Women’s Day Special- महविश और सिराज: भाग 1

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

‘‘महविश… तू क्या ये बोरों और कपड़ों की कतरनों पर कढ़ाई किया करती है, फालतू में… कम उम्र में ही चश्मा चढ़ जाएगा,’’ अम्मी अकसर डांटतीं तो दादी बीचबचाव करते हुए कहतीं, ‘‘अरे, उस के हाथों में हुनर है, तो तुझे क्यों जलन हो रही है… और फिर वे तो बेकार पड़े कपड़ों पर ही तो कशीदाकारी करती रहती है…

‘‘इसे देख कर मुझे भी अपनी जवानी के दिन याद आ जाते हैं. जैसे कल की ही बात हो… न जाने कितनी चादरें, शालें और तकियों के लिहाफ काढ़ा करती थी मैं.’’

दादी की बात सुन कर अम्मी ने महविश के हाथों से कपड़े का टुकड़ा छीना और उलटपलट कर देखने लगीं और जातेजाते बोलीं, ‘‘हां, ठीक तो है… पर घर के और काम भी कर लिया कर.’’

अम्मी के हाथों से कपड़े का टुकड़ा जैसे ही महविश के हाथों में आया, मानो उस के सूखे हुए जिस्म में जान ही लौट आई. उस ने झट से कपड़े को अपने बैग में सब से नीचे ठूंस दिया.

कितनी खूबसूरती से महविश ने फूलों की कढ़ाई के बीच सिराज के नाम की कढ़ाई की थी. कोई पारखी नजरों वाला ही उस के छिपे नाम को ढूंढ़ सकता था.

सिराज महविश के भाई फैज का दोस्त था और पढ़ाई के सिलसिले में अकसर उस के साथ घर आताजाता था.

जब सिराज आता तो महविश को पता नहीं क्या हो जाता. थोड़ी सी घबराहट, तो थोड़ी सी मुसकराहट महविश के होंठों पर आनेजाने लगती. उस की नजरें बारबार सिराज की नजरों से मिलने को बेताब रहतीं, पर सिराज था जो कभी महविश की तरफ देखता भी नहीं था.

इस की एक वजह थी कि सिराज अपने कैरियर को ले कर संजीदा था और उस का पूरा ध्यान अपनी पढ़ाई पर ही था. दूसरी वजह थी कि उस के घर की माली हालत फैज के मुकाबले कमजोर थी, जिस की वजह से वह सोच में रहता था.

सिराज एक गरीब परिवार से था. उस के अब्बा चीनी मिल में एक मामूली कांटा क्लर्क थे और उस की 2 बहनें और भी थीं. बमुश्किल ही उन लोगों के परिवार की गुजरबसर हो पाती थी, इसीलिए सिराज पढ़लिख कर एक काबिल अफसर बनना चाहता था.

महविश और सिराज के घर आसपास ही थे और दोनों घरों के लोग भी एकदूसरे को अच्छी तरह जानते थे.

महविश को सिराज की संजीदगी बहुत भाती थी. उसे तो अपने लिए हमेशा से ही सिराज जैसा शौहर चाहिए था, जो बातचीत करने में अच्छा हो, शरीफ हो, जिस का शरीर दरमियाना हो और चेहरे पर हलकी दाढ़ी हो तो कहना ही क्या… हां, अगर दाढ़ी ज्यादा घनी हो तो वह महविश को कतई नहीं भाता था.

‘तुम मुझे पसंद हो और मैं तुम से शादी करना चाहती हूं,’ यह बात महविश ने सिराज को कितनी बार बतानी चाही, पर बात हर बार पूरी न हो पाती.

‘‘इस बार सिराज पूरे 25 साल के हो गए हैं, पर अदाएं तो यों दिखाते हैं जैसे अभी बच्चे ही हों… लगता है, मुझे खुद ही अपने निकाह की बात और पहल ही सिराज से करनी होगी,’’ अपनेआप से ही बुदबुदा रही थी महविश और इस काम के लिए महविश ने अपने मकान की छत को अपना रास्ता बनाया…

सिराज और महविश की छत आपस में मिली हुई थी और बड़ी आसानी से एकदूसरे की छतों पर आयाजाया जा सकता था. एक रात जब महविश के घर के सारे लोग सो गए, तो वह दबे पैर छत पर आई और सिराज के घर की छत पर पहुंच कर धीरे से नीचे उतर गई.

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चूंकि सिराज के घर वाले नीचे रहते थे और ऊपर के कमरे में सिराज ही देर रात तक पढ़ाई करता था, इसलिए महविश बड़े आराम से सिराज के कमरे में थी और ठीक उस के सामने खड़ी थी.

‘‘अरे महविश, तुम यहां… और वह भी इतनी रात गए,’’ सिराज ने हैरान हो कर पूछा.

महविश ने उसे चुप रहने का इशारे किया और बिना कुछ बोले सिराज की ओर बढ़ गई. आज इश्क का इकरार जो करना था. महविश की सांसों के तेज चलने से उस का सीना उठबैठ रहा था. महविश के जिस्म की तपन सिराज भी महसूस कर सकता था, पर वह बुत बना खड़ा था.

अचानक पता नहीं क्या हुआ कि महविश सिराज के गले से बुरी तरह लिपट गई. महविश के जिस्म की खुशबू सिराज के पूरे जेहन को मदहोश कर रही थी. सिराज ने भी अपने हाथ महविश की कमर पर कस दिए और दोनों के जिस्म एकदूसरे से जवानी के मजे की मांग करने लगे.

अचानक महविश अलग हुई और अपने दुपट्टे को सीने पर डालते हुए उखड़ी सांसों को सही करते हुए बोली, ‘‘देखो सिराज, मैं यहां इतनी रात गए तुम्हारे साथ कोई गलत काम करने नहीं आई हूं, बल्कि मैं तो तुम से इतना कहना चाहती हूं कि मुझे तुम से इश्क हो गया है और मैं तुम से निकाह करना चाहती हूं.’’

सिराज तो मानो सन्न रह गया था. थोड़ी देर तक तो वह महविश को देखता ही रह गया, फिर बोला, ‘‘नहीं महविश… मेरा निकाह तुम से होना मुमकिन ही नहीं है.’’

‘‘क्यों…? क्यों नहीं है मुमकिन… आखिर मैं किसी से खराब हूं क्या… इस पूरे महल्ले में कोई है भी, जो मेरे हुस्न की बराबरी कर सके,’’ महविश गुस्से में आने के साथसाथ थोड़ा इठला भी रही थी.

‘‘हां… नहीं है कोई तुम्हारे जैसा… जानता हूं मैं… पर दिक्कत तो कहीं  और है.’’

‘‘पर, मुझे तो कोई दिक्कत नहीं दिखती,’’ महविश ने कहा.

‘‘देखो महविश, मेरे और तुम्हारे बीच पैसे और रहनसहन की एक बड़ी खाई?है… हमारे घर पर दो वक्त की दालरोटी भी बमुश्किल से चल पाती है और तुम्हारे घर तो रोज ही गोश्त पकता है… हमारे घर पर हम लोग अपने कपड़े खुद ही धोते है, जबकि तुम लोगों के कपड़े वाशिंग मशीन से धुलते हैं और वे भी नौकरानी उन्हें धोती है…

‘‘कहां तुम्हारे ये डिजाइनर कपड़े… और कहां ये मेरा कुरतापाजामा. और फिर तुम्हारे मकान का बाथरूम और हमारा सोने का कमरा एक बराबर है… भला हम में और तुम में कहां कोई रिश्ते की गुंजाइश है?’’

कुछ देर रुकने के बाद सिराज ने आगे कहना शुरू किया, ‘‘देखो महविश, मैं भी तुम से उतना ही प्यार करता हूं, जितना कि तुम… पर, मैं चाह कर भी तुम से निकाह नहीं कर सकता, क्योंकि मैं तुम्हारे ये भारीभरकम खर्चे नहीं उठा सकता… अब तुम यहां से चली जाओ. कहीं मैं अपनी बदहाली पर रो ही न पड़ूं,’’ सिराज ने कहा.

‘‘पर, मैं तो तुम्हारे साथ हर हालात में गुजारा करने को तैयार हूं… मैं कहां तुम से कुछ मांग कर रही हूं.’’

‘‘हां, महविश… मांग तो तुम नहीं कर रही हो, पर क्या तुम उमस भरी रात में बिना एसी और बिना पंखे के रह सकती हो? क्या तुम बिना फिल्टर किया हुआ पानी पी सकती हो? और क्या तुम मेरे साथ बस और आटोरिकशा में सफर कर सकती हो?’’ सिराज ने पूछा.

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‘‘हां… हां, मैं तुम्हें पाने के लिए सबकुछ कर सकती हूं,’’ महविश ने यह बात इतने यकीन से कही थी कि सिराज को कुछ कहते न बना.

अभी महविश कुछ और कहने ही जा रही थी कि नीचे मकान में कुछ हलचल हुई, जिस के चलते महविश को वापस भागना पड़ा.

सिराज वैसे तो हद दर्जे का पढ़ाकू था और घर की जिम्मेदारियां समझने वाला लड़का था, पर उस दिन महविश के शरीर की छुअन से उस के जवान दिल में उमंगें पैदा कर दी थीं.

और यही वजह थी कि उस दिन के बाद सिराज और महविश में ह्वाटसएप पर सुबहसुबह मैसेज भेजना शुरू हो जाता था और दोनों एकदूसरे को मुहब्बत भरी शायरी भी भेजा करते थे.

‘‘आखिर महविश में कोई बुराई  तो नहीं,’’ सिराज अपनेआप से बात कर रहा था.

‘‘हां… बस यही बुराई है महविश में कि उस में कोई बुराई नहीं… वह अच्छे घर से है… पढ़ीलिखी है और खूबसूरत भी… परिवार को ले कर चलने वाली है… अम्मीअब्बू का भी खूब ध्यान कर लेगी वह… और सब से बड़ी बात ये है कि वह मुझ से बहुत इश्क करती है,’’ बुदबुदा रहा था सिराज.

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Women’s Day Special- महविश और सिराज: भाग 3

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

महविश एक नौकरी कर के अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती थी, ताकि वह सिराज को यह बता सके कि उस की और सिराज की मिलीजुली होने वाली आमदनी से उन का घर अच्छी तरह से चल जाएगा, पर नौकरी न मिल पाने की नौबत में वह परेशान रहने लगी.

आज बगल वाली छत पर काफी हलचल थी. शहर से नुसरत की बड़ी बहन नेमत जो आई थी, सारे बच्चे उन्हीं के आगेपीछे घूम रहे थे, पर महविश का मन उधर न लगता था. वह तो बस एक बोरे को हाथ में ले कर उस पर ऊन से कढ़ाई कर रही थी.

नुसरत की बहन नेमत ने छत से इधर देखा, तो देखती ही रह गईं, उन की नजर तो महविश के हाथों में फंसे जूट के बोरे पर रंगबिरंगी ऊन से बनते फूलों और गुलदस्तों से हट ही नहीं रही थीं.

किसी को अपनी तरफ घूरते देख कर महविश चौंक पड़ी.

‘‘अरे, ऐसे क्या देख रही?हैं?’’

‘‘देख रही हूं कि क्या हुनर है तुम्हारे हाथों में… किस तरह से तुम्हारी सूई इस ऊन से जूट की बोरी पर रंगबिरंगी शक्ल देती जा रही है और जिस तरह तुम इस काम में डूबी हुई नजर आती हो. लगता है कि कोई शायर अपनी गजल लिख रहा हो,’’ नेमत ने कहा.

‘‘जी शुक्रिया,’’ महविश ने मुसकरा कर कहा.

‘‘मगर तुम अपने इस हुनर को दुनिया के सामने क्यों नहीं लाती… और फिर इस काम से तो कमाई का जरीया भी बनेगा,’’ नेमत ने कहा.

कमाई की बात सुन कर महविश के हाथ रुक गए. माना कि उस के अब्बू के पास बहुत पैसा था, पर उसे तो अपनेआप को साबित करना था कि वह खुद के बलबूते पर ही कुछ कर सकती है. महविश जैसे जाग सी गई. उस की आंखों में एक चमक आ गई.

‘‘जी, यह तो घरों में काम आने वाली बहुत साधारण सी चीज है… इस से भला क्या कमाई हो सकती है?’’ महविश ने पूछा.

‘‘है तो साधारण, पर कसबों से निकली हुई यही चीज जब शहर के बड़े शोरूम में सज जाती है, तो इस की हजार गुना कीमत बढ़ जाती है… मुझे देखो, मेरे शौहर ने मुझे फोन पर ही तलाक दे दिया, क्योंकि वे किसी और औरत के फेर में था… मेरे 2 बच्चों की जिम्मेदारी अब मुझ पर थी…

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‘‘मेरे ससुर मुझ पर एक बड़ी उम्र वाले बूढ़े से दोबारा निकाह करने के लिए जोर डालने लगे और तलाकशुदा होने के नाते घर के लोग ही मुझ पर फब्तियां कसने लगे… पर मैं ने न केवल उस बेमेल निकाह से इनकार किया, बल्कि मैं खुद अपने पैरों पर खड़ी हुई…

‘‘तुम्हारी ही तरह मुझे भी चिकनकारी का काम आता है, सो मैं ने थोक में कपड़ाफरोशों से कपड़ा लाना शुरू किया और उस पर चिकन की कढ़ाई कर के उसे सस्ते दामों में बाजार में दुकानदारों को दिया…

‘‘धीरेधीरे मेरा काम चल निकला  और आज मेरे पास इतना काम है कि  मेरा एक छोटा सा कारखाना है और  8-10 लड़कियों को भी मैं ने रोजगार दिया है, जिन्हें मैं हर महीने पगार देती हूं… मुझे किसी के सामने हाथ फैलाने की नौबत नहीं पड़ी,’’ नेमत मुसकराते हुए कह रही थीं.

महविश को लगा कि वह भी कुछ इसी तरह से अपना काम कर सकती?है.

‘‘और हां, अगर चाहो तो मैं तुम्हारे इस काम का नमूना अपने साथ शहर ले जा कर वहां के दुकानदारों को दिखाती हूं. अगर उन्हें अच्छा लगेगा तो मैं फोन से तुम्हें बता दूंगी और फिर आगे का प्रोग्राम सैट कर लेंगे.’’

भला महविश को इस में क्या परेशानी होती… उस ने अम्मी की नजर बचाते हुए 5-7 नमूने नेमत को पकड़ा दिए.

तकरीबन 10 दिन बाद नेमत का फोन आया, जिस में उस ने बताया कि शहर में उस का काम पसंद आया है, इसलिए वह कम से कम 50 पीस बना कर भेजे, जिस के बदले में महविश को एडवांस में 5,000 रुपए का चैक भी भेज दिया गया था.

महविश बहुत खुश थी. उसे अपने हुनर की बदौलत आज कमाईं का जरीया मिल गया था. एक बार महविश का चैक क्या आया, फिर तो उस के पास हर महीने ही काम के और्डर आने लगे और पैसा भी आने लगा.

बस, अब महविश को कुछ नहीं चाहिए था. वह सामने के रास्ते से सिराज से मिलने गई और उस के अम्मीअब्बू के सामने ही उस से बोली, ‘‘जिस तरह की जिंदगी तुम जी रहे हो… मैं भी वैसे ही जी लूंगी सिराज… तुम अगर एक रोटी दोगे तो मैं आधी खा कर ही खुश रह लूंगी और अब तो मैं थोड़े पैसे भी कमाने लगी हूं…

‘‘हम दोनों मिल कर काम करेंगे तो अपना गुजारा हो जाएगा और इन बच्चियों की शादी भी… और फिर जहां रिश्तों में प्यार होता है, वहां छोटीमोटी दिक्कतें हल हो ही जाती?हैं.’’

महविश जिस मुहब्बत भरे अंदाज में सिराज को निकाह के लिए राजी कर रही थी, उसे देख कर तो सिराज के अम्मीअब्बू बहुत खुश हुए.

‘‘पर बेटी, भला तुम्हारे घर वाले हमारे सिराज के साथ तुम्हारा निकाह क्यों करेंगे, जबकि वे हमारी हैसियत जानते हैं,’’ सिराज के अब्बू ने कहा.

‘‘उन को मनाना मेरा काम है… बस मुश्किल तो सिराज की है,’’ महविश ने सिराज की तरफ देखते हुए कहा. सिराज चुप था, पर उस की खामोशी अपना इकरारनामा कर चुकी थी.

जब महविश के निकाह की बात उस के घर पर चली, तो महविश ने दबी जबान से ये कह दिया कि वे अपनी आगे की जिंदगी सिराज के ही साथ गुजारना चाहती है.

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‘‘पर बेटी, वे लोग हम से कम पैसे वाले हैं. उन के घर में तू कैसे निबाह पाएगी?’’ अम्मी ने कहा.

‘‘मैं ने अपनेआप को हर हालात में रहने के लिए ढाल लिया है अम्मी,’’ मुसकराते हुए महविश ने कहा.

‘‘अम्मी को समझ आ गया था महविश का कमरा बदलना, सादे कपड़े पहनना और उन्हें अपने हाथ से धोना…’’ अम्मी की आंखों में नमी तैर आई थी.

दोनों परिवारों ने आपसी रजामंदी से सिराज और महविश का निकाह करवा दिया था.

महविश के काम को शहरों में बहुत पहचान मिली. हस्तकला उद्योग के नाम पर काम को पहचान भी मिली. महविश को तमाम और्डर मिलते, जिन्हें वह समय पर पूरा कर के भिजवाती.

आज सिराज और महविश के निकाह को 10 साल हो गए हैं. सिराज की बहनों का भी निकाह हो चुका है और वे अपनी ससुराल में खुश हैं.

महविश के सच्चे प्यार ने सारी मुश्किलों को हल कर दिया था.

सिराज और महविश के पास अपनी एक फैक्टरी है, जिस का नाम है ‘मह राज हस्तकला उद्योग’. आखिर सिराज और महविश मिल जो गए थे.

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Women’s Day Special- महविश और सिराज: भाग 2

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

‘‘तो फिर आगे बढ़ कर हिम्मत दिखा और थाम ले महविश का हाथ… क्योंकि किसी ने कहा है कि हमें शादी उस से नहीं करनी चाहिए, जिस से हम प्यार करते हों, बल्कि उस से करनी चाहिए, जो हम से प्यार करता हो… और यह बात महविश ने बता दी है कि वह मुझ से बहुत प्यार करती है,’’ इसी तरह की उधेड़बुन में सिराज आजकल खोया रहता, अपनेआप से सवाल करता और अपनेआप से ही जवाब दिया करता था.

अगले दिन सिराज काफी परेशान रहा और जब उस के कुंआरे मन से नहीं रहा गया, तो सिराज ने अपनी बात अपने दोस्त और महविश के भाई फैज से कहने की सोची.

हालांकि यह बात सोचते हुए उस के मन में ये भी डर था कि फैज किस तरह से इस बात पर रिएक्ट करेगा, पर फिर भी डरतेडरते सिराज ने अपने और महविश के रिश्ते के बारे में फैज से बात की.

‘‘देखो फैज… बात थोड़ी अजीब सी है पर जरूरी है, इसलिए तुम से कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है…’’ सिराज ने फैज से कहा.

‘‘अरे सिराज, तुम्हें मुझ से कुछ भी कहने के लिए कोई भी संकोच करने की जरूरत नहीं है. साफसाफ कहो.’’

‘‘दरअसल, मैं और महविश एकदूसरे को पसंद करते हैं और शादी करना चाहते हैं,’’ सिर्फ इतना ही कह कर सिराज खामोश हो गया और फैज की प्रतिक्रिया का इंतजार करने लगा.

फैज के घर सिराज का आनाजाना तो था ही, इसलिए फैज को ज्यादा कुछ समझने में देर न लगी. कुछ देर तक फैज कुछ सोचता रहा, उस के बाद बोला, ‘‘अगर महविश भी तुम से निकाह करना चाहती है, तो ये उस की नादानी हो सकती है, पर तुम तो समझदार हो, अपने और महविश के बीच का फर्क अच्छी तरह समझ सकते हो.’’

कुछ देर चुप रहने के बाद फैज आगे बोला, ‘‘देखो, हो सकता है कि तुम्हें मेरी बात बुरी लग जाए, पर यह सच?है कि महविश नाजों से पली हुई एक लड़की है… और भला तुम को मुझ से ये बात कहने से पहले खुद ही सोचना चाहिए था कि कहां महविश और हम लोगों का लाइफस्टाइल और कहां तुम्हारा?

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महविश इतने बड़े घर की लड़की तुम जैसे गरीब लड़के के साथ कैसे निबाह कर सकती है भला…’’ हालांकि जो भी बातें फैज कह रहा था, उन की जानकारी तो सिराज को पहले से ही थी.

फैज ने फिराज को जी भर कर खरीखोटी भी सुनाई और उस के और महविश के जीवन स्तर के बीच का फासला भी अच्छी तरह से समझाया.

सिराज फैज की बातें सुन कर गम के दरिया में गोते लगाने लगा, वह समझ गया था कि एक गरीब के लिए बड़े घर की लड़की के साथ का सपना कभी हकीकत नहीं बन सकता.

कुछ दिन यों ही बीत गए. सिराज घर से न निकला, महविश हर आहट पर दरवाजा देखती, बारबार फैज के कमरे में बहाने से जाती, पर सिराज का कहीं अतापता ही नहीं था.

महविश ने सिराज का हालचाल जानने के लिए उसे फोन किया, तो सिराज ने फोन नहीं उठाया. महविश परेशान हो उठी थी. उस ने सोचा जरूर कुछ गलत हुआ है, नहीं तो सिराज उस के फोन का जवाब जरूर देता. महविश का दिन बेचैनी में कटा. उस ने सोचा कि सुबह होगी तो वह किसी तरह से सिराज से मिल कर असली बात का पता लगाने की कोशिश करेगी.

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रात में भी महविश की आंखों में नींद नहीं आ रही थी. उस के कई मैसेज का जवाब भी सिराज ने नहीं दिया था. अभी महविश मोबाइल को उलटपलट ही रही थी कि मोबाइल की मैसेज की घंटी बज उठी. महविश ने झट से देखा. यह सिराज का ही मैसेज था.

महविश ने उसे जल्दीजल्दी पढ़ना शुरू किया, जिस में सिराज ने फैज से हुई पूरी बात लिखी थी और यह भी लिखा था कि उसे पढ़ने के बाद मेरा नंबर ब्लौक कर देना और मुझे भूल जाना.

महविश भी ये जान कर परेशान हो गई कि उस के घर वाले सिर्फ इसलिए उस की शादी सिराज  से नहीं करेंगे, क्योंकि उन्हें डर है कि नाजों  में पली उन की  बेटी सिराज के कम सुविधा वाले घर  में गुजारा नहीं कर पाएगी.

‘तो फिर ठीक है… मैं ने अगर सिराज से असली मुहब्बत की है तो मैं उसे पाने के लिए कुछ भी करूंगी,’ मन ही मन कुछ सोच लिया था महविश ने.

अगले दिन महविश ने अपने लिए एक नौकरी ढूंढ़नी शुरू की. उस ने सारे न्यूजपेपर देख डाले, मोबाइल फोन पर भी नौकरी खोजी, पर कोई फायदा नहीं हुआ. क्योंकि यह एक छोटा कसबा था और कसबों में अमूमन नौकरियों की कमी रहती है. महविश उदास तो जरूर हुई, पर उस ने हिम्मत नहीं हारी.

‘‘अगर मुझे सिराज के साथ रहना है, तो मुझे अपनेआप को उसी के हिसाब से ढालना होगा,’’ अपनेआप से कह उठी थी महविश और उसी समय से महविश ने अपनी अलमारी से अपने महंगे कपड़े निकाल कर आसपास की जरूरतमंद लड़कियों को दे दिए और बाजार जा कर अपने लिए कम कीमत का सूती कपड़ा ले आई.

सिलाई और कढ़ाई पर तो महविश का हाथ साफ ही था, पायदान वाली मशीन पर बैठ कर अपने लिए 2 सूट सिल डाले और सिले हुए सूटों को पहनने लगी.

‘‘अब यह तुझे फिर से नया शौक क्या चढ़ गया है, जो ये सस्ते से कपड़े पहन रही है,’’ अम्मी ने पूछा.

‘‘कुछ नहीं अम्मी… बस अपनेआप को ढाल रही हूं,’’ मुसकराते हुए महविश ने कहा.

महविश के इस जवाब का मतलब अम्मी को समझ नहीं आया, तो सिर हिलाते हुए वहां से चली गईं.

उसी दिन महविश ने अपना कमरा भी बदल लिया. उस ने अपने कमरे का सारा महंगा सामान निकाल कर नीचे स्टोररूम के बगल वाले कमरे में कर दिया.

‘‘अरे… कपड़े तक तो ठीक था, पर अब उस सीलन भरे कमरे में तो अपना लैपटौप और एलईडी ले जा रही है. ये सारे सामान तो सीलन से खराब हो जाएंगे,’’ अम्मी ने कहा.

‘‘कुछ नहीं खराब होगा अम्मी… क्योंकि मैं इन में से कोई सामान नीचे नहीं ले गई… मैं तो बस अपनी किताबें और अपनी कढ़ाईबुनाई का सामान ही ले गई हूं,’’ महविश ने जवाब दिया.

‘‘अरे, पर उस कमरे में एसी तो दूर, बल्कि एक अच्छा पंखा भी नहीं है… कैसे सोएगी तू वहां?’’ अम्मी की आवाज में झुंझलाहट साफ नजर आई.

‘‘अपनेआप को ढाल रही हूं अम्मी,’’ महविश ने फिर से मुसकराते हुए जवाब दिया. अम्मी को तो कुछ भी समझ नहीं आया, पर दादी उस की बात पर जरूर मुसकरा रही थीं.

महविश के दिमाग में क्या चल रहा था, वे समझ नहीं पाईं, पर इतना जरूर था, यह महविश अब पहले जैसी महविश नहीं थी. यह महविश जरूर अपनेआप को किसी और ही सांचे में ढालने की कोशिश कर रही थी, पर वे सांचा कौन सा था, यह अभी तक कोई नहीं जान पाया था.

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Women’s Day Special- गिरफ्त: भाग 1

मनीषा को सामान रखते देख कर प्रिया ने पूछ ही लिया, ‘‘तो क्या, कर ली अजमेर जाने की पूरी तैयारी?’’

‘‘अरे नहीं, पूरी कहां, बस जो सामान बिखरा पड़ा है उसे ही समेट रही हूं. अभी तो एक बैग ले कर ही जाऊंगी, जल्दी वापस भी तो आना है.’’

‘‘वापस,’’ प्रिया यह सुन कर चौंकी थी, ‘‘तो क्या अभी रिजाइन नहीं कर रही हो?’’

‘‘नहीं.’’

मनीषा ने जोर से सूटकेस बंद किया और सुस्ताने के लिए बैड पर आ कर बैठ गई थी.

‘‘बहुत थक गई हूं यार, छोटेछोटे सामान समेटने में ही बहुत टाइम लग जाता है. हां, तो तू क्या कह रही थी. रिजाइन तो मैं बाद में करूंगी, पहले पुणे में जौब तो मिल जाए.’’

‘‘अरे, मिलेगी क्यों नहीं, सुशांत जीजान से कोशिश में लग जाएगा, अब तुझे वह यहां थोड़े ही रहने देगा,’’ प्रिया ने उसे छेड़ा था और मनीषा मुसकरा कर रह गई.

मनीषा और प्रिया इस महिला हौस्टल में रूममेट थीं और दोनों यहां गुरुग्राम में जौब कर रही थीं. मनीषा की शादी अगले महीने होनी तय हुई थी, इसलिए वह छुट्टी ले कर जाने की तैयारी में थी.

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‘‘बाय द वे,’’ प्रिया ने उसे फिर छेड़ा था, ‘‘तू अब सुशांत के खयालों में उलझी रह और अपनी पैकिंग भी करती रह, मैं नीचे जा रही हूं. क्या तेरे लिए कौफी ऊपर ही भिजवा दूं? अरे मैडम, मैं आप ही से कह रही हूं.’’ प्रिया ने उसे झकझोरा था.

‘‘हां…हां, सुन रही हूं न, कौफी के साथ कुछ खाने के लिए भी भेज देना, मुझे तो अभी पैकिंग में और समय लगेगा,’’ मनीषा बोली.

‘‘मैं सोच रही हूं कि आज रीना के कमरे में ही डेरा जमाऊं, कुछ काम भी करना है लैपटौप पर,’’ प्रिया बोली.

‘‘हां…हां…जरूर,’’ मनीषा के मुंह से निकल ही गया था.

‘‘वह तो तू कहेगी ही, अच्छा है रात को सुशांत से अकेले में आराम से चैट करती रहना.’’ मैं चली. हां, यह जरूर कह देना कि यह सब प्रिया की मेहरबानी से संभव हुआ है.’’

‘‘अरे हां, सब कहूंगी,’’ मनीषा हंस पड़ी थी. प्रिया के जाने के बाद उस ने बचा हुआ सामान समेटा और सोचने लगी, ‘चलो, अब ठीक है. छुट्टी के बाद ही लौटेंगे तो कम से कम सामान तो पैक ही मिलेगा.’

हाथमुंह धो कर उस ने कपड़े बदले. तब तक प्रिया ने कौफी के साथ कुछ सैंडविच भी भिजवा दिए थे. कौफी पी कर वह कमरे के बाहर बनी छोटी सी बालकनी में आ गई थी.

शाम को अंधेरा बढ़ने लगा था पर नीचे बगीचे में लाइट्स जल रही थीं जिस से वातावरण काफी सुखद लग रहा था. झिलमिलाती रोशनी को देखते हुए वह बालकनी में ही कुरसी खींच कर बैठ गई थी.

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तो आखिर शादी तय हो ही गई थी उस की. सुशांत को याद करते ही पता नहीं कितनी यादें दिलोदिमाग पर छाने लगी थीं.

पता नहीं उस के साथ लंबे समय तक क्या होता रहा. पापा ने कई लड़के देखे, कहीं लड़का पसंद नहीं आया तो कहीं दहेज की मांग, तो किसी को लड़की सांवली लगती.

चलचित्र की तरह सबकुछ आंखों के सामने घूमने लगा था. हां, रंग थोड़ा दबा हुआ जरूर था उस का पर पढ़ाई में तो वह शुरू से ही अव्वल रही. इंजीनियरिंग कर के एमबीए भी कर लिया. अच्छी नौकरी मिल गई. फिर आत्मनिर्भर होते ही व्यक्तित्व में भी तो निखार आ ही जाता है.

अब तो हौस्टल की दूसरी लड़कियां भी कहती हैं, ‘अरे, रंग कुछ दबा हुआ है तो क्या, पूरी ब्यूटी क्वीन है हमारी मनीषा.’

एकाएक उस के होंठों पर मुसकान खिल गई थी. सुशांत ने तो उसे देखते ही पसंद कर लिया था. फिर उस की मां और मौसी दोनों आईं और शगुन कर गईं.

अब तो 15 दिनों बाद सगाई और शादी दोनों एकसाथ ही करने का विचार था.

तय यह हुआ कि सुशांत का परिवार और रिश्तेदार 2 दिन पहले ही अजमेर पहुंच जाएं. पापा ने उन के लिए एक पूरा रिसौर्ट बुक करा दिया था. घर के रिश्तेदारों के लिए पास के एक दूसरे बंगले में ठहरने का इंतजाम था.

कल ही मां ने फोन पर सूचना दी थी, ‘मनी, सारी तैयारियां हो चुकी हैं. बस, अब तू छुट्टी ले कर आजा. घर पर तेरा ही इंतजार है.’

‘हां मां, आ तो रही हूं, परसों पहुंच जाऊंगी आप के पास,’ मां तो पता नहीं कब से पीछे पड़ी थीं.

‘बहुत कर ली नौकरी, अब घर आ कर कुछ दिन हमारे पास रह. शादी के बाद तो ससुराल चली ही जाएगी. और हां, लड़कियां शादी से पहले हलदीउबटन सब करवाती हैं. तू भी ब्यूटी पार्लर जा कर यह सब करवाना.’

‘चली जाऊंगी मां, 15 दिन बहुत होते हैं अपना हुलिया संवारने को,’ मनीषा बोली.

उस ने बात टाली थी. पर मां की याद आते ही बहुत कुछ घूम गया था दिमाग में. एक माने में मां की बात सही भी थी, अपनी पढ़ाई और फिर नौकरी के सिलसिले में वह काफी समय घर से बाहर ही रही. और अब शादी कर के घर से दूर हो जाएगी तो वे भी चाहती हैं कि बेटी कुछ दिन उन के पास भी रह ले. चलो, अब मां भी खुश हो जाएंगी. कह भी रही थीं कि मेरी पसंद के सारे व्यंजन बना कर खिलाएंगी मुझे.

‘अरे मां, अब तो मैं ज्यादा तलाभुना खाना भी नहीं खाती हूं.’

‘हां…हां, पता है. पर यहां तेरी मनमानी नहीं चलेगी, समझी,’ मां ने उसे प्यारभरी फटकार लगाई.

‘अरे, फोन बज रहा है,’ कमरे में रखा उस का मोबाइल बज रहा था. लो, मां को याद किया तो उन का फोन भी आ गया. इसी को शायद टैलीपैथी कहते हैं. वह तेजी से अंदर गई. अरे, यह तो सुशांत का फोन है, पर इस समय कैसे. अकसर उस का फोन तो रात 10 बजे के बाद ही आता था और अगर पास में प्रिया सो रही हो तो वह बाहर बालकनी में बैठ कर आराम से घंटे भर बातें करती थी पर इस समय, वह चौंकी थी.

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‘‘हां सुशांत, बस, मैं कल निकल रही हूं अजमेर के लिए, थोड़ाबहुत सामान पैक किया है,’’ मोबाइल उठाते ही उस ने कहा था.

Women’s Day Special- गिरफ्त: भाग 2

‘‘मनीषा, मैं ने इसीलिए तुम्हें फोन किया था कि तुम अब अपना प्रोग्राम बदल देना, देखो, अदरवाइज मत लेना पर मैं ने बहुत सोचा है और आखिर इस निर्णय पर पहुंचा हूं कि मैं अभी शादी नहीं कर पाऊंगा इसलिए…’’

‘‘क्या कह रहे हो सुशांत? मजाक कर रहे हो क्या?’’ मनीषा समझ नहीं पा रही थी कि सुशांत कहना क्या चाह रहा है.

‘‘यह मजाक नहीं है मनीषा, मैं जो कुछ कह रहा हूं, बहुत सोचसमझ कर कह रहा हूं. अभी मेरी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि शादी कर सकूं.’’

‘‘कैसी बातें कर रहे हो सुशांत, हम लोग सारी बातें पहले ही तय कर चुके हैं और अच्छीखासी जौब है तुम्हारी. फिर मैं भी जौब करूंगी ही. हम लोग मैनेज कर ही लेंगे और हां, यह तो सोचो कि शादी की सारी तैयारियां हो चुकी हैं. पापा ने वहां सारी बुकिंग करा दी है. कैटरिंग, हलवाई सब को एडवांस दिया जा चुका है.’’

‘‘तभी तो मैं कह रहा हूं…’’ सुशांत ने फिर बात काटी थी, ‘‘देखो मनीषा, अभी तो टाइम है, चीजें कैंसिल भी हो सकती हैं और फिर शादी के बाद तंगी में रहना कितना मुश्किल होगा. इच्छा होती है कि हनीमून के लिए बाहर जाएं. बढि़या फ्लैट, गाड़ी सब हों, मैं ने तुम्हें बताया था न कि मेरी एक फ्रैंड है शोभा, उस से मैं अकसर राय लेता रहता हूं. उस का भी यही कहना है, चलो, तुम्हारी उस से भी बात करा दूं. वह यहीं बैठी है.’’

शोभा, कौन शोभा. क्या सुशांत की कोई गर्लफ्रैंड भी है. उस ने तो कभी बताया नहीं… मनीषा के हाथ कांपने लगे. तब तक उधर से आवाज आई. ‘‘हां, कौन, मनीषा बोल रही हैं, हां, मैं शोभा, असल में सुशांत यहीं हमारे घर में पेइंगगैस्ट की तरह रह रहे हैं, तुम्हारा अकसर जिक्र करते रहते हैं. फोटो भी दिखाया था तुम्हारा. बस, शादी के नाम पर थोड़े परेशान हैं कि अभी मैनेज नहीं हो पाएगा. अपने घरवालों से तो कहने में हिचक रहे थे तो मैं ने ही कहा कि तुम मनीषा से ही बात कर लो. वह समझदार है, तुम्हारी तकलीफ समझेगी.’’

मनीषा तो जैसे आगे कुछ सुन ही नहीं पा रही थी. कौन है यह शोभा और सुशांत क्यों इसे सारी बातें बताता रहा है. उस का माथा भन्नाने लगा. ‘‘देखिए, आप सुशांत को फोन दें.’’

‘‘हां सुशांत, तुम अपने घरवालों से बात कर लो.’’

‘‘पर मनीषा…’’ सुशांत कह रहा था, पर मनीषा ने तब तक मोबाइल बंद कर दिया था. 2 बार घंटी बजी थी, पर उस ने फोन उठाया ही नहीं.

‘ओफ, क्या सोचा था और क्या हो गया. अब वह क्या करे. सुहावने सपनों का महल जैसे भरभरा कर गिर गया. अब अजमेर जा कर मांपापा से क्या कहेगी,’ उस का दिमाग काम नहीं कर रहा था.

मोबाइल की घंटी लगातार घनघना रही थी. नहीं, उसे अब सुशांत से कोई बात नहीं करनी और वह गर्लफैंड. वह खुद को बुरी तरफ अपमानित अनुभव कर रही थी. कहां तो अभी इतनी तेज भूख लग रही थी, लेकिन अब भूखप्यास सब गायब हो गई थी. कोई रास्ता सूझ नहीं रहा था कि अब क्या करे? मांपापा को फोन पर तो यह सब बताना ठीक नहीं रहेगा, वे लोग घबरा जाएंगे. मां तो वैसे ही ब्लडप्रैशर की मरीज हैं.

और उसे यह भी नहीं पता कि आखिर वह शोभा है कौन? सुशांत उस के कहने भर से शादी स्थगित कर रहा है या फिर शादी के लिए मना ही कर रहा है.

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ठीक है, उसे भी ऐसे आदमी के साथ जिंदगी नहीं बितानी है, अच्छा हुआ अभी सारी बातें सामने आ गईं और उस ने नौकरी से अभी रिजाइन नहीं दिया वरना मुश्किल हो जाती.

पर चारों तरफ सवाल ही सवाल थे और वह कोईर् उत्तर नहीं खोज पा रही थी.

रोतेरोते उस की आंखें सूज गई थीं.

‘नहीं, उसे कमजोर नहीं पड़ना है, जब उस की कोई गलती ही नहीं है तो वह क्यों हर्ट हो,’ यह सोच कर वह उठी ही थी कि मोबाइल की घंटी फिर बजने लगी थी. सुशांत का ही फोन होगा. अब फोन मुझे स्विचऔफ करना होगा, यह सोच कर उस ने मोबाइल उठाया. पर यह तो सरलाजी थीं, सुशांत की मां. अब ये क्या कह रही हैं.

उधर से आवाज आ रही थी, ‘‘हां, मनीषा बेटी, मैं हूं सरला.’’

‘‘हां, आंटी,’’ बड़ी मुश्किल से उस ने अपनी रुंधि हुई आवाज को रोका.

‘‘बेटी, यह मैं क्या सुन रही हूं, अभीअभी सुशांत का फोन आया था. अरे बेटे, शादी क्या कोई मजाक है. क्यों मना कर रहा है वह. उस के पापा तो इतने नाराज हुए कि उन्होंने उस का फोन ही काट दिया. अब पता नहीं यह शोभा कौन है और क्यों वह इस के बहकावे में आ रहा है, पर बेटी, मेरी तुम से विनती है, तुम एक बार बात कर के उसे समझाओ.’’

‘‘आंटी, अब मैं क्या कर सकती हूं,’’ मनीषा ने अपनी मजबूरी जताते हुए कहा.

‘‘बेटा, तू तो बहुत कुछ कर सकती है, तू इतनी समझदार है, एक बार बात कर उस से. अब हम तो तुझे अपनी बहू मान ही चुके हैं.’’

‘‘ठीक है आंटी, मैं देखूंगी,’’ कह कर मनीषा ने मोबाइल स्विचऔफ कर दिया था. अब नहीं करनी उसे किसी से भी बात. अरे, क्या मजाक समझ रखा है. बेटा कुछ कहता है तो मां कुछ और, और मैं क्यों समझाऊं किसी को. मैं ने क्या कोई ठेका ले रखा सब को सुधारने का, मनीषा का सिरदर्द फिर से शुरू हो गया था, रातभर वह सो भी नहीं पाई.

फिर सुबहसुबह उठ कर बालकनी में आ गई. अभी सूर्योदय हो ही रहा था. ‘नहीं, कुछ भी हो उसे उस शोभा को तो मजा चखाना ही है, भले ही यह शादी हो या नहीं, पर यह शोभा कौन होती है अड़ंगे लगाने वाली. वह एक बार तो बेंगलुरु जाएगी ही,’ सोचते हुए उस ने मोबाइल से ही बेंगलुरु की फ्लाइट का टिकट बुक करा लिया था. फिर तैयार हो कर उस ने सुशांत को फोन कर दिया, वह अब औफिस आ चुका था.

‘‘मैं बेंगलुरु आ रही हूं, तुम से तुम्हारे औफिस में ही मिलूंगी.’’

‘‘अच्छा, पर…’’

‘‘पहुंच कर बात करते हैं,’’ कह कर उस ने फोन रख दिया था.

एकाएक यह कदम उठा कर उस ने ठीक भी किया है या नहीं, यह वह अब तक समझ नहीं, पा रही थी, पर जो भी हो फ्लाइट का टिकट तो बुक हो ही चुका है, पर बेंगलुरु में ठहरेगी कहां. एकाएक उसे अपनी सहेली विशु याद आ गई. हां, विशु बेंगलुरु में ही तो जौब कर रही है. उसे फोन लगाया, ‘‘अरे मनीषा, व्हाट्स सरप्राइज…पर तू अचानक…’’ विशु भी चौंक गई थी.

‘‘बस, ऐसे ही, औफिस का एक काम था, तो सोचा कि तेरे ही पास ठहर जाऊंगी, तुम वहीं हो न.’’

‘‘हां, हूं तो बेंगलुरु में, पर अभी किसी काम से मुंबई आई हुई हूं, कोई बात नहीं, मां है वहां, तू घर पर ही रुकना. तू पहले भी तो मां से मिल चुकी है, तो उन्हें भी अच्छा लगेगा. मुझे तो अभी हफ्ताभर मुंबई में ही रुकना है.’’

‘‘ठीक है, मैं आती हूं, वहां पहुंच कर तुझे फोन करूंगी.’’

फिर उस ने मां को अजमेर फोन कर के कह दिया कि अभी छुट्टी मिल नहीं पा रही है, 2 दिनों बाद आ पाऊंगी.

बेंगलुरु पहुंचतेपहुंचते शाम हो गई थी. सुशांत औफिस में ही उस का इंतजार कर रहा था.

‘‘अचानक कैसे प्रोग्राम बन गया,’’ उसे देखते ही सुशांत बोला था.

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मनीषा ने किसी प्रकार अपने गुस्से पर काबू रखा और कहा, ‘‘बस…शादी नहीं हो रही तो क्या, दोस्त तो हम हैं ही, सोचा कि मिल कर बात कर लेती हूं कि आखिर वजह क्या है शादी टालने की, फिर मुझे कुछ काम भी था बेंगलुरु में तो वह भी हो जाएगा.’’ आधा सच, आधा झूठ बोल कर उस ने बात खत्म की.

‘‘हांहां, चलो, पहले कहीं चल कर चायकौफी पीते हैं, तुम थकी हुई होगी.’’ कौफी शौप में कौफी पी कर बाहर निकले तो सुशांत ने कहा, ‘‘मैं ने शोभा को भी फोन कर दिया था तो वह घर पर हमारा इंतजार कर रही है, पहले घर चलें.’’

‘शोभा…पहले इस शोभा को ही देखा जाए,’ वह मन ही मन सोचते हुए मनीषा ने कहा, ‘‘जैसा तुम ठीक समझो,’’ कहते हुए मनीषा के शब्द भी लड़खड़ा गए थे.

औफिस घर के पास ही था, घर के बाहर लौन में शोभा इंतजार करती मिली उन दोनों का.

‘‘आइए, आइए,’’ गेट पर खड़ी महिला को देख कर मनीषा चौंकी, तो यह है शोभा, यह तो

40-45 साल की होगी, हां, बनावशृंगार कर के खुद को चुस्त बना रखा है, पर यह सुशांत की फ्रैंड कैसे बनी, उस का दिमाग फिर चकराने लगा था.

‘‘मनीषा, यह है शोभा, बहुत खयाल रखती है मेरा, बेंगलुरु जैसे शहर में एक तरह से इस पर ही निर्भर हो गया हूं मैं.’’

‘‘हांहां, अंदर तो चलो,’’ शोभा कह रही थी. अंदर सीधे वह डाइनिंग टेबल पर ही ले गई. कौफीनाश्ता तैयार था. शोभा ने बातचीत भी शुरू की, ‘‘मनीषा, असल में सुशांत काफी परेशान थे कि तुम्हें कैसे मना करें शादी के लिए, क्योंकि तैयारी तो सब हो चुकी होगी, पर अभी शादी के लिए सुशांत खुद को तैयार नहीं कर पा रहे थे. तो मैं ने ही इन से कहा कि तुम मनीषा से बात कर लो, वह सुलझी हुई लड़की है. तुम्हारी प्रौब्लम जरूर समझेगी. असल में ये तुम्हारी सारी बातें मुझे बताते रहते थे तो मैं भी तुम्हारे बारे में बहुत कुछ जान गई थी,’’ कह कर शोभा थोड़ी मुसकराई.

मनीषा समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे, बड़ी मुश्किल से उस ने खुद को संभाला और फिर बोली, ‘‘शोभाजी, मैं बस 2 दिनों के लिए आई हूं और अपनी एक फ्रैंड के यहां रुकी हूं. मैं चाहती हूं कि मैं और सुशांत बाहर जा कर कुछ बात कर लें, अगर आप चाहें तो.’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं, खाना खा कर जाना, खाना तैयार है.’’ फिर शोभा ने सुशांत की तरफ देखा था, ‘‘तुम्हारी पसंद की चिकनबिरयानी बनाई है, अगर मनीषा को नौनवेज से परहेज हो तो कुछ और…’’

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Women’s Day Special- गिरफ्त: भाग 3

‘‘नहीं नहीं, हम लोग बाहर ही खा लेंगे, चलते हैं,’’ कह कर मनीषा उठ गई तो सुशांत को भी खड़ा होना पड़ा. उधर, मनीषा सोच रही थी कि सुशांत तो कहता था कि वह तो नौनवेज खाता ही नहीं है, फिर… पर हां, यह तो समझ में आ ही गया कि अच्छा खाना खिला कर सुशांत को फुसलाया जा रहा है.

शोभा का मुंह उतर गया था, पर मनीषा सुशांत को ले कर बाहर आ गई. ‘‘कहां चलें?’’ सुशांत ने मनीषा से पूछा.

‘‘कहीं भी, तुम तो इतने समय से बेंगलुरु में रह रहे हो, तुम्हें तो पता ही होगा कि कहां अच्छे रैस्तरां हैं. वैसे, अभी मुझे खाने की कोई इच्छा नहीं है, इसलिए पहले कहीं गार्डन में बैठते हैं.’’

कुछ देर पास में बगीचे में पड़ी बैंच पर ही दोनों बैठ गए.

मनीषा ने ही बात शुरू की, ‘‘हां, अब बताओ, क्या कह रहे थे तुम शोभाजी के बारे में.’’

फिर सुशांत ने जो कुछ बताया, मनीषा चुपचाप सुनती रही. पता चला कि शोभा के पति विदेश में हैं. यहां वह अपने 2 बच्चों के साथ रह रही है. बच्चे पढ़ रहे हैं. सुशांत से शोभाजी को बहुत सहारा है. सुशांत उस की आर्थिक मदद भी कर रहा है. बातों ही बातों में मनीषा समझ गई थी कि सुशांत से काफी पैसा शोभाजी ने उधार भी ले रखा है. इसलिए सोच रही होगी कि ऐसे मुरगे को आसानी से कैसे जाने दें.

‘‘बहुत खयाल रखती है शोभा मेरा,’’ सुशांत बारबार यही कह रहा था.

‘‘देखो सुशांत, हो सकता कि शोभाजी जैसा बढि़या खाना मैं तुम्हें बना कर न खिला सकूं, पर फिर भी कोशिश करूंगी.’’मनीषा ने मजाक किया तो सुशांत चौंक गया, ‘‘नहीं, यह बात नहीं है,’’ सुशांत ने सकुचाते हुए कहा, ‘‘पुणे वाली जौब के लिए अप्लाई कर दिया था न तुम ने?’’

‘‘वह…मैं कर ही रहा था पर शोभा ने मना कर दिया कि अभी रहने दो.’’

‘‘हां, क्योंकि अभी शोभाजी को तुम्हारी जरूरत है,’’ न चाहते हुए भी मनीषा के मुंह से निकल ही गया. सुशांत अवाक था.

उधर, मनीषा कहे जा रही थी, ‘‘ठीक है, जैसी तुम्हारी इच्छा, पर एक बात जरूर कहूंगी कि शोभाजी कभी भी तुम्हें बेंगलुरु से बाहर नहीं जाने देंगी, क्योंकि तुम जरूरत हो उन की. तुम्हारा इतना पैसा उन के बच्चों की पढ़ाई पर लगा है. अब तुम्हें जो करना है करो. अगर सोच सको तो शोभाजी के बारे में न सोच कर अपना हित सोचो. शोभाजी का क्या, उन्हें और पेइंगगैस्ट मिल जाएंगे. बेंगलुरु में तो ऐसे बहुत लोग होंगे.’’

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सुशांत एकदम चुप था.

‘‘चलो, अब खाना खाते हैं, फिर मुझे मेरी फ्रैंड के यहां छोड़ देना,’’ मनीषा ने बात खत्म की.

‘‘अभी तो तुम रुकोगी?’’

‘‘हां, कल शाम को मिलते हैं, फिर रात को मेरी फ्लाइट है, बस जो कुछ मैं ने कहा है, उस पर विचार करना. अब तक मनीषा ने अपनेआप को काफी संयत कर लिया था. उसे जो कहना था कह दिया. अब सुशांत जो चाहे करे पर वह इतना कमजोर इंसान होगा, इस की उस ने कल्पना नहीं की थी.’’

दूसरे दिन सुशांत सुबह ही उसे लेने आ गया था, ‘‘मैं तो रातभर सो ही नहीं पाया मनीषा, और आज औफिस से मैं ने छुट्टी ले ली है. आज पूरा दिन मैं तुम्हारे साथ ही बिताऊंगा और हां, रात को ही पुणे की पोस्ट के लिए भी मैं ने अप्लाई कर दिया है.’’

उस की बातें सुन कर मनीषा भी आश्चर्यचकित थी.

फिर रास्ते में ही सुशांत ने कहा, ‘‘मैं रातभर तुम्हारी बातों पर ही विचार करता रहा. शायद तुम ठीक ही कह रही हो. मैं आज मां से भी बात करता हूं. शादी की तारीख वही रहने दो…’’

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‘‘नहीं सुशांत,’’ मनीषा ने उसे रोक दिया.

‘‘इतनी जल्दी भी नहीं है. तुम खूब सोचो और पुणे जा कर फिर मुझ से बात करना, अभी तो मैं भी शादी की डेट आगे बढ़ा रही हूं. जब तुम अपने भविष्य के बारे में सुनिश्चित हो जाओ, तभी हम बात करेंगे शादी की.’’

‘‘पर मनीषा…मैं…’’

‘‘हां, हम बात तो करते रहेंगे न, आखिर दोस्त तो हम हैं ही. कुछ जरूरत हो तो पूछ लेना मुझ से.’’

पूरा दिन सुशांत के साथ ही गुजरा, एअरपोर्ट पहुंच कर फिर उस ने कहा था, ‘‘तुम मेरा इंतजार तो करोगी न…’’

‘‘हां, क्यों नहीं…’’ कह कर मनीषा हंस पड़ी थी.

प्लेन के टेकऔफ करते ही वह अपनेआप को हलका महसूस कर रही थी. भविष्य में जो भी हो, पर फिलहाल शोभाजी की गिरफ्त से तो उस ने सुशांत को आजाद करा ही दिया.

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Women’s Day- नपुंसक: भाग 3

डबडबाई आंखों से छत की ओर देखते हुए उस ने पुन: कहना शुरू किया, ‘‘आरुषी, मैं एक नपुंसक पुरुष हूं और संतान पैदा करने में अक्षम हूं…मुझे माफ कर दो आरुषी, मैं तुम्हारा अपराधी हूं. मैं जानता था कि तुम मुझ से प्यार करने लगी हो और यह बात मुझे पहले ही बता देनी चाहिए थी पर मैं डर रहा था कि तुम मुझे छोड़ कर चली जाओगी. वैसे तुम अभी भी जा सकती हो. मैं अपने दिल को समझा लूंगा.’’

यह सुन कर आरुषी की आंखें फटी की फटी रह गईं. उस के कानों में मानो पिघला सीसा डाल दिया गया हो. जीवन का आधा हिस्सा तो दुख, कलह, क्लेश में बीत गया. दामन में कष्टों के अलावा कुछ था ही नहीं. जिस का बाप चरित्रहीन हो उस की औलाद के आंचल में सिवा धूप के थपेड़ों के कुछ नहीं होता.

उम्र के जिन हसीन पलों को एक आम लड़की सहेज कर रखती है, आरुषी उन पलों को अपने जीवन से हटा देना चाहती थी, क्योंकि उन पलों ने उसे आंसू और दमघोंटू वातावरण दिया था. आज तो उस के जीवन में बहार की पहली दस्तक हुई थी. द्वार के खुलते ही अनिरुद्ध की इस बात ने उसे अंदर से पूर्ण रूप से तोड़ दिया.

‘‘आरुषी, मैं तुम्हें सोचने के लिए समय देता हूं. सुबह मैं तुम्हारे फोन का इंतजार करूंगा. अपने दिल पर हमदर्दी को बढ़ावा मत देना. हमदर्दी में बढ़ाया कदम, जीवन में पछतावे को बुलावा देता है. फैसला सोचसमझ कर करना.’’

भारी कदमों से दोनों ने रेस्टोेरेंट से बाहर की ओर कदम बढ़ाए. उसे घर छोड़ कर अनिरुद्ध अपनी मंजिल की ओर बढ़ गया.

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घर पहुंच कर आरुषी बिना कपड़े बदले ही बिस्तर पर पड़ गई. उस के दिमाग में अनिरुद्ध की कही बातें हथौड़े की चोट कर रही थीं.

आरुषी के कमरे की लाइट जलती देख कर अर्चना मौसी उस के पास आईं और कहा, ‘‘बहुत देर लगा दी, क्या सारी पेंटिंग्स बिक गईं? बिक ही गई होंगी… सारी की सारी इतनी सुंदर जो थीं. तू चाय पिएगी? बनाऊं?’’

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‘‘नहीं,’’ कहते हुए उस ने करवट बदली. ऐसा रूखा उत्तर सुन अर्चना मौसी उस के करीब गईं, देखा तो उस की आंखें तकिया गीला कर चुकी थीं.

‘‘क्या हुआ? पैसे नहीं मिले?’’ शायद पैसों का मारा व्यक्ति हर बात पैसों से ही तौलता है.

‘‘नहीं, मौसी, बात पैसों की नहीं है,’’ उस ने मौसी की तरफ मुंह कर के कहा.

‘‘फिर क्या हुआ?’’

‘‘मौसी, अनिरुद्ध…’’ वह इतना ही कह पाई थी कि उस का गला एकदम अवरुद्ध हो गया और जोर से हिचकी आई. मौसी ने उसे गले लगा लिया तो वह फूटफूट कर रोने लगी.

रोतेरोते उस ने अपनी मौसी को सारा हाल बता दिया. मौसी सुन कर सन्न रह गईं. वह समझ नहीं पा रही थीं कि क्या कह कर वह बेटी को समझाएं. अचानक आरुषी उठी और अपने पर्स में मोबाइल टटोलने लगी. अर्चना मौसी ने उस से पर्स ले लिया, और बोलीं, ‘‘क्या कर रही है?’’

‘‘अनिरुद्ध को मना कर रही हूं.’’

‘‘रुक,’’ अर्चना मौसी ने उस का पर्स अपने हाथ में लेते हुए कहा, ‘‘ठंडे दिमाग से काम ले.’’

कुछ क्षण दोनों चुप रहीं. उस के बाद मौसी ने चुप्पी तोड़ी. बोलीं, ‘‘तेरी नजर में वह नपुंसक पुरुष है, पर मैं उसे महापुरुष का दर्जा देती हूं. उस के विचार उसे महापुरुष बनाते हैं. जरा सोच, अगर यह बात तुझे शादी के बाद पता चलती तो तेरा क्या होता. वह तुझे धोखा नहीं दे रहा. अपने पिता के बारे में सोच कि उन्होंने तुझे दिया ही क्या है, सिवा आंसू और समाज की तिरस्कृत नजरों के. तू आज तक अपने पिता की करनी को भुगत रही है. नपुंसक तो तेरा बाप है, अनिरु द्ध नहीं.

‘‘आज तेरे पास पैसा है, शोहरत है और यह सबकुछ उस अनिरुद्ध की वजह से ही है न. उस ने तेरी कहांकहां मदद नहीं की. तुझे कहां से कहां पहुंचा दिया. अब तक तो इन गलियों में आंसू बहाती, छिपती हुई सी रहती थी पर अब मुझे लगता है उजला सवेरा तेरा इंतजार कर रहा है.’’

‘‘लेकिन मौसी…’’

अर्चना ने आरुषी को बात पूरी करने से पहले ही रोक दिया और बोली, ‘‘जिंदगी को तन्हा गुजारना कितना मुश्किल है. यह तो तू जानती ही है, हम ने कैसे दिन गुजारे हैं, सुख और खुशियां तो हमें छू कर भी नहीं गुजरीं. हो सकता है तेरी बाकी जिंदगी सुखद पलों से भरी हो, खुशियां हाथ फैलाए तेरा इंतजार कर रही हों. केवल एक सुख के पीछे तू जिंदगी की तमाम खुशियां क्या दांव पर लगा देगी.’’

आरुषी की आंखों से आंसू बह रहे थे, वह चुपचाप अर्चना मौसी की बातें सुन रही थी. उन की बातें आरुषी पर सकारात्मक प्रभाव डाल रही थीं. मौसी ने उस से कहा कि वह अनिरुद्ध को अभी फोन करे.

‘‘मौसी, वह सो गया होगा,’’ आरुषी ने शंका जाहिर की.

‘‘आज की रात उसे नींद नहीं आएगी. वह सारी रात आंखों में ही काट देगा. शायद  तू भी नहीं सो पाएगी, हां, अगर फोन कर लेगी तो शायद तुम दोनों ही चैन की नींद सो सको.’’

आरुषी ने अपने आंसू पोंछे और फोन मिलाया. घंटी बजते ही अनिरुद्ध ने फोन अपने कान से लगाया और आवाज आई, ‘‘आरुषी, मैं अनिरुद्ध बोल रहा हूं और मुझे मेरा जवाब मिल गया. मैं तुम्हारा एहसान जिंदगी भर नहीं भूल सकता. तुम मेरे अधूरेपन की परिपूर्णता हो.’’

अनिरुद्ध से फोन पर हुआ वार्त्तालाप सुन कर अर्चना मौसी और आरुषी एकदूसरे के गले से लिपट गईं.

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बदलते जमाने का सच: भाग 3

अभी रात ज्यादा नहीं हुई थी. गांव के गोवर्धन पांडे शादीब्याह में कुंडलियां मिलाते थे. गांव के लोग उन्हें अच्छा ज्योतिषी समझते थे. गांव वालों के हाथ देख कर और उन के ग्रह के नाम पर हवन करा कर उन की रोजीरोटी बिना कोई काम किए आराम से चलती थी. किसी की शादी करानी हो तो कुंडलियां मिलान करा देना और रोकनी हो तो

उन में कई अड़ंगे डाल देना उन के लिए बाएं हाथ का खेल था. जैसा जजमान वैसा काम.

बाबूजी की उन से खूब पटती थी. दोनों साथसाथ पढ़े भी थे. बचपन के दोस्त भी थे इसलिए राह से भटके बेटे को राह पर लाने का काम भी ज्योतिषी से बढि़या कौन कर सकता था.

दीनानाथ बोले, ‘‘मैं अभी ज्योतिषी को बुला लाता हूं. वे जो कहेंगे वही होगा,’’ फिर किसी से कुछ कहे बगैर वे ज्योतिषी को बुलाने चले गए.

गोवर्धन पांडे ने अभीअभी खाना खाया था और अब सोने की तैयारी कर रहे थे. जब इतनी रात को दीनानाथ को आते देखा तो उन्हें अहसास हो गया कि कोई ग्रहनक्षत्र का चक्कर हैं. वे खुश हो कर बोले, ‘‘आओ यार, इतनी रात में आने की कोई खास वजह लगती है. बताओ, क्या बात है?’’

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दीनानाथ ने आपबीती सुनाई और किसी तरह बेटे को राह पर लाने को कहा.

ज्योतिषी ने हंसते हुए कहा, ‘‘बस, इतनी सी बात है. चिंता न करो. ऐसे बहके लड़कों को राह पर लाना तो मेरे लिए पलभर का काम है… अब बताओ, तुम्हारा काम हो जाएगा तो दक्षिणा में मुझे क्या मिलेगा.’’

‘‘जो तुम मांगोगे पांडे, दूंगा. बस, किसी तरह बेटे को मेरे समधी की बेटी से शादी के लिए राजी करा दो.’’

दीनानाथ जब घर से बाहर निकले तो ज्योतिषी गोवर्धन पांडे अपनी पत्नी से बोले, ‘‘अब चिंता मत करो पंडाइन, भगवान चाहेगा तो तुम्हारे कंगन बनने का जुगाड़ जल्दी ही हो जाएगा. किवाड़ बंद कर लो. आने में देर हो जाएगी.’’

ज्योतिषी गोवर्धन पांडे को देख कर प्रियांशु ने नाकभौं सिकोड़ ली. वह ज्योतिषी को बचपन से ही जानता था. इस ने कइयों के घर में झगड़ा कराया था. कितनों का घर उजाड़ा था. जरूरत पड़ने पर ओझागुनी होने का भी ढोंग रचता था. जब कोई बीमार पड़ता तो पड़ोसी द्वारा भूत चढ़ाने की बात बताता और उन्हें भगाने के नाम पर खूब पैसे वसूलता.

गोवर्धन पांडे ने जब दोनों की जन्मकुंडली मांगी तो प्रियांशु बोला कि नैनी की जन्मकुंडली नहीं बनी है और जन्मतिथि के नाम पर एक गलत तिथि बता दी.

ज्योतिषी बहुत देर तक पोथीपतरा देखते रहे और एक कागज पर कुछ लिखते रहे. आखिर में वे बोले, ‘‘लड़कालड़की के गुण बिलकुल उलटे हैं. शादी होते ही वरवूध में से किसी एक की मृत्यु का योग है.’’

‘‘आप ने अपनी कुंडली देखी है ज्योतिषी चाचा?’’ महीप ने पूछा, ‘‘अगर देखी होती तो चाची आप को रोज जलीकटी न सुनातीं.’’

गोवर्धन पांडे की पत्नी झगड़ालू थीं. किसी न किसी पड़ोसी से रोज ही बातबात पर लड़ जातीं. ज्योतिषी को तो बीच में पड़ते ही गालीगलौज करने लगतीं. सारा गांव यह बात जानता था.

‘‘महीप, तुम चुप रहो. अपने से बड़ों की इज्जत करो,’’ बाबूजी बोले तो वह चुप हो गया.

‘‘बोलने दो दीनानाथ, अभी बच्चा है… धीरेधीरे सब सीख जाएगा,’’ ज्योतिषी गोवर्धन पांडे बोले.

इसी बीच बहन बीच में आ गई. वह बोली, ‘‘प्रियांशु, तुम्हीं सोचो, क्या ऐसी शादी करोगे जिस में किसी की मौत होने का डर हो? मैं तो कहती हूं कि अपनी ऊंची जाति, पिता की भावनाओं और परिवार के रीतिरिवाज, और हम पर लदे कर्ज का ध्यान रखते हुए मेरी ननद से शादी कर लो.’’

‘‘बाबूजी, क्या आप को नहीं लगता कि ज्योतिषी पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं? इन्होंने कुंडली नहीं, बल्कि शादी काटने की गणित बिठाई है. क्या आज तक कोई किसी का भविष्य जान पाया है? क्या राम की शादी के समय कुंडली का विचार नहीं किया गया था?

‘‘ज्योतिषी चाचा को तो मैं ने नैनी की गलत जन्मतिथि बताई थी. उस की कोई भी जन्मतिथि दी जाएगी, इन्हें अपशकुन का ही योग दिखाई पड़ेगा.

‘‘मैं सरला के बारे में नहीं जानता. मैं यह भी नहीं जानता कि वह मुझ से शादी करना चाहती भी है या नहीं. उसे भी मेरे साथ जबरन जोड़ने की कोशिश सभी लोग कर रहे हैं, पर मैं नैनी को बहुत दिनों से जानता हूं. वह एक समझदार और सुलझी हुई पढ़ीलिखी लड़की है. उस के विचार मुझ से मिलते हैं, मन मिलता है. हमारे दिल में एकदूसरे के लिए प्यार है.

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‘‘मैं जानता हूं कि आप, दीदी और ज्योतिषी चाचा मिल कर साजिश रच रहे हैं. कम से कम बाबूजी आप से और दीदी से मुझे ऐसी उम्मीद नहीं थी,’’ प्रियांशु कह कर चुप हुआ तो भाई महीप और मां ने उस का पक्ष लेते हुए कहा, ‘‘इस की शादी नैनी से ही होगी.’’

‘‘आप चिंता न करें बाबूजी, नैनी और मैं मिल कर कर्ज चुका देंगे,’’ प्रियांशु को अहसास हो गया कि पिताजी दहेज के लालच में यह सब कर रहे हैं.

अब दीनानाथ को समझ आ गया था कि उन से बड़ी भूल हुई है. उन्होंने बहुत बड़ा पाप किया था. अपने बेटे के खिलाफ ही साजिश रची थी. अब वह वक्त नहीं रहा, जब धर्म, जाति और कुंडली के नाम पर बेमेल सोच वाले लोगों को जबरन शादी के बंधन में बांध दिया जाता है.

दीनानाथ बोले, ‘‘बेटा, बाप हो कर भी मैं तुम से माफी मांगता हूं. मुझ से गलती हुई है. शादीब्याह गुड्डेगुडि़या का खेल नहीं है. इस में 2 लोग एकदूसरे के साथ जिंदगीभर के लिए बंधते हैं. पतिपत्नी को जाति नहीं, बल्कि दिल और विचार एकदूसरे के साथ जोड़ते हैं.

‘‘मुझे तुम्हारा रिश्ता तय करते वक्त इस बात का खयाल रखना चाहिए था. दहेज के लालच ने मुझे अंधा बना दिया था. पहले तो लगा कि महीप उद्दंड है, पर उस पर मुझे अब गर्व हो रहा है. उस ने मेरी आंखें खोलने की कोशिश की थी, पर मेरी आंखें न खुलीं.

‘‘कल मैं नैनी की मां से तुम्हारे लिए उस का हाथ मांगने खुद जाऊंगा. साथ ही, तुम्हारी बहन की नादानी के लिए नैनी से भी माफी मांग लूंगा,’’ कहते हुए उन्होंने प्रियांशु को गले लगा लिया.

बहन ने कहा, ‘‘मेरी गलती के लिए आप क्यों माफी मांगेंगे बाबूजी? मैं भी आप के साथ चलूंगी.’’

बदलते जमाने का यही सच था.

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बदलते जमाने का सच: भाग 2

प्रियांशु ने कुछ न कहा. वह पिताजी की बहुत इज्जत करता था. उन के हर आदेश का पालन करना अपना फर्ज समझता था. वह उन की भावनाओं को चोट नहीं पहुंचाना चाहता था. उसे अपनी बहन से भी उतना ही लगाव था.

पर उसे क्या मालूम था कि जिन मातापिता और बहन की वह इतनी इज्जत करता था उन के लिए उस की भावनाओं का कोई मोल नहीं था. उस ने कई मौकों पर नैनी का जिक्र किया था. उस की तारीफ की थी.

एक समझदार मातापिता और बहन के लिए इतना इशारा कम न था. कई बार उस ने सरला से शादी न करने की इच्छा जाहिर की थी. इस के बावजूद उन्होंने उस की शादी सरला से तय कर दी थी. सच तो यह था कि कहीं उस की शादी तय नहीं हुई थी, उसे सरेबाजार बेचा गया था.

रात में पिताजी ने साथ खाने पर बुलाया. उन्होंने खबर भिजवा कर बेटी को भी बुलवा लिया था. उस का छोटा भाई महीप भी आ गया था. सब के सामने पिताजी सगाई की तारीख तय करना चाहते थे.

जब सभी इकट्ठा हुए तो पिताजी ने बात छेड़ी. अब तक गांव में कई लोगों से उन्होंने प्रियांशु की बात की थी. लायक बेटे की यही पहचान है. पिता ने जो फैसला ले लिया, उस पर बेटे ने कोई टिप्पणी नहीं की. गांव के लोग ऐसे ही उस के परिवार को आदर्श नहीं मानते.

‘‘तो प्रियांशु, तुम को कब छुट्टी मिलेगी? उसी समय सगाई की तारीख तय करूंगा,’’ पिता ने कहा.

‘‘लेकिन पिताजी, आप ने भैया से पूछ लिया है या खुद ही रिश्ता तय कर दिया,’’ छोटे भाई महीप ने पूछा.

‘‘प्रियांशु आजकल के लड़कों जैसा नहीं है जो हर बात पर मातापिता की बात का विरोध करते हैं. प्रियांशु जानता है कि उस के पिता जो भी करेंगे, उस के और परिवार के फायदे में करेंगे,’’ पिताजी अचानक महीप के बीच में पड़ने से खीज गए थे.

‘‘इस का मतलब यह हुआ कि भैया को आप बलि का बकरा समझते हैं. भैया ने कई बार सरला से शादी के प्रति अनिच्छा जाहिर की?है. क्या दीदी यह नहीं जानतीं? क्या मां को यह पता नहीं?

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‘‘मां को तो आप ने कभी मान दिया ही नहीं. जिंदगीभर उन्हें दबा कर रखा. आप ने सब पर अनुशासन के नाम पर हिटलरशाही चलाई. लेकिन अब मैं ऐसा न होने दूंगा. शादीब्याह किसी सामान की खरीदफरोख्त नहीं है जिसे जब चाहे और जिस को चाहे खरीदबेच दो.’’

महीप की बात सुन कर पिताजी हैरान रह गए. आज पहली बार उन्हें महीप की नालायकी पर दुख हुआ.

पिताजी कुछ बोलते, इस के पहले ही मां ने कहा, ‘‘जिंदगीभर इन्होंने अपनी चलाई है… अब भी यही करना चाहते हैं. किसी ने प्रियांशु से पूछा कि उस की इच्छा क्या है.’’

‘‘अगर भैया को कोई एतराज नहीं है तो मैं अपनी कही बात वापस ले लूंगा,’’ महीप ने कहा.

‘‘दीदी, तुम से तो मैं ने अपनी इच्छा कई बार बताई. लेकिन तुम मेरी इच्छा का मान क्या रखोगी, उलटे नैनी को तुम ने धमकाया कि वह मेरा पीछा करना छोड़ दे,’’ यह कहते हुए प्रियांशु दुखी था. पर पिता दीनानाथ ने पासा पलटते देख बात को बदला. उन्हें लगा कि इतना बड़ा दहेज उन के हाथों से निकला जा रहा है.

पिता बोले, ‘‘पर बेटा, तुम ने तो बताया था कि नैनी हमारी बिरादरी की नहीं है. हम से छोटी जाति की है तो क्या हमारी बिरादरी में लड़कियों की कमी है, जो अपने से निचली बिरादरी में शादी कर के पूरे समाज में अपनी नाक कटाए?

‘‘यह भी तो सोचो कि छोटी जाति की बहू हमारे जैसी संस्कारवान होगी भला? फिर उस से पैदा हुई औलाद भी तो संस्कारहीन होगी.’’

‘‘आप कैसी बातें करते हैं बाबूजी… आप से किस ने कहा कि आप से छोटी जाति की लड़कियां संस्कारहीन होती हैं? आप ने यह कभी सोचा है कि ऐसा कह कर आप उस की जाति की बेइज्जती कर रहे हैं. यही सोच तो हमारे समाज में कोढ़ बनी हुई है. आप किसी के बारे में बिना कुछ जाने ऐसी बात कैसे कर सकते हैं?

‘‘मैं यह कहूं कि वे छोटी समझी जाने वाली जातियां नहीं, बल्कि हम खुद संस्कारहीन हैं तो बड़ी बात न होगी, क्योंकि वे लोग अपने से बड़ी जातियों की हमेशा इज्जत करते हैं, जबकि हम बिना किसी वजह के केवल जाति के आधार पर उन्हें नीच, संस्कारहीन और न जाने क्याक्या कहते रहते हैं.

‘‘मैं ने ऊंची जाति के कहे जाने वाले लोगों की करतूतें भी खूब देखी हैं. अब इस बात पर चर्चा न करें तो ही अच्छा.’’

जब दीनानाथ ने बात बनते न देखी तो उन्हें गांव के ज्योतिषी याद आए. वे बोले, ‘‘इस संबंध में ज्योतिषी से राय ले लेनी चाहिए. हमारे परिवार में आज तक कोई भी शादी बिना लड़केलड़की की कुंडली मिलाए नहीं हुई है. जब दोनों के गुण मिलते हैं तभी पतिपत्नी की जिंदगी सुख से भरी रहती है, वरना पूरी जिंदगी दुख में ही गुजर जाती है.’’

बदलते जमाने का सच: भाग 1

‘‘हैलो,’’ प्रियांशु ने मुसकरा कर नैनी की ओर देखा.

‘‘हैलो,’’ नैनी भी उसे देख कर मुसकराई.

‘‘तुम्हारा प्रोजैक्ट बन गया क्या?’’

‘‘नहीं, मेरा लैपटौप खराब हो गया है. ठीक होने के लिए दिया है. एक घंटे के लिए अपना लैपटौप दोगे मुझे?’’

‘‘क्यों नहीं, कब चाहिए?’’ प्रियांशु ने पूछा.

‘‘कल दोपहर में आ कर ले जाऊंगी. लंच भी तुम्हारे साथ करूंगी. संडे है न, कोई न कोई नौनवैज तो बनाओगे ही.’’

‘‘बिलकुल. क्या खाना पसंद करोगी, चिकन या मटन?

‘‘जो तुम्हें पसंद हो. वैसे, तुम्हारा प्राजैक्ट बन गया क्या?’’

‘‘हां, देखना चाहोगी?’’

‘‘हां, क्यों नहीं. कल आने के बाद,’’ नैनी ‘बायबाय’ कहते हुए चली गई. प्रियांशु भी अपने र्क्वाटर पर लौट आया.

प्रियांशु और नैनी एक कंपनी में साथसाथ काम करते थे. उन के क्वार्टर भी अगलबगल में थे. दोनों अभी कुंआरे थे. साथसाथ काम करने के चलते अकसर उन में बातचीत होती रहती थी. दोनों के विचार मिलते थे और दोस्ती के लिए इस से ज्यादा चाहिए भी क्या.

दूसरे दिन प्रियांशु मटन ले कर लौटा ही था कि नैनी आई.

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‘‘बहुत जल्दी आ गई तुम नैनी?’’ प्रियांशु ने लान में रखी कुरसी पर बैठने का इशारा किया और खुद मटन रखने रसोईघर में चला गया.

‘‘तुम्हारा हाथ बंटाने पहले आ गई,’’ कह कर नैनी मुसकराई.

नैनी की यही अदा प्रियांशु को उस का दीवाना बनाए हुई थी.

‘‘अभी चाय ले कर आता हूं, फिर इतमीनान से खाना बनाएंगे,’’ कह कर प्रियांशु रसोईघर में चला गया.

प्रियांशु के पिताजी किसान थे. उस से बड़ी एक बहन थी जिस की शादी हो चुकी थी. उस से एक छोटा भाई महीप था जो मैडिकल इम्तिहान की तैयारी कर रहा था. पिता के ऊपर काफी कर्ज हो गया था.

अब प्रियांशु कर्ज चुकाने और छोटे भाई महीप को पढ़ाने का खर्चा उठा रहा था. पिताजी उस की शादी में तिलक की एक मोटी रकम वसूलना चाहते थे. रिश्ते तो कई जगह से आए थे, पर उन की डिमांड ज्यादा होने के चलते कहीं शादी तय नहीं हो पा रही थी. इधर उस की बहन अपनी ननद के लिए लड़का ढूंढ़ रही थी. उस की ननद नाटे कद की थी और किसी तरह मैट्रिक पास हो गई थी. रंगरूप साधारण था, पर प्रियांशु के पिताजी की डिमांड को उस के समधी पूरा करने के लिए तैयार हो गए थे.

नैनी के पिताजी की मौत उस के बचपन में ही हो गई थी. कोई भाई नहीं था. मां ने उस की पढ़ाई के लिए कौनकौन से पापड़ न बेले थे. बाद में उस ने ऐजुकेशन लोन ले कर पढ़ाई पूरी की थी. अब लोन चुकाना और मां की देखभाल की जिम्मेदारी उस पर थी.

प्रियांशु जब रसोईघर में गया था तब उस का मोबाइल फोन बाहर ही छूट गया था. अचानक फोन बजने लगा तो नैनी ने प्रियांशु को पुकारा, पर चाय बनाने में बिजी होने के चलते उस की आवाज प्रियांशु के कानों तक न पहुंची.

नैनी ने फोन रिसीव किया तो उधर से आवाज आई. कोई औरत थी.

‘‘हैलो, आप कौन बोल रही हैं?’’ नैनी ने पूछा.

‘प्रियांशु कहां है? मैं उन की बहन बोल रही हूं. आप कौन हैं?’

‘‘मैं प्रियांशु की कलीग हूं, बगल में ही रहती हूं.’’

‘अच्छा, तुम नैनी हो क्या?’

‘‘हां जी, आप मुझे कैसे जानती हैं?’’ नैनी ने हैरान हो कर पूछा.

‘प्रियांशु ने बताया था. अब तुम उस का पीछा करना छोड़ दो. उस की शादी मेरी ननद से तय हो गई है,’ उधर से एक तीखी आवाज आई.

‘‘अच्छा जी… प्रियांशु अभी रसोईघर में हैं. वे आ जाते हैं तो उन्हें आप को फोन करने के लिए कहती हूं,’’ नैनी ने अपनेआप को संभालते हुए कहा.

प्रियांशु ने अपनी बहन की ननद के बारे में कुछ दिनों पहले बताया था. वह कुछ परेशान सा लग रहा था. उस की बातों से लग रहा था कि उस की बहन अपनी ननद के लिए उस के पीछे पड़ी थी. कहती थी कि यह शादी हो जाती है तो उसे मुंहमांगा दहेज मिलेगा. साथ ही, उस की ननद हमेशा के लिए उस के साथ रहेगी, पर प्रियांशु को यह रिश्ता बिलकुल पसंद नहीं था.

नैनी यह तो नहीं जानती थी कि प्रियांशु से उस का क्या रिश्ता है, पर उन दोनों को एकदूसरे का साथ बहुत भाता था. प्रियांशु जब कभी औफिस से गैरहाजिर होता था तो वह उसे बहुत याद करती. आज उसे पता चला कि प्रियांशु ने घर में उस की चर्चा की है, पर इस संबंध में उस ने कभी कुछ बताया न था. अभी वह इसी उधेड़बुन में थी कि प्रियांशु आ गया.

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‘‘तुम्हारा फोन था. बधाई, तुम्हारी शादी तय हो गई,’’ नैनी ने मुसकराने की कोशिश करते हुए कहा.

प्रियांशु चाय की ट्रे लिए खड़ा था. लगा, गिर जाएगा. किसी तरह अपनेआप को संभालते हुए वह बैठा. यह सुन कर उस का मन बैठता चला गया. तो क्या सच ही उस की शादी तय हो गई? क्या यह उस की बहन की चाल तो नहीं? अगर ऐसा है तो जरूर ही उस की ननद होगी. पर वे लोग उस से बिना पूछे ऐसा कैसे कर सकते हैं.

‘‘क्या सोच रहे हो? बहन से पूछ लो कि कब सगाई है. मुझे तो ले नहीं चलोगे. कहोगे तब भी मैं न चलूंगी. तुम्हारी बहन ने चेताया है, तुम्हारा पीछा छोड़ दूं,’’ नैनी बोल रही थी. वह सुन रहा था. लंच का सारा मजा किरकिरा हो गया था.

दूसरे दिन प्रियांशु गांव में था. उस ने पिताजी के पैर छुए.

‘‘अच्छा हुआ कि तू आ गया बेटा. अब हम कर्ज से जल्दी ही उबर जाएंगे. तुम्हारा रिश्ता तय हो गया है सरला से. वही तुम्हारी बहन की ननद. कद में तुम से थोड़ी छोटी जरूर है, पर घर के कामों में माहिर है. सुशील इतनी कि हर कोई उस के स्वभाव की तारीफ करता है. तुम्हारी बहन का भी काफी जोर था.’’

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