लेखक- नीरज कुमार मिश्रा
‘‘महविश… तू क्या ये बोरों और कपड़ों की कतरनों पर कढ़ाई किया करती है, फालतू में… कम उम्र में ही चश्मा चढ़ जाएगा,’’ अम्मी अकसर डांटतीं तो दादी बीचबचाव करते हुए कहतीं, ‘‘अरे, उस के हाथों में हुनर है, तो तुझे क्यों जलन हो रही है… और फिर वे तो बेकार पड़े कपड़ों पर ही तो कशीदाकारी करती रहती है…
‘‘इसे देख कर मुझे भी अपनी जवानी के दिन याद आ जाते हैं. जैसे कल की ही बात हो… न जाने कितनी चादरें, शालें और तकियों के लिहाफ काढ़ा करती थी मैं.’’
दादी की बात सुन कर अम्मी ने महविश के हाथों से कपड़े का टुकड़ा छीना और उलटपलट कर देखने लगीं और जातेजाते बोलीं, ‘‘हां, ठीक तो है… पर घर के और काम भी कर लिया कर.’’
अम्मी के हाथों से कपड़े का टुकड़ा जैसे ही महविश के हाथों में आया, मानो उस के सूखे हुए जिस्म में जान ही लौट आई. उस ने झट से कपड़े को अपने बैग में सब से नीचे ठूंस दिया.
कितनी खूबसूरती से महविश ने फूलों की कढ़ाई के बीच सिराज के नाम की कढ़ाई की थी. कोई पारखी नजरों वाला ही उस के छिपे नाम को ढूंढ़ सकता था.
सिराज महविश के भाई फैज का दोस्त था और पढ़ाई के सिलसिले में अकसर उस के साथ घर आताजाता था.
जब सिराज आता तो महविश को पता नहीं क्या हो जाता. थोड़ी सी घबराहट, तो थोड़ी सी मुसकराहट महविश के होंठों पर आनेजाने लगती. उस की नजरें बारबार सिराज की नजरों से मिलने को बेताब रहतीं, पर सिराज था जो कभी महविश की तरफ देखता भी नहीं था.
इस की एक वजह थी कि सिराज अपने कैरियर को ले कर संजीदा था और उस का पूरा ध्यान अपनी पढ़ाई पर ही था. दूसरी वजह थी कि उस के घर की माली हालत फैज के मुकाबले कमजोर थी, जिस की वजह से वह सोच में रहता था.
सिराज एक गरीब परिवार से था. उस के अब्बा चीनी मिल में एक मामूली कांटा क्लर्क थे और उस की 2 बहनें और भी थीं. बमुश्किल ही उन लोगों के परिवार की गुजरबसर हो पाती थी, इसीलिए सिराज पढ़लिख कर एक काबिल अफसर बनना चाहता था.
महविश और सिराज के घर आसपास ही थे और दोनों घरों के लोग भी एकदूसरे को अच्छी तरह जानते थे.
महविश को सिराज की संजीदगी बहुत भाती थी. उसे तो अपने लिए हमेशा से ही सिराज जैसा शौहर चाहिए था, जो बातचीत करने में अच्छा हो, शरीफ हो, जिस का शरीर दरमियाना हो और चेहरे पर हलकी दाढ़ी हो तो कहना ही क्या… हां, अगर दाढ़ी ज्यादा घनी हो तो वह महविश को कतई नहीं भाता था.
‘तुम मुझे पसंद हो और मैं तुम से शादी करना चाहती हूं,’ यह बात महविश ने सिराज को कितनी बार बतानी चाही, पर बात हर बार पूरी न हो पाती.
‘‘इस बार सिराज पूरे 25 साल के हो गए हैं, पर अदाएं तो यों दिखाते हैं जैसे अभी बच्चे ही हों… लगता है, मुझे खुद ही अपने निकाह की बात और पहल ही सिराज से करनी होगी,’’ अपनेआप से ही बुदबुदा रही थी महविश और इस काम के लिए महविश ने अपने मकान की छत को अपना रास्ता बनाया…
सिराज और महविश की छत आपस में मिली हुई थी और बड़ी आसानी से एकदूसरे की छतों पर आयाजाया जा सकता था. एक रात जब महविश के घर के सारे लोग सो गए, तो वह दबे पैर छत पर आई और सिराज के घर की छत पर पहुंच कर धीरे से नीचे उतर गई.
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चूंकि सिराज के घर वाले नीचे रहते थे और ऊपर के कमरे में सिराज ही देर रात तक पढ़ाई करता था, इसलिए महविश बड़े आराम से सिराज के कमरे में थी और ठीक उस के सामने खड़ी थी.
‘‘अरे महविश, तुम यहां… और वह भी इतनी रात गए,’’ सिराज ने हैरान हो कर पूछा.
महविश ने उसे चुप रहने का इशारे किया और बिना कुछ बोले सिराज की ओर बढ़ गई. आज इश्क का इकरार जो करना था. महविश की सांसों के तेज चलने से उस का सीना उठबैठ रहा था. महविश के जिस्म की तपन सिराज भी महसूस कर सकता था, पर वह बुत बना खड़ा था.
अचानक पता नहीं क्या हुआ कि महविश सिराज के गले से बुरी तरह लिपट गई. महविश के जिस्म की खुशबू सिराज के पूरे जेहन को मदहोश कर रही थी. सिराज ने भी अपने हाथ महविश की कमर पर कस दिए और दोनों के जिस्म एकदूसरे से जवानी के मजे की मांग करने लगे.
अचानक महविश अलग हुई और अपने दुपट्टे को सीने पर डालते हुए उखड़ी सांसों को सही करते हुए बोली, ‘‘देखो सिराज, मैं यहां इतनी रात गए तुम्हारे साथ कोई गलत काम करने नहीं आई हूं, बल्कि मैं तो तुम से इतना कहना चाहती हूं कि मुझे तुम से इश्क हो गया है और मैं तुम से निकाह करना चाहती हूं.’’
सिराज तो मानो सन्न रह गया था. थोड़ी देर तक तो वह महविश को देखता ही रह गया, फिर बोला, ‘‘नहीं महविश… मेरा निकाह तुम से होना मुमकिन ही नहीं है.’’
‘‘क्यों…? क्यों नहीं है मुमकिन… आखिर मैं किसी से खराब हूं क्या… इस पूरे महल्ले में कोई है भी, जो मेरे हुस्न की बराबरी कर सके,’’ महविश गुस्से में आने के साथसाथ थोड़ा इठला भी रही थी.
‘‘हां… नहीं है कोई तुम्हारे जैसा… जानता हूं मैं… पर दिक्कत तो कहीं और है.’’
‘‘पर, मुझे तो कोई दिक्कत नहीं दिखती,’’ महविश ने कहा.
‘‘देखो महविश, मेरे और तुम्हारे बीच पैसे और रहनसहन की एक बड़ी खाई?है… हमारे घर पर दो वक्त की दालरोटी भी बमुश्किल से चल पाती है और तुम्हारे घर तो रोज ही गोश्त पकता है… हमारे घर पर हम लोग अपने कपड़े खुद ही धोते है, जबकि तुम लोगों के कपड़े वाशिंग मशीन से धुलते हैं और वे भी नौकरानी उन्हें धोती है…
‘‘कहां तुम्हारे ये डिजाइनर कपड़े… और कहां ये मेरा कुरतापाजामा. और फिर तुम्हारे मकान का बाथरूम और हमारा सोने का कमरा एक बराबर है… भला हम में और तुम में कहां कोई रिश्ते की गुंजाइश है?’’
कुछ देर रुकने के बाद सिराज ने आगे कहना शुरू किया, ‘‘देखो महविश, मैं भी तुम से उतना ही प्यार करता हूं, जितना कि तुम… पर, मैं चाह कर भी तुम से निकाह नहीं कर सकता, क्योंकि मैं तुम्हारे ये भारीभरकम खर्चे नहीं उठा सकता… अब तुम यहां से चली जाओ. कहीं मैं अपनी बदहाली पर रो ही न पड़ूं,’’ सिराज ने कहा.
‘‘पर, मैं तो तुम्हारे साथ हर हालात में गुजारा करने को तैयार हूं… मैं कहां तुम से कुछ मांग कर रही हूं.’’
‘‘हां, महविश… मांग तो तुम नहीं कर रही हो, पर क्या तुम उमस भरी रात में बिना एसी और बिना पंखे के रह सकती हो? क्या तुम बिना फिल्टर किया हुआ पानी पी सकती हो? और क्या तुम मेरे साथ बस और आटोरिकशा में सफर कर सकती हो?’’ सिराज ने पूछा.
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‘‘हां… हां, मैं तुम्हें पाने के लिए सबकुछ कर सकती हूं,’’ महविश ने यह बात इतने यकीन से कही थी कि सिराज को कुछ कहते न बना.
अभी महविश कुछ और कहने ही जा रही थी कि नीचे मकान में कुछ हलचल हुई, जिस के चलते महविश को वापस भागना पड़ा.
सिराज वैसे तो हद दर्जे का पढ़ाकू था और घर की जिम्मेदारियां समझने वाला लड़का था, पर उस दिन महविश के शरीर की छुअन से उस के जवान दिल में उमंगें पैदा कर दी थीं.
और यही वजह थी कि उस दिन के बाद सिराज और महविश में ह्वाटसएप पर सुबहसुबह मैसेज भेजना शुरू हो जाता था और दोनों एकदूसरे को मुहब्बत भरी शायरी भी भेजा करते थे.
‘‘आखिर महविश में कोई बुराई तो नहीं,’’ सिराज अपनेआप से बात कर रहा था.
‘‘हां… बस यही बुराई है महविश में कि उस में कोई बुराई नहीं… वह अच्छे घर से है… पढ़ीलिखी है और खूबसूरत भी… परिवार को ले कर चलने वाली है… अम्मीअब्बू का भी खूब ध्यान कर लेगी वह… और सब से बड़ी बात ये है कि वह मुझ से बहुत इश्क करती है,’’ बुदबुदा रहा था सिराज.