Serial Story- काश: भाग 2

रामशरण जी को अपनी सरकारी नौकरी के वे दिन याद आ गए जब उन के औफिस में आने वाला हर व्यक्ति उस महकमे के लिए शिकार समझा जाता था. जिसे काटना और आर्थिकरूप से निचोड़ना हर सरकारी कर्मचारी का प्रथम कर्तव्य था. दूसरों की क्या बातें करें, स्वयं

रामशरण जी प्रत्येक किए जाने वाले कार्य का दाम लगाया करते थे बिना यह जानेसमझे कि सामने वाला किस आर्थिक परिस्थिति का है, उस का कार्य समय पर न किए जाने की दशा में उस का कितना नुकसान हो सकता है.

सरकार की तरफ से मिलने वाला वेतन तो उन के लिए औफिस बेअरिंग चार्जेज जैसा ही था. बाकी जिस को जैसा कार्य करवाना हो उस के अनुसार भुगतान करना आवश्यक होता था.

रामशरण जी के औफिस का अपना नियम था- ‘देदे कर अपना काम करवाएं, न दे कर अपनी बेइज्जती करवाएं.’ और इसी नारे वाले सिद्धांत के तहत काम कर के उन्होंने वसूले गए पैसों से शहर में 5 आलीशान प्रौपर्टीज बना रखी हैं जिन का किराया ही लाखों रुपए में आता है और मिलने वाली पैंशन ज्यों की त्यों बैंक में जमा रहती है.

‘शाबाश बेटा. अपने सिद्धांतों पर सदा कायम रहो,’ रामशरण जी के मुंह से अचानक ही आशीर्वचन फूट पड़े. लेकिन मन ही मन कह रहे थे शादी होने के बाद बढ़ती जरूरतों के आगे सब सिद्धांत धरे के धरे रह जाएंगे.

टीटीई अगले कोच में चला गया और रामशरण जी अपनी बर्थ पर सो गए.

सुबह करीब 10 बजे रामशरण जी अपने गंतव्य स्थल पर पहुंच गए. अभी अपनी बर्थ से उठने का उपक्रम कर ही रहे थे कि लगभग 40 साल का व्यक्ति उन के सामने आ खड़ा हुआ.

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‘सर, आप रामशरण जी हैं?’ उस व्यक्ति ने नम्रता से पूछा.

‘जी, हां, मैं रामशरण ही हूं,’ उन्होंने जवाब दिया.

‘मैं ईरिकशा का ड्राइवर रहमत खान हूं. आप को आप की कैब एट जीरो एट जीरो तक छोड़ने के लिए निर्देशित किया गया हूं,’ वह व्यक्ति बोला.

‘लेकिन मैं ने तो ऐसा कोई निर्देश नहीं दिया. खैर, बाहर तो जाना ही है, सो चलते हैं. कितने चार्जेज लेंगे आप?’ रामशरण जी ने पूछा.

‘आप जैसे बुजुर्गों के अनुभवों का लाभ उठाने और आशीर्वाद पाने के लिए यह सेवा मुफ्त है,’ रहमत खान बोला.

‘क्या बुजुर्गों का इतना सम्मान?’ रामशरण जी आश्चर्य से बोले. बोलने के साथ ही उन्हें यह भी याद आ गया कि एक बार उन के दफ्तर में एक बुजुर्ग किसी छोटे से काम के लिए आ गए थे. यद्यपि काम छोटा सा ही था और रामशरण जी चाहते तो उसे मिनटों में कर देते. लेकिन समस्या, बस, इतनी सी थी कि उसूले के पक्के उस बुजुर्ग ने ऊपर से ‘कुछ’ देने से इनकार कर दिया था. रामशरण जी ने तब उसे इतना परेशान कर दिया था कि भूख के मारे वह बूढ़ा गश खा कर गिर पड़ा था. बौस के हस्तक्षेप के बाद रामशरण जी को उस खूसट का काम मुफ्त

में करना पड़ा था.

‘जी, हां, आप तो हमारे देश कि धरोहर हैं. आप के अनुभवों से ही तो शिक्षा ग्रहण कर हमें आगे बढ़ना है,’ रहमत खान रिकशा चलाते हुए बोला, ‘लीजिए यह रही आप की टैक्सी कैब एट जीरो एट जीरो.’

‘इतनी भीड़ में से प्लेटफौर्म नंबर 5 से पार कर के यहां टैक्सी तक आना सचमुच एक दुष्कर कार्य था. आप का बहुतबहुत धन्यवाद. यह रहा आपका ईनाम,’ कहते हुए रामशरण जी ने ड्राइवर की तरफ 50 रुपए का एक नोट बढ़ा दिया.

‘जी धन्यवाद, मगर मैं इस तरह के ईनाम या बख्शिश को स्वीकार नहीं कर सकता. मैं अपनी कमाई से सुखी जीवन व्यतीत कर रह हूं. मुझे मेरी मेहनत का पर्याप्त पैसा मेरे नियोक्ता द्वारा दिया जा रहा है. वैसे भी, आप जो दे रहे हैं उसे साधारण भाषा में रिश्वत कहते है और उस का आधुनिक भारत में कोई स्थान नहीं है,’ ड्राइवर रहमत खान मुसकराते हुए बोला.

टीटीई के बाद एक छोटे से ड्राइवर की ईमानदारी ने रामशरण जी को सोचने पर विवश कर दिया. उन के लिए यह अनुभव बहुत ही शर्मिंदगीभरा था.

‘क्या यह टैक्सी एट जीरो एट जीरो भी फ्री है?’ रामशरण जी ने अचकचाते हुए रिकशा के ड्राइवर से पूछा.

‘जी, नहीं. मगर इस में आप को सिर्फ 30 फीसदी किराया ही देना होगा,’ रिकशा के ड्राइवर ने बतलाया.

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‘क्या आप ही रामशरण जी हैं?’ कैब के ड्राइवर ने टैक्सी का दरवाज़ा खोलते हुए पूछा.

‘जी, हां, मैं ही रामशरण हूं,’ जवाब में रामशरण जी ने बोला.

‘कृपया अपना आधारकार्ड दे दीजिए. उसे सिस्टम में अपडेट करना आवश्यक है,’ ड्राइवर बोला. डिटेल्स फीड होते ही कैब अपनी रफ़्तार से चल पड़ी. लगभग डेढ़ घंटे चलने के बाद कैब अपने गंतव्य स्थान पर थी. फेयर मीटर 930 रुपए का चार्ज बतला रहा था.

‘कितने पैसे हुए, भैया?’ रामशरण जी ने पूछा यद्यपि वे जानते थे कि उन्हें 30 फीसदी के हिसाब से 310 रुपए ही देना है.

‘279 रुपए, सर,’ कैब ड्राइवर कैलकुलेशन करने के बाद बोला.

‘अरे भैया, ठीक से कैलकुलेशन करो. 930 का थर्टी परसैंट 310 होता है, न कि 279. अपना नुकसान क्यों कर रहे हैं? आप को जेब से भरना पड़ेगा,’ रामशरण जी ने कहा.

‘जी, आप जैसे बाहर से आए हुए बुजुर्गों के लिए कैब कंपनी ने कुल बिल का 10 परसैंट डिस्काउंट औफर भी दिया हुआ है. सो 310 का 10 परसैंट 279 ही हुआ ना,’ कैब ड्राइवर मुसकराकर समझाता हुआ बोला.

‘अच्छा, अच्छा. यह लो 300 रुपए और बचे हुए पैसे अपने पास रख लो,’ रामशरण जी बोले.

Serial Story- काश: भाग 3

‘अरे जनाब, कमाल की बातें करते हैं आप. जिन पैसों पर मेरा हक नहीं, उन्हें कैसे ले लूं? क्या आप मेरे ईमान का इम्तिहान ले रहे हैं? कुदरत का करम है साहब हम पर. हमें अपनी मेहनत के अलावा नया पैसा भी नहीं चाहिए.’ स्पष्ट था कि कैब का ड्राइवर ज्यादा पढ़ालिखा नहीं था,

मगर फालतू पैसे लेना उसे गवारा नहीं था.

‘लीजिए साहब, यह आप के  21 रुपए. यदि पैसा देना ही है तो किसी मांगने वाले फ़कीर को दे दीजिए,’ ड्राइवर पैसे वापस करता हुआ बोला.

रामशरण जी का यह लगातार 3 विभिन्न स्तर के व्यक्तियों द्वारा किया गया अपमान था.

इतनी ईमानदारी व खुद्दारी कि बातें सुन कर रामशरण जी को ऐसा लगा मानो वे भारत में नहीं, किसी और देश में आ गए हैं. वर्ष दो हज़ार पचास (2050) का भारत इतना ईमानदार, खुद्दार. भ्रष्टाचार जैसे शब्दों से कोसों दूर. उन्हें तो यह विश्वास ही नहीं हो रहा था.

इस भारत पर रामशरण जी मन ही मन गर्व कर रहे थे. साथ ही साथ, वे अपनेआप को धिक्कार रहे थे अपने द्वारा किए गए भ्रष्टाचारों के लिए. वे सोच में पड़ गए..काश, स्वयं उन्होंने भी इन युवाओं की भांति राष्ट्रहित को व्यक्तिगत हितों के ऊपर रखा होता तो देश मीलों आगे होता.

मगर इतना बदलाव हुआ कैसे? 2020 में ही तो उन्होंने रिटायरमैंट लिया है. 70 सालों में जो देश भ्रष्टाचार को ख़त्म नहीं कर पाया था, मात्र 30 सालों में भारत इतना परिवर्तित कैसे हो गया? रामशरण जी इस बदलाव का कारण जानने के लिए अतिउत्सुक थे.

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मृतक के अंतिम संस्कार के बाद सभी लोग हौल में बैठे हुए थे. माहौल थोड़ा हलका हो गया था. अपनी उम्र के लोगों के बीच बैठे रामशरण जी ने अपने साथ घटित हुई तीनों घटनाएं सुनाईं.

‘इस में आश्चर्य की क्या बात, अंकल जी. यह तो भारतवर्ष का पुनर्निर्माण चल रहा है. अब इस युवा पीढ़ी ने ठान लिया है कि भ्रष्टाचार नाम का शब्द हमारे शब्दकोष से हटाना ही है. इस भ्रष्टाचार के कारण न सिर्फ अपनों में, बल्कि अजनबियों और अंजानों में भी हमें नीचा देखना

पड़ा है,’ पास ही बैठा एक युवक बोल पड़ा जो इन लोगों की बातें सुन रहा था.

‘मगर यह हो किस की प्रेरणा से रहा है और इस के पीछे कारण क्या हैं?’ रामशरण जी ने कुतूहल से पूछा.

‘इस के पीछे किसी व्यक्तिविशेष की प्रेरणा नहीं है. बस, सब लोग अपने आत्मबल की प्रेरणा से अपने आत्मसम्मान को बचाने के लिए यह कार्य कर रहे है. विदेशियों द्वारा दिया गया भ्रष्ट भारतीय का तमगा इस युवा पीढ़ी को नागवार और अपमानित गुजरा. शायद यही कारण है

कि यहां के लोगों ने रिश्वत, नज़राना, उपहार, ईनाम और बख्शिश जैसे नामों से मिलने वाले पैसों का बहिष्कार पूरी नम्रता के साथ कर दिया है.

‘नई शिक्षा प्रणाली का भी इस में बड़ा योगदान है. आप लोगों के समय में आप लोग हमारे पिछले शासकों की वीरता, अंगरेजों से गुलामी मुक्ति की गाथा, सभ्यता का विकास और प्रेरणाशून्य कहानियां व कविताएं पढ़ा करते थे.

‘नई शिक्षा प्रणाली में पहली कक्षा से ही यह बतलाना शुरू कर दिया जाता है कि भ्रष्टाचार क्या है. भ्रष्टाचार के प्रकार और रूप क्याक्या हैं. भ्रष्टाचार से हमारे देश को क्याक्या नुकसान हैं. इस के कारण से हम प्रगति की रफ़्तार में किस सीमा तक पिछड़ रहे हैं. भ्रष्टाचार करने के बाद पकड़े गए लोगों को दी गई कड़ी सजा का भी पूरे विस्तार से वर्णन किया गया है.

‘इन कहानियों में भ्रष्टाचारियों को मिली सामजिक प्रताड़ना का जिक्र भी किया गया है तथा यह भी सुझाया गया है कि भ्रष्टाचारियों को आजीवन सामाजिक पृथक्करण जैसी सजाएं भी दी जानी चाहिए. इस तरह की कहानियों का आज की युवा पीढ़ी के बाल मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ा है और उसी परिवर्तन को आप देख व महसूस कर रहे हैं.

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‘यही नहीं, ईश्वर क्या है? एक अनजाना, अज्ञात भय ही न? नई शिक्षा प्रणाली में भ्रष्टाचार के प्रति एक अनजाना भय पैदा करने कि सफल कोशिश भी की गई है ताकि लोग भ्रष्टाचार को दूर से ही सलाम करें,’ युवक ने एक ही सांस में अपनी पूरी बात कह दी.

‘काश, हमारे समय में भी शिक्षा प्रणाली ने इस तरह के परिवर्तन स्वीकार किए होते, तो शायद आज भारत की तसवीर भी बेदाग़ और साफ़ छवि वाली होती. हम लोग भी इस दलदल से मुक्त होते. भारत की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक स्थिति कहीं और अधिक सुदृढ़

होती,’ रामशरण जी बोल उठे.

“अजी, सुबह के 7 बज गए हैं, आज औफिस जाने का मूड नहीं है क्या?” पत्नी उन के चेहरे से कम्बल हटाती हुई बोली.

‘ओह, तो यह एक सपना था,’ रामशरण जी बुदबुदाए.

कहते हैं, सुबह का सपना सच होता है. काश, यह सपना भी सच हो जाए. काश, हमारी शिक्षा प्रणाली में इस तरह के सकारात्मक परिवर्तन आ जाएं. रही बात मेरी स्वयं की, तो मैं स्वयं किसी भी स्तर पर भ्रष्टाचार न करने और अपने काम को पूरी ईमानदारी से करने की कसम खाता हूं.

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रामशरण जी ने मन ही मन प्रण किया और एक झटके में बिस्तर से बाहर आ गए.

काश…

Serial Story- काश: भाग 1

रात के डेढ़ बज रहे थे. ट्रेन प्लेटफौर्म पर रुकी. 80-वर्षीय रामशरण जी सामने आए रिजर्वेशन कोच में चढ़ गए. उन के जाने का प्रोग्राम अचानक बना है और जाना अत्यंत जरूरी भी है. सो, वे बिना रिजर्वेशन के ही उस कोच में घुस गए थे.

उन्हें पूरा यकीन था कि अभी टीटीई आ कर उन्हें दसबीस खरीखोटी सुनाएगा और फिर जुर्माने का डर दिखला कर बिना रसीद दिए ही किसी सीट को एहसान के साथ अलौट कर देगा.

जिस कोच में रामशरण जी चढ़े थे, संयोग से उस मे उन्हें सामने वाली ही सीट खली दिखाई पड़ गई और वे उस पर जा कर बैठ गए. ट्रेन अपनी रफ़्तार से आगे बढ़ गई. अभी कुछ मिनट ही गुजरे थे कि सामने टीटीई आ कर खड़ा हो गया. टीटीई तकरीबन 27-28 साल का नवयुवक था.

‘आप अपना टिकट दिखलाएंगे, अंकल,’ टीटीई बोला.

‘जी, यह देखिए मेरा टिकट. यह सामान्य श्रेणी का है. मेरे जाने का प्रोग्राम एकदम आकस्मिक बना, इसी कारण रिजर्वेशन नहीं करवा पाया. कृपया कोई बर्थ हो तो दे दीजिए,’ रामशरण जी अनुरोध करते हुए बोले.

‘क्या मैं आप के इस आकस्मिक कारण को जान सकता हूं?’ टीटीई के स्वर में अभी भी नरमी थी और रामशरण जी इस नरमी के मर्म को अच्छे से जानते थे. इस नरमी की आड़ में तगड़े पैसे खींचने की साजिश को भी वे अच्छे से जानते थे. वे स्वयं भी किसी ज़माने में सरकारी

अधिकारी रह चुके थे, सो, इन पैतरों को भलीभांति जानते थे.

‘जी, मेरे ताऊ जी के हमउम्र पुत्र का निधन हो गया है. वह मेरे काफी करीब था. इसी समाचार के कारण मुझे तुरंत निकलना पड़ा. चूंकि वह मेरी पीढ़ी का था, इसी कारण नई पीढ़ी के लोगों से उस का संपर्क नहीं के बराबर था. हम साथ खेलेबढे हुए हैं, सो, मैं ने स्वयं जाने का निर्णय

लिया. आप मुझे जो भी बर्थ उपलब्ध हो, दे दीजिए. जैसा भी कुछ होगा, हम एडजस्ट कर लेंगे,’ रामशरण जी संकेतों के माध्यम से अपने मंतव्य को समझाते हुए बोले.

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‘इस संदर्भ में क्या आप कोई प्रमाण प्रस्तुत कर सकते हैं?’ टीटीई ने प्रश्न किया.

‘जी, यह देखिए मेरे मोबाइल पर यह व्हाट्सऐप मैसेज. यह मुझे रात को 9 बजे मिला है,’ रामशरण जी अपना मोबाइल दिखाते हुए बोले.

‘जी, ठीक है,’ मैसेज चैक करते हुए टीटीई बोला.

‘क्या कुछ संभावनाए है बर्थ मिलने की?’ रामशरण जी ने आशाभरे स्वर में पूछा.

‘जी, निश्चिततौर पर आप को बर्थ मिल जाएगी. मैं एडजस्टमैंट देख कर आता हूं,’ कह कर टीटीई अगले कोच की तरफ बढ़ गया.

रामशरण जी की घनी सफ़ेद मूछों के बीच हलकी सी मुसकराहट फ़ैल गई. उन्हें गवर्नमैंट सर्विस से रिटायर हुए 20 वर्ष से अधिक गुजर चुके हैं मगर शिकार को फांसने के तरीके अभी भी वही सदियों पुराने ही हैं. नम्रता और शिष्टाचार जिस शब्द एडजस्टमैंट के नीचे दबे हुए  उस का प्रयोग टीटीई महोदय बड़ी चालाकी से कर के निकल गए हैं.

अभी 5-6 मिनट ही गुजरे थे कि वही टीटीई सामने से आता हुआ दिखाई दिया. उस का रटारटाया उत्तर रामशरण जी जानते थे. उन्हें पता था वह कहेगा बड़ी मुश्किल से एक बर्थ का जुगाड़ हुआ है. और अलौटमैंट के नाम पर टिकट चार्जेज के अलावा 5-6 सौ या कुछ और ज्यादा रुपए मांगेगा यह एहसास दिलाते हुए कि वह गलत कोच में चढ़ने का जुरमाना उन से नहीं ले रहा है.

‘अंकल जी, आप एस वन औब्लिग ओ कोच की 4 नंबर बर्थ पर चले जाइए,’ टीटीई ने रामशरण जी के पास आ कर नम्रता से कहा.

‘एस वन औब्लिग ओ? यह कौन सा कोच है? इस तरह का कोच तो मैं पहली बार सुन रहा हूं,’ रामशरण जी कुछ अविश्वसनीयता से बोले.

‘आधा कोच बुजुर्गों के लिए आरक्षित रहता है उस कोच में, इसी कारण उस में औब्लिग ओ का प्रयोग किया गया है. ओ का मतलब ओल्ड एज से है,’ टीटीई बोला, ‘यह हिस्सा यात्रा कर रहे उन बुजुर्गों के लिए है जोकि अकेले यात्रा कर रहे हैं. परिवार या पार्टी के साथ सफर कर रहे लोगों को उस में जगह नहीं दी जाती है.’

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‘ओह, रिटायरमैंट के बाद तो मैं ने अकेले सफर कभी किया ही नहीं. इसी कारण मुझे इस संदर्भ में कुछ भी मालूम नहीं,’ रामशरण जी झेंपते हुए बोले, ‘कितनी दूर है यह कोच?’

‘यहां से 5वां कोच है. चलिए, मैं आप को छोड़ देता हूं,’ टीटीई उसी नम्र अंदाज में बोला.

‘अरे, आप क्यों तकलीफ करते हैं. मैं खुद ही धीरेधीरे चला जाऊंगा,’ रामशरण जी बोले. वे यह भी जानते थे कि टीटीई कि नम्रता का अर्थ ईद के ठीक पहले काटे जाने वाले बकरे सा ही है.

‘इस में तकलीफ कैसी? यह मेरी ड्यूटी का एक हिस्सा ही है. आप को निर्धारित बर्थ तक पहुंचा कर मुझे ख़ुशी ही होगी,’ टीटीई धीमे से बोला.

रामशरण जी आश्चर्यचकित थे. इस युवा के विनम्रतापूर्वक भ्रष्टाचार कि रूपरेखा बनाने के. वरना उन के रिटायरमैंट के समय तो ‘पार्टी’ से पैसा भी लिया जाता था तो पूरी दबंगई के साथ. वहीं ‘पार्टी’ को दोचार गालियां उपहारस्वरूप दी जाती थीं अलग से.

नए कोच में जाते समय टीटीई रास्ते में रामशरण जी के परिवार के बारे में तथा मरने वाले व्यक्ति से संबंधों के बारे में विस्तार से पूछता रहा.

‘लीजिए अंकल जी, आप की बर्थ आ गई. आप आराम से लेटिए. कोई आप को डिस्टर्ब नहीं करेगा. और हां, उतरने के बाद आप को लेने कोई स्टेशन पर आएगा क्या?’

‘जी धन्यवाद. ऐसे माहौल में मुझे नहीं लगता कि कोई रिसीव करने के लिए आ पाएगा. वैसे भी, मैं ने अपने आने की सूचना किसी को दी ही नहीं है,’ रामशरण जी बोले.

‘यदि आप चाहें तो आप के लिए टैक्सी बुक की जा सकती है,’ टीटीई ने कहा.

ओह, तो अब इन लोगों का पेट सिर्फ टिकट के ऊपरी पैसों से नहीं भरता. टैक्सी तक में अपना कमीशन फिक्स कर लिया है. लेकिन टैक्सी की तो जरूरत पड़ेगी ही. सो, क्यों न टीटीई के माध्यम से ही करवा ली जाए ताकि इस पर भी कुछ एहसान रहे. यही सब सोच कर रामशरण जी बोले, ‘जी हां, करवा दीजिए.’

‘लीजिए आप की टैक्सी भी बुक हो गई है. आप को स्टेशन से बाहर निकलते ही ग्रीन लेन में टैक्सी नंबर एट जीरो एट जीरो में बैठना है,’ टीटीई की नम्रता की भाषा अभी भी कायम थी.

‘थैंक्यू बेटा,’ कह कर रामशरण जी ने टीटीई का कंधा थपथपा दिया. उन्हें आशा थी कि अब जाते समय वह अपना मुंह फाड़ेगा.

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‘कोई बात नहीं, अंकल. इट इज अ पार्ट औफ़ माय ड्यूटी,’ कह कर टीटीई ने अपने हाथ जोड़ लिए और वंहा से जाने लगा.

‘बेटा, कितने पैसे हुए तुम्हारे?’ बढ़ी हुई धड़कन के साथ आखिरकार रामशरण जी ने ही पूछ लिया.

‘किसी तरह के कोई पैसों कि आवश्यकता नहीं है,’ टीटीई एक बार फिर हाथ जोड़ कर बोला.

‘क्या, क्यों…’ रामशरण जी ने आश्चर्य से पूछा.

‘क्योंकि जिस कोच में आप बैठे हैं इस में से 10 बर्थ आपजैसे अकेले व आकस्मिकरूप से यात्रा करने वालों के लिए आरक्षित हैं. आपने जो टिकट लिया है उस में यह सब एडजस्ट हो चुका है,’ टीटीई ने बताया.

‘क्या… मगर वह तो साधारण दर्जे का था,’ रामशरण जी बोले.

‘जी, यह योजना पिछले 2 सालों से चल रही है. आपजैसे बुजुर्गों को जिन्हें कहीं आकस्मिक कारणों से जाना पड़ता है उन्हें साधारण दर्जे के किराए में मुफ्त सुरक्षित यात्रा रेलवे द्वारा करवाई जाती है,’ टीटीई ने विवरण दिया.

‘मगर इस यात्रा के वास्तविक कारणों का निर्धारण होता कैसे है?’ रामशरण जी ने उत्सुकता से पूछा.

‘आप के कारण की जांच आप के मोबाइल मैसेज द्वारा की गई है. इसी तरह हौस्पिटल की पर्ची या अन्य कोई भी प्रामाणिक प्रमाण जो मान्य हो के द्वारा कारण का निर्धारण होता है. यहां पर यह बतलाना आवश्यक है कि यह सुविधा सिर्फ अकेले व आकस्मिक कारणों से यात्रा करने वाले बुजुर्गों के लिए ही है. परिवार या पार्टी या ग्रुप में जा रहे लोगों के लिए नहीं,’ टीटीई ने बतलाया.

‘यह तो बड़ी ख़ुशी की बात है कि सरकार बुजुर्गों को इतना महत्त्व दे रही है,’ रामशरण जी खुश होते हुए बोले, ‘मगर इस तरह से बर्थ अलौट करते समय तुम मुझ से कुछ अतिरिक्त पैसे ले सकते थे. यह कुछ गलत भी नहीं है. सेवाशुल्क लेना तो आप का अधिकार बनता है.’ यह कहते हुए रामशरण जी ने 500 रुपए का नोट टीटीई की तरफ बढ़ाया.

‘जी धन्यवाद. मैं इसे ले नहीं सकता. मैं ने अपनी तरफ से कोई अतिरिक्त सुविधा आप को नहीं दी है. आप के आशीर्वाद से सरकार की तरफ से मुझे इतनी सैलरी मिल ही जाती है कि मुझे किसी तरह की बेईमानी नहीं करनी पड़ती है,’ टीटीई हाथ जोड़ कर नम्रता से बोला.

ईद का चांद: हिना को था किसका इंतजार

Serial Story- ईद का चांद: भाग 2

अगले दिन उन की बीवी आसिया अपने बेटे नदीम का पैगाम ले कर हिना के घर जा पहुंची. घर और वर दोनों ही अच्छे थे. हिना के घर में खुशी की लहर दौड़ गई. हिना ने एक पार्टी में नदीम को देखा हुआ था. लंबाचौड़ा गबरू जवान, साथ ही शरीफ और मिलनसार. नदीम उसे पहली ही नजर में भा सा गया था. इसलिए जब आसिया ने उस की मरजी जाननी चाही तो वह सिर्फ मुसकरा कर रह गई. हिना के मांबाप जल्दी शादी नहीं करना चाहते थे. मगर दूसरे पक्ष ने इतनी जल्दी मचाई कि उन्हें उसी महीने हिना की शादी कर देनी पड़ी.

हिना दुखतकलीफ से दूर प्यार- मुहब्बत भरे माहौल में पलीबढ़ी थी और उस की ससुराल का माहौल भी कुछ ऐसा ही था. सुखसुविधाओं से भरा खातापीता घराना, बिलकुल मांबाप की तरह जान छिड़कने वाले सासससुर, सलमा और नगमा जैसी प्यारीप्यारी चाहने वाली ननदें. सलमा उस की हमउम्र थी. वे दोनों बिलकुल सहेलियों जैसी घुलमिल कर रहती थीं. उन सब से अच्छा था नदीम, बेहद प्यारा और टूट कर चाहने वाला, हिना की मामूली सी मामूली तकलीफ पर तड़प उठने वाला. हिना को लगता था कि दुनिया की तमाम खुशियां उस के दामन में सिमट आई थीं. उस ने अपनी जिंदगी के जितने सुहाने ख्वाब देखे थे, वे सब के सब पूरे हो रहे थे.

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किस तरह 3 महीने गुजर गए, उसे पता ही नहीं चला. हिना अपनी नई जिंदगी से इतनी संतुष्ट थी कि मायके को लगभग भूल सी गई थी. उस बीच वह केवल एक ही बार मायके गई थी, वह भी कुछ घंटों के लिए. मांबाप और भाईबहन के लाख रोकने पर भी वह नहीं रुकी. उसे नदीम के बिना सबकुछ फीकाफीका सा लगता था. एक दिन हिना बैठी कोई पत्रिका पढ़ रही थी कि नदीम बाहर से ही खुशी से चहकता हुआ घर में दाखिल हुआ. उस के हाथ में एक मोटा सा लिफाफा था.

‘बड़े खुश नजर आ रहे हैं. कुछ हमें भी बताएं?’ हिना ने पूछा. ‘मुबारक हो जानेमन, तुम्हारे घर में आने से बहारें आ गईं. अब तो हर रोज रोजे ईद हैं, और हर शब है शबबरात.’

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पति के मुंह से तारीफ सुन कर हिना का चेहरा शर्म से सुर्ख हो गया. वह झेंप कर बोली, ‘मगर बात क्या हुई?’ ‘मैं ने कोई साल भर पहले सऊदी अरब की एक बड़ी फर्म में मैनेजर के पद के लिए आवेदन किया था. मुझे नौकरी तो मिल गई थी, मगर कुछ कारणों से वीजा मिलने में बड़ी परेशानी हो रही थी. मैं तो उम्मीद खो चुका था, लेकिन तुम्हारे आने पर अब यह वीजा भी आ गया है.’

‘वीजा आ गया है?’ हिना की आंखें हैरत से फैल गईं. वह समझ नहीं पाई थी कि उसे खुश होना चाहिए या दुखी. ‘हां, हां, वीजा आया है और अगले ही महीने मुझे सऊदी अरब जाना है. सिर्फ 3 साल की तो बात है.’

‘आप 3 साल के लिए मुझे छोड़ कर चले जाएंगे?’ हिना ने पूछा. ‘हां, जाना तो पड़ेगा ही.’

‘मगर क्यों जाना चाहते हैं आप वहां? यहां भी तो आप की अच्छी नौकरी है. किस चीज की कमी है हमारे पास?’ ‘कमी? यहां सारी जिंदगी कमा कर भी तुम्हारे लिए न तो कार खरीद सकता हूं और न ही बंगला. सिर्फ 3 साल की तो बात है, फिर सारी जिंदगी ऐश करना.’

‘नहीं चाहिए मुझे कार. हमारे लिए स्कूटर ही काफी है. मुझे बंगला भी नहीं बनवाना है. मेरे लिए यही मकान बंगला है. बस, तुम मेरे पास रहो. मुझे छोड़ कर मत जाओ, नदीम,’ हिना वियोग की कल्पना ही से छटपटा कर सिसकने लगी. ‘पगली,’ नदीम उसे मनाने लगा. और बड़ी मिन्नतखुशामद के बाद आखिर उस ने हिना को राजी कर ही लिया.

हिना ने रोती आंखों और मुसकराते होंठों से नदीम को अलविदा किया. अब तक दिन कैसे गुजरते थे, हिना को पता ही नहीं चलता था. मगर अब एकएक पल, एकएक सदी जैसा लगता था. ‘उफ, 3 साल, कैसे कटेंगे सदियों जितने लंबे ये दिन,’ हिना सोचसोच कर बौरा जाती थी. और फिर ईद आ गई, उस की शादीशुदा जिंदगी की पहली ईद. रिवाज के मुताबिक उसे पहली ईद ससुराल में जा कर मनानी पड़ी. मगर न तो वह पहले जैसी उमंग थी, न ही खुशी. सास के आग्रह पर उस ने लाल रंग की बनारसी साड़ी पहनी जरूर. जेवर भी सारे के सारे पहने. मगर दिल था कि बुझा जा रहा था.

हिना बारबार सोचने लगती थी, ‘जब मैं दुलहन नहीं थी तो लोग मुझे ‘दुलहन’ कह कर छेड़ते थे. मगर आज जब मैं सचमुच दुलहन हूं तो कोई भी छेड़ने वाला मेरे पास नहीं. न तो हंसी- मजाक करने वाले बहनोई और न ही वह, दिल्लगी करने वाला दिलबर, जिस की मैं दुलहन हूं.’ कहते हैं वक्त अच्छा कटे या बुरा, जैसेतैसे कट ही जाता है. हिना का भी 3 साल का दौर गुजर गया. उस की शादी के बाद तीसरी ईद आ गई. उस ईद के बाद ही नदीम को आना था. हिना नदीम से मिलने की कल्पना ही से पुलकित हो उठती थी. नदीम का यह वादा था कि वह उसे ईद वाले दिन जरूर याद करेगा, चाहे और दिन याद करे या न करे. अगर ईद के दिन वह खुद नहीं आएगा तो उस का पैगाम जरूर आएगा. ससुराल वालों ने नदीम के जाने के बाद हिना को पहली बार इतना खुश देखा था. उसे खुश देख कर उन की खुशियां भी दोगुनी हो गईं.

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ईद के दिन हिना को नदीम के पैगाम का इंतजार था. इंतजार खत्म हुआ, शाम होतेहोते नदीम का तार आ गया. उस में लिखा था : ‘मैं ने आने की सारी तैयारी कर ली थी. मगर फर्म मेरे अच्छे काम से इतनी खुश है कि उस ने दूसरी बार भी मुझे ही चुना. भला ऐसे सुनहरे मौके कहां मिलते हैं. इसे यों ही गंवाना ठीक नहीं है. उम्मीद है तुम मेरे इस फैसले को खुशीखुशी कबूल करोगी. मेरी फर्म यहां से काम खत्म कर के कनाडा जा रही है. छुट्टियां ले कर कनाडा से भारत आने की कोशिश करूंगा. तुम्हें ईद की बहुतबहुत मुबारकबाद.’ -नदीम.

Serial Story- ईद का चांद: भाग 1

उस दिन रमजान की 29वीं तारीख थी. घर में अजीब सी खुशी और चहलपहल छाई हुई थी. लोगों को उम्मीद थी कि शाम को ईद का चांद जरूर आसमान में दिखाई दे जाएगा. 29 तारीख के चांद की रोजेदारों को कुछ ज्यादा ही खुशी होती है क्योंकि एक रोजा कम हो जाता है. समझ में नहीं आता, जब रोजा न रखने से इतनी खुशी होती है तो लोग रोजे रखते ही क्यों हैं? बहरहाल, उस दिन घर का हर आदमी किसी न किसी काम में उलझा हुआ था. उन सब के खिलाफ हिना सुबह ही कुरान की तिलावत कर के पिछले बरामदे की आरामकुरसी पर आ कर बैठ गई थी, थकीथकी, निढाल सी. उस के दिलदिमाग सुन्न से थे, न उन में कोई सोच थी, न ही भावना. वह खालीखाली नजरों से शून्य में ताके जा रही थी.

तभी ‘भाभी, भाभी’ पुकारती और उसे ढूंढ़ती हुई उस की ननद नगमा आ पहुंची, ‘‘तौबा भाभी, आप यहां हैं. मैं आप को पूरे घर में तलाश कर आई.’’ ‘‘क्यों, कोई खास बात है क्या?’’ हिना ने उदास सी आवाज में पूछा.

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‘‘खास बात,’’ नगमा को आश्चर्य हुआ, ‘‘क्या कह रही हैं आप? कल ईद है. कितने काम पड़े हैं. पूरे घर को सजानासंवारना है. फिर बाजार भी तो जाना है खरीदारी के लिए.’’ ‘‘नगमा, तुम्हें जो भी करना है नौकरों की मदद से कर लो और अपनी सहेली शहला के साथ खरीदारी के लिए बाजार चली जाना. मुझे यों ही तनहा मेरे हाल पर छोड़ दो, मेरी बहना.’’

‘‘भाभी?’’ नगमा रूठ सी गई. ‘‘तुम मेरी प्यारी ननद हो न,’’ हिना ने उसे फुसलाने की कोशिश की.

‘‘जाइए, हम आप से नहीं बोलते,’’ नगमा रूठ कर चली गई. हिना सोचने लगी, ‘ईद की कैसी खुशी है नगमा को. कितना जोश है उस में.’

7 साल पहले वह भी तो कुछ ऐसी ही खुशियां मनाया करती थी. तब उस की शादी नहीं हुई थी. ईद पर वह अपनी दोनों शादीशुदा बहनों को बहुत आग्रह से मायके आने को लिखती थी. दोनों बहनोई अपनी लाड़ली साली को नाराज नहीं करना चाहते थे. ईद पर वे सपरिवार जरूर आ जाते थे. हिना के भाईजान भी ईद की छुट्टी पर घर आ जाते थे. घर में एक हंगामा, एक चहलपहल रहती थी. ईद से पहले ही ईद की खुशियां मिल जाती थीं.

हिना यों तो सभी त्योहारों को बड़ी धूमधाम से मनाती थी मगर ईद की तो बात ही कुछ और होती थी. रमजान की विदाई वाले आखिरी जुम्मे से ही वह अपनी छोटी बहन हुमा के साथ मिल कर घर को संवारना शुरू कर देती थी. फरनीचर की व्यवस्था बदलती. हिना के हाथ लगते ही सबकुछ बदलाबदला और निखरानिखरा सा लगता. ड्राइंगरूम जैसे फिर से सजीव हो उठता. हिना की कोशिश होती कि ईद के रोज घर का ड्राइंगरूम अंगरेजी ढंग से सजा न हो कर, बिलकुल इसलामी अंदाज में संवरा हुआ हो. कमरे से सोफे वगैरह निकाल कर अलगअलग कोने में गद्दे लगाए जाते. उस पर रंगबिरंगे कुशनों की जगह हरेहरे मसनद रखती. एक तरफ छोटी तिपाई पर चांदी के गुलदान और इत्रदान सजाती. खिड़की के भारीभरकम परदे हटा कर नर्मनर्म रेशमी परदे डालती. अपने हाथों से तैयार किया हुआ बड़ा सा बेंत का फानूस छत से लटकाती.

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अम्मी के दहेज के सामान से पीतल का पीकदान निकाला जाता. दूसरी तरफ की छोटी तिपाई पर चांदी की ट्रे में चांदी के वर्क में लिपटे पान के बीड़े और सूखे मेवे रखे जाते.

हिना यों तो अपने कपड़ों के मामले में सादगीपसंद थी, मगर ईद के दिन अपनी पसंद और मिजाज के खिलाफ वह खूब चटकीले रंग के कपड़े पहनती. वह अम्मी के जिद करने पर इस मौके पर जेवर वगैरह भी पहन लेती. इस तरह ईद के दिन हिना बिलकुल नईनवेली दुलहन सी लगती. दोनों बहनोई उसे छेड़ने के लिए उसे ‘छोटी दुलहन, छोटी दुलहन’ कह कर संबोधित करते. वह उन्हें झूठमूठ मारने के लिए दौड़ती और वे किसी शैतान बच्चे की तरह डरेडरे उस से बचते फिरते. पूरा घर हंसी की कलियों और कहकहों के फूलों से गुलजार बन जाता. कितना रंगीन और खुशगवार माहौल होता ईद के दिन उस घर का. ऐसी ही खुशियों से खिलखिलाती एक ईद के दिन करीम साहब ने अपने दोस्त रशीद की चुलबुली और ठठाती बेटी हिना को देखा तो बस, देखते ही रह गए. उन्हें लगा कि उस नवेली कली को तो उन के आंगन में खिलना चाहिए, महकना चाहिए.

Serial Story- ईद का चांद: भाग 3

हिना की आंखों में खुशी के जगमगाते चिराग बुझ गए और दुख की गंगायमुना बहने लगी. नदीम की चिट्ठियां अकसर आती रहती थीं, जिन में वह हिना को मनाता- फुसलाता और दिलासा देता रहता था. एक चिट्ठी में नदीम ने अपने न आने का कारण बताते हुए लिखा था, ‘बेशक मैं छुट््टियां ले कर फर्म के खर्च पर साल में एक बार तो हवाई जहाज से भारत आ सकता हूं. मगर मैं ऐसा नहीं करूंगा. मैं पूरी वफादारी और निष्ठा से काम करूंगा, ताकि फर्म का विश्वासपात्र बना रहूं और ज्यादा से ज्यादा दौलत कमा सकूं. वह दौलत जिस से तुम वे खुशियां भी खरीद सको जो आज तुम्हारी नहीं हैं.’ नदीम के भेजे धन से हिना के ससुर ने नया बंगला खरीद लिया. कार भी आ गई. वे लोग पुराने घर से निकल कर नए बंगले में आ गए. हर साल घर आधुनिक सुखसुविधाओं और सजावट के सामान से भरता चला गया और हिना का दिल खुशियों और अरमानों से खाली होता गया.

वह कार, बंगले आदि को देखती तो उस का मन नफरत से भर उठता. उसे वे चीजें अपनी सौतन लगतीं. उन्होंने ही तो उस से उस के महबूब शौहर को अलग कर दिया था. उस दौरान हिना की बड़ी ननद सलमा की शादी तय हो गई थी. सलमा उस घर में थी तो उसे बड़ा सहारा मिलता था. वह उस के दर्द को समझती थी. उसे सांत्वना देती थी और कभीकभी भाई को जल्दी आने के लिए चिट््ठी लिख देती थी.

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हिना जानती थी कि उन चिट्ठियों से कुछ नहीं होने वाला था, मगर फिर भी ‘डूबते को तिनके का सहारा’ जैसी थी सलमा उस के लिए. सलमा की शादी पर भी नदीम नहीं आ सका था. भाई की याद में रोती- कलपती सलमा हिना भाभी से ढेरों दुआएं लेती हुई अपनी ससुराल रुखसत हो गई थी.

शादी के साल भर बाद ही सलमा की गोद में गोलमटोल नन्ही सी बेटी आ गई. हिना को पहली बार अपनी महरूमी का एहसास सताने लगा था. उसे लगा था कि वह एक अधूरी औरत है.

नदीम को गए छठा साल होने वाला था. अगले दिन ईद थी. अभी हिना ने नदीम के ईद वाले पैगाम का इंतजार शुरू भी नहीं किया था कि डाकिया नदीम का पत्र दे गया. हिना ने धड़कते दिल से उस पत्र को खोला और बेसब्री से पढ़ने लगी. जैसेजैसे वह पत्र पढ़ती गई, उस का चेहरा दुख से स्याह होता चला गया. इस बार हिना का साथ उस के आंसुओं ने भी नहीं दिया. अभी वह पत्र पूरा भी नहीं कर पाई थी कि अपनी सहेली शहला के साथ खरीदारी को गई नगमा लौट आई. हिना ने झट पत्र तह कर के ब्लाउज में छिपा लिया.

‘‘भाभी, भाभी,’’ नगमा बाहर ही से पुकारती हुई खुशी से चहकती आई, ‘‘भाभी, आप अभी तक यहीं बैठी हैं, मैं बाजार से भी घूम आई. देखिए तो क्या- क्या लाई हूं.’’ नगमा एकएक चीज हिना को बड़े शौक से दिखाने लगी.

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शाम को 29वां रोजा खोलने का इंतजाम छत पर किया गया. यह हर साल का नियम था, ताकि लोगों को इफतारी (रोजा खोलने के व्यंजन व पेय) छोड़ कर चांद देखने के लिए छत पर न जाना पड़े. अभी लोगों ने रोजा खोल कर रस के गिलास होंठों से लगाए ही थे कि पश्चिमी क्षितिज की तरफ देखते हुए नगमा खुशी से चीख पड़ी, ‘‘वह देखिए, ईद का चांद निकल आया.’’

सभी खानापीना भूल कर चांद देखने लगे. ईद का चांद रोजरोज कहां नजर आता है. उसे देखने का मौका तो साल में एक बार ही मिलता है. हिना ने भी दुखते दिल और भीगी आंखों से देखा. पतला और बारीक सा झिलमिल चांद उसे भी नजर आया. चांद देख कर उस के दिल में हूक सी उठी और उस का मन हुआ कि वह फूटफूट कर रो पड़े मगर वह अपने आंसू छिपाने को दौड़ कर छत से नीचे उतर आई और अपने कमरे में बंद हो गई.

उस ने आंखों से छलक आए आंसुओं को पोंछ लिया, फिर उबल आने वाले आंसुओं को जबरदस्ती पीते हुए ब्लाउज से नदीम का खत निकाल लिया और उसे पढ़ने लगी. उस की निगाहें पूरी इबारत से फिसलती हुई इन पंक्तियों पर अटक गईं : ‘‘हिना, असल में शमा सऊदी अरब में ही मुझ से टकरा गई थी. वह वहां डाक्टर की हैसियत से काम कर रही थी. हमारी मुलाकातें बढ़ती गईं. फिर ऐसा कुछ हुआ कि हम शादी पर मजबूर हो गए.

‘‘शमा के कहने पर ही मैं कनाडा आ गया. शमा और उस के मांबाप कनाडा के नागरिक हैं. अब मुझे भी यहां की नागरिकता मिल गई है और मैं शायद ही कभी भारत आऊं. वहां क्या रखा है धूल, गंदगी और गरीबी के सिवा. ‘‘तुम कहोगी तो मैं यहां से तुम्हें तलाकनामा भिजवा दूंगा. अगर तुम तलाक न लेना चाहो, जैसी तुम्हारे खानदान की रिवायत है तो मैं तुम्हें यहां से काफी दौलत भेजता रहूंगा. तुम मेरी पहली बीवी की हैसियत से उस दौलत से…’’

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हिना उस से आगे न पढ़ सकी. वह ठंडी सांस ले कर खिड़की के पास आ गई और पश्चिमी क्षितिज पर ईद के चांद को तलाशने लगी. लेकिन वह तो झलक दिखा कर गायब हो चुका था, ठीक नदीम की तरह… हिना की आंखों में बहुत देर से रुके आंसू दर्द बन कर उबले तो उबलते ही चले गए. इतने कि उन में हिना का अस्तित्व भी डूबता चला गया और उस का हर अरमान, हर सपना दर्द बन कर रह गया.

Serial Story- नई सुबह: भाग 2

मां ने बेटी के इस बदलाव को सकारात्मक ढंग से लिया. उन्होंने सोचा कि शायद अमृता उन के धार्मिक क्रियाकलापों में रुचि लेने लग गई है. उन्होंने एक दिन गुरुजी को घर बुलाया. बड़ी मुश्किल से अमृता गुरुजी से मिलने को तैयार हुई थी. गुरुजी भी अमृता से मिल कर बहुत खुश हुए. उन्हें लगा कि एक सुंदर, पढ़ीलिखी युवती अगर उन के आश्रम से जुड़ जाएगी तो उन का भला ही होगा.

गुरुजी ने अमृता के मनोविचार भांपे और उस के शुरुआती विरोध को दिल से स्वीकारा. उन्होंने स्वीकार किया कि वाकई कुछ मामलों में उन का आश्रम बेहतर नहीं है. अमृता ने जो बातें बताईं वे अब तक किसी ने कहने की हिम्मत नहीं की थी इसलिए वह उस के बहुत आभारी हैं.

अमृता ने गुरुजी से बात तो महज मां का मन रखने को की थी पर गुरुजी का मनोविज्ञान वह भांप न सकी. गुरुजी उस की हर बात का समर्थन करते रहे. अब नारी की हर बात का समर्थन यदि कोई पुरुष करता रहे तो यह तो नारी मन की स्वाभाविक दुर्बलता है कि वह खुश होती है. अमृता बहुत दिन से अपने बारे में नकारात्मक बातें सुनसुन कर परेशान थी. उस ने गुरुजी से यही उम्मीद की थी कि वह उसे सारी दुनिया का ज्ञान दे डालेंगे, लेकिन गुरुजी ने सब्र से काम लिया और उस से सारी स्थिति ही पलट गई.

गुरुजी जब भी मिलते उस की तारीफों के पुल बांधते. अमृता का नारी मन बहुत दिन से अपनी तारीफ सुनने को तरस रहा था. अब जब गुरुजी की ओर से प्रशंसा रूपी धारा बही तो वह अपनेआप को रोक नहीं  पाई और धीरेधीरे उस धारा में बहने लगी. अब वह गुरुजी की बातें सुन कर गुस्सा नहीं होती थी बल्कि उन की बहुत सी बातों का समर्थन करने लगी.

गुरुजी के बहुत आग्रह पर एक दिन वह आश्रम चली गई. आश्रम क्या था, भव्य पांचसितारा होटल को मात करता था. शांत और उदास जिंदगी में अचानक आए इस परिवर्तन ने अमृता को झंझोड़ कर रख दिया. सबकुछ स्वप्निल था. उस का मजबूत व्यक्तित्व गुरुजी की मीठीमीठी बातों में आ कर न जाने कहां बह गया. उन की बातों ने उस के सोचनेसमझने की शक्ति ही जैसे छीन ली.

जब अमृता की आंखें खुलीं तो वह अपना सर्वस्व गंवा चुकी थी. गुरुजी की बड़ीबड़ी आध्यात्मिक बातें वास्तविकता की चट्टान से टकरा कर चकनाचूर हो गई थीं. वह थोड़ा विचलित भी हुई, लेकिन आखिर उस ने उस परिवेश को अपनी नियति मान लिया.

उसे लगा कि वैसे भी उस का जीवन क्या है. उस ने सारी दुनिया से लड़ाई मोल ले कर नरेन से शादी कर ली पर उसे क्या मिला…एक दिन वह भी उसे छोड़ कर चला गया और दे कर गया अशांति ही अशांति. नरेन के मामले में खुद गलत साबित होने से उस का विश्वास पहले ही हिल चुका था, ऊपर से रिश्तेदारों द्वारा लगातार उस की असफलता का जिक्र करने से वह घबरा गई थी. आज इस आश्रम में आ कर उसे लगा कि वह सभी अप्रिय स्थितियों से परे हो गई है.

दादा भी माधवन से शादी के लिए उस के बहुत पीछे पड़ रहे थे, वह मानती थी कि माधवन एक अच्छा युवक था, लेकिन वह भला किसी के लिए क्या कह सकती थी. नरेन को भी उस ने इतना चाहा था, परंतु क्या मिला?

दूसरी ओर उस की बड़ी बहन व दादा चाहते थे कि जो गलती हो गई सो हो गई. एक बार ऐसा होने से कोई जिंदगी खत्म नहीं हो जाती. वे चाहते थे कि अमृता के लिए कोई अच्छा सा लड़का देख कर उस की दोबारा शादी कर दें, नहीं तो वह जिंदगी भर परेशान रहेगी.

इस के लिए दादा को अधिक मेहनत भी नहीं करनी थी. उन्हीं के आफिस में माधवन अकाउंटेंट के पद पर काम कर रहा था. वह वर्षों से उसे जानते थे. उस के मांबाप जीवित नहीं थे, एक बहन थी जिस की हाल ही में शादी कर के वह निबटा था. हालांकि माधवन उन की जाति का नहीं था लेकिन बहुत ही सुशील नवयुवक था. दादा ने उसे हर परिस्थितियों में हंसते हुए ही देखा था और सब से बड़ी बात तो यह थी कि वह अमृता को बहुत चाहता था.

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शुरू से दादा के परिवार के संपर्क में रहने के कारण वह अमृता को बहुत अच्छी तरह जानता था. दादा भी इस बात से खुश थे. लेकिन इस से पहले कि वह कुछ करते अमृता ने नरेन का जिक्र कर घर में तूफान खड़ा कर दिया था.

आज जब अमृता बिलकुल अकेली थी तो खुद संन्यास के भंवर में कूद गई थी. दादा को लगता, काश, माधवन से उस की शादी हो जाती तो आज अमृता कितनी खुश होती.

अमृता का तलाक होने के बाद दादा के दिमाग में विचार आया कि एक बार माधवन से बात कर के देख लेते हैं, हो सकता है बात बन ही जाए.

वह माधवन को समीप के कैफे में ले गए. बहुत देर तक इधरउधर की बातें करते रहे फिर उन्होंने उसे अमृता के बारे में बताया. कुछ भी नहीं छिपाया.

माधवन बहुत साफ दिल का युवक था. उस ने कहा, ‘दादा, आप को मैं बहुत अच्छी तरह से जानता हूं. आप कितने अच्छे इनसान हैं. मैं भी इस दुनिया में अकेला हूं. एक बहन के अलावा मेरा है ही कौन. आप जैसे परिवार से जुड़ना मेरे लिए गौरव की बात है और जहां तक बात रही अमृता की पिछली जिंदगी की, तो भूल तो किसी से भी हो सकती है.’

माधवन की बातों से दादा का दिल भर आया. सचमुच संबंधों के लिए आपसी विश्वास कितना जरूरी है. दादा ने सोचा, अब अमृता को मनाना मुश्किल काम नहीं है लेकिन उन को क्या पता था कि पीछे क्या चल रहा है.

जैसे ही अमृता के संन्यास लेने की इच्छा का उन्हें पता चला, उन पर मानो आसमान ही गिर पड़ा. वह सारे कामकाज छोड़ कर दौड़ेदौड़े वहां पहुंच गए. वह मां से बहुत नाराज हो कर बोले, ‘मैं यह क्या सुन रहा हूं?’

‘मैं क्या करूं,’ मां बोलीं, ‘खुद गुरु महाराज की मरजी है. और वह गलत कहते भी क्या हैं… बेचारी इस लड़की को मिला भी क्या? जिस आदमी के लिए यह दिनरात खटती रही वह निकम्मा मेरी फूल जैसी बच्ची को धोखा दे कर भाग गया और उस के बाद तुम लोगों ने भी क्या किया?’

दादा गुस्से में लालपीले होते रहे और जब बस नहीं चला तो अपने घर वापस आ गए.

दूसरी ओर अमृता गुरुजी के प्रवचन के बाद जब कमरे की ओर लौट रही थी, तब एक महिला ने उस का रास्ता रोका. वह रुक गई. देखा, उस की मां की बहुत पुरानी सहेली थी.

‘अरे, मंजू मौसी आप,’ अमृता ने पूछा.

‘हां बेटा, मैं तो यहां आती भी नहीं, लेकिन तेरे कारण ही आज मैं यहां आई हूं.’

‘मेरे कारण,’ वह चौंक गई.

‘हां बेटा, तू अपनी जिंदगी खराब मत कर. यह गुरु आज तुझ से मीठीमीठी बातें कर तुझे बेवकूफ बना रहा है पर जब तेरी सुंदरता खत्म हो जाएगी व उम्र ढल जाएगी तो तुझे दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल कर बाहर फेंक देगा. मैं ने तो एक दिन तेरी मां से भी कहा था पर उन की आंखों पर तो भ्रम की पट्टी बंधी है.’

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अमृता घबरा कर बोली, ‘यह आप क्या कह रही हैं, मौसी? गुरुजी ने तो मुझे सबकुछ मान लिया है. वह तो कह रहे थे कि हम दोनों मिल कर इस दुनिया को बदल कर रख देंगे.’

मंजू मौसी रोने लगीं. ‘अरे बेटा, दुनिया तो नहीं बदलेगी, बदलोगी केवल तुम. आज तुम, कल और कोई, परसों…’

‘बसबस… पर आप इतने विश्वास के साथ कैसे कह सकती हैं?’ अमृता ने बरदाश्त न होने पर पूछा.

‘इसलिए कि मेरी बेटी कांता को यह सब सहना पड़ा था और फिर उस ने तंग आ कर आत्महत्या कर ली थी.’

Serial Story- नई सुबह: भाग 3

अमृता को लगा कि सारी दुनिया घूम रही है. एक मुकाम पर आ कर उस ने यही सोच लिया था कि अब उसे स्थायित्व मिल गया है. अब वह चैन से अपनी बाकी जिंदगी गुजार सकती है, लेकिन आज पता चला कि उस के पांवों तले की जमीन कितनी खोखली है.

उसी शाम दादा का फोन आया. दादा उसे घर बुला रहे थे. अमृता दादा की बात न टाल सकी. वह फौरन दादा के पास चली गई. दादा उसे देख कर बहुत खुश हुए. थोड़ी देर हालचाल पूछने के बाद दादा बोले, ‘ऐसा है, अमृता… यह तुम्हारा जीवन है और इस बात को मैं अच्छी तरह से जानता हूं कि अगर तुम संन्यास लेना चाहोगी तो तुम्हें कोई रोक नहीं सकता. आज गुरुजी तुम्हें इस आश्रम से जोड़ रहे हैं तो इसलिए कि तुम सुंदर और पढ़ीलिखी हो. लेकिन इन के व्यवहार, चरित्र की क्या गारंटी है. कल को जिंदगी क्या मोड़ लेती है तुम्हें क्या पता. अगर कल से गुरु का तुम्हारे प्रति व्यवहार का स्तर गिर जाता है तो फिर तुम क्या करोगी? जिंदगी में तुम्हारे पास लौटने का क्या विकल्प रहेगा? अमृता, मेरी बहन, ऐसा न हो कि जीवन ऐसी जगह जा कर खड़ा हो जाए कि तुम्हारे पास लौटने का कोई रास्ता ही न बचे. सबकुछ बरबाद होने के बाद तुम चाह के भी लौट न पाओ.’

दादा की बात सुन कर अमृता की आंखें भर आईं. ‘और हां, जहां तक बात है तुम्हारी पुरानी जिंदगी की, तो उसे एक हादसा मान कर तुम नए जीवन की शुरुआत कर सकती हो. इस जीवन में सभी तो नरेन की तरह नहीं होते…और हम खुद भी अपनी जिंदगी से सबक ले कर आगे के लिए अपनी सोच को विकसित कर सकते हैं. माधवन तुम्हें बहुत पसंद करता है. मैं ने तुम्हारे बारे में उसे सबकुछ साफसाफ बता रखा है. उसे किसी तरह की कोई परेशानी नहीं है.’

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अमृता उस रात एक पल भी नहीं सो पाई थी. मंजू मौसी व दादा की बातों ने उस के मन में हलचल मचा दी थी. एक ओर गुरुजी का फैला हुआ मनमोहक जाल था जिस की असलियत इतनी भयावह थी तो दूसरी ओर माधवन था, जिस के साथ वह नई जिंदगी शुरू कर सकती थी. वह दादा के साथ 3 साल से काम कर रहा था, दादा का सबकुछ देखा हुआ था. और सही भी है, आज नरेन ऐसा निकल गया, इस का मतलब यह तो नहीं कि सारी दुनिया के मर्द ही ऐसे होते हैं.

सही बात तो यह है कि जब वह किसी जोड़े को हंस कर बात करते देखती है तो उस के दिल में कसक पैदा हो जाती है.

फिर गुरुजी का भी क्या भरोसा… उस के मन ने उस से सवाल पूछा, आज वह उस की बातों का अंधसमर्थन क्यों करते हैं? क्या उस की सुंदरता व अकेली औरत होना तो इन बातों का कारण नहीं है? वाकई, सुंदर शरीर के अलावा उस में क्या है…जिस दिन उस की सुंदरता नहीं रही…फिर…क्या वह कांता की तरह आत्महत्या…

यह विचार आते ही अमृता पसीनापसीना हो उठी. सचमुच अभी वह क्या करने जा रही थी. अगर वह यह कदम उठा लेती तो फिर चाहे कितनी ही दुर्गति होती, क्या इस जीवन में कभी वापस आ सकती थी? उस ने निर्णय लिया कि वह अब केवल दादा की ही बात मानेगी. उसे अब इस आश्रम में नहीं रहना है. वह बस, सुबह का इंतजार करने लगी, कब सुबह हो और वह यहां से बाहर निकले.

धीरेधीरे सुबह हुई. चिडि़यों की चहचहाहट सुन कर उस की सोच को विराम लगा और वह वर्तमान में आ गई. सूरज की किरणें उजाला बन उस के जीवन में प्रवेश कर रही थीं. उस ने दादा को फोन लगाया.

‘‘दादा, मैं ने आप की बात मानने का फैसला किया है.’’

दादा खुशी से झूम कर बोले, ‘‘अमृता…मेरी बहन, मुझे विश्वास था कि तुम मेरी बात ही मानोगी. मैं तो तुम्हारे जवाब का ही इंतजार कर रहा था. मैं उस से बात करवाता हूं.’’

दादा की बात सुन कर अमृता का हृदय जोरों से धड़क उठा.

थोड़ी देर बाद…

‘‘हैलो, अमृता, मैं माधवन बोल रहा हूं. तुम्हारे इस निर्णय से हमसब बहुत खुश हैं. मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं कि तुम मेरे साथ बहुत खुश रहोगी. मैं तुम्हारा बहुत ध्यान रखूंगा, कम से कम इतना तो जरूर कि तुम कभी संन्यास लेने की नहीं सोचोगी.’’

अमृता, माधवन की बातों से शरमा गई. वह केवल इतना ही बोल सकी, ‘‘नहीं, ऐसा मैं कभी नहीं सोचूंगी,’’ और फिर धीरे से फोन रख दिया.

इस के बाद अमृता आश्रम से निकल कर ऐसे भागी जैसे उस के पीछे ज्वालामुखी का लावा हो.

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Serial Story- नई सुबह: भाग 1

अमृता को नींद नहीं आ रही थी. वह जीवन के इस मोड़ पर आ कर अपने को असहाय महसूस कर रही थी. उस ने कभी नहीं सोचा था कि ऐसे दिन भी आएंगे कि हर पल बस, दुख और तकलीफ के एहसास के अलावा सोचने के लिए और कुछ नहीं बचेगा. एक तरफ उस ने गुरुजी के मोह में आ कर संन्यास लेने का फैसला लिया था और दूसरी ओर दादा, माधवन से शादी करने को कह रहे थे. इसी उधेड़बुन में उलझी अमृता सोच रही थी.

उस के संन्यास लेने के फैसले से सभी चकित थे. बड़ी दीदी तो बहुत नाराज हुईं, ‘यह क्या अमृता, तू और संन्यास. तू तो खुद इन पाखंडी बाबाओं के खिलाफ थी और जब अम्मां के गुरुभाई आ कर धर्म और मूल्यों की बात कर रहे थे तो तू ने कितनी बहस कर के उन्हें चुप करा दिया था. एक बार बाऊजी के साथ तू उन के आश्रम गई थी तो तू ने वहां जगहजगह होने वाले पाखंडों की कैसी धज्जियां उड़ाई थीं कि बाऊजी ने गुस्से में कितने दिन तक बात नहीं की थी और आज तू उन्हीं लोगों के बीच…’

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बड़े भाईसाहब, जिन्हें वह दादा बोलती थी, हतप्रभ हो कर बोले थे, ‘माना कि अमृता, तू ने बहुत तकलीफें झेली हैं पर इस का मतलब यह तो नहीं कि तू अपने को गड्ढे में डाल दे.’

दादा भी शुरू से इन पाखंडों के बहुत खिलाफ थे. वह मां के लाख कहने के बाद भी कभी आश्रम नहीं गए थे.

सभी लोग अमृता को बहुत चाहते थे लेकिन उस में एक बड़ा अवगुण था, उस का तेज स्वभाव. वह अपने फैसले खुद लेती थी. यदि और कोई विरोध करता तो वह बदतमीजी करने से भी नहीं चूकती थी. इसलिए जब भी कोई उस से एक बार बहस करता तो जवाब में मिले रूखेपन से दोबारा साहस नहीं करता था.

अब शादी को ही लें. नरेन से शादी करने के उस के फैसले का सभी ने बहुत विरोध किया क्योंकि पूरा परिवार नरेन की गलत आदतों के बारे में जानता था पर अमृता ने किसी की नहीं सुनी. नरेन ने उस से वादा किया था कि शादी के बाद वह सारी बुरी आदतें छोड़ देगा…पर ऐसा बिलकुल नहीं हुआ, बल्कि यह सोच कर कि अमृता ने अपने घर वालों का विरोध कर उस से शादी की है तो अब वह कहां जाएगी, नरेन ने उस पर मनमानी करनी शुरू कर दी थी.

शुरुआत में अमृता झुकी भी पर जब सबकुछ असहनीय हो गया तो फिर उस ने अपने को अलग कर लिया. नरेन के घर वाले भी इस शादी से नाखुश थे, सो उन्होंने नरेन को तलाक के लिए प्रेरित किया और उस की दूसरी शादी भी कर दी.

अब इस से घर के लोगों को कहने का अवसर मिल गया कि उन्होंने तो नरेन के बारे में सही कहा था लेकिन अमृता की हठ के चलते उस की यह दशा हुई है. वह तो अमृता के पक्ष में एक अच्छी बात यह थी कि वह सरकारी नौकरी करती थी इसलिए कम से कम आर्थिक रूप से उसे किसी का मुंह नहीं देखना पड़ता था.

बाबूजी की मौत के बाद मां अकेली थीं, सो वह अमृता के साथ रहने लगीं. अब अमृता का नौकरी के बाद जो भी समय बचता, वह मां के साथ ही गुजारती थी. मां के पास कोई विशेष काम तो था नहीं इसलिए आश्रम के साथ उन की गतिविधियां बढ़ती जा रही थीं. आएदिन गुरुजी के शिविर लगते थे और उन शिविरों में उन को चमत्कारी बाबा के रूप में पेश किया जाता था. लोग अपनेअपने दुख ले कर आते और गुरु बाबा सब को तसल्ली देते, प्रसाद दे कर समस्याओं को सुलझाने का दावा करते. कुछ लोगों की परेशानियां सहज, स्वाभाविक ढंग से निबट जातीं तो वह दावा करते कि बाबा की कृपा से ऐसा हो गया लेकिन यदि कुछ नहीं हो पाता तो वह कह देते कि सच्ची श्रद्धा के अभाव में भला क्या हो सकता है?

अमृता शुरू से इन चीजों की विरोधी थी. उसे कभी धर्मकर्म, पूजापाठ, साधुसंत और इन की बातें रास नहीं आई थीं पर अब बढ़ती उम्र के साथ उस के विरोध के स्वर थोड़े कमजोर पड़ गए थे. अत: मां की बातें वह निराकार भाव से सुन लेती थी.

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