की क्या इज्जत रह जाएगी. तो मैं ने कह दिया कि मेरी इज्जत का क्या होगा जब मैं वादा तोड़ कर शादी करूंगा? पापा ने मेरा साथ दिया कि मां ने तो सिर्फ प्रस्ताव रखा है और मैं वादा कर चुका हूं. सो, मां गुड़गांव वालों को फिलहाल तो लड़के की व्यस्तता का बहाना बना कर टाल दें.

जैसा निकिता का खयाल था, अगली सुबह मां का फोन आया कि वह किसी तरह भी समय निकाल कर उन से मिलने आए. निकिता तो इस इंतजार में थी ही, वह तुरंत मां के घर पहुंच गई. मां ने उसे उत्तेजित स्वर में सब बताया, गुड़गांव वाली डाक्टर लड़की की तारीफ की और कहा, ‘‘महज इसलिए कि अमेरिका के रहनसहन पर विवेक और अपूर्वा के विचार मिलते हैं और वह उसी से शादी करना चाहता है, मैं उस लड़की को अपने घर की बहू नहीं बना सकती.’’

ये भी पढ़ें- हैलमैट: सबल सिंह क्यों पहनते थे हैलमेट

‘‘पापा क्या कहते हैं?’’

‘‘उन के लिए तो जस्टिस धरणीधर के घर बेटे की बरात ले कर जाना बहुत गर्व और खुशी की बात है,’’ मां ने चिढ़े स्वर में कहा.

‘‘तो आप किस खुशी में बापबेटे की खुशी में रुकावट डाल रही हैं, मां?’’

‘‘क्योंकि सब सहेलियों में मजाक तो मेरा ही बनेगा कि सुकन्या को बेटे से बड़ी लड़की ही मिली अपनी बहू बनाने को.’’

‘‘आप ने अपनी सहेलियों को विवेक की उम्र बताई है?’’

‘‘नहीं. उस का तो कभी जिक्र ही नहीं आया.’’

‘‘तो फिर उन्हें कैसे पता चलेगा कि अपूर्वा विवेक से बड़ी है क्योंकि लगती तो छोटी है?’’

‘‘शीलाजी कहती थीं कि लड़का उन के बेटे का पड़ोसी है. सो, शादी तय होने के बाद अकसर ही वह उन के घर आता होगा और लड़की उस के घर जाती होगी. क्या गारंटी है कि लड़की कुंआरी है?’’

‘‘अमेरिका से विक्की जो पिकनिक वगैरा की फोटो भेजा करता था उस में उस के साथ कितनी लड़कियां होती थीं? आप क्या अपने बेटे के कुंआरे होने की गारंटी ले सकती हैं?’’

सुकन्या के चुप रहने से निकिता की हिम्मत बढ़ी.

‘‘गुड़गांव वाली लड़की के बायोडाटा के अनुसार, वह भी किसी विशेष ट्रेनिंग के लिए 2 वषों के लिए अमेरिका गई थी. सो, गारंटी तो उस के बारे में भी नहीं ली जा सकती. अपूर्वा को नापसंद करने के लिए आप को कोई और वजह तलाश करनी होगी, मां.’’

‘‘यही वजह क्या काफी नहीं है कि वह विवेक से बड़ी है और मांबाप का तय किया रिश्ता नकार रही है?’’

तभी निकिता का मोबाइल बजा. निखिल का फोन था पूछने को कि मां निकिता को समझा सकी या नहीं और सब सुनने पर बोला कि यह क्लब की सहेलियों वाली समस्या तो शायद अपूर्वा की मां के साथ भी होगी. सो, बेहतर रहेगा कि दोनों सहेलियों को एकसाथ ही समझाया जाए.

‘‘मगर यह होगा कैसे?’’ निकिता ने पूछा.

‘‘साथ बैठ कर सोचेंगे. फिलहाल तुम मां से ज्यादा मत उलझो और किसी बहाने से घर वापस चली जाओ. मैं विवेक को शाम को वहीं बुला लेता हूं,’’ कह कर निखिल ने फोन रख दिया.

जैसा कि अपेक्षित था, सुकन्या ने पूछा. ‘‘किस का फोन था?’’

‘‘निखिल का पूछने को कि शाम को कुछ लोगों को डिनर पर बुला लें?’’

‘‘तो तू ने क्या कहा?’’

‘‘यही कि जरूर बुलाएं. मैं जाते हुए बाजार से सामान ले जाऊंगी और निखिल के लौटने से पहले सब तैयारी कर दूंगी.’’

‘‘और मैं ने जो तुझे अपनी समस्या सुलझाने व बापबेटे को समझाने को बुलाया है, उस का क्या होगा?’’  सुकन्या ने चिढ़े स्वर में पूछा.

‘‘आप की तो कोई समस्या ही नहीं है, मां. आप सीधी सी बात को उलझा रही हैं और आप के एतराज से जब मैं खुद ही सहमत नहीं हूं तो पापा या विक्की को क्या समझाऊंगी?’’ कह कर निकिता उठ खड़ी हुई. सुकन्या ने भी उसे नहीं रोका.

शाम को निखिल व विवेक इकट्ठे ही घर पहुंचे.

‘‘अपूर्वा को सब बात बता कर पूछता हूं कि क्या उस की मां के साथ भी यह समस्या आएगी,’’ विवेक ने निखिल की बात सुनने के बाद कहा और बरामदे में जा कर अपूर्वा से मोबाइल पर बात करने लगा.

‘‘आप का कहना सही है, जीजाजी, अपूर्वा कहती है कि घर में सिर्फ मां ही को उस का रिश्ता तोड़ने पर एतराज है वह भी इसलिए कि लोग, खासकर उन की महिला क्लब की सहेलियां, क्या कहेंगी. रिश्ता तो खैर टूट ही रहा है क्योंकि जस्टिस धर ने अपने बेटे को आलोक से बात करने को कह दिया है. लेकिन मेरे साथ रिश्ता जोड़ने में भी उस की मां जरूर अडं़गा लगाएंगी, यह तो पक्का है,’’ विवेक ने कहा.

ये भी पढ़ें- और तो सब ठीकठाक है : कैसे थे चौधरी जगत नारायण

‘‘आलोक से रिश्ता खत्म हो जाने दो, फिर तुम्हारे से जोड़ने की प्रक्रिया शुरू करेंगे. मां के कुछ कहने पर यही कहो कि कुछ दिनों तक सिवा अपने काम के, तुम किसी और विषय पर सोचना नहीं चाहते. अपूर्वा को आश्वासन दे दो कि उस की शादी तुम्हीं से होगी,’’ निखिल ने कहा.

‘‘मगर कैसे? 2 जिद्दी औरतों को मनाना आसान नहीं है, निखिल,’’ निकिता ने कहा.

‘‘पापा को तो बीच में डालना नहीं चाहता क्योंकि तब मां उन से और अपूर्वा दोनों से चिढ़ जाएंगी,’’ निखिल कुछ सोचते हुए बोला. ‘‘पापा से इजाजत ले कर मैं ही जस्टिस धरणीधर से बात करूंगा.’’

‘‘मगर पापा या जस्टिस धर की ओर से तो कोई समस्या है ही नहीं,’’ विवेक ने कहा.

‘‘मगर जिन्हें समस्या है, उन दोनों को एकसाथ कैसे धाराशायी किया जा सके, यह तो उन से बात कर के ही तय किया जा सकता है. फिक्र मत करो साले साहब, मैं उसी काम की जिम्मेदारी लेता हूं जिसे पूरा कर सकूं,’’ निखिल ने बड़े इत्मीनान से कहा, ‘‘जस्टिस धर के साथ खेलने का मौका तो नहीं मिला लेकिन बिलियर्ड्स रूम में अकसर मुलाकात हो जाती है. सो, दुआसलाम है. उसी का फायदा उठा कर उन से इस विषय में बात करूंगा.’’

कुछ दिनों के बाद क्लब में आयोजित एक बिलियर्ड प्रतियोगिता जीतने पर जस्टिस धर ने उस के खेल की तारीफ की, तो निखिल ने उन्हें अपने साथ कौफी पीने के लिए कहा और उस दौरान उन्हें विवेक व अपूर्वा के बारे में बताया.

जस्टिस धर के यह कहने पर कि उन्हें तो अपूर्वा के लिए ऐसे ही घरवर की तलाश है. सो, वे विवेक और उस के पिता केशव नारायण से मिलना चाहेंगे. निखिल ने कहा कि वे तो स्वयं ही उन से मिलना चाहते हैं, लेकिन समस्या सुकन्या के एतराज की है, महिला क्लब के सदस्यों को ले कर और यह समस्या अपूर्वा की माताजी की भी हो सकती है.

ये भी पढ़ें- आठवां फेरा : मैरिज सर्टिफिकेट की क्यों पड़ी जरूरत

‘‘अपूर्वा की माताजी के महिला क्लब की सदस्यों ने तो मेरी नाक में दम कर रखा है,’’ जस्टिस धर ने झल्ला कर कहा, ‘‘शीला स्वयं भी नहीं चाहती कि अपूर्वा शादी कर के अमेरिका जाए लेकिन सब सहेलियों को बता चुकी है कि उस का होने वाला दामाद अमेरिका में इंजीनियर है. सो, उन के सामने अपनी बात बदलना नहीं चाहती, इसलिए अपूर्वा को समझा रही है कि फिर अमेरिका जाए और आलोक को बहलाफुसला कर भारत में रहने को मना ले.

Valentine’s Special- कड़ी: भाग 1

बृहस्पति की शाम को विवेक को औफिस से सीधे अपने घर आया देख कर निकिता चौंक गई.

‘‘खैरियत तो है?’’

‘‘नहीं दीदी,’’ विवेक ने बैठते हुए कहा, ‘‘इसीलिए आप से और निखिल जीजाजी से मदद मांगने आया हूं, मां मुझे लड़की दिखाने ले जा रही है.’’

निखिल ठहाका लगा कर हंस पड़ा और निकिता भी मुसकराई.

‘‘यह तो होना ही है साले साहब. गनीमत करिए, अमेरिका से लौटने के बाद मां ने आप को 3 महीने से अधिक समय दे दिया वरना रिश्तों की लाइन तो आप के आने से पहले ही लगनी शुरू हो गई थी.’’

‘‘लेकिन मैं लड़की पसंद कर चुका हूं जीजाजी और यह फैसला भी कि शादी करूंगा तो उसी से.’’

‘‘तो यह बात मां को बताने में क्या परेशानी है, लड़की अमेरिकन है क्या?’’

‘‘नहीं जीजाजी. आप को शायद याद होगा, दीदी, जब मैं अमेरिका से आया था तो एयरपोर्ट पर मेरे साथ एक लड़की भी बाहर आई थी?’’

ये भी पढ़ें- तुम ही चाहिए ममू : क्या राजेश ममता से अलग रह पाया

निकिता को याद आया, विवेक के साथ एक लंबी, पतली युवती को आते देख कर उस ने मां से कहा था, ‘विक्की के साथ यह कौन है, मां? पर जो भी हो दोनों की जोड़ी खूब जम रही है.’ मां ने गौर से देख कर कहा था, ‘जोड़ी भले ही जमे मगर बन नहीं सकती. यह जस्टिस धरणीधर की बेटी अपूर्वा है और इस की शादी अमेरिका में तय हो चुकी है, शादी से पहले कुछ समय मांबाप के साथ रहने आई होगी’.

निकिता ने मां की कही बात विवेक को बताई.

‘‘तय जरूर हुई है लेकिन शादी होगी नहीं. मेरी तरह अपूर्वा को भी अमेरिका में रहना पसंद नहीं है और वह हमेशा के लिए भारत लौट आई है,’’ निकिता की बात सुन कर विवेक ने कहा.

‘‘उस ने यह फैसला तुम से मुलाकात के बाद लिया?’’

‘‘मुझ से तो उस की मुलाकात प्लेन में हुई थी, दीदी. बराबर की सीट थी, सो, इतने लंबे सफर में बातचीत तो होनी ही थी. मेरे से यह सुन कर कि मैं हमेशा के लिए वापस जा रहा हूं, उस ने बताया कि उस का इरादा भी वही है. उस के बड़े भाई और भाभी अमेरिका में ही हैं.

‘‘पिछले वर्ष घरपरिवार अपने बेटे के पास बोस्टन गया था. वहां जस्टिस धर को पड़ोस में रहने वाला आलोक अपूर्वा के लिए पसंद आ गया. अपूर्वा के यह कहने पर कि उसे अमेरिका पसंद नहीं है, उस की भाभी ने सलाह दी कि बेहतर रहे कि वीसा की अवधि तक अपूर्वा वहीं रुक कर कोई अल्पकालीन कोर्स कर ले ताकि उसे अमेरिका पसंद आ जाए. सब को यह सलाह पसंद आई. संयोग से आलोक के मातापिता भी उन्हीं दिनों अपने बेटे से मिलने आ गए और सब ने मिल कर आलोक और अपूर्वा की शादी की बात पक्की कर दी और यह तय किया कि शादी आलोक का प्रोजैक्ट पूरा होने के बाद करेंगे.

‘‘अपूर्वा को आलोक या उस के घर वालों से कोई शिकायत नहीं है. बस, अमेरिका की भागदौड़ वाली जिंदगी खासकर ‘यूज ऐंड थ्रो’ वाला रवैया कोशिश के बावजूद भी पसंद नहीं आ रहा. भाईभावज ने कहा कि वह बगैर आलोक से कुछ कहे, पहले घर जाए और फिर कुछ फैसला करे. मांबाप भी उस से कोई जोरजबरदस्ती नहीं कर रहे मगर उन का भी यही कहना है कि वह रिश्ता तोड़ने में अभी जल्दबाजी न करे क्योंकि आलोक के प्रोजैक्ट के पूरे होने में अभी समय है. तब तक हो सकता है अपूर्वा अपना फैसला बदल ले. यह जानते हुए कि उस का फैसला कभी नहीं बदलेगा, अपूर्वा आलोक को सच बता देना चाहती है ताकि वह समय रहते किसी और को पसंद कर सके.’’

‘‘उस के इस फैसले में आप का कितना हाथ है साले साहब?’’

‘‘यह उस का अपना फैसला है, जीजाजी. हालांकि मैं ने उस से शादी करने का फैसला प्लेन में ही कर लिया था मगर उस से कुछ नहीं कहा. टैनिस खेलने के बहाने उस से रोज सुबह मिलता हूं. आज उस के कहने पर कि समझ नहीं आ रहा मम्मीपापा को कैसे समझाऊं कि आलोक को ज्यादा समय तक अंधेरे में नहीं रखना चाहिए, मैं ने कहा कि अगर मैं उन से उस का हाथ मांग लूं तो क्या बात बन सकती है तो वह तुरंत बोली कि सोच क्या रहे हो, मांगो न. मैं ने कहा कि सोचना मुझे नहीं, उसे है क्योंकि मैं तो हमेशा नौकरी करूंगा और वह भी अपने देश में ही. सो, आलोक जितना पैसा कभी नहीं कमा पाऊंगा. उस का जवाब था कि फिर भी मेरे साथ वह आलोक से ज्यादा खुश और आराम से रहेगी.’’

‘‘इस से ज्यादा और कहती भी क्या, मगर परेशानी क्या है?’’ निखिल ने पूछा.

‘‘मां की तरफ से तो कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए क्योंकि अपूर्वा की मां शीला से उन की जानपहचान है…’’

‘‘वही जानपहचान तो परेशानी की वजह है, दीदी,’’ विवेक ने बात काटी, ‘‘मां कहती हैं कि अपूर्वा की मां ने उन्हें जो बताया है वह सुनने के बाद वे उसे अपनी बहू कभी नहीं बना सकतीं.’’

‘‘शीला धर से मां की मुलाकात सिर्फ महिला क्लब की मीटिंग में होती है और बातचीत तभी जब संयोग से दोनों बराबर में बैठें. मैं नहीं समझती कि इतनी छोटी सी मुलाकात में कोई भी मां अपनी बेटी के बारे में कुछ आपत्तिजनक बात करेगी.’’

‘‘मां उन से मिली जानकारी को आपत्तिजनक बना रही हैं जैसे लड़की की उम्र मुझ से ज्यादा है…’’

‘‘तो क्या हुआ?’’ निकिता ने बात काटी, ‘‘लगती तो तुम से छोटी ही है और आजकल इन बातों को कोई नहीं मानता. मैं समझाऊंगी मां को.’’

ये भी पढ़ें- प्रायश्चित : सुधीर के व्यवहार से हैरान थी सुधि

‘‘यही नहीं और भी बहुतकुछ समझाना होगा, दीदी,’’ विवेक ने उसांस ले कर कहा, ‘‘फिलहाल तो शनिवार की शाम को गुड़गांव में जो लड़की देखने जाने का कार्यक्रम बना है, उसे रद करवाओ.’’

‘‘मुझे तो मां ने इस बारे में कुछ नहीं बताया.’’

‘‘कुछ देर पहले मुझे फोन किया था कि शनिवारइतवार को कोई प्रोग्राम मत रखना क्योंकि शनिवार को गुड़गांव जाना है लड़की देखने और अगर पसंद आ गई तो इतवार को रोकने की रस्म कर देंगे. मैं ने टालने के लिए कह दिया कि अभी मैं एक जरूरी मीटिंग में हूं, बाद में फोन करूंगा. मां ने कहा कि जल्दी करना क्योंकि मुझे निक्की और निखिल को भी चलने के लिए कहना है.’’

निखिल फिर हंस पड़ा,

‘‘यानी मां ने जबरदस्त नाकेबंदी की योजना बना ली है. पापा भी शामिल हैं इस में?’’

‘‘शायद नहीं, जीजाजी. सुबह मैं और पापा औफिस जाने के लिए इकट्ठे ही निकले थे. तब मां ने कुछ नहीं कहा था.’’

‘‘मां योजना बनाने में स्वयं ही सिद्धहस्त हैं. उन्हें किसी को शामिल करने या बताने की जरूरत नहीं है. उन के फैसले के खिलाफ पापा भी नहीं बोल सकते,’’ निकिता ने कहा.

‘‘तुम्हारा मतलब है साले साहब को गुड़गांव लड़की देखने जाना ही पड़ेगा,’’ निखिल बोला.

‘‘जब उसे वहां शादी करनी ही नहीं है तो जाना गलत है. तुम कई बार शनिवार को भी काम करते हो विवेक, सो, मां से कह दो कि तुम्हें औफिस में काम है और फिर चाहे अपूर्वा के साथ या मेरे घर पर दिन गुजार लो.’’

‘‘औफिस में वाकई काम है, दीदी. लेकिन उस से समस्या हल नहीं होगी. मां लड़की वालों को यहां बुला लेंगी.’’

‘‘तुम चाहो तो मां को समझाने के लिए विवेक के साथ जा सकती हो, निक्की. मैं बच्चों को खाना खिलाने के बाद सुला भी दूंगा.’’

‘‘तब तो मां और भी चिढ़ जाएंगी कि मैं ने दीदी से उन की शिकायत की है. फिलहाल तो दीदी को मुझे यह समझाना है कि गुड़गांव वाला परिच्छेद खुलने से पहले बंद कैसे करूं. और जब मां मेरी शिकायत दीदी से करें तो वह कैसे बात संभालेंगी,’’ विवेक ने कहा.

निकिता ने विवेक को समझाया कि वह मां से कह दे कि न तो वह उन की मरजी के बगैर शादी करेगा और न अपनी मरजी के बगैर. सो, लड़की देखने जाने का सवाल ही नहीं उठता.

Valentine’s Special- कोई अपना: शालिनी के जीवन में बहार आने को थी

Valentine’s Special- कोई अपना: भाग 3

उन के जाने के बाद मेरा क्रोध पति पर उतरा, ‘‘आप ही बांध लेना इसे, मुझे नहीं पहनना इसे.’’ ‘‘अरे बाबा, 2-3 सौ रुपए की साड़ी होगी, किसी बहाने कीमत चुका देंगे. तुम तो बिना वजह अड़ ही जाती हो. इतने प्यार से कोई कुछ दे तो दिल नहीं तोड़ना चाहिए.’’

‘‘यह प्यारव्यार सब दिखावा है. आप से कर्ज लिया है न उन्होंने, उसी का बदला उतार रहे होंगे.’’ ‘‘50 हजार रुपए में न बिकने वाला क्या 2-3 सौ रुपए की साड़ी में बिक जाएगा? पगली, मैं ने दुनिया देखी है, प्यार की खुशबू की मुझे पहचान है.’’

ये भी पढ़ें- नीला पत्थर : आखिर क्या था काकी का फैसला

मैं निरुत्तर हो गई. परंतु मन में दबा अविश्वास मुझे इस भाव में उबार नहीं पाया कि वास्तव में कोई बिना मतलब भी हम से मिल सकता है. वह साड़ी अटैची में कहीं नीचे रख दी, ताकि न वह मुझे दिखाई दे और न ही मेरा जी जले. समय बीतता रहा और इसी बीच ढेर सारे कड़वे सत्य मेरे स्वभाव पर हावी होते रहे. बेरुखी और सभी को अविश्वास से देखना कभी मेरी प्रकृति में शामिल नहीं था. मगर मेरे आसपास जो घट रहा था, उस से एक तल्खी सी हर समय मेरी जबान पर रहने लगी. मेरे भीतर और बाहर शीतयुद्ध सा चलता रहता. भीतर का संवेदनशील मन बाहर के संवेदनहीन थपेड़ों से सदा ही हार जाता. धीरेधीरे मैं बीमार सी भी रहने लगी, वैसे कोई रोग नहीं था, मगर कुछ तो था, जो दीमक की तरह चेतना को कचोट और चाट रहा था.

एक सुबह जब मेरी आंख अस्पताल में खुली तो हैरान रह गई. घबराए से पति पास बैठे थे. मैं हड़बड़ा कर उठने लगी, मगर शरीर ने साथ ही नहीं दिया.

‘‘शालिनी,’’ पति ने मेरा हाथ कस कर पकड़ लिया, ‘‘अब कैसी हो?’’ मुझे ग्लूकोज चढ़ाया जा रहा था. पति की बढ़ी दाढ़ी बता रही थी कि उन्होंने 2-3 दिनों से हजामत नहीं बनाई.

‘‘शालिनी, तुम्हें क्या हो गया था?’’ पति ने हौले से पूछा. मैं खुद हैरान थी कि मुझे क्या हो गया है? बाद में पता चला कि 2 दिन पहले सुबह उठी थी, लेकिन उष्ण रक्तचाप से चकरा कर गिर पड़ी थी.

‘‘बच्चों को तो नहीं बुला लिया?’’ मैं ने पति से पूछा. ‘‘नहीं, उन के इम्तिहान हैं न.’’

‘‘अच्छा किया.’’ ‘‘सुनीलजी, अब आप घर जा कर नहाधो लीजिए, हम भाभीजी के पास बैठेंगे. आप चिंता मत कीजिए, अब खतरे की कोई बात…’’ किसी का स्वर कानों में पड़ा तो मेरी आंखें खुलीं.

‘‘अरे, भाभीजी को होश आ गया,’’ स्वर में एक उल्लास भर आया था, ‘‘भाईसाहब, मैं अभी उर्मि को फोन कर के आता हूं.’’ वह युवक बाहर निकल गया, पर मैं उसे पहचान न सकी.

‘‘तुम ने तो मुझे डरा ही दिया था. ऐसा लग रहा था, इतने बड़े संसार में अकेला हो गया हूं. बच्चों के इम्तिहान चल रहे हैं, उन्हें बुला नहीं सकता था और इस अजनबी शहर में ऐसा कौन था जिस पर भरोसा करता,’’ पति ने मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा. मेरी आंखों के कोर भीग गए थे. ऐसा लगा मेरा अहं किसी कोने से जरा सा संतुष्ट हो गया है. सोचती थी, पति की जिंदगी में मेरी जरूरत ही नहीं रही. जब उन्हें रोते देखा तो लगा, मेरा अस्तित्व इतना भी महत्त्वहीन नहीं है.

मैं 2 दिन और अस्पताल में रही. इस बीच वह युवक लगातार मेरे पति की सहायता को आता रहा.

जब अस्पताल से लौटी तो कल्पना के विपरीत मेरा घर साफसुथरा था. शरीर में कमजोरी थी, मगर मन स्वस्थ था, जिस का सहारा ले कर मैं ने पति से ठिठोली की, ‘‘मुझे नहीं पता था, तुम घर की देखभाल भी कर सकते हो.’’ ‘‘यह सब उर्मि ने किया है. सचमुच अगर वे लोग सहारा न देते तो पता नहीं क्या होता.’’

‘‘उर्मि कौन?’’ ‘‘वही पतिपत्नी जो तुम्हें एक बार साड़ी उपहार में दे गए थे…’’

‘‘क्या?’’ मैं अवाक रह गई. ‘‘पता नहीं, किस ने उन्हें बताया कि तुम अस्पताल में हो. दोनों सीधे वहीं पहुंच गए. तुम्हें खून चढ़ाने की नौबत आ गई थी, उर्मि ने ही अपना खून दिया. मैं उस का ऋण जीवन में कभी नहीं चुका सकता.

‘‘वही हमारे घर को भी संभाले रही. आज सुबह ही अपने घर वापस गई है. शायद, दोपहर को फिर आएगी.’’ ‘‘और उस का बुटीक?’’

‘‘वह तो कब का बंद हो चुका है. उस के ससुर उन दोनों को अपने घर ले गए हैं. बैंक का कर्ज तो उन्होंने कब का वापस दे दिया. वे तो बस प्यार के मारे हमारा हालचाल पूछने आए थे. और हमें हमेशा के लिए अपना ऋणी बना गए.’’ अनायास मैं रो पड़ी और सोचने लगी कि मेरे पति ठीक ही कहते थे कि हमें तो बस अपना काम ईमानदारी से करना है. अच्छे लोग मिलें या बुरे, ईमानदार हों या बेईमान, बस, उन का हमारे चरित्र पर कोई प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए. कुछ लोग हमें खरीदना चाहते हैं तो कुछ आदर दे कर मांबाप का दरजा भी तो देते हैं. इस संसार में हर तरह के लोग हैं, फिर हम उन की वजह से अपना स्वभाव क्यों बिगाड़ें, क्यों अपना मन भारी करें?

ये भी पढ़ें- ई-ग्रुप : रजनी को पति की बांहों में होना था

‘‘तुम्हारे कपड़े निकाल देता हूं, नहाओगी न?’’ पति के प्रश्न ने चौंका दिया. मैं वास्तव में नहाधो कर तरोताजा होना चाहती थी. मैं ने अटैची से वही गुलाबी साड़ी निकाली, जिसे पहले खोल कर भी नहीं देखा था.

दोपहर को उर्मि हमारा दोपहर का भोजन ले कर आई. मैं समझ नहीं पा रही थी कि कैसे उस का स्वागत करूं. ‘‘अरे, आप कितनी सुंदर लग रही हैं,’’ उस ने समीप आ कर कहा. फिर थोड़ा रुक गई, संभवतया मेरा रूखा व्यवहार उसे याद आ गया होगा.

मैं समझ नहीं पाई कि क्यों रो पड़ी. उस प्यारी सी युवती को मैं ने बांह से पकड़ कर पास खींचा और गले से लगा लिया.

‘‘आप को दीदी कह सकती हूं न?’’ उस ने हौले से पूछा. ‘‘अवश्य, अब तो खून का रिश्ता भी है न,’’ मेरे मन से एक भारी बोझ उतर गया था. ऐसा लगा, वास्तव में कोई अपना मिल गया है. सस्नेह मैं ने उस का माथा चूम लिया.

फिर उस ने मुझे और मेरे पति को खाना परोसा. ‘‘तुम्हारी ससुराल वाले कैसे हैं?’’ मैं ने धीरे से पूछा तो वह उदास सी हो गई.

‘‘संसार में सब को सबकुछ तो नहीं मिल जाता न, दीदी. सासससुर तो बहुत अच्छे हैं, परंतु मेरे मांबाप आज तक नाराज हैं. मैं तरस जाती हूं किसी ऐसे घर के लिए जिसे अपना मायका कह सकूं.’’ ‘‘मैं…मैं हूं न, इसी घर को अपना मायका मान लो, मुझे बहुत प्रसन्नता होगी.’’

सहसा उर्मि मेरी गोद में सिर रख कर रो पड़ी. मेरे पति पास खड़े मुसकरा रहे थे. उस के बाद उर्मि हमारी अपनी हो गई. उस घटना को 8 साल बीत गए हैं. हमारा स्थानांतरण 2 जगह और हुआ. फिर से अच्छेबुरे लोगों से पाला पड़ा, परंतु मेरा मन किसी से बंधा नहीं. उर्मि आज भी मेरी है, मेरी अपनी है. मैं अकसर यह सोच कर स्नेह और प्रसन्नता से सराबोर हो जाती हूं कि निकट संबंधियों के अलावा इस संसार में मेरा कोई अपना भी है.

ये भी पढ़ें- सच्चा प्यार : जब दो दिल मिले

Valentine’s Special- कोई अपना सा: भाग 2

इसी कारण मैं ने उस युवती को टाल दिया. फिर शीतल पेय उन के सामने रख, पंखा तेज कर दिया क्योंकि गरमी बहुत ज्यादा थी. वे दोनों बारबार पसीना पोंछ रहे थे.

चंद क्षणों के बाद उस युवक ने पूछा, ‘‘सुनीलजी कितने बजे तक आ जाते हैं?’’ ‘‘कोई निश्चित समय नहीं है. वैसे अच्छा होगा, आप उन से कार्यालय में ही मिलें. ऐसा है कि वे घर पर किसी से मिलना पसंद नहीं करते.’’

‘‘जी, औफिस में उन के पास समय ही कहां होता है.’’ ‘‘इस विषय में मैं आप की कोई भी मदद नहीं कर सकती. बेहतर होगा, आप उन से वहीं मिलें,’’ ढकेछिपे शब्दों में ही सही, मैं ने उन्हें फिर वह कहानी दोहराने से रोक दिया जिस की टीस अकसर मेरे मन में उठती रहती थी.

ये भी पढ़ें- नाजुक गुंडे : कौन थे वो नाजुक गुंडे

वे दोनों अपना सा मुंह ले कर चले गए. उन के इस तरह उदास हो कर जाने पर मुझे दुख हुआ, परंतु क्या करती? शाम को पति को सब सुनाया तो वे हंस पड़े, ‘‘ऐसा कहने की क्या जरूरत थी, उन की नईनई शादी हुई है. प्रेमविवाह किया है. दोनों के घर वालों ने कुछ नहीं दिया. सो, कर्ज ले कर कोई काम शुरू करना चाहता है. घर चला आया तो हमारा क्या ले गया. तुम प्यार से बात कर लेतीं, तो कौन सा नुकसान हो जाता?’’

‘‘लेकिन काम हो जाने के बाद तो ये मजे से अपना पल्ला झटक लेंगे.’’ ‘‘झटक लें, हमारा क्या ले जाएंगे. देखो शालिनी, हम समाज से कट कर तो नहीं रह सकते. मैं बैंक अधिकारी हूं, मुझ से तो वही लोग मिलेंगे, जिन्हें मुझ से काम होगा. अब क्या हम किसी के साथ हंसेंबोलें भी नहीं? कोई आता है या बुलाता है तो इस में कोई खराबी नहीं है. बस, एक सीमारेखा खींचनी चाहिए कि इस के पार नहीं जाना. भावनात्मक नाता बनाने की कोई जरूरत नहीं है. यों मिलो, जैसे हजारों जानने वाले मिलते हैं. इतनी मीठी भी न बनो कि कोई चट कर जाए और इतनी कड़वी भी नहीं कि कोई थूक दे.’’

मेरे पति ने व्यावहारिकता का पाठ पढ़ा दिया, जो मेरी समझ में तो आ गया, मगर भावुकता से भरा मन उसे सहज स्वीकार कर पाया अथवा नहीं, समझ नहीं पाई.

एक शाम एक दंपती हमारे यहां आए. बातचीत के दौरान पत्नी ने कहा, ‘‘अब आप कार क्यों नहीं ले लेते.’’ ‘‘कभी जरूरत ही महसूस नहीं हुई. जब लगेगा कार होनी चाहिए तब ले लेंगे,’’ मैं ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘फिर भी भाभीजी, भाईसाहब बैंक में उच्चाधिकारी हैं, स्कूटर पर आनाजाना अच्छा नहीं लगता.’’ ‘‘क्यों, हमें तो बुरा नहीं लगता. कृपया आप विषय बदल लीजिए. हमारी जिंदगी में दखल न ही दें तो अच्छा है.’’

बच्चे बाहर पढ़ रहे थे, जिस वजह से कमरतोड़ खर्चा बड़ी मुश्किल से हम सह रहे थे. ईमानदार इंसान इन सारे खर्चों के बीच भला कहां कार और अन्य सुविधाओं के विषय में सोच सकता है. उस पर तुर्रा यह कि कोई आ कर यह जता जाए कि अब हमें स्कूटर शोभा नहीं देता, तो भला कैसे सुहा सकता है. एक बार तो कमाल ही हो गया. हमें किसी के जन्मदिन की पार्टी में जाना पड़ा. मेजबान ने मुझे घर की मालकिन से मिलाया, ‘‘आप सुनीलजी की पत्नी हैं और ये हैं मेरी पत्नी सुलेखा.’’ कीमती जेवरों से लदी आधुनिका मुझे देख ज्यादा प्रसन्न नहीं हुईं. फीकी सी मुसकान से मेरा स्वागत कर अन्य मेहमानों में व्यस्त हो गईं. पति को तो 2-3 लोगों ने बैंक की बातों में उलझा लिया, लेकिन मैं अकेली रह गई. चुपचाप एक तरफ बैठी रही. अचानक हाथ में गिलास थामे एक आदमी ने कहा, ‘‘आप सुनीलजी की पत्नी हैं?’’

‘‘जी हां,’’ मैं ने उत्तर दिया. ‘‘भाभीजी, आप से एक बात करनी थी…जरा सुनीलजी को समझाइए न, पूरे 50 हजार रुपए देने को तैयार हूं. आप कहिए न, मेरा काम हो जाएगा. अरे, ईमानदारी से रोटी ही चलती है, बस? आखिर वे कितना कमा लेते होंगे, यही 14-15 हजार…कितनी बार कहा है, हम से हाथ मिला लें…’’

मैं उस धूर्त व्यापारी को जवाब दिए बगैर ही वहां से उठ खड़ी हुई थी. मेरे पति पूरी बात सुन कर हैरान रह गए. मैं ने तनिक गुस्से से कहा, ‘‘आज के बाद ऐसी पार्टियों में मत ले जाना. मेरा वहां दम घुटता है.’’ ‘‘कोई बात नहीं, शालिनी, तुम एक कान से सुनो, दूसरे से निकाल दो. आजकल हर तीसरा इंसान बिकाऊ है. शायद वह सोचता होगा, तुम से बात कर के उस का काम आसान हो जाएगा.’’

मैं रो पड़ी थी. फिर कितने दिन सामान्य नहीं हो पाई थी. इसी बीच फिर खाने का दावतनामा मिला तो मैं ने तुनक कर कहा, ‘‘मैं कहीं नहीं जाऊंगी.’’

‘‘उन लोगों ने हम दोनों को खासतौर पर बुलाया है. छोटा सा काम शुरू किया है, उसी खुशी में.’’ ‘‘मुझे किसी के काम से क्या लेनादेना है, आप ही चले जाइए.’’

ये भी पढ़ें- सच्चा प्यार : जब दो दिल मिले

‘‘ऐसा नहीं सोचते, शालिनी, वे हमारा इतना मान करते हैं, सभी एकजैसे नहीं होते.’’

पति ने बहुत जिद की थी, मगर मैं टस से मस न हुई. वे अकेले ही चले गए. जब पति 2 घंटे बाद लौटे तो कोई साथ था.

‘‘नमस्ते, भाभीजी,’’ एक नारी स्वर कानों में पड़ा, सामने एक युवा जोड़ा खड़ा था. ऐसा लगा, इस से पहले कहीं इन से मिल चुकी हूं. ‘‘आप हमारे घर नहीं आईं, इसलिए सोचा, हम ही आप से मिल आएं,’’ महिला ने कहा.

‘‘बैठिए,’’ मैं ने सोफे की तरफ इशारा किया. उस के हाथ में रंगदार कागज में कुछ लिपटा था, जिसे बढ़ कर मेरे हाथ में देने लगी. मुझे लगा, बिच्छू है उस में, जो मुझे डस ही जाएगा. मैं ने जरा तीखी आवाज में कहा, ‘‘नहींनहीं, यह सब हमारे यहां…’’

‘‘यह मेरे बुटीक की पहली पोशाक है. हमारे मांबाप ने तो हमें दुत्कार ही दिया था. लेकिन सुनील भाईसाहब की कृपा से हमें कर्ज मिला और छोटा सा काम खोला. हमें आप लोगों का बहुत सहारा है, आप ही अब हमारे मांबाप हैं. कृपया मेरी यह भेंट स्वीकार करें,’’ कहतेकहते वह रो पड़ी. मैं भौचक्की सी रह गई कि पत्थरों के इस शहर में कोई रो भी रहा है. वह कड़वाहट जिसे मैं पिछले कई सालों से ढो रही थी, क्षणभर में ही न जाने कहां लुप्त हो गई.

‘‘भाभीजी, आप इसे स्वीकार कर लें, वरना इस का दिल टूट जाएगा,’’ इस बार उस के पति ने बात संभाली. मैं ने उस के हाथ से पैकेट ले कर खोला, उस में गुलाबी रंग की कढ़ाई की हुई सफेद साड़ी थी.

‘‘आप घर नहीं आईं, इसलिए हम स्वयं ही देने चले आए. आप इसे पहनेंगी न?’’ ‘‘हांहां, जरूर पहनूंगी, मगर इस की कीमत कितनी है?’’

‘‘वह तो हम ने लगाई ही नहीं, आप पहन लेंगी तो कीमत अपनेआप मिल जाएगी.’’ ‘‘नहींनहीं, भला ऐसा कैसे होगा,’’ फिर मेरा स्वर कड़वा होने लगा था. मैं कुछ और भी कहती, इस से पहले मेरे पति ने ही वह साड़ी ले कर मेज पर रख दी, ‘‘हमें यह साड़ी पसंद है, शालिनी इसे अवश्य पहनेगी. और गुलाबी रंग तो इसे बहुत प्रिय है.’’

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें