
भाईभाई में, भाईबहनों में कहासुनी कहां नहीं होती. लेकिन इस का मतलब यह तो नहीं होता कि संबंध समाप्त कर लिए जाएं. मेरे साथ यही हुआ, जानेअनजाने मैं पंकज से ही नहीं, अपने परिवार के अन्य सदस्यों से भी दूर होता चला गया.
सही माने में देखा जाए तो संपन्नता व कामयाबी के जिस शिखर पर बैठ कर मैं व मेरी पत्नी गर्व महसूस कर रहे थे, उस की जमीन मेरे लिए पंकज ने ही तैयार की थी. उस के पूर्ण सहयोग व प्रोत्साहन के बिना अपनी पत्नी के साथ मैं इस अजनबी शहर में आने व अल्प पूंजी से नए सिरे से व्यवसाय शुरू करने की बात सोच भी नहीं सकता था. उस का आभार मानने के बदले मैं ने उस रिश्ते को दफन कर दिया. मेरी उन्नति में मेरी ससुराल वालों का 1 प्रतिशत भी योगदान नहीं था, किंतु धीरेधीरे वही मेरे नजदीक होते गए. दोष शिखा का नहीं, मेरा था. मैं ही अपने निकटतम रिश्तों के प्रति ईमानदार नहीं रहा. जब मैं ने ही उन के प्रति उपेक्षा का भाव अपनाया तो मेरी पत्नी शिखा भला उन रिश्तों की कद्र क्यों करती?
समाज में साथ रहने वाले मित्र, पड़ोसी, परिचित सब हमारे हिसाब से नहीं चलते. हम में मतभेद भी होते हैं. एकदूसरे से नाखुश भी होते हैं, आगेपीछे एकदूसरे की आलोचना भी करते हैं, लेकिन फिर भी संबंधों का निर्वाह करते हैं. उन के दुखसुख में शामिल होते हैं. फिर अपनों के प्रति हम इतने कठोर क्यों हो जाते हैं? उन की जराजरा सी त्रुटियों को बढ़ाचढ़ा कर क्यों देखते हैं? कुछ बातों को नजरअंदाज क्यों नहीं कर पाते? तिल का ताड़ क्यों बना देते हैं?
ये भी पढ़ें- महंगा इनाम : क्या शालिनी को मिल पाया अपना इनाम
मैं सोचने लगा, पंकज मेरा सगा भाई है. यदि जानेअनजाने उस ने कुछ गलत किया या कहा भी है तो आपस में मिलबैठ कर मतभेद मिटाने का प्रयास भी तो कर सकते थे. गलतफहमियों को दूर करने के बदले हम रिश्तों को समाप्त करने के लिए कमर कस लें, यह तो समझदारी नहीं है. असलियत तो यह है कि कुछ शातिर लोगों ने दोस्ती का ढोंग रचाते हुए हमें एकदूसरे के विरुद्ध भड़काया, हमारे बीच की खाई को गहरा किया. हमारी नासमझी की वजह से वे अपनी कोशिश में कामयाब भी रहे, क्योंकि हम ने अपनों की तुलना में गैरों पर विश्वास किया.
मैं ने निर्णय कर लिया कि अपने फैसले मैं खुद लूंगा. पंकज की शादी में शिखा जाए या न जाए, किंतु मैं समय पर पहुंच कर भाई का फर्ज निभाऊंगा. उस की सगाई में भी शिखा की वजह से ही मैं तब पहुंचा, जब प्रोग्राम समाप्त हो चुका था.
सगाई वाले दिन मैं जल्दी ही दुकान बंद कर के घर आ गया था, लेकिन शिखा ने कलह शुरू कर दिया था. वह पंकज के प्रति शिकायतों का पुराना पुलिंदा खोल कर बैठ गई थी. उस ने मेरा मूड इतना खराब कर दिया था कि जाने का उत्साह ही ठंडा पड़ गया. मैं बिस्तर पर पड़ापड़ा सो गया था. जब नींद खुली तो रात के 10 बज रहे थे. मन अंदर से कहीं कचोट रहा था कि तेरे सगे भाई की सगाई है और तू यहां घर में पड़ा है. फिर मैं बिना कुछ विचार किए, देर से ही सही, पंकज के घर चला गया था.
मानव का स्वभाव है कि अपनी गलती न मान कर दोष दूसरे के सिर पर मढ़ देता है, जैसे कि वह दोष मैं ने शिखा के सिर पर मढ़ दिया. ठीक है, शिखा ने मुझे रोकने का प्रयास अवश्य किया था किंतु मेरे पैरों में बेड़ी तो नहीं डाली थी. दोषी मैं ही था. वह तो दूसरे घर से आई थी. नए रिश्तों में एकदम से लगाव नहीं होता. मुझे ही कड़ी बन कर उस को अपने परिवार से जोड़ना चाहिए था, जैसे उस ने मुझे अपने परिवार से जोड़ लिया था.
शिखा की सिसकियों की आवाज से मेरा ध्यान भंग हुआ. वह बाहर वाले कमरे में थी. उसे मालूम नहीं था कि मैं नहा कर बाहर आ चुका हूं और फोन की पैरलेल लाइन पर मां व उस की पूरी बातें सुन चुका हूं. मैं सहजता से बाहर गया और उस से पूछा, ‘‘शिखा, रो क्यों रही हो?’’
ये भी पढ़ें- कॉलगर्ल: होटल में उस रात क्या हुआ
‘‘मुझे रुलाने का ठेका तो तुम्हारे घर वालों ने ले रखा है. अभी आप की मां का फोन आया था. आप को तो पता है न, मेरी भाभी ने आत्महत्या की थी. आप की मां ने आरोप लगाया है कि भाभी की हत्या की साजिश में मैं भी शामिल थी,’’ कह कर वह जोर से रोने लगी.
‘‘बस, यही आरोप लगाने के लिए उन्होंने फोन किया था?’’
‘‘उन के हिसाब से मैं ने रिश्तों को तोड़ा है. फिर भी वे चाहती हैं कि मैं पंकज की शादी में जाऊं. मैं इस शादी में हरगिज नहीं जाऊंगी, यह मेरा अंतिम फैसला है. तुम्हें भी वहां नहीं जाना चाहिए.’’
‘‘सुनो, हम दोनों अपनाअपना फैसला करने के लिए स्वतंत्र हैं. मैं चाहते हुए भी तुम्हें पंकज के यहां चलने के लिए बाध्य नहीं करना चाहता. किंतु अपना निर्णय लेने के लिए मैं स्वतंत्र हूं. मुझे तुम्हारी सलाह नहीं चाहिए.’’
‘‘तो तुम जाओगे? पंकज तुम्हारे व मेरे लिए जगहजगह इतना जहर उगलता फिरता है, फिर भी जाओगे?’’
‘‘उस ने कभी मुझ से या मेरे सामने ऐसा नहीं कहा. लोगों के कहने पर हमें पूरी तरह विश्वास नहीं करना चाहिए. लोगों के कहने की परवा मैं ने की होती तो तुम को कभी भी वह प्यार न दे पाता, जो मैं ने तुम्हें दिया है. अभी तुम मांजी द्वारा आरोप लगाए जाने की बात कर रही थीं. पर वह उन्होंने नहीं लगाया. लोगों ने उन्हें ऐसा बताया होगा. आज तक मैं ने भी इस बारे में तुम से कुछ पूछा या कहा नहीं. आज कह रहा हूं… तुम्हारे ही कुछ परिचितों व रिश्तेदारों ने मुझ से भी कहा कि शिखा बहुत तेजमिजाज लड़की है. अपनी भाभी को इस ने कभी चैन से नहीं जीने दिया. इस के जुल्मों से परेशान हो कर भाभी की मौत हुई थी. पता नहीं वह हत्या थी या आत्महत्या…लेकिन मैं ने उन लोगों की परवा नहीं की…’’
‘‘पर तुम ने उन की बातों पर विश्वास कर लिया? क्या तुम भी मुझे अपराधी समझते हो?’’
‘‘मैं तुम्हें अपराधी नहीं समझता. न ही मैं ने उन लोगों की बातों पर विश्वास किया था. अगर विश्वास किया होता तो तुम से शादी न करता. तुम से बस एक सवाल करना चाहता हूं, लोग जब किसी के बारे में कुछ कहते हैं तो क्या हमें उस बात पर विश्वास कर लेना चाहिए.’’
‘‘मैं तो बस इतना जानती हूं कि वह सब झूठ है. हम से जलने वालों ने यह अफवाह फैलाई थी. इसी वजह से मेरी शादी में कई बार रुकावटें आईं.’’
‘‘मैं ने भी उसे सच नहीं माना, बस तुम्हें यह एहसास कराना चाहता हूं कि जैसे ये सब बातें झूठी हैं, वैसे ही पंकज के खिलाफ हमें भड़काने वालों की बातें भी झूठी हो सकती हैं. उन्हें हम सत्य क्यों मान रहे हैं?’’
‘‘लेकिन मुझे नहीं लगता कि वे बातें झूठी हैं. खैर, लोगों ने सच कहा हो या झूठ, मैं तो नहीं जाऊंगी. एक बार भी उन्होंने मुझ से शादी में आने को नहीं कहा.’’
‘‘कैसे कहता, सगाई पर आने के लिए तुम से कितना आग्रह कर के गया था. यहां तक कि उस ने तुम से माफी भी मांगी थी. फिर भी तुम नहीं गईं. इतना घमंड अच्छा नहीं. उस की जगह मैं होता तो दोबारा बुलाने न आता.’’
‘‘सब नाटक था, लेकिन आज अचानक तुम्हें हो क्या गया है? आज तो पंकज की बड़ी तरफदारी की जा रही है?’’
तभी द्वार की घंटी बजी. पंकज आया था. उस ने शिखा से कहा, ‘‘भाभी, भैया से तो आप को साथ लाने को कह ही चुका हूं, आप से भी कह रहा हूं. आप आएंगी तो मुझे खुशी होगी. अब मैं चलता हूं, बहुत काम करने हैं.’’
ये भी पढ़ें- एक राजनीतिज्ञ बंदर से मुलाकात
पंकज प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा किए बिना लौट गया. मैं ने पूछा, ‘‘अब तो तुम्हारी यह शिकायत भी दूर हो गई कि तुम से उस ने आने को नहीं कहा? अब क्या इरादा है?’’
‘‘इरादा क्या होना है, हमारे पड़ोसियों से तो एक सप्ताह पहले ही आने को कह गया था. मुझे एक दिन पहले न्योता देने आया है. असली बात तो यह है कि मेरा मन उन से इतना खट्टा हो गया है कि मैं जाना नहीं चाहती. मैं नहीं जाऊंगी.’’
‘‘तुम्हारी मरजी,’’ कह कर मैं दुकान चला गया.
थोड़ी देर बाद ही शिखा का फोन आया, ‘‘सुनो, एक खुशखबरी है. मेरे भाई हिमांशु की शादी तय हो गई है.
10 दिन बाद ही शादी है. उस के बाद कई महीने तक शादियां नहीं होंगी. इसीलिए जल्दी शादी करने का निर्णय लिया है.’’
‘‘बधाई हो, कब जा रही हो?’’
‘‘पूछ तो ऐसे रहे हो जैसे मैं अकेली ही जाऊंगी. तुम नहीं जाओगे?’’
‘‘तुम ने सही सोचा, तुम्हारे भाई की शादी है, तुम जाओ, मैं नहीं जाऊंगा.’’
‘‘यह क्या हो गया है तुम्हें, कैसी बातें कर रहे हो? मेरे मांबाप की जगहंसाई कराने का इरादा है क्या? सब पूछेंगे, दामाद क्यों नहीं आया तो
क्या जवाब देंगे? लोग कई तरह की बातें बनाएंगे…’’
‘‘बातें तो लोगों ने तब भी बनाई होंगी, जब एक ही शहर में रहते हुए, सगी भाभी हो कर भी तुम देवर की सगाई में नहीं गईं…और अब शादी में भी नहीं जाओगी. जगहंसाई क्या यहां नहीं होगी या फिर इज्जत का ठेका तुम्हारे खानदान ने ही ले रखा है, हमारे खानदान की तो कोई इज्जत ही नहीं है?’’
‘‘मत करो तुलना दोनों खानदानों की. मेरे घर वाले तुम्हें बहुत प्यार करते हैं. क्या तुम्हारे घर वाले मुझे वह इज्जत व प्यार दे पाए?’’
ये भी पढ़ें- Women’s Day Special: परवाज़ की उड़ान
‘‘हरेक को इज्जत व प्यार अपने व्यवहार से मिलता है.’’
‘‘तो क्या तुम्हारा अंतिम फैसला है कि तुम मेरे भाई की शादी में नहीं जाओगे?’’
‘‘अंतिम ही समझो. यदि तुम मेरे भाई की शादी में नहीं जाओगी तो मैं भला तुम्हारे भाई की शादी में क्यों जाऊंगा?’’
‘‘अच्छा, तो तुम मुझे ब्लैकमेल कर रहे हो?’’ कह कर शिखा ने फोन रख दिया. दूसरे दिन पंकज की शादी में शिखा को आया देख कर मांजी का चेहरा खुशी से खिल उठा था. पंकज भी बहुत खुश था.
मांजी ने स्नेह से शिखा की पीठ पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘बेटी, तुम आ गई, मैं बहुत खुश हूं. मुझे तुम से यही उम्मीद थी.’’
‘‘आती कैसे नहीं, मैं आप की बहुत इज्जत करती हूं. आप के आग्रह को कैसे टाल सकती थी?’’
मैं मन ही मन मुसकराया. शिखा किन परिस्थितियों के कारण यहां आई, यह तो बस मैं ही जानता था. उस के ये संवाद भले ही झूठे थे, पर अपने सफल अभिनय द्वारा उस ने मां को प्रसन्न कर दिया था. यह हमारे बीच हुए समझौते की एक सुखद सफलता थी.
जब मां का फोन आया, तब मैं बाथरूम से बाहर निकल रहा था. मेरे रिसीवर उठाने से पहले ही शिखा ने फोन पर वार्त्तालाप आरंभ कर दिया था.
मां उस से कह रही थीं, ‘‘शिखा, मैं ने तुम्हें एक सलाह देने के लिए फोन किया है. मैं जो कुछ कहने जा रही हूं, वह सिर्फ मेरी सलाह है, सास होने के नाते आदेश नहीं. उम्मीद है तुम उस पर विचार करोगी और हो सका तो मानोगी भी…’’
‘‘बोलिए, मांजी?’’
‘‘बेटी, तुम्हारे देवर पंकज की शादी है. वह कोई गैर नहीं, तुम्हारे पति का सगा भाई है. तुम दोनों के व्यापार अलग हैं, घर अलग हैं, कुछ भी तो साझा नहीं है. फिर भी तुम लोगों के बीच मधुर संबंध नहीं हैं बल्कि यह कहना अधिक सही होगा कि संबंध टूट चुके हैं. मैं तो समझती हूं कि अलगअलग रह कर संबंधों को निभाना ज्यादा आसान हो जाता है.
ये भी पढ़ें- जोरू का गुलाम : मां इतनी संगदिल कैसे हो गईं
‘‘वैसे उस की गलती क्या है…बस यही कि उस ने तुम दोनों को इस नए शहर में बुलाया, अपने साथ रखा और नए सिरे से व्यापार शुरू करने को प्रोत्साहित किया. हो सकता है, उस के साथ रहने में तुम्हें कुछ परेशानी हुई हो, एकदूसरे से कुछ शिकायतें भी हों, किंतु इन बातों से क्या रिश्ते समाप्त हो जाते हैं? उस की सगाई में तो तुम नहीं आई थीं, किंतु शादी में जरूर आना. बहू का फर्ज परिवार को जोड़ना होना चाहिए.’’
‘‘तो क्या मैं ने रिश्तों को तोड़ा है? पंकज ही सब जगह हमारी बुराई करते फिरते हैं. लोगों से यहां तक कहा है, ‘मेरा बस चले तो भाभी को गोली मार दूं. उस ने आते ही हम दोनों भाइयों के बीच दरार डाल दी.’ मांजी, दरार डालने वाली मैं कौन होती हूं? असल में पंकज के भाई ही उन से खुश नहीं हैं. मुझे तो अपने पति की पसंद के हिसाब से चलना पड़ेगा. वे कहेंगे तो आ जाऊंगी.’’
‘‘देखो, मैं यह तो नहीं कहती कि तुम ने रिश्ते को तोड़ा है, लेकिन जोड़ने का प्रयास भी नहीं किया. रही बात लोगों के कहने की, तो कुछ लोगों का काम ही यही होता है. वे इधरउधर की झूठी बातें कर के परिवार में, संबंधों में फूट डालते रहते हैं और झगड़ा करा कर मजा लूटते हैं. तुम्हारी गलती बस इतनी है कि तुम ने दूसरों की बातों पर विश्वास कर लिया.
‘‘देखो शिखा, मैं ने आज तक कभी तुम्हारे सामने चर्चा नहीं की है, किंतु आज कह रही हूं. तुम्हारी शादी के बाद कई लोगों ने हम से कहा, ‘आप कैसी लड़की को बहू बना कर ले आए. इस ने अपनी भाभी को चैन से नहीं जीने दिया, बहुत सताया. अपनी भाभी की हत्या के सिलसिले में इस का नाम भी पुलिस में दर्ज था. कुंआरी लड़की है, शादी में दिक्कतें आएंगी, यही सोच कर रिश्वत खिला कर उस का नाम, घर वालों ने उस केस से निकलवाया है.’
‘‘अगर शादी से पहले हमें यह समाचार मिलता तो शायद हम सचाई जानने के लिए प्रयास भी करते, लेकिन तब तक तुम बहू बन कर हमारे घर आ चुकी थीं. कहने वालों को हम ने फटकार कर भगा दिया था. यह सब बता कर मैं तुम्हें दुखी नहीं करना चाहती, बल्कि कहना यह चाहती हूं कि आंखें बंद कर के लोगों की बातों पर विश्वास नहीं करना चाहिए. खैर, मैं ने तुम्हें शादी में आने की सलाह देने के लिए फोन किया है, मानना न मानना तुम्हारी मरजी पर निर्भर करता है,’’ इतना कह कर मां ने फोन काट दिया था.
ये भी पढ़ें- इज्जत की खातिर: क्यों एक बाप ने की बेटी की हत्या
मां ने कई बार मुझे भी समझाने की कोशिश की थी, किंतु मैं ने उन की पूरी बात कभी नहीं सुनी. बल्कि,? उन पर यही दोषारोपण करता रहा कि वह मुझ से ज्यादा पंकज को प्यार करती हैं, इसलिए उन्हें मेरा ही दोष नजर आता है, पंकज का नहीं. इस पर वे हमेशा यहां से रोती हुई ही लौटी थीं.
लेकिन सचाई तो यह थी कि मैं खुद भी पंकज के खिलाफ था. हमेशा दूसरों की बातों पर विश्वास करता रहा. इस तरह हम दोनों भाइयों के बीच खाई चौड़ी होती चली गई. लेकिन फोन पर की गई मां की बातें सुन कर कुछ हद तक उन से सहमत ही हुआ.
मां यहां नहीं रहती थीं. शादी की वजह से ही पंकज के पास उस के घर आई हुई थीं. वे हम दोनों भाइयों के बीच अच्छे संबंध न होने की वजह से बहुत दुखी रहतीं इसीलिए यहां बहुत कम ही आतीं.
लोग सही कहते हैं, अधिकतर पति पारिवारिक रिश्तों को निभाने के मामले में पत्नी पर निर्भर हो जाते हैं. उस की नजरों से ही अपने रिश्तों का मूल्यांकन करने लगते हैं. शायद यही वजह है, पुरुष अपने मातापिता, भाईबहनों आदि से दूर होते जाते हैं और ससुराल वालों के नजदीक होते जाते हैं.
दूसरों शब्दों में यों भी कहा जा सकता है कि महिलाएं, पुरुषों की तुलना में अपने रक्त संबंधों के प्रति अधिक वफादार होती हैं. इसीलिए अपने मायके वालों से उन के संबंध मधुर बने रहते हैं. बल्कि कड़ी बन कर वे पतियों को भी अपने परिवार से जोड़ने का प्रयास करती रहती हैं. वैसे पुरुष का अपनी ससुराल से जुड़ना गलत नहीं है. गलत है तो यह कि पुरुष रिश्तों में संतुलन नहीं रख पाते, वे नए परिवार से तो जुड़ते हैं, किंतु धीरेधीरे अपने परिवार से दूर होते चले जाते हैं.
एक बार बौस ने उसे अपने केबिन में बुलाया और कहा कि औफिस के किसी काम से वे दिल्ली जा रहे हैं, उसे उन के साथ चलना होगा. एक सप्ताह के वेतन के साथ उसे अतिरिक्त रुपया मिलेगा और दिल्ली में रहनाखाना कंपनी के खर्चे पर. लेकिन उस ने साफ शब्दों में इनकार कर दिया और बहाना बना दिया कि पति उसे इस बात की आज्ञा नहीं देंगे.
उस दिन जब वह घर पर आई तो देखा ड्राइंगरूम में एक नई अटैची रखी हुई थी, तभी दिवाकर उस के लिए चाय बना कर ले आया. चाय तो अकसर वह वैसे भी बना कर पिलाता था. उसे पता है कि थकान हो या गुस्सा, चाय पीते ही वह शांत हो जाती है. दोनों चाय पीने लगे.
श्रुति के मन में अटैची के बारे में जानने की उत्सुकता हो रही थी, अंदर ही अंदर दिल कुछ अच्छी खबर सुनने को लालायित था. उस ने अपनी उत्सुकता को शांत करने के लिए खुशी को छिपाते हुए पूछा, ‘हम दोनों कहीं बाहर घूमने जा रहे हैं क्या? कहां का प्रोगाम बनाया है?’
दिवाकर बोला, ‘हम नहीं, सिर्फ तुम.’
श्रुति हैरानी से उस की तरफ देखने लगी तो उस ने बौस के साथ हुई सारी बात बताई और कहा कि श्रुति, तुम्हें अपने बौस के साथ 7 दिन के लिए औफिस टूर पर दिल्ली जाना है. उसी के लिए वह अटैची लाया है. पता नहीं उस दिन ऐसा क्या हुआ कि वर्षों का दबा हुआ लावा निकल कर बाहर आ गया. श्रुति का तनमन जल उठा.
ये भी पढ़ें- चोट: पायल ने योगेश को कैसी सजा दी
दिवाकर द्वारा लाई गई अटैची को उस ने बालकनी से नीचे फेंक दिया और उस को दोटूक जवाब दे दिया कि वह बौस के साथ दिल्ली नहीं जाएगी. ऐसा कहने पर दिवाकर बहुत नाराज हुआ. उस ने कहा कि उस के द्वारा किए वादे का क्या होगा जो उस ने बौस से किया है और फिर वहां रहनेखाने का खर्चा भी तो कंपनी ही उठाएगी. सप्ताह का अतिरिक्त रुपया भी तो मिलेगा. उस दिन वह अपने होशोहवास खो बैठी, एकदम फूट पड़ी, ‘दिवाकर, तुम्हें क्या हो गया है, सारा वक्त तुम पैसापैसा क्यों करते रहते हो. अपने पास किस चीज की कमी है? अपना परिवार बढ़ाने की क्यों नहीं सोचते हो? मैं आज तक नहीं समझ पाई तुम्हारी ख्वाहिशें कब पूरी होंगी.’
ये भी पढ़ें- Women’s Day Special- अपना घर: भाग 2
दिवाकर ऊंची आवाज में बोला था, ‘तुम जाओगी या नहीं?’
श्रुति के न करते ही उस ने उस के गाल पर जोर से थप्पड़ मारा. थप्पड़ की झन्नाहट आज भी उस के कानों में गूंज रही है. वह एकदम से चिल्लाया था, ‘तुम्हें जाना पडे़गा क्योंकि मैं ने तुम्हारे बौस को हां कर दी है.’
श्रुति उस दिन उस से भी तेज आवाज में चिल्लाई थी, ‘मैं नहीं जाऊंगी. तुम ने मेरे से पूछ कर बोला था क्या?’
दिवाकर ने कहा, ‘तुम मेरी पत्नी हो, मैं तुम्हारी इजाजत के बिना कुछ भी कर सकता हूं और पत्नी होने के नाते तुम्हें मेरा कहना मानना होगा.’
श्रुति उस को देखती रह गई. वह पछता रही थी कि ऐसा दिवाकर में उस ने क्या देखा जो उस के साथ सात फेरे लिए.
दिवाकर द्वारा जोर से थप्पड़ मारने पर उसे रोना नहीं आया बल्कि अपने पर अफसोस हो रहा था कि इस दरिंदे के साथ इतने वर्षों तक क्यों रही, बहुत पहले ही चले जाना चाहिए था. उस रात दिवाकर से ज्यादा सवालजवाब किए बिना वह एक बैग में जितने कपड़े आ सकते थे, रख कर हमेशा के लिए उस को छोड़ आई.
टे्रन अपनी गति से आगे बढ़ रही थी और पुरानी यादों का सिलसिला जारी था. श्रुति कभी गालों पर ढलक आए आंसुओं को पोंछ लेती और फिर विचार तंद्रा में खो जाती.
वह मम्मीपापा के पास आ तो गई पर अब क्या करेगी, कुछ समझ नहीं आ रहा था उसे. पापा ने समझाया था कि बेटा, वापस दिवाकर के पास चली जाओ पर उस ने साफ इनकार कर दिया था, ‘पापा, मैं उस के पास हरगिज नहीं जाऊंगी. दिवाकर को पत्नी की जरूरत नहीं है. उस को रुपया कमाने वाली मशीन चाहिए, जिस की अपनी कोई इच्छा न हो, कोई भावना न हो, अपने ढंग से जीने के माने जिस के लिए महत्त्व नहीं रखते हों, उस के साथ कोई कैसे रहे.
‘मैं इतने वर्षों से अपना पूरा वेतन उस के हाथों में रखती आई थी. अभी भी आते समय मैं ने रुपयों के बारे में उस से झगड़ा नहीं किया. अपनी खुद की मेहनत से कमाए हुए रुपए भी उस से नहीं मांगे. मैं तो सिर्फ घर चाहती थी जहां बच्चों की किलकारियां हों.
‘मैं अपने छोटेछोटे सपनों को सच होते देखना चाहती थी पर दिवाकर को इन सब से नफरत थी, वह सिर्फ पैसा चाहता था, उस के लिए शायद वह अपने को किसी हद तक गिरा भी सकता था. इतने वर्षों में मैं ने दिवाकर को जितना समझा उस आधार पर मैं कह सकती हूं कि वह धनलोलुप इंसान है. उस के लिए किसी की इच्छाएं कोई माने नहीं रखतीं. पापा, उस ने मेरे को कभी समझने की कोशिश ही नहीं की. हम दोनों की शादी को 10 वर्ष हो गए पर आज तक उस ने धन जोड़ने के अतिरिक्त कुछ नहीं सोचा.
‘जब मैं औफिस से आती थी तो घर मुझे खाने को दौड़ता था. पूरा घर मुझे व्यवस्थित मिलता था, कभी कोई वस्तु अपनी जगह से हिलाई नहीं जाती थी. हिलाता भी तो कौन, घर में हम दोनों ही तो थे. हमारा घर सभी सुविधाओं से अटा पड़ा था पर हम दोनों में से किसी को भी उन का उपयोग करने का समय नहीं था और न ही मन. उस का तो मुझे नहीं पता पर मैं इन सुविधाओं से ऊब चुकी थी. मन करता था इन सब से दूर जा कर कहीं खुल कर सांस लूं, खुले आसमान को निहारूं, पक्षियों की आवाज सुन कर दिल को चैन दूं, वृक्षों के बीच जा कर उन से अपने दिल की बात कहूं. कहते हैं वृक्ष भी बोलते हैं पर वे चाहे मुझ से न बोलें पर मेरे दिल की बात तो सुन सकते हैं और आप से कहती हूं, मैं ही नहीं, दिवाकर भी कभी खुश नजर नहीं आता था. उस को कभी भी संतोष नहीं होता था, वह हमेशा जोड़ने की फिराक में रहता था.’
ट्रेन ने फिर से रफ्तार पकड़ ली. श्रुति को ध्यान आया जब वह मम्मीपापा के पास आ गई थी तो वे लोग कितने चिंतित हो गए थे कि अब क्या होगा. वह स्वयं परेशान थी, क्या करेगी. दिवाकर के साथ रह कर नौकरी करना उस की जरूरत नहीं थी, उस के दबाव में आ कर कर रही थी पर अब मजबूरी है. वह मम्मीपापा, भाभी पर बोझ नहीं बनना चाहती थी.
ज्यादा भागदौड़ किए बिना उसे एक प्राइवेट स्कूल में नौकरी मिल गई. स्कूल के पीछे ही उस के रहने की व्यवस्था थी. वह बहुत खुश थी. बच्चों का साथ था. 8वीं कक्षा तक का स्कूल था. दिनभर तो व्यस्त रहती थी परंतु रात के समय उस का अतीत उसे डसने लगता था. हमेशा यही विचार आता, काश, दिवाकर की सोच अच्छी होती तो उस के वैवाहिक जीवन में यह मोड़ न आता. हालांकि आज तक उस के और दिवाकर के बीच में तलाक नहीं हुआ है. दोनों में से किसी एक ने भी इस बारे में नहीं सोचा. पता नहीं, वह कैसा है पर उस की जिंदगी पटरी से उतर चुकी है.
आर्थिक दृष्टि से मजबूत है फिर भी जिंदगी में खालीपन है. आज उसे अपने किए पर अफसोस हो रहा था. जिस मार्ग पर वह चाह कर भी नहीं चलना चाहती थी उसी पर चलना पड़ रहा है. थोड़ी समझदार होने के बाद से ही वह सोचा करती थी कि नौकरी कभी नहीं करूंगी. अपना प्यारा सा घर बसाऊंगी, जहां प्यार ही प्यार होगा पर वह जो चाहती थी उस को नहीं मिला. उस का घरपरिवार तो कभी बना ही नहीं.
ये भी पढ़ें- Women’s Day Special- अपना घर: भाग 3
कल पापा के नाम तार आया था. दिवाकर की मां का देहांत हो गया. पता नहीं उन लोगों ने क्यों सूचित किया. इस से पहले दिवाकर के बड़े भाई का देहांत हुआ था तब तो सूचना नहीं आई थी. उस समय यदि इत्तला कर देते तो शायद वह चली जाती. और हो सकता था कि जिंदगी में नया मोड़ आ जाता पर अब उन लोगों को उस की याद आई है. उसे पापा ने फोन पर जब इस बारे में बताया था तो उस ने बोल दिया था, ‘तो क्या हुआ, दुनिया में हर दिन कितनी ही मौतें होती हैं. दिवाकर की मां की भी मौत हो गई तो क्या हुआ, मैं वहां जा कर क्या करूंगी.’
श्रुति के इस जवाब से उस के पापा बुरी तरह से नाराज हुए.
श्रुति का दिमाग फिर से परेशान था. ट्रेन में थी वह. अपने आप पर उसे गुस्सा आ रहा था, ‘तू क्यों जा रही है वहां’. उस का मन खिन्न हो गया. पूरे 15 वर्ष पहले सबकुछ होते हुए भी उसे अपना घर छोड़ना पड़ा था. दिवाकर के प्रति नफरत आज भी बनी हुई थी. नहीं चाहते हुए भी यादें उस का पीछा नहीं छोड़ रही थीं.
आज श्रुति उम्र के तीसरे पड़ाव की दहलीज पर है. जिंदगी में एक तरह से उस के पास सबकुछ था पर असल में उसे कुछ नहीं मिला. दिवाकर से उस ने अपनी मरजी से शादी की थी, मम्मीपापा ने भी कोई एतराज नहीं किया. उस में कोई कमी भी तो नहीं थी जो वे मना करते. बिना शर्तों के उस की शादी दिवाकर से हुई थी. वह अपने इस निर्णय से खुश थी.
शादी के कुछ समय बाद एक दिन वह बोला, ‘श्रुति, मैं ने तुम्हारे लिए नौकरी ढूंढ़ ली है.’ श्रुति हैरान हो गई थी क्योंकि उस को नौकरी करना कभी भी अच्छा नहीं लगता था पर दिवाकर ने उस के चेहरे पर आतेजाते भावों की तरफ से अनजान बन कर अपनी बात को जारी रखा, ‘मैं ने एक विज्ञापन कंपनी में बात की है. तुम्हें तो बस नौकरी के लिए एक अरजी लिख कर उस पर अपने हस्ताक्षर कर के देने हैं, आगे मैं देख लूंगा. नौकरी तो तुम्हें शतप्रतिशत मिल जाएगी.’
उस ने दिवाकर को मना भी किया था, उसे समझाया भी था कि वह अच्छाखासा कमा लेता है और अपनी जरूरतें भी इतनी ही हैं. वह घर संभाल लेगी. उस का मन नौकरी करने का नहीं है पर दिवाकर के जरूरत से ज्यादा दबाव डालने पर उस ने नौकरी के लिए अरजी लिख कर दे दी. कुछ दिन बाद ही नियुक्तिपत्र आ गया.
नौकरी मिलने की खुशी उसे नहीं थी लेकिन दिवाकर को थी. वह बहुत ही खुश नजर आ रहा था. उस समय भी उस ने कोशिश की कि वह किसी तरह मान जाए. उस का मानना था कि इस से समय अच्छा व्यतीत हो जाएगा, कभी उकताहट नहीं होगी जबकि वह इस बात को अच्छे से जानता था कि उसे घर से कभी उकताहट नहीं होती है.
ये भी पढ़ें- Women’s Day Special- ऐसा कैसे होगा: उम्र की दहलीज पर आभा
दिवाकर ने उस को नौकरी दिलवा दी. शुरू में उस को बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता था पर दिवाकर को चकाचौंध भरी जिंदगी ज्यादा आकर्षित करती थी. दोनों के बीच उलटा था. अकसर औरतों को ऐशोआराम की जिंदगी ज्यादा पसंद होती है. लेकिन श्रुति सादा जीवन पसंद करती थी. वे दोनों मिल कर खूब अच्छा कमा लेते थे. 5-6 वर्षों में ही उन के पास सबकुछ हो गया था. श्रुति नौकरी छोड़ना चाहती थी. उसे अब बच्चे चाहिए थे. पर दिवाकर नौकरी नहीं छुड़वाना चाहता था. वह हमेशा दूसरों के जीवन को इंगित करता रहता था, ‘देखो, वह कैसे रहता है, उन के पास अपना खुद का घर है. बस, तुम 2-4 वर्ष और नौकरी कर लो. बाद में छोड़ देना.’
श्रुति का बौस उस के काम से बहुत खुश था. उस को प्रमोशन जल्दीजल्दी मिल गए. नहीं चाहते हुए भी दिवाकर के कहने पर उसे अपने बौस को खाने पर बुलाना पड़ा. जिस दिन बौस को आना था, उस से एक दिन पहले ही दिवाकर ने पूरा मैन्यू तैयार किया, अपने हाथों से डाइनिंग टेबल सजा दी, खाना बनाने में उस की पूरी मदद की जबकि वह बिलकुल भी खुश न थी.
श्रुति चाह कर भी दिवाकर को नहीं समझा सकी कि औफिस का काम औफिस तक ही सीमित रखना चाहिए और जब वह अच्छाखासा कमा लेता है और उसे भी वाजिब प्रमोशन मिल ही रहे हैं तो उसे नौकरी में इतना मत घसीटो कि औफिस को और समय देना पड़े और वह इस से इतना उकता जाए कि उस की इजाजत के बिना छोड़ बैठे.
उस दिन जब बौस खाने पर आए तो दिवाकर ने खूब मेहमाननवाजी की. उस ने उन को बातोंबातों में बोल दिया कि यदि श्रुति को अतिरिक्त काम करना पड़ा तो उस को कभी एतराज नहीं होगा. दिवाकर की रुपयों की भूख बढ़ती जा रही थी. पूरा वेतन दिवाकर के हाथों में जाता था. वह अपने मनमुताबिक खर्च करता था. सारा हिसाब वही रखता था. फ्लैट की किस्त, इंश्योरैंस पौलिसी, गाडि़यों की किस्त, मैडिक्लेम सभी कुछ उस के अनुसार होता था. घर में करीबकरीब सभी सामान इकट्ठा कर लिया था. टीवी, फ्रिज, वाश्ंिग मशीन, कंप्यूटर, छोटेबड़े बिजली के सारे उपकरण, क्रौकरी आदि सबकुछ था. ऐसा कुछ भी तो नहीं था जिस की जरूरत हो और वह पास नहीं हो.
नौकरी करतेकरते वह थक चुकी थी पर जब दिवाकर ने बौस के सामने औफिस के समय के बाद अतिरिक्त काम करने का प्रस्ताव रखा तो उस के सब्र का बांध टूट गया. उस का मन कर रहा था उसी समय नौकरी से इस्तीफा दे दे. वह उस को कैसे समझाए कि वह भागतेभागते थक चुकी है. अपनी गृहस्थी बढ़ाना चाहती है. मां बनना चाहती है. पर वह उस की भावनाओं को समझ कर भी नजरअंदाज कर रहा था. घर में क्लेश होने के डर से वह सबकुछ सहने को मजबूर थी. बहरहाल, बौस बहुत खुश हो कर गए.
पता नहीं उस दिन श्रुति का क्या मन किया कि वह 7 दिन की छुट्टी ले कर घर बैठ गई. दिवाकर बहुत नाराज हुआ क्योंकि 7 दिन का वेतन जो कट रहा था. श्रुति को इस बात की कोई चिंता नहीं थी. घर में रह कर घर का काम करने में उसे बहुत आनंद आ रहा था.
सप्ताह बाद वह फिर से अपने रुटीन में आ गई. दिवाकर बौस से मिलने के बाद अकसर उन से फोन पर बात करता रहता था जो उसे बिलकुल पसंद नहीं था. वह उस के बौस से घनिष्ठता बढ़ाने की कोशिश में लगा हुआ था पर वह हालात की नजाकत को देख कर चुप रहने में ही अपनी भलाई समझ रही थी.
अगले दिन ही मम्मीपापा और भैया उस के घर आ पहुंचे. उन के बहुत समझाने पर वह दिवाकर की मम्मी के तेरहवीं पर जाने को तैयार हुई थी. हालांकि उसे अपने सासससुर से कभी कोई शिकायत नहीं रही. वे लोग एक ही शहर में रहे थे. शुरू में साथ ही थे पर दिवाकर ने प्रौपर्टी बनाने के लिए अलग फ्लैट खरीदा था. मम्मीपापा आते रहते थे. धीरेधीरे उन को दिवाकर और श्रुति के बीच विचारों का जो मतभेद था उस का एहसास हो गया था. उन्होंने दिवाकर को समझाने की बहुत कोशिश की पर उस पर किसी की बात का कोई असर नहीं हुआ. उन्होंने उन दोनों के उन के हाल पर छोड़ दिया.
ट्रेन के रुकते ही उस की विचारतंद्रा भंग हुई. वह अपने मम्मीपापा और भैया के साथ स्टेशन से बाहर आ गई. अब उस शहर में पहुंचते ही उस को लग रहा था वह एकदम अनजान शहर में आ गई है जबकि यहां उस ने अपनी जिंदगी के पूरे 10 वर्ष बिताए थे. ससुराल के घर पहुंच कर घंटी बजाने पर जिस व्यक्ति ने दरवाजा खोला उसे देख कर वह घबरा गई. आधे काले, आधे सफेद बाल, दाढ़ी बढ़ी हुई, आंखों पर चश्मा…उस ने ध्यान से देखा, पैरों में जूतों की जगह गंदी चप्पल. क्या यह वही दिवाकर है? वह ऐसा हो गया? उस को देख कर तो नहीं लगता कि वह कभी वैभवपूर्ण जिंदगी जी रहा था. उस का वैभवहीन व्यक्तित्व देख कर वह हैरान हो गई.
पीछे दिवाकर की बड़ी बहन सीमा दीदी खड़ी थीं. श्रुति ने उन के पैर छुए. वे उस को गले लगा कर बुरी तरह रोने लगीं पर उसे रोना नहीं आ रहा था. कुछ देर वे अपना मन हलका कर वहां से हटीं और उसे दिवाकर के पापा के पास ले गईं. उस ने उन के पैर छुए. उन्होंने आशीर्वाद दिया. बस, इतना ही पूछा, ‘‘कैसी हो, बेटी?’’
श्रुति ने संक्षिप्त सा जवाब दिया, ‘‘ठीक हूं.’’
उसे वहां घुटन हो रही थी. मन ही मन डर था, दिवाकर का सामना कैसे कर पाएगी. उस की परछाईं से ही उसे अजीब सी बेचैनी होने लगती है. धीरेधीरे घर के सभी सदस्यों से मिलना हो रहा था.
उसे जेठानी दीदी कहीं नहीं दिखाई दे रही थीं. उस का मन डर गया. कहीं इन लोगों ने उन को भी उन के पीहर तो नहीं भेज दिया.
ये भी पढ़ें- ज्वालामुखी: रेनू ने कर दी थी कैसी भूल
दिवाकर के भैया दिवाकर से 1 वर्ष ही बड़े थे लेकिन उन की शादी उस के बाद हुई थी. पर किस से पूछे. यहां तो सब लोग उसे ही पराया समझ रहे हैं. वैसे वह तो है भी पराई. वह स्वयं अपने को मेहमान भी मानने के लिए तैयार न थी. हालांकि दिवाकर के अतिरिक्त उसे किसी भी सदस्य से कोई शिकायत न थी. सामने नजर पड़ी तो देखा, दिवाकर सीढि़यों से नीचे उतर रहा था. शायद उस ने श्रुति को नहीं देखा था. उस का मन हुआ, वह वहां से हट जाए पर फिर सोचा, अभी नहीं तो थोड़ी देर बाद ही सही, सामना तो होना ही है. अब जब यहां आ ही गई है, कब तक उस से बचती फिरेगी. उस ने उस को नजरअंदाज करने के लिए उस तरफ पीठ कर ली.
उसे लगा दिवाकर के कदम उस की तरफ आ रहे हैं लेकिन उस ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा, केवल एहसास से अनुभव किया. कुछ ही पलों में दिवाकर उस के सामने आ गया. उसे देख कर उस की आंखों में हैरानी और पश्चात्ताप के भाव नजर आ रहे थे. उस को शायद उम्मीद ही नहीं होगी कि वह आएगी. उस की स्थिति बड़ी दयनीय हो गई थी. वह पूरी तरह से टूट चुका था.
अब तो अभिमान ही नहीं स्वाभिमान भी नहीं रहा था. उस की ऐसी दशा देख कर पलभर के लिए वह विचलित हो गई. पर एकाएक उस ने अपने को संभाल लिया. सोचने लगी, यह वही दिवाकर है जिस ने उसे हमेशा अपने ढंग से जीने को मजबूर किया. उस के व्यक्तित्व को अपनी इच्छाओं तले रौंदा, कभी जीवन जीने नहीं दिया. उस की गलती यही थी कि उस ने कभी इस से प्यार किया था, जिस की सजा भुगत रही है. पर शायद इस ने सिर्फ अपनेआप से प्यार किया. नहीं, मैं इस को कभी माफ नहीं कर सकती.
अचानक दिवाकर की आवाज से वह डर सी गई, ‘‘श्रुति, कैसी हो? चलो उधर चलते हैं.’’
नहीं चाहते हुए भी उस के कदम दिवाकर के पीछेपीछे चल दिए. वे दोनों मम्मी वाले कमरे में गए.
‘‘बैठ जाओ, श्रुति,’’ दिवाकर बोला, ‘‘तुम वापस आ जाओ, मुझे अपने द्वारा किए गए व्यवहार का बहुत दुख है. हमें माफ कर दो.’’
पर उस का दिल तो पत्थर बन चुका था. वह कुछ नहीं बोली. उस की बातों पर उस ने कुछ भी रिऐक्ट नहीं किया. उस ने पूछा, ‘‘तुम कैसी हो, कैसे जीवननिर्वाह कर रही हो?’’
उस का मन तो किया, उस को कहे कि तुम होते कौन हो यह सब पूछने वाले पर चुप रह गई. उस ने उस से जानने की कोशिश नहीं की कि वह कैसा है, क्या करता है, कहां रह रहा है.
‘‘तुम्हारे जाने के सालभर बाद मैं यहां मम्मीपापा के साथ रहने आ गया था,’’ उस ने खुद ही बताया, ‘‘वह फ्लैट सामान सहित मैं ने बेच दिया. वहां से अपनी व्यक्तिगत जरूरत की वस्तुओं के अतिरिक्त कुछ भी नहीं लाया. तुम्हारे जाने के बाद मुझे तुम्हारा महत्त्व समझ में आया. तुम्हारे बिना जिंदगी के माने कुछ नहीं रहे पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी. तुम्हारे पास आ कर माफी मांगने की हिम्मत नहीं जुटा पाया.’’
श्रुति के दिल ने कहा, ‘काश, दिवाकर उस समय तुम ऐसा कर पाते.’ श्रुति का मन दीदी के बारे में जानने को कर रहा था पर वह चुप रही. उसी समय सीमा दीदी आ गईं. दिवाकर के साथ अकेले में रहने में उसे घुटन सी हो रही थी. दीदी के आने पर राहत महसूस हुई.
ये भी पढ़ें- फर्ज: नजमा ने अपना फर्ज कैसे निभाया
‘‘तुम दोनों को पापा बुला रहे हैं,’’ उन्होंने कहा.
वे दोनों पापा के पास गए. पापा ने कहा, ‘‘दिवाकर कल रिंकू को लेने उस के होस्टल गया था. वह कल आएगी. आज उस की कोई परीक्षा थी. बहू, बड़ी बहू का देहांत हो चुका है. उस समय हम लोगों ने तुम्हें नहीं बताया, इस के लिए मैं तुम से माफी चाहता हूं. अब दिवाकर की मां भी नहीं रहीं. इसलिए रिंकू की जिम्मेदारी मैं तुम्हें सौंपता हूं. आशा है तुम इनकार नहीं करोगी. दिवाकर के साथ रहने का या नहीं रहने का फैसला तुम्हारे पर ही छोड़ता हूं.’’
आज दिवाकर की मां की मृत्यु को हुए कई दिन बीत चुके थे. तेरहवीं का कार्य सुचारु रूप से संपन्न हो गया. रिंकू भी पहुंच गई थी. रात को ही रिंकू को अपने साथ ले कर श्रुति भारी मन से वापस आ गई. वह उस से ऐसे चिपकी हुई थी जैसे कोई बच्चा डर के बाद मां की गोद से चिपक जाता है. दिवाकर श्रुति व रिंकू को छोड़ने आया था पर दोनों के बीच फासला बना रहा.
श्रुति सोच रही थी जो दिवाकर नहीं कर सका वह बेचारी जेठानी दीदी ने दुनिया से जा कर कर दिखाया. मेरी सूनी गोद भर दी. वह आ तो गई पर ससुर की वृद्धावस्था और दिवाकर के हालात ने उसे फैसला बदलने को मजबूर कर दिया. उस ने तय किया कि रिंकू को होस्टल से हटा कर उस के दादाजी व चाचा के पास रह कर पढ़ाएगी. इस छोटी सी बच्ची को अपनों से दूर रहने को मजबूर नहीं करेगी. अब अगर नौकरी करेगी तो उसी शहर में जहां बच्ची के अपने घर वाले हैं और चाची के रूप में वह उस की मां है.
सीमा को अपने मातापिता के घर में रहते हुए करीब 15 दिन हो चुके थे. इस दौरान उस का अपने पति राकेश से किसी भी तरीके का कोई संपर्क नहीं रहा था. उस शाम राकेश को अचानक घर आया देख कर वह हैरान हो गई.
‘‘बेटी, आपसी मनमुटाव को ज्यादा लंबा खींचना खतरनाक साबित हो जाता है. राकेश के साथ समझदारी से बातें करना,’’ अपनी मां की इस सलाह पर कोई प्रतिक्रिया जाहिर किए बिना सीमा ड्राइंगरूम में राकेश के सामने पहुंच गई.
‘‘तुम्हें मेरे साथ घर चलना पडे़गा, सीमा,’’ राकेश ने बिना कोई भूमिका बांधे सख्त लहजे में कहा.
‘‘तुम्हारा घर मैं छोड़ आई हूं,’’ सीमा ने भी रूखे अंदाज में अपना फैसला उसे सुना दिया.
‘‘क्या हमेशा के लिए?’’ राकेश ने उत्तेजित हो कर सवाल किया.
‘‘ऐसा ही समझ लो,’’ सीमा ने विद्रोही स्वर में जवाब दिया.
‘‘बेकार की बात मत करो. मेरी सहनशक्ति का तार टूट गया तो पछताओगी,’’ राकेश भड़क उठा.
‘‘मुझे डरानेधमकाने का अब कोई फायदा नहीं है,’’ सीमा ने निडर हो कर कहा, ‘‘अगर तुम्हें और कोई बात नहीं कहनी है तो मैं अपने कमरे में जा रही हूं.’’
ये भी पढ़ें- मुझे यकीन है : मौलाना ने लिये गुलशन के मजे
राकेश ने अपनी पत्नी को अचरज भरी निगाहों से देखा. उन की शादी को करीब 12 साल हो चुके थे. इस दौरान उस ने कभी सपने में भी कल्पना नहीं की थी कि सीमा ऐसे विद्रोही अंदाज में उस से पेश आएगी.
उठ कर खड़ी होने को तैयार सीमा को हाथ के इशारे से राकेश ने बैठने को कहा और फिर बताया कि कल सुबह मयंक और शिक्षा होस्टल से 10 दिनों की छुट्टियां बिताने घर पहुंच रहे हैं.
कुछ देर सोच में डूबी रहने के बाद सीमा ने व्याकुल स्वर में कहा, ‘‘उन दोनों को यहां मेरे पास छोड़ जाना.’’
‘‘तुम्हें पता है कि तुम क्या बकवास कर रही हो. वह दोनों यहां नहीं आएंगे,’’ राकेश गुस्से से फट पड़ा.
‘‘फिर जैसी तुम्हारी मर्जी, मैं बच्चों से कहीं बाहर मिल लिया करूंगी,’’ सीमा ने थके से अंदाज में राकेश का फैसला स्वीकार कर लिया.
‘‘यह कैसी मूर्खता भरी बात मुंह से निकाल रही हो. तुम्हारे बच्चे 4 महीने बाद घर लौट रहे हैं और तुम उन के साथ घर रहने नहीं आओगी. तुम्हारा यह फैसला सुन कर मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा है.’’
‘‘अपने बच्चों के साथ कौन मां नहीं रहना चाहेगी,’’ सीमा का अचानक गला भर आया, ‘‘मैं अपने फैसले से मजबूर हूं. मुझे उस घर में लौटना ही नहीं है.’’
‘‘हम अपने झगडे़ बाद में निबटा लेंगे, सीमा. फिलहाल तो बच्चों के मन की सुखशांति के लिए घर चलो. तुम्हें घर में न पाने का सदमा वे दोनों कैसे बरदाश्त करेंगे? अब वे दोनों बहुत छोटे बच्चे नहीं रहे हैं. मयंक 10 साल का और शिखा 8 साल की हो रही है. उन दोनों को बेकार ही मानसिक कष्ट पहुंचाने का फायदा क्या होगा?’’ राकेश ने चिढे़ से अंदाज में उसे समझाने का प्रयास किया.
ये भी पढ़ें- गहरी चाल: क्या थी सुनयना की चाल
‘‘एक दिन तो बच्चों को यह पता लगेगा ही कि हम दोनों अलग हो रहे हैं. यह कड़वी सचाई उन्हें इस बार ही पता लग जाने दो,’’ उदास सीमा अपनी जिद पर अड़ी रही.
‘‘ऐसा हुआ ही क्या है हमारे बीच, जो तुम यों अलग होने की बकवास कर रही हो?’’ राकेश फिर गुस्से से भर गया.
‘‘मुझे इस बारे में तुम से अब कोई बहस नहीं करनी है.’’
‘‘इस वक्त सहयोग करो मेरे साथ, सीमा.’’
सीमा ने कोई जवाब नहीं दिया. वह सिर झुकाए सोच में डूबी रही.
राकेश ने अंदर जा कर अपने सासससुर को सारा मामला समझाया. मयंक और शिखा की खुशियों की खातिर वह अपनी नाराजगी व शिकायतें भुला कर राकेश की तरफ हो गए.
सीमा पर ससुराल वापस लौटने के लिए अब अपने मातापिता का दबाव भी पड़ा. अपने बच्चों से मिलने के लिए उस का मन पहले ही तड़प रहा था. अंतत: उस ने एक शर्त के साथ राकेश की बात मान ली.
‘‘मैं तुम्हारे साथ बच्चों की मां के रूप में लौट रही हूं, पत्नी के रूप में नहीं. पतिपत्नी के टूटे रिश्ते को फिर से जोड़ने का कोई प्रयास न करने की तुम कसम खाओ, तो ही मैं वापस लौटूंगी,’’ बडे़ गंभीर हो कर सीमा ने अपनी शर्त राकेश को बता दी.
अपमान का घूंट पीते हुए राकेश को मजबूरन अपनी पत्नी की बात माननी पड़ी.
‘‘बच्चे कल आ रहे हैं, तो मैं भी कल सुबह घर पहुंच जाऊंगी,’’ अपना निर्णय सुना कर सीमा ड्राइंगरूम से उठ कर अपने कमरे में चली आई.
सीमा के व्यक्तित्व में नजर आ रहे जबरदस्त बदलाव ने उस के मातापिता व पति को ही नहीं, बल्कि उसे खुद को भी अचंभित कर दिया था.
उस रात सीमा की आंखों से नींद दूर भाग गई थी. पलंग पर करवटें बदलते हुए वह अपनी विवाहित जिंदगी की यादों में खो गई. उसे वे घटनाएं व परिस्थितियां रहरह कर याद आ रही थीं जो अंतत: राकेश व उस के दिलों के बीच गहरी खाई पैदा करने का कारण बनी थीं.
उस शाम आफिस से देर से लौटे राकेश की कमीज के पिछले हिस्से में लिपस्टिक से बना होंठों का निशान सीमा ने देखा. अपने पति को उस ने कभी बेवफा और चरित्रहीन नहीं समझा था. सचाई जानने को वह उस के पीछे पड़ गई तो राकेश अचानक गुस्से से फट पड़ा था.
‘हां, मेरी जिंदगी में एक दूसरी लड़की है,’ सीमा के दिल को गहरा जख्म देते हुए उस ने चिल्ला कर कबूल किया, ‘उस की खूबसूरती, उस का यौवन और उस का साथ मुझे वह मस्ती भरा सुख देते हैं जो तुम से मुझे कभी नहीं मिला. मैं तुम्हें छोड़ सकता हूं, उसे नहीं.’
‘मेरे सारे गुण…मेरी सेवा और समर्पण को नकार कर क्या तुम एक चरित्रहीन लड़की के लिए मुझे छोड़ने की धमकी दे रहे हो?’ राकेश के आखिरी वाक्य ने सीमा को जबरदस्त मानसिक आघात पहुंचाया था.
सीमा ने भी उस में ये सब परिवर्तन महसूस किए थे, पर उस से अलग रहने के निर्णय पर वह पूर्ववत कायम रही.
राकेश ने दोनों बच्चों को कपड़ों व अन्य जरूरी सामान की ढेर सारी खरीदारी खुशीखुशी करा कर उन का मन और ज्यादा जीत लिया.
बच्चों को उन के वापस होस्टल लौटने में जब 4 दिन रह गए तब सीमा ने राकेश से कहा, ‘‘मेरी सप्ताह भर की छुट्टियां अब खत्म हो जाएंगी. बाकी 4 दिन बच्चे नानानानी के पास रहें, तो बेहतर होगा.’’
‘‘बच्चे वहां जाएंगे, तो मैं उन से कम मिल पाऊंगा,’’ राकेश का स्वर एकाएक उदास हो गया.
‘‘बच्चों को कभी मुझ से और कभी तुम से दूर रहने की आदत पड़ ही जानी चाहिए,’’ सीमा ने भावहीन लहजे में जवाब दिया.
राकेश कुछ प्रतिक्रिया जाहिर करना चाहता था, पर अंतत: धीमी आवाज में उस ने इतना भर कहा, ‘‘तुम अपने घर बच्चों के साथ चली जाओ. उन का सामान भी ले जाना. वे वहीं से वापस चले जाएंगे.’’
नानानानी के घर मयंक और शिखा की खूब खातिर हुई. वे दोनों वहां बहुत खुश थे, पर अपने पापा को वे काफी याद करते रहे. राकेश उन के बहुत जोर देने पर भी रात को साथ में नहीं रुके, यह बात दोनों को अच्छी नहीं लगी थी.
अपने मातापिता के पूछने पर सीमा ने एक बार फिर राकेश से हमेशा के लिए अलग रहने का अपना फैसला दोहरा दिया.
‘‘राकेश ने अगर अपने बारे में तुम्हें सब बताने की मूर्खता नहीं की होती, तब भी तो तुम उस के साथ रह रही होंती. तुम्हें संबंध तोड़ने के बजाय उसे उस औरत से दूर करने का प्रयास करना चाहिए,’’ सीमा की मां ने उसे समझाना चाहा.
‘‘मां, मैं ने राकेश की कई गलतियों, कमियों व दुर्व्यवहार से हमेशा समझौता किया, पर वह सब मैं पत्नी के कर्तव्यों के अंतर्गत करती थी. उन की जिंदगी में दूसरी औरत आ जाने के बाद मुझ पर अच्छी बीवी के कर्तव्यों को निभाते रहने के लिए दबाव न डालें. मुझे राकेश के साथ नहीं रहना है,’’ सीमा ने कठोर लहजे में अपना फैसला सुना दिया था.
ये भी पढ़ें- गिरफ्त : क्या सुशांत को आजाद करा पाई मनीषा
अगले दिन बच्चे अपने पापा का इंतजार करते रहे पर वह उन से मिलने नहीं आए. इस कारण वे दोनों बहुत परेशान और उदास से सोए थे. सीमा को राकेश की ऐसी बेरुखी व लापरवाही पर बहुत गुस्सा आया था.
उस ने अगले दिन आफिस से राकेश को फोन किया और क्रोधित स्वर में शिकायत की, ‘‘बच्चों को यों परेशान करने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं है. कल उन से मिलने क्यों नहीं आए?’’
‘‘एक जरूरी काम में व्यस्त था,’’ राकेश का गंभीर स्वर सीमा के कानों में पहुंचा.
‘‘मैं सब समझती हूं तुम्हारे जरूरी काम को. अपनी रखैलों से मिलने की खातिर अपने बच्चों का दिल दुखाना ठीक नहीं है. आज तो आओगे न?’’
‘‘अपनी रखैल से मिलने सचमुच आज मुझे नहीं जाना है, इसलिए बंदा तुम सब से मिलने जरूर हाजिर होगा,’’ राकेश की हंसी सीमा को बहुत बुरी लगी, तो उस ने जलभुन कर फोन काट दिया.
राकेश शाम को सब से मशहूर दुकान की रसमलाई ले कर आया. यह सीमा की सब से ज्यादा पसंदीदा मिठाई थी. वह नाराजगी की परवा न कर उस के साथ हंसीमजाक व छेड़छाड़ करने लगा. बच्चों की उपस्थिति के कारण वह उसे डांटडपट नहीं सकी.
राकेश दोनों बच्चों को बाजार घुमा कर लाया. फिर सब ने एकसाथ खाना खाया. सीमा को छोड़ कर सभी का मूड बहुत अच्छा बना रहा.
बच्चों को सोने के लिए भेजने के बाद वह राकेश से उलझने को तैयार थी पर उस ने पहले से हाथ जोड़ कर उस से मुसकराते हुए कहा, ‘‘अपने अंदर के ज्वालामुखी को कुछ देर और शांत रख कर जरा मेरी बात सुन लो, डियर.’’
‘‘डोंट काल मी डियर,’’ सीमा चिढ़ उठी.
‘‘यहां बैठो, प्लीज,’’ राकेश ने बडे़ अधिकार से सीमा को अपनी बगल में बिठा लिया तो वह ऐसी हैरान हुई कि गुस्सा करना ही भूल गई.
‘‘मैं ने कल पुरानी नौकरी छोड़ कर आज से नई नौकरी शुरू कर दी है. कल शाम मैं ने अपनी ‘रखैल’ से पूरी तरह से संबंध तोड़ लिया है और अपने अतीत के गलत व्यवहार के लिए मैं तुम से माफी मांगता हूं,’’ राकेश का स्वर भावुक था, उस ने एक बार फिर सीमा के सामने हाथ जोड़ दिए.
‘‘मुझे तुम्हारे ऊपर अब कभी विश्वास नहीं होगा. इसलिए इस विषय पर बातें कर के न खुद परेशान हो न मुझे तंग करो,’’ न चाहते हुए भी सीमा का गला भर आया.
‘‘अपने दिल की बात मुझे कह लेने दो, सीमा, सब तुम्हारी प्रशंसा करते हैं, पर मैं ने सदा तुम में कमियां ढूंढ़ कर तुम्हें गिराने व नीचा दिखाने की कोशिश की, क्योंकि शुरू से ही मैं हीनभावना का शिकार बन गया था. तुम हर काम में कुशल थीं और मुझ से ज्यादा कमाती भी थीं.
‘‘मैं सचमुच एक घमंडी, बददिमाग और स्वार्थी इनसान था जो तुम्हें डरा कर अपने को बेहतर दिखाने की कोशिश करता रहा.
‘‘फिर तुम ने मेरी चरित्रहीनता के कारण मुझ से दूर होने का फैसला किया. पहले मैं ने तुम्हारी धमकी को गंभीरता से नहीं लिया, क्योंकि तुम कभी मेरे खिलाफ विद्रोह करोगी, ऐसा मैं ने सपने में भी नहीं सोचा था.
‘‘पिछले दिनों मैं ने तुम्हारी आंखों में अपने लिए जो नाराजगी व नफरत देखी, उस ने मुझे जबरदस्त सदमा पहुंचाया. सीमा, मेरी घरगृहस्थी उजड़ने की कगार पर पहुंच चुकी है, इस सचाई को सामने देख कर मेरे पांव तले की जमीन खिसक गई.
ये भी पढ़ें- Serial Story: बदलते जमाने का सच
‘‘मुझे तब एहसास हुआ कि मैं न अच्छा पति रहा हूं, न पिता. पर अब मैं बदल गया हूं. गलत राह पर मैं अब कभी नहीं चलूंगा, यह वादा दिल से कर रहा हूं. मुझे अकेला मत छोड़ो. एक अच्छा पति, पिता व इनसान बनने में मेरी मदद करो.
‘‘तुम मां होने के साथसाथ मुझ से कहीं ज्यादा समझदार व सुघड़ स्त्री हो. औरतें घर की रीढ़ होती हैं. मेरे पास लौट कर हमारी घरगृहस्थी को उजड़ने से बचा लो, प्लीज,’’ यों प्रार्थना करते हुए राकेश का गला भर आया.
‘‘मैं सोच कर जवाब दूंगी,’’ राकेश के आंसू न देखने व अपने आंसू उस की नजरों से छिपाने की खातिर सीमा ड्राइंगरूम से उठ कर बच्चों के पास चली गई.
अपने बच्चों के मायूस, सोते चेहरों को देख कर वह रो पड़ी. उस के आंसू खूब बहे और इन आंसुओं के साथ ही उस के दिल में राकेश के प्रति नाराजगी, शिकायत व गुस्से के सारे भाव बह गए.
कुछ देर बाद राकेश उस से कमरे में विदा लेने आया.
‘‘आप रात को यहीं रुक जाओ कल बच्चों को जाना है,’’ सीमा ने धीमे, कोमल स्वर में उसे निमंत्रण दिया.
राकेश ने सीमा की आंखों में झांका, उन में अपने लिए प्रेम के भाव पढ़ कर उस का चेहरा खिल उठा. उस ने बांहें फैलाईं तो लजाती सीमा उस की छाती से लग गई.
‘उस लड़की के लिए न कोई अपशब्द कभी मेरे सामने निकालना और न उसे छोड़ने की बात करना. तुम अपनी घरगृहस्थी और बच्चों में खुश रहो और मुझे भी खुशी से जीने दो,’ कहते हुए बड़ी बेरुखी दिखाता राकेश बाथरूम में घुस गया था.
वह रात सीमा ने ड्राइंगरूम में पडे़ दीवान पर आंसू बहाते हुए काटी थी. उस के दिलोदिमाग में विद्रोह के बीज को इन्हीं आंसुओं ने अंकुरित होने की ताकत दी थी.
उस रात सीमा ने अपने दब्बूपन व कायरता को याद कर के भी आंसू बहाए थे.
राकेश शादी के बाद से ही उसे अपमानित कर नीचा दिखाता आया था. घर व बाहर वालों के सामने बेइज्जत कर उस का मजाक उड़ाने का वह कोई मौका शायद ही चूकता था.
सीमा के सुंदर नैननक्श की तारीफ नहीं बल्कि उस के सांवले रंग का रोना वह अकसर जानपहचान वालों के सामने रोता.
घर की देखभाल में जरा सी कमी रह जाती तो उसे सीमा को डांटनेडपटने का मौका मिल जाता. उस का कोई काम मन मुताबिक न होता तो वह उसे बेइज्जत जरूर करता.
बच्चों के बडे़ होने के साथ सीमा की जिम्मेदारियां भी बढ़ी थीं. 2 साल पहले सास के निधन के बाद तो वह बिलकुल अकेली पड़ गई थी. उन के न रहने से सीमा का सब से बड़ा सहारा टूट गया था.
ये भी पढ़ें- Short Story: इनसान बना दिया
राकेश के गुस्से से बच्चे डरेसहमे से रहते. उस के गलत व्यवहार को देख सारे रिश्तेदार, परिचित और दोस्त उसे एक स्वार्थी, ईर्ष्यालु व गुस्सैल इनसान बताते.
सीमा मन ही मन कभीकभी बहुत दुखी व परेशान हो जाती पर कभी किसी बाहरी व्यक्ति के मुंह से राकेश की बुराई सुनना उसे स्वीकार न था.
‘वह दिल के बहुत अच्छे हैं…मुझे बहुत प्यार करते हैं और बच्चों में तो उन की जान बसती है. मैं बहुत खुश हूं उन के साथ,’ सीमा सब से यह कहती भी थी और अपने मन की गहराइयों में इस विश्वास की जड़ें खुद भी मजबूत करती रहती थी.
घर में डरेसहमे से रह रहे मयंक व शिखा के व्यक्तित्व के समुचित विकास को ध्यान में रखते हुए वह उन्हें पिछले साल होस्टल में डालने को तैयार हो गई थी.
ये भी पढ़ें- हवस की मारी : रेशमा और विजय की कहानी
उन की पढ़ाई व घर का ज्यादातर खर्चा वह अपनी तनख्वाह से चलाती थी. राकेश करीब 1 साल से घरखर्च के लिए ज्यादा रुपए नहीं देता था. यह सीमा को उस रात ही समझ में आया कि वह जरूर अपनी प्रेमिका पर जरूरत से ज्यादा खर्चा करने के कारण घर की जिम्मेदारियों से हाथ खींचने लगा है.
अगले दिन वह आफिस नहीं गई थी. घर छोड़ कर मायके जाने की सूचना उस ने राकेश को उस के आफिस जाने से पहले दे दी थी.
‘तुम जब चाहे लौट सकती हो. मैं तुम्हें कभी लेने नहीं आऊंगा, यह ध्यान रखना,’ उसे समझानेमनाने के बजाय उस ने उलटे धमकी दे डाली थी.
‘मैं इस घर में कभी नहीं लौटूंगी,’ सीमा ने अपना निर्णय उसे बताया तो राकेश मखौल उड़ाने वाले अंदाज में हंस कर घर से बाहर चला गया था.
राकेश चाहेगा तो वह उसे तलाक दे देगी, पर उस के पास अब कभी नहीं लौटेगी, सीमा की इस विद्रोही जिद को उस के मातापिता लाख कोशिश कर के भी तोड़ नहीं पाए थे.
लेकिन एक मां अपने बच्चों के मन की सुखशांति व खुशियों की खातिर अपने बेवफा पति के घर लौटने को तैयार हो गई थी.
सीमा को अगले दिन उस के मातापिता राकेश के पास ले गए. उस ने वहां पहुंचते ही पहले घर की साफसफाई की और फिर रसोई संभाल ली. अपने बेटाबेटी के लिए वह उन की मनपसंद चीजें बडे़ जोश के साथ बनाने के काम में जल्दी ही व्यस्त हो गई थी.
राकेश और उस के बीच नाममात्र की बातें हुईं. दोनों बच्चों को स्टेशन से ले कर राकेश जब 11 बजे के करीब घर लौटा, तब घर भर में एकदम से रौनक आ गई. मयंक और शिखा के साथ खेलते, हंसतेबोलते और घूमतेफिरते सीमा के लिए समय पंख लगा कर उड़ चला. दोनों बच्चे अपने स्कूल व दोस्तों की बातें करते न थकते. उन के हंसतेमुसकराते चेहरों को देख कर सीमा फूली न समाती.
जब कभी सीमा अकेली होती तो उदास मन से यह जरूर सोचती कि अपने कलेजे के टुकड़ों को कैसे बताऊंगी कि मैं ने उन के पापा को छोड़ कर अलग रहने का फैसला कर लिया है. उन हालात को यह मासूम कैसे समझेंगे जिन के कारण मुझे इतना कठोर फैसला करना पड़ा है.
वह रात को बच्चों के साथ उन के कमरे में सोती. दिन भर की थकान इतनी होती कि लेटते ही गहरी नींद आ जाती और मन को परेशान या दुखी करने वाली बातें सोचने का समय ही नहीं मिलता.
राकेश इन तीनों की उपस्थिति में अधिकतर चुप रह कर इन की बातें सुनता. उस में आए बदलाव को सब से पहले मयंक ने पकड़ा.
‘‘मम्मी, पापा बहुत बदलेबदले लग रहे हैं इस बार,’’ मयंक ने घर आने के तीसरे दिन दोपहर में सीमा के सामने अपनी बात कही.
‘‘वह कैसे?’’ सीमा की आंखों में उत्सुकता के भाव जागे.
‘‘वह पहले की तरह हमें हर बात पर डांटतेधमकाते नहीं हैं.’’
‘‘और मम्मी आप से भी लड़ना बंद कर दिया है पापा ने,’’ शिखा ने भी अपनी राय बताई.
‘‘मुझे तो इस बार पापा बहुत अच्छे लग रहे हैं.’’
‘‘मुझे भी बहुत प्यारे लग रहे हैं,’’ शिखा ने भी भाई के सुर में सुर मिलाया.
अपने बच्चों की बातें सुन कर सीमा मुसकराई भी और उस की आंखों में आंसू भी छलक आए. राकेश की बेवफाई को याद कर उस के दिल में एक बार नाराजगी, दुख व अफसोस से मिश्रित पीड़ा की तेज लहर उठी. जल्दी ही मन को संयत कर वह बच्चों के साथ विषय बदल कर इधरउधर की बातें करने लगी.
ये भी पढ़ें- विश्वास: एक मां के भरोसे की कहानी
उस दिन शाम को राकेश बैडमिंटन खेलने के 4 रैकिट और शटलकौक खरीद लाया. दोनों बच्चे खुशी से उछल पड़े. उन की जिद के आगे झुकते हुए सीमा को भी उन तीनों के साथ बैडमिंटन खेलना पड़ा. यह शायद पहला अवसर था जब राकेश के साथ उस ने किसी गतिविधि में सहज व सामान्य हो कर हिस्सा लिया था.
उस रात सीमा बच्चों के कमरे में सोने के लिए जाने लगी तो राकेश ने उसे रोकने के लिए उस का हाथ पकड़ लिया था.
‘‘नो,’’ गुस्से और नफरत से भरा सिर्फ यह एक शब्द सीमा ने मुंह से निकाला तो राकेश की इस मामले में कुछ और कहने या करने की हिम्मत ही नहीं हुई.
बच्चों का मन रखने के लिए सीमा राकेश के साथ उस के दोस्तों के घर चायनाश्ते व खाने पर गई.
राकेश के सभी दोस्तों व उन की पत्नियों ने सीमा के सामने उस के पति के अंदर आए बदलाव पर कोई न कोई अनुकूल टिप्पणी जरूर की थी. उन के हिसाब से राकेश अब ज्यादा शांत, हंसमुख व सज्जन इनसान हो गया है.